वैशाली की नगरवधू (बौद्धकालीन ऐतिहासिक उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री

Vaishali Ki Nagarvadhu (Novel) : Acharya Chatursen Shastri

121 . अप्रत्याशित : वैशाली की नगरवधू

महारासायनिक कीमियागर गौड़पाद जिस समय देश -विदेश के वट्कों को रसायन के गुह्य - गहन तत्त्व समझा रहे थे और अजर - अमर होने के मूल सिद्धान्तों की गूढ़ व्याख्या कर रहे थे, तभी उन्हें हठात् एक अप्रत्याशित कण्ठ -स्वर सुनाई दिया ।

शताब्दियों पूर्व श्रुत -विश्रुत अप्रत्याशित कण्ठ - स्वर सुनकर आचार्य गौड़पाद चमत्कृत हुए । उन्होंने आंख उठाकर देखा कि सेट्ठिपुत्र पुण्डरीक भद्रवसन धारण किए सम्मुख खड़ा मुस्करा रहा है । आचार्य के दृष्टि -निक्षेप करते ही सेट्टिपुत्र की आंखों से एक विद्युत्प्रभा निकल आचार्य को आन्दोलित कर गई। उन्हें फिर वही अप्रत्याशित, शताब्दियों पूर्व श्रुत कण्ठस्वर सुनाई दिया

“ सोऽहं सोऽहं गौड़पाद ! ”

एक चुम्बकीय आकर्षण के वशीभूत होकर गौड़पाद भ्रान्त हो दौड़कर सेट्ठिपुत्र के चरणों में लकड़ी के कुन्दे की भांति गिर गए ।

युवक सेट्ठिपुत्र ने लाल -लाल उपानत से अपना कमनीय चरण निकाल अंगुष्ठ के नख से आचार्य का भूपतित मस्तिष्क छूकर कहा

“ उत्तिष्ठ ! ”

गौड़पाद उठकर बद्धांजलि हो स्तवन करने लगे । वटुक आश्चर्य से मूढ़ बने खड़े रहे और यह अघटित घटना देखने लगे ।

सेट्ठिपुत्र ने हाथ उठाकर वटुकों को वहां से चले जाने का संकेत किया । भय , विस्मय और आश्चर्य से हतबुद्धि वटुक वहां से भाग गए। एकान्त होने पर सेट्ठिपुत्र ने एक आसन पर बैठकर गौड़पाद को भी सामने बैठने का आदेश दिया । दोनों में परिष्कृत संस्कृत में बातें होने लगीं। यहां हम अपनी भाषा में लिखेंगे । गौड़पाद ने कहा

“ देवाधिदेव यहां ? ”

“ तूने क्या देखा नहीं था ? ”

“ देखा था देव ! ”

“ तो आया क्यों नहीं ? ”

“ सन्देह में रहा देव ! ”

“ सोचता था अब मैं नहीं रहा ? ”

“ नहीं देव , यही विचारता रहा – देव यहां क्यों ? ”

“ क्या वैशाली मेरे लिए अगम्य है रे ? ”

“ देव के लिए ब्रह्माण्ड गम्य है परन्तु वैशाली का भाग्योदय क्यों ? ”

“ यह भण्ड कृतपुण्य कालिकाद्वीप से मेरा बहुत - सा रत्न - भण्डार और वाड़व अश्व हरण कर लाया है। ”

“ इसीलिए देव - दैत्य - पूजित श्रीमन्थान भैरव का इस लोक के मर्त्य शरीर में आगमन हुआ ! ”

“ नहीं रे गौड़पाद,मैं कौतूहलाक्रान्त भी हूं। ”

“ कैसा देव ? ”

“ अम्बपाली का रे, अभिरमणीय है न ? ”

“ है तो , किन्तु काकिणी नहीं है। ”

“ देख लिया है तूने ? ”

“ ठीक देखा है देव ? ”

“ तो दर्शनीय ही सही! ”

“ दर्शनीय तो है । ”

“ देखूगा , फिर। ”

“ एक और स्त्री है देव ! ”

“ काकिणी है ? ”

“ है, किन्तु अभिरमणीय नहीं है। ”

“ क्यों रे ? ”

“ विषकन्या है। ”

“ अच्छा - अच्छा , उसका मदभंजन करूंगा। कौन है वह ? ”

“ मागधी है, छद्मवेश में यहां भद्रनन्दिनी वेश्या बनी बैठी है। ”

“ अभिरमण करूंगा। ”

“ मर जाएगी देव ! ”

“ मरे , युद्ध कब होगा ? ”

“ नातिविलम्ब। ”

“ उत्तम है, रक्तपान करूंगा, कुरु -संग्राम के बाद रक्तपान किया ही नहीं है । कितनी सेना का विनाश होगा ? ”|

“ सम्भवत : तीन अक्षौहिणी देव ! ”

“ बहुत है, आकण्ठ तृप्ति होगी । सेट्टिपुत्र मृदुल भाव से मोहक मुस्कान कर आसन से उठ खड़ा हुआ। गौड़पाद ने पृथ्वी में गिरकर प्रणितपात किया , सेट्ठिपुत्र ने हंसकर कहा - “ रहस्य ही रखना, गौड़पाद। ”

“ जैसी देव की आज्ञा! ” वह देवजुष्ट सेट्ठिपुत्र चल दिया । गौड़पाद बद्धांजलि खड़े रहे ।

122 . प्राणाकर्षण : वैशाली की नगरवधू

उसी गम्भीर रात्रि में अर्धरात्रि व्यतीत होने पर किसी ने भद्रनन्दिनी के द्वार पर डंके की चोट की । प्रहरी शंकित भाव से आगन्तुक को देखने लगे । आगन्तुक देवजुष्ट सेट्ठिपुत्र पुण्डरीक था । वह मोहक नागर वेश धारण किए वाड़वाश्व की वल्गु थामे मुस्करा रहा था । उसने सुवर्ण भरी हुई दो थैलियां प्रहरी पर फेंककर कहा- एक तेरे लिए, दूसरी तेरी स्वामिनी के लिए । आगत का वेश, सौंदर्य, अश्व और उसकी स्वर्ण - राशि देख प्रहरी , प्रतिहार , द्वारी जो वहां थे, सभी आ जुटे और कर्तव्य -विमूढ़ की भांति एक - दूसरे को देखने लगे । सेट्टिपुत्र ने कहा - “ क्या कुछ आपत्ति है भणे ? ”

“ केवल यही भन्ते , कि स्वामिनी आजकल किसी नागरिक का स्वागत नहीं करतीं। ”

“ इसका कारण क्या है मित्र ? ”

“ युद्ध की विभीषिका तो आप देख ही रहे हैं , राजाज्ञा है । ”

“ परन्तु मैं किसी की चिन्ता नहीं करता; तू मेरी आज्ञा से मुझे अपनी स्वामिनी के निकट ले चल । ”

“ किन्तु भन्ते.....! ”

“ क्या मैंने तुझे शुल्क और उत्कोच दोनों ही नहीं दे दिए हैं ? ”

“ दिए हैं भन्ते , यह आपका सुवर्ण है । ”

“ तब मंत्र पास एक और वस्तु है, देख ! ”यह कहकर उसने खड्ग कमर से निकाली । खड्ग देख और उससे अधिक नागरिक की दृढ़ मुद्रा देखकर प्रहरी -प्रतिहार भय से थर - थर कांपने लगे । उसके प्रधान ने कहा - “ भन्ते , हमारा अपराध नहीं है, हम स्वामिनी के अधीन हैं । ”

“ मैं तेरी स्वामिनी का स्वामी हूं रे! सेट्ठिपुत्र ने कहा और उन्हें खड्ग की नोक से पीछे धकेलता हआ ऊपर चढ़ गया ।

इस पर एक प्रतिहार ने दौड़कर मार्ग बताते हुए कहा - “ इधर से भन्ते , इधर से । ”

नग्न खड्ग लिए एक तरुण सुन्दर नागरिक को आते देख दासियां भय - शंकित हो पीछे हट गईं।

नागर हंसता हुआ कुण्डनी के सम्मुख जा खड़ा हुआ । कुण्डनी ने किंचित् कोप से कहा

“ आपको राजनियम की भी चिन्ता नहीं है भन्ते ? ”

“ नहीं सुन्दरी , मुझे केवल अपनी ही चिन्ता रहती है। ”

“ किन्तु मैं आपका स्वागत नहीं कर सकती । ”

“ ओह प्रिये, मैं इस थोथे शिष्टाचार की परवाह नहीं करता, बैठो तुम। ”

“ किन्तु मैं बैठ नहीं सकती। ”

“ तब नृत्य करो। ”

“ आप भद्र हैं , किन्तु आपका व्यवहार अभद्र है। ”

“ यह तो प्रिये, मैं तुमसे कह सकता हूं। ”

“ किस प्रकार ? ”

“ मैंने तुम्हारा शुल्क दे दिया , आज रात तुम मेरी वशवर्तिनी हो । मैं जिस भांति चाहूं, तुम्हारे विलास का आनन्द प्राप्त कर सकता हूं। ”

“ तो आप खड्ग की नोक चमकाकर विलास - सान्निध्य प्राप्त करेंगे ? ” नागर हंस पड़ा । उसने खड्ग एक ओर फेंककर कहा

“ ऐसी बात है तो यह लो प्रिये , परन्तु मेरा विचार था कि खड्ग से तुम आतंकित होनेवाली नहीं हो । ”

कुण्डनी समझ गई कि आगन्तुक कोई असाधारण पुरुष है। उसने कहा - “ भन्ते, यदि आप बलात्कार ही किया चाहते हैं तो आपकी इच्छा! ”

“ बलात्कार क्यों प्रिये, जितना अधिकार है, उतना ही बस। ”

“ तो भद्र, क्या आप पान करेंगे ? ”

“ मैं सब कुछ करूंगा प्रिये ! आज की रात्रि महाकाल - रात्रि है। तुम्हारी जैसी विलासिनी के लिए एकाकी रहने योग्य नहीं। फिर आज मैं बहुत प्रसन्न हूं। अब मैं तुम्हारे सान्निध्य में और भी प्रसन्न होना चाहता हूं। ”

कुण्डनी विमूढ़ की भांति आगन्तुक का मुंह ताकने लगी । फिर उसने मन का भाव छिपाकर हंसकर कहा - “ आप तो अद्भुत व्यक्ति प्रतीत होते हैं । ”

“ क्या सचमुच ? ”

“ नहीं तो क्या झूठ! ”उसने दासी को पान -पात्र लाने का संकेत किया । फिर नागर से कहा - “ तो आप बैठिए भन्ते ! ”

सेट्ठिपुत्र सोपधान आराम से बैठ गया । उसने हाथ खींचकर कुण्डनी को निकट बैठाते हुए कहा

“ तुम तो भुवनमोहिनी हो सुन्दरी! ”

“ ऐसा ? ”कुण्डनी ने व्यंग्य से हंस दिया और पान-पात्र बढ़ाया ।

“ इसे उच्छिष्ट कर दो प्रिये! ”

कुण्डनी ने शंकित नेत्रों से नागर को देखा, फिर कुछ रूखे स्वर में कहा “ नहीं भन्ते , ऐसा मेरा नियम नहीं है। ”

“ ओह, विलास में नियम- अनियम कैसा प्रिये! जिसमें मुझे आनन्द लाभ हो , वही करो प्रिये ! ”

“ तो आप आज्ञा देते हैं ? ”

“ नहीं प्रिये, विनती करता हूं। ”

नागर खिलखिलाकर हंस पड़ा। उस हास्य से अप्रतिहत हो छद्मवेशिनी कुण्डनी आगन्तुक को ताकने लगी । वह सोच रही थी - क्या यह मूढ़ अकारण ही आज मरना चाहता नागर ने तभी मद्यपात्र कुण्डनी के होठों से लगा दिया । कुण्डनी गटागट संपूर्ण मद्य पीकर हंसने लगी। नागर ने कहा - “ मेरे लिए एक बूंद भी नहीं छोड़ा प्रिये ! ”

“ उस पात्र में यथेष्ट है , तुम पियो भद्र ! ”

“ उस पात्र में क्यों ? तुम्हारे अधरामृत -स्पर्श से सुवासित सम्पन्न इसी पात्र में पिऊंगा, दो मुझे। ”

“ यह पात्र तो नहीं मिलेगा । ”

“ वाह , यह भी कोई बात है ? ”

“ यही बात है भन्ते , ” कुण्डनी ने वह पात्र एक ओर करते हुए कहा ।

“ समझ गया , तुम मुझ पर सदय नहीं हो प्रिये, मुझे आह्लादित करना नहीं चाहतीं । ”

“ उसके लिए तो मैं बाध्य हूं भन्ते ! ”

“ तो दो हला, वही पात्र भरकर, उसे फिर से उच्छिष्ट करके , उसे अपने अधरामृत की सम्पदा से सम्पन्न करके । ”

“ भन्ते , आप समझते नहीं हैं । ”

“ अर्थात् मैं मूढ़ हूं ! ”

“ यदि मैं यही कहूं ? ”

“ तो साथ ही वह पात्र भी भरकर दो तो क्षमा कर दूंगा । ”

“ नहीं दूंगी तब ? ”

“ तो क्षमा नहीं करूंगा। ”

“ क्या करोगे भन्ते ? ”

“ अधरामत पान करूंगा। ”

कुण्डनी सिर से पैर तक कांप गई। पर संयत होकर बोली - “ बहुत हुआ भन्ते , शिष्ट नागर की भांति आचार कीजिए। ”

“ तो वह पात्र दो प्रिये! कुण्डनी ने क्रुद्ध हो पात्र भर दिया ।

“ अब इसे उच्छिष्ट भी करो! ”

कुण्डनी ने होठों से छू दिया और धड़कते हृदय से परिणाम देखने लगी। नागर ने हंसते -हंसते पात्र गटक लिया । खाली पात्र कुण्डनी को देते हुए कहा - “ बहुत उत्तम सुवासित मद्य है , और दो प्रिये ! ”

कुण्डनी का मुंह भय से सफेद हो गया । पृथ्वी पर ऐसा कौन जन है, जो उस विषकन्या के होठों से छुए मद्य को पीकर जीवित रह सके ! परन्तु इस पुरुष पर तो कोई प्रभाव नहीं हुआ । उसने कांपते हाथों से पात्र भरा , एक घुट पिया और नागर की ओर बढ़ा दिया , नागर ने हंसते -हंसते पीकर खाली पात्र फिर कुण्डनी की ओर बढ़ा दिया और एक हाथ उसके कण्ठ में डाल दिया । उसे हटाकर कुण्डनी भयभीत हो खड़ी हो गई । वह सोच रही थी कौन है यह मृत्युञ्जय !

नागर ने कहा - “ रुष्ट क्यों हो गईं प्रिये ! ”

“ तुम कौन हो भन्ते ? ”

“ तुम्हारा तृषित प्रेमी हूं प्रिये, निकट आओ और मुझे तृप्त होकर आज मद्य पिलाओ। ”उसने अपने हाथों से पात्र भरकर कुण्डनी की ओर बढ़ाते हुए कहा “ सम्पन्न करो प्रिये! ”कुण्डनी आधा मद्य पी गई और विह्वल भाव से आगन्तुक की गोद में लुढ़क गई । उसकी सुप्त - लुप्त वासना जाग्रत हो गई । उसने देखा , इस मृत्युञ्जय पुरुष पर उसका प्रभाव नहीं है । न जाने कहां से आज की कालरात्रि में उसके विदग्धभाग्य और असाधारण जीवन को , जिसके विलास में केवल मृत्यु विभीषिका ही रहती रही है, यह गूढ़ पुरुष आ पहुंचा है । उसने अंधाधुन्ध मद्य ढाल -ढालकर स्वयं पीना और पुरुष को पिलाना प्रारम्भ किया । अंतत : अवश हो आत्मसमर्पण के भाव से वह अर्धनिमीलित नेत्रों से एक चुम्बन की प्रार्थना - सी करती हुई उसकी गोद में लुढ़क गई । यह दृष्टि उन दृष्टियों से भिन्न थी जो अब तक मृत्यु - चुम्बन देते समय वह अपने आखेटों पर डालती थी । मदिरा के आवेश में उसके उत्फुल्ल अधर फड़क रहे थे। उन्हीं फड़कते और जलते हुए अधरों पर मदिरा से उन्मत्त नागर ने अपने असंयत होंठ रख दिए । परन्तु यह चुम्बन न था , प्राणाकर्षण था । एक विचित्र प्रभाव से अवश होकर कुण्डनी के होठ आप- ही - आप खल गए . उसके श्वास का वेग बढ़ता ही गया । शरीर और अंग निढाल हो गए, देखते - ही - देखते कुण्डनी के चेहरे पर से जीवन के चिह्न लोप होने लगे। शरीर में रक्त का कोई लक्षण न रह गया और वह कुछ ही क्षणों में मृत होकर उस मृत्युञ्जय पुरुषसत्त्व की गोद में लुढ़क गई ।

तब उसके मृत शरीर को भूमि पर एक ओर फेंककर तृप्त होकर भोजन किए हुए पुरुष के समान आनन्द और स्फूर्ति से व्याप्त वह पुरुष निश्चित चरण रखता हुआ उस तथाकथित नागपत्नी - वेश्या भद्रनन्दिनी के आवास से बाहर आ , एक मुट्ठी सुवर्ण प्रहरियों , दौवारिकों तथा दण्डधरों के ऊपरफेंक वाड़वाश्व पर चढ़ अन्धकार में लोप हो गया ।

123 . अनागत : वैशाली की नगरवधू

अम्बपाली का जन्म -नक्षत्र था । वैशाली में उसका उत्सव मनाया जा रहा था । सम्पूर्ण नगर तोरणों -ध्वजाओं और विविध पताकाओं से सजाया गया था । संथागार की छुट्टियां कर दी गई थीं । गत आठ वर्षों के लिच्छवि गणतन्त्र का यह एक जातीय त्योहार - सा हो गया था ।

अम्बपाली के आवास सप्तभूमि -प्रासाद ने भी आज शृंगार किया था , परन्तु यह कोई नहीं जानता था कि यह उसका अन्तिम शृंगार है। सहस्रों दीपों की झिलमिल ज्योति के नीलपद्म सरोवर में प्रतिबिम्बित होने से ऐसा प्रतीत हो रहा था , मानो स्वच्छ नील गगन अगणित तारागण सहित सदेह ही भूमि पर उतर आया है । उस दिन देवी की आज्ञा से आवास के सम्पूर्ण द्वार खोल दिए गए थे और जनसाधारण को बे - रोक-टोक वहां आने की स्वच्छन्दता थी । आवास में आज वे लोग भी आनन्द से आ - जा रहे थे, जो कभी वहां आने का साहस नहीं कर सकते थे ।

सातवें अलिन्द में देवी अम्बपाली अपनी दासियों, सखियों और नर्तकियों सहित नगर के श्रीमन्त सेट्रिपत्रों और सामन्तपुत्रों का हंस -हंसकर स्वागत एवं मनोरंजन कर रही थीं । बहुमूल्य उपहारों का आज ढेर लगा था , फिर भी तांता लग रहा था । सुदूर चम्पा , ताम्रपर्णी, सिंहल, श्रावस्ती, कौशाम्बी और विविध देशों से अलभ्य भेंट ले - लेकर प्रतिनिधि आए थे। उनमें गज , अश्व , मणि , मुक्ता , रजतपात्र, अस्त्र - शस्त्र , कौशेय सभी कुछ थे। उनको एक कक्ष में सुसज्जित किया गया था और प्रदर्शन किया जा रहा था । उन्हें देख - देखकर लोग कौतूहल और आश्चर्य प्रकट कर रहे थे। बहुत सेट्ठिपुत्र और सामन्तगण अपनी - अपनी भेंटों को उसके समक्ष नगण्य देखकर लज्जा की अनुभूति कर रहे थे। उन्हें देवी अम्बपाली अपने स्वच्छ हास्य एवं गर्मागर्म सत्कार से सन्तुष्ट कर रही थीं ।

सुगन्धित मद्य ढाली जा रही थी और विविध प्रकार के भुने और तले हुए मांस , भक्ष्य - भोज्य स्वच्छन्दता से खाए -पीये जा रहे थे। दीपाधारों पर सहस्र - सहस्र दीप सुगन्धित तेलों के कारण सुरभि -विस्तार कर रहे थे। सैकड़ों धूप स्तम्भों पर सुगन्धित - द्रव्य जलाए जा रहे थे। सुन्दरी युवती दासियां पैरों में पैंजनियां पहने, कमर में मणिमुक्ता की करधनी लटकाए मृणाल - भुजदण्डों के बड़े- बड़े रत्नों के वलय पहने , कानों में हीरे के मकरकुण्डल झुलाती , इठलाती , मुस्काती , बलखाती , फुर्ती और चुस्ती से मद्य ढालती , चन्दन का लेप करती , नागरजनों को पुष्पहार पहनाती, द्यूत के आसन बिछाती , उपाधान लगाती और विविध भोज्य पदार्थ इधर से उधर पहुंचाती फिर रही थीं । स्वयं देवी अम्बपाली एक भव्य शुभ्र कौशेय धारणकर चारों ओर अपनी हंस की - सी चाल से चलती हुईं मन्द मुस्कान और मृदु- कोमल विनोद -वाक्यों से अतिथियों का मन मोहती फिर रही थीं ।

मध्य रात्रि व्यतीत होने लगी । पान - आहार समाप्त होने पर आया । अनावश्यक भीड़ छंट गई । केवल बड़े - बड़े सामन्तपुत्र और सेट्टिपुत्र अब निराला पा अपने - अपने उपधानों पर उठंग गए । उनकी अलस देह, अधमुंदी आंखें और गद्गद वाणी प्रकट कर रही थी कि वे आज इस लोक में नहीं , प्रत्युत मायापूरित किसी अलौकिक स्वर्गलोक में पहुंच चुके हैं ।

मद्य की झोंक में युवराज स्वर्णसेन ने कहा - “ देवी, इस परमानन्द के अवसर पर एक ही अभिलाषा रह गई । ”

“ तो समर्थ युवराज, अब उसे किस अवसर के लिए अवशिष्ट रखते हैं ? पूरी क्यों नहीं कर लेते ? ”

“ खेद है, पूरी नहीं कर सकता। ”उन्होंने हाथ का मद्यपात्र खाली करके मदलेखा की ओर बढ़ा दिया । मदलेखा ने उसमें और मद्य ढाल दी ।

अम्बपाली ने मन्द मुस्कान करके कहा - “ क्यों नहीं युवराज ? ”

युवराज ने ठण्डी सांस लेकर कहा - “ ओह , बड़ी अभिलाषा थी । ”

“ हाय - हाय ! ऐसी अभिलाषा की वस्तु यों ही जा रही है । परन्तु युवराज प्रिय , क्या उसकी पूर्ति एक बार परिपूर्ण छलकते मद्यपात्र को पीने से नहीं हो सकती ? ”

“ नहीं - नहीं , सौ पात्रों से भी नहीं, सहस्र पात्रों से भी नहीं । ”यह कहकर उन्होंने वह प्याला भी रिक्त करके मदलेखा की ओर बढ़ा दिया । मदलेखा ने देवी का इंगित पा उसे फिर आकट भर दिया । देवी ने कृत्रिम गाम्भीर्य धारण करके कहा- “ प्रिय सूर्यमल्ल , प्रियव्रत , अरे, प्राणसखाओं, यहां आओ, भाई युवराज की एक अभिलाषा आज अपूर्ण ही रह जाती है , वह सौ मद्यपात्र पीने से भी नहीं पूरी हो रही है। ”

दो - चार मित्र अपने - अपने मद्यपात्र लिए हंसते हुए वहां आ जुटे । स्वर्णसेन खाली मद्यपात्र हाथ में लिए ठण्डी सांस ले रहे थे ।

सोमदत्त ने कहा - “ क्या मेरा यह पात्र पीने से भी नहीं मित्र ? ”

“ नहीं रे नहीं ; ओफ ! अन्तस्तल जला जा रहा है । ”

“ अरी ढाल री , दाक्खारस ढाल , युवराज का अन्तस्तल जला जा रहा है । ”देवी अम्बपाली ने हंसकर मदलेखा से कहा ।

सभी मित्र हंसने लगे। प्रियवर्मन् ने कहा - “ युवराज की उस अपूर्ण अभिलाषा के समर्थन में एक - एक परिपूर्ण पात्र और पिया जाय। ”

सबने पात्र भरे , स्वर्णसेन ने भी रिक्त पात्र मदलेखा की ओर बढ़ा दिया । मदलेखा ने दाक्खारस ढाल दिया ।

सोमदत्त ने कहा - “ मित्र युवराज, आपकी वह अभिलाषा क्या है ? ”

“ यही कि इस समय दस्यु बलभद्र यदि यहां आमन्त्रित किया गया होता , तो इस मद्य में अपने खड्ग को डुबोकर उसके वक्ष के आर -पार कर देता। ”

“ तो देवी अम्बपाली , आपने यह अच्छा नहीं किया, दस्यु बलभद्र को निमन्त्रित करना ही भूल गईं! ”

“ भूल नहीं गई प्रिय, मैं तो केवल नागरिकों को ही निमन्त्रित कर सकती हूं, दस्यु बलभद्र तो अनागरिक है। ”अम्बपाली ने हंसकर कहा ।

सूर्यमल्ल ने हंसकर कहा- “ अरे मित्र, यह कौन बड़ी बात है! आज सूर्योदय से पूर्व ही तुम अपनी अभिलाषा पूरी कर लेना। ”

देवी अम्बपाली ने कहा - “ मित्रो, क्या तुममें से किसी ने दस्यु को देखा भी है ? ”

“ नहीं , नहीं देखा है । ”

“ तो यदि वह छद्मवेश धारण करके यहां आया हो , आकर पान - गोष्ठी का आनन्द लूट रहा हो तो ? ”

“ तो , यह तो बड़ी दूषित बात होगी । ”– सूर्यमल्ल ने कहा ।

“ दूषित किसलिए प्रिय ? ”

“ हम नागरिकों के साथ एक दस्यु पान करे! ”

“ परन्तु मैं सोचती हूं भद्र , कि किसी भांति हम जान जाएं कि वन्य पशु -पक्षी हम लोगों के विषय में क्या सोचते होंगे , तो सम्भव है, हम जानकर आश्चर्य करें कि वे हम भद्र नागरिकों में बहुत - से दोषों का उद्घाटन कर लेंगे। ”

“ किन्तु यदि देवी उस दस्यु को एक बार देख पाएं ... ? ”

“ तो मैं उसे स्वयं एक पात्र भरकर दूं और अपने को प्रतिष्ठित करूं । ”

“ प्रतिष्ठित ? ”सूर्यमल्ल ने चिढ़कर कहा ।

“ क्यों नहीं मित्र , अन्तत : वह एक साहसिक और वीर पुरुष तो है ही । ”

“ यह तो तभी कहा जा सकता है, जब वह एक बार हमारे खड्ग का पानी पी जाय । ”

“ तो जब उसने वजीभूमि में चरण रखा है, तो एक दिन यह होगा ही और यदि सूर्यमल्ल की भविष्यवाणी सत्य है तो आज ही । किन्तु यह बलभद्र है कौन ? ”

“ आपके इस प्रश्न का उत्तर जाननेवाले को गणपति ने दस सहस्र स्वर्ण भार देने की घोषणा की है। ”

“ तो यह भी हो सकता है भद्र, कि यह दस सहस्र स्वर्णभार उस सूचना देनेवाले पुरुष के सिर का ही मोल हो । ”

इसी समय कक्ष के एक ओर से किसी ने शान्त -स्निग्ध किन्तु स्थिर वाणी में कहा -

“ देवी अम्बपाली अपने हाथों से एक पात्र मद्य देकर यदि अपने को सुप्रतिष्ठित करना चाहें तो यह उनके लिए सर्वोत्तम अवसर है! ”

सबने आश्चर्यचकित होकर उधर देखा । स्तम्भ की ओट से एक दीर्घकाय , बलिष्ठपुरुष नग्न खड्ग हाथ में लिए धीर गति से आगे बढ़ रहा था । उसका सर्वांग काले वस्त्र से आवेष्टित था और मुख पर भी काला आवरण पड़ा हुआ था ।

यह अतर्कित - असम्भाव्य घटना देखकर क्षण - भर के लिए सब कोई विमूढ़ हो गए । अम्बपाली उस कण्ठ - स्वर में कुछ-कुछ परिचित ध्वनि पाकर सन्देह और उद्वेग से उस आगन्तुक को देखने लगीं। इसी समय सूर्यमल्ल ने खड्ग लेकर आगे बढ़कर कहा - “ यदि तुम वही दस्यु हो , जिसकी हम अभी चर्चा कर रहे थे, तो तुम्हें इसी क्षण मरना होगा । ”

“ जल्दी और व्यवस्था -क्रम भंग मत करो मित्र सूर्यमल्ल ! मैं वही हूं , जिसकी तुम लोग चर्चा कर रहे थे। परन्तु मैं तुमसे अभी क्षण - भर बाद बात करूंगा, पहले देवी अम्बपाली एक चषक मद्य अपने हाथों मुझे प्रदान कर सुप्रतिष्ठित हों और मुझे आप्यायित करें । ”

सूर्यमल्ल ने बिना कुछ बोले खड्ग उठाया । अम्बपाली ने अब आगन्तुक के कण्ठ स्वर को भली- भांति पहचान लिया । उन्होंने आगे बढ़कर सूर्यमल्ल का हाथ पकड़कर कहा

“ ठहरो भद्र, पहले मद्य दूंगी । ”उन्होंने अपने हाथों मद्यपात्र भरकर आगे बढ़कर दस्यु को दिया ।

मद्य पीकर उसने पात्र आधार पर रख दिया और कहा - “ सुप्रतिष्ठित हुआ देवी ! ”

“ मैं सुप्रतिष्ठित हुई भन्ते ! ”

सूर्यमल्ल ने आगे बढ़कर कहा - “ बहुत हुआ देवी अम्बपाली , अब आप तनिक हट जाइए । ”

“ परन्तु मेरे आवास में आज रक्तपात नहीं होगा, ” उन्होंने आगे बढ़कर कहा ।

दस्यु ने कहा - “ देवी अम्बपाली ! आज सबकी इच्छा पूरी होने दो । मित्र सूर्यमल्ल , तुम्हारी पारी क्षण - भर बाद आएगी । अभी युवराज स्वर्णसेन , अपनी वह चिरभिलषित इच्छा पूरी करें , जो शत - सहस्र मद्यपात्रों से भी पूर्ण होने वाली नहीं थी । ”फिर थोड़ा आगे बढ़कर कहा - “ मित्र स्वर्णसेन , यह सेवक दस्यु बलभद्र उपस्थित है । खड़े हो जाओ, हाथ का मद्यपात्र रख दो । वह सम्मुख खड्ग है, उठा लो और झटपट चेष्टा करके देखो , कि अभिलाषा पूर्ति कर सकते हो या नहीं ; क्योंकि जब मैं अपनी अभिलाषा पूर्ति करने में जुट जाऊंगा, तो फिर युवराज की मन में रह जाएगी । अवसर नहीं मिलेगा । ”

कक्ष में उपस्थित स्त्री - पुरुष स्तब्ध आतंकित खड़े थे। केवल अम्बपाली का रोम - रोम पुलकित हो रहा था । उन्होंने दस्यु को और दस्यु ने उनको चुराई आंखों में देखकर मन - ही मन हंस दिया ।

दो पग आगे बढ़कर खड्ग को हवा में ऊंचा उठाते हुए दस्यु ने कहा - “ उठो युवराज, मुझे अभी बहुत काम है, आज देवी अम्बपाली का जन्म -नक्षत्र है । आज प्रत्येक नागरिक की मनोभिलाषा पूरी होनी चाहिए। ”

युवराज अभी नशे में झूम रहे थे। अब उन्होंने हाथ का मद्यपात्र फेंक लपककर एक भारी बर्छा भीत से उठा लिया । अन्य लिच्छवि तरुणों ने भी खड्ग खींच लिए ।

दस्यु ने उनकी ओर देखकर कहा - “ मित्रो, पहले युवराज। ”

युवराज ने इसी समय प्रबल वेग से बर्खाफेंका। दस्यु ने उछलकर एक खम्भे की आड़ ले ली । बर्छा खम्भे से टकराकर टूट गया । दस्यु ने आगे बढ़कर युवराज स्वर्णसेन के कण्ठ में हाथ डालकर उन्हें आगे खींच लिया और कण्ठ पर खड्ग रखकर कहा - “ अब इस खड्ग से क्या मैं तुम्हारा सिर काट लूं युवराज ? ”

“ नहीं -नहीं, इस समय यहां ऐसा नहीं होना चाहिए । ”अम्बपाली ने कातर कण्ठ से कहा।

दस्यु ने हंसकर कहा - “ यही मेरी भी इच्छा है, परन्तु इसके लिए घुटने टेककर युवराज को प्राण-भिक्षा मांगनी होगी।

स्वर्णसेन ने सूखे होंठ चाटकर कहा - “ मेरा खड्ग कहां है ? ”

“ यह है मित्र , ” दस्यु ने खड्ग उठाकर युवराज परफेंक दिया । युवराज ने भीम वेग से आगे बढ़कर दस्यु पर खड्ग का प्रहार किया , परन्तु नशे के कारण वार पृथ्वी पर पड़ा।

दस्यु धीरे - से एक ओर हट गया । युवराज झोंक न संभाल सकने के कारण औंधे मुंह पृथ्वी पर गिर गए ।

दस्यु ने एक लात मारकर कहा- “ अब घुटनों के बल बैठकर प्राणदान मांगो युवराज ! ”और उसने अनायास ही युवराज को अपने चरणों पर लुटा दिया ।

अम्बपाली ने हर्षातिरेक से विह्वल होकर कहा - “ ओह ! ”

परन्तु दूसरे ही क्षण क्रुद्ध सामन्तपुत्र चारों ओर से खड्ग ले - लेकर दौड़े ।

“ जो जहां है, वहीं खड़ा रहे । ”दस्यु ने कड़कते स्वर में कहा - “ मैं यहां तुम मद्यप स्त्रैणों की हत्या करने नहीं आया हूं ! ”

लोगों ने भयभीत होकर देखा - अनगिनत काली- काली मूर्तियां प्रेत की भांति कक्ष में न जाने कहां से भर गईं । सबके हाथ में विकराल नग्न खड्ग थे।

दस्यु ने कहा - “ एक - एक आओ और अपने - अपने स्वर्ण- रत्न , आभरण अंगों पर से उतारकर यहां मेरे चरणों में रखते जाओ!

सबने देखा, प्रत्येक के पृष्ठ पर एक - एक यम नग्न खड्ग लिए खड़ा है । सब जड़वत् खड़े रहे ।

“ पहले तुम स्वर्णसेन ।” — दस्यु ने युवराज की गर्दन पर खड्ग की नोक रखकर कहा।

स्वर्णसेन ने अपने रत्नाभरण उतारकर चुपचाप दस्यु के पैरों में रख दिए । इसके अनन्तर एक - एक करके सबने उनका अनुसरण किया ।

दस्यु ने मुस्कराकर कहा - “ हां अब ठीक हुआ । ”अम्बपाली ने मदलेखा को संकेत किया , वह कक्ष में गई और एक रत्न -मंजूषा लेकर लौट आई , उसे अम्बपाली ने अपने हाथों में ले चुपचाप दस्यु के चरणों में रख दिया ।

इसी समय महाप्रतिहार ने भय से कांपते - कांपते आकर कहा - “ देवी , सम्पूर्ण आवास को सहस्रों दस्युओं ने घेर लिया है। ”

अम्बपाली ने स्निग्ध स्वर में कहा

“ आगार -जेट्ठक को कह भद्र कि सब द्वार खोल दे, सब पहरे हटा ले , समस्त भण्डार उन्मुक्त कर दे और दस्यु से कह कि वे सम्पूर्ण आवास लूट ले जायं। ”

प्रतिहार भयभीत होकर कभी देवी और कभी दस्युपति के चरणों में पड़ी रत्न - राशि की ओर, कभी प्रस्तर- प्रतिमा की भांति अवाक् -निस्पन्द खड़े सेट्ठि - सामन्त - पुत्रों को देखने लगा । फिर चला गया । अम्बपाली ने कल में खड़े दस्युओं को सम्बोधित करके कहा - “ मित्रो , उस कक्ष में आज की बहुमूल्य उपानय उपहार -सामग्री एकत्रित है, इसके अतिरिक्त आवास में शत - कोटि स्वर्णभार, बहुत - सा अन्न - भण्डार तथा गज , रथ , अश्व हैं । वह सब लूट लो । अनुमति देती हूं, आज्ञा देती हूं! ”ऐसा प्रतीत होता था जैसे देवी अम्बपाली के शरीर का एक - एक रक्त -बिन्दु आनन्द से नृत्य कर रहा था ।

दस्यु बलभद्र ने संकेत से सबको रोककर फिर अम्बपाली की ओर घूरकर कहा - “ देवी और सब तथाकथित भद्र जन उस कक्ष के उस पार अलिन्द में तनिक चलने का कष्ट करें । ”

सबने दस्यु की आज्ञा का तत्क्षण पालन किया । अलिन्द में जाकर दस्यु ने द्वार का आवरण उघाड़ दिया । सबने देखा कि नीचे प्रांगण में असंख्य नरमुण्ड खड़े हैं । सबकी पीठ पर एक - एक गठरी है ।

बलभद्र ने पुकारकर कहा- “ मित्रो, तुमने देवी अम्बपाली के आवास से क्या लूटा है ? ”

“ हमने केवल अन्न लिया है भन्ते! ”

अम्बपाली ने कहा - “ मेरे आवास में शत - कोटि स्वर्णभार और अनगिनत रत्न चहबच्चों और खत्तों में भरे पड़े हैं । सबके द्वार उन्मुक्त हैं , तुम लूट क्यों नहीं लेते प्रियजनो ? ”

“ नहीं - नहीं देवी , हम ऐसे दस्यु नहीं हैं । हम भूखे ग्रामीण कृषक हैं । अंतरायण के अधिकारियों ने सेना भेजकर हमसे बलि ग्रहण कर ली थी , वे हमारी सारी फसल उठाकर ले गए हैं , हमारे बच्चे भूखों मर रहे थे। देवी की जय रहे! अब वे पेट भरकर खाएंगे। ”

दस्यु ने कहा - “ देवी अम्बपाली, यह गणतन्त्र भी उसी भांति गण - शोषक है, जैसे साम्राज्य । यहां भी दास हैं , दरिद्र हैं और ये निकम्मे मद्यप स्त्रैण सामन्तपुत्र हैं । ये सेट्टिपुत्र हैं । आज ये कंकड़ - पत्थर की भांति अरब - खरब के रत्न - मणि अपने शरीर पर लादकर इन भूखे-नंगे कृषकों को लूटने को सेना भेजकर यहां मदमत्त होने आए हैं । ये सभी गणरक्षक तो यहां हैं , जो निर्लज्ज की भांति वीर - दर्प करते हैं । देवी ! मैं ये हीरे - मोती इन्हीं कृषकों को लौटा देना चाहता हूं , जिनके पेट का अन्न छीनकर ये मोल लिये गए हैं । इन्हें फिर से बेचकर ये अन्न मोल लेकर अपने बच्चों को खिलाएंगे और वस्त्र पहनाएंगे । ”

दस्यु की आंखों से आग की झरें निकल रही थीं । इसी समय मदलेखा धीरे- धीरे आगे बढ़ी । उसने अपने दोनों हाथ आगे बढ़ा दिए । उनमें उसके दो - तीन आभरण थे। मृदु मन्द स्वर से कहा - “ ये मेरे हैं भन्ते , इन्हें लेकर मुझे भी अनुग्रहीत कीजिए! ”

कठोर दस्य द्रवित हआ । उसने आशीर्वाद का वरद हस्त उस क्रीता दासी के मस्तक पर रखा और फिर कहा - “ मित्रो , अब तुम शान्त भाव से अपने - अपने स्थान को चले जाओ। ”

सबके चले जाने पर दस्यु ने कहा - “ आप सब जो जहां हैं , घड़ी - भर वहीं रहें ! ”

सबने चुपचाप दस्यु की आज्ञा का पालन किया । दस्यु - समुदाय वहां से उसी प्रकार लोप हो गया , जिस प्रकार प्रकट हुआ था ।

124 . एकाकी : वैशाली की नगरवधू

जयराज ने साहस किया । वे लोमड़ी की भांति चक्कर काटकर अगले गांव की ओर बढ़े । वे जानते थे, वह ग्राम बड़ा था तथा वहां ठहरने की भी सुविधाएं थीं । ये ग्राम मल्लों और कोलों के थे। इससे जयराज को यह भी आशा थी कि आवश्यकता होने पर नगरपाल या ग्राम - जेट्ठक उनकी सहायता कर सकेगा । मार्ग में एक निविड़ वन पड़ता था । रात अंधेरी थी और जयराज के पास अश्व भी न था । अन्धकार और भय का परस्पर सम्बन्ध है , जयराज एक जीवट के पुरुष थे। कार्यगुरुता समझ उन्होंने प्रत्येक मूल्य पर आगे चले जाना ही ठीक समझा। वे नग्न खड्ग हाथ में लिए गहन वन में घुस गए। सम्पूर्ण रात्रि उनको चलते ही व्यतीत हुई। थकान , प्यास और भूख जब असह्य हो गई, तब उन्होंने एक वृक्ष का आश्रय ले शेष रात काटी । कुछ देर विश्राम करने से उन्हें थोड़ा सुख मिला। सूर्योदय से कुछ पूर्व ही वे फिर चल पड़े । थोड़ी ही देर में उन्हें राजमार्ग दीख पड़ा । तीन ओर से तीन मार्ग आकर मिले थे। निकट ही वह ग्राम था । ग्राम में आहार - आश्रय पाने की आशा से शीघ्र -शीघ्र चलने लगे। इसी समय एक सार्थवाह का साथ हो गया । इसमें सब मिलाकर छ: पुरुष , चार अश्व और तीन टाघन थे। ये मैरेय के कुप्यक लेकर राजगृह जा रहे थे। जयराज इनसे बात ही कर रहे थे कि चार और मनुष्य इस मण्डली में आ मिले । सार्थवाहों ने कहा - “ ये अपने ही जन हैं , पीछे रह गए थे। ”जयराज को सन्देह हुआ , परन्तु वह उन्हीं के साथ बातें करते हुए चलने लगे । उन्होंने अपने को एक वस्त्र -व्यवसायी बताया । इस पर उनमें से एक उनके लम्बे खड्ग की ओर देखकर खिलखिलाकर हंस पड़ा ।

दो दण्ड दिन चढ़ते - चढ़ते वे सब उस ग्राम में जा पहुंचे। ग्राम सम्पन्न और बड़ा था । उसमें पक्की अटारियां थीं । भद्रवसन जन भी थे। खाद्य -हाट भी थी । नगर के बाहर ही एक पान्थागार था । उसी में सबने विश्राम किया । सबके साथ मिलकर जयराज भी खाने- पीने की व्यवस्था में लग गए। निकट ही एक छोटी - सी नदी थी । वहां जाकर उन्होंने स्नान किया , वस्त्र धोए, फिर भोजन बनाया । साथी सार्थवाह भी इधर -उधर फैलकर खाने की खटपट में लगे । परन्तु उनका व्यवहार सन्देहप्रद था । जयराज ने देखा , वे अत्यन्त गुप्त भाव से उन्हीं पर दृष्टि दिए हैं । उन्हें भी सन्देह हुआ कि सम्भवत : वे किसी आगन्तुक की प्रतीक्षा कर रहे हैं । सन्देह बढ़ता ही गया और जयराज नग्न खड्ग पास रख भोजन बनाने लगे । उनके खड्ग को देखकर जो हंसा था , उसने दिल्लगी से कहा - “ भन्ते , यह क्या बात है ? आप भात भी क्या खड्ग से ही खाते हैं ? ”

जयराज ने हंसकर कहा, “ नहीं मित्र, परन्तु कुत्ते -बिल्ली का भय तो है ही । ”

“ ओह, तो इसीलिए नग्न खड्ग निकट रख भोजन बना रहे हैं । ”

“ इसी से मित्र! ”

सार्थवाहजनों ने कुटिल मुस्कान डाली ।

जयराज ने भोजन तैयार होने पर भोजन करने को हाथ बढ़ाया , इसी समय काणे चाण्डाल मुनि ने आगे बढ़कर कहा

“ आयुष्मानो , मैं जन्मत : चाण्डाल हूं। ब्रह्मचर्य - व्रत मैंने धारण किया है। यम नियमों का विधिवत् पालन करता हूं । मैं रांधकर नहीं खाता । अपने बचे हुए आहार में से थोड़ा मुझे दो । ”

उस धूर्त काणे नापित गुप्तचर को अपने सिर पर उपस्थित देखकर जयराज का माथा ठनका। उन्होंने सोचा, ब्राह्मण महामात्य की सहस्र आंखें हैं , सहस्र भुजाएं हैं । उसकी दृष्टि से बचकर कुछ नहीं किया जा सकता । कैसे यह काणा नापित इस समय यहां उपस्थित हो गया !

किन्तु शेष सार्थवाहजनों ने ससम्भ्रम उठकर काणे मुनि का बहुत - बहुत स्वागत सत्कार किया और विविध भावभंगी दिखाकर कहा - “ आइए मुनि , आइए भदन्त , यह आसन है, हमारा आज का भोजन ग्रहणकर हमें कृतार्थ कीजिए! ”

जयराज पर अब सार्थवाहजनों की वास्तविकता भी प्रकट हो गई । निस्सन्देह ये सब मागध गुप्तचर थे। उन्होंने मन की चिन्ता मन ही में छिपाकर हंसकर उस छद्मवेशी काणे मुनि के सत्कार में साथियों का योग दिया । काणा विविध सेवा- सत्कार से सन्तुष्ट हो , धार्मिक कथा कहकर उन्हें सम्बोधित करने लगा । जयराज अपनी आत्मरक्षा के लिए योजना स्थिर करने लगे । उन्होंने सोचा निस्सन्देह आज एक बड़ी योजना का सामना करना पड़ेगा । उन्होंने मन - ही - मन कर्तव्य स्थिर किया और साथियों से कहा

“ मित्रो, मैं एक अश्व खरीदना चाहता हूं , क्या यहां मिलेगा ? ”

“ कैसे कहें भन्ते , हम तो सब नवागन्तुक हैं । ”

“ परन्तु कोई एक मेरे साथ बस्ती में चले , तो अश्व देखा जाए। ”

सार्थवाहों ने दृष्टि- विनिमय किया । एक ने उठकर कहा - “ मैं चलता हूं भन्ते !

दोनों गांव में चक्कर काटने और अश्व ढूंढ़ने लगे । ढूंढ़ते -ढूंढ़ते वे कोटपाल के घर के निकट पहुंचे। वहां पहुंचकर जयराज ने कहा - “ मित्र , यह कोटपाल का घर है। क्यों न इससे सहायता ली जाए ! ”

साथी हिचकिचाया , परन्तु उसे सहमत होना पड़ा । कोटपाल के निकट जाकर जयराज ने अश्व खरीदने में उसकी सहायता मांगी। कोटपाल के पास एक अड़ियल टटू था । उसकी बहुत - बहुत प्रशंसा करके उसने वह टटू जयराज के गले मढ़ दिया । जान बूझकर जयराज ने टटू पसन्द कर लिया । टटू की चाल की परीक्षा करने और पान्थागार से सुवर्ण ले आने के बहाने जयराज उस व्यक्ति को कोटपाल के निकट बैठाकर तथा “ अभी मुहूर्त भर में लौटकर आता हूं “ कहकर वहां से टटू ले , नि : शंक जिस तीव्र गति से जाना शक्य था , राजगृह के मार्ग पर दौड़ चले । सूर्यास्त तक वे चलते गए । टटू अड़ता था , परन्तु उसे विशेष बाधा न होती थी । रात होते -होते जयराज एक दूसरे ग्राम के निकट पहुंचे। वहां एक चैत्य में एक क्षपणक रहता था । उसकी अनुमति से उन्होंने वहीं रात काटने का विचार किया । क्षपणक थोड़ा धन पाकर सन्तुष्ट हो गया । आहार से निवृत्त होकर जयराज ज्यों ही शयन की व्यवस्था कर रहे थे कि वही काणा उनके निकट पहुंचा। पहुंचकर कहा - “ मैं चाण्डाल कुल का ब्रह्मचारी हूं , अष्टांग यम -नियम का विधिवत् .....। ”

उस धूर्त काणे गुप्तचर को प्रेत की भांति अपने पीछे लगा देख जयराज क्रोध से पागल हो गए , परन्तु उन्होंने उठकर उस कपट मुनि का सत्कार करके कहा - “ भदन्त , भोजन मैं कर चुका, आहार शेष नहीं है । क्या स्वर्ण दूं ? ”

“ नहीं उपासक! मैं स्वर्ण नहीं छूता, हाथ से रांधकर खाता भी नहीं । ”

“ तो दु: ख है भदन्त ! तुम किसी गृहस्थ से भोजन ले आओ। ”

“ या निराहार ही सो रहूं ? जैसा तू कहे उपासक!

“ जिसमें भदन्त अपना धर्म समझें। ”

जयराज कक्ष में जा , दीपक एक कोने में रख , भूमि पर बिछौना बिछा सो गए। कुछ देर काणा मुनि उस क्षपणक के साथ धर्मचर्चा करता रहा । फिर वह भी वहीं सो गया ।

जब जयराज ने दोनों को सोया समझा, तो झांककर उन्हें देखा । वे युक्ति से उसके कक्ष का द्वार रोककर सोए थे। जयराज ने समझ लिया - “ दोनों , यह क्षपणक भी , गुप्तचर ही हैं । उन्होंने भलीभांति कक्ष की दीवारों, छतों और द्वार को देखा । घर पुराना था और द्वार सड़ा हुआ । आक्रमण होने पर रक्षा के योग्य नहीं था । परन्तु उन्होंने सोचा कि ये दो ही हैं , तब तो मैं ही यथेष्ट हूं । उन्होंने आवश्यकता होने पर उस धूर्त काणे को जान से मार डालने का दृढ़ संकल्प कर लिया । उन्होंने स्वर्ण से भरी थैली अपने कण्ठ में लटका ली । खड्ग नग्न करके निकट रख लिया। उतारे हुए वस्त्र फिर से पहन लिए । इसके बाद द्वार की भलीभांति परीक्षा करके उन्होंने दीप बुझा दिया ।

दीप बुझाकर वे नि : शब्द बिछौने से उठकर द्वार से कान लगाकर बैठ गए। थोड़ी ही देर में काणा मुनि उठकर बैठ गया । क्षपणक भी उठ बैठा। क्षपणक दो उत्तम बड़े -बड़े खड्ग छिपे स्थान से उठा लाया । जयराज यह सब देख बिस्तरे पर जा सोने का नाटक करते हए वेग से खर्राटे भरने लगे।

आखेट को सोया हुआ समझकर दोनों खड्ग लेकर द्वार के निकट आ खड़े हुए । किसी पूर्व-निश्चित विधि से उन्होंने नि : शब्द द्वार खोल डाला । द्वार खुलते ही जयराज बिछौने से उठकर द्वार के पीछे आड़ में छिप गए । आगे काणा और पीछे क्षपणक दोनों नि : शब्द आगे बढ़े । काणे के तनिक आगे बढ़ जाने के बाद क्षपणक वहीं ठिठककर , काणा बिछौने के निकट क्या कर रहा है, यह देखने लगा । इस अवसर से लाभ उठाकर जयराज ने एक भरपूर हाथ खड्ग का क्षपणक के मोढ़े पर फेंका और क्षपणक बिना एक शब्द किए बीच से दो टूक होकर गिर पड़ा ।

काणा नापित खड़ग हाथ में ले घूमकर खड़ा हो गया । जयराज ने कहा - “ भदन्त , यहां तो बहुत अन्धकार है, तुम्हारा साथी तो निर्वाण- पद को पहुंच गया । अब तुम बाहर आओ। वहां चन्द्रमा का क्षीण प्रकाश है। पर मैं समझता हूं, तुम्हारे निर्वाण के लिए यथेष्ट है । ”

नापित ने कहा - “ भन्ते, ऐसा ही हो ! ”बाहर आकर दोनों घोर युद्ध में रत हुए । कोई भी जीवित प्राणी वहां उनका साक्षी न था । जयराज ने कहा - “ प्रभंजन, तू खड्ग चलाने में उतना ही प्रवीण है, जितना छद्मवेश धारण करने में । परन्तु आज तेरी यहीं मृत्यु है । ”

“ जीवन और मृत्यु तो भन्ते , आने- जाने वाली वस्तु है। जो गुप्तचर कार्य में रत हैं , वे इस बात पर विचार नहीं करते । ”

“ यह क्या चाण्डाल मुनि का वचन है ? ”

“ नहीं भन्ते , प्रभंजन नापित गुरु का । मैं खड्ग - हस्त होकर झूठ नहीं बोलता । ”

और बातचीत नहीं हुई। दोनों वीर असाधारण कौशल से युद्ध करने लगे। ऐसे भी क्षण आए जब जयराज को प्राणों का भय आ उपस्थित हुआ । पर एक अवसर पर प्रभंजन का पैर फिसल गया । उसका उठा हुआ खड्ग लक्ष्यच्युत हुआ और दूसरे ही क्षण उसके कण्ठ पर जयराज का भरपूर खड्ग पड़ा, जिससे उसका मस्तक कटकर और लुढ़ककर दूर जा गिरा। मस्तक कटने पर भी प्रभंजन का रुण्ड कुछ समय तक खड्ग घुमाता रहा । उस एकान्त रात में जनशून्य चैत्य में रक्त से भरी भूमि में रक्त से चूता हुआ खड्ग हाथ में लिए जयराज ने छिन्न मस्तक रुण्ड को हवा में खड्ग ऊंचा किए अपनी ओर दौड़ता देखा तो वे भय से नीले पड़ गए । इसी क्षण प्रभंजन का कबंध भूशायी हो गया । जयराज अब वहां एक क्षण भी न ठहर उसी के वस्त्रों से खड्ग का रक्त पोंछ राजगृह के मार्ग पर एकाकी ही अग्रसर हुए । उस समय वह भय और साहस के झूले में झूल रहे थे ।

125. मधुवन में : वैशाली की नगरवधू

दस्यु बलभद्र आगे, देवी अम्बपाली उनके पीछे, स्वर्णसेन और सूर्यमल्ल उनसे भी पीछे, तथा पांच दस्यु खड्ग - हस्त उनके पीछे; इस प्रकार वे वैशाली के शून्य राजपथ को पारकर , वन - वीथी में होते हुए , उत्तर रात्रि में मधुवन उपत्यका में पहुंच गए। अम्बपाली दस्युराज से बात करना चाह रही थीं ; परन्तु दस्यु चुपचाप आगे बढ़ा जा रहा था , मार्ग में अन्धकार था । अम्बपाली एक सुखद भावना से ओतप्रोत हो गईं। उनके मानस नेत्रों में कुछ पुराने चित्र अंकित हुए। वह होठों ही में कहने लगीं, यदि इसी समय एक बार फिर सिंह आक्रमण करे और मुझे उधर पर्वत - शृंग पर स्थित कुटीर में एक बार अवश नृत्य करना पड़े तो कैसा हो !

उसने आवेश में आकर अपना अश्व बढ़ाया । अश्व को दस्युराज के निकट लाकर कहा -

“ भन्ते , हमें कब तक इस भांति चलना पड़ेगा ? ”

“ हम पहुंच चुके देवी ! ”दस्यु ने कहा ।

फिर एक संकेत किया । कहीं से एक दस्यु काले भूत की भांति निकलकर सम्मुख उपस्थित हुआ । दस्यु ने मन्द स्वर से कहा

“ साम्ब, सब यथावत् ही है न ? ”

“ हां भन्ते! ”

“ तब ठीक है, तू अपना कार्य कर । ”

काला भूत चला गया । दस्यु ने अब पर्वत पर चढ़ना आरम्भ किया । पहाड़ी बहुत ऊंची न थी । चोटी पर चढ़कर सब लोग यथास्थान खड़े हो गए । सूर्यमल्ल और स्वर्णसेन ने भयभीत होकर देखा, सम्मुख उस टेकरी के दक्षिण पाश्र्व की उपत्यका में दूर तक स्थान स्थान पर आग जल रही थी । उस जलती आग के बीच में , आगे-पीछे बहुत - से दस्यु अश्व पर सवार हो इधर से उधर आ - जा रहे हैं । सबका सर्वांग काले वस्त्र से आवेष्टित है । सूर्यमल्ल ने धीरे - से निकट खड़े हुए युवराज स्वर्णसेन से कहा - “ यह तो दस्यु - सैन्य -शिविर प्रतीत होता है! दीख पड़ता है, जैसे दस्युओं का दल चींटियों के दल के समान अनगिनत है। ”

एक विचित्र प्रकार का अस्फुट शब्द - सा सुनकर स्वर्णसेन ने टेकरी के वाम पाश्र्व में घूमकर देखा । उधर से एक सुसज्जित अश्वारोही सैन्य धीरे - धीरे सावधानी से इस तथाकथित दस्यु शिविर की ओर बढ़ रहा था । उसके शस्त्र इस अंधेरी रात में भी दूर जलती आग के प्रकाश में चमक रहे थे। इस सैन्य को धीर गति से आगे बढ़ते देख स्वर्णसेन ने प्रसन्न मुद्रा में उंगली से संकेत किया ।

सूर्यमल्ल ने हर्षित होकर कहा -

“ यही हमारी सेना है, दस्युओं के शिविर पर अब आक्रमण हुआ ही चाहता है।

परन्तु दस्यु क्या बिल्कुल असावधान हैं ? ”उसने अचल भाव से आग की ओर निश्चल देखते हुए दस्युओं की ओर देखा। फिर पीछे खड़े हुए दस्युराज को मुंह फेरकर देखा। वह उसी प्रकार नग्न खड्ग लिए खड़े थे।

इतने ही में लिच्छवि सेना ने एकबारगी ही फैलकर दस्यु शिविर पर धावा बोल दिया । स्वर्णसेन और सूर्यमल्ल का रक्त उबलने लगा । उन्होंने दस्यु बलभद्र की ओर देखा , जो उसी भांति निस्तब्ध खड़ा था ।

“ क्या इसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है! किस भरोसे यह निश्चिंत यहां खड़ा है ? ” स्वर्णसेन ने हाथ मलते हुए कहा - “ खेद है, हमारे पास शस्त्र नहीं हैं ? ”

लिच्छवि सैन्य ने वेग से धावा बोल दिया । परन्तु यह कैसा आश्चर्य है कि दस्यु सम्मुख नहीं आ रहे हैं , जो दस्यु सैनिक इधर - उधर वहां घूमते दीख रहे थे वे भी अब लुप्त हो गए हैं । लिच्छवि सेना यों ही शून्य में अपने भाले और खड्ग चमकाती हुई चिल्ला रही थी । वह जैसे वायु से युद्ध कर रही हो ।

“ यह सब क्या गोरखधन्धा है मित्र ? ”– स्वर्णसेन ने सूर्यमल्ल का कन्धा पकड़कर कहा।

सूर्यमल्ल की दृष्टि दूसरी ओर थी । उनकी आंखें पथरा रही थीं और वाणी जड़ थी । उसने भरे हुए स्वर में कहा

“ सर्वनाश ? साथ ही उसने एक ओर उंगली उठाई ।

स्वर्णसेन ने देखा - काली नागिन की भांति काले वस्त्र पहने दस्यु - सैन्य एक कन्दरा से निकलकर लिच्छवि - सैन्य के पिछले भाग में फैलती जा रही है। दूर तक इस काली सेना के अश्वारोही घाटी में बिखरे हुए हैं । देखते - ही - देखते लिच्छवि - सैन्य का उसने समस्त पृष्ठ भाग छा लिया और जब वह सेना विमढ़ की भांति दल बांधकर तथा सम्मख एक भी शत्र न पाकर ठौर -ठोर पर जलती हुई आग के चारों ओर घूम - घूमकर तथा हवा में शस्त्र घुमा घुमाकर चिल्ला रही थी , तभी दस्यु - सैन्य ने , जैसे कोई विकराल पक्षी अपने पर फैलाता है, अपने दायें - बायें पक्षों का विस्तार किया । देखते - ही - देखते लिच्छवि - सैन्य तीन ओर से घिर गई । सम्मुख दुर्गम - दुर्लंघ्य पर्वत था । परन्तु लिच्छवि - सैन्य को कदाचित् आसन्न विपत्ति का अभी आभास नहीं मिला था । सूर्यमल्ल के होंठ चिपक गए और शरीर जड़ हो गया । स्वर्णसेन के अंग से पसीना बह चला ।

आग के उजाले के कारण लिच्छवि- सैन्य दस्यु- दल को बहुत निकट आने पर देख पाया । थोड़ी ही देर में मार - काट मच गई और दस्युओं के दबाव से सिकुड़कर लिच्छवि जलती हुई आग की ढेरियों में गिरकर झुलसने लगे । हाहाकार और चीत्कार से आकाश हिल गया ।

स्वर्णसेन ने कहा - “ भन्ते बलभद्र, इस महाविनाश को रोकिए। यह नर -संहार है, युद्ध नहीं है। ”

“ तो मित्र, तुम बिना शर्त आत्मसमर्पण करते हो ? ”

“ हम निरुपाय हैं भन्ते बलभद्र, दया करो! ”

“ तो मित्र सूर्यमल्ल , तुम जाकर युवराज का यह आदेश अपनी सेना को सुना आओ और सेनानायक को यहां मेरे निकट ले आओ। ”

इसके बाद उन्होंने अपने एक दस्यु को कुछ संकेत किया । उसने एक संकेत शब्द उच्चारित किया । दस्यु - सैन्य जहां थी , वहीं युद्ध रोककर स्तब्ध खड़ी रह गई । सूर्यमल्ल ने श्वेत पताका हवा में फहराते हुए अपने सेनापतियों को तुरन्त युद्ध से विरत कर दिया तथा नायक को लेकर वह दस्युराज बलभद्र की सेवा में आ उपस्थित हुए । दस्युराज बिना एक भी शब्द कहे चुपचाप पूर्व अनुक्रम से टेकरी से उतरकर एक पर्वत - कन्दरा में घुस गए । कन्दरा अधिकाधिक पतली होती गई । तब सब कोई अश्व से उतरकर अपने - अपने अश्व की रास थाम पैदल चलने लगे। अन्तत : वे एक विस्तृत हरे - भरे मैदान में जा पहुंचे। पूर्व दिशा में उज्ज्वल आलोक फैल गया था । तब वैशाली के इन वैभवशाली जनों ने देखा कि उस मैदान में एक अत्यन्त सुव्यवस्थित स्कंधावार निवेश स्थापित है , जिसमें पचास सहस्र अश्वारोही भट युद्ध करने को सन्नद्ध उपस्थित हैं ।

एक विशाल पर्वत - गुहा में सुकोमल उपधान और रत्न - कम्बल बिछे थे। सब सुख साधनों से गुफा सम्पन्न थी । अम्बपाली को एक आसन पर बैठाते हुए दस्यु ने कहा - “ देवी अम्बपाली और मित्रगण, तुम्हारा इस दस्युपुरी में स्वागत है। आज तुम मेरे अतिथि हो । आनन्द से खाओ-पिओ। रात के दु: स्वप्न को भूल जाओ। ”

उसने संकेत किया । साम्ब चुपचाप आ खड़ा हुआ । उसने अम्बपाली की ओर संकेत करके कहा - “ साम्ब , देवी बहुत खिन्न हैं , रात - भर के जागरण से ये थक गई हैं तथा श्रमित हैं । जा , इनकी यथावत् व्यवस्था कर दे। ”

उसने देवी से, अपने साथ दूसरी गुहा में चलने का अनुरोध किया । देवी के चले जाने पर विविध मद्य, भुना मांस और शूल्य लाकर दासों ने अतिथियों के सम्मुख रख दिए । लिच्छवि राजपुरुष एक - दूसरे को आश्चर्य से देखकर खाने -पीने और अदृष्ट में जो भोगना बदा है, भोगने की चर्चा करने लगे। परन्तु मुख्य बात यही थी , जो सब कह रहे थे - “ दस्यु अद्भुत है , अप्रतिम है, महान् है! ”

126.विसर्जन : वैशाली की नगरवधू

साम्ब ने देवी अम्बपाली को दूसरी गिरि - गुहा में ले जाकर जिस श्यामा वामा के उन्हें सुपुर्द किया , उसका अंग - सौष्ठव और भाव-मृदुलता देख अम्बपाली भावविमोहित हो गईं। राजमहालयों में दुर्लभ सुख - सज्जा इस दुर्गम वन में उपस्थित थी । उस गिरि - गुहा के वैभव और विलास को देखकर अम्बपाली आश्चर्यचकित रह गईं। उन्होंने आगे बढ़कर सम्मुख स्मितवदना श्यामा वामा की ओर देखकर कहा

“ तू कौन है हला ? ”

“ मैं नाउन हूं भट्टिनी ! ”वह हंस दी ।

जैसे चन्द्रमा को देखकर कुमुदिनी खिल जाती है, उसी प्रकार उस श्यामा वामा के निर्दोष मृदुल हास्य से पुलकित होकर अम्बपाली ने उसे अंक में भरकर कहा

“ तू बड़भागिनी है हला, तू जिस पुरुष की सेवा में नियुक्त है, उसकी सेवा करने को न जाने कितने जन तरस रहे हैं । ”

“ सुनकर कृतकृत्य हुई, भट्टिनी , आपके दर्शनों से मेरे नेत्र स्नातपूत हो गए। अब आज्ञा हो तो मैं आपका अंग - संस्कार करूं । इस वन में जो साधन सुलभ हैं , उन्हीं पर भट्टिनी , सन्तोष करना होगा । ”

अम्बपाली ने मुस्कराकर कहा - “ अच्छा हला ! ”

नाउन ने देवी अम्बपाली का अंग -संस्कार किया , उन्हें सुवासित किया । नाउन के हस्त - लाघव , हस्त - कौशल , मृदुल वार्तालाप और यत्न से देवी अम्बपाली का सारा श्रम दूर हो गया । फिर जब सुवासित मदिरा और विविध प्रयत्न और एक से बढ़कर एक खाद्य- पेय उनके सम्मुख आए तो उनसे रहा नहीं गया । उन्होंने कहा - “ हला , तेरे स्वामी वे दस्यु -सम्राट क्या दर्शन ही न देंगे ? ”

“ यह तो उनकी इच्छा पर निर्भर है भट्टिनी, किन्तु अभी आप आहार करके थोड़ा विश्राम कर लें । ”

“ नहीं- नहीं हला, उन्हें बुला। ”

नाउन ने हंसकर कहा- “ क्या कहूं भट्टिनी , बुलाने से तो वे आएंगे नहीं। आप ही आ सकते हैं । ”

“ यह कैसी बात ? ”

“ वे किसी की इच्छा के अधीन नहीं हैं , इसी से। ”नाउन ने धृष्टतापूर्ण हंसी हंसते हुए कहा ।

“ ऐसा ही मैं भी कभी समझती थी । कभी अवसर मिलने पर उनसे कह देना । कह सकेगी ? ”

“ कह सकूँगी। ”

“ अब भी ऐसा ही है देवी अम्बपाली ! ”सोमप्रभ ने हंसते -हंसते आकर कहा ।

अम्बपाली ने सोमप्रभ को सुवेशित भद्र नागरिक वेश में नहीं देखा था । आज देखकर क्षण - भर को उनकी प्रगल्भता लुप्त हो गई । सोम ने कहा

“ आप मुझ पर कुपित तो नहीं हैं देवी ! ”

“ कुपित होकर तुम्हारे जैसे समर्थ का कोई क्या कर सकता है भद्र ? ”

“ असमर्थ होने पर भी कुछ जन समर्थ होते हैं । ”

“ ऐसे कितने जन हैं प्रियदर्शन ? ”

“ केवल एक को मैं जानता हूं आज्ञा पाऊ तो कहूं ! ”

“ स्वेच्छा से कहना हो तो कहो। ”

“ तो सुनो , मैंने एक व्यक्ति देखा है जो निरातंक, सालाद , सोल्लास हो स्वर्ण- रत्न भण्डार के द्वार उन्मुक्त करके दस्युओं को लूट लेने के लिए अभिनन्दित करता है। ”

“ रहने दो प्रिय, आओ, कुछ खाओ-पिओ! ”

दोनों बैठ गए । अवसर पाकर नाउन पान लेने खिसक गई। अम्बपाली ने सोम का हाथ पकड़कर कहा

“ तुम ऐसे समर्थ, ऐसे सक्षम, कामचारी, दिव्य शक्तियों से ओतप्रोत ऐन्द्रजालिक कौन हो प्रियदर्शन ? ”

“ यही कहने को मैं तुम्हें यहां ले आया हूं अम्बपाली! ”

“ तो कह दो प्रिय, मैंने तो तुम्हारे कण्ठ- स्वर से ही तुम्हें पहचान लिया था । ”

“ यह मैंने तुम्हारे इन नेत्रों में पढ़ लिया था । ”

“ तुम्हारी नेत्रों से पढ़ने की विद्या से मैं परिचित हूं , पर अब कहो। ”

“ मैं मागध हूं प्रिये , मेरा नाम सोमप्रभ है। ”

अम्बपाली ने जैसे तप्त अंगार स्पर्श कर लिया । सोम ने कहा -

“ क्या मागधों को तुम सहन नहीं कर सकतीं ? ”

“ नहीं प्रिये, नहीं । ”

“ इसका कारण ? ”

“ अकथ्य है। ”

“ अब भी ! ”

“ मृत्यु के मूल्य पर भी प्रियदर्शन सोम, यदि तुम अम्बपाली को क्षमा कर सको तो कर देना । ”उनके बड़े- बड़े नेत्र आंसुओं से गीले हो गए ।

“ प्रिये अम्बपाली, क्या मैं तुम्हारी कुछ भी सहायता नहीं कर सकता हूं ? ”

“ नहीं प्रियदर्शन , नहीं । अम्बपाली निस्सहाय -निरुपाय है । ”

विषादपूर्ण मुस्कान सोमप्रभ के मुख पर फैल गई । उन्होंने एक लम्बी सांस ली । उसके साथ अनेक स्मृतियां वायु में विलीन हो गईं।

“ प्रियदर्शन सोम , क्या मैं तुम्हारा कुछ प्रिय कर सकती हूं, प्राणों के मूल्य पर भी ? ”

“ प्रिये, तुम मुझे सदैव क्षमा करती रहना और सहन करती जाना । ”

“ अरे , यह तो मेरा अनुरोध था प्रियदर्शन ! ”

“ तब तो और भी अच्छा है । हम दोनों एक ही नाव पर जीवन -यात्रा कर रहे हैं । ”

“ जो कदाचित् विषाद, निराशाओं और आंसुओं से परिपूर्ण है। ”

“ तो क्या किया जा सकता है प्रिये! प्रियतमे , जीवन से पलायन भी तो नहीं किया जा सकता। ”

“ न , नहीं किया जा सकता। सोम प्रियदर्शन , एक याचना करूं ? ” सोम ने अम्बपाली के दोनों हाथ पकड़कर कहा

“ यह अकिंचन सोम तुम्हारा ही है , प्रिये अम्बपाली ! ”

“ तो प्रियदर्शन , मुझे सहारा देना , जब - जब मैं स्खलित होऊं तब - तब । ”

उनके होंठ कांपे, फिर उन्होंने टूटते अवरुद्ध स्वर में कहा - “ यह मत भूलना सोमभद्र कि मैं एक असहाय - दुर्बल नारी हूं , तुम पुरुष की भांति मेरी रक्षा करना, मैं तुम्हारी किंकरी, तुम्हारी शरण हूं। ”अम्बपाली सोम के पैरों में लुढ़क गईं । सोम ने उन्हें उठाकर अंक में भर लिया और अपने तप्त - तृषित , आग के अंगारों के समान जलते हुए होंठ उनके शीतल कम्पित होंठों पर रख दिए । अम्बपाली मूर्छित होकर सोम के अंक में बिखर गईं।

127 . एकान्त पान्थ : वैशाली की नगरवधू

शरत्कालीन सुन्दर प्रभात था । राजगृह के अन्तरायण में अगणित मनुष्यों की भीड़ भरी थी । लोग अस्त्र - शस्त्रों से सुसज्जित इधर - उधर आ - जा रहे थे। प्रत्येक मनुष्य के मुंह पर युद्ध की ही चर्चा थी । नगर अशान्ति और उत्तेजना का केन्द्र स्थान बना हुआ था । लोग भय और आशंका से भरे हुए थे। शस्त्रधारी सैनिक झुण्ड - के - झुण्ड वीथियों और हट्टों में फिर रहे थे तथा आवश्यकता की सामग्री खरीद रहे थे। सम्राट और महामात्य वर्षकार के विग्रह की खूब बढ़ा - चढ़ाकर और नमक -मिर्च लगाकर चर्चाएं हो रही थीं । गुप्तचरों, सत्रियों का नगर में जाल बिछा था । मन्त्री, पुरोहित , अन्तर - अमात्य , दौवारिक, अन्तर्वेशिक, अन्तपाल , आटविक व्यस्तभाव से नगर में आ - जा रहे थे। हिरण्य और धान्यों से भरे हुए शकट सशस्त्र प्रहरियों के बीच राजभाण्डागार में जा रहे थे। अनेक सत्री और तीक्ष्ण पुरुष तथा गूढ़ाजीव अदिति , कौशिक स्त्रियां नगर में घूम रही थीं । कोई दैवज्ञ के वेश में , कोई भिक्षुकी के वेश में , कोई क्षपणक के वेश में परस्पर मिलने पर गूढ़ संकेत करते हुए घूम रहे थे। नगर की चर्चा का मुख्य विषय युद्ध - कौशल, शस्त्र - प्रयोग और युद्धप्रियता थी । थोड़ा भी कोलाहल होने पर लोगों की भीड़ किसी भी स्थान पर जमा हो जाती थी ।

पान्थागार के सम्मुख एक परदेसी एकान्त पान्थ अश्वारोही आकर रुक गया । अश्व और आरोही दोनों ही अद्भुत थे। अश्व ऊंची रास का एक मूल्यवान् सैन्धव था और अश्वारोही एक स्फूर्तियुक्त , बलिष्ठ किन्तु ग्रामीण - सा युवक था । ऐसा प्रतीत होता था जैसे उसने कोई बड़ा नगर देखा नहीं है तथा वह अकस्मात् राजगृह की इस तड़क - भड़क को देखकर विमूढ़ हो गया है । उसका अश्व मांसल, सुन्दर एवं चंचल था । अश्वारोही का गम्भीर मुख, बड़े-बड़े ज्योतिर्मय नेत्र , उन्नत मस्तक और दीर्घ वक्ष तथा दृढ़ अंग उसके उत्कृष्ट योद्धा होने के साक्षी थे और उसके ग्रामीण वेश तथा अद्भुत व्यवहार करने पर भी उसका सौष्ठव व्यक्त करते थे । एक विकराल खड्ग उसकी कमर में लटक रहा था । उसकी दृष्टि निर्भय थी । वह भीड़ में खड़ा लोगों की संदिग्ध दृष्टियों को उपेक्षा और अवज्ञा की दृष्टि से देख रहा था । उसके वस्त्र धूल से भरे थे और शरीर थकान से चूर - चूर था । यह स्पष्ट था कि वह अनवरत लम्बी यात्रा करता हुआ आया है । उसका अश्व भी पसीने से तर- बतर था ।

वह पान्थागार के अध्यक्ष से बातें कर रहा था । अध्यक्ष ने उसे सिर से पैर तक घूरकर कहा - “ मित्र, खेद है कि मैं तुम्हें स्थान नहीं दे सकता , सब घर घिर गए हैं । वैशाली से राजदूत आए हैं , उन्हीं के सब संगी- साथी तथा स्वयं राजदूत ने भी यहीं डेरा किया है । एक भी घर खाली नहीं है। ”

“ तो मित्र , तू मुझे अपना निजू अतिथि मान। मुझे विश्राम की अत्यन्त आवश्यकता है । ये दस कार्षापण तेरे लिए है। ”

सोने के दस चमचमाते टुकड़े हथेली पर रखे देख पान्थागार के अध्यक्ष के सब विचार बदल गए । उसने हंसकर कहा - “ यह तो बात ही कुछ और है भन्ते ! परन्तु दु: ख है कि मेरे पास पान्थागार में स्थान नहीं है, फिर भी आप एक प्रतिष्ठित सज्जन हैं , मैं आपकी कुछ सहायता कर सकता हूं। ”

“ किस प्रकार मित्र ! ”

“ मेरा एक मित्र है, वह सम्राट का प्रतीहार है। यहीं निकट ही उसका घर है, घर बड़ा और सुसज्जित है । सौभाग्य से वह बड़ा लालची है । ऐसे दस सुवर्ण पाकर तो वह अपने रहने का सजा - धजा कक्ष ही आपको अर्पण कर सकता है। इतने बड़े घर में वह और उसकी पत्नी केवल दो ही व्यक्ति रहते हैं । ”

“ तो मित्र यही कर , सुवर्ण की चिन्ता न कर । ”

अध्यक्ष उस प्रतीहार को बुला लाया । वह एक ढीला -ढाला मोटा वस्त्र पहने था । दुबला-पतला शरीर , मिचमिची आंखें , गंजी खोपड़ी , पतली गर्दन । उसने आकर सम्मान पूर्वक युवक का अभिवादन किया । युवक ने पूछा - “ यही वह व्यक्ति है ? ”

“ यही है भन्ते । ”

“ तब यह स्वर्ण है। ”उसने दस टुकड़े उसकी हथेली पर रखकर कहा - “ शेष तुम्हारा साथी समझा देगा । ” _

“ मैंने समझ लिया भन्ते , खूब समझ लिया , आइए आप । ”इतना कहकर अतिविनीत भाव से पान्थ को अपने साथ ले चला ।

प्रतीहार का घर छोटा था , परन्तु उसमें सब सुविधाएं जयराज के अनुकूल थीं । वहां वह नि : शंक आराम से टिक गए। यहां उन्हें एक सहायता और मिल गई । प्रतीहार ने उन्हें एक कृषक तरुण कहीं से ला दिया । यह बालक अठारह वर्ष का एक उत्साही और स्वस्थ नवयुवक था । जयराज ने उसे एक टाघन खरीद दिया और खूब खिला-पिलाकर परचा लिया । वह कृषक बालक छाया की भांति जयराज के साथ रहकर उनकी सेवा तथा आज्ञापालन करने लगा ।

128. प्रतीहार का मूलधन : वैशाली की नगरवधू

प्रतीहार का नाम मेघमाली था । जयराज अपने सुसज्जित कक्ष में पड़े अनेक राजनीतिक ताने -बाने बुन रहे थे। इसी समय प्रतीहार ने द्वार खटखटाया । अनुमति पाकर वह अन्दर आया और बारम्बार प्रणाम करके विनीत भाव से बोला - “ भन्ते , आपका शौर्य और उदारता दोनों ही अद्वितीय है , मैं आपका सेवक सदैव आपकी सेवा में उपस्थित हूं । परन्तु इस समय मैं प्रार्थी हूं, आप मेरी सहायता कीजिए। ”

जयराज ने विस्मय को दबाकर कहा -

“ कह मित्र , मैं तेरी क्या सहायता कर सकता हूं ? ” उसने कुछ क्षण रुककर कहा

“ मेरी स्त्री अति रूपवती है , वह चरित्र की भी उज्ज्वल है। दो वर्ष पूर्व मैंने उससे विवाह किया था । इसके लिए मेरा सब यत्न से संचित स्वर्ण भी खर्च हो गया । ससुराल से मुझे कुछ भी धन नहीं मिला। क्या कहूं , बड़ी विपत्ति में हूं। ”

जयराज हंसने लगे । हंसते - ही - हंसते उन्होंने कहा - “ तो मित्र , ससुराल से धन अब कैसे मिल सकता है तथा मैं इसमें क्या सहायता कर सकता हूं ? ”

“ विपत्ति कुछ और ही है भन्ते , “ वह रुका । फिर कुछ खांसकर बोला - “ भन्ते, वह कल रात से ही नहीं आई है । ”

“ रात से नहीं आई है! तब गई कहां ? ”

“ मेरा दुर्भाग्य है भन्ते , क्या कहूं, वह वणिक् सुखदास के पास गई थी । ”

“ सुखदास कौन है ? ”

“ एक दुष्ट विदेशी है भन्ते , वह बहुत - से सैन्धव अश्व और बहुत - से चीन देश के कौशेय वस्त्रों के जोड़े बेचने राजगृह आया है । मैंने उसे उसके पास एक सहस्र उत्तम अश्व और पांच सहस्र वस्त्रों के जोड़े खरीदने भेजा था , सम्राट युद्ध की तैयारी कर रहे हैं । मेरे पास कुछ निकम्मे अश्व थे। मैंने सोचा था , वे सब मिलाकर सम्राट् को बेच दूंगा । कुछ लाभ हो जाएगा। ”

“ पत्नी को वणिक के पास क्यों भेजा था , स्वयं क्यों नहीं गए ? ”

“ ये वणिक बड़े लुच्चे हैं भन्ते , सुन्दरी और नवयुवती स्त्रियों को देखते ही पानी हो जाते हैं , सौदा ठीक से हो जाता है । मेरी पत्नी सुन्दरी भी है और चतुर भी है । उसके सुन्दर रूप और मधुर वचनों से प्रसन्न होकर ये वणिक सौदे में खींचतान नहीं करते । जितना मूल्य वह हंसकर दे देती है, वे हंसकर ले लेते हैं । ”

जयराज को इस व्यक्ति में आकर्षण प्रतीत हुआ । उसने मन की हंसी दबाकर कहा - “ तो मित्र, तू अपनी पत्नी से दुहरा लाभ उठाता है ? ”

“ पर भन्ते , जितना स्वर्ण उसके लोभी पिता ने मुझसे लिया था , अभी उतना भी तो नहीं मिला है। ”

“ अस्तु; तू पत्नी की बात कह ! ”

“ वही कह रहा हूं भन्ते , मैंने उसे सुखदास के पास एक सहस्र अश्व और पांच सहस्र चीनांशुक क्रय करने को भेजा था । ”

“ यह तो मैंने सुना , इसके बाद ? ”

“ इसके बाद वह पाजी सुखदास , ऐसा प्रतीत होता है, मेरी स्त्री पर मोहित हो गया और उसे एकान्त में ले जाकर उसने कहा - मूल्य लेकर तो एक भी अश्व, एक भी चीनांशुक नहीं दूंगा , परन्तु हां , यदि तू आज रात मेरी सेवा में रहे, तो पांच सौ घोड़े और एक सहस्र चीनांशुक तेरी भेंट है। ”

“ “ और तेरी चरित्रवती स्त्री ने स्वीकार कर लिया ? ”

“ नहीं भन्ते , उस साध्वी ने कहा -मैं पति से पूछ लूं , वह आज्ञा देगा तो मैं तेरी बात रख लूंगी। ”

“ सो तैने आज्ञा दे दी ? ”

“ पांच सौ सैन्धव अश्व और एक सहस्र चीनांशुक भन्ते , कम नहीं होते । ऐसे मुर्ख भी बार- बार नहीं मिलते । मैंने सीधे स्वभाव कह दिया यदि एक ही रात्रि में पांच सौ अश्व और सहस्र चीनांशुक मिलते हैं , तो दोष नहीं है, तू ऐसा ही कर । ”

“ और तेरी वह साध्वी स्त्री तेरा आदेश मानकर वहां चली गई ? ”

“ यही बात हुई भन्ते, अब अश्व और चीनांशुक तो उसने भेज दिए ; पर स्वयं नहीं आ रही है। ”

“ उसने कुछ सन्देश भी भेजा है ? ”

“ सन्देश भेजा है भन्ते , उसने कहलाया है कि सत्त्वरहित और लोभी पति से तो वह पति अच्छा है, जो एक रात्रि के पांच सौ अश्व और सहस्र चीनांशुक दे सकता है। ”

“ अब तेरा क्या कहना है ? ”

“ मैं कहता हूं कि यह मात्र विनोद- वाक्य है। ऐसा वह बहुत बार कह चुकी है। उसका स्वभाव भी हंसोड़ है। ”

“ तेरा अनुमान यदि सत्य हो तो ?

“ तो भन्ते राजकुमार, मेरी स्त्री मुझे दिलवा दीजिए। उसके बिना मैं जीवित नहीं रह सकूँगा , भूखों मर जाऊंगा। ”

“ यह तो सत्य है, जब तू भूखों मर जाएगा तो जीवित कैसे रह सकता है ? ”

“ भन्ते , मैं प्रतिष्ठित पुरुष हूं। ”

“ तो प्रतिष्ठित पुरुष, अभी तू जाकर शयन कर, सुख - स्वप्न देख , भोर होने पर मैं सुखदास के अश्वों को और तेरी उस साध्वी पत्नी को भी देखंगा । ”

प्रतीहार कुछ सन्तुष्ट होकर मन - ही - मन बड़बड़ाता हुआ चला गया ।

129.प्रतीहार - पत्नी : वैशाली की नगरवधू

दूसरे दिन जयराज भड़कीला परिधान धारण कर अश्व पर आरूढ़ हो , संग में कृषक - तरुण धवल्ल को ले सुखदास वणिक के निवास पर जा पहुंचे। सेवक सहित इस प्रकार एक भद्र पुरुष को देख सुखदास ने उनका सत्कार करके कहा - “ भन्ते , मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं ? ”

जयराज ने इधर - उधर देखते हुए हंसकर कहा - “ मित्र , मैं किसी अच्छी वस्तु का क्रय करना चाहता हूं । सुना है, तू बड़ा प्रामाणिक व्यापारी है । ”

“ भन्ते , मेरे पास बहुत उत्तम जाति के अश्व हैं और बहुमूल्य चीनांशुक के जोड़े हैं । सम्राट युद्ध-व्यवस्था में रत हैं , उन्हें अश्वों की आवश्यकता है , इसी से मैं और मेरे ग्यारह मित्र भी अश्व लाए हैं । हमारे पास सब मिलाकर एक लाख अश्व हैं । ये सब सम्राट के लिए हैं भन्ते ! ”

“ इतर जनों को भी तूने माल बेचा है मित्र! ”

“ परन्तु मैं खुदरा बिक्री नहीं करता, थोक माल बेचता हूं। ”

“ थोक ही सही ; तब कह, पांच सौ सैन्धव अश्व और एक सहस्र जोड़े चीनांशुकों का तू क्या मूल्य लेता है ? ”

सुखदास वणिक सन्देह और भय से जयराज का मुंह ताकने लगा ।

जयराज ने कहा - “ कह मित्र , अभी कल ही तूने एक सौदा किया है। तू बड़ा व्यापारी अवश्य है, परन्तु एक ही दिन में इस छोटे- से सौदे को तो नहीं भूला होगा। ”

“ आप क्या राजपुरुष हैं भन्ते ? ”

“ परन्तु मैं राज - काज से नहीं आया हूं, अपने ही काम से आया हूं। ”

“ तो भन्ते , आपको क्या चाहिए , कहिए । मेरा कर्तव्य है कि आपकी आज्ञा का पालन करूं । ”

“ यह अच्छा है। सस्ते में क्रय करना और लाभ लेकर अधिक मूल्य में बेचना व्यापार की सबसे बड़ी सफलता है। ”

“ लाभ ही के लिए व्यापार किया जाता है भन्ते ! ”

“ यह बुद्धिमानी की बात है । इधर लिया उधर दिया , ठीक है न ? ”

“ बिल्कुल ठीक है भन्ते , लाभ मिलना चाहिए । ”

“ यह बुद्धिमानी की बात है, तो अभीष्ट वस्तु मिलने पर मैं मुंहमांगा दाम देता हूं , मेरे पास सुवर्ण की कमी नहीं है मित्र! ”

“ आप जैसे ही राजकुमारों के हम सेवक हैं भन्ते! ”

“ तो मूल्य कह दिया मित्र! ”

“ काहे का ? ”

“ उस स्त्री का , जिसको तूने कल खरीदा है। ” सुखदास वणिक का मुंह सूख गया । उसने कहा - “ कैसी स्त्री भन्ते ? ”

“ प्रतीहार - पत्नी रे , क्या मुझे चराता है! ”– जयराज ने व्याज - कोप से कहा । सुखदास थर - थर कांपने लगा । उसने कहा - “ दुहाई राजपुत्र , मैं निर्दोष हूं! ”

“ पर तू जानता है, सम्राट तुझे कभी क्षमा नहीं करेंगे , अभी तेरे बांधने को राजपुरुष आएंगे । वे तुझे ले जाकर सूली चढ़ा देंगे । ”

“ परन्तु वह स्वेच्छा से आई है भन्ते , अपने पति की अनुमति से । ”

“ वे अश्व और चीनांशुक तो एक ही रात के शुल्क हैं न ? ”

“ यह सत्य है, परन्तु वह अब उस लोभी वृद्ध और कृपण प्रतीहार के पास नहीं जाना चाहती । भन्ते , उस सुशीला से वह पतित हठ करके कुकर्म कराता है । केवल उस दुष्ट के अधीन होने से वह वणिकों के पास जा क्रय-विक्रय करती है । अपने चित्त से अपने योग्य काम समझकर नहीं। उसके रूप और सौन्दर्य को उस पतित ने अपना मूलधन बनाया हुआ है। ”

“ तो मित्र, मैं उस मूलधन को देखना चाहता हूं। ”

“ तो उससे पूछकर कह सकता हूं कि वह आपसे मिलकर बात करना चाहेगी या नहीं। ”

“ तो तू पूछ ले मित्र ! ” वणिक भीतर चला गया । थोड़ी देर में उसने आकर कहा

“ चलिए भन्ते , वह आपसे मिलने को सहमत है। ”

जयराज ने भीतर जाकर एक सुसज्जित कक्ष में उसे खड़े देखा । उसकी अवस्था बीस -बाईस वर्ष की थी । वह अतिकमनीय रूपवती बाला थी , सौंदर्य और लावण्य सुडौल मुख और अंग - अंग से फूटा पड़ता था । लाल -लाल पतले होंठ और बड़ी - बड़ी नुकीली आंखें काम -निमन्त्रण- सा दे रही थीं । इस अप्रतिम सौन्दर्य - प्रतिमा के मुख पर निष्कलंकता और अभय की आभा देखकर जयराज पुलकित हो गए। प्रफुल्लित रक्तिम आभा से प्रदीप्त मुखमंडल पर मुस्कान सुधा बिखेरकर उसने कहा

“ मैं आपका क्या प्रिय करूं , प्रिय ? ”

उसके कोमल कण्ठ को सुनकर जयराज ने कहा - “ सुन्दरी, मैं तेरे पति का मित्र हूं और तुझे यहां से उसके पास ले चलने को आया हूं । तेरी - जैसी चरित्रवती रूपवती के लिए इस प्रकार पुंश्चली की भांति पर पुरुष का सेवन करना अच्छा नहीं है। ”

“ आप ठीक कहते हैं भन्ते राजकुमार, पर यह दूषित कार्य मैंने अपनी इच्छा से अपने विलास के लिए नहीं किया है । आप ही कहिए , जिस लोभी ने आपत्ति के बिना मुझे अन्य पुरुष के हाथ बेच डाला , उस सत्त्वहीन निर्लज्ज के पास अब मैं कैसे जाऊं ? मेरी भी एक मर्यादा है भन्ते , यदि मैं वहां जाती हूं, तो वह बार -बार मुझे ऐसे ही प्रयोगों में डालेगा । यहां मैं एक सुसम्पन्न सुप्रतिष्ठित और उदार पुरुष की सेवा में हूं, जिसने एक ही रात में पांच सौ अश्व और सहस्र जोड़े चीनांशुक दे डाले हैं । ”

जयराज ने उसकी स्थिति और यथार्थता का समर्थन किया । फिर उसने उठते हए सुखदास वणिक से कहा - “ मित्र, तू यथेष्ट लाभ में रहा। स्मरण रख , सत्त्वहीन पुरुषों के पास धन और स्त्री नहीं ठहर सकते। ”

इतना कह, उस रूप , तेज कोमलता तथा प्रगल्भता की मोहिनी मूर्ति को मन में धारण कर जयराज अपने आवास को लौट आए ।

130.गणदूत : वैशाली की नगरवधू

गणदूत गान्धार काप्यक का बिम्बसार श्रेणिक ने बड़ी तड़क - भड़क से स्वागत किया । मागध सीमा में पहुंचते ही राज्य की ओर से प्रत्येक सन्निवेश पर उसके स्वागत एवं सुख- सुविधा के सब साधन जुटे हुए मिलने लगे। राजगृह आने पर पान्थागार में उसे राजार्ह भव्य निवास और सत्कार मिला । मागध संधिवैग्राहिक अभयकुमार विशेष रूप से गणदूत की व्यवस्था पर नियत हुआ ।

जयराज ने मार्ग में काप्यक से मिलने की बिल्कुल चेष्टा नहीं की , परन्तु राजगृह में इसे पान्थागार के अध्यक्ष के माध्यम से राजदूत से परिचय प्राप्त करने तथा उसके मैत्री लाभ करने के अभिनय का अच्छा सुअवसर मिल गया । प्रतीहार से घनिष्ठता होने पर कभी सांकेतिक भाषा में और कभी स्पष्ट मिलकर परस्पर विचार - विनिमय करने का सुअवसर उसे मिलने लगा । गणदूत और उसका पूर्वापर सम्बन्ध मागध संधिवैग्राहिक अभयकुमार भी नहीं भांप सका। जयराज कभी अश्व पर सवार होकर और कभी पांव प्यादा नगर , वीथी, हाट में जा -जाकर राजगृह के दुर्ग , सैन्य , अस्त्रागार और शस्त्रास्त्र निर्माण आदि युद्धोद्योगों को देखने तथा विविध मानचित्र , संकेतचित्र और विवरणपत्रिकाएं गूढ़ लिपि में तैयार करने लगा ।

प्रतीहार - पत्नी का वह क्षणिक परिचय उसकी आसक्ति में परिणत हो गया । उसकी आसक्ति भी अधिक काम आई। वह अन्त : पुर का राई - रत्ती हालचाल ला -लाकर जयराज को देने लगी । अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और उपयोगी सूचनाएं उससे उन्होंने प्राप्त कर लीं । सम्राट के दरबार में उपस्थित होकर उपानय उपस्थित करने और सम्राट् से मिलने का दिन नियत हो गया । काप्यक ने जयराज से मिलकर यह निर्णय कर लिया कि सम्राट् से गणदूत के रूप में काप्यक नहीं, जयराज ही मिलेगा । यह एक जोखिमपूर्ण योजना थी , परन्तु अनिवार्य थी । यह भी तय हआ कि सम्राट की भेंट के तत्काल बाद ही जयराज को राजगृह से प्रस्थान भी कर देना चाहिए । उसने यह सब व्यवस्था ठीक -ठीक कर ली और अपने कौशल तथा इन तीनों सहायकों की सहायता से वह अनायास ही गणदूत के रूप में सम्राट् के सम्मुख जा उपस्थित हुआ ।

कृषक-बालक उसके लिए बड़ा सहायक प्रमाणित हुआ। वह दिन - भर, अपने टाघन पर चढ़कर राजगृह के बाहर - भीतर यथेष्ट चक्कर लगाया करता, विविध जनों से मिलता , गप्पें मारता और बहुत - सी जानने योग्य बातें जयराज को आ बताता था । जयराज उससे हंसते -हंसते काम की बातें पूछ लेता, युक्ति और चतुराई से अभीष्ट कार्य, बिना ही मूल कारण प्रकट किए, करा लेता । तरुण कृषक-बालक विविध पक्वान्न और उत्तम भोजन पाकर तथा टाघन पर स्वच्छन्द घूमते रहकर अतिप्रसन्न हो तन - मन से जयराज की सब इच्छाओं और आदेशों की पूर्ति करने लगा ।

131. जयराज और दौत्य : वैशाली की नगरवधू

वज्जीगण प्रतिनिधि का भव्य स्वागत करने में मागध सम्राट ने कुछ भी उठा न रखा। प्रशस्त सभामण्डल यत्न से सुसज्जित किया गया । सम्राट् गंगा - जमुनी के सिंहासन पर विराजमान हुए। मस्तक पर रत्नजटित जाज्वल्यमान स्वर्ण-मुकुट धारण किया । पाश्र्व में देश - देश के विविध करद राजा, सामन्त और राजपरिजनों की बैठकें बनाई गईं । सम्राट् के ऊपर श्वेत रजतछत्र लग रहा था , जिस पर बहुत बड़े मोतियों की झालर टंगी थी । सिंहासन के सम्मुख राज अमात्य , पुरोहित और धर्माध्यक्ष का आसन था । पीछे महासेनापति आर्य भद्रिक और उदायि अपने संपूर्ण सेनाधिपतियों सहित यथास्थान अवस्थित थे। एक ओर गायक और नर्तकियां , मंगलामुखी वारवनिताएं संगीतसुधा बिखेरने को सन्नद्ध खड़ी थीं । राजा के पीछे चांदी की डांड का छत्र लिए एक खवास खड़ा था । दायें - बायें दो यवनी दासियां चंवर झल रही थीं । दक्षिण पाश्र्व में मुर्छलवाला था । उसके पीछे अन्यान्य दण्डधर, कंचुकी , द्वारपाल आदि यथास्थान नियम से खड़े थे । सम्राट् का तेजपूर्ण मुख उस समय मध्याह्न के सूर्य की भांति देदीप्यमान हो रहा था । बारह लाख मगध -निवासियों के निगम -जेट्ठक और अस्सी सहस्र गांवों के मुखिया भी इस दरबार में आमन्त्रित किए गए थे।

लिच्छवि राजप्रतिनिधि ने अपने अनुरूप भव्य वेश धारण किया था । उनका बहुमूल्य स्वर्ण-तारजटित कौर्जव और उत्तम काशिक कौशेय का उत्तरीय अपूर्व था । उनके साथ बहुमूल्य उपानय था , जिनमें बीस सैंधव अश्व , पांच भीमकाय हाथी , बहुत - से रत्नखचित शस्त्रास्त्र तथा स्वर्ण- तारग्रथित काशी वस्त्र थे ।

जयराज ने सभास्थल में प्रविष्ट होकर देखा - सम्राट् पूर्व दिशा में उदित सूर्य की भांति अचल भाव से अपने मंत्रियों और सभ्यों के बीच स्वर्ण-सिंहासन पर बैठे हैं । सभास्थल में बिछे हुए रत्न - कम्बलों की आभा बहुरंगी मेघों के समान भाषित हो रही थी । कौशेय और ऊनी रोएं , जो सुनहरी तार- पट्टी के गुंथे थे, ऐसे प्रतीत हो रहे थे, जैसे सूर्य रश्मियां शत - सहस्र आभा धारण करके भूमि पर अवतरित हुई हैं ।

जयराज ने सम्राट् के सम्मुख जा राज - निष्ठा के नियमानुसार उनका अभिवादन कर वज्जीगणपति का राजपत्र उपस्थित किया तथा गणपति की ओर से उपानय उपस्थित कर , उसे स्वीकार कर कृतार्थ करने का शिष्टाचार प्रदर्शित किया ।

सम्राट ने राजपत्र राजसम्मान- सहित ग्रहण कर उपानय के लिए आभार और सन्तुष्टि प्रकट कर कहा - “ कह आयुष्मान्, मैं तेरा और अष्टकुल के प्रतिष्ठित वज्जीसंघ का क्या प्रिय कर सकता हूं ? ”

जयराज ने धीमे किन्तु स्थिर स्वर में कहा - “ क्या देव मुझे स्पष्ट भाषण करने की अनुमति देते हैं ? ”

“ क्यों नहीं आयुष्मान्, तू कथनीय कह। ”

“ तो देव , बज्जीगण का अनुरोध है कि सम्राट् आर्य महामात्य को राजगृह में फिर से सुप्रतिष्ठित करें । ”

“ यह तो मगध राज्य का अपना प्रश्न है भद्र, वज्जी गणराज्य को अनुरोध करने का इसमें क्या अधिकार है ? अपितु राजदण्ड प्राप्त बहिष्कृत महामात्य को राज-नियम के विपरीत वज्जीगणसंघ ने प्रश्रय देकर मागध राज्य- संधि भंग की है, जिसका दायित्व वज्जीगण -संघ पर है। ”

“ इसके विपरीत देव , वज्जीगण - संघ की यह धारणा है कि सम्राट की अभिसंधि से महामात्य कूटनीति का अनुसरण कर तूष्णी युद्ध कर रहे हैं । ”

“ तो इस धारणा के वज्जी गणा-संघ के पास पुष्ट प्रमाण होंगे ? ”

“ देव , वज्जी गण- संघ सम्राट् की मैत्री का मूल्य समझता है । वह बिना प्रमाण कुछ नहीं करता , सम्राट को मैं विश्वास दिलाता हूं । ”

“ आयुष्मान, क्या कहना चाहता है, कह । ”

“ महाराज, वैशाली के अष्टकुल सम्राट् से मैत्री सम्बन्ध स्थिर किया चाहते हैं । ”

“ किन्तु किस प्रकार भद्र ? ”

“ मागध साम्राज्य के प्रति वैशाली के अष्टकुल के जैसे विचार हैं, वह मैं भली भांति जानता हूं। ”

“ मैं भी क्या उनसे अवगत हो सकता हूं , भद्र ! ”

“ महाराज, वज्जीगण सम्राट् की किसी भी इच्छा की अवहेलना नहीं करेंगे । ”

“ तब तो मुझे केवल यही विचार करना है कि मुझे उनसे क्या कहना चाहिए। ”

“ सम्राट् यदि स्पष्ट कहें । ”

“ यह तो व्यर्थ होगा आयुष्मान् ! ”

“ तो क्या मैं ही सम्राट् को वज्जी गण- संघ का संदेश निवेदन करूं ? ”

“ यह अधिक उपयुक्त होगा । ”

“ मैं स्पष्ट कहने के लिए सम्राट् से क्षमा -याचना करता हूं। ”

“ कह भद्र , कथनीय कह! ”

“ देव यह जानते हैं कि वह बात अब सार्वजनिक हो चुकी है। ”

“ आयुष्मान्, तेरा अभिप्राय क्या है ? ”

“ वह स्पष्ट है, देव यदि अष्टकुल की किसी कुलीन कुमारी से विवाह करना चाहते हैं तो यह सुकर है । ”

“ प्रस्ताव महत्त्वपूर्ण है और इससे मेरी प्रतिष्ठा होगी । ”

“ साथ ही अष्टकुल के वजी गणतन्त्र और मगध -साम्राज्य की मैत्री - समृद्धि भी बढ़ेगी । किन्तु इसके लिए एक वचन देना होगा । ”

“ कैसा वचन ? ”

“ केवल लिच्छवि कुमारी का पुत्र ही भावी मगध- सम्राट् होगा । ”

“ केवल यही ? और कुछ तो नहीं ? ”

“ नहीं देव ! ”

“ आयुष्मान् को कुछ और भी कथनीय है ? ”

“ यत्किंचित ; महाराज , देवी अम्बपाली वज्जीगण का विषय हैं , उन पर सम्पूर्ण गणजनपद का समान अधिकार है । अष्टकुल उन पर किसी एक का एकाधिकार सहन नहीं करेगा। ”

“ यह मैं समझ गया और कह भद्र! ”

“ और तो कुछ कथनीय नहीं है देव ! ”

“ कुछ भी नहीं ? ”

“ नहीं । ”

“ अच्छा, तो मैं अष्टकुल का प्रस्ताव अस्वीकार करता हूं । ”

“ क्या आप अष्टकुल की किसी भी कुमारी से विवाह करना अस्वीकार कर रहे हैं ? ”

“ यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है भद्र , किन्तु मैं इसे अपनी स्वेच्छा और भावना की बलि देकर नहीं स्वीकार कर सकता । रही देवी अम्बपाली की बात ; वज्जीगण के उस धिक्कृत कानून की बात मैं जानता हूं; परन्तु आयुष्मान् , कोई भी मागध स्त्री जाति के अधिकारों को हरण करनेवाले इस कानून के विरोध में खड्ग - हस्त होना आनन्द से स्वीकार करेगा। अच्छा आयुष्मान् , अब विदा! अपने प्रस्ताव के लिए अष्टकुल के वज्जीगण प्रमुखों से मेरी कृतज्ञता अवश्य प्रकट कर देना । ”

“ सम्राट्, मुझे यह भय है कि इस निर्णय का कोई भयानक परिणाम न हो , दो पड़ोसी राज्य -व्यवस्थाओं के बीच की सद्भावना न नष्ट हो जाए । ”

“ आयुष्मान् , महाराज्यों की एक मर्यादा होती है और सम्राट की भी । मागध - सम्राट की एक पृथक् मर्यादा है आयुष्मान्! जिसका तू स्वप्न देख रहा है, मेरी अभिलाषा उससे बड़ी है । ”

“ इससे सम्राट् का यह अभिप्राय तो नहीं है कि सम्राट् अष्टकुलों के स्थापित गणतन्त्र से युद्ध छेड़ चुके । ”

“ अष्टकुलों के गणपति ने क्या इसी से भयभीत होकर तुझे उत्कोच देकर मेरे पास भेजा है ? ”

“ महाराज, लिच्छवि गण -संघ छत्तीस राज्यों के संघ का केन्द्र है। हम गणशासित भलीभांति खड्ग पकड़ना जानते हैं । ”

“ सुनकर आश्वस्त हुआ भद्र , मैं यह बात स्मरण रखूगा । ”

इतना कहकर सम्राट आसन छोड़ उठकर खड़े हुए । जयराज क्रोध से तमतमाते हुए मुख से पीछे लौटे । चिन्ता की रेखाएं उनके सदा के उन्नत ललाट पर अपना प्रभाव डाल रही थीं ।

132 .गुह्य निवेदन : वैशाली की नगरवधू

एकान्त पाते ही मागध सन्धिवैग्राहिक अभयकुमार ने सम्राट से निवेदन किया - “ देव , वंचना हुई है। ”

“ कैसी, भणे ! ”

“ यह गणदूत नहीं, पारग्रामिक है; अथवा वह गणदूत नहीं, छद्मवेशी है। ”

“ कैसे भद्र ! ”

“ देव , जो गणदूत बनकर पान्थागार में राज - अतिथि बना हुआ था , उसे मैं भली भांति पहचानता हूं , उसने सभा में सम्राट् से भेंट नहीं की है। ”

“ तब किसने की ? ”

“ एक अन्य पुरुष ने , जो पान्थागार से पृथक् एक प्रतीहार के घर टिका हुआ था । ”

“ क्या इसकी कोई सूचना महामात्य ने नहीं भेजी थी ? ”

“ मुझे आर्य महामात्य की यही सूचना मिली थी कि प्रभंजन अगत्य की सूचना ला रहा है, परन्तु प्रभंजन का कोई पता ही नहीं लगता। न जाने वह कहीं लोप हो गया है । यह तो परिज्ञात है कि उसने इस पारग्रामिक का अनुसरण किया था । ”

“ यह अति भयानक बात है भणे ! इस पारग्रामिक और उस छद्मवेशी गणदूत दोनों को बन्दी बना लो । ”

“ किन्तु देव , दोनों ही ने राजगृह से चुपचाप प्रस्थान कर दिया है। ” सम्राट ने अत्यन्त कुपित होकर कहा

“ तो भणे , मैं अभी नगरपाल और सीमान्त -रक्खक को देखना चाहता हूं और तुझे आदेश देता हूं , कि उस छद्मवेशी का अनुसरण कर और उसे जीवित या मृत , जिस प्रकार सम्भव हो , मेरे सम्मुख उपस्थित कर! ”

अभयकुमार सम्राट को अभिवादन कर तुरन्त चल दिया । सम्राट् चिन्तित भाव से अपने कक्ष में टहलने लगे । कुछ ही काल में नगरपाल और सीमान्त रक्खक ने आकर सम्राट को अभिवादन किया । सम्राट ने क्रुद्ध होकर पूछा

“ भणे, वैशाली के गणदूत का कैसा समाचार है ? ”

“ देव , उसने दो दण्ड रात्रि रहते राजगृह से प्रस्थान कर दिया , अब उसका कोई पता ही नहीं लग रहा है । ”

“ उसे आने की अनुमति किसने दी ? ”

“ देव , इसका निषेध नहीं था । इसी से ....। ”

“ और वह पारग्रामिक ? ”

“ देव , उसके सम्बन्ध में तो हमें कुछ सूचना ही नहीं है।

“ क्या मागध-व्यवस्था अब ऐसे ही राजपुरुष करेंगे ? दोनों ही मृत जीवित जिस अवस्था में हों , बन्दी करके मेरे सम्मुख लाए जाएं –प्रत्येक मूल्य पर ! ”सम्राट् ने सीमान्त रक्खक को आदेश दिया ।

दोनों राजपुरुष घबराकर राजाज्ञा पालन करने को भागे।

133 . पलायन : वैशाली की नगरवधू

जयराज और काप्यक गान्धार ने पलायन की योजना पहले ही स्थिर कर ली थी । गणदूत के वेश में जिस दिन जयराज ने सम्राट से प्रकट भेंट की , उससे प्रथम ही रात्रि के समय चुपचाप गुप्त भाव से एकाकी गान्धार काप्यक महत्त्वपूर्ण चित्र , मानचित्र, लेख और सूचनाएं लेकर राजगृह से प्रस्थान कर गए थे। मार्ग में सुरक्षा और व्यवस्था उन्होंने यथावत् कर ली थी । शेष सैनिक और राजपरिच्छेद की व्यवस्था यह की गई थी कि वह प्रकट में प्रस्थान का प्रदर्शन तो करे , परन्तु राजगृह के बाहर जाते ही वे विघटित हो जाएं तथा छद्मवेश में राजगृह लौट आएं और राजगृह में गुप्त रूप में रहें । इस योजना के कारण वैशाली के गणदूत और उसकी छोटी - सी सैन्य तथा सेवक मण्डली कहां लोप हो गई, इसका किसी को कुछ पता ही नहीं लगा। गान्धार काप्यक को भी कोई नहीं पा सका।

जयराज सम्राट से मिलने के तत्क्षण बाद अपने डेरे पर गए ही नहीं । वे तुरन्त ही सबकी आंख बचा राजगृह से चल दिए । पूर्व- योजना के अनुसार उनका वह कृषक-बालक मित्र उनसे पहले ही जा चुका था और राजगृह से आठ योजन दूर एक चैत्य में उनकी प्रतीक्षा कर रहा था । इस प्रकार जयराज और उनके संगी- साथी , जिन्हें जाना था , वे पूर्व नियोजित योजना से सकुशल राजगृह से निकल गए । जिन्हें रहना था वे प्रच्छन्न भाव में रहे ।

अभयकुमार मोटी बुद्धि का तथा कुछ दीर्घसूत्री आदमी था ; वह सैनिक प्रथम था , राजनीतिज्ञ उसके बाद । वह राजकुमार था । अत : अनुशासित भी न था । उससे इस अगत्य के कार्य में अनेक त्रुटियां रह गईं । फिर भी उसने वैशाली के इन सफल भगोड़ों को जीवित या मृत पकड़ लाने के संकल्प से चुने हुए सैनिक लेकर प्रस्थान किया । सीमान्त -रक्षक ने भी चारों ओर सेना फैला दी ।

जयराज को तुरन्त ही इस व्यवस्था का पता लग गया । वह यथासंभव युद्ध से बचना चाह रहे थे और शीघ्र से शीघ्र सुरक्षित मागध राज्य की सीमा से निकल जाना चाहते थे। फिर भी उनकी एक - दो बार पीछा करने वालों से मुठभेड़ हो ही गई, पर जयराज ने युद्ध नहीं किया । पलायन ही करना श्रेयस्कर समझा । किन्तु अभयकुमार ने उनके मार्ग को घेर ही लिया और जयराज प्रति क्षण किसी गम्भीर परिणाम की आशंका करने लगे।

134. घातक द्वन्द्व युद्ध : वैशाली की नगरवधू

जयराज ने समझ लिया कि अब उनके और अभयकुमार के बीच एक घातक द्वन्द्व युद्ध होना अनिवार्य है। परन्तु उन्हें अपनी साहसिक यात्रा झटपट समाप्त कर डालनी थी । उन्होंने मुस्कराकर अपने संगी कृषक तरुण से कहा - “ मित्र , टटू की चाल का जौहर दिखाने का यही सुअवसर है, हमें शीघ्र यहां से भाग चलना चाहिए। ”

“ यही अच्छा है। ”युवक ने बहुत सोचने -विचारने की अपेक्षा अपने साथी के मत पर निर्भर होकर कहा।

दोनों ने अपने - अपने अश्वों को एड़ दी । जयराज ने निश्चय कर लिया था , कि जब तक वह सुरक्षित स्थान पर नहीं पहुंच जाएंगे, राह में विश्राम नहीं करेंगे । उनके कंचुक के भीतर बहुमूल्य हल्का लोह- वर्म था तथा उष्णीष के नीचे भी झिलमिल टोप छिपा था । बहुमूल्य लेखों और मानचित्रों को , जो उनके पास थे उन्होंने यत्न से अपने वक्षस्थल पर लोह- वर्म के नीचे छिपा लिया था और उन सबकी एक - एक प्रति सांकेतिक भाषा में तैयार करके अपने साथी के कंचुक में सी दी थीं ।

दोनों के अश्व तीव्र गति से बढ़ चले । युवक अपने अश्व -संचालन की सब कला साथी को दिखाना चाहता था तथा अपने पार्वत्य टटू की जो वह बढ़- चढ़कर डींग हांक चुका था , उसे प्रमाणित किया चाहता था । इसी से वह साथी के साथ बराबर उड़ा जा रहा था । उसकी इच्छा साथी से वार्तालाप करने की थी , परन्तु जयराज गम्भीर प्रश्नों पर विचार करते जा रहे थे । द्रत गति से दौड़ते हए अश्व पर भी मनुष्य गम्भीर विषयों पर विचार कर सकता है, टेढ़ी राजनीति की वक्र चाल सोच सकता है, यह कैसे कहा जा सकता था ! पर यहां संधिवैग्राहिक जयराज भागते - भागते यही सब सोचते तथा गहरी से गहरी योजना बनाते जा रहे थे। वे प्रत्येक बात की तह तक पहुंचने के लिए अब तक की पूर्वापर सम्बन्धित सभी बातों की तुलना , विवेचना और आरोप की दृष्टि से देखने के लिए अपने मस्तिष्क में विचार स्थिर करते जा रहे थे। उन्होंने मन - ही - मन यह स्वीकार कर लिया कि सम्राट अद्भुत और तेजवान् पुरुष हैं । उन्हें सरलता से मूर्ख नहीं बनाया जा सकता है। फिर भी सम्राट की अम्बपाली के प्रति आसक्ति एवं अपने ही जीवन में उनके शून्यपने को भी वह समझ गए थे । उन्होंने यह समझ लिया था युद्ध तो अनिवार्य है ही , वह भी अनति विलम्ब । परन्तु मूल मुद्दा यह है कि देवी अम्बपाली ही का आवास एक छिद्र होगा , जहां से मगध साम्राज्य को विजय किया जा सकता है। आर्य वर्षकार की दुर्धर्ष कुटिल राजनीति के ताने बाने को छिन्न -भिन्न करके आर्य भद्रिक के प्रबल पराक्रम को नत किया जा सकता है । उसी कूटनीतिक छिद्र पर जयराज ने अपनी दृष्टि केन्द्रित की । उन्होंने मन - ही - मन कहा - “ सम्राट एक ऐसी उलझी हई गुत्थी है, जो जीवन में नहीं सुलझेगी। परन्तु इसी से सम्राट का पराभव होगा तथा ब्राह्मण वर्षकार की बुद्धि और भद्रिक का शौर्य कुछ भी काम न आएगा ।

उसने बड़े ध्यान से देखा था कि सम्पूर्ण मागध जनपद सम्पन्न और निश्चिन्त है । उसे यहां वह युद्ध की विभीषिका नहीं दिखाई दी थी , जो वैशाली में थी । वे अत्यन्त आश्चर्य से यह देख चुके थे कि वहां जनपद में बेचैनी के कोई चिह्न न थे। कृषक अपने हल -बैल लिए खेतों की ओर आराम से जा रहे थे। रंगीन वस्त्रों से सुसज्जित ग्रामीण मागध बालाएं छोटे छोटे सुडौल घड़े सिर पर रखे आती- जाती बड़ी भली लग रही थीं । वे गाने गाती जाती थीं , जिनमें यौवन जीवन - आनन्द, आशा और मिलन -सुख के मोहक चित्र चित्रित किए हुए थे । जयराज को ऐसा प्रतीत हो रहा था , जैसे चिड़ियां चहचहाती हुई उड़ रही हैं । सम्पूर्ण मागध जनपद शत -सहस्र मुख से कह रहा था - “ देखो , हम सुखी हैं , हम सन्तुष्ट हैं ! ”

जयराज सोचते जाते थे। हमारे वज्जी गणतन्त्र से तो यह साम्राज्यचक्र ही अधिक सुविधाजनक प्रतीत होता है । यदि साम्राज्य - तन्त्र में आक्रमण- भावना न होती , तो निस्सन्देह राजनीति के विकसित -स्थिर रूप को तो साम्राज्य ही में देखा जा सकता है । वे चारों ओर आंख उघाड़कर देखते जा रहे थे, पीले और पके हुए धान्य से भरपूर खेत खड़े थे । आम्र के सघन बागों में कोयले कूक रही थीं । स्वस्थ बालक ग्राम के बाहर क्रीड़ा कर रहे थे। बड़े -बड़े हरिणों के यूथ खेतों की पटरियों पर स्वच्छन्द घूम रहे थे। ऋतु बहुत सुहावनी बनी थी । कोई - कोई ग्रामीण सस्ते टटुओं पर इधर - उधर आते - जाते दीख पड़ रहे थे। ये टटू बड़े मज़बूत थे। उनके मुंह से निकल पड़ा - “ वाह , ये तो बड़ी मौज में हैं । ”

साथी युवक ने जयराज के होंठ हिलते देखे। वह अपना टट्ट बढ़ाकर आगे आया और उसने कहा - “ आपने कुछ कहा भन्ते ! ”

“ हां मित्र , मैं सोचता हूं कि तेरी और मेरी दोनों की ससुराल यहां कहीं किसी गांव में होती ; और ये रंगीन घाघरे पहने हुए जो वधूटियां छोटे- छोटे जल के घड़ेसिरों पर रखे इठलातीं, बलखातीं, लोगों के मन को ललचातीं आ रही हैं , इनमें ये कोई भी एक - दो हमारी-तेरी वधूटियां होतीं तथा हम और तू साथ - साथ इसी तरह इन गांवों में से किसी एक के श्वसुरगृह में आकर आदर - सत्कार पाते, तो कैसी बहार होती ! ”

साथी का यह रंगीन विनोद सुनकर युवक खिलखिलाकर हंस पड़ा । उसने थोड़ा लजाते हुए कहा - “ भन्ते , इधर ही उस ओर के एक ग्राम में मेरी ससुराल है और मैं वहां एक - दो बार जा चुका हूं । चलिए भन्ते , वहां चलें । ”

“ अच्छा, क्या वधूटी वहीं है ? ”

“ वहीं है भन्ते ! ”

“ ओहो, यह बात है मित्र, तो देखा जाएगा, वह ग्राम यहां से कितनी दूर है ? ”

“ यदि हम इसी प्रकार चलते रहे, राह में कहीं न रुके , तो सूर्यास्त तक वहां पहुंच जाएंगे। ”

“ और यदि हम घोड़ों को सरपट छोड़ दें ? ”

“ वाह, तब तो दण्ड दिन रहे पहुंच सकते हैं । ”

“ परन्तु तुम्हारे श्वसुर और श्यालक कहीं मुझे गवाट में तो नहीं बन्द कर देंगे ? ”

“ नहीं भन्ते , जब मैं उनसे कहूंगा कि आप राजकुमार हैं और सम्राट से बात करके आ रहे हैं , तो वे आपको सिर पर उठा लेंगे। मेरा श्यालक मेरा प्रिय मित्र भी है । ”

“ तब तो बढ़िया भोजन की भी आशा करनी चाहिए ! ”

“ ओह, वे लोग सम्पन्न हैं , इसकी क्या चिन्ता! ”

“ तो मित्र, यही तय रहा, आज रात वहीं व्यतीत करेंगे ? ”

उत्सुकता और आनन्द के कारण तरुण कृषक कुमार का मुंह लाल हो गया । वह उत्साह से अपने टटू पर जमकर बैठ गया ।

जयराज साथी से बातें करते जाते थे, पर खतरे से असावधान न थे । वृक्षों के सघन कुञ्ज को देखकर उनके मन में सिहरन उत्पन्न होती, एक गहरे नाले और ऊंचेटीले को देख वे ठिठक गए । वे दिन - भर चलते ही रहे थे, सन्ध्या होने में अब विलम्ब न था । इसी समय पीछे से उन्होंने कुछ अश्वारोहियों के आने की आहट सुनी । वह एक सुनसान जंगल था । दाहिनी ओर एक टीला था उन्होंने पीछे मुड़कर देखा, उसी टीले के ऊपर तेरह अश्वारोही एक पंक्ति में खड़े हैं । वे उनसे कोई दस धनुष के अन्तर पर थे। इन दोनों को देखते ही तेरहों ने तीर की भांति अश्व फेंके। जयराज ने साथी से कहा - “ सावधान हो जा मित्र , शत्रु आ पहुंचे! ”इसी समय बाणों की एक बौछार उनके इधर -उधर होकर पड़ी । जयराज ने कहा - “ मित्र, साहस करना होगा , भागना व्यर्थ है , सामने समतल मैदान है और कोई आड़ भी नहीं है । हमारे अश्व थके हुए हैं , तू दाहिनी ओर को वक्रगति से टटू चला , जिससे शत्रु बाण लक्ष्य न कर सकें और अवसर पाते ही ससुराल के गांव में भाग जाना मेरे लिए रुकना नहीं। ”

“ किन्तु , भन्ते आप ? ” _ “ मेरी चिन्ता नहीं मित्र , तेरा श्वसुर - ग्राम निकट है, वहां से समय पर सहायता ला सके तो अच्छा है। ”

“ वृक्षों के उस झुरमुट के उस ओर ही वह ग्राम है; जीवित पहुंच सका, तो दो दण्ड में सहायता ला सकता हूं । मेरे दोनों श्यालक उत्तम योद्धा हैं । ”

इसी बीच बाणों की एक और बौछार आई। जयराज ने साथी को दाहिनी ओर वक्रगति से बढ़ने का आदेश दे स्वयं बाईं ओर को तिरछा अश्व चलाया । शत्रु और निकट आ गए। वे उन्हें घेरने के लिए फैल गए और निरन्तर बाण बरसाने लगे। जयराज ने एक बार साथी को खेतों में जाते देखा और स्वयं चक्राकार अश्व घुमाने लगा । शत्रु , अब एक धनुष के अन्तर से बाण बरसाने लगे। जयराज ने अश्व की बाग छोड़ दी और फिसलकर अश्व से नीचे आकर उसके पेट से चिपक गए । और अपना सिर घोड़े के वक्ष में छिपा लिया , तथा एक हाथ में खड्ग और दूसरे में कटार दृढ़ता से पकड़ ली ।

शत्रुओं ने साथी की परवाह न कर उन्हें घेर लिया । एक ने चिल्लाकर कहा - “ वह आहत हुआ , उसे बांध लो , जीवित बांध लो । परन्तु पहले देख , मर तो नहीं गया । ”

तीन अश्वारोही हाथ में खड्ग लिए उनके निकट आ गए । जयराज ने अब अपनी निश्चित मृत्यु समझ ली । परन्तु आत्मरक्षा के लिए तनिक भी नहीं हिले । वे उनके अत्यन्त निकट आ गए । जयराज ने एक के पाश्र्व में कटार घुसेड़ दी । दूसरे के कण्ठ में उनका खड्ग विद्युत्गति से घुस गया । दोनों गिरकर चिल्लाने लगे । तीसरा दूर हट गया । इसी समय अवसर पा जयराज ने फिर अश्व फेंका। शत्रु क्षण- भर के लिए स्तम्भित हो गए, पर दूसरे ही क्षण वे ‘ लेना - लेना करके उनके पीछे भागे ।

अन्धकार होने लगा । दूर वृक्षों के झुरमुट की ओट में सूर्य अस्त हो रहा था । जयराज ने एक बार उधर दृष्टि डाली । जब तक वे धनुषों पर बाण संधान करें , वह पलटकर दुर्धर्ष वेग से शत्रु पर टूट पड़े। दो को उन्होंने खड्ग से दो टूक कर डाला । एक ने आगे बढ़कर उनके मोढ़े पर करारा वार किया । अभयकुमार को पहचान कर जयराज आहत होने पर भी उस पर टूट पड़े। दो सैनिक पाश्र्व से झपटे , एक को उन्होंने बायें हाथ की कटार से आहत किया , दूसरा पैंतरा बदलकर पीछे हट गया । इसी समय जयराज ने अभयकुमार के सिर पर एक भरपूर हाथ खड्ग का मारा। वह मूर्छित होकर धड़ाम से धरती पर गिर गया ।

अब शत्रु सात थे। नायक के मूर्छित होने से वे घबरा गए थे, परन्तु जयराज भी अकेले तथा आहत थे। उनके मोढ़े से रक्त झर - झर बह रहा था । वे लड़ते - लड़ते ग्राम को लक्ष्य कर बढ़ने लगे। इसी समय अभयकुमार की मूर्छा भंग हुई , उसने चिल्लाकर कहा - “ मारो, उसे मार डालो , देखो, बचकर भागने न पाए । ”शत्रुओं ने फिर उन्हें घेर लिया । अब वे चौमुखा वार करके खड्ग चला रहे थे । पर क्षण - क्षण पर विपत्ति की आशंका थी । अवसर पा उन्होंने एक शत्रु को और धराशायी किया ।

इसी समय ग्राम की ओर से चार अश्वारोही अश्व फेंकते आते उन्होंने देखे। उन्हें देख जयराज उत्साहित हो खड्ग चलाने लगे । शत्रु घातक वार कर रहे थे। कृषक तरुण ने कहा - “ हम आ पहुंचे भन्ते राजकुमार! ”और साथियों को लेकर वह शत्रुओं पर टूट पड़ा । सब शत्रु काट डाले गए, अभयकुमार को बांध लिया गया । सब कोई ग्राम की ओर चले । इस समय रात एक दण्ड व्यतीत हो चुकी थी । ग्राम के निकट पहुंचकर जयराज ने कृषक युवक और उसके साथियों से कहा - “ मित्रो , आपने मेरे प्राणों की रक्षा की है, इसके लिए तुम्हारा आभार ले रहा हूं , परन्तु मुझे एक अच्छा अश्व दो । ”

“ यह क्या भन्ते ! क्या आप रात विश्राम नहीं करेंगे ?

“ नहीं मित्र , मुझे जाना होगा। इतना कह, उसे एक ओर ले जाकर स्वर्ण की एक भारी थैली उसके हाथ में रखकर कहा - “ मित्र , तू रात - भर यहां रहकर भोर होते ही वैशाली की राह पकड़ना और वैशाली के संथागार में पहुंचकर यह मुद्रा किसी भी प्रहरी को दे देना , वह तुझे मुझ तक पहुंचा देगा। ”

“ किन्तु आप आहत हैं भन्ते! ”

“ परन्तु मित्र , कार्य गुरुतर है । ”

“ तो मैं भी साथ हूं । ”

“ नहीं मित्र, रात्रि - भर ठहरकर प्रात: चलना, पर राह में अटकना नहीं, तेरे पास मेरी थाती है। ”

“ समझ गया भन्ते , किन्तु यह स्वर्ण ? ”

जयराज ने हंसकर कहा - “ संकोच न कर मित्र ! वधूटी का कोई आभूषण बनवाना, ला अश्व दे। ”

युवक ने ऊंची रास का अश्व श्यालक से दिला दिया । फिर उसने आंखों में आंसू भरकर कहा

“ तो भन्ते.... “

“ हां , मित्र मैं चला । ”

“ पर यह बन्दी ? ”

“ इसकी यत्न से रक्षा करना और राजगृह भेज देना , पाथेय और अश्व देकर । यह राजकुमार है। ”

“ ऐसा ही होगा भन्ते! ”

जयराज ने उसी अन्धकार में अश्व छोड़ दिया ।

135. चण्डभद्रिक : वैशाली की नगरवधू

प्रबल - प्रतापी मगध- सेनापति चण्डभद्रिक के शौर्य, तेज और समर - कौशल की गाथाएं उन दिनों सम्पूर्ण जम्बूद्वीप में गाई जाती थीं । उस युग में उनका जैसा धीर , वीर , तेजस्वी और दूरदर्शी सेनापति दूसरा भारत में न था । उन्होंने वैशाली के महत्त्व और सत्ता पर भली - भांति विचार करके भागीरथ प्रयत्न से मागधी सेना का सर्वथा नये ढंग पर संगठन किया था । चम्पा , कोसल और मथुरा - अवन्ती के अभियान में जो मागधी सेना को क्षय और हानि हो गई थी , वह उन्होंने सब बात की बात में पूरी कर ली थी और अब राजगृह के घर घर में वैशाली - अभियान की ही चर्चा थी । लोग अमात्य वर्षकार के असाधारण निष्कासन को भी इस तरह भूल गए थे ।

एक दिन सम्राट और सेनापति ने अतिगोपनीय मंत्रणा की ।

सम्राट ने कहा - “ आर्य भद्रिक , यदि शिशुनाग -वंश के मस्तक पर चक्रवर्ती- छत्र नहीं आरोपित हुआ , तो इस वंश में बिम्बसार का जन्म लेना ही व्यर्थ हुआ और आपका मगध सेनानायक होना भी । ”

सेनापति ने हंसकर कहा -“ सो तो है देव , देखिए पृथ्वी पर हिमालय से दक्षिण समुद्र पर्यन्त अर्थात् उत्तर दक्षिण में हिमालय और समुद्र के बीच का , तथा एक सहस्र योजन तिरछा, अर्थात् पूर्व पश्चिम की ओर एक सहस्र योजन विस्तारवाला , पूर्व- पश्चिम - समुद्र की सीमा से भक्त देश चक्रवर्ती क्षेत्र कहाता है । इस चक्रवर्ती क्षेत्र में अरण्य , ग्राम्य , पार्वत , औदक , भौम , सम विषम जो भूभाग हैं उनका निरूपण इस मानचित्र में देखिए; और विचार कीजिए कि अब करणीय क्या है। प्रथम उत्तर - दक्षिण प्रदेश पर दृष्टि डालिए । अमात्य ने देव की अभिलाषा को चरितार्थ करने की ही यह योजना बनाई थी , कि दक्षिण समुद्र को मगध साम्राज्य यदि स्पर्श करे , तो उसे सर्वप्रथम चण्ड प्रद्योत , अवन्ति नरेश और उसके मित्र मथुरापति अवन्तिवर्मन का पराभव करना चाहिए । रोरुक सौवीर पर भी अधिकार होना चाहिए । परन्तु देव का आग्रह वैशाली - अभियान पर ही है और अमात्य विनियोजित हैं , तब अभी वैशाली से ही निबट लिया जाए , परन्तु देव से एक निवेदन करूंगा। यदि वैशाली के गणतन्त्र को छिन्न- भिन्न करना है, तो उसके संगी - साथी मल्ल - शाक्य, कासी - कोलिय और दूसरे गणसंघों के गुट्ट को भी आमूल तोड़- फोड़ देना होगा तथा मगध - राजधानी राजगृह से हटाकर या तो वैशाली ही को चक्रवर्ती- क्षेत्र का केन्द्र बनाना होगा , या फिर पाटलिग्राम को मागध राजधानी बनने का सौभाग्य प्रदान करना होगा। बिना ऐसा किए इन केन्द्रस्थ गणगुट्टों को हम तोड़ - फोड़कर आमूल नष्ट नहीं कर सकते क्योंकि इसके लिए मात्र सामरिक चेतना ही यथेष्ट नहीं है । वहां के जनपद की मनोवृत्ति बदलने की भी बात है; क्योंकि आर्यों की भांति वहां भी छिद्र मुख्य हैं । छिद्र यह कि इन गणराज्यों में गणप्रतिनिधि लिच्छवि , मल्ल शाक्य सभी ने यह नियम बनाया है, कि राज्य की सारी व्यवस्था अपने हाथ में रखी है । इनके राज्यों में आर्यों को कोई अधिकार ही नहीं है । इससे ब्राह्मण , विश और सेट्ठि सभी जन उनसे उदासीन हैं । विग्रह छिड़ने पर गणों को , जहां युद्ध में उलझना पड़ेगा , वहां इनकी रक्षा का भार भी ढोना होगा और वे लोग युद्ध में कुछ भी सहायता अपने गण की नहीं करेंगे। ”

“ तो यह छिद्र साधारण नहीं आर्य सेनापति , इसी से हम विजयी होंगे। ”

“ परन्तु सेना से नहीं, संस्कृति से । इसीलिए हमें उन्हीं के बीच या तो वैशाली में , नहीं तो फिर उनके निकट पाटलिपुत्र में राजधानी बनाकर रहना होगा । ”

“ तो ऐसा ही होगा सेनापति , परन्तु अभी हम दक्षिण समुद्र - तट नहीं छू सकते , यह मैं भी देख रहा हूं परन्तु मागधों को अवन्ति पर अभियान करना होगा , इधर चम्पा -विजय होने से पूर्वीय समुद्र - तट हमारा हो गया । यदि इसी के साथ हमारा कोसल का अभियान सफल होता , तो उत्तर गान्धार तक फिर कोई बाधा न थी । मेरे जीवन ही में मेरा स्वप्न पूर्ण हो जाता , परन्तु अब कदाचित् हमें दूसरी पीढ़ी तक प्रतीक्षा करनी होगी । विदूडभ दासीपुत्र कठिन हाथों से कोसल की व्यवस्था कर रहा है, यद्यपि वह प्रकट में आयुष्मान् सोमप्रभ से अति उपकृत है। ”

“ सो तो है ही देव , परन्तु हम राजनीति में प्रथम ही से कोई कल्पना नहीं कर सकते , परिस्थितियां क्षण- क्षण पर बदलती रहती हैं । इसलिए अभी हमें अपना ध्यान केवल वैशाली पर ही केन्द्रित करना चाहिए , जहां अमात्य आत्मयज्ञ कर रहे हैं और सोम कूटयुद्ध । फिर हमारे सोनगंगा और बागमती - तट के नये - पुराने दुर्ग हैं , जो सब भांति सज्जित हैं । इसके अतिरिक्त हमारी समर्थ जल - सैन्य है, जिसके सम्बन्ध में देव को सब कुछ विदित कर दिया गया है । ”

“ तो ऐसा ही हो , आर्यसेनापति , आपने किस प्रकार सैन्य -व्यवस्था की है ? ”

“ इस समय हमारे पास कुल एक अक्षौहिणी सैन्य सन्नद्ध है। इसे मैंने पांच भागों में विभक्त किया है। एक मौल बल मूलस्थान , अर्थात् राजधानी की रक्षा करने के लिए; इसका भार आचार्य शाम्बव्य पर है । इस सेना का कार्य केवल राजधानी की रक्षा ही नहीं , क्षय और व्यय की पूर्ति करना भी है । इस सेना में अधिक विश्वस्त अनुभवी और योग्य व्यक्तियों को आचार्य की अधीनता में रखा गया है, जिससे पीछे शत्रु भेद न डाल दे। अन्न , रसद, शस्त्रास्त्र और नये - नये भट निरन्तर मोर्चे पर भेजते रहने की सारी व्यवस्था यही सेना करेगी। आवश्यकता होने पर सम्मख -युद्ध भी कर सकेगी।...

“ दूसरी सेना भूतक बल है। इसमें वे ही योद्धा हैं जो केवल वेतन लेकर युद्ध करते हैं । शत्रु के पास भूतकबल बहुत कम है और अभी हमें भिन्न शक्तियों से प्राप्त सहायता मिलने में विलम्ब भी है, अत : यही सैन्य कठिन मोर्चों पर आगे बढ़कर कार्य करेगी । इसी सेना को शत्रु के यातायात - अवरोध पर भी लगाया जाएगा ।...

“ तीसरी श्रेणीबल है, जो जनपद में अपना - अपना कार्य करनेवाले शस्त्रास्त्र प्रयोग में निपुण पुरुषों की तैयार की गई है। शत्रु के पास श्रेणीबल यथेष्ट है । शत्रु से मन्त्र -युद्ध भी होगा और प्रकाश -युद्ध भी । ऐसी अवस्था में श्रेणीबल से हमें बड़ी सहायता प्राप्त होगी। ”

“ चौथा ‘मित्रबल है । मित्रबल हमारे पास बहुत है । सत्ताईस मित्र- राज्यों से हमें मित्रबल प्राप्त होगा । हम उसे मूलस्थान की रक्षा में भी लगा सकते हैं और शत्रु के साथ युद्ध करने भी ले जा सकते हैं । हमें बहुत कम यात्रा करनी है। वैशाली में अब तूष्णी युद्ध के स्थान पर व्यायाम युद्ध ही मुख्यतया होगा , इसलिए शत्रु की मित्र सेना या आटविक सेना को , जो कि उसके नगर में आकर ठहरी हुई होगी , पहले अपनी मित्र - सेना के साथ लड़ाकर , फिर अपनी सेना के साथ लड़ाऊंगा।....

“ इसके अतिरिक्त देव , हमारे पास विजित शत्र - सैन्य भी हैं । पहले मैं इसी को शत्र से भिड़ाऊंगा। दोनों में से जिस भी सैन्य का विनाश होगा , हमारा लाभ - ही - लाभ है । जैसे कुत्ते और सूअर के परस्पर लड़ने से दोनों में से किसी भी एक के मर जाने पर चाण्डाल का लाभ होता है, उसी प्रकार, देव ! ”

इतना कहकर मागध महाबलाधिकृत भद्रिक हंस दिए । सम्राट भी हंस पड़े । उन्होंने कहा - “ यह तो ठीक है आर्य सेनापति , परन्तु हमारी आटविक सैन्य की व्यवस्था सर्वोत्तम होनी चाहिए। ”

“ निस्सन्देह देव , मेरे चर भिन्न -भिन्न रूप में शत्रु- भूमि में फैले हुए वहां का राई रत्ती मानचित्र तैयार करने में जुटे हैं । वन , वीथी, उपत्यका नद, ह्रद , शृंग जहां जो हैं , उसका ठीक -ठीक चित्रण कर रहे हैं । कहां - कहां किन -किन युद्धोपयोगी वस्तुओं एवं व्यवहार्य पदार्थों का चय , उत्पादन , गोपन है, देख -भाल रहे हैं । ज्यों - ज्यों उनसे सूचनाएं मिलती जा रही हैं , हमारी आटविक सेना शिक्षित , अभिज्ञात होती जा रही है । वह भलीभांति सब मार्गों को जान गई है, उत्तम निर्धान्त पथ - प्रदर्शकों , सूत्रकों का सहयोग उसे प्राप्त है। शत्रु - भूमि में छद्म - युद्ध , पलायन - युद्ध और सम -युद्ध करने की उसे पूरी शिक्षा दी गई है । वह सब भांति आयुधों से सुसज्जित है। जैसे एक बिल्वफल दूसरे बिल्वफल के द्वारा टकराकर फोड़ दिया जाता है , उसी भांति हम आटविक बल को ले युद्ध प्रारम्भ कर देंगे और शत्रु के तृण , काष्ठ आदि छोटे- छोटे पदार्थों तक को उस तक न पहुंचने देंगे । बीच ही में नष्ट कर डालेंगे। ”

“ सुनकर सन्तुष्ट हुआ , आर्य सेनापति , और भी कुछ ज्ञातव्य है ? ”

“ हां देव , हमने औत्सुक्य सैन्य का भी संगठन किया है । यह एकनेता - रहित सेना है । इसमें भिन्न -भिन्न देशों के रहने वाले जन हैं । इसका काम शत्रु के देश में केवल लूटमार करना है । इसमें भरती होने के लिए किसी आज्ञा या अनुशासन की आवश्यकता नहीं है । नगर जनपद को लूटना , आग लगाना , खेतों और बाग - बगीचों को नष्ट करना, मार्गों और यातायात- साधनों को भंग करना तथा शत्रु के सम्पूर्ण राज्य में अव्यवस्था फैलाना ही इस सेना का कार्य होगा । इसके हमने दो भाग किए हैं - एक भेद्य , दूसरा अभेद्य । प्रतिदिन भत्ता लेकर अथवा मासिक हिरण्य नियमित वेतन के रूप में लेकर शत्रु- देश में लूटमार मचानेवाला भेद्य है । परन्तु दूसरी औत्साहिक सैन्य में विश्वस्त मागधजन ही हैं । यह अधिक सुगठित और सुसम्पन्न है। इस प्रकार देव , हमने यह सात प्रकार का बल सुसंगठित किया

“ साधु सेनापति , साधु ! अब क्षय, व्यय तथा लाभ पर भी विचार करना आवश्यक

“ अवश्य देव , मेरी रणनीति यह है कि क्षय और व्यय की दृष्टि से जिस काल में अत्यधिक गुणयुक्त लाभ की सम्भावना हो तभी आक्रमण किया जाए । अर्थों का ही अर्थों से सम्बन्ध है देव , हाथी ही से हाथी पकड़ा जा सकता है। ”

“ सत्य है, आर्य सेनापति , तो अब सेना के कूच की आज्ञा होनी चाहिए। ”

“ अच्छा देव , हम तो तैयार ही हैं ।

136 . दूसरी मोहन – मन्त्रणा : वैशाली की नगरवधू

महाबलाधिकृत सुमन के अधिकरण में मोहन - गृह में वज्जीगण की समर मन्त्रणा हुई । सन्धिवैग्राहिक जयराज ने अपना विवरण सुनाते हुए कहा - “ यद्यपि यह सत्य है कि मगध- सम्राट के पास उत्तम सेनापति और अच्छे सैनिक नही हैं , तथा उसकी सेना में बहुत छिद्र हैं , फिर भी आर्य वर्षकार का तूष्णी युद्ध और आर्य चण्डभद्रिक की व्यूह - योजना अद्वितीय है। हम यदि तनिक भी असावधान हुए तो हमारा पतन निश्चित है और हमारे साथ उत्तरपूर्वीय भारत के सब गणराज्य नष्ट हो जाएंगे। यह स्पष्ट है कि मगध- सम्राट् की सम्पूर्ण शक्ति इन दोनों ब्राह्मणों के हाथ में है और यही मागध राज्यसत्ता को साम्राज्य के रूप में संगठित कर रहे हैं , जो आर्यों की पुरानी कुत्सित राजव्यवस्था है। आर्यों के साम्राज्य इसलिए सफल हुए , कि उनमें आर्यों के शीर्ष स्थानीय क्षत्रिय और ब्राह्मण एकीभूत हो गए थे और निरीह प्रजावर्गीय संकर जातियों का कोई आश्रय ही न था ; परन्तु अब वह बात नहीं है । शिशुनाग वंश आर्य नहीं है । वह अपने ही स्वर्गीय जनों पर सम्राट् होकर रह नहीं सकते । ये आर्य ब्राह्मण, जो उस मूर्ख राजा की आड़ में आर्यों के ढांचे पर साम्राज्य गांठ रहे हैं वह अन्तत: विफल होगा । परन्तु अभी वह यदि वैशाली को आक्रान्त करता है और उधर प्रद्योत का भी पतन हो जाता है, तो हमारी सम्पूर्ण गणभावना नष्ट हो जाएगी और सम्पूर्ण जनपद फिर आर्यों के दासत्व में फंस जाएगा अथवा साम्राज्यवाद के मद में अन्धे बिम्बसार जैसे जातिघातक ही उनके अधिपति बन बैठेंगे! ”

“ यह अत्यन्त भयानक बात होगी आयुष्मान्, सम्पूर्ण जनपद के मानवीय अधिकारों की रक्षा के लिए हमें लड़ना और जय पाना होगा । ”सेनाधिनायक सुमन ने कहा।

“ किन्तु सेनापति , यदि सत्य देखा जाए, तो हम गणराज्यों के विधाता भी तो ठीक-ठीक जनपद मानवीय अधिकारों का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे! हमने भी तो अपने गणराज्यों की राज्य-व्यवस्था में आर्यों का बहिष्कार कर रखा है ! ”सिंह ने गम्भीरतापूर्वक कहा ।

“ यह है, परन्तु इसके गम्भीर कारण हैं , तथा इस समय हमें केवल मूल विषय पर विचार करना है, आयुष्मान् ! अब हमें यह जान लेना चाहिए कि हमारे भय के दो मध्य बिन्दु हैं - एक ब्राह्मण वर्षकार और दूसरे आर्य चण्डभद्रिक। ”

“ एक तीसरा भय और है। ”

“ वह कौन ? ”

“ सेनापति सोमप्रभ । वह एक मागध तरुण है, जिसके स्थैर्य , रणापांडित्य और विलक्षण प्रतिभा पर तक्षशिला के आचार्य और छात्र दोनों ही स्पर्धा करते रहे हैं । सम्भवत : वह मागध ही तरुण मागध - सेना का संचालन करेगा। ”जयराज ने कहा।

“ यह तरुण कौन है भद्र ? ”

“ उसका परिचय रहस्यपूर्ण है, सम्भवत : एक ही व्यक्ति उसका परिचय जानता है , पर उसने होंठ सी रखे हैं ।

“ कौन व्यक्ति ? ”

“ आर्या मातंगी। ”

“ यह तो बड़ी अद्भुत बात है। तब फिर सम्राट् ने इस अज्ञात -कुलशील को इतना भारी दायित्व कैसे दे रखा है ? ”

“ चम्पा- युद्ध में उसने असाधारण रण - पाण्डित्य प्रदर्शन करके आर्य भद्रिक की प्रतिष्ठा बचाई थी । ”

“ तो क्या सम्राट् ने उसे सेनापति अभिषिक्त किया है ? ”

“ नहीं , मगध- सेनापति चण्डभद्रिक ही है । ”

“ भद्रिक के शौर्य से मैं अविदित नहीं हूं । भद्रिक मेरा सह - सखा है, मैं उसके सम्मुख असहाय हूं , वह महाप्राण पुरुष हैं , फिर भद्र, तू ऐसा क्यों कहता है कि श्रेणिक के पास अच्छे सेनापति नहीं हैं ? ”सेनापति सुमन ने कहा।

“ भन्ते सेनापति, आर्य भद्रिक की निष्ठा निस्सन्देह ऐसी ही है , परन्तु मगध में उनकी - सी चली होती , तो मगध - सेना अजेय होती। परन्तु सम्राट् सदैव उन पर सशंक रहते हैं । वे समझते हैं कि कहीं चण्डभद्रिक उन्हें मारकर सम्राट न हो जाएं । जैसे अवन्ती - अमात्य ने राजा को मारकर अपने पुत्र प्रद्योत को राजा बना दिया ।

“ यही सत्य है आयुष्मान् ! मैंने उसका कौशल देखा है। परन्तु आयुष्मान् सोमप्रभ कहां है ? कुछ ज्ञात हुआ ? ”

“ मगध में तो यही सुना है कि वह देश-विदेश में घूमकर ज्ञानार्जन कर रहा है। ”

“ मगध में जो सब कहते हैं वह तो सुना , परन्तु सन्धिवैग्राहिक जयराज क्या कहते हैं ? ”

जयराज हंस दिए। उन्होंने धीरे-से कहा - “ जयराज कहता है, वह सशरीर , सदलबल वैशाली में उपस्थित है। ”

जयराज की बात सुनकर सब अवाक् होकर उनका मुंह ताकने लगे। सेनापति ने कहा

“ यह क्या कहता है आयुष्मान् ?

सिंह ने उत्तेजित होकर कहा - “ ऐसा प्रबल शत्रु दल - बल - सहित वैशाली में उपस्थित है, और हमें इसका ज्ञान ही नहीं है! ”

“ ज्ञान न होता तो कहता कैसे ? ”

“ वह है कहां ? ”

“ मधुवन की उपत्यका में , ” कुछ रुककर उसने कहा-“ दस्यु बलभद्र ही सोमप्रभ है। ”

क्षण - भर के लिए सब स्तब्ध बैठे रहे । स्वर्णसेन विचलित हो गए । सिंह ने कहा- “ ठीक है, मैंने भी सन्देह किया था । अच्छा , उसके पास सैन्य कितनी है ? ”

“ पचास सहस्र , कुछ अधिक ही । इनमें दस सहस्र उत्कृष्ट अश्वारोही हैं । वे सब टुकड़ी बांधकर दस्यु -वेश में सम्पूर्ण जनपद में फैले हुए हैं । दिन -भर वे पर्वत -कन्दराओं में छिपे रहते हैं और रात्रि को आक्रमण करते हैं । ये सब मंजे हुए योद्धा हैं , उनमें कुछ राजमार्ग पर आते - जाते राजस्व , अन्न और दूसरी युद्धोपयोगी वस्तुओं को लूट लेते हैं । कुछ किसानों में मिल उन्हें बलि न देने और विद्रोह करने को उकसाते हैं । कुछ नगरों, वीथियों, गुल्मों पर छापा मारकर लूटपाट करते हैं ।

“ इतना ? ”

“ और भी भन्ते सेनापति , उसने मरुस्थल में धान्वन दुर्ग बनाए हैं , जंगलों में वन दुर्ग और झाड़ियों से भरे घने - गहन वनों में संकट - दुर्ग बना लिए हैं ; जहां दलदल हैं वहां ‘पंक बनाए हैं और पर्वतों पर शैल । पर्वतों की उपत्यकाओं में निम्न और विषम तथा गौओं और शकटों के चल - दुर्ग बनाए हैं । ये सब ‘ सत्र हैं और शत्रु के छिपकर घात करने के साधन हैं । इन सबको यथावत् निर्माण कर शत्रु कूटयुद्ध कर रहा है । वह बहुत धन - जन की हानि कर चुका है । ”

“ तो इधर ब्राह्मण का तूष्णी -युद्ध और उधर आयुष्मान् सोमप्रभ का कूटयुद्ध । तो अब श्रेणिक बिम्बसार के प्रकट -युद्ध के कैसे समाचार हैं ? ”

“ कहता हूं भन्ते सेनापति , प्रथम तो यह कि उसने सोन, गंगा और बागमती के तट के सब दुर्गों की मरम्मत करा ली है तथा सोलह नये दुर्गनिर्माण किए हैं । इन दुर्गों में साल के मोटे खम्भों के तिहरे प्राकार हैं । प्रत्येक दुर्ग में तीन से सात सहस्र तक शिक्षित भट , पादातिक, अश्वारोही, रथी और गजारोही हैं । अन्न , जल और अन्य सामग्री इतनी संचित है कि दुर्गवासी आवश्यकता होने पर एक वर्ष तक उससे काम चला सकते हैं । ”

यह विवरण सुनकर सेनाध्यक्ष ने कहा -“ इस अवस्था को देखते तो भद्रिक की जितनी प्रशंसा की जाय , थोड़ी है । ”

सिंह ने कहा - “ हुआ, आगे कहो! ”

जयराज ने कहा - “ उसने एक सुव्यवस्थित नौसेना भी तैयार कर ली है। इसमें बीस सहस्र नौकाएं हैं , जो तीन प्रकार की हैं : एक दीर्घा, जिनकी लम्बाई साठ हाथ और चौड़ाई चालीस हाथ है । ये हाथियों और अश्वों एवं रथों को स्थानान्तरित करती हैं । इनमें से प्रत्येक में सोलह नाविक और पचास धनुर्धर बैठ सकते हैं । दूसरी चपला , जो शीघ्र चलनेवाली , हल्की परन्तु अच्छी सुदृढ़ हैं । इनमें 8 नाविक और 20 धनु - खड्ग - शूलधारी बैठ सकते हैं । आर्य भद्रिक की योजना यह है कि विजय का पूरा दायित्व नौवाहिनी पर ही केन्द्रित रहे । सम्राट का कोष निस्सन्देह रिक्त था , पर सम्राट ने उसे परिपूर्ण कर लिया है। अनेक श्रेष्ठियों ने उसे भर दिया है। उनके शस्त्र और सैन्य भी हमसे अधिक तथा उत्तम हैं , अथच हमारी तैयारियों का उसे यथेष्ट ज्ञान है। इसमें जो उसके गुप्तचर श्रमण ब्राह्मणों के रूप में बिखरे हुए हैं , उसकी बहुत सहायता कर रहे हैं । अंग को विजय कर लेने पर वहां के कूट - दन्त जैसे बड़े- बड़े महाशाल ब्राह्मणों को उसने सम्मान और जागीर देकर अपने पक्ष में कर लिया है और भद्दिय के मेंढक सेट्ठी की भांति चम्पा के सम्पूर्ण वणिक भी श्रेणिक बिम्बसार का यशोगान करते हैं ; उन्होंने उसे सत्रह कोटि - भार सुवर्ण दिया है। आर्य भद्रिक ने वहां जो व्यवस्था की है, उससे सभी चम्पावासी प्रसन्न हैं । उधर उसने अपने को श्रमण गौतम का अनुयायी प्रसिद्ध कर दिया है। गत बार जब श्रमण गौतम राजगृह गए , तो वह निरभिमान हो बारह लाख मगध-निवासी ब्राह्मणों और गृहस्थों तथा अस्सी सहस्र गांवों के मुखियों को लेकर गृध्रकूट पर पहुंचा। वहां से गौतम को अपने राजोद्यान वेणुवन में ले आया और वह उद्यान उसने गौतम को भेंट कर दिया ।

“ बिम्बसार इस प्रकार अपने को बड़ा धार्मिक, श्रद्धालु और निरभिमान प्रकट करके प्रशंसा का पात्र हो रहा है। इन सब कारणों से हम कह सकते हैं , कि आज मगध सम्राट् युद्ध करने के लिए सर्वापेक्षा अधिक सक्षम है । ”

जयराज इतना कहकर चुप हुए । फिर उन्होंने कहा - “ उनकी कुछ सन्धियां भी हैं . जिनसे हम लाभ उठा सकते हैं । इनमें सबसे अधिक यह कि हममें से प्रत्येक लड़ेगा अपने संघ की स्वतंत्रता के लिए, परन्तु मागधी सेना के सब सैनिक आर्य रज्जुलों के सैनिक की भांति नौकरी के लिए लड़ते हैं ।

“ यह सत्य है कि सम्राट ने चम्पा से प्राप्त राज - कोष एवं चम्पा के सेट्ठियों से प्राप्त सत्रह कोटि - भार सुवर्ण प्राप्त करके अपना कोष परिपूर्ण कर लिया है। उसे अंग की लूट - मार का माल भी बहुत मिला है। उसकी सेना भी हमसे अधिक है, परन्तु उसकी बहुत - सी सेना उसके बिखरे हुए तथा अरक्षित साम्राज्य की सीमाओं पर फैली हुई है । अभी अंग की आग भी दबी नहीं है । वहां भी उसकी बहुत - सी सेना फंसी हुई है । उधर अवन्ती और मथुरा का भय सर्वथा निर्मूल नहीं हुआ है और सबसे अधिक यह कि मगध का प्राण वर्षकार हमारे हाथों में है। उसकी प्रत्येक चाल और गतिविधि से परिचित होना चाहिए। हमारी सेना के लिच्छवि सैनिक भी यह समझते हैं कि गण- शासन उनका अपना सुख - स्वातन्त्र्य से भरपूर शासन है; यहां उनसे न तो मनमाना कर लिया जाता है, न उनकी सुन्दरी कन्याएं बलपूर्वक हरण करके महल में डाल दी जाती हैं । न उनके अच्छे रथ और उनके घोड़े छीने जाते हैं । वज्जी ब्राह्मण - जेट्ठों और गृहपति -निगमों से हमें स्वेच्छा से सहयोग मिलने की आशा है। ”

सब विवरण सुनकर सेनापति सिंह ने कहा - “ मित्र जयराज ने जो कुछ वक्तव्य दिया , वह आपने सुना। अब मैं आपको अपनी सेना की स्थिति बताता हूं । हमने मागधों के नदी-तीर के प्रत्येक दुर्ग के सम्मुख दो - दो दुर्ग तैयार किए हैं । मिही- तट पर तो हमने दुर्गों का तांता ही बांध दिया है । मिही के उस पार की भूमि मल्लों की है, वे हमारे मित्र हैं , अत : वहां हम मिही के उस पार उतर सकते हैं ; आप देख चुके हैं कि मिही की धारा बहुत तीव्र है । इसलिए नीचे से ऊपर आने में नौकाओं को बहुत मन्द चाल से जाना पड़ता है । अत : शत्रु हमारे इन दुर्गों पर आक्रमण करने का साहस नहीं कर सकता । इसलिए हम यहां अपनी रक्षित सैन्य और शस्त्रास्त्र संचित कर सकते हैं ।...

“ दूसरी बात यह है कि इधर तो मल्लों की इस तट - भूमि को मागध अपने उपयोग में नहीं ला सकते और बहाव की ओर मिही के मार्ग से हमारी सैनिक नौकाएं तीर की भांति शत्रु पर टूट पड़ सकती हैं । इस समय हमारे पास दो सहस्र से अधिक सैनिक नौकाएं हैं , जिन पर पचास सहस्र भट डटकर युद्ध कर सकते हैं । आगामी दो मासों में हम और भी दो सौ रणतरी बना लेंगे। उधर मगध को वज्जी पर आक्रमण करने के लिए बड़ी - बड़ी नदियों को पार करना पड़ेगा । उनकी गतिविधि को रोकने के लिए हमें नौकाओं की अत्यन्त आवश्यकता होगी । वास्तव में सत्य यही है कि इस युद्ध में हम नौकाओं द्वारा ही विजयी हो सकते हैं । इस सम्बन्ध में हमें एक यह सुविधा है कि मगधों की अपेक्षा हमारे पास मल्लाहों के कुल अधिक हैं । बेगार और असुविधाओं के कारण तथा वज्जीतन्त्र में स्वतंत्रता , भूमि तथा अन्य सुविधा पाने से मगध के बहुत मल्लाह - कुल वज्जी में आ बसे हैं ; यह आप जानते हैं कि हमारे मल्लाह दास नहीं हैं , वे सुखी , सम्पन्न और हमारे गण के सहायक हैं । उनके जेटकों ने स्वेच्छा से ही अपनी सेवाएं हमें समर्पित की हैं । हमारे गान्धार मित्र काप्यक की सम्मति से हमने एक विशेष प्रकार की हल्की रणतरी बनाई है , जिनका कौशल गुप्त रखा गया है । ये हमें नौ -युद्ध में अति महत्त्वपूर्ण सहायता देंगी। हाथियों, रथों व अश्वों को पार कराने के लिए विशाल नौकाएं तथा उत्तम घाट बना लिए हैं ।...

“ अब यदि हम दक्षिण और पूर्वी सीमा पर दृष्टि देते हैं , तो हमारी पदाति सेना लगभग मगध सेना के समान ही संगठित एवं संख्या में बराबर है तथा उनकी शिक्षा आधुनिक गान्धार - पद्धति पर की गई है । अश्व , रथ , गज , हमारे पास मागधों से कम अवश्य हैं , परन्तु अवन्ती और मथुरा में बहुत - सी मागधी अश्वारोही तथा गजसेना वहां फंसी है । समय पर उसकी सहायता सम्भव नहीं है, फिर हमारे पास नौ मल्लगण और अठारह कासी - कोल के गणराज्यों का अक्षुण बल है। सब मिलाकर हम पौने दो अक्षौहिणी सेना समर में भेजने की आशा करते हैं । ”

अब नौबलाध्यक्ष स्यमन्तक ने कहा - “ मित्र ! सिंह ने जो अपना बल - परिचय दिया है, उसके सम्बन्ध में मैं केवल यही कहना चाहता हूं कि मेरी दृष्टि में हम मागधों से अधिक सुगठित हैं । हमें यह जान लेना चाहिए कि दक्षिण का युद्ध ही निर्णायक युद्ध होगा और मैं अपने मित्र काप्यक और उसके गान्धार वीरों की सहायता से , जिनकी हम प्रतीक्षा कर रहे हैं , बहुत आशान्वित हूं। मैं कह सकता हूं कि हमें मिही तटवर्ती दुर्ग और रणतरियां ही सफलता प्रदान करेंगी । मागध सब बातों का प्रत्युत्तर रखता है पर हमारी उन दो सहस्र रणतरियों का उसके पास कोई प्रत्युत्तर नहीं है। ”

काप्यक ने कहा - “ भन्ते , सेनापति और मित्रगण यह जानकर प्रसन्न होंगे कि मुझे समाचार मिला है कि गान्धार से जो वैद्यों और भटों का दल चला है, वह दो ही चार दिन में यहां पहुंचनेवाला है । यहां मैं नौका- युद्ध का एक रहस्य निवेदन करता हूं जिसे मैंने भलीभांति निरीक्षण किया है । मिही नदी दिधिवारा के पास गंगा में मिलती है , किन्तु सेना उससे बहुत नीचे पाटलिग्राम के सामने है । इससे मागधों को तो हम भरपूर हानि पहुंचा सकते हैं पर वे हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते । ”

इस पर सेनापति सिंह ने कहा - “ तो भन्ते सेनापति , मैं प्रस्ताव करता हूं कि हम अब तैयार हैं और हमें मागधों के आक्रमण की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए, तथा अवसर पाते ही प्रथम आक्रमण कर देना चाहिए। पहले आक्रमण के लिए तट की सेनाओं, नौकाओं और हाथियों को पहले तथा रथों , अश्वों और पदातिकों को बाद में प्रयुक्त करना चाहिए और मिही की रक्षित सेना को उस समय , जब शत्रु थक जाए ।

इस पर महाबलाध्यक्ष सुमन ने कहा - “ तो आयुष्मान्, ऐसा ही हो । तू सैन्य को तैयार रख और अवसर पाते ही आक्रमण कर ; मैं अमात्य वर्षकार और उनके सहायकों को बन्दी करने की आज्ञा प्रचारित करता हूं । ”

137. युद्ध विभीषिका : वैशाली की नगरवधू

वैशाली में आतंक छा गया । मगध - महामात्य ब्राह्मण वर्षकार और ब्राह्मण सोमिल , अनुचर, कलत्र और बटुकवर्ग- सहित बन्दी कर लिए गए। नन्दन साहु, सेट्ठि कृतपुण्य भी बन्दी हो गए ! उनका घर - द्वार सभी राजसैनिकों ने अपने अधीन कर लिया । सेट्टिपुत्र पुण्डरीक को आचार्य गौड़पाद के दायित्व पर उन्हीं के घर में दृष्टिबन्धक कर लिया गया । नगर के घाट- द्वार, राजमार्ग सभी बन्द कर दिए गए । बाहर जाने - आने के लिए सैनिक आज्ञापत्र लेना अनिवार्य हो गया । अन्तरायण के सब खाद्य - भण्डारों पर सैनिक अधिकार हो गया । विदेशियों की बारीकी से छानबीन होने लगी । बहुत जन संदिग्ध पाए जाकर बन्दी बना लिए गए । जलाशय , कूप , राजमार्ग, वीथी , दुर्ग , द्वार , तोरण स्तम्भ , बुर्ज - सभी पर सैनिकों का अनवरत पहरा बैठा दिया गया । सब स्वस्थ , वयस्क पुरुष अनिवार्य रूप में सैनिक बना दिए गए । संपूर्ण गृह और व्यवहार - उद्योग युद्धोद्योगों में परिणत हो गए । शस्त्रास्त्र और कवच एवं विविध युद्ध - साधनों का रात -दिन निर्माण होने लगा। लिच्छवि तरुणियां भी सेवा- सेना में भरती होकर शुश्रूषोपचार की शिक्षा पाने लगीं । सेना को शस्त्र बांट दिए गए । उनकी टुकड़ियां नगर के भीतर - बाहर चलती -फिरती दृष्टि पड़ने लगीं। सारे नगर में सैनिक अनुशासन की व्यवस्था कर दी गई । आज्ञा - उल्लंघन के लिए मृत्यु - दण्ड घोषित कर दिया गया । वैशाली के मनमौजी और स्वभाव ही से हंसोड़ लिच्छवियों के मुखों पर हास्य -विनोद के स्थान पर चिन्ता , व्यग्रता और उद्वेग दीख पड़ने लगे। तरुण भट अपने अपने शस्त्र चमकाते , अश्व कुदाते , बढ़- बढ़कर बातें बघारते इधर -उधर घूमते दीख पड़ने लगे ।

बहुत लोग बहुत भांति की बातें करते । कोई दस्यु बलभद्र की अद्भुत सर्वत्र गमन की शक्ति सत्ता को खूब बढ़ा - चढ़ाकर कहता , कोई मगध सम्राट की कामुकता , वीरता तथा साम्राज्यलिप्सा की आलोचना करता । बहत जन इस युद्ध का सम्बन्ध अम्बपाली से जोड़ते ।

अम्बपाली के आवास की आभा भी फीकी पड़ गई। सैनिक नियमों के आधार पर उसके आवास में सार्वजनिक प्रवेश निषिद्ध कर दिया गया । अम्बपाली के आवास को विशेष रीति पर सैनिक निरीक्षण और संरक्षण में रख दिया गया । राजकोष , महत्त्वपूर्ण लेख और बहुमूल्य सामग्री भूमिगर्भ -स्थित भूगृहों में रख दी गई ।

वैशाली के सब आबाल- वृद्ध विचलित , व्यग्र और आशंकित हो उठे । युद्ध की विभीषिका ने उन्हें विमूढ़ कर दिया ।

138. मागध स्कन्धावार -निवेश : वैशाली की नगरवधू

वास्तुशिल्पियों ने वार्धकिजनों के सहयोग से मौहूर्तिकों से अनुशासित हो , आर्य भद्रिक के आदेश और विकल्प से पाटलिग्राम के पूर्वी स्कन्ध पर, गंगा और मिही-संगम के ठीक सम्मुख तट से तनिक हटकर , लम्बे परिमाण में गोलाकार मागध स्कन्धावार-निवेश स्थापित किया । उसमें चार द्वार, छ : मार्ग, नौ संस्थान बनाए गए। स्कन्धावार चिरस्थाई था , इस विचार से खाई, परकोटा और कुछ अटारियां भी बनाई गईं तथा एक मुख्य द्वार का निर्माण भी किया गया ।

स्कन्धावार के मध्य भाग में उत्तर की ओर नौवें भाग में सौ धनुष लम्बा तथा इससे आधा चौड़ा राजगृह बनाया गया । उसके पश्चिम की ओर उसके आधे भाग में अन्त: पुर निर्मित किया गया । अन्त : पुर की रक्षक सैन्य का स्थान उसके निकट ही रखा गया । राजगृह के सम्मुख राज उपस्थान गृह था । जहां बैठकर सम्राट् सेनापति और अभिलषित जनों से मिलते थे । राजगृह से दाहिनी ओर कोष- शासनकरण, अक्ष- पटल , कार्यकरण निर्मित हुआ । बाईं ओर सम्राट् के गज , रथ , अश्व के लिए स्थान बनाया गया । राजगृह के चारों ओर कुछ अन्तर पर चार बाड़ें लगाई गईं। पहली बाड़ शकटों की , दुसरी कांटेदार वृक्षों की शाखा की , तीसरी दृढ़ लकड़ी के स्तम्भों की , चौथी पक्की ईंटों की चुनी हुई थी । प्रत्येक बाड़ में परस्पर सौ - सौ धनुष का अन्तर था । पहली बाड़ के भीतर सामने की ओर मन्त्रियों और पुरोहित के स्थान थे। दाहिनी ओर कोष्ठागार, महानस और बाईं ओर कूप्यागार और आयुधागार था । दूसरी बाड़ के भीतर मौलभूत आदि सेनाओं के उपनिवेश थे तथा गज , रथ और सेनापति के स्थान थे। तीसरे घेरे में हाथी , श्रेणीबल तथा प्रशास्ता का आवास था । चौथे घेरे में विष्टि , नायक तथा स्वपुरुषाधिष्ठित मित्रामित्र सेना एवं आटविक सेना थी । यहीं व्यापारियों , वणिकों, वेश्याओं के आवास तथा बड़ा बाजार थे। बहेलिये शिकारी , बाजे तथा अग्नि के संकेत से शत्रु के आगमन की सूचना देने वाले ग्वाले आदि के वेश में छिपे हुए रक्षक पुरुष बाहर की ओर रखे गए थे।

जिस मार्ग के द्वारा स्कन्धावार पर शत्रु द्वारा आक्रमण की सम्भावना थी उस मार्ग में गहरे कुएं , खाई आदि खोदकर घास-फूंस से ढांप दिए थे। कहीं - कहीं कांटे, लोहे की कीलें ठुके हुए तख्ते बिछा दिए गए थे।

स्कन्धावार पर पहरे के लिए अठारह वर्गों का आयोजन था । कुल सेना मौलभृत छ:वर्गों में विभाजित थी । प्रत्येक के तीन - तीन अधिकारी थे – पदिक , सेनापति और नायक । प्रत्येक सेना के अपने- अपने अधिकारी की अधीनता में तीन -तीन वर्ग होकर छ: प्रकार की सेनाओं के इस प्रकार अठारह वर्ग थे। यही सब बारी -बारी से प्रतिक्षण स्कन्धावार की रक्षा सावधान रहकर करते रहते थे। शत्रु गुप्तचरों की तथा शत्रु की गतिविधि का निरीक्षण करने को गूढ़ पुरुषों की नियुक्ति थी । सैनिकों को लड़ने - झगड़ने , पान -गोष्ठी करने , जुआ आदि खेलने का नितान्त निषेध था । स्कन्धावार के बाहर -भीतर आने- जाने के लिए राजमुद्रा का कड़ा प्रबन्ध था , बिना आज्ञा युद्धभूमि तथा स्कन्धावार से भागने वाले सैनिक को शून्यपाल तुरन्त बन्दी कर ले - ऐसी कठोर राजाज्ञा प्रचारित कर दी गई थी ।

कण्टक -शोधनाध्यक्ष बहुत - से शिल्पी , कर्मकर और उनके प्रधानों के साथ मार्ग की रक्षा , जल -प्रबन्ध , मार्ग-स्थापन, जंगल साफ करने और हिंसक प्राणियों को स्कन्धावार से दूर भगाने में सतत संलग्न था ।

139 . प्रयाण : वैशाली की नगरवधू

स्थान , आसन और गमन का ठीक-ठीक विकल्प कर ग्राम - अरण्य आदि अध्वनिवेश में ईंधन, धान्य , जल , घास आदि की समुचित व्यवस्था -प्रबन्ध कर भोजन , वस्त्र , शस्त्रास्त्र को यत्नपूर्वक सुरक्षा में संग ले , मौहूर्तिकों से नक्षत्र दिखा , मागध सैन्य - सहित सम्राट ने प्रयाण किया ।

सेना के अग्रभाग में दस सेनापतियों का नायक , बीच में अन्त : पुर और सम्राट् इधर उधर शत्रु के आघात को रोकने वाली अश्वारोहिणी सैन्य चली । सेना के पिछले भाग में हाथी चले । अन्न , घास, भूसा आदि सामग्री सब ओर से ले जाया जाने लगा। जंगल में उत्पन्न होनेवाला आजीविका - योग्य अन्न, घास आदि सामग्री संग्रह होती चली । अन्न , वस्त्र आदि व्यवहार्य साधन लगातार छकड़ों , हाथियों पर लद - लदकर सेना के साथ चले । आसार अपसार को सुरक्षित कर सबसे पिछले भाग में सेनापति पर्याय से अपनी - अपनी सेना के पीछे नियत हो चले ।

सेना का अग्रभाग मकर -व्यूह रचकर , पश्चात् भाग शकट -व्यूहबद्ध होकर आगे बढ़ा । पाश्र्वभाग की सैन्य वज्र - व्यूह से , तथा चारों ओर का बहि : सैन्य सर्वतोभद्र -व्यूह में बद्ध हो आगे बढ़ा। कहीं- कहीं तंग घाटियों में , दरारों में , सूची - व्यूह भी बनाना पड़ा । इस प्रकार सर्वतोभावेन रक्षा -व्यवस्था क्रम स्थापित कर मागध सैन्य ने प्रयाण किया । पहले कुछ दिन प्रतिदिन एक योजन , फिर दो योजन मार्ग सैन्य ने काटा।

धन- धान्य से समृद्ध शत्रु के नगरों को नष्ट करते हुए, पृष्ठस्थित केन्द्रों तथा शत्रु और अपने देशों के मध्यवर्ती सामन्तों एवं उदासीन राजाओं को साम , दाम , दण्ड , भेद नीति से वशवती करते हुए, संकट -विषम राह को साफ करते हुए, कोश, दण्ड , मित्र शत्रु आटविक सैन्य, विष्टि और मुख्य सैन्य सबकी सुख - सुविधा और अनुकूल ऋतु का विचारकर सम्राट कभी धीरे - धीरे , कभी द्रुत गति से वैशाली की ओर अग्रसर हुए ।

कभी हाथियों द्वारा छिछली नदियों को पार किया । कभी नदी में स्तम्भ - संक्रम करके , कभी सेतुबन्धन , कभी नाव , लकड़ी तथा बांस के बेड़े बनाकर, कभी तूम्बी , चर्मकाण्ड, दूति , गण्डिका और वेणिका आदि साधनों से मागध सैन्य ने नदियों को पार किया ।

कठिन मार्गों, भारी दलदल , गहरे जल , गुफा, पर्वत , आदि को पार करती हई , पर्वतों पर चढ़ती - उतरती , तंग, पथरीले, विषम पहाड़ी मार्गों पर होती हुई भूख, प्यास और थकान से खिन्न हो बीच -बीच में सुस्ताती, ज्वर, संक्रामक महामारी तथा दुर्भिक्ष की बाधाओं को सहन करती; बीमार , पैदल, हाथी , अश्वों के साथ मागध सैन्य आगे बढ़ती चली गई । धीरे - धीरे सेना ने स्कन्धावार में प्रवेश कर वहां उपनिवेश किया । निरन्तर आने वाली मागध सैन्य का राजगृह और वैशाली के बीच राजमार्ग पर तांता लग गया ।

140. शुभ दृष्टि : वैशाली की नगरवधू

“ तो हमें कल ही उल्काचेल चल देना चाहिए। ”-सिंह ने कहा ।

“ निश्चय , क्योंकि हमें सम्पूर्ण गंगातट का सैनिक दृष्टि से निरीक्षण करना है, फिर मिही के सब दुर्गों को एक बार देख डालना है । हम ग्यारहों नायक चलेंगे, तभी ठीक होगा मित्र सिंह! ”गान्धार काप्यक ने कहा ।

“ परन्तु मित्र काप्यक , मिही का ही तट हमारे अधीन है। दूसरे तट से हमारी नावों के प्रयोगों को शत्रु के गुप्तचर देख सकते हैं । ”

“ यह तो असम्भव नहीं है । ”

“ तब क्यों न मर्कट - ह्रद सरोवर में रणतरी के प्रयोग किए जाएं ? ”

“ यह अधिक अच्छा होगा , वहीं पर हम रणतरियों का परीक्षण, सैनिकों का शिक्षण और नाविकों का संगठन कर डालेंगे और वहीं से आवश्यकता होने पर मिही - तट पर उन्हें भेजना प्रारम्भ कर देंगे। परन्तु हमें अधिक- से - अधिक लौहशिल्पियों को एकत्र करना चाहिए । ”

“ जो हो , हमें सूर्योदय से प्रथम ही उल्काचेल चल देना चाहिए । ”

“ तो मित्र काप्यक , तुम साथ के लिए थोड़े- से चुने हुए गान्धार सेनानी ले लो । अच्छा है, राह- घाट वे देख लेंगे। यदि हम एक पहर रात्रि रहे चल दें , तो मार्ग के शिविरों को देखते -भालते हम दो दण्ड दिन चढ़े तक उल्काचेल पहुंच जाएंगे । वहां के घाट -रक्षक अभीति को मैंने सन्देश भेज दिया है । वह हमारा स्वागत करने को तैयार रहेगा । ”

काप्यक ने कहा - “ फिर ऐसा ही हो ! ”

नदी - तट पर धीरे - धीरे घूमते हुए सिंह और काप्यक गान्धार में ये बातें हुईं और दूसरे दिन वे मध्याह्न तक उल्काचेल जा पहुंचे। चुने हुए पचास गान्धार अश्वारोही उनके साथ थे।

उपनायक अभीति ने आगे बढ़कर सिंह और उपनायक काप्यक का सैनिक अभिवादन किया तथा गान्धार सैनिकों का हार्दिक स्वागत करते हुए कहा - “ मैं उल्काचेल में आपका और आपके मित्रों का स्वागत करता हूं । मेरे उपनायक अशोक आपको यहां सेना व्यवस्था का सम्पूर्ण विवरण बताएंगे । परन्तु मैं चाहता हूं कि मुख्य स्थान मैं आपको दिखा दूं । मैंने अपने और शत्रु के दुर्ग का जो मानचित्र तैयार किया है, वह यह है; इससे आप सब बातें जान लेंगे। इसमें यह भी लिख दिया है कि कहां हमारी कितनी सेना है। ”

“ यह बड़े काम की वस्तु होगी नायक! ”–सिंह ने कहा।

अभीति नायक बोले - “ आपकी आज्ञानुसार दक्षिण सेना के बहुत से नायक, उपनायक , सेनानी भी उल्काचेल आ पहुंचे हैं । आप पहले भोजन करके थोड़ा विश्राम कर लीजिए, फिर उनसे बातचीत करना ठीक होगा । ”

“ ऐसा ही हो , नायक ! सिंह ने मानचित्र पर ध्यान करते हुए कहा ।

फिर सब लोगों ने स्नान - भोजन कर थोड़ा विश्राम किया । पहर दिन रह गया था , जब सिंह ने दक्षिण सैन्य के सेनानियों में से , एक - एक को बुलाकर आदेश देने प्रारम्भ किए । सिंह ने उनके सैन्यबल के सम्बन्ध में सारी बातें पूछी और एक ताल - पत्र पर लिखते गए । सूर्यास्त तक यह काम समाप्त हुआ ।

स्वच्छ चांदनी रात थी । नायक अभीति ने कहा - “ इस समय गंगा - तट के कितने ही नव - निर्मित दुर्गों का परीक्षण किया जा सकता है । यदि विश्राम की इच्छा न हो तो मैं नाव मंगाऊं । ”

सिंह ने कहा- “ विश्राम की कोई बात नहीं है। नायक , तुम शीघ्र नाव तैयार कराओ। ”

नायक अभीति, सिंह और काप्यक तीनों आदमी नाव में जा बैठे । तीर -तीर नाव चलने लगी। सामने गंगा के उस पार पाटलिग्राम में मागध शिविर पड़ा था । उसमें जलती हुई आग का प्रकाश मीलों तक फैला दीख रहा था । नाव धीरे - धीरे गंगा -मिही -संगम पर दिधिवारा की ओर जा रही थी । नाविक सब सावधान और अपने कार्य में दक्ष थे। गंगा में व्यापारिक बड़ी - छोटी नावें और माल से भरी नावें तैर रही थीं । किसी-किसी नाव में दीपक का क्षीणप्रकाश भी प्रकट हो रहा था । गंगा-किनारे के सब दुर्गों में पूर्ण निस्तब्धता थी । न प्रकाश था , न शब्द । अभीति की इस सम्बन्ध में कड़ी आज्ञा थी । दिधिवारा तक कुल पांच दुर्ग वज्जियों के थे। सेनानायकों ने सभी का निरीक्षण किया । नाव को घाट तक लगते देखते ही प्रहरी पुकारकर संकेत करता । नाव पर से नायक संकेत करता, प्रहरी तत्काल दुर्गाध्यक्ष को सूचना देता और ये नाविक चुपचाप नाव से उतरकर दुर्ग का निरीक्षण कर आते तथा अध्यक्ष को आवश्यक आदेश दे आते। घाट से दुर्ग तक के मार्ग गुप्त और घूम - घुमौअल बनाए गए थे। अपरिचित व्यक्ति का वहां पहुंचना शक्य न था । सैनिक नावें इस प्रकार छिपाकर रखी थीं कि उस पार से तथा इस पार से भी उन्हें देख पाना शक्य न था । विशाल मर्कट - ह्रद को एक छोटी - सी टेढ़ी नहर द्वारा नदी से मिला दिया गया था । आवश्यकता पड़ने पर सब नावें सैनिकों सहित क्षण भर में गंगा की बड़ी धारा में पहुंच सकती थीं । यद्यपि यह निरीक्षण बिना सूचना के हो रहा था , परन्तु प्रत्येक प्रहरी सावधान एवं सजग था ।

पहर रात गए सेनानियों की नौका दिधिवारा के दुर्ग में जा पहुंची। यह औरों से बड़ा था । यहां की व्यवस्था भी उत्तम थी । दोनों नवीन नायक सैनिकों से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित कर रहे थे।

पौ फट रही थी , जब ये सेनानी उल्काचेल पहंचे। पीछे लौटकर सिंह ने कहा नायक अभीति , मैं तुम्हें धन्यवाद देता हूं मित्र, तुमने यथेष्ट व्यवस्था की है । ”

नायक ने हंसकर सेनापति का अभिवादन किया । इसके बाद सबने विश्राम किया । दिन भर जयराज के चर शत्रु - सेना का संवाद लाते रहे। उससे विदित हो गया कि बिम्बसार अभी सेनापति भद्रिक की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इसलिए मगध -सम्राट् अभी युद्ध प्रारम्भ करने का निर्णय नहीं कर पाए हैं ।

रात को फिर तीनों सेनानी गंगा के नीचेमिही और गंगा के संगम पर स्थित दुर्गों को देखने चले । यह एक रात में समाप्त नहीं हो सकता था । वे दिन - भर किसी दुर्ग में विश्राम करते और रात में देखी बातों के संस्मरण लिखते । संध्या होने पर फिर आगे चलते । वे तीसरे दिन बागमती संगमतट पर के दुर्ग में पहुंचे। भटों की तत्परता और सतर्कता पर सेनानियों ने सन्तोष किया । उन्हें आवश्यक आदेश दिए और तक्षशिला की नई रणचातुरी सिखाने के लिए उन्हें उल्काचेल आने को कहा।

अभी महानदी के दुर्गों को देखना शेष था । एक दिन उल्काचेल में तरुण सेनानियों ने विश्राम किया तथा आवश्यक आदेश वैशाली और भिन्न -भिन्न केन्द्रों को भेजे ।

दूसरे दिन चन्द्रोदय के साथ ही काप्यक और सिंह ने मिही की ओर नाव छोड़ी । दिधिवारा के संगम से ऊपर धार तीव्र थी , इसलिए घूमकर नौका ले जानी पड़ी । मिही के पूर्वी तट पर हरी घास का मैदान था , जहां सहस्रों गायें चर रही थीं । बीच में आदमियों और पशुओं के लिए छोटी- छोटी कुटियां बनी थीं । वे लिच्छवी और अलिच्छवी दोनों थे ।

चार दिन में मिही के दुर्गों का निरीक्षण हुआ । उन्हें नायक शान्तनु और उसके आठ उपनायकों को सौंप दिया गया , जिससे वे नाविकों को नवीन कौशल सिखा सकें । यह करके दोनों मित्र फिर उल्काचेल चले आए। यहां से काप्यक तो कुछ नौ - सधार के लिए वैशाली चले गए और सिंह ने सेनानियों को नौ युद्ध के कुछ नवीन और गुप्त रहस्य सिखाए। आठ दिन में यह कार्य सम्पन्न हुआ ।

अब सिंह ने अपने सम्पूर्ण कार्य का विवरण महाबलाध्यक्ष सुमन के पास वैशाली लिख भेजा। बलाध्यक्ष पश्चिमी और पूर्वी सीमान्त पर नौ -युद्ध की नवीन पद्धति की परीक्षा की बात जानकर अति सन्तुष्ट हुए ।

अब सिंह ने अपना ध्यान दूसरी ओर किया । जयराज को उन्होंने लिखा कि चरों की संख्या बढ़ा दी जाए और सोन - तट और गंगा - तट पर शत्रु जो नई कार्रवाई कर रहा है , इसकी क्षण- क्षण की सूचना हमें मिलती जाए। सिंह ने यत्नपूर्वक यह भी जान लिया कि राजगृह और उसके मार्ग की रक्षा का क्या प्रबन्ध किया गया है। जयराज ने अनेक चर परिव्राजक, निगंठ , आजीवक , भिक्षु आदि वेशों में ; कुछ व्यापारी और ज्योतिषी बनाकर शत्रु की ओर भेज दिये । उन्होंने बताया कि चण्डभद्रिक बड़ी द्रुत गति से राजधानी के दुर्गों की मरम्मत करा रहे हैं ; तथा गंगा - तट से वहां तक उन्होंने उचित स्थानों पर नाकेबन्दियां कर रखी हैं । नालन्द, अम्बालिष्टिका की दो योजन भूमि में उसकी तैयारियां और भी अधिक थीं । अभिप्राय स्पष्ट था कि चतुर चाणाक्ष चण्डभद्रिक को भय था कि लिच्छवि कहीं राजगृह तक न दौड़ जाएं । सिंह सेनापति उल्काचेल लौट आए ।

चर सिंह के पास क्षण -क्षण में सूचना ला रहे थे और मगधराज की सम्पूर्ण गतिविधि का पता उन्हें लग रहा था । वे सूचनाओं के साथ - साथ अपनी योजनाएं भी सेनापति और गणपति के पास भेज रहे थे।

वैशाली की नगरवधू : अध्याय (141-उपसंहार)

वैशाली की नगरवधू : अध्याय (101-120)