विशाख (नाटक) : जयशंकर प्रसाद
Vishakh (Hindi Play) : Jaishankar Prasad
परिचय : विशाख (नाटक)
भारत के प्राचीन इतिहास की जैसी कमी है वह पाठकों से छिपी नहीं है। यद्यपि धर्म-ग्रन्थों में सूत्र-रूप से बहुत-सी गाथायें मिलती हैं किन्तु वे क्रमबद्ध और घटना-परम्परा से युक्त नहीं है। संस्कृत-साहित्य में इतिहास नाम से लब्ध-प्रतिष्ठ केवल राजतरंगिणी नामक ग्रन्थ ही उपलब्ध होता है। कल्हण पण्डित ने अपने पूर्व के कई इतिहासों का और उनके लेखकों का उल्लेख किया है पर वे अब नहीं मिलते। यह नाटक, राजतरंगिणी की एक ऐतिहासिक घटना पर अवलम्बित है जिसका समय निर्धारण करना एक कठिन और इस नाटक से स्वतन्त्र विषय होगा। फिर भी उसका कुछ दिग्दर्शन करा देना इस परिचय का एक अंग होगा।
राजतरंगिणी का क्रम-बद्ध इतिहास तृतीय-गोनार्द से प्रारम्भ होता है जिसे कि कल्हण से पहले के विद्वानों ने लिखा है। इसके पहले के बावन राजाओं का नाम नहीं मिलता, क्योंकि युधिष्ठिर के समकालीन आदि गोनर्द से काश्मीर का इतिहास क्रम-बद्ध करने के लिये इतने राजा जान-बूझ कर भुला दिये जाते है, अथवा वे कोई वास्तविक राजा थे ही नहीं, केवल समय को पूरा करने के लिए उनके अस्तित्व की कल्पना कर ली गयी है। कल्हण के पहले से विद्वानों ने इस विस्तृत समय को 2268 वर्ष रक्खा है। कल्हण ने, कल्यब्द के 652 वर्ष बीतने पर भारत-युद्ध हुआ, ऐसा मान कर, उस समय को 1266 वर्ष की संख्या में घटा दिया है। और, आदि-गोनर्द से लेकर दूसरे गोनर्द तक और लव से लेकर शनीचर तक, फिर अशोक से लेकर अभिमन्यु तक कुल 17 राजाओं की सूची उन बावन विस्मृत राजाओं में से खोज निकाली गयी है, जिसे सम्भवतः पद्ममिहिर, हेलाराज इत्यादि पण्डितों ने ताम्रशासन विजयस्तम्भ, आज्ञापत्र तथा दानपत्र इत्यादि देखकर जैसे-जैसे ठीक किया था। इनके राज्यकाल जो कि इस ग्रन्थ में निर्धारित है, कहाँ तक ठीक है इसकी समीक्षा करनी होगी।
नवाविष्कृत ऐतिहासिक युग का प्रसिद्ध सम्राट् अशोक मौर्य अब अनजाने हुए इतिहास का बनावटी राजा न रहा। इसका समय अच्छी तरह निर्धारित हो चुका है। राजतरंगिणी के मत से इसका राज्य-काल गत-कलि 1734 से आरम्भ होकर गत-कलि 1795 तक है। कलि-संवत् ई. सन् से 3101 वर्ष पहले आरम्भ होता है। 3101 में से 1734 घटा देने से प्रकट होता है कि ईसा से 1367 वर्ष पहले राजतरंगिणी के मत से अशोक हुआ। अशोक आदि दो-चार प्रसिद्ध और ऐतिहासिक राजाओं का समय 150 वर्ष उन माने हुए 1266 विस्मृत वर्ष में से निकाल कर यदि वह काल्पनिक 1100 वर्ष इस 1367 बी. सी. में से निकाल दिया जाय तो 267 बी. सी. अशोक का राज्यकाल आधुनिक ऐतिहासिकों के मत से मिलता-जुलता-सा दिखाई पड़ता है।
एक लेखक महोदय ने राजतरगिणी के अशोक को अशोक मौर्य न होने का कोई प्रमाण ने देकर केवल 1100 वर्ष का अन्तर देखकर उसे एक दूसरा अशोक मान लेना चाहा है जिसका कि कोई प्रमाण नहीं है और जब कि उसके बाद पाँच-छः राजाओं के अनन्तर कनिष्क का नाम आता है जिसे कि अब ऐतिहासिक लोग प्रसिद्ध कुशन सम्राट् मानते हैं और नागार्जुन का उसका समकालीन होना बौद्ध लोग भी स्वीकार करते है जैसा कि राजतरंगिणी में भी मिलता है, तब हम इस राजतरगिणी के 1367 बी. सी. वाले अशोक को इतिहास सिद्ध 267 बी. सी. का क्यों न मान लें। क्योंकि मेरी समझ में विस्मृत राजाओं का 1100 वर्ष का समय ही यह भ्रम डाले हुये है। इतिहास को, प्राचीन सम्पन्न करने का प्रयत्न-रूपी 1100 वर्ष का काल्पनिक समय निकाल देने से यह इतिहास क्रम से चला चलेगा। आगे भी चलकर क्षति-पूर्ति स्वरूप 100 से लेकर 300 वर्ष काल्पनिक समय राजतरंगिणी में कई जगह मिलेंगे। जैसे रणादित्य का 300 वर्ष तक राज्य करना। इसी रणादित्य के बाद विक्रमादित्य और बालादित्य का नाम आता है जिनका समय 495 और 537 बी. सी. मिलता है।
ऊपर के विवरण से निर्धारित किया गया है कि विस्मृत राजाओं का काल्पनिक काल (जैसा कि अशोक और कनिष्क का समय-मिलान करने से स्पष्ट होता है) मन-गढ़न्त सा है।
राजतरगिणी के मत से इस नाटक के प्रधान पात्र नरदेव का राज-काल वि. पू. 970 है। उसमें 57 वर्ष जोड़ देने से 1027 ई. पू. समय निकलता है। वह काल्पनिक 1100 वर्ष का काल घटा देने से यह घटना ईसा की पहली शताब्दी की प्रतीत होती है। या, इसके एक या आधी शताब्दी और पीछे की हो सकती है।
इस प्रकार यह घटना संवत् 1800 वर्ष पहले की है। उस समय की रीति-नीति का परिचय होना कठिन तो है, फिर भी जहाँ तक हो सका है उसी काल का चित्रण करने का प्रयत्न किया गया।
पात्रों में प्रेमानन्द और महापिंगल आदि दो-एक कल्पित हैं, जो मुख्य काल के विरुद्ध नहीं।
- लेखक
पात्र-परिचय : विशाख (नाटक)
नरदेव : काश्मीर का राजा
महापिंगल : राजा का सहचर
सुश्रवा : नागसरदार
विशाख : ब्राह्मण नागरिक
प्रेमानन्द : संन्यासी
सत्यशील : कानीर विहार का बौद्ध महन्।
चन्द्रलेखा : सुश्रवा की कन्या
इरावती : चन्द्रलेखा की बहिन
रमणी : सुश्रवा की बहिन
तरला : महांपिंगल की स्त्री
रानी : नरदेव की स्त्री
सरला : गायिका
नाग, भिक्षु, दौवारिक, दासी, सैनिक, प्रहरी इत्यादि।
प्रथम अंक-प्रथम दृश्य : विशाख (नाटक)
(स्थान - काश्मीर का एक कुंज, पास ही हरा-भरा खेत, शिला-खण्ड पर बैठा हुआ स्नातक विशाख)
विशाख - (आप-ही-आप) -
वरूणालय चित्त-शान्त था,
अरुणा थी पहली नयी उषा;
तरुणाब्ज अतीत था खिला,
करुणा की मकरन्द वृष्टि थी;
सुषमा वनदेवता बनी-
करती आदर थी अनन्त की,
कल कोकिल कल्पनावली,
मुद में मंगल गान गा रही,
स्मृतियाँ सब जन्म-जन्म की-
खिलती थी सुमनावली बनी;
वह कौन ? कहाँ ? न ज्ञाता था,
सुख में केवल व्यस्त चित्त था।
वह बीत गया अतीत था,
तम-सन्ध्या उसको छिपा गयी,
न भविष्य रहा समीप में-
किसको चंचल चित्त सौंप दूँ ?
शैशव ! जब से तेरा साथ छूटा तब से असन्तोष, अतृप्ति और अटूट अभिलाषाओं ने हृदय को घोंसला बना डाला। इन विहंगमों का कलरव मन को शान्त होकर थोड़ी देर भी सोने नहीं देता। यौवन सुख के लिये आता है - यह एक भारी भ्रम है। आशामय भावी सुखों के लिए इसे कठोर कर्मों का संकलन ही कहना होगा। उन्नति के लिए मैं भी पहली दौड़ लगाने चला हूँ। देखूँ, क्या अदृष्ट में है। थोड़ा विश्राम कर लूँ, फिर चलूँगा। (वृक्ष के सहारे टिक जाता है)
(चन्द्रलेखा अपनी बहिन इरावती के साथ मलिन वेश में उसी खेत में आती है, सेम की फलियाँ तोड़ती है, विशाख उसे देखता है)
विशाख - (मन में)-
ऐसा सुन्दर रूप और वेश ऐसा मलिन !
सलोने अंग पर पट हो मलिन भी रंग लाता है।
कुसुम-रज से ढँका भी हो कमल फिर भी सुहाता है।।
विधाता की लीला ! ठीक भी है, रत्न मिट्टियों में से ही निकलते हैं। स्वर्ण से जड़ी हुई। मंजूषाओं ने तो कभी एक ही रत्न उत्पन्न नहीं किया। (फिर देखकर) इनकी दरिद्रता ने इन्हें सेम की फलियों पर ही निर्वाह का आदेश किया है।
(फलियां तोड़कर वृक्षों के नीचे विश्राम करती हुई दोनों गाती हैं)
चन्द्रलेखा -
सखी री ! सुख किसको हैं कहते ?
बीत रहा है जीवन सारा केवल दुख ही सहते ।।
करुणा, कान्त कल्पना है बस; दया न पड़ी दिखायी।
निर्दय जगत, कठोर हृदय है, और कहीं चल रहते।।
सखी री ! सुख किसको हैं कहते ?
विशाख - (सामने जाकर) - देवियों! आप कौन है? क्या कृपा करके बतावेंगी कि आपका दुःख किस प्रकार बाँटा जा सकता है? सौन्दर्य में सुर-सुन्दरियों को भी लज्जित करने वाली आप लोग क्यों दुखी हैं? और, ये फलियाँ आप क्यों एकत्र कर रही है?
इरावती - (भयभीत होकर) - क्षमा कीजिए, मैं अब कभी न इधर आऊँगी। दरिद्रता ने विवश किया है इसी से आज सेम की फलियाँ, पेट भरने के लिए, अपने बूढ़े बाप की रक्षा करने के लिए, तोड़ ली हैं। यदि आज्ञा हो तो इन्हें भी रख दूँ।
(सब फलियाँ उझल देती हैं)
चन्द्रलेखा - हां निर्दय दैव !
विशाख - डरो मत, डरो मत। मैं इस कानन या क्षेत्र का स्वामी नहीं हूँ। मैं तो एक पथिक हूँ। आप लोगों का शुभ नाम क्या है, परिचय क्या है ?
इरावती - हम दोनों सुश्रवा नाग की कन्यायें है। किसी समय मेरा पिता इस रमाण्याटवी प्रदेश का स्वामी था; और तब सब तरह के सुखों ने हम लोगों के शैशव में साथ दिया था। पर हा !
विशाख-उन बीती बातों को सोच कर हृदय को दुखी न बनाओ। अपना शुभ नाम बताओ।
इरावती - मेरा नाम इरावती है और इस मेरी छोटी बहिन का नाम चन्द्रलेखा है।
विशाख - सच तो-
घने घन-बीच कुछ अवकाश में यह चन्द्रलेखा-सी।
मलिन पट में मनोहर है निकष पर हेम-रेखा-सी।
(चन्द्रलेखा लज्जित होती है और हट जाती)
इरावती - भद्र, हम लोग दारिद्रय पीड़िता हैं, फिर आप भी उपहास करके अपमानित करते हैं !
विशाख - देवी, क्षमा करना मेरा अभिप्राय ऐसा कभी नहीं था - (रुक कर) - हाँ आप लोगों की यह दशा कैसे हुई ?
इरावती - देव ! हम नागों की सारी भू-सम्पत्ति हरण करके इस क्षत्रिय राजा ने एक बौद्धमठ में दान कर दिया है !
विशाख - (स्वगत) क्यों न हो, इसी को तो आजकल धर्म कहते हैं। किसी भी प्रकार से उपार्जित धन को धर्म में व्यय करने का अधिकार ही कहाँ है। ऐसों को धर्मात्मा कहें कि दुष्टात्मा ! क्योंकि वे यह नहीं जानते कि दूसरों का गला काट कर कोई धर्मशाला, मठ या मन्दिर बना देने से ही उनका पाप नहीं घुल जाता है। अच्छा फिर -
इरावती - हम लोग तबसे अन्नहीन, दीन-दशा में, कष्टमयी स्थिति में जीवन व्यतीत कर रही हैं। इन क्षेत्रों का अन्न यदि गिरा पड़ा भी कभी बटोर ले जाती हूँ तो भी डर कर, छिपकर ।
विशाख - आप लोगों के पिता से कहाँ भेंट हो सकती है ? अभी तो मैं तक्षशिला से पढ़कर लौटा आ रहा हूँ, संसार में मेरा अभी कुछ समझा हुआ नहीं है। इसलिये व्यवहार की दृष्टि से यदि मेरा कोई प्रश्न अनुचित भी हो तो, देवियों ! क्षम्य है।
इरावती - फिर आप क्यों इस पचड़े में पड़ते हैं ?
विशाख - उपाध्याय ने यह उपदेश दिया है कि दुखी की अवश्य सहायता करनी चाहिए। इसलिये ये मेरी इच्छा है कि मेरी सेवा आप लोगों के सुख के लिये हो।
इरावती - भद्र ! आपकी बड़ी दया है। किन्तु आप इस झंझट में न पड़े।
विशाख - (स्वगत) - मैं तो कभी न पड़ता यदि संसार में पदार्पण करने की प्रतिपदा तिथि में यह चन्द्रलेखा न दिखलाई पड़ती। (प्रकट) संसार में रह कर कौन इससे अलग हो सकता है !
चन्द्रलेखा - (स्वगत) - धन्य पर-दुःख-कातरता !
इरावती - रमणकहृद पर मेरे पिता रहते हैं, वहीं आप उनसे मिल सकते हैं। (बौद्ध महन्त को आते देख) - यह महन्त बड़ा ही भयानक है। आप इससे सचेत रहियेगा। वह देखिये आ रहा है। अब हम लोग चली जायें, नहीं तो...
विशाख - घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है, आप लोग जायें। मैं अभी कुछ उससे बातचीत करूँगा।
(चन्द्रलेखा और इरावती जाती है, बौद्ध भिक्षु का प्रवेश)
महन्त - (आप-ही-आप) ऐसा खेत किसी का भी नहीं है। किन्तु हाँ, जानवरों से बढ़कर उन लोगों से इसकी रक्षा होनी चाहिए जो दो पैर के पशु है ! (गाता है।)
जीवन भर आनन्द मनावे,
खाये पीये जो कुछ पावे।
लोग कहें छोड़ो यह तृष्णा - लिपट रही है साँपिन कृष्णा,
सुखद बना संसार कुहक है, क्यों छुटकारा पावे।
जननी अपनी हाथों से जब बालक को ताड़न करती,
रोकर करुणाप्लुत हो सुत फिर माँ को उसी बुलावे।
उसी तरह से दुख पाकर भी, मानव रोकर या गाकर भी ।
संसृति को सर्वस्व मानता, इसमें ही सुख पावे।
विशाख - (सामने आकर) - महास्थविर, अभिवादन करता हूँ।
भिक्षु - धर्म-लाभ हो। किन्तु यह तो कहो, इस तरह तुम यहाँ क्यों छिपे हो ! मेरा खेत तो...
विशाख - चर नहीं गया, आप घबरायें नहीं।
भिक्षु - नहीं, नहीं; इससे हमारे-जैसे अनेक धार्मिक और निरीह व्यक्तियों का निर्वाह होता है, इसलिए इसकी रक्षा करनी उचित है।
विशाख - आपको यह भूमि किसने दी है ? आपका इस पर कैसा अधिकार है ?
भिक्षु - (क्रोध से) - तू कौन ? राजा का साला कि नाती कि घोड़ा; तुझसे मतलब?
विशाख - मैंने अच्छी तरह विचार कर लिया है कि आपको इतनी भूमि का अन्न खाकर और मोटा होने की आवश्यकता नहीं।
भिक्षु - और तुझे है ? चला जा सीधे यहाँ से, नहीं तो अभी खेत की चोरी में पकड़ा दूँगा, यह लम्बी चौड़ी बहस भूल जायेगी। अरे दौड़ो-दौड़ो !
विशाख - (एक ओर देखकर) - अरे वह देखो भेड़िया आया !
(भिक्षु घबरा कर गिर पड़ता है और विशाख चला जाता है)
भिक्षु - (इधर-उधर देखकर उठता हुआ) - धत्तेरे की ! धूर्त बड़ा दुष्ट था। चला गया, नहीं तो मारे डण्डों के मारे डण्डों के - (डण्डा पटकता) - खोपड़ी तोड़ डालता !
(सुश्रवा नाग गाता हुआ आता है - )
उठती है लहर हरी-हरी पतवार पुरानी, पवन प्रलय का, कैसा किए पछेड़ा है
उठती है लहर हरी-हरी।
निस्तब्ध जगत है, कहीं नहीं कुछ फिर भी मचा बखेड़ा है
उठती है लहर हरी-हरी
नक्षत्र नहीं हैं कुहू निशा में, बीच नदी में बेड़ा है
उठती है लहर हरी-हरी।
‘हाँ पार लगेगा घबराओं मत’ किसने यह स्वर छेड़ा है?
उठती है लहर हरी-हरी।
भिक्षु - ऐ बेड़ा बखेड़ा ! खेत मत रौंद, नहीं तो पैर तोड़ दूंगा।
सुश्रवा - नहीं महाराज, मैं तो पगडंडी से जा रहा हूँ।
भिक्षु - मुझी को अन्धा बनाता है।
सुश्रवा - हां दुर्दैव ! यह हमारे पितृ-पितामहों की भूमि थी ? उसी पर चलने में यह कदर्थना !
भिक्षु - क्या ! क्या ! क्या ! यह हमारे पितृ-पितामहों की भूमि थी ? अरे मूर्ख, भूमि किसकी हुई है ? यदि तेरे बाप-दादों की थी तो मेरे भी लकड़दादा, नकड़दादा या किसी खपड़दादा की रही होगी। क्या तू इस पर चल-फिर कर अपना अधिकार जमाना चाहता है ? निकल जा यहाँ से, चला जा - (उसे ढकेलता है, सुश्रवा गिरकर उठता है)
सुश्रवा - जब तुमको इतनी तृष्णा है तो फिर मैं तो बाल-बच्चों वाला गृहस्थ हूँ; यदि मेरे मुँह से दबी हुई आत्मश्लाघा निकल ही पड़ी तो फिर उस पर इतना क्रोध क्यों? तुम जानते हो, मैं वही सुश्रवा नाग हूँ जिसके आतंक से यह रमणक प्रदेश थर्राता था ! अभी भी तुम्हारे जैसे कीड़ों को मसल डालने के लिए इन वृद्ध बाँहों में कम बल नहीं है!
भिक्षु - (डरता हुआ भी घुड़क कर) - चुपचाप चला जा, नहीं तो कान सीधे कर दिए जायँगे।
सुश्रवा - क्या मैंने कुछ अपराध किया है जो दबकर चला जाऊँ ? ठहर जा, अभी कचूमर निकालता हूं ?- (डंडा उठाता है)
भिक्षु - (स्वगत) डण्डा तो मेरे पास भी है पर काम गले से लेना चाहिए। (प्रकट) अरे दौड़ो, यह मुझे मारता है; कोई विहार में है कि नहीं ई ई ई ? (पाँच सात युवा भिक्षु निकल पड़ते हैं और उस वृद्ध सुश्रवा को पकड़ लेते हैं। दौड़ती हुई चन्द्रलेखा आती है)
चन्द्रलेखा - मैं तो खोज रही थी, अभी ही घर से निकल पड़े है। जाने दो। क्षमा करो। मुझे मार लो। मेरे बूढ़े पिता को छोड़ दो।
(घुटने के बल बैठ जाती है)
भिक्षु - अर र, र, यह कहाँ से आ गई ! छोड़ों जी, उस बूढ़े को छोड़ दो ! जब यह स्वयं कहती है तो उसे छोड़ दो, इसे ही पकड़ लो !
(सब भिक्षु आपस में इंगित करते हुए बूढ़े को छोड़कर चन्द्रलेखा को पकड़ ले जाते हैं। महन्त भी जाता है। सुश्रवा मूर्छित होकर गिर पड़ता है)
[पट-परिवर्तन]
प्रथम अंक-द्वितीय दृश्य : विशाख (नाटक)
(स्थान-राजद्वार के समीप छोटा-सा उपवन)
(महापिंगल और विशाख)
महा. - क्यों, हमको जानते हो - हम कौन हैं ?
विशाख - क्षमा कीजियेगा, अभी तक पूरी जानकारी नहीं है। फिर भी आप मनुष्य हैं, इतना तो अवश्य कह सकूंगा।
महा. - मूर्ख, महामूर्ख; विदित होता है कि अभी तक कोरे बछड़े हो। पाठशाला का जूआ फेंक कर या तोड़-ताड़ कर भागे हो ! राजसभा के विनय-पाठ तुमको सिखाये नहीं गए क्या ? बताओ तो तुम्हारा कौन शिक्षक है, उसे अभी शिक्षा दूंगा !
विशाख - मेरे शिक्षक आपकी तरह कोई दुमदार वा उपाधिधारी जीव नहीं है। उन्हीं के यहाँ तुम्हारे ऐसे कोड़ियों पशु, राजमान्य मनुष्य बनाये जाते हैं।
महा. - मैं उन महाराज की, जिनके यहाँ बुद्धि नाटकों के स्वगत की तरह रहती हैं, आँख, नाक और कान हूँ, तुम नहीं जानते ?
विशाख - आँख, नाक और कान ? कदापि नहीं, हाँ चरण-रज हो सकते हो।
महा. - चुप रह, क्या बड़-बड़ करता है।
विशाख - धन्य ! ऐसे शब्द मुँह से निकालना आप ही को आता है। भला कहिए, बुद्धि नाटकों के स्वगत की तरह कैसी ?
महा. - जैसे नाटकों के पात्र स्वगत जो कहते हैं, वह दर्शक-समाज वा रंग-मञ्च तो सुन लेता है, पर पास का खड़ा हुआ दूसरा पात्र नहीं सुन सकता, उसको भरत बाबा की शपथ है; उसी तरह राजा की बुद्धि, देश भर का न्याय करती है, पर राजा को न्याय नहीं सिखा सकती।
विशाख - फिर आप लोगों का कैसे निर्वाह होता है ?
महा. - अरे लण्ठ ? अभी मूर्खता का क, ख, ग, घ, पढ़ रहा है ! तुझे यह पूछना चाहिए कि हमारे ऐसे दुमदारों के बिना बिचारे राजा की क्या स्थिति होती ? वे कैसे रहते? उठ-बैठ सकते कि नहीं ? उनकी समझ की ज्वाला में आहुति पड़ती कि नहीं ?
विशाख - अस्तु वस्तु, वही कहिये, वही कहिये।
महा. - महाराज को हमारे ऐसे यदि दो-चार चाटुकार सामन्त न मिलते तो उन्हें बुद्धि का अजीर्ण हो जाता - और उनकी हाँ-में-हाँ न मिलने से फिर भयानक वात की संग्रहणी हो जाती और निरीह प्रजा से अनेक विधानों से कर न मिलने के कारण उन्हें उपवास करके ही अच्छा होना पड़ता।
विशाख - (बात को दूसरे रुख पर ले जाने के लिए) - मेरा मन गाना सुनना चाहता है।
महा. - तो क्या तुमने यह कोई नाट्य-गृह समझ रखा है।
विशाख - खेद, साहित्य और संगीत तो सुयोग्य नागरिकों को ही आता है। मैंने आपके गाने की बड़ी प्रशंसा सुनी है, इसी से - हाँ।
महा. - (प्रसन्न होकर) तुम रसिक भी हो। अच्छा-अच्छा, सुनाऊँगा, ठहरो, चित्त उसके अनुकूल हो जाय - (खाँसता है)
विशाख - (अलग) - मुझे तो बच्चा, तुमसे काम निकालना है। (प्रकट) चित्त को भी स्वर के साथ मिलाना पड़ता है। संगीत क्या साधारण...
महा. - तुमने भी कैसी अच्छी संगीत-विज्ञान की बात कही है, वाद्य तो पीछे मिलता है, पहले मन तो मिले।
विशाख - मन मिलने से कण्ठ मिलता है।
महा. - यथार्थ है, क्या कहा - वाह वाह ! अच्छा गाता हूँ - (खाँसता है।)
(महापिंगल भीषण स्वर में गाता है - )
मचा है जग भर में अन्धेर।
ऊल्टा-सीधा जो कुछ समझा वहीं हो गया ढेर।
बुद्धि अन्ध के हाथों जैसे कोई लगी, बटेर,
किसी तरह से करो उड़न्छू औरों का धन ढेर।
बक-बक करके चुप कर दो बस चतुर हुये, क्या देर?
चलती है यह चला करेगी चालें इसकी घेर।
चतुर सयाने किया करेंगे इसमें हेराफेर।
मचा है जग भर में अन्धेर।
विशाख - धन्य धन्य, क्या गाया !
महा. - तुम्हारा सिर ! और क्या ? ऐसा मूर्ख तो देखा नहीं। कहाँ से यहाँ चला आया; निकल जा जहाँ से ! कोई है ?
विशाख - क्षमा हो, मुझसे अपराध क्या हुआ ? मैं तो एक क्षुद्र-जीव आपका शरणागत हूँ।
महा. - हाँ बच्चा ! अब तुम परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। बड़े लोगों का चित्त अव्यवस्थित रहता है, वह अपना भूला हुआ क्रोध कभी अचानक ध्यान कर लेने पर, इसी तरह बिगड़ बैठते हैं। उस समय उनकी बातों से इसी तरह ठण्डा करना चाहिए। अब तुमको राजा का दर्शन मिलेगा।
विशाख - (अलग) - हे भगवान, तो क्या ये आदमी भी काटने वाले कुत्तों से कम हैं ! उनको क्रोध का रोग होता है या अभिमान और गर्व दिखलाने का यह बहाना है ? (प्रकट) श्रीमन् कब ?
महा. - अच्छा फिर कभी आना। क्या राजा लोग इस तरह शीघ्र किसी से भेंट करते हैं। हाँ तुम्हारा अभीष्ट क्या है ? सो तो कहो।
विशाख - कुछ नहीं, एक सुन्दरी की कुछ करुण कथा निवेदन करनी है। उसके दुःख मोचन की प्रार्थना है।
महा. - क्या विरह-निवेदन ! तब तो महाराज से तुम्हें शीघ्र मिला दूँगा। किन्तु कुछ गड़बड़ बातें न कहना।
विशाख - श्रीमान् राज-सहचर है। बौद्ध साधु की कुकर्म-कथा राजा के कानों तक पहुँचाना मेरा अभीष्ट है, उसने एक सुन्दरी को अपने मठ में बन्द कर रखा है।
महा. - सुन्दरी और साधु का सरस प्रयोग है - साधु वर्ण विन्यास है, सु... सा...साहित्य का सुन्दर समावेश है। फिर तुम्हारे-से अरसिक उसमें गड़बड़ क्यों मचाना चाहते हैं?
विशाख - श्रीमान् ! आपके कानों ने आपकी बुद्धि को मूर्ख बनाया है। साधु ने सुन्दरी को पकड़ मंगाया है, कुछ सुन्दरी ने साधुता नहीं ग्रहण की है।
महा. - सत्य है क्या ? बौद्ध भिक्षु होकर अपने मठ में उसने स्त्री रख ली है !
विशाख - वे तो उसे मठ नहीं, विहार कहते हैं !
महा. - अच्छा चलो, तुम्हें राजा से मिलाता हूँ।
[पट-परिवर्तन]
प्रथम अंक-तृतीय दृश्य : विशाख (नाटक)
(स्थान - राज-सभा; महाराज नरदेव सिंहासनासीन हैं। नर्तकी नाचती और गाती है -)
कुञ्ज में वंशी बजती है !
स्वर में खिंचा जा रहा मन, क्यों बुद्धि बरजती है,
संध्या रागमयी, तानों का भूषण सजती है,
दौड़, चलूँ, देखूँ लज्जा अब मुझको तजती है,
कुञ्ज में वंशी बजती है !
नरदेव - वाह वाह ! कुछ और गाओ -
(नर्तकी नमस्कार करके फिर गाती है-)
आज मधु पी ले, यौवन बसन्त खिला !
शीतल निभृत प्रभात में बैठ हृदय के कुञ्ज,
कोकिल कलरव कर रहा, बरसाता सुख पुञ्ज,
देख मञ्जरित रसाल हिला?
आज मधु पीले, यौवन, वसन्त खिला?
चन्दन-वन की छाँह में, चलकर मन्द से मीर,
अब मेरा निःश्वास हो, करता किसे अधीर,
मधुप क्यों मञ्जु मुकुल से मिला?
आज मधु पी ले, यौवन वसन्त खिला!
नरदेव - प्रतीहारी ! इन्हें पुरस्कार दिलाओ।
प्रतीहारी - जो आज्ञा । (नर्तकी जाती है)
नरदेव - आज महापिंगल दिखाई नहीं देता, कहाँ है ?
सभासद - महाराज, आज उसके यहाँ प्रीति-भोज है। हम सबों का न्योता है। उसी में व्यस्त होगा।
महा. - (दौड़ा हुआ आता है) दोहाई महाराज, झूठ बिल्कुल झूठ ! यह सब हमारा घर खा डालना चाहते हैं। लम्बी-चौड़ी प्रशंसा करके, तुम्हारे नाम जो है सो, सब खा गए। और न्योता सिर पर। हम बुलायें या नहीं, ये सब आप ही नायी बनकर अपने को न्योंत लेते हैं।
सभासद - पृथ्वीनाथ ! यह बड़ा कंजूस है। नित्य कहता है कि आज खिलायेंगे, कल खिलायेंगे, कभी इसने हाथ भी न धुलाया।
महा. - कोई है जी, लाओ पानी, इनका हाथ धुला दो, तनिक मुँह तो देखो, पहले उसे धो लो ! कहीं से माल उठा, लाए हैं, जो है सो तुम्हारे नाम, खिलाओ ! खिलाओ! और जब खा-पी चुके तब बड़े भारी शास्त्री की तरह आलोचना करने लगे ! उसमें नमक विशेष था, खीर में मीठा कुछ फीका था। लड्डू गीला था ऐं ?
सभासद - वह तो जब हम लोग संध्या को पहुंचेंगे तब मालूम होगा ?
महा. - अरे बाबा, तुम्हें प्रीति-भोज ही लेना है तो उन मालदार महन्तों के यहाँ क्यों नहीं जाते, जहाँ नित्य मालपुए और लड्डू बना करते हैं। यदि कुत्ते की तरह बाहर भी बैठे रहोगे तो जूठी पत्तलों से पेट भर जाएगा।
सभासद - तुम बड़े असभ्य हो !
महा. - और यह बड़े सभ्य हैं, जो बिना बुलाए भोजन करने को प्रस्तुत हैं। जाओ-जाओ, बड़े-बड़े बिहारों में यदि तुम मिट्टी फेंकते तो भी लड्डू के लिए लालायित न रहते।
नरदेव - आज तो बौद्ध महंत और विहारों के पीछे बहुत पड़ रहे हो! कुशल तो है?
महा. - महाराज ! अब तो मैं तपस्या करूँगा कि यदि पुनर्जन्म हो, तो मैं किसी विहार का महन्त होऊँ। राज-कर से मुक्ति, अच्छी खासी जमींदारी, बड़े-बड़े लोग सिर झुकावें और चेली लोग पैर दबावें, तुम्हारे नाम जो है सो।
नरदेव - चुप मूर्ख ! भिक्षुओं के साथ हंसी ठीक नहीं, वे पूजनीय हैं।
महा. - क्षमा हो पृथ्वीनाथ, उसी झगड़े में देर हुई है। अभी उनकी साधुता का सुन्दर नमूना ड्योढ़ी पर है। यदि आज्ञा हो तो बुलाऊँ।
नरदेव - क्यों कोई आया है ?
महा. - हाँ एक दुःखी विनती सुनाने आया है।
नरदेव - उसे बुलाओ।
महा. - जो आज्ञा - (जाता है, विशाख को लेकर आता हैं)
विशाख - जय हो देव ! राज्य-श्री बढ़े ! प्रजा का कल्याण हो।
नरदेव - प्रणाम ब्राह्मण देवता - कहिए क्या काम है ?
विशाख - राजन् ! पुण्य को पाप न होने देना, आप ही से प्रबल प्रतापी नरेशों का कर्तव्य है।
नरदेव - उसका अर्थ, सविस्तार कहिए।
विशाख - कानीर विहार का बौद्ध महन्त जिसे राज्य की ओर से बहुत-सी सम्पत्ति मिली है, प्रमादी हो गया है। दीन-दुखियों की कुछ नहीं सुनता - मोटे निठल्लों को एकत्र करके विहार में बिहार कर रहा है। एक दरिद्र नाग की कन्या को अकारण पकड़ कर अपने मठ में बन्द कर रखा है। उसका वृद्ध पिता दुःखी होकर द्वार-द्वार विलाप कर रहा है।
नरदेव - क्या ? मेरे राज्य में ऐसा अन्याय और सो भी राजधानी के समीप ही ! भला वह किसकी कन्या है ?
विशाख - पृथ्वीनाथ, सुश्रवा नाग की। उसी की भूमि अपहृत करके - आपके स्वर्गीय पिता ने विहार में दान कर दिया था।
मंत्री - चुप मूर्ख, राज-सभा में तुझे बोलना नहीं आता, अपहृत कैसी ? भूमि का अधिपति तो राजा है, वह जब जिसे चाहे दे सकता है।
विशाख - क्षमा मंत्रिवर ! क्षमा ! बोलना तो आता है; परन्तु क्या राजसभा में सत्य उपेक्षित रहता है? यदि ऐसा हो, तो हम क्षम्य हैं, क्योंकि हम अभी गुरुकुल से निकले हैं, राज्य-व्यवहार से अनभिज्ञ हैं।
नरदेव - बस ब्राह्मणदेव पर्याप्त हुआ (मंत्री से) क्यों मन्त्रिवर; क्या यही प्रबन्ध राज्य का है ? खेद की बात है। अभी इस ब्राह्मण की बातों की खोज की जाय, और गुप्त रीति से। देखो आलस न हो ! हम स्वयं इसका न्याय करेंगे।
महा. - स्वामी, ये भी तो ‘ग्राम कण्टक’ हैं। इनकी अवश्य खोज लेनी चाहिए। शास्त्र में लिखा भी है ‘कण्टकेनैव कण्टक’ जो है सो।
नरदेव - चुप रहो, तुम्हारी बातें अच्छी नहीं लगतीं। मंत्री शीघ्र प्रबन्ध करो, बस जाओ।
(मंत्री और विशाख तथा महापिंगल जाते हैं)
[पट-परिवर्तन]
प्रथम अंक-चतुर्थ दृश्य : विशाख (नाटक)
(स्थान - विहार के समीप का पथ)
(एक रंगीला साधु गाता हुआ आता है)
साधु -
तू खोजता किसे, अरे आनन्दरूप है।
उस प्रेम के प्रभाव ने पागल बना दिया।
सब को ममत्त्व मोह का आसव पिला दिया।।
अपने पै आप मर रहा यह भ्रम अनूप है।।
यह सत्य यही स्वर्ग यही पुण्य-घोष है।
सत्कर्म कर्मयोग यही विश्व कोश है।।
किसने कहा कि झूठ है संसार कूप है।।
सेवा, परोपकार, प्रेम सत्य कल्पना।
इनके नियम अमोघ और झूठा जल्पना।।
हो शान्ति की सत्ता वही शक्ति-स्वरूप है।।
आसक्ति अन्य पर न किसी अन्य के लिये।
उसका ममत्व घूम रहा चेतना के लिये।
सर्वस्व उसी का वही सब का स्वरूप है।।
वह है कि नहीं है ? विचित्र प्रश्न मत करो।
इस विश्व दयासिन्धू बीच सन्तरण करो।।
वह और कुछ नहीं, विशाल विश्व-रूप है;
तू खोजता किसे अरे आनन्दरूप है।।
भिक्षु - (विहार से निकल कर) - वन्दे !
साधु - स्वस्ति ! आनन्द ! कहो जी, इस विहार का क्या नाम है और इसके स्थविर कौन हैं ?
भिक्षु - महाशय, आर्य सत्यशील इस विहार के स्थविर हैं और कानीर विहार इसका नाम है।
साधु - वाह, क्या यहाँ आतिथ्य के लिये भी कोई प्रबन्ध है ? क्या कोई श्रमण अतिथि रूप से यहाँ थोड़ा विश्राम कर सकता है ?
भिक्षु - आर्य, आपका शुभ नाम सुनूँ, फिर जाकर स्थविर से निवेदन करूँ।
साधु - कह देना कि प्रेमानन्द आया है।
(भिक्षु भीतर जाकर लौट आता है।)
भिक्षु - चलिये, आतिथ्य के लिए हम लोग प्रस्तुत हैं।
(बड़बड़ाता हुआ विशाख आता है)
विशाख - (आप ही) - सिर घुटाते ही ओले पड़े। कोई चिन्ता नहीं। इसी में तो आना था। झञ्झट जितनी जल्द आवे और चली जावे तो अच्छा ! अच्छा हम जो इस पचड़े में पड़े तो हमको क्या ? परोपकार ! ना बाबा ! झूठ बोलना पाप है। चन्द्रलेखा को यदि न देखता, तो सम्भव है कि यह धर्म-भाव न जगता। मैंने सुना है कि मेरे गुरुदेव श्री प्रेमानन्दजी आये हैं और इसी अधर्म विहार में ठहरे हैं। वह भिक्षु तो मुझे देखते ही काटने को दौड़ेगा; फिर भी कुछ चिन्ता नहीं, गुरुदेव का तो दर्शन अवश्य करूँगा (उच्च स्वर में) अजी यहाँ कौन है ?
भिक्षु - (बाहर निकल कर) क्या है जी, क्या कोलाहल मचाया है ?
विशाख - गुरुजी यहाँ पधारे है, मैं उनका दर्शन करना चाहता हूँ।
भिक्षु - कौन ? तुम्हारे गुरुजी कौन हैं ; एक प्रेमानन्द नाम का संन्यासी आया है। क्या वही तो तुम्हारा गुरु नहीं है ?
विशाख - क्या तुम उसी स्थविर के चेले हो, जिसने कि एक अनूढ़ा कन्या को पकड़ कर रखा है।
भिक्षु - क्या तुम झगड़ा करने आये हो ?
विशाख - क्या तुम को शील और विनय की शिक्षा नहीं मिली है ?
भिक्षु - अशिष्ट पुरुषों के लिये अन्य प्रकार का शिष्टाचार है। और अब तुम यहाँ से सीधे चले जाओ, इसी में तुम्हारी भलाई है ?
विशाख - बस ! मिट्टी के बर्तन थोड़ी ही आँच में तड़क जाते हैं। नये पशु एक ही प्रहार में भड़क जाते हैं। यह राजपथ है, यहां से हटाने का तुम्हें अधिकार नहीं है । वस अब तुम्हीं अपने विहार-बिल में घुस जाओ !
भिक्षु-(कमर बाँधता हुआ) तो क्या तुम नही जाओगे ?
विशाख-समझ लो, कही गांठ पड़ जायगी तो कमर न खुलेगी, और तुम्हें ही व्यथा होगी (हंसता है)।
[सत्यशील और प्रेमानन्द निकल पड़ते हैं]
सत्यशील-क्या है ? क्यों झगड़ते हो ? (विशाख को देखता है)
प्रेमानन्द-विशाख । यह क्या है ? (विशाख अभिवादन करता है)
विशख-गुरुदेव, आपका यहाँ आना सुनकर मैं भी चला आया।
प्रेमानन्द-क्या तुम अभी अपने घर नही गये ?
विशाख -गुरुकुल से निकलते ही कर्तव्य सामने मिला। आपकी आज्ञा थी कि सेवा, परोपकार और दुखी की महायता मनुष्य के प्रधान कर्तव्य है ।
प्रेमानन्द -भला ! तुम्हारे कार्य का विवरण तो सुनूं ।
विशाख-मुझे कहते संकोच होता है।
प्रेमानन्द- नहीं । संकोच की क्या आवश्यकता है, स्पष्ट कह सकते हो।
विशाख-आपने जिनका आतिथ्य ग्रहण किया है, इन्हीं महात्मा ने एक कुटुम्ब को बड़ा दुखी बनाया है, और उसकी कन्या को अपने विहार में बन्द कर रक्खा है।
प्रेमानन्द-सत्यशील, क्या यह सत्य है ?
सत्यशील-तुम कौन होते हो। अजी तुमने किस संघ मे उपसम्पदा ग्रहण की है ? केवल सिर घुटा लेने से ही श्रमण नही होता, हाँ । पहले अपनी तो कहो, तुम्हें प्रश्न करने का क्या अधिकार है ? क्या आतिथ्य का यही प्रतिकार है ? बस चले जाओ सीधे, हाँ !
प्रेमानन्द-मैं शाश्वत संघ का अनुयायी हूँ । प्रेम की सत्ता को संसार में जगाना मेरा कर्तव्य है। तो भी संसारी नियम, जिसमें समाज का सामंजस्य बना रहे, पालनीय हैं, और तुम उससे उपेक्षा दिखलाते हो। क्या तुम उस कन्या को न छोड़ दोगे ? क्या धर्म की आड़ में प्रभूत पाप बटोरोगे ?
सत्यशील--तुम्हें यहाँ से जाना है या नहीं ?
विशाख-गुरुदेव सहनशीलता की भी सीमा होती है। अब आप इस पाखण्डी से बात न कीजिये । घड़ा भर गया है ! स्वतः फूटेगा।
(अधूरी रचना) प्रेमानन्द -मना आनन्द मत, कोई दुखी है। सुखी संसार है तो तू सुखी है। न कर तू गर्व औरों को दवा कर । कठिनता से दबाकर तू दुखी है ।। -बस चले जाओ। अपने विहार में विहार करो। किन्तु यह ध्यान रखना, तुम्हें इसका प्रतिफल मिलेगा। सत्यशील-भला, भला ! बहुत-सा देखा है। [सत्यशील और भिक्षु जाते हैं] प्रेमानन्द-बेटा विशाख ! तुम अब कहाँ जाओगे ? विशाख-गुरुदेव ! कृपा कर बतलाइये कि आप यहाँ कैसे ? मुझे जहाँ आज्ञा मिलेगी वही जाऊँगा! प्रेमानन्द-(कुछ विचार कर)-ठीक है, तेरा मार्ग भिन्न है, तुझे आवश्यकता है। जब तक सुख भोग कर चित्त को उनसे नही उपराम होता, मनुष्य पूर्ण वैराग्य नहीं पाता है । तुझे कर्मयोग के व्यावहारिक रूप का ही अनुकरण करना चाहिये । विशाख -भगवन्, सुख भोग कर भी बहुत लोग उससे नही घबराते है और शान्ति को नही पाते है ? प्रमानन्द - और यह भी देखा गया है कि बिना कुछ भी सुख किये, किशोर अवस्था में ही कितनों को पूर्ण शान्तिमय वैराग्य हो जाता है। इसका कारण केवल संस्कार है। इसलिये वैराग्य अनुकरण करने की वस्तु नही, जब वह अन्तरात्मा में विकसित हो, जब उलझन की गांठ सुलझ जावे, उसी समय हृदय स्वतः आनन्दमय हो जाता है- ममीर स्पर्श कली को नही खिलाता है। विकस गयी, खुली, मकरन्द जब कि आता है । विशाख–देव ! फिर परिश्रम की कोई आवश्यकता नहीं। वह तो जब आने को होगा, आवेगा। प्रेमानन्द-विशाख उधर देखो; कमल पर भंवरों को- मधुमत्त मिलिन्द माधुरी, मधुराका जग कर बिता चुके । अरविन्द प्रभात में भला, फिर देता मकरन्द क्यों उन्हे ? -सन्ध्या के मधु ने रात भर भ्रमरों को आनन्द-जागरण में रखा, सबेरे ही फिर मिला, दिन भर फिर मस्त । हृदय-कमल जब विकसित हो जाता है, तब चेतना बराबर आनन्द मकरन्द पान किया करती है जिसमें नशा टूटने न पावे। सत्कर्म हृदय को विमल बनाता है और हृदय में उच्च वृत्तियां स्थान पाने लगती हैं। इसलिये सत्कर्म-कर्मयोग को आदर्श बनाना, आत्मा की उन्नति का मार्ग स्वच्छ और प्रशस्त करना है। विशाख-फिर क्या आज्ञा है ? प्रेमानन्द-यही कि जब तक शुद्ध-बुद्धि का उदय न हो, तब तक स्वार्थ-प्रेरित होकर भी सत्कर्म करणीय है। तुम्हारा उद्देश्य उत्तम होना चाहिये। जो कर्तव्य है उसे निर्भय होकर करो। विशाख--(चरण पकड़ कर)-वही होगा गुरुदेव ! कृपा बनी रहे । हां, आपने क्या गुरुकुल छोड़ दिया ? अब वहां पर कौन है ? प्रेमानन्द-स्थान कभी खाली नही रहते, अब वह सब अच्छा नहीं लगता। परिव्राजक होकर प्रकृति का दर्शन करूं, यही अभिलाषा है- इस विचित्र संसार से। औरो को आतंक न हो अविचार से। कमी न हो आनन्द-कोश मे, पूर्ण हो। वही न चालो में पड़ कोई चूर्ण हो। सीधी राह पकड कर सीधे चले चलो। छले न जाओ औरों को भी मत छलो॥ निर्बल भी हो, मत छोड़ना, शुचिता से इस कुहक-जाल को तोडना । [प्रस्थान] दृश्यान्तर घबराना मत सत्य-पक्ष पंचम दृश्य [स्थान-संघाराम का एक अंश] [बन्दिनी चन्द्रलेखा गाती है] देखी नयनो ने एक झलक, वह छवि की छटा निराली थी। मधु पीकर मधुप रहे सोये, कमलो मे कुछ-कुछ लाली थी। सुरभित हाला पी चुके पलक; वह मादकता मतवाली थी। भोले मुख पर वे खुले अलक, सुख की कपोल पर लाली थी। देखी नयनों॥ - (स्वगत) हा ! प्रेम का विकास और विपत्ति का परिहास साथ-ही-साथ दोनों उबल पड़े हृदय में विपत्ति की दारुण ज्वाला जल रही थी, उसी में प्रणय सुधाकर ने शीतलता की वर्षा की, मरुभूमि लहलहा उठी। इस कुत्सित कोठरी में आँख बन्द कर उसी स्वर्ग का आनन्द लेती हूँ। निष्ठुर पाखण्ड ने मुझे कितना प्रलोभन दिया। यदि एक बार देख लेने पाती ! पिताजी तो मुक्त है, इरावती बहिन उनकी सेवा कर लेगी। मैं तो इस दुःख व सुखी जीवन से छुट्टी पाने के लिये प्रस्तुत हूँ। [घबराये हुए एक भिक्षु का प्रवेश, बाहर कोलाहल] भिक्षु-भाग चाण्डाली ! तेरे कारण सब सत्यानाश हुआ। निकल ! क्या अब उठा नही जाता? चन्द्रलेखा-क्यों, बात क्या है ? क्या अब मै चली जाऊँ ? भिक्षु-हां, हां, चली जाओ। अभी जाओ। [दूसरी ओर से नरदेव और पकड़ा हुआ सत्यशील आता है] नरदेव-(चन्द्रलेखा को देखकर आप-ही-आप) आह ! ऐसा रंग तो मेरे रंगमहल मे भी नही। (प्रकट) क्यो सत्यशील, तुम्हारे सत्य और शील का यही न प्रमाण है ? सत्यशील-नरेश, यह प्रव्रज्या ग्रहण करने आयी है। चन्द्रलेखा-कभी नही ! यह झूठा है। मेरे बूढे पिता को मारता था, मैं छुड़ाने आयी। बस मुझे ही पकड कर इसने यहाँ बन्द कर रखा है । यह दुराचारी है नरनाथ ! नरदेव-(स्वगत) -रूप की सत्ता ही ऐसी है। कोन इससे बच सकता है ? (प्रकट)-किन्तु सत्यशील ! तुम तो अधम कीट हो, तुम्हारे लिये यही दण्ड है कि तुम लोगों का अस्तित्व पृथ्वी पर से उठा दिया जाय, नही तो तुम लोग बड़ा अन्याय फैलाओगे ! सेनापति ! सब विहारो को-राज्य भर मे जलवा दो। सेनापति-जो आज्ञा। नरदेव -इस मिथ्याशील को इसी कोठरी मे बन्द करो, और इस विहार में भी आग लगवा दो। अभी। सेनापति ---जैसी आज्ञा । [राजा और चन्द्रलेखा तथा अन्य लोग खड़े होकर आग लगते देखते हैं] [झपटते हुए प्रेमानन्द और विशाख का प्रवेश] प्रेमानन्द-राजन् क्रोध से न्याय नही होता। यह क्या अनर्थ कर रहे हो ? धर्म का तुम नाम उठा देना चाहते हो, मो भी उसी की दुहाई देकर ! अन्य विहार व भिक्षुओं ने क्या किया था ? नरदेव-(हंसकर) आप भी तो ऐसे ही परिव्राजक हैं न। ऐसों को ऐसा ही कड़ा दण्ड देना चाहिये । चुप रहिये । प्रेमानन्द-मैं वैसा भिक्षु नही। राजन्, सत्ता का अपव्यय न करो। सत्ता- शक्तिमानों को निर्बलों की रक्षा के लिए मिली है, औरों को डराने के लिए नहीं। प्रजा के पाप का फल या परिणाम ही न्याय है । तब, राजा को और पाप करके पाप नहीं दबाना चाहिये । न्याय के दोनों ही आदेश हैं, दण्ड और दया। इसलिए शासक के आचरण ऐसे होने चाहिए जिससे प्रजा को उत्तम आदर्श मिले, प्रजा में दया आदि सद्गुणों का प्रचार हो। नरदेव-(सिर झुकाकर)-जैसी आज्ञा । प्रेमानन्द-यह अपनी आज्ञा बन्द करो कि सब विहार जला दिए जायें । सुन्दर आराधना की, करुणा की भूमि को नृशंसता-बर्बरता का राज्य न बनाओ। तुम नहीं जानते कि 'यथा राजा तथा प्रजा।' नरदेव-वैसा ही होगा। विशाख-हटिये यहाँ से वह देखिये जली हुई दीवार गिरना चाहती है। [सब लोग हटते हैं । दीवाल गिरती है] यवनिका द्वितीय अङ्क प्रथम दृश्य [स्थान-पहाड़ी सरने के समीप विशाख और चन्द्रलेखा] विशाख-चन्द्रलेखा! यह कमा रमणीक प्रदेश है ? जी नहीं ऊबता । बनस्थली भी ऐसी मधुरिमामयी होती है, इसका मुझे कभी ध्यान नही था। हम लोग क्या सदैव इसी तरह प्रकृति सुन्दर भ्रूभंगी देखते जीवन व्यतीत कर सकेगे ? चन्द्रलेखा-विशाख ! कौन कह सकता है ? क्या क्षितिज की सीमा से उठते हुए नीलनीरद खण्ड को देख कर कोई बतला देगा कि यह मधुर फुहारा बरसावेगा कि करकापात करेगा। भविष्य को भगवान् ने बड़ी सावधानी से छिपाया है और उसे आशामय बनाया है। विशाल-प्रिये ! आज मैं भी क्या उस आशामय भविष्य का आनन्द मनाऊँ, हृदय में रसीली वंशी बजाऊँ ? क्या मैं... चन्द्रलेखा-(बात काट कर) -बस, उसे हृदय से उठकर मस्तिष्क तक ही जाने दो, रसना पर लाने में रस नहीं है। विशाख-(व्याकुल होकर)-मैं कहूंगा- हृदय की सब व्यथायें मैं कहूँगा। तुम्हारी झिड़कियां सौ-सौ सहूंगा। मुझे कहने न दो, फिर चुप रहूँगा। तुम्हारी प्रेम धारा में बहूँगा। हृदय अपना तुम्हीं को दे दिया है। नहीं; तुमने स्वयं ही ले लिया है । चन्द्रलेखा- अब तुम्ही बताओ कि मैं क्या कहूँ ? मुझे तो तुम्हारी तरह कवितायें कण्ठस्थ नहीं ! हृदय के इस बनिज-व्यापार को में अच्छी तरह नहीं जानती। फिर भी. विशाल-फिर भी; फिर वही, उतना ही कह दो । चन्द्रलेखा-यही कि जब तुमसे बात-चीत होने लगती है तब मेरा मन न-जाने कंसा-कैसा करने लगता है । तुम्हारी सब बात स्वीकार कर लेने की इच्छा होती है । तो भी.. विशाख-तो भी ! फिर वही तो भी । अरे तो भी क्या ? चन्द्रलेखा-यही कि मुझे अपने बूढ़े वाप की गोद से छीन लिया चाहते हो- यह बड़ी भयानक बात है। विशाख-तो क्या मैं इतना निष्ठुर हूँ, मुझे तुम्हें कहीं लेकर चला जाना नही है । मैं तो केवल आज्ञा चाहता हूँ कि"" चन्द्रलेखा-(बात काट कर)-कि नहीं ! विशाख-तो अब मैं कुछ न कहूँ। (जाना चाहता है) चन्द्रलेखा-सुनो तो, कहां जा रहे हो ? विशाख–जहाँ भाग्य ले जावे । चन्द्रलेखा-तव तो तुम बड़े सीधे मनुष्य हो । अच्छा आओ चलो, उस कुंज से कुछ दाडिम तोड़ लें। विशाख-(गम्भीर होकर)-नहीं चन्द्रलेखा, परिहास का समय नहीं है । तुम देख रही हो कि समीप ही बड़ी गहरी खाई है और तुम अपनी सहारे की डोरी खींच लिया चाहती हो (सामने दिखाता है) चन्द्रलेखा-(घबरा कर उसे पकड़ लेती है)-हाँ हाँ, तो क्या तुम उसमें कूद पड़ोगे ! ऐसा न करना, मैं तुम्हारी हूँ। [नेपथ्य से "अन्त को तू गयी"] चन्द्रलेखा-इरावती बहिन है क्या? विशाख-मैंने तो एक दृष्टान्त दिया था। सचमुच तुम तो घबरा गई हो। अच्छा इस घबराहट ने ही मेरा काम कर दिया.. इरावती-(प्रवेश करते)-और इस बेचारी को बेकाम कर दिया। [चन्द्रलेखा लज्जित होती है] इरावती--चन्द्रलेखा ! बुआ इधर ही आ रही हैं । वह कुछ कहना चाहती हैं। [रमणी का प्रवेश रमणी -वत्स विशाख ! तुम दोनों का अनुराग देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुई। भाई सुश्रवा भी आज ही कल में आने वाले है । राजा नरदेव ने उसकी सारी सम्पत्ति जो विहार से मिली है, लौटा दी है। (चन्द्र लेखा से)-बेटी चन्द्रलेखा, मैंने जो तुमसे कहा है उन बातों को कभी न भूलना। चन्द्रलेखा-बुआ ! आपकी शिक्षा मैं सादर ग्रहण करती हूँ। [रमणी जाती है। कुछ सखियां आती हैं] पहली-अरी चन्द्रलेखा ! तूने अपना ब्याह भी ठीक कर लिया, हम लोगों को पूछा तक नहीं। दूसरी-अरी वाह ! इसमें पूछने की कौन-सी बात है । ऐसा तो तू भी करेगी। तीसरी-अरी ! चल, क्या तेरी ही तरह सब हैं ? चौथी-तुम सव बड़ी पगली हो ! पहले अभी वर-वधू का स्वागत कर लो। आ इरावती, तू भी हम लोगों के संग आ। [विशाख और चन्द्रलेखा को घेर कर सब गाती और नाचती हैं] हिये में चुभ गयी, हाँ ऐसी भधुर मुसकान । लूट लिया मन, ऐसा चलाया नैन का तीर-कमान ॥ भूल गयी चौकड़ी, प्राण में हुआ प्रेम का गान । मिले दो हृदय, अमल अछूते, दो शरीर इक प्रान ।। दृश्यान्तर द्वितीय दृश्य [महापिंगल का घर] महापिंगल-कौन कहता है कि मैं नी । हूँ। प्रेम-रस यदि मेरे रोम-कूपों से निकाला जाय तो चार-चार रहट चलने लगें। अब मैं प्रेम करूंगा! प्रेम ! अच्छा तो किससे करूं, सोच-समझ कर करूं, जिसमें नाम हैसाई न हो। अच्छा वह जो उस दिन सन्ध्या को वितस्ता के तट पर बाल खोले सुन्दरी बैठी थी। है तो अच्छी, पर बाल उसके झार की तरह लम्बे थे। हूं, वह नहीं। अच्छा वह, हाँ हाँ ! परन्तु नहीं, उसकी नाक इतनी लम्बी थी कि सुवा केला की फली समझ कर ठोर चलाने लगे। नहीं-नहीं, वह तो मेरे प्रेम के योग्य नहीं। अच्छा ! वह तो ठीक रही, न-न-न, बाप रे! उसकी आंखें देखकर डर लगता हैं । जैसे किसी ने मार दिया हो और वह निकली पड़ती हों। भाई मुझे तो कोई समझ में नहीं आती। अरे यहां कोई है (इधर-उधर देखकर)-कोई नहीं है कि मुझे इस विपत्ति में सलाह दे। इसीलिये तो बड़े आदमी पार्श्वचर रखते हैं (सोचता है)-हा-हा-हा-हा, बुद्धू ही रहे । कहाँ- के-कहां दौड़े गये, पर अपना सिर नहीं टटोला। अरे, वह मेरी घरवाली। नहीं-नहीं उसके दोनों नथने दो भयानक सुरंग के मुंह से खुले रहते हैं, कभी ऊंघते हुए उसी में न घुस जाऊँ। ना बाबा, हाँ, अब याद आया, धत्तेरे की, उस दिन सुश्रवा नाग के पहां जो मैं गया था तो एक चन्द्रलेखा थी, दूसरी कौन थी? वह इरावती, अहा हा, मैं तो प्रेमी हो गया। राजा, चन्द्रलेखा और इरावती पर मैं आसक्त हुआ। हो गया। अब मैं प्रेम करने लगा। तनिक लम्बी-लम्बी सांस तो लूं। आंखों से आंसू बहाऊँ। प्रिये, प्रियतमे ! इस दास"" (लेट जाता है। तरला आकर धौल जमाती है) तरला-बुढ़ापे में प्रेम की अफीम खाने चला है । महापिगल-(घबड़ाकर हाथ जोड़ता हुआ) नही, मैं तो अफीम नही भांग पीता हूँ। भांग तो अभी है न ? तरला-पिलाती हूँ। तुझे संखिया घोलकर पिलाती हूँ। कोन निगोड़ी है, जिस पर तुझे बुढ़ापे में मरने का सुख मिलने वाला है। महापिंगल-(उसी तरह) कोई नही, कोई नहीं, तुम्हारी चञ्चलता की शपथ। तरला-कोई नहीं। अभी क्या कहते थे बैल के भाई ! हम लोगों ने तो कभी दूसरे की ओर हंसकर देखा कि प्रलय मचा, व्यभिचारिणी हुई, और तुम्हारे ऐसे साठ वर्ष के खपट्टों को प्रेम वाले दूध के दांत जमे । महापिंगल-(बिगड़ कर) क्या कहा, मैं साठ वर्ष का हूँ। यह मुझे नहीं सहन हो सकता, अभी मेरी मूंछे काली है। आँखों में लाली है। (उंगली पर गिनता हुआ) चालीस पांच पैतालिस तीन अड़तालीस वर्ष ग्यारह महीना एक पक्ष एक सप्ताह छः दिन पाँच पहर एक घड़ी सवा दण्ड साढ़े तीन पल का हूँ। तात्पर्य, पचास वर्ष से भी कम से भी कम का हूँ । तरला -(सफेद बालों का गुच्छा पकड़ कर खींचती हुई) और यह क्या है ! महापिंगल-दुहाई है। मेरे बाल नहीं । ये काले हैं, हा-हाँ चूना लग गया है। शास्त्र की आज्ञा से अभी मैं ब्याह, प्रेम या और इसी तरह का सब गड़बड़ कर सकता हूँ। दुहाई है । मेरे बाल काले हैं। तरला-चूना लगा है तुम्हारे मुंह में । [महापिंगल मुंह पोछने लगता है। तरला हंसती है और बाल खींचती है] महापिंगल-देखो यह हँसी अच्छी नही लगती । छोड़ दो। तरला-प्रेम करोगे? सहज में ? महापिंगल-अरे, तुम बड़ी मूर्खा हो। वह सब एक स्वांग था। भला राजा- का-सा रूप न धरें तो मिले क्या। अभी तक तुम्हारा चन्द्रहार नहीं बन सका, जब राजा को अपने ढंग का बनाऊँ तब तो काम हो। तरला हाँ, सच तो। मेरा चन्द्रहार लाओ। महापिंगल--देखो कैसी पिघल गई। गर्म कढ़ाई में घी हो गई। गहने का जब नाम सुना, वस' पानी-पानी। तरला-बातें न बनाओ। लाओ मेरा हार । महापिंगल-अभी तार लगे तब न हार मिले । तुम तो बीच में ही विल्ली की तरह रास्ता काटने लगी। तरला-तब ? अब की ला दोगे। महापिंगल-अच्छा । पर कान में एक बात तो सुन जाओ। तरला-जाओ, जाओ, मैं नही सुनती। महापिंगल-तब फिर। तरला-अच्छा। अच्छा। [दोनों हाथ मिलाकर गाते हैं] लगा दो गहने का बाजार । कुछ है चिन्ता नही और क्या मिले नही आहार नाक छेद लो, कान छेद लो, किसको अस्वीकार। सोना-चांदी उसमे डालो, तब हो पूरा प्यार ॥ [दौवारिक का प्रवेश] दौवारिक-शीघ्र चलिये, महाराज ने बुलाया है । महापिंगल-अरे हम नही-(भागता है। उसके पीछे दौवारिक जाता है) दृश्यान्तर तृतीय दृश्य [राजकीय उद्यान; नरदेव अकेला गाता है] छाने लगी जगत में सुषमा निराली । गाने लगी मधुर मंगल कोकिलाली ॥ फेला पराग, मलयानिल की बधाई । देत मिलिन्द कुसुमाकर की दुहाई ॥ (स्वगत) यह हृदय ही दूसरा हो गया है या समय ही। मन अकस्मात् एक मनोहर मूर्ति का एकान्त-भक्त होता जा रहा है। चित्त में अलस उदासी विचित्र मादकता फैला रही है। आप-ही-आप चुटीला मन और भी घायल होने के लिये ललच रहा है। कौन है ? प्रतिहारी ! [प्रतिहारी का प्रवेश प्रतिहारी-जय हो देव ! क्या आज्ञा है ! नरदेव-महापिंगल को शीघ्र बुलाओ। प्रतिहारी-जो आज्ञा पृथ्वीनाथ, मन्त्री महोदय बाहर खड़े हैं । नरदेव-नहीं समय नहीं है । कह दो फिर आवें । तुम जाओ। [प्रतिहारी सिर झुका कर जाता है] (स्वगत) जब चित्त को चैन नहीं, एक घड़ी भी अवकाश नही-शान्ति नही, तो ऐसा राज लेकर कोई क्या.करे; केवल अपना सिर पीटना है। वैभव केवल आडम्बर के लिये है। सुख के लिए नहीं। क्या वह दरिद्र किसान भी जो अपनी प्रिया के गले में बांह डाल कर पहाड़ी निर्झर के तट पर बैठा होगा, मुझसे सुखी नही है ? किसी भी देश के बुद्धिमान शान्ति के लिए सार्वजनिक नियम बनाते हैं, किन्तु वह क्या मबके व्यवहार में आता है ? जिम प्रतारणा के लिए शासक दण्ड- विधाता है, कभी उन्ही अपराधों को स्वयं करके दण्डनायक भी छिपा लेता है। धींगा-धींगी, और कुछ नहीं। राजा नियम बनाता है. प्रजा उसको व्यवहार में लाती है। उन्हीं नियमों में जनता बंधी रहती है। राजा भी अपने बनाये हुए नियमों में मकड़ी और जाला की तरह मुक्त नही, किन्तु, कभी-कभी उल्टा लटक जाता है। उस रमणी को बरजोरी अपने वश में करने के लिए जी मचल रहा है, किन्तु नीति ! नियम !! आह ! हमारा शासन मुझे ही बोझ हो रहा है, मन की यह उच्छृखलता क्यों है? महापिंगल-(प्रवेश करके)-क्यों क्या वह बन्दर भाग गया ? अरे कोई दूसरी सिकड़ी लाओ । नहीं तो अश्वशाला की रखवाली कौन करेगा ? नरदेव-(हंसता हुआ)-अरे मूर्ख ! बन्दर नहीं भागा है। महापिंगल-फिर यह विचारों की चौलत्ती क्यों चल रही है ? नरदेव-दुष्ट ! भला क्या तूने मेरे हृदय को घुड़साल समझ रक्खा है । महापिंगल-तो फिर और क्या ! संकल्प-विकल्प सुख-दुःख पाप-पुण्य, दया- क्रोध इत्यादि की जोड़ियां इसी घुड़साल में बंधती है । नरदेव -पर लात तुम्हीं खाते हो । (हँसता है) महापिंगल-और पीड़ा आपको हो रही है ? नरदेव-सच तो पिंगल ! आज चित्त बड़ा उदास है, कही भी मन नहीं लगता। - महापिंगल-मन बैठे-बैठे चरग्वे की तरह घूमता है। यदि रथ के चक्के की तरह आप भी घूमने लगिये, फिर तो वह धुरे की तरह स्थिर हो जायेगा। नरदेव-(हँस कर)-तो कहां घूमने चलूं ? महापिंगल-देव ! मृगया के समान और कौन विनोद है। गर --विषम-वन की ओर चलूं ? महापिंगल-नही, नही, उधर तो फाड़ खाने वाले जन्तु मिलते है । रमण्याटवी की ओर चलिए, जहां मेरे खाने योग्य कुछ मिले । नरदेव-डरपोक । अच्छा उधर ही सही ! महापिंगल-(अलग)-बहुत शीघ्र प्रस्तुत हो गये। उधर तो सोंधी बास आती है (प्रकट)-अच्छा तो मैं अश्व प्रस्तुत करने को कहता हूं। नरदेव-शीघ्र (महापिंगल जाता है)-उधर वसन्त की वनश्री भी देखने में आवेगी, साथ ही मनोराज्य की देवी का भी दर्शन होगा। अहा ! [महापिंगल दौड़ता हुआ आता है] महापिंगल-महाराज ! विनोद यही हो गया। आ गयी, सरला गाना सुनाने आ गयी है । दुहाई है, आज इसका नृत्य देखिये । कल मृगया को चलिये । नरदेव- [सरला आती है और गाती है] मेरे मन को चुरा के कहाँ ले चले। मेरे प्यारे मुझे क्यों भुला के चले ॥ ऐसे जले हम प्रेमानल में जसे नही थे पतंग जले ! प्रीति लता कुम्हिलाई हमारी विषम पवन बन कर क्यों चले। दृश्यान्तर -अच्छा। चतुर्थ दृश्य [रमन्याटवी में-विशाख का गृह, चन्द्रलेखा और विशाख] विशाख -अच्छा तो प्रिये ! अब मैं जाता हूँ। शीघ्र ही लौटकर यह मुखचन्द्र देखूगा। चन्द्रलेखा-ना, ना-मैं न जाने दूंगी, तुम्हे कही जाने की क्या आवश्यकता है ? मैं कैसे रहूंगी? विशाख-मुझे कमी तो किसी बात की नहीं है। फिर भी उद्योगहीन मनुष्य शिथिल हो जाता है। उसका चित्त आलसी हो जाता है, इसलिये कुछ थोड़ा भी इधर-उधर कर आऊँगा तो मन भी बहल जायगा और कुछ लाभ भी हो जायगा। चन्द्रलेखा -क्या इतने ही दिनों में तुम्हारा मन ऊब गया ? क्या मुझसे घृणा हो गयी? लाभ; यह तो केवल बहाना है । हा ! विशाख - बस इसी से तो मैं कुछ कहता नही था। क्या मैं भी तुम्हारी तरह बैठा रहूँ? पर्याप्त सुख तुम्हें देना क्या मेरा कर्तव्य नही है ? सुख क्या बिना सम्पत्ति के हो सकता है ? तुम्हे मैं क्या समझाऊँ ? चन्द्रलेखा-बस-बस रहने दो। मैं तो तुम्हें पाकर अपने सुख मे कोई भी कमी नहीं देखती है- सुख की सीमा नही सृष्टि में नित्य नये ये बनते हैं । आवश्यकता जितनी बढ़ जावे उतने रूप बदलते हैं। सच्चा सुख, सन्तोष जिसे है उसे विश्व में मिलता है। पूर्ण काम के मानस में बस शान्ति-सरोरुह खिलता है। मुझे तो जीवनधन ! तुम्हें पा जाने पर और किसी की आवश्यकता नहीं। पर तुम्हारे मन में न जाने कितनी अभिलाषायें है। विशाख-संसार उन्नति का साथी है, क्या मुझे उससे अलग रहना चाहिये ? क्या इसमें तुम मेरे प्रणय की कमी समझती हो ? चन्द्रलेखा-मैं क्या जानूं कि संमार क्या चाहता है। मैं तो केवल तुम्हें चाहती हूँ ! मेरे संकीर्ण हृदय में तो इतना स्थान नही कि संसार की बातें आ जायें किन्तु- अकेली छोड़कर जाने न दूंगी। प्रणय को तोड़कर जाने न दूंगी। तुम्हें इस गेह से जाने न दूंगी। हृदय को देह से जाने न दूंगी। विशाख-तो मुझे क्या करोगी? चन्द्रलेखा-प्रियतम ! बनाकर आँख की पुतली तुम्हें । तुम्हारे साथ मैं खेला करूंगी विशाख -इस अनुरोध से जीवन सार्थक हुआ। अब तो मेरा ही मन कही नहीं जाना चाहता। अच्छा, तब तक मैं यही थोड़ी दूर टहल आऊं। क्या तुम भी मेरे साथ चलोगी? चन्द्रलेखा- अच्छा, जब तक मैं धान रखवाती हूँ, तब तक तुम आ जाना। विशाख-अभी आता हूँ। (जाता है) [दूसरी ओर से घोड़ा आकर धान खाने लगता है । चन्द्रलेखा स्वयं उसे हटा देती है। नरदेव और महापिंगल का प्रवेश] नरदेव-स्वेद से भीगे हुए घोड़े की पीठ पर कैसी सुन्दर सुकुमार कर की छाप थी ? महापिंगल, यही स्थान है न ? अहा- स्वीकृति प्रेम प्रशस्ति पर कञ्चन कर की छाप । हमे ज्ञात होती मखे, मिटा हृदय का [महापिंगल चन्द्रलेखा को दिखाता है] महापिंगल–पर यह तो कहिये आप बिना कहे-सुने किसी के घर में क्यों चले गये? नरदेव -इस सुहावने कानन में किसी का घर है, यह जान कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई और बिना कहे-सुने ही तो अतिथि आते हैं । महापिंगल--न-न-न ! आपके-से अतिथि को दूर ही से दण्डवत । (चन्द्रलेखा की ओर देख कर)-क्यों मुन्दरी । (राजा भी उसे देखता है) चन्द्रलेखा-(राजा को पहचान कर नमस्कार करती है) पृथ्वीनाथ, यह दासी आपसे क्षमा मांगती है । मैंने जाना कि घोड़ा श्रीमान् का हा है। महापिंगल -हाँ, हाँ, उसे जानने की क्या आवश्यकता थी जिसने धान खाया उसने चपत पाया। नरदेव --यह तुम्हारा ही घर है ? सुन्दरी ! चन्द्रलेखा -यह झोपड़ी दासी की है। श्रीमान्, यदि मृगया से थके हुए हों तो विश्राम कर लें। मैं आतिथ्य करने के योग्य नहीं, तब भी दीनों की भेंट फलमूल स्वीकार कीजिये। महापिंगल-मैं तो हिरन के पीछ चौकनी भरते-भरते थक गया हूँ। अब तो बिना कुछ भोजन किये मैं चल नहीं सकता ! जो है सो क्या नाम, एक पग भी। [बैठ जाता है । चन्द्रलेखा राजा के लिये मंच लाती है। नरदेव भी बैठता है] नरदेव-तो फिर सुन्दरी ! तुम्हें बड़ा कष्ट हुआ। चन्द्रलेखा-(दूध लाती है) श्रीमान्, कष्ट क्यों हो? जो लब्ध पदार्थ हैं उन्हें आदरणीय अतिथि के सामने रखने में मुझे कुछ संकोच नही है, और कृत्रिमता का यहाँ साधन भी नही है। [राजा और महापिंगल दूध पीते है] महापिगल-तृप्त हुआ-अब आशीर्वाद क्या दूँ (कुछ ठहर कर) अच्छा तुम राजरानी हो। चन्द्रलेखा -ब्राह्मण देवता, यह कैसा अन्याय ! आप मुझे शाप न दीजिये। मेरी इस झोपड़ी मे राजमन्दिर से कही बढ़ कर आनन्द है । हमारे नरपति के सुराज्य में हम लोगो को कानन मे भी सुख है। महापिगल-ठीक है। खटमल को पुगनी गुदडी मे ही सुख है। राज-सुख क्या सहज लभ्य है ? चन्द्रलेखा -यह क्या ! प्रलोभन है या परिहास है ? नरदेव -नही, नही, प्रिये, यह नरदेव सचमुच तुम्हारा दास है । चन्द्रलेखा तो क्या मै अपने को अधर्म के पंजे मे समझू ओर नीति को केवल मौखिक कल्पना मान लूं। नरदेव-डरो मत, मैं तुम्हारा होकर रहूंगा । क्या मेरी इस प्रार्थना पर तुम न पिघलोगी। चन्द्रलेखा-राजन् मुझमे अनादृत न हजिये, बम यहा से चले जाइए। महापिंगल -अच्छा अच्छा -जो है सो क्या नाम -चलिये महाराज ! [दोनों जाते है] चन्द्रलेखा-भगवान् ! तूने रूप देकर यह भी झझट लगाया । देखू इसका क्या परिणाम होता है। प्राणनाथ से मुझे यह बात न कहनी चाहिये, उनका चित्त और भी चंचल हो जायगा। अव तो एक वही इममे बचा सकता है। प्रभो ! एक तुम्ही इस दुःख से उबारने में समर्थ हो। दीनो के पुकार पर तुम्ही तो आते हो । आओगे? बचाओगे नाथ ! कितना ही दु.ख दो, फिर भी मुझे विश्वास है कि तुम्ही मुझे उनसे उबारोगे, तुम्ही सुधारोगे, विपद्भजन !- कार्तिक, कृष्णा कुहू क्रोध से काले कारका भरे हुए, नीरद जलधेि क्षुब्ध हो भीमा प्रकृति, हृदय भय भरे हुए। खोजा हमने हाथ पकड़ ले साथी कोई नहीं मिला, दीप मालिका हुई वही पर तेरी छवि की, प्राण मिला। दृश्यान्तर पंचम दृश्य [एक बौद्ध संन्यासी और नागरिक] भिक्षु-अमिताभ यह कैसा जनपद है जहाँ भिक्षुओं को देख कर कोई वन्दना भी नहीं करता, भिक्षा की तो कौन कहे ? (नागरिक को देखकर) उपासक ! धर्मलाभ हो। नागरिक-मुझे तुम्हारा धर्म नही नाहिये। दया कीजिये, यहाँ से किसी और स्थान को पधारिये। भिक्षु-क्यो यहाँ पर क्या भगवान की कृपा नही है ? क्या यह उनके करुणाराज्य के बाहर है ? नागरिक-मुझे इन चाटूक्तियों के उत्तर देने का अवकाश नही। भस्मावशेष विहार और भग्नस्तूपों से तुम्हे इसका उत्तर मिलेगा। तुम लोगों को गृहस्थ मोटा बना कर अब अपना अपकार न करावेगे । बढ़ो यहाँ से । (जाता है) भितु-- 4 भी क्या अधर्म हो जाता है ? पुण्य क्या पाप मे परिवर्तित होता है ? भगवन, यह तुम्हारे धर्मराज की कैसी व्यवस्था है ? क्या धर्म में भी प्रतिघात होता ? उमका भी पतन और उत्थान है ? [महापिंगल का प्रवेश] महापिगल -एक दिन भीख न मिली और धर्म पर पानी फिर गया, सारी करुणा और विश्वमैत्री क हो गयी, क्या श्रमणजी ? भिक्षु-उपासक ! वान तो तुम यथार्थ कह रहे हो किन्तु तथागत के धर्म में ऐसी शिथिलता क्यों? महापिंगल --अजी धर्म जब व्यापार हो गया और उसका कारबार चलने लगा फिर तो उसमे हानि और लाभ दोनो होगा। इसमें चिन्ता क्या है। तुम्हे भोजन की आवश्यकता हो तो चलो मेरे साथ । किन्तु, थोड़ा काम भी करना होगा। भिक्षु और यदि मै काम न करूं तो? महापिंगल - भोजन न मिलेगा। मेरे ही यहां नही, प्रत्युत इस देश-भर में। शीघ्र बोलो; स्वीकार है ? भिक्षु क्या करना होगा ? महापिगल-जितने टूटे हुए विहार है उनमे से जिसके चाहो स्थविर बन - जाओ। भिक्षु-परिहास न करो, टूटे विहारों के लिए कोई लंगड़ा भिक्षु खोज लो। महापिंगल-अजी, राजा प्रसन्न होंगे तो तुम्हारे लिए उसको फिर से बनवा देंगे, किन्तु हाँ, काम करना होगा। भिक्षु-अभी तो काम भी नहीं समझ में आया । महापिंगल--- रमण्याटवी में एक दम्पति रहते है । स्त्री का नाम है चन्द्रलेखा । वह परम सुन्दरी है, इसी कारण महाराज उसको चाहते है । भिक्षु-तो इसमें मैं क्या करूं ? महापिंगल–चैत्य की पूजा करने जब वह जाती है तब तुम वहाँ के देवता बनकर उसे आज्ञा दो कि वह राजा से प्रेम करे । भिक्षु-तो फिर क्या होगा? महापिंगल-होगा क्या-तुम धर्म-महामात्य होगे और मैं दण्डनायक हूंगा। चन्द्रलेखा रानी होगी। भिक्षु-और यदि न करूं? महापिगल-तब तो राज्य-रहस्य जाननेवाला मुण्डित मस्तक लोटन-कबूतर हो जायगा। भिक्षु तथागत ! यहाँ मैं क्या करूं ? (कुछ सोच कर) अच्छा मुझे स्वीकार है। [दोनों जाते हैं दृश्यान्तर सप्तम दृश्य [अंधेरी रात । स्थान-चैत्य भूमि-प्रेमानन्द वहीं पर बैठा है] प्रेमानन्द : मान लूं क्यों न उसे भगवान ? नर हो या किन्नर कोई हो निर्बल या बलवान; किन्तु कोश करुणा का जिसका हो पूरा; दे दान । मान लूं क्यों न उसे भगवान ? विश्व-वेदना का जो सुख से करता है आह्वान, तृण से त्रायस्त्रिश तक जिसको समसत्ता का भान । मान लं क्यां न उसे भगवान ? मोह नहीं है किन्तु प्रेम का करता है सम्मान, द्वेषी नहीं किसी का, तब सब क्यों न करें गुणगान । मान लूं क्यों न उसे भगवान ? -यह चैत्य है। इसमें बुद्ध का शव-भस्म है । भस्म से ही यह रक्षित है। और भी कितने जीवों का भस्म इसी स्थान पर पहले भी रहा होगा। चीटे यहाँ भी शव को खा गये होंगे। वे ही शव होगे और फिर वही भस्म होगा, उसी में फिर चीटे होंगे, ऐसा सुन्दर परिणाम संसार का है ! अजी, अब तो मैं यहाँ से इस समय कहीं नहीं जाता। थोड़ी देर तक पड़ा-पड़ा चोरों को धोखा दूंगा, फिर देखा जायगा। इस अंधेरी रात में किसी गृही को क्यों दुःख दूं! [प्रेमानन्द एक ओर लेट जाता है भिक्षु का प्रवेश] भिक्षु-भयानक रात है-अभी तो सन्ध्या हुई है, किन्तु विभीषिका ने अपनी काली चादर अच्छी तरह तान ली है। मैं तो यहाँ नही ठहरूँगा, चाहे बधिक सिर भले काट ले, पर यह प्रतिक्षण भय से बीसों बार मरना तो नही अच्छा । कीड़े-मकोड़े से ? ऊहूँ ! वह विषेले ! जाने दो उनका ध्यान करना भी ठीक नही। फिर भाग चलूं । क्या चन्द्रलेखा आधी रात को आती है ? वह डरती नही, कामिनी है कि डाकिनी ! अच्छा बैठ जाऊं। [बैठता है। प्रेमानन्द नाक बजाता है जिसे सुनकर भिक्षु चौंक कर खड़ा हो जाता है]] भिक्षु-नमो तस्स""नमो""न न मैं नहीं भगवतो "भग जाता हूँ (कांपता है, शब्द बन्द होता है, भिक्षु फिर डरता हुआ बैठता है) प्रेमानन्द-(अलग खड़ा होकर)-देखू तो यह दुष्ट आज कौन कुकर्म करता है। [फिर छिप जाता है। भिक्षु कांपता हुआ सूत्र-पाठ करने लगता है। लोमड़ी दौड़ कर निकल जाती है, भिक्षु घबड़ा कर जप-चक्र फेंक उसे मारता है]] प्रेमानन्द-(स्वगत)-वाह, जप-चक्र तो सुदर्शन चक्र का काम दे रहा है ! देखू इसकी क्या अभिलाषा है। भिक्षु--(टूटा हुआ जप-चक्र लेकर बैठते हुए)-आज कैसी मूर्खता में हम लगे हैं-यहां तो भगवान् लोमड़ी के रूप मे आकर भाग जाते है और मुझे भी भगाना चाहते है; क्या करूं ? अभी वह नही आयी। जब अपने पहले दिनों में, किसी की आशा में मै अभिसार मे बैठता था, तब इससे भी बढी हुई भयानकता मेरा कुछ नहीं कर सकती थी; किन्तु अब वह वेग नही रहा, वह बल नही रहा ! नही तो क्या बताऊँ-(अकड़ता है) अच्छा कोई चिर" नही, देखा जायगा। अब तो बिना काम किये मैं टलनेवाला नही । (दूर से प्रकाश होता है)-अरे यह क्या -हाँ हाँ, वही चन्द्रलेखा आती है ! छिप जाऊँ ! (चैत्य की दूसरी ओर छिप जाता है) [हाथ में छोटा-सा बोप लिये चन्द्रलेखा आती है और दीप चत्य के समीप रख कर नमस्कार करती है] चन्द्रलेखा-भगवन् ! अपनी कल्याण-कामना के लिए मैं यह दीप प्रति सन्ध्या को जलाती हूँ। करुणासिन्ध ! तुम कामना-विहीन हो, पर मैं अबला स्त्री और गृहस्थ, सुख की आशाओं से लदी हुई-फिर क्योंकर कामना न करूं? आप विश्व के उपकार में व्यस्त हैं, किन्तु मेरा यह नव गठित छोटा-सा विश्व मेरे ऊपर निर्भर करता है; चाहे यह मेरा अहंकार ही क्यों न हो, किन्तु मैं इसे त्यागने में असमर्थ हूँ ! मेरा वसन्तमय जीवन है । प्रभो ! इसमें पतझड़ न आने पावे ! मेरा कोमल हृदय छोटे सुख में सन्तुष्ट है, फिर बड़े सुख वाले उसमें क्यों व्याघात डालते है ! क्या उन्हें इतने में भी ईर्ष्या है जो संसार भर का सुख अपनाना चाहते हैं ? इसका क्या उपाय है ! हमारे सम्बल तुम्ही हो नाथ ! [गाती है] कर रहे हो नाथ, तुम जब, विश्व-मंगल-कामना, क्यों रहें चिन्तित हमी, क्यों दुःख का हो सामना ? क्षुद्र जीवन के लिये, क्यों कष्ट हम इतने सहें- कर्णधार ! सम्हाल कर, पतवार अपनी थामना । [नमस्कार करती है और फूल चढ़ाती है] --आज देर हो गई। नित्य यहां पर आती हूँ किन्तु आज-सा हृदय कभी भयभीत नही हुआ । घर तो समीप ही है, चलूँ ! [दीप बुझ जाता है-चन्द्रलेखा त्रस्त होती है । भिक्षु चैत्य की आड़ से बोलता है] "चन्द्रलेखा, तेरी धर्मवृत्ति देखकर मैं प्रमन्न हुआ।" [चन्द्रलेखा घुटना टेक देती है] चन्द्रलेवा-वडी कृपा, धन्य भाग्य ! चैत्य की आड़ से-किन्तु मैं तुझे सुख देना चाहता हूँ। चन्द्रलेखा-भगवान् की करुणा से मैं सुख पाऊँगी। चैत्य की आड़ से-तू नरदेव की रानी हो जा ! चन्द्रलेखा-(तमक कर) हैं-यहाँ यही भगवान् की वाणी है ? या आप मेरी ? परीक्षा लेना चाहते है । नहीं भगवन्; ऐसी आज्ञा न दीजिये । मैं सन्तुष्ट हूँ। चैत्य की आड़ से-तुझे होना पड़ेगा। चन्द्रलेखा-तब तू अवश्य इस चैत्य का कोई दुष्ट अपदेवता है । मैं जाती हूँ, आज से इस राख के टीले पर कभी नहीं आऊँगी ! [जाना चाहती है, भिक्षु बड़ा भयानक गर्जन करता है, चन्द्रलेखा घबड़ा कर गिर पड़ती है] प्रेमानन्द-(निकल कर)-डरो मत, डरो मत; मैं आ गया। (प्रेमानन्द भिक्षु को पकड़ कर उसका गला दवाता है, वह चिल्लाता है)-हाय हाय ! यहाँ तो कोई यक्ष है । छोड़ दे, अब मैं ऐसा न करूंगा। प्रेमानन्द-(भिक्षु को चन्द्रलेखा के सामने लाता हुआ)-बेटी ! डरो मत, यह पाखण्ड भिक्षु था। भगवान् किसी को पाप की आज्ञा नही देते, धैर्य धरो। [तलवार लिये हुए विशाख का प्रवेश] विशाख -गुरुदेव ! प्रणाम । प्रिये, यह क्या ! प्रेमानन्द-यह दुष्ट भिक्षु चन्द्रलेखा को डरा कर राजकीय प्रलोभन देता था। मैं यही था, चन्द्रलेखा-सी सती का इन्द्र भी अपकार नही कर सकता। किन्तु अब इसे अकेली पूजा को न भेजना। विशाख-क्यों रे दुष्ट । काट लूं तेरा मुड़ा हुआ सिर ! [तलवार उठाता है, भिक्षु गिर पड़ता है, प्रेमानन्द उसे रोक लेता है] प्रेमानन्द-क्षमा सर्वोत्तम दण्ड है विशाख ! यवनिका तृतीय अङ्क प्रथम दृश्य [स्थान-वितस्ता का तट, नरदेव और महापिंगल] नरदेव - पिंगल ! तुम जानते हो कि प्रतिरोध से बड़ी शक्तियां रुकती नही प्रत्युत उनका वेग और भी भयानक हो जाता है। वही अवस्था मेरे प्रेम की है। इसने कोमलता के स्थान पर कठोरता का आश्रय लिया है। माधुर्य छोड़ कर भयानक रूप धारण किया है। महापिंगल-किन्तु मुझे तो प्रेम की जगह यह कोई प्रेत समझ पड़ता है, जो आपके हृदय पर अधिकार जमाये है ? नरदेव - क्या मेरे प्रेम की तू अवहेलना क्यिा चाहता है ? क्या उसकी परीक्षा लिया चाहता है ? अभी मै उसकी आज्ञा से, यह अपनी कटार अपने वक्षस्थल में उतार सकता हूँ। [कटार निकालता है] महापिंगल-यथार्थ है श्रीमान्, उसे भीतर कीजिये; नही तो मेरी बुद्धि घूमने चली जायगी। अपना हृदय क्या वस्तु है उसकी आज्ञा लिये बिना सहस्रों के हृदय का रक्त यह कटार पी सकती है, और क्या प्रेम इसे कहते हैं। हाँ जी, कुछ ऐसा- वैसा नही, प्रेम भी तो राजाओं का है। [एक सुन्दर नाव पर रानी का प्रवेश, डाँड़ें चलाने वाली सखियाँ गा रही हैं] नदी नीर से भरी। संचित जल ले शैल का, हुई नदी में बाढ़ । मानस में एकत्र था, इधर प्रणय भी गाढ़ ॥ नेह नाव उतरा चली, लगते हलके डाँड़ । लगती है किस कूल पर, बस्ती है कि उजाड़ ॥ मेरी स्नेह की तरी। नरदेव-अहा ! महारानी भी आज इधर आ गयी। महापिंगल-(धीरे से) भागिये । महारानी-(नाव से उतर कर) महाराज ! दासी का आगमन कुछ कष्ट- दायक तो नही हुआ ? नरदेव-भला प्रिये, यह क्या कहती हो ! महापिंगल -सच बोलिये पृथ्वीनाथ ! महारानी-(हँसकर) क्या कहता है पिंगल ? महापिंगल-जंगल मे मगल। महारानी-प्राणनाथ ! आज कितने दिनों पर दर्शन हुए। नरदेव '-क्या मैं कही बाहर गया था? महारानो-मैं तो अपने को दूर ही समझती हूँ। महापिंगल-यह रेखागणित का सिद्धान्त तो मेरी समझ में न आया । महारानो-दूर जब हो गया कही मन से क्या हुआ तन लगा रहे तन से । स्वप्न में सैर सैकड़ों योजन कर चुका मन, न छू गया तन से । नरदेव-(लज्जित होकर) प्रिये, यह क्या कह रही हो ! महारानी --नाथ | कैमा शोवनीय प्रमंग है कि मै ऐसा कहूँ- मधुपान कर चुके मधुप, सुमन मुरझाये, शीतल मलयानिल गया, कौन सिचवाये ? पत्ते नीरम हो गये सुखा कर डाली, चलती उपवन में लूह कहां हरियाली ? नरदेव-(हाथ पकड़ कर) प्रिये, तुमको ऐसी बातें न कहनी चाहिये । महारानी-वही तो मैं चाहती थी, किन्तु प्राणनाथ की कल्याण-कामना मुझे मुखर बनाती है। नरदेव -क्या मुझसे तुम विशेष बुद्धिमती हो ? महारानी यह मैंने कब कहा ? पर राज्य की व्यवस्था देखिये, कैसी शोचनीय है ! आपकी मानसिक अवस्था तो और भी... नरदेव -बस जाओ, इन बातों को मै सुनना नही चाहता। जी बहलाने के लिये कुछ दिन उपवन में चला आया, यही क्या बड़ा भागे अन्याय हुआ ? [बौद्ध भिक्षु को लिये प्रहरियों का प्रवेश] भिक्षु-न्याय मैने क्या किया है, हाय हाय !! नरदेव -क्या बात है ? प्रहरी महापिंगलजी ने कहा कि यह भिक्षु राजाज्ञा से कारागार में रक्खा जाय । यह वहां नही रहता, अपना सिर पटक कर प्राण देना चाहता है । महापिंगल-तो तुम लोगों को इस मुड़े हुए सिर के लिए इतनी चिन्ता क्यों है; ले जाआ इसे । महारानी-भिक्षु का क्या अपराध है ? नरदेव-मैं तो नही जानता, क्यों जी क्या बात है ? भिक्षु-महापिंगल ने मुझे धमकाया कि यदि तुम उस पुराने चैत्य पर जाकर चन्द्रलेखा को डरा करके महाराज से मिलने पर न विवश करोगे तुम शूली पर चढ़ाये जाओगे। [नरदेव और रानी महापिंगल को देखती हैं, महापिंगल भागना चाहता है] महारानी -सावधान होकर खड़े रहो । कहो, क्या तुमने महाराज के आदेश से ही यह काम कराया था ? नरदेव-मैने कब इसे कहा" महापिंगल-महाराज, जब आप इतने व्याकुल हुए कि हाँ तब मैंने ऐसा प्रबन्ध किया था, जो है सो- नरदेव-तुम झूठे हो। महारानी-प्रहरियों, इस भिक्षु को छोड़ दो और महापिंगल को बाँध लो। [प्रहरी आगे बढ़ते हैं] महापिंगल-दुहाई ! चन्द्रलेखा मुझे नरी प्यारी थी महाराज ! आप बचाइये, नही तो फिर... नरदेव-प्रिये ! उसे जाने दो, वह मूर्ख है । महारानी-महाराज ! आप देश के राजा हैं और हमारे पति हैं, क्या इसी तरह राज्य रहेगा? क्या अन्याय का धड़ा नही फूटेगा? क्या आपको इसका प्रतिफल नही भोगना पड़ेगा ? मान जाइये । ऐसे कुटिल सभासदों का संग छोड़िये । इसे दण्ड पाने दीजिये। महापिंगल-दुहाई महाराज ! चन्द्रलेखा के डर से यह मुझे मरवाना चाहती हैं, न्यायवाय कुछ नहीं। नरदेव-(स्वगत) आह चन्द्रलेखा ! (प्रहरियों से) छोडो जी, जाओ तुम लोग ! महापिगल -बडी दया हुई । इसी रानी की सौतिया-डाह से तो वह झिझकती है। महारानी-चुप नरक के कीड़े ! तेरी जीभ बिजली से भी चपल है । नरदेव--रानी ! तुम अब जाओ, अपने महल मे जाओ। महारानी--आपने कुपथ पर पैर रक्खा है और मै आपको बचा न सकी। परिणाम बडा ही भयंकर होने वाला है। वह मैं नहीं देखना चाहती। किन्तु, कहे जाती हूँ कि अन्याय का राज्य बाल की भीत है। अब मैं रह कर क्या करूंगी, मैं चली, किन्तु सावधान ! (नदी में कूद पड़ती है) दृश्या न्त र द्वितीय दृश्य [विशाख और चन्द्रलेखा प्रकोष्ठ में] विशाल-प्रिये, क्या किया जाय ? चन्द्रलेखा-भगवान ही महाय है । धैर्य धारण करो। विशाख-कामान्ध नरपति से रक्षा कैसे होगी? चलो प्रिये ! हिमवान की बहुत-मी सुरक्षित गुफाये है, प्रकृति के आश्रय मे वही सुख से रहेगे । चन्द्रलेखा--मे तो अनुचरी हूँ। किन्तु अब समय कहाँ है, पिताजी को तो समाचार भेज चुकी हूँ। विशाख- हाँ, जो विपत्ति में आश्रय है, जो परित्राण है, वही यदि विभीषिकामयी कृत्या का रूप धारण करे तो फिर क्या उपाय है ! राजा के पास प्रजा न्याय कराने के लिये जाती है, किन्तु जब वही अन्याय पर आरूढ़ है तब क्या किया जाय ! (कुछ सोचता है)-कोई चिन्ता नही प्रिये ! डरो मत । [महापिंगल का प्रवेश] महापिंगल--विशाख ! मै तुम्हारी भलाई के लिये कुछ कहना चाहता हूँ। विशाख-बस चुप रहो, तुम ऐसे नीचों का मुंह भी देखने में पाप है । महापिंगल-चन्द्रलेखा को राजा के महल मे जाना ही होगा। क्यों तब और व्यर्थ प्राण जावें। [विशाख तलवार खींच लेता है] विशाख-अच्छा सावधान ! इस अपमान का प्रतिफल भोगने के लिए प्रस्तुत हो जा। [महापिंगल भागना चाहता चन्द्रलेखा बचाना चाहती है, किन्तु विशाख की तलवार उसका प्राण संहार कर देती है] चन्द्रलेखा-अनर्थ हो गया प्राणनाथ ! यह क्या अब तो भविष्य भयानक होकर स्पष्ट है। विशाख-मरण जब दीन जीवन से भला हो, सहे अपमान क्यो फिर इस तरह हम । मनुज होकर जिया धिक्कार से जो, कहेगे पशु गया-बीता उसे हम॥ [सैनिकों का प्रवेश । विशाख को घेर लेते है । वह तलवार चलाता हुआ बन्दी होता है । चन्द्र लेखा भी पकड़ ली जाती है] [सुश्रवा का प्रवेश]] सुश्रवा-यह क्या अनर्थ? सैनिक-देखता नही है -राजानुचर महापिंगल का यह शव है। इसी विशाख ने अभी इसकी हत्या की है। सुश्रवा-क्यो वत्स विशाख ! यह क्या सत्य है ? विशाख-सत्य है। इसने मेरा अपमान किया और मेरे सामने मेरी स्त्री को प्रलोभन दिया-उसे सामान्य वेश्या से भी नीच समझ लिया ! सैनिक-इसका निर्णय तो महाराज स्वयं करेगे। अब चलो यहाँ से । सुश्रवा-ठीक तो, किन्तु यह बताओ चन्द्रलेखा ने क्या अपराध किया है-उसे क्यों ले जाते हो? चन्द्रलेखा- मुझे जाने दो बाबा । मै साथ जा रही हूँ। कोई चिन्ता नही। सैनिक-बूढ़े ! चुप रह । राजाज्ञा के विरुद्ध कुछ नही कर रहे है । [दोनों को लेकर जाता है। रमणी और इरावती तथा कुछ नागों का प्रवेश] सुश्रवा-चन्द्रलेखा गई, विशाख भी गया, हा". रमणी-आने में देर हुई, कोई चिन्ता नही। पहला नाग-देवी ! तब क्या उपाय है ? दूसरा नाग-चन्द्रलेखा का उद्धार करना ही होगा। तीसरा नाग-चाहे प्राण भले ही जायें, इससे पीछे न हटूंगा, जो देवी की आज्ञा हो। चौथा नाग-तो मैं जाता हूँ और भाइयों को बुलाता हूँ। रमणी-शीघ्र जाओ। [प्रेमानन्द का प्रवेश] प्रेमानन्द-किन्तु क्या अन्याय का प्रतिफल अन्याय है ? क्या राजा मनुष्य नहीं है ? रक्त-मांस का उसका भी शरीर है, फिर क्या उसे भ्रम नही हो सकता ? रमणी-भ्रम नही, यह स्पष्ट समझ कर किया गया, अन्याय है। प्रेमानन्द रमणी ! अग्नि मे घी न डालो ! समझ से काम लो। रमणी-तो हम लोग चुपचाप बैठे ? इरावती-और, बहिन चन्द्रलेखा को न खोजें ? प्रेमानन्द-देश की शान्ति भंग करना और निरपराधों को दुख देना-इसमें तुम्हे क्या मिलेगा ? देखो, सावधान हो; इस उत्तेजना राक्षमी के पीछे न पड़ो-एक अपराध के लिए लाखों को दण्ड न दो ! हरी-भरी भूमि के लिये पत्थर वाले बादल न बनो! अन्यथा पछताओगे। सुश्रवा - तब क्या करें? प्रेमानन्द --मत्य को मामने रक्खो, जात्मबल पर भरोसा रक्ग्वो, न्याय की मांग कगे। सव -अच्छा तो पहो यही किया जाय । दृ श्या न्त र तृतीय दृश्य [तरला का गृह] भिक्षु-(आप-ही-आप) - जव भिक्षु होने होने पर भी मांगे भीख न मिली; तो हम क्या करे ? ऐ बोनो ! आकाश की ग्याही को चन्द्रमा की चांदनी से कब तक घोया करें? बिल्ली कब तक छीछटों से अपना जी चुरावे । गडबड़झाला न करें तो क्या करें। भगवान तुम चाहे कुछ हो, पर संकट के समय कभी काम आ जाते हो, ऐं बोलो, फिर क्यों न तुम्हे मान लेने के लिये जी चाहे । लेकिन हां, सब उसी समय तक; फिर, तुम हो-हुआ करो। अरे बाप रे !-(काँपता है)-जव चन्द्रलेखा का पति तलवार निकाल कर- ओह ! नही, वच गये--बच; अजी हां, वह भी दिल्ली की राह काटने वाली सायत पौ। चलो अब तो पौ बारह है-भरा घड़ा मिला है ! चुप, क्या बकता है। अरे निर्भयानन्द, तुझे क्या हो गया है-(सोच कर)-हां यह यक्षिणी सोना बनाने वाली। आ तो इस टूटे-फूटे घर मे सोने की पाटी, पन्ने का पावा, चांदी की चूल्ही और मिट्टी का तावा ? अगड़-बगड़ रगड़-बगड़ साध तो झगड़-(तरला को आते देख आंख मूंद कर बैठ जाता है) [पोटली लिए हुए तरला का प्रवेश] तरला-लीजिये महाराज! यह भिक्षा प्रस्तुत है । दरिद्र की रूखी-सूखी ग्रहण कीजिये । जूठन गिरा कर मेरा घर पवित्र करिये । भिक्षु-(आँख खोलकर)-उपासिका ! तू आ गई । अहा, कमी पवित्र मूर्ति है ! तुझे शान्ति मिले। अरे यह क्या लायी, भिक्षा ? नहीं-नही, तू वडी दुखी है, मैं तेरी भिक्षा नही ग्रहण करूंगा। मै यो ही प्रसन्न हूँ।-(जाना चाहता है) -(स्वगत)-अहा कैसे महात्मा है--(प्रकट)-भगवान्, मुझसे अवश्य कोई अपराध हुआ, आप रूठे जाते है । दया कीजिये । क्षमा दीजिये । भिक्षु-नही नही, दरिद्र की भिक्षा सच्चे साधु नही लेते है । तुझे दुःख होगा, अपने के. १५., कोई-न-कोई भगवान् का भक्त मिल ही जायगा। मुझे समाधि में ज्ञात हुआ कि तुझे बडा कष्ट है। तरला-(रोने लगती है)-भगवान् यह क्या ! आप तो अन्तर्यामी है । आप सत्य कहते हैं-मैं सचमुच ही बडी दुखिया हूँ। अभी थोड़े दिन हुए, मेरे स्वामी किसी दुष्ट के हाथ मारे गये है, और मेरे लिये कुछ जीवन-वृत्ति भी नहीं छोड़ तरला- गये है। भिक्षु-(स्वगत)-मै जानता हूँ, तू महागिल की स्त्री है। उमी दुष्ट ने मेरी दुर्दशा करायी। राजा का सहचर ही था, बड़ा मालदार रहा है । अच्छा-- (प्रकट)-विचार था कि तुझे दु ख से बचा लें, किन्तु नही, मा करने से हम विरक्त लोगों को बड़े झगड़े में पड़ना पड़ता है -राब पीछे लग जाते है । -(सोचने का ढोंग करता है)-नही नही, फिर फिर भी दया आती है। तरला-भगवान्, दया कीजिये, मेरा उपकार कीजिये - मै दासी हूँ ! भिक्षु-एक बार दया कर देने से हल्ला मच जाता है, सभी तग करने लगते हैं कि मुझे भी धनी बना दो। किन्तु तुझ पर तो तरला-(स्वगत) -क्या यह सोना बनाना जानते है ? (प्रकट) फिर क्यों नही दया करते ! यह दुखिया भी सुखी होकर आपका गुण-गान करेगी ! भिक्षु-अच्छा, आँख मूंद कर हाथ जोड़, *भी देखू कि तेरा भाग्य कैसा है। -(तरला वैसा ही करती है)-इचिलु मिचिलु खिचिलु बयुजारे श्वयुनश्वे खिचिटि खिचिटि फट् (ठहरकर)-ठीक है, खोल दे आँख । तरला-(आँख खोल कर) क्या देखा भगवन् ! भिक्षु-समुद्र की रेत की तरह ! तरला-क्या रेत की तरह ? भिक्षु-हां, रेत की तरह लम्बा-चौड़ा चमकता हुआ उज्ज्वल"" तरला-उज्ज्वल ! क्या उज्ज्वल ? भिक्षु-(क्रोध से) तेरा- --कपाल और क्या ? तरला - (पैर पकड़ कर)-खुल गये, भाग्य खुल गये । भिक्षु-(सिर हिलाता है)-खुल गये, अवश्य खुल गये। पर तू सब से कहेगी और मै तंग किया जाऊँगा। तरला-कभी नही, जो आज्ञा कीजिये। भिक्षु-(कड़क कर) -अच्छा तो ला फिर जो तेरे पास चॉदी-तांबा हो। तांबा-चाँदी हो जाय, चांदी सोना हो जाय -(ऐंठता हुआ)-चल तो स्वर्णयक्षिणी- हो देर न कर ! [तरला घर में जाकर गहने निकाल लाती है। भिक्षु उसे देखकर विचित्र चेष्टा करता है] भिक्षु-अच्छा, इचिलु, मिचिनु खिचिलु बयुजारे श्वयुनश्वे खिचिट खिचिट फट् स्वर्ण कुरु-कुरु स्वाहा -(गड्ढा दिखा कर) -रख दे इसी मे (रखने पर उसे ढंक देता है)-आँखे बन्द कर हाथ जोड -(तरला वैसे ही करती है। भिक्षु मन्त्र पढ़ता है, वह पढ़ती है) भिक्षु-अच्छा तो देख। तरला -देखू क्या, आँखें तो बन्द है, खोल दूं ? भिक्षु -न न न न न न, ऐसा न करना नही तो सब छू मन्तर ! तरला-तब क्या करूं? भिक्षु-सुन, जब तक हम देवता की पूजा करके ध्यान लगाते है, नैवेद्य चढ़ाते है, समझा न -बोलो कहो। तरला-बोलो कहो क्या कहूँ भिक्षु-चुप रहो, जो मै कहता हूँ वह । तरला-वही तो। भिक्षु-नैवेद्य लगाने पर सब एकदम छू मन्तर । तरला-सब एकदम छू मन्तर ! (सिर हिलाती है) [भिक्षु पूजा का ढोंग करता है । तरला ऑखे बन्द किये है। भिक्षु गड्ढे में से सब निकाल कर बाँधता है ] भिक्षु-उपासिका, मैं इसी चतुष्पथ पर यज्ञ-बलि देकर आता हूँ। तब इसको खोलना होगा। बस सब एकदम छू मन्तर ! तरला-सब छू मन्तर? भिक्षुः -तब तक आंख न खोलना, नहीं तो सब". तरला-क्या छू मन्तर ? भिक्षु-हाँ हाँ, चुप होकर मन्त्र का जप-ध्यान करो। [तरला 'खिचिट स्वाहा' जपती है। भिक्षु सब लेकर चम्पत हो जाता है। तरला थोड़ी देर बाद आँख खोलती है। गड्ढा खाली देख कर कहती है-'हाय रे सब छू मन्तर !'] [गिर पड़ती है] दृश्या न्त र चतुर्थ दृश्य [स्थान-राजदरबार । राजा नरदेव सिंहासन पर। विशाख और चन्द्रलेखा बन्दी के रूप में] नरदेव-क्यों विशाख ! हमारे उपकारों का क्या यही प्रतिफल है कि तुम मेरा अपमान करते हुए मेरे सहचर की हत्या करो ? तुम्हारा इतना साहस ! विशाख-नहीं जानता हूँ कि उस समय क्या उत्तर दिया जाता है जब कि अभियोग ही उल्टा हो और जो अभियुक्त हो-वही न्यायाधीश हो ! नरदेव-ब्राह्मणत्त्व की भी सीमा होती है, राज्यशासन के वह वहिर्भूत नही है। क्या अपने दण्ड का तुम्हें ध्यान नहीं है ? विशाख-न्याय यदि सचमुच दण्ड देता है तो मैं नहीं कह सकता कि हम दोनों में, किसे वह पहिले मिलेगा । नरदेव-चुप रहो । दौवारिक ! दीवारिक-(प्रवेश करके)-पृथ्वीनाथ ! क्या आज्ञा है ? नरदेव-इस विशाख ने अपराध स्वीकार किया है। इसका सर्वस्व अपहरण करके इसे केवल राज्य से बाहर कर दो। चन्द्रलेखा-और मुझे क्या आज्ञा है ? नरदेव-तुम्हारा विचार फिर होगा। चन्द्रलेखा-मेरा अपराध ? नरदेव-मैं सब बातों का उत्तर देने को बाध्य नहीं। विशाख-तो मैं भी बाहर जाने को बाध्य नहीं। नरदेव - इतनी धृष्टता ! प्रहरी, ले जाओ इसे । चन्द्रलेखा-मुझे भी। नरदेव -(क्रुद्ध होकर)-दोनो को ले जाओ, शूली दे दो ! [बाहर कोलाहल होता है] नरदेव-देखो तो बाहर क्या है [एक बाहर जाकर देखकर आता है] दौवारिक-महाराजधिराज, नाग जाति की एक बडी जनता महाराज से प्रार्थना करने आई है। नरदेव-उसमे से थोडे लोग यहा आवे । (वौवारिक जाकर कुछ नाग सरदारों को ले आता है) नाग-न्याय नरदेव-कैसा आतक है | क्यो तुम लोग चिल्ला रहे हो? सुश्रवा-आपके सैनिको ने मेरी कन्या वन्द्रलेखा और जामाता पिशाख को अकारण पकड रखा है, उसे छोड दिजिये । नरदेव-उसने हत्या की थी। उसने अपराधो का विचार हुआ है कि वह देश से निकाला जाय । इसलिए तुम लोगो को अब उस विषय मे कुछ न बोलना चाहिए। नाग-रमणी-तो सारे सभासदो और नागरियो के मामने राजा । म तुम्हे अभियुक्त बनाती हैं। जो दोष कि एक निरपगव नागरिक को देश-निकाला दे सकता है वही अपराध देवू तो गत्ताधारी ग क्या कर सकता है ? क्या तुम चन्द्रलेखा पर आसक्त नही हो, और क्या तुमने एमन्त मे उसमे प्रणय-भिक्षा नही की थी? क्या तुम्हारी ओर से प्रेरित होवर महापिंग ा नही गया था? क्या आने पति को छोडकर चन्द्रलेखा से राजरानी बनने का घृणित प्रस्ताव नही रिया ? बोलो, उत्तर दो। नरदेव-अभागिनी । क्या तेरी मृत्यु निकट है ? क्या स्त्री होने की ढाल तुझे उससे बचा लेगी? अपनी जीभ रोक । चन्द्रलेखा 1-यह सब मत्य है कि राजा नरदेव मेरी प्रणय-कामना मे पड कर यह अनर्थ करा रहे है-धर्म की दुहाई जनता-अनर्थ । न्याय के नाम पर अत्याचार | | दमका सुविचार होना चाहिये। नरदेव-क्या तुम लोगो को कुछ विचार नही है कि हम न्यायाधिकरण के सामने है। जनता न्यायाधिकरण मे क्या अत्याचार ही होता है ? हम अन्यायपूर्ण आज्ञा नही मानेगे। नरदेव - तुम लोग शान्ति के साथ घर लौट जाओ। जनता-तो हमें चन्द्रलेखा और विशाख मिल जायें। नरदेव-कभी नहीं। अपराधी इस तरह नहीं मुक्त हो सकता। नियम यों नहीं भंग किये जा सकते। जनता-तो हम भी नहीं टलेंगे ! [प्रेमानन्द का प्रवेश] प्रेमानन्द--राजन्, सावधान ! यह क्या ? बच्चे जब हठ करें तो क्या पिता भी रोष से उन्हीं का अनुकरण करे ? क्या राजा प्रजा का पिता नहीं है जो एक बार उसका मचलना नहीं सम्हाल सकता ? नरदेव - यह मठ नही है भिक्षु ! तुम्हें यहां बोलने का अधिकार नहीं है। प्रेमानन्द--राजन् ! सुविचार कीजिये । नरदेव-महादण्डनायक ! दण्डनायक- क्या आज्ञा है महाराज। नरदेव टन लोगों को बाहर निकाल दो और चन्द्रलेखा तथा विशाख को अभी शूली न दी जावे। प्रेमानन्द-उन्हें छोड़ दीजिये । राजन्, प्रजा को सुख दीजिये । क्या आप ही ने इसी एक स्त्री पर अत्यागार होने के कारण मैकडों विहार नहीं जलवाये ? क्या वह न्याय दूसरों के लिए ही था ? भगवान् की मर्वहारिणी योगमाया की यह उज्ज्वल सृष्टि है। नरनाथ ! वह तुम्हारा न्याय नहीं था, न्याय का अभिमान मात्र था। आज तुम वही पाप कर रहे हो ! कैसा रहस्यमय प्रतिघात है। इसी से कहता हूं कि भगवान् की वरुणा ही सत्रको न्याय देती है । तुम मान जाओ। नरदेव-चले जाओ संन्यामी, तुम क्यों व्यर्थ अड़ते हो हो ? यह नहीं हो सकता । निकालो जी, इन्हें बाहर करो। सबनाग - तब हम लोगों पर कोई उत्तरदायित्व नहीं, और, बिना विशाख और चन्द्रलेखा को लिये हम नही जायेंगे। नरदेव-कड़क कर)-मारो इन दुष्टों को। [सैनिक प्रहार करते हैं। 'आग आग !'-का हल्ला। नरदेव घबरा कर भीतर भागता है। चन्द्रलेखा और विशाख को लेकर नाग लोग भागते हैं। आग फैल जाती है। अग्नि में से घुसकर प्रेमानन्द राजा को उठा लाता है और पीठ पर लादकर चला जाता] दृश्यान्तर पंचम दृश्य [कानन में इरावती का कुटीर] इरावती-(प्रवेश करके)-क्रोध ! प्रतिहिमा और भयानक रक्तपात ! ! यह क्या सुन रही हूँ भगवन् तुमने चिरकाल से मनुष्य को किस मायाजाल में उलझाया है ! वह अपनी पाशववृत्ति के वशीभूत होकर उपद्रव कर ही बैठता है- समझदारी, मारा ज्ञान, समस्त क्रमागत उच्च सिद्धान्त बुल्लों के समान विलीन हो जाते हैं; और उठने लगती हैं भयानक तरंगें ! चन्द्रलेखा को लेकर इतना बड़ा उपद्रव हो जायगा, कौन जानता था । अहा स्नह, वासल्य, सौहार्द, करुणा और दया सब विलीन हो गये-केवल क्रूरता, प्रतिहिंसा का आतंक रह गया। इतना दुःखपूर्ण संसार क्यों बनाया मेरे देव ! यह तुम्हारी ही सृष्टि है-करुणासिन्धु ! मेरे नाथ ! [प्रार्थना करती है] दीन दुखी न रहे कोई, सुखी हों सब देश समृद्धि प्रपूरित हो-जनता नीरोग, कूटनीति टूटे जग मे-सबमे सहयोग भूप प्रजा समदर्शी हों-तजकर सब ढोंग । दीन दुखी न रहे. [अचेत नरदेव को लिए प्रेमानन्द का प्रवेश] इरावती-(देख कर)-अहा, घायल है कोई ! और आप महात्मा ! इन्हें ढोकर ले आ रहे हैं तो क्या मैं भी कोई सेवा कर सकती हूँ ? प्रेमानन्द-(नरदेव को लिटाते हुए)-सेवा करने का सभी को अधिकार है देवि ! इसे थोड़ा-सा दूध चाहिये । [इरावती जाती है, प्रेमानन्द किसी जड़ी का रस नरदेव के मुंह में टपकाता है वह कुछ चैतन्य होता है । इरावती दूध लाती है] प्रेमानन्द–अभी तुम्हें बल नहीं है। लो, थोड़ा-सा दूध पी लो (इरावती दूध पिलाती है) नरदेव-(स्वस्थ होकर)-देवदूत ! मेरे अपराध क्षमा कीजिये। प्रेमानन्द-अपराध ! अपराध तो नरदेव ! एक भी क्षमा नहीं किये जाते और उसी अवस्था में अपराधों से अच्छा फल होता होता है ! सज्जनों के लिए वही उदाहरण हो जाता है। किन्तु तुम्हें तो पूर्ण दण्ड मिला और अब तुम तपाये हुए सोने की तरह हो गये। अभी तुम्हारी व्यथायें शान्तं नहीं हुई, इसलिए तुम लेटो। पोड़ी-सी जड़ी और लाकर तुम्हारे अंगों पर मल ढूं, जिससे तुम पूर्ण स्वस्थ हो जाओ। (जाता है) नरदेव-हाय हाय, मैंने क्या किया-एक पिशाच-प्रस्त मनुष्य की तरह मैंने प्रमाद की धारा बहा दी ! मैंने सोचा था कि नदी को अपने बाहुबल से सन्तरण कर जाऊँगा, पर मैं स्वयं बह गया। सत्य है, परमात्मा की सुन्दर सृष्टि को, व्यक्तिगत मानापमान, द्वेष और हिंसा से किसी को भी आलोड़ित करने का अधिकार नहीं है। प्राय: देखा जाता है कि दूसरों के दोष दिखाने वाले घटनाचक्र से जब स्वयं किसी अन्याय को करने लगते हैं तो पशु से भी भयानक हो जाते हैं । न्याय और स्वतन्त्रता के बदले 'घोर आवश्यक' बताने वाले परतन्त्रता के बन्धन का पाश अपने हाथ में लेकर मानवममाज के सामने प्रकट होते हैं। इसीलिये प्रकृति के दास मनुष्य को- आत्मसंयम, आत्मशासन की पहली आवश्यकता है। नही तो वह प्रमादवश अनर्थ ही करता है। प्रेमानन्द-(प्रवेश करके)-ठीक है नरदेव ! यह विचार तुम्हारा ठीक है। प्रमाद, 7. द्वेग आदि स्वप्न है, अलीक है। किन्तु क्या इसे पहले भी विचार किया था क्या मानवता का परम उद्देश्य तुम्हारी अविचार-वन्या में नही बह गया था ? विचारो, सोचो, फिर राजा होना चाहते हो? नरदेव -नही भगवन् ! अब नही। उस प्रमादी मुकुट को मैं स्वीकार नहीं करूंगा। हृदय मे असीम घृणा है। उसे निकालने दीजिये । गुरुदेव, मैं आपकी शरण हूँ; मुझे फिर से शान्ति दीजिये। प्रेमानन्द-गरदेव ! तुम आज सच्चे राजा हुए। तुम्हारे हृदय पर आज ही तुम्हारा अधिकार हुआ। तुम्हारा स्वराज्य तुम्हे मिला। हृदय राज्य पर जो अधिकार नही कर सका, जो उसमे पूर्ण शान्ति न ला सका, उसका शासन करना एक ढोंग करना है । भगवान् तुम्हारा सार्वत्रिक कल्याण करेंगे। [चन्द्रलेखा का एक बालक को गोद में लिए हुए आना] चन्द्रलेखा-महात्मन् ! यह वालक राजमन्दिर में मिला है। उत्तेजित नागों ने इसे राजकुमार समझ कर मार डालना चाहा। पर मैं किसी तरह इसे बचा लायी। नरदेव- (देखकर)-भगवान्, तू धन्य है, इस प्रकाण्ड दावाग्नि में नन्ही-सी दूब तेरी शीतलता मे बची रही। मेरे प्यारे बच्चे। प्रेमानन्द-मूर्तिमती करुणे ! तुम्हारा जीवन सफल हो ! स्त्री जाति का सुन्दर उदाहरण तुमने दिखाया । नरदेव को मार कर भी तुमने जिलाया। चन्द्रलेखा-अरे नरदेव""मै तो पहचान भी न सकी" नरदेव-देवि, क्षमा हो । अधम के अपराध क्षमा हों। [बच्चे को गोद में लेता है] चन्द्रलेखा-राजन्, रूप की ज्वाला ने तुम्हें दग्ध कर दिया, कामना ने तुम्हें कलुषित कर दिया, क्या मेरा कुछ इसमें सहयोग था ! नहीं; इस सोने के रंग ने तुम्हारी आँखों में कमल रोग उत्पन्न कर दिया । तुम्हें सर्वत्र चम्पकवर्ण दिखलाई देने लगा। पर क्या यह रंग ठहरेगा। किन्तु इस दुखद घटना का इतिहास साक्षी रहेगा, तुम्हारी दुर्बलता की घोषणा किया करेगा। परमात्मा तुम्हें अब भी शान्ति दे ! विशाख-(प्रवेश करके)-यह क्या, तुम नरदेव हो ? अभी जीवित हो ! प्रेमानन्द-विशाख, वत्स ! प्रतिहिंसा पाशववृत्ति है। नरदेव अब संन्यासी हो गया है। उसे राष्ट्र से कोई काम नहीं। यदि मेरा कहा मानो, तो तुम अपने सज्जनता के हृदय से इन्हें क्षमा कर दो, और इस बालक को ले जाकर प्रजा के अनुकूल राजा बनने की शिक्षा दो। तुम्हें भी कर्म करने के बाद मेरे ही पथ पर शान्ति पाने के लिए आना होगा। विशाख-जैसी आज्ञा। नरदेव-भाई विशाख, मुझे क्षमा करना । विशाख-भगवान् क्षमा करें। नरदेव-शान्ति के लिए भगवान से प्रार्थना करनी चाहिये । प्रेमानन्द-प्रार्थना करो, तुम्हें शान्ति मिलेगी। नरदेव-(हाथ जोड़ कर बैठकर) हृदय के कोने कोने से स्वर उठता है कोमल मध्यम, कभी तीव्र होकर भी पंचम, मन के रोने से । इन्दु स्तब्ध होकर अविचल है; भाव नही कुछ वह निर्मल है हृदय न होने से। उसे देख सन्तोष न होता, वह मेघों में छिप कर सोता, तेजस् खोने से। तुम आओ तब अच्छा होगा, हृदय भाव कुछ सच्चा होगा, तेरे टोने से। किन्तु हुआ अब लज्जित हूँ मैं कर्म फलों से सज्जित हूँ मैं, उनके बोने से। आवृत हो अतीत सब मेरा, तूने देखा, सब कुछ मेरा, पर्दा होने से। [यवनिका]