वे चार वर्ष : पीटर पौल एक्का

Ve Chaar Varsh : Peter Paul Ekka

चार सालों तक वह कॉलेज में था, सन् 1970 से 74 तक। पाँच फीट सात इंच का उभरता कद, जरा साँवला और पतला। उम्र के लिहाज से काफी बड़ा नजर आता था। पतला जिस्म ढीले-ढाले पहनावे में खूब फबता था। लंबे, लहरिया बाल, सूखे, उखड़े हुए, गले तक झूलते थे। चेहरे पर खामोशी की हलकी परत। अकसरहाँ बेबाक हँसी के लंबे दौर में गहरे उफान आते थे। काले फ्रेम के चश्मे के नीचे झिपकती आँखें, चौकोर लेंसेज।

पहले साल वह डी ब्लॉक हॉस्टल के ग्राउंड फ्लोर में रहता था। कुछ दिनों तक वह न्यू कॉलोनी में नजर आया, फिर वह सुपर मार्केट में देखा गया।

कॉलेज के अंतिम दिनों में वह ग्रीन पार्क के करीब किसी गंदी बस्ती में किराए के घर में रहता पाया गया था।

सुधा उसे बुधू समझती थी।

शशि के लिए वह निर्मोही था।

प्रो. वर्मा उसे मेधावी और मेहनती छात्र बताता था।

सीमा को वह महान् इनसान लगता था।

मधुसूदन उसे किताबी कीड़ा बताता था। शारदा प्रिंटिंग प्रेस का प्रकाशक उसे नौसिखिया कहता था।

स्तेल्ला के लिए वह विश्वासपात्र था।

जुलाई 1970 में वह कॉलेज के लिए शहर आया था। अकेला था, किसी की मदद नहीं ली, सिफारिश नहीं करवाई, सबकुछ अपने से सीखा और किया। एडमिशन लेने में दिक्कत नहीं हुई, मेरिट के नंबर थे। डी ब्लॉक हॉस्टल के ग्राउंड फ्लोर में एक कमरा मिला। तीन छात्र और उस कमरे में थे।

गाँव से उसने स्कूल की सीमा पार की थी। पर वह अपने ढंग का अकेला निकला। गाँव के उसके अन्य दोस्तों की बात कुछ और थी। शहर आते ही जाने किस भीड़ में बह गए, पता तक न चला। शहर के शोर-शराबे वाले माहौल में ही एडजस्ट करते उसे कुछ ज्यादा दिन नहीं लगे। जल्द ही उसने अपने को उस परिवेश में ढाल लिया था।

क्लास शुरू हुआ। छात्राओं की शोख निगाहें, लहराती चाल, शरमाती सी पलकों के संग छात्रों के उन्मुक्त अल्हड़पन का मेल था। शुरू में लगा, यहाँ उसकी नहीं निभेगी। औरों में कितना आत्मविश्वास था। सलीके से पहनते, रहते, बात करते थे। रंगीन नुमाइश का स्वच्छंद माहौल। तब वह शांत था, औरों से अनजान। पर जल्द ही उसे पता चल गया था कि उनकी बाहर की चटक-मटक की जिंदगी अंदर से कितनी खोखली, नीरस और बेजान थी।

अध्ययन के वक्त कमरे में दोस्त गप्पें मारते, शहर में चल रही फिल्मों की कहानी सुनाते, डायलॉग बोलते, एक्टिंग करते, जी चाहा तो गाना गाते या इयर फोन लगाकर सिलोन से खुद को ट्यून कर लेते थे। स्टार, सुमन सिरीज के उपन्यास बिस्तर और टेबल पर बिखरे रहते। बाद में सह छात्राओं का अंतहीन जिक्र चलने लगा था। साथ ही कभी-कभी फाइव परसेंट ह्विस्की की बोतलें भी आने लगी थीं। कमरे में एक-दो बुलवर्करें थीं। चेस्ट एक्सपायंडर, एडहाइट, बी स्लिम से भरे विज्ञापन वाली पत्रिकाएँ बिखरी पड़ी रहतीं। अध्ययन के वक्त जब-तब उनका प्रयोग होता।

तब वह कमरे से खिसककर लाइब्रेरी में जा बैठता। कुछ पुस्तकें इश्यू कराता, कुछ जमा करवाता और तब किसी खामोश कोने में पुस्तकों से उलझ जाता। इस बीच अगर सहपाठी आकर मदद माँगते तो वह पूरी उदारता बरतता। शाम को मेस का वक्त होने पर ही वहाँ से लौटता।

अन्य साथी शहर आते ही सभी टॉकिजों का चक्कर लगा चुके थे। पैंट्स और शर्ट लेटेस्ट डिजाइन की बनवाई थीं। सीनियर छात्रों से रैगिंग की कला, छात्राओं से हँसने-बोलने के सलीके, हर करीब आनेवाले से यारी करने के तरीके, सफलता के शॉर्टकट सीखे थे। किस सब्जेक्ट के लिए किस प्रोफेसर तक पहुँचना चाहिए, अवकाश के समय कहाँ खड़ा होना है या कैसे मजा लूटा जा सकता है-इसकी लंबी सूची ढूँढ़ ली थी। पहले ही वर्ष में वे पूरे फार्म में आ गए थे। वह इन सब में जैसे अनाड़ी था। या तो उसने इन सब की जरूरत नहीं समझी होगी या अपनाने की कोई कोशिश नहीं की।

एक दिन शाम को यही धंधे चल रहे थे। उसने कॉपी और पेन उठाया और चलने को हुआ। वह कमरे से बाहर निकलता, इससे पहले ही मधु रास्ता रोके अड़ा था।

"यार, आज फैसला हो जाना चाहिए।"

"फैसला, कैसा फैसला, कोई गुनाह तो नहीं किया हमने?"

"बनो मत। इस समय आखिर जा कहाँ रहे हो?" बसंत बीच में टपका।

"लाइब्रेरी।"

"लाइब्रेरी, पुस्तक, नोट्स, यार इससे भी आगे कुछ देखा है या नहीं? इस कमरे में रहना चाहते हो तो हमारा साथ देना होगा।" अमर ने आखिरी कश लेकर बचे टुकड़े को मसलते हुए कहा।

"हमें यह सब पसंद नहीं, अमर, पढ़ाई में नुकसान होगा।"

कमरे में मधु की दादागिरी चलती थी। उसने जवाब-तलब में मैदान सँभाला।

"यार, अभी से इतना पढ़ोगे तो पागल हो जाओगे। मेरिट तो है ही, टॉप पॉजिशन और डिस्टिंक्शन तो धरा ही है। प्रो. वर्मा ने भी तो उस दिन भरे क्लास में मेधावी और मेहनती छात्र का मेडल गले में डाल ही दिया। अब किस बात की कमी रह गई है, जरा मस्ती कर लो। जब तक कॉलेज में हो, तभी तक, फिर घर-गृहस्थी और नौकरी के चक्कर में पड़ोगे तो फिर बँधे-के-बँधे रह जाओगे। जब तक हम हैं, पैसे की चिंता न करना।"

"हमें यह सब पसंद नहीं, मधु।"

"तुम्हें तो कुछ भी पसंद नहीं, जाने किस गाँव से आए हो! गँवारपन का लेबल लगा है तो पिछलग्गू बने रह जाओगे।। शहर की बात कुछ और होती है, समझे! यहाँ का स्टैंडर्ड कीपअप करो, नहीं तो कोई पूछेगा तक नहीं। एबिलिटी और टैलेंट्स ही सबकुछ नहीं होता, कॉमन सेंस भी होनी चाहिए।"

उसने फिर कुछ नहीं कहा। कलाई में बँधी घड़ी देखी। चुपचाप निकल गया। उधर से हॉस्टल अधीक्षक आ रहे थे।

इसके बाद भी उसकी दिनचर्या बदली नहीं। अन्य साथी प्रॉक्सी दे-दिलाकर नदारद हो जाते। जो चाहा, पढ़ लिया, नहीं तो गप्पें हाँकते या सोए पड़े रहते। पढ़ाई के लिए समय कम पड़ता, साइड बिजनेस कुछ ज्यादा थे। तंगियों के बीच भी वह खुश रहता, हँसता और हँसाता था। दिन एक के बाद एक निकलने लगे थे।

एक दिन वह कॉमन रूम के सामने खड़ा था। घंटी लगने में पाँच मिनट की देर थी। सामने छात्र झुरमुटों में बिखरे थे। बातें ऐसी थीं कि खत्म नहीं होती थीं। वह अकेला खड़ा होनेवाले प्रैक्टिकल की आड़ी-तिरछी लकीरों में खोया था। कंधे में किसी के हाथ का एहसास हुआ। देखा, अमर था।

"अच्छे मजनूं बने बैठे हो, यार।"

"जरा प्रैक्टिकल के ढाँचे खींच रहा था। कल समय मिला नहीं।"

"छोड़ो भी प्रैक्टिकल, वह तो होता रहेगा। जल्दी क्या है, एक्सट्रा टाइम मिला है। अरे उस ओर देख जरा जल्दी से।"

"कहाँ?"

"लाइब्रेरी की तरफ।"

तीन छात्राएँ जा रही थीं। "बीचवाली सीमा है, लाजवाब गाती है, चाहो तो परिचय करवा दूं। बड़ी फॉरवर्ड है।"

"रहने भी दो।"

"आजकल तुम पर तितली की मानिंद मँडरा रही है।"

"कहने का मतलब?"

"मतलब! मतलब कि तुम पर जान देती है, फिदा है।"

"तो फिर?"

"ले जाओ किसी दिन संध्या पिक्चर के लिए, बगल में मेरा लॉजिंग है, ले जाना उसे। एकांत रहेगा।"

"तुम्हारी माँ-बहनें नहीं हैं क्या?"

और तब घंटी लग गई थी। झुरमुट में खड़े छात्र सीढ़ियाँ चढ़ने लगे थे।

स्पोर्ट्स डे का दूसरा दिन था। टेबल पर बिखरे जीते हुए अनेक मेडल की याद अब भी ताजा थी। फील्ड ट्रैक में अव्वल था, ऊँची कूद में भी बाजी ले गया था। कॉलेज चैंपियनशिप जीती थी।

लाइब्रेरी के द्वार पर सुधा मिल गई। वह कुछ पल तक इधर-उधर देखती रही। एकांत एहसास हुआ। जरा शरमाती हुई नारी सुलभ चंचलता से मुसकराई, बोली, "संजय?"

"ओह तुम, सुधा," वह भी मुसकराते हुए बोला।

"अभी लीजर है क्या?"

"हाँ है तो, क्यों?"

"पहले हमें प्रॉमिस करो...तो कहेंगे।"

"चलो किया।"

"आज शाम चलोगे मेरे साथ?"

"कहाँ?"

"मद्रास कॉफी हाउस तक।"

"कोई जरूरी काम है क्या?"

"यही समझो..."

"तो फिर यहीं कह दो न!"

"कोई सुन लेगा तो!"

"सुन लेंगे तो क्या?"

"रहने दो।"

"तुम समझते क्यों नहीं हो?"

"क्या समझूँ?"

"बुद्धू कहीं के!" उसने उपेक्षा से आँचल समेटा, फिर इठलाती चली गई।

वह वहीं खड़ा दो पल तक देखता रहा, फिर किंचित् मुसकुराया और हॉस्टल की ओर बढ़ गया।

तब छुट्टियों का मौसम था। एक सोशल कैंप अटेंड किया था। छात्र-छात्राओं की उमंग में उन्मुक्त वातावरण के संग सोशल कम इनडिविजुवल कुछ ज्यादा था। दो सप्ताह के छोटे अरसे में काम कम, बातें कुछ ज्यादा हुआ करती थीं।

तब उसकी बात कुछ और थी। अवकाश के वक्त छात्र-छात्राएँ दो-चार के झुरमुट में बिखर जाते थे, तब वह करीब के गाँव की ओर निकल जाता था। कुछ पलों तक झारखंड की ऊँची-नीची घाटियों में बेतरतीब फैली हरियाली और नीले आकाश में मनमौजी घूमते बादलों को निहारता। फिर गाँव के भोले-भाले किसानों और दूसरे लोगों से मिलता। आत्मीयता से बातें होती, उनके दुःख-दर्दो की कहानी सुनता। सोशल कैप के अंत तक उसने करीब के गाँव का सर्वे भी कर लिया था।

उसके दोस्त कहते, "यार, अवकाश के वक्त कहाँ गायब हो जाते हो?"

"जरा गाँव की ओर निकल जाता हूँ।"

"अरे गाँव में रखा क्या है? यहाँ छात्राओं से बातें करो, यार-दोस्त बनाओ, पर्सनलिटी डेवलप करने का बढ़िया मौका खोते हो। है क्या गाँव में इनसे भी बढ़कर?"

वह हौले से मुसकुरा देता।

तब वह कैंप का सेक्रेटरी चुना गया था। खाने के बाद अवकाश था। उस दिन स्तेल्ला सामने आ गई। पटना यूनिट से आई थी, बोली, "संजय, चलो कहीं घूम आएँ।"

"कहाँ?"

"यहीं कहीं।"

पास में एक पथरीली पहाड़ी थी। घूमते हुए आकर वहाँ फैली चट्टानों पर बैठ गए। बहुत दूर तक हरे-भरे खेत नजर आते थे। ऊपर खुला नीला आकाश था। शरद की हलकी बयार जबतब पत्तों से उलझ जाती थी।

"संजय, कैंप में तुम इतने ठंडे क्यों बने रहते हो?" स्तेल्ला ने पूछा।

"कौन कहता है?"

"मैं जो कह रही हूँ।"

"वह कैसे? मैं सबसे मिलता हूँ, बातें करता हूँ, हँसता-हँसाता हूँ, सबकुछ तो करता हूँ।"

"लड़कियों से कभी खुलकर मिले?"

"मिलता हूँ, जरूरत भर!"

"डरते हो?"

"डरती तो वे हैं।"

"वह कैसे?"

"दरअसल मैं जरा सीधे किस्म का आदमी हूँ और आज की लड़कियाँ इतना सीधापन पसंद नहीं करती हैं।"

स्तेल्ला इस पर खुलकर हँस पड़ी थी। वह भी मुसकरा उठा था।

और भी बातें हुई कैंप की, कॉलेज की, गाँव-घर की, आपबीती। स्तेल्ला ने एक गीत गाया, उसने माउथ ऑरगन से एक-दो धुनें बजाई।

जब लौटे तो स्तेल्ला को एहसास हो रहा था, एक संजय है, जिस पर वह पूरा विश्वास कर सकती थी। उस बड़ी भीड़ में उसे एक वही विश्वासपात्र नजर आया।

कैंप के दिन बीते। वह फिर पुस्तकों में खो गया। उनके अन्य दोस्तों में कैंप के बीते दिनों की याद तब भी ताजा थी। खत आते-जाते रहे थे महीने-दो महीने साल भर चले, फिर विराम लग गया।

दो साल बाद वह न्यू कॉलोनी में रहने लगा था, तब गाँव में सूखा पड़ा था। घर से पैसे आते थे, हॉस्टल की फीस भरना मुश्किल था। न्यू कॉलोनी में एक छोटा कमरा किराए पर मिला। खुद ही खाना बनाता, कभी फाके भी कर लेता। कुछ दिन बाद उसे एक ट्यूशन मिल गया था। कुछ सहारा मिला। पढ़ता और पढ़ाता गया।

पाँच बजे कॉलेज से घर आता, चाय बनाकर पीता और तब ट्यूशन देने एडवोकेट वर्मा के यहाँ चल पड़ता। वहाँ से साढ़े सात बजे घर लौटता। आते वक्त सस्ती रोटी की दुकान से कुछ रोटियाँ और अचार ले आता। खाकर साढ़े ग्यारह बजे तक पढ़ता।

शशि तब मैट्रिक की तैयार कर रही थी। वह डेढ़ घंटे उसे पढ़ाता। शशि का अलग कमरा था। कभी ज्यादा गरमी होती तो वे खुली छत पर चले जाते। छत से धुंधलके में खोया शहर बड़ा अच्छा लगता था तब वह उससे बहुत कम बोलता था बस पढ़ाए जाता। वह भी बोलती बहुत कम थी। उसकी मासूम आँखें जाने क्या देखती और सोचती थीं!

तब दशहरे का समय था। उस दिन शाम को शशि दरवाजे पर ही मिल गई। और दिन वह कमरे में बैठी उसका इंतजार करती या घर के काम में उलझी रहती थी। ताजा, धुली, चटक रंगोंवाली मुसकराहट होंठों पर खेल रही थी। साड़ी पहनी थी, तब भी किशोरी लगती थी। लगा, मेकअप कुछ ज्यादा था, हवा में सेंट की खुशबू घुल रही थी।

कमरे में आए तो वही पहले की-सी खामोशी बिखरी थी। आज चिंटू भी कमरे में उछलकूद कर शोर नहीं मचा रहा था। शशि कुछ अलसाई-सी खिड़की के बाहर देखने लगी थी। दूर धुंधलके में खोया शहर दशहरे की समाँ में डूबा था।

"पढ़ोगी नहीं आज?"

"पढ़ने का मन नहीं है।"

"तो फिर मैं चलूँ?"

"रुकिए न, ऐसी जल्दी भी क्या है?"

"क्यों?"

"मैं चाय बनाती हूँ।"

"अभी ही पीकर आ रहा हूँ।"

"एक कप और सही।"

"नहीं।"

"मेरे हाथों से!"

बातों में विराम लग गया था और वह किचन की ओर चली गई थी। वह कमरे को देखता रहा। लगा, पहली बार देख रहा है।

कमरा काफी सजा था, चीजें करीने से रखी हुई थीं। ड्रेसिंग टेबल पर सौंदर्य-प्रसाधन रखे थे। वह सामने लगे शीशे में खुद को देखता रहा। फिर टेबल पर पड़ी एक पुस्तक उठा ली। उलट-पुलटकर देखा। अंदर में एक नीला लिफाफा था, ऊपर उसका नाम लिखा था, हैरानी हुई, देखने का मन किया। पर नहीं, वैसे ही रख दिया। बगल में रंग-बिरंगे कवर के सस्ते उपन्यास बिखरे थे। ऊपर की जिल्द पर पाठ्य-पुस्तक के नाम लिखे थे।

शशि जल्द ही चाय लेकर आ गई थी। कप थमाते वक्त उसकी कलाई छू गई थी। कितना ठंडा था, वह सिहर उठा था। पर जल्द ही अपनी परेशानियाँ छुपाकर चाय की चुस्कियाँ लेने लगा।

"अपने लिए नहीं लाई?"

"मेहमानी का ढंग ये तो नहीं होता।"

"तो फिर मैं मेहमान हुआ?" वह रुकते हुए बोल गया था।

"नहीं, कुछ और।"

"कुछ और क्या?"

शशि कुरसी से सटी खड़ी थी। कभी उसका आँचल कंधे से लहरा जाता था।

"चिंटू घर में नहीं है क्या?" वह बात बदलने के खयाल से ऊपर झाँकते हुए बोला।

"सभी फर्स्ट शो गए हैं, 'आराधना' देखने।"

"तुम नहीं गई?"

"तुम जो आनेवाले थे।"

"मैं!"

"हाँ और कौन?" वह पीछे खड़ी, कंधे तक झुक गई थी और गले में हाथ डालकर झूलसी गई थी। एक ठंडेपन का एहसास हुआ।

"शशि!" वह चौंक गया था।

वह बोली कुछ नहीं। वैसे ही पड़ी रही।

"शशि, यह नादानी है, भावुकता है।"

"रहने दो, कोई नहीं है।"

"पर मैं नादान नहीं हूँ।" और वह झटके से उठ गया था।

वह इस अवहेलना से आहत हो उठी थी। जैसे किसी ने किसी का अहसान बेरहमी से ठुकरा दिया हो! उसकी मासूम आँखें वैसे ही ठंडी पड़ी थीं। शायद अंदर से पारदर्शक शबनम की बूंदें उभरकर बाहर आने लगी थीं।

"संजय, रुको न।" बेहद अनुराग और याचना भरे वे शब्द हवा में घुल गए। साथ ही उसके हाथ आगे बढ़े, मानो वह उसे जकड़ लेना चाहती थी।

"मैं नहीं रुकता," वह दो कदम पीछे हटते हुए बोला था। दो पलों तक वह मोम-सी पिघलती शशि को देखता रहा और तब तेजी से बाहर निकल गया। पीछे मुड़कर भी नहीं देखा।

बी.ए. की जाँच परीक्षाओं में उसे दूसरा स्थान मिला। सीमा पहले स्थान पर आई थी। इस उलट-फेर का रहस्य क्या था, वह जानकर भी चुप रहा।

तब वह ग्रीन पार्क के निकट एक तंग कमरे में रहता था। बिजली की पूर्ति समय पर नहीं होने पर लाइन दो बार काटी जा चुकी थी। सप्ताह भर वह पार्क में लैंप पोस्ट के तले पढ़ता रहा था। पार्कवाले से दोस्ती हो गई थी, दो दिन उसे होटल ले जाना पड़ा था। पार्क का दरवाजा आठ बजते ही बंद हो जाता था। तब वह वहाँ ग्यारह बजे तक रह सकता था।

उस दिन घुटन भरे बंद कमरे के दरवाजे पर बैठा रहस्यवाद की विधाओं का विश्लेषण देख रहा था। तभी सामने एक कार आकर रुकी। वह जैसे उससे उदासीन पढ़ता रहा। सहसा सामने सीमा को देखकर हैरानी हुई।

"सीमा, तुम यहाँ?"

"क्यों, यहाँ तक नहीं आ सकती हूँ?"

"गरीबों के यहाँ आने में कोई संकोच नहीं?"

"संकोच, संकोच काहे का?"

"तो फिर स्वागत है, सीमा देवी, इस दर्शन के लिए। आओ अंदर, इस कुनबे पर बैठ लो।"

सीमा मुसकराई। उसने कहने को तो कह दिया, पर अंदर की हालत कुछ इस कदर टूटी थी कि उसे खुद ही अंदर जाना भारी लगने लगा।

टूटे पलंग पर बिस्तर अस्त-व्यस्त था। वह तो मजे में रह लेता था, पर सीमा को बैठाए कहाँ? वर्षों पुरानी फोल्डिंग चेयर शायद फिफ्थ हैंड में खरीदा था। झाड़-पोंछकर ठीक किया, फिर सामने धर दिया।

सीमा फटी-फटी नजरों से कमरे को निहार रही थी। अंदर जाते झिझक हुई, पर जब आई है तो बैठना ही पड़ेगा, दो पल के लिए ही सही।

"बैठो, सीमा, तकलीफ तो होगी ही...।"

"नहीं, संजय, सब ठीक है।" वह अपनी नायलोन की साड़ी इस कदर सँभालकर बैठी कि कहीं जंग लगे फोल्डिंग चेयर की कालिख न लग जाए।

"बधाई, सीमा, जाँच परीक्षाओं में अव्वल आई हो," वह याद करते हुए बोला।

"और अधिक शर्मिंदा न करो, संजय," सीमा अनझिप आँखों से देख रही थी।

"इसमें लज्जित होने की क्या बात है?"

"प्रथम स्थान तो तुम्हें मिलना चाहिए।"

"अंक तो कॉपियाँ जाँचकर दी जाती हैं। सीमा, मैं पत्रिकाओं में कहानी लिख लेता हूँ। साहित्यिक चर्चाओं में नाम होता है। पर इससे क्या होता जाता है? सवाल तो निर्धारित पाठ्यक्रम से आते हैं। उत्तर ठीक न हों तो व्यक्तिगत साहित्य-सृजन कौन देखता है?"

"हो सकता है संजय, पर प्रथम स्थान तुम्हारा है।"

"पर आई तो तुम हो न?"

"आई नहीं, यह कहो कि लाई गई हूँ। यह तो डैडी की दी गई पार्टियों का प्रभाव है। प्रो. सिन्हा के घर आने-जाने का फल है। बड़े दिन, दीपावली के मौके पर भेजे गए उपहारों की करामात है और कुछ हद तक अपनी खूबसूरती का भी जोर है।" यह कहते सीमा रुक गई थी, उसकी साँस गहरा गई थी। उसने अपने फैशनेबल हैंडबैग से रेशमी रूमाल निकाल लिया था। दो पलों तक चेहरे पर उभरती पसीने की बँदें सुखाती रही।

"मैं जानता था सीमा।"

"जानते थे तो फिर कहा क्यों नहीं?"

"सच्चाई छिपती नहीं है, कभी-न कभी उभरकर सामने आ ही जाती है।"

"हमें माफ कर देना संजय, तुम्हें अनजाने दुःख दिया, मैं जानती हूँ। अब डर लगता है, कहीं ऑनर्स भी न मिले तो मैं बदनाम हो जाऊँगी," उसकी आवाज भारी हो उठी थी। कमरे की हवा बोझिल लगने लगी थी।

"अब तुम्हीं उबार सकते हो, संजय। जहाँ तक हो सकेगा, वह तो मैं करूँगी ही। तुम्हारे पास बस इसीलिए आई थी, प्लीज, अपने नोट्स हमें दे दो।" आँखों में बेबसी और अंदेशे के मिले-जुले भावों के साथ याचना के भाव घुले थे।

इस अनुरागमय याचना को ठुकराना शायद संजय के लिए संभव न था, वह उठा, कोने में रखी टेबल तक गया, एक-एक कर पाँच नोट्स की कॉपियाँ ले आया। सामने रखकर बोला, "अब तो खुश हो, हमने ये नोट्स खुद ही तैयार किए हैं। कुछ काम आ सकेगा तो खुशी होगी।"

“थैंक्स संजय, तुम महान् हो, सच्चे इनसान हो।" सीमा की आँखें कृतज्ञता से दबी जाती थीं।

"संजय, एक बात पूछु?"

"पूछो।"

"यहाँ रहते तुम्हें तकलीफ नहीं होती है?"

"होती है बहुत।"

"मेरा कहा मानोगे?"

"मानने लायक हो तो!"

"हम मिलकर पढ़ें और इम्तिहान की तैयारी करें तो कैसा रहे? हमने डैडी से भी पूछ लिया है। हमारे यहाँ चलकर रहो न! वहाँ तो नौकरों के लिए भी इससे अच्छे क्वार्टर्स हैं।"

"यह नहीं हो सकता है, सीमा।"

"लेकिन क्यों?"

"इन्हीं तंग गलियों में रहकर, आम आदमी की जिंदगी जीते हुए ही मैं जीवन को पहचान सका हूँ। निकट से देख सका हूँ। हॉस्टल में भी अपना जी न लगा, वहाँ सुरक्षा रहती है, यारदोस्त मिलते हैं, आराम रहता है। इन कुनबों में अपने पैरों खड़ा होना होता है।"

सीमा की आँखें गीली हो रही थीं। सावधानी से उसने उन भीगी पलकों को आँचल से पोंछ लिया था।

"अच्छा, अब चलूँ, संजय।"

"बुरा न मानना, सीमा, एक कप चाय तक न पिला पाया।"

"उसकी कोई जरूरत नहीं थी संजय, बहुत-बहुत शुक्रिया।"

हलकी-फुलकी सीमा अपनी कार तक चलने लगी। संजय उसे कार तक छोड़ने आया। कार चली तो उसने प्रणाम करते हुए हाथ जोड़ दिए। फिर कुछ सोचता हुआ वह लौटने लगा। सीमा की कार तब आगे की गली में मुड़ गई थी।

फाइनल के बाद दो महीनों का समय था। सोचा, कुछ करना चाहिए। आगे की पढ़ाई के लिए कुछ पैसों का इंतजाम भी हो जाएगा। अनेकों जगह दरख्वास्तें दीं। पोस्टल ऑर्डर में काफी रुपए गए। कहीं से बुलावा आया, कहीं से नहीं। एक-दो जगह साक्षात्कार के बाद नामंजूर कर दिया गया। कहीं से झूठा आश्वासन मिला, कहीं वह भी नहीं। पैसे की कमी थी। अकसर टाउन बस लेने की बजाय पैदल चलना पसंद करता। यहाँ-वहाँ भटकता रहा।

काफी भटकने के बाद शारदा प्रिंटिंग प्रेस में प्रूफ देखने का काम मिला। महीने के सौ रुपए। सोचा, जब तक कुछ और नहीं मिलता यही करना चाहिए। मेहनती था शुरू से ही लगन से जुट गया।

काम के वक्त प्रेस के अन्य लोग काम का बहाना करते, दूसरों के करीब जाकर बातें करते। राजनीति का जिक्र छिड़ता। मजदूर यूनियन की बात चलती। एक्सट्रा इनकम के तरीके सुझाए जाते। मैनेजर की आहट से फिर काम का बहाना शुरू हो जाता।

"संजय, चलो जरा चाय पीकर आएँ।"

प्रूफ में उलझा संजय कहता, "तुम चलो, अभी आया, पाँच मिनट बाद।" फिर काम में उलझ जाता। पाँच मिनटवाली बात फिर याद ही नहीं रहती।

पाँच की घंटी लगते ही लोगों में गति आ जाती। चीजें जहाँ थीं, वहीं पड़ी रह जाती। सभी प्रेस से इस तरह निकलते, मानो घर में आग लगी हो।

"अरे छोड़ो भी, संजय, कल कर लेंगे।"

"बस दो-चार लाइनें रह गई हैं, जरा पूरा कर लूँ।" फिर वह पूरा करके उठता। बेतरतीब बिखरी चीजें समेटता और सबसे पीछे प्रेस से बाहर हो जाता।

एक दिन मैनेजर ने इत्तिला दी, "जाने के पहले प्रकाशक से मिलते जाना।"

तब एक उपन्यास का प्रूफ देखकर खत्म किया था। उपन्यास प्रेस में छपने लगी थी। पाँच बजने पर प्रकाशक के दफ्तर के सामने जा खड़ा हुआ, हलके से दस्तक दी, आवाज आई, "अंदर चले जाओ।"

कमरे में कदम रखते ही एक अजीब माहौल का एहसास हुआ। एयर कंडीशंड कमरे की कुछ अपनी ही खास अदा थी। सहमता आगे बढ़ा।

प्रकाशक लिखने में उलझे रहे, कहा, "बैठो।"

वह कुरसी खिसकाकर बैठ गया था। कमरे में उसकी नजरें घूम रही थीं। लिखना खत्म कर कलम रखते हुए प्रकाशक ने कहा था, "तुमने ही उपन्यास की प्रूफ देखी थी।"

"हाँ सर, कोई गलती रह गई क्या?"

टेबल पर उपन्यास की एक प्रति पड़ी थी। प्रकाशक ने हाथों में पलटते हुए कहा, "तीसरे अध्याय का अंतिम भाग गायब है।"

"मूल कॉपी में वह अंश नहीं था सर, कुछ बाजारू लगा, इसलिए डाला नहीं।"

"तुम्हारा काम क्या है?"

"प्रूफ देखना।"

"फिर संशोधन क्यों किया तुमने, ये अंश लेखक के नहीं, हमारे थे।"

"सर, समाज के हित का...।"

"लगता है, समाज के हित का तुमने ठेका ले लिया है! अभी बच्चे हो तुम, कॉलेज से निकले हो, बिल्कुल नौसिखिए हो। जमाने के धक्के खाओ तो पता चले ईमानदारी क्या होती है! आज से तुम्हारी छुट्टी हो गई।" प्रकाशक के स्वर में एक-ब-एक तल्खी आ गई थी।

"सर, एक बार हमें मौका..."

"मौका कहीं और ढूँढना, ये रहे बीस दिन के सत्तर रुपए बीस पैसे।" प्रकाशक ने लापरवाही से पैसे मेज पर बिखेर दिए।

उसे दुःख हुआ। इस बात का नहीं कि उसकी नौकरी छूट जाएगी, बल्कि इसलिए कि आज पहली बार किसी ने उसकी ईमानदारी पर संदेह किया था, उसके व्यक्तिगत जीवन पर सवाल उठाया था, कीचड़ उछाली थी। तबीयत तो हुई, वह पैसे प्रकाशक के मुँह पर दे मारे, पर नहीं, अपमान का प्याला मजबूरीवश हलक के नीचे धकेल अपनी मेहनत के पैसे उसने उठाए और चुपचाप कमरे से बाहर हो गया।

बाहर ट्रैफिक का शोर था। लोगों की भीड़ सड़कों पर पिसती जाती थी। लैंप पोस्ट में लगे ट्यूब बढ़ते धुंधलके को हटाने की कोशिश में जल-बुझ रहे थे। दूर कैथिड्रल का घंटा बज उठा था और तब उसके लिए जानी-पहचानी गलियाँ भी अनजान लग रही थीं।

कॉलेज खत्म करने तक कॉलेज विद्यार्थी के अनेक अर्थ निकले-

कॉलेज विद्यार्थी का पहला अर्थ हुआ—किताबी कीड़ा।

कॉलेज विद्यार्थी का दूसरा अर्थ हुआ—प्रोफेसरों का चमचा।

कॉलेज विद्यार्थी का तीसरा अर्थ हुआ—मनमौजी।

कॉलेज विद्यार्थी का चौथा अर्थ हुआ—विद्रोही।

कॉलेज विद्यार्थी का पाँचवाँ अर्थ हुआ-स्पोर्ट्समैन।

कॉलेज विद्यार्थी का छठा अर्थ हुआ- स्वावलंबी।

कॉलेज विद्यार्थी का सातवाँ अर्थ हुआ—अवसरवादी।

कॉलेज विद्यार्थी का आठवाँ अर्थ हुआ–नौसिखिया।

कॉलेज विद्यार्थी का नवाँ अर्थ हुआ-सत्यार्थी।

कॉलेज विद्यार्थी का दसवाँ अर्थ हुआ-सबकुछ या कुछ भी नहीं।

ढाई महीने बाद परीक्षाफल प्रकाशित हो गया था। सफल छात्रों की सूची में उसका नाम सबसे ऊपर था। विदेश जाकर अध्ययन करने के लिए सरकार की ओर से वजीफा मिलनेवाला था। हर ओर उसकी खोज शुरू हुई, पर वह मिला नहीं। गाँव की भूरी-मटमैली धरती उसे बुला रही थी। उसने उसी दिन वह शहर छोड़ दिया था।

साभार : वंदना टेटे