वीरांगना रानी चेन्नम्मा (कहानी) : आचार्य मायाराम पतंग
Veerangana Rani Chennamma (Hindi Story) : Acharya Mayaram Patang
दक्षिण में एक रियासत थी। मल्लसर्ज वहाँ का राजा था। वह प्रजा-पालक था, अतः प्रजा उसे प्यार करती थी। स्वभाव से वह परोपकारी और सरल था। प्रजा के सुख-दुःख की चिंता करनेवाला था। वीर और साहसी था । प्रजाजन किसी भी समस्या के हल के लिए निस्संकोच राजा मल्लसर्ज के पास चले आते थे।
एक बार जंगल में सीमा पर स्थित गाँव में एक शेर आ गया। गाँव से किसी पशु को उठा ले गया। उसके खून मुँह लग गया तो वह आए दिन हमला करने लगा। वह पशुओं को तो उठाता ही था, फिर मनुष्यों का भी शिकार करने लगा। गाँव के लोग राजा मल्लसर्ज के पास आए और उन्हें शेर के आए दिन होनेवाले आक्रमणों की दास्तान सुनाई। राजा ने उनको आश्वासन दिया- " अपने लोगों की रक्षा करना हमारा धर्म है। हम कल प्रातः से पूर्व शेर को मार गिराएँगे, फिर वह दुष्ट किसी को नहीं मारेगा। "
प्रजाजन निश्चिंत होकर राजा की जय-जयकार करते हुए चले गए। तैयारी करके राजा मल्लसर्ज भी बंदूक उठाए जंगल की ओर चल दिए। वीर राजा के साथ कोई अंगरक्षक भी नहीं था। दो अंगरक्षक, जो साथ चले थे, वे भी शेर की तलाश में अलग-अलग दिशा में चले गए। पूरी दोपहर बीत गई। लेकिन शेर कहीं दिखाई नहीं दिया। राजा किसी सुरक्षित छाया की तलाश में थे। दो घड़ी आराम करके फिर तलाश शुरू करनी थी। तभी अचानक राजा को शेर दिखाई पड़ा। शेर भी एक घनी छायादार झाड़ी के नीचे आराम से सो रहा था। राजा ने सोचा, अभी शेर से मैं बहुत दूरी पर हूँ, कुछ और पास पहुँचकर गोली चलाऊँगा। फिर सोचा, इतने में शेर जाग भी सकता है और भाग भी सकता है। अतः उन्होंने निशाना साधा और गोली चला दी। शेर तो पड़ा था, पड़ा ही रहा। राजा चलकर शेर के पास पहुँचा तो देखकर हैरान हुआ कि शेर को गोली नहीं लगी थी। शेर के पेट में एक तीर घुसा हुआ था। राजा ने इधर-उधर निगाह दौड़ाई। तभी सामने की पहाड़ी पर से एक नवयुवती उतरकर आती दिखाई पड़ी। वह धनुष-बाण लिये थी। तेजस्विनी मुखमुद्रा और वीर वेश । राजा ने पूछा, "क्या शेर को बाण तुमने मारा ?"
" जी हाँ! आपको कोई संदेह है क्या ?" युवती बोली।
"कोई संदेह नहीं, आपका बाण अभी तक शेर के शरीर में धँसा हुआ है। क्या मैं आपका परिचय जान सकता हूँ?" राजा ने कहा ।
" मेरा नाम है चेन्नम्मा । मैं काकटि के राजा घूकेप्प देसाई की पुत्री हूँ।" युवती ने परिचय दिया। राजा उसके व्यक्तित्व से प्रभावित ही नहीं, बल्कि मोहित हो चुका था। चेन्नम्मा का तेजस्वी मुख राजा मल्लसर्ज की आँखों में समा गया था। राजा ने विदा लेते हुए कहा, "चेन्नम्मा! आपकी वीरता और निशानेबाजी से मैं बहुत खुश हूँ। आपने शेर को तीर से मारकर मेरी प्रजा तथा मुझ पर उपकार किया है। ईश्वर ने चाहा तो फिर मिलेंगे।" राजा अपने राज्य कित्तूर को लौट गया। चेन्नम्मा काकटि को चली गई।
कित्तूर से अगले दिन राजा ने चेन्नम्मा के पिता घूकेप्प देसाई को संदेश भेजा, "आपकी पुत्री की तेजस्विता और वीरता ने मुझे आकर्षित किया है। यदि आपको ऐतराज न हो तो उसका विवाह आप मेरे साथ कर दीजिए।" संदेश पाकर देसाई ने अपनी पुत्री से उसकी सम्मति पूछी और उसकी स्वीकृति के पश्चात् विवाह का प्रस्ताव भेज दिया। धूमधाम से चेन्नम्मा का विवाह मल्लसर्ज से कर दिया गया। सारी प्रजा के लिए भी यह आनंददायक रहा। शेरवाली घटना का समाचार सभी को मिल चुका था। ऐसी साहसी रानी को पाकर सभी प्रजाजन प्रसन्न थे । ।। राजा की पहली रानी रुद्रम्मा भी बहुत खुश थी। उसने चेन्नम्मा को बड़ी बहन जैसा प्यार किया।
राजा मल्लसर्ज एक बार लंबी बीमारी से ग्रस्त हो गए। काफी उपचार के बाद भी ठीक न हुए । उनके देहांत के पश्चात् उनके पुत्र रुद्रसर्ज को राजा बनाया गया। उसका पूरा नाम था - ' शिवलिंग रुद्रसर्ज ' । वह दोनों माताओं का खूब ध्यान रखता था। उसके कोई पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ था । अतः उसने शिवलिंगप्पा नामक एक बालक को गोद ले लिया। रुद्रसर्ज भी पिता की तरह बीमार हुआ और जल्दी ही स्वर्ग सिधार गया। शिवलिंगप्पा का राजतिलक किया गया और रानी चेन्नम्मा को उसकी देखरेख का दायित्व दिया गया। उन दिनों धारवाड़ का अंग्रेज कलक्टर था- - थैकरे। ब्रिटिश कंपनी के नए नियमानुसार उसने दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया। वह तो पहले से ही कित्तूर पर नजरें गढ़ाए बैठा था। थैकरे ने एक बड़ी सेना के साथ कित्तूर को चारों ओर से घेर लिया। कित्तूर की जनता में भय और आतंक फैल गया। किले के द्वार बंद कर लिये गए। थैकरे ने चेतावनी दी, “यदि शीघ्र ही किले के द्वार नहीं खोले तो बुरे परिणाम भोगने के लिए तैयार रहें। सेना सहित जनता को भी जान गँवानी पड़ेगी।" सभी सेनानायक और दरबारी चिंता कर रहे थे। ऐसे समय में रानी चेन्नम्मा ने स्वयं ओजपूर्ण वाणी में संबोधित किया, "यह हमारा प्यारा राज्य है। जीते जी हम इसे पराधीन नहीं होने देंगे। हम अपने देश, अपनी धरती से प्रेम करते हैं। अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए हम जब तक जीवित हैं, तब तक लड़ेंगे। मातृभूमि की रक्षा हमारा कर्तव्य है, तो सोच-विचार कैसा ?" फिर क्या था ? दरबारियों और सेनानायकों के बुझे हुए चेहरे खिल उठे। रानी चेन्नम्मा के पास थोड़ी सी सेना थी। परंतु सेना में जोश था । मातृभूमि के लिए प्राणों की बाजी लगाकर भी कुछ कर गुजरने की भावना थी।
कित्तूर किले के फाटक खोल दिए गए। अंग्रेज थैकरे सेना लिये तैयार बैठा था; परंतु रानी चेन्नम्मा के नेतृत्व में फाटक समर्पण के लिए नहीं, प्राणपण से युद्ध के लिए खुले । चेन्नम्मा की छोटी सी सेना ने भयंकर युद्ध किया। चेन्नम्मा ने थैकरे कलक्टर को मौत के घाट उतार दिया। अंग्रेजी सेना में भगदड़ मच गई और भाग खड़ी हुई । थैकरे की मृत्यु से उस समय तो अंग्रेज पीछे हट गए, परंतु कुछ दिन बाद ही कमिश्नर चैप्लिन को यह जिम्मा सौंपा गया। इस बार एक बहुत बड़ी सेना ने भारी तोपखाने के साथ आक्रमण किया। रानी चेन्नम्मा ने बिना घबराए अपने सैनिकों में उत्साह बनाए रखा।
कमिश्नर चैप्लिन जानता था कि कित्तूर को जीतने के लिए किले के भीतर की जानकारी पाना जरूरी है। उसने वेंकटराव, मलप्पा और कोणूर को भारी लालच देकर अपनी ओर मिला लिया। गद्दार हर जमाने में होते आए हैं। तीनों गद्दारों ने किले के भेद अंग्रेजों को बता दिए- किले में कितने सैनिक हैं? कितने दिन की रसद (भोज्य सामग्री) है? कितना असला (गोला बारूद) है ? गुप्त दरवाजे कहाँ- कहाँ हैं ? आदि। शत्रु को इतनी जानकारी मिल जाए तो लड़ने को रह ही क्या जाता है ? रानी चेन्नम्मा फिर भी हिम्मत से डटी रही। मुसीबत तो तब हुई, जब इस खुफिया जानकारी के आधार पर अंग्रेजों ने चेन्नम्मा के तोपखाने में ही विस्फोट करवा दिया । विस्फोट के बाद सैनिकों में भगदड़ मचनी स्वाभाविक ही थी । अन्य प्रजाजन भी घबरा गए। गद्दारों ने किले के गुप्त द्वार खोल दिए। अंग्रेजों की सेना भीतर घुस आई। चारों ओर 'मारो-मारो, काटो काटो' का शोर सुनाई देने लगा। रानी चेन्नम्मा और उसके सैनिक वीरता से लड़े, पर विशाल सेना, भारी विस्फोट, अचानक हमला और अपने गद्दारों के कारण उसे पराजय का मुख देखना पड़ा। 5 दिसंबर, 1824 को अंग्रेजों ने कित्तूर पर कब्जा कर लिया। रानी चेन्नम्मा को गिरफ्तार कर लिया गया, परंतु उससे पहले रानी ने तीनों गद्दारों को मौत के घाट उतार दिया था। वह अपने ही कृतघ्न लोगों के कारण परास्त हुई। परंतु रानी चेन्नम्मा ने न तो अंग्रेजों से किसी तरह की माफी माँगी, न ही दया की प्रार्थना की। स्वाभिमान की मूर्ति, देशप्रेम की दीवानी रानी ने सन् 1928 में जेल यातना सहते- सहते अपने प्राणों की आहुति दे दी। रानी चेन्नम्मा के नाम से ही भारतीय मानस में देशप्रेम की, वीरता की तथा साहस की उमंगें उठने लगती हैं।