वहम (कहानी) : आशापूर्णा देवी
Veham (Bangla Story in Hindi) : Ashapurna Devi
"आखिर तुमको यह सब करने के लिए कहा किसने था ?" अपने हाथ में एक चिट्ठी लिये भूपाल ने जिस तेवर के साथ अपनी प्रियतमा से यह प्रश्न किया, उसे प्रेमालाप तो किसी भी मायने में नहीं कहा जा सकता।
कनक घबरा उठी। वह तेजी से रसोईघर से बाहर निकली लेकिन उसने डरते-डरते पूछा, "क्यों, मैंने क्या किया भला ?"
"मेरी नौकरी के लिए तुमने अपने भैया के पास चिट्ठी लिखी थी...है न...।
खूब रो-धोकर और कलेजा पीटकर?"
'मेरी' और अपने 'भैया' शब्दों पर भूपाल ने बड़ा जोर दिया था।
कनक मन-ही-मन आहत हुई या नहीं...कहा नहीं जा सकता। उसने बड़ी सहजता से उत्तर दिया-"अच्छा...तो यह बात थी। तभी तो मैं कह रही थी कि आखिर मुझसे कौन-सी चूक हो गयी ? और इसमें रोने-गाने और झींकने वाली ओछी बात भला कहाँ से आ गयी? मैंने तो उन्हें बस इतना ही लिखा था कि आप इतने बड़े दफ्तर के अफसर हैं...ढेर सारी जगहें निकलती ही होंगी...एकाध जगह के बारे में जरा इधर का भी ध्यान रखें... ....अगर ऐसा बता भी दिया तो ऐसा कौन-सा बड़ा भारी गुनाह हो गया ?"
“गुनाह ? तुम भला ऐसा कर भी कैसे सकती हो ? तुमने तो मुझ पर बड़ा भारी अहसान किया है। मुझे तो तुम्हारा अहसानमन्द होना चाहिए।"
भैया ने दो-टूक जवाब लिख भेजा है और वह भी अपने हाथ से...लो पढ़ना है तो पढ़ो।...और भैया को तो दोष दिया भी नहीं जा सकता। भूपाल की नौकरी चले जाने के बाद, सुनील भैया ने कई बार उससे कहा कि वह उनके दफ्तर आकर मिले। लेकिन भूपाल ने भी जैसे कसम खा रखी है-"अपने साला के अधीन काम नहीं कर सकूँगा।"
सुनील भैया भी आखिर क्या करें ?
और इसके बाद के आठ महीनों में किस तरह गुजर-बसर हुई है, इसे कनक ही जानती है।
कनक ने झाड़-पोंछा करने वाली नौकरानी को पहले ही हटा दिया था जबकि नौकर खुद काम छोड़कर चला गया था। कनक ने यह भी सोचा था कि धोबी का बँधा-बँधाया चक्कर हटा देने पर शायद कुछ बचत हो लेकिन साबुन और सोडा खरीद पाना भी बड़ा कठिन हो गया है।...धीरे-धीरे और एक-एक करके नाश्ता और जलपान...चाय और भात के संग-साथ जुड़े रहने वाले दूसरे उपकरण धीरे-धीरे गायब होते चले गये और अब सिर्फ दाल से ही गुजारा हो रहा है। गनीमत है कि अभी भी उसे 'दाल' कहा जा रहा है...अगर उसे 'जल' कहा जाता तो कोई गुस्ताखी न होती।
अपनी खातिर न सही लेकिन बच्चों के चेहरे की तरफ देखकर कनक के जी में आता है कि वह दीवार पर सिर पटककर अपनी जान दे दे।...चीख-चिल्लाकर रोया भी नहीं जा सकता। लोक-लाज का लिहाज न होता तो वह कभी-कभार बुक्का फाड़कर अवश्य ही रो लेती।
कैसा हो गया था यह...असहाय और अभिशप्त जीवन !
उसने इतनी पढ़ाई-लिखाई भी नहीं की थी कि अपने तई कुछ कमाने-धमाने की कोशिश करती। निम्न मध्यवर्ग की घर-गृहस्थी जिस तरह चला करती है उसी तरह दिन कट रहे हैं। किशोरावस्था से लेकर जवानी तक और जवानी से...अघेड़ावस्था की ओर। शिल्पकला या दस्तकारी का काम भी उस स्तर तक नहीं सीख पायी कि उसकी बदौलत कोई सुविधा जुटा पाती। आखिर वह करे भी क्या ? उसमें काम करने या सीखने की जितनी क्षमता थी, वह सब वह पहले ही कर चकी है...अब शंख की शाखा और प्लास्टिक की जुड़वाँ चूड़ियों को धो-धोकर पीने से कहीं किसी का पेट भरता है?
तकलीफ के ये दिन कैसे भी नहीं कटते ! एक-एक दिन एक साल की तरह बीत रहे हैं। ऐसा नहीं है कि वह सिर पर सवार दिनों को बाल की लटों की तरह झटक दे। उसे एक-एक घण्टे और घण्टों में बँधे एक-एक मिनट और सेकेण्ड को झेलना था। स्कूल से वापस आते ही भात खाने देने का लालच दिखाकर बच्चों का मुँह सखाये बैठे देखना भी वह किसी तरह झेल रही थी लेकिन जब स्कूल की फीस चकाये न जाने के अपराध में उन्हें वहाँ अपमानित कर घर वापस भेजा जाने लगा तो वह जैसे तिलमिला उठी थी।
और तभी एकदम से कातर होकर उसने भैया को चिट्ठी लिखी थी।
अब इसमें बातें बढ़ा-चढ़ाकर या रो-धोकर भले ही न की गयी हों लेकिन उसमें हल्का-सा उलाहना तो था ही। भूपाल के साथ इस बारे में कोई सलाह-मशविरा करने का साहस भी वह जटा न पायी थी। पता नहीं, सुनील भैया का क्या उत्तर आए? अगर बात बन गयी या मौका मिला तो वह भूपाल से इस बारे में जरूर बताएगी।
इतनी परेशानियों के बाद भी क्या भूपाल नरम नहीं पड़ेगा?
कम-से-कम कनक के सामने तो उसे शर्मिन्दा होना चाहिए। या फिर बच्चों की जिम्मेदारी की खातिर ही सही। इधर से तो एक तरह से निश्चिन्त हो चुकी थी कनक। उसे अगर कोई चिन्ता लगी थी तो वह थी सनील की ओर से। अगर वह कहे कि नौकरी तो किसी की बाट नहीं जोहती कनक बहन...या पेड़ों पर नहीं फलती...तो वह कर भी क्या सकता है ? कहाँ से लाए वह ? वह तो यही कहेगा-"मैंने जब कहा था...?"
आखिरकार यही हुआ।
चिट्ठी भी किसी दूसरे ने नहीं, भूपाल ने ही खोली थी।
कनक ने बड़े कष्ट से अपनी स्वाभाविक भंगिमा को बनाये रखा। होठों पर जबरदस्ती मुस्कान लादकर और बनावटी भाषा-कौशल के सहारे। उसने नकली गुस्से के साथ कहा, “आखिर तुमने मेरी चिट्ठी को खोला ही क्यों था ?"
"कैसे नहीं खोलता, हुजूर सरकार ! वैसे इस चिट्ठी का इकलौता वारिस तो मैं ही था," भूपाल ने चुटकी ली, "तुम्हारे करुणावतार भैया ने तो बड़े स्नेह के साथ मुझे बताया है कि बाम्हन की गाय की तरह एक बड़ी ही शानदार नौकरी उनके हाथ में है। इसमें काम तो कुछ है ही नहीं लेकिन तनख्वाह बहुत अधिक है। बस...सारा कुछ मुझ पर निर्भर है कि मैं उन पर कृपा करूँ और उस खाली कुर्सी को सुशोभित करूँ।..."
"हे भगवान ! तो तुम अब तक विराजमान हो।"...
"तुमने कनक की लाज रख ली।"...
अगर भूपाल की बातों में इतना व्यंग्य न होता तो कनक की आँखों से खुशी के आँसू बह निकलते।...उसने बड़ी मुश्किल से अपनी उद्विग्नता को छिपाते हुए चहल के अन्दाज में कहा, "तो फिर देर किस बात की है? माँ दुर्गा का नाम लेकर निकल पड़ो।...किसे पता है कि देर हो जाने पर वह कुर्सी भी हाथ से खिसक जाए ?"
"अच्छा !" दुबले-पतले और नसीले हाथ को ऊपर उठाकर और मुट्ठी से अपने बालों को जोर से जकड़कर भूपाल ने कहा, "और तुम भी फूल, तुलसी दल और गंगाजल लेकर तैयार रहना।"
"फूल और तुलसी ?" कनक ने हैरानी से पूछा, "क्यों ?"
"क्यों नहीं भला ? मनोकामना पूरी होने पर इष्ट देवता को सन्तुष्ट करने की यही तो रीत है... । एकदम सीधी बात है, भैया की दया से रोटी और कपड़े की किल्लत जो दूर होगी।...भैया क्या हए...भगवान के भूत और भभूत हो गये।"
कनक ने तिलमिलाकर कहा, "तो इसमें मजाक वाली ऐसी क्या बात हो गयी ? आखिर अपने लोगों और जान-पहचान वालों को लोग नौकरी में लगाते हैं कि नहीं? और अगर उन्हें नौकरी लगवायी जाती है तो क्या वे नौकरी लेना नहीं चाहते ?"
"लेंगे क्यों नहीं ? जरूर लेंगे...लेकिन इस बात का ध्यान रहे कि मैं तो उनका 'आत्मीय जन' हूँ...कोई ऐरा-गैरा दूर का रिश्तेदार नहीं। सारे नाते-रिश्तेदारों में सबसे नजदीकी..."
कनक ने इस मौके पर अपनी नाराजगी को दबाने या छिपाने की कोशिश नहीं की। उसने तीखे स्वर में कहा, "तुम्हारे लिए भला वह आत्मीय जन क्यों होने लगा-वह तो सड़क पर चलता हुआ एक अनजाना-सा आदमी है। लेकिन याद रखना...कि वह मेरा सगा भाई है।"
"तो फिर तुम्हीं नौकरी कर लो न जाकर ?' भूपाल कड़वी बातें नहीं बढ़ा रहा था...जहर उगलकर लौट रहा था। इस बीच उसके सिर में जोर का दर्द होने लगा था। उसे बातें करने में भी तकलीफ होने लगी थी।...भात न खाकर भी वह कुछ दिन गुजार सकता था लेकिन चाय के बिना वह रह नहीं सकता था।
तो भी...उसे चाय के बिना रहना तो पड़ ही रहा है। और तभी शरीर उससे बदला ले रहा है।
भूपाल अपने बिछावन पर पड़ जाना चाहता था लेकिन कनक ने रास्ता काटते हए जले-भूने स्वर में पूछा-"तुम समझते हो...तम्हारे मन में जो आएगा...तम वही करोगे? तुम्हें पता भी है कि घर-संसार कैसे चल रहा है...देख नहीं पा रहे...?"
लेकिन भूपाल ने भी छूटते ही उत्तर दिया, "यूँ ही देख भी कैसे सकता हूँ? टपाटप राजभोग निगल रहा हूँ...किमखाब के गद्दे पर सो रहा हूँ...बाहर-भीतर क्या हो रहा है...कुछ पता नहीं चल रहा।"
"राजभोग तुम्ही नहीं...सभी भकोस रहे हैं।" कनक जैसे चीख पड़ी, "बच्चों के सखे चेहरे की तरफ कभी देखा भी है तमने? मैं ठहरी औरत जात...तो भी मेरे जी में यही आता रहता है कि बाहर सड़क पर निकल जाऊँ और छोटा-मोटा जो भी काम मिले, करूँ...उससे गुजारे लायक कुछ तो पैसे मिलेंगे। और एक तुम हो मर्द की औलाद...तुम्हें जरा शरम नहीं आती। सर-दर्द के बहाने तकिये पर तकिया चढाये पड़े रहते हो।...और ऊपर से झूठा गुमान भी कैसा, ‘साले के मातहत काम नहीं करूँगा...अरे देख लेना उनके ही सामने तुम्हें हाथ फैलाना पड़ेगा।"
"वैसी नौबत आने के पहले मैं सड़क पर भीख माँगना पसन्द करूँगा," कहता हुआ भूपाल फिर अपने कमरे की तरफ बढ़ चला।
लेकिन कनक ने भी तय कर लिया था चाहे जो हो जाए...वह उसे आज इस तरह बख्शेगी नहीं। आज वह सारा आसमान सिर पर उठा लेगी।
आज का एक-एक पल कनक के लिए जहर की तरह है।...इस जहर से भूपाल का चेहरा नीला हो उठा है। सचमुच...वैसा ही अपमानजनक और मौत की तरह भयानक... । सुनने में भले ही लगे लेकिन उसकी मन की आँखों के सामने सब कुछ साफ दीखता है। भूपाल का चेहरा देखते ही उसके रोम-रोम में जैसे आग सुलग उठती है।
क्यों...भला क्यों...चारों हाथ-पाँव सलामत रहने के बावजूद भूपाल इस तरह काहिलों की तरह क्यों पड़ा रहता है ?...भूपाल अपने तईं काहिल नहीं जान पड़ता...लेकिन कनक चाहती है कि भूपाल और भी कोशिश कर देखे। पास-पड़ोस से अखबार माँगकर पढ़ने और खाली जगहों के विज्ञापन देखने भर या कभी-कभार एकाध जगह पर साक्षात्कार देना ही काफी नहीं है। इससे भी बढ़कर कोशिश करने की जरूरत है।...रास्तों पर घूम-घूमकर...हाथ जोड़कर लोगों के पाँव पकड़कर...कुली या मोटिया का काम कर...रिक्शा खींचकर...जैसे भी हो...भूपाल को घर में दो पैसे कमाकर लाना है।...
पहले के दिनों में अपने पति के हताश और दयनीय चेहरे को देखकर कनक के सीने में करुणा का ज्वार-सा उमड़ा करता था...वह चाहती थी कि भूपाल घर-संसार की तमाम परेशानियों से मुक्त रहे। लेकिन अब उसके मन में ऐसी कोई सहानुभूति पैदा नहीं होती।
तब भूपाल के मुँह से किसी तरह की कोताही की बात सुनती थी तो वह उसे रोक दिया करती थी या हँसकर उड़ा देती थी। यहाँ तक कि शास्त्र वचन का हवाला देती हुई उसे दिलासा देती थी, “पुरुषों के मन की दस दशाएँ होती हैं..."
वही कनक आज मौके-बेमौके भूपाल की कोताही और लापरवाही को फटकार सुनाती रहती है। कोई बात चली नहीं कि उसे दुरदुरा देती है।
__ स्नेह, सहानुभूति, करुणा, प्रेम और ममता की सभी धाराएँ सूख गयी हैं। सूख गयी हैं...भूख से बिलबिलाते नीरू और नूपुर की गर्म उसाँसों की आँच में...और उसका मन कठोर हो गया है अपमानित सनत् और सुधीर की सुनी और फीकी नजरों की चाबुक से।
चार बच्चों की चार जुड़वाँ आँखों का मौन तिरस्कार कनक को लगातार बींध जाता था। बच्चों के स्नेह से भी अधिक जो बात उसके कलेजे को गहरे बांध जाती थी वह थी खुद अपनी ही आँखों में गिरा देने वाली शरम। उसके जी में यही आता कि कैसे वह जमीन में गड़ जाए...जब भात परोसकर फीकी दाल की कटोरी आगे बढ़ाने के सिवा उसके पास कुछ भी तो नहीं रहता। धरती फटे और उसमें वह कैसे समा जाए...! उसे एक के बाद दूसरे और आने वाले हर दिनों में 'तबीयत खराब है' का बहाना बनाना पड़ता है..."क्या करूँ बेटे...खाना ठीक से बना नहीं पायी।"
अगर ऐसी स्थिति में हाथ-पाँव में कहीं चोट या खरोंच लग जाए तो शायद 'आयोडिन' तक न मिले। पेट दुखने लगे तो सोंठ का पानी चाहिए...और वह सब भी कहाँ से आए ? यह सब बताने की जरूरत पड़ सकती है...कनक को ऐसा बुरा सपना भी देखना पड़ सकता है, ऐसा उसने कब सोचा था ?
घर-गिरस्ती के काम आने वाली हर एक मौजूद चीज धीरे-धीरे गायब होती चली जा रही है और वह फिर दोबारा नहीं दीखती। कपड़े-लत्ते, जूते-मोजे सब धीरे-धीरे विदा हो रहे हैं...सारा रख-रखाव बिखर गया है।
भूपाल यह सब समझ नहीं पाता।
अगर बच्चों ने कभी किसी बात पर जरा-सा भी असन्तोष प्रकट किया तो उसका जी जल जाता। उसका तर्क भी कुछ अजीब-सा था। भूपाल कहा करता-"ये कोई पराये नहीं हैं...नाते-रिश्तेदार नहीं हैं, अरे घर के बच्चे हैं। अगर ये भी अपने बाप का दुख नहीं समझेंगे तो बाप को क्या पड़ी है कि इनकी आरती उतारता रहे। मैंने कोई इनकी तमाम जिम्मेदारियाँ उठाने का ठेका ले रखा है।"
कनक की बातों से भूपाल के तर्क का कोई ताल-मेल नहीं।
तभी, भूपाल की बात सुनकर कनक के तन-मन में आग-सी लग जाती है।
अपनी तीखी आवाज में ढेर सारी कड़वाहट घोलते हए कनक बोली. "भीख माँगोगे ? फिर तो बड़ी मर्दानगी बची रहेगी? है न ? सारी हेठी तो भैया के दफ्तर में काम करते ही होगी...? और भैया की नौकरी भी कैसी है...उनका पाँव जो दबाना है...उनके तलुए में तेल जो लगाना है।"
"कोई खास फर्क नहीं है।"
"तो फिर तुम नहीं करोगे नौकरी ?"
"नहीं।"
"तो फिर भैया को क्या जवाब दोगे?"
"कोई जरूरी है उत्तर देना ? तुम चाहो तो जवाब दे देना। मुझे उसकी कोई खुशामद नहीं करनी है।"
कनक का चेहरा घृणा और गुस्से से विकृत हो गया। वह चिडचिडे स्वर में बोली, “मुझे पता है तुम भैया से इतना क्यों चिढ़ते हो। वे एक बड़े अफसर हैं, गाड़ी पर घूमते-फिरते हैं...तुम्हारा कलेजा सुलगता रहता है। लेकिन यह याद रखना...मैं अब तुम्हारे कहने में नहीं रहूँगी। अगर हुआ तो भैया के पास चली जाऊँगी या फिर किसी के यहाँ झाडू-पोंछा करूँगी। अब यही तो देखना है कि तुम्हारी अकड़ भला किस बात और बूते पर टिकी रहती है।"
भूपाल और कनक आज एक-दूसरे को काट खाने वाले खूखार जानवर की तरह दीख रहे थे। वे एक-दूसरे को फाड़ खाने पर उतारू थे...वर्ना भूपाल की आँखों में ऐसी आग क्यों जल रही होती ? उसकी बोली में ऐसी कड़वाहट क्यों थी ?
"जब कमाई ही करनी है तो चाकरी करने क्यों जाओगी...और भी तो कई तरीके हैं।"
"क्या कहा तुमने...क्या कहा ?"
"न...मैंने कुछ कहा नहीं...लेकिन भैया-भाभी की खुशामद करते हुए उनके यहाँ जाकर अड्डा जमाना भी कुछ बुरा नहीं होगा।...उनकी जूठन-कूटन से भी किसी-न-किसी तरह पेट भर ही जाएगा।"
"ठीक है...मैं वही करूँगी...अगर न किया तो में भी..." कनक के होठों तक आकर एक कठोर और कड़वी कसम अटक गयी। क्योंकि ऐसी कसमें खाने का अभ्यास न था। उसका गला रुंध गया।
दूसरे दिन सुबह...भूपाल घर से बाहर निकल गया। शाम ढल गयी...रात हो आयी उसका कोई पता न था।
कनक गुस्से में भरी थी।
तभी नीरू दौड़ती-हॉफती माँ के पास पहुँची और बोली, “माँ...बड़े मामा आ रहे हैं।"
“भैया..."
उसे अपने पाँवों के नीचे से जमीन खिसकती-सी लगी। आँखों के सामने अँधेरा-सा छाने लगा।...वह क्या जवाब देगी...क्या बहाने जुटाएगी ? वह भूपाल को धक्के मारकर तो उनके पास नहीं भेज सकती।...खुद जाकर तो वह नीकरी माँगने से रहा।...तो फिर क्या कहे...क्या करे ?
क्या वह भूपाल की बीमारी का बहाना बनाए? या फिर उनसे यह कह दे कि...भैया...तमको कछ लिखकर बताना ही मेरी गलती थी।...उनकी तबीयत इन दिनों काफी बिगड़ गयी है। आजकल वह काम नहीं कर पाएंगे।
क्या सुनील भैया उसकी बात पर यकीन कर लेंगे। जो आदमी घर से बाहर निकल पड़ा है, उसको बीमार बताना इस मौके पर एक तरह का मजाक या बात का बतंगड़ विलास ही तो है। क्या उनकी नजर इस घर की बदहाली पर नहीं पड़ेगी?
भैया के यहाँ आने पर, कनक में इतनी भी क्षमता नहीं है कि वह उन्हें एक कप चाय तक पिला सके। क्या उसके भैया सनील इस बात को नहीं समझते ? ऐसा न होता तो कभी-कभार जब इधर आना हुआ तो वे छूटते ही कह देते हैं, "तू खाने-पीने का कोई हंगामा खड़ा न करना कनक... । तुझे पता नहीं मेरा पेट...बड़ा ही अपसेट है।" इसके बाद भी क्या अब भी अपना सड़ा-गला अहंकार लेकर पड़ा रहेगा भूपाल और क्या सुनील उसकी इस मानसिकता को समझ नहीं पाएगा।
वह क्या कहे भूपाल को...और किन शब्दों में उसे बुरा-भला कहे ? क्या वह भूपाल के बारे में जली-कटी सुनाकर उसे और भी जलील न करे?
“अरी कनक...कहाँ है रे...तू...कैसी है?"
भैया की स्नेहिल पुकार कनक के सीने में हथौड़ी की चोट की तरह पड़ी।
"भैया ?" अपने फटे आँचल को समेट उसे अपनी साड़ी की तहों के बीच छुपाते हुए वह आगे बढ़ आयी और बोली, “अरे भैया...तुम ! अबकी बार तो तुम बहुत दिनों के बाद आये।"
“समय ही कहाँ मिल पाता है रे? और आजकल काम का इतना दबाव है कि..."। न आ पाने की वजह क्या हो सकती है, इसे अपनी भलमनसाहत के नाते छुपाते हुए भी वह जाहिर थी। भूपाल के स्वभाव से उखड़कर ही सुनील भैया ने इन दिनों आना-जाना कम कर दिया है।
"क्यों, आखिर काम इतना बढ़ कहाँ से गया ?" हालांकि कनक को अपना यह सवाल खुद ही बेमतलब-सा जान पड़ा।
“अरे एक अफसर है...स्साला बम्बई जाकर जम गया है...! खैर, भूपाल को मेरी चिट्ठी तो मिली है न...?"
"तुम्हारी चिट्ठी ?" कनक जैसे आकाश से गिरी। तुमने उसे चिट्ठी भेजी थी ?" उसने हैरानी से पूछा।
“हाँ...रे...।" सुनील ने आक्षेप भरे स्वर में पूछा, “उसे नहीं मिली ? तभी मुझे शक हो रहा था। तू देख रही है न...यह आजकल डाक की क्या हालत हो गयी है ? दमदम से कलकत्ता...आखिर कितने दूर हैं दोनों...यही 15-20 किलोमीटर...और चिट्ठी आने में पाँच दिन लग जाएँगे?"
"छी...छी...।" सुनील ने कुछ सोचते हुए फिर जोड़ा, “परसों शाम को ही चिट्ठी डलवायी है न...! खैर...मैं जरा घूम-फिर आऊँ। और हमारे बाबू साहब कहाँ हैं...उनकी मति-गति फिरी है ?"
"हाँ, भैया...और मैं भी यही बताना चाह रही थी...काफी भाग-दौड़ के बाद उन्हें एक काम मिला है...किसी बैंक में।"
"अच्छा...काम मिल गया है ?" सुनील की आँखें फटी रह गयीं..."भूपाल को नौकरी मिल गयी ?"
"हाँ, भैया...उन्होंने किसी जान-पहचान वाले को बता रखा था-जिस दिन मैंने तुम्हें लिखा था। उस दिन तक तो बात बनी नहीं थी लेकिन दूसरे ही दिन उन्होंने आकर बताया कि काम मिल गया है।"
सुनील ने निराशा के स्वर में कहा, "इतने दिनों तक बेकार बैठा रहा और ऐन वक्त पर उसे दूसरी नौकरी भी मिल गयी ? इधर मैं कितना परेशान रहा...कितनी मुश्किलों से उसके लिए एक अच्छी-सी नौकरी का जुगाड़ करा पाया।"
अबकी बार कनक के हैरान होने की बारी थी..."क्या...तुमने सचमुच उनके लिए नौकरी का बन्दोबस्त कर दिया ? और वह भी पलक झपकते ?...सचमुच ? मैं तो कल ही हँसी-हँसी में उनसे कह रही थी...चलो नसीब ने पलटा तो खाया...और हो सकता है, भैया भी तुम्हारे लिए कोई-न-कोई नौकरी अवश्य जुटा देंगे...तो पता है उन्होंने क्या कहा, 'लगता है...नौकरी ऐसे ही पेड़ों पर फला करती है।...बस यही तो सात दिन पहले अर्जी दी थी और नौकरी मिल गयी।...और सचमुच ऐसा ही हआ. भैया ? अगर नौकरी इतनी आसानी से मिलनी थी तो वे काहिलों की तरह इतने दिनों तक घर में क्यों बैठे रहे?"
कनक यह सब पूछकर बड़ी हैरानी से और बड़े भोलेपन से भैया की ओर ताकती रही...एक नन्ही बालिका की तरह। कुछ ऐसी मासूमियत से कि दीन-दुनिया के बारे में उसे कुछ नहीं मालूम ! उसे तो बस यही जान पड़ता था कि अगर मर्द घर में बेकार बैठा हो तो काहिल ही हो जाता है।
सुनील थोड़ी देर तक चुप बैठा रहा...फिर उसने कनक से पूछा, “तू किस बैंक के बारे में बता रही थी ?"
"नाम तो मैं नहीं जानती भैया...लेकिन बता तो किसी बैंक के बारे में ही रहे थे। उनके किसी दोस्त के चाचा या ताऊ वहाँ कैशियर हैं। कह रहे थे पगार भी अच्छी ही मिलेगी...फिर तुमने जो इतना कुछ किया...उसका क्या होगा, भैया !"
"हाँ...थोड़ी-बहुत परेशानी तो होगी...और क्या ? वैसे बड़ी कोशिश की थी। और यह भी पता नहीं चल रहा है कि आखिर उसे वहाँ काम कैसा मिला ? वैसे यह काम सचमुच अच्छा था। आगे तरक्की मिलने की भी उम्मीद थी।"
"फिर तो यह तुम्हारे लिए बड़ी परेशानी की बात हुई ? ऐसा नहीं हो सकता कि तुम इसे किसी और को दे दो...हाँ...?" कनक ने पूछा और आगे जोड़ा, “वैसे ये भी जान-पहचान वाले हैं...दोस्त के चाचा...।"
सुनील उठ खड़े हुए।
"यह क्या...? इतनी जल्दी जा रहे हो...ऐसा नहीं होगा...आज मह मीठा कराये बिना में तुम्हें जाने न दूँगी...अब जैसा भी है...खबर तो अच्छी है। अरे ओ सनत्...सुन तो बेटे...," कहती हुई वह अन्दर वाले कमरे में गयी और बेटे से बड़ी धीमी आवाज में गिड़गिड़ाते हुए बोली, “सुन बेटे...दौड़कर जा और मामाजी के लिए दो बर्फी तो ले आ, पैसे में बाद में चुका दूँगी।...दूकानदार से कहना में हड़बड़ी में दौड़ा चला आया।"
"क्या फिर उधार लाना होगा...नहीं...भले ही तू मेरा गला काट दे..." और यह कहकर सनत् ने खिड़की की तरफ मुँह फेर लिया।..."क्या पता मामाजी पढ़ाई-लिखाई के बारे में कुछ पूछ बैठे ? इसी डर से तो मैं अब तक बाहर नहीं निकला था।"
"इससे क्या हो गया बेटे", कनक की आवाज धीरे-धीरे और भी धीमी और फीकी पड़ गयी।...तुम लोगों ने तो जैसे कसम ही खा रखी है... । जरूरत पड़ने पर क्या मुहल्ले की दूकान से लोग सामान उधार नहीं लाते हैं?"
"वही लाते हैं जो उधार चुका पाते हैं," सनत् ने खिड़की से बाहर ताकते हुए ही कहा।
"तो तुम यही कहना चाहते हो कि मैं उसका उधार नहीं चकाती। ठीक है...में देखती हूँ, कहीं कुछ है।...आखिर बड़े बाप के बेटे जो ठहरे तुम !"
पिछवाड़े के दरवाजे से पीछे घूमकर कनक रसोईघर में आयी।
है...अभी भी एक रुपया बचा है। पौष-संक्रान्ति के दिन उसने एक रुपये के सिक्के के साथ 'बाउनी' बाँधा था...खुली छप्पर के नीचे जाले में वह पोटली आज भी बँधी हई है। फूस से मढ़ा और सिन्दूर से पता वह सिक्का...! अभाव के राक्षसी पंजे ने आज तक कम-से-कम उसकी तरफ हाथ नहीं बढ़ाया था। शायद उसने बढ़ाने का साहस किया भी न था।
कनक का हाथ वहां तक पहुंचेगा ? सहस्र बाहु की तरह अपना जाल फैलाये काल की सीमा में ?....
लेकिन इसके बिना चारा भी क्या है?
बाहर वाले कमरे में भैया बैठे हैं। पति को नौकरी मिली है...इस खुशी में वह उनका मुंह मीठा कराएगी...ऐसा ही तो कहकर आयी है वह !
सिक्का में लगा सिन्दूर पोंछते-पोंछते उसके पुराने आँचल में छेद हो गया।...लेकिन तो भी उसे इस बात का सन्देह था...कि कहीं उसकी विवशता का अन्तिम चिह तो नहीं मिट गया...सिन्दूर का वह दाग...। कहीं दुकानदार इस बात को समझ तो नहीं जाएगा?
और सनत् ... कहीं सनत् इस बात को ना समझ ले।
लक्ष्मी के नाम पर चढ़ाये गये रुपये से बरफी मँगाकर खिलाने के बारे में...वह कोई तर्क नहीं जुटा पायी।
लेकिन क्या कनक भी कोई दलील दे सकती थी इस बारे में।
.....लपलपाती आग के हाथों से अपने को बचाने के लिए आदमी पानी में क्यों कूद पड़ता है भला ? और तब तैरना जानने और न जानने का सवाल ही कहाँ रह जाता है?
क्या उस समय डूब जाने का डर होता है ?
(अनुवाद : रणजीत कुमार साहा)