वसन्त (कहानी) : अज्ञेय
Vasant (Hindi Story) : Agyeya
मधुर कंठवाली एक स्त्री, जो गाती हुई प्रवेश करती है। उसका स्वर आज की सिनेमा आर्टिस्ट का सधा-बँधा स्वर नहीं है। जो ‘प्रीफ़ैब’ सिमेंट की चौरस सिल्ली की तरह नपा-खिंचा मगर बिलकुल ठस होता है, यानी जो होता है उससे अधिक कुछ नहीं होता - सब-कुछ सामने है और जो सामने नहीं है वह है ही नहीं-
बल्कि सामने भी क्या है? एक ठप्पे की छाप। उसका स्वर बिल्लौर की तरह पारदर्शी है, जिसके भीतर रंगीन कहानियाँ दीखती हैं, आगे और पीछे की कहानियाँ, उजली और फीकी छायाएँ, और सब पारदर्शी... जैसे चन्द्रकान्त मणि के अन्दर चाँदनी दूधिया ओस-सी जम गयी हो।
पहला वसन्त, जिसका स्वर एक हँसते युवक का स्वर है, जो जब बोलता है तो साथ-साथ कई बाँसुरियाँ बज उठती हैं, बड़े द्रुत लय से मानो उनका पलातक संगीत पकड़ में तो आने का नहीं, उसके पीछे दौड़ना भी व्यर्थ है, हाँ, कोई अपनी भावनाएँ भी, उसके पास के साथ-साथ छोड़ दे तो छोड़ दे।
दूसरा वसन्त, जैसे अनुभवीं की दोहर ओढ़े भारी पैरों से चलनेवाला, भारी गले से बोलनेवाला अग्रज; उसका धीमा गुरु-स्वर मानो इसराज का एक मन्द स्वर है, और प्रत्येक शब्द को तोल-तोलकर, श्रोता की आत्मा में उसे बैठा देता हुआ-सा बोलता है।
स्त्री गाती है-
‘‘फूल काँचनार के
प्रतीक मेरे प्यार के
प्रार्थना-सा अर्धस्फुट काँपती रहे कली
पत्तियों का सम्पुट, निवेदिता ज्यों अंजली
आये फिर दिन मनुहार के, दुलार के...
फूल काँचनार के।
तब बाँसुरी का तीखा स्वर द्रुत लय पर दौड़ता हुआ आता है और तुरन्त ही खो जाता है।
स्त्री : अरे कौन?
पहला वसन्त : मैं वसन्त।
फिर बाँसुरी का स्वर।
स्त्री : कौन वसन्त?
वसन्त 1 : यह भी बताना होगा ? सुनो...
फिर द्रुत लय पर बाँसुरी जिससे प्रण ललक उठे, लेकिन सुनते-सुनते उसका स्वर खो जाता है।
वसन्त 1 : सुना? अब पहचानती हो?
स्त्री : अम्-म्-म्...
वसन्त 1 : मैं वह हूँ जो मलय समीर के हर झोंके में आकर तुम्हारी अलकों को सहला जाता है। सरसों के फूल में मेरा ही रंग खिलता है, आम्रमंजरी में मेरा ही आह्लाद उमंगता है। मैं कोयले के स्वर से तुम्हें - तुम्हें क्यों, प्राणिमात्र को-पुकारता हूँ कि देखो, अब समय बदल गया। दिन भी अपनी निरन्तर सिकुड़न छोड़कर साहसपूर्वक बढ़ने लगा। जिस सूर्य के जीवमात्र और जब वनस्पतियाँ शक्ति पाती हैं, वह स्वयं इतने दिनों की निस्तेज क्लान्ति के बाद फिर दीप्त होने लगा। केवल बाहर ही नहीं, तुम्हारे शरीर की शिरा-शिरा में, तुम्हारे अंगों के स्फुरण में, तुम्हारे मन के उत्साह में मेरा स्वर बोलता है...
फिर वही बाँसुरी का स्वर, मानो निहोरे करता हुआ, वैसी ही पहले वसन्त की आवाज मानो उसकी मनुहार सुननी ही पड़ेगी; उससे कोई बचकर निकल जाएगा तो कैसे? धीरे-धीरे, प्राणों को आविष्ट करता हुआ-सा, वह गाता है-
‘‘सुनो सखी, सुनो बन्धु!
प्यार ही में यौवन है, यौवन में प्यार।
जागो, सखि वसन्त आ गया!’’
और स्त्री भी विवश साथ-साथ गुनगुनाने लगती है-
‘‘वसन्त आ गया-
आज डाल-डाल पै आनन्द छा गया...’’
तब, पीछे कहीं, धीरे-धीरे इसराज मन्द्र बज उठता है, पहले बहुत धीरे, फिर क्रमशः स्पष्ट, मानो उसे अब अपनी बात पर विश्वास हो आया हो...इतना कि अब वह हर किसी को अपनी बात मनवाकर ही छोड़ेगा। स्त्री सहसा चौंक पड़ती है।
स्त्री : कौन?
दूसरा वसन्त : मैं वसन्त।
स्त्री : वसन्त तुम? वसन्त तो मेरे साथ गा रहा है। सुनो सखी, सुनो बन्धु...
वसन्त 2 : हाँ, ठीक तो है, सुनो सखी सुनो बन्धु! वसन्त जरूर आ गया। तुम पूछती हो, कौन वसन्त? क्या तुमने लक्ष्य नहीं किया कि सवेरा जल्दी होने लगा, तुम्हें काम जल्दी आरम्भ करना पड़ता है? क्या तुमने नहीं देखा कि पिछली बरसात में वनस्पतियों ने जो हरी चादर ओढ़ ली थी, शरद् ने जिसमें शेफाली की बूटियाँ काढी थीं, जो जाड़ों में हरे रेशमी वसन से बदलकर लाल और भूरा दुशाला बन गयी थीं, वही आज जीर्ण-शीर्ण होकर, तार-तार होकर झर रही है? वह पतझड़ मैं हूँ। जो सनसनाती हुई ठण्डी हवा वनस्पतियों के सब आवरण उड़ाये ले जा रही है, वह मैं हूँ। सवेरे-सवेरे झाड़ू की मार से उड़ी हुई धूल मैं हूँ। धूल का झक्कड़ मैं हूँ। सुबह की धुँध मैं हूँ। शाम की क्षितिज पर जमा हुआ धुआँ हूँ। बाहर ही नहीं, मैं भीतर भी हताश हूँ कि ‘एक वर्ष और गुज़र गया!’ मैं आतंक हूँ आनेवाले ग्रीष्म की सनसनाती हुई लू के फूत्कारों से उड़ती हुई गरम रेत का...
स्त्री : ओह! ओह!
द्रुतलय पर बाँसुरी और विलम्बित पर इसराज बारी-बारी से बजने लगते हैं। एक स्वर उभरता है और डूबता है, फिर दूसरा उभरता है और पहला डूब जाता है। ये स्वर हैं, या कि भावों की धूप-छाँह ही स्त्री के मुँह पर खेल कर रही है?
वसन्त 1 : मैं तुम्हारे जीवन का स्वप्न हूँ। मैं तुम्हारा भविष्य, भविष्य की आशा हूँ।
वसन्त 2 : मैं भी तुम्हारे जीवन का स्वप्न हूँ। मैं तुम्हारा अतीत हूँ और अतीत का अनुभव। क्या आनेवाले कल की आशा ही स्वप्न होती है, क्या जो आशाएँ बीत गयी हैं वे स्वप्न नहीं हैं?
वसन्त 1 : मैं वह हूँ जो तुम हो सकती थीं-
वसन्त 2 : मैं वह हूँ जो तुम हो।
वसन्त 1 : मैं वह हूँ जो तुम हो सकती हो...
वसन्त 2 : थीं भी, और होगी भी, तो फिर आज क्यों नहीं हो?
(तिरस्कारपूर्वक) ‘सुनो सखी, सुनो बन्धु?’ अगर बहरा होना ही सुनना है, तो जरूर सुनो।
फिर इसराज और बाँसुरी, विलम्बित और द्रुत, कौन पहचाने कि कौन स्वर उभरता है और कौन डूबता; क्योंकि फीकी धूप की हल्की छाँह है, और फीकी छाँह ही नयी चमक, और... धीरे-धीरे दोनों ही लीन हो जाते हैं, मानो अस्तित्व उस तल पर अब उतर आना होगा जिस पर वसन्त-पहला और दूसरा वसन्त-मूर्त होकर वाणीयुक्त होकर सामने आते हैं। इस निचले स्तर पर तो वसन्तों के संगीतमय सुर नहीं, बरतनों की खनखनाहट है... नये मँजते और घुलते हुए बरतन, धोकर ताक में रखे जाते हुए बरतन। यह दूसरा ही दृश्य है, और स्त्री की बात मानो स्वगत-भाषण है।
स्त्री : मैं वह हूँ जो तू है। मैं वह हूँ जो तू हो सकती है-मैं वह हूँ जो तू थी। मैं वह हूँ तू होगी-लेकिन मैं क्या थी-क्या हूँगी... क्या हूँ? शायद उसे नहीं सोचना चाहिए। नहीं तो इतने वर्षों से इसी एक प्रश्न का उत्तर देना क्यों टालती आयी हूँ? क्या थी -फूल, या मिट्टी? क्या हूँगी - मिट्टी, या फूल? एक बार-एक बार सोचा था... लेकिन क्या सचमुच था? इतनी पुरानी बात लगती है कि सन्देह होता है... लेकिन जल्दी करूँ, पानी चला जाएगा।
और ठीक उसी समय स्त्री का पति प्रवेश करता है। पति-जैसा ही उसका स्वर है; साधारण, न रूखा न मीठा; जिसमें कुछ अपनापा भी है, कुछ उदासीनता भी; लेकिन क्या अपनापा और उदासीनता प्यार के परिचय के ही दो पहलू नहीं हैं?
पति : मालती!
स्त्री : जी!
पति : (चिढ़ता हुआ) अगर मैं बाहर ही खड़ा रहता, तो सोचता कि न जाने कौन तुमसे बातें कर रहा है। यह क्या पता था कि आप जूठे बरतनों से भी बातें कर सकती हैं।
स्त्री : नहीं... हाँ...
पति : यानी इतनी तन्मय होकर बात कर रही थीं कि तुम्हें मालूम ही नहीं? कौन था आखिर वह मन-मोहन सुध-बिसरावन... कौन आया था?
स्त्री : (अनमनी-सी) वसन्त।
स्त्री : यह तो मैं नहीं जानती? (धीरे-धीरे) वह कहता था, मैं मलय-समीर में रहता हूँ और कोयल के स्वर से पुकारता हूँ। कहता था, वह सरसों के फूल के रंग में है। (कुछ रुककर, और भी अनमनी, खोयी-सी) नहीं वह कहता था, मैं पतझड़ हूँ। और धूल का झक्कड़। और निराशा।
पति : मालती, मालूम होता है तुम बहुत थक गयी हो। क्या करूँ, सोचता तो बहुत दिनों के कुछ छुट्टी लेकर घूम आयें, लेकिन मौका ही नहीं बनता। न छुट्टी ही मिलती है, न कोई सहूलियत-
स्त्री : (सहानुभूति से तिलमिलाकर) रहने भी दो, मुझे क्या करनी है छुट्टी? थकते तो मर्द हैं, स्त्री कभी नहीं थकती हैं। काम और विश्राम-यह मर्द की ईजाद है। स्त्रियाँ विश्राम नहीं करती, क्योंकि वे शायद काम नहीं करतीं। वे कुछ करतीं ही नहीं... वे शायद होती ही हैं। बालिका से किशोरी, कुमारी से पत्नी, बेटी से माँ, एक निस्संग आत्मा से परिगृहीत कुनबा - वे निरन्तर कुछ-न-कुछ होती ही चलती हैं। क्योंकि वे हैं कुछ नहीं, वे केवल होते चलने का, बनने में नष्ट होते चलने का, कि कह लो, नष्ट होते रहने में बनने, का दूसरा नाम हैं। वे भविष्य हैं जो कि पीछे छूट गया, एक अतीत हैं जो आगे मुँह-बाये बैठा है...
पति : (कुछ त्रस्त स्वर में) मालती, क्या तुम सुखी नहीं हो? (पीड़ित-सा) लेकिन शायद मेरा यह पूछना भी अमान्य है। मैं तुम्हें कुछ दे तो नहीं सका। यह तो नहीं कि मैंने चाहा नहीं। लेकिन चाहना ही तो काफी नहीं है, सकत भी तो चाहिए। (सहसा नये विचार के उत्साह से) चलो, कहीं घूम आएँ-या चलो, सिनेमा चलें-
स्त्री : उंहूक्, सिनेमा में मेरा दम घुटता है।
पति : तो चलो, कहीं बाग में चलें। या बाहर खेतों की तरफ। आजकल नदी की कछार पर सरसों खूब फूल रही है। बीच-बीच में कहीं अलसी के नीले फूल-
(नेपथ्य में कहीं धीरे-धीरे वही बाँसुरी बजने लगती है। मानो स्मृति को जगाती हुई, मानो पुरानी बात दुहराती हुई।)
स्त्री : (मानो स्वगत) यह कहता था, सरसों के फूल में मेरा ही रंग खिलता है... और आम के बौर में...
पति : क्या गुनगुना रही हो, मालती? तुम्हें याद है, उस बार जब मैं...
स्त्री : कब?
पति : बनो मत। उस बार जब गौने के बाद तुम आयी ही थीं, और मैंने कहा था कि...
स्त्री : (मानो स्तब्ध-सी पसीजती हुई) मुझे कुछ याद नहीं है। मैं तो सोचती हूँ, यह याद भी मर्दों की ईजाद है। उनके लिए भूलना इतना सत्य तो है।
एक बालक... उनका बालक... उसका बालक। बालकों के स्वर का वर्णन हो भी सकता हो तो नहीं करना चाहिए, उसमें जो अकल्पित सम्भावनाएँ मचलती हैं, उन्हें बाँध देने का यत्न क्यों किया जाये? वह निकट आ रहा है... और वे सम्भावनाएँ मानो एक झलक-सी दे जाती हैं...
बालक : माँ-माँ!
पति : यह लो, आ गया ऊधमी! अच्छा, तो तुम जल्दी से उठो, मैं अभी-अभी तैयार हो जाता हूँ-हाँ!
बालक : माँ-माँ!
स्त्री : क्या है बेटा?
बालक : माँ, सब लड़के कह रहे हैं कि आज वसन्त है, आज पतंग उड़ाने का नियम है।
स्त्री : हूँ : नियम है। पतंग नही उड़ाया करते अच्छे लड़के।
बालक : क्यों, माँ? मुझे तो पतंग बहुत अच्छी लगती है...
स्त्री : न! उड़ जाने वाली चीजों को प्यार नहीं करना चाहिए। छोड़कर चली जाती हैं तो दुख होता है।
बालक : यह उड़ थोड़े ही जाएगी? मैं फिर उतार लूँगा - मेरे पास ही तो रहेगी...
स्त्री : मैं पतंग होती तो उड़ जाती, दूर-दूर। फिर कभी वापस न आती।
बालक : (आहत) हमें छोड़ जातीं, माँ?
स्त्री : तो क्या हुआ? तुम तो अपनी पतंग में मस्त रहते, तुम्हें ध्यान ही न आता।
बालक : नहीं, माँ मुझे तो तुम बहुत अच्छी लगती हो। मुझे नहीं चाहिए पतंग-वतंग, मैं तुम्हारे पास बैठूँगा।
स्त्री : अरे छोड़ मुझे... दंगा न कर। जा, पिताजी के साथ जाकर बगीचा देख आ।
बालक : वहाँ क्या है?
स्त्री : (जैसे याद करती हुर्ई) है क्या? वहाँ सुन्दर फूल हँसते हैं... वहाँ कोयल कूकती है... वही तो वसन्त है।
बालक : (मान से भरा) हमें नहीं चाहिए वहाँ का वसन्त। हमारा वसन्त तो तुम हो, माँ... तुम हँसती क्यों नहीं? अरे, तुम तो उदास हो गयीं...
स्त्री : (सोचती हुई) यह तो उन दोनों ने नहीं कहा था... वह कहता था मैं आशा हूँ, वसन्त मैं हूँ। वह कहता था मैं अनुभव हूँ, वसन्त मैं हूँ। मुझे तो किसी ने नहीं कहा कि वसन्त तुम हो... फूलों का खिलना भी और पतझड़ भी, समीर भी और धूल का झक्कड़ भी...
बालक : माँ - किसने कहा था, माँ?
स्त्री : किसी ने नहीं बेटा, मेरी चेतना ने। तू तो केवल पतंग का वसन्त जानता है, मगर मुझमें बहुत-से वसन्त हैं, कुछ मीठे, कुछ फीके, कुछ हँसते, कुछ उदास।
बालक : उन सबमें सबसे अच्छा कौन-सा है, माँ?
स्त्री : (सहसा सुस्थ होकर) सबसे अच्छा वसन्त तू है, बेटा। तू हँसता रह, फूल फल...
और अब नेपथ्य में बाँसुरी क्रमशः स्पष्ट होने लगती है। मानो अब वह स्पष्ट हो जाएगी तो फिर मन्द नहीं पड़ेगी, फिर बजती ही रहेगी, उसमें नया धीरज जो आ गया है।
बालक : वाह! मैं कोई पौधा हूँ...
स्त्री : हाँ, यह तू क्या जाने! तू मेरी सारी आशाओं का, सारे अनुभव का पौधा है, मेरे युगों-युगों का वसन्त।
बाँसुरी बिलकुल स्पष्ट बजने लगती है, अपने आत्म-विश्वास से वातवरण को गुँजाती हुई, उसके प्राणों में अपने स्वर को बसा देती हुई। और बाँसुरी के साथ साथ गान के शब्द भी स्पष्ट होने लगते हैं।
‘‘किंशुकों की आरती सजा के बन गयी वधू वनस्थली।
डाल-डाल रंग छा गया।
जागो, जागो-
जाओ सखि, वसन्त आ गया!’’
(इलाहाबाद, जनवरी 1949)