विद्यार्थियों के लिए गीता : आचार्य मायाराम पतंग

Vidhyarthiyon Ke Liye Gita : Acharya Mayaram Patang

अपनी बात

इस युग के महान् संत स्वामी विवेकानंद ने कहा था—‘‘गीता को समझने के लिए पूजाघर नहीं चाहिए, अपितु फुटबॉल का मैदान चाहिए। जब तक शारीरिक परिश्रम से पसीना न निकले, तब तक गीता रहस्य समझना कठिन है।’’ वास्तव में स्वामीजी का अभिप्राय था, जय-पराजय का विचार न करके, टीम भावना से खेलकर गीता का कर्मयोग समझने में सरलता होगी। निष्काम कार्य और खेल-भावना अनुभव किए बिना मात्र शब्द रह जाते हैं। खूब खेलने के पश्चात् यह अनुभव स्वयं समझ में आ जाता है।

विद्यार्थी काल में गीता का भाव समझ गए तो यह जीवन में पग-पग पर काम आएगा। जीने की कला आएगी। आपत्तियों तथा कष्टकर परिस्थितियों में निराशा नहीं आएगी। अपने-पराए और मित्र-शत्रु के मोह से मुक्त होने का ढंग आ जाएगा। शायद लोग सेवा-निवृत्त होकर गीता पढ़ते हैं। जब सारा जीवन मोह, लोभ, काम, क्रोध और अहंकार की भेंट चढ़ गया, दुःख और संतापों का ताप सह लिया, तिल-तिल कर मरते रहे, फिर गीता पढ़ी तो क्या लाभ हुआ? पाप और पुण्य कर्मों का फल तो भोगना निश्चित ही हो गया।

अतः प्यारे विद्यार्थियो! गीता का यह सरल सार पढ़ो-समझो तथा करो। गीता पर महान् संतों ने, ज्ञानी जनों ने अनेक टीकाएँ लिखी हैं। अपने-अपने ढंग से, अपने जीवन के अनुभवों से श्लोकों के अर्थ समझाने का प्रयास सभी ने किया है।

मैं न तो संत हूँ, न महात्मा, परंतु मैंने गीता को बचपन से जिया है। सत्संग में सुना और स्वाध्याय किया। साप्ताहिक सत्संग आयोजित करके (आपातकाल में 1975-76) मुझे श्रोताओं के समक्ष व्याख्या करने का भी अवसर प्रभु ने प्रदान किया था। सत्संग में भी प्रौढ़ जन-महिलाएँ ही अधिक होते हैं। विद्यार्थी न आते हैं, न माता-पिता उन्हें साथ लाते हैं। अतः उन तक पहुँचाने के लिए सरल भाषा में एक संक्षिप्त गीता लिखी जाने की आवश्यकता थी। इसके लिए मैंने कई विद्वानों से चर्चा की, तो यही उत्तर मिला कि गीता तो बाजार में बहुत हैं। विद्यार्थी भी पढ़ सकते हैं। कमी है तो प्रेरणा की तथा पुस्तक प्रकाशन में आकर्षक स्वरूप की। यही विचार प्रभातजी के मन में भी आया, दोनों की परस्पर चर्चा हुई तथा मेरा पुराना संकल्प साकार करने का प्रभु ने सुअवसर दे दिया। परिणाम के रूप में पुस्तक ‘विद्यार्थियों के लिए गीता’ आपके कर-कमलों में है।

गीता के हर अध्याय में जो महत्त्वपूर्ण श्लोक हैं, जिन्हें स्मरण किया जा सके, गाया जा सके, उन्हें भी देना उपयोगी समझा। स्पष्ट है कि यह संपूर्ण गीता नहीं है, बल्कि मात्र प्रेरणा है। विद्यार्थियों को इसके पढ़ने से पूर्ण गीता तथा श्री बालगंगाधर तिलक, श्रीमान भक्तिवेदांतजी, श्री जयदयाल गोयनकाजी, संत ज्ञानेश्वर महाराज जैसे महान् संत-महात्माओं की लिखी भगवद् गीता की व्याख्याएँ पढ़ने की प्रेरणा मिल सके तो मैं अपना प्रयास सफल समझूँगा। वैसे तो प्रभु ने यह पावन कार्य मेरे द्वारा करवाया है, यह मेरा सौभाग्य है तथा प्रभु श्रीकृष्णजी की महती कृपा है।

अकिंचन भक्त
—आचार्य मायाराम पतंग
गंगा दशहरा 2073
14 जून, 2016
एफ.-63, 1/11726 ए, पंचशील गार्डन,
नवीन शाहदरा, दिल्ली-32
मो. 9868544196

श्रीमद्भगवद्गीता की पृष्ठभूमि

श्रीमद्भगवद्गीता ‘महाभारत’ नामक महाकाव्य का एक अंश है। अनेक जन श्रीमद्भागवत महापुराण को ही भागवद्गीता समझ लेते हैं। श्रीमद्भागवत में सृष्टि के आरंभ से लेकर श्रीकृष्ण अवतार तक की कथा है। कृष्ण भगवान् की समस्त लीलाएँ हैं। यह हिंदू धर्म का महान् ग्रंथ है तथा 18 पुराणों में से अंतिम पुराण है।

श्रीमद्भगवद्गीता ‘महाभारत’ महाकाव्य का वह अंश है, जिसमें श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध से दुःखी देखकर वीरतापूर्वक युद्ध करने के लिए प्रेरित किया था। इसी के साथ आत्मा-परमात्मा का, योग का, कर्म तथा भक्ति का ज्ञान दिया था। इस उपदेश को अठारह अध्यायों में वर्णन किया गया है, जिनको हम आगे पढ़ेंगे। यहाँ संक्षेप में हम यह बता देते हैं कि महाभारत का युद्ध क्यों लड़ा गया था?

भरत वंश ही कुरुवंश कहलाया। पराक्रमी राजा शांतनु के बड़े पुत्र देवव्रत ने आजीवन विवाह न करने की भीष्म प्रतिज्ञा की तो उन्हें लोग ‘भीष्म’ नाम से ही जानने लगे। उनके छोटे भाई विचित्रवीर्य के तीन पुत्र हुए। बड़े धृतराष्ट्र जन्म से अंधे थे, बीच के पांडु शरीर के दुर्बल थे और विदुर समझदार तो थे, परंतु दासी-पुत्र होने के कारण उन्हें राजा नहीं, मंत्री बनाया गया। पांडु के पाँच पुत्र थे, जिन्हें ‘पांडव’ कहा गया। इनके नाम थे—युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव। धृतराष्ट्र के सौ पुत्र थे, जिनमें बड़ा था दुर्योधन। युधिष्ठिर सबसे बड़े थे। पिता पांडु की असमय मृत्यु के पश्चात् उन्हें राजा बनाया गया। दुर्योधन पांडवों से पहले से ही जलता था। उसका कहना था कि धृतराष्ट्र जन्मांध थे, उनको राजा नहीं बनाया गया, पर उनका पुत्र मैं तो राजा बन सकता हूँ। अतः युधिष्ठिर को राजा नहीं बनाया जाना चाहिए। धृतराष्ट्र राजा बने। दुर्योधन ने पांडवों को मारने के अनेक प्रयत्न किए, लेकिन श्रीकृष्ण की सहायता से वे बचते रहे।

एक बार दुर्योधन और उसके मामा शकुनि ने युधिष्ठिर को जुआ खेलने के लिए बुलाया। चालाकी से उन दोनों ने युधिष्ठिर से सारी संपदा तथा पत्नी द्रौपदी को भी जीत लिया। दुर्योधन ने द्रौपदी को भरी सभा में नग्न करने की ठानी। भगवान् श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की साड़ी इतनी लंबी कर दी कि दुःशासन खींचते-खींचते थक गया, साड़ी समाप्त न हुई। अंतिम शर्त में पांडवों को तेरह वर्ष का वनवास दिया गया, जिसमें अंतिम वर्ष में अज्ञातवास की शर्त थी। यदि इस तेरहवें वर्ष में कौरवों (दुर्योधन आदि) को पांडवों के निवास की जानकारी मिल जाती तो उन्हें फिर से बारह वर्ष के लिए वन जाना पड़ता। वास्तव में दुर्योधन उन्हें राज्य से दूर रखने की चाल चल रहा था।

अज्ञातवास में भी कौरवों को पांडवों का पता नहीं लगा तो युधिष्ठिर ने अपना राज्य वापस माँगा। यहाँ तक कि स्वयं श्रीकृष्णजी भी पांडवों के दूत बनकर धृतराष्ट्र की सभा में गए। दुर्योधन ने सूई की नोंक के बराबर भूमि भी पांडवों को देने से इनकार कर दिया। उसने सोचा, हमारे पास सेना है, अनेक राजा हमारे मित्र एवं सहयोगी हैं। पांडव किसी भी प्रकार रण में हमसे जीत नहीं सकते। युद्ध की घोषणा कर दी गई। अनेक राजा कौरवों के साथी थे, वे दुर्योधन के बुलावे पर युद्ध करने आ गए। अनेक राजा पांडवों को न्याय दिलाने के पक्ष में थे, वे सहायता करने पांडवों के साथ खड़े हो गए।

श्रीकृष्ण के पास दुर्योधन और अर्जुन सहायता माँगने एक ही दिन पहुँचे। श्रीकृष्ण ने कहा, ‘‘आप दोनों ही मेरे संबंधी हैं। मैं युद्ध में हथियार नहीं उठाऊँगा। फिर भी एक ओर मैं रहूँगा और एक ओर मेरी सेना रहेगी। आप दोनों में से एक चुन सकते हैं।’’ अर्जुन ने श्रीकृष्ण को चुना। दुर्योधन सारी सेना को लेकर बहुत खुश हुआ। अर्जुन ने श्रीकृष्ण को सखा, संबंधी, हितैषी तथा गुरु रूप में स्वीकार किया था। वह चाहता था, श्रीकृष्ण चाहे युद्ध न करें, परंतु युद्ध में मेरे साथ रहें। अतः उसने श्रीकृष्ण से निवेदन किया कि आप मेरा रथ चलाएँ। श्रीकृष्ण ने अर्जुन का आग्रह सहर्ष स्वीकार कर लिया। श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथि बन गए। मार्गदर्शन करने का यही साधन उन्हें उत्तम लगा।

अध्याय-1
युद्धक्षेत्र में दुःखी अर्जुन

गीता के प्रथम अध्याय में 47 श्लोक हैं। इस अध्याय का आरंम ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे...’ से होता है। विद्यार्थी पूछ सकते हैं कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र क्यों कहा जाता है? इसका उत्तर है—यहाँ राजा कुरु ने तपस्या की थी। कुरु एक सोमवंशी राजा थे। पांडु और धृतराष्ट्र इन्हीं के वंशज थे। यज्ञ, तप, हवन आदि धार्मिक कार्य होने के कारण कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र या धर्मभूमि कहा गया है।

महाभारत युद्ध के लिए इस भूमि का चुनाव वस्तुतः इसीलिए किया गया था कि यह धर्मभूमि होने के कारण निश्चित ही धर्म की, सत्य की जीत स्थापित होगी। इस अध्याय में बताया गया है कि दुर्योधन आदि केवल राज्य पाने के लिए युद्ध के इच्छुक थे, जबकि पांडव धर्म को लेकर युद्ध हेतु राजी हुए थे।

अध्याय में यह शिक्षा दी गई है कि अपने घरों में, मुहल्लों में, गाँवों में, प्रांतों में, देशों में, संप्रदायों में दोहरा भाव नहीं रखना चाहिए कि ये अपने हैं, ये पराए हैं। दोहरे भाव से आपस में प्रेम, स्नेह नहीं पनपता, बल्कि कलह, कष्ट जन्म लेते हैं। धृतराष्ट्र ने संबोधन किया है— ‘मेरे पुत्र’ और ‘पांडु के पुत्र’—इससे उनका दोहरापन झलकता है, जो कौरवों के विनाश का कारण बना। इससे बचना चाहिए।

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय॥

हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में इकट्ठे हुए युद्ध की इच्छावाले मेरे और पांडु के पुत्र अब क्या कर रहे हैं? अब चूँकि राजा धृतराष्ट्र अंधे थे, परंतु उनके मन में कुरुक्षेत्र में होनेवाले युद्ध को देखने की इच्छा प्रबल थी। उन्होंने अपने सचिव संजय से अपनी जिज्ञासा प्रकट की। संजय महर्षि वेद व्यासजी का शिष्य था। उसे व्यासजी ने दिव्य-दृष्टि दे दी थी। वह मीलों दूर की घटना आसानी से देख और सुन सकता था। कुरुक्षेत्र में होनेवाले युद्ध का आँखों देखा हाल वह सुना रहा था। धृतराष्ट्र के पूछने पर संजय ने युद्ध का जो हाल सुनाया, गीता में वही वर्णित है।

संजय ने बताया कि पांडवों की सेना को सामने खड़ी देखकर दुर्योधन गुरु द्रोणाचार्य के पास गया और उनको बताया कि आपका ही शिष्य द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न पांडवों की सेना की व्यवस्था कर रहा है। उसने पांडवों के प्रमुख योद्धाओं के नाम गिनवाए, फिर अपनी सेना के भी महारथियों के नाम बताए। उसने भीष्म पितामह की सहायता करने को कहा। भीष्म पितामह ने शंख बजाकर युद्ध करने की चेतावनी दी। फिर तो अन्य सभी योद्धाओं ने अपने-अपने शंख उत्साहपूर्वक बजाए। भगवान् श्रीकृष्ण ने ‘पाञ्चजन्य’ नामक शंख बजाया। सभी पांडवों के द्वारा बजाए गए शंखों के नाम भी संजय ने धृतराष्ट्र को बताए।

अर्जुन ने अपना गांडीव धनुष उठाया और कहा, ‘‘हे श्रीकृष्ण! मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले चलो। मैं देखना चाहता हूँ कि आज मुझे किनसे लड़ना पड़ेगा!’’

श्रीकृष्ण तुरंत रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ले गए। अब अर्जुन ने देखा कि मुझे भीष्म पितामह से, अपने गुरु आचार्य द्रोण से, अपने संबंधी राजाओं से, भाइयों तथा चाचाओं से युद्ध करना है, तब वह बहुत दुःखी हुआ। संजय ने बताया कि महारथी अर्जुन ने अपना धनुष-बाण रख दिया और अत्यंत दुःखी होकर एक ओर बैठ गया। भगवान् श्रीकृष्ण समझ गए कि अर्जुन स्वयं को शरीर मान रहा है। वह शरीर के संबंधों को अपना संबंध मानकर दुःखी हो रहा है। उसे शरीर की आवश्यकताओं को तुष्ट और पूर्ण करने की ही इच्छा है। अतः इसे आत्म-ज्ञान दिए जाने की आवश्यकता है। अर्जुन का मन निर्मल है, वह किसी से बदला नहीं लेना चाहता, किसी को अकारण कष्ट देना भी नहीं चाहता। अतः आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए वह सही व्यक्ति है तथा यह समय भी सही है।

इस प्रकार गीता का पहला अध्याय मुख्यतः यह संदेश देता है कि जिनके मन में अधर्म और पाप भरा होता है, वे कमजोर एवं डरपोक होते हैं, उनकी पराजय, उनका नाश निश्चित है। इसके विपरीत जो लोग धर्म का मार्ग अपनाते हैं और सत्य का साथ कभी नहीं छोड़ते, वे निर्भीक एवं साहसी होते हैं, उन्हें सदैव विजय मिलती है।

मुख्य शिक्षाएँ—

• शत्रु पक्ष चाहे कितना भी कमजोर हो और अपना पक्ष चाहे कितना ही सबल हो, ऐसी स्थिति में भी शत्रु पक्ष को कमजोर नहीं समझना चाहिए और अपने अंदर उपेक्षा, उदासीनता आदि की भावना जरा भी नहीं आने देनी चाहिए।

• जिस पक्ष में धर्म और भगवान् रहते हैं, उसका सब पर गहरा प्रभाव पड़ता है। पापी से पापी, दुष्ट से दुष्ट व्यक्ति पर भी उसका प्रभाव पड़ता है

• धर्म और भगवान् नित्य हैं। कितनी भी ऊँची-से-ऊँची भौतिक शक्तियाँ क्यों न हों, वे सभी अनित्य हैं।

• अधर्म और अन्याय व्यक्ति को डरपोक बना देते हैं।

• अन्यायी, पापी व्यक्ति कभी निर्भय और सुख-शांति से नहीं रह सकता। यह प्रकृति का अटल नियम है।

• जो व्यक्ति नाशवान धन-संपत्ति को श्रेष्ठ समझता है, अधर्म, अन्याय और दुर्भावना से भरा होता है, वह भीतर से खोखला होता है और वह कभी निर्भय नहीं होता।

• जिस व्यक्ति के भीतर भगवान् बसते हैं, जो धर्म का पालन करता है, वह कभी भयभीत नहीं होता। उसका बल सच्चा होता है। वह सदा निश्चिंत और निर्भय रहता है।

• महाभारत के युद्ध में अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण का वरण किया। जिसकी दृष्टि भगवान् पर होती है, उसका हृदय बलवान होता है, क्योंकि भगवान् का बल सच्चा बल है।

• महाभारत के युद्ध में दुर्योधन ने नारायणी सेना का वरण किया। उसने सांसारिक वैभव का चुनाव किया। जिसकी दृष्टि सांसारिक वैभव पर होती है, उसका हृदय कमजोर होता है, क्योंकि संसार का बल कच्चा होता है।

• जहाँ विद्या का संबंध होता है, वहाँ पक्षपात नहीं होता; लेकिन जहाँ पारिवारिक संबंध होता है, वहाँ स्नेहवश पक्षपात हो जाता है।

• जो व्यक्ति ऊँचे स्थान पर नियुक्त होने पर स्वयं को बड़ा मानता है, वह स्वयं वास्तव में छोटा ही होता है, लेकिन जो स्वयं बड़ा होता है, वह जहाँ भी रहे, बड़ा माना जाता है।

• खुद का किया हुआ पाप, अन्याय व्यक्ति को निर्बल बना देता है।

• अधर्म अधर्मी को खा जाता है।

• पारिवारिक स्नेह में व्यक्ति अपने कर्तव्य-पथ से भटक जाता है और गलत दिशा की ओर मुड़ जाता है। इससे बचते हुए उसे तटस्थ बने रहना चाहिए।

• इतना मिल गया, इतना और मिल जाए, फिर ऐसा मिलता ही रहे—ऐसे धन, जमीन, मकान, आदर, प्रशंसा, पद, अधिकार आदि की तरफ बढ़ता आकर्षण लोभ कहलाता है। इससे किसी का भला नहीं होता।

• लोभ की आदत के कारण विवेक शक्ति का नाश हो जाता है।

• संयोग यानी मिलन में जितना सुख नहीं होता, वियोग या जुदाई में उससे अधिक दुःख होता है अर्थात् पहले वस्तुओं का जो निरंतर अभाव था, वह इतना दुःखदायी नहीं था। जितना वस्तुओं का संयोग होकर उनसे वियोग होना दुःखदायी है। ऐसा होने पर व्यक्ति में लोभ जन्म ले लेता है और वह किसी भी प्रकार से उन्हें पाने की चेष्टा करता है।

• जहाँ लड़ाई होती है, वहाँ समय, संपत्ति, शक्ति का नाश हो जाता है। तरह-तरह की चिंताएँ और मुसीबतें आ जाती हैं।

• धर्म का पालन करने से मन शुद्ध हो जाता है। मन शुद्ध होने से बुद्धि सात्विक बन जाती है। सात्विक बुद्धि में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, इसका विवेक जाग्रत् रहता है।

• अधर्म का पालन करने से मन अशुद्ध हो जाता है और गलत कार्यों की ओर मुड़ जाता है।

• होनी को रोकना मनुष्य के वश में नहीं है, लेकिन अपने कर्तव्य का पालन करके मनुष्य अपना उद्धार कर सकता है और कर्तव्य से डिगकर अपना पतन कर सकता है।

अध्याय-2
आत्मा का ज्ञान

गीता के दूसरे अध्याय में 72 श्लोक हैं। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के रथ के सारथी बने हैं। रथ रणभूमि के मध्य खड़ा है। अपने सामने विपक्षी योद्धाओं में अपने प्रियजन को देखकर अर्जुन अत्यंत विचलित होकर युद्ध से अलग होने की इच्छा करते हैं, तब श्रीकृष्ण उन्हें विभिन्न प्रकार से समझाते हैं। वे कहते हैं कि युद्ध भी एक कर्तव्य कर्म की भाँति उनके सामने आया है, इससे भागना कायरता और अकर्मण्यता है। कल्याण चाहनेवाले लोग प्रवृत्ति और निवृत्ति; दोनों में अपने कल्याण का ही उद्देश्य रखते हैं।

भगवान् यह संदेश देते हैं कि आसन्न स्थिति से पलायन करना न तो कल्याणकारी होता है, न स्वर्गदायी; इससे कीर्ति भी नहीं मिलती, बल्कि इससे मनुष्य का पतन हो जाता है और वह नरकगामी होता है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात, जो भगवान् श्रीकृष्ण समझाना चाहते हैं, वह यह है कि धर्म और सच्चाई की स्थापना के लिए यदि हमें अपने सगे-संबंधियों से भी भिड़ना पड़े, उनका विरोध करना पड़े तो भी इसमें कोई बुराई नहीं है। यह कर्तव्य-कर्म है और इससे डिगना कायरता एवं बुराई का साथ देना है। विद्यार्थियों को यह बात गाँठ में बाँध लेनी चाहिए।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥

मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नए कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर दूसरे नए शरीर में चला जाता है।

संजय ने धृतराष्ट्र को बताया कि निर्मल एवं निष्पाप मनवाले दुःखी अर्जुन को श्रीकृष्ण ने इस प्रकार समझाया—‘हे अर्जुन! तुम जिस मार्ग पर चलना चाहते हो, यह आर्यों का मार्ग नहीं है। इससे तुम अपयश के भागी बनोगे। कायरता मत करो। मन की कमजोरी को त्यागकर युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।’ अर्जुन ने कहा, ‘भगवन्! अपने पूज्य दादा भीष्म से, अपने ही महान् गुरु द्रोणाचार्य से मैं कैसे लड़ूँगा? ऐसे अपने पूज्य जन को मारकर मैं कभी सुखी नहीं हो सकता। इसे मेरी दुर्बलता कहें या कायरता! मैं अपना संतुलन खो बैठा हूँ। मैं भ्रमित हूँ। आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण में हूँ। कृपया मुझे उचित राह दिखाइए। मुझे नहीं लगता कि सारी दुनिया का राज्य पाकर भी गुरुजन की हत्या करने के पाप से छूटकर मैं कभी सुखी हो पाऊँगा।’

संजय ने धृतराष्ट्र को बताया कि ऐसा कहकर अर्जुन मौन हो गया। धृतराष्ट्र भीतर-ही-भीतर खुश हुआ, फिर संजय बोला—भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, ‘विद्वानों की तरह बोल रहे हो, परंतु कायरों जैसा व्यवहार कर रहे हो! विद्वान् किसी के लिए शोक नहीं किया करते। सच तो यह है कि मैं और तुम और ये राजा पहले भी थे और फिर भी रहेंगे। इसका अर्थ है कि आत्मा कभी नहीं मरती, केवल शरीर बदलती है। जैसे शरीर पैदा होता है, बच्चे से किशोर, युवा और बूढ़ा होता है, ऐसे ही आत्मा एक दिन शरीर बदलकर दूसरे शरीर में चली जाती है। समझदार लोग इस शरीर से मोह नहीं करते। शरीर का अंत होना तो निश्चित ही है, परंतु आत्मा का कभी नाश नहीं होता। जो इस आत्मा को मारनेवाला समझता है या मरा हुआ समझता है, वह अज्ञानी है। वास्तव में आत्मा न मारती है, न मारी जा सकती है। वह कभी पैदा नहीं होती और कभी मरती भी नहीं। आत्मा तो शरीर को उस तरह बदलकर दूसरे शरीर को धारण कर लेती है, जैसे हम अपने फटे-पुराने कपड़े छोड़कर नए कपड़े पहन लेते हैं। हे अर्जुन! यह आत्मा किसी हथियार से काटी नहीं जा सकती। इसे आग जला नहीं सकती, हवा सुखा नहीं सकती, जल भी उसे भिगो नहीं सकता। आत्मा की सनातनता अर्थात् सदा रहने के गुण को जानकर तुम्हें शरीर के लिए शोक नहीं करना चाहिए। शरीर जो जन्म लेता है, वह अवश्य मरता है। जो मरता है, वह फिर कहीं जन्म अवश्य लेता है। अतः शोक करने का कोई कारण नहीं है।

‘हे भरतवंशी अर्जुन! सभी शरीरों में आत्मा रहती है। आत्मा को कभी मारा नहीं जा सकता और शरीर को सदा जीवित नहीं रखा जा सकता। अपने कर्तव्य और परिस्थिति को समझकर तुम्हें अपने धर्म का पालन अर्थात् युद्ध करना चाहिए। यदि तुम युद्ध रूपी अपने कर्तव्य का पालन नहीं करोगे तो तुम्हें पाप लगेगा। संसार के नियम के अनुसार लोग तुम्हारी निंदा करेंगे, अपयश तो मृत्यु से भी अधिक दुःखदायी है। कोई यह नहीं समझेगा कि तुमने गुरुजनों का सम्मान करते हुए युद्ध में शस्त्र नहीं उठाए, सब तुम्हें भयभीत और कायर ही मानेंगे। यह अपयश तुम्हें बहुत कष्ट देगा। अतः हे वीर पार्थ! तुम युद्ध करो। सुख और दुःख में, लाभ और हानि में, जीत और हार में लगाव मत रखो। एक समान भाव रखकर और कर्तव्य मानकर युद्ध करोगे तो तुम्हें कभी पाप नहीं लगेगा। इस प्रकार कर्म करने को ‘निष्काम कर्म’ कहा जाता है। निष्काम कर्म करने से आत्मा को पाप नहीं लगता, वह कर्म-बंधन से मुक्त हो जाती है।

‘जब तक तुम लाभ के लिए या जीत के लिए कर्म करोगे, तब तक हर कर्म तुम्हें बंधन में बाँधेगा। दुविधा और स्वार्थ छोड़कर आत्मा के सत्य को जानते हुए निष्काम कर्म करो।

‘जीत-हार की इच्छा से मुक्त होकर कर्म करना ही ‘समता योग’ है। जो दैहिक, दैविक और भौतिक तापों के भय से विचलित नहीं होता, दुःख में रोता नहीं और सुख में नाचता नहीं, क्रोध और घृणा से परे है, जिसमें किसी के लिए आसक्ति नहीं है, वह स्थिर मनवाला ‘मुनि’ कहलाता है। अपनी इंद्रियों को वश में करके जो परमात्मा में स्थिर कर देता है, वह ‘स्थिर बुद्धि’ कहलाता है। सच है कि इंद्रियाँ ही सब परेशानी का कारण हैं। इनकी आसक्ति से काम (इच्छा) उत्पन्न होता है। कामना पूरी न होने से क्रोध पैदा होता है। क्रोध से व्यक्ति मोह में फँस जाता है। मोह से स्मृति नष्ट हो जाती है। इससे बुद्धि का नाश होता है। बुद्धि नष्ट होने से सबकुछ नष्ट हो जाता है। अतः इंद्रियों को संयमित करके, बुद्धि को परमात्मा (श्रीकृष्ण) में स्थिर करके, जो अपने कर्तव्य (धर्म) का पालन करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।’

इस प्रकार हम देखते हैं कि इस अध्याय में कर्तव्य का महत्त्व बताया गया है। कहा गया है कि जो व्यक्ति अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, उसे शांति नहीं मिल सकती। कर्तव्य-पालन में दृढता न रहने से अशांति उत्पन्न होती है। जो अशांत होता है, हृदय में मची हलचल के कारण दुःखी रहता है। बाहर से उसे कितने ही सुख मिल जाएँ, वह सुखी नहीं हो सकता।  

मुख्य शिक्षाएँ—

• गुरु तो उपदेश दे देंगे; जिस मार्ग का ज्ञान नहीं है, उसका ज्ञान करा देंगे; पूरा प्रकाश दे देंगे, पूरी बात बता देंगे; पर मार्ग पर तो स्वयं शिष्य को ही चलना होगा। अपना कल्याण तो शिष्य को स्वयं करना होगा।

• व्यक्ति तब बड़े दुःखी होते हैं, जब वे अपने-पराए में भेद करते हैं और चीजों तथा लोगों को निजी और पराए में विभक्त कर लेते हैं।

• हमारे सामने जन्म-मृत्यु, लाभ-हानि आदि के रूप में जो भी परिस्थिति आती है, वह अपने किए हुए कर्मों का ही फल होता है।

• परिस्थिति चाहे अनुकूल आए या प्रतिकूल, उसका आरंभ और अंत होता ही है। ऐसी अस्थायी परिस्थिति के लिए खुश होना या दुःखी होना केवल मूर्खता है अर्थात् हमें हर स्थिति में तटस्थ रहना चाहिए।

• शरीर नाशवान है और इसमें रहनेवाला आत्मा शाश्वत्। इसलिए नाशवान शरीर के लिए शोक करना व्यर्थ है, क्योंकि वह तो अवश्यंभावी है।

• विचार से कर्तव्य का बोध होता है और चिंता से विचार नष्ट होता है।

• शरीर एक क्षण भी हमारे साथ नहीं रहता और परमात्मा निरंतर हमारे साथ रहते हैं। इसलिए शरीर को अपना मानना और परमात्मा को अपना न मानना; सबसे बड़ी भूल है।

• अनेक युग बदल जाएँ तो भी आत्मा बदलती नहीं, वह ज्यों का त्यों ही रहती है; क्योंकि वह परमात्मा का अंश है, परंतु शरीर बदलता ही रहता है, क्षण मात्र भी वह नहीं रहता।

• शरीर जन्म से पहले भी नहीं था, मरने के बाद भी नहीं रहेगा तथा वर्तमान में भी प्रतिक्षण मर रहा है। अतः इस शरीर का मोह नहीं करना चाहिए।

• जिसको हम चाहते हैं, ऐसी अनुकूल वस्तु, व्यक्ति, घटना, देश, काल आदि के मिलने से सुख होता है और जिसको हम नहीं चाहते, ऐसी प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदि के मिलने से दुःख होता है।

• ज्यादा सरदी पड़ने से वृक्ष सूख जाता है और ज्यादा गरमी से भी वृक्ष सूख जाता है। अतः परिणाम में सरदी और गरमी दोनों एक ही हैं। इसी तरह अनुकूलता और प्रतिकूलता भी एक ही है; भगवान् इनसे ऊँचा उठने की सलाह देते हैं।

• जो व्यक्ति धीर होता है, वह दुःख-सुख में एक समान रहता है। भगवान् कहते हैं; ऐसा व्यक्ति अमरता पाने के योग्य हो जाता है।

• शास्त्र और संत किसी को बाध्य नहीं करते कि तुम हमारे में श्रद्धा करो। श्रद्धा करने अथवा न करने में मनुष्य स्वतंत्र है।

• अपने कर्तव्य का पालन करने में जो सुख है, वह सुख सांसारिक भोगों को भोगने में नहीं है। सांसारिक भोगों का सुख तो पशु-पक्षियों को भी होता है, अतः जिन्हें कर्तव्य पालन का अवसर मिलता है, वे बड़े भाग्यशाली होते हैं।

• थोड़े-से-थोड़ा त्याग भी सत् है और बड़ी-से-बड़ी क्रिया भी असत् है। क्रिया का तो अंत होता है, पर त्याग अनंत होता है।

• मनुष्य जन्म भोग भोगने के लिए नहीं मिलता, कर्तव्य का पालन करके अपना उद्धार करने के लिए मिलता है।

• कर्मयोगी अपने कर्तव्य-कर्म द्वारा संसार की सेवा करता है। वह दूसरों के सुख में सुखी और दूसरों के दुःख में दुःखी होता है।

• दुःख आने पर मनुष्य को घबराना नहीं चाहिए, बल्कि उन्हें भोगकर नष्टकर देना चाहिए ताकि वे दोबारा लौटकर न आएँ।

• कर्म का फल अवश्य मिलता है। उसका त्याग कोई नहीं कर सकता।

• मनुष्य का केवल अपने कल्याण का उद्देश्य हो और धन-संपत्ति, कुटुंब-परिवार आदि से कोई स्वार्थ का संबंध न हो तो वह सांसारिक मोह से तर जाता है।

• मन को वश में रखना अत्यंत आवश्यक है। मन को वश में रखकर ही हम अपने कर्तव्य-कर्म को बिना स्वार्थ के कर सकते हैं।

• अगर हमारा मन साफ होता है तो कोई दुःख हमें अप्रसन्न नहीं कर सकता।

• मन को खिन्नता से बचाने के लिए आवश्यक है कि हम संसार की प्रिय-से-प्रिय वस्तु मिलने पर प्रसन्न न हों तथा अप्रिय-से-अप्रिय वस्तु मिलने पर भी विचलित न हों।

अध्याय-3
कर्म का मर्म

गीता के तीसरे अध्याय में 43 श्लोक हैं। युद्धभूमि में रथ पर विचलित बैठे अर्जुन अभी तक कर्तव्य और अकर्तव्य के बीच झूल रहे हैं। वे युद्ध का निर्णय नहीं कर पा रहे हैं, इसलिए यह सिद्ध करना चाहते हैं कि युद्धरूपी कर्म से ज्ञान का आश्रय लेकर युद्ध से अलग हो जाना श्रेयस्कर है, चाहे इसके लिए उन्हें राज-पाट से च्युत होना पड़े। अर्जुन ऐसे कर्म से बचना चाहते हैं, जिसमें दिन भर उन्हें अपने कुटुंबियों की हत्या करनी पड़े। इसलिए वे भगवान् श्रीकृष्ण से पूछते हैं, ‘मेरा कल्याण कर्म करने से होगा या ज्ञान से होगा?’

तब भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें विभिन्न प्रकार से समझाते हुए कहते हैं कि बिना कामना के कर्म-कर्तव्य करने से कर्मों में फल देने की शक्ति का उसी प्रकार सर्वथा अभाव हो जाता है, जिस प्रकार बीज को उबाल लेने पर उसमें अंकुरित होने की शक्ति नष्ट हो जाती है और कामना का त्याग तभी होता है, जब सभी कर्म दूसरों की सेवा के लिए किए जाएँ, अपने लिए नहीं।

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥

निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता; क्यों प्रकृति के परवश हुए सब प्राणियों से प्रकृतिजन्य गुण कर्म करवा ही लेते हैं।

श्री कृष्ण ने ज्ञान की बात भी समझाई और कर्म करने को भी कहा तो अर्जुन ने कहा, ‘हे केशव! आप बुद्धि को कर्म से श्रेष्ठ बता रहे हैं, फिर मुझे इस युद्ध का कर्म करने के लिए क्यों कह रहे हैं? मैं दुविधा में हूँ। मुझे आप साफ-साफ समझाएँ कि मैं क्या करूँ?’

भगवान् कृष्ण बोले, ‘हे निष्पाप अर्जुन! ईश्वर को प्राप्त करने के लिए ज्ञान का रास्ता भी है और भक्ति की राह भी है। जहाँ तक कर्म की बात है, कर्म करने से कोई बच नहीं सकता। कोई ज्ञानी-अज्ञानी कर्म किए बिना क्षण भर को भी नहीं रह सकता। अतः अपना नियत कर्म समझकर करना चाहिए। अनजाने कर्म करने से जानकर श्रेष्ठ कर्म करना श्रेष्ठ है।

‘जो व्यक्ति आत्मा के ज्ञान को प्राप्त कर लेता है, उसे फिर कर्म करने की आवश्यकता नहीं रहती। दैनिक स्वाभाविक कर्मों से उसे कोई बंधन नहीं होता। बिना आसक्ति (लगाव) या लालच के किए गए कर्म मनुष्य को बंधन में नहीं बाँधते, वे कर्म ईश्वरीय हो जाते हैं। अज्ञानी जन फल की इच्छा से कर्म में लगे रहते हैं, परंतु ज्ञानी जन को बिना लालच और लगाव के कर्म करते रहना चाहिए, ताकि उन्हें देखकर अन्य जन भी नियत कर्म करते रहें।

‘प्रकृति के तीन गुण हैं—सत, रज और तम। इन्हीं के आधार पर सब कर्म होते हैं। अहंकार के कारण ही मानव स्वयं को कर्ता मानने लगता है। अतः हे परम तपस्वी अर्जुन! अपने सभी कर्मों के परिणामों को मुझे समर्पित करके, लोभ से रहित होकर तथा अपने कर्तापन के अहंकार को छोड़कर युद्ध करो। जो व्यक्ति इस ज्ञान को जानकर ईर्ष्या रहित होकर कर्म करते हैं, वे कार्य के बंधन से मुक्त हो जाते हैं।’

अर्जुन ने पूछा, ‘हे वासुदेव! मनुष्य न चाहते हुए भी पाप क्यों करता है? कोई मानो जबरन उसे पाप के लिए प्रेरित करता है।’

भगवान् श्रीकृष्ण ने समझाया, ‘रजो गुण तथा तमो गुण ही पाप की प्रेरणा हैं। जिस प्रकार अग्नि धुएँ से, दर्पण धूल से ढका रहता है, उसी तरह जीवात्मा भी काम भावना से ढका रहता है। मनुष्य की इंद्रियाँ मन तथा बुद्धि पर काम-भावना का मैल चढ़ाए रहती हैं और वास्तविक ज्ञान को ढक लेती हैं। आत्म-साक्षात्कार से ही यह मैल साफ हो सकता है। आत्मा का ज्ञान ही एकमात्र मार्ग है, इसके बिना मन तथा इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता।

इस प्रकार, गीता के इस अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा अनेक संदेश दिए गए हैं। विद्यार्थियों को इन्हें जीवन में उतारना चाहिए। इस अध्याय में कर्म पर विशेष जोर दिया गया है और उसे आवश्यक कहा गया है। कर्म के बिना मनुष्य का गुजारा ही नहीं है। कर्म ऐसे करने चाहिए कि वे स्वतः होते चले जाएँ; बिना राग-द्वेष के। दूसरी बात, इंद्रियों को वश में रखना बेहद जरूरी बताया गया है, क्योंकि जो इंद्रियों के वश में होता है, वह अनेक बुरे कर्म करके अपने जीवन का पतन कर लेता है। तीसरी और अहम बात, कामना या इच्छा पर नियंत्रण, क्योंकि कामना पर नियंत्रण न पाने से इनका अनवरत सिलसिला बना रहता है और इनसे कभी छुटकारा नहीं मिलता तथा व्यक्ति कामना की तुष्टि के लिए अपना जीवन दाँव पर लगा देता है।

मुख्य शिक्षाएँ—

• जिस स्थिति में मनुष्य के कर्म अकर्म हो जाते हैं, अर्थात् बंधन में नहीं डालते, उस स्थिति को ‘निष्कर्मता’ कहते हैं।

• गीता में शरीर, वचन और मन से ही गई क्रियाओं को भी कर्म माना गया है। जैसे नींद, चिंतन, समाधि, बोलना, स्थूल क्रियाएँ करना इत्यादि।

• विवेकहीन व्यक्ति बाहर से तो इंद्रियों की क्रियाओं को हठपूर्वक रोक देता है, पर मन से इंद्रियों के विषयों का चिंतन करता रहता है और इस स्थिति को अकर्म, अक्रिया मान लेता है। ऐसा व्यक्ति ढोंगी कहलाता है।

• जब हम मन से इंद्रियों को अपने वश में कर लेते हैं तो इंद्रियाँ जिद नहीं करतीं; उनको जहाँ लगाना चाहें, वहीं वे लग जाती हैं और जहाँ से उनको हटाना चाहें, वहाँ से वे हट जाती हैं।

• जब कर्म अपने लिए न करके दूसरों के हित के लिए किया जाता है तो वह कर्मयोग कहलाता है।

• अपने लिए कर्म करने से अपना संबंध कर्म तथा कर्मफल के साथ हो जाता है और अपने लिए कर्म न करके दूसरों के लिए कर्म करने से कर्म तथा कर्मफल का संबंध दूसरों के साथ तथा परमात्मा का संबंध अपने साथ हो जाता है।

• जिस व्यक्ति के भीतर कर्म करने का वेग, आसक्ति, रुचि तो है, पर अपना कल्याण करने की इच्छा मुख्य है, ऐसे व्यक्ति को नए-नए कर्म आरंभ करने की जरूरत नहीं है। उसके लिए केवल प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग करने की आवश्यकता है।

• व्रत, उपवास, उपासना, पूजा-पाठ इत्यादि विहित कर्म कहे गए हैं। जो व्यक्ति झूठ बोलना, चोरी करना, हिंसा करना इत्यादि निषिद्ध कर्मों का त्याग कर देता है, उसके विहित कर्म स्वतः होने लगते हैं।

• कर्म का त्याग करने की अपेक्षा नियत कर्म करना श्रेष्ठ है और आसक्ति-रहित होकर कर्म करना तो और भी श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि इससे कर्मों के साथ संबंध टूट जाता है।

• भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘‘कर्तव्य-कर्मों से जी चुरानेवाला व्यक्ति नींद, आलस्य और भ्रम में अपना अमूल्य समय नष्ट कर देता है, जिससे उसका पतन हो जाता है।’’

• आसक्ति और स्वार्थ भाव से कर्म करना ही बंधन का कारण है। बंधन भाव से होता है, क्रिया से नहीं।

• मनुष्य कर्मों से नहीं बँधता, बल्कि कर्मों में जो आसक्ति और स्वार्थ भाव रखता है, उसमें ही वह बँधता है।

• जो कुछ किया जाता है, संसार की सहायता से ही किया जाता है। अतः ‘करना’ संसार के लिए ही है। अपने लिए करने से ही व्यक्ति कर्मों से बँधता है।

• दूसरों के हित की भावना से किए जानेवाले सब कर्म ‘यज्ञ’ हैं। अपने वर्ण, आश्रम धर्म, जाति, स्वभाव, देश, काल आदि के अनुसार प्राप्त कर्तव्य-कर्म ‘यज्ञ’ के अंतर्गत आते हैं।

• विधान के अनुसार कर्तव्य-कर्म करने की सामग्री जिस-जिसको, जो-जो भी मिली हुई है, वह कर्तव्य पालन करने के लिए उस-उसको पूरी-की-पूरी प्राप्त है। कर्तव्य पालन की सामग्री कभी किसी के पास अधूरी नहीं होती।

• हमारे जितने भी सांसारिक संबंधी, माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची आदि हैं, उन सबकी हमें सेवा करनी है। अपना सुख लेने के लिए ये संबंध नहीं हैं। हमारा जिनके साथ जैसा संबंध है, उसी के अनुसार उनकी सेवा करना, मर्यादा के अनुसार उन्हें सुख पहुँचाना हमारा कर्तव्य है। उनसे कोई आशा रखना और उन पर अपना अधिकार मानना बहुत बड़ी भूल है। हम उनके ऋणी हैं और ऋण उतारने के लिए उनके यहाँ हमारा जन्म हुआ है। अतः निःस्वार्थ भाव से उन संबंधियों की सेवा करके हम अपना ऋण चुका दें।

• अपने-अपने कर्तव्य का पालन करने से स्वतः ही एक-दूसरे की उन्नति होती है।

• मनुष्य का जन्म उसके अपने कल्याण के लिए ही मिलता है, इसलिए जो मनुष्य बिना किसी इच्छा के कर्तव्य कर्म करता है, उसका कल्याण अवश्यंभावी है।

• व्यक्ति के लिए सृष्टि द्वारा जो भी कर्तव्य नियत किया गया है, उसका उद्देश्य ईश्वर की प्राप्ति करना है, जो सभी का कल्याण करते हैं। जब व्यक्ति किसी भी साधन (कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग) द्वारा अपने उद्देश्य को पूर्ण कर लेता है तो उसके लिए कुछ भी करना, जानना अथवा पाना शेष नहीं रहता, यह मनुष्य जीवन की परम सफलता है।

• साधारण व्यक्ति इच्छा-पूर्ति के लिए कर्म करते हैं और कर्मयोगी इच्छा-मुक्ति के लिए।

• सहज कर्म में यदि कोई दोष दिखाई दे तो भी उसका त्याग नहीं करना चाहिए, क्योंकि सहज कर्म को करता हुआ मनुष्य कभी पाप का भागी नहीं बनता।

• जो व्यक्ति शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, धन, कुटुंब, जमीन आदि पदार्थों को संसार का मानता है, अपना नहीं, वह श्रेष्ठ होता है।

• जिस व्यक्ति के मन में इच्छा, ममता, आसक्ति, स्वार्थ, पक्षपात आदि दोष नहीं होते, उसके शब्दों का दूसरों पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है और लोग वैसा ही आचरण करने लगते हैं।

• अगर किसी कर्म की बार-बार याद आती है तो यही समझना चाहिए कि उस कर्म में कोई त्रुटि हुई है।

• इच्छा मनुष्य से वह करा लेती है, जो वह नहीं करना चाहता, अतः इच्छा पर नियंत्रण करना चाहिए।

अध्याय-4
संसार के ज्ञान से अलग है दिव्य ज्ञान

गीता के इस अध्याय में 42 श्लोक पिरोए गए हैं। इस अध्याय में कर्मयोग का महत्त्व बताया गया है और इसका गहन विश्लेषण किया गया है। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति गृहस्थाश्रम में रहकर अपने सभी कर्म निर्लिप्त भाव से संपन्न करता है, वह सबसे श्रेष्ठ कर्मयोगी है। गृहस्थ आश्रम सभी आश्रमों में श्रेष्ठ आश्रम है, क्योंकि इसी से सभी अन्य आश्रम—ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ व संन्यास आश्रम बनते, फलते और फलीभूत होते हैं, क्योंकि गृहस्थ आश्रम ही वह आश्रम है, जो हमें ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम वरण करने के योग्य बनाता है। अंततः हम गृहस्थ आश्रम के माध्यम से ही उत्पन्न होते हैं।

विद्यार्थी, जो एक तरह से अभी ब्रह्मचर्य आश्रम का पालन कर रहे हैं, इस अध्याय में मौजूद कर्मयोग की शिक्षा को जीवन में उतारकर सामाजिक और राष्ट्रजीवन के लिए उपयोगी हो सकते हैं।

इस अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण रणभूमि में अर्जुन को दिव्य ज्ञान का उपदेश देते हुए कहते हैं, ‘दिव्य ज्ञान का उपदेश मैंने सूर्य को दिया था। विवस्वान सूर्य ने यही ज्ञान अपने पुत्र मनु को दिया। मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को दिया। अधिक समय बीत जाने के कारण वह लुप्तप्राय हो गया है, वही दिव्य ज्ञान आज मैं तुम्हें दे रहा हूँ। हे अर्जुन! तुम मेरे मित्र और भक्त हो। निर्मल मनवाले हो, अतः दिव्य ज्ञान पाने योग्य हो।’

अर्जुन अभी तक कृष्ण को समझदार सखा ही मान रहे थे। अतः आश्चर्य से कहा, ‘हे कृष्ण! आप तो इस युग में हैं। सूर्य तो कल्पों पूर्व से है। फिर सूर्य को आप ने यह ज्ञान कैसे दिया?’ तब श्रीकृष्णजी ने समझाया—‘मेरा और तुम्हारा जन्म अनेक बार हो चुका है। अंतर यही है कि मुझे हर जन्म का ज्ञान है और तुम्हें किसी भी जन्म की याद नहीं है। सत्य तो यह है कि मैं अजन्मा हूँ, अविनाशी भी हूँ, सभी प्राणियों का स्वामी भी हूँ, फिर भी मैं हर युग में किसी दिव्य रूप में प्रकट होता हूँ।

‘मैं अवतार तभी धारण करता हूँ, तब संसार में धर्म की हानि होती है, अधर्म बढ़ जाता है, तब सज्जनों की सुरक्षा करने के लिए, पापों के विनाश के लिए तथा पुनः धर्म की स्थापना के लिए मैं अवतार लेता हूँ। हे अर्जुन! मेरा अवतार लेना दिव्य है। जो मेरे दिव्य स्वरूप को समझ जाता है, वह जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। सत, रज और तम, तीनों गुणों से युक्त यह सृष्टि मेरे द्वारा ही बनाई गई है, फिर भी किसी कर्मफल का बंधन मुझे नहीं बाँधता। इस सत्य को जो जान लेता है, और निष्काम कर्म करता है, वह भी बंधन-मुक्त हो जाता है। पूर्वकाल में हुए ऐसे ज्ञानी, भक्तों के समान तुम्हें भी बिना फल की कामना के युद्ध आदि कर्म करने चाहिए।

‘कर्म की बारीकियों को समझना आवश्यक है। यह जानना आवश्यक है कि कर्म, विकर्म तथा अकर्म क्या होते हैं! जो व्यक्ति सभी कर्म इंद्रियों की तृप्ति के लिए नहीं करता, वही ज्ञानी है, वही विद्वान् है। ज्ञान की अग्नि से वह अपने कर्म-फल को भस्म कर देता है। ऐसा ज्ञानी सारे स्वामित्व को त्याग देता है। केवल शरीर-निर्वाह के लिए आवश्यक कर्म करता है, वह पाप से प्रभावित नहीं होता। जो व्यक्ति अपने आप हुए लाभ से संतुष्ट रहता है, द्वेष तथा ईर्ष्या नहीं करता, सफलता तथा असफलता में समान भाव से स्थिर रहता है, वह कभी कर्म के बंधन में नहीं बाँधा जाता।

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥

हे स्वामी! आपका जन्म तो अभी का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है; अतः आपने ही सृष्टि के आरंभ में सूर्य से ऐसा कहा था, यह बात मैं कैसे समझूँ?

‘जो व्यक्ति इस ज्ञान को समझ लेता है कि सृष्टि की प्रक्रिया भी एक यज्ञ है। इस यज्ञ में अर्पण की जानेवाली सामग्री भी ईश्वर है। यज्ञकर्ता भी ईश्वर है। यज्ञ का प्रसाद भी ईश्वर है, यज्ञ की अग्नि भी ईश्वर ही है। इस यज्ञकर्म का फल भी ईश्वर ही है। ईश्वर के अतिरिक्त कुछ अन्य नहीं है। वह कोई भी कर्म करे, इस भाव से वह दिव्य हो जाता है तथा वह कर्म-बंधन से परे हो जाता है।

‘प्रिय पार्थ! जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों को वश में कर लेता है, उसे सब साधन सहज ही प्राप्त हो जाते हैं। कुछ भी जानने, समझने या सीखने के लिए व्यक्ति के मन में श्रद्धा होनी आवश्यक है, तभी वह गुरु के वचनों पर विश्वास करेगा। श्रद्धावान को ही ज्ञान प्राप्त होता है, श्रद्धा रहित को तो गुरु ज्ञान ही नहीं दे पाता। विश्वास न करनेवाला मानव तो भटकता ही रहता है, उसे कहीं सुख नहीं मिलता। तत्त्वज्ञान से व्यक्ति को शीघ्र ही स्थायी शांति प्राप्त हो जाती है।

‘हे धनंजय! फल की चिंता न कर जो अपने कर्तव्य का पालन करता रहता है तथा उन कार्यों के फल को प्रभु-परमात्मा के श्री-चरणों में भेंट कर देता है, उस व्यक्ति को कर्म बंधन में नहीं बाँध सकते।

‘अतः हे भरतवंशी अर्जुन! अपने मन के मोह तथा अज्ञान को ज्ञान-रूपी तलवार से काटकर कर्मयोग को अपनाओ। जीत-हार की चिंता छोड़कर युद्ध के लिए खड़े हो जाओ। इस समय युद्ध ही तुम्हारा पुनीत कर्तव्य कर्म है।’

इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण उपदेश देते हुए कहते हैं, जिस व्यक्ति में न तो ज्ञान है और न श्रद्धा ही है, अर्थात् जो न तो खुद जानता है और न दूसरे की बात मानता है, वह जीवन में उन्नति से कोसों दूर रहता है।  

मुख्य शिक्षाएँ—

• जिस वस्तु से हम जल्दी ही ऊब जाते हैं या उसमें अरुचि हो जाती है, उससे हमारा वास्तविक संबंध नहीं होता, जैसे मिठाई खा-खाकर हम उससे ऊब जाते हैं और अंततः खाना छोड़ देते हैं। इसके विपरीत जिससे हमारा वास्तविक संबंध होता है, उससे हम कभी नहीं ऊबते, जैसे भगवान् की भक्ति।

• शरीर, इंद्रियाँ और मन उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं; अतः इनसे हमें जो फल प्राप्त होता है, वह भी नाशवान और क्षणिक होता है।

• एक-दूसरे की सहायता से ही सबका जीवन चलता है। धनी-से-धनी व्यक्ति का जीवन भी दूसरे की सहायता के बिना नहीं चल सकता।

• हमने किसी से लिया है तो किसी को देना, किसी की सहायता करना, सेवा करना हमारा भी धर्म है, परम कर्तव्य है, इसी का नाम कर्मयोग है।

• कर्तव्य वह है, जिसे हम खुश होकर कर सकते हैं, जिसे अवश्य करना चाहिए और उससे लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होती है।

• कर्तव्य हमेशा इच्छा रहित होकर परमार्थ की दृष्टि से किया जाता है। अगर हम इच्छा रखकर कर्म करते हैं तो वह हमें बंधनों में जकड़ लेता है।

• कर्म से प्राप्त होनेवाला फल नाशवान होता है, जबकि उसका उद्देश्य निश्चित और नित्य होता है।

• सेवा ऐसा कर्म है, जिसके द्वारा हम मनुष्य, पशु और ईश्वर सबको अपने वश में कर सकते हैं, वहीं सेवा भाव को भूलकर हम भोगों के गुलाम हो जाते हैं, जिसका परिणाम हमें चौरासी लाख योनियों में पड़कर भोगना पड़ता है।

• हम भगवान द्वारा दी गई वस्तुओं को तो अपना मानते हैं, जो हमारी हैं ही नहीं और उन भगवान् को अपना नहीं मानते, जो सदा से हमारे हैं।

• जो वैभव को सबकुछ मान लेते हैं, भगवान् की ओर से उनकी आँखें मुँद जाती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो जो वैभव चाहते हैं, भगवान् उनसे दूर हो जाते हैं।

• निंदा-स्तुति, आदर-अनादर, धन-निर्धनता, यश-अपयश, लाभ-हानि, जन्म-मरण, रोग-निरोग आदि सभी परिस्थितियाँ कर्मों के अधीन हैं।

• शुभ कर्मों से अनुकूल परिस्थिति और अशुभ कर्मों से प्रतिकूल परिस्थिति का सामना करना पड़ता है।

• कर्मों का फल मिटाना आपके हाथ की बात नहीं है, पर मूर्खता मिटाना आपके हाथ की बात है।

• मूर्खता हम मिटा सकते हैं, जो हमारे हाथ की बात है, परिस्थिति को हम बदलने की कोशिश करते हैं, जो हमारे हाथ में नहीं है।

• जो स्थिति हम आज भोगते हैं, वे हमारे शुभ-अशुभ कर्मों का फल होती है। शुभ कर्म से अच्छी स्थिति और अशुभ से बुरी।

• जैसे दियासलाई में हर समय अग्नि छिपी हुई रहती है, उसी प्रकार हम सबके भीतर भगवान गुप्त रूप से मौजूद होते हैं, उन्हें ढूँढ़ने की देर होती है।

• ज्यों-ज्यों इच्छाएँ बढ़ती हैं, त्यों-त्यों सज्जनता गायब होती है; क्योंकि इच्छा ही असज्जनता का मूल कारण है।

• प्रतिकूल परिस्थिति में ही हम भगवान् को याद करते हैं और भोगों के प्रति हमारा लगाव कम होता है, यही कारण है कि भगवान् हमें मुसीबतों में डालते हैं।

• मनुष्य और भगवान् में अंतर—मनुष्य अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कार्य करते हैं और भगवान् मात्र जीवों के कल्याण के लिए कार्य करते हैं।

• हम जब बिना इच्छा या स्वार्थ के दूसरों की सेवा करते हैं, तब हमारे कर्मों में दिव्यता और विलक्षणता आती चली जाती हैं।

• अपने कर्मों को दिव्य बनाने का सरल उपाय है—संसार से मिली हुई वस्तुओं को अपनी और अपने लिए न मानकर संसार की सेवा में लगा देना।

• हमारी जरूरत को जितना भगवान् समझते हैं, उतना हम समझ भी नहीं सकते, इसलिए उनसे माँगना नहीं चाहिए। जो कुछ हमें मिला है, उसी का हमें सदुपयोग करना चाहिए।

• अपना कुछ भी नहीं है, अपने लिए कुछ भी नहीं चाहिए और अपने लिए कुछ भी नहीं करना है, ये तीनों बातें ठीक-ठीक अनुभव में आ जाएँ, तभी सिद्धि और असिद्धि में पूरी समता आती है।

• शरीर, इंद्रियाँ आदि जितनी वस्तुएँ हमारे पास हैं, उन्हीं से यज्ञ हो सकता है, अधिक की आवश्यकता नहीं है।

• अपने कर्तव्य पालन में जो-जो कठिनाइयाँ आएँ, उन्हें प्रसन्नतापूर्वक सह लेना तपस्या रूपी यज्ञ है, परंतु कठिन विपरीत स्थिति में भी प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करते रहना सबसे बड़ी तपस्या है, जो शीघ्र सिद्धि देनेवाली होती है।

• संसार में असंख्य क्रियाएँ होती रहती हैं, परंतु जिन क्रियाओं से मनुष्य अपना संबंध जोड़ता है, उन्हीं से वह बँधता है, लेकिन जब शरीर या संसार में होनेवाली किसी भी क्रिया से मनुष्य का संबंध नहीं रहता, तब वह कर्म-बंधन से मुक्त हो जाता है।

• शरीर और वस्तुओं से गुरु की सेवा करें। जिससे वे प्रसन्न हों, वैसा काम करें। उनकी प्रसन्नता प्राप्त करनी हो तो अपने आपको सर्वथा उनके अधीन कर दें। उनके मन के, संकेत के, आज्ञा के अनुकूल काम करें। यही वास्तविक सेवा है।

• संत महापुरुष की सबसे बड़ी सेवा है उनके सिद्धांतों के अनुसार अपना जीवन बिताना और बनाना, क्योंकि उन्हें सिद्धांत जितने प्रिय होते हैं, उतना अपना शरीर प्रिय नहीं होता। सिद्धांत की रक्षा के लिए वे अपने शरीर तक का सहर्ष त्याग कर देते हैं, इसलिए सच्चा सेवक उनके सिद्धांतों का दृढतापूर्वक पालन करता है।

• ज्ञान हो तो संदेह मिट जाता है और श्रद्धा हो तो भी संदेह मिट जाता है, परंतु ज्ञान और श्रद्धा, ये दोनों ही न हों तो संदेह नहीं मिट सकता।

................

  • मुख्य पृष्ठ : आचार्य मायाराम पतंग : हिंदी कहानियां और गद्य रचनाएँ
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां