वंशीवाला (कहानी) : ज़हूर बख़्श
Vanshiwala (Hindi Story) : Zahoor Bakhsh
रात के लगभग आठ बज चुके थे। सखियाँ सुमन को घेरे हुए बैठी थीं । हास-परिहास की धारा एक-एक के हृदय में मधुर उल्लास उत्पन्न कर रही थी । तरला कल्लोल करते हुए सरोवर की ओर देखती - देखती बोली 'जल-विहार का कैसा सुंदर अवसर है ! छप छप करती हुई नौका पर हास-परिहास की सरसता कितनी मोहक - कितनी सुखद हो जाती है !'
विमला ने कहा-' ठीक तो है ! चलो न सुमन, नाव नवरिया खेलें । कितने दिन हो गए, हमने नौकारोहण नहीं किया । यह हँसती हुई चाँदनी रात - जल-विहार का आनन्द हमारे अन्तस्तल हरे कर देगा । बोलो, क्या कहती हो ? '
सखियों की यह इच्छा देख सुमन बोली- ' देखती हूँ, तुम लोग सरसता के लिये दिनों दिन पागल हुई जा रही हो। अच्छी बात है, चलो जल- विहार द्वारा अपने मुरझाए हुए हृदय हरे-भरे करो ।' सुमन मुसकिराकर खड़ी हो गई ! उसके पीछे-पीछे सब सखियाँ चल पड़ीं ।
परियों का वह चंचल देश छत से उतरकर घाट पर पहुँचा और देखते- ही-देखते एक छोटी-सी मोरपङ्खी पर सवार हो गया । रूप और यौवन के उस कोमल भार को लेकर मोरपङ्खी धीरे धीरे जल-तरगों पर थिरकने लगी ।
सुनील आकाश में पूर्णिमा का चाँद अपनी सोलहों कला से चमक रहा था । चटकीली चाँदनी सरोवर के स्वच्छ-स्निग्ध हृदय पर धीरे-धीरे नाच रही थी । वासन्ती पवन चुपचाप धीरे-धीरे चारों ओर सुरभि बिखेर रहा था । कान्ता बोली- 'अहा ! यह वसन्त भी कितना रसिक है ! वृक्षों और लताओं के साथ विहार करता है । सरोवर की तरङ्ग-मालाओं के साथ आँख-मिचौनी खेलता है, एक-एक पुष्प को चूमता है, फिर भी इसकी तृष्णा नहीं बुझती । अब निर्दयी हमारी सुमन पर धावा बोल रहा है ।'
निर्मल ने मुसकिरा कर कहा-' धावा क्या बोल रहा है, वह देखो, वह सुमन के अधर पल्वों का रस पान कर रहा है ।'
श्यामा ने हँसकर कहा - ' यदि सौरभ भी आज इनकी बगल में होते तो इनके लिये वसन्त की यह मदमाती रात कितनी रस-भरी हो जाती ! '
सुमन रिसियाकर बोली- ' तुम लोग बिलकुल असभ्य हो ! भला सौरभ मेरे कौन होते हैं ? '
तरला खिलखिला कर बोल उठी-' अहा ! हमारी सखी बड़ी भोली है ! बेचारी सुमन और सौरभ का नाता भी नहीं जानती । पगली, सुन ! मैं सुमन और सौरभ का नाता बतलाऊँ । सौरभ सुमन की शोभा है, सौरभ सुमन का वैभव है और सौरभ सुमन का जीवन है । अब भी समझी या नहीं ? '
सहसा एक मधुर ध्वनि से वायु मण्डल गूंज उठा । सरोवर के उस पार अमराई के बीच में कोई छिपे - छिपे वंशी बजाने लगा और उसकी मोहिनी जल-राशि की एक-एक तरङ्ग पर तैरती हुई आ-आकर रूप के उस छोटे-से देश से टकराने लगी ।
सुमन बोली- 'उफ ! कितना आकर्षण है ! ज़रा मोरपङ्खी रोक लो थोड़ी देर शान्ति-पूर्वक यह वंशी - ध्वनि सुनूँ । '
कृष्णा ने कुछ विरस होकर कहा - ' वाह ! हम यहाँ वंशी - ध्वनि सुनने आई हैं, या जल-विहार करने ? '
सुमन ने उत्तर दिया-' तुम तो बिलकुल कृप्णा हो ! भगवान् ने तुम्हें हृदय ही कहाँ दिया है ! वसन्त की रस भरी रात में हम जल-विहार कर रही हों और दूर पर हृदय को आलोड़ित करने वाली वंशी कूक रही हो - इससे अधिक आनन्द और क्या हो सकता है ? सुनती नहीं हो, यह वंशी - ध्वनि है, या मन-प्राणों को पागल बना देने वाली मादकता कूक रही है ? '
फिर किसी ने सुमन के आग्रह का प्रतिवाद नहीं किया । मोरपंखी स्थिर हो गई और सुमन वंशी सुनने लगी। उसकी एक-एक तान मीठी-मीठी थपकियाँ देकर सुमन के अन्तरंग - को सुलाने लगी । वंशी - ध्वनि सुनते- सुनते सुमन तन्मय हो गई और उसके हाथ से पतवार छूट गई।
एकाएक गूँजता हुआ वायु मण्डल नीरव हो गया। परन्तु सुमन फिर भी अचल रही, जैसे वंशी का वह मोहक स्वर अब भी उसके कानों में गूँज रहा था । निर्मला ने सुमन को गुदगुदाया और कहा - ' अब कब तक स्वप्न - लोक में भटकती रहोगी ! वंशी-ध्वनि तो कभी की मौन हो चुकी है । '
सुमन ने अनमने भाव से कहा - ' हूँ ! बहुत विलम्ब हो गया । अब लौट चलो नहीं तो अम्मा नाराज़ होंगी ।'
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उस दिन जल-विहार के बाद सुमन जो कुछ लाई थी, उसे त्यागने या भुला देने की बहुत चेष्टा करती थी । परन्तु परिणाम उल्टा ही होता था । वह वस्तु दूर होने की अपेक्षा दिनों दिन सुमन के निकट होती जाती थी और सुमन पर उसका रंग चढ़ता जाता था। बीच-बीच में वंशी की वह ध्वनि अलग ही सुमन को आत्म-विभोर कर डालती थी। एक दिन की बात है, सहसा सुमन की आँख खुल गई। वह चौंक उठी और उठकर बिछोने पर बैठ गई ।
विस्तृत गगन में असंख्य तारों के बीच चन्द्रदेव मन्द मन्द मुसकिरा रहे थे। उनके अङ्क से सुधा-धारा झर रही थी। दिन-भर की झुलसी हुई प्रकृति चाँदी की शीतल चादर ओढ़े हुए चुपचाप - बड़ी शान्ति से विश्राम कर रही थी । रात आधी से अधिक बीत चुकी थी, और उस गम्भीर सन्नाटे में दूर-दूर तक वंशी की वही ध्वनि गूँज रही थी । जान पड़ता था, जैसे बजाने वाला तल्लीन होकर अपनी सारी सुध-बुध खोकर उसे बजा रहा है। उसकी वह कोमल ध्वनि-रस की वह अमृत-धारा दूरी के व्यवधान से छन-छन कर सुमन के निकट आ रही थी। धीरे-धीरे सुमन अतृप्त भाव से उसका पान करने लगी, और पान करती - करती अपने आप को भूल गई ।
वंशी न जाने कब तक अविराम गति से बजती रही और सुमन कब तक मुग्ध हृदय से उसे सुनती रही। धीरे-धीरे हृदय - तल को स्पर्श करनेवाली वह ध्वनि मन्द होने लगी, मानों बजाने वाला चुपके-चुपके दूर, बहुत दूर चला जा रहा था। क्रमशः वंशी का वह स्वर प्रकृति के उस विशाल अन्तराल में विलीन हो गया ।
जादू के प्रभाव से सोई हुई सुमन जैसे जाग उठी और सूनी आँखों से अपने चारों ओर ताकने लगी; मानों उस वंशी-ध्वनि के लिये उसके प्राण छटपटाने लगे और व्याकुल नेत्र वंशीवाले को ढूँढने लगे । परन्तु वंशीवाला वहाँ कहाँ था ! वह तो जैसे सुमन के कोमल हृदय पर वशीकरण मन्त्र फूँक कर अपनी वंशी समेत, न जानें कहाँ जा छिपा था ।
परन्तु मन्त्र के उस प्रभाव से सुमन अधीर हुई जा रही थी । ध्वनि का वह दाहक विरह उसके सुमन-हृदय को झुलसाए डाल रहा था । सुमन वेदना की उस ज्वाला से तिलमिला उठी । शैया छोड़कर खड़ी हो गई और मन्थर गति से, छत के इस छोर से उस छोर तक टहलने लगी । फिर क्षितिज की ओर देखकर, अधजले हृदय से एक तप्त उच्छ्वास छोड़ती हुई बोली ' वंशीवाले, तुम कौन हो ? तुम्हारी वंशी में किसने इतना जादू भर दिया है, जो सीधे अन्तस्तल पर चोट करता और मन-प्राणों को हर लेता है । तुम्हारी वंशी में कितनी मिठास है ! सुनती सुनती थक जाती हूँ । ! फिर भी सुनने की साध नहीं मिटती । तुम्हारी वंशी में कितना रस है ! पीती-पीती थक जाती हूँ, फिर भी प्यास नहीं बुझती । तुम्हारी वंशी की एक-एक तान पर एक-एक लय पर आत्म विस्मृत हो जाती हूँ फिर भी हृदय में छिपी हुई उदाम आकुलता हाहाकार करती रहती है ।'
फिर थोड़ा ठहरकर कहने लगी- ' आह ! वंशीवाले, तुम किस देश के बासी हो ! कहाँ छिपे-छिपे अपनी वंशी बजाते हो ? तुम मुझे अन्तर्द्वन्द्व की इस भूमि में क्यों घसीट लाए, जहाँ मैं लड़ती- लड़ती बिलकुल परास्त हो गई हूँ, और मेरा रोम-रोम पस्त हो गया है ? फिर भी तुम मुझसे आँख - मिचौनी का खेल खेल रहे हो । हाय छलिया ! तुम चुपके-चुपके मेरे भीतर बैठे और अब नित्य मेरे रस में विष घोल रहे हो ! फिर भी दिखाई नहीं देते। यदि एक बार भी तुम्हें देख पाती तो......'
सुमन की आँखों से दो गरम-गरम आँसू धरती पर गिर पड़े। वह थक कर बिछौने पर जा बैठी और बैठते ही लेट गई। तीन प्रहर रात्रि व्यतीत हो चुकी थी । निद्रा को सुमन पर दया आई। उसने हलकी हलकी थपकियाँ देकर उसे सुला दिया ।
प्राची दिशा में उषा सोनहले वस्त्र धारण कर रही थी। एकाएक सुमन चीख उठी- ' वंशीवाले - वंशीवाले ! तुम इस बीहड़ सुनसान वन में मुझे अकेली कहाँ छोड़े जाते हो !' वह उठकर बैठ गई और हक्की-बक्की सी चारों ओर देखने लगी ।
मां ने प्यार से उसके सर पर हाथ फेरते हुए पूंछा - ' क्या है बेटी ?'
'कुछ नहीं अम्मा ! मैं एक मनोहर स्वप्न देख रही थी ।' कह कर सुमन फिर लेट रही ।
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सुमन के विवाह की तैयारियाँ होने लगी ।
सुमन बेचैन हो उठी। उसके नेत्रों में सौरभ का स्वरूप नाचने लगा और कानों में वंशीवाले की वही आकर्षक ध्वनि गूंजने लगी। उसने देखा- हृदय पर वंशीवाला अधिकार किए बैठा है, और वहाँ सौरभ के लिये कण- भर भी स्थान नहीं रह गया है । तब सौरभ के साथ कैसे विवाह हो सकता है ? जो प्राण वंशीवाले का है, उसका आवरण सौरभ को कैसे दिया जा सकता है? हृदय में एक दारुण वेदना हाहाकार कर उठी और उमड़-उमड़कर कण्ठ की ओर बढ़ने लगी ।
सुमन मां के पास पहुँची । उसके नेत्र डबडबा रहे थे। गला रुँध रहा था । क्षण-भर बाद उसने काँपती हुई ध्वति में पुकारा - ' अम्मा !' मां ने स्नेह-भरी वाणी में कहा-' क्या है बेटी ? '
सुमन सिसक-सिसक कर रोने लगी ।
मां ने उसके सर पर हाथ फेरते हुए पूछा - ' क्यों रोती है बेटी ? कौन- सी कठोर वेदना तेरे हृदय को मसल रही है ?'
सुमन ने रोते-रोते उत्तर दिया- 'अम्मा, तुम मेरा विवाह क्यों कर रही हो ? मुझे घर से बाहर क्यों निकाल रही हो ?'
मां की आँखें भर आई। उसने धरती पर दो आँसू टपकाते हुए कहा- 'बेटी, माँ कब चाहती है कि उससे उसकी लाड़ली बेटी छीन ली जावे ? पर, बेटी का विवाह किए बिना भी तो नहीं चलता । सदा से यही होता आ रहा है। इसीलिये मैं भी छाती पर पत्थर रख कर तेरा विवाह कर रही हूँ ।'
सुमन अपने कपोलों को तर करती हुई बोली-'पर अम्मा, तुम मेरा विवाह मत करो ।'
माँ ने अश्चर्य चकित होकर पूछा- 'क्यों, क्या तुझे सौरभ पसन्द नहीं है ? '
सुमन ने अंचल से नेत्रों की कोरें पोंछते पोंछते उत्तर दिया- 'अम्मा, इस विवाह से मैं सुखी न हो सकूँगी । '
मां को और भी आश्चर्य हुआ । उसने आग्रह पूर्वक पूछा - 'अन्ततः तू ऐसी अशुभ कल्पना क्यों कर रही है ? सौरभ जैसा वर तो मैंने आज तक नहीं देखा । कहीं मिलने की सम्भावना भी नहीं है । '
सुमन फिर बिलखने लगी। माँ के चरण पकड़कर बोली- ' जो कुछ हो अम्मा, पर मेरा मन कहता है; मुझे इस विवाह से सुख न मिलेगा। यदि तुम मुझे कुमारी ही रहने दोगी, तो मैं उसी को अपने जीवन का सब से बड़ा सुख समझूँगी।'
माने सुमन को अपने अङ्क में भरकर कहा - ' मेरी अच्छी बेटी, इतनी कातर मत हो । सौरभ सर्व गुण सम्पन्न वर है । मेरी आत्मा कहती है, उससे तुझे सब तरह का सुख मिलेगा। उसकी छाया में तेरा पूर्ण विकास होगा। फिर सौरभ कहीं दूर भी तो नहीं रहता । सरोवर के उस पार, अमराई के निकट ही तो एक सुंदर उद्यान में उसका भवन है। फिर एक बार अपने कुल - शील पर भी विचार कर, और यह सोच कि तू किसकी बेटी है । खबरदार, अब कभी ऐसी बातें मत करना। किसी अज्ञात कुल-शील और अपरिचित व्यक्ति के विषय में सोच-विचार करना - यह तो एक कुल-बाला की मर्यादा के विरुद्ध है बेटी ! यदि तुम्हारे पिता ये बातें सुनेंगे, तो उनको कैसी मनोव्यथा होगी !'
माँ इसके बाद ही किसी काम से बाहर चली गई ।
अकेले में सुमन के हृदय का आवेग और भी जोरों से उमड़ उठा । वह अपने आप कहने लगी- 'अम्मा, तुम भी मेरा दर्द न समझ सकीं । तुमने एक ही आघात में मेरी भावना को कुल-मर्यादा की वेदी में झोंक दिया। अब मैं संसार में किसे अपनी वेदना की करुण कहानी सुनाऊँ ? हाय वंशीवाले, तुमने मेरे हृदय में जो आग जला दी है, वह कैसे बुझेगी ? उसे बुझाने के लिये मैं शीतल जल के दो छींटे कहाँ पाऊँगी ?'
सुमन की वह पीड़ा असह्य हो उठी। बेचारी फफक-फफक कर रोने लगी !
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आज सुमन की सुहाग-रात थी ।
आकाश में घटाएँ, घिरी हुई थीं । बादल धुएँ के समान उत्तर की ओर उड़े जा रहे थे। धरती पर रिमझिम रिमझिम मेह बरस रहा था । मलयानिल सुरभी बटोर - बटोर कर लाता और चुपके-चुपके सुमन के गुलाबी कपोल चूमकर चला जाता था ।
परन्तु सुमन के संसार में थोड़ा भी आकर्षण नहीं रह गया था। वह बिलकुल उदास - बिलकुल शून्यमना हो रही थी, जैसे उसका सर्वस्व लुट गया था और वह उस विशाल कक्ष में बैठी-बैठी मन-ही-मन हाहाकार कर रही थी । मुखड़े पर न वह दीप्ति थी, न नेत्रों में वह चञ्चलता; जैसे देव के दारुण दुर्विधान ने एक बार ही उसके समस्त जीवन-रस का शोषण कर लिया था और वह मूर्ति के समान अचल बैठी हुई थी। कुछ देर बाद उसने एक ठण्डी साँस खींचकर कहा - 'ओफ ! '
सहसा प्रातःकालीन पुष्प की नाईं मुसकिराते हुए सौरभ ने उस कमरे में प्रवेश किया। सुमन सिमटी हुई फर्श पर बैठी थी। सौरभ आकर उसके सामने खड़ा हो गया । पाँच मिनट तक वह प्यासी आँखों से अपनी प्रेम प्रतिमा को देखता रहा। फिर उसने धीरे-धीरे पुकारा-' सुमन ! मेरी रानी !' और यह कहते-कहते मानो अपने हृदय का समस्त स्नेह सुमन पर निछावर कर दिया ।
परन्तु सुमन चुप थी । शायद वह वंशीवाले की चिन्ता कर रही थी ।
' सुमन - मेरी प्यारी सुमन !' कहते हुए सौरभ सुमन के पार्श्व में बैठ गया। उसने सुमन की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा - ' प्रिये, तुम तो बिलकुल ही चुप हो ! एक बार अपने मधुर कण्ठ मे बोलो तो सही । तुम्हारी मीठी बोली सुनने के लिये कब से व्याकुल हो रहा हूँ । '
परन्तु सुमन दो हाथ दूर खिसक गई। शायद वह सोच रही थी- 'कैसे दलदल में आ फँसी हूँ। अब वंशीवाले को कहाँ पाऊँगी !'
सौरभ भी सुमन के निकट खिसक गया। 'मेरी देवी ! तुम्हारी रूप- माधुरी का पान करने के लिये ये आँखें कब से तरस रही हैं ! क्या एक बार भी दर्शन देने की कृपा न करोगी ?' कहते हुए सौरभ ने सुमन का हाथ पकड़ लिया और वह उसके मुखड़े पर पड़े हुए पर्दे को हटाने की कोशिश करने लगा ।
परन्तु जैसे सुमन के रक्त में बिजली प्रवाहित नहीं हुई, शरीर में कम्पन नहीं हुआ । उसने झुंझलाकर हाथ खींच लिया, इसके साथ ही वह दो हाथ और दूर खिसक गई। शायद मन-ही-मन कह रही थी - ' वंशीवाले, तुम किस पर्दे में छिपे हुए हो !'
सौरभ का मोह बढ़ता जा रहा था । सुमन की ये भाव-भंगिमाएँ उसके आकुल हृदय को घायल कर रही थीं। 'सुमन ! मेरी प्यारी ! तुम्हारे लिये कितने दिनों से उद्विग्न हो रहा था ! कितनी प्रतीक्षा कितनी आतुरता के पश्चात् यह सुन्दर बेला आई है, और तुम बोलती भी नहीं !' कहकर सौरभ ने सुमन को अंक में भरने की चेष्टा की ।
परन्तु सुमन उछल कर दूर जा खड़ी हुई, मानों उसके पैर धधकती हुई आग पर पड़ गए हों। इस बार उसने सौरभ से कहा- 'तुम्हारे पैर पड़ती हूँ । मुझे न छेड़ो । इस समय मेरा चित्त ठिकाने नहीं है ।' सुमन का कण्ठ रुँध रहा था, वाणी काँप रही थी और शायद वह भीतर-ही-भीतर पुकार रही थी- ' वंशीवाले ! ओ वंशीवाले !!'
भावुक सौरभ अवाक् रह गया ।
उसने सुमन को रिझाने की बहुत चेष्टा की, वशीकरण की मोहिनी डालते - डालते वह थक गया, परन्तु सुमन के हृदय में क्षण-भर के लिये भी रस का उद्रेक नहीं हुआ । आसक्ति के स्थान पर विरक्ति ही उन्नत होती गई । अन्त में वह थककर सिसकने लगी ।
रसिक सौरभ का उत्साह भी ठण्ढा हो गया । उसने एक ठण्डी साँस लेकर अपनी सूनी शैया पर दृष्टि डाली। उस पर बिछे हुए पुष्प किसी की प्रतीक्षा करते-करते जैसे थक गए थे, और थककर मुरझा चुके थे । सौरभ का हृदय भर आया । वह धीरे-धीरे चलकर पलंग पर बैठा, और अपने लटके हुए मस्तक पर हथेली का अवलम्ब देते-देते बोला- 'उफ ! कोमलता के पीछे कितनी कठोरता छिपी हुई है !'
सौरभ न जाने, कब तक सोच-विचार के घात-प्रतिघात में पड़ा रहा । जब बाहर, उद्यान में आम की मंजरी पर कोयल बार-बार व्यथा के भार से कूकने लगी, तब कहीं उसकी तन्द्रा भंग हुई। उसने बाहर झांककर देखा । आकाश स्वच्छ हो गया था । रात-भर की अविराम यात्रा से चन्द्रमा थक चुका था। तारों की ज्योति मन्द हो गई थी और उषा पूर्व गमन के अञ्चल पर गुलाल छिड़क रही थी 'अब प्रातः काल होने में अधिक विलम्ब नहीं है ' कहते हुए सौरभ ने तकिए के नीचे से अपनी वंशी निकाली और पलंग पर लेटते - लेटते नित्य के नियमानुसार तान छेड़ दी । कमरा एक बारगी गुँज उठा और धीरे-धीरे चारों ओर रस का सागर उमड़ने लगा।
यद्यपि सुमन बिसूरती - बिसूरती शान्त हो गई थी, पर उसके हृदय में अब भी वही दावानल धधक रहा था और प्राण रह-रह कर वंशीवाले को पुकार रहे थे । वंशी की ध्वनि सुनते ही वह चौंक उठी । अरे ! यह तो वही वंशी है । ठीक वही स्वर है। एक-एक तान में वही आकर्षण है । एक-एक लय में वही मादकता है। सुमन के कान अतृप्त भाव से वह ध्वनि सुनने लगे । पुलक के आवेग से वह विभोर हो गई और क्रमशः चेतना-हीन सी होने लगी । वायु का एक प्रबल झोंका आया और उसने सुमन का अञ्चल उड़ा दिया। पर, आत्म-विस्मृत सुमन को उसका भान तक न हुआ । उसकी दृष्टि सौरभ पर पड़ी । वह उन्मत्त हो गई और एकबारगी पुकार उठी- 'उफ ! कैसी अनन्त छबि !'
सुमन उसी दशा में उठी और धीरे-धीरे सौरभ की ओर बढ़ने लगी ! सौरभ के सामने पहुँचते ही वह फिर उसी उन्मत्त स्वर में बोली- 'चित्त-चोर छलिया ! अब तक कहाँ छिपे थे ? तुम्हीं तो हो मेरे वंशीवाले !'