वसंत सेना (उपन्यास) : यशवंत कोठारी

Vasant Sena (Hindi Novel) : Yashvant Kothari

(शूद्रक के प्रसिद्ध संस्कृत नाटक “मृच्छकटिकूम्” ने मुझे हमेशा से ही आकर्षित किया है। इस नाटक के पात्र, घटनाएं और परिस्थितियां हमेशा से ही ऐसी लगी है कि मानो ये सब आज की घटनाएं हो। राजनीतिक परिस्थितियां निर्धन नायक, धनवान नायिका, राजा, क्रांति, कुलवधू, नगरवधू और सम्पूर्ण कथानक पढ़ने में मनोहारी, आकर्षक तो है ही, आन्नद के साथ विचार बिन्दु भी देता है। इसी कारण संस्कृत नाटकों में इसका एक विशेष महत्व है।

यह नाटक ईसा पूर्व की पहली या दूसरी सदी में लिखा गया था। इस बात में मतभेद हो सकते है, मगर मेरा उद्देश्य केवल नाटक की पठनीयता से है। इस नाटक के मूल को भी पढ़ा, डा॰ राधेंयराघव के अनुवाद को पढ़ा। मंच रूपान्तरण के रूप में आचार्य चतुरसेन तथा डा॰सत्यव्रत सिन्हा को पढ़ा। इस पर आधारित फिल्म “उत्सव” को देखा तथा उत्सव के संवाद लेखक स्व. शरद जोशी से भी चर्चा की। मुझे ऐसा लगाा कि इस नाटक मे औपन्यासिकता है। द्दश्य-श्रव्य काव्य के समस्त गुणों के बावजूद यह नाटक एक उपन्यास का कथानक बन सकता है, धीरे धीरे मेरी यह धारणा बलवती होती गई। रचना का ताना-बाना मेरे जेहन में घूमता रहा। कई बार थोड़ा बहुत लिखा, मगर लम्बे समय तक कोई निश्चित स्वरूप नहीं बन पाया अब जाकर इस का समय आया। और इसे एक लघु उपन्यास का रूप मिला।

उपन्यास या कहानी पर आधारित नाटकों के उदाहरण काफी मिल जायेगें, मगर ऐसे उदाहरण साहित्य में कम ही है, जब किसी नाटक को उपन्यास में ढ़ाला गया हो। मैंने यह प्रयास किया है। औार कुछ अनावश्यक प्रसंगों तथा वर्तमान स्वरूपों में अशोभनीय शब्दों को छोड़ दिया है, लेकिन कथ्य व शिल्प का निर्वाह करने का पूरा प्रयास किया है।

वसन्त सेना समाज के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है जिसके पास सब कुछ होकर भी कुछ नही हे। चारूदत्त की निर्धनता में वसन्त सेना के सम्पूर्ण ऐश्वर्य को समा लेने की उद्दाम भावना ने ही मुझे आकर्षित किया है।

तमाम कमियों के बावजूद यदि यह रचना पाठकों को आकर्षित कर सकी, उनका थोड़ा बहुत भी मनोरंजन कर सकी तो में अपना श्रम सार्थक समझूंगा।

आपकी प्रतिक्रिया के इन्तजार में।
रामनवमी,
जयपुर।
यशवंत कोठारी)

वसंत सेना : (शूद्रक कृत “मृच्दकटिकम् ” नाटक पर आधारित उपन्यास)

प्राचीन समय में भारत में उज्जयिनी नामक एक अत्यंत प्राचीन वैभवशाली नगर था। नगर में हर प्रकार की सुख समृद्धि थी। नगर व्यापार, संगीत, कला तथा साहित्य का एक बड़ा केन्द्र था। ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र सभी मिलकर रहते थे। मगर अत्याधिक समृद्धि के कारण इस नगर के समाज में नाना प्रकार की बुराईयां व्याप्त हो गई थी। राजशक्ति का प्र्रभुत्व धन बल के कारण क्षीण हो गया था। जन रक्षण की व्यवस्था अच्छी नहीं थी। यदा कदा राज्य क्रांति के चलते राजा बदल दिये जाते थे। जुआं, चोरी, चकारी, लम्पटता, बदमाशी का बोल बाला था, राजसत्ता के चाटुकार, रिश्तेदार मनमानी करते थे। बौद्ध धर्म का प्रभाव तो था, मगर राजा की औार से आश्रय नहीं था। बौद्ध विहारों में नाकारा लोग भर गये थे।

समृद्धि इस नगर में जिस तरफ से प्रवेश करती, अपने साथ जुआ, शराब, व वेश्यागमन आदि की बुराईयों को भी साथ लाती। आर्थिक उदारता ने लोगों के चरित्र को डस लिया था।

इसी समृद्ध, वैभवशाली उज्जायिनी नगर में एक भव्य राज मार्ग पर अन्धकार में प्रख्यात गणिका वसन्त सेना भागी चली जा रही है। चारों तरफ निविड़ अन्धकार। रात्रि का द्वितीय प्रहर।

रह रहकर वसन्त सेना के भागने की आवाजें। उज्जैयिनी के राजा का साला संस्थानक अपने अनुचरों के साथ वसन्त सेना के पीछे पीछे तैजी से भाग रहा है। संस्थानक स को श बोलता है, इसी कारण शकार नाम से समाज में पहचाना जाता है। ‘वशन्त शेना रूक जाओ वशन्त शेना।‘

मगर वसन्त सेना का अंग अंग कांप रहा था, वह बेहद डरी हुई थी, वह जानती थी कि राजा के साले के चंगुल में एक बार फंस जाने के बाद बच निकलना असंभव है। शकार अपने अनुचरों के साथ चिल्लाता हुआ चल रहा था।

वशन्त शेना। वशन्त शेना।

भागते भागते वसन्त शेना ने पुकारा।

पल्लवक, पल्लवक।

माघिविके, माघिविके।।

मदनिके, मदनिके।।।

हाय। अब मेरा क्या होगा। मेरे अपने कहां चले गये हाय अब मैं क्या करूं। मुझे अपनी रक्षा खुद ही करनी पडे़ंगी। वसन्त सेना ने स्वयं से कहा।

दौड़ते दौड़ते शकार वसन्त सेना के नजदीक आ गया। बौला-ऐ दो कौड़ी की गणिका, तुम अपने आपको शमझती क्या हो? मैं राजा का शाला हॅूं - शाला । तुम किसी को भी पुकारो अब तुम्हारी रक्षा कोई नहीं कर सकता क्योंकि मै राजा का शाला हूं। मेरे हाथों शे तुम्हें अब कोई नहीं बचा शकता ?

वसन्त सेना ने देखा अब बचना मुश्किल है। ऐसी स्थिति में उसने शकार से कहा।--

आर्य। मुझे क्षमा करें। मैं अभागिन अनाथ हूं।

शकार - तभी तो तुम अभी तक जीवित हो।

वसन्त सेना - आर्य आपको मेरा कौनसा जेवर चाहिए। मैं अपने सभी आभूषण आपको सहर्ष देने को तैयार हूं।

शकार - मुझे आभूषूण नहीं चाहिए देवी। तुम मुझे श्वीकार करो।

मुझे अंगिकार करों। मुझे प्यार करो। मुझे तुम्हारा शमर्पण चाहिए।

बश शमपूर्ण।

वसन्त सेना क्रोध से उबल पड़ी।

- तुम्हें शर्म आनी चाहिए। मैं ऐसे शब्द भी सुनना पसन्द नहीं करती।

शकार - मुझे प्यार चाहिए। शमर्पण चाहिए।

वसन्त सेना - प्यार तो गुणों से होता है।

शकार - अब शमझा। तुम उस निर्धन ब्राह्मण चारूदत्त पर क्यों मरती हो, जो गरीब, अशहाय है। और मुझे डराती है.। और अब शुन र्बाइं तरफ ही तेरे प्रेमी चारूदत्त का घर है।

वसन्त सेना को यह जानकर आत्मिक संतोष होता है कि वह अपने प्रिय आर्य चारूदत्त के घर के आस पास है। वह सोचती है कि अब उसका मिलना अवश्य हो पायगा। अब उसे कौन रोक सकता है। वह अन्धेरे का लाभ उठाकर आर्य चारूदत्त के भवन में प्रवेश कर जाती है। शकार और उसके साथी अन्धकार में भटकते रहते है।

***

आर्य चारूदत्त एक अत्यंत गरीब मगर सम्मानित ब्रह्मण है। वे दीनों- गरीबों के कल्पवृक्ष है। दरिद्रों की लगातार सहायता करने से वे स्वयं गरीब हो गये है। चारूदत्त के पितामह एक धनाढ्य व्यक्ति थे। उनका लम्बा चौड़ा व्यापार - व्यवसाय था, मगर काल के प्रवाह में लक्ष्मी और समृद्धि उनसे रूठ गई थी, मगर चारूदत्त का मिजाज रईसाना था। उनकी पत्नी धूता अत्यंत शालीन तथा पतिव्रता स्त्री थी। चारूदत्त का एक पुत्र रोहसेन था। जो छोटा बालक था। जिस समय कला प्रवीण उद्दान्त चरित्र तथा मुग्धानायिका वसन्त सेना ने आर्य चारूदत्त के आवास में प्रवेश किया, उसी समय चारूदत्त का सेवक मैत्रेय मातृदेवियों पर बलि चढ़ाने हतु सेविका रदनिका के साथ बाहर निकल रहा था। वसन्त सेना के आगमन से हवा के तेज झोंके से दीपक बुझ गया। इस वक्त आर्य चारूदत्त ने वसन्त सेना को रदनिका समझ लिया। मैत्रेय ने दीपक जलाने का प्रयास छोड़ दिया क्योकि घर में तेल नहीं था। इसी समय शकार व विट भी चारूदत्त के घर में वसन्त सेना को ढूंढ़ते हुए प्रवेश कर जाते है। मैत्रेय को यह सब सहन नहीं होता है। वो कहता है---

कैसा अन्धेर है। आज हमारे स्वामी निर्धन है तो हर कोई उनके घर में घुसा चला आ रहा है।

शकार व विट रदनिका केा अपमानित करते है। आप रदनिका का अपमान क्यों कर रहे है। मैं इसे सहन नहीं करूंगा। मैत्रेय ने क्रोध से कहा।

मैत्रेय गुस्से में लाठी उठा लेता है। शकार का सेवक विट अपने कृत्य की क्षमा मांगता है। मैत्रेय को महसूस होता है। कि असली अपराधी तो राजा का साला शकार है, जिसका नाम संस्थानक है। वह विट को कहता हैं।

तुम लोंगों ने यह अच्छा नहीं किया है। मेरे स्वामी आर्य चारूदत्त गरीब अवश्य है, मगर इस पूरे नगर में अत्यंत सम्मानित नागरिक है। उनका नाम सर्वत्र आदर से लिया जाता है। आप लोंगों ने आर्य चारूदत्त के सेवकों पर हाथ उठाया है। दासी रदनिका के अपहरण का प्रयास किया है।

शकार - मगर हम तो वसन्तसेना को ढूंढ़ रहे है।

मैत्रेय - लेकिन यह तो वसन्तसेना नहीं है।

शकार - भूल हो गयी।

विट - हमें क्षमा करें । आर्य चारूदत्त को इस घटना की जानकारी नहीं होने दें।

ठीक है। आप लोग जाइये।

म्गर शकार नहीं जाता । वो चारूदत्त के सेवक मैत्रेय को बार बार वसन्तसेना को अपने हवाले करने के लिए कहता है। शकार कहता है - अरे दुष्ट शेवक, उश गरीब चारूदत्त को कहना कि गहनों से शजी वेश्या वशन्त शेना तुम्हारे घर में है। उशे मेरे पाश भेज दो नहीं तो शदा के लिए दुश्मनी हो जायगी। मैं उसे नष्ट कर दूंगा। मैं राजा का शाला हूं शाला।

मैत्रेय समझा बुझा कर शकार व विट को वापस भेज देता है।

***

मैत्रेय भवन के अन्दर जाता हैं । वो रदनिका को पुनः समझाता है कि आर्य स्वयं दुखी हे, उन्हें इस घटना की जानकारी देकर और ज्यादा दुखी मत करना । रदनिका मान जाती है। इसी समय चारूदत्त अन्धेरे मे वसन्त सेना को रदनिका समझ कर कहते है।

रदनिके पुत्र रोहसेन को अन्दर ले जाओ और उसे यह दुशाला औढ़ा दो, सर्दी बढ़ रही है। उसे हवा लग जायेगी। यह कह कर चारूदत्त अपना दुशाला उतार कर वसन्त सेना को दे देता है। वसन्त सेना समझ गई कि आर्य चारूदत्त ने उसे देखा नहीं है और उसे अपनी दासी समझ रहे है। वह दुशाला लेकर उसे सूघंती है, प्रसन्न होती है--

चमेली के फूलो की खुशबू वाला आर्य का दुशाला।

वाह.....। बहुत सुन्दर.....। अभी आर्य का दिल और शरीर जवान है।

चारूदत्त पुनः रोहसेन को अन्दर ले जाने के लिए कहते है। मगर वसन्त सेना कुछ जवाब नहीं देती है। मन ही मन सोचती है। - आर्य मुझे आपके गृह प्रवेश का अधिकार नहीं है। मैं क्या करूं ?

चारूदत्त पुनः कहते है---

रदनिका तुम बोलती क्यों नहीं हो। तभी मैत्रेय तथा रदनिका अन्दर आते है। मैत्रेय कहता है।--

आर्य रदनिका तो ये रही ।

तो वो कौन है? बेचारी मेरे छू जाने से अपवित्र हो गई।

- नहीं नाथ मैं तो पवित्र हो गई। मेरी जनम जनम की साध पूरी हुई। वसन्तसेना ने स्वयं से कहा।

चारूदत्त -यह तो बहुत सुन्दर है। शरद के बादलों की चन्द्रकला की तरह लगती है। लेकिन मैंने पर स्त्री को छू कर अच्छा नहीं किया।

मैत्रेय - ऐसा नहीं है आर्य। आपने कोई पाप नहीं किया। ये तो गणिका वसन्तसेना है, जो कामदेवायतन बाग महोत्सव के समय से ही आप पर मोहित है। आप का कोई दोष नहीं है। यह तो स्वयं आपको चाहती है।

चारूदत्त - अरे तो ये वसन्तसेना हैं मै निर्धन, गरीब, दरिद्री, ब्राह्मण। मैं कैसे अपने प्यार को प्रकट करूं। मै मजबूर हैूं वसन्तसेना मैं मजबूर हूं। मुझे क्षमा करेा। मेरा आवास भी तुम्हारे लायक नहीं है।

आर्य चारूदत्त यह कह कर वसन्त सेना को प्रथम बार भर पूर निगाहों से देखते है। अप्रतिम सौन्दर्य, धवल रंग, सुदर्शन देह यष्टि, चपल नेत्र, मदमस्त चाल, गजगामिनी और मुग्धानायिका की तरह का व्यवहार चारूदत्त अपनी सुध बुध खो बैठते है। मगर तुरन्त संभलते है। मैत्रेय उन्हे सूचित करता है कि राजा पालक का साला संस्थानक आया था तथा वसन्त सेना को ले जाना चाहता है यदि ऐसा नही किया गया तो वह हमेशा के लिए हमारा शत्रु हो जायगा। राजा के साले के साथ शत्रुता हमें महंगी पड़ेगी।

मगर चारूदत्त इस बात पर कोई ध्यान नहीं देता है। वो तो वसन्तसेना के प्रेम में पागल हो जाना चाहता हैं कहता है--

आप एक दूसरे से क्षमा मांगते रहे, मैं तो आप दोनों को प्रणाम करता हूं । मेरे प्रणाम से आप दोनों प्रसन्न होने की कृपा करें।

दोनों हंस पड़ते हे। मानेां हजारों पखेरू एक साथ आसमान में उड़ पड़े हो।

वसन्तसेना कह उठती है - आर्य अब मेरा जाना ही उचित है, यह भेंट मुझे हमेशा याद रहेगी। आर्य मेरे ऊपर एक कृपा करें, मेरे आभूषण व हार आप घरोहर के रूप में रखलें, ये चोर- बदमाश मेरा इसीलिए पीछा करते है।

चारूदत्त - वसन्तसेना। मेरा आवास धरोहर के लायक नहीं है।

वसन्तसेना - आर्य । यह असत्य है। धरोहर तो योग्य व्यक्ति के यहां रखी जाती है, घर की योग्यता को कोई महत्व कभी नही देता । मुझे आप सर्व प्रकार से योग्य लगते है।

चारूदत्त - ठीक है। मैत्रेय ये आभूषण ले लो।

मैत्रेय - आभूषण ले कर कहता है - जो चीज हमारे पास आ गई वो हमारी है।

चारूदत्त – नहीं हम आभूषण यथा समय लौटा देंगे।

वसन्तसेना घर जाने की इच्छा प्रकट करती है।

चारूदत्त दुखी मन से मैत्रेय को वसन्त सेना को छोड़ आने को कहता है, मगर मैत्रेय अवसर के महत्व को समझ कर स्वयं जाने से मना कर देता है, ऐसे अवसर पर चारूदत्त स्वयं जाने को प्रस्तुत होते है, दीपक जलाने के लिए कहते है, मगर सेवक तेल नहीं होने की सूचना देता हैं दीपक के अभाव मै ही वसन्त सेना चारूदत्त के साथ बाहर निकलती है। चन्द्रमा की दूधिया रोशनी में वसन्त सेना का सौन्दर्य कई गुना बढ़ गया है। चारूदत्त प्यासी नजरों से वसन्त सेना को निहारता हैं वसन्त सेना भी प्यार भरी नजरों से देखती हैं नजरें मिलती है। शीध्र ही वसन्त सेना का आवास आ जाता हैं चारूदत्त से आज्ञा ले वसन्त सेना अपने प्रासाद में प्रवेश कर जाती है। चारूदत्त चोर नजरों से देखता है। वापस आकर वसन्त सेना के आभूषणों की रक्षा का भार मैत्रेय व सेवक वर्धमानक को सौंपता हैं, चारूदत्त रात भर वसन्त सेना के सपनें में खोया रहता है। वसन्त सेना भी अपने शयन कक्ष में चारूदत्त के विचार मन में लेकर निंद्रा के आगोश में समा गई ।

***

वसन्तसेना का भव्य प्रासाद । अप्रतिम सौन्दर्य की मलिका वसन्तसेना का प्रासाद नगर वधू के सर्वधा अनुकूल। इस प्रासाद में कई कक्ष, कक्षों में सुन्दर तेल चित्र, अभिसार के, मनुहार के, वसन्त के, प्यार के, केलि- क्रीड़ा के, जलक्रीड़ा के और बाहर उपवन। उपवन में कोयल, पपीहें की आवाजें। सुन्दर, सुवासित पुष्प, पेड़ पौधे, फव्वारे, हर तरफ श्रंगार, अभिसार, काम कला का वातावरण। यहां तो हर रात दिवाली हर दिन मधुमास। इस सुसज्जित प्रासाद का एक सुसज्जित कक्ष द्वार पर पुष्प मालाएं लटक रही है। बैठने के दो आसन है। मध्य में एक रत्नजडित आसन पर गणिका वसन्तसेना बैठी है ओर वीणा को हल्के स्वर में बजा रही है। पुष्पों से, घूप से पूरा कक्ष सुवासित हो रहा है। सम्पूर्ण वातावरण में अभिसार, विलास, केलिक्रीडा महक रही है। सम्पूर्ण साज- सज्जा कलात्मक है। आभिजात्य है। सम्पन्नता पग पग पर दृष्टिगोचर है। वसन्त सेना वीणा बजाते हुए विचारों में खो जाती है। एक पुष्प उठाकर मुस्कराती है।, सोती है। अपनी दासी मदनिका को बुलाती है। वसन्त सेना मदनिका को बुलाती है। वसन्तसेना मदनिका को देखकर अलसाई हुई अंगड़ाई लेती है, पुष्प मदनिका पर फेंकती हे। तभी मांजी की सेविका चेटी आती है। और वसन्तसेना से कहती है--

मांजी की आज्ञा है कि अब आप प्रातः कालीन स्नान करके स्वच्छ हो जाये तथा देवताओं की पूजा - अर्चना कर लें।

नहीं मांजी से कहों। आज मेरा मन ठीक नहीं है, मैं स्नान भी नहीं करूंगी, पूजा, ब्राह्मणों से करवा लो। मैं आज कुछ नहीं करूंगी।

चेटी इस जवाब को सुनकर चली जाती हैं मदनिका वसन्तसेना के बालों में हाथ फिराते हुए पूछती है।

आर्ये में आपसे स्नेह से पूछ रही हूं, अचानक आपको क्या हो गया है? आप का मन कहीं भटक गया है ? कहीं आपको किसी से आसक्ति तो नहीं हो गयी है।

मदनिके मेरी सखी, तुम ऐसा क्यों सोच रही हों। तुम मुझे ऐसी नजरों से क्यों देखती हो। क्या तुम्हें लगता है। कि मैं अन्यमनस्क हो गयी हूं। मदनिका ने वसन्तसेना की आंखों में आंखों डालकर कहा--

मैं आपको प्यार की नजर से देख रही हूं और मुझे विश्वास है कि आपको किसी से प्यार हो गया है ।

वसन्तसेना - शायद तुम ठीक कह रही हो। तुझे दूसरों के मन का हाल बहुत जल्दी पता चल जाता है। तुम तो सब कुछ जान जाती हो।

आपको मेरी बात अच्छी लगी । यह मेरा सौभाग्य है। क्या आपकी आसक्ति किसी राजा या राज्याश्रित पर हुई है।

नहीं सखि। मेरी मित्र, मैं तो सेवा नहीं प्यार चाहती हूं। शुद्ध प्यार। व्यवसाय नहीं। व्यवसाय बहुत कर लिया। अब तो बस प्यार.....समर्पण। वसन्तसेना ने आहत मन से जवाब दिया।

तो क्या आपके मन में किसी ब्रह्मण युवक की छवि बिराजी है या कोई धनवान व्यापारी ।

प्यारी। धनवान की प्रीति का क्या भरोसा वियोग देकर चला जाता है। ब्राह्मण हमारे लिये पूजनीय होते है। वसन्तसेना ने फिर कहा।

तो आर्ये बताइये न वह सौभाग्यशाली कौन है, जिसने हमारी प्राण प्रिय सखि का चित्त चुरा लिया है। मदनिका ने जोर देकर पूछा।

इस बार वसन्तसेना फंस गई। इन्कार करते नहीं बना कह बैठी।

तुम तो सब जानती हो। तू मेरे साथ कामदेवायतन बाग गई थी। फिर भी अनजान बनती हैं वहीं पर तो तुझे दिखाया था।

अच्छा समझ गई उन्हीं की याद में आप खोई हुई है। वे तो सेठो के मोहल्ले के निवासी हैं और.....। मदनिका बोली।

उनका नाम क्या है ? आतुर स्वर में वसन्तसेना ने पूछा ।

अरे उनका नाम तो आर्य चारूदत्त है।

तू ने बिल्कूल सही पहचाना, मेरा रोग। इस नाम को सुनने मात्र से मेरे मन की अग्नि शीतल हो गयी है। ऐसा लगता है जैसे मेरे सम्पूर्ण शरीर में प्रसन्नता व्याप्त हो गई। सखि तू धन्य है।

लेकिन वे बहुत निर्धन है। मदनिका ने जानकारी दी।

अरे पगली। इसीलिए तो मैं उन्हें चाहती हूं। गणिका यदि निर्धन से प्यार करे तो कोई बुरा नहीं मानता। फिर उनके गुणों का क्या कहना। गुणवान होना भी तो समृद्धि है।

लेकिन क्या तितलियां बिना पराग के फूलों पर भी बैठती है।

चुपकर सखि। बिना पराग के फूलों में भी सुगंध और रंग होता है। मैं ऐसे ही पुष्प को प्यार करना चाहती हूं।

लेकिन आप उनसे मिलती क्यों नहीं ? सखि उनसे मिलना आसान नहीं। वियोग और इंतजार का अपना आंनद है, मैं इंतजार करूंगी।

और आप अपने आभूषण उन्हें दे आई।

चुप कर। शैतान। किसी से कहना नहीं।

नहीं कहूंगी।

दोंनों खिलखिला कर हंस पड़ती है । वसन्तसेना मदनिका की सहायता से दैनिन्दिन कार्य सम्पन्न करती है।

***

उज्जयिनी नगर में हर तरह की समृद्धि थी । राजा पालक अनार्य था। अक्सर उसके परिवार के सदस्यों के द्वारा प्रजा पर अत्याचार, किये जाते थे। राजा इन समाचारों की और ध्यान नहीं देता था। राजा के निवास में रहने वाली स्त्रियों के रिश्तेदार स्वयं को राजा का साला बताकर अत्याचार करते थे। इन लोगों की शिकायत नहीं की जा सकती थी राजा का एक प्रबल विरोधी आर्यक क्षत्रीय नहीं था, वह गोपपुत्र था। सामाजिक संरचना में अन्तर्विरोध थे, मगर प्रजा अपने आमोद प्रमोद छल प्रपंच तथा विलासिता में व्यस्त रहती थी क्षत्रीय राज पालजक और गोपपुत्र के आर्यक में राज का संघर्ष यदा कदा उभर कर आता था, इसी कारण पालक ने आर्यक को जेल में बन्दी बना लिया था। उज्जयिनी महानगर था और इसी कारण यहां पर व्यापार - व्यवसाय, कला, संस्कृति, साहित्य, आमोद प्रमोद के प्रचुर साधन थे। घूतक्रीड़ा एक व्यवसाय की तरह फल फूल रहा था।

नागरिक विलासी थे, आसव का प्रयोग प्रचुर रूप से होता था। आसव शालाओं में घूत क्रीड़ा एक अनिवार्य शर्त थी। नागरिक पत्नी के अलावा उप पत्नी, दासी, वधू आदि रखते थे और समाज विकृतियों से भरा पडा था। गणिकाएं सर्व सुलभ थी । समाज में उन्हें आदर प्राप्त था। वे सुख साध्य थी अस्थायी विवाह संबंध एक आम बात थी समाज में कुंवारी मां पुत्र या दासी पुत्र या गणिका पुत्र के सम्बोधन दिये जाते थे। कुल मिलाकर उज्जयिनी नगर की व्यवस्था, रीति रिवाज, भ्रष्ट, कामुक और अनैतिक थे। समाज के सभी वर्ग और वर्ण एक दूसरे से सम्पन्नता में होड़ ले रहे थे। स्त्रियों को काफी स्वतंत्रता थी, वे अपने प्रेमियों से खुले आम मिलती थी, अभिसारिकाएं वनों, उपवनों, बागों आदि में रमण करती थी। समाज में चारित्रिक विपन्नता व्याप्त थी।

घूत क्रीडा लोकप्रिय खेल था। अक्सर नागरिक घूत क्रीडा में कुछ भी दांव पर लगा देते थे। जुआ को शासकीय अनुमति थी। घूतक्रीडाध्यक्ष शासन की और से नियुक्त किये जाते थे। वे जुआरियों से राशि की वसूली करते थें।

ऐसे उज्जयिनी नगर के एक घूतक्रीडा गृह में घूत क्रीडाध्यक्ष माथुर एक जुआरी को पकडने के लिए चिल्ला रहा है।

पकडों। उसे पकडो। उस चोर, जुआरी संवाहक से हमें अस्सी रत्ती सोना वसूल करना है। उसे पकडों, भागने मत देा।

संवाहक नामक जुआरी जुएं में दांव में सब कुछ हार गया है, भागता है, मगर बचकर जाने का रास्ता उसे दिखाई नहीं दे रहा हैं वह मन में सोचता है यह जुआ भी केसी बुरी और बेकार लत हैं। अब कैसे जान बचाऊं ? कहां जाऊं ?। जीता हुआ जुआरी और घूताध्याक्ष माथुर मुझे ढूंढतें हुए इधर ही आ रहे हे। है भगवान। अब मैं क्या करूं? किसी मंदिर में मूर्ति बनकर बेैठ जाउं तो कैसा रहे, यह सोच कर संवाहक पास के मंदिर में छुप जाता है। मूर्तिवत बैठ जाता है। संवाहक से दाव जीतने वाला जुआरी और माथुर दोनों संवाहक को ढूढते हुए मंदिर के पास आते है। मगर उसे आस पास न पाकर परेशान होते है। माथुर को जुआरी कहता है--

देखिये उसके पांवों के निशान है, शायद वो इस मंदिर में छुप गया है।

चलो उसको ढूंढते है।

माथुर और जुआरी मंदिर में आते है। माथुर और जुआरी वहीं मंदिर की मूर्तियों के सामने जुआं खेलने बैठ जाते हैं संवाहक इन दोनों को जुआ खेलते हुए देखता हैं और शीध्र ही उनमें शामिल होने को उत्सुक हो जाता है। संवाहक को देखकर माथुर औरा जुआरी उसे पकड कर अस्सी रत्ती सोना वसूलने का प्रयास करते हैं संवाहक के पास देने को कुछ नहीं हैं माथुर और जुआरी मिलकर उसे मारते है। संवाहक के नाक से खून बहने लग जाता है माथुर कहता है-

अब तू बच कर कहा जायेगा ? तुझे हर हालत में सोना देना होगा।

संवाहक - मगर मेरे पास है नहीं तो दू कहां से।

माथुर कहता है - नहीं हैं तो बचन दो।

संवाहक आधा सोना चुकाने का वचन देता हैं और आधा सोना माफ कर देने की प्रार्थना करता है।

यह समझोता हो जाने पर संवाहक जाना चाहता है, मगर माथुर उससे कहता है कि आधा सोना मिलने पर ही हम तुम्हें जाने देंगे। बेचारी संवाहक इस सम्पूर्ण प्रकरण में फंस गया है। राजा का भय दिखाने पर चिल्ला पड़ता है। अरे देखो न्याय करने वालो। ये लोग मुझे नहीं छोड रहें हैं एक बार सोना छोड देने पर भी फिर पकड लिया है। हे नगर वासियों मुझे बचाओ। लेकिन संवाहक को बचाने के लिए कोई नहीं आता हैं इधर माथुर और जुआरी उसे पकड़ कर सोना वसूलने के प्रयास जारी रखते है।

जा किसी को बेच कर सोना ला।

किसे बेचूं।

मां बाप को बेच कर ला।

मेरे मां बाप मर चुके है।

तो खुद को बेच डाल ।

हां मुझे राज मार्ग पर ले चलो। शायद वहां कोई मुझे खरीद लै।

संवाहक नागरिकों से स्वयं को क्रय करने का अनुरोध करता हैं मगर कोई उसे क्रय नहीं करता। संवाहक जो वास्तव में चारूदत्त का पुराना सेवक है, रो पडता है और माथुर उसे घसीटता है- पीटता है मारता है। संवाहक चिल्लाता है, रोता है। मार खाता है, मगर कुछ कर नहीं पाता।

एक अन्य जुआरी ददुरैक आता है वह भी माथुर से डरता हैं ददुरेक माथुर को प्रणाम करता हैं ओ र संवाहक को छुडाने का प्रयास करता हैं माथुर कहता है-

मुझे संवाहक से अस्सी रत्ती सोना वसूल करना है, जो यह जुआ में हार गया है।

लेकिन माया तो आनी जानी है, तुम क्यों इसे परेशान कर रहे हो।

अच्छा तो तुम चुका दो।

अच्छा एक काम करो तुम इस संवाहक को अस्सी रत्ती सोना और दो, यदि यह जीत जाता है तो तुम्हारे दोनों दाव चुका देगा।

और यदि हार गया तो।

तो सारा सोना एक साथ ले लेना। ददुरैक के इस कथन पर माथुर चिल्लाता है।

तुम कुछ नहीं समझते । तुम चुप रहो। मैं माथुर हूं। किसी से नहीं डरता।

ये आंखे तुम मुझे मत दिखाओ। ददुरैक बोला।

नीच निकाल मेरा सोना। संवाहक को माथुर मारता है।

तुम संवाहक को छोड दो। तुम्हारा सोना मिल जायगा।

नहीं मैं तो संवाहक से ही वसूल करूंगा।

माथुर संवाहक को फिर मारता है। माथुर संवाहक के साथ साथ ददुरैक को भी मारता हैं गालियां देता है।

तुमने मुझे बिना गलती के मारा हैं कल मैं राज दरबार में तुम्हारी शिकायत करूंगा।

जा कर देना।

अचानक ददुरैक एक मुठ्ठी धूल लेकर माथुर की आंखों में झोंक देता है, माथुर जमीन पर गिर जाता है, संवाहक और ददुरैक भाग जाते हैं, ददुरैक गोप पुत्र आर्यक के पास चला जाता है। उसके गिरोह में भर्ती होता जाता है।

संवाहक एक भव्य प्रासाद के सामने आ खडा होता है, दरवाजा खुला देख कर उसमें प्रवेश कर जाता हैं प्रासाद में प्रवेश करते ही वसन्तसेनाको देखता हैं प्रणाम करता है। और कहता है।

देवी मैं आपकी शरण में आया हूं । शरणागत की रक्षा करना आपका कर्तव्य है।

वसन्तसेना उसे अभयदान देती है। दासी को दरावाजा बंद करने को कहती है और दरवाजे की कुण्डी लगवा देती हे। अब संवाहक की घबराहट कुछ कम होती है।

संवाहक को देखने के बाद वसन्तसेना अपनी सेविका मदनिका को इशारा करती है। वह संवाहक से जानकारी लेती है कि संवाहक पटना शहर का निवासी है और मालिश का काम करता हैं इस शहर की प्रशंसा सुन कर यहां पर रोजगार की तलाश में आया है और मीठे, हंसमुख, छिपे हाथ से दान देने वाले, दूसरों की बुराई और अपनी भलाई भूल जाने वाले एक आर्य की सेवा में था। मगर वे निर्धन हो गये हैं और वह अनाथ।

हां आर्ये में आर्य का सेवक था। अब वे धनहीन हो गये हैं।

हां गुण और धन का मेल नहीं होता हैं अक्सर गुणी व्यक्ति धनहीन हो जाता हैं वसन्त सेना बोली।

हां आर्ये। आर्ये चारूदत्त निर्धन हो गये हैं।

आर्य चारूदत्त का नाम सुन कर ही वसन्तसेना को अपार प्रसन्नता होती है। वह संवाहक को कहती है --

तुम इसे अपना ही घर समझो। मदनिका इनके आराम की व्यवस्था करो। इन्हे सब सुविधाऐं दो।

संवाहक यह सब सुन कर प्रसन्न होता है। वह सोचता है आर्य चारूदत्त के नाम मात्र से उसे सब सुविधाएं मिल रही है। वसन्तसेना आर्य चारूदत्त के बारे में और जानकारी चाहती है पूछती है --

अब वे कहां है ?

उनके धनहीन होने के बाद मैं जुआरी हो गया। मैं बरबाद हो गया। मैं अस्सी रत्ती सोना हार गया। माथुर पीछा कर रहा हे। उन्होने मुझे बहुत मारा।

इसी बीच माथुर और जुआरी खून की बूंदों का पीछा करते करते वसन्तसेना के घर पर दस्तक देते है। वसन्तसेना मदनिका को अपना कंगन देकर कहती है--

आर्य चारूदत्त के सेवक के ऋण का भार उतार दो। धूताध्यक्ष को सोने का कंगन दे देा। और कहना - इसे संवाहक ने भिजवाया है। मदनिका जाकर माथुर को सोना चुका देती हे। माथुर और जुआरी चले जाते हे। संवाहक कृत कृत्य हो जाता है।

मदनिका वापस वसन्तसेना के पास आती है, संवाहक मदनिका को देखकर खुश होता है। वह वसन्तसेना से पूछता है --

आर्ये मेरे लायक कोई सेवा हो तो बतायें।

सेवा तो आप आर्य चारूदत्त की ही करें। वसन्तसेना ने कहा।

मेरा बहुत अपमान हो गया है। मैं अब बौद्ध भिक्षु बन जाउंगा।

नहीं। आर्य नही। मदनिका कहती है।

लेकिन मैं निश्चय कर चुका हूं। संवाहक ने कहा। तभी वसन्तसेना के प्रासाद के बाहर शोर उभरता है।

वसन्तसेना का मस्त हाथी खुल गया है। कर्णपूरक वसन्तसेना के कक्ष में आता है।

क्या बात हैं कर्णपूरक । बहुत प्रसन्न दिखाई दे रहे हेा ।

हां आर्ये । प्रणाम । आज मैंने आपके मस्त हाथी को काबू में करके एक सन्यासी की जान बचाई है।

बहुत अच्छा कर्ण पालक तुमने एक बडे अनर्थ को होने से बचा लिया। मैं बहुत खुश हूं। वसन्तसेना ने कहा।

लेकिन आर्ये आगे सुनिये ज्योंहिं मैंने हाथी को काबू में किया एक सज्जन नागरिक ने आभूषण के अभाव में मेरे ऊपर बहुमूल्य दुशाला फेंक दिया।

दुशाले का नाम सुनकर ही वसन्तसेना कह उठती है---

जरा देखना क्या दुशाले में चमेली के फूलों की गन्ध है ?

क्या उस पर कुछ लिखा हे।

हां आर्ये इस पर चारूदत्त लिखा है।

वसन्तसेना दुशाले को लेकर औढ़ लेती है। मुस्कुराती है। शरमाती है।

वसन्तसेना कर्णपूरक को आभूषण इनाम में देती है।

कर्णपूरक चला जाता हे। वसन्तसेना मदनिका से चारूदत्त की बातें करने लग जाती है। वसन्तसेना चाव से दुशाला लपेट लेती है।

***

निर्धनता मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है। निर्धन होना ही सबसे बडा अपराध है। यक्ष ने जब युधिष्ठिर से पूछा कि संसार में सबसे ज्यादा दुखी कौन है ? तो युधिष्ठिर का प्रत्युत्तर था- निर्धन व्यक्ति सबसे ज्यादा दुखी है। उपनिषदों में भी निर्धनता को पौरूषहीनता माना गया है। अर्थात् व्यक्ति मे पौरूष उतना ही है, जितना उसके पास धन हे। सभी गुण कंचन में बसते है। धनवान ही रूपवान, चरित्रवान, साहित्य, कला, संस्कृति का पारखी, सज्जन और सबल होता है। इर युग में धनवान की पूछ होती रहती है। राजा भी धनवान की बात ध्यान से सुनता हैं। इस कलि युग में इस धन का महत्व और भी ज्यादा हैं जीवन में निर्धनता का अभिशाप सबसे बडा अभिशाप है। धन से कलियुग में सब कुछ क्रय किया जा सकता हैं और इसी कारण व्यक्ति साम, दण्ड, दाम, भेद, सही, गलत सभी तरीकों से धन कमाने के लिए टूट पडता हैं, वह पैसे की इस अन्धी दौड में घुड दौड के घोडे की तरह दौड रहा हैं राज्याश्रय तथा राजाज्ञा निर्धन के लिए नहीं होती है, निर्धन तो हमेशा दुख ? कोप और दुभाग्य का मारा होता है, और यदि व्यक्ति धनवान से निर्धन हो जाता हैं तो उसके कष्ट और बढ़ जाते है, मित्र मुंह मोड लेते हे, रिश्तेदार पहचानना बंद कर देते है। और उपेक्षा, अपमान का जीवन जीने को बाध्य होना पड़ता है।

आज कल आर्य चारूदत्त इसी अपमान को जी रहे है। उनका सेवक बर्द्धमानक आवास में अकेला अपनी और अपने स्वामी की निर्धनता को कोस रहा हैं निर्धन, गरीब स्वामी का सेवक क्या कभी सुख पा सकता हैं नहीं। और धनवान का सेवक क्या कभी दुख पा सकता है? नहीं। वर्द्धमानक सोचता हैं और पश्चाताप करता है। लेकिन सेवक की अपनी मजबूरियां, सीमाएं, मर्यादाएं होती है।, जिस प्रकार हरे धान का लोभी सांड बार बार एक ही खेत में घुस जाता हैं वेश्यागामी पुरूष और जुआरी अपने व्यसन नहीं छोड सकते है, उसी प्रकार मैं भी अपने स्वामी को नहीं छोड सकता हूं । आर्य चारूदत्त अभी रात्रीकालीन संगीत सभा से लौटे नहीं हैं । वर्द्धमानक बैठक में उनका इंतजार कर रहा है।

चारूदत्त अपने मित्र विदूषक मैत्रेय के साथ आवास की ओर आ रहे हैं।

चारूदत्त रात्रीकालीन सौम्य वेशभूषा में हैं। वे एक संगीत सभा में रेमिल का गायन सुनकर आ रहें है। आर्य रेमिल के गायन की मुक्तकंठ से प्रशंसा कर रहें है। वे मैत्रेय से कहते हैं-

मैत्रेय यह वीणा भी अपूर्व वाद्य है। वीणा तो व्याकुल मानव का सच्चा साथी हैं यह मन बहलाव का उत्तम साधन हैं यह प्रेम को जगाने वाला पवित्र वाद्य हैं सच में रेमिल बहुत सुन्दर गाते है। उनके गले में सरस्वती का वास हैं मैत्रेय अनमना सा साथ चल रहा हैं कहता हैः-

मुझे तो शास्त्रीय संगीत सुनकर हंसी आती है। ऐसी पतली आवाज में गाने वाले पुरूष तो मंत्र जपता पंडित सा प्रतीत होता है।

चारूदत्त संगीत के आनन्द में अभी भी आकंठ डूबे हुए हैं ? वे पुनः रेमिल की प्रशंसा करते हैः -

बहुत सुन्दर गाया। क्या गीत । क्या आवाज । जैसे पुष्प थपकिया देते हो । उसने मेरे मन के दुख को धो दिया। मेत्रेय इस वार्ता से ऊब चुका था। कह उठाः -

अब जगह जगह श्वान समुदाय चैन से नींद ले रहे है। आकाश में चंद्रमा अंधकार के लिए स्थान बना रहे हैं और हमें भी घर पहुंच जाना चाहिए। वे दोनों चलते हुए घर पहुंचते है। मैत्रेय वर्द्धमानक को आवाज देकर आवास गृह का दरवाजा खुलाता है। वर्धमानक आर्य चारूदत्त को देखकर आसन बिछाता है।

आर्य के पांव धुलाने की व्यवस्था करें। मैत्रेय कहता हैः -

वर्द्धमानक पानी डालने को उद्यत होता है, मगर मैत्रेय पानी डालता है और वर्द्धमानक चारूदत्त के पांव धेाता हैं मैत्रेय भी पांव धोता हैं । अब वर्द्धमानक कहता है‘- आर्य मैत्रेय दिन भर आभूषणों की रक्षा मैंने की है, अब रात में आप ध्यान रखें । वह मैत्रेय को गहने देकर चला जाता हैं चारूदत्त खो जाता हैं मैत्रेय वसन्तसेना के गहनों की पोटली सिरहाने रख सोने का प्रयास करता है।

***

रात्रि का तीसरा प्रहर।

हर तरफ नीरव शांति । कभी कभी श्वान के भेांकने की आवाजें । या दूर से किसी चौकीदार की जागते रहो की आवाज। हर तरफ सुनसान । इस वक्त एक गरीब ब्राह्मण शर्विलक चोरी करने के विचार से आर्य चारूदत्त के घर में सेंध लगाता हैं शर्विलक एक कलात्मक चोर है, चोरी करता हैं मगर चौर्यकला में प्रवीणता के साथ। सुन्दर ढंग से । चांद डूब रहा हैं वह सोचता हैं रात्रि माता की तरह हैं मुझे सुरक्षा देती है। शर्विलक बाग से होकर रनिवास की दीवार के पास पहुंच जाता हैं वह चोरी को बहादुरी का काम मान कर करता है। उसके अनुसार यह एक स्वतंत्र व्यवसाय है। इस काम में किसी के पास गिडगिडाना नहीं पडता । शर्विलक सेंध लगाने लायक हिस्सा ढूंढता है। उसे भगवान कनकशक्ति की याद आती हैं जो सेंध लगाने के लिए नियम बना गये थे। उन्हीं नियमों के अनुरूप वह सेंध लगाता हैं दीवार में हुई सेंध को एक कलात्मक रूप प्रदान करता है। ताकि दिन निकलने पर आम आदमी उसके कार्य की प्रशंसा करे. वह जनेऊ से रस्सी का काम लेता है। अन्दर प्रवेश करने से पूर्व एक नकली पुतले को धकेलता हे। घर पुराना है। बैठक में शर्विलक प्रवेश करता हैं चारों तरफ ढूढता है, कुछ नहीं मिलता हैं वह फर्श पर दाने बिखेरता है, मगर कुछ नहीं होता । वह सोचता है आज की मेहनत बेकार गई, मैं कहां निर्धन के घर आ गया। यहां पर तो मृदंग, वीणा, बांसुरियां और ग्रन्थों के अलावा कुछ नहीं हे। यह तो किसी निर्धन ब्रह्मण का घर लगता है। शर्विलक निराश हो जाता है।

बैठक में मैत्रेय सो रहा हैं सपने में सोचता है। किसी ने घर में सेंध लगादी है। वह सपने में ही गहनों की पोटली शर्विलक के हवाले कर देता हैं मैत्रेय उसे गाय और बा्रह्मण की शपथ दिलाकर जबरन पोटली सोंप देता हैं मैत्रेय सोचता हैं शर्विलक चारूदत्त हैं शर्विलक दीपक बुझा देता है। चारों तरफ अन्धकार छा जाता हैं वह पोटली ले लेता हे। मन ही मन शर्विलक सोचता है, मैं चारों वेदों का ज्ञाता और दान न लेने वाला ब्राह्मण हूं मगर वसन्त सेना की सेविका मदनिका के लिए यह पाप कर रहा हूं मुझे उससे प्यार है, और उसे दासता से छुडाने के लिए धन की आवश्यकता हैं शर्विलक पोटली लेकर चल देता हैं वह सोचता है अब मैं मदनिका को वसन्त सेना के बंधन से छुडा सकता हूं मैं उससे विवाह कर के शेष जीवन आराम से गुजार सकता हूं। वह चल जाता हैं सुबह का हल्का प्रकाश फैलने लगता है। चिडियों की आवाजें आने लगती है। तभी पांवों की आहट आती है। रनिवास से रदनिका बैठक की ओर आती हैं वह चिल्लाती है।

अरे हमारे घर में सेध लग गयी। चोरी हो गयी । आर्य मैत्रेय, उठो। वर्द्धमानक तुम कहां हो । जागो । हमारे यहां चोरी हो गयी। मैत्रेय, रदनिका सेंध देखते हैं। आर्य चारूदत्त को सूचित करते हैं । आर्य चारूदत्त सेंध देखकर कह उठते हैं-

चोरी करना भी एक कला है, क्या सुन्दर रास्ता बनाया गया हैं । और एक बात हैं हमारे घर में चोरी की नीयत से आने वाला कोई बाहरी व्यक्ति या नया चोर ही हो सकता है, पूरा नगर मेरी स्थिति और निर्धनता से परिचित है। बेचारा चोर भी सोचता होगा इस चारूदत्त के यहां कुछ नहीं मिला।

मैत्रेय चारूदत्त की बातें सुनकर हैरान हो गया।

आप चोर की चिन्ता कर रहें हैं लेकिन वसन्त सेना वे गहने कहां हैं जो मैने रात को आपको दे दिये थे।

फिर मजाक।

मजाक नहीं मैने रात को गहनों की पोटली आपको दी थी। उस वक्त आपके हाथ भी ठंडे थे। नहीं मुझे नहीं दिये। मगर एक शुभ बात ये है कि चोर खुश हो कर लौटा, खाली हाथ नहीं गया। चोर मेरे घर से खाली हाथ नहीं गया। वह वसन्तसेना के गहनों को ले गया। चोर कुछ अर्जित करके गया। यही सुखद हैं।

लेकिन वे गहने तो वसन्त सेना की धरोहर थे। आर्य।

-धरोहर। आह। ये क्या हुआ। अब मैं उसे क्या मुंह दिखाउंगा। चारूदत्त मुर्च्छित हो जाता हैं।

आप घबराते क्यों हैं ? हम मना कर देंगें कि गहने हमारे यहां नहीं रखे। मैत्रेय ने बात को संभालते की कोशिश की।

तो क्या अब मुझे मिथ्या भाषण भी करना होगा। हे भाग्य । मैं भीख मांगूंगा मगर गहने वापस लौटाउंगा।

इसी समय सेविका रदनिका सम्पूर्ण घटना का विवरण रनिवास में जाकर आर्य चारूदत्त की पतिव्रता पत्नी धूता को बताती है। धूता सब सुनकर बेहोश हो जाती है। रदनिका धूता की सेवा-सुश्रषा करती है। धूता सोचती है,अब इस नगर के लोग क्या सोचेगे कि निर्धनता से परेशान होकर चारूदत्त ने गणिका के गहने दबा लिये। निर्धन का भाग्य तो कमल के पत्तो पर गिरी पानी की बूंद की तरह होता है। मेरी रत्नावली देकर ही इस परेशानी से छूटा जा सकता है। वह कहती है-’तुम जाकर मैत्रेय को यह मेरी रत्नावली दे दो।’

रत्नावली लेकर मैत्रेय चारूदत्त के पास जाता है। दुःख में योग्य पत्नी की कृपा से बच जाने की बात मान लेता है और मैत्रेय को रत्नावली देकर वसन्त सेना के पास भेज देता है। मैत्रेय रत्नावली लेकर चला जाता है। चारूदत्त सोचता है, मैं निर्धन नहीं हूँ, मेरे पास योग्य पत्नी, अच्छा मित्र मैत्रेय सब कुछ है। वह प्रातःकालीन पूजा-अर्चना में व्यस्त हो जाता है।

***

प्रेम जीवन का शाश्वत सत्य है ठीक मृत्यु की तरह। प्रेम ही जीवन है। प्रेम की अनुपस्थिति में जीवन निस्सार है। प्रेम का आधार ही जीवन को आधार देता है। प्रेम कभी भी, कहीं भी किसी से भी हो सकता है। धनवान स्त्री गरीब पुरूष से और गरीब स्त्री धनवान पुरूष से प्रेम कर लेती है। समाज इस आश्चर्य को देखता रह जाता है। सदियों से स्त्री पुरूष संबंधों पर ज्ञानी लोग चर्चा करते रहे हैं, मगर कोई ठोस सर्वमान्य परिभाषा का विकास आज तक नहीं हो पाया है। स्त्री-स्त्री है और पुरूष-पुरूष मगर मिलन, प्रेम, प्यार के क्षणों में सब कुछ मिल जाता है। समरस हो जाता है।

अपना वांछित प्यार पाने के लिए स्त्री हो या पुरूष कुछ भी करने को तैयार रहता है, कहा भी है कि प्रेम और युद्ध में सब कुछ जायज होता है। कुछ भी करो और वांछित को प्राप्त करो।

अपना वांछित पाने के प्रयासों में ही शर्विलक ने ब्राह्मण होते हुए भी अन्य कुलीन ब्राह्मण के घर से गहने चुराये ताकि अपनी प्रियतमा वसन्त सेना की सेविका मदनिका को दासत्व से छुड़ाकर पुनः प्राप्त कर सके। शर्विलक गहनॉन की पोटली को लेकर वसन्त सेना के प्रासाद की आरे चल पड़ता है। मन की मन सोचता है, आज वह कितना खुश है। उसने रात्रि पर, राजा के सुरक्षा कर्मचारियों पर तथा नींद पर विजय पाई। अपने उद्देश्य में सफल रहा। अब मैं सूर्योदय के साथ ही पवित्र हो गया हूँ । वह सोचता है उसने यह चोरी स्वयं के लिए नहीं की है। मै यह सब अपने प्रेम को पाने के लिए किया है। प्रेम में सब जायज हैं।

वसन्त सेना के आवास में वसन्त सेना अपने कक्ष में मदनिका के साथ वार्ता कर रही है। पास में रखे एक चित्र को देखकर वसन्त सेना कहती है -

’अहा। कैसा सुन्दर चित्र है। सखि यह चित्र आर्य से कितना मिलता है। है न मदनिका।’ इसी समय शर्विलक वसन्त सेना के घर में प्रवेश कर मदनिका को आवाज देता है।

’मदनिका’ ।

’आर्य शर्विलक आपका स्वागत है। प्रणाम। इतने दिन आप कहां थे।’ मदनिका ने उसके पास आकर कहा।

मदनिका और शर्विलक एक दूसरे को भरपूर नजर से देखते हैं। आँखों आँखों में प्यार की, मनुहार की बातें होती हैं। शर्विलक आज परम प्रसन्न है। मदनिका वसन्त सेना के आदेश को भूल गई है। वसन्त सेना पुनः आवाज देती है। सोचती है, अरे यह मदनिका कहां चली गयी। वह झांक कर देखती है, वसन्त सेना को मदनिका किसी पुरूष से वार्ता में संलग्न दिखाई देती है। वसन्त सेना मदनिका के व्यवहार को देखकर ठगी सी रह जाती है। वह सोचती है, यह पुरूष मदनिका को ले जायेगा। शायद इसी संबंध में वह मदनिका से बात कर रहा है। वह मदनिका को बुलाने का प्रयास नहीं करती।

मदनिका - शर्विलक आपस में वार्तामें व्यस्त रहते हैं। मदनिका कहती है -

‘शर्विलक तुम इतने दिन कहां रहे ? और तुम इतने परेशान क्यों दिखाई दे रहे हो। सब कुशल तो है।‘

शविलक मदनिका के मुंह को निहारता है और धीरे से कहता है -

‘मैं एक राज की बात बताना चाहता हूँ। ध्यान से सुनो।‘

‘कहो क्या बात है?‘

‘क्या वसन्त सेना तुम्हे‘ धन लेकर मुक्त कर देगी।‘

मदनिका यह सुनकर प्रसन्न होती है। कहती है- ‘आर्य देवी वसन्त सेना का दिल बहुत बड़ा है। वे कहती है मैं तो सब दास-दासियों को छोड़ना चाहती हूँ। मगर बताओं तुम्हारे पास कौनसा खजाना है।‘

‘मदनिका मैं तुम्हें क्या बताऊँ ? कल रात भर मैं सो नहीं पाया। मैने हिम्मत करके चोरी कर डाली ।‘

‘क्या तुमने मेरे जैसी तुच्छ नारी के खातिर अपने चरित्र और शरीर को खतरे मैं डाल दिया ?‘

‘हां, मैंने ऐसा ही किया। मैंने स्वर्ण आभूषनों की चोरी की है और ये आभूषण मैं वसन्त सेना को देकर तुम्हें मुक्त कराना चाहता हूँ।

गहने देखकर मदनिका सोच में पड़ जाती है। सोचती है ये गहने तो उसके देखे - पहचाने हैं। वह पहचान जाती हैं कि ये गहने तो वसन्त सेना के हैं। इसी बीच शर्विलक बताता है कि गहने चारूदत्त के आवास से चुराये गये हैं। वसन्त सेना की सेविका मदनिका इस सम्पूर्ण प्रकरण को समझ जाती है और डर से कांपने लगती हैं। वसन्त सेना के गहने चारूदत्त के पास धरोहर है, चारूदत्त से चोरी करके शर्विलक लाया है अपनी प्रियतमा को छुड़ाने, और प्रियतमा की मालकिन वसन्त सेना को देने। प्रेम का कैसा सुन्दर त्रिकोण बना है। मदनिका ने आगे विचार किया।

लेकिन वसन्त सेना के गहने चारूदत्त के पास धरोहर थे और धरोहर का चोरी हो जाना, बेचारे आर्य चारूदत्त पर क्या गुजरेगी।

सम्पूर्ण प्रकरण को मदनिका समझ तो गई, मगर अब हो क्या सकता है ? शर्विलक भी कुछ गंभीरता को समझने लगा। मगर अब क्या हो ?

‘तुम बताओ मदनिका। अब हम क्या करे । स्त्रियां ऐसे मामलों में ज्यादा समझदार होती है।‘

‘मेरी मानो तो ये गहने चारूदत्त को लौटा देा।‘

‘और अगर मामला न्यायालय में गया तो।‘

‘चाँद से कभी धूप निकलती है क्या ?‘

शर्विलक आर्य चारूदत्त के गुण से परिचित है।

गहने वापस लौटाना नीति के अनुरूप नहीं है। कुछ और सोचो। एक उपाय और है -‘मदनिका बोली।‘

‘वो क्या ?‘

‘तुम चारूदत्त के दास बनकर वसन्त सेना को ये गहने लौटा दों न तुम चोर रहोगे और न चारूदत्त पर ऋण ही रहेगा।‘

‘लेकिन यह तो और भी मुश्किल है।‘

‘इसमें कुछ भी मुश्किल नहीं है। तुम कामदेव - मंदिर में ठहरो। मैं वसन्त सेना को तुम्हारे आगमन की सूचना देती हूँ । यह कहकर मदनिका तेजी से अन्दर चली जाती है। वसन्त सेना को सम्पूर्ण घटनाक्रम की पूर्व जानकारी झरोखे से सुनने पर प्राप्त हो जाती है, मगर वह मदनिका पर जाहिर नहीं होने देती। वसन्त सेना मदनिका को तुरन्त आर्य चारूदत्त के चैट को अन्दर लाने की आज्ञा देती है।

शर्विलक वसन्त सेना के पास आता है। शर्विलक अन्दर आता है। वसन्त सेना ब्राह्मण को प्रणाम करती है। शर्विलक आर्शीवाद देता है। वह वसन्त सेना से कहता है।

‘आर्य चारूदत्त ने मुझे आपके पास भेजा है और कहा है कि मैं इन गहनों को अधिक समय तक अपने पास नहीं रख सकता हूँ । कृपया आप इन्हें पुनः ग्रहण करो ।‘

वसन्त सेना मुस्कराती है। मन ही मन सम्पूर्ण प्रकरण पर आनन्दित होती है। वह शर्विलक को मदनिका को स्वीकार करने का आग्रह करती हैं और कहती हैं -

‘आर्य चारूदत्त ने मुझसे कहा था कि जो गहने लाये उसे सेविका मदनिका को सौंप देना। सो मैं आपको मदनिका सौंपती हूँ । अब मदनिका आपकी हुई। ‘शर्विलक सब समझ जाता है। वसन्त सेना भी सब कुछ समझ जाती है।

वह चारूदत्त के गुण गाता है। वसन्त सेना एक गाड़ी मंगवाती है और मदनिका को उसमें बैठा कर विदा करती है। वसन्त सेना उसे उठाकर गले लगाती है। शर्विलक और मदनिका प्रस्थान करते हैं।

इसी समय राजाज्ञा की घोषणा होती है कि राजा पालक ने आर्य को बंदी लिया है। शर्विलक यह सुनकर अपने मित्र आर्य को छुड़ाने के लिए मदनिका को छोड़ कर चला जाता है। मदनिका को वह अपने मित्र गायक रैमिल के यहां छोड़ने को एक चैट को आज्ञा देता है। शर्विलक राजा पालक के खिलाफ जन समुदाय में आन्दोलन चलाता है। राजा कर्मचारियों को भड़काता है। आन्दोलन धीरे-धीरे राजा पालक की शक्ति को क्षीण करता है। वसन्त सेना की एक सेविका बताती है कि आर्य चारूदत्त ने एक ब्राह्मण को भेजा है। वह ब्राह्मण आर्य चारूदत्त की पत्नी की रत्नावली लेकर आता है।

वसन्त सेना कह उठती है - ‘आज का दिन कितना सुन्दर है।‘

कुल वधु और नगर वधू के आभिजात्य में बहुत अन्तर होता है। नगर वधू वसन्त सेना का भव्य प्रासाद और चारूदत्त के मुंह लगे सेवक मैत्रेय का उसमें प्रवेश। मैत्रेय की आंखें इस वैभव को देख कर ठगी सी रह जाती है, उसे लगता है वह किसी इन्द्रपुरी में प्रवेश कर गया है। वसन्त सेना की दासी के साथ वह प्रासाद में प्रवेश करता है। सर्वप्रथम प्रासाद के बाग की शोभा देखता है और आश्चर्यचकित हो जाता है। बाग की शोभा बहुत सुन्दर है। पेड़ फूलो –फलों से लदे हुए हैं। घने पेड़ों पर झूले डले हुए हैं। शैफाली, मालती, आग्रम आदि पुष्पों से बाग की सुन्दरता बढ़ गयी है। कमल व तालाब की शांति का मनोहर दृश्य है। यह सब देखते हुए मैत्रेय अन्दर आता है। गृह द्वार से मैत्रेय मुख्य भवन में प्रवेश करता है। द्वार के दोनों और ऊँचे स्तम्भों पर मल्लिका की माला शोभायमान है। आम तथा अशोक के हरे पत्तों से कलश शोभायमान है। स्वर्ण के किवाड़ है और हीरों की कील से जुड़े हुए हैं।

मैत्रेय दासी से पूछता है-

‘आर्यें वसन्त सेना कहां है ?’

‘वे तो बाग में है। आपको अभी काफी चलना है।’ मैत्रेय एक के बाद कई कक्षों में से होता हुआ बाग में पहुंचता है जहां पर वसन्त सेना बैठी हुई है। वसन्त सेना मैत्रेय को देखकर खड़ी हो जाती है। वह मैत्रेय का स्वागत करती है। बैठने का आदेश देेकर स्वयं भी बैठ जाती है। वसन्त सेना अपने प्रियतम आर्य चारूदत्त के कुशल समाचार जानने को अत्यन्त उत्सुक हो पूछती है-

‘आर्य मैत्रेय बताओ। उदारता जिनका गुण है, नम्रता ही जिनकी शाखाएं हैं, विश्वास ही जिनकी जड़ है और जो परोपकार के कारण फल-फूल रहे हैं, ऐसे आर्य चारूदत्त कैसे हैं? क्या उस विराट वृ़क्ष पर मित्र रूपी पक्षी सुख से रह रहे हैं।’

हां देवी सब कुशल मंगल है। देवी आर्य ने निवेदन किया है कि आपके स्वर्णाभूषण वे जुएं में हार गये हैं और जुआरी का पता नहीं चल पाया है।’ वसन्त सेना समझकर भी नासमझ बनकर चुप रहती है। मैत्रेय चारूदत्त की दी हुई धूता की रत्नावली वसन्त सेना को देकर कहता है-

‘आप यह रत्नावाली स्वीकार करने की कृपा करें। उससे आर्य को परम सुख मिलेगा।‘

वसन्त सेना कुछ उत्तर नहीं देती चुप रहती है। मैत्रेय फिर कहता है तो वसन्त सेना कह उठती है।

‘क्या कभी मंजरियों से रहित आम के पेड़ से भी मकरन्द टपकता है।’ आप आर्य से कहे सायंकाल में उनसे मिलने आऊंगी।‘ यह कह वसन्त सेना रत्नावली चेटी को दे देती है। वसन्त सेना पुष्प करण्डक उद्यान में मिलने हेतु मिलने उपक्रम करती हैं महाकाल के मंदिर पर आर्य पुत्र की गाड़ी की प्रतीक्षा करने को कहकर मैत्रेय को विदा करती है। मैत्रेय वहां से चल देता है।

मदनिका वसन्त सेना को अभिसार हेतु तैयार करती है। वसन्त सेना कहती है-

‘देखो आर्य कितने महान है। चुराये गये आभूषणों को वे जुंए में हार जाना बता रहे हैं और बदले में अपने प्राण प्रिय पत्नी की रत्नावली मुझे भिजवादी। वे महान है मदनिका। महान।‘

आप ठीक कह रही हैं देवी, उनकी उदारता पर तो सभी मुग्ध है।‘

‘अच्छा मैं तैयार होने जा रही हँू।‘

‘देवी सावधान रहना पुष्पकरण्डक उद्यान शहर के बाहर है और वह निर्जन स्थान है। आपका अकेले जाना और भी अनुचित है।‘

***

शकार वसन्त सेना के चक्कर में एक बार फिर वसन्त सेना के घर में घुस आता है। वह मदनिका को डराता है, धमकाता है और वसन्त सेना से मिलना चाहता है। मदनिका शकार को झूठ कह देती है कि वसन्त सेना तो अभिसार हेतु प्रस्थान कर गई है। इसी समय राजाज्ञा सुनाई देती है कि गोपपुत्र आर्यक काराग्रह को तोड़ कर निकल भागा है। मदनिका प्रसन्न होती है। क्योंकि अब शर्विलक भी आ जायेगा। शकार और विट उद्यान में वसन्त सेना को ढूँढ़ने के लिए चले जाते हैं। तभी वसन्त सेना अन्दर से अभिसार हेतु तैयार होकर निकलती है। मदनिका उनहें जाने से रोकना चाहती है। वह सूचना देती है कि गोपपुत्र आर्यक काराग्रह से भाग गये हैं।

‘लेकिन यह तो शुभ संवाद है।‘

‘लेकिन राजा का साला शकार-।‘

‘उस दुष्ट का नाम भी जबान पर मत लाना।‘

‘वह आया था। वह आपको नगर के सभी उद्यानों में ढूँढ़ रहा है।‘

‘लेकिन मेरा जाना आवश्यक है। नहीं तो आर्य चारूदत्त क्या कहेंगे।‘

लेकिन आपका जाना मुझे उचित नहीं जान पड़ता है।‘

‘अच्छा यह रत्नावली सुरक्षित रखना। उसे लौटाना है। वह एक कुल वधू की अमानत है, नगर वधू के पास।‘

वसन्त सेना चली जाती है। तभी मैत्रेय गाड़ी लेकर आता है, मगर मदनिका उसे सूचित करती है कि आर्या वसन्त सेना तो चली गयी। अनर्थ की आशंका व्यक्त करते हुए मैत्रेय गाड़ी लेकर पुनः चला जाता है। राजाज्ञा सुनाई देती है-‘गोपपुत्र आर्यक नगर में ही हैं। सभी सावधान रहे। आर्यक को पकड़ने वाले को उचित पुरस्कार दिया जायेगा।‘

मैत्रेय के जाने के बाद मदनिका भयभीत होकर मन ही मन डरती रहती है।

***

चारूदत्त आकाश में काली घटनाआें को देख रहे हैं। बादल उमड़ आये हैं। अन्धेरा छा गया है। कोयल जंगल में चली गयी है। हंस मान सरोवर चले गये हैं। मैत्रेय अभी तक वसन्त सेना को लेकर नहीं आया है, पता नहीं क्यों ? आर्य का दिल आशंका से धधक रहा है तभी मैत्रेय आता है।

‘कहो मित्र कैसा रहा।‘

‘प्रभू उसने तो रत्नावली ले ली। और मेरा मजाक उड़ाया।‘

‘अच्छा।‘

‘आर्य मेरी माने तो इस गणिका से दूर ही रहे। ये किसी की भी सगी नहीं होती हैं। वैसे वसन्त सेना ने आज आने को कहा था। शायद वह रत्नावली से भी कुछ ज्यादा और चाहती है।‘

‘अच्छा उसे आने दो।‘

‘तभी वसन्त सेना के अनुचर कुंभीलक ने प्रवेश किया। आर्य चारूदत्त से तथा मैत्रेय से बातचीत करता है। वसन्त सेना के आने की जानकारी देता है। आर्य प्रसन्न होकर उसे दुशाला देते हैं।‘

वसन्त सेना सोलह श्रृंगार करके प्रवेश करती है। साथ ही दासी, विट भी है। छत्र लगा हुआ है। अद्वितीय सौन्दर्य, काम कला प्रवीण, नगर वधू वसन्त सेना के प्रवेश से ही बाग में बहार आ जाती है। वसन्त सेना सजी धजी मुग्धा नायिका सी लग रही है। वह स्वर्णाभूषणों से लदी हुई है। सुन्दर वस्त्रों ने उसकी सुन्दरता को और भी बढ़ा दिया है। बरसते पानी में वसंत सेना को देखकर वह अत्यंत प्रसन्न होता हैं। वसन्त सेना मैत्रेय को देखकर कहती है-

‘आपके जुआरी मित्र कहां है ?‘

‘वे सूखे बाग में है।‘

‘सूखा बाग---‘

‘हां वहीं चलिए।‘

‘दोनों चलते हैं। वसन्त सेना चारूदत्त को देखकर मदमस्त हो जाती है। धीमे स्वरों में पूछती है-

‘सांझ मीठी है न आर्य।‘

‘प्रिये तुम आ गई प्रिये।‘ बैठो। आसन पर बैठे। मित्र मैत्रेय इनके वस्त्र वर्षां से भीग गये हैं। इन्हें दूसरे वस्त्र लाकर दो।‘

‘जो आज्ञा।‘

‘वसन्त सेना अन्दर जाकर वस्त्र बदलती है। आर्य चारूदत्त और वसन्त सेना आपस में एक-दूसरे को तृषित नजरों से देखते हैं। मन ही मन प्रसन्न होते हैं। वे अपनी प्रसन्ता छिपा नहीं पाते।

वसन्त सेना-‘ आपने रत्नावली भेजकर अच्छा नहीं किया। गहने तो चोरी हो गये थे।‘

‘चोरी की बात कोई नहीं मानता। अतः मैैंने रत्नावली भेज दी।‘

‘आप मुझ पर तो विश्वास करते।‘

चारूदत्त चुप रहते हैं। मौन का संवाद होता हैं। वर्षा आ रही है। मेघ गरज रहे हैं। बिजली चमक रही है। मैत्रेय तथा वसन्त सेना की दासी व चेटी दोनों को बाग में छोड़ कर अन्दर चले जाते हैं।

वसन्त सेना को देखते चारूदत्त श्रृंगार दिखाते हैं। प्रेम से आलिंगन करते हैं। दोनों बाहुपाश में बंध जाते हैं।

चारूदत्त-‘हे मुख तुम गरजो। हे बिजली तुम चमको। हे वर्षा तुम तेज धार से आओ। क्योेंकि इस नाद प्रभाव से मेरी देह वसन्त सेना के स्पर्श से पुलकित होकर फूल के समान और रोमांचित हो रही है।‘

‘प्रिये यह देखो इन्द्र धनुष। कैसा मनोरम।‘ आर्य चारूदत्त फिर कहते हैं-

‘वर्षा में भीगे हुए तुम्हारे वक्षस्थल कितने सुन्दर लग रहे हैं।‘ इनकी नोकों पर ठहरी जल की बूंदे नन्हें मोतियों जैसी आभा दे रही हैं।‘

‘तुम कितनी सुन्दर हो।‘

वसन्त सेना कुछ न कह कह कर आर्य के सीने में अपना मुंह छुपा लेती है। वे प्रगाढ़ आलिंगन में एक-दूसरे में समाहित हो जाते हैं। वसन्त सेना अपने आभूषणों को उतारती है, अभिसार को प्रस्तुत होती है।

बाहर वर्षा तेज होती जा रही है। आर्य चारूदत्त अभिसार में आनन्द ले रहे हैं। वसन्त सेना अभिसार में पूर्ण सहगामी है। वे एक-दूसरे में समा जाते हैं। रात काफी बीत चुकी है- वे अभिसारपरोन्त शिथिल हो निंद्रा देवी की गोद में विश्राम करते हैं।

***

आर्य चारूदत्त प्रातःकाल भ्रमण हेतु चले गये हैं। वसन्त सेना को एक दासी उठाती है। वह आर्य चारूदत्त के आवास पर है रात्रि की शिथिलता अभी बाकी है। आर्य उसे पुष्पकरण्डक में आने को कह गये हैं। ऐसा दासी ने वसन्त सेना को सूचित किया। तभी वसन्त सेना चेटी को कहती है कि रत्नावली अन्दर जाकर आयी धूता को दे दें। आर्या से कहना कि चारूदत्त की दासी वसंत सेना का प्रणाम स्वीकार करें।

चेटी-‘लेकिन आर्या धूता मेरे से नाराज हो जाएगी।‘

‘तू मेरी आज्ञा का पालन कर।‘

‘जो आज्ञा-। लेकिन आर्या धूता रत्नावली लौटा देती है। और कहती है - मेरे भूषण तो आर्य पुत्र ही है। आप रत्नावली स्वयं रखे। आर्य पुत्र की दी हुई चीज वापस लेना मुझे शोभा नहीं देता।‘

तभी रोहसेन को लेकर रदनिका प्रवेश करती है। रोहसेन रो रहा है। जिद करता है और कहता है--‘ मैं मिट्टी की गाड़ी से नहीं खेलूंगा। मैं तो सोने की गाड़ी लूंगा।‘

रदनिका से वसन्त सेना पूछती है-‘ यह किसका बच्चा है। यह पता लगने पर कि यह आर्य चारूदत्त का पुत्र है। उसे गोद में लेती है। वह बच्चे को पुचकारती है।

‘पर यह रो क्यों रहा है ?‘

‘यह पड़ोस में सोने की गाड़ी देखकर आया है, वैसी ही गाड़ी लेना चाहता है। रदनिका कहती है। मैंने इसे मिट्टी की गाड़ी बनाकर दी मगर यह नहीं मानता।‘ रदनिका ने समझाया।

‘हाय। यह भी भाग्य के कारण रो रहा है। आज चारूदत्त निर्धन है तो उनका बेटा भी रो रहा है।‘ तभी रोहसेन रदनिका से पूछता है।

‘ये कौन है।‘

‘ये भी तुम्हारी मां है।‘ रदनिका जवाब देती है।‘

‘नही।‘ ये मेरी मां नहीं हो सकती। इनके पास तो इतने सोेने के गहने हैं, कीमती कपड़ें हैं, ये मेरी मां कैसे हो सकती है।‘ वसन्त सेना स्वर्ण आभूषण उतार देती है, और कहती है - ‘लो मैं तुम्हारी मां हो गयी। इन गहनों से तुम सोने के गाड़ी बनवालो। ‘वसन्त सेना गहने मिट्टी की गाड़ी पर रख देती है। मगर रोहसेन नहीं मानता।

‘नहीं। मैं नहीं लूंगा। रदनिका रोहसेन को लेकर चली जाती है।‘

तभी वर्द्धमानक कहता है कि बैलगाड़ी तैयार है, वसन्त सेना को भेजो।

वसन्त सेना श्रृंगार करती है। तभी वर्द्धमानक गाड़ी का कपड़ा लाने वापस चला जाता है। तभी वहां पर शकार का दास स्थावरक अपनी बैलगाड़ी लाकर भीड़भाड़ के कारण खड़ी कर देता है। और धोखे से वसन्त सेना उसमें बैठ जाती है। स्थावरक रास्ता साफ होने पर गाड़ी चला देता है। उधर वर्द्धमानक की बैलगाड़ी में भगोड़ा आर्यक पहरेदारों से बचता बचाता छुप कर बैठ जाता है। दोनोंं बैलगाड़िया अलग-अलग रास्तों पर चल पड़ती है। एक में वसन्त सेना और दूसरे में गोपपुत्र आर्यक। रास्ते में राजा के पहरेदार आर्यक की गाड़ी को रोकते हैं, मगर एक पहरेदार आर्यक का मित्र होता है, अतः आर्यक बच जाता है। इस चक्कर में पहरेदारों में झगड़ें हो जाते हैं। मगर आर्यक की बैलगाड़ी बच निकलने में सफल हो जाती है क्योंकि वह आर्य चारूदत्त की गाड़ी है, जो समाज में आदरणीय है।

***

आर्य चारूदत्त अपने विदूषक मित्र के साथ पुष्पकरण्डक बाग में टहल रहे हैं। वे एक शिलाखण्ड पर बैठ जाते हैं। चारूदत्त का मन उद्विग्न है वे वसन्त सेना का इंतजार कर रहे हैं मैत्रेय बाग की शोभा का वर्णन करता है, प्रकृति चित्रण करता है, मगर चारूदत्त का मन नहीं लगता है।

‘वर्द्धमानक अभी तक नहीं आया मित्र मैत्रेय।‘

‘हां पता नहीं कैसे देर हो गई।‘

तभी वर्द्धमानक गाड़ी लेकर पहुँचता है। वसन्त सेना के आगमन की खुशी में आर्य चारूदत्त उतावले हो रहे हैं। वे मित्र को गाड़ी घुमाने और वसन्त सेना को उतारने का आदेश देते हैं। तभी गाड़ी में देखकर मैत्रेय कहता है -

‘मित्र ये तो वसन्त सेना नहीं है।‘

चारूदत्त -‘क्या कहते हो मित्र। यह हमारी बैलगाड़ी है, हमारा गाड़ीवान है, हमने इसे वसन्त सेना को लाने भेजा था। इसमें कोई पुरूष कैसे हो सकता है।‘

गाड़ी के पास चारूदत्त गाड़ी में देखता है। उसी समय आर्यक की नजर उस पर पड़ती है। आर्यक चारूदत्त को देखकर संतोष की सांस लेता है उसे लगता है अब वह सुरक्षित है। उसके ऊपर राजा का जो खतरा मण्डरा रहा था, वह फिलहाल टल गया। चारूदत्त भी आर्यक को देखकर विस्मित रह जाता हैं।

‘अरे यह कौन हैं ? इनकी विशाल भुजाएं, उन्नत ललाट, विशाल वक्षस्थल, सिंह के समान ऊंचे कंधे, बड़ी-बड़ी लाल आँखे और पांवों में बेड़ियां, आर्य आप कौन हैं ?‘

आर्यक अपना परिचय देता है और राजा पालक बंदी बनाये जाने के बाद काराग्रह से शर्विलक की मदद से भागने की घटना बताता है। चारूदत्त आर्यक का परिचय पाकर परम प्रसन्न होता है - कहता है।

‘आज मैं अत्यंत प्रसन्न हँू। मेरा सौभाग्य है कि मुझे आपके दर्शन हुए है। मैं अपने प्राण देकर भी आपकी रक्षा अवश्य करूँगा। आप विश्वास रखे। चारूदत्त अपने अनुचर को आज्ञा देकर आर्यक की बेड़ी कटवा देता है। बेड़ी कट जाने पर आर्यक कहता है।‘

‘आर्य मैं कृतज्ञ हूं। आपने मुझे एक बेड़ी से काट कर प्रेम की बेड़ी से जकड़ लिया है।‘ अब मुझे जाने की आज्ञा दीजिये।‘

अभी आपके पांव में घाव है, आप इसी मेरी गाड़ी द्वारा जाये। इससे कोई आप पर शक नहीं करेंगा। और आप सुरक्षित व कुशलता से पहुँच जायेंगे। ईश्वर आपकी रक्षा करे।‘ चारूदत्त कहता है।

आर्यक चला जाता है।

आर्य चारूदत्त मैत्रेय से कहते हैं -

‘हमने राजा पालक के विरूद्ध कार्य किया है, हमें इस स्थान पर अधिक नहीं रूकना चाहिए। वसन्त सेना अभी तक नहीं आई है। मैं विरह से व्याकुल हूं। मेरा हृदय घबरा रहा है। पता नहीं क्या अनिष्ट होने वाला है। हमें अब यहां से चल देना चाहिए।‘ वे दोनों वहां से चल देते हैं।

***

एक बौद्ध भिक्षु अपनी धीर गंभीर चाल से अपने हाथ में गीला चौला लेकर चल रहा हैं। वे लोगों को धर्म के अनुसार चलने के लिए उपदेश देते हैं। धर्म ही सब कुछ है। धर्म के अलावाा सब कुछ मिट जायेगा। धर्म के अनुसार आचरण करो। इन्द्रियों को वश में करो। अविद्या का नाश करो। सिर दाढ़ी मुण्डाने से कुछ नहीं होता, मन मंुडवाना चाहिए। मेरा चौला गंदा हो गया है। इसे धोना जरूरी है। ‘बौद्ध भिक्षु राजाके साले शकार के बाग में प्रवेश करते हैं।‘ वे कहते हैं -

‘बुद्धम शरणम् गच्छामि।

संघम् शरणम् गच्छामि।।

धम्म शरणम् गच्छामि।।।‘

तभी राजा का साला शकार हाथ में नंगी तलवार लेकर विट के साथ बाग में आता है। राजा का शाला भिक्षु को देखकर क्रोधित स्वर में कहता है।

‘ठहर भिक्खू ठहर। मैं अभी तेरा सिर काट कर फेंकता हूं।‘

विट शकार को ऐसा करने से रोकता है। वह शकार को दूसरी तरफ ले जाना चाहता है। भिक्षु की तरफ देख कर शकार फिर उसे मारने दौड़ता है। भिक्षु उसके कल्याण की कामना करता है। कहता है --

‘आप पुण्यवान हैं। धनवान हैं। आप का कल्याण हो।‘

‘ये मुझे गाली क्यों दे रहा है।‘ शकार ने पूछा

‘यह गाली नहीं प्रशंसा कर रहा है।‘ विट ने समझाया।

शकार भिक्षु से पूछता है।

‘तुम इधर क्यों आये हो।‘

‘मैं अपना चौला धोने आया हंू।‘

‘अच्छा तो तुम मेरे शबसे शुन्दर बाग में अपना गंदा चौला धोने के लिए आया है। तुम इस बाग के शाफ पानी को गंदा कर रहे हो। मैं तुम्हें एक बेंत की शजा शुनाता हूं।‘

विट उसे फिर बचाने का प्रयास करता है। कहता है --

‘इसके मुण्डे सिर तथा गेरुए वस्त्र पहनने की स्थिति से ऐसा लगता है कि यह नया-नया भिक्षु बना है।‘

‘ठीक है तो यह जन्म से भिक्षु क्यों नहीं है।‘ शकार ने पूछा।

लेकिन विट उसे समझा बुझाकर मना लेता है। भिक्षु एक तरफ चला जाता है।

विट और शकार बाग में विचरण करते हैं। एक शिलाखण्ड पर बैठ कर शकार वसन्त सेना की याद में खो जाता है। शकार विट से पूछता है-

‘श्थावरक को गये इतना समय व्यतीत हो गया है। वो अभी तक बैलगाड़ी लेकर वापस नहीं आया है। मैं बड़ी देर से भूखा हूं। अब मैं चल भी नहीं सकता।‘

‘आप ठीक कह रहे हैं। प्यास से व्याकुल जंगली जानवर पानी पीकर आराम कर रहे हैं। तपती दोपहर है, बैलगाड़ी भी कहीं ठहर गयी होगी।‘ विट के इस प्रत्युत्तर से शकार का मन शांत होता है। वह गाने लगता है। --

‘कैसा लगा मेरा गाना।‘

‘आप तो गन्धर्व हैं। आपका गाना तो सुन्दर है।‘ वह फिर गाता है।

‘श्थावरक अभी भी नहीं आया।‘ शकार फिर उद्धिग्नता से पूछता है। तभी दूर से बैलगाड़ी के आने की आवाजें आती हैं। श्थावरक बैलगाड़ी में वसन्त सेना को लेकर आता हैं। वह बैलगाड़ी को बड़ी तेजी से हांक कर लाता है और आवाज लगाता है।

आवाज सुनकर वसन्त सेना सोचती है वह आवाज तो वर्द्धमानक की नहीं है। क्या बात है क्या आर्य चारूदत्त ने किसी दूसरे गाड़ीवान को भेजा है। मेरा मन अशांत क्यों हैं ? क्या कोई अघट घटने वाला है। शकार गाड़ी की आवाज सुनकर गाड़ी के निकट आता है। गाड़ी को देख कर शकार खुश होता है। गाड़ी को अन्दर लाने की आज्ञा देता है। शकार विट को गाड़ी पर चढ़ने की आज्ञा देता है। फिर उसे रोक कर स्वयं गाड़ी में देखता है। डर कर पीछे हट जाता है। गाड़ी में स्त्री है या राक्षसी है। ‘तभी वसन्त सेना भी गाड़ी में से शकार को देखती है। सोचती है - यह राजा का साला शकार कहां से टपक पड़ा। मैं तो अपने प्रियतम आर्य चारूदत्त की सेवा में आई थी। हाय मैं बड़ी अभागन हूं। अब मैं क्या करूं ?‘ वह घबरा जाती है। विट वसन्त सेना को देखता है। और कहता है - ‘तुम राजा के साले का पीछा क्यों कर रही हो। यह अनुचित है। धन के लोभ से शायद तुम अपनी मां के कहने से राजा के साले के पीछे पड़ी हो।‘

वसन्त सेना इस बात से इंकार करती है। उसकी समझ में आ गया कि गाड़ी बदल गई है। वह कहती हैं - परन्तु मेरा कोई दोष नहीं है। गाड़ी बदल गई है। गाड़ी बदल जाने के कारण मैं यहां पहुंची हूं। आप मेरी रक्षा करना।‘ वह विट से रक्षा की याचना करती है। विट उसे आश्वासन देता हैं। वह शकार के पास जाकर कहता है - सच में गाड़ी में कोई राक्षसी ही है।‘

शकार उसकी बात नहीं मानता। विट उसे उज्जयिनी चलने की सलाह देता है, शकार उसे भी नकार देता है। तभी वह गाड़ी पर बैठ कर जाने का विचार करता है। वह वसन्त सेना को देख लेता है। प्रसन्न हो जाता है। वह वसन्त सेना के पांव में गिर कर कहता है।

‘देवी मैं सुन्दरता का पुजारी हूं। मेरी प्रार्थना सुनो। मैं भिखारी हूं। मेरी झोली भर दो। समर्पण दो।‘ वसन्त सेना क्रोध से उसे झिड़क देती है। वह शकार को पांव से ठोकर लगाती है। शकार क्रोधित हो जाता है। क्रोध में कहता है --

‘जिश मस्तक पर अम्बिका ने प्यार से चुम्बन लिया था। जो शिर देवताआें के शामने नहीं झुका, तुमने उशी शिर को ठोकर मार दी। श्थावरक तुम इसे कहां से लाये हों ?‘

श्थावरक उसे वस्तुस्थिति से अवगत कराता है, कि राजपथ पर बहुत सी बैलगाड़ियां थी, और चारूदत्त के बाग के द्वार पर गाड़ी खड़ी की थी वहीं पर शायद गलती से वसन्त सेना गाड़ी में बैठ गई।

‘अच्छा तो ये गाड़ी बदलने शे यहां आई है। मुझशे मिलने नहीं। उतारो। इशे गाड़ी से उतारो। तू इस गरीब चारूदत्त से मिलने के लिए मेरे बैलों पर भार डाल रही हो। उतरो जल्दी करो।‘ तभी शकार क्रोध में वसन्त सेना को उतरने के लिए कहता है - उतर नीचे उतर मैं तेरे केशों को पकड़ कर खीचूंगा। तुझे मारूंगा।‘

तभी विट वसन्त सेना को नीचे उतारता है। वसंत सेना एक तरफ खड़ी होकर कांपने लगती है।

शकार का क्रोध और भड़क जाता है। वह अपमान का बदला लेना चाहता है। वह विट को वसन्त सेना को मारने का आदेश देता है, मगर वसन्त सेना को विट नहीं मारता। फिर वह श्थावरक को कहता है, वह भी सोने के लालच के बावजूद वसन्त सेना को नहीं मारता। तब क्रोध में शकार स्वयं वसन्त सेना को मारने के लिए आगे बढ़ता है। विट उसे रोकता है। विट वसन्त सेना की रक्षा हेतु पास में छुप जाता है। शकार वसन्त सेना को प्यार करने के लिए तैयार होता है लेकिन वसन्त सेना उसे प्रताड़ित करते हुए कहती है --

‘एक बार आम खाने के बाद में आक को मंुह नहीं लगाती।‘ शकार को पुनः क्रोध आता है। वह स्वयं को अपमानित महसूस करता है।

शकार क्रोध में उसे मारने दौड़ता है। वसन्त सेना आर्तनाद करती है।‘ मां ? आर्य चारूदत्त को पुकारती है। मगर शकार वसन्त सेना का गला दबा देता है। वसन्त सेना आर्य चारूदत्त को पुकारती-पुकारती बेहोश हो जाती है। शकार उसे मरा समझ कर दूर बैठ जाता है।

विट वापस जाता है तो बाग के रास्ते में वसन्त सेना को पड़ा देखता है। वह चिल्लाता है।

‘नीच पापी तूने वसन्त सेना को मार डाला। तूने अत्याचार क्यों किया ? अब भगवान ही भला करेंगे।‘

विट शकार को देखकर वसन्त सेना के बारे में पूछता है, उसे अपनी धरोहर बताता है। मगर शकार बताता है कि वह तो चली गयी शायद पूर्व की ओर या दक्षिण की ओर। लेकिन बाद में विट को बता देता है कि उसने वसन्त सेना को मार कर बदला ले लिया। विट यह सुनकर मूर्छित हो जाता है।

श्थावरक भी अपने आपको इस हत्या का अपराधी समझता है। शकार वसन्त सेना की हत्या का आरोप विट पर लगा कर उसे फंसाना चाहता है। शकार विट को अपराध स्वीकार करने की सलाह देता है। विट तलवार खींच कर लड़ने का प्रयास करता है। वह श्थावरक को अपने गहने देकर अपनी तरफ मिलाने का प्रयास करता है, मगर श्थावरक नहीं मानता वह श्थावरक को महल भेज देता है। बाद में बुर्जी में कैद कर देता है। अब शकार वसन्त सेना के शरीर को सूखे पत्तों से ढक लेता है। और न्यायाधीश के पास जाकर फरियाद करने की योजना बनाता है, ताकि वसन्त सेना की हत्या का अभियोग चारूदत्त पर लगा सके। शकार बाग से निकल भागता है। तभी एक बौद्ध भिक्षु उस रास्ते से निकलता है। वह वसन्त सेना को सूखे पत्तों से निकालता है। पानी पिलाता हैै। वसन्त सेना को होश आता है। भिक्षु उसे पहचान लेता है, कहता है-

‘आपने मेरी जान जुआरियों से बचाई थी।‘ भिक्षु उसे विहार में ले जाकर आराम से ठहरा देता है। भिक्षु की बहन वसन्त सेना की सेवा करती है। वसन्त सेना शीघ्र ही स्वस्थ हो जाती है। वसन्त सेना मन ही मन चारूदत्त को याद करती हैं।

***

किसी भी राज्य में कानून और व्यवस्था का सुचारू रूप से चलना बहुत आवश्यक है। राज्य में सुख, समृद्धि तथा शांति कानून और व्यवस्था पर निर्भर हैं। अपराधी को दंड और निरपराधी को माफी बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। न्याय व्यवस्था इसीलिए होती है कि नियम व कानून सब पर बराबरी से लागू हो। कानून से ऊपर कोई नहीं है। न्याय तथा न्याय व्यवस्था का सम्मान हर नागरिक का कर्तव्य है। राज सत्ता भी न्याय से ऊपर नहीं है, लेकिन यदि किसी कारणवश अपराधी खुले घूमें तो सम्पूर्ण व्यवस्था चरमरा जाती है, और इस टूटती जर्जर होती व्यवस्था में से एक नई व्यवस्था जन्म लेती है, जो ज्यादा सुदृढ़, ज्यादा मजबूत और ज्यादा स्थिर होती है। स्थिरता से ही समाज में समरसता एवं समृद्धि आती है। न्याय इस सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखता है।

उज्जयिनी नगर में भी न्याय के लिए न्यायालय थे।

न्यायालय के अधिकारियों की आज्ञा पाकर शोधनक न्यायमंडल के आसनों को जमा रहा है। आसनों की तथा कक्षों में सब तरफ की सफाई कर रहा है। इसी समय राजा का साला शकार भड़कीलें कपड़ों में प्रवेश करता है। शोधनक उससे बचना चाहता है। शकार न्यायालय में वसन्त सेना की हत्या का पाप गरीब चारूदत्त के ऊपर लगाने को उपस्थित हुआ है। वह जानता है कि निर्धन पर सब कुछ थोपा जा सकता है। वह न्यायालय में आता है। इसी समय न्यायाधीश न्यायालय में प्रवेश करते हैं। उनके साथ सेठ, कायस्थ आदि भी चल रहे हैं। शोधनक न्यायाधीश, सेठ व कायस्थ को न्यायालय के मुख्य कक्ष में ले जाता है। न्यायाधीश की आज्ञा पाकर शोधक बाहर आकर लोगों से अपील करता है कि जो लोग न्याय मांगने आये हैं वे अपना पक्ष प्रस्तुत करने हेतु माननीय न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत हो। तभी शकार घंमड से बोलता है --

‘मैं राजा का शाला शंस्थानक न्याय की मांग करता हूं।‘

‘शोधनक अन्दर जाकर सूचना देता है कि राजा का साला संस्थानक न्याय मांगने हेतु उपस्थित हुआ है।‘ शोधनक की बात सुन कर न्यायाधीश कहते हैं।

‘आज अवश्य कुछ अनर्थ होगा। तुम राजा के साले से जाकर कह दो कि आज उसके अभियोग पर विचार नहीं हो सकेगा।‘

यह सूचना जब राजा के साले शकार यानि संस्थानक को मिलती है तो वह क्रोध में न्यायाधीश को आज ही अभियोग पर विचार करने की अपील करता है। शोधनक पुनः न्यायाधीश से निवेदन करता है। न्यायाधीश शकार की बात सुनने के लिए उसे कक्ष में बुलाते हैं।

न्यायाधीश -‘ आप न्याय चाहते हैं।‘

शकार -‘हां।‘

न्यायाधीश -‘तो बोलिये क्या बात है ?‘

शकार अपने परिवार की प्रशंसा करता है। मगर न्यायाधीश उसे मूल बात कहने को प्रेरित करते हैं।

शकार -‘तो सुनिये। मेरी बहन के प्रिय राजापालक ने मुझे पुष्पकरण्डक बाग उपहार में दिया है। आज जब मैं वहां पर गया तो मैनें वहां पर एक स्त्री के शव को देखा।‘

न्यायाधीश -‘कौन सी स्त्री।‘

शकार-‘उसको कौन नहीं जानता। वह तो उज्जयिनी नगरी की शोभा वसन्त शेना थी। किसी अपराधी ने उसको धन के लालच में मार डाला।

मैनें नहीं......।‘

न्यायाधीश -‘सेठ। कायस्थ। तुम इन बयानों को लिख लो। यह नगरी के पहरेदारों की असावधानी का फल है।‘

शकार -‘वसन्त शेना के शरीर पर कोई गहना नहीं था।‘

न्यायाधीश -‘इस मामले में निर्णय होना मुश्किल है। शोधनक वसन्त सेना की मां को बुलाओ।‘

वसन्त सेना की मां को न्यायालय में प्रवेश मिलता है। वह वृद्धा, मोटी, चपला, गणिका की मां की तरफ लगती है।

‘मेरी पुत्री तो अपने मित्र के यहां पर गई हुई है। आपने मुझे यहां क्यों बुलाया हैं ? ईश्वर आपका कल्याण करें।‘

न्यायाधीश वसन्त सेना की मां से प्रश्न करते हैं।‘

‘आपकी पुत्री किस मित्र के यहां गई थी ? उस मित्र का क्या नाम है ?‘

मां -‘मेरी पुत्री कहां गई थी। यह बताना तो बड़ी सजा की बात है, मगर न्याय की खातिर सब बताना आवश्यक भी है, मेरी पुत्री सागरदत्त के पुत्र आर्य चारूदत्त के यहां पर गई थी।‘

शकार -‘इन शब्दों का भी अंकन कीजिये। इसी चारूदत्त से मेरी लड़ाई है।‘

न्यायाधीश -‘अब न्याय से पूर्व आर्य चारूदत्त को बुलाना भी आवश्यक है।‘

न्यायाधीश शोधनक को चारूदत्त को न्यायालय में प्रस्तुत करने का आदेश देता है। शोधनक आर्य चारूदत्त को लेकर न्यायालय में प्रवेश करता है। आर्य चारूदत्त चिंतित मुद्रा में न्यायालय में आते हैं। सोचते हैं - गरीब आदमी की बड़ी मुसीबत है। क्या आर्यक और मेरी वार्ता का समाचार शासन को मिल गया है। चारों तरफ अपशुकन हो रहें हैं। मुझे अपराधी की तरह क्यों बुलाया जा रहा है। क्या कोई भयानक दुर्घटना होने वाली है। ईश्वर मेरी रक्षा करे। यह सोचते हुए वे न्यायालय में उपस्थित होते हैं।

न्यायाधीश चारूदत्त के स्वरूप को देखकर प्रशंसात्मक मुद्रा में सोचते हैं, यह युवक दोषी नहीं हो सकता। वे चारूदत्त को बैठने के लिए आसन लगाने का आदेश देते हैं। आर्य चारूदत्त को देखकर शकार क्रोधित हो जाता है। कहता है --

‘तुम हत्यारे हो, तुमने स्त्री की हत्या की है। तुम्हें आशन नहीं दंड मिलना चाहिए।‘

तभी न्यायाधीश शकार को चुपकर चारूदत्त से पूछते हैं --

‘क्या आप इस वृद्धा की लड़की को जानते हैं ? उससे आपका कोई संबंध है ?‘ वसन्त सेना की मां को देखकर चारूदत्त शर्मा जाते हैं। न्यायाधीश स्पष्ट रूप से कहने में निर्देश देते हैं तो चारूदत्त बोलते हैं।

‘जी हां, वसन्त सेना, मेरी मित्र है।‘

न्यायाधीश -‘इस समय वसन्त सेना कहां हैं ?‘

-‘अपने घर होंगी।‘ चारूदत्त ने सीधा उत्तर दिया। सेठ कायस्थ -‘कब गई ? किसके साथ गई ? कैसे गई ? सब सच-सच बताओ।‘

चारूदत्त -‘अब ये सब मैं क्या बताऊं ?‘

शकार -‘तुमने उशे मेरे बाग में ले जाकर मार डाला।‘

चारूदत्त यह सुनकर क्रोधित हो उठता है।

‘अरे बकवादी क्यों झूठ बोल रहा है। तेरा मुँह झूठ बोलने से काला पड़ गया है।‘

न्यायाधीश विचार करते हैं आर्य चारूदत्त ऐसा अपराध कैसे कर सकते हैं। यह राजा का साला अवश्य झूठ बोल रहा है, मगर सही स्थिति का पता कैसे लगे ? अपनी बेटी की हत्या के समाचार से वसन्त सेना की मां रोने लग जाती है।

तभी न्यायाधीश न्यायालय में नगर रक्षक आते हैं, न्यायाधीश उन्हें पुष्परण्डक बाग में जाकर मरी पड़ी लाश की जानकारी लेने का आदेश देते हैं।

न्यायाधीश के आदेश पर नगर रक्षक बाग में चले जाते हैं। शकार न्यायाधीश को कहता है --

‘आप कब तक इश नीच चारूदत्त को आशन पर बिठायेंगे। इसे तो शजा मिलनी चाहिए। राजा।‘

तभी चारूदत्त का विदूषक मित्र मैत्रेय भी न्यायालय में आ जाता है।

मैत्रेय चारूदत्त से पूछते हैं-

‘क्या बात है मित्र कुशल तो हैं ?‘

‘मेरे ऊपर अभियोग है कि मैंने वसन्त सेना को...। अब मेरा क्या होगा ?‘

‘क्या ?‘

‘हां अभियोग चल रहा है।‘ मैं गरीब निर्धन ब्राह्माण हूं, इसलिए मेरी बात पर कोई विश्वास नहीं कर रहा है। हे मित्र, मैत्रेय ये क्या हो गया ? तभी मैत्रेय के पास स्वर्ण के आभूषण देखकर शकार कहता है -

- माननीय न्यायाधीश ये गहने वशन्त शेना के ही है। इन्हीं गहनों के लिए उसकी हत्या कर दी गई है।‘

चारूदत्त और भी अभियोग में फंस जाता है। सेठ-कायस्थ गहनों की परख वसन्त सेना की मां से कराते हैं।

मां -‘ये गहने वैसे ही है, मगर वे नहीं है ?‘

कायस्थ -‘एक बार पुनः देखिये।‘

मां -‘देख लिये वे गहने नहीं है।‘

न्यायाधीश चारूदत्त के अभियोग पर विचार करते हैं।

‘मैं आपसे निवेदन करता हूं कि आप सच बोले। नहीं तो दंड के भागी होंगे।‘

चारूदत्त -‘अब मैं क्या कहूं। मैं निर्दोष हूं।‘

शकार -‘ कह दें उसे मैंने मार दिया है।‘

चारूदत्त -‘आपने तो कह ही दिया है।‘

शकार -‘देखा आप लोगों ने इशने ही वशन्त शेना को मार डाला है अब इसे दण्ड दीजिये।‘

न्यायाधीश -‘शकार का कथन उचित है। चारूदत्त को बंदी बना लो।‘

वसन्त सेना की मां रोती है। कलपती है। शोधनक उसे बाहर छोड़ आता है। न्यायाधीश शोधनक को आदेश देते हैं कि महाराज पालक को इस अभियोग की सूचना दी जाये। ब्राह्माण को मारा नहीं जा सकता मगर देश निकाला दिया जा सकता है। यह निर्णय अब महाराज को ही करना है।

महाराज का आदेश शोधनक सुनाता है जिन गहनों के कारण वसन्त सेना की हत्या हुई है, उन्हीं गहनों को पहनाकर चारूदत्त को दक्षिण मरघट पर फांसी पर लटका दिया जावे। इस हृदय विदारक समाचार को सुनकर चारूदत्त अपने मित्र मैत्रेय से कहता है --

‘मेरे मित्र जाओ मेरी प्राणप्रिया धूता को इस दुखद समाचार से अवगत कराओ और कहना मेरे बाद मेरे बच्चे को पालन करे।‘

‘मित्र जब जड़ ही सूख जायेगी तो पेड़ कैसे चलेगा।‘ मैत्रेय बोला।

‘ऐसा न कहो मित्र। मेरे ऊपर तुम्हारा जो प्रेम है उसे रोहसेन पर समर्पित कर दो।‘ चारूदत्त रुधें गले से कहता है।

‘मित्र मैं तुमसे बिछड़ कर जी कर क्या करुंगा ?‘

‘एक बार मुझे रोहसेन और धूता से मिला देना।‘चारूदत्त फिर कहता है।

न्यायाधीश महोदय चारूदत्त को ले जाने का आदेश देते हैं। वे फांसी देने वाले कर्मचारियों को तैयार रखने के भी आदेश देते हैं। शोधनक चारूदत्त को काराग्रह मेंं ले जाता है। मैत्रेय घर की आरे जाकर धूता को सूचित करता है।

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आर्य चारूदत्त को फांसी पर चढ़ाने की तैयारी हो रही है। उन्हें राज कर्मचारी फांसी स्थल तक ले जा रहे हैं। फांसी देने वाली कर्मचारी अनावश्यक भीड़ को हटा रहे हैं। हर चौराहे पर रोक कर प्रजा को उनके अपराध की जानकारी दी जा रही है। चारूदत्त मन में विचार करते हुए चल रहे हैं। भाग्य की लीला का क्या कहना। आज में किस हालत में पहुँच गया। जीवन तो उतार-चढ़ाव का दूसरा नाम हैं। शरीर पर चंदन लगा दिया गया है। तिल, चावल, कुकुम लग गया है। अब अन्त समीप है। दुःख है कि निर्दोष होने के बावजूद सजा मिल रही है।

कर्मचारी लोगों को दूर हटा रहे हैं। प्रथम चौराहे पर कर्मचारी ढिंढोरा पीट कर लोगों को चारूदत्त के अपराध और सजा की घोषणा करते है कर्मचारी कहता हैं --

‘सुनो, प्रजा जनो सुनो। आर्य चारूदत्त पिता सागरदत्त ने धन के लोभ में गणिका वसन्त सेना को पुष्पकंडरक बाग में ले जाकर मार डाला है। गहनों सहित उन्हें पकड़ लिया गया है और राजापालक ने उन्हें सूली पर चढ़ाने की आज्ञा दे दी है। यदि कोई दूसरा प्रजाजन भी ऐसा काम करेगा तो दण्ड का भागी होगा। सुनो....। ‘कर्मचारी चारूदत्त को ले चलते हैं। प्रजा में से कोई कहता है --

‘सबका भला करने और भला सोचने वाले आर्य चारूदत्त आज इस दशा को प्राप्त हो गये हैं। वे इस दुनिया से जा रहे हैं। संसार में निर्धन की कोई नहीं सुनता। धनवान, शक्तिशाली की सभी सुनते हैं। ‘हे भाग्य तू भी क्या खेल दिखाता है।‘ राजमार्ग से होते हुए कर्मचारी चारूदत्त को वन स्थल की ओर ले जाते हैं। चारूदत्त वसन्त सेना को याद करते हैं। आर्य चारूदत्त वध-स्थल के पास है। कर्मचारी उन्हें सूली पर चढ़ाने की तैयारी कर रहे हैं। आर्य चारूदत्त अंतिम इच्छा के रूप में अपने पुत्र रोहसेन को देखने की इच्छा प्रकट करते हैं। कर्मचारी रोहसेन को लाते हैं। रोहसेन ‘पिताजी - पिताजी‘ कह कर दौड़ता हुआ है और चारूदत्त से लिपट जाता है। चारूदत्त आंखों में आंसू भरकर पुत्र को देखता है छाती से लगा लेता है - कहता है।

‘हाय मेरे पुत्र - हाय मेरे मित्र मैत्रेय । यह सब देखना भी बदा था। मैं अपने पुत्र को क्या दूं। मेरी जनेऊ तू रख ले पुत्र। जनेऊ अलंकार है पुत्र। तू इसे ग्रहण कर।‘

राजकर्मचारी चारूदत्त को ले जाने लगते हैं।‘

रोहसेन कर्मचारियों को रोकने की असफल कोशिश करता है। चारूदत्त कंधे पर सूली, गले में करवीर की माला और मन में संताप लिए वध-स्थल की ओर प्रस्थान करते हैं। रोहसेन कर्मचारियों को कहता है --

‘‘तुम मुझे मार डालो। मेरे पिता को छोड़ दो।‘

लेकिन कोई नहीं मानता। आर्य चारूदत्त को लेकर कर्मचारी जाते हैं। रोहसेन रोता रहता हैं। नगर में बार-बार घोषणा की जा रही है कि वसन्त सेना के हत्यारे चारूदत्त को सूली पर लटकाया जा रहा है। यह सूचना स्थावरक को मिलती है। वह महल से चिल्लाता है -‘ सुनो लोगों आर्य चारूदत्त निर्दोष है। मैं ही गाड़ी बदल जाने के कारण आर्या वसन्त सेना को पुष्पकरडंक वन में ले गया था। वहीं पर राजा के साले शकार ने वसन्त सेना को मार कर अपने अपमान का बदला लिया है।‘ मगर स्थावरक की आवाज महल में होने के कारण लोगों को सुनाई नहीं देती। स्थावरक महल से कूद कर आर्य चारूदत्त को बचाने का प्रयास करता है। वह कूद पड़ता है, उसकी बेड़ी भी टूट जाती है। वह तेजी से दौड़ कर रास्ता बनता हुआ सूली देने वाले कर्मचारियों तक पहुंचता है। वह घोषणा करता है --

‘राजा के साले शकार ने वसन्त सेना को गला घोंट कर मार डाला है क्योंकि वह राजा के साले को प्यार नहीं करती थी। उसने वसन्त सेना को मार कर अपने अपमान का बदला लिया है।‘

कर्मचारी -‘ क्या तुम सच बोल रहे हो ?‘

‘हां मैं सच बोल रहा हूं। यह बात किसी से कहंू नहीं इसलिए शकार ने मेरे को जकड़ कर महल की बुर्जी पर फेंक दिया था। मैं बुर्जी से कूद कर आया हूं ताकि निर्दोष चारूदत्त की जान बचा सकूं। ‘तभी शकार भी वहां पर आ जाता है। स्थावरक उसे देखकर कहता है ‘ यही है वसन्त सेना का हत्यारा। राजा का साला शकार।

शकार स्थावरक को समझाना चाहता है, मगर स्थावरक नहीं मानता है। शकार कहता है -

‘मैं तो बहुत दयालु हूं। मैं किसी स्त्री को कैसे मार शकता हूं।‘

प्रजानन -‘वसन्त सेना को तुमने ही मारा है। चारूदत्त ने नहीं मारा है। तुम हत्यारे हो।‘

शकार -‘कौन कहता हैं ?‘

प्रजानन -‘स्थावरक कहता है।‘

शकार स्थावरक को पुनः अपनी ओर करने के प्रयास करता है। मगर स्थावरक जोर से कहता है।

‘दखो लोगों इसने मुझे यह कंगन देकर मुझसे चुप रहने के लिए कहा था। मगर मैं सच कहंूगा।‘

शकार कंगन ले लेता है और कहता है।

‘यही वह कंगन है जिशके कारण मैने इसे बांधा था। यह चोर है। मैंने इसे खूब मारा था। इसकी पीठ पर मार के निशान भी है। कंगन की चोरी के कारण ही यह बुर्जी पर बंदी था।‘ स्थावरक की बात पर अब कोई विश्वास नहीं करता। चारूदत्त पुनः निराश हो जाता है। शकार स्थावरक को मार पीट कर भगा देता है और राज कर्मचारियों को फांसी जल्दी लगने का हुक्म देता है तभी रोहसेन रोता हुआ आता है। शकार उसे भी चारूदत्त के साथ फांसी दे देने का आदेश देता है। चारूदत्त अपने पुत्र को समझा बुझा कर मां के पास जाने का आदेश देता है। कहता है --

‘बेटे अपनी मां को लेकर तपोवन चला जाना। रोहसेन तुम जाओं। मित्र मैत्रेय इस ले जाओ।‘ रोहसेन को लेकर मैत्रेय चला जाता है। शकार रोहसेन को भी मारने को कहता है मगर राज कर्मचारी ऐसा करने से मना कर देते हैं। राज कर्मचारी चारूदत्त के वध की अंतिम तैयारी करते हैं। शकार चारूदत्त को डण्डे से पीटने के लिए कहता है ताकि वह अपना अपराध स्वीकार करे। लोगों से कहें कि हां हत्या उसने ही की है। राज कर्मचारी चारूदत्त को मारते है। चारूदत्त मार के डर से स्वीकार करता है --

‘हे नगरवासियों वसन्त सेना की हत्या मैंने की है। मैंने ही वसन्त सेना को मारा है।‘

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दोनां राज कर्मचारी आपस में विचार कर रहे हैं, सूली पर चढ़ाने की बारी किसकी है, दोनों यह काम नहीं करना चाहते, क्योंकि चारूदत्त से उपस्कृत है। वे जल्दी भी नहीं करना चाहते। पहला दूसरे से पूछता है --

‘फांसी देने में जल्दी क्यों नहीं करनी चाहिए।‘

‘कभी-कभी कोई भला आदमी धन देकर मरने वाले को छुड़ा लेता है। कभी राजा की आज्ञा से अपराधी को छोड़ दिया जाता है और कभी राज्य में क्रान्ति हो जाने से सत्ता बदल जाती है और सभी अपराधियों को आम माफी दे दी जाती है। क्या पता आज भी इनमें से कोई घटना घट जाये।‘ आर्य चारूदत्त का जीवन बच जाये।‘

मगर शकार इस काम में देरी नहीं करना चाहता। वह जल्दी से जल्दी फांसी दिलाना चाहता है।

प्रथम राज कर्मचारी -‘आर्य चारूदत्त ईश्वर का ध्यान करे। आपका अन्त समय निकट है।‘

चारूदत्त उच्च स्वर में कहता है -‘अगर मैं सच्चा हूं, तो वसन्त सेना कहीं से भी आकर मुझे इस कलंक से मुक्त करें।‘

कर्मचारी चारूदत्त को ले चलते हैं। शकार जल्दी करने को कहता है चारूदत्त को ले चलने में देरी होने पर कर्मचारी को डांटता डपटता है। आर्य चारूदत्त को वध स्थल तक पहुँचा दिया गया है।

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वसन्त सेना बौद्ध भिक्षु के साथ बिहार से नगर की ओर आ रही है। अचानक एक दिशा में भारी भीड़ को देखकर वह भिक्षु की जानकारी प्राप्त करने के लिए निवेदन करती है। भिक्षु बताते हैं --

-आर्य आपकी हत्या के आरोप में आर्य चारूदत्त को सूली पर चढ़ाने के लिए वध स्थल की ओर ले जाया जा रहा है।‘

‘आर्य चारूदत्त को सूली.....मुझे शीघ्र उस स्थान की ओर चलिये भिक्षु - प्रवर।‘

भिक्षु और वसन्त सेना तेजी से भीड़ को चीरते हुए आगे बढ़ते हैं। राज कर्मचारी चारूदत्त को सीधे लेट जाने का आदेश देते हैं। जल्लाद ज्योंहि तलवार से वार करना चाहता है कि तलवार उसके हाथ से गिर जाती है। कमर्चारी प्रसन्न होता है कि शायद चारूदत्त की जान बच जाये। मगर दूसरा कर्मचारी जल्दी से चारूदत्त का वध करने को कहता है। तभी भिक्षु और वसन्त सेना वध स्थल तक पहुँच जाते हैं। वे जोर से कहते हैं --

‘ठहरो ।.....‘ठहरो ।.....रुक जाओ। आर्य चारूदत्त को सूली पर मत चढ़ाओ।‘ वसन्त सेना प्रजा की आरे देख कर कहती है।

‘प्रजाजनों में ही वह वसन्त सेना हूं जिसकी हत्या के आरोप में आर्य चारूदत्त को सूली पर चढ़ाया जा रहा है। मैं जीवित हूं। आर्य चारूदत्त निर्दोष हैं। वसन्त सेना और चारूदत्त आपस में लिपट जाते हैं। भिक्षु चारूदत्त के चरण छूकर कहता है।‘

‘मैं आपका पूर्व सेवक संवाहक हूं। आपने ही मुझे इस शहर में अपनी सेवामें रखा था। जुए की लत में सब कुछ हार जाने के बाद भिक्षु बन गया था।‘ वसन्त सेना के जीवित होने का समाचार बड़ी तेजी से प्रजा में फैल जाता है। महाराज तक भी पहँुचता है। शकार यह जानकर घबरा जाता है कि वसन्त सेना जीवित है। वह भागना चाहता है। मगर तभी राज कर्मचारी राजापालक की आज्ञा से शकार को पकड़ लेते हैं।

चारूदत्त वसन्त सेना को देखकर प्रसन्न हो जाते हैं। वे कहते हैं -- -वसन्त सेना। प्रिये तुम अचानक संजीवनी बूटी की तरह यहां तक कैसे पहुँच गई। मैं तो मर ही गया था । मगर अब मेरी जान बच गई।‘

वसन्त सेना सार्वजनिक रूप से घोषणा करती है कि राजा के साले शकार ने उसे मारने की कोशिश की थी। जन आक्रोश राजा के साले के विरूद्ध उमड़ पड़ता है। तभी शर्विलक आकर प्रजाननों के सामने घोषणा करता है कि दुष्ट राजा पालक का वध कर दिया गया है और गोप पुत्र आर्यक का राज्याभिषेक कर दिया गया है। राजा आर्यक अब स्वयं आर्य चारूदत्त के जीवन की रक्षा करेंगे।‘

शर्विलक चारूदत्त और वसन्त सेना को देखकर प्रणाम करता है। चारूदत्त उसे परिचय देने को कहते हैं। शर्विलक शर्म के साथ कहता है -

‘मैंने ही आपके धर में सेंध लगाकर आर्या वसन्त सेना के आभूषण चुराये थे। मैं आपका अपराधी हूं। आपकी शरण में हूं। मेरी रक्षा करें।‘

‘नहीं तुम तो मेरे मित्र हो। मैं प्रसन्न हूं।‘

‘एक ओर शुभ समाचार है कि राजा आर्यक ने गद्दी पर बैठते ही आपको वैणा नदी के किनारे वाला कुशावती राज्य दे दिया है। आप अब स्वयं राजा हैं।‘ शर्विलक कहता है।

तभी राज कर्मचारी शकार को पकड़ कर लाते हैं। शकार मारे डर के घबरा रहा है। कहता है --

‘मैं अनाथ अब किसकी शरण में जाऊं। मुझे शर्व दुःख हरने वाले चारूदत्त की शरण में जाना चाहिए।‘वह आर्य चारूदत्त के चरणों में गिरकर रक्षा की भिक्षा मांगता है। आर्य चारूदत्त उसे अभयदान देते हैं।

शर्विलक आर्य चारूदत्त से कहता है -‘आप जो भी दण्ड कहेंगे इस शकार को वहीं दण्ड दिया जायेगा।‘

‘चारूदत्त - ‘जो मैं चाहूंगा। वही होगा।‘

शर्विलक - ‘अवश्य भगवन।‘

शकार - ‘ मेरे प्रभो। मैं आपकी शरण में हूं। ऐशा बुरा काम फिर कभी नहीं करूंगा। मुझे बचालो भगवन ।‘

वसन्त सेना शकार को देखकर फांसी का फंदा चारूदत्त के गले से निकाल कर उस पर फेंक देती है।

शर्विलक फिर कहता है -‘आर्य चारूदत्त के आदेशों की पालना की जायेगी।

‘परम दयालु आर्य चारूदत्त शकार को क्षमा कर देते हैं। शकार शर्मिन्दा होकर चुपचाप चला जाता है।

आर्य चारूदत्त के जीवित होने तथा वसन्त सेना के सकुशल होने का समाचार मैत्रेय धूता तथा रोहसेन तक पहुँचाता है। सब परम् प्रसन्न होते हैं। धूता वसन्त सेना से गले मिलती है।

तभी आर्य चारूदत्त वसन्त सेना को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करने की घोषणा करते हैं। वसन्त सेना चारूदत्त के चरण स्पर्श करती है। वसन्त सेना चारूदत्त की वधू बन गयी। वसन्त सेना का सिर आंचल से ढ़क दिया जाता है। शर्विलक को सभी बौद्ध विहारों का कुलपति बना दिया जाता है। राज कर्मचारियों को भी पारितोषिक दिया जाता है। आर्य चारूदत्त, धूता, रोहसेन, वसन्त सेना, मैत्रेय, रदनिका सभी प्रसन्न हैं। अपने आवास में लौट आते हैं।

सत्य की विजय हो।

शिव की जय हो।

सुन्दर का सम्मान हो।

सब सत्यम् शिवम् सुन्दरम् सुने, कहें, देखे और भोगे।

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