वरदान (गुजराती कहानी) : दिनकर जोशी
Vardaan (Gujarati Story) : Dinkar Joshi
बिना दाँत के दादाजी के पोपले मुँह के मसूड़े पर एक दिन दूधिया दाँत का थोड़ा हिस्सा दिखाई दिया , तब सारे घर को यकीन हो गया कि अब निश्चित ही दादाजी के सौ साल पूरे हो गए होंगे | दादाजी की सही उम्र का कोई अंदाज नहीं लग रहा था , स्वयं दादाजी को अपने जन्मदिन के बारे में कोई खयाल न था । जब कभी कोई बार - बार घुमा - फिराकर उनको पूछता रहता तब वे जवाब दे देते , “ देखो न भाई ! विक्रम संवत् १ ९ ५६ में तूफान आया था तब मैं इतना सा था। "
और इतना सा शब्द बोलते समय वो वहाँ उपस्थित लोगों में से किसी एक के सामने उँगली दिखाते और वह हर वक्त अलग उम्र का व्यक्ति होता । कभी दस साल के दौहित्र से लेकर , बीस साल के पौत्र के सामने भी उँगली से इशारा करते और इसीलिए दादाजी को कितने वर्ष हुए होंगे , यह पूरे परिवार में दिलचस्प चर्चा का विषय था ।
किंतु जैसे ही दूधिया दाँत निकला कि इस चर्चा का अंत आ गया । दादाजी ने शताब्दी पूर्ण की थी , उसका यह नैसर्गिक संकेत था । दादाजी का यह दाँत जैसे कि कोई देखने लायक चीज हो , इस प्रकार घर के बड़े - छोटे सब एक के बाद एक आकर इस दाँत को देखकर गए ।
दादाजी अपने बड़े पुत्र जमनादासजी के साथ रहते थे और जमनादास ने हाल ही में सत्तर साल पूरे किए थे , उसके बावजूद दादाजी उसे केवल " बड़ा " कहकर पुकारते थे। यह बड़ा भी अब निवृत्त हो चुका था और उसके घर में पुत्र, पुत्रवधुएँ , पौत्र , पौत्रियाँ सभी ने एक साथ मिलकर कहा , हमें दादाजी का सौवाँ जन्मदिन मनाना है ।
घर के सारे लोगों ने बड़े उत्साह के साथ इस बात का स्वागत किया और पंद्रह दिन के बाद , छुट्टी के दिन उनकी शताब्दी मनाने के कार्यक्रम के आयोजन के काम में सब जुट गए ।
दादाजी का परिवार काफी बड़ा था । जमनादास के बेटों , यानी दादाजी के पौत्रों ने इस प्रसंग पर सारे परिवारों को न्योता देने का कार्यक्रम बनाया । इसके लिए दादाजी के पास बैठकर याद कर करके चाचा , बुआ , भानजे , भतीजे , भतीजियाँ- इन सभी की सूची तैयार की । दादाजी के कुल मिलाकर पाँच पुत्र और तीन पुत्रियाँ थीं । इन आठों की संतानें और अब तो उनके यहाँ भी संतानें थीं ।
वैसे तो आठ बच्चों में से दो पुत्र एवं दो पुत्रियाँ चल बसी थीं तथा एक पुत्र और एक पुत्री अपने जीवनसाथी को गँवा बैठे थे । इसके बावजूद कुल मिलाकर अट्ठासी लोग , छोटे - बड़े सब मिलकर होते थे । वैसे तो घर अच्छा खासा बड़ा था , परंतु यह प्रसंग तो घर की छत पर जाकर , एक खास मंडप तैयार करके मनाया जाए , ऐसा तय हुआ ।
जैसे - जैसे दिन नजदीक आता गया , वैसे - वैसे घर में धमाल और उत्तेजना दोनों बढ़ते गए । खास निमंत्रण पत्रिकाएँ छपवाई गईं । बाहरगाँव रहनेवाले चाचा , बहनें , बुआएँ इन सभी को अनुरोध के पत्र लिखाए गए और इन सबका जवाब भी उतना ही उत्साहजनक था । अट्ठासी में से कम - से - कम पचहत्तर लोग तो निश्चित उपस्थित रहेंगे , ऐसा पक्का अंदाजा लगाया गया था ।
दादाजी को जब इन सारी तैयारियों का रहस्य समझ में आया , तब वे कुछ पल तो सुनते रहे । पौत्र , प्रपौत्रों को ऐसा लगा था कि हमारे इस आयोजन से दादाजी का पोपला चेहरा हँस पड़ेगा और उनकी गहरी आँखों में कुछ पलों के लिए चमक आ जाएगी , किंतु ऐसा कुछ हुआ नहीं ।
वैसे भी दादाजी ज्यादा बोलते न थे । कभी - कभी बातें करते तो उनके " बड़े " के साथ और वह भी बहुत कम । यदि कोई बुलाए तो उनके साथ भी कम शब्दों में और जितना आवश्यक हो , उतना ही बोलते थे । कभी - कभी बाहर रहनेवाली विधवा बेटी को याद करते और जब यह बेटी आती , तब उसके साथ कुछ घंटे बातें कर लेते थे ।
अपनी शताब्दी के उत्सव की बात सुनकर दादाजी सभी को विस्मयता से देखते रहे और बाद में आँखें बंद करके एक गहरी साँस लेकर केवल इतना ही बोले , " इसमें मेरा दोष क्या , बेटा ?"
इसमें दादाजी के दोष की बात कहाँ से आई , यह पूरे घर में कोई समझ न सका , किंतु दादाजी कई बार ऐसी बातें करते जो समझ में नहीं आती थीं , इसलिए यह बात भी उन बातों में से एक होगी , ऐसा मानकर किसी ने उस बात पर ध्यान नहीं दिया और उत्सव की तैयारियाँ दुगुनी तेजी से चलने लगीं ।
इन तैयारियों का हर रोज अहवाल तैयार होता था और बाद में तो शहर में ही रहनेवाले जमनादास के दो छोटे भाई , उनके पुत्र - पौत्र , तीन दौहित्र और भानजे , ये सभी रोज रात को उनको सोचे गए काम का लेखा - जोखा देने के लिए इकट्ठे होते । इस कार्य का सारा अहवाल दादाजी के समक्ष पेश किया जाता और तब जैसे किसी त्राहित व्यक्ति की ही बात हो रही हो , ऐसी तटस्थता के साथ दादाजी सारी बात सुन लेते थे , कुछ बोलते नहीं ।
जिसका गठन नहीं हुआ है , ऐसी शताब्दी कमेटी की सभा तो देर रात तक चलती , किंतु दादाजी इसमें कुछ भी रुचि लिये बिना खड़े हो जाते और बाद में ' श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारी ' आहिस्ता - आहिस्ता गुनगुनाते अपने कमरे में चले जाते । "
तय किया हुआ दिन तो अब नजदीक आ गया था । बाहरगाँव से खास छुट्टी लेकर आनेवाले भी एक के बाद एक आने लगे । सबसे पहले दादाजी की विधवा बेटी सुमित्रा आई । किसे पता है क्यों ? इस वक्त सुमित्रा के सिर पर हाथ रखकर दादाजी की आँखें सभी के सामने गीली हो गईं । बाद में सुमित्रा भी रो पड़ी । सुमित्रा को तो आते - जाते समय रोते हुए सारे घर ने देखा था , लेकिन इस बार रोने की शुरुआत दादाजी ने की और दादाजी की आँखों में इस प्रकार आँसू किसी ने देखे न थे , इसलिए सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ । बाद में न कुछ सुमित्रा बोली , न दादाजी बोले । सबकुछ पुनः पहले जैसा हो गया ।
किंतु सुमित्रा के आगमन के साथ ही दादाजी ज्यादा गंभीर हो गए थे । अब तक अलिप्त भावना के साथ इस उमंग को देखा करते थे , उसकी बजाय उनके चेहरे पर गहरे दुःख की छाया फैल गई थी । दादाजी के " हैप्पी बर्थडे " के लिए खास प्रकार का केक बनाकर उसे दादाजी के हाथों कटवाने के लिए इंतजार लड़के और लड़कियाँ तथा उत्साहित युवाओं का बड़ा झुंड घर में इकट्ठा हो गया था । इस उत्साह की ओर बड़े - बुजुर्ग भी संतोष और खुशी के साथ देख रहे थे , केवल दादाजी अकेले ही गहरी सोच में पड़ गए थे I
जमनादास के पैदा होने के पूर्व ही दादाजी को एक संतान हुई थी, लेकिन
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(अनुवाद : ललित कुमार शाह)