वैशाली की नगरवधू (बौद्धकालीन ऐतिहासिक उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री

Vaishali Ki Nagarvadhu (Novel) : Acharya Chatursen Shastri

141. मागध मंत्रणा : वैशाली की नगरवधू

सेनापति भद्रिक और सम्राट ने स्कन्धावार राजगृह के मन्त्रणागार में युद्ध- मन्त्रणा की । मन्त्रणा में सम्राट, महासेनापति आर्य भद्रिक , सेनापति उदायि , सेनापति सोमप्रभ और अमात्य सुनीथ उपस्थित थे। उनके अतिरिक्त अपनी - अपनी सेना लेकर आए हुए सहायक राजा और राज - सेनापति भी उपस्थित थे, जिनमें बंग के वैश्रमणदत्त , कलिंग के वीरकृष्ण मित्र , अवन्ती के श्रीकान्त , भोज के समुद्रपाल , आन्ध्र के सामन्त भद्र, माहिष्मती के सुगुप्त , भृगुकच्छ के सुदर्शन और प्रतिष्ठान के सुवर्णबल - ये आठ मित्र महासेनापति सम्मिलित थे।

युद्ध के सम्बन्ध में सब अंगों पर प्रकाश डाला गया । दूष्य सेना , शत्रुसेना , आटविक सेना का पृथक् - पृथक् विभाजन कर पृथक्- पृथक् सेनापतियों को सौंप दिया गया । अपसार , प्रतिग्रह, पार्वत दुर्ग , नदी - दुर्ग और वन -दुर्गों के अधिकार पृथक्- पृथक् सेनानायकों को बांट दिए गए ।

शून्यपाल और वस्तुपाल नियत किए गए। सत्रों की रक्षा का समुचित प्रबन्ध किया गया ।

सम्पूर्ण सेना का अधिनायकत्व महासेनापति आर्य भद्रिक ने ग्रहण किया । सेनापति सोमप्रभ हुए । आर्य उदायि को नौबलाध्यक्ष नियत किया गया । अमात्य सुनीथ शून्यपाल नियत हुए । आचार्य काश्यप कूटयुद्ध के नायक हुए । सम्पूर्ण सम्मिलित स्थल - सैन्य का दायित्व सोमप्रभ को दिया गया - दक्षिण युद्ध- केन्द्र पर उनकी नियुक्ति हुई । आठों मित्र सेनानायक राजपुरुष उनकी अधीनता में रखे गए। सत्रों का भार गोपाल भट्ट को दिया गया । सम्राट् को युद्ध भार से सर्वथा मुक्त रखा गया । शत्रु - पक्ष में सम्राट को कोई न पहचान पाए, इसके लिए अनेक गूढ़ पुरुष सम्राट के वेश में नियत किए गए ।

सूत और मागधगण सेना के उत्साह- वर्धन के लिए नियुक्त हुए । शल्य-चिकित्सकों को शस्त्र , यन्त्र , अगद, स्नेह और वस्त्रों तथा खाने-पीने, शुश्रूषा करने के सब साधनों से सम्पन्न परिचारिकाओं सहित यथास्थान नियत किया गया । धान्वन दुर्ग में युद्ध करनेवाले योद्धाओं को , वनदुर्ग में युद्ध करनेवाले योद्धाओं को , जल तथा स्थल में युद्ध करनेवाले योद्धाओं को , खाई खोदकर उनमें बैठकर युद्ध करनेवाले योद्धाओं, आकाश में युद्ध करनेवाले तथा दिनभर और रात्रि में युद्ध करने वाले योद्धाओं को यथावत् विभाजित कर , उनके सेनानायकों को उन्हें सौंप , युद्ध- योग्य प्रदेश , ऋतु और अपेक्षित समय की सब व्यवस्थाओं पर विचार व्यवस्थित किया गया । रथ - युद्ध , हस्ति - युद्ध, अश्व - युद्ध तथा पदाति - युद्ध एवं चतुरंग प्रकाश- युद्ध के स्थान के मानचित्रों पर सम्यक् रीति से विचार करके सामरिक दृष्टि से उनके नियोजन की व्यवस्था की गई । भूमिविचय , वनविचय , विषम , तोय , तीर्थ, वात और रश्मि के उपयुक्त स्थलों पर संघात स्थापित किए गए । शत्रु के विविध आसार और अपने विविध आसार का प्रबन्ध किया गया । शत्रु की सेना को पकड़ने , शत्रु से पकड़े हुए अपने योद्धाओं को छुड़ाने , अपनी सेना के मार्ग पर शत्रुओं की सेना के चले जाने पर स्वयं शत्रु- सेना के मार्ग का अनुसरण करने , शत्रु के कोष और सेनानायकों का अपहरण करने , पीछे तथा सम्मुख हो आक्रमण करने , भागते हुए सैनिकों का पीछा करने तथा बिखरी हुई अपनी सेना को एकत्रित करने की सम्पूर्ण योजनाओं पर विचार किया गया ।

ये सारे कार्य अश्वारोही सैन्य को सौंपे गए।

सेना के अग्रभाग और पश्च -भाग का रक्षण करने , नये तीर्थ और नये मार्ग बनाने . घने जंगलों के घमासान युद्ध में प्रमुख भाग लेने , शत्रु के वासस्थानों में आग लगाने और अपने स्कन्धावार निवेश में लगी आग को बुझाने, शत्रु की संगठित सैन्य को छिन्न -भिन्न करने, योद्धाओं को पकड़ने, परकोट , द्वार , अटारी आदि गिराने , शत्रु के कोष को लूट ले भागने का कार्य हाथियों के अधिपति को सौंपा गया ।

अपनी सेना की रक्षा करने , आक्रमण के समय शत्रु सैन्य को रोकने , शत्रु के द्वारा पकड़े गए अपने योद्धाओं को छुड़ाने , बिखरी सेना को एकत्रित करने , शत्रु की सेना को विचलित करने का कार्य रथ -रथी और रथपतियों को सौंपा गया ।

प्रत्येक सम -विषम स्थानों, प्रत्येक अनुकूल - प्रतिकूल ऋतुओं और परिस्थितियों में घनघोर खड्ग युद्ध करने का काम पदातिक सैन्य को दिया गया ।

शिविर, मार्ग, सेतु , कूप , घाट आदि तैयार करने ; उन्हें ठीक -ठीक रखने , यन्त्र , शस्त्र , कवच आदि से साधन - सम्पन्न करने तथा आहत भटों को युद्धस्थल से ढोकर चिकित्सा - केन्द्रों तक पहुंचाने का काम विष्टि सैन्य को दिया गया ।

इस प्रकार युद्ध-संचालन की सारी व्यवस्था कर - मागध महासेनापति चण्डभद्रिक ने सोमप्रभ का अभिनन्दन करते हुए सम्पूर्ण सेनापतियों के समक्ष उनके शौर्य, कौशल , भक्ति और स्थैर्य की भूरि - भूरि प्रशंसा की और परिपूर्ण अनुशासन का बारम्बार अनुरोध किया ।

142 . प्रकाश - युद्ध : वैशाली की नगरवधू

मिही के उस पार की मल्लों की भूमि पर वज्जी सैन्य का स्कन्धावार निवेश था । मही- तट पर दुर्गों का तांता बंधा था तथा वहां एक अस्थायी पुल नावों का बांधा गया था , जिसकी रक्षा गान्धार काप्यक के गान्धार भट यत्नपूर्वक कर रहे थे। मिही- तट के इन दुर्गों में वज्जियों के शस्त्र - भण्डार और रक्षित सैन्य बहुत मात्रा में थे। मिही की धारा अति तीव्र होने के कारण नीचे से ऊपर आकर इन दुर्गों पर आक्रमण करना सुकर न था । वज्जी स्कन्धावार निवेश और मगध स्कन्धावार निवेश के मध्य में पाटलिग्राम था । पाटलिग्राम की स्थापना दूरदर्शी मगध महामात्य वर्षकार ने वज्जियों से युद्ध करने के लिए की थी । अभी उसमें , बहुत कम घर , हर्म्य और राजमार्ग बन पाए थे। बस्ती बहुत विरल थी । उत्तरकाल में जहां बैठकर गुप्त-वंश के महामहिम सम्राटों ने ससागर जम्बूद्वीप पर अबाध शासन - चक्र चलाया था , वह एक नगण्य साधारण ग्राम था । मागध राजपुरुष और कभी -कभी सैन्य की कोई टुकड़ी मास - आधा मास पाटलिग्राम में आकर टिक जाती थी । फिर उनके लौट जाने पर लिच्छवि राजपुरुष लोगों को घर से निकालकर बस रहते थे। उन्हें वहां से भगाने के लिए फिर मगध सेना मंगानी पड़ती थी । ग्रामजेट्ठक एक बूढ़ा मागध सैनिक था , उसके अधीन जो दस - बीस सैनिक थे . कछ भी व्यवस्था नहीं कर सकते थे । इस निकल घस के कष्ट से पाटलिग्राम के निवासी कृषक बड़े दु: खी थे । उन्हें पन्द्रह दिन लिच्छवियों के अधीन और पन्द्रह दिन मागधों के अधीन रहना पड़ता था । बहुधा दोनों ही राजपुरुष उनसे ज़ोर - जुल्म करके बलि उगाह ले जाते थे। अपने घर और अपनी सम्पत्ति पर उनका कोई अधिकार ही न था । न वे और न उनकी सम्पत्ति रक्षित थी । इसी से पाटलिग्राम की आबादी बढ़ती नहीं थी । कोई भी इस द्वैधे शासित ग्राम में रहना स्वीकार नहीं करता था ।

इस समय ग्राम का पूर्वी भाग लिच्छवि सेनापति के अधीन था और पश्चिमी भाग मागध सैन्य के । ग्रामवासी युद्ध के भय से भाग गए थे और घरों में दोनों पक्षों के सैनिक भरे थे जिन्हें प्रतिक्षण आक्रमण से शंकित रहना पड़ता था ।

मागध स्कन्धावार निवेश से पांच सौ धनुष के अन्तर पर पाटलिग्राम के दक्षिण समभूमि पर मागध सेनापति सोमप्रभ ने संग्राम - क्षेत्र स्थापित करके समव्यूह की रचना की । सम्पूर्ण व्यूह के पक्ष , कक्ष और उरस्य , ये तीन अंग स्थापित किए गए । सेना के अग्रभाग के दोनों पार्यों में ‘पक्ष स्थापित कर , उसके दो भाग कर , वाम माहिष्मती के सुगुप्त की ओर, दक्षिण पक्ष प्रतिष्ठान के सुवर्णबल की अधीनता में स्थापित हुआ । पीछे के ‘ कक्ष के भी दो भाग करके वाम कक्ष भोज समुद्रपाल और दक्षिण कक्ष आन्ध्र के सामन्त भद्र की अधीनता में स्थापित किया गया । मध्य ‘ उरस्य में स्वयं सेनापति सोमप्रभ स्थित हुए । उनके पाश्र्वरक्षक बंग के वैश्रमणदत्त, अवन्ती के श्रीकान्त और कलिंग के वीर कृष्णमित्र स्थित हुए ।

पैदल सेना के प्रत्येक सैनिक को एक - एक शम पर खड़ा किया गया । अश्वारोहियों को तीन - तीन शम के अन्तर पर , रथ और हाथियों को पांच-पांच शम के अन्तर पर , धनुर्धारियों की सैन्य को एक धनुष के अन्तर पर स्थापित किया गया । इस प्रकार पक्ष, कक्ष और उरस्य की पांचों सेनाओं का परस्पर का अन्तर पांच- पांच धनुष रखा गया ।

अश्वारोही के आगे रहकर उसकी सहायतार्थ युद्ध करने के लिए तीन भट , हाथी और रथ के आगे पन्द्रह - पन्द्रह भट तथा पांच-पांच अश्वारोही तथा घोड़े- हाथियों के पांच पांच पादगोप नियुक्त किए गए। इस प्रकार एक - एक रथ के आगे पांच-पांच घोड़े, एक - एक घोड़े के आगे तीन - तीन भट , कुल मिलाकर पन्द्रह जन आगे चलने वाले और पांच सेवक पीछे रहे ।

उरस्य स्थान में नौ रथों के ऐसे तीन त्रिकों की स्थापना हुई । अभिप्राय यह कि तीन-तीन रथों की एक - एक पंक्ति बनाकर तीन पंक्तियों में नौ रथों को खड़ा किया गया । इसी प्रकार कक्ष और पक्ष में भी । ऐसे नौ उरस्य , अठारह कक्ष और अठारह पक्ष में मिलकर एक व्यूह में पैंतालीस रथ , पैंतालीस रथों के आगे दो सौ पच्चीस अश्वारोही और छ : सौ पचहत्तर पैदल भट , परस्पर की सहायता से युद्ध करने को स्थापित हुए ।

इस व्यूह की रचना तीन समान त्रिकों से की गई थी , इससे यह समव्यूह कहाया । परन्तु इसकी व्यवस्था इस प्रकार की गई थी कि आवश्यकतानुसार इसमें दो - दो रथों की वृद्धि इक्कीस रथ -पर्यन्त की जा सकती थी ।

बची हुई कुछ सेना का दो -तिहाई भाग पक्ष , कक्ष तथा एक भाग उरस्य में आवाप , प्रत्यावाप , अन्वावाप और अत्यावाप करने की भी व्यवस्था तैयार रखी गई थी ।

लिच्छवि सैन्य को तीन स्वतन्त्र व्यूहों में सेनापति सिंह ने विभक्त किया था । एक ‘पक्षभेदी व्यूह स्थापित किया गया , इसमें सेना के सम्मुख दोनों ओर हाथियों को खड़ा किया गया और पिछले भाग में उत्कृष्ट अश्वारोहियों को , उरस्य में रथों को । इसका संचालन मल्लराज प्रमुख सौभद्र कर रहा था । दूसरी सैन्य को मध्यभेदी व्यूह में स्थापित किया गया था , इसमें हाथी मध्य में , रथी पीछे और अश्वारोही अग्रभाग में स्थापित थे । इसका संचालन लिच्छवि सेनानायक वज्रनाभि कर रहा था । तीसरी सेना को अंतर्भेदी व्यह में बद्ध किया गया था जिसमें पीछे हाथी , मध्य में अश्वारोही और अग्रभाग में रथों की योजना थी । रथों , अश्वों एवं हाथियों की रक्षा की व्यवस्था मागधों ही के समान थी । इस सैन्य का संचालन गान्धार तरुण कपिश कर रहा था ।

लिच्छवि सेनापति सिंह ने स्वयं हाथियों का एक शुद्ध व्यूह रच उसे अपने अधीन रखा था । इसमें केवल सन्नाह्य हाथी ही थे जिनकी संख्या तीन सहस्र थी । ये सब युद्ध की शिक्षा पाए हुए धीर और स्थिर थे। इसमें उन्मत्त और मदमस्त हाथियों को लौह - श्रृंखला में बद्ध करके अग्रभाग के दोनों पक्षों में रखा गया था । इस शुद्ध हस्ति -व्यूह को लेकर सेनापति सिंह लिच्छवि सैन्य के उरस्य में स्थित थे।

बीस सहस्र कवचधारी अश्वों का एक शुद्ध व्यूह लिच्छवि सेनापति महाबल की अध्यक्षता में कक्ष के दोनों पावों में सन्नद्ध किया गया था तथा पदाति सैनिकों के एक शुद्ध व्यूह को आगे दो भागों में और धनुर्धारियों के शुद्ध व्यूह को कक्ष के दोनों पावों में समुचित सेनानायकों की अध्यक्षता में स्थापित किया हुआ था ।

एक दण्ड दिन चढ़े तक दोनों ओर की सैन्य अपने - अपने व्यूहों में सन्नद्ध खड़ी हो गई। उनके शस्त्र सूर्य की स्वर्णिम आभा में चमक रहे थे। दोनों सेनापतियों ने एक बार सारी सेना में घूम - घूमकर अपनी - अपनी सेना का निरीक्षण किया । मागध सेनापति सोमप्रभ धूमकेतु पर आरूढ़ श्वेतकौशेय परिधान में अपनी सेना से बाहर आ दस धनुष के अन्तर पर खड़ा हो गया । इसी समय मागध सैन्य के प्रधान संचालक ने शंख फूंका। शंखध्वनि के साथ ही मागध सैन्य से जय - जयकार का महानाद उठा । इसी समय लिच्छवि सेनापति सिंह श्वेत अश्व पर आरूढ़, रंगीन परिधान पहने अपने सैन्य से बाहर आ , पांच धनुष के अन्तर पर खड़ा हो गया । अब लिच्छवि सैन्य में भी शंखध्वनि एवं जय - जयकार का नाद उठा ।

दोनों सेनानायकों ने सूर्य की रश्मियों में चमकते हुए नग्न खड्ग उष्णीष से लगाकर एक - दूसरे का अभिवादन किया ।

इसी समय एक बाण मागध सैन्य से छूटकर लिच्छवि सेनापति सिंह के अश्व के निकट भूमि पर आ गिरा। यह देख दोनों ही सेनापति विद्युत्- वेग से अपने - अपने अश्व दौड़ाकर अपनी सैन्य में जा घुसे । तुरन्त ही मागध सैन्य में आक्रमण की हलचल दीख पड़ी , यह देख सिंह ने अवरोध और प्रत्याक्रमण के आवश्यक आदेश सेनानायकों को दे, कुछ आवश्यक सूचनाएं भूर्जपत्र पर लिख , मिट्टी की मुहर कर द्रुतगामी अश्वारोही के हाथ वैशाली भेज दी ।

इसी समय मागधी सेना के व्यूह - बहिर्गत दो सहस्र अश्वारोही खड्ग और शूल हाथ में लिए वेग से आगे बढ़े । सिंह ने लिच्छवि सेनापति महाबल को दो सहस्र कवचधारी अश्वारोही लेकर वक्र गति से आगे बढ़कर बिना ही शत्रु से मुठभेड़ किए घूमकर अपनी सैन्य के दक्षिण पार्श्व-स्थित मध्यभेदी व्यूह में घुस जाने का आदेश दिया । महाबल मन्द गति से आगे बढ़ा । ज्योंही शत्रु पांच धनुष के अन्तर पर रह गए, महाबल ने दाहिनी ओर अश्व घुमाए और वेग से घोड़े फेंके। मागध सैन्य ने समझा कि शत्रु पराङ्मुख हो भाग चले । उन्होंने वेग से दौड़कर भागती हुई लिच्छवि सैन्य पर धावा बोल दिया । यह देखकर सिंह ने मध्यभेदी व्यूह के सेनानायक वज्रनाभि को अपने अश्वारोही और रथी जनों को पाश्र्व से शत्रु पर जनेवा काट करने का आदेश दिया । इससे शत्रु का पृष्ठ देश अरक्षित हो गया तथा शत्रु- सैन्य अपनी कठिनाई समझ गई । इसी समय सिंह ने पक्षभेदी व्यूह को आगे बढ़कर शत्रु- सैन्य में घुसकर उसके व्यूह को छिन्न -भिन्न करने का आदेश दिया ।

देखते - ही -देखते मागध सैन्य में अव्यवस्था फैलने लगी और उसकी आक्रमण करनेवाली सेना तीन ओर से घिर गई । यह देख सोमप्रभ ने पक्षसेनापति सुगप्त को स्थिर होकर रथियों और हाथियों से युद्ध करने का आदेश दे, कक्ष- स्थित भोज , समुद्रपाल और आन्ध्र - सामन्त भद्र को वृत्ताकार घूमकर शत्रु के पक्ष - भाग पर दुर्धर्ष आक्रमण का आदेश दिया । इस समय मागधी और लिच्छवि सेना आठ योजन विस्तार - भूमि में फैलकर युद्ध करने लगी। अपने पक्ष - भाग पर दो ओर से आक्रमण होता देख सिंह ने हाथियों के शुद्ध व्यूह को शत्रु के अग्रभाग में ठेल देने का आदेश दिया । मदमस्त , उन्मत्त हाथी चीखते चिंघाड़ते , भारी - भारी लौह श्रृंखलाओं को सूंड में लपेटकर चारों ओर घुमाते मागध सैन्य के अग्रभाग को कुचल - कुचलकर छिन्न -भिन्न करने लगे । ऊपर से हाथी - सवार सैनिक वाणवर्षा करते चले। यह देख सोमप्रभ ने आठ सहस्र सुरक्षित पदातिकों को छोटे खड्ग लेकर घुटनों के बल रेंग-रेंगकर हाथियों के पैरों और पेटों पर करारे आघात करने का आदेश दिया । इसी कार्य में सुशिक्षित मागध पदाति हाथियों की मार से बचकर उनके पाश्र्व में हो उनके पैरों और पेट में खड्ग से गम्भीर आघात करने और उछल - उछलकर उनकी सूंड़ें काट - काटकर फेंकने लगे । सूंड़ कटने से तथा पैरों और पेट में करारे घाव खा - खाकर हाथी विकल हो महावत के अंकुश का अनुशासन न मान आगे - पीछे, इधर - उधर अपनी और शत्रु की सेना को कुचलते हुए भाग चले । सिंह ने फिर आठ सहस्र कवचधारी अश्वों को आगे बढ़ाकर उन्हें आदेश दिया कि वे शत्रु की सेना के चारों ओर घूम - घूमकर चोट पहुंचाएं । सोमप्रभ ने यह देखा तो वह हाथियों को आगे कर तथा दोनों पार्थों में रथी स्थापित कर आगे-पीछे अश्वारोही ले लिच्छवि सेना के मध्य भाग में सुई की भांति घुसकर उसके उरस्य तक जा पहुंचा। लिच्छवि सैन्य की श्रृंखला भंग हो गई । तब मागध अश्वारोही सेना तेज़ी से अभिसृत , परिसृत , अतिसृत , अपसृत , गोमूत्रिका , मंडल , प्रकीर्णिका , अनुवेश , भग्नरक्षा आदि विविधगतियों से शत्रु - सैन्य में घुसकर उसे मथने लगी । अधमरे अश्व - गज चिल्लाने लगे । घायल सैनिक चीत्कार करने लगे । भट हुंकृति करके भिड़ने और खटाखट शस्त्र चलाने लगे । दोनों ही पक्षों का सन्तुलन ऐसा हुआ , कि प्रत्येक क्षण दोनों ही जय की आशा करने लगे । अब सिंह ने परिस्थिति विकट देख उरस्य में हाथियों के शुद्ध -व्यूह को स्थिर होकर युद्ध करने तथा रथियों को चारों ओर घूमकर शत्रुओं को दलित करने का आदेश दिया । पदाति भट जहां- तहां जमकर , बाण, शूल , शक्ति और धनुष से शस्त्र -वर्षा करने लगे।

सम्राट युद्धस्थल से सौ धनुष के अन्तर पर अपने प्रसिद्ध हाथी मलयागिरि पर खड़े युद्ध की गतिविधि देख रहे थे। क्षण- क्षण पर सूचनाएं उन्हें मिल रही थीं । वे शत्रु द्वारा छिन्न -भिन्न होती सेना को ढाढ़स बंधाकर फिर इकट्ठी कर रहे थे ।

अब अवसर देखकर लिच्छवि सेनापति सिंह ने दण्ड - व्यूह और प्रदर -व्यूह रच कक्ष भागों की ओर से शत्रु - सेना पर आक्रमण का आदेश दिया । सोमप्रभ ने देखा तो उसने तुरन्त दृढ़क व्यूह रच पक्षस्थित सेना को मुड़कर शत्रु - सैन्य पर वार करने का आदेश दिया । सिंह सन्नाह्य- अश्वों से सुरक्षित दस सहस्र अश्वों को असह्यव्यूह में अवस्थित कर स्वयं दुर्धर्ष वेग से सेना के बीच भाग में घुस गए ।

जय- पराजय अभी अनिश्चित थी । सूर्य इस समय अपराह्न में ढल चले थे। दोनों ओर की सैन्य रक्तपिपासु हो निर्णायक युद्ध करने में लगी थी । धीरे - धीरे युद्ध की विभीषिका बढ़ने लगी । घायल भट मृतक पुरुषों और पशुओं की ओट में होकर बाण -वर्षा करने लगे। मरे हुए हाथियों, घोड़ों , सैनिकों तथा टूटे - फूटे रथों से युद्धस्थल का सारा मैदान भर गया । एक दण्ड दिन रहे दोनों ओर से युद्ध बन्द करने के संकेत किए गए । हाथी , घोड़े, सैनिक धीरे - धीरे अपने - अपने आवास को लौटने लगे । सूर्यास्त से कुछ प्रथम ही युद्ध विभीषिका शान्त हो गई, परन्तु इस एक ही दिन के युद्ध में दोनों पक्षों की अपार हानि हो गई । यह महाभीषण युद्ध जब सूर्यास्त होने पर बन्द हुआ तो आहत , थकित , भ्रमित योद्धा अपने अपने स्थानों पर उदास और निराश भाव से लौट आए।

143 . लघु विमर्श : वैशाली की नगरवधू

सेनापति सिंह ने युद्धस्थल से लौटकर तुरन्त सम्पूर्ण स्कन्धावार का निरीक्षण किया । फिर घायलों और मृतकों की अविलम्ब व्यवस्था कर घायलों को जल्द - से - जल्द सेवा - केन्द्रों में भिजवाने का प्रबन्ध किया । युद्धबन्दियों तथा शत्रु के घायलों को अनुक्रम से शिविरों में भिजवाने के आदेश दिए । इसके बाद उन्होंने भूर्जपत्र पर युद्ध -विवरण के साथ आगे की योजनाएं भी सेनानायक सुमन के पास भिजवा दीं । फिर उन्होंने सब सेनानायकों को एकत्र कर भावी कार्यक्रम पर विचार -विमर्शकिया। शत्रु की गतिविधि का अनुमान कर नये- नये आदेश दिए। घायल और मृत सैनिकों, नायकों, उपनायकों के स्थान पर नवीनों की नियुक्ति की । स्कन्धावार की सुरक्षा की व्यवस्था और भी दृढ़ की । इसके बाद वे गहन चिन्तामग्न होकर युद्धक्षेत्र के मानचित्र को देखकर कोई योजना बनाने लगे ।

सब कार्यों से निपटकर उन्होंने स्नान, भोजन और थोड़ा विश्राम किया । इस बीच जल - सेनानायक काप्यक गान्धार ने आकर सूचना दी ।

दोनों वीर सेनापति इस प्रकार परामर्श करने लगे । सिंह ने कहा - “ मित्र काप्यक, मागध सेनापति सोमप्रभ उत्तम सेनानी है। ”

“ क्यों नहीं , वह भी तो आचार्य बहुलाश्व का अन्तेवासी है! ”काप्यक ने हंसकर कहा ।

सिंह ने कहा-“ यद्यपि आज शत्रु की बहुत भारी हानि हुई है, परन्तु हमारी क्षति भी ऐसी नहीं , जिसकी उपेक्षा की जा सके । ”

“ क्या शासानुशास का दर्प दलन करके सिंह आज मागधों से हतोत्साह हुए हैं ? ”

“ नहीं मित्र , परन्तु मैं वस्तुस्थिति की बात कहता हूं। अब वे सम्भवत : कल पाटलिग्राम तीर्थ से गंगा पार कर वैशाली पर आक्रमण करेंगे। निरर्थक प्रकाश युद्ध करके नर - संहार न कराएंगे। ”

“ तो मित्र, पाटलिग्राम तीर्थ से गंगा पार करना इतना आसान नहीं है। ”

“ तेरे रहते ! यह मैं जानता हूं मित्र , वैशाली की लाज तेरे हाथ है। ”

“ चिन्ता नहीं मित्र सिंह, वचन देता हूं - मागध गंगा के इस ओर का तट न छू सकेंगे। ”

“ आश्वस्त हुआ मित्र , क्या तुझे कुछ चाहिए ? ”

“ नहीं मित्र , मैं चाहता हूं , तू विश्राम कर ! ”

“ तो मित्र , एक बात ध्यान में रखना । मागध कदापि दिन में गंगा पार न करेंगे। ”

“ तब तो और अच्छा है, हमें अपनी योजना सफल करने का सुअवसर मिल जाएगा। ”

“ तो मित्र, अब मैं विश्राम करूंगा। ”

“ निश्चिन्त रह , सेनापति ! ” दोनों विदा हुए।

144. व्यस्त रात्रि : वैशाली की नगरवधू

वह रात और दूसरा दिन शान्ति से सिंह का व्यतीत हआ । दोनों ओर के सैनिक अपने - अपने मृत सैनिकों , घायलों , बन्दियों की व्यवस्था में रत रहे । सूर्यास्त के समय सिंह को सूचना मिली – पाटलिग्राम के गंगा- तट पर हाथियों की बड़ी भीड़ एकत्रित है। मगध सेना सम्भवतः आज ही रात में इस पार उतरना चाहती है । सिंह ने तुरन्त कर्तव्य स्थिर किया । एक भूर्जपत्र पर मिट्टी की मुहर लगा , मिही - संगम पर अवस्थित काप्यक के पास भेज दिया । दूसरा पत्र उसी प्रकार सेनापति और गणपति के पास भेज दिया ; जिसमें सूचना थी कि युद्ध आज रात ही को प्रारम्भ हो रहा है । गान्धार काप्यक ने आदेश पाते ही पाटिलग्राम के सामनेवाले घाट पर अपनी योजना ठीक की । कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात्रि थी । गहरा अन्धकार छाया था । हिलते हुए गंगाजल में कांपते हुए तारे टिमटिमा रहे थे। उस ओर मगध - शिविर में दूर कहीं - कहीं आग जल रही थी । इधर के तट पर काप्यक ने धनुर्धारियों की एक सृदृढ़ पदाति - सेना को गंगा - तीर के गहन वन में छिपा दिया । उनमें से बहुत तो अपने धनुष -बाण ले वृक्षों चढ़ गए। बहुत - से तटवर्ती ऊंचे-ऊंचे ढूहों पर चढ़ गए। बहुत - से पेड़ों की आड़ में छिपकर चुपचाप बैठ गए। इनका नेतृत्व उपनायक प्रियवर्मन् कर रहा था ।

भटों की दूसरी टुकड़ी बड़े- बड़े खड्ग और शूल लिए हुए गंगा- तट पर फैले हुए बालू के मैदान में घाट के नीचे की ओर मिही- संगम तक चुपचाप पृथ्वी पर लेट गई; और संकेत की प्रतीक्षा करने लगी । इनका नेतृत्व उपनायक पुष्पमित्र कर रहे थे।

धनुष , शूल और खड्गधारी तीसरी सेना को रणतरियों में सजाकर काप्यक ने अपने नेतृत्व में ले लिया । प्रत्येक तरी में पचास योद्धा थे। रणतरी मर्कटह्रद से गंगा -तीर तक आड़ में अव्यवस्थित चुपचाप आक्रमण की प्रतीक्षा कर रही थीं ।

सब ओर सघन अन्धकार और नितान्त सन्नाटा छाया हुआ था । किसी जीवित प्राणी के अस्तित्व का यहां पता ही नहीं लगता था ।

अभी रात एक पहर गई थी । काप्यक ने धीवरों के दल के पास जाकर एक - एक को ध्यान से देखा । उनमें एक तरुण को संकेत से पास बुलाया । पास आने पर कहा-

“ तुम्हारा क्या नाम है मित्र ? ”

“ शुक , भन्ते सेनापति। ”

“ तुममें कितना साहस है, मित्र ? ”

“ बहुत है सेनापति ! ”

“ सच ? ”काप्यक ने हंसकर कहा । तरुण की धवल दन्तपंक्ति भी अंधकार में चमक उठी । काप्यक ने उसके उसी रात के जैसे गहन कन्धों को छूकर कहा

“ शुक , एक गुरुतर कार्य कर सकोगे ? ”

“ निश्चय सेनापति ! ”

“ पर प्राण - संकट आता हो तो ? ”

“ कार्य पूरा होने पर आए तो हानि नहीं , भन्ते! ”

“ पर पहले ही आया तो ? ”

“ ऐसा हो ही नहीं सकता , सेनापति ! ”

“ तुम बड़े वीर हो प्रिय , पर काम बहुत भारी है। ”

“ आप कहिए तो ? ”

“ उस पार धारा चीरकर जा सकोगे ?

“ इसमें कौन कठिनाई है! वहां जाकर क्या करना होगा , भन्ते ? ”

“ जल में छिप रहना होगा । ठीक पाटलिग्राम के घाट के नीचे। ”

“ मुझे छिपने के सौ हथकण्डे याद हैं , भन्ते ! ”

“ पर वहां शत्रु की अनगिनत नावें हैं , सब पर चौकन्ने मागध धनुर्धारी भट हैं । ”

“ पर शुक को कौन देख पा सकता है, सेनापति ? मैं जल ही जल में डुबकी लगाता जाऊंगा, फिर किसी नाव की पेंदी में चिपक जाऊंगा। बड़ी मौज रहेगी, भन्ते ! ”

“ परन्तु इतना ही नहीं शुक , तुम्हें और भी कुछ करना होगा। ”

“ और क्या सेनापति ? ”

“ ज्यों ही तुम देखो कि शत्रु की नावें भटों से भरी इस पार आने को हैं , तुम्हें हमें संकेत करना होगा । ”

शुक ने दो उंगलियां मुंह में लगाकर एक तीव्र शब्द किया और कहा - “ इसी तरह शब्द करूंगा, भन्ते ! वे समझेंगे, कोई पानी का पक्षी बोल रहा है। ”

काप्यक ने हंसकर कहा “ ऐसा ही करो शक ! ”

फिर उन्होंने अन्धकार को भेदकर अपनी दृष्टि उस पार पाटलिग्राम के पाश्र्व में पड़े मगध- स्कन्धावार की ओर दौड़ाई । फिर उन्होंने कहा- “ तो शुक, अब देर न करो। तुम्हें क्या चाहिए ? ”

“ कुछ नहीं.....यह मेरे पास है। ”उसने एक विकराल दाव अपनी टेंट से निकालकर दिखाया और छप से पानी में पैठ गया ।

कुछ देर तक काप्यक उसी साहसी वीर की ओर आशा - भरी दृष्टि से देखते रहे। इसके पीछे उन्होंने चुपचाप गहन वन में प्रवेश किया । एक झाड़ी में थोड़ा स्थान था , उसे स्वच्छ करके दो सैनिक वहां बैठे थे। काप्यक के संकेत पर उन्होंने प्रकाश किया । काप्यक ने कुछ पंक्तियां भूर्जपत्र पर लिखकर मिट्टी की मुहर कर सिंह के पास उल्काचेल भेज दीं । फिर उन्होंने उपनायकों से परामर्श किया, उन्हें आदेश दिए और फिर सब ...।

अकस्मात् दूर से वही क्षीण शब्द सुनाई पड़ा । कुछ ठहरकर फिर वही शब्द हुआ । काप्यक तन्मय हो संकेत ध्वनि सुनने लगे , फिर उन्होंने तुरन्त प्रियवर्मन् को संकेत किया । प्रियवर्मन् ने अपने भटों को संकेत किया , सबने सावधान होकर अपने - अपने धनुष पर तीर चढ़ा लिए। वे गंगा -तीर पर घने अंधकार में आंख गड़ा - गड़ाकर देखने लगे । नीरवता ऐसी थी कि प्रत्येक की सांस सुनाई दे रही थी । काप्यक की रणतरियों में भी हलचल हो रही थी , पर यहां भी सब -कुछ नि : शब्द । काप्यक गंगा -तीर के एक सघन वृक्ष की छाया में एक तरी में खड़े चारों ओर चौकन्ने हो देख रहे थे।

जल में शब्द सुनाई दिया - छप - छप । घाट से कुछ नीचे की धार बहुत उथली थी । उसी ओर से वह शब्द आ रहा था । शब्द निकट आने लगा । कोई काली छाया बराबर जल में आगे बढ़ रही थी । प्रियवर्मन् ने संकेत किया , बाणों की एक प्रबल बाढ़ धनुषों से निकली ।

गंगा की मध्य धार में तैरती नौकाओं में से चीत्कार सुनाई दिया । पतवार के शब्द पीछे की ओर लौटते सुनाई देने लगे । काप्यक ने प्रियवर्मन् को एक सन्देश भेजा । क्षण - भर में फिर सन्नाटा छा गया । काप्यक सोचने लगे कि शत्रु क्या अब इस रात चेष्टा न करेगा ? परन्तु इसी समय उन्हें शुक का शब्द सुनाई दिया । काप्यक ने प्रियवर्मन् के पास सन्देश भेजा

“ शत्रु अधिक तैयारी से आ रहा है, सावधान रहो ! ”

गंगा की धार में अनगिनत नावें तैरती दिखाई दीं । चप्पुओं के चलने के शब्द स्पष्ट सुन पड़ने लगे । सैकड़ों नावें तीर की भांति धंसी चली आ रही थीं । प्रियवर्मन् की सेना अन्धाधुन्ध बाण -वर्षा कर रही थी , परन्तु शत्रु वेग से बढ़ा ही आ रहा था । उसकी नावें इस किनारे पर आ लगीं । कपिल ने तट पर एकत्रित पत्तों और लकड़ियों में आग लगा दी । उसके प्रकाश में सबने देखा - शत्रु के अनगिनत भट इधर तट पर आ रहे हैं और भी चले आ रहे हैं । प्रियवर्मन् के धानुष्य बाण -वर्षा कर रहे थे। प्रकाश की सहायता से उनके बाणों में विद्ध हो होकर शत्रु जल में गिर रहे थे। शत्रु की जो सेना थल पर उतरने लगी, पुष्पमित्र की टुकड़ी उस पर टूट पड़ी । तट पर गहरी मार - काट मच गई । इसी समय अकस्मात् न जाने कहां से सैकड़ों रणतरियां गंगा में इधर - उधर फैल गईं । उसमें जड़ी लौह श्रृंगों से टकराकर मागधी नावों में छिद्र हो गए । वे डूबने लगीं।

शूलों और खड्गों से युद्ध तुमुल हो गया । दोनों ओर के वीर चीत्कार करते हुए युद्ध करने लगे । काप्यक ने देखा - एक सुदृढ़ नौका पर एक व्यक्ति खड़ा आदेश दे रहा था । काप्यक ने साहस कर अपनी तरणी उस ओर बढ़ाई । वह तट के समीप ही था । काप्यक ने देखा वह कवच से सुसज्जित है । बाण और खड्ग की चोट उस पर काम न देगी । काप्यक धीरे - से अपनी नाव से जल में कूद पड़े और छिपकली की भांति उछलकर शत्रु की नाव पर जा कवचधारी के सिर पर गदा का एक भरपूर प्रहार किया , चोट से घबराकर वह जल में आ घिरा । काप्यक भी गदा फेंक, खड्ग ले , जल में कूद पड़े । इसी समय मगध की अनगिनत नावों ने दोनों को घेर लिया । काप्यक उस मूर्च्छित पुरुष को बायें हाथ में उठाए दाहिने हाथ से दोनों ओर खड्ग चला रहे थे। परन्तु उसका कवच सहित भारी बोझा उनसे संभल नहीं रहा था । इधर उन पर चारों ओर से प्रहार हो रहे थे। इसी समय एक बर्छा उनकी जंघा में घुस गया । कवचधारी व्यक्ति उनके हाथ से छूट गया । उन्हें मूर्छा ने घेर लिया । पर मूर्च्छित होते - होते उन्होंने अपने निकट एक सुपरिचित मुख देखा, वह शुक था । उसका भारी दाव रक्त से भरा था और वह प्रबल प्रयास से मूर्च्छित काप्यक और कवचधारी को तट की ओर ला रहा था ।

इसी समय दो व्यक्तियों ने पानी से सिर निकाला । दोनों नौकाओं के तल में चिपक रहे थे। सिर निकालकर उन्होंने अघाकर सांस ली । फिर वे टूटी हुई नौकाओं की आड़ लेते हुए तट तक आए और जल - ही - जल में कगार के सहारे - सहारे पानी के बहाव के विपरीत ऊपर को चलते गए। दोनों के हाथ में नग्न खड्ग थे। अब वे वैशाली के तीर्थ पर आ पहंचे,

यहां कोई मनुष्य न था । एक सघन वृक्ष की आड़ में पानी से उचककर एक पुरुष बैठकर सुस्ताने लगा। दूसरा घाट के ऊपर आ चारों ओर सावधानी से इधर - उधर देखने लगा । इसके बाद उसने एक संकेत किया । संकेत सुनते ही दूसरा पुरुष काले लबादे से अपने भीगे हुए शरीर और खड्ग को ढांपकर उसके पीछे-पीछे वृक्षों की आड़ देता हुआ वैशाली के गुप्त द्वार की ओर अग्रसर हुआ ।

145. अभिसार : वैशाली की नगरवधू

वैशाली के राजपथ जनशून्य थे। दो दण्ड रात जा चुकी थी । युद्ध के आतंक ने नगर के उल्लास को मूर्छित कर दिया था । कहीं - कहीं खड़े प्रहरी उस अंधकारपूर्ण रात्रि में भयानक भूत - से प्रतीत हो रहे थे। दो मनुष्य मूर्तियां अन्धकार को भेदन करतीं, हर्यों की छाया में वैशाली के गुप्त द्वार के निकट आ पहुंचीं। एक ने द्वार पर आघात किया । भीतर से प्रश्न हुआ - संकेत ?

मनुष्य - मूर्ति ने मृदुस्वर में कहा — अभिनय। हल्की चीत्कार करके द्वार खुल गया । दोनों मूर्तियां भीतर घुसकर राजपथ छोड़ अंधेरी गलियों में अट्टालिकाओं की परछाईं में छिपती -छिपती आगे बढ़ने लगीं । प्रत्येक मोड़ पर एक काली छाया आड़ से निकलकर आगे बढ़ती और दोनों मूर्तियां नि : शब्द उसका अनुसरण करतीं ।

सप्तभूमि प्रासाद के सिंहद्वार पर आकर दोनों मूर्तियां रुक गईं । संकेत के साथ ही द्वार खुल गया और आगन्तुकों को भीतर ले द्वार फिर उसी प्रकार बन्द हो गया ।

प्रासाद में सन्नाटा था । न रंग-बिरंगे प्रकाश, न फव्वारे, न दास - दासियों की , न दण्डधरों की भाग - दौड़ । दोनों व्यक्ति चुपचाप प्रतिहार के साथ पीछे- पीछे चले गए। सातवें अलिन्द को पार करने पर उन्होंने देखा एक और काली मूर्ति एक खम्भे के सहारे खड़ी है । उसने आगे बढ़कर कहा - “ इधर से भन्ते !

प्रतिहार वहीं रुक गया । नवीन मूर्ति स्त्री थी । वह सर्वाङ्ग काले कपड़े से आच्छादित थी । दोनों आगन्तुक कई प्रांगण , अलिन्द और कक्षों को पार करते हुए कुछ सीढ़ियां उतर , एक छोटे- से द्वार पर पहुंचे जो चांदी का था । इस पर अतिभव्य जाली का काम हो रहा था । उस जाली में से छन - छनकर रंगीन प्रकाश बाहर आ रहा था ।

द्वार खोलते ही दखा - एक बहुत विशाल कक्ष भिन्न- भिन्न प्रकार की सुख-सामग्रियों से परिपूर्ण था । यद्यपि यह उतना बड़ा न था जहां नागरिकजनों का सत्कार होता था , परन्तु उत्कर्ष की दृष्टि से इस कक्ष के सम्मुख उसकी गणना नहीं हो सकती थी । यह सम्पूर्ण भवन श्वेत और काले पत्थरों से बना था और सर्वत्र ही सुनहरी पच्चीकारी का काम हो रहा था । उसमें बड़े- बड़े स्फटिक के अष्टपहलू अमूल्य खम्भे लगे थे, जिनमें मनुष्य का हुबहू प्रतिबिंब सहस्रों की संख्या में दीखता था । विशाल भावपूर्ण चित्र भीतों पर अंकित थे। सहस्र दीप - गुच्छों में सुगन्धित तेल जल रहा था । धरती पर एक महामूल्यवान् रंगीन रत्नकम्बल बिछा था , जिस पर पैर पड़ते ही हाथ - भर धंस जाता था । ठीक बीचोंबीच एक विचित्र आकृति की सोलह पहलू ठोस सोने की चौकी पड़ी थी , जिस पर मोर पंख के खम्भों पर मोतियों की झालर लगा एक चंदोवा तना हुआ था तथा पीछे कौशेय के स्वर्णखचित पर्दे लटक रहे थे , जिनमें ताजे पुष्पों की कर्णिकाएं बड़ी ही कारीगरी से गूंथकर लगाई गई थीं । निकट ही एक छोटी - सी रत्नजटित तिपाई पर मद्यपात्र और पन्ने का एक बड़ा - सा पात्र धरा था ।

हठात् सामने का पर्दा हटा और उसमें से एक रूप - राशि प्रकट हुई , जिसके बिना यह अलिन्द सूना हो रहा था । उसे देखते ही दोनों आगन्तुकों में से एक तो धीरे - धीरे पीछे हटकर कक्ष से बाहर हो गया , दूसरा व्यक्ति स्तम्भित - सा वहीं खड़ा रह गया । अम्बपाली आगे बढ़ी । वह बहुत महीन श्वेत कापांस पहने थी । वह इतनी महीन थी कि उसके आर- पार साफ दीख पड़ता था । उसमें से छनकर उसके सुनहरे शरीर की रंगत अपूर्व छटा दिखा रही थी । पर यह रंग कमर तक ही था । यह चोली या कोई दूसरा वस्त्र नहीं पहने थी , इसलिए उसकी कमर के ऊपर के सब अंग -प्रत्यंग स्पष्ट दीख पड़ते थे।

न जाने विधाता ने उसे किस क्षण में गढ़ा था । कोई चित्रकार न तो उसका चित्र ही अंकित कर सकता था , न कोई मूर्तिकार वैसी मूर्ति ही बना सकता था ।

इस भुवन - मोहिनी की वह छटा आगन्तुक के हृदय को छेदकर पार हो गई । उसके घनश्याम - कुंचित कुन्तल केश उसके उज्ज्वल और स्निग्ध कन्धों पर लहरा रहे थे। स्फटिक के समान चिकने मस्तक पर मोतियों का गूंथा हुआ चन्द्रभूषण अपूर्व शोभा दिखा रहा था । उसकी काली और कंटीली आंखें , तोते के समान नुकीली नाक , बिम्बाफल जैसे दोनों ओष्ठ और अनारदाने के समान उज्ज्वल दांत , गौर और गोल चिबुक बिना ही श्रृंगार के अनुराग और आनन्द बिखेर रहे थे ।

मोती की कोर लगी हुई सुन्दर ओढ़नी पीछे की ओर लटक रही थी , और इसलिए उसका उन्मत्त कर देने वाला मुख स्पष्ट देखा जा सकता था । वह अपनी पतली कमर में एक ढीला - सा बहुमूल्य रंगीन शाल लपेटे हुए थी । उसकी हंस के समान उज्ज्वल गर्दन में अंगूर के बराबर मोतियों की माला लटक रही थी , तथा गोरी -गोरी कलाइयों में नीलम की पहुंची पड़ी हई थीं ।

उस मकड़ी के जाले के समान महीन उज्ज्वल परिधान के नीचे सुनहरे तारों की बुनावट का एक अद्भुत घाघरा था जो उस प्रकाश में शत- सहस्र बिजलियों की भांति चमक रहा था । पैरों में छोटी - छोटी लाल रंग की उपानतें थीं , जो सुनहरी फीते से कसी थीं ।

उस समय कक्ष में गुलाबी रंग का प्रकाश हो रहा था । उस प्रकाश में अम्बपाली का इस प्रकार मानो आवरण - भेदन कर इस रूप -रंग में प्रकट होना आगन्तुक व्यक्ति को मूर्तिमती मदिरा का अवतरण - सा प्रतीत हुआ । रूप - सौन्दर्य , सौरभ और आनन्द के अतिरेक से वह भाव -विमोहित - सा स्तब्ध -निस्पन्द खड़ा रहा।

अम्बपाली आगे बढ़ी; उसके पीछे सोलह दासियां एक ही रूप -रंग की , मानो उसी की प्रतिमाएं हों , अर्घ्य- पाद्य लिए आगे आईं ।

अम्बपाली ने आगन्तुक के निकट पहुंच , नीचे झुक , नतजानु हो आगन्तुक का अभिवादन किया , उसके चरणों में मस्तक झुकाया । दासियां भी पृथ्वी पर झुक गईं ।

आगन्तुक महाप्रतापी मगध - सम्राट् बिम्बसार थे। उन्होंने हाथ बढ़ाकर अम्बपाली को ऊपर उठाया । अम्बपाली ने कहा - “ देव , पीठ पर विराजें ! ”सम्राट ने ऊपर का परिच्छद उतार फेंका। वे रत्नपीठ पर विराजमान हुए ।

अम्बपाली ने नीचे धरती पर बैठकर सम्राट का अर्घ्य- पाद्य , गन्ध - पुष्प आदि से सत्कार किया ।फिर इसके बाद उसने अपनी मदभरी आंखें सम्राट पर डालकर कहा -“ देव , इतना दु: साहस ! इतना असाध्य- साधन! ”

“ प्रिये , स्थिर न रह सका। ”

“ मैं जानती थी देव ! ”

“ ओह, तो तुम बिम्बसार के मनोदौर्बल्य से अभिज्ञात हो ? ”

“ मैं प्रतीक्षा कर रही थी । ”

“ मैंने सोचा, अब नहीं तो फिर कभी नहीं, कौन जाने यह युद्ध का दानव बिम्बसार को भक्षण ही कर ले , मन की मन में ही रह जाए। ”

“ शान्तं पापम् ! ”

“ किन्तु प्रिये, तुम्हारा प्रबन्ध धन्य है। ”

“ देव , कोटि - कोटि प्राणों के मूल्य से अधिक मेरे लिए आपका जीवन- धन था । किन्तु शत्रुपुरी में आपका आना अच्छा नहीं हुआ । ”

“ वाह, कैसा आनन्दवर्धक है! प्रिये प्राणसखे आज ही , इस क्षण बिम्बसार के प्राणों में यौवन -दर्शन हुआ है। इस आनन्द के लिए तो कोई भी पुरुष सौ बार प्राण दे सकता है। ”

“ मैं कृतार्थ हुई देव ! ”इतना कह अम्बपाली ने सुवासित मद्य का पात्र भरकर सम्राट के आगे किया । सम्राट ने पात्र में अम्बपाली का हाथ पकड़ उसे खींचकर बगल में बैठा लिया और कहा - “ इसे मधुमय कर दो प्रिये ! ”और उन्होंने वह पात्र अम्बपाली के अछूते होंठों से लगा दिया । इसके बाद वे गटागट उसे पी गए।

संकेत पाते ही दासियों ने क्षण में गायन -वाद्य का आयोजन जुटा दिया । कक्ष सुवासित मदिरा की सुगन्ध और सुरंग में सुरभित - सुरंजित हो संगीत - लहरी में डूब गया और उस गम्भीर रात्रि में जब वैशाली में युद्ध की महती विभीषिका रक्त की नदी बहा रही थी , मगध के प्रतापी सम्राट् सुरा - सौन्दर्य के दांव पर शत्रुपुरी में अपने प्राण और अपने साम्राज्य को लगा रहे थे ।

146. सांग्रामिक : वैशाली की नगरवधू

मागध सैन्य अत्यन्त क्षतिग्रस्त हो उस रात के अभियान से लौटी । सम्राट और सेनापति आर्य उदायि उसके साथ नहीं थे। यह अत्यन्त भयानक बात थी । वे दोनों शत्रु के बन्दी हुए या युद्ध में मारे गए, इसका कोई सूत्र नहीं प्राप्त हुआ । केवल एक सैनिक ने सेनापति उदायि को बन्दी होते देखा था । परन्तु सम्राट के सम्बन्ध में कोई भी कुछ नहीं बता सका। सोमप्रभ ने सुना तो हतबुद्धि हो गए। उन्होंने जल्दी- जल्दी एक लेख लिखकर आर्य भद्रिक के पास दक्षिण केन्द्र पर भेज दिया और स्वयं दौड़े हुए तटस्थ केन्द्र पर आ पहुंचे। सेना की दुर्दशा देखकर उनकी आंखों में आंसू आ गए। सब विवरण सुनकर उन्होंने तत्काल ही अपना कर्तव्य स्थिर किया । प्रथम उन्होंने यह कठोर आज्ञा प्रचारित की कि सम्राट् का लोप होने का समाचार स्कन्धावार में न फैलने पाए। सेनापति उदायि के बन्दी होने का समाचार भी गुप्त रखा गया । आहतों की जो व्यवस्था हो सकती थी , उन्होंने फुर्ती से कर डाली । इसी समय आर्य भद्रिक भी आ पहुंचे। सोम ने कहा - “ आर्य सेनापति, बड़े ही दुर्भाग्य की बात है! ”

“ क्या सम्राट हत हुए ? ”

“ ऐसी कोई सूचना नहीं है। ”

“ और उदायि ? ”

“ उन्हें बन्दी होते देखा गया है। ”

“ सम्राट के साथ कौन था ? ”

“ आर्य गोपाल थे, वे भी नहीं लौटे हैं । ”

“ उन्हें जीवित या मृत किसी ने देखा ? ”

“ नहीं। ”

“ यह संदिग्ध है भद्र , सम्राट के अन्वेषण के लिए अभी चर भेजने होंगे । ”

“ वह सब सम्भव व्यवस्था मैंने कर दी है, पर आपके सन्देह से मैं सहमत हूं । भन्ते सेनापति , कैसे सम्राट् और गोपाल दोनों एक बार ही लोप हो गए ? ”

“ किसी भी सैनिक ने उन्हें देखा ? ”

“ किसी ने भी नहीं। ”

“ तो उन्होंने युद्ध में भाग नहीं लिया ? ”

इतना कहकर आर्य भद्रिक गहन चिन्ता में पड़ गए। सोमप्रभ महासेनापति का मुंह ताकने लगे । उन्होंने कहा - “ क्या कोई गूढ़ रहस्य है भन्ते सेनापति ? ”

“ यह है तो अतिभयानक भद्र, नौसेना की कैसी हालत है ? ”

“ वह अब युद्ध करने योग्य नहीं रही, नौकाएं सब छिन्न -भिन्न हो चुकीं । नौकाओं पर किसी योजना से प्रहार हुआ है। ”

“ किन्तु सोमभद्र, तुमने कैसे इस अभियान की सहमति दी ? ”

“ सम्राट नहीं माने भन्ते सेनापति , उन्होंने बहुत हठ की । ”

“ तो उन्हें जाने क्यों दिया ? ”

“ इसके लिए वे अड़ गए । उन्होंने इस अभियान की योजना स्वयं बनाई थी । नेतृत्व भी स्वयं किया था । आर्य उदायि को सहमत होना पड़ा और मुझे भी स्वीकृति देनी पड़ी । परन्तु ऐसी दुर्घटना की तो सम्भावना न थी । ”

“ यदि सम्राट् हत हुए ? ”

“ तो भन्ते सेनापति , अति दुर्भाग्य का विषय होगा। ”

“ भद्र सोम, यदि सम्राट् हत हुए तो जम्बूद्वीप की अपार क्षति होगी । पूर्व का साम्राज्य भंग हो जाएगा । ”

“ यदि बन्दी हुए ? ”

“ पर किसी ने देखा तो नहीं । इसी में एक गूढ़ संकेत मुझे मिलता है भद्र, हमें गुरुतर कार्य करना होगा। ”

“ मैं प्राणान्त उद्योग करूंगा भन्ते सेनापति ! ”

“ आश्वस्त हुआ भद्र, अब हमें मागध सैन्य को स्वतन्त्र भागों में विभक्त करना होगा, एक भाग तो तुम लेकर वैशाली को निर्दयतापूर्वक रौंद डालो , दूसरे भाग को लेकर लिच्छवि महासैन्य पर घोर संकट उपस्थित करूंगा। उसका वैशाली से सम्बन्ध -विच्छेद करना होगा । मैं एक भी लिच्छवि भट को जीवित नहीं लौटने दूंगा । ” _

“ और मैं एक भी हH, एक भी प्रासाद, एक भी अट्टालिका वैशाली में खड़ी नहीं रहने दूंगा , मैं सबको भस्म का ढेर बनाकर वैशाली को खेत बनाकर उस पर गधों से हल जुतवाऊंगा। ”

“ तभी सत्य प्रतिकार होगा भद्र , सम्राट् मृत हों या बन्दी, जम्बूद्वीप का पूर्वी द्वार भंग नहीं हो सकता। जब तक यह ब्राह्मण खड्गहस्त जीवित है, मगध साम्राज्य अजेय अखण्ड है। ”

महासेनापति भद्रिक का अंग - प्रत्यंग क्रोध से कांप उठा , उनके नेत्रों से एक तीव्र ज्वाला - सी निकलने लगी। उन्होंने उसी समय सब सेनापतियों , नायक - उपनायकों को बुलाकर एक अत्यन्त गोपनीय युद्ध -मन्त्रणा की ।

सम्राट का लोप होना यत्न से गुप्त रखा गया । सेनापति उदायि आहत हुए हैं , यह प्रचारित किया गया ।

147 . द्विशासन : वैशाली की नगरवधू

पाटलिग्राम के पूर्वीय भाग पर मागध सैन्य का अधिकार था , और पश्चिमीय भाग पर लिच्छवियों का । दोनों ओर से रह- रहकर बाण -वर्षा हो रही थी । ग्राम के बहुत - से घर आग से जल और ढह गए थे। ग्रामवासी बहुत - से भाग गए थे। जो रह गए थे वे अपने - अपने घरों के खण्डहरों में छिपे थे। गली - कूचों में मृत नागरिकों और सैनिकों की लोथें सड़ रही थीं । कूड़ा - कर्कट और सड़ी - अधजली लोथों को सूअर, गृध्र और दूसरे वन्य पशुओं ने खोद खोदकर बिखेर दिया था । दुर्गन्ध से नाक नहीं दी जाती थी । ग्राम में कोई व्यक्ति नहीं दीख रहा था ।

अभी एक आक्रमण हो चुका था । मागधों ने वज्जी सैन्य को मार भगाया था । एक मागध सेनानायक ने अश्वारूढ़ हो , एक सैनिक टुकड़ी के साथ ग्राम के मध्य भाग में खड़े हो , ऊंचे स्वर से ढोल पीट - पीटकर घोषणा की - “ इस पाटलिग्राम पर मगध - सम्राट का अधिकार है ! जो कोई लिच्छवि गण को बलि देगा उसे सूली होगी । जो कोई लिच्छवि जन को आश्रय देगा , उसका शिरच्छेद होगा । ग्रामविासयो! अपने - अपने घरों से निकल आओ, तुम्हें मगध सम्राट अभय - दान करते हैं । ”घोषणा सुनकर एक - दो कुत्ते भूक उठे , परन्तु कोई नर -नारी नहीं आए। नायक ने फिर ढोल पीटकर घोषणा की । तब एक वृद्ध ने फूटे हुए खण्डहर की ओर से सिर निकालकर देखा । वह कांपता - कांपता बाहर आया। आकर हाथ जोड़कर बोला - “ भन्ते सेनापति , मैं मगध प्रतिजन हूं, मुझे अभय दो ! मैं सम्राट् को बलि दूंगा। ”

“ तो भणे, तुझे अभय ! किन्तु ग्राम में और कौन है ? ”

“ जीवित मनुष्य कोई नहीं। ”

“ सब मृतक हैं ? ”

“ सब। ”

“ शेष कहां गए। ”

“ भाग गए । ”

“ तुम क्यों नहीं भागे ? ”

“ भाग नहीं सकता, भन्ते सेनापति, वृद्ध हूं, जर्जर हूं, शक्तिहीन हूं। ”

“ तो भणे, तू मागध प्रतिजन है न ?

“ हां सेनापति ! ”

“ तो तुझे अभय है। मगध सम्राट् को बलि देगा ? ”

“ दूंगा सेनापति ! ”

इसी समय बाणों की वर्षा करती हुई लिच्छवि सैन्य की एक टुकड़ी ने इस मागध टुकड़ी पर आक्रमण किया । उसका ढोल छीन लिया । कुछ सैनिक मारे गए। कुछ भाग गए । बूढ़ा फिर भागकर घर के छप्पर के पीछे छिप गया ।

लिच्छवि नायक ने ढोल पीटकर घोषणा की - “ इस पाटलिग्राम पर लिच्छवि गण का अधिकार है, जो कोई मागधजन को आश्रय देगा , उसे सूली होगी । पाटलिग्राम - वासियो ! सुनो, बाहर आओ! प्रतिज्ञा करो कि तुम वज्जीगण को बलि दोगे, तुम्हें अभय ! ”

वृद्ध ने फिर सिर निकालकर देखा । कांपते -कांपते बाहर आया । आकर उसने सेनापति नायक को अभिवादन किया ।

नायक ने पूछा - “ ग्राम के और जन कहां हैं ? ”

“ जीवित सब भाग गए । मृत यत्र - तत्र पड़े हैं । कुछ को वन्य पशु खा गए। ”

“ तुम नहीं भागे ? ”

“ भाग नहीं सकता भन्ते , अशक्त हूं। ”

“ क्या ग्राम में अन्य पुरुष नहीं हैं ? ”

“ जीवित नहीं भन्ते ! ”

“ तो सुनो , तुम अब से वज्जीगण शासन के अधीन हो । ”

“ अच्छा भन्ते ! ”

“ वज्जीगण को बलि देना होगा ? ”

“ दूंगा भन्ते! ”

“ मागधों को आश्रय देने से सूली होगी ! ”

“ समझ गया भन्ते ! ”

“ तो तुझे अभय!

नायक अपनी सेना लेकर सड़ती लोथों के बीच से होकर चला गया । वृद्ध फिर घर के खण्डहर में जा छिपा ।

148. रथ - मुशल - संग्राम : वैशाली की नगरवधू

सोम ने साम्ब को बुलाकर कहा - “ साम्ब , तू अभी मधुवन जा और महाराज विदूडभ से कह कि चापाल - चैत्य , सप्ताम्र - चैत्य , कपिना - चैत्य में प्रच्छन्न सैन्य को लेकर चारों ओर आग लगाते हुए , सम्पूर्ण दुर्गों और सत्रों को सुरक्षित करते हुए दक्षिण वाम पाश्र्व वैशाली की ओर बढ़े । मार्ग में जो घर, जो खेत , जो जनपद मिलें , नष्ट करते जाएं तथा ज्योंही इधर दक्षिण पाश्र्व से वैशाली- कोट पर आक्रमण होवे, सुरक्षित पचास सहस्र मागध भट और पचास सहस्र अपनी कोसल सैन्य लेकर दुर्धर्ष वेग से वैशाली को रौंद डालें ! उनसे कहना - कल हम वैशाली की उन्मुक्त अभिषेक - पुष्करिणी में एक ही काल में अपने - अपने खड्ग धोएंगे। जा , सूचना देकर सूर्यास्त से पूर्व ही तू आकर, मैं जहां जिस दशा में होऊं , सन्देश दे। ”

साम्ब गम्भीर - मूर्ति हो चला गया । सोम ने अब अपना प्रच्छन्न महास्त्र रथ -मुशल उद्घाटित किया । अस्त्र का बारीकी से निरीक्षण किया । उसकी यन्त्रकला को यथावस्थित किया। तदनन्तर सामने हाथी, पक्ष -स्थान में अश्व , उरस्य में और रथ -कक्ष में तथा पदाति प्रतिग्रह करके अप्रतिहत व्यूह की रचना की । इस व्यूह में बारह सहस्र हाथी, साठ सहस्र अश्वारोही , आठ सहस्र रथी और ढाई लाख पदातिकों ने योग दिया । रथ -मुशल महास्त्र को व्यूह के उरस्य में स्थापित - गोपित कर सोमप्रभ ने सम्पूर्ण सेना की गति की ओर जो जहां है , वहीं चार मुहूर्त विश्राम करने का आदेश दिया ।

इसके बाद पाटलिग्राम तीर्थ पर आकर उन्होंने तीर्थ का निरीक्षण किया । पादिकों , सेनापतियों और नायकों को पृथक्- पृथक् आदेश दिए । संकेत - शब्दों, पताका -संकेतों द्वारा व्यूह में अवस्थित सेना को अवसर पड़ने पर विभक्त करने , बिखरी सेना को एकत्र करने , चलती सेना को रोकने, खड़ी सेना को चलाने, आक्रमण करती सेना को लौटाने में , यथावसर आक्रमण करने में , जिन -जिन संकेत प्रकारों की आवश्यकता समझी , सबको सुव्याख्यात किया । इसके अनन्तर कुछ आवश्यक लेख लिखकर उन्होंने आर्य भद्रिक के पास भेज दिए और फिर विश्राम किया ।

तीन दण्ड रात्रि व्यतीत होने पर सोम ने वैशाली- अभियान किया । संकेत पाकर कोसलराज विदूडभ ने दूसरी ओर से चन्द्रकार सैन्य बिखेरकर वैशाली को घेर लिया । प्रभात होने से प्रथम ही घनघोर युद्ध होने लगा । इस मोर्चे पर काप्यक गान्धार और उनके भटों ने विकट पराक्रम प्रकट किया । परन्तु सोमप्रभ लिच्छवि और गान्धारों का व्यूह तोड़ गंगा- पार उतर आए। उन्होंने रथ -मुशल महास्त्र से अपना संहार - कार्य प्रारम्भ कर दिया । यह एक लोह- निर्मित विराटकाय, बिना योद्धा और बिना सारथी का रथ था । इस पर किसी भी शस्त्र का कोई प्रभाव नहीं होता था । यह रथ लिच्छवि - सैन्य में घुसकर रथ -हाथी अश्व - पदाति , घर -हर्म्य सभी का महाविध्वंस करने लगा । जो कोई इस लौह - यन्त्र की चपेट में आ जाता , उसी की चटनी हो जाती। भारतीय युद्ध में सर्वप्रथम इस महास्त्र का प्रयोग किया गया था , जिसकानिर्माण आचार्य काश्यप ने अपनी अद्भुत प्रतिभा से किया था । इसका रहस्य अतिगोपनीय था । मरे हुए हाथियों , घोड़ों और सैनिकों के अम्बार लग गए । ढहे हुए घरों की धूल -गर्द से आकाश पट गया । यह लौहयन्त्र केले के पत्ते की भांति घरों, प्राचीरों की भित्तियों को चीरता हुआ पार निकल जाता था । इस महाविध्वंसक-विनाशक महास्त्र के भय से प्रकम्पित -विमूढ़ लिच्छवि भट सेनापति सब कोई निरुपाय रह गए । शत सहस्र भट भी मिलकर इस निर्द्वन्द्व महास्त्र की गति नहीं रोक सके। इस लौहास्त्र का सम्बल प्राप्त कर अजेय मागधी सेना विशाल लिच्छवि सैन्य को चीरती हुई चली गई । अब उसकी मार वैशाली की प्राचीरों पर होने लगी । सहस्रों भट धनुषों पर अग्निबाण चढ़ाकर नगर पर फेंकने लगे । महास्त्र ने झील , तालाब और नदी के बांधों को तोड़ डाला , सारे ही नगर में जलप्रलय मच गई । आग और जल के बीच वैशाली महाजनपद ध्वंस होने लगा। लिच्छवि भट प्राणों का मोह छोड़ युद्ध करते - करते कट - कटकर मरने लगे। सोमप्रभ निर्दय , निर्भय दैत्य की भांति महा नरसंहार करता हआ आगे बढ़ने लगा। मागध- सैन्य ने अब बहत मात्रा में योगाग्नि और योगधूम का प्रयोग किया । औपनिषद् पराघात प्रयोग भी होने लगे। मदनयोग , दूषीविषी, अन्धाहक के आक्षेप से शत्रु के सहस्रों हाथी , घोड़े और सैनिक उन्मत्त , बधिर और अन्धे हो गए।

चार दण्ड दिन रहते सोमप्रभ वैशाली के कोट - द्वार पर जा टकराए। इसी समय कोसलराज विदूडभ भी अपनी सुरक्षित चमू लेकर वैशाली की परिधि पारकर वैशाली के अन्तःकोट पर आ धमके। उनके सहस्रों भट सीढ़ियां और कमन्द लगाकर प्राचीरों, दुर्गों और कंगूरों पर चढ़ गए ।

वैशाली का पतन सन्निकट देख , महासेनापति सुमन ने स्त्रियों, बालकों तथा राजपुत्रों को सुरक्षित ठौर पर भेज दिया । इस समय सम्पूर्ण वैशाली धांय - धांय जल रही थी और उसके कोट - द्वार के विशाल फाटकों पर निरन्तर प्रहार हो रहे थे, सेनापति सोमप्रभ हाथ में ऊंचा खड्ग लिए मागध जनों के उत्साह की वृद्धि कर रहे थे। शत्रु-मित्र सभी को यह दीख गया था कि वैशाली का अब किसी भी क्षण पतन सुनिश्चित है ।

149 . कैंकर्य : वैशाली की नगरवधू

इसी समय रक्तप्लुत खड्ग हाथ में लिए हुए गोपाल भट्ट ने सोमप्रभ के निकट आकर कहा

“ भन्ते सेनापति , सम्राट का एक आदेश है। ”

सम्राट् का समाचार सुनकर सोमप्रभ वेग से चिल्ला उठे – “ सम्राट् की जय! ”

उन्होंने कूदकर गोपाल भट्ट के निकट आकर कहा-

“ सम्राट् जीवित हैं ? ”

“ हैं भन्ते सेनापति ! ”

“ कहां ? ”

“ देवी अम्बपाली के आवास में । ”

सोमप्रभ के हृदय की जैसे गति रुक गई। उसने थूक निगलकर सूखते कण्ठ से कहा -

“ क्या कहा ? कहां ? ”

“ देवी अम्बपाली के आवास में , भन्ते सेनापति! ”

“ क्या सम्राट बन्दी नहीं हुए ? ”

“ नहीं भन्ते , वे स्वेच्छा से देवी अम्बपाली के आवास में गए हैं । ”

“ आप कहते हैं आर्य, स्वेच्छा से ? ”

“ हां भन्ते सेनापति ! ”

सोम ने दांतों से होंठ काटे , फिर स्थिर मुद्रा से कहा -

“ सम्राट का क्या सन्देश है भन्ते ? ”

“ सम्राट का आदेश है कि देवी अम्बपाली के आवास की रक्षा की जाए। आवास पर लिच्छवि सैन्य ने आक्रमण किया है। ”

“ किसलिए आर्य ? ”

“ सम्राट को बन्दी करने के लिए । ”

सोमप्रभ ने अवज्ञा से मुस्कराकर कहा - “ इसी से भन्ते! ”

फिर उन्होंने उधर से मुंह फेर लिया । बगल से तूर्य लेकर एक ऊंचे स्थल पर चढ़कर वेग से तूर्य फूंका। तूर्य की वह ध्वनि दूर - दूर तक फैल गई, इसके बाद उन्होंने अपना श्वेत उष्णीष खड्ग की नोक में लगाकर हवा में ऊंचा किया । इसके बाद फिर तीन बार तूर्य फूंका। आश्चर्यजनक प्रभाव हुआ । मागध सैन्य में जो जहां था , वहीं स्तब्ध खड़ा रह गया । शत्रु -मित्र आश्चर्यचकित रह गए । युद्ध बन्द हो गया । सोमप्रभ ने तत्काल सैन्य को पीछे लौटने का आदेश दिया । कराहते हुए घायलों और जलते हुए हम्यों के बीच मागध सैन्य चुपचाप लौट चली । सबसे आगे अश्व पर सवार मागध सेनापति सोमप्रभ खड्ग की नोक पर अपने उष्णीष की धवल ध्वजा फहराता अवनत - वदन जा रहा था ।

मागध स्कन्धावार पर श्वेत पताका चढ़ा दी गई । वैशाली को सांस लेने का अवसर मिला।

150. महाशिलाकण्टक विनाशयन्त्र : वैशाली की नगरवधू

जिस समय मागध सेनापति ने दुर्धर्ष वेग से वैशाली पर रथ -मुशल अभियान किया था , उसी समय दक्षिण मोर्चे पर लिच्छवि सेनापति ने मगध महासेनापति आर्य भद्रिक को तीन ओर से घेर लिया था । लिच्छवियों के पास भी एक अद्भुत महास्त्र था इसका नाम महाशिलाकण्टक था । इस यन्त्र में कंकड़ - पत्थर, घास - फूस , काठ - कूड़ा, जो कुछ तुच्छ - से तुच्छ साधन मिलें उन्हीं को वह बड़े वेग से शत्रु पर फेंकता था और वह फेंका हुआ पदार्थ महाशिला की भांति शत्रु पर आघात करता था ।

मागध महासेनापति आर्य भद्रिक ने अपने व्यूह में हाथियों को पक्ष में और अश्वारोहियों को कक्ष में रख , उरस्य में रथियों की स्थापना करके , कठिन पारिपतन्तक व्यूह की रचना की थी ।

ज्योंही पूर्वीय सीमा - भूमि में सोमप्रभ ने युद्ध छेड़ा , त्योंही लिच्छवि सेनापति सिंह ने महाशिलाकण्टक विनाशयन्त्र को लेकर मकर -व्यूह रच मागध सैन्य पर आक्रमण किया । महाशिलाकण्टक विनाशयन्त्र की प्रलयंकारी मार के सम्मुख मागधसैन्य का शीघ्र ही व्यूह भंग हो गया । महासेनापति सुरक्षित सैन्य को ले व्यूह के पक्ष में स्थित सैन्य संचालन कर रहे थे। विनाशयन्त्र से उनके पक्षस्थ हाथी जब पटापट मरने लगे और शेष विकल हो अपनी ही सैन्य को रौंदते हुए पीछे भाग चले , तब आर्य भद्रिक के लिए सैन्य को व्यवस्था में रखना दुस्सह हो गया । अन्ततः उन्होंने धनुर्धर रथियों को चौमुखा युद्ध करने का आदेश दिया और स्वयं रक्षित सैन्य को ले पचास धनुष के अन्तर पर पीछे हट भागी हुई अव्यवस्थित सेना का पुनर्संगठन करने लगे । साथ ही आसन्न संकट की सम्भावना से उन्होंने सहायक सैन्य भेजने के लिए सोमप्रभ को सन्देश भेज दिया । परन्तु लिच्छवि सेनापति सिंह ने चारों ओर से मागध सैन्य पर ऐसा अवरोध डाला कि मध्याह्न होते - होते आर्य भद्रिक का अपने स्कन्धावार और प्रधान सैन्य से सम्पूर्ण सम्बन्ध -विच्छेद हो गया और वे चारों ओर से लिच्छवि , कोल और कासियों की सेना से घिर गए।

अब उन्होंने आक्रमण को रोकने तथा अपनी व्यवस्था बनाए रखने के लिए और हटना ठीक समझा। परन्तु इसका प्रभाव उलटा पड़ा । मागध सैन्य हतोत्साह हो गई । इसी समय सिंह प्रबल वेग से अपने और गान्धारों के चुने हुए सम्मिलित चालीस सहस्र कवचधारी अश्वारोही ले , तथा अगल -बगल रथियों को साथ लिए सुई की भांति मागध सैन्य को चीरते हुए उसके बीच में घुस गए और मागधसेना का सारा संगठन नष्ट कर फिर पक्ष भाग में आ अवस्थित हुए।

इस समय सूर्य अपराह्न की पीली -तिरछी किरणें उन परफेंक रहा था , उस गिरते हुए सूर्य की पीली धूप इस महान् सेनानायक के चांदी के समान चमकते हुए श्मश्रुओं में से गहरी चिन्ता और भीति की रेखाएं व्यक्त कर रही थी ।

सेनापति को क्षण- क्षण सोमप्रभ से सहायता पाने की आशा थी । सेनापति के निकट ही सोम के स्थापित - धान्वन , वन्य , पार्वत दुर्गों में कोसलपति के पचास सहस्र भट छिपे हुए थे। परन्तु उनमें से एक भी आर्य भद्रिक की सहायतार्थ नहीं आया । जब एक पहर दिन शेष रह गया , तो आर्य भद्रिक सर्वथा निराश हो गए । इसी समय उन्हें सेनापति सोमप्रभ के युद्ध बन्द कर देने का समाचार मिला। आर्य भद्रिक मर्मान्तक वेदना से तड़प उठे और वे पांच धनुष पीछे हटकर खण्ड -युद्ध करने लगे ।

सेनापति सिंह ने समझा - अब जय निश्चित है। वे अपने नायकों को निरन्तर अन्त तक युद्ध जारी रखने का आदेश दे स्कन्धावार को लौट आए। अभी दो दण्ड दिन शेष था ।

151 . छत्र - भंग : वैशाली की नगरवधू

सम्राट् बिम्बसार अलस भाव से शय्या पर पड़े थे। उनके शरीर पर कौशेय और हल्का उत्तरीय था । उनके केशगुच्छ कन्धों पर फैले थे। अधिक आसव पीने तथा रात्रि जागरण के कारण उनके बड़े- बड़े नेत्र गुलाबी आभा धारण किए, अधखिले नूतन कमल की शोभा धारण कर रहे थे। द्वार पर बहुत - से मनुष्यों का कोलाहल हो रहा था , परन्तु सम्राट को उसकी चिन्ता न थी , वे सोच रहे थे देवी अम्बपाली का देवदुर्लभ सान्निध्य -सुख, जिसके सम्मुख राज - वैभव , साम्राज्य और अपने जीवन को भी वे भूल गए थे।

परन्तु द्वार पर कोलाहल के साथ शस्त्रों की झनझनाहट तथा अश्वों और हाथियों की चीत्कार भी बढ़ती गई। सुरा- स्वप्न की कल्पना में यह कटु कोलाहल सम्राट को विघ्न - रूप प्रतीत हआ। उन्होंने आगे झुककर निकट आसन्दी पर रखे स्फटिक - कृप्यक की ओर हाथ बढ़ाया , दूसरे हाथ में पन्ने का हरित पात्र ले उसमें समूचा पात्र उंडेल दिया , परन्तु उसमें एक बूंद भी मद्य नहीं था । पात्र को एक ओर विरक्ति से फेंककर उन्होंने एक बार पूरी आंख उघाड़कर कक्ष में देखा वहां कोई भी व्यक्ति न था । सम्राट ने हाथ बढ़ाकर चांदी के घण्टे पर ज़ोर से आघात किया । परन्तु उन्हें यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि मदलेखा के स्थान पर स्वयं देवी अम्बपाली दौड़ी चली आ रही हैं । उनके मुंह पर रक्त की बूंद भी नहीं है और उनकी आंखें भय से फट रही हैं , तथा वस्त्र अस्त -व्यस्त हैं ।

“ हुआ क्या , देवी अम्बपाली ? ”सम्राट् ने संयत होने की चेष्टा करते हुए पूछा ।

“ आवास पर आक्रमण हो रहा है, देव ! ”

“ किसलिए ? ”

“ आपको पकड़ने के लिए । ”

“ क्या मैंने लिच्छवि सेनापति , गणपति और राजप्रमुखजनों को बन्दी करने की आज्ञा नहीं दी थी ? ”

“ दी थी देव ! ”

“ तो वे बन्दी हुए ? ”

“ नहीं देव , वे आपको बन्दी करना चाहते हैं । ”

“ हूं । ”कहकर सम्राट् बिम्बसार उठ बैठे । उनका गौर शरीर एक बार कंपित हुआ । होंठ सम्पुटित हुए । उन्होंने जिज्ञासा - भरी दृष्टि से अम्बपाली की ओर देखकर हंसते हुए कहा- “ फिर इतना अधैर्य क्यों , प्रिये ! जब तक यह मागध सम्राट का खड्ग है। ”उन्होंने अपने निकट रखे हुए अपने खड्ग की ओर देखकर कहा ।

“ देव , मुझे कुछ अप्रिय सन्देश सम्राट् से निवेदन करना है। ”

“ अप्रिय सन्देश ? युद्धकाल में यह असम्भाव्य नहीं। तुम क्या कहना चाहती हो देवी अम्बपाली ? ”

“ देव , सेनापति उदायि मारे गए। ”

“ उदायि मारे गए ? सम्राट ने चीत्कार कर कहा ।

“ और आर्य भद्रिक निरुपाय और निरवलम्ब हैं । वे घिर गए हैं और किसी भी क्षण आत्मसमर्पण कर सकते हैं । ”

“ अरे , तब तो आयुष्मान् सोमप्रभ और मेरे हाथियों ही पर आशा की जा सकती

“ भद्र सोमप्रभ ने युद्ध बन्द कर दिया , देव ! ”

“ युद्ध बन्द कर दिया ? किसकी आज्ञा से ?

“ अपनी आज्ञा से देव ! ”– अम्बपाली ने मरते हुए प्राणी के से टूटते स्वर में कहा ।

सम्राट का सम्पूर्ण अंग थर - थर कांपने लगा। मस्तक का सम्पूर्ण रक्त नेत्रों में उतर आया । उन्होंने खूटी पर लटकता अपना मणि - खचित विकराल खड्ग फुर्ती से उठा लिया और उच्च स्वर से कहा -

“ यह मगध सम्राट् श्रेणिक बिम्बसार का सागर -स्नात पूत खड्ग है । मैं इसी की शपथ खाकर कहता हूं कि अभी उस अधम वंचक सोमप्रभ का शिरच्छेद करूंगा। ”उन्होंने वेग से तीन बार विजय - घण्ट पर प्रहार किया ।

सिंहनाद ने नतमस्तक कक्ष में प्रवेश किया । सम्राट ने अकम्पित कण्ठ से कहा - “ सिंहनाद, मुझे गुप्त मार्ग दिखा , मैं अभी मागध स्कन्धावार में जाऊंगा। देवी अम्बपाली , भय न करो, मैं अभी एक मुहूर्त में उस कृतघ्न विद्रोही को मारकर तुम्हारे महालय का उद्धार करता हूं। ”

सिंहनाद ने साहस करके कहा - “ किन्तु देव ! ”

“ एक शब्द भी नहीं, भणे, मार्ग दिखा ! ”

अम्बपाली पीपल के पत्ते की भांति कांपने लगीं। उन्होंने अर्थपूर्ण दृष्टि से एक ओर देखा। सिंहनाद ने गुप्त गर्भद्वार का उद्घाटन करके कहा - “ इधर से देव! ”

सम्राट् उसी उत्तरीय को अंग पर भलीभांति लपेट , उसी प्रकार काकपक्ष को मुकुटहीन खुले मस्तक पर हवा में लहराते हुए गर्भमार्ग में घुस गए। पीछे-पीछेसिंहनाद ने भी सम्राट का अनुसरण किया । जाते - जाते उसने देवी अम्बपाली से होंठों ही में कहा

“ देवी , आज इस क्षण सम्राट् या सोमप्रभ दोनों में से एक की मृत्यु अनिवार्य है । अब केवल आप ही इसे रोकने में समर्थ हैं । समय रहते साहस कीजिए। ”वह गर्भमार्ग में उतर गया ।

अपने पीछे पैरों की आहट पाकर सम्राट ने कहा - “ कौन है ? ”

“ सिंहनाद देव ! ”

“ तब ठीक है, तेरे पास शस्त्र है ? ”

“ है, महाराज ! ”

“ इस मार्ग से परिचित है ? ”

“ हां महाराज! ”

“ तब आगे चल! ”

“ जैसी आज्ञा , देव ! ”

सिंहनाद चुपचाप आगे- आगे और सम्राट् उसके पीछे चल दिए । कुछ चलने पर सिंहनाद ने कहा - “ बस महाराज ! ”

“ अब ? ”

“ गंगा है; मैं पहले देख लूं, नाव है या नहीं, हमें उस पार चलना होगा। ”

“ इस पार भी तो हमारी सेना है । ”

“ सब लौट गई देव ! थोड़े हाथी हैं , वे भी लौट रहे हैं । ” सम्राट् ने कसकर होंठ दबाए ।

सिंहनाद अंधेरे में लोप हो गया । घड़ी देर बाद गढ़े में से उसने सिर निकालकर कहा -

“ इधर महाराज! ”

सम्राट भी चुपचाप गढ़े में कूद पड़े। एक सघन किनारे पर छोटी नाव बंधी थी , दोनों उस पर बैठ गए । सिंहनाद ने नाव खेना प्रारम्भ किया ।

मागध स्कन्धावार में बड़ी अव्यवस्था थी । सैनिक स्थान -स्थान पर अनियम और अक्रम से खड़े भीड़ कर रहे थे। आग जल रही थी ; घाट पर हाथियों , अश्वों और शकटों की भारी भीड़ भरी थी ।

सम्राट् विकराल नग्न खड्ग हाथ में लिए, नंगे बदन , नंगे सिर बढ़े चले गए। पीछे पीछेसिंहनाद पागल की भांति जा रहा था । क्षण- भर में क्या होगा , नहीं कहा जा सकता था ।

भीड़ - भाड़ और अव्यवस्था में बहुतों ने सम्राट् की ओर देखा भी नहीं; जिन्होंने देखा उनमें से बहुतों ने उन्हें पहचाना नहीं। जिसने पहचाना, वह सहमकर पीछे हट गया । सम्राट भारी -भारी डग भरते सेनापति सोमप्रभ के मण्डप के सम्मुख जा खड़े हुए ।

द्वार पर दो शूलधारी प्रहरी खड़े थे। उनके कवच अस्तंगत सूर्य की पीली धूप में चमक रहे थे। सिंहनाद ने धीरे - से आकर उनके कान में कुछ कहा। वे सहमते हुए पीछे हट गए । आगे सम्राट और पीछेसिंहनाद ने मण्डप में प्रवेश किया ।

मण्डप में नायक , उपनायक , सेनापति सब विषण्ण - वदन , मुंह लटकाए खड़े थे । सेनापति सोमप्रभ एकाग्र हो कुछ लेख लिख रहे थे। हठात् सम्राट को नंगे सिर , नंगे शरीर, विकराल खड्ग हाथ में लिए आते देख सभी खड़े हो गए । सम्राट ने कठोर स्वर से पुकारा

“ सोम ! ”

सोम ने देखा। उसने पास पड़ा हुआ खड्ग उठा लिया और वह सीधा तनकर खड़ा हो गया । उसने सम्राट का प्रतिवादन नहीं किया ।

सम्राट ने कहा

“ तूने युद्ध बन्द कर दिया ? ”

“ हां ! ”

“ किसकी आज्ञा से ? ”

“ अपनी ही आज्ञा से। ”

“ किस अधिकार से ? ”

“ सेनापति के अधिकार से । ”

“ मेरी आज्ञा क्यों नहीं ली गई ? ”

“ कुछ आवश्यकता नहीं समझी गई । ”

“ युद्ध किस कारण बन्द किया गया ? ”

“ इस कारण कि युद्ध का उद्देश्य दूषित था । ”

“ कौन - सा उद्देश्य ? ”

“ एक स्त्रैण, कापुरुष, कर्तव्यच्युत सम्राट ने अपनी पदमर्यादा और दायित्व का उल्लंघन कर एक सार्वजनिक स्त्री को पट्टराजमहिषी बनाने के उद्देश्य से युद्ध छेड़ा था । ”

“ और तेरा क्या कर्तव्य था रे, भाकुटिक ? ”

“ मैंने तक्षशिला के विश्वविश्रुत विद्या केंद्र में राजनीति और रणनीति की शिक्षा पाई है। मेरा यह निश्चित मत है कि साम्राज्य की रक्षा के लिए साम्राज्य की सेना का उपयोग होना चाहिए । सम्राट की अभिलाषा और भोग-लिप्सा की पूर्ति के लिए नहीं। ”

“ क्या सम्राट की मर्यादा तुझे विदित है ? ”

“ यथावत् ! और साम्राज्य की निष्ठा भी ! ”

“ वह क्या मुझसे भी अधिक है ? ”

“ निस्सन्देह! ”

“ तो मैं घोषणा करता हूं - देवी अम्बपाली को मैं पट्टराजमहिषी के पद पर अभिषिक्त करके राजगृह के राजमहालय में ले जाऊंगा। इसके लिए यदि एक - एक लिच्छवि के रक्त से भी वज्जी - भूमि को आरक्त करना होगा तो मैं करूंगा। वैशाली को भूमिसात् करना होगा तो मैं करूंगा। मैं अविलम्ब युद्ध प्रारम्भ करने की आज्ञा देता हूं। ”

“ मैं अमान्य करता हूं। इस कार्य के लिए रक्त की एक बूंद भी नहीं गिराई जाएगी और देवी अम्बपाली मगध के राजमहालय में पट्टराजमहिषी के पद पर अभिषिक्त होकर नहीं जा सकतीं । ”

“ जाएं तो ? ”

“ तो , या तो सम्राट नहीं या मैं नहीं। ”

सम्राट ने हंकार भरी और खड्ग ऊंचा किया । सोम ने कहा - “ भन्ते ! नायक, उपनायक , सेनापति सब सुनें यह कामुक, स्त्रैण और कर्तव्यच्युत सम्राट और साम्राज्य के एक कर्मनिष्ठ सेवक के बीच का युद्ध है। सब कोई तटस्थ होकर यह युद्ध देखें । ”

सम्राट् ने कहा - “ यह एक जारज , अज्ञातकुलशील , कृतघ्न सेवक के अक्षम्य विद्रोह का दण्ड है रे, आ ! ”

दूसरे ही क्षण दोनों महान् योद्धा हिंसक युद्ध में रत हो गए। खड्ग परस्पर टकराकर घात - प्रतिघात करने लगे। क्षण- क्षण पर दोनों के प्राणनाश की आशंका होने लगी । दोनों ही घातक प्रहार कर रहे थे तथा दोनों ही अप्रतिम योद्धा थे। युद्ध का वेग बढ़ता ही गया ।

अवसर पाकर सम्राट ने एक भरपूर हाथ सोमप्रभ के सिर को ताककर चलाया । परन्तु सोम फुर्ती से घूम गए। इससे खड्ग उनके कन्धों को छूता हुआ हवा में घूम गया । इसी क्षण सोम ने महावेग से खड्ग का एक जानलेवा हाथ सम्राट पर मारा। सम्राट ने उसे उछलकर खड्ग पर लिया । आघात पड़ते ही खड्ग झन्न - से दो टूक होकर भूमि पर जा गिरा और उस आक्रमण के वेग को न संभाल सकने से सम्राट फिसलकर गिर पड़े । गिरे हुए सम्राट के वक्ष पर अपना चरण रख सोमप्रभ ने उनके कण्ठ पर खड्ग रखकर कहा - श्रेणिक बिम्बसार , अब इस असिधार से तुम्हारे कण्ठ पर तुम्हारा मृत्युपत्र लिखने का क्षण आ गया । वीर की भांति मृत्यु का वरण करो। तुम भयभीत तो नहीं ? ”

सम्राट् ने वीर - दर्प से कहा - “ नहीं ? ”

इसी समय एक चीत्कार सुनाई दी । सोम ने पीछे फिरकर देखा - देवी अम्बपाली धूल और कीचड़ में भरी , अस्त -व्यस्त वस्त्र , बिखरे बाल , दोनों हाथ फैलाए चली आ रही थीं । उन्होंने वहीं से चिल्लाकर कहा - “ सोम , प्रियदर्शी सोम , सम्राट को प्राणदान दो ! मैं प्रतिज्ञा करती हूं कि मैं मगध - राज - महालय में नहीं जाऊंगी, न मगध की पट्टराजमहिषी का पद धारण करूंगी। ”

सोम ने अपना चरण सम्राट के वक्ष पर से नहीं हटाया । न उनके कण्ठ से खड्ग । उन्होंने मुंह मोड़कर अम्बपाली को देखा । अम्बपाली दौड़कर सोमप्रभ के चरणों में लोट गईं। उनकी अश्रुधारा से सोम के पैर भीग गए । वह कह रही थी - “ उनका प्राण मत लो सोम , मैं उन्हें प्यार करती हूं । परन्तु मैं कभी भी राजगृह नहीं जाऊंगी। मैं कभी इनका दर्शन नहीं करूंगी। स्मरण भी नहीं करूंगी । मैं हतभाग्या अपने हृदय को विदीर्ण कर डालूंगी ! उनके प्राण छोड़ दो ! छोड़ दो , प्रियदर्शन सोम , उन्हें छोड़ दो ! वे निरीह, शून्य और प्रेम के देवता हैं । वे महान् सम्राट हैं । उन्हें प्राण- दान दो । मेरे प्राण ले लो – प्रियदर्शन सोम , ये प्राण तो तुम्हारे ही बचाए हुए हैं , ये तुम्हारे हैं इन्हें ले लो , ले लो ! ”

अम्बपाली इस प्रकार विलाप करती हुईं सोम के चरणों में भूमि पर पड़ी - पड़ी मूर्च्छित हो गईं।

सोम ने सम्राट के कण्ठ से खड्ग हटा लिया। वक्षस्थल से चरण भी हटा लिया । उन्होंने गम्भीर भाव से आज्ञा दी – “ सम्राट् को बन्दी कर लो ! मैं उन्हें प्राणदान देता हूं , परन्तु उन्हें युद्धापराधी घोषित करता हूं । कर्तव्य पालन न करने के अभियोग में सैनिक न्यायालय में उनका विचार होगा और देवी अम्बपाली को यत्न से लिच्छवि सेनापति के अधिकार में पहुंचा दो । ”

इतना कहकर सोमप्रभ मण्डप से बाहर चले आए। उस समय सूर्यास्त हो चुका था और चारों दिशाओं में अंधकार फैल गया था ।

152. आत्मसमर्पण : वैशाली की नगरवधू

सिंह दक्षिण -युद्धक्षेत्र की कमान गान्धार काप्यक को सौंपकर उल्काचेल केन्द्र में लौट आए । यहां आकर उन्होंने अनेक लेख लिखे, बहुत - से आदेश प्रचारित किए। इसके बाद उन्होंने उल्काचेल के उपनायक अभीति को बुलाकर कहा

“ सूर्यास्त में अब केवल एक घड़ी शेष है, काप्यक का कुछ- न -कुछ सन्देश मिलना चाहिए । मुझे आश्चर्य है, विलम्ब क्यों हो रहा है । ( कुछ पंक्तियां लिखकर ) इन्हें प्रियवर्मन् के पास पश्चिमी रणस्थल पर तुरन्त भेज दो मित्र , और तनिक पुष्पमित्र से पूछो कि पाटलिग्राम को क्या रसद की नावें भेज दी गई हैं । हां , शुक से कहना , थोड़ा शूकर-मार्दव और मधुगोलक ले आए, पर मांस गर्म हो , प्रातः बिल्कुल ठण्डा था । ”

“ और कुछ सेनापति ? ”

“ वह मानचित्र मुझे दो ! ( तनिक कुछ सोचकर ) निश्चय कुछ घटिकाओं ही की बात है । काप्यक अभी - अभी ही कार्य समाप्त कर लेगा। परन्तु आर्य भद्रिक महान् सेनापति हैं । फिर भी अब यहां से उनका निस्तार नहीं है। ”यह कहकर सेनापति सिंह ने मानचित्र पर उंगली से एक स्थान पर संकेत किया ।

“ तो सेनापति , यहीं पर समाप्ति है ? ”

“ यदि आर्य भद्रिक आत्मसमर्पण कर दें । ”

शुक्र ने आकर मधुगोलक और शूकर -मार्दव रख दिया । उसने कहा - “ भन्ते , प्रातः चूक हो गई । ”

“ अच्छा - अच्छा, चूक रसोईघर ही तक रखा कर शुक, समझा ! ”

“ जी हां ! ”

नायक ने कहा - “ पाटलिग्राम को नावें भेजी जा चुकी हैं , सेनापति ! ”

“ ठीक है मित्र , ( एक लेख देकर ) ये सब मागधों के लूटे हुए और अपहृत शस्त्रास्त्र हैं न , इन्हें अभी उल्काचेल ही में रहने दो मित्र । ”

एक सैनिक ने सूचना दी - “ महासेनापति सुमन आए हैं ! ”

सिंह ने उठकर उनका स्वागत किया और कहा

“ इस समय भन्ते सेनापति , आपके आगमन का तो मुझे गुमान भी न था । ”

“ आयुष्मान्, तेरे उत्तेजक सन्देश को पाकर स्थिर न रह सका । बैठ आयुष्मान् , किन्तु यह क्या चमत्कार हो गया ? पराजय जय में परिणत हो गई ? ”

“ ऐसा ही हुआ भन्ते सेनापति ! मनुष्य की भांति जातियों के, राष्ट्रों के, राज्यों के भी भाग्य होते हैं । ”

दोनों बैठ गए।

महासेनापति ने कहा - “ सुना तूने सिंह, सोमप्रभ ने सम्राट को बन्दी कर लिया है और देवी अम्बपाली को आयुष्मान् सोमप्रभ के सैनिक मुझे सौंप गए हैं । ”

“ देवी अम्बपाली क्या मागधों की बन्दी हो गई थीं ? ”

“ नहीं आयुष्मान् , वे सम्राट की प्राण -भिक्षा मांगने मागध स्कन्धावार में गई थीं । ”

“ क्या देवी अम्बपाली ने कुछ कहा ? ”

“ नहीं सिंह, वे तो तभी से मूर्च्छित हैं -मैंने उन्हें आचार्य अग्निवेश के सेवा- शिविर में भेज दिया है। वे उनकी शुश्रूषा कर रहे हैं । ”

“ उनके जीवन -नाश की तो सम्भावना नहीं है भन्ते ?

“ ऐसा तो नहीं प्रतीत होता , परन्तु सिंह , तूने आयुष्मान् सोमप्रभ की निष्ठा और महत्ता देखी ? ”

“ देखी भन्ते , सेनापति सोमप्रभ अभिवन्दनीय हैं , अभिनन्दनीय हैं ! ”

“ अरे आयुष्मान्, यह सब कुछ अकल्पित -अद्भुत कृत्य हो गया है। इतिहास के पृष्ठों पर यह अमर रहेगा। ”

“ काप्यक ने दो घड़ी पूर्व सन्देश भेजा था कि महासेनापति आर्य भद्रिक सब ओर से घिर गए हैं । केवल एक दुर्ग पर उन्हें कुछ आशा थी , परन्तु सेनापति सोमप्रभ के सम्पूर्ण मागध सैन्य को युद्ध से विरत -विघटित कर देने से वे निरुपाय हो गए। फिर भी उन्होंने सोमप्रभ का अनुशासन नहीं माना। कल रात - भर और आज अभी तक भी खण्ड - युद्ध करते ही जा रहे हैं । ”

“ अब तो समाप्त ही समझो आयुष्मान् ! ”

“ मैं काप्यक के दूसरे सन्देश की प्रतीक्षा कर रहा हूं ।

“ सम्भव है और रात भर युद्ध रहे , पर भद्रिक को अधिक आशा नहीं करनी चाहिए । ”

इसी समय चर ने एक पत्र देकर कहा - “ भन्ते सेनापति , काप्यक का यह पत्र है । ”

सिंह ने मुहर तोड़कर पत्र पढ़ा। फिर शान्त स्वर में कहा - “ भन्ते सेनापति , आर्य भद्रिक ने आत्मसमर्पण कर दिया है । वे आ रहे हैं । ”

“ भद्रिक बड़े तेजस्वी सेनापति हैं आयुष्मान्, हमें उनके प्रति उदार और सहृदय होना चाहिए । ”

“ निश्चय ये अस्थायी सन्धि के नियम हैं , अब इससे अधिक हम कुछ नहीं कर सकते । ”

सेनापति सुमन ने नियम पढ़े और लेख लौटाते हुए कहा - “ ठीक है आयुष्मान् , तू स्वयं बुद्धिमान है। ”

“ परन्तु क्या आप भद्रिक का स्वागत करेंगे भन्ते सेनापति ? ”

“ नहीं - नहीं , यह तेरा अधिकार है आयुष्मान् ! मैं आशा करता हूं - तू उदार और व्यवहार -कुशल है। और भी कहीं युद्ध हो रहा है ? ”

“ नहीं भन्ते सेनापति ! ”

“ ठीक है, मैं अब चला, आयुष्मान ! ”

“ क्या इसी समय भन्ते सेनापति ? ”

“ हां , आयुष्मान् ! ”

सेनापति सुमन अश्व पर आरूढ़ होकर चल दिए ।

एक बड़ी नाव घाट पर आकर लगी । कुछ व्यक्ति उसमें से उतरकर स्कन्धावार में आए। नायक ने भीतर आकर कहा - “ काप्यक आर्य भद्रिक को ला रहे हैं , भन्ते सेनापति ! ”

“ आर्य भद्रिक को ससम्मान ले आओ भद्र , मगध विजय हो गया , बहुत बड़ा कार्य सम्पूर्ण हुआ। ”सिंह ने खड़े

आगे- आगे भद्रिक चण्ड और पीछे काप्यक गान्धार ने नग्न खड्ग लिए मण्डप में प्रवेश किया ।

सिंह ने आगे बढ़कर खड्ग उष्णीष से लगाकर उच्च स्वर से कहा -

“ महामहिम मागध - महासेनापति आर्य भद्रिक को लिच्छवि सेनापति सिंह ससम्भ्रम अभिवादन निवेदन करता है ! ”

भद्रिक शान्त भाव से आकर खड़े हो गए। कष्ट और सहिष्णुता की रेखाएं उनके मुखमण्डल पर थीं , परन्तु नेत्रों में वीरत्व और अभय की चमक थी । उन्होंने स्थिर कण्ठ से कहा - “ आयुष्मान् सिंह ! मैं तुम्हें मगध -विजय पर साधुवाद देता हूं , तुम्हारी शालीनता की श्लाघा करता हूं। ”

“ अनुगृहीत हुआ । आर्य ने आज मुझे गर्वित होने का अवसर दिया है। ”

“ परन्तु भद्र, मैंने वश - भर ऐसा नहीं किया । मैं पराजित होकर बन्दी हुआ हूं । अब मैं जानना चाहता हूं कि ....। ”

“ अस्थायी सन्धि के नियम ? वे यह हैं । आर्य, मैं समझता हूं , आपको आपत्ति न होगी । ”

सिंह ने तालपत्र का लेख सेनापति के सम्मुख उपस्थित किया । उस पर एक दृष्टि डालकर सेनापति ने कहा - “ तुम उदार हो आयुष्मान् , किन्तु मैं क्या एक अनुरोध कर सकता हूं ? ”

“ मैं शक्ति - भर उसे पूर्ण करूंगा आर्य ! ”

“ महामात्य वर्षकार की अब हमें अत्यन्त आवश्यकता है। बिना उनके परामर्श के सन्धि -वार्ता सम्पन्न न हो सकेगी । ”

“ ठीक है आर्य ! ”

“ और एक बात है ! ”

“ क्या आर्य ? ”

“ मगध- सेना के बन्दी सैनिकों को उनके शस्त्रों और अश्वों- सहित लौट जाने दिया जाए। ”

“ ऐसा ही होगा , आर्य ! ”

“ धन्यवाद आयुष्मान्, मुझे तुम्हारे नियम स्वीकार हैं । यह मेरा खड्ग है। ”उन्होंने खड्ग कमर से खोलकर सिंह के सम्मुख किया ।

“ नहीं- नहीं, वह उपयुक्त स्थान पर है आर्य , मैं विनती करता हूं उसे वहीं रहने दीजिए । ”

भद्रिक ने खड्ग कमर में बांध, हाथ उठाकर सिंह को आशीर्वाद दिया और दो कदम पीछे हटकर चले गए ; पीछे-पीछे काप्यक गान्धार भी नग्न खड्ग हाथ में लिए । सिंह ने जल्दी से उसी समय कुछ आदेश तालपत्र पर लिख और दूत को दे वैशाली भेज दिया ।

153. दृग -स्पर्श : वैशाली की नगरवधू

पाटलिग्राम पहुंचकर सेनापति सिंह ने वहां का निरीक्षण किया । बस्ती के अधिकांश घर सूने पड़े थे। बहुत - से आग से जलकर ढह गए थे। बड़ी - बड़ी अट्टालिकाओं के ध्वंस ही रह गए थे। राजमार्ग कूड़ा - कर्कट और गन्दगी से भरे थे। खेत उजाड़ और सूखे पड़े थे। गंगा कूल पर जहां घाट था , वहां बड़ा भारी गढ़ा हो गया था , वह दल - दल से भरा था । उसमें बहुत - से हाथी पूरे धंस गए थे, बहुत मर चुके थे, बहुत निरुपाय अपनी सूंड़ें हिला रहे थे। मागधों ने अपने घायलों का कुछ भी प्रबन्ध नहीं किया था । मागध स्कन्धावार सर्वथा नष्ट - भ्रष्ट हो गया था । मागधों से छीने गए शस्त्रास्त्रों तथा सामग्री से भरी नावें अन्धाधुन्ध उल्काचेल की ओर जा रही थीं । काप्यक गान्धार ने दो दिन में बहुत व्यवस्था कर ली थी । सिंह के पहुंचने पर उसने कहा - “ अम्बपाली से कोई वस्तु नहीं छीनी गई है, न नागरिकों को कोई असुविधा हुई है । ”

सिंह ने आहतों से भरे युद्ध- क्षेत्र का निरीक्षण किया । धूप और गर्मी से उनके घाव सड़ गए थे और उनकी बड़ी दुर्दशा हो रही थी । उन्होंने काप्यक गान्धार से कहा - “ मित्र , घायल मागधों की भी हमें सेवा करनी चाहिए। ”उन्होंने तुरन्त ताड़ - पत्र पर एक आदेश आचार्य अग्निवेश के नाम वेग से चलने वाली नाव पर उल्काचेल भेज दिया । उसमें कुछ वद्य और औपचारिक तथा शुश्रूषा - सामग्री की मांग की गई थी । चर को भेजकर सिंह ने कहा - “ मित्र काप्यक, कुछ खाली घरों को स्वच्छ करके आहत भटों को वहां ले जाओ। तब तक आचार्य अग्निवेश अपना सेवादल भेज देंगे।

लिच्छवि सेनापति के करुण व्यवहार और अभयदान से आशान्वित हो बहुत - से ग्रामवासी , जो वन में जा छिपे थे, पीछे लौट आए। उनमें से जो उपस्थित हो सके , उन ग्राम -जेट्ठकों को बुलाकर सिंह ने एक घोषणा द्वारा उन्हें अभय किया और मागध आहतों की सेवा में सहयोग मांगा । जेट्ठकों ने प्रसन्नता से सहयोग दिया ।

सब व्यवस्था कर सिंह ने काप्यक गान्धार को उल्काचेल का भार सौंपकर कहा - “ मित्र , वहां झुण्ड के झुण्ड बन्दी आ रहे हैं , उन्हें छोटी - छोटी टुकड़ियों में बांटकर देश के भीतरी भागों में भेजते जाओ और अपनी सैन्य को व्यवस्थित रूप में पीछे हटाओ, तथा यहां की सब सूचनाएं अब तुम्हीं देखो । मैं सन्धि उद्वाहिका में जाऊंगा, मेरा अश्व मंगा दो । ”

इतना कहकर सिंह ने बैठकर कुछ आदेश लिखे और उन्हें काप्यक को दिया । फिर उसे आलिंगन कर वैशाली के राजपथ पर अश्व छोड़ दिया ।

154. विराम – सन्धि : वैशाली की नगरवधू

आज वैशाली के संथागार में फिर उत्तेजना फैली थी । महासमर्थ मागध सैन्य चमत्कारिक रूप से पराजित हुई थी । लिच्छवियों के मुंह यद्यपि उदास थे और हृदय उत्साह - रहित , तथा वह उमंग और तेज उनमें न था , फिर भी आज की इस कार्रवाई में एक प्रकार की उत्तेजना का यथेष्ट आभास था । छत्तीसों संघ - राज्यों के राजप्रमुख , अष्टकुल के सम्पूर्ण राज- प्रतिनिधि इस विराम- सन्धि उद्वाहिका में योग दे रहे थे। गणपति सुनन्द और लिच्छवि महाबलाधिकृत सुमन अति गम्भीर थे। प्रमुख सेनानायक भी सब उपस्थित थे।

जब सेनापति सिंह ने संथागार में प्रवेश किया तब चारों ओर से हर्षनाद उठ खड़ा हुआ। महाबलाधिकृत सुमन ने सिंह का अभिनन्दन करते हुए उद्वाहिका का प्रारम्भ किया । उन्होंने कहा

“ भन्तेगण , आज हमें सौभाग्य ने विजय दी है । अब शत्रु सन्धि चाहता है , आज का विचारणीय विषय यह है कि किन नियमों पर सन्धि की जाए ? ”

मल्लकोल - राजप्रमुख ने उदग्र होकर कहा - “ सन्धि नहीं भन्ते सेनापति , हम मगध साम्राज्य को समाप्त किया चाहते हैं । वह सदैव का हमारे गण-संघों के मार्ग का शूल है । हमारा प्रस्ताव है कि सुअवसर से लाभ उठाया जाए और मुख्य मगध , अंग दक्षिण , अंग उत्तर - सबको वज्जीसंघशासन में मिला लिया जाए अथवा वहां हमें एक स्वतन्त्र गणशासन स्थापित कर देना चाहिए ।

“ किन्तु आयुष्मान् मगध और अंग में वज्जियों के अष्टकुल नहीं हैं । न वहां केवल मल्ल , कोलिय और कासी हैं । हम उन पर उसी प्रकार शासन कर सकते हैं जैसे वज्जी में अलिच्छवियों पर करते हैं । ”

गणपति सुनन्द ने कहा -

“ भन्तेगण सुनें , आयुष्मान् मगध में एक स्वतन्त्र गणतंत्र स्थापित करना चाहता है। गण- शासन का मूल मन्त्र गण - स्वातन्त्र्य है; यह शासन नहीं, व्यवस्था है जिसका दायित्व प्रत्येक सदस्य पर है। वास्तविक अर्थों में गणतन्त्र में राजा भी नहीं है। प्रजा भी नहीं है। गण का समूर्ण स्वामी गण है और गणपरिषद् उसका प्रतिनिधि । हमारे अष्टकुल के वज्जीगण में दास भी हैं , लिच्छवि भी हैं , अलिच्छवि भी हैं , आगन्तुक भी हैं । यद्यपि इन सबके लिए हमारा शासन उदार है, फिर भी इन अलिच्छवि जनों के पास हमारे शासन -निर्णय पर प्रभाव डालने का कोई साधन नहीं है । वे केवल अनुशासित हैं । यह हमारे वज्जी - गणतन्त्र में एक दोष है, जिसे हम दूर नहीं कर सकते , न उन्हें लिच्छवि ही बना सकते हैं । उनमें कोट्याधिपति सेट्रि हैं , जिनका वाणिज्य सुदूर यवद्वीप , स्वर्ण- द्वीप और पश्चिम में ताम्रपर्णी, मिस्र और तुर्क तक फैला है। हमारे गण की यह राजलक्ष्मी है। इसी प्रकार कर्मान्त शिल्पी और ग्राम - जेट्ठक हैं । क्या हम उनके बिना रह सकते हैं ? ये सब अलिच्छवि हैं और ये सभी वज्जी गणतन्त्र अनुशासित हैं । बहुधा हमें इन अलिच्छवियों द्वारा असुविधाएं उठानी पड़ती हैं । अब यदि हम अंग और मगध साम्राज्य को वज्जी - शासन में मिलाते हैं , तो हमारी ये कठिनाइयां असाधारण हो जाएंगी और हमारी गणप्रणाली असफल हो जाएगी ।

“ यदि आप किसी लिच्छवि जन को वहां का शासक बनाकर भेजेंगे, तो वह प्रजा के लिए और प्रजा उसके लिए पराई होगी । यदि कोई अलिच्छवि जन वहां का शासक बन जाएगा तो फिर दूसरा मगध साम्राज्य तैयार समझना होगा । वह जब प्रभुता और साधन सम्पन्न हो जाएगा तो हम उसे सहज ही हटा नहीं सकेंगे। ”

“ परन्तु भन्ते , हम इन आए-दिन के आक्रमणों को भी तो नहीं सह सकते ? ” एक मल्ल राजपुरुष ने कहा ।

“ भन्ते राजप्रमुख , इससे भी गम्भीर बात और है । यदि एक बार भी मगध -सम्राट जीत जाएगा तो वह निस्सन्देह हमारे गणराज्य को नष्ट कर देगा और हमारी गण ही की अलिच्छवि प्रजा समान अधिकार मांगेगी । इसका अभिप्राय स्पष्ट है कि दोनों अधिकार च्युत होंगे और गण -स्थान पर साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। ”

“ यही सत्य है भन्ते सेनापति , अर्थात् हमारी विजय से उनकी कुछ हानि नहीं है और उनकी एक ही विजय हमें समाप्त कर सकती है। ”

“ यही तथ्य है भन्ते , राजप्रमुख!

“ तब तो फिर इस पाप की जड़ को उन्मूलित करना ही आवश्यक है। ”

“ किन्तु कैसे ? हमें कम - से -कम एक लिच्छवि को बिम्बसार अंग - मगध का अधिपति बनाना होगा जो इस श्रेणिक बिम्बसार से अधिक भयंकर होगा । उससे गण लड़ भी तो न सकेगा । ”

“ क्यों न अंग - मगध को उनकी स्वतन्त्रता फिर दे दी जाए ? ”

“ यह कठिन नहीं है । पर प्रजा इसे स्वीकार कैसे करेगी ? उसका दायित्व किस पर होगा ? क्या आप समझते हैं मागध गण और आंगगण स्थापित होना सहज है ? ”

“ क्या हानि है! पश्चिम में भी तो बहुत गण हैं । क्यों न हम प्राची में गणसंख्या बढ़ाएं ? इससे कभी - कभी युद्ध भले ही हो , पर उससे गण -नाश का भय नहीं रहेगा। ”

“ परन्तु आयुष्मान, यह सम्भव नहीं है। हम अंग - मगध की प्रजा को स्वतन्त्रता नहीं दे सकते । अंगराज और मगधराज की स्थापना तो सहज है, पर आंग - गण और मागध - गण की नहीं । ”

“ क्यों भन्ते गणपति ? ”

“ इसलिए आयुष्मान्, कि इसके लिए एक रक्त और एक श्रेणी चाहिए। जहां एकता का भाव हो । मगध में अब ऐसा नहीं है । यद्यपि पहले मागध एक - रक्त थे। परन्तु अब वह इतने दिन साम्राज्यवादी रहकर राष्ट्र बन गया है। अब मागध एक जाति नहीं रही। अब तो वहां के ब्राह्मण, क्षत्रिय , आर्य भी अपने को मागध कहते हैं , मागध का अर्थ है, मागध साम्राज्य का विषय; मागध में ब्राह्मण- क्षत्रिय ही नहीं , मागध शिल्पी , मागध चाण्डाल भी हैं । ये अब असम वर्ग हैं । इनकी अपनी श्रेणियां हैं । ये कभी भी एक नहीं हो सकते । वह श्रेणियों की खिचड़ी है, वहां गणतन्त्र नहीं चल सकेगा। ”

“ ऐसा है, तब तो नहीं चल सकता। ”

अब सिंह सेनापति ने कहा “ भन्ते राजप्रमुख गण, मैं इस बात पर विचार करता हूं कि मनुष्य - शरीर की भांति राजवंश का भी काल है, राजवंशों का तारुण्य अधिक भयानक होता है। वृद्धावस्था उतनी नहीं। तीन - चार ही पीढ़ियों में राजवंश का तारुण्य जाता रहता है। फिर उसका वार्धक्य आता है । तब कोई नया राजवंश तारुण्य लेकर आता है । भन्ते , शिशुनाग राजवंश का भी यह वार्धक्य है । यदि इसे हम समाप्त कर देते हैं तो इसका अभिप्राय यह है कि कोई तरुण राजवंश अपनी सम्पूर्ण सामर्थ्य लेकर हमारे सामने आएगा। भन्तेगण , हमें भेड़िये की मांद छोड़कर सिंह की मांद में नहीं धंसना चाहिए। फिर भी एक बात है भन्ते , मागध राज्य को परास्त करना और उसे उन्मूलन करना एक सहज बात नहीं है । फिर भी हम परास्त कर चुके । हमारी प्रतिष्ठा बच गई, परन्तु इसमें हमारी सम्पूर्ण सामर्थ्य व्यय हो गई है, इस युद्ध में दस दिनों में हमारे गण ने ग्यारह लाख प्राणों की आहुति दी है । धन , जन और सामर्थ्य के इस क्षय की पूर्ति हमारा गण आधी शताब्दी तक भी कर सकेगा या नहीं , यह नहीं कहा जा सकता।....

“ हमारी सेनाएं राजगृह के आधे दूर तक के राजमार्ग और गंगा - तट पर फैली हुई हैं । हमने मगध सेना का सम्पूर्ण आयोजन अधिकृत कर लिया है, परन्तु भन्तेगण, गंगा - तट से आगे मागधों के प्रबल और अजेय मोर्चे और सैनिक दुर्ग हैं । राजधानी राजगृह भी अत्यन्त सुरक्षित है । नालन्द अम्बालष्टिका की दो योजन की भूमि पर शत्रु की बहुत भारी सैनिक तैयारी अभी भी अक्षुण्ण है । इन सबको विजय करने के लिए हमें और ग्यारह लाख प्राणों की आहुति देनी होगी । क्या गण इसके लिए तैयार है ? फिर और एक बात है! ”

“ वह क्या ? ”

“ हमें राजगृह का दुर्गम दुर्ग भी जय करना होगा । बिना ऐसा किए मगध का पतन नहीं हो सकता । परन्तु भन्तेगण , आप भलीभांति जानते हैं , राजगृह का दुर्ग सम्पूर्ण जम्बूद्वीप में दुर्भेद्य है। उसके सैनिक महत्त्व को मैं जानता हूं। यह उसका मानचित्र उपस्थित है । यदि गंगा - तट की राजगृह की भूमि जय करने में हमें महीनों लगेंगे तो राजगृह को जय करने में वर्षों लगेंगे। यह अभूतपूर्व नैसर्गिक दुर्ग वैभार , विपुल , पाण्व आदि दुर्गम पर्वत श्रृंखलाओं से आवेष्टित और सुरक्षित है , इन पहाड़ों के ऊपर बहुत मोटी शिलाओं के प्राकार , विशाल पत्थरों की चुनी हुई प्राचीर इस छोर से उस छोर तक मीलों दूर फैली हुई है। केवल दक्षिण ओर एक संकरी गली है, जिसमें होकर दुर्ग में जाया जा सकता है । इन प्राचीरों में सुरक्षित बैठकर एक - एक धनुर्धर सौ - सौ लिच्छवियों को अनायास ही मार सकता है। इस गिरि - दुर्ग में सुमागध सरोवर है , जिसके कारण दुर्ग घेरने पर भी वर्षों तक अन्न - जल की कमी बिम्बसार को नहीं रहेगी। फिर पांचों पर्वतों पर खिंची दैत्याकार प्राचीरों को भंग करने का कोई साधन हमारे पास नहीं है ।

“ भन्ते , इस परिस्थिति में हम यदि आगे युद्ध में बढ़ते हैं तो हमारी अपार जनहानि होगी । इतने जन अब हमारे अष्टकुल में नहीं हैं । न हमारे छत्तीसों गणराज्यों में हैं । यदि तीन पीढ़ियों तक अष्टकुल -गणराज्य की प्रत्येक स्त्री बीस-बीस पुत्र उत्पन्न करे तो हो सकता है । सो भन्तेगण, यदि हमने राजगृह जय करने का साहस किया तो सफलता तो संदिग्ध है ही , अपार धन - जन की हानि भी निश्चित है। ”

गणपति सुनन्द ने कहा - “ भन्तेगण, आपने आयुष्मान् सिंह का अभिप्राय सुना, हम अपनी स्थिति सुदृढ़ रखना पहले चाहेंगे। इसलिए अब प्रश्न है कि शत्रु से सन्धि की जाय या नहीं। ”

“ ऐसी दशा में सन्धि सर्वोत्तम है, विशेषकर जबकि शत्रु अपने हाथ में है तथा सन्धि के नियम भी हमारे ही रहेंगे। सबने एकमत होकर कहा ।

“ तो सन्धि में तीन बातों पर विचार करना है : एक यह कि शत्रु का सैनिक - बल इतना दुर्बल कर दिया जाय कि वह चिरकाल तक हमारे विरुद्ध शस्त्र न उठा सके। ”

“ सदा के लिए क्यों नहीं ? ”राजप्रमुख ने कहा ।

“ यह देवताओं के लिए भी शक्य नहीं है, आयुष्मान् ! दूसरे शत्रु यथेष्ट युद्ध- क्षति दे ।

“ तीसरे सुदूर -पूर्वी तट हमारे वाणिज्य के लिए उन्मुक्त रहे। ”

छन्द लेने पर प्रस्ताव सर्व- सम्मति से स्वीकार हुआ ।

सन्धि की सब शर्तों पर विचार करने , हस्ताक्षर करने तथा शत्रु से आवश्यक मामले तय करने का अधिकार सिंह को दिया गया ।

यथासमय सन्धि हो गई। वज्जी - भूमि में इसके लिए सर्वत्र गणनक्षत्र मनाया गया । वैशाली के खण्डहर ध्वजाओं से सजाए गए। भग्न द्वारों पर जलपूरित मंगल कलश रखे गए । रात को टूटी और सूनी अटारियों में दीपमालिका हुई ।

वैशाली के इस दिग्ध समारोह में भाग नहीं लिया अम्बपाली ने । उनका प्रासाद सजाया नहीं गया , उस पर तोरण - पताकाएं नहीं फहराई गईं और दीपमालिका नहीं की गई । अपितु सप्तभूमि - प्रासाद का सिंह- द्वार और समस्त प्रवेश द्वार बन्द कर दिए गए । समस्त आलोक - द्वीप बुझा दिए गए। उस आनन्द और विजयोत्सव में राग -रंग के बीच देवी अम्बपाली और उसका विश्व -विश्रुत प्रासाद जैसे चिरनिद्रा में सो गया युग - युग के लिए!

155 . अश्रु - सम्पदा : वैशाली की नगरवधू

मध्य रात्रि थी । एक भी तारा आकाश - मण्डल में नहीं दीख रहा था । काले बादलों ने उस अंधेरी रात को और भी अंधेरी बना दिया था । बीच -बीच में कभी -कभी बूंदा- बांदी हो जाती थी । हवा बन्द थी , वातावरण में एक उदासी , बेचैनी और उमस भरी हुई थी । दूर तक फैले हुए युद्ध - क्षेत्र में सहस्रों चिताएं जल रही थीं । उनमें युद्ध में निहित सैनिकों के शव जल रहे थे। चरबी के जलने के चट - चट शब्द हो रहे थे। कोई -कोई चिता फट पड़ती थी । उसकी लाल - लाल अग्निशिखा पर नीली - पीली लौ एक बीभत्स भावना मन में उदय कर रही थी । सैनिक शव ढो -ढोकर एक महाचिता में डाल रहे थे। बड़े - बड़े वीर योद्धा, जो अपनी हुंकृति से भूतल को कपित करते थे,छिन्नमस्तक -छिन्नबाहु भूमि पर धूलि - धूसरित पड़े थे । राजा और रंक में यहां अन्तर न था । अनेक छत्रधारियों के स्वर्ण-मुकुट इधर - उधर लुढ़क रहे थे। कोई - कोई घायल योद्धा मृत्यु -विभीषिका से त्रस्त हो रुदन कर बैठता था । कोई चीत्कार करके पानी और सहायता मांग रहा था । वायु में चिरायंध भरी थी । जलती हुई चिताओं की कांपती हुई लाल आभा में मृतकों को ढोते हुए सैनिक उस काली कालरात्रि में काले -काले प्रेत - से भासित हो रहे थे। सम्पूर्ण दृश्य ऐसा था , जिसे देखकर बड़े-बड़े वीरों का धैर्य च्युत हो सकता था ।

मागध सेनापति सोमप्रभ एक महाशाल्मलि वृक्ष के नीचे तने से ढासना लगाए ध्यान - मुद्रा से यह महाविनाश देख रहे थे। गहन चिन्ता से उनके माथे पर रेखाएं पड़ गई थीं । उनके बाल रूखे, धूल - भरे और बिखरे हए थे । मह सूख रहा था और होंठ सम्पटित थे ।

बीच- बीच में उल्लू और सियार बोल उठते थे। उनकी डरावनी शब्द- ध्वनि बहुधा उन्हें चौंका देती थी । क्षण - भर को विचलित होकर वे फिर गहरी ध्यान - मुद्रा में डूब जाते थे । कभी उनके कल्पना - संसार में भूतकालीन समूचा जीवन विद्युत् - प्रवाह की भांति घूम जाता था , कभी तक्षशिला की उत्साहवर्धक और आनन्द तथा ओजपूर्ण छात्रावस्था के चित्र घूम जाते थे; कभी चम्पा की राजबाला का कुन्देंदुधवल अश्रुपूरित मुख और कभी देवी अम्बपाली का वह अपार्थिव नृत्य , कभी सम्राट् की भूलुण्ठित आर्त मूर्ति और कभी अम्बपाली का आर्त चीत्कार; अन्ततः उनका निस्सार -निस्संग जीवन - उस रात्रि से भी अधिक बीभत्स , भयानक और अन्धकारमय भविष्य !

इसी समय निकट पद- शब्द सुनकर उन्होंने किसी वन -पशु की आशंका से खड्ग पर हाथ रखा। परन्तु देखा - एक मनुष्य छाया उन्हीं की ओर आ रही है । छाया के और निकट आने पर उन्होंने भरे स्वर में पुकारा - “ कौन है ? ”

एक स्त्रीमूर्ति आकर उनके निकट खड़ी हो गई । जलती हुई निकट की चिता के लाल - पीले प्रकाश में सोमप्रभ ने देखा , पहचानने में कुछ देर लगी । पहचानकर वह ससंभ्रम खड़े हो गए । उनके मुंह से जैसे आप ही निकल गया

“ आप ? ”

“ मैं ही हूं सोमप्रभ ! ”

सोम स्तम्भित , जड़वत् - अवाक् खड़े रह गए । आगन्तुका ने और भी निकट आकर कहा - “ तुझे इस अवस्था में इस स्थान पर देखने के लिए ही भद्र , अपना कठोर जीवन व्यतीत करती हुई मैं अब तक जीवित रही थी । आज मेरे दुर्भाग्यपूर्ण जीवन की सोलहों कला पूर्ण फल गईं ; मेरा नारी होना , मां होना सब कुछ सार्थक हो गया । ”सोम ने चिता के कांपते पीले प्रकाश में आंख उठाकर उस शोक- सन्ताप - दग्धा स्त्री के मुख की ओर देखा , जिस पर वेदनाओं के इतिहास की गहरी अनगिनत रेखाएं खुदी हुई थीं । सोम का मस्तक झुकने लगा और एक क्षण बाद ही वह उस मूर्ति के चरणों पर लोट गए ।

आगन्तुका ने धीरे - से बैठकर सोम का सिर उठाकर अपनी गोद में रखा। बहुत देर तक सोमप्रभ उस गोद में फफक - फफककर अबोध शिशु की भांति रोते रहे और वह महिमामयी महिला भी अपने आंसुओं से सोमप्रभ के धूलि - धूसरित सिर को सिंचन करती रहीं । बहुत देर बाद सोमप्रभ ने सिर उठाकर कहा - “ मां , इस समय यहां पर क्यों आईं ? ”

“ मेरे पुत्र , तुझ निस्संग के साथ रुदन किए बहुत दिन व्यतीत हुए । जब जीवन के प्रभात ही में शोक और दुर्भाग्य की कालिमा ने मुझे ग्रसा था तब रोई थी , सब आंसू खर्च कर दिए थे। फिर इन चालीस वर्षों में एक बार भी रो नहीं पाई भद्र , बहुत - बहुत यत्न किए, एक आंसू भी नहीं निकला । सो आज चालीस वर्ष बाद पुत्र , तुझे छाती से लगाकर इस महाश्मशान में रोने की साध लेकर ही आई हूं । लोकपाल -दिग्पाल देखें अब , यह एक मां अपने एकमात्र पुत्र को चालीस वर्षों से महाकृपण की भांति संचित अपने विदग्ध आंसुओं की निधि से सम्पन्न करने , आप्यायित करने , पुत्र पर अपने आंसुओं से भीगे हुए सुख सौभाग्य की वर्षा करने आई है । ”

सोम बहुत दूर तक उनकी गोद में सिर झुकाए पड़े रहे। फिर उन्होंने सिर उठाकर कहा -

“ चलो मां , पुष्करिणी के उस पार अपनी कुटिया में मुझ परित्यक्त को ले चलो , मुझे अपनी शरण में ले लो मां ! ”

“ मेरे पुत्र , अभी एक गुरुतर कार्य शेष है; वह हो जाए,पीछे और कुछ । ”

“ वह क्या मां ? ”

“ तेरे पिता की मुक्ति ? ”

“ कहां हैं वे मां ? ”

“ बन्दी हैं ! ”

“ किसने उन्हें बन्दी किया है ? मैं अभी उसका शिरच्छेद करूंगा। ”उन्होंने अत्यन्त हिंस्र भाव से खड्ग उठाया ।

“ तैने ही पुत्र, जा , उन्हें मुक्त कर! सोम आश्चर्य से आंखें फाड़कर आर्या मातंगी को देखने लगे । भय, आशंका और उद्वेग से जैसे उनके प्राण निकलने लगे, बड़ी कठिनाई से उनके मुंह से टूटे - फूटे शब्द निकले – “ क्या सम्राट..... “

“ हां , पुत्र, अब अधिक मेरी लाज को मत उघाड़ ! ”

सोम चीत्कार करके मूर्छित हो गए।

बहुत देर तक आर्या मातंगी मूर्छित पुत्र को गोद में लिए पड़ी रहीं । उन्होंने पुत्र को होश में लाने का कुछ भी यत्न नहीं किया । एक अवश जड़ता ने उन्हें घेर लिया । धीरे धीरे उनका मुंह सफेद होने लगा । नेत्र पथराने लगे, अंग कांपने लगे ।

सोम की मूर्छाभंग हुई । उन्होंने आर्या मातंगी की मुद्रा देखकर चिल्लाकर कहा -

“ मां , मां , मां , सावधान हो , मैं कभी अपने को क्षमा नहीं करूंगा। ”

आर्या ने नेत्र खोले , उनके सूखे रक्तहीन होंठ हिले । सोम ने कान निकट लाकर सुना । आर्या कह रही थीं - “ अम्बपाली तेरी भगिनी है , किन्तु उसके पिता ब्राह्मण वर्षकार... “

आर्या के ओष्ठ, हृदय, जीवन सब निस्पन्द हुए !

156. पिता - पुत्र : वैशाली की नगरवधू

उस अर्ध-निशा में सेनापति को एकाकी बन्दीगृह के द्वार पर आया देख प्रहरी घबरा गए।

सोम ने पूछा - “ क्या बन्दी सो रहा है ? ”

“ नहीं जाग रहा है । ”

“ ठीक है । अब तुम्हारी आवश्यकता नहीं है। द्वार खोल दो । ”

प्रहरी ने द्वार खोल दिया । सोम ने भीतर जाकर देखा - सम्राट् धीर- गति से उस क्षुद्र कक्ष में टहल रहे थे ।

सोम को देखकर वे क्षण- भर को रुक गए । फिर बोले -

“ आ आयुष्मान्, क्या वध करने आया है ? वध कर , मैं प्रस्तुत हूं । परन्तु एक वचन दे, खड्ग छूकर। यदि अम्बपाली को पुत्र -लाभ हो , तो वही मगध सम्राट् होगा। मैंने देवी को यह वचन उसके शुल्क में दिया था , वह वचन सम्राट का वचन था । ”

सोम ने भरोए कण्ठ से कहा - “ वचन देता हूं। ”

“ खड्ग छूकर ? ”

“ खड्ग छूकर । ”

“ आश्वस्त हुआ, परन्तु आयुष्मान् , तू युवा है, सशक्त है, खड्ग चलाने में सिद्धहस्त है। ”

सोम ने उत्तर नहीं दिया । चुपचाप खड़े रहे ।

सम्राट् कहते गए – “ मैं समझता हूं , एक ही हाथ से मेरा शिरच्छेद हो जाएगा । अधिक कष्ट नहीं होगा , समझता है न आयुष्मन् ? अब मैं कायर हो गया हूं, कष्ट नहीं सह सकता। यह अवस्था का दोष है, भद्र पहले मैं ऐसा नहीं था । अब तू वध कर । ”

सम्राट् स्थिर मुद्रा में भूमि पर बैठ गए । सोम के मुंह से एक शब्द नहीं निकला - वह धीरे- धीरे सम्राट के चरणों में भूमि पर लोट गए । उन्होंने अवरुद्ध कण्ठ से कहा -

“ पिता , क्षमा कीजिए! ”

“ यह मैंने क्या सुना है आयुष्मान् ? ”

किन्तु सोम ने और एक शब्द भी नहीं कहा। वे उसी भांति भूमि पर पड़े रहे। सम्राट ने उठाकर और स्वयं उठकर सोम को छाती से लगाकर कहा -

“ क्या कहा, फिर कह भद्र! अरे इस नीरस, निर्मम , शापग्रस्त सम्राट् के जीवन को एक क्षण- भर के लिए तो आप्यायित कर , फिर कह भद्र, वही शब्द ! ”

सोम ने सम्राट के अंक में बालक की भांति सिर देकर कहा -

“ पिता! ”

सम्राट ने असंयत हो उन्मत्त की भांति कहा - “ अहा- हा , कैसा सुधा -वर्षण किया भद्र, किन्तु यह क्या सत्य है ? स्वप्न नहीं है, मैं एक पुत्र का पिता हूं ? ”

“ हां देव , आप इस दग्ध - भाग्य सोम के पिता हैं । ”

“ किसने कहा भद्र, क्या मृत्यु के भय से मेरा मस्तिष्क विकृत तो नहीं हो गया है । तूने कहा न पिता ? ”

“ हां देव ! ”

“ तो फिर कह । ”

“ पिता ! ”

“ और कह। ”

“ पिता ! ”

“ अरे बार - बार कह, बार - बार कह! ”सम्राट् ने सोम को अंक में भर गाढ़ालिंगन किया ।

सोम ने कहा - “ पूज्य पिता, यह आपका पुत्र सोमप्रभ आपको अभिवादन करता है। ”

“ सौ वर्ष जी भद्र, सहस्र वर्ष! सम्राट् ज़ार- ज़ार आंसू बहाने लगे ।

सोम ने कहा - “ पिता , अभी एक गुरुतर कार्य करना है । ”

“ कौन - सा पुत्र ?

“ माता मातंगी आर्या का सत्कार ।

“ क्या आर्या मातंगी आई हैं ? ”

“ आई थीं , किन्तु चली गईं पिता ! ”

“ चली गईं ? मैं एक बार देख भी न सका ! ”

“ देख लीजिए पिता , अभी अवशेष है । ”

“ अरे , तो .....। ”

“ अभी कुछ क्षण पूर्व मुझे अपनी अश्रु- सम्पदा से सम्पन्न कर और दो सन्देश देकर वह गत हुईं । ”

“ अश्रु- सम्पदा से तुझे सम्पन्न करके ?

“ हां , देव ! ”

“ तो पिता पुत्र के सौभाग्य पर ईर्ष्या करेगा , किन्तु सन्देश , तूने कहा था , दो सन्देश ? ”

“ एक निवेदन कर चुका । ”.....

“ उसका मूल्य मगध का साम्राज्य - अस्तु , दूसरा कह .... “

“ देवी अम्बपाली मेरी भगिनी हैं । ”

सम्राट् चीत्कार कर उठे ।

सोम ने कहा - “ मुझे कुछ निवेदन करना है देव ! ”

“ अब नहीं , अब नहीं, सोमभद्र, तू मुझे वध कर , शीघ्रता कर! ”

“ देव ! ”

“ आज्ञा देता हूं रे, यह सम्राट् की आज्ञा है, अन्तिम आज्ञा ! ”

“ एक गुह्य है पिता , देवी अम्बपाली आर्य अमात्य की पुत्री हैं । ”

सम्राट ने उन्मत्त की भांति उछलकर सोम को हृदय से लगा लिया। संयत होने पर सोम ने कहा -

“ पिता , चलिए अब, माता का शरीर अरक्षित है। ”

“ कहां पुत्र “

“ निकट ही । ”

दोनों बाहर आए। महाश्मशान में अब भी चिताएं जल रही थीं । दोनों ने आर्या मातंगी को उठाकर गंगा -स्नान कराया । फिर सम्राट ने अपना उत्तरीय अंग से उतार कर देवी के अंग पर लपेट दिया । सोम सूखी लकड़ी बीन लाए और उस पर आर्या मातंगी की महामहिमामयी देहयष्टि रखकर एक चिता की अग्नि से मगध के सम्राट ने आर्या की चिता में दाह दिया । जिसके साक्षी थे सद्य: परिचित माता -पिता का पुत्र और वर्षोन्मुख मेघपुञ्ज।

पिता - पुत्र दोनों उसी वृक्ष के नीचे बैठे आर्या मातंगी की जलती चिता को देखते रहे । चिता जल चुकने पर सोम ने खड्ग सम्राट के चरणों में रखकर उनकी प्रदक्षिणा की , फिर अभिवादन करके कहा - “ विदा , पूज्य पिता ! ”

“ यह क्या पुत्र , जाने का अब मेरा काल है, मगध का साम्राज्य तेरा है । ”

सोमप्रभ ने कहा - “ इसी खड्ग की सौगन्ध खाकर कहता हूं , मगध का भावी सम्राट देवी अम्बपाली का गर्भजात पुत्र होगा। ”

सोम ने एक बार फिर भूमि में गिरकर सम्राट का अभिवादन किया और जलती हुई चिताओं में होते हुए उसी अभेद्य अन्धकार में लोप हो गए ।

उपसंहार : वैशाली की नगरवधू

एक वर्ष बीत गया । युद्ध जय होने पर भी इस युद्ध के फलस्वरूप वैशाली का सारा वैभव छिन्न - भिन्न हो गया था । इस युद्ध में दस दिन के भीतर 96 लाख नर - संहार हुआ था और नौ लिच्छवि , नौ मल्ल , अठारह कासी - कौल के गणराज्य एक प्रकार से ध्वस्त हो गए थे। वैशाली में दूर तक अधजली अट्टालिकाएं , ढहे हुए प्रासादों के दूह, टूटे - फूटे राजमार्ग दीख पड़ रहे थे। बहुत जन वैशाली छोड़कर भाग गए थे। युवक -योद्धा सामन्तपुत्र विरले ही दीख पड़ते थे । बहुतों का युद्ध में निधन हुआ था । बहुत अंधे, लंगड़े, लूले , अपाहिज होकर दु: ख और क्षोभ से भरे हुए वैशाली के अन्तरायण की अशोभावृद्धि करते थे। देश देशान्तरों के व्यापारी अब हट्ट में नहीं दीख पड़ रहे थे। बड़े-बड़े सेट्रिपुत्र थकित , चिंतित और निठल्ले पड़े रहते थे। शिल्पी - कम्मकर भूखे, असम्पन्न , दुर्बल और रोगाक्रान्त हो गए थे। युद्ध के बाद ही जो भुखमरी और महामारी नगर और उपनगर में फैली थी , उससे आबाल - वृद्ध पटापट मर रहे थे। सूर्योदय से सूर्योदय तक निरन्तर जन -हर्योंमें से जिनमें कभी संगीत की लहरें उठा करती थीं - आक्रोश, क्रन्दन , चीत्कार और कलह के कर्ण- कटु शब्द सुनाई देते ही रहते थे। नगर - सुधार की ओर किसी का भी ध्यान न था । संथागार में अब नियमित सन्निपात नहीं होते थे; होते थे तो विद्रोह और गृह- कलह तथा मत -पार्थक्य ही की बातें सुनाई पड़ती थीं । प्रमुख राजपुरुषों ने राज - संन्यास ले लिया था । नये अनुभवहीन और हीन - चरित्र लोगों के हाथ में सत्ता डोलायमान हो रही थी । प्रत्येक स्त्री - पुरुष असन्तुष्ट , असुखी और रोषावेशित रहता था । लोग फटे-हाल फिरते तथा बात - चीत में कुत्तों की भांति लड़ पड़ते थे। मंगल - पुष्करिणी सूख गई थी और नीलहद्य प्रासाद भूमिसात् हो चुका था । लोग खुल्लमखुला राजपुरुषों पर आक्षेप करते , अकारण ही एक - दूसरे पर आक्रमण करते और हत्या तक कर बैठते थे। अपराधों की बाढ़ आ गई थी । बहुत कुल - कुमारियां और कुल - वधू वेश्या बनकर हट्ट में आ बैठी थीं । उन्हें लज्जा नहीं थी । वे प्रसंग आने पर अम्बपाली का व्यंग्यमय उदाहरण देकर कहतीं हम इन पुरुष - पशुओं पर उसी की भांति शासन करेंगी । इनके धन -रत्नों का हरण करेंगी। यह लोक- सम्मत संस्कृत जीवन है , इसमें गर्हित क्या है ? अकरणीय क्या है ? नगर के बाहर एक योजन जाने पर भी नगर का जीवन , धन अरक्षित था । दस्युओं की भरमार हो गई थी , खेत सब सूखे पड़े थे। ग्राम जनपद सर्वत्र ‘ हा अन्न , हा अन्न का क्रन्दन सुनाई पड़ रहा था । भूख की ज्वाला से जर्जर काले - काले कंकाल ग्राम - ग्राम घूमते दीख पड़ते थे। किसी में किसी के प्रति सहानुभूति , प्रेम और कर्तव्य की भावना का अंश भी नहीं रह गया था । ये सब युद्ध के अवश्यम्भावी युद्धोत्तर परिणाम थे ।

अम्बपाली का द्वार सदैव बन्द रहता था । लोग सप्तभूमि प्रासाद को देख - देखकर क्रोध और आवेश में आकर अपशब्द बकते , तथा अम्बपाली को कोसते थे। सप्तभूमि प्रासाद के गवाक्षों और अलिन्दों से दूर तक शोभा बिखेरने वाला रंग -बिरंगा प्रकाश अब नहीं दीख पड़ रहा था । वहां सिंहपौर पर अब ताजे फूलों की मालाएं नहीं सजाई जाती थीं - न अब वहां पहले जैसी हलचल थी , युद्ध में जो भाग भंग हो गया था , अम्बपाली ने उसकी मरम्मत कराने की परवाह नहीं की थी - जगह- जगह भीतों , अलिन्दों, खम्भों और शिखरों में दरारें पड़ गई थीं , उन दरारों में जंगली घास -फूस, गुल्म उग आए थे। बीच के तोरणों में मकड़ियों ने जाले पूर दिए थे और कबूतरों- चमगादड़ों ने उसमें घर बना लिए थे ।

अम्बपाली के बहुत मित्र युद्ध में निहत हुए थे। जो बच रहे थे, वे अम्बपाली के इस परिवर्तन पर आश्चर्य करते थे। दूर - दूर तक यह बात फैल गई थी कि देवी अम्बपाली का आवास अब मनुष्य -मात्र के लिए बन्द हो गया है । अम्बपाली के सहस्रावधि वेतन - भोगी दास - दासी , सेवक, कम्मकर , सैनिक और अनुचरों में अब कोई दृष्टिगोचर नहीं होता था । जो इने -गिने पाश्र्वद रह गए थे, उनमें केवल दो ही व्यक्ति थे, जो अम्बपाली को देख सकते थे और बात कर सकते थे। एक वृद्ध दण्डधर लल्ल और दूसरी दासी मदलेखा। इनमें केवल वृद्ध दण्डधर को ही बाहर - भीतर सर्वत्र आने- जाने की स्वाधीनता थी । ये ही दोनों यह रहस्य जानते थे कि अम्बपाली को बिम्बसार का गर्भ है ।

यथासमय पुत्र प्रसव हुआ । यह रहस्य भी केवल इन्हीं दो व्यक्तियों पर प्रकट हुआ । वह शिशु अतियत्न से , अतिगोपनीय रीति पर , अति सुरक्षा में उसी दण्डधर के द्वारा यथासमय मगध सम्राट के पास राजगृह पहुंचा दिया गया ।

मगध - सम्राट् बिम्बसार अर्द्ध-विक्षिप्त की भांति राज -प्रासाद में रहते थे। राज -काज ब्राह्मण वर्षकार ही के हाथ में था । सम्राट् प्राय : महीनों प्रासाद से बाहर नहीं आते, दरबार नहीं करते , किसी राजकाज में ध्यान नहीं देते । वे बहुधा रात - रात - भर नंगे सिर, नंगे बदन , नंगा खड्ग हाथ में लिए प्रासाद के सूने खण्डों में अकेले ही बड़बड़ाते घूमा करते । राज सेवक यह कह गए थे। कोई भी बिना आज्ञा सम्राट के सम्मुख आने का साहस न कर सकता था ।

एक दिन , जब सम्राट् एकाकी शून्य- हृदय , शून्य - मस्तिष्क , शून्य - जीवन , शून्य प्रासाद में , शून्य रात्रि में उन्मत्त की भांति अपने ही से कुछ कहते हुए से , उन्निद्र, नग्न खड्ग हाथ में लिए भटक रहे थे, तभी हठात् वृद्ध दण्डधर लल्ल ने उनके सम्मुख जाकर अभिवादन किया ।

सम्राट् ने हाथ का खड्ग ऊंचा करके उच्च स्वर से कहा - “ तू चोर है, कह, क्यों आया ? ”

दण्डधर ने एक मुद्रा सम्राट् के हाथ में दी और गोद में श्वेत कौशेय में लिपटे शिशु का मुंह उघाड़ दोनों हाथ फैला दिए । सम्राट ने देवी अम्बपाली की मुद्रा पहचान मंदस्मित हो शिशु की उज्ज्वल आंखों को देखकर कहा -

“ यह क्या है भणे ? ”

“ मगध के भावी सम्राट ! देव , मेरी स्वामिनी देवी अम्बपाली ने बद्धांजलि निवेदन किया है कि उनकी तुच्छ भेंट - स्वरूप मगध के भावी सम्राट् आपके चरणों में समर्पित हैं । ”

सम्राट ने शिशु को सिंहासन पर डालकर वृद्ध दण्डधर से उत्फुल्ल - नयन हो कहा-“ मगध के भावी सम्राट का झटपट अभिवादन कर ! ”

दण्डधर ने कोष से खड्ग निकाल मस्तक पर लगा तीन बार मगध के भावी सम्राट का जयघोष किया और खड्ग सम्राट् के चरणों में रख दिया ।

सम्राट ने भी उच्च स्वर से खड्ग हवा में ऊंचा कर तीन बार मगध के भावी सम्राट का जयघोष किया और घण्ट पर आघात किया । देखते - ही - देखते प्रासाद के प्रहरी , रक्षक , कंचुकी , दण्डधर , दास -दासी दौड़ पड़े । सम्राट ने चिल्ला -चिल्लाकर उन्मत्त की भांति कहा

“ अभिवादन करो, आयोजन करो, आयोजन करो, गण- नक्षत्र मनाओ। मगध के भावी सम्राट का जय -जयकार करो! ”

देखते - ही - देखते मागध प्रासाद हलचल का केन्द्र हो गया । विविध वाद्य बज उठे । सम्राट ने अपना रत्नजटित खड्ग वृद्ध दण्डधर की कमर में बांधते हुए कहा - “ भणे, अपनी स्वामिनी को मेरी यह भेंट देना । ”यह कह एक और वस्तु वृद्ध के हाथ में चुपचाप दे दी । वह वस्तु क्या थी , यह ज्ञात होने का कोई उपाय नहीं ।

10 वर्ष बीत गए । युवक वृद्ध हो गए , वृद्ध मर गए, बालक युवा हो गए । अम्बपाली अब अतीत का विषय हो गई । पुराण पुरुष युक्ति - अत्युक्ति द्वारा युद्ध और अम्बपाली की बहुत - सी कथाएं कहने - सुनने लगे । उनमें बहुत - सी अतिरंजित , बहुत - सी प्रकल्पित और बहुत - सी सत्य थीं । उन्हें सुन - सुनकर वैशाली के नवोदित तरुणों को कौतूहल होता। वे जब सप्तभूमि प्रासाद के निकट होकर आते - जाते , तो उसके बन्द , शून्य और अरक्षित अक्षोभनीय द्वार को उत्सुकता और कौतूहल से देखते । इन्हीं दीवारों के भीतर , इन्हीं अवरुद्ध गवाक्षों के उस ओर वह जनविश्रुत अम्बपाली रह रही हैं , किन्तु उसका दर्शन अब देव , दैत्य , मानव , किन्नर , यक्ष , रक्ष सभी को दुर्लभ है, इस रहस्य की विविध किंवदन्तियां घर - घर होने लगीं ।

श्रमण बुद्ध बहुत दिन बाद वैशाली में आए। आकर अम्बपाली की बाड़ी में ठहरे । अम्बपाली ने सुना । हठात् सप्तभूमि प्रासाद में जीवन के चिह्न देखे जाने लगे । दास - दासी , कम्मकर , कर्णिक , दण्डधर भाग - दौड़ करने लगे । दस वर्ष से अवरुद्ध सप्तभूमि प्रासाद का सिंहद्वार एक हल्की चीत्कार करके खुल गया और देखते - देखते सारी वैशाली में यह समाचार विद्युत् वेग से फैल गया - अम्बपाली भगवान् बुद्ध के दर्शनार्थ बाड़ी में जा रही है । दस वर्ष बाद वह सर्वसाधारण के समक्ष एक बार फिर बाहर आई है। लोग झुण्ड के झुण्ड प्रासाद के सिंह- पौर को घेरकर तथा राजमार्ग पर डट गए। आज के तरुणों ने कहा - आज उस अद्भुत देवी का दर्शन करेंगे। नवोढ़ा वधुओं ने कहा - देखेंगे, देवी का रूप कैसा है ! कल के तरुणों ने कहा - देखेंगे, अब वह कैसी हो गई है। हाथी , घोड़े, शिविका और सैनिक सज्जित हो -होकर आने लगे। अम्बपाली एक श्वेत हाथी पर आरूढ़ निरावरण एक श्वेत कौशेय उत्तरीय से सम्पूर्ण अंग ढांपे नतमुखी बैठी थी । उसका मुख पीत , दुर्बल किन्तु तेजपूर्ण था । जन - कोलाहल , भीड़ - भाड़ पौर- जनपद की लाजा -पुष्पवर्षा किसी ने भी उसका ध्यान भंग नहीं किया । एक बार भी उसने आंख उठाकर किसी की ओर नहीं देखा । श्वेत मर्म की अचल देव - प्रतिमा की भांति शुभ्र शारदीय शोभा की मूर्त प्रतिकृति - सी वह निश्चल -निस्पन्द नीरव हाथी पर नीचे नयन किए बैठी थी । दासियों का पैदल झुण्ड उसके पीछे था ।

उनके पीछे अश्वारोही दल था और उसके बाद हाथियों पर गन्ध , माल्य , भोज्य , उपानय तथा पूज्य - पूजन की सामग्री थी । सबके पीछे विविध वाहन , कर्मचारी, नागर और जानपद । राजपथ , वीथी , हट्ट में अपार दर्शक उत्सुकता और कौतूहल से उसे देख रहे थे।

बाड़ी के निकट जा उसने सवारी रोकने की आज्ञा दी । वह पांव -प्यादे वहां पहुंची, जहां एक द्रुम की शीतल छांह में , अर्हन्त श्रमण बुद्ध प्रसन्न मुद्रा में बैठे थे। पीछे सौ दासियों के हाथों में गन्ध -माल्य, उपानय और पूज्य - पूजन -साधन थे।

तथागत अब अस्सी को पार कर गए थे। उनके गौर, उन्नत , कृश गात की शोभा गाम्भीर्य की चरम रेखाओं में विभूषित हो कोटि - कोटि जनपद को उनके चरणों में अवनत होने को आह्वान कर रही थी । उनके सब केश श्वेत हो गए थे। किन्तु वे एक बलिष्ठ महापुरुष दीख पड़ते थे। वे पद्मासन लगाए शान्त मुद्रा में वृक्ष की शीतल छाया में आसीन थे ।

सहस्रावधि भिक्षु , नागर उनके चारों ओर बैठे थे। मुंडित और काषायधारी भिक्षुकों की पंक्ति दूर तक बैठी उनके श्रीमुख से निकले प्रत्येक शब्द को हृदय - पटल पर लिख रही थी ।

आनन्द ने कहा -

“ भगवन् , देवी अम्बपाली आई हैं । ” तथागत ने किंचित् हास्य -मुद्रा से अम्बपाली को देखा । अम्बपाली ने सम्मुख आ , अभिवादन किया । गन्ध -माल्य निवेदन कर पूज्य - पूजन किया। फिर संयत भाव से एक ओर हटकर बैठकर उसने करबद्ध प्रार्थना की

“ भन्ते भगवन्, भिक्षु-संघ सहित कल को मेरा भोजन स्वीकार करें ! ”

भगवन् ने मौन रह स्वीकार किया । तब देवी अम्बपाली भगवन् की स्वीकृति को जान आसन से उठ , भगवन् की प्रदक्षिणा कर , अभिवादन कर चल दी । इसी समय रथों , वाहनों , हाथियों , अश्वों का महानाद , बहुत मनुष्यों का कोलाहल सुन अर्हन्त बुद्ध ने कहा - “ आयुष्मान् आनन्द, यह कैसा कोलाहल है ? ”.

आनन्द ने कहा - “ भगवन् , यह लिच्छवियों के अष्टराजकुल परिजनसहित भगवान् की शरण आ रहे हैं । ”

भगवान् ने कहा - “ आनन्द , तथागत अब अन्तिम बार वैशाली को देख रहा है। अब वैशाली वैसी नहीं रही। जब वे लिच्छवि सज -धजकर तथागत के निकट आते थे तब तथागत कहता था - “ भिक्षुओ, तुमने देवताओं को अपनी नगरी से बाहर आते कभी नहीं देखा है, परन्तु इन वैशाली के लिच्छवियों को देखो , जो समृद्धि और ठाट -बाट में उन देवताओं के ही समान हैं । वे सोने के छत्र , स्वर्ण- मण्डित पालकी, स्वर्ण- जटित रथ और हाथियों सहित आबाल - वृद्ध सब विविध आभूषण पहने और विविध रंगों से रंजित वस्त्र धारण किए , सुन्दर वाहनों पर तथागत के पास आया करते थे। देख आनन्द, अतिसमृद्ध, सुरक्षित , सुभिक्ष, रमणीय , जनपूर्ण सम्पन्न गृह और हर्यों से अलंकृत , पुष्पवाटिकाओं और उद्यानों से प्रफुल्लित , देवताओं की नगरी से स्पर्धा करनेवाली वैशाली आज कैसी श्री विहीन हो गई है। ”

इसी बीच अष्टकुल के लिच्छवि राज - परिजन ने निकट आ अपने - अपने नाम कह भगवन् को अभिवादन किया और एक ओर हटकर बद्धांजलि बैठ गए। उन्हें भगवान् ने धार्मिक कथा द्वारा समदर्षित - समार्दिपत , समुत्तेजित , और सम्प्रहर्षित किया ।

तथागत के धार्मिकोपदेश द्वारा सम्प्रहर्षित हो ,लिच्छवि -गणपति ने बद्धांजलि हो कहा - “ भन्ते भगवन् , कल का हमारा भात भिक्षुसंघ- सहित ग्रहण करें ! ”

भगवन् ने मन्दस्मित करके कहा - “ यह तो मैं अम्बपाली का स्वीकार कर चुका । ”

तब लिच्छवियों ने उंगलियां फोड़ी - “ अरे , अम्बपाली ने हमें जीत लिया ! अम्बपाली ने हमें वंचित कर दिया ! ”

तब लिच्छविगण भगवान् के भाषण को अभिनन्दित कर, भगवान् को अभिवादन कर, परिक्रमा कर , अनुमोदित कर , आसन से उठ लौट चले, कुछ श्वेत वस्त्र धारण किए थे, कुछ लाल और कुछ आभूषण पहने थे।

अम्बपाली रथ में बैठकर लौटी । उसने बड़े- बड़े तरुण राजपुरुष लिच्छवियों के धुरों से धुरा , चक्कों से चक्का , जुए से जुआ टकराया, उनके घोड़ों के बराबर घोड़े दौड़ाए ।

लिच्छवि राजपुरुषों ने देखकर क्रुद्ध होकर कहा - “ जे अम्बपाली! क्यों दुहर लिच्छवियों के धुरों से धुरा टकराती है ? ”

“ आर्यपुत्रो , मैंने भिक्षुसंघ के सहित भगवान् को भोज के लिए निमन्त्रित किया है। ”

“ जे अम्बपाली, शत -सहस्र स्वर्ण से इस भात को दे दे। ”

“ आर्यपुत्रो , यदि वैशाली जनपद भी दो , तो भी इस महान् भात को नहीं दूंगी । ” तब उन लिच्छवियों ने अंगलियां फोड़ीं और अपने हाथ पटककर कहा

“ अरे , हमें इस अम्बपाली ने जीत लिया ! अरे , हमें अम्बपाली ने वंचित कर दिया ! ”

अम्बपाली ने अपना रथ आगे बढ़ाया और उसके सहस्र घण्टनाद के उद्घोष और उसके पहियों से उड़ी हुई धूल का एक बादल पीछे रह गया ।

तब अर्हन्त भगवान् पूर्वाह्न समय जानकर पात्र और चीवर ले बारह सौ भिक्षुसंघ- सहित देवी अम्बपाली के आवास की ओर चले । अम्बपाली ने सैकड़ों कारीगर मज़दूर लगाकर रातों - रात सप्तभूमि -प्रासाद का श्रृंगार किया । तोरणों पर ध्वजा - पताकाएं अपनी रंगीन छटा दिखाने लगीं । गवाक्षों के रंगीन स्फटिक सूर्य की किरणों में प्रतिबिम्बित से होने लगे। सिंह- द्वार का नवीन संस्कार हुआ और उसे नवीन पुष्पों से सज्जित किया गया । तथागत अपने अनुगत भिक्षुसंघ के सहित पात्र और चीवर को हाथ में लिए भूमि पर दृष्टि लगाए वैशाली के राजमार्ग पर बढ़े चले जा रहे थे। उस समय वैशाली के प्राण ही राजमार्ग पर आ जूझे थे। अन्तरायण के सेट्ठी, निगम -जेट्ठक अपनी - अपनी हट्टों से उठ -उठकर मार्ग की भूमि को भगवान् के चरण रखने से प्रथम अपने उत्तरीय से झाड़ने लगे । बहुत- से भीड़ में आगे निकल राजपथ पर अपने बहुमूल्य शाल कोर्जव और कौशेय बिछाने लगे । तथागत महान् वीतराग भत्त्व , महाप्राण अर्हन्त जनपद जन के इस चण्ड जयघोष से तनिक भी विचलित न होकर स्थिर , पद पर पद रखते , सप्तभूमि प्रासाद की ओर बढ़े जा रहे थे। उनकी अधोदृष्टि जैसे पाताल तक घुस गई थी । पौर वधू झरोखों में लाजा - पुष्प तथागत पर फेंक रही थीं ।

सप्तभूमि -प्रासाद की सीढ़ियों को ताजे फूलों से ढांप दिया था । द्वार - कोष्ठक पर स्वयं देवी अम्बपाली शुभ्र - शुक्र नक्षत्र की भांति भगवत् के स्वागतार्थ खड़ी थी । उसने दूर तक भगवत् को आते देखा , देखते ही अगवानी कर भगवान् की वन्दना कर , आगे - आगे ही पैड़ियों तक ले गई। वहां जाकर भगवान् श्रमण पौर की निचली सीढ़ी पर खड़े हो गए । अम्बपाली ने कहा - “ भन्ते भगवान, भगवान् भीतर चलें , सुगत , सीढ़ियों पर चढ़ें । यह चिरकाल तक मेरे हित और सुख के लिए होगा । ”

तब तथागत सीढ़ियों पर चढ़े । अम्बपाली ने प्रासाद के सप्तम खण्ड में भोजन के लिए आसन बिछवाया । भगवान् बुद्ध संघ के साथ बिछे आसन पर बैठे । तब अम्बपाली ने बुद्ध- सहित भिक्षुसंघ को अपने हाथ से उत्तम खादनीय पदार्थों से संतर्पित किया , सन्तुष्ट किया । भगवान् के भोजन - पात्र पर से हाथ खींच लेने पर देवी अम्बपाली एक नीचा आसन लेकर एक ओर बैठ गई ।

एक ओर बैठी अम्बपाली को भगवान् ने धार्मिक कथा से सम्प्रहर्षित समुत्तेजित किया । अम्बपाली तब करबद्ध सामने आकर खड़ी हुई ।

भगवन् ने कहा - “ अम्बपाली, अब और तेरी क्या इच्छा है ? ”

“ भन्ते , भगवन् , एक भिक्षा चाहिए! ”

“ वह क्या अम्बपाली ? ”

“ आज्ञा हो भन्ते , कोई भिक्षु अपना उत्तरीय मुझे प्रदान करें । ”

भगवन् ने आनन्द की ओर देखा। आनन्द ने अपना उत्तरीय उतारकर अम्बपाली को भेंट कर दिया । क्षणभर के लिए अम्बपाली भीतर गई । परन्तु दूसरे ही क्षण वह उसी उत्तरीय से अपने अंग ढांपे आ रही थी । कंचुक और कौशेय जो उसने धारण किया हुआ था , उतार डाला था । अब उसके अंग पर आनन्द के दिए हुए उत्तरीय को छोड़ और कुछ न था । न वस्त्र , न आभूषण, न श्रृंगार । उसके नेत्रों से अविरल अश्रुधार बह रही थी । वह आकर भगवान् के सामने पृथ्वी पर लोट गई । भगवान् ने शुभहस्त से उसे स्पर्श करके कहा - “ उठ , उठ, कल्याणी, कह तेरी क्या इच्छा है ? ”

“ भन्ते भगवन् इस अधम - अपवित्र नारी की विडंबना कैसे बखान की जाय ! यह महानारी- शरीर कलंकित करके मैं जीवित रहने पर बाधित की गई , शुभ संकल्प से मैं वंचित रही। भगवन् , यह समस्त सम्पदा मेरी कलुषित तपश्चर्या का संचय है। मैं कितनी व्याकुल , कितनी कुण्ठित , कितनी शून्यहृदया रहकर अब तक जीवित रही हूं , यह कैसे कहूं ? मेरे जीवन में दो ज्वलन्त दिन आए । प्रथम दिन के फलस्वरूप मैं आज मगध के भावी सम्राट की राजमाता हूं । परन्तु भगवन् आज के महान् पुण्य -योग के फलस्वरूप अब मैं इससे उच्च पद प्राप्त करने की धृष्ट अभिलाषा रखती हूं । भन्ते भगवन् प्रसन्न हों , जब भगवन् की चरण रज से यह आवास एक बार पवित्र हुआ , तब यहां अब विलास और पाप कैसा ? उसकी सामग्री ही यहां क्यों ? उसकी स्मृति भी क्या ?.

“ इसलिए भगवच्चरण - कमलों में यह सारी सम्पदा , प्रासाद , धनकोष , हाथी , घोड़े, प्यादे, रथ , वस्त्र , भंडार आदि सब समर्पित हैं ! भगवन् ने जो यह भिक्षु का उत्तरीय मुझे प्रदान किया है , मेरे शरीर की लज्जा -निवारण को यथेष्ट है । आज से अम्बपाली तथागत की शरण है । यह इस भिक्षा में प्राप्त पवित्र वस्त्र को प्राण देकर भी सम्मानित करेगी ! ”

इतना कह अविरल अश्रुधारा से भगवच्चरणों को धोती हुई अम्बपाली अर्हन्त बुद्ध की चरण - रज नेत्रों से लगाकर उठी और धीरे - धीरे प्रासाद से बाहर चली गई । दास - दासी , दण्डधर , कर्णिक , कंचुकी, भिक्षु- सब देखते रह गए ।

महावीतराग बुद्ध आप्यायित हुए । उनके सम्पूर्ण जीवन में यह त्याग का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण था ।

अम्बपाली, उस पीत परिधान को धारण किए , नीचा सिर किए, पैदल उसी राजमार्ग से भूमि पर दृष्टि दिए धीरे - धीरे नगर से बाहर जा रही थी , जिसमें कभी वह मणि -माणिक्य से जड़ी चलती थी । सहस्रों नगर पौर जनपद उन्मत्त -विमूढ़ हो उसके पीछे पीछे चल दिए । सहस्र- सहस्र कण्ठ से – “ जय अम्बपाली, जय साध्वी अम्बपाली का गगन भेदी नाद उठा और उसके पीछे समस्त नगर उमड़ा जा रहा था । खिड़कियों से पौरवधुएं पुष्प और खील वर्षा कर रही थीं ।

भगवत् ने कहा - “ आयुष्मान् आनन्द , यह सप्तभूमि प्रासाद भिक्षुकों का सर्वश्रेष्ठ विहार हो । भिक्षु यहां रहकर सम्मार्ग का अन्वेषण करें - यही तथागत की इच्छा है। ”

इतना कह भगवत् बुद्ध उठकर भिक्षु- संघसहित बाड़ी की ओर चल दिए ।

महाश्रमण भगवत् बुद्ध अम्बपाली की बाड़ी में आ स्वस्थ हो आसन पर बैठे । तब अम्बपाली केशों को काटकर काषाय पहने मार्ग चलने से फूले -पैरों, धूल - भरे शरीर से दुखी , दुर्मना , अश्रुमुखी पांव -प्यादे, रोती हुई बाड़ी के द्वार कोष्ठक के बाहर आकर खड़ी हो गई । उसके साथ बहुत - सी लिच्छवि स्त्रियां भी हो ली थीं ।

इस प्रकार द्वार कोष्ठक पर अम्बपाली को श्रान्त दु: खी और अश्रुपूरित खड़ी देख आयुष्मान् आनन्द ने पूछा - “ सुश्री अम्बपाली , अब यहां इस प्रकार तुम्हारे आने का क्या प्रयोजन है ? ”

“ भन्ते आनन्द , मैं भन्ते भगवान् से प्रव्रज्या लेना चाहती हूं। ”

“ तो भगवती अम्बपाली, तुम यहीं ठहरो, मैं भगवान् से अनुज्ञा ले आता हूं। ”

इतना कह आनन्द अर्हन्त गौतम के पास जा बोले - “ भगवन् , भगवती अम्बपाली फूले पैरों , धूल - भरे शरीर से दुखी , दुर्मना, अश्रुमुखी रोती हुई द्वार - कोष्ठक पर खड़ी है । वह प्रव्रज्या की अनुज्ञा मांगती है । भन्ते भगवन् भगवती अम्बपाली को प्रव्रज्या की अनुज्ञा मिले। उन्हें उपसम्पदा प्रदान हो । ”

“ नहीं आनन्द, यह सुनकर नहीं कि तथागत के जतलाए धर्म में अम्बपाली घर से बेघर हो प्रव्रज्या ले । ”

“ भन्ते , क्या तथागत -प्रवेदित धर्म घर से बेघर प्रव्रजित हो , स्त्रियां स्रोत्र आपत्तिफल , सकृदागामि -फल, अनागामि - फल अर्हत्त्व - फल को साक्षात् कर सकती हैं ? ”

“ कर सकती हैं आनन्द ! ”

“ याद भन्ते , तथागत - प्रवेदित धर्म -विनय में घर से बेघर प्रवजित हो स्त्रियां अर्हत्त्व -फल को साक्षात् करने योग्य हैं , तो भन्ते ! भगवती अम्बपाली इसके लिए सर्वथा सम्यग् उपयुक्त हैं । ”

कुछ देर अर्हन्त बुद्ध ने मौन रहकर कहा - “ तो आनन्द, यदि सुश्री अम्बपाली आठ गुरुधर्मों को स्वीकार करे , तो उसे प्रव्रज्या मिले। उसकी उपसम्पदा हो । ”

तब आनन्द भगवान् से इन आठ महाधर्मों को समझ, द्वार कोष्ठक पर जहां अम्बपाली फूले - पैर, धूल - भरे शरीर और अश्रु- पूरित नयनों से खड़ी थी , वहां पहुंचे। पहुंचकर अम्बपाली से कहा - “ भगवत् की अम्बपाली यदि आठ महाधर्मों को स्वीकार करें , तो शास्ता तुम्हें उपसम्पदा देंगे , प्रव्रज्या देंगे। ”

“ भन्ते आनन्द, जैसे अपने जीवन के प्रभात में मैं सिर से नहाकर उत्पलकर्षिक माला या अतिमुक्तक माला को दोनों हाथों से चाव- सहित अंग पर धारण करती थी , उसी प्रकार भन्ते आनन्द , मैं इन आठ गुरुधर्मों को स्वीकार करती हूं । ”

तब आयुष्मान् आनन्द ने भगवत् के निकट जा अभिवादन कर कहा - “ भन्ते भगवत् , भगवती अम्बपाली ने यावज्जीवन आठ गुरुधर्मों को स्वीकार किया है। ”

“ आनन्द, यदि स्त्रियां तथागत - प्रवेदित धर्म -विजय में प्रव्रज्या न पातीं, तो यह ब्रह्मचर्य चिरस्थायी होता । सद्धर्म सहस्र वर्ष ठहरता । परन्तु अब, जब स्त्रियां प्रव्रजित हुई हैं , तो ब्रह्मचर्य चिरस्थायी न होगा । सद्धर्म पांच सौ वर्ष टिकेगा। जैसे बहुत स्त्री वाले और थोड़े पुरुषोंवाले, कल चोरों द्वारा सेतटिठका द्वारा अनायास ही में प्र -ध्वंस्य होते हैं इसी प्रकार आनन्द जिस धर्म -विनय में स्त्रियां प्रव्रज्या पाती हैं , वह ब्रह्मचर्य चिरस्थायी नहीं होता । जैसे आनन्द , सम्पन्न लहलहाते धान के खेत में सेतट्ठिका रोग जाति पड़ती है , जैसे सम्पन्न ऊख के खेत में मंजिष्ठ रोग - जाति पड़ती है, उसी प्रकार जिस धर्म -विनय में स्त्रियां प्रव्रज्या लेती हैं , वह चिरस्थायी नहीं होता। इसी से आनन्द जैसे कृषक पानी की रोक -थाम को मेड़ बांधता है, उसी प्रकार मैंने भिक्षुणियों के लिए जीवन - भर अनुल्लंघनीय आठ गुरुधर्मों को स्थापित किया है। तू सुश्रीअम्बपाली को ला । ”

तब आनन्द के साथ देवी अम्बपाली ने भगवान् के निकट आ परिक्रमा कर अभिवादन किया और बद्धाञ्जलि सन्मुख खड़ी हो

बुद्धं सरणं गच्छामि ।

संघं सरणं गच्छामि !

धम्म सरणं गच्छामि !

तीन महावाक्य कहे ।

भगवत् ने उसे प्रव्रज्या दी , उपसम्पदा दी ; और स्थिर धीर स्वर से कहा - “ कल्याणी अम्बपाली, सुन ! जिन धर्मों को तू जाने कि , वह सराग के लिए हैं , वि - राग के लिए नहीं , संयोग के लिए हैं , वि -योग के लिए नहीं, जमा के लिए हैं , विनाश के लिए नहीं ; इच्छाओं के बढ़ने के लिए हैं , इच्छाओं के कम करने के लिए नहीं; असन्तोष के लिए हैं , सन्तोष के लिए नहीं ; भीड़ के लिए हैं , एकान्त के लिए नहीं; अनद्योगिता के लिए हैं , उद्योगिता के लिए नहीं; दुर्भरता के लिए हैं , सुभरता के लिए नहीं तो तू अम्बपाली शुभे एकांतेन जान कि न वह धर्म है, न विनय है, न शास्ता का शासन है। ”

कुछ देर मौन रहकर भगवत् ने फिर कहा - “ जा अम्बपाली तुझे उपसम्पदा प्राप्त हो गई। अपना और प्राणिमात्र का कल्याण कर! ”

भगवत् अर्हन्त प्रबुद्ध बुद्ध ने इतना कह- उच्च स्वर से कहा- “ भिक्षुओ, महासाध्वी अम्बपाली भिक्षुणी का स्वागत करो! ”

फिर जयनाद से दिशाएं गूंज उठीं । अम्बपाली ने आंसू पोंछे। भगवत् सुगत की प्रदक्षिणा की और भिक्षुसंघ के बीच में होकर पृथ्वी पर दृष्टि दिए वहां से चल दी । उसके पीछे ही एक तरुण भिक्षु ने भी चुपचाप अनुगमन किया । आहट पाकर अम्बपाली ने पूछा - “ कौन है ? ”

“ भिक्षु सोमप्रभ आर्ये! ”

अम्बपाली बोली नहीं, रुकी भी नहीं, फिरकर एक बार उसने देखा भी नहीं । एक मन्दस्मित की रेखा उसके सूखे होंठों और सूखी हुई आंखों में भास गई । वह चलती चली गई ।

उस समय प्रतीची दिशा लाल -लाल मेघाडम्बरों से रंजित हो रही थी , उसकी रक्तिम आभा आम के नवीन लाल -लाल पत्रों को दुहरी लाली से रंगीन कर रही थी , ऐसा प्रतीत होता था मानो सान्ध्य सुन्दरी ने उसी क्षण मांग में सिन्दूर दिया था ।

वैशाली की नगरवधू : अध्याय (121-140)

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