वंशीवादक गोपाल (कहानी) : गोपाल भाँड़
Vanshivadak Gopal (Bangla Story in Hindi) : Gopal Bhand
महाराज कृष्णचन्द्र राय के दरबार में स्थान पाने के बाद गोपाल भाँड की प्रसिद्धि कृष्णनगर में फैल गई। उससे मिलने के लिए प्रायः तरह-तरह के लोग आने लगे । ऐसे लोगों में महत्वाकांक्षी भी होते और जिज्ञासु भी । उसे भी लोगों से मिलना- जुलना पसन्द था। लोगों से मिलने जुलने से नई जानकारियाँ उसे मिलती रहती थीं । कभी-कभी लोग उसे अपनी कोई समस्या भी बताते और वह उस समस्या का हल उन्हें सुझा देता । इस तरह उसकी प्रसिद्धि कृष्णनगर के बाहर भी पहुँचने लगी ।
महाराज कृष्णचन्द्र तक भी उसकी प्रसिद्धि की चर्चा पहुँची। महाराज यह जानकर प्रसन्न हुए कि उनके दरबार का एक आदमी राज्य के बाहर भी अपने बुद्धि-कौशल के कारण जाना जाता है ।
एक दिन दरबार समाप्त होने के बाद महाराज कृष्णचन्द्र ने उससे अपने साथ भ्रमण के लिए चलने को कहा। इन्कार का कोई कारण नहीं था। दोनों ही घोड़े पर बैठकर धीरे-धीरे घोड़ा दौड़ाते हुए कृष्णनगर के मुख्य मार्गों से गुजरते रहे । महाराज ने अचानक अपना घोड़ा कृष्णनगर से बाहर जाने की राह की ओर घुमा दिया । यह वही सड़क थी जो कृष्णनगर से मुर्शिदाबाद की ओर जाती थी । मुर्शिदाबाद से जुड़ी कई रोचक समृतियां महाराज कृष्णचन्द्र के मस्तिष्क में थीं और कई अविस्मरणीय समृतियां गोपाल भाँड के मस्तिष्क में । चलते-चलते दोनों कृष्णनगर के सीमान्त क्षेत्र में प्रवेश कर गए। यहाँ मनोरम हरियाली थी । खुला वातावरण था । आकर्षक सरोवर था जिसमें कमल पुष्प खिले हुए थे । भीनी-भीनी सुगन्ध के साथ मंथर-समीर दोनों के दिलो-दिमाग में ताजगी भर रहा था। सरोवर के पास ही एक छोटा-सा मन्दिर था जहाँ से वंशी की मधुर ध्वनि उन दोनों तक पहुँच रही थी ।
महाराज वंशी की धुन को सुनकर चकित रह गए । अरे, यह कैसी स्वप्निल अनुभूति से भर रहा हूं मैं ! शायद यही प्रकृति का चमत्कार है । शाम ढल रही है । संपूर्ण आकाश रक्तवर्णी हो उठा है । चिड़ियाँ चहचहाते हुए अपने घोंसलों की ओर लौट रही हैं। डूबते सूरज की रक्तवर्णी किरणों से कमल - दल रक्ताभ हो रहे हैं मानों प्रेमी के स्पर्श से किसी गोरी नवयौवना के मुखड़े पर शर्म की लाली दौड़ गई हो... ऐसे में यह वंशी की तान!... मंतरमुगध सेय महाराज वहाँ की प्राकृतिक छटा निहारने में खोए रहे।
सूर्यास्त के बाद शाम का रंग बदला । चारों ओर सुरमई अँधेरा फैलने लगा । गोपाल भांड ने देखा कि यदि महाराज इसी तरह अपनी तनमयता में डूबे रहे तो रात गहरा जाएगी। इस सुनसान में देर तक रुके रहना उचित नहीं है । जंगल का सिलसिला एक डेढ़ मील की दूरी पर आरम्भ हो जाएगा। चोर-उचच्कों और जंगली जानवरों को निशाचर कहा गया है । रात गहराने पर उनकी ताकत बढ़ती है । क्या पता उनमें से कोई इधर का ही रुख कर ले !
अभी गोपाल भाँड महाराज को वापसी के लिए कहने की सोच ही रहा था कि वंशी की तान एक ऊंचाई तक जाकर समाप्त हो गई | महाराज की तन्द्रा टूटी। बोले - "ओह, संगीत में कितना रस है ! मन श्रांत और बोझिल था, इसीलिए भ्रमण के लिए निकला था कि मेरी मानसिक श्रान्ति समाप्त हो जाए। अच्छा हुआ कि मैं इस ओर आ गया । मेरे राज्य में इतना अच्छा वंशी बजाने वाला कोई है, इस बात का ज्ञान मुझे नहीं था। इधर नहीं आया होता तो यह ज्ञान कदापि नहीं होता ।"
महाराज अभी भी संगीत की स्वर-लहरियों में खोए हुए थे । उन्हें रात हो जाना भान कराने के उद्देश्य से तत्क्षण ही गोपाल भाँड ने कहा- “महाराज ! सूरज डूब चुका है और रात गहरा रही है । अभी तो हम लोग कृष्णनगर की राह चलें । रास्ते में बात भी होती रहेगी।"
महाराज की मानो चेतना लौटी। समय का भान हुआ । उनहोंने अपना घोड़ा मोड़ लिया और कृष्णनगर की ओर लौट पड़े । महाराज के घोड़े के बगल में गोपाल भांड़ भी अपना घोड़ा ले आया । महाराज ने उससे कहा- “ गोपाल ! इस सुरम्य वातावरण में मन्द-मन्थर समीर के साथ वंशीकी सुरीली तान ने मुझे जैसे सम्मोहित कर लिया था । मैं अभी भी संगीत की उन लहरियों से अपनी शिराएं झंकृत होती अनुभव कर रहा हूँ । संगीत का ऐसा प्रभाव मैंने कभी नहीं जाना था ।"
"हाँ महाराज!“ गोपाल ने कहा- “मैं तो बचपन से ही संगीत - प्रेमी रहा हूँ । आप जानते हैं महाराज, उस रमणीय स्थल पर गुरु देवहरि न वह छोटा-सा मन्दिर बनवा रखा है । वे वहीं रहते हैं और कुछ शिष्यों को संगीत की शिक्षा देते हैं -परम्परागत संगीत की । वे वंशी बजा सकते हैं, तो वीणा और सितार भी । तबला, ढोल और मृदंग पर भी उनकी ऊँगलियाँ जादू का सा प्रभाव पैदा करती हैं।"
"अरे, तुम पहले से इस स्थान के बारे में जानते हो?" महाराज ने विस्मय से पूछा और घोड़े की लगाम खींच ली। घोड़ा हठात् रुक गया ।
गोपाल ने कहा-“हाँ, महाराज ! मैं बचपन से इस स्थान को जानता हूँ । मगर आपने घोड़ा क्यों रोक लिया ? चलते रहिए । रात गहरा चुकी है और महल तक पहुँचने में अभी समय लगेगा।"
महाराज ने घोड़े को एड़ लगाई, घोड़ा फिर मंद गति से चलने लगा ।"... तो तुम बचपन से इस स्थान के बारे में जानते हो ? मगर तुमने कभी मुझे बताया ही नहीं !"
गोपाल भाँड़ ने कहना शुरू किया- "महाराज ! बचपन में मैं गुरु देवहरि के पास संगीत सीखने जाया करता था । वंशी-वादन मैंने भी सीखी है। यदि मेरे परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी होती तो मैं अभी भी संगीत सीख रहा होता। महाराज! मुझे गुरु देवहरि बहुत मानते थे और कहा करते थे- ‘गोपाल! तेरी रगों में सुर, लय, ताल की त्रिवेणी कुलाँचे ले रही है। एक दिन तुम संगीत के संसार में नया कीर्तिमान स्थापत करोगे।' लेकिन महाराज! मैं गुरु देवहरि की यह कल्पना साकार नहीं कर पाया। अब तो आपके दरबार में हूँ। आपकी सेवा ही अब मेरा धर्म है।" इतना कहकर गोपाल चुप हो गया।
महाराज कृष्णचन्द्र भी गोपाल की बातें सुनकर मौन हो गए। उन्होंने इस प्रसंग को यहीं छोड़ देना उचित समझा क्योंकि उन्हें इस बात का अहसास गया था कि अपने बचपन के दिनों की स्मृति और गुरु देवहरि के कथन की स्मृति से गोपाल व्यथित हो गया है।
महाराज ने अपने घोड़े की गति बढ़ा ली। गोपाल ने भी घोड़ा दौड़ाना शुरू कर दिया। थोड़ी ही देर में महल पहुँचकर महाराज ने गोपाल को अपने घर जाने को कह दिया।
दूसरे दिन से दरबार में महाराज और गोपाल अपनी-अपनी सामान्य दिनचर्या में लग गए। इस घटना की याद भी गोपाल के मन से जाती रही। तभी एक दिन महाराज ने गोपाल से कहा- “गोपाल ! कार्तिक पूर्णिमा को अपने राज्य में संगीत सम्मेलन की व्यवस्था करो। गुरु देवहरि इस आयोजन में मुख्य अतिथि के रूप में पधारें, इसकी जिम्मेदारी तुम्हारी। आयोजन स्थल राजमहल का मन्दिर का प्रकोष्ठ रहेगा। तैयारियाँ एक माह पूर्व से चल रही हैं, तुम्हें कुछ संगीतज्ञों और गुरु देवहरि को आमंत्रित करने, उन्हें लाने और उनके आतिथ्य की तैयारी की जिम्मेदारी सौंपी जा रही है।”
गोपाल ने विस्मय से महाराज की ओर देखा । फिर बोला- “जैसी आज्ञा महाराज !”
नियत तिथि को संगीत का आयोजन हुआ। महाराज ने गुरु देवहरि की आवभगत की। अपने राज्य के इस वयोवृद्ध संगीतज्ञ का सम्मान किया। गुरु देवहरि की आज्ञा से समारोह में गोपाल भाँड़ ने भी वंशी बजाई। महाराज खुश हुए। गोपाल का यह रूप उनके लिए नया था।
आयोजन के समापन के बाद राज-काज फिर से सामान्य ढंग से चलने लगा कि एक दिन महाराज कृष्णचन्द्र के देरबार में मुर्शिदाबाद के नवाब का पत्र लेकर एक नौजवान पहुँचा। मुर्शिदाबाद के नवाब का पैगाम लेकर कोई नौजवान आया है, यह बात सुनते ही महाराज की त्योरियाँ चढ़ गईं। पता नहीं अब यह नकचढ़ा नवाब क्या चाहता है ! कभी इसे धरती की नाप चाहिए तो कभी आसमान के तारों की गणना...!
महाराज को युवक ने पत्र सौंप दिया। पत्र में मुर्शिदाबाद के नवाब ने अविलम्ब एक वंशीवादक को भेजने की माँग की थी जो नवाब के पुत्र को वंशी बजाना सिखा सके ।
पत्र पढ़ते ही महाराज सकते में आ गए कि कहाँ से मुर्शिदाबाद के नवाब के लिए वंशीवादक की व्यवस्था करें। इसी उधेड़बुन में उन्हें गोपाल भाँड़ की याद हो आई। उन्होंने गोपाल भाँड़ को अपनी समस्या बताई तो उसने उन्हें मुस्कुराते हुए कहा-"महाराज! आप चिन्ता न करें। इस बार मैं मुर्शिदाबाद के नवाब को ऐसा सबक सिखाऊँगा कि वह भविष्य में आपसे फिर कोई माँग करने का साहस नहीं करेगा।"
दूसरे दिन, उस युवक के साथ, संगीतकार के लिबास में गोपाल भाँड़ मुर्शिदाबाद के नवाब के पास पहुँचा । मुर्शिदाबाद के नवाब को यह व्यक्ति कुछ जाना-पहचाना सा लगा लेकिन उसे यह याद नहीं आया कि कभी ‘षट्रंग पुराण’ बाँचनेवाला पंडित ही फिर से उसके दरबार में आया है।
गोपाल भाँड़ से नवाब ने कहा- “मेरे पुत्र को वंशी बजाना सीखना है। आप उसे यह ज्ञान देने का कितना लेंगे?"
“एक सहस्र स्वर्ण मुद्राएँ गोपाल भाँड़ ने उत्तर दिया।
“यह तो बहुत है।” नवाब ने कहा- "और वह पहले से भी कुछ संगीत जानता है, अब बताओ कितना लोगे?" नवाब ने पूछा।
”एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ ।
नवाब भड़क गया–”क्या मजाक है! एक लाख स्वर्णमुद्राएँ आखिर क्यों?"
गोपाल ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया- "नवाब साहब ! संगीत साधना की चीज है। यह केवल साधक को मिलती है। आपने पहले पूछा था कि आपके पुत्र को वंशी बजाना सिखाने के लिए मैं कितना पारिश्रमिक लूँगा। मैंने आपके सामर्थ्य का खयाल करके एक सहश्र स्वर्ण मुद्राओं की माँग रखी क्योंकि आप एक वैभवशाली व्यक्ति की तरह दम्भ में पूछ रहे थे कि मैं कितना लूँगा! जब दूसरी बार आपने बताया कि वह पहले से भी कुछ संगीत जानता है, तब मुझे लगा कि मेरा काम और कठिन हो गया है- क्योंकि वैभवशाली होने के दम्भ के साथ संगीत की शिक्षा नहीं ली जा सकती। आपके पुत्र ने संगीत के नाम पर जो कुछ भी सीखा होगा, वह संगीत नहीं, कुछ और होगा। मुझे उसके हृदय से उस छद्म-संगीत की छाया तक को मिटाना होगा तब जाकर कहीं संगीत शिक्षा का आरम्भ हो पाएगा... और रही बात वंशी-वादन की शिक्षा की, तो यह भी बता दूँ कि वंशी की फूँक आत्मा से उठती है–फेफड़ों से नहीं। मुझे तो आपके पुत्र की आत्मा को भी जगाना और परिष्कृत करना होगा। इस कार्य के लिए एक लाख स्वर्ण मुद्राऍं अधिक नहीं हैं।"
मुर्शिदाबाद का नवाब लज्जित हो गया और गोपाल भाँड़ से उसने अपने दम्भपूर्ण प्रश्न के लिए क्षमा याचना की।
गोपाल ने मुस्कुराते हुए विनम्रता के साथ नवाब से कहा- “यदि आपके पुत्र को वंशी-वादन सीखना है तो उसे योग्य गुरु के पास स्वयं जाना होगा और उनकी कृपा प्राप्त करनी होगी।"
उसने नवाब को गुरु देवहरि का पता बता दिया और नवाब ने अपने पुत्र को गोपाल के साथ कृष्णनगर भेज दिया।
गोपाल की इस सफलता पर महाराज कृष्णचन्द्र मुस्कुराए और कहा– “गोपाल! तुम्हारी बुद्धि विलक्षण है। मुझे गर्व है कि तुम्हारे जैसा रत्न मेरे दरबार में है।”