वीरास्वामी कौशिक (कहानी) : बी.एस. रामैया

Veeraswami Kaushik (Tamil Story in Hindi) : B. S. Ramiah

गाव में पहुँचने के दस ही मिनट के अंदर पड़ोस के कुप्पुस्वामी शास्त्री आए और कुशल-क्षेम पूछने के बाद बोले, "तुम्हारी यज्ञी दादी की तबीयत बहुत ही खराब हो गई है। दो दिन जीना भी कठिन है।"

मैंने तुरंत जाकर दादी को देख आने का निश्चय किया। उनका पूरा नाम यज्ञम्माल था। उम्र खूब पक गई थी। 96वाँ साल चल रहा था। वे हमारे गाँव से पच्चीस मील दूर एक गाँव में जन्मी थीं। दस वर्ष की हुई तो हमारे गाँव के पटेल के घर वीरास्वामी नामक युवक से उनका विवाह हो गया।

विवाह पौष में हुआ। माघ में हमारे गाँव के धनीमानी व्यक्ति शंभू शर्मा काशीयात्रा के लिए रवाना हुए। वे वीरास्वामी को भी अपने साथ लेते गए। शर्माजी के साथ उनकी पत्नी और एक विधवा बहन भी थी। वीरास्वामी को साथ लेने का एक कारण यह था कि तीन व्यक्तियों का यात्रा पर जाना शुभ नहीं माना जाता। परंतु इससे भी बड़ा कारण यह था कि वे तीनों दौड़-धूप करने की आयु पार कर चुके थे। इसलिए साथी और सहायक के रूप में चौथा आदमी आवश्यक था। वे नल वर्ष के माघ मास में रवाना हुए थे अर्थात् फरवरी सन् 1857 ईसवी में। अगले वर्ष के मार्गशीर्ष महीने में शेष तीनों आदमी गाँव लौट आए। पर वीरास्वामी नहीं लौटे।

उसके पिता ने आकर पूछा तो शंभू शर्मा सखेद बोले, "हम वैशाख में काशी पहुँचे। मार्ग में हमने सुना कि गोरे और काले सिपाहियों में लड़ाई छिड़ गई है। वीरास्वामी ने बड़ी चतुराई से हमें सकुशल काशी पहुँचा दिया और वहाँ एक सद्गृहस्थ के यहाँ हमारे ठहरने की व्यवस्था भी कर दी। प्रतिदिन हम गंगा स्नान करते, विश्वनाथ के दर्शन करते, आस-पास के और भी दर्शनीय स्थानों को देखते। हमारे मकान मालिक का गुरुदास नाम का एक बेटा था। वह गोरों की पुलिस में काम करता था। एक दिन उसने हम से कहा कि काशी में भी बलवा होने की आशंका है, इसलिए हमें जल्दी अपने देश चले जाना चाहिए। पर इतनी जल्दी रवाना होने को हमारा मन नहीं हुआ। हमारे पहुँचने के छठे दिन काशी में हंगामा मच गया। अगले दिन सवेरे हमारे मकान मालिक के यहाँ रोना-धोना होने लगा। पता चला कि गोरे सिपाही गुरुदास को बलवाइयों का सहायक मानकर पकड़ ले गए हैं। अब उसे या तो गोली मार दी जाएगी या फाँसी पर चढ़ा दिया जाएगा। गुरुदास की शादी हो चुकी थी। उसकी पत्नी उसी दिन पति गृह आनेवाली थी। उसी दिन शाम से वीरास्वामी का कहीं पता न चला। हम बड़ी चिंता में पड़ गए। तीन दिन बाद मकान मालिक ने आकर कहा, "आपके साथ जो लड़का आया था, उसे गोरों ने या न जाने किसने गोली से मार डाला है। उसका शव हम उठा लाए हैं।" जाकर देखा तो सचमुच वह हमारा वीरास्वामी ही था। गंगा के किनारे अपने ही हाथों उसकी दाहक्रिया कर हम लौट पड़े। वापस आने में छह महीने लग गए।"

यह कहानी सुनकर वीरास्वामी के माता-पिता छाती पीटकर रोने लगे। पिता बड़े ही सज्जन थे। विधवा पुत्रवधू यज्ञम्माल को उन्होंने बेटी की तरह पाला। अपने बेटों से भी उन्होंने वचन लिया कि उनकी मृत्यु के बाद वे यज्ञम्माल का पालन-पोषण करेंगे। उनके देहावसान के बाद यज्ञम्माल अपने जेठ के घर रही और अब उनके पोते राममूर्ति अय्यर के आश्रय में थी।

शुरू से ही गाँव में यह धारणा फैल गई थी कि यज्ञम्माल कुलच्छनी है। तभी तो वीरास्वामी इतनी छोटी आयु में मर गया। लोग उसे 'निगोड़ी यज्ञी' कहते थे। गाँव में जब भी किसी की मृत्यु होती तो लोग कहने लगते, “यज्ञी को मौत क्यों नहीं आती? यह डायन स्वयं नहीं मरती, दूसरों के ही प्राण हरती है।" इन सारे कटु वचनों को सुनकर भी यज्ञी दादी चुपचाप जीती चली जा रही थी। गाँव में केवल मेरे ऊपर ही सिर्फ कुछ वात्सल्य था। एक बार मैंने वीरास्वामी के बारे में उनसे पूछा तो बोली, "बेटा, तब मैं बहुत छोटी थी। विवाह पर उनका मुँह देखने तक की लालसा मेरे मन में नहीं जागी थी। जब वे गौना करके मुझे यहाँ लाए, तभी मैंने उनका मुँह ध्यान से देखा। अब तो वे मुझे ठीक तरह से याद भी नहीं है। तब वे कोई बीस वर्ष के रहे होंगे। उन्होंने खूब वेदाध्ययन किया था। वेद मंत्र पढ़ते या गीत गाते तो बड़ा मधुर लगता था। चोटी के बाल घने और लंबे थे। सिपाही जैसा सुगठित शरीर था। रंग न श्याम था, न गौर। पर मेरी आँखों के लिए तो सोना मढ़ा था। पर मेरा तो जन्म ही उजाड़ हो गया...।"

हाँ, उनके जीवन के ये वैधव्यपूर्ण 85 वर्ष बिल्कुल उजाड़ ही तो थे। पड़ोस के कुप्पुस्वामी शास्त्री से यह सुनकर कि उनके दुःखमय जीवन से छुटकारा पाने का समय आ गया है, मैं राममूर्ति अय्यर के घर पहुंचा। बैठक में दीवार के साथ एक पुरानी साड़ी बिछाकर उस पर यज्ञी दादी सिकुड़ी पड़ी थीं। मैंने पूछा, "क्यों दादी, अब कैसी है तबीयत?"

बोली, "काशी के विश्वनाथजी का जाप कर रही हूँ बेटा, 96 साल तक निरा काठ बनकर रही। ऐसा निरर्थक जीवन बिताने के लिए न जाने मैंने कितना बड़ा पाप किया था। पर लगता है कि वह सब पाप अब मैं भुगत चुकी हूँ। भगवान् मुझे जल्दी ही अपने पास बुलानेवाले हैं। जाने से पहले तुम्हें एक बार देखने की इच्छा थी। वह भी पूरी हो गई।"
भला मैं उन्हें किन शब्दों में सांत्वना दे पाता। बस यही कहा, “दादी, आपकी तपस्या का फल देने के लिए ही भगवान् आपको अपने पास बुला रहे हैं।"

दूसरे ही दिन दफ्तर के काम से मुझे मद्रास लौटना पड़ा और फिर वहाँ से बंबई रवाना हो गया। इतवार के दिन अपने काम से छुट्टी पाकर घूमने निकला। कालबा देवी से होकर गुजर रहा था कि सहसा एक दुकान के बोर्ड पर मेरी नजर पड़ी। उस पर लिखा था-'भगवानदास वीरास्वामी कौशिक, बनारसी रेशम के व्यापारी।' भगवानदास और कौशिक के बीच लिखा हुआ वीरास्वामी शब्द मेरे हृदय को गुदगुदाने लगा। मैं दुकान के अंदर चला गया। काउंटर पर जो व्यक्ति बैठा था, उसकी उम्र तीस-पैंतीस वर्ष की होगी। गोरा-चिट्ठा रंग था। बड़ी शिष्टता से उसने पूछा, “कहिए, क्या सेवा करूँ?"

मैंने पूछा, "बाहर बोर्ड पर जो नाम है, क्या वह आपका ही है?"
"हाँ, मेरा ही नाम भगवानदास है।"
"बुरा न मानिए, वीरास्वामी तो तमिलनाडु का नाम है। वह आपके नाम के साथ कैसे जुड़ा है। आप कहाँ के रहनेवाले हैं?"

वह बोला, "देश तो हमारा बनारस ही है। हम बीस पीढ़ी से वहाँ रहते आ रहे हैं। जैसा आपने सोचा, वीरास्वामी नाम तमिलनाडु का ही है। मेरे परदादा ने उसे अपने नाम के साथ जोड़ लिया था। तब से चार पीढ़ियों से हमारे घर सभी पुरुष इस नाम को रखते आ रहे हैं। इसी नाम के एक सत्पुरुष ने हमारे वंश को विच्छिन्न होने से बचाया था।" मैंने उत्सुक होकर पूछा, "वह कौन सी घटना है। कोई आपत्ति न हो तो बताइए।"

"आप भी तमिलनाडु के मालूम पड़ते हैं। आप जैसों को सुनाने की बहुत दिनों से मेरी इच्छा थी। बैठिए, सुनाता हूँ।" भगवानदास ने कुरसी मँगाई। नौकर को चाय लाने के लिए कहा और कहानी सुनाने लगे, "मेरे परदादा का नाम गुरुदासजी था। वे अपने माँ-बाप के इकलौते बेटे थे। गरीब खानदान था, इसलिए वे गोरों की पुलिस में भरती हो गए।...

"मेरी आँखों के सामने यज्ञी दादी की पुरानी कहानी घूम गई। मैं अधिक उत्सुकता से सुनने लगा। उन्होंने कहा, "पुलिस में भरती होने के चार साल बाद उनकी शादी हुई। लड़की गोरखपुर की थी। उसी समय सन् सत्तावन का विप्लव आरंभ हुआ। गोरखपुर में गुरुदासजी के एक साले आंदोलन में सक्रिय भाग ले रहे थे। उस वर्ष जून के आरंभ में गोरखपुर और आजमगढ़ आदि स्थानों से गोरों ने सारा खजाना सुरक्षा के लिए काशी भिजवा दिया था। गुरुदासजी को मालूम था कि कब और किस रास्ते से ये रुपया आनेवाला है। उन्होंने अपने साले को इसकी सूचना दे दी। और अपने साथियों तथा भारतीय चौकीदारों की सहायता से रास्ते में ही वह खजाना लूट लिया। कंपनी के सात लाख रुपए उनके हाथ लगे।

"दूसरे दिन काशी में भी भारतीय सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। न जाने कैसे गोरों को पता लग गया कि खजाने की लूट में गुरुदासजी का भी हाथ रहा है। उन्हें कैद कर लिया गया। उन्हीं की तरह दूसरे भी सैकड़ों दोषीऔर निर्दोष व्यक्ति कैद हो चुके थे। जिस दिन गुरुदासजी गिरप्तार हुए, उसी दिन हमारी परदादी पहली बार पति गृह आनेवाली थीं। घर के लोग उस दिन इस प्रकार रोए कि सारी गली दहल उठी। उन्हीं दिनों तमिलनाडु के शंभू शर्मा नाम के एक वृद्ध पुरुष दो महिलाओं और एक नवयुवक के साथ तीर्थयात्रा करते हुए काशी आए थे। और गुरुदासजी के घर ठहरे हुए थे। उस नवयुवक का नाम ही वीरास्वामी था। गुरुदासजी के घरवालों को रोते-पीटते देखकर वे भीतर आए और सब बातों का पता लगा लिया। गुरुदासजी की माँ चीख रही थीं—अभी बहू आनेवाली है। जब वह पूछेगी कि मेरे पति कहाँ हैं? तो मैं क्या जवाब दूंगी। उसका जीवन ही अकारथ हो जाएगा। गोरे मेरे बेटे को गोली मार देंगे।

"माँ की ममता भरी चीख-पुकार ने वीरास्वामीजी की भावनाओं को उभारकर महान् त्याग के लिए तैयार कर दिया। वे हमारी बोली तक नहीं जानते थे। काशी उनके लिए नई जगह थी। ऐसी अवस्था में उन्होंने जो बड़ा काम साधा, उसे हमारे वंश के लोग दैवी चमत्कार ही समझते हैं। उसी समय बदनाम जनरल नील मद्रास से गोरों की एक पलटन और भाड़े के टटू भारतीय सिपाहियों का एक दल लेकर काशी आया। बड़ों के पुण्य प्रताप से गुरुदासजी जिस सराय में कैद थे, वहाँ पहरे पर तैनात सिपाही मद्रासी थे। उस दिन रात को सातआठ बजे भभूत रमाए, एक बड़ी तश्तरी में मंदिर का प्रसाद लिये वीरास्वामी वहाँ पहुँचे। उनके कंठ में अद्भुत माधुर्य था। वे सराय के द्वार पर पहुँचकर वेदोच्चार करने लगे। फिर कुछ तमिल गीत गाए। मद्रासी सिपाही मंत्रमुग्ध हो खड़े रह गए। वीरास्वामी ने सब को प्रसाद बाँटा। फिर सिपाहियों से कहा, "अंदर जो कैदी हैं, वे सब कल-परसों तक मौत के घाट उतार दिए जाएंगे। बेचारे मरने से पहले कुछ पुण्य प्राप्त कर लें। तुम लोग मानो तो उन्हें भी प्रसाद दे आऊँ।

"अनुमति पाकर वीरास्वामी अंदर गए। किसी तरह उन्होंने गुरु-दासजी को ढूँढ़ निकाला। संकेत से उन्हें समझाया, 'तुम्हारी पत्नी गाँव से आ गई है। मैं तुम्हें यहाँ से बचाकर बाहर करने के लिए आया हूँ। बाहर जाकर मैं सिपाहियों का ध्यान बँटाए रहूँगा। तुम अवसर पाकर निकल जाना।"

"और फिर उन्होंने कैदियों को प्रसाद बाँटने का नाटक रचा। इसके बाद बाहर जाकर नए ढंग के गीत गाने लगे। सिपाहियों ने उन्हें घेर लिया और गाने के साथ नाचना भी शुरू कर दिया। उन सब को गाफिल पाकर गुरुदासजी धीरे से वहाँ से खिसक गए। उनके पीछे-पीछे बाकी लोग भी भागने का प्रयत्न करते तो कहानी का अंत दूसरा ही होता। सिपाही सजग हो गए और उन्होंने भागनेवालों को गोलियों से भून डाला। फिर 'इसी ने तो हमें मुसीबत में फंसा दिया था' कहकर उन्होंने वीरास्वामी को भी खत्म कर दिया। सराय के बाहर अँधेरे में छिपकर गुरुदासजी ने सारा कांड देखा। उनका दिल करुणा से पिघल उठा। सुदूर दक्षिण का यह व्यक्ति न तो उनका सगा-संबंधी था। फिर भी एक गैर को बचाने के लिए उसने अपने प्राण होम दिए।

"गुरुदासजी के माता-पिता ने दो दिन बाद वीरास्वामी की मृत्यु की सूचना शंभू शर्मा को दी। लेकिन मृत्यु कैसे हुई यह रहस्य नहीं बताया। पर गुरुदासजी वीरास्वामी को कभी नहीं भूले। कैसे भूल सकते थे? उन्होंने उनको पितृ-तुल्य माना और अपने नाम के साथ पिता के नाम के बदले उनका नाम जोड़ दिया। उन्हीं गुरुदास वीरास्वामी कौशिक का मैं पड़पोता हूँ।"
कहानी सुनकर मेरा मन उड़कर यज्ञी दादी के निकट चला गया। मन-ही-मन भगवान् से प्रार्थना करने लगा, काश! यज्ञी दादी आज यह वृत्तांत सुनने को जीवित होती? भगवानदास मेरे मुख का भाव देखकर कुछ परेशान से हुए और बोले, "क्यों साहब, क्या वीरास्वामी आपके पुरखों में से थे।"
मैंने संक्षेप में यज्ञी दादी का वृत्तांत सुना दिया। वे बोले, "भाई साहब, हो सकता है, माताजी अभी जीवित हों। मैं उन पुण्यमयी माता के दर्शन करना चाहता हूँ। उनके चरणस्पर्श का सौभाग्य न मिले तो भी उस पुण्यभूमि की मिट्टी को सिर-माथे पर चढ़ा सकूँगा।"

उसी रात को हम दोनों चल पड़े। गाँव पहुँचने पर पता चला कि दादी अभी जीवित हैं। पर अब-तब की ही हैं। हम दोनों तुरंत राममूर्ति अय्यर के घर पहुँचे। लोगों को न जाने कैसे मालूम हो गया कि दादी को देखने के लिए कोई उत्तर भारतीय आया है। सारा गाँव वहाँ इकट्ठा हो गया। मेरी आवाज सुनकर दादी की पलकें हिली, पर आँखें नहीं खुलीं। शरीर की सारी शक्ति एकत्र कर बड़े प्रयत्न से बोली, "अंबि, तुम...।"
भगवानदास ने जो कुछ सुनाया था, वह मैंने संक्षेप में दादी को कह सुनाया। जैसे उनके शरीर की शक्ति लौट आई। आँखें खुलीं। कंठ भी कुछ ऊँचा हुआ। बोली, "वह लड़का कहाँ है। जरा बुलाओ, देखूँ उसे।"

भगवानदास झुके और मैंने दादी का हाथ उठाकर उनके सिर पर रखा। उनका सिर और चेहरा सहलाते हुए वे बोली, "बेटा, अब तक मैं यही सोचती थी कि मेरा जीवन अकारथ गया। मुझे क्या पता था कि उन्होंनेइतना बड़ा काम किया होगा। मेरी कोख से उनका वंश नहीं चला तो क्या हुआ, कहीं तो उनके नामलेवा हैं। बेटा, जुग जुग जिओ, सुखी रहो।"

जो हृदय चट्टान की तरह शुष्क और कठोर हो गया था, उसमें से आँसुओं की दो बूंदें निकलकर आँखों के रास्ते चू पड़ीं। मैंने दादी के आशीर्वाद का मतलब सुनाया तो भगवानदास की आँखों से आँसुओं की धारा प्रवाहित होने लगी। वे दादी के चरण पकड़कर गद्गद कंठ से कहने लगे, "जिस घराने ने आपका जीवन उजाड़ा, उसी को आप आशीष दे रही हैं। आप साक्षात् जगन्माता हैं।"
जब हम बंबई से चले थे, तभी भगवानदास ने गंगाजल का कनस्तर साथ ले लिया था, "काशी से पिछले हफ्ते ही आया है, शायद उन माताजी के काम आ जाए।"

मैंने दादी से कहा कि भगवानदास गंगाजल लाए हैं तो वे बोली, "बहुत बार मेरे मन में आया था कि मेरे कोई लड़का हुआ तो क्या वह मुझे काशी न ले जाता, जहाँ वे गए थे। अब मेरा पोता काशी और गंगा दोनों को मेरे पास ले आया है। जल्दी मुझे गंगास्नान करा दो बेटा, मेरा जीवन उजाड़ नहीं हुआ, अकारथ नहीं गया।..."

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