वर्षा : घनपति से घनश्यागम तक (निबंध) : हजारीप्रसाद द्विवेदी
Varsha : Ghanpati Se Ghanshyagam Tak (Hindi Nibandh) : Hazari Prasad Dwivedi
वसंत के समान ही वर्षा भी भारतीय साहित्य में सम्मान और गौरव का स्थान पाती आ रही है। वैदिक ऋषियों ने मेघों के शक्तिशाली और औढरदानी रूप का यशोगान उल्लसित कंठ से किया है। पर्जन्य देवता के वज्र निनाद, विद्युतलोक और धारासार वर्षा में शक्तिशाली महारथी का रूप स्पष्ट हो उठता है। वैदिक ऋषि ने इस वीरत्वपूर्ण पक्ष को सदा ध्यान में रखा है। ऋग्वेद के पाँचवें मंडल के 83वें सूक्त में उस वैदिक महाशक्तिशाली, महादाता और भीम गर्जनकारी पर्जन्य देवता की स्तुति की गई है जो वृषभ के समान निर्भीक हैं और पृथ्वीतल की औषधियों में बीजारोपण करके नवीन जीवन की सूचना ला देते हैं। वे वृक्षों का ताड़न करते हैं, राक्षसों का वध करते हैं और अपने महान अस्त्र से समूचे जगत को त्रस्त विकंपित कर देते हैं। जब पर्जन्य देवता अपने भयंकर गर्जन के साथ असुरों पर वज्र प्रहार करते हैं तो अनागस या निरपराध लोग भी भय से काँप उठते हैं और सामने से भाग खड़े होते हैं। (मेघाडंबर के भीतर जब विद्युत की रेखा आसमान के एक सिरे से दूसरे सिरे तक नाचती रहती है तो वस्तुतः उस समय) पर्जन्य देवता अपने शक्तिशाली घोड़ों पर कशाघात करते हुए उन्हें और भी तेजी से चलने को बाध्य करते हैं। इस प्रकार महारथी की भाँति वे अपने घोड़ों पर बिजली को कोड़ा मारते हुए असुरयूथ पर आक्रमण करते हैं। जब वे मेघाच्छन आकाश में गरजते होते हैं तो ऐसा जान पड़ता है कि दूरस्थ अरण्य गुहा से सिंह दहाड़ रहा है। अद्भुत शक्तिशाली है ये मेघ-मंडल के अंतराल में शयान पर्जन्य देवता। इनके इंगितमात्र से बिजली कड़कती है, आँधी उमड़ती है, मेघ घुमड़ते हैं। एक ओर तो इनमें महारुद्र का भीम निःस्वन (आवाज) है और दूसरी ओर पृथ्वी तल की औषधियों में रेत-संचार करते रहने के कारण ये जगत को अशेष कल्याण से मंडित करते रहते हैं। वैदिक ऋषि ने सदा भय और आतंक के अंधकार में कल्याण की ज्योति देखी है। पर्जन्य देवता के भीम गर्जन में इसी कल्याण का संदेश है - रुद्र के दक्षिण मुख का प्रसाद है। ऐसा नहीं होता तो धरती इस प्रकार तृणशद्वलों से शोभित नहीं हो उठती, औषधियाँ नया जीवन पाकर मनुष्य को कल्याणदान करने में समर्थ न होतीं। पर्जन्य देवता वीर हैं, भयंकर हैं, कल्याणदाता हैं।
वैदिक साहित्य का यही प्रधान स्वर है। इंद्र मेघों के अधिपति हैं, वे पर्जन्य देवता हैं। मेघ-निःस्वन में इस वज्रधर देवता का दर्शन पाकर वैदिक ऋषि गद्गद् हो उठता है।
कहते हैं, संसार की सभी जातियों की आदिम कृषि जीवी अवस्था में इसी प्रकार का एक सश्रद्ध भीत-भीत भाव मिल जाता है। इसीलिए यह भी कहा जाता है कि वैदिक ऋषि कुछ इसी प्रकार के भाव से चालित होकर अपनी स्तुति गाता है, परंतु बहुत पहले मैक्समूलर ने इस बात के एक विशिष्ट पक्ष की ओर ध्यान दिलाया था। वैदिक ऋषि प्राकृतिक व्यापारों के भीतर जिस महादेवता को देखता है, वह एक महान् व्यापक परम सत्ता है, भिन्न-भिन्न छोटे-बड़े, परस्पर स्वतंत्र या अवलंबित बहुदेवता नहीं। आजकल मैक्समूलर की उस बात को याद रखने की आवश्यकता नहीं समझी जाती। जो हो, इसमें कोई संदेह नहीं। कि वैदिक ऋषि मेषों के अधीश्वर इंद्र को पौरुष और औदार्य का पूर्ण रूप मानता है। उनके अधीनस्थ मेघों की कड़क, बिजली की तड़क और काली घटाओं में सूर्य जैसे महातेजस्वी को भी आच्छादित कर देने की महान् सामर्थ्य श्रद्धा और भय दोनों को जाग्रत करते हैं। दीर्घकाल तक इंद्र देवता अपने शक्तिशाली बज्र और विद्युत के कारण तथा औषधियों का सेवन करनेवाले महान् गुण के कारण श्रद्धा और भक्ति पाते रहे हैं। परंतु भारतवर्ष की बहुधा-विचित्र संस्कृति के इतिहास में एक दिन ऐसा भी आया जब इंद्र देवता अपने शक्तिशाली मेघों के घोड़ों और बिजली के कोड़ों का प्रयोग करके भी जीत नहीं सके। जिस दिन उनका आतंक असफल हुआ, उसी दिन वे जनता की श्रद्धा भी खोने लगे। 'इंद्र' देवता के इस ह्रास के बाद 'उपेंद्र' देवता ने भारतवर्ष के धर्म, साहित्य, शिल्प संगीत और कला के क्षेत्र को छा लिया। घनों के राजा रंगमंच से चुपचाप हट गए और घनश्याम वहाँ डट गए।
हिंदू पुराणों के अनुसार यह घटना द्वापर में घटी थी। 'भागवत' पुराण में विस्तारपूर्वक बताया गया है कि किस प्रकार श्रीकृष्णचंद्र ने इंद्र की पूजा रोकवाकर गोवर्धन की पूजा करवाई थी, इंद्रदेवता चुप नहीं बैठे। अपनी स्थिति सम्हालने के लिए उन्होंने भरपूर कोशिश की। अपने सबसे भयंकर मेघों के संवर्तक नामक गण को बुलाकर आज्ञा दी कि ''इन धनोन्मत और श्रीकृष्ण द्वारा भुलाए हुए गोपालों का ऐश्वर्यमद धूल में मिला दो और उनके पशुओं को नष्ट कर डालो। मैं नंद के ब्रज का नाश करने के लिए ऐरावत हाथी पर चढ़कर और मरुद्गणों को साथ लेकर तुम्हारे पीछे आता हूँ।'' मेघों ने प्रलयकांड मचा दिया। भयंकर गर्जन के साथ बारंबार उन्होंने विद्युत का प्रयोग किया, आँधी और बवंडर आए, धरती कलमला उठी। निरंतर मूसलाधार वर्षा से द्युलोक से भूलोक तक जल ही जल दिखाई देने लगा, गोप-गोपीगण त्राहि-त्राहि कर उठे, गायें काँप उठीं, हाहाकार मच गया, पर इंद्रदेवता श्रीकृष्ण को नहीं जीत सके। एक ही अँगुली पर श्रीकृष्ण ने गोवर्धन को धारण किया। मेघ बरसते रहे, बिजली कौंधती रही, जल धारा झरती रही।
सूरदासजी ने अपनी शक्तिशाली भाषा में इस घटना का वर्णन इस प्रकार किया है :
मेघदल प्रबल ब्रज लोग देखें।
चकित जहँ तहँ भये निरखि बादर नए
ग्वाल-गोपाल डरि गगन पेखें।।
ऐसे बादर सजल करत अति महाबल,
चलत घहरात करि अंधकाला।
चकित भये नंद सब महर चकित भये,
चकित नर नाहि हरि करत ख्याला।।
घटा घन घोर हहरात, अररात,
दररात, थररात ब्रज लोग डरपे।
तड़ित आघात तररात उतपात सुनि,
नारि नर सकुचि तन प्रान अरपे।।
कहा चह होन, भई कबहुँ नहिं जौन,
कबहुँ आँगन कबहुँ भौन विकल डोलैं।
मेटि पूजा इंद्र, नंदसुत गोविंद,
सूर प्रभु आनंद सह करि कलोलैं।।
और,
बादर बहु उमड़ि घुमड़ि, बरषत व्रज आए बढ़ि,
कारे धौरे धूमरे धारे अति हीं जल।
चपला अति चमचमाति, ब्रज जन मन अति डराति,
टेरत सिसु पिता मात, ब्रज में भयो गलबल,
गरजत धुनि प्रलयकाल, गोकुल भयो अंधजाल,
चकित भये ग्वाल-बाल घहरत नभ हलचल।
पूजा मेटी गुपाल, इंद्र करत चहै हाल,
सूर श्याम राखों ब्रज हरबर अब गिरिवर बल।।
इस प्रकार समूचा ब्रज कंपित हो उठा। मेघों के प्रचंड दल दिन और रात झकोर-झकोरकर बरसते रहे, आकाश और धरती का अंतर मिट गया। पेड़ पौधे भी त्राहि-त्राहि कर उठे। नंदबाबा घबरा गए। जसोदा मैया डर गईं, गोपबालकों और गोपियों के हृदय में शंका और भीर्ति के भाव घुमड़ आए, लेकिन एक ही बालक उसमें अचल बना रहा। क्रुद्ध देवराज के क्रुद्धतर सैनिक गरजते रह गए, अशनिपात से वायुमंडल फटता रह गया, प्रचंड वायु के वेग से धरित्री कलमला कर रह गई, पर पर्जन्य सेना के अधिपति इंद्रदेवता का उद्देश्य सिद्ध नहीं हुआ। प्रलयपूर का दृश्य उपस्थित हो गया, नीचे से ऊपर तक बारिधारा का अखंडधार व्याप्त हो रहा, समूचा ब्रजमंडल विपत्ति के पहाड़ के नीचे दब गया। निस्संदेह इंद्रदेवता का पूर्ण प्रताप प्रकट हुआ। निस्संदेह ब्रजभूमि के निवासी त्राहि-त्राहि कर उठे।
सब हुआ, पर, इंद्रदेवता नंदलाल के चेहरे पर चिंता की हल्की सी भी रेखा नहीं प्रकट करा सके। उस सदाप्रसन्न, सदासरस गोपाललाल के अधरों की मुस्कान नहीं हटा सके - 'न पादपोन्मूलनशक्ति रहाः शिलोच्चये मूर्छत मारुतस्य', आँधी पेड़ को उखाड़ सकती है, पहाड़ का वह क्या बिगाड़ लेगी।
मध्यकाल के साहित्य में श्रीकृष्ण ने संपूर्ण रूप से कवियों और शिल्पियों के चित्त को अभिभूत किया है। इंद्र इस साहित्य में उपेक्षित है। क्वचित् कदाचित याद भी किए जाते हैं तो बहुत बड़े गौरव के साथ नहीं। सारे भारतवर्ष के अभिजात और लोक-साहित्य में इंद्र की पराजय और श्रीकृष्ण की विजय विनोद के साथ सरस शैली में लिखी गई है। मध्यकाल के चित्रशिल्प में तो घटना को बहुत ही मनोरम भंगिमा में व्यक्त किया गया है। हिमालय के पाद देश में नेपाल और तिब्बत की तराइयों में इंद्र-नृत्य और कृष्ण-नृत्य, दोनों का ही प्रचलन है। जब श्रीकृष्ण-नृत्य शुरू होता है तो इंद्र नृत्य समाप्त हो जाता है, इस प्रकार इंद्र की पराजय को और भी मूर्तिमान कर दिया जाता है।
भारतीय साहित्य और संस्कृति के इतिहास में इस घटना के बाद एक और भी महत्वपूर्ण नया अध्याय आ जुड़ा था। इंद्र के एक मामूली मुसाहिब एक समय समृद्ध नागरिक जीवन के प्रधान आकर्षण केंद्र बन गए थे। पुराने वैदिक साहित्य में इनकी कोई चर्चा नहीं मिलती। इनका नाम कामदेव या कंदर्प देवता है। भारतीय साहित्य के रंगमंच पर कब इनका प्रादुर्भाव हुआ यह कहना कठिन है, पर ईसवी सन् के आरंभ होने के बहुत पहले इनके फूलों की मृदु-कठोर अस्त्रावली काफी परिचित हो चुकी थी। भाषा-विज्ञान के पंडित 'गंधर्व' और 'कंदर्प' इन दो शब्दों को किसी एक ही मूल शब्द के संस्कृत रूप मानते हैं। इससे अनुमान किया जा सकता है कि यह शब्द किसी संस्कृत न बोलने वाले लोगों की संस्कृतेतर भाषा से आया है और संभवतः उस भाषा के बोलनेवाले संस्कृत बोलनेवाले लोगों से भिन्न श्रेणी के थे। इस प्रकार अनुमान किया गया है कि गंधर्व और अप्सरसू, जो परवर्ती हिंदू देवता मंडली में इंद्र के अनुचर बन गए हैं, किसी भिन्न संस्कृति के मूल देवता हैं। जो भी हो, उत्तर वैदिक साहित्य में गंधर्व और अप्सराएँ अपरिचित नहीं हैं। इन्हीं गंधर्वों के एक नायक कंदर्प या कामदेवता हैं जो परवर्ती हिंदू साहित्य में मुनियों का व्रत तोड़ने के लिए अप्सराओं की अनीकिनी के साथ प्रायः इंद्र द्वारा नियुक्त होते रहते थे। इंद्र के इशारे पर ये एक बार महादेवजी से भिड़ पड़े थे और बुरी तरह पिट गए थे। परंतु इनकी पत्नी रतिदेवी की कातर प्रार्थना से महादेवजी ने प्रसन्न होकर इन्हें 'अनंग' रूप में प्रभावित करने की शक्ति दी। तब से यह अनंग देवता इतने प्रभावशाली हुए कि संस्कृत और प्राकृत के समूचे साहित्य को अभिभूत कर बैठे।
वर्षा का सबसे सुंदर काव्यात्मक वर्णन आदिकवि (वाल्मीकि) ने किया है। सत्य तो यह है कि आदिकवि ने प्रकृति का जैसा वर्णन किया है वैसा अन्य भारतीय कवि नहीं कर सके। वह प्रकृति का सजीव तथा यथार्थ चित्रण है। वैदिक ऋषि के समान वाल्मीकि ने भी वर्षा में लोककल्याण रूप को देखा है, परंतु उन्होंने प्राकृतिक दृश्यों का ऐसा मनोरम चित्र खींचा है कि अनायास वह दृश्य अपनी शोभा और गरिमा के साथ प्रत्यक्ष हो उठता है। नीचे से ऊपर तक एक पर एक सोपान श्रेणी की भाँति लजी हुई मेघमाल को देखकर आदिकवि ने कहा है कि मेघमाल की सीढ़ियों के सहारे आसमान पर चढ़कर कुटज और अर्जुन की माला से सूर्य अभिनंदन किया जा सकता है।
शक्यमम्बरमारुह्या मेघसोपानपंक्तिभि:।
कुटजार्जुनमालाभिरलंकर्त्तु दिवाकर:।।
ठंडी हवा के लिए वाल्मीकि का यह कहना उसे कितना सहजग्राह्य और प्रत्यक्ष बना देता है कि मेघ के पेट से निकली हुई, कमल कचनार के स्पर्श से शीतल बनी हुई और केतकी पुष्पों की सुगंधि से आमोदित वायु अंजुलि से पी ली जा सकती है :
मेघोदर-विनिर्मुक्ताः कह्नार-सुख शीतलाः।
शक्यमंजलिभिः पातुं वाता: केतकगंधिनः।।
इस वर्षाकाल का वर्णन आदिकवि ने विरही राम के मुख से कराया है, इसलिए कभी-कभी राम के विरह-व्याकुल चित्त की प्रतिध्वनि के रूप में मेघ में कामार्त्त पुरुष और वाष्पवती विरहिणी की चर्चा अवश्य आ जाती है। नहीं तो समूचा वर्षा काल अपने अनासक्त दृष्ट यथार्थ और गौरव गांभीर्य के साथ ही चित्रित हुआ है। वैदिक ऋषि की भाँति आदिकवि ने भी बिजली को सुनहले कोड़े के रूप में देखा है। इस सुनहले कोड़े के कशाघात से ताड़ित मेघावृत आकाश, भीतर-ही-भीतर, मानो घोड़े की भाँति गुर्राता हुआ चित्रित किया गया है :
कशाभिरिव हैमीभिर्विद्युद्भिरभिताड़ितम्।
अंत:स्तनितनिर्धोष सवेदनमिवाम्बरम्।।
आदिकवि ने मेघों को कई बार मत्त गजराज के समान कहा है और एक जगह तो बिजली की पताकाओं से शोभित घोर चिंघाड़ के समान गर्जन करनेवाले ये मेघ युद्धोद्यत मत्त गजराजों के समान बताए गए है :
तड़ित्पताकाभिरलंकृतायाम्
उदीर्णगम्भीरमहारवाणाम्
विभान्ति रूपाणि बलाहकानां,
रणोद्यतानामिव वारणानाम्।
निस्संदेह वाल्मीकि ने इस वर्षा के मानव-चित्र पर अभिभूत कर देनेवाले प्रभाव का उल्लेख बड़ी ही सजीव भाषा में किया है। राम सीता-वियोग से व्याकुल हो उठते हैं और क्षण-भर के लिए प्रबल शत्रु की बात सोचकर चिंतित भी हो उठते हैं, परंतु फिर भी इस वर्षाकाल में कहीं भी मनोजन्मा देवता अनाधिकृत रूप में प्रवेश नहीं करता। उत्तरकाल के संस्कृत सुभाषितों में इस देवता का प्रवेश अबाध है। वह कहीं भी, किसी समय उपस्थित हो सकता है। परंतु आदिकवि के अत्यंत आकर्षक, अत्यंत सुरुचिपूर्ण, और शोभा और महिमा से अतिशय गौरवपूर्ण वर्णन में ऐसा नहीं होता। प्रकृति का यह नयनाभिराम चित्र पाठक के चित्त में निरंतर औत्सुक्य का संचार करता है, वह और भी गाढ़ भाव से प्रकृति की अपार सौंदर्यराशि को हृदयंगम करने के लिए आतुर हो उठता है। यह आश्चर्य की बात है कि आदिकवि की ऊँचाई को परवर्ती कवि बहुत कम छू सके हैं। अलंकरण और मंडन की प्रवृत्ति निरंतर बढ़ती गई है और सहज शोभा के सहज गौरव को प्रायः ही भुला दिया गया है।
धीरे-धीरे भारतीय साहित्य में ऐहिक रसपरक दृष्टि प्रतिष्ठित हो गई। आज से दो-ढाई हजार वर्ष पहले निश्चित रूप से यह परिवर्तन आ गया था। प्राकृतिक व्यापारों के अंतराल में विराजमान देवतागण अपने दीर्घकालीन इतिहास के कारण थोड़ी बहुत श्रद्धा अश्वय पाते रहे, परंतु काव्य में साधारणतः प्रकृति मनुष्य के सुख-दुख में सहायिका, उसके राग-विराग की उद्दीपिका और उसके प्रत्येक विचार से सहानुभूति रखनेवाली सखी या प्रतिस्पर्द्धा करनेवाली प्रतिद्वंद्विनी के रूप में अधिक दिखाई देने लगी। कारण बताना बड़ा कठिन है। एक कारण यह बताया जाता है कि सन् ईसवी के कुछ सौ वर्ष पूर्व से लेकर कुछ सौ कुछ सौ वर्ष बाद तक इस देश में अनेक विदेशी मानवमंडलियाँ आती रहीं और आकर यहीं की हो रहीं। इन जातियों के विश्वासों और विचार परंपराओं ने भारतीय महाजाति को प्रभावित किया गया। हाल कवि की लिखी 'गाथासप्तशती' नामक प्रसिद्ध प्राकृत रचना में ऐसी ऐहिक रस-परक श्रृंगारी रचनाओं का संग्रह मिलता है जिनमें आमुष्मिकता का कहीं नाम भी नहीं है। इस रचनासंग्रह में मनुष्य के भावावेग उद्दाम रूप में प्रकट हुए हैं। प्रकृति के प्रत्येक व्यापार से यहाँ मनुष्य की रागवृत्ति उत्तेजित होती है। मनुष्य के भीतर की वह शक्ति, जो काम-रूप में अभिव्यक्त होती है, यहाँ मनुष्य के सभी आचरणों की नियामिका बन गई है। इससे पुरुष और स्त्री एक-दूसरे की ओर आकृष्ट होते हैं और मनुष्य द्वारा स्वयंनिर्मित विधि निषेध की मर्यादाओं की प्रायः उपेक्षा कर जाते हैं। 'गाथासप्तशती' प्रकृति के उद्दाम आवेगों को अत्यंत सहज और प्रकृत तथा निरंकुश रूप में उपस्थित करती है। शास्त्रज्ञान समुद्भुत गर्वभाव या दुराव-छिपाव का आभास इसमें नहीं है। बाद में इस भावना में पुस्तकी विद्या की जटिलता का समावेश हो जाता है। किंतु परवर्ती साहित्य में इसकी सबसे विचित्र परिणति यह होती है कि गोपी और गोपालों के आदिमोपम आवेग नंद के कुमार और ब्रज की गोपियों की प्रेम लीला के रूप में प्रकट होते हैं। श्रीकृष्ण और गोपियों (जिनमें मुख्य श्रीराधा है) का प्रेम शाश्वत पुरुष-प्रकृति आकर्षण का प्रतीक बन जाता है। इस प्रकार आमुष्मिकता के विकल्पों से एकदम मुक्त और मनुष्य की दूसरी प्रकृति द्वारा चालित सहज और उद्दाम आवेग मध्यकाल के साहित्य में ऐसी भक्तिभावना में परिणत हो जाते हैं। जिसकी तुलना संसार की किसी साहित्यिक विचार-परिणति से नहीं की जा सकती। उत्तर मध्यकाल में यह और भी गाढ़ हो उठी है।
मध्यकाल के साहित्यक की यह परिणति सब प्रकार से अपूर्व है। इसने लोकमानस को पूर्णरूप से अभिभूत कर लिया है। काव्य में, चित्र में, मूर्ति में, संगीत में, धर्म-कर्म में, नाटक में, संक्षेप में, मनुष्य के समस्त रचनात्मक क्रियाकलाप में - इस महत्वपूर्ण परिणति के अमिट चिह्न मिलते हैं। उत्तर मध्यकाल के साहित्य में महान गर्जनकारी, औढरदानी और साँड़ की तरह अखाड़नेवाले शक्तिशाली पर्जन्य देवता का दर्शन नहीं मिलता। लेकिन लहराती हुई लताओं, वर्षा की बूँदों, भीजती हुई प्रेमिकाओं, चातक औ दादुर की रट से व्याकुल बनी हुई विरहिणियों और अभिसार का मार्ग प्रदर्शित करनेवाली विद्युत सहेलियों का बार-बार वर्णन मिलता है।
उत्तर मध्यकाल के चित्रों में जहाँ वर्षा के फुहारों से भींजते हुए प्रेमीजनों, पवन के झकोरों से विलुलितवसना अभिसारिकाओं, मयूरनृत्य से आत्म-विह्नल वियोगिनियों, घनघटा से घबराई हुई पथिकवधुओं और दोला-विलास में सुध-बुध भूली संयोगिनियों का बारंबार चित्रण मिलता है, वहाँ उस महत्वपूर्ण घटना को चित्रित करने का बार-बार प्रयास किया गया है जिसमें इंद्रदेवता को गोपाललाल के हाथों हार खानी पड़ी थी। काव्य में भी इस घटना को सदा स्मरण किया गया है और लोकनृत्यों और लोकाभिनयों से भी इसकी स्मृति बनाए रखने का प्रयास किया गया है। श्रीकृष्ण के उस अद्भुत पराक्रम को उत्तर मध्यकाल के कवियों ने इस प्रकार चित्रित किया है मानो वह अत्यंत मामूली सी बात थी, क्योंकि उनके चित्त में यह भाव जमकर बैठ गया था कि श्रीकृष्ण के भृकुटि विलासमात्र से कोटि-कोटि प्रलयपूर उभड़ और दब सकते हैं, इंद्र का यह बाल हठ केवल क्षुद्रतामात्र थी। इससे श्रीकृष्ण के प्रसन्न चेहरे पर चिंता की रेखा प्रकट होने का प्रसंग ही क्या है? कंप अवश्य उन्हें हुआ था, पर वह भय के कारण नहीं, प्रेम के कारण। इस प्रेम का उद्रेक राधाजी ने कराया था। इंद्र गरज तड़पकर हार गए, श्रीकृष्ण में भय का कंपन नहीं उत्पन्न कर सके, किंतु किशोरीजी के एक लीला कटाक्ष से वे विचलित हो गए :
डिगत पानि ढिगुलात गिरि, लखि सब ब्रज बेहाल।
कंप किसोरी दरसि कै, खरै लजाने लाल।।
'नाट्यशास्त्र' के 26वें अध्याय में वर्षाऋतु के अभिनय की प्रक्रिया बताते समय शास्त्रकार ने कदंब, निंब, कुटज, तृणशद्वल, बीरबहूटी और मयूरसमूह के उल्लेख और अभिनय द्वारा वर्षा ऋतु का निर्देश करने का विधान बनाया है। वर्षा रात्रि के लिए उन्होंने मेघों की काली घटा, उनका निनाद, धारासार वर्षा, बिजली की कौंध और उसके गिरने की विकट आवाजों की चर्चा की हैं। दीर्घकाल तक वर्षा-वर्णन के रूप में इन बातों का उल्लेख कविगण करते आए हैं। पुराने कवियों ने वर्षा के विभिन्न अवयवों की बार-बार चर्चा की है, परंतु सर्वत्र ये मेघ मनुष्य के भावोद्दीपन में सहायक माने गए हैं। भास, शूद्रक और कालिदास निश्चित रूप से मेघों के राजा इंद्रदेव का स्मरण करते हैं। यद्यपि उन्हें यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि इंद्र के अनुचर होने पर भी ये मदनदेवता के अनुचर का काम करते है। शूद्रक का 'मृच्छकटिक' विशुद्ध श्रृंगारी प्रेम का प्रकरण है और उसमें वर्षा-रात्रि का बड़ा ही आकर्षक और मोहक चित्रण है। यद्यपि वसंतसेना के अभिसार के समय वह प्रेम को निरंतर प्रदीप्त करते रहने के उद्देश्य से ही उक्त प्रकरण में सन्निवेशित है तथापि परवर्ती कवियों की भाँति उसमें पद-पद पर कामदेवता के सहचारी या सहायक के रूप में मेघों का उल्लेख नहीं है। यहाँ मेघों की घुमड़न और बिजली की कड़क के साथ कदंब और कुटज कुसुमों की भीनी-भीनी गंध, चातक मूयर और बालकाओं की हृदय-विदारी ध्वनि तथा जलधरों के मणिमय वाणों से बेधी जाती हुई धरती की विवश पुलक व्याकुलता स्वतंत्र रूप में चित्रित है। वह अपने-आप में हृदय को बेधने में समर्थ है, कामदेवता के सुकुमार धनुष पर से छूटते हुए कुसुममय वाणों के रूप में नहीं। यहाँ यह बात एकदम भुला नहीं दी गई कि शक्रदेवता ही वस्तुतः है और बरसता है। वसंतसेना एक बार शक्रदेवता को फटकारती हुई कहती है - 'इंद्र, गरजो या बरसो या सौ-सौ बज्र गिराओ, प्रिय के प्रति अभिसरण प्रेमिकाओं को तुम नहीं रोक सकते'
गर्ज वा वर्ष वा मुंच शतशोअशनिम्।
न शक्या हि स्त्रियों रोद्धुं प्रस्थिता दयितं प्रति।।
आगे वह बिजली को संबोधन करके कहती है कि 'हे विद्युत, अगर मेघ गरजता है तो गरजे, पुरुष तो निष्ठुर होते ही हैं, किंतू तू तो स्त्री है, तू भी क्या प्रमदाओं के दुख को नहीं जानती'?
यदि गर्जति बारिधरो गर्जतु तन्नाम निष्ठुरा: पुरुषा।
अयि विद्युत प्रमदानां त्वमपि न दुखं विजानासि?
बहुत दिनों तक इंद्रदेवता का धुन मेघमाला के प्रसंग में याद रखा गया। कालिदास ने 'मेघदूत' में 'धनुःखंडमाखंडलस्य' अर्थात् इंद्रदेवता के धनुषखंड का स्मरण किया है। इतना तो बहुत पहले ही जान लिया गया था कि इंद्र का यह मनोहर धनुष वस्तुत: सूर्य की किरणों के कारण बादल पर फैल जाता है। श्रीपति ने लिखा है कि जब सूर्य की विविध वर्णोंवाली किरणें वायु द्वारा विघटित होकर बादलों पर फैल जाती हैं तो आकाश में धनुषाकार वस्तु दिखाई देती है जो लोक में 'इंद्रधनु' कही जाती है :
सूर्यस्य विविधवर्णाः पवनने विघटिताः करा साभ्रे।
वियति धनुःसंस्थाना ये दृश्यन्ते तदिन्द्रधनुः।।
तथापि कवियों की दुनिया में वह प्रकृति की शोभा और रागप्रदीपक सुकुमार अस्त्र के रूप में ही परिचित बना रहा। रात्रि में सूर्य-किरणों के विघटित होने की संभावना नहीं होती, इसलिए इंद्रधनुष का दीखना भी संभव नहीं है, पर जिस बात को कवियों की दुनिया में उपयोगी मान लिया जाता है उसे मान ही लिया जाता है। इस बात की परवा नहीं की जाती कि यह संभव है या नहीं। इस प्रकार के विश्वासों को 'कविप्रसिद्धि' कहते हैं। आलोचकों ने कविप्रसिद्धियों की गिनती करके सूचीबद्ध कर लेना चाहा है, पर सबकी सूची बनाना क्या संभव है? कभी-कभी रात को इंद्रधनुष का वर्णन कवि लोग कर बैठते हैं। जब अभिलषित काव्य प्रयोजन सिद्ध होती हो तो जरा इधर उधर का व्यत्यय कोई विशेष दोष का कारण नहीं हो सकता। बहुत पुराने कवि शूद्रक ने 'मृच्छकटिक' में ऐसा ही किया है। वसंतसेना प्रदोषकाल में चारुदत्त के उद्यानगृह में अभिसार करती है। घोर वर्षा में भीजती हुई वह अभीष्ट स्थान पर पहुँचती है। रास्ते में थोड़ी सी चाँदनी छिटकी थी, परंतु मेघों ने उसे इस प्रकार हर लिया जैसे कमजोर शौहर की औरत को मनचले रसिक भगा ले जाते हैं - 'ज्योत्सना दुर्बलभर्तृ केव वनिता प्रोत्सार्य मेधैर्हृता।' तारे भी आसमान में उग आए थे, परंतु वे भी असज्जन के प्रति किए गए उपकार के समान नष्ट हो गए, दिशाएँ अंधकाराच्छंन होकर शोभाहीन और काली पड़ गई थीं, मानो प्रिय वियोग संतप्ता विरहिणियाँ हों :
गता नाशं तारा उपकृतमसाधाविव जने
वियुक्ताः कान्तेन स्त्रिय इव न राजन्ति ककुभ:।
फिर थोड़ी देर चारुदत्त से प्रेमालय में भी अवश्य हुई होगी। सब मिलाकर रात काफी आगे बढ़ चुकी थी, किंतु अचानक चारुदत्त ने आकाश में इंद्रधनुष देख लिया - 'अये इंद्रधनुः प्रिये पश्य पश्य -
विद्युज्जिह्वेनेदं महेन्द्रचापोच्छिूतभुजेन।
जलधर विवृद्धहनुना विजृम्भितमिवान्तरिक्षेण।
शायद कवि के मत से रात अभी ज्यादा नहीं बीती थी और आरंभिक क्षणों में इंद्रधनुष का दिख जाना असंभव नहीं है। जो प्रसंग है उसमें घटनाएँ यदि तेजी से दौड़ पड़ी हों तो अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। जो हो, रात में इंद्रधनुष का वर्णन बहुत अधिक नहीं मिलता। अस्तु।
कालिदास ने 'मेघदूत' में मेघ को इंद्रदेवता वा प्रकृति-पुरुष या प्राजवर्ग से संपर्क स्थापित करानेवाला 'राजपुरुष' कहा है। वहाँ मेघ गंभीर विश्वासपरायण मित्र के रूप में आया है। उसमें सहानुभूति है, समझा है, हितकांक्षा है। शायद किसी स्थान पर 'मेघदूत' में फूलों के बाण धारण करनेवाले देवता का उल्लेख नहीं है। एक जगह है भी तो मल्लिनाथ ने उस श्लोक को प्रक्षिप्त मान लिया है। यह कुछ विचित्र बात है। कालिदास ने 'मेघदूत' में महादेव की महिमा का ही बार-बार गान किया है, समूचे काव्य में इस महिमा की गुरुगंभीर ध्वनि व्याप्त है। ऐसा नहीं है कि कालिदास को फूलों के बाणवाले देवता का पता न हो, पर 'मेघदूत' की श्रृंगारमयी कविता में इस अपदेवता को उन्होंने प्रयत्नपूर्वक अलग रखा है। 'ऋतुसंहार' में वे इतने सावधान नहीं हैं। 'मेघदूत' में मेघ के सजीव दैवत रूप का ही प्राधान्य है। वहाँ देवताओं के राजा को बहुत आदर के साथ स्मरण किया गया है। 'कुमारसंभव' में भी देवराज की महिमा के प्रति कवि असावधान नहीं है। पर 'ऋतुसंहार' में कामदेव अधिक मुखर हैं। यहाँ वर्षाकाल का उन्होंने बहुत ही मनोहर चित्रण किया है। मेघ वहाँ कामीजनों के चित्त में कुतूहल और औत्सुक्य का भाव जगा देता है, मानिनीजन के मन में क्षोभ उत्पन्न करता है, पथिकजनबधुओं का चित्त अपहरण करता है और स्वभाव मृदुल सुंदरियों में और भी सौंदर्य दीप्ति से उद्भासित होने की आकांक्षा उत्पन्न करता है। 'ऋतुसंहार' के अंतिम श्लोक में वर्षाकाल की महिमा को इस प्रकार समेटकर चित्रित किया है :
बहुगुणरमणीय: कामिनीचित्तहारी
तरुविटपलतानां बान्धवो निर्विकार:।
जलदसमय एष प्राणिनां प्राणभूतो।
दिशतु तब हितानि प्रायशो वाच्छितानि।।
धीरे-धीरे संस्कृत काव्य में मेघ काम-नृपति का अनुचर बन गया है और उसके हर अवयव से काम नृपति की जय जयकार होती है। कभी वे काम नृपति के हाथी के समान तड़िदकुश से ताड्यमान होकर आकाश मंडल में आते हैं और उस पुराने युग का स्मरण करा देते हैं जब पर्जन्य देवता बिजली का कोड़ा मारकर उनका उपयोग घोड़ों के रूप में करते थे और कभी सारी मेघमाला उस महाशक्तिशाली कामदेवता के ढक्का के रूप में उपयोग में लाई जाती है जो मानते हैं कि कामिनियों को मानिनी नहीं होना चाहिए क्योंकि ऐसा करके वे कामदेवता के राज्य के नियमानुसार अपराधिनी हो जाती है। संस्कृत कवियों ने कदंब और कुटज पुष्पों का, इंद्रगोप और खद्योतों का, मयूरों और दादुरों का कोकिलों और चातकों का तथा अन्य लता वृक्ष पुष्पों का ऐसा वर्णन किया है कि देखकर आश्चर्य होता है। परंतु परवर्ती संस्कृत काव्यों में प्रधान रूप से इनका उपयोग बिरह और मिलन के उद्दीपन के रूप में किया गया है। पथिकों और पथिकवधुओं के साथ संस्कृत कवि की अपार सहानुभूति है।
वर्षा वर्णन करते समय संस्कृत कवियों ने दोला केलि का वर्ण अवश्य किया है। दोला-केलि या दोला-विलास अति प्राचीन काल से भारतवर्ष में वर्षा की अत्यंत आकर्षक और उल्लासकर क्रीड़ा है। दीर्घकाल से उसने भारतवर्ष के चित्त को अभिभूत कर रखा है। उत्तर मध्यकाल के काव्यों और चित्त तथा मूर्त्तिशिल्प में भी उसका गौरव बना रहा है। इसका पुराना नाम है 'प्रेंखा-विलास।'
वात्स्यायन से पता चलता है कि अंतःपुर से लगी हुई वाटिका में सघन छाया में प्रेंखा दोला या झूला लगाया जाता था और छायादार स्थानों में विश्राम के लिए स्थण्डिल पीठिकाएँ या बैठने के आसन बनाए जाते थे, जिन पर सुकुमार कुसुमदल बिछा दिए जाते थे। प्रेंखा-दोला की प्रथा वर्षा ऋतु में ही अधिक थी। आज भी सावन में झूले लगाए जाते हैं। वात्स्यायन ने जो छायादार वृक्षों की घनी छाया में झूला लगाने को कहा है सो इस वर्षा से बचने के लिए ही। वस्तुतः वर्षाकाल ही प्रेंखा-बिलास का उत्तम समय है। द्युलोक और भूलोक में समानांतर क्रियाओं के चलने की कल्पना कवियों ने इस प्रेंखा विलास से की है, और कौन कह सकता है कि जब कमलनयनाओं की आँखें दिशाओं को कमल फूल की आरती से नीराजित कर देती होंगी, आनंदोल्लास के हास से जब चंद्रिका की वृष्टि करती होंगी और विद्युतगौर कांतिवाली तरुणियाँ तेजी से झूलती रहती होंगी तो आकाश में अचानक विद्युत चमकने का भान नहीं होता होगा?
दृशाविदधिरे दिशः कमलराजिनीराजिताः
कृता हसितरोचिषा हरित चन्द्रिकावृष्टयः।
अकारि हरिणीदृशः प्रबलदंडकप्रस्फुरद्
वपुर्विपुलरोचिषा वियति विद्युतो विभ्रमः।।
इसी काल में रागिनी चित्र भी बने। इनमें वर्षा का वातावरण झाँक-झाँक उठता है। गौड़ मलार रागिनी के 18वीं शतीवाले एक चित्र में वर्षा का कितना सुंदर वातावरण उपस्थित है।
किंतु, जैसा कि हमने ऊपर देखा है, उत्तर मध्यकाल में इस स्थिति में भारी परिवर्तन हुआ है। परवर्ती काल के साहित्य में इस समूचे ऐहिकतापरक काव्य में एक नया स्वर आ गया है। मेघालोक में अभिसरण करनेवाले प्रेमिक युगल यहाँ साधारण मनुष्य न रहकर राधारानी और गोपाललाल के रूप में चित्रित किए जाते हैं। पथिक वधू के रूप में पाई जानेवाली पुराने काव्य की मदन-व्याकुल प्रेमिका साधारण प्रेमी के लिए नहीं, बल्कि मदन को भी मोहन करनेवाले किसी घनश्याम के लिए व्याकुल हो उठती है और दोला विलास के लिए किन्ही प्राकृत प्रेमिकों का स्मरण न करके चिर किशोर युगल का स्मरण किया जाता है। इस काल के संगीत में राधा और कृष्ण संपूर्ण लीला और माधुर्य-वैभव के साथ उतर आते हैं, और चित्र शिल्प में उनकी ही शोभा सर्वत्र चित्रित होने लगती है। कामदेवता के अपूर्व शक्तिशाली कुसुम के सायक भुला नहीं दिए जाते, परंतु उनका उपयोग चिरकिशोर दंपत्ति के लीला विलास में किया जाता है। घोर-श्रृंगारपरक स्वर में इस नवीन भक्तिरस के पुट से विचित्र शोभा आ गई है। नई घटा को उनई देखकर नवीन कवि भी मदनदेवता के भभूकों से लहराते मानस को नहीं भूलता, पर वह 'लाल' अर्थात् श्रीकृष्ण को ही शाश्वत नायक के रूप में देखने का अभ्यस्त हो गया है, और दुलही की लाल के साथ ही झूला झूलने की सलाह देने लगता है।
कवि बेनि नई उनई है घटा मोरवा बन बोलत कूकन री।
छहरैं बिजुली छिति मंडल छवै लहरै मन मैन भभूकन री।
पहिरौ चुनरी चुनि कै दुलही सँग लाल के झूलिए झूलन री।
रितु पावस यों ही बिताबति हौ मरिहौ फिर बाबरी हूकन री।
संसार के साहित्य के इतिहास में इस प्रकार की परिणति शायद ही कहीं हुई हो। अत्यंत लौकिक श्रृंगार ने यहाँ शाश्वत प्रेमिक किशोरी की अपूर्व भावविह्वलता के लिए स्थान छोड़ दिया है। यहाँ परमात्मा मुग्ध प्रेम के लिए उतना ही व्याकुल है, जितना साधारण जीव उस अनंत माधुर्य भंडार को पाने के लिए व्यग्र है। दोनों के लिए व्याकुल। भक्ति की ऐसी मोहक कल्पना संसार में अन्यत्र कहीं नहीं हुई।
अपने अपने सुठि गेहन में चढ़े दोऊ सनेह की नाव पै री।
अँगनान में भीजत प्रेम भरे समयौ लखि मैं बलि जाँव पै री।
कहै ठाकुर दोउन की रुचियों रँग हैं उमड़े दोउ ठाँव पै री।
सखी कारी घटा बरसै बरसाने पै गौरी घटा नँदगाँव पै री।