वातभक्षा (उपन्यास) : उषा किरण खान
Vaatbhaksha (Hindi Novel) : Usha Kiran Khan
वीथिका अपनी मित्र भारती दत्त के साथ यहाँ आकर देर से खड़ी चढ़ती गंगा को देख रही थी। जून माह का यह आखिरी दिन है। ग्रीष्मावकाश है। परिसर खाली है। आज वीथिका का इस परिसर में प्रोफेसर के रूप में आखिरी दिन है। लगातार छत्तीस वर्ष बिताये हैं यहाँ। भारती की नौकरी अभी बाकी है वह इसी कॉलेज की छात्रा भी रही है। वीथिका नहीं रही। वीथिका ने सीनियर कैम्ब्रिज कर इंटर के दूसरे साल में पटना कॉलेज में ही दाखिल लिया। वहाँ से तीन साल और विश्वविद्यालय के दरभंगा हाउस से दो साल में एम.ए. कर लिया था। शोध छात्रा के रूप में प्रो. शिवरंजन प्रसाद के साथ निबंधित होना गौरव की बात थी। प्रो. शिवरंजन प्रसाद बी.एच.यू. से यहाँ आये थे। वे ही विभाग के संस्थापक विभागाध्यक्ष थे। उनसे पढ़ना ही सौभाग्य था, उनकी छत्रछाया में शोध करना परम सौभाग्य का विषय था।
वीथिका एक उदास लड़की थी जब बी.ए. पार्ट वन में आई थी। आई.ए. के फाइनल में जब आई तो चहकती हुई खुशदिल लड़की थी। अपने सेंट जोसफ स्कूल और होस्टल के परिसर से बड़ा और खूबसूरत परिसर लगा पटना कॉलेज का परिसर। अशोक राजपथ से चलते हुए गंगा घाट तक निर्बाध चलती चली जाओ। वीथिका अपनी सखियों से आगे चली जाती, अग्रगामी अग्रसोची थी। क्यों न होती? दादा निहार रंजन सान्याल सिरपुर राज के मैनेजर थे। उसने उनकी मैनेजरी नहीं देखी पर किस्से जरूर सुने थे। तस्वीरें देखी थीं और देखा था वह विशाल बँगला जो राजा साहब ने उन्हें स्थाई रूप से बनवाकर दिया था। देश आजाद होने के बाद जमींदारी खत्म हो जाने के बाद भी वह बँगला रहा था। अब मैनेजर साहब की भूमिका खत्म हो चुकी थी। पिता विश्वंभर सान्याल ने इसी पटना कॉलेज से अर्थशास्त्र ऑनर्स किया था। उनका पढ़ने से अधिक गॉल्फ तथा बीलियर्ड खेलने में मन लगता। वे जब यहाँ रहते तब नियम से गॉल्फ खेलने जाते। वीथिका और यूथिका दोनों बहनें भी माँ के हाथों के बनाये खूबसूरत फ्रॉक पहन बाबा के साथ मैदान पर जातीं। गहरे हरे मखमली घास का मैदान इसे बहुत भाते। गॉल्फ का बॉल लाने को वह मैदान में सरपट भागती, गुदगुदाता ओस भीगा विस्तार इसे मानो अकसर बुलाता रहता। वहाँ से लेकर अपने अहाते तक इसके पैर कभी न रुके, न थके। वहीं यूथिका स्थिर गंभीर थी। वह खड़ी मुस्कुराती रहती। एक बार उसे किसी गॉल्फर ने पूछ दिया था–‘आप भी दौड़ो बिटिया, देखूँ कौन तेज दौड़ती हो।’ ‘नहीं अंकल, मेरे नये जूते गंदे हो जायेंगे।’ उसने ना में सर हिलाकर कहा–वहाँ बैठे सभी गॉल्फर और उनकी बीवियाँ हँस पड़े।
‘हूँ, कहती तो ठीक है।’ एक महिला ने कहा–‘क्या वीथिका के जूते नये नहीं हैं?’ एक ने पूछा–‘हैं, पर वो ऐसे ही दौड़ती है।’ यूथिका ने मुँह बिचकाया। यह सच था, वीथिका को जूतों, फ्रॉक और अपनी परवाह नहीं होती, वह किसी गुब्बारे वाले या बुढ़िया के बाल, मिष्टि वाले के पास यों ही दौड़ जाती रोकने, कई बार गिर पड़ती, घुटने छिल जाते। वह बेपरवाह थी। माँ से, दादी से डाँट खातीं पर स्वभाव नहीं बदलता। वैसी बेपरवाह वीथिका सान्याल क्यों बदल गई? इतनी चुप चुप सी क्यों रहने लगी। बी.ए. में ऑनर्स के लिए क्या भरे, यह सोच ही रही थी कि मित्र निधि ने एक नई सूचना दी।
‘एक नया विभाग शुरू हुआ है, सुना है कि किसी भी विकासशील देश के लिए यह विषय जरूरी है जानना।’–निधि ने कहा।
‘स्कोप क्या है? मुझे जल्दी नौकरी चाहिए।’–वीथिका ने कहा।
‘अच्छा क्यों? यूथिका दी तो ऐसा नहीं कहतीं। वे थर्ड पार्ट इको कर रही हैं।’–निधि ने कहा।
‘वो शुरू से ही टॉपर, सीरियस हैं। इकोनॉमिक्स गंभीर विषय है न!’–वीथिका ने कहा। यही सच था। अर्थशास्त्र का सर्वत्र उपयोग था, बैंक की परीक्षा पास करने की गारंटी अलग थी।
‘यह तो है। नया विषय भी नौकरी की गारंटी देता है।’
‘कौन सा विषय है?’
‘समाजशास्त्र यानी सोशियोलॉजी।’–निधि ने कहा
‘अच्छा, क्या स्कोप है?’
‘समाज में जाने, सामाजिक कार्य करने…।’
‘एक मिनट निधि, यह फालतू काम जो नेतागिरी की ओर बढ़ता है तुमको स्कोप लगता है?’–रोक कर वीथिका ने कहा।
‘यार, तुमने बात पूरी करने नहीं दी। विकास कार्य के लिए नौकरियाँ सृजित हो रही हैं।’
‘ओफ्फोह, क्या कल्पनाएँ हैं तुम्हारी।’–सर ठोका वीथिका ने।
‘वीथि, यह विषय स्कूलों से लेकर कॉलेज तक में लागू हो रहा है, पढ़ कर देखते हैं यार!’–आजिजी से कहा निधि ने। वीथिका ने उसके दबाव में आकर समाजशास्त्र ले लिया। यूथिका ने सुना तो खूब लताड़ा।
‘तुम्हें कब अक्ल आयेगी वीथि, नया विषय है, किताबें मिलेंगी या नहीं, नोट्स कैसे बनाओगी? मेरे पास इकोनॉमिक्स के एक नंबर नोट्स हैं। कम परिश्रम में पढ़ लोगी, ऑनर्स भी मिल जाएगा माँ के सपनों को पूरा करने के लिए नौकरी मिल जाएगी।’–यूथिका ने खूब लताड़ा था इसे। वीथिका मनमौजी, ठान लिया सो ठान लिया। समाजशास्त्र का क्लास सुबह ही होता था। ऑनर्स पढ़ने भी विभाग में जाना पड़ता था। दरभंगा हाउस बिल्कुल गंगातट पर है। बाढ़ में भरी भरी गंगा, बाढ़ उतरने के बाद तन्वंगी-सी बलखाती गंगा, गंगा पर तिरती नाव से इसे विशेष प्रेम था। और प्रेम था निधि भट्टाचार्य के पिता के छोटे से मंदिर से जो ऐन गंगा की गोद में था। पचपन सीढ़ियों वाला देवी मंदिर छोटा सा गह्वर था। मंदिर की बाजू में पुरोहित राखाल भट्टाचार्य का परिवार रहता। तीन अतीव सुंदरी बेटी और एक बेटा। निधि सबसे छोटी थी। बड़ी अचिरा चौड़ा काजल ऑन्जे रहस्यमय सी लगती। वह अकसर पाड़वाली ताँत साड़ी पहनतीं। मझली रूचिरा कस कर जूड़ा बाँधती। बिना चोटी के जूड़ा, वह प्रायः वायल साड़ी पहनती जिसमें अपने हाथों से कढ़ाई करती। निधि वायल छींट साड़ी की शौकीन थी। साड़ी काफी कीमती दीखती, अकसर अरगंडी या फुलवायल की। लेकिन उसने सदा सस्ती खरीदी।–‘निधि तुम कहाँ से इतनी महँगी साड़ी सस्ती में ले आती हो?’
‘एक दिन चलना, मैं तुम्हें दिखाऊँगी।’–निधि ने आँखें नचाते हुए कहा। वह जगह महेंद्रू के बाजार में कटपीस सेंटर थी। दो टुकड़ों को या तीन टुकड़ों को जोड़कर बनी हुई साड़ी होती।
‘प्लीट में जोड़ है, दीखेगा तो नहीं?’
‘नहीं दीखता है कभी यार निधि।’–दोनों खुश होकर हँस पड़ी। निधि और वीथिका समाजशास्त्र के ऑनर्स की पढ़ाई करने के बाद घंटे भर का अंतराल मिलता। उसके बाद सबसीडियरी की कक्षा लगती। ये लोग सुविधापूर्वक काली मंदिर घाट पर बैठकर पालवाली नावों को गुजरते देखतीं। बच्चों और बड़ों को नहाते कपड़े धोती देखतीं। क्लास करने के बाद निधि अपने घर वीथिका अपने होस्टल चली जाती। दोपहर का भोजन कर कमरे में आकर थोड़ी देर पढ़ना नोट्स बनाना बाकी समय आराम से सो जाना या सिर्फ झूठ मूठ में आँखें बंदकर लेना आदत सी थी। इसके कमरे की साथिनें साइंस कॉलेज की थीं। वे देर से आतीं। एप्रन उतारकर टाँगतीं। कपड़े बदल साथ मेस में शाम की चाय के लिए जातीं। कोने पर वाला सिंगल बेड वाला कमरा यूथिका का था। वह फाइनल में थी, गंभीर उच्च परीक्षाफल लाने वाली छात्रा होने के नाते उसे यह कमरा मिला था। रोज शाम को वीथिका पूछती–‘दीदी, तुम्हारी चाय ले आऊँ?’–अकसर यूथिका साथ चल पड़ती। कई बार किसी प्रश्न के हल में उलझी होती तब ले आने को कहती। वीथिका चाय पीने के बाद अपनी रूममेट छाया तथा राशि के साथ कृष्णा घाट पर जाकर बैठ जाती। वहाँ भी वही सब दृश्य रहता। कृष्णा घाट पर बैठकर ये लड़कियाँ अकसर दिनभर का लेखा-जोखा देतीं एक दूसरे को। केमिस्ट्री ऑनर्स वाली शशि के पास केमिकल की गलत मात्रा मिलाने से टूटने वाले बीकर की दास्तान होती तो छाया जिसने फिजिक्स के प्रैक्टिकल के लिये चार्ट पेपर पर डायग्राम बना कर रखा होता उसकी चोरी के वारदात की चर्चा होती। वीथिका चुपचाप मजे लेकर सुनती। लड़कियों को शक किसी साथी पर ही होता कि वही परेशान करने के लिए केमिस्ट्री का प्रैक्टिकल बिगाड़ता है। दूसरा लड़का फिजिक्स का पेपर दो तीन दिन गायब कर चौथे दिन लौटा देता।
‘वाह, यार, बड़ा रंगारंग प्रैक्टिकल होता है तुमलोग के यहाँ। हमारे यहाँ रूखी सूखी पढ़ाई बस!’–वीथिका जैसी कला संकाय की लड़कियाँ कहती।
‘मत पूछो यार, तुमलोग को मजाक सूझता है हमारी जान जाती है। हमें डाँट सुननी पड़ती है।’–छाया कहती। ‘हमारे सर कहते हैं कि साइंस पढ़ना लड़कियों का काम नहीं है।’–राशि होती।
‘साथ ही लड़के भी पिल पड़ते।’–यहाँ बैठी लड़कियाँ हँस पड़तीं। शाम ढलने तक लड़कियाँ यहाँ बैठतीं। जब पाल उड़ाती नावें क्षितिज में विलीन होने लगतीं, जलपक्षी उड़कर अपने घोंसलों की तरफ जाते दीखते तब वीथिका और उसकी टोली उठकर आती। अँधेरे घाट पर लड़के आ जुटते धुएँ उड़ाने को, एकाध प्रेमी जोड़ा भी टपक पड़ता।
अभी तक समाजशास्त्र की पढ़ाई में कुछ खास मन नहीं रमा था वीथिका का। परिचयात्मक पढ़ाई में क्या मन लगता। लेकिन नोट्स वगैरह बनाकर परिश्रमी वीथिका ने अच्छी अँग्रेजी में जो कुछ टरमिनल परीक्षा में लिखा उसे सर्वाधिक नंबर आये। परीक्षा की कॉपी और नंबर लेकर स्वयं विभागाध्यक्ष आये थे। प्रथम वर्ष में उन्हें पढ़ाने का मौका नहीं मिला था। छात्रों में आदर के साथ दहशत भी थी। विभागाध्यक्ष जब सामने बैठे और प्यार से बात की तब सभी की साँस सम पर आई। युवा विभागाध्यक्ष कोमल शब्दों का व्यवहार कर रहे थे। वे सुदर्शन और सुरुचिपूर्ण थे।
‘सबसे अधिक अंक आये हैं वीथिका सान्याल को।’–लड़के लड़कियों ने ताली बजाई। वीथिका ने खड़ी होकर अभ्यर्थना की।
‘धन्यवाद सर।’
‘आपने बहुत अच्छा लिखा है। आपलोग तीस परीक्षार्थी थे। मैंने बड़ी बारीकी से सबको पढ़ा। आप सभी ने सही सटीक उत्तर दिये हैं। वीथिका सान्याल प्रथम है 74 नंबर लेकर और जो द्वितीय है निधि भट्टाचार्य वे भी 68 नंबर लेकर आई हैं। बाकी सभी साठ से नीचे हैं। क्यों?’
‘सर, क्या गलत उत्तर दिया? मैंने तो पाँचों प्रश्नोत्तर लिखे।’–एक लड़का।… ‘नहीं, गलत नहीं था। यह टर्मिनल है। पहला है। आप ऑनर्स का पेपर पहली बार लिख रहे थे।’
‘तो क्या लिखा जाय सर’–दूसरे लड़के ने पूछा।
‘यही बताने जा रहा हूँ। जो भी विषय आप पढ़ रहे हैं, वह सिर्फ टेक्स्ट् है। कक्षा में जो पढ़ाते हैं उन्होंने आनुषंगिक किताबों की चर्चा की जो सहायक हों, जिन्हें पढ़ना चाहिए?’
‘जी सर, बहुत सारी किताबों के नाम लिखाये। यह भी कहा कि विभाग के पुस्तकालय में सारी किताबें, जर्नल्स हैं।’–एक लड़के ने कहा।
‘आपने किताबें लीं? किस किसने किताबें पुस्तकालय से ली?’–विभागाध्यक्ष ने पूछा। सिर्फ वीथिका सान्याल और निधि भट्टाचार्य ने हाथ उठाया कि उन्होंने किताबें लीं।
‘देखिये, सिर्फ इन्होंने सहायक किताबें पढ़ी। नतीजा आपके सामने है।’
‘सर हमने सारे शिक्षकों के नोट्स लिये।’
‘हमलोग टैक्स्ट् पढ़ा देते हैं जो समझदारी देता है, उसे विकसित करने के लिए सहायक पुस्तकें पढ़नी होंगी। जर्नल्स पर निगाह रखनी होगी यह विकास का विषय है। अगली बार आपलोग सर्वप्रथम आयें यह सोच कर नोट्स तैयार करें।’–विभागाध्यक्ष चले गये! छात्र-छात्राओं में से कुछ तो जलभुन कर निकल गये, कुछ इनके पास आये।
‘तुमलोग ने कैसे इतने नोट्स बना डाले यार, हम तो समझ ही न पाये। कमाल कर दिया’–एक लड़की ने आकर कहा।
‘सर ने कहा है न, इस बार तुमलोग करतब दिखाओ।’–निधि ने कहा।
‘ऐसा कुछ नहीं है, बैठकर नोट्स बना लो, बात बन जाएगी।’
‘नया विषय है न!’–एक लड़की ने कहा।
‘लो, नया विषय तो सब कुछ है हमलोग के लिए।’–निधि ने कहा। इस विषय पर लड़कियों ने थोड़ी देर बहस की। लड़के अलग थलग फुँके से बैठे थे। उन्हें ये सब रास नहीं आ रहा था। फिलॉसफी, साइकोलॉजी में थी ही अब यहाँ भी पर तौल रही है ऐसा भाव था। धीरे-धीरे लड़कियाँ पढ़ाई लिखाई को गंभीरता से लेने लगी हैं।
वीथिका के दादा जी का शानो-शौकत बरकरार रहा क्योंकि जब तक वे जीवित रहे, राज के मामले निपटाते रहे। उनका दस एकड़ का बँगला सिकुड़ने लगा था। बँगला के ऐन आजू बाजू की जमीनें बंदोबस्त होने लगी थीं। निहार रंजन सान्याल के अंदर भी उदासी घर करने लगी थी। बेटा विश्वंभर अपने बच्चों को लेकर पटना चला गया था। उसे अपनी बेटियों को कॉन्वेंट में पढ़ाना था। पत्नी भी बी.ए. पास थी। वह कपड़े बहुत अच्छा सिलना जानती। अब भी उसके पास मिस हैलेट का दिया गया सिलाई विशेषांक रखा है जिसे जब तब खोल कर अपनी बेटियों के फ्रॉक डिजाइन करती। पत्रिका का नाम है ‘वीमेंस वर्ल्ड’।
‘बेटा को राजकुमार की तरह पाला हमने।’–निहार रंजन अपनी बीबी से कहते। ‘राज कुमार लोगों के साथ ही पढ़ता था!’–हँसी विश्वंभर की माँ।
‘पर, वैसा बोक्का नहीं निकला।’–संतुष्ट भाव से हँसे।
‘बोक्का है? सारा जमीन बेचकर खा रहा है।’
‘जमीन बेचकर यहीं पर कोई इंडस्ट्री खड़ा करता तब उसको काबिल समझा जाता, बेचकर खाना कौन होशियारी है?’
‘सो तो है।’
‘अभी सब बेच खायेगा, बाल बच्चा भीख माँगेगा।’–उन्हें संतोष है कि उनका बेटा विश्वंभर समझदार है। जंगल की ठेकेदारी ले ली है। वहाँ का रख-रखाव और कुछ व्यापार अपने हाथों में है। पाँच-पाँच साल पर टेंडर भरता है, अच्छे काम और मुनाफा के कारण सबकी आँखों का तारा तो है ही, खेल, टुर्नामेंट वगैरह कराके संपर्क बनाये रखता। राज के साथ जुड़कर यह गुर सीख चुका है बचपन से। निहार रंजन सान्याल और श्रीमती सान्याल को घरऊ सहायक की कभी कमी नहीं पड़ी। पटना के लिये भी उन्होंने ही दे रखा था। विश्वंभर सान्याल ने थोड़ी जमीन लेकर जंगल के निकटस्थ में एक खूबसूरत बँगला बना रखा था। अकसर शहर राजधानी से आने वाले अफसर और उनके बच्चे आते और इनके बँगले में ठहरते। ये सब इनकी ठेकेदारी बुद्धि थी। एक दिन सुबह-सुबह फोन आया कि माँ चल बसीं। यह दुखद समाचार सुनाते सुनाते सहायक रो रहा था। मैनेजर साहब की गाड़ी पुरानी थी सो मँझले सरकार ने अपनी नयी फियेट गाड़ी पहलेजा भेज दी। विश्वंभर सपरिवार मोटर वाली नाव से गंगा पार कर पहलेजा पहुँचे। पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई। क्रिया-कर्म के बाद पंद्रह दिन बीतने पर लगा कि बाबा को अकेले छोड़ना असंभव है। दोनों बेटियों को कॉन्वेंट के होस्टल में छोड़कर पिता के पास चले आये विश्वंभर दंपत्ति। यूथिका और वीथिका को पहला शॉक लगा। यूथिका थोड़ी संजीदा हो गई, वीथि कुछ समझती नहीं पर अचानक अनुशासन बदल गया। होस्टल का रूटीन भारी लगने लगा। छुट्टियों में बाबा के घर जाकर मस्ती करती। निहार रंजन बहुत दिन नहीं जी सके। साल दो साल में चल बसे। इस शहर में कोई स्थाई ठिकाना नहीं बनाया था। बनाया था तो दामोदर नदी के किनारे अपने गाँव गोपालपुर में। दोनों पति पत्नी के मन में था कि यहाँ से छुट्टी पाकर अपने इलाके अपने गाँव में जाकर बसें। वहाँ अभी भी सान्याल बाबू का खेत था, मँझोली हवेली थी, हवेली के पीछे बड़ा सा अहाता था जहाँ सभी तरह के नींबू के झाड़ थे–कागजी से लेकर चकोतरे तक। आँवले, करौंदे, अमरे और कमरख के पेड़ थे। केले और पपीते थे। आउट हाउस में रहने वाला माली रखवाला था। शरीफा, बेल और आम का कुछ दाम थमा जाता। खेत पट्टे पर दिये जाते थे। सो हवेली के बाजू में ही नया बँगला था ऐसा अवसर ही न आया कि जा सकें। गोपालपुर जाने के पहले गोपाल ने इन्हें अपने पास बुला लिया। काम के बाद ये सब एक बार गाँव गये थे। नया बँगला आरामदेह था। हवेली झड़ रही थी। विश्वंभर दंपत्ति जंगल के पास वाले नये घर में ही चले गये। वहाँ के जंगल का दौरा करते। वन रक्षक तथा अधिकारियों के संपर्क में रहते। इन दिनों जो अधिकारी आये थे उनकी पत्नी और विश्वंभर की पत्नी अच्छी मित्र हो गईं। वहाँ इन लोगों ने अधिकारी पत्नियों का क्लब बना रखा था। वहाँ ताश और हाउजी जैसे खेलों का बोलबाला था। अखबार और पत्रिकाएँ आतीं, पर वह सब बंद ही पड़ी रहने लगीं। इन लोग को ताश, हाउजी से फुरसत ही नहीं थी। विश्वंभर की पत्नी को कपड़ों के डिजाइन से मतलब था सो वह पत्रिकाएँ खोलकर जरूर देखती। संयोगवश एक दिन पेड़ों के बोनसाई पर आलेख थे और चित्र थे। विश्वंभर सान्याल की पत्नी तरू ने सहेलियों को दिखाया–‘देखिये तो मैम, इस जंगल का सब आकाश छूने वाला पेड़ सब बोनसाई बन कर कितना क्यूट लगता है।’
‘अरे हाँ, यह बड़ा बढ़िया होगा।’–एक मैडम ने कहा। अब उसके बनाने के तरीके को एक जनी ने जोर-जोर से पढ़ा। बहुत भारी नहीं है यह करना, विचारा। ‘क्यों न माली को बुलाकर हम बनवाने की कोशिश करें।’–दूसरी थी। माली को बुलवाया गया।
‘माली बाबा, ये देखिये तस्वीर, ये बोनसाई है सभी बड़े पेड़ों का।’
‘जी मेमसाहब, बौना पेड़।’–माली ने कहा। सभी एक-दूसरे को देख मुस्कुराई।
‘हम पढ़कर आपको तरीका बताते हैं, बना देंगे?’–एक ने कहा।
‘अरे माली हैं, जरूर बना देंगे।’–दूसरी थी। तो सुनिये–
‘हम बनाना जानते हैं मेम साहब।’–माली ने कहा।
‘ऐ? आप जानते हैं?’–एक ने पूछा।
‘कैसे? स्ट्रेंज!’–एक नई मैम ने कहा चमक कर।
‘वर्मा साहब की मैडम विमला वर्मा बहुत बनवाती थीं। बॉस का, चम्पा का, पाम ट्री, गुलमोहर और अमलतास भी। बड़ और पीपल का ढेर सा बनाकर ले गईं।’–निर्विकार भाव से कहा माली ने।
‘बहुत सारा?’–उच्चाधिकारी की पत्नी अचंभित थीं।
‘जी, उनकी बहू का बिजनेस है, बौने पेड़ का।’–माली था।
‘अब भी बनवाती है आपसे?’–एक की बुद्धि जगी।
‘जी न, अब जिधर गई होंगी उधर बनवाती होंगी।’–माली था।
‘जाने दीजिये, आप अब भी बोनसाई तैयार करते हैं क्या?’–
‘जी नहीं। क्यों करेंगे? किसी ने कहा नहीं।’
‘आप बिजनेस करते? बना सकते हैं।’–तल्ख था मैडम का स्वर।
‘यहाँ नहीं चलेगा मैडम। हमको जंगल, फूल पत्ती पसंद है। खूब बड़ा बड़ा, यह बौना देखकर अच्छा नहीं लगता।’–विरक्त स्वर था माली का। उसे सचमुच यह पसंद नहीं था। क्या करे, मैडम जो कहें करना ही है।
‘अच्छा सुनो, हम चौदह मेम साहब लोग हैं। चौदह बॉस का बोनसाई बना दो। बना सकोगे न?’–बड़ी मैडम ने आदेश दिया।
‘जी बना देंगे। चौदह गमला दिलवा दें, हम काम शुरू कर देंगे।’
सारी औरतें खासी संतुष्ट दीखीं। ठीकेदार विश्वंभर की पत्नी तरू सान्याल माली को बोनसाई बनाते, कलमें लगाते देखती। वह कलात्मक स्त्री थी। उसने माली को कभी नाश्ता लाकर दिया, कभी कोल्डड्रिंक। उससे फूलों की बोनसाई बनवा ली। बड़े पेड़ वाले फूलों की। अब मैडम लोग पत्र-पत्रिका खोल कर देखने भी लगी। उसमें कपड़ों के डिजाइन देख खुद वैसे सिलवाने लगीं। सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था कि जाने कैसे जंगल में आग लग गई। काट कर रखे गये कुंदे तो भस्म हो ही गये, कच्चे वृक्ष जलने लगे। जानवरों में हड़कंप मच गया। वे रेता की ओर भाग खड़े हुए। कुछ गाँव की ओर आ गये। हिरन, सूअर तेंदुए। गाँव के लोग डर कर भाग गये। कुछ डरे हुए नौजवानों ने मिल कर लाठी बरछे से बींघकर तेंदुआ को मार डाला। निकट में जल भरी नदी थी। चारों ओर से अग्निशमन शुरू हुआ, आग पर काबू पाने में लगभग पंद्रह दिन तो लग ही गये। लाखों की लकड़ियाँ, बेशकीमती लकड़ियाँ राख में तब्दील हो गईं। विश्वंभर सान्याल किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गये।
अब वे परिवार के मुखिया थे। अकेले भाई थे, पिता रहे नहीं। छोटा-छोटा काम कब तक करते? एक बड़ा काम करने का इरादा था। बैंक से बड़ा ऋण ले लिया, टिम्बर मर्चेन्ट बन गये थे। गोपालपुर का घर हवेली सब गिरवी रख दिया। आग उसी इलाके में लगी थी जिसे इन्होंने लिया था। काट कर रखी महोगनी, बर्मीज टीक का अलम्य कुंदा जलकर भस्म हो गया। जिन कुंदों की चिरान कर शानदार फर्नीचर व्यापारियों को देकर लाखों कमाते आज खाक हो गये हैं। कुछ फर्नीचर मर्चेन्ट ने अग्रिम भुगतान भी कर दिये थे। कोलकाता के ये व्यापारी पिता निहार रंजन सान्याल के समय से मित्र थे। राज की पुरानी हवेलियों के फर्नीचर कौड़ियों के मोल खरीद कर ले जाते, देश विदेश में एंटीक बेचकर सौ गुना कमाते। विश्वंभर अवाक् थे। वे बीमार हो गये। बेटियाँ पढ़ रही थीं; सारे जमीन मकान ऋण में फँसे थे। इलाज के लिए बेटियों की जिद पर पटना आ गये थे विश्वंभर सान्याल टिम्बर मर्चेन्ट। घर किराये पर लिया और संचित धन खर्च होने लगा। ऐसे समय यूथिका फर्स्ट क्लास फर्स्ट हुई विश्वविद्यालय में। यह नहीं हुआ कभी, इकोनॉमिक्स में पहली बार लड़की ने बाजी मारी। उसे स्कॉलरशिप ग्रांट हुआ। एक स्कॉलरशिप सरकार की ओर से मिलता, दूसरा था किसी बड़े अर्थशास्त्री के नाम पर। दोनों बहनों की पढ़ाई का खर्च तो निकल जा रहा था। डॉक्टरों की सलाह पर विश्वंभर सान्याल को दवा दी गई तथा विचार दिया गया कि वे अपने पुराने काम वाले वातावरण में लौट जायें। तरू सान्याल को पटना का किराया अधिक लगा। वे भी कार्यक्षेत्र के अपने बनाये आशियाना में जाना चाहती थीं। दोनों बेटियाँ पुनः होस्टल में चली गईं। जंगल के किनारे आकर एक तरफ सान्याल साहब को हादसा याद आता, दूसरी ओर अपना ऋण। उनके मैनेजर जो अब बेरोजगार थे ने सलाह दी लकड़ी का जलावन वाला ठेका शुरू किया जाय। पहले यह सुनकर विश्वंभर बिदक गये। परंतु फिर ऋण का भय व्यापने लगा। उन्होंने हामी भर दी। मैनेजर स्वयं जो इतने बड़े ठेके को शान से चलाता था अब जलावन आपूर्तिकर्त्ता बन कर प्रसन्न नहीं था। समय जो न कराये। उसकी भी तो रोजी-रोटी चली गई थी। उसके बच्चे छोटे थे, कोई खास जमीन जायदाद भी नहीं थी। सब सुनकर चुप रहता और दोनों ठेका देखता। सान्याल साहब घर के पास वाले ठेके पर कभी कभार चले जाते। ऐसे ही समय तरू सान्याल को बोनसाई का खयाल आया। उन्होंने माली दादा को बुला भेजा और उससे मन की बात कही। माली सहर्ष तैयार हो गया पौधे लाने, गमले पसंद कर बनवाने और बोनसाई बनाने का काम उसने अपने ऊपर ले लिया। तरू सान्याल की सहभागिता रहती। पर यह काम धीमी गति का था। माली ने विचार दिया कुछ और आगे बढ़ने का।
‘मैम यह तो ऊपर का काम है यदि सचमुच आमदनी का काम करना है तो पौधों का व्यवसाय करना चाहिए।’–उसके मन में इनकी स्थिति के प्रति करुणा का भाव था। जंगल में इनकी संपत्ति का स्वाहा होना अपनी नजर से देखा था। माली सरकारी नौकरी कर रहा था जंगल-विभाग का, जो अपने स्तर से संपन्न है। पेड़ पौधों को खरीदने बेचने का गुर मालूम है, इसीलिए कहा था। तरू ने उसकी बात मान ली। धीरे-धीरे बड़े छोटे शहरों के बागीचों से लेकर बालकोनी तक इनके पौधे जाने लगे। तरू का नाम और उसके सेंटर का नाम एकाकार हो गया। तरूवन घर के खर्च काट कर ऋण शोध धीमी गति से होने लगा। विश्वंभर सान्याल सामान्य न हो पाये। बार-बार यूथिका का हाथ पकड़कर कहते–‘तुम सब कर लोगी, अपने पापा की तरह लूजर नहीं होगी।’
‘मैं बड़ी हो गई हूँ बाबा, बैंक की परीक्षा दे रही हूँ। देखिये जरूर कुछ अच्छा होगा।’ यूथिका कहती।
‘उस पगली वीथि का दायित्व तुम्हारे ऊपर है।’–सान्याल कहते।
‘वो भी समझदार है बाबा, फर्स्टक्लास नंबर लाती है।’–आश्वस्त करती। ये सब कहना उनकी महायात्रा की तैयारी थी। इन्हें मँझधार में छोड़ चले गये। यूथिका ने रिजर्व बैंक की अफसरी की परीक्षा पास की, वे देखने को नहीं थे। यहाँ का सब कुछ समेट बैंक का आधा कर्जा चुका माँ को अपने साथ रखने का निर्णय लिया यूथिका ने। यह भी देखने सुनने को वे न थे। वीथिका को जंगल से प्यार था, जंगल के पास वाले का शिल्प के नमूने वाले बँगले से बेहद लगाव था। उसे बेच दिया जाना बिल्कुल पसंद नहीं था। लेकिन न इसकी बात सुनने वाले बाबा थे न वैसी परिस्थितियाँ। यूथिका के अहसान तले दबी थी वीथिका। वह दिन व दिन उदास और चुप्पा होती जा रही थी। निधि के साथ भी घंटों बैठती, बोलती कुछ नहीं। किताबें और सहायक किताबें जर्नल्स खरीद पाने की स्थिति में नहीं थी। देर तक जब तक पुस्तकालय और होस्टल का दरवाजा खुला होता, वहीं बैठ कर नोट्स बनाती। अकसर निधि और उसका छोटा भाई साथ होता। यह विभागीय पुस्तकालय नहीं विश्वविद्यालय का ही पुस्तकालय होता। परिश्रम का फल इसे भी मिला। यह ऑनर्स में प्रथम आ गई। इसे भी मेरिट स्कॉलरशिप मिल गया। इसने मन ही मन सोच लिया था कि यूथिका से अपनी पढ़ाई का खर्चा नहीं लेगी। परीक्षाफल आने पर यूथिका और माँ बहुत खुश थीं। उसे बहुत सारे उपहार दिये यूथिका ने। तीनों जब डायनिंग टेबुल पर थे तब वीथिका ने बात छेड़ी।
‘दीदी, अब तो मुझे भी मेरिट स्कॉलरशिप मिलेगा न?’
‘हाँ स्वीटी, तुम्हें भी मिलेगा।’
‘आपका बोझ थोड़ा कम होगा। मैं अपना खर्चा उठा सकूँगी।’–वीथिका के कहते ही सबको शॉक लगा, एक बड़ा धक्का।
‘तुम मेरे ऊपर बोझ नहीं हो समझी? मेरा दायित्व है तुम्हारी देखभाल जो बाबा ने मुझे सौंपा था।’
‘वो तो है दीदी, पर क्या मेरा कोई कर्त्तव्य नहीं अपने ऊपर?’
‘है न, तुम अपने लक्ष्य को प्राप्त करो यह कर्त्तव्य है। तुम्हारी दीदी का वेतन पर्याप्त है वीथि, समझी?’
‘दीदी, कुछ करने दो मुझे भी।’
‘वीथि, जरूरत की किताबें खरीद, साबुत साड़ी खरीद, कटपीस दुकान जाना छोड़।’–दोनों बहनें इस बात पर हँसी, माँ तरू सान्याल न समझ पाईं। सब कुछ लगभग सामान्य हो गया था, मन वैसा ही खाली और बुझा बुझा सा था। यूथिका ने अपना लक्ष्य पूरा कर लिया था, माँ तरू मन लगाने के लिए तरूवन का काम देखती। दोनों एक प्रकार के लोग थे। वीथिका अपने पिता की तरह भावुक थी। बहिर्मुखी लोग परिस्थितिवश अंतर्मुखी हो जाते हैं तब अंदर में एक ज्वाला-सी जलती रहती है। वीथिका के साथ यही हुआ। एम.ए. में अधिक समय विभाग में रहना होता था, यह बैठी बैठी गंगा नदी को निहार रही होती, पाल वाली नाव की गति, हवा की गति उससे फैलते सिकुड़ते पाल सब इसकी जद में होते। इसके दु:ख और पीड़ा की सहभागी इसकी अनन्य सखी निधि भी चुप्पी साधे रहती। इन लड़कियों को बिल्कुल यह पता नहीं था कि किनकी निगाहों के वृत्त में ये हैं। ये या तो अपने आप में खोयी रहतीं या अपने भविष्य को लेकर चिंतित रहतीं। स्कोप स्कोप तो बहुत सुना था, पर जाना नहीं। विभागीय पुस्तकालय में किसी किताब के लिए कई दिनों से चक्कर लगा रही थी वीथिका, निधि साथ थी।
‘कई दिनों से आप कह रहे हैं किताब किसी प्रोफेसर ने इशू करा रखा है।’
‘मैं सच ही कह रहा हूँ वीथिका जी।’–पुस्तकालय वाले ने कहा।
‘यह पेपर हेड सर पढ़ाते हैं। नोट्स लेने के लिए इसी किताब का नाम दिया है। हम क्या करें? किनके पास है किताब?’
‘पर यह छात्रों को नहीं दिया जाता है।’
‘मुझे पता है। यहाँ रह कर लेती नोट्स। सर लोगों को सोचना चाहिए।’
‘यह सब न बोलिये, कहीं जाकर कोई शिकायत न कर दे।’
‘ऊँह? बताइये किनके पास है मैं खुद जाकर माँग लूँगी।’
‘हेड सर के पास।’–मुस्कुराया पुस्तकालयाध्यक्ष।
‘ओह?’–कहा वीथिका ने। उसकी मुस्कुराहट गहरी होती जा रही थी। मानो वह जताना चाह रहा है कि अब क्या करोगी?
‘वीथि, क्या हम हेड सर से न मिल लें?’–निधि ने कहा
‘क्या?’–पुस्तकालयाध्यक्ष चौंका।
‘हाँ, और नहीं तो क्या! वे लोग बाबा के पास मंदिर आते हैं। पूजा-पाठ करते हैं? खूब हँसते भी हैं।’–निधि ने समझाया।
‘चलो, देखते हैं अपने चेंबर में हैं क्या?’–वीथिका थी।
‘वो उधर वाली कोठरी में सर बैठकर पेपर वगैरह तैयार करते हैं। वहीं हैं।’– पुस्तकालयाध्यक्ष ने कहा।
‘ओ माँ, बाबा रे, यहीं?’–निधि बोली।
‘तभी तो मैं कह रहा था कि सुन लेंगे।’–फिर मुस्कुराया। लेकिन वीथिका ने सधे कदमों से दरवाजे के पास जाकर दस्तक देते हुए पूछा–
‘क्या मैं अंदर आ सकती हूँ?’
‘आओ, आओ’–आवाज आई। दोनों अंदर आ गई। टेबुल पर कुछ किताबें खुली थीं उनके आगे कागज फैले थे। एक गहरा हरा शेफर्ड पेन खुला था, जिसमें ढक्कन लगाते, उन्हें बैठने का इशारा किया। दोनों संभ्रम-सी बैठ गई।
‘कहिये, मुझसे क्या काम आ पड़ा?’–सामने बैठे सुदर्शन पुरुष ने अपनी दोनों आँखें मानो वीथिका की आँखों में रोप दीं, उसका असर दिल तक गया दिमाग और पूरा वजूद झनझना उठा। कक्षा में भी अब तक चार-पाँच बार पढ़ा चुके हैं। उनकी खूबसूरती और नायाब व्यक्तित्व के सभी छात्र-छात्राएँ कायल हैं। वे आते हैं तो उनके हाथ खाली होते हैं। न रजिस्टर न खली-डस्टर होता। न रोलकॉल होता न ब्लैक बोर्ड की ओर देखते।
‘आज किस टॉपिक पर आगे बढ़ना है?’–पूछते। यदि किसी टॉपिक की तारतम्यता बनती तो छात्र बताते। और वे आगे बढ़ जाते। टेक्स्ट तथा रेफरेंस बुक के साथ प्रकाशक का नाम पता भी मौखिक रूप से बता देते। छात्र छात्राएँ धड़ाधड़ नोट्स लेने लगते।
‘आपलोग कलम बंद करें, मेरी ओर देखकर मेरी बातें सुनें। मैंने जिन किताबों का नाम लिया है वह याद करने को नहीं, पढ़ने को। सिर नीची किये आप लिख रहे होते हैं हम दीवारों को सुना रहे होते हैं। मेरी ओर देखते हुए सुनिये। मैं जबतक आपके भाव न समझूँगा कैसे आगे बढ़ूँगा। चलिये कलम रखिये’–कहते। फाइलें और कलमें डेस्क पर रख दी जातीं। गाल पर हाथ रखकर विनीता सुनती, सभी सुनते। बीच-बीच में वे टोकते।
‘जनाब आप मेरी ओर देख रहे हैं या दीवार पर रेंगती हुई छिपकिली को? ध्यान कहाँ है?’
‘मेरी कक्षा में जिन्हें नींद आने लगे, वे बाहर जायें।’
‘कान खोलकर सुनिये, मुँह खोलकर नहीं।’
‘आपका चेहरा कहीं भाग जाएगा जो हाथों से थाम रखा है?’
इस तरह की बातचीत के कारण प्रो. शिवरंजन प्रसाद खासे लोकप्रिय थे विभाग में छात्र-छात्राओं के बीच।
‘सर आपने जो विषय प्रवेश कराया उसका टेक्स्ट हमने यहाँ लाइब्रेरी से लेकर पढ़ लिया पर रेफरेंस वाली किताब।’–वीथिका ने पूरा किया।
‘मेरे पास है।’–मुस्कुराये।
‘जी’–सर झुका लिया वीथिका ने।
‘अरे अरे यह सचमुच की कमलनाल की गरदन टूट न जाये कहीं, निधि सँभालो अपनी सखी को।’–निधि हँसने लगी। कोहनी से इसे टकोरा यह भी हँसती हुई देखने लगी। वातावरण हल्का हो गया।
‘मेरा काम हो गया।’–उन्होंने घंटी बजाई, पियुन आया। किताब देते हुए कहा–‘साहब से कहो–यह किताब वीथिका सान्याल के नाम चढ़ा कर इन्हें दे दें।’–पियुन किताब लेकर चला गया। दोनों उठने को हुई।
‘थैंक्यू सर,’–कहकर उठीं दोनों।
‘बैठिये, बड़ी मतलबी निकली किताब झींटा और भाग चलीं। चाय वगैरह पीजिये, समय हो रहा है।’
‘नहीं सर, जी सर।’
‘ये क्या है? चाय नहीं या हाँ? वैसे साथ तो देना पड़ेगा।’–उन्होंने चपरासी को बुला कर तीन कप और पॉट में चाय लाने को कहा। दोनों लड़कियों ने एक दूसरे को देखा, वे इन्हें देखते हुए मुस्कुरा रहे थे।
‘वीथिका, मुझे विदेश के एक सेमिनार में जाना है, मैं उसी के लिए तैयारी कर रहा था। अच्छा हुआ आप आईं। टॉपिक मैं देता हूँ, आप आलेख तैयार कर दीजिये।’
‘मैं?’–वीथिका ने अपनी आँखें फैला लीं।
‘नहीं तो कौन?’–मुस्कुरा रहे थे।
‘सर यह कैसे होगा?’–निधि थी।
‘मिस निधि भट्टाचार्य, आप भी तैयार करें। दोनों के पेपर को मिलाकर वहाँ बोलूँगा।’–कहा।
‘ओह नो, माई गॉड!’–निधि ने कहा।
‘यहाँ चल गया सो चल गया, बाबा के सामने दुर्गा दुर्गा कहना है’–फिर हँसी का फव्वारा फूटा। तब तक चाय आ गई। वीथिका ने अच्छी छात्रा बन चाय तैयार की और पीने बैठ गई। बहुत दिनों बाद पॉटवाली दार्जिलिंग चाय पीने को मिली, परितृप्ति से उसकी आँखें अर्धनिमीलित हो उठीं। शिवरंजन प्रसाद उसके आनंद का आनंद लेने लगे।
‘निधि, तुमने प्रचुर दूध और चीनी तो ली होगी।’–फिर सब हँस पड़े ऐसा लग ही नहीं रहा था कि ये अति गंभीर विभागाध्यक्ष प्रो. शिवरंजन प्रसाद के पास बैठी हैं।
‘तुमलोग अलग-अलग बैठकर नोट्स बनाना, आलेख तैयार करना।’ –जाते जाते हिदायत दी।
‘सर, क्या सचमुच लिखना है?’–निधि ने पूछा।
‘हाँ, बिल्कुल। दोनों को अलग-अलग।’
पाँच साल से स्थापित यह विभाग आज खासा ऊष्मा से भर गया था। चपरासी, किरानी, पुस्तकालयाध्यक्ष सभी नये थे। पाँच वर्ष तो हो ही गया था। प्रोफेसर वगैरह भी नये थे जो बाहर के विश्वविद्यालयों से पढ़ कर आये थे। कुछ रिसर्च स्कॉलर थे। गंभीर वातावरण रहता अधिकतर लोग देश के कई भागों में तथा विदेशों में भी विकास पर अपनी बात रखने जाते रहते। थोड़ा कटा कटा सा विभाग तो था। जिन लोगों ने पास किया था वे राजकीय तथा राष्ट्रीय सेवा में चले गये थे। एम.ए. करके पीएचडी में कम लोग आये थे। साल में तीन माह इनका फील्ड वर्क होता। अकसर जूनियर प्रोफेसर साथ होते। इस बार सुदूर गया के जंगल वाले गाँव में चेरो जनजातीय जमात का रहन-सहन खान-पान के संबंध में जानने, अध्ययन करने लड़के लड़कियाँ गये। विपन्न चेरो जनजातीय के लोगों के पास न तो पर्याप्त वस्त्र होते न उनकी जीवन पद्धति वैसी होती कि उन्हें जरूरत होती। स्वल्प कपड़ों में गुजारा करते। लड़के या लड़कियाँ सभी मात्र अधोवस्त्र पहनते, ऊपर नंगे बदन रहते किशोरी और युवतियों को देख लड़के शर्म से भाग खड़े होते। शर्म तो लड़कियों को भी आती पर लड़के टिकते ही नहीं। उनकी कार्यशाला सेकेंड हैंड ही चलती। कुछ युवकों के साथ आखेट करना, जंगल के खेल खेलना उनका शगल होता। प्रोफेसर साहब भी आवास से नहीं निकलते। यह सब पढ़े-लिखे और सभ्य समाज की कुंठायें थीं; वहाँ अभी ये सब नहीं पहुँचा। तीन माह की कार्यशाला के बीच विभागाध्यक्ष पहुँच गये। उन्होंने देखा लड़कियाँ फील्ड वर्क में हैं लड़के चेरो लड़कों के साथ कौड़ी खेल रहे हैं। कारण जानने पर वहीं क्लास लेना शुरू किया।
‘उनकी जीवन दृष्टि, उनकी पद्धति, उनका जीवन-दर्शन देखने सीखने समझने आएँ हैं आपलोग। ऐसे कैसे समझेंगे?’–जोर से कहा।
‘जीवन दर्शन कुछ नहीं है सर, अभावग्रस्त हैं।’–एक छात्र था।
‘अशिक्षा का अंधकार है सर।’–दूसरा था।
‘अध्ययन से अधिक जरूरी है सहायता की।’–तीसरा था।
‘आपलोग ने मोटामोटी समस्या जान ली है। अब इस सबकी रपट बना कर देंगे। विकास की सरकारी दिशा बदलेगी। जंगल में, जंगल के गाँवों में घुसेगी यह जानकर कि हमारे नागरिक यहाँ हैं, इन्हें सहायता चाहिए।’–शिवरंजन प्रसाद ने कहा।
‘सोलह सत्रह साल हो गये आजादी के।’–एक लड़का था।
‘आपलोग ही आगे सरकार में होंगे, ख्याल रखियेगा।’–शिवरंजन बाबू ने कहा और अपने कमरे में चले गये। कपड़े बदलकर चाय पीने पहुँचे, सारे शिविरवासी वहाँ थे।
‘सर, एक बात कहूँ?’–एक छात्रा ने कहा।
‘कहो, क्या कहना है?’–शिवरंजन प्रसाद थे।
‘लड़कियों के साथ हमलोग की अच्छी और सच्ची बातें हुई।’
‘हूँ।’
‘सर हमारे साथी लड़के हमारे विषय में भी कुछ नहीं जानते, न जानना चाहते हैं। रूप-रंग, हाव-भाव देखकर आप कैसे किसी स्त्री की समस्या को ठीक से समझ सकते हैं?’–वह छात्रा विवाहिता थी जिसने कहा।
‘यह सच है, बाहरी आडंबर से समस्या नहीं जानी जा सकती है, न ही समाधान की ओर ध्यान जाता है। मानव मन उलझकर रह जाता है।’
‘सर, सबसे पहले पूरी जमात की समस्या जीवन-रक्षा की है। उस पर ध्यान न गया तो जनजाति विलुप्त हो जाएगी।’–एक छात्र था।
‘जंगल में जानवर की भाँति रहते हैं जबकि जानवर नहीं हैं, वह बनावट भगवान ने नहीं दी है। कपड़े का ज्ञान है पर इनके पास प्रचुर है नहीं, भोज्य पदार्थ की जानकारी है और ये प्राप्त नहीं कर पाते। घर चाहिए धूप, ठंढ और वर्षा से बचने के लिए, वह भी नहीं है। घास और पत्तों के घर बनाते तो हैं। यदि पुख्ता बाँस काठ के घर में हों तो रहना सीख जायेंगे।’–दूसरे लड़के ने कहा।
‘आपका आकलन सही है।’–विभागाध्यक्ष थे।
‘लड़के-लड़कियाँ मिलकर बहुत अच्छा नृत्य करते हैं।’–एक लड़की थी।… ‘संगीत और स्वर भी बढ़िया है।’
‘बर्तन वगैरह बनाना जानती हैं।’
‘हाट से कुछ देकर कुछ ले आते हैं।’
‘जैसे?’ … ‘जैसे मधु सर।’
‘लकड़ी के गट्ठर।’
‘हम इन्हें कुछ दे तो नहीं सकते पर इनको कुछ समझा तो सकते हैं।’
‘हम क्या करेंगे? साधनहीन को सबसे पहले मौलिक आवश्यकता पूर्ति का सामान देना पड़ेगा।’… ‘यह कैसे होगा?’
‘आप अध्ययन कर अपना सामूहिक तथा व्यक्तिगत विचार लिखकर देंगे, फिर उसका उपयोग होगा।’
‘जैसे जलावन देते हैं, आलू बदले में मिलता है।’
‘विनिमय?’… ‘जी सर।’
‘आप चाहें तो अखबारों, पत्रिकाओं में लिखकर छपने दे सकते हैं जिससे आमजन को अपने ही देश के ऐसे बाशिंदे के बारे में जानने का मौका मिलेगा।’
स्ट्डीटूर समाप्त होने के आखिरी दिन वीथिका और निधि किसी बड़े पेड़ से दातौन तोड़ रही थी कि चोट खा गई। एक पतली सी डाल हाथ से छूट गई। वीथिका की गाल पर जा लगी। वीथिका की घुटी सी चीख सुन निधि पास आई; वीथिका ने गाल को हाथ से दबाकर रखा था।
‘क्या हुआ देखूँ?’–अनायास शिवरंजन प्रसाद आ गये।
‘कुछ नहीं सर, जरा सी चोट है।’–वीथिका ने कहा। शिवरंजन प्रसाद ने गाल पर से उसका हाथ हटाया और सहलाने लगे। वीथिका शर्म से गड़ी जा रही थी।
‘अच्छी खासी चोट है। ठंढे पानी से धो लो। निधि, जाओ ट्यूबवेल चला कर इसका चेहरा देर तक धो दो।’–समझाया और चले गये। सारे उपचार हुए। लौटती में वीथिका ने पूरे समय दुपट्टा अपने चेहरे पर लपेटे रखा। सभी सहपाठी उसके इस कष्ट से दुखी थे। प्रो. शिवरंजन की नजर बार-बार उस पर पड़ती। अर्धनिमीलित आँखों से जब कभी वीथिका उनकी ओर देखती एक झनझनाहट का अनुभव करती। उनकी आँखों में भी कुछ था जिसे यह समझ नहीं पा रही थी। कार्यशाला के बाद रपट तैयार करने तक इन्हें रहना था। वीथिका का वह स्थान लाल फिर काला पड़ गया। निधि अपने घर से आकर इसके साथ संयुक्त रपट तैयार कर रही थी। वीथिका बोल रही थी लेटी हुई, निधि लिख रही थी। तभी एक सलोनी सी गदगदी बच्ची आई। आते ही चहकी–‘अरे निधि आंटी?’
‘तुम किधर से यहाँ आ गई?’–निधि ने उसे देखकर कहा।
‘वीथिका आंटी कहाँ हैं?’
‘यही तो है।’–निधि ने कहा।
‘ओ माई गॉड, वीथिका आंटी आपको तो बहुत चोट आई है।’–बच्ची ने कहा। ‘बूढ़ी माई, तुम वीथिका से मिलने आई हो? अकेली हो या माँ भी है?’– निधि ने पूछा, वीथिका मुस्कुरा रही थी।
‘नो, नो, मैं ये दवाइयाँ देने आई हूँ। पापा के साथ। पापा बाहर हैं।’
‘कहाँ? अरे? चलो तो!’
‘पहले दवाई तो लो, होमियोपैथी दवाइयाँ हैं। ये जो पुरजी चिपकी है न, वहाँ सब लिखा है। पापा ने कहा है पूरा इंस्ट्रक्शन फॉलो करना है। ठीक है।’–बच्ची ने डॉक्टर की तरह कहा। वीथिका ने दवाइयाँ लीं और पढ़ने लगी। निधि बच्ची को खींचती हुई बाहर निकल गई। नीचे लाउंज में प्रो. शिवरंजन छात्रावास अधीक्षिका के साथ बैठे चाय पी रहे थे।
‘ओ? तुम ही अटेंडेंट हो?’–छात्रावास अधीक्षिका ने कहा।
‘जी मैम, मैं नोट्स तैयार कर रही हूँ।’–निधि ने हकलाते हुए कहा।
‘ओके, तुम रात में तो नहीं रहती न? नॉट अलाउड।’–बेवक्त की वंशी बजाई।
‘नहीं मैम, मेरा घर तो यहीं है।’–निधि ने दिशा-निर्देशित किया।
‘मुझे पता है, मंदिरवाला।’–उन्होंने कहा। प्रो. शिवरंजन मुस्कुरा रहे थे बच्ची उनसे सटकर बैठ गई।
‘जी मैम।’
‘तुमलोग ने मुझे बताया नहीं, वीथिका को चोट लग गई है। इन्हें दवा लेकर आना पड़ा, यह मेरा काम है न!’–वे तैश में थीं।
‘माफ करें सीता कुमारी जी, हम सब तीन महीने से कार्यशाला के सिलसिले में बाहर थे। वहीं चोट लग गई वीथिका सान्याल को। मैं हेड कर रहा था। मेरा अपना भी दायित्व है न! आप अन्यथा न लें। मुझे कोई परेशानी नहीं है। छात्रों का होना गुरु को सार्थक करता है। यही हमारा परिवार है।’–प्रो. शिवरंजन ने कहा और उठ खड़े हुए। उन्हें पता नहीं चला कि दक्षिण भारतीय सीता कुमारी ने उनकी बात समझी या नहीं। परंतु सीता कुमारी ने सर हिलाया।
‘सो काइंड ऑफ यू सर’–कहा।
‘निधि, कैसी है वीथिका?’–प्रोफेसर साहब ने पूछा।
‘सर, स्किन काला पड़ गया है।’
‘इस दवा से ठीक हो जाएगी।’–वे निकल गये। सीता कुमारी ने उन्हें विदा किया। इसी बीच निधि ऊपर वीथिका के कमरे की ओर भागकर चली गई।
‘निधि, मेरा आज जरा भी मन नहीं है लिखने पढ़ने का। दवा खाकर और आँखों में ड्रॉप डालकर लेट जाऊँ? तुम काम करो यहीं, कुछ भूलने लगना तभी टोकना–‘वीथिका ने कहा।
‘हाँ यार, सर ने भी यही कहा है, स्ट्रेन नहीं लेना है।’
‘पर सीता कुमारी दी जरूर आयेंगी। मैं पड़ी रहूँगी।’–वीथिका ने समझाया।
‘तू ड्रॉप डाल, मैं उन्हें सँभाल लूँगी।’–निधि ने कहा।
ये लड़कियाँ, होस्टल सुपरिंटेंडेंट सीता कुमारी को खूब अच्छी तरह जानती थीं। एक तो मैथेमेटिक्स की प्रोफसर, दूसरी चिर-कुँआरी, तीसरी हिंदी भाषा का अल्पज्ञान। सब मिलाकर उन्हें खड़ूस बनाता।
‘वीथिका, वीथिका किधर हो?’–सीता कुमारी की आवाज सुनकर निधि बाहर निकली।
‘मैम वो दवा खाकर सो रही है। प्लीज मैम।’
‘किधर हैं?’
‘दरवाजा खोल परदा हटा चेहरे पर दुपट्टा डाल कर सोती हुई–वीथिका को देखा सीता कुमारी ने। फिर बड़बड़ाती हुई चली गई। कुछ नहीं समझती हैं ये लड़कियाँ, मुझे नहीं बतातीं। दरअसल उन्हें भय था कि कहीं ये शिकायत कुलपति तक तो नहीं पहुँच जाएगी। एकाध हफ्ते में वीथिका ठीक हो गई। रिपोर्ट भी दाखिल हो गया। छुट्टी से पहले निधि को साथ ले प्रो. शिवरंजन के यहाँ उन्हें धन्यवाद देने पहुँची। वीथिका ने सुन रखा था कि प्रो. शिवरंजन की पत्नी प्रो. रम्या इंदु जो किसी कॉलेज की संगीत शिक्षिका है, बड़ी क्लासिकल गायिका हैं। रेडियों में ‘ए’ ग्रेड की गायिका भी हैं। वे बड़ी व्यस्त जीव हैं। कई जगह स्टेज पर गाती हैं। कुछ शिष्य भी हैं इनके। प्रो. शिवरंजन और मैम रम्या सहपाठी रहे हैं। इनका प्रेम विवाह हुआ था। प्रोफेसर साहब के यहाँ जब पहुँची वीथिका और निधि तब वे गमलों की निराई गुड़ाई कर रही थीं। गेट की आवाज सुन पीछे देखा। निधि के साथ वीथिका थी। निधि ने उन्हें वहीं से पुकारा।
‘प्रणाम आंटी’
‘खुश रहो’–उन्होंने हर्षित होकर खुरपी रख उन्हें बुलाया। लॉन में तीन चार कुर्सियाँ और टेबुल लगे थे।
‘आओ बैठो, मैंने जान लिया था कि तुमलोग आने वाली हो तभी तो टेबुल कुर्सी लॉन में लगवाया’–उन्होंने वहीं रखी झाड़ी से जल लेकर हाथ धोया। कमर में खुंसे छोटे तौलिये से हाथ पोंछा और आकर बैठ गई। सफेद वायल की साड़ी पर छोटे छोटे नीले पीले फूल छपे थे। रम्या इंदु जी गहरे काले रंग की थीं। चिकना चेहरा था, उभरे हुए ओठ थे जिससे दाँत जब तब बाहर झाँक जाते थे। असुंदर रम्या इंदु जी की बातचीत स्निग्ध अहसास भरती थी। मन में ए ग्रेड की गायिका जिनकी स्वर लहरी हजारों को बाँध लेती है की यह छवि कतई नहीं थी वीथिका के। साथ ही यह सुना था कि कॉलेज के दिनों से ये प्रेमी थे, छह साल की कोर्टशिप के बाद शिवरंजन के प्रोफेसर लग जाने के बाद ही इनके पिता ने विवाह किया था। प्रो. शिवरंजन प्रसाद साधारण घर के पिताहीन बालक थे, रम्या इंदु बड़े कलाकार की बेटी थीं। यह सब तो ठीक था परंतु वीथिका को यह जोड़ी थोड़ी अटपटी लगी। ‘दिखाओ वीथिका, कहाँ है तुम्हारी चोट?’–वीथिका ने अभी भी दुपट्टे से चेहरा ढँक रखा था। उन्होंने दुपट्टा हटाकर देखा। चेहरा साँवला पड़ गया।
‘अभी घर जाकर भी दवा खाती रहना। खून जमा है।’
‘जी, ले रही हूँ।’–वीथिका ने कहा। मन में अचानक उठा बवंडर थम सा गया कि प्रो. शिवरंजन प्रसाद जैसे स्वरूपवान की पत्नी इतनी कुरूप कैसे है? यह अधिक अचंभे की बात थी कि प्रेम विवाह था। उनका वत्सल स्पर्श और स्नेहिल स्वभाव, अनौपचारिक व्यवहार सब कुछ को दरकिनार कर सामने खड़ा था। घर में प्रोफेसर साहब और दोनों बच्चियाँ नहीं थीं। क्लब में बच्चों वाली फिल्म दिखानी थी, वहीं लेकर गये थे।
‘मैं सर को कुछ कहने लायक तो नहीं हूँ फिर भी उनको आभार कहने आई थी मैम! आप ही कह देंगी।’
‘अरे क्या बात है, वे तुम्हारे अभिभावक हैं। यह उनके कर्त्तव्य में शामिल है। आभार की क्या बात है? लेकिन तुम आई, मैं बता दूँगी।’
‘मैम, मैं अब विश्वविद्यालय खुलने पर ही आऊँगी। मेरा और निधि का ज्वाइंट रिपोर्ट है। आगे का काम निधि कर लेगी।’
‘सही बात है। यह सब मुझे कहने की या उनको कहने की भी कोई जरूरत नहीं। मैं तुम्हारी बात उनसे नहीं कहूँगी। तुम आई यह मैं जरूर कहूँगी।’–उनकी कटी सी बात सुन वीथिका आहत हुई। उसे समझ में ही न आया कि अभी अभी ये इतनी वत्सल थीं अब क्या हो गया? दोनों उनके अहाते से बाहर निकल आईं। रिक्शा लिया और होस्टल की ओर चलीं। निधि ने देखा वीथि का चेहरा उतरा हुआ है, वह चुप ही हो गई।
‘क्या हुआ वीथि? अचानक चुप क्यों हो?’
‘दाँत में दर्द है, आँखें सूज गई हैं, मुँह नहीं खुलता, और कुछ?’
‘अरे तो चिढ़ क्यों रही है?’
‘सच कह रही हूँ। इतनी देर से मुस्कुरा तो रही थी, चैन नहीं पड़ी तुझे?’
‘मैं समझ रही हूँ तू क्यों नाराज है।’
‘वो आंटी ऐसी ही हैं। कोई साइकोलॉजिकल प्रॉब्लम है। हम उनसे मिल गये, यह महज इत्तफाक था, वरना गये तो थे सर से मिलने।’
‘पता नहीं।’–घर जाने तक निधि से नाराज सी रही वीथिका। –‘निधि समझ रही थी कि एक तो बेचारी को तकलीफ है, ऊपर से रम्या आंटी की बात। पर इसमें निधि का क्या दोष?’–यह सब कुछ ही दिनों की बात थी। निधि अपने काम में लग गई और वीथिका माँ की गोद में सर रखकर सोने में लगी। माँ को पता था कि उसकी यह छोटी बेटी अपने पिता की तरह भावुक है। बचपन से जिस बड़ी बहन के साथ रही उसकी बातों का भी बुरा लग जाता है इसे। पता नहीं क्यों तकलीफ में है? यूथिका का कहना है कि चोट के कारण पूरा स्कल दर्द कर रहा होगा, क्या बोले। पर मन ही मन समझती है जब जब किसी पीड़ा में पड़ती है, बाबा याद आते हैं। याद सबसे अधिक यूथिका को आते हैं, जब उसने बैंक में कम्पीट किया, जब कर्जे चुका दिये, जब माँ के साथ तीनों व्यवस्थित हो गये तब बड़ी शिद्दत से उनकी कमी खली। अपनी एक्सलेंट रिपोर्ट कार्ड दिखाने बाबा के पास दौड़ती थी, वैसे ही दौड़कर बताना चाहती थी कि बाबा, ओ बाबा तुम्हारा सारा ऋण सोध कर दिया। गोपालपुर गाँव की जमीन में गोपालभोग धान की फसल लगी है। तब क्या करती है यूथिका, बाथरूम में बैठकर रोती है। माँ का दुःख बढ़ाना नहीं चाहती, वीथिका को विचलित करना नहीं चाहती। बड़ी होना इसे ही कहते हैं, सभी के अभाव का संत्रास का गरल पीती रहो। इस बार वीथि को शारीरिक कष्ट हैं। वह ऑफिस से आकर उसका माथा सहलाती है। उसकी रुचि देखकर कहती है कुछ।
‘वीथि, ओ वीथि तू आगे क्या करेगी? किसी कॉम्पिटिशन में बैठेगी? या सोशलवर्क वाले फील्ड में जाएगी?’–पूछती।
‘दीदी, ज्यादातर लोग सोशलवर्क के फील्ड में जाते हैं, कॉम्पिटिशन का भी यह बहुत ही पापुलर विषय है। मेरा मन है कॉलेज ज्वाइन करने का। बड़ी तेजी से सभी कॉलेज में डिपार्टमेंट खुल रहे हैं।’
‘योजना तो अच्छी है पर पढ़ाई खूब करनी पड़ेगी। पीएचडी करना पड़ेगा।’
‘हाँ दीदी, वह तो करना पड़ेगा।’
‘ठीक है, तुम्हारी इच्छा है तो वही सही।’
सोचते विचारते वीथिका को लगा कि मैडम रम्या इंदु का व्यवहार जो था सो था, अधिक दुःख इसे मिला है अपनी सोच से। उनकी शुरुआती बातचीत से लहालोट हो इसने बड़ी-बड़ी बातें सोच ली थीं। उन्हें पौधों में संलग्न देख इसने निष्कर्ष निकाला कि ये बगीचा सजाने की इच्छा रखती है। इसने सोचा माँ से माँगकर कुछ नये किस्म के सुंदर फूलों वाले पौधे इन्हें लाकर भेंट करेगी। इनके प्रति मन अगाध प्रेम से भर गया था। ऐसा क्यों हुआ था? क्या सिर्फ सद्व्यवहार के कारण कि किसी और कारण? इसके प्रिय प्रोफेसर शिवरंजन प्रसाद की प्रेमिका पत्नी हैं। उनकी ब्याहता होने से पहले से प्रेमिका रही हैं। इन पर प्रोफेसर साहब का दिल लुट गया, यह विशिष्ट हैं। इन्हें वीथिका अतिविशिष्ट श्रेणी में रखकर देखने लगी। इसका मन आहत इसके अपने अतिरंजित सोच के कारण हुआ। ठीक कहती है दीदी और कई बार माँ भी कि भावुक इनसान बात बात में आँखों में पानी भर लेता है। दृष्टि धुँधली हो जाती है। वह सच नहीं देख पाता, झूठ नहीं पहचान पाता। वीथिका ने अपने भावुक मन को खूब लताड़ा। संकल्प किया कि वह भावुकता में कभी नहीं फँसेगी।
इस संकल्प से मनप्राण को सुकून मिल गया। वीथिका ने माँ को पकड़ा और गहरी नींद सो गई। दूसरी सुबह रविवार की थी। सुबह सबेरे तीनों माँ बेटियों ने बिस्तरे पर चाय पी। चाय बनाया वीथिका ने। वीथिका का उत्फुल्ल मन देख माँ और बहन आश्वस्त हुई। अब उन्हें लगने लगा कि चोट के दर्द के कारण ही वीथिका अनमनी सी थी।
छुट्टी खत्म होने पर वह तुरत चल दी। चेहरा ऊपर से सामान्य हो गया था। अंदर से हड्डी में दर्द था। सामान रखकर, नहा धोकर तैयार हुई कि निधि के घर जाया जाएगा। जाते समय अकारण रूठ गई थी, निधि से उसने मुँह फुला रखा है। उसका प्रमाण है कि निधि ने कुशलादि पूछने के लिए एक पोस्टकार्ड तक नहीं डाला। कमरे से बाहर निकली ही थी कि जमादारिन सेमिया मिल गई। युवती जमादारिन इन लड़कियों से खासी हिली-मिली थी।
‘आज आई हैं दीदी?’–उसने पूछा।
‘हाँ, दो-तीन दिन पहले आ गई हूँ। कुछ काम है।’–इसने कहा।
‘आपको निधि दीदी के घर के बारे में कुछ पता है?’
‘क्यों क्या हुआ? नहीं पता।’–यह घबड़ा गई।
‘बड़ा हादसा हो गया दीदी, भैया गंगा जी में नहाने उतरे थे, मैया ने बलि ले ली। बाबा अचेत हुए सो अब तक क्या कहते हैं कोमा? हाँ उसी में चले गये हैं।’–सुनकर लगा वीथिका को, कि गश खाकर गिर पड़ेगी। आँसुओं से गला तथा नाक बंद हो गया। वह बेसिन की ओर भागी। चाबी सेमिया को पकड़ा कर ताला खोलने को कहा। सेमिया ताला खोल दरवाजा पकड़ कर खड़ी थी। पूरा मुँह आँख नाक धोकर वीथिका कमरे में आई और कटे पेड़ की तरह पड़ गई। फूट-फूट कर रोने लगी। सेमिया झाड़ू कटका छोड़ उसके पैर सहलाने लगी।
‘दीदी, हिम्मत करो।’–थोड़ी देर रोकर आश्वस्त हुई वीथिका को।
‘कब हुआ सेमिया?’
‘आपके जाने के हफ्ते भर बाद।’
‘कहाँ हैं अंकल भर्ती?’
‘यूनिवर्सिटी वार्ड में दीदी।’
‘तेरही के बाद पूजा कराने की बात हुई है। दीदी पेट और जिनगानी बहुत कठिन है चलाना।’
‘मंदिर की पूजा?’
‘जी दीदी। मंदिर के चढ़ावे से ही घर चलता था और मंदिर के पुजारी का जो घर है वहीं रहते थे। अब अगर नया पुजारी आयेगा तो सब उन्हीं का होगा घर में कोई पुरुष है नहीं। बड़ी दीदी लोग शादीशुदा हैं। दूल्हा जी लोग तो बढ़िया नौकरी कर रहे हैं। बच गई निधि दीदी।’
‘तो निधि क्या करेगी?’–वीथिका अचरज में पड़ गई।
‘सुन रहे हैं कि निधि दीदी की तरफ से आवेदन गया है।’
‘हम होकर आते हैं सेमिया।’
‘जी दीदी, हो आइये।’–अपने आपको मजबूत किया वीथिका ने। पिता के जाने का दु:ख यह झेल रही है। यहाँ तो दुहरा दु:ख है। भाई चला गया पिता उसी मार्ग पर हैं। पता नहीं आंटी और तीनों बहनों का क्या हाल होगा। उधेड़बुन करती हुई वीथिका पहुँची। सबसे पहले मंदिर गई। माता के दर्शन किये। माता का शृंगार वैसा ही था जैसा पहले होता था। सामने आसन पर पीठ किये लाल वस्त्रों में निधि आँख बंद किये बैठी थी। माथे पर चंदन और रोली सजी थी। चंदन भी संभवतः रक्तचंदन था। जप करने में निधि तल्लीन थी। वीथिका पार्श्व में बैठ गई। लगभग आधा घंटा वह बैठी होगी, निधि जप करने में डूबी थी। दीन दुनिया की परवाह नहीं थी उसे, वीथिका हौले से उठी, घर की तरफ आ गई।
‘ओ माँ गो, देखो वीथिका आई है।’–अचिरा टेबुल पर खड़ी-खड़ी कपड़ों में इस्तरी कर रही थी।
‘हाँ, देख रही हूँ।’–कोई सब्जी काट रही थी रूचिरा
‘चाची जी किधर हैं दी?’–पूछा वीथिका ने।
‘उधर’–बरामदे पर रखी खाट पर क्षीणकाय चाची पड़ी थीं। सब अपने आप को काम में व्यस्त दिखाने की कोशिश कर रही थी।
‘रूचि दी, मैं अभी मंदिर से आई हूँ। वहाँ निधि ध्यानमग्न होकर जप कर रही है। एकाग्र इतनी कि मैं गई बैठी वह समझ न पाई। दीदी, कहाँ गई वो चंचला निधि।’–दोनों बहनों ने भावहीन चेहरा बनाकर सारी बातें सुनी और कहा।
‘वीथि, तुम उसे तंग न करो। वह बाबा की जगह पुजारी नियुक्त होने वाली है। तांत्रिक जप कर रही होगी। सीखना तो होगा।’–अचिरा ने कहा।
‘कोई पुजारी ढूँढ़ लीजिये दी, वह एम.ए. फाइनल में हैं। सब चौपट होगा।’
‘मंदिर, मंदिर से लगा घर सब दूसरा पुजारी ले लेगा। तांत्रिक पूजा के लिए ही इतना सब मिला हुआ है।’–रूचिरा थी।
‘यह कॉलेज यूनिवर्सिटी है दीदी।’
‘सुनो कॉलेज बनने से पहले से हमारी पाँच पीढ़ी पहले के पूर्वज के समय से है। बाद में कॉलेज ने लिया यह एरिया। हमलोग वैष्णव तांत्रिक परिवार के हैं।’–अचिरा ने कहा।
‘कुछ समझ नहीं पाती। कब मिलूँ निधि से?’
‘दो घंटा बाद आना।’–वीथिका थके पाँव और भारी मन से लौटी अपने कमरे में। मृत्युबोध ही भयावह है। बाबा को घुट-घुट कर मरते देखा है। बिल्कुल इसी की स्थिति है निधि की। बड़ी बहनें हैं दो-दो। दोनों ब्याही, उत्तरदायित्व लेने को कोई तैयार नहीं। माँ अशक्त; वीथिका की दीदी पिता की भूमिका में है। और ये दोनों यहाँ यों ही हैं, चली जायेंगी। कोमा में पिता, अशक्त माता और देवी मंदिर निधि के हवाले छोड़कर। कैसे यह सब निधि कर पायेगी। वीथिका दो घंटे बाद फिर आई। दोनों बहनें अपना-अपना सामान बाँधकर रिक्शे में बैठी थीं। माँ वैसे ही खाट पर लेटी थीं। निधि ने सफेद धोतीनुमा साड़ी पहन रखी थी। हाथ खाली लंबे खुले बाल और ललाट पर चंदन का टीका लगा था। वीथिका को देख उनलोग को बिल्कुल अच्छा नहीं लगा निस्पृह भाव से वे चल दीं। वीथिका निधि के पास आई। उसका हाथ पकड़ा और रोने लगी। इसके रोने से उद्वेलित होकर निधि भी भरभरा कर रोने लगी। धीरे-धीरे दोनों हिचकियाँ लेकर रोती रहीं। खाट पर पड़ी माँ चुपचाप दोनों को देखती रही। बरामदे के सामने एक गोल चबूतरा था, वह इनलोग की पसंदीदा जगह थी। वहीं जाकर बैठ गईं।
‘निधि ये मैं क्या सुन रही हूँ। क्या तुम मंदिर की पुजारी बनोगी? ये कैसे होगा?’
‘कोई चारा नहीं है। खुशी है कि देवी मंदिर है।’
‘अरे यार, दीदी लोग कह रही थीं तांत्रिक पूजा होती है। तो क्या तुम मशान जाती हो?’
‘यहाँ वैष्णव तंत्र है, वह भी सात्विक। क्या तुमने कभी बलि वगैरह देखा है यहाँ?’–कहा निधि ने।
‘नहीं, कभी नहीं। वो तो नहीं देखा।’
‘लेकिन उसकी, जो मैं करूँगी, दीक्षा लेनी होगी।’
‘मैं कुछ नहीं समझ रही हूँ तेरी ये अजीबोगरीब बातें।’
‘रहस्यमय तो है पर यही रोजी-रोटी है।’
‘छह माह है, एम.ए. पास कर लेगी। चाहे तो अभी भी काम मिल जाएगा। काम की इतनी भी किल्लत नहीं है।’
‘है न, इतना बड़ा आवास और चढ़ावे की सामग्री, रुपये पैसे कहाँ मिलेंगे? यदि हमसे यह सध जाएगा तो ठीक है।’–तब तक माँ धीरे धीरे चल कर आ पहुँची। हमलोग के सामने बैठ गई। धीमी आवाज में बोली–‘अचिरा का एक ममेरा देवर है। वह वैष्णव तंत्र जानता है। उसको वह लेकर आई थी। वह रहता और पूजा-पाठ करता। उसी से निधि का ब्याह भी कर सकते हैं।’–सुनकर वीथिका का कलेजा धक् से रह गया।
‘यहाँ आया था?’–निधि की ओर देखकर कहा।
‘यह कहती है बियाह टियाह नहीं करेंगी। ऊ बोला, बिना बंधन के हम रहेंगे, किसी दिन कोई पीठ पर लात मार के भगा देगा तब हम क्या कर लेंगे? धोड़े का अंडा?’
‘चाची, शादी ब्याह ऐसे ही कैसे कोई लड़की कर लेगी?’
‘जरूरत पर गदहे को बाप कहते हैं वीथि बेटी।’
‘वीथि, तुम बेकार बहस करती हो, मैं खुद तैयार हूँ पुजारी बनने के लिए वह आई.ए. फेल लड़का क्या पूजा करेगा? वह गाँजा फूकेगा बैठकर। गंदा लड़का।’
‘तू मजबूर है निधि यह सब करने के लिए, लेकिन सक्षम है सभी प्राचीन आडंबरों को तोड़ डालने के लिए।’
‘मैं समझती थी तुम इसको समझाकर सीधा रास्ता पर लाओगी, लेकिन तुम उलटा ही बोल रही हो। मेरी तरफ कोई नहीं है।’
‘देखो क्या कह रही है।’–निधि ने विरक्त होकर कहा।
‘मैं देख रही हूँ कि तुम्हारे एक तरफ कुआँ है दूसरी तरफ खाई। तुम इस परिस्थिति से कैसे निकलोगी? मैं समझती हूँ यह सामाजिक मामला है, सर से पूछना चाहिए समाधान।’–वीथिका की इस नादानी पर निधि हौले से मुस्कुराई।
‘सर के पास? समाधान? वो यदि कर पावे तो अपने घर में इतना न सह रहे होते। फिर भी करती हूँ बात।’–निधि ने कहा।
‘मैं चलूँ निधि अभी तक सीता कुमारी से मिली नहीं।’
‘रुको, रिपोर्ट ले जाओ।’–वह कोठरी में जाकर रिपोर्ट ले आई।
‘लो, मैं तैयार कर चुकी थी, टाईप नहीं करवाया करवाने जा रही थी कि तब तक।’–निधि थी।
‘लाओ, मैं करवा लूँगी।’–वीथिका ने लिया और होस्टल पहुँच गई। सीता कुमारी से मिलने गई। उन्हें बताया कि वो सुबह नौ बजे ही आ चुकी थी। लेकिन निधि के यहाँ चली गई।
‘मैम, मुझे नहीं पता था, यहाँ आकर पता चला।’
‘बहुत बुरा हुआ, मैं गई थी, रोना आ रहा था।’–सीता कुमारी ने कहा वह अभी भी रुआँसी हो गई।
‘सबसे बुरा है कि बाबा कोमा में चले गये हैं।’
‘क्या करोगी? सब उनके हाथ में है।’–कहा सीता कुमारी ने और पढ़ाई ठीक से करने की हिदायत दी। इसका मन कर रहा था कि यह जाये प्रो. शिवरंजन प्रसाद के घर और उनसे आग्रह करे कि वो निधि को उस आडंबर से निकालें, जिसके विषय में निधि कुछ नहीं जानती वह न करे। कोई उपाय निकालें। उन्हें फोन करना चाह रही है। लेकिन डर है कि कहीं रम्या मैडम न उठा लें। इसके मन में उनके प्रति भय समा गया था। रातभर ठीक से नींद नहीं आई। सुबह नहा-धो, चाय नाश्ता कर निधि के यहाँ गई। निधि मंदिर में ही मिली। संयोग से प्रो. शिवरंजन प्रसाद भी निकट ही आसन पर बैठे मिले।
‘आओ वीथिका, बैठो।’–प्रोफेसर साहब अनौपचारिक थे। खिसककर पार्श्व में जगह बना दी। निधि ने दूसरी आसनी खिसका दी। वीथिका बैठ गई।
‘मैंने निधि से कहा है कि एक पुजारी लड़का ढूँढ़ लेता हूँ। वह सुबह-शाम मंदिर का काम कर लेगा, पूजा कर लेगा, सफाई करेगा। जो पूजा करने वाली आती है उन्हें पूजा करवा देगा। उसे वेतन और भोजन देगी। दान-पेटी तथा चढ़ावे पर उसका अधिकार नहीं होगा। विश्वसनीय लड़का देखता हूँ। यही अपने राधाकृष्ण मंदिर के पुजारी को देखता हूँ पूछकर।’–प्रोफेसर साहब ने कहा।
‘मुझे आपका विचार सही लगता है सर।’–निधि ने कहा
‘तांत्रिक पूजा का क्या होगा?’–वीथिका ने पूछा
‘अभी नहीं होगी वह पूजा।’–प्रो. शिवरंजन ने कही यह बात।
‘पर चाची तैयार होंगी?’
‘उनके न तैयार होने से क्या होगा?’–निधि तल्ख थी।
‘देखो वीथिका, मैं भट्टाचार्य महोदय का बहुत आदर करता हूँ। इसीलिए इतना सब कर दूँगा वरना किसी को क्या पड़ी है। इन सबके बाद, पंडित जी के स्वस्थ्य हो जाने के बाद ही कोई और निर्णय लिया जा सकता है। कुलपति से मिलकर हमने यथास्थिति को बरकरार रहने देने का आग्रह किया है।’
‘जी सर’–वीथिका थी।
‘निधि पढ़ने में मन लगाये। फाइनल परीक्षा नजदीक है।’ यही हुआ। राधेश्याम मंदिर के पंडित जी का शिष्य सेवा में लग गया स्कूल में पढ़ने वाला था वह, किशोर। निधि के छोटे भाई की तरह रहता। निधि उसे पढ़ा भी देती। वह निधि की माँ को बिल्कुल पसंद नहीं था। उसे दुरदुराती रहती। लेकिन निधि अब एम.ए. की तैयारी में जी जान से जुट गई।
लाइब्रेरी में अकसर अपने कक्ष में प्रोफेसर साहब वीथिका को बुला भेजते। परीक्षायें हुई। वीथिका तो प्रथम आई पर निधि का अंक ठीक ठाक ही आया।
‘वीथि, तेरे लिए मुझे बहुत खुशी है। मैं जरा ज्यादा ही परेशान रही। बाबा की देखभाल, माँ का चिड़चिड़ापन। हर माह आकर दीदी लोग का हिसाब किताब, मैं तबाह थी। यार, तूने कहा तो परीक्षा दे दी।’
‘तुम क्या सोचती हो निधि कि एक साल के बाद अच्छी परिस्थिति हो जाएगी? तुम्हारा वहम है। क्या हुआ? उच्च द्वितीय श्रेणी का नंबर है तेरा पीएचडी के लिए रजिस्टर हो जा।’
‘हो जाऊँगी। रम्या आंटी भी यही कह रही हैं।’
‘मैं भी होने वाली हूँ।’
‘तेरे वी.सी. अपॉइंटमेंट के लिए सर लगे हैं। हो ही जाएगा। हर टॉपर का हो जाता है। ऐसे भी जगह है विश्वविद्यालय में, रमोला मैम मेटरनिटी लीव में गई हैं, भगवंत सर अब्रोड गये हैं दो साल के लिए।’
‘तेरा कहा सच हो काश!’–संयोग ऐसा कि दोनों को नौकरी मिल गई। कुलपति द्वारा बहाल हुई कमीशन से हो जाने की प्रत्याशा में। साथ ही इनलोग ने शोध के लिए निबंधन भी करा लिया।
निधि के पिता जी दिन व दिन छीजते जा रहे थे। निधि ने मन में सोच लिया था कि अब यदि बाबा के नाम पर मिला हुआ यह आवास हाथ से चला जाएगा तो उतना डर नहीं है क्योंकि इसके पास नौकरी है, वह भी इसी परिसर की। माँ बहुत अधिक परेशान रहने लगी थी। रूचिरा और अचिरा आतीं तो अधिक उग्र हो जातीं। उन्हें अपने पोला शंखा सहित सिंदूर अंकिता परलोक जाना था। यही रहती कहतीं।
‘निधि? देखो रात में वो लड़का मेरे माथे पर एक लोटा पानी डाल दिया देखो मेरी माँग धुल गई।’–कहती। निधि हाथ का आइना लेकर दिखाती।
‘नहीं माँ, देखो तुम्हारी माँग भरी है।’–
‘और चूड़ी चुरा लिया मेरे हाथ से। वह काली मंदिर का चढ़ावा था।’
‘नहीं माँ, उसने नहीं चुराया। ये देख।’–हाथ पकड़कर दिखाती। निधि को पता था कि माँ का द्रोह है उस बच्चे के प्रति, सो कुछ भी कहती रहती है।
धीरे धीरे माँ छीजने लगी, सब कुछ भूलने लगी। निधि की बहनों की ही उपस्थिति में शांखा पोला सिंदूर सहित महाप्रयाण कर गईं। क्रियाकर्म के बाद बहनों का दबाव बढ़ गया विवाह करने पर। वर खोजा हुआ था, वही मूर्ख गँजेड़ी तांत्रिक।… ‘तुम अकेली यहाँ कैसे रहोगी?’–अचिरा ने कहा।
‘काम करने वाली को एक कमरा दे रही हूँ दीदी।’–निधि ने कहा था।
‘बेकार जिद है तुम्हारी। यहाँ इस मंदिर में कोई नहीं आते। सब अब काली मंदिर में जाते हैं। पूजा ही बंद है।’–रूचिरा ने कहा।
‘ऐसा कुछ नहीं है दीदी, वहाँ जो जाते थे वे ही जाते हैं।’
‘तुम शादी कर लो ये हमारा देवर सब सँभाल लेगा।’
‘सँभालने के लिए मैं उस नालायक गँजेड़ी भँगेड़ी से शादी कर लूँ?’
‘क्यों, करने में क्या हर्ज है? उच्च कुलीन, संस्कृत का पंडित है।’
‘मैं अपने पैरों पर खड़ी हूँ। आपलोग यह घर सँभालिये। मैं चली यहाँ से।’
‘तुम कहाँ चली? बाबा को कौन देखेगा?’
‘अगर आपलोग इतनी निर्मम हो कि बाबा की संपत्ति के तो हिस्सेदार बन जाओ, पर उनकी देखभाल न कर सको तो जाने दो मैं देख लूँगी। इसके लिए मुझे शादी करनी पड़े यह मंजूर नहीं।’–निधि थी। दोनों बहन एक दूसरे का मुँह देखने लगी। निधि ने उस दिन रेलिंग पर खड़े गंगा की ओर देखते हुए कहा सब कुछ वीथिका से।
‘रिसर्च स्कॉलर के रूप में होस्टल में ही रह गई हूँ निधि। लेकिन ऐसी बात होगी तो हम एक फ्लैट साथ में ले लें किराया पर और रह जाये साथ।’–वीथिका ने निधि को सुझाया।
‘यह अच्छा विचार है, रोज की किचकिच से दूर रहेंगे हम।’–दोनों लौटी रास्ते में ही पुरानी दाई मिल गई। उसने रोककर घर का हाल चाल पूछा, निधि ने कहा–‘सब ठीक है, दीदी लोग है उनसे मिल लो।’
‘मैं तो जरूर मिलूँगी। तुम बताओ तुम्हें कितने रुपये अशर्फी वगैरह और गहने दिये बहनों ने बाँट कर?’–पूछा उसने।
‘कुछ भी नहीं।’–निधि ने कहा। ‘तू जा मैं दो घंटे बाद आती हूँ।’ सचमुच दो घंटे बाद वह पहुँच गई। बरामदे पर माँ वाली खाट पर निधि लेटी थीं, दोनों बहन इसे कोस रही थीं।
‘क्या सब चल रहा है बबुनी लोग?’–कामवाली ने पूछा।
‘कुछ नहीं दाई, ये राजकुमारी शादी नहीं करेंगी। इनके लिए स्वयं राजा वल्लाल सेन आयेंगे रथ लेकर, इसका हाथ पकड़के रथ में बैठा देंगे समझी?’–रूचिरा ने कहा।
‘मैं शादी नहीं करना चाहती, कहा न!’
‘प्रतिमा दीदी की तरह अकेले रहेगी, मनमर्जी है न निधि!’
‘ठीक समझी दाई। प्रतिमा दीदी की तरह कुँआरी रहेगी।’
‘हाँ, तुम्हारा ब्याह होगा समझी’–अचिरा ने कहा।
‘दीदी गहने वगैरह तो होंगे ही पुराने वाले।’
‘हाँ बेचारी ने अपनी बहू के लिए भारी, भारी कंगन, सीताहार चूड़ी बनवा के रखा था। लेकिन माँ काली को मंजूर नहीं था।’–अचिरा थी।
‘छोटी बॉबी के लिये?’–कामवाली ने पूछा।
‘उसके लिये भी है। शादी करेगी तो देंगे न!’ बहनों ने सोच रखा था कि शादी निधि को करनी ही पड़ेगी, वह भी उसी लड़के से।
‘मैं यदि शादी न करना चाहूँ तो क्या मुझे मेरा भाग नहीं मिलेगा? और बहू वाले गहनों का क्या होगा?’–निधि ने कहा।
‘ठीके कहती है छोटी बबुनी।’–कामवाली थी।
‘तुमको किसने बीच में बोलने कहा बुढ़िया?’–रूचिरा ने डाँटा।
‘ये लो, हमही तो आकर बात चलाये हैं, न तो तू लोग? तू तो बड़ी घाघ हो। हमारे हाथ की जन्मी हो लोग, सबको तेल लगा के, पोतड़ा धो के बड़ी किये हैं, कहती है का मतलब है? छोटकी बॉबी सीधी है तो तू लोग उल्टा पुल्टा बात बोलती हो?’
‘ये तुम जाओ यहाँ से निकलो।’–अचिरा ने डाँटा।
‘हम नहीं जायेंगे, लो यहीं बैठ गये, चलो निकालो कैसे निकाल बाहर करती हो।’–वह बैठ गई चबूतरे पर। दोनों बहनें एक दूसरे का मुँह देखने लगीं। निधि को भीतर ही भीतर हँसी आ रही थी। वैसे दोनों में पटती नहीं, निधि का भाग हड़पने में एक हो गई है। समाधान यह निकला कि रूचिरा ने चाय बनाई और बिस्किट संग उसे दी।
‘लो दाई माँ, चाय पी लो। गुस्सा न करो। हमें पाला है तुम्हीं ने। हम सब तुमको माँ का दर्जा ही तो देते हैं।’–देते हुए कहा।
‘हमलोग का दिमाग ऐसे ही खराब है।’–अचिरा ने आँसू बहाते हुए कहा।
‘नः, मत रो बेटी, हम समझते हैं, भारी विपदा पड़ी है, तुमलोग पर। एक साथ इतना सब।’–चाय पीने लगी। वह तुरत पिघल गई। जाते हुए हिदायत करती गई कि उस अनपढ़ गँजेड़ी से नहीं करना शादी। कामवाली के जाने के बाद दोनों बहनें फट पड़ीं निधि पर–
‘उसे घर का मामला क्यों बताई? वह सब जगह बोलती चलेगी।’
‘हमलोग पर वह शासन करेगी?’
‘दीदी, मेरी उससे देखा-देखी ही यहाँ गेट पर हुई है। मैं नहीं जानती वह कैसे ये सब जानती है। बहुत सी बातें तो मुझे भी नहीं पता छोड़िये भी।’–निधि ने कहा।
‘देख हमने तेरी भलाई के लिए ही शादी की बात छेड़ी है।’–अचिरा थी।
‘दीदी, मैं बच्ची नहीं। यूनिवर्सिटी में पढ़ाती हूँ। शादी नहीं करनी है।’
‘देख निधि शादी तो तुम्हें करनी ही पड़ेगी। उस प्रोफेसर के बहकावे में आकर बेकार की रट न लगा। उसने नौकरी देकर तुझे जरखरीद गुलाम बना लिया है। हम सब समझते हैं।’–रूचिरा को कहते ही मानो वज्र गिर पड़ा इसके सामने। हे प्रभु, हे देवी, यह क्या, जिसे मैं अंकल कहती हूँ उन पर यह लांछन! इसका रोना सूख गया। यह उठी और सीधे होस्टल आई। वीथिका से कहा कि ‘हमें अब वहाँ नहीं रहना।’
‘ठीक है। तुम बैठो, मैं आती हूँ।’–वीथिका चली गई। वह सीधे सीता कुमारी के पास गई।
‘मैम, एक समस्या है, निधि का मन विचलित है। क्या आज रात मैं उसे अपने कमरे में रख सकती हूँ?’–सीता कुमारी से कहा।
‘ओके, कोई बात नहीं। वह कागज लो और अप्लीकेशन मेरे नाम से लिख दो कि रात में निधि तुम्हारी गेस्ट बन कर रहेगी।’–सीता कुमारी ने कहा। वीथिका ने आवेदन लिखकर रख दिया और ऊपर आ गई। दूसरे दिन इन्हें कहीं जाना नहीं पड़ा वहीं कैंपस में अपने ही क्वार्टर में ललिता दीदी ने एक कमरा दे दिया। सीता कुमारी ने भी कहा कि दोनों को रिसर्च स्कॉलर के रूप में रखा जा सकता था। इस बीच पंडित जी भी कोमा से निकल कर महाप्रयाण कर गये। वही जो होना था सो हुआ। मंदिर की पूजा राधेश्याम मंदिर वाले ने अपने हाथों में ले ली। जब तक वे छोटे से आवास को कब्जा करते कॉलेज के चपरासियों ने कब्जा कर लिया। वह स्थान अब नशेड़ी छात्रों के अड्डे के रूप में कुख्यात हो गया।
छुट्टियों में इस बार वीथिका के साथ निधि भी गई थी। चंचल निधि चुप्पी हो गई थी। लेकिन यहाँ माँ तथा यूथिका के साथ मुखर होने लगी। एक बैठे बैठे सोचने लगी, प्रकृति ने यहाँ चार स्त्रियों को मात्र एक स्थान पर इकट्ठा किया है। जहाँ जीवन के सारे रंग हैं। यहाँ किसी पुरुष की जरूरत कहाँ है? तब मेरी दीदी लोग क्यों मुझे किसी भी एक पुरुष से बाँधने की उतावली दिखा रही थी? यह बात शाम की चाय के समय इसने कही।
‘मैं कहूँ?’–यूथिका ने कहा।
‘जरूर दीदी, आप कहें कि क्या सोचती हैं आप।’
‘तुम्हारी बहनें लालची हैं। माँ साधारण धर्मभीरू स्त्री थीं। यदि तुम्हें अपने अधिकार के लिए लड़ना है तो तुम दावा ठोक सकती हो रुपयों और गहनों पर, नहीं तो भूल जाओ।’–यूथिका ने कहा।
‘आपने एकबारगी सच समझ लिया। वे लोग बहुत लालची हैं। मेरे कारण उनका प्लान गड़बड़ा गया, वो तो मेरी खून की प्यासी हैं। मुझे नहीं चाहिए सोना-चाँदी।’–निधि ने कहा।
‘बेटा, यह योगिनी वाला रूप क्यों धर लिया है?’–देर बाद माँ ने कहा।
‘चाची, बाबा को माँ को उस अवस्था में देख, मंदिर की पूजा का दायित्व ले यह रूप धर लिया था। अब नहीं है फिर भी मन इसी पर अटका है। शायद कुछ दिन अटका रहे।’–आँसू भर आये निधि की आँखों में।
‘ठीक है, जैसा रुचे तुम्हें।’–माँ ने कहा। दूसरी सुबह को यूथिका की ओर ध्यान गया निधि का–‘दीदी, आप अब एक अच्छा सा दूल्हा ढूँढ़ कर शादी कर लीजिये। हमें भी जीजा जी का शौक है।’–इठला कर कहा निधि ने।
‘हूँऽऽ, बात तो ठीक है। कोई पसंद आयेगा तब बताऊँगी।’
‘जरा कोमल भाव बनाकर देखिये ऐसे-ऐसे।’–पोज बनाया निधि ने, सब हँस पड़े।
‘ऊँह, यह तो खड़ूस बॉस बनी बैठी रहती होगी।’–वीथिका ने कहा।
‘तो क्या ऑफिस में वैसे रहूँ जैसे निधि पगली ने कहा।’
‘वैसे नहीं पर थोड़ा सा कम खड़ूस…।’
‘धत, चुप रहो सब।’–यूथिका ने डाँटा।
‘वैसे कुछ गलत नहीं कह रही है ये लोग।’–माँ ने भी कह डाला।
‘माँ तुम भी? घर में पुरुष लाना जरूरी है क्या?’
‘आपके जीवन में दीदी, रहें चाहे आप जंगल में जाकर हमारे लिए एक जीजा चाहिए।’ वरना…
‘वरना क्या?’–यूथिका थी।
‘वरना हम एक ट्रिप चाय फिर पीयेंगे, आपको ऑफिस जाने में देर होगी।’–वीथिका ने कहा। सबने ठहाका लगाया।
छुट्टियाँ बीतते न बीतते निधि का मूड ठीक हो गया। तब उसने कहा वीथिका से–‘यार चल एक फ्लैट ही लेते हैं हम, नीचे वाला हो और थोड़ी जमीन हो तो अच्छा होगा। कुछ फूल पत्ती लगाया जाय। इन लोग को एक कमरे में छात्रों की तरह रहना नहीं भाता अब। दोनों ने राजेंद्र नगर का एक नया बना फ्लैट पसंद किया। वहाँ पहले से ही फूल पत्तियाँ थीं। सामने सीढ़ी और गोल बरामदा था। दो बड़े बड़े कमरे, ड्राइंग रूम, डाइनिंग हॉल थे। इन लोग ने पलंग तथा सोफा वगैरह से तरतीबवार सजाया घर को। वीथिका की माँ और यूथिका एक दिन देखने और मिलने आईं। उन्हें घर सुरक्षित और संतोषजनक लगा। गृहस्वामिनी और उनके बच्चे सलीकेदार थे। एक दिन प्रो. शिवरंजन प्रसाद तथा रम्या इंदु जी भी आईं। साथ में उनकी बहन शम्पा भी थीं। खूब चहल-पहल रही। शम्पा विश्वविद्यालय के ही एक महिला महाविद्यालय में प्रोफेसर थीं। विषय अलग था। वे भी अकेली अपने खरीदे गये एक फ्लैट में रहती हैं ऐसा कहा। पूरा परिवार उनका बौद्धिक और अभिजात था। शम्पा प्रसाद अकेली रहती हैं। उम्र काफी थी, क्यों अकेली थी यह इनलोग को नहीं पता। शम्पा ने जाते जाते इन्हें आमंत्रित कर लिया।
महिला कॉलेज में समाजशास्त्र का विभाग खोलना था। प्रो. शिवरंजन को निरीक्षण करने जाना था। उन्होंने इन्हें भी अपने साथ कर लिया। निरीक्षण के बाद चाय नाश्ता चल रहा था। तभी शम्पा प्रसाद आ गईं। अपने जीजा जी से अधिक इन लोग से मिलना उसे भाया। अब फिर इन दोनों को अपने घर के पते का कार्ड देकर आमंत्रित कर दिया। विभाग शुरू होने की अनुशंसा कर दी गई। अनुमान लगाया जा रहा था कि इन दोनों को ही इस कॉलेज में पढ़ाई शुरू करने भेजा जाएगा। चलो ठीक है, इन दोनों ने सोचा। राजेंद्र नगर से यह स्थान भी उतना दूर नहीं है। उसी रविवार को शम्भा के घर पहुँची वीथिका और निधि। एक कमरा, बड़ी सी बालकनी, रसोइघर बड़ा सा जिसमें डाइनिंग टेबुल भी लगा था, स्टोर की रैकें भी थीं, घर में था। एक शौचालय स्नानघर था, बस!
‘यह बन रहा था तभी मैंने डिजाइनकर यह घर बनवाया। मैं अपना बालकनी बड़ा रखना चाहती थी, जहाँ गमले रख सकूँ।’–कहा शम्पा प्रसाद ने।
अपार्टमेंट के पिछले भाग में प्रथम तल पर इनका फ्लैट था। शम्पा प्रसाद के बारे में थोड़ा बहुत निधि जानती थी। यही कि ये रम्या इंदु की बहन शम्पा इंदु है जिन्होंने अपनी माँ का दिया नाम हटा लिया। बनारस के एक बड़े यशस्वी प्रोफेसर की बेटी इंदुमती सिन्हा प्रसिद्ध गायिका हुईं। उनके पिता तबलावादक थे। दो बेटियों के जन्म के बाद वे किसी बड़े सितारवादक के संगीतकार बनकर अमरीका गये तो लौटकर नहीं आये। शम्पा की माँ ने इन्हें पढ़ाया लिखाया। रम्या गायिका बन उनका विरासत सँभाल रही है परंतु शम्पा ने संगीत की ओर कभी रूख नहीं किया। वह शुरू से ही पढ़ने लिखने वाली रही है। भारी-भारी वैचारिक किताबें। बालकनी में शीशे की गोलमेज लगी थी। चार कुर्सियाँ लगी थीं। कई मोटी किताबें रखी थीं; शम्पा प्रसाद ने कोई पत्रिका पकड़ रखी थी। निधि और वीथिका जब पहुँची तब उनके सामने ग्लास में बीयर भरा हुआ था, हाथों में सिगरेट धुआँ रहा था।
‘आओ आओ,’–सिगरेट की राख शीशे की ऐश ट्रे में झाड़ते हुए कहा। दोनों ने कुर्सियाँ खींच लीं। शम्पा ने हाथ की पत्रिका रख दी।
‘यह देखकर अच्छा लगा कि तुमलोग ने अपना स्वतंत्र आवास लिया है अकसर लड़कियाँ डिपेंडेंट होती हैं।’–शम्पा ने कहा।
‘मेरा तो कोई रहा नहीं, कि उस पर डिपेंडेंट रहूँ मैडम।’–निधि ने कहा
‘वह तो बना लिया जाता है, शादी ब्याह करके।’–हँसी शम्पा।
‘हमने नहीं, देखा जाये मैम,’–वीथिका ने कहा।’
‘शम्पा मैम, यह वीथि भी मेरी तरह सोचती है, जो होगा देखा जाएगा।’
‘आजकल क्या पढ़ रही हो?’–शम्पा ने रूख बदला, बीयर सिप करने लगी।… ‘हमलोग पीएचडी कर रहे हैं।’–वीथिका ने कहा।
‘और वह तो रूरल एरियाज, स्लम्स पर होगा।’–शम्पा ने सिगरेट का कश लिया, धुआँ छोड़ा । दोनों लड़कियों को यह सब भारी पड़ रहा था। मन ही मन सोचने लगीं कि नाहक आईं।
‘जी, वैसा ही कुछ है।’–वीथिका ने कहा।
‘हाँ, सोशल वर्क में लगोगी तो काफी फॉरेन मनी है, फॉरेन जाने का स्कोप है। यहाँ भी वैसा ही काम है।’–विद्रूप से कहा शम्पा ने।
‘हम तो टीचर हैं, वहीं लक्ष्य भी है शम्पा मैम।’–निधि ने कहा
‘तो फिर तुम सोशल वर्कर पैदा करोगी।’–शम्पा सुरूर में थी।
‘मैम आपके एक ही पौधे में तीन तरह के गुलाब हैं। यह तो बहुत ही सुंदर लगता है।’–निधि ने बात बदली।
‘वो माली है, कॉलेज वाला, वह बड़ा गुणी है। उसी का प्रयोग है यह, और देखो वो बोनसाई कटेली चम्पा का।’–दिखाया शम्पा ने।
‘जी मैम, देखा।’–निधि थी।
‘ऐसा खिला खिला बोनसाई तुमने पहले कहीं नहीं देखा होगा।’
‘मैम मैंने पलाश और कृष्ण चूड़ के खिलते हुए बोनसाई भी देखे हैं।’–वीथिका थी।… ‘अरे कहाँ?’–शम्पा अब चकित थी।
‘चाहिए तो ला दूँगी।’–हँसी निधि। शम्पा को नशा तारी हो गया था। सिगरेट और बीयर का नहीं; अपने आप को खोल देने का नशा।
‘हम स्त्रियों की जिंदगी बोनसाई ही तो है। हम कितने भी स्वतंत्र क्यों न हों हमारी जड़ें काट दी जाती हैं, हमारे डाल छाँट दिये जाते हैं। हमारे सारे फूल निष्फल हो जाते हैं।’–उन्होंने इन लोग को अपनी पूरी कहानी सुना दी। कैसे अम्मा ने विदेश में बसे अपनी मित्र के इंजीनियर बेटे से शादी करवा दी। वहाँ जाकर पता चला कि वह वहाँ शादीशुदा है या लिव इन रिलेशन में है। यह उल्टे पैर लौट आई और तलाक ले लिया। जॉब जल्दी ही मिल गई। शम्पा ने वीथिका को पास बुलाकर कहा–‘तुम मुझे अच्छी लगी, मैं तुम्हें अपनी पार्टनर बनने का ऑफर देती हूँ। मेरे साथ शिफ्ट हो जाओ।’–वीथिका हँसी। वह समझ गई ।
‘हम साथ रहते हैं शम्पा मैम, पार्टनर नहीं, मित्र हैं।’
‘वह भी हो जाओगी। मर्दो की खूँखार दुनिया से बड़ी अच्छी है अपनी यह दुनिया, पार्टनर बनने का प्रस्ताव दिया है, बन गई तो फायदे में रहोगी नुकसान में नहीं।’–दोनों सहेलियाँ एक-दूसरे को देखने लगीं। आँखों में साफ उकताहट का भाव था।
‘मैम, हमें आज कोठिया गाँव जाना है उसकी तस्वीरें लेनी हैं। यह देखिये कैमरा,’–बैग से कैमरा निकाल कर दिखाया।
‘ओके, जाओ।’–निर्लिप्त सी दूसरा सिगरेट सुलगाने लगीं। यह उनका पाँचवाँ सिगरेट था। पता नहीं कॉलेज में कैसे रहती हैं। सोचती, विचारती ये सीढ़ी फलाँगती हुई ऐसी भागी जैसी कोई लट्ठ लेकर पड़ा हो। नीचे आकर जान में जान आई। रिक्शा पकड़ वे सीधे अपने आवास पर आई और धड़ से बिस्तर पर गिर पड़ीं। ‘यह परिवार ही पागल है।’–निधि ने कहा।
‘कौन-कौन पागल है?’
‘रम्या आंटी, शम्पा और इनकी माँ इंदुमती। तभी भागा बेचारा संगतवाला और यह, जिससे इसकी शादी हुई वह। पता नहीं क्या सच है।’
‘महिला कॉलेज में हमारा तबादला हो जाएगा, तब तो इनसे साबका पड़ेगा हम क्या करेंगे?’–वीथिका थी।
‘धत्, हमारा डिपार्टमेंट अलग रहेगा।’–निधि बोली।
इन दोनों को दो महिला कॉलेज में ही भेजा गया। अब इनके पास अपने अपने कॉलेज के किस्से होते। दिन ठीक ही बीत रहे थे। उस दिन पहले कॉलेज से निधि आ गई थी, वह कॉलेज से सीधे आवास पर आई। वीथिका नहीं पहुँची थी। उसे आने में देर हो गई। उसके आते ही निधि ने पॉट में पत्ती डाला और पानी गरम कर डाल दिया। दूध चीनी चम्मच लेकर स्टूल पर रखा और चाय तैयार कर उठाया।
‘उठ चाय पी ले, कहाँ से थक-थका कर आई है?’–निधि ने टोका।
‘ओह, यूनिवर्सिटी से।’
‘वहाँ क्या अरजेंसी थी?’
‘प्रिंसिपल मैम के पास सर ने फोन कर दिया था कि किसी सेमिनार की तैयारी करनी है। वहीं गये थे। जाते ही डिक्टेशन देने लगे। मेरा हाथ दुख गया।’–एक हाथ को दूसरे हाथ से दबाते हुए उसने विरक्त होकर कहा।
‘सुकुमारी! चल चाय पी।’–निधि ने कहा। दोनों चाय पीने लगी।
‘कल फिर जाना होगा। अपने कॉलेज में दो क्लास लेकर।’
‘पूरा नहीं हुआ था क्या?’–निधि ने पूछा।
‘टाइप में तो दे दिया। सर ने कहा आकर प्रूफ देख लेना। हो सकता है मैं न रहूँ।’
‘कहाँ पर टाइप हुआ है?’
‘नहीं पता, विभाग वाले ही हो। सर अपने लाइब्रेरी वाले चेंबर में थे।’
‘अच्छा है मुझे नहीं बुलाया।’
‘लखनऊ में एक सेमिनार है। टॉपिक वही जनजातियों वाला है इसलिए शायद मुझे बुलाया।’
‘ठीक कहा, मेरा विषय होता तो मुझे बुलाते।’
‘हाँ, अभी मैं ही थक रही हूँ।’
दूसरे दिन फिर वीथिका विश्वविद्यालय चेंबर पहुँची। लाइब्रेरियन महोदय से पूछा–‘सर का चेंबर खुला है? टाईपिस्ट ने टाइप किया पेपर लाया है?’
‘सर बैठे हैं, टाइप का प्रूफ देखकर दे दिया।’–उन्होंने कहा।
‘अच्छा, तो मैं जाऊँ?’
‘बुलाया है तो जायेंगी न? अब आप प्रोफेसर हैं मैम? मुझसे पूछने की जरूरत नहीं है।’–लाइब्रेरियन मुस्कुराया।
‘अरे सर, हम आपकी छोटी बहनें हैं।’
‘सो तो है।’–वीथिका चेंबर में गई तो देखती है कि प्रो. शिवरंजन कुर्सी से सर टेक कर आँखें मूँदें बैठे हैं।
‘सर, मैं आ गई।’–उन्होंने धीरे से आँखें खोलीं। उनींदी-सी आँखें। उनके घुँघराले बाल चौड़ी पेशानी पर झूल आये थे। अभी वे भोले-भाले उनींदे बालक जान पड़ते थे। वीथिका ने अपना बैग टेबुल पर रखा और घंटी बजा दी। चपरासी आया तो चाय का ऑर्डर दे दिया। जग से ढालकर पानी उनकी ओर बढ़ाया। उन्होंने पूरा ग्लास खाली कर दिया।
‘आप प्यासे थे सर, नींद में समझ न पाये।’
‘मैं तो चिर प्यासा हूँ, वीथिका मैम!’–कहा।
‘जी सर’–चौंकी।
‘चलिये, आपने यह अच्छा किया कि चाय के लिए ऑर्डर किया।’
‘आपकी थकान देखकर सर।’
‘हाँ, मैंने प्रूफ देख लिया है। वह लेकर आता ही होगा।’
‘जी, इसीलिये थक गये हैं।’
‘वीथिका, इस सेमिनार में आपको भी चलना है।’
‘कहाँ सर?’
‘लखनऊ।’
‘ओह, मैं कभी गयी भी नहीं।’
‘जो आपसे लिखवाया वह आप ही पढ़ेंगी। आप शोधार्थियों के लिए यह जरूरी भी हैं।’… ‘यह मेरा सौभाग्य होगा सर।’
‘ठीक है तो अगले हफ्ते के लिए इस पत्र को संलग्न कर छुट्टी लेना होगा ड्यूटी लीव।’–उन्होंने पत्र थमाया जिसमें सेमिनार में भाग लेने का निमंत्रण था। पत्र लेते इसके पूरे बदन में झुरझुरी-सी उठी। यह बड़े-बड़े विद्वानों के बीच परचा पढ़ेगी, यह भी अब इस लायक हो गई है। चाय पीकर दोनों का मन हल्का हुआ। टाइप पेपर आ चुका था। उन्होंने इसे दिया और कहा कि जाकर अच्छी तरह पढ़कर आत्मसात कर ले। अलग अलग बिंदु बना ले और बिना आलेख देखे बोले। वह आने लगी तो कहा, कॉलेज से घर जाने के बजाय यही आ जाये। साथ चाय पीये वीथिका अबूझ-सी देखती रही।
‘ऐसे क्यों देख रही हो वीथिका, कितने बजे क्लास खत्म होता है?’
‘तीन बजे तक सर।’
‘हाँ तो यहाँ आ जाओ चाय पी लो साथ फिर तुमको छोड़ते हुए हम अपने घर चले जायेंगे।’–वीथिका उनको नमस्कार कर आवास आ गई। निधि आ चुकी थी। पेपर उसके हाथों से लेकर पढ़ने लगी। वह चमत्कृत थीं। वीथि, सर का लैंग्वेज कितना अच्छा है? वह कितनी तह तक जाते हैं, तभी तो इतना मान है!’… ‘हूँ’–कहा वीथिका ने और चुप ही रही।
‘इतनी अच्छी अच्छी बातें तेरे कैरियर में हो रही है वीथि, तुम हूँ हाँ कर के टाल दे रही हो।’
‘देख न निधि, सर ने एक प्रकार से आदेश दिया है कि रोज मैं विभाग जाऊँ अपने कॉलेज के बाद, चाय उनके साथ पीऊँ, वे आकर मुझे ड्रॉप कर देंगे। धत्, समझ नहीं पाती, क्यों ऐसा अन्याय कर रहे हैं।’
‘इसमें अन्याय की क्या बात? कुछ डिसकशन्स होंगे।’
‘क्या यार, थकान होती है न!’–निधि ने इस समस्या को कुछ नहीं माना; बल्कि कहने लगी कि वीथिका भाग्यशाली है। वीथिका प्रोफेसर शिवरंजन का कहा टाल नहीं सकती। वह चाहे जैसी भी थकी हो वहाँ जाना ही था। पाँच दिनों तक इस सिलसिले के बाद उन्हें साथ ही लखनऊ जाना था। जाने से दो दिन पहले रजिस्टर रख कर निकल रही थी कि शम्पा सामने पड़ गई। इसने नमस्ते किया।
‘वीथिका, भई बधाई हो तुम पहली बार सेमिनार में भाग लेने लखनऊ जा रही हो।’
‘धन्यवाद मैम, मैं डर भी रही हूँ।’
‘अरे नहीं नहीं डरने की बात नहीं है, प्रोफेसर प्रसाद बहुत सॉफ्ट हैं अच्छा रहेगा।’–रहस्यमय मुस्कुराहट खेल रही थी चेहरे पर।
‘जी मैम, पेपर तैयार करने में मदद की उन्होंने।’
‘तभी तो रोज चेंबर जाना पड़ता था और प्रो. शिवरंजन अपनी फियेट कार से तुम्हें तुम्हारे आवास पर छोड़ते रहे हैं।’–यह सुन वीथिका हक्की बक्की रह गई। इन्हें कैसे पता? वीथिका आकर चुपचाप अपने बिस्तरे पर पड़ गई। निधि ने पूछा–‘क्या हुआ?’
‘अरे क्या कहें यार!’
‘पहली बार सेमिनार से डरती हो? अपने यहाँ तुमने कई सेमिनार तो संचालित किये हैं। तुम सब कर सकती हो।’
‘नहीं निधि, आज एक ऐसी बात कही प्रो. शम्पा ने कि क्या कहें?’
‘क्या कहा?’
‘उन्हें मेरा विभाग जाना, सर का मुझे यहाँ छोड़ जाना पता है। सो उसने मुझे ऐसा कुछ कहा कि कोई जाने न जाने पर बोलने का तरीका उनका ठीक नहीं लगा।’
‘जाने दे, वे मुझे सिक लगती हैं; खुद बीमार मानसिकता वाली हैं। मैं तो कहूँ पूरा घर ही पागल है।’–निधि ने कहा।
‘अब तू उनके कुनबे की फिर विरुदावली न सुनाने लग।’
‘चल तेरे कपड़े निकालूँ जो वहाँ पहनेगी।’
‘हाँ निकाल दे। दो दिन रहना है।’
‘डायस पर रहेगी उसके लिए अलग बढ़िया सिल्क साड़ी दूँ?’
‘इतनी गर्मी में सिल्क न दे।’
‘तो एक ढाकाई देती हूँ।’
‘वह दे दे।’–इन चोंचलों में लग तो गई वीथिका पर उसे बार-बार उनकी टेढ़ी मुस्कुराहट याद आ रही थी। रहस्यमयी होकर बोल रही थीं। सामान पैक हो गया। सारे पेपर्स रख लिये गये अटैची में। दूसरे दिन दोपहर में ही गाड़ी थी अपर इंडिया एक्सप्रेस।
‘हम थोड़ी जल्दी ही चलेंगे।’–कहा निधि ने।
‘हाँ, जल्दी चलें सो ठीक।’–लेकिन दूसरे दिन सुबह-सुबह फोन आ गया कि प्रोफेसर साहब ही इसे लेते हुए जायेंगे। वे लोग सही समय पर आये। प्रोफसर साहब के साथ रम्मा जी थी। निधि ने पैर छुए। उन्होंने न आने का उलाहना दिया। निधि कुछ न बोली। उन्हें पता था कि निधि अब पढ़ाने लगी हैं, पीएचडी कर रही है। सो उलाहना देने के लिए मात्र था यह कहना। निधि की सारी तकलीफों से रम्या इंदु जी वाकिफ थीं। स्टेशन तक चलने को रम्या जी ने निधि से आग्रह किया। निधि तैयार तो थी ही। गाड़ी में बैठ गई। उन्हें गाड़ी पर बैठा, विदा कर दोनों कार में बैठी। रम्या जी स्वयं कार चलाती थीं। उन दिनों कम ही स्त्रियाँ पटना शहर में कार चलातीं। ये उनमें से एक थीं और दूसरी इन्हीं की छोटी बहन शम्पा हैं। रास्ते में निधि से रम्या इंदु ने कहा–‘चलो मेरे घर, वहीं खाना, गप मारेंगे और फिर तुमको छोड़ दूँगी, चलती हो?’
‘जी आंटी, चलूँगी जरूर।’–निधि को देख दोनों बेटियाँ खूब खुश हुई। बगीचा का लॉन अधिक सुंदर सजीला हो गया देखा निधि ने। क्यारियों में फूल थे। गमले और फूल सब चाक चौबंद जैसे वे परेड पर निकले हों।
‘कब तक तुम साधु की तरह सफेद कपड़े पहनोगी? चंदन लगाती हो। बिल्कुल साध्वी लगती हो।’–रम्या जी ने कहा।
‘रंगीन किनारी वाली ही पहनती हूँ न आंटी। अभी मन नहीं कर रहा है।’
‘जान पड़ता है तुम्हारे रंगीन होने के लिए प्रेम का रंग भरना जरूरी है। कोई होगा जो तुम्हारे मन का तार झंकृत कर दें।’
‘आंटी, आप क्या लेकर बैठ गईं।’–वह शरमा गई।
‘सच कहती हूँ पगली। मैं भी पहले बिल्कुल सादा वस्त्र पहनती थी। जब इनकी निगाह पड़ी तब से मैं रंगीन हो गई।’
‘जी आंटी।’–सचमुच अभी भी उन्होंने चटक पीले सिल्क की साड़ी पहन रखी थी जो गहरे नीले पाढ़ में अधिक चटक जान पड़ती थी। यह मुस्कुराई।
‘तुम इतनी खूबसूरत हो जरूर जल्दी ही तुम्हें कोई पसंद आ जाएगा।’–आंटी की ये बातें चुपचाप सुन रही थी निधि। उनका प्रतिवाद कर रसभंग करना नहीं चाहती थी। वरना वो चिढ़ रही थी। इसकी तनिक भी इच्छा नहीं थी कि विवाह का नाम भी कोई इसके सामने ले। विवाह के नाम से शरीर घृणा से भर उठता। झुरझुरी सी होने लगती। इसे अपनी बहनों की वे साजिशें याद आ जाती जो उन्होंने इसे बेहोश करके करना चाहा था। जाने क्यों वे इतनी उतावली थीं। उनके उतावलेपन के कारण ही सब कुछ चला गया हाथ से वरना न जाता।
कई बार हम संपूर्ण हड़प जाने की दुराशा में संपूर्ण गँवा देते हैं। यही हुआ इसकी बहनों के साथ। क्यों किया ऐसा। सुखपूर्वक ब्याही हुई वे, सोने-चाँदी का जखीरा लेकर क्यों तुष्ट नहीं हुईं।
‘तुमलोग शम्पा के यहाँ गई थी क्या निधि?’–रम्या जी ने पूछा।
‘जी आंटी, उस दिन बुलाया था न उन्होंने, तो सोचा क्यों न हो आयें?’
‘वो उसी कॉलेज में हैं, जहाँ वीथिका है।’
‘हाँ पता है, शम्पा से बातें हुई थी। वह रोज रात में जब नीम बेहोशी में होती हैं और कोई उसके पास नहीं होती तब मुझे फोन करती है।’–उसने बताया।
‘किसी को साथ रखना चाहती हैं। हमसे भी कहा था।’–
‘उसके यहाँ सोच समझकर जाना।’–हँसी रम्या।
‘जी’–शाम ढलने के पहले निधि को रम्या जी ने आवास पर पहुँचा दिया। थोड़ी देर अंदर आकर बैठीं। सादगी से रहती हुई इन लड़कियों के आवास को देख खुश हुईं।
लखनऊ में स्टेशन पर बग्धी लेकर खड़े युवा प्रोफेसर श्यामल दास थे। ‘स्वागत सर’–कहते हुए श्यामल दास ने प्रोफेसर शिवरंजन के चरण स्पर्श किये और वीथिका से कहा–‘मैंने तुम्हें बुला ही लिया।’
‘अच्छा, तो तुम्हें पता था कि सर के साथ मैं ही आनेवाली हूँ?’
‘लो तुम्हारे नाम से विश्वविद्यालय का गेस्ट हाउस बुक हुआ है न मिस सान्याल?’–बग्घी पर सामान रखते प्रोफेसर को चढ़ाते यह सब चल रहा था।
‘कोई दूसरी वीथिका सान्याल नहीं हो सकती क्या?’
‘बिल्कुल नहीं, मेरी पगली छुटकी ही होगी यह मैं जानता था।’
‘ऊँह! मैंने ही यह विषम पढ़ा है तुमको कैसे पता?’
‘यूथिका से मुलाकात हुई थी मैम, यहीं लखनऊ में।’–उसने कहा।
‘अच्छा चलो ठीक है।’–प्रोफेसर साहब इनलोग की बातें गौर से सुन रहे थे। और गुन रहे थे कि इस युवा प्रोफेसर को वीथिका सान्याल की पीएचडी का विषय तक पता है। स्ट्रेंज! वीथिका ने कभी कोई चर्चा नहीं की।
‘आपका डॉक्टरेट हो चुका है न, प्रो. श्यामल दास?’–प्रो. शिवरंजन ने पूछा। अब श्यामल साकांक्ष हुआ।
‘जी सर, मेरा रिसर्च थारू जनजाति के इर्द-गिर्द है।’
‘अभी तो जनजाति में वे शामिल नहीं हैं।’
‘सर राजनीतिक रूप से नहीं पर सामाजिक रूप से है न! सर मेरा अपना पर्चा इसी प्रश्न को सुलझाता है।’–श्यामल ने उत्साह से कहा।
‘बहुत अच्छा! दिलचस्प रहेगा सुनना।’–गंभीर स्वर था उनका।
‘सर फ्रेश हो लें। चाय नाश्ता यहीं कर लें। हम गाड़ी लेकर समय पर पहुँच जायेंगे। तुम भी मैडम, ज्यादा मेकअप के फेरे में न रहना।’–श्यामल दास कह कर चला गया। प्रोफेसर साहब और वीथिका साथ ही नाश्ते के टेबुल पर बैठे।
‘यह श्यामल दास तुम्हारा पूर्व परिचित है, बताया नहीं था?’–पूछा उन्होंने वीथिका से।
‘मुझे नहीं मालूम था कि इसने यही विषय लिया है और यहाँ है।’
‘अच्छा, लगता तो अनौपचारिक है।’
‘जी सर, हमलोग का साथ बचपन से था। मेरे पिता जी जंगल के बड़े ठेकेदार थे और इसके पिता जी सबसे बड़े अधिकारी।’–वीथिका थोड़ी उदास हुई। ‘ओह हो, अब पिता जी कहाँ हैं?’
‘बहुत पहले हमें छोड़ गये। माँ हैं और बड़ी बहन यूथिका। श्यामल और यूथिका एक ही कक्षा में पढ़ते थे। दोनों में फर्स्ट आने की प्रतियोगिता रहती। मैं दो साल जूनियर थी। इनके पिता दिल्ली चले गये थे।’
‘ओह, सॉरी!’
‘ओके सर, अब एक युग बीत गया।’
‘यह श्यामल तुम्हारी बहन से संपर्क में है। वह कहाँ हैं?’
‘वह रिजर्व बैंक की ऊँची अफसर है, माँ उसी के साथ है। मैं छुट्टियों में वहीं जाती हूँ। पटना के इस आवास में दोनों आये थे। श्यामल से लखनऊ में किसी सेमिनार में ही मुलाकात हुई होगी। कह तो रहा था।’
‘ओह, अच्छा!’–दोनों पेपर्स वगैरह लेकर आ गये। एक कार लेकर एक दूसरी प्रोफेसर आई थीं। सेमिनार हॉल में सभी से मुलाकात हुई। स्वागत और उद्घाटन सत्र के बाद ही अपराह्न का भोजन था। प्रोफेसर शिवरंजन वहीं आकर बैठे जहाँ श्यामल प्रो. स्वास्ति और वीथिका खा रहे थे।
‘प्रो. श्यामल, आप भी बिहार से हैं, जानकर खुशी हुई।’–बातचीत शुरू करने की कोशिश की प्रो. शिवरंजन ने। सूप पी रहे थे कि प्रो. श्यामल को उनके विभागाध्यक्ष जो निदेशक भी थे ने बुला भेजा। वो उठा और प्रो. शिवरंजन से क्षमा माँगी।
‘सॉरी सर, व्यवस्था की बात के लिए बुलाया जा रहा है। मैं इधर वीथिका को अकेली देख कंपनी देने आ गया था। अब आप हैं ही तो मेरी क्या जरूरत।’–कहा और चला गया। थोड़ी देर प्रो. शिवरंजन उसको देखते रहे। फिर हाथ से इशारा किया–‘गजब बात।’
‘कुछ लेंगे सर?’–प्रो. स्वस्ति थी।
‘मैं ले आता हूँ।’–उठे वो। स्वस्ति ने विनीता से कहा।
‘प्रो. शिवरंजन का इतना नाम है, पर ये मिलनसार खूब हैं।’
‘हाँ, बहुत शांत और स्नेही हैं।’–वीथिका ने कहा।
‘सर अकेले आये हैं, जबकि बाकी लोग परिवार के साथ हैं।’
‘बेटी लोग का स्कूल था, वे कैसे आतीं?’
‘सुना है वे प्रसिद्ध गायिका इंदुमती की बेटी हैं।’
‘वो खुद भी ए ग्रेड गायिका हैं।’
‘अच्छा?’
‘आपने गायिका रम्या इंदु को कभी ऑलइंडिया रेडियो पर नहीं सुना?’
‘हाँ सुना तो है, वही है क्या?’
‘वही हैं मैम!’
‘वो तो सचमुच बहुत अच्छी गायिका हैं। सर कितने लकी हैं? वाह क्या अच्छा संयोग है!’–प्रोफेसर साहब अपना खाना लेकर टेबुल पर आ गये। तब ये लोग गईं प्लेट लेने। यह टेबुल खाली देख बहुत से प्रोफेसर आकर परिचय का आदान-प्रदान करने लगे। सेमिनार के प्रथम-सत्र में कनीय लोग अपना-अपना वक्तव्य दे रहे थे। वीथिका और स्वस्ति जो रिसर्च स्कॉलर थीं ने सर्वप्रथम दिया, तब कनीय प्रोफेसर्स देने लगे। समीक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय के वरीय प्रोफेसर तथा टाटा इंस्टीटयूट के एक प्रोफेसर ने की। समापन वक्तव्य के बाद चाय और फिर रात्रि भोज तक सब अपने अपने कक्ष में थे। वीथिका स्वस्ति के कक्ष में थी, दोनों हिल-मिल गई थीं। वे सहेलियाँ बन गई थीं। रात्रि-भोज से पहले थोड़ा तैयार होना चाहिए यह सोचकर वीथिका अपने कक्ष में आई। निधि ने एक ऐबस्ट्रैक्ट प्रिंट की सिल्क साड़ी पहनने का निर्देश दिया था। वीथिका ने वही पहना। लंबे बालों की ढीली चोटी बनाई। देखा प्रो. शिवरंजन कक्ष में ही थे उनको नॉक किया। उन्होंने दरवाजा खोला। वे तैयार थे।
‘चलें सर?’
‘तुम प्रो. श्यामल के साथ थीं न?’
‘नहीं सर, स्वस्ति के साथ। बाजू वाले कमरे में’
‘ओह!’–कमरा में फिर से गये और लौटे।
‘मैं स्वस्ति को बुला लाऊँ?’–कहा और चली गई वीथिका
‘स्वस्ति, चलो’–नॉक करती बोली वीथिका। स्वस्ति निकल आई। उसने सुनहरी किनारी की शिफॉन साड़ी पहन रखी थी। फिरोजी रंग की साड़ी में जँच रही थी। दोनों ने एक दूसरे को आँखों-आँखों में सराहा। क्योंकि प्रोफेसर साहब साथ थे अधिक वाचाल होना उचित नहीं था। रात्रि-भोज इसी होटल के भोजन कक्ष में था। सभी जुट गये थे।
‘आइये आइये, स्वागत है आपका’–कहा सभी ने एक साथ।
‘आइये सर’–एक युवा प्रोफेसर ने प्रो. शिवरंजन से बातचीत की है उन्हें सीनियर लोगों की टेबुल पर बैठा दिया।’
‘कहाँ रहते हो आजकल यार?’–एक बुजुर्ग प्रोफेसर ने हाथ बढ़ाया। उसने नीले रंग की शर्ट और चेक हाफ जैकेट पहन रखा था।
‘वहीं, जहाँ आपलोग ने भेज दिया सर!’–ये बी.एच.यू. के थे।
‘वहाँ तुम सबसे बड़े आदमी हो यार!’–उन्होंने कहा।
‘पोजीशन अब भी बदल लो।’
‘ना बाबा ना, तुमने परिश्रम से जमाया है।’–ये प्रो. शिवरंजन के सहपाठी भी थे और साथ ही पढ़ाने भी लग गये थे। कई विश्वविद्यालय में विभाग खुले और साथी लोग चले गये। दूसरे दिन का सेमिनार वरीय प्रोफेसर लोगों द्वारा संबोधित था। वही एक प्रकार से समापन भी था। बीच में मध्याह्न भोजन के समय स्वस्ति और वीथिका बाजार निकल गई। माँ बहन और निधि के लिए चिकन की साड़ियाँ ली। स्वस्ति ने भी लीं। अपने लिये दोनों ने एक दूसरे की पसंद से लीं। शाम को चाय के वक्त प्रो. श्यामल ने पूछा कि बाजार जाना है या नहीं? तब पता चला कि इनका काम संपन्न हो गया।
‘सर, आपको बाजार जाना है?’–प्रो. शिवरंजन ने मना कर दिया। लौटते समय बड़ा भावुकता भरा माहौल था। चर्चा थी कि अगला सेमिनार हिमाचल में होगा।
लौटते समय प्रो. शिवरंजन की भँवें तनी थीं। वीथिका ने आराम से बैठने के बाद गदगद भाव से कहा–‘सर, आपकी कृपा से इतना अच्छा मौका मिला।’
‘ऐसा लग तो नहीं रहा था कि यह सेमिनार का आयोजन है और आप इसमें भाग लेने आई हैं।’ उन्होंने उपालंभ दिया।
‘क्यों सर? मेरा वक्तव्य बहुत निराशाजनक था क्या?’
‘वक्तव्य में क्या था वह तो मैंने लिखवाया था; आपने तो बस रट्टामार कर तोते की तरह बोल दिया।’
‘तो फिर मुझसे क्या भूल हुई सर?’
‘इतना बेवकूफ मुझे न समझिये।’
‘कोई भूल हुई हो तो मुझे माफ कर दें।’
‘भूल मुझसे हुई है, किसी और को मौका देता तो वह मेरे साथ बना रहता, यहाँ तो अपने आप में अपने पुराने आशिक में लिप्त रही तुम।’
‘ऐसा कुछ नहीं है सर!’–कहकर उसने खिड़की के बाहर देखना उचित समझा। तब से वे चुप थे। वीथिका उनके चाय नाश्ते जरूर करवा देती। गंतव्य पर पहुँचकर स्वाभाविक हो गये। रम्या मैम गाड़ी लेकर आई थी। दिन था सो निधि कॉलेज गई थी। वह घर आ गई। नहा धोकर चाय पी। खाना खाने के पहले बिस्तरे पर लेटी तो नींद आ गई। अपने बिस्तरे की सुखद नींद में गहरी डूबी निधि के आने के बाद ही जगी।
‘निधि, क्या चाय बना रही है?’–उनींदी सी कहा इसने।
‘बन गई। उठो।’–दोनों ने चाय पी। वीथिका ने साड़ियाँ निकाली सफेद पर सफेद काम माँ के लिए, गुलाबी यूथिका के लिए और हल्की पीली निधि के लिए।… ‘पसंद है न?’
‘तुम लाई मेरी जान, पसंद तो होगा ही।’–लिपट गई उससे।
‘मेरा मन खूब चटक लेने का था पर सोचा तू पहनेगी या नहीं?’
‘अपना दिखा।’–अपने लिए फिरोजी साड़ी ली थी।
‘चल ठीक है, मैं कहाँ छोड़ देने वाली, मैं तेरी साड़ी पहनूँगी न?’
‘पहन ले न। जहेनसीब, उस सफेद साड़ी से तो पीछा छूटे। पागल बना दिया है जोगिन बनकर।’–साड़ियाँ समेट कर वहाँ की पिटारी खुली। अब अपना दिल खोला वीथिका ने।
‘निधि, सर का व्यवहार बड़ा अजीब था।’
‘क्या था?’… ‘एक तो यहीं रोज बुलाकर हलकान कर दिया था। दूसरे वहाँ हद ही कर दी।’
‘तेरा वक्तव्य कैसा रहा?’
‘वह तो अच्छा रहा।’
‘तब क्यों नाराज थे?’
‘वहाँ एक हमारे बचपन का परिचित प्रो. श्यामल मिल गया। उसने माँ, यूथिका दीदी और मेरे बारे में अनौपचारिक होकर बातें की यह इन्हें नहीं अच्छा लगा। एक लड़की रिसर्च स्कॉलर हिमाचल की आई थी उससे मेरी खासी दोस्ती हो गई थी। उसके कमरे में बातें करती तो इन्हें शक होता कि मैं श्यामल दास से बातें कर रही हूँ। मेरे पास बने रहते। नजर मेरी ओर रखते। मैं कुछ समझ नहीं पाई।’… ‘तुम्हारे प्रति पॉजेसिव हो गये हैं, लगता है।’
‘जान पड़ रहा था मैं इनकी जरखरीद गुलाम हो गई हूँ।’
‘मदद करने का फायदा उठाते हैं।’–निधि उदास हो गई थी।
‘अजब परिवार है भाई। रम्या जी बड़ी कलाकार पर बड़प्पन का लेश भी छू नहीं गया है। शम्पा प्रसाद का रवैया देखा ही उस दिन। पर एक मिनट, उस दिन वो कैसे बड़े व्यंग्य से बोल रही थीं कॉलेज में। अब उनका व्यंग्य समझ गई।’
‘नॉर्मल तो नहीं हैं लोग। अंकल सबसे अधिक नॉर्मल लगे मुझे।’–निधि थी।
‘इधर बहुत दिनों से मैं घर नहीं गई थी। उस दिन तुमलोग को स्टेशन पहुँचाकर लौटती में मुझे ले गई थीं अपने घर पर वो खासी नॉर्मल थीं। उन्होंने ही पहुँचा भी दिया था।’
‘मैं मानसिक रूप से थक गई।’
‘जैसा तुम बता रही हो, थकने का कारण तो है।’
‘अब कलेक्शन पूरा हो गया है। शोध प्रबंध लिखने बैठना है।’
‘मेरा भी हो गया। नोट्स भी ले लिये हैं।’
‘तुम्हारी गाइड तो अस्मिता मैम हैं। वो कैसी हैं?’
‘बहुत सहयोगी हैं। और मजेदार भी।’
‘वो कैसे?’
‘कहा कि हमलोग तुमलोग से अच्छा व्यवहार करेंगे। तुमलोग हमारी तारीफ करोगी। तब तो छात्र-छात्रा ऐडमिशन लेंगे ज्यादा से ज्यादा।’
‘है तो मस्त बात’–दोनों हँस पड़ी।
‘मैं कल अपने क्लास के बाद तुम्हारे पास आऊँगी। हम दोनों साथ ही विभाग में चलेंगे। सर से भी मिलूँगी। तुम लिखने की आज्ञा ले लेना।’
‘हाँ ठीक है आना।’
देर रात तक श्यामल से अपने बचपन की बात करती रही थी वीथिका। खेल की बातें, लड़ाई झगड़े की बातें, पढ़ाई-लिखाई की बातें। सारा कुछ कहती वीथिका सचमुच जंगल किनारे वाले शहर में चली गई। फूल तितली बाँस का वन, बेंत और सागवान का वन, महोगनी और शीशम का वन याद आया। जंगल की जानलेवा आग याद आ गई। पिता का व्यवसाय ठप्प होना याद आया और याद आया उनका डिप्रेशन में चला जाना। तभी श्यामल के पिता जो वन के सर्वोच्च अधिकारी थे का तबादला राजधानी में हो गया था। यह इन दोनों बहनों के लिए उदासी का सबब था। उन सभी उच्चाधिकारी तथा अनेक छोटे कर्मचारियों को सजा के तौर पर तबादला कर दिया गया था, यह सब बाद में समझ सकी वीथिका। अपने घर के उस दुर्दिन को याद कर गला भर आया था वीथिका का। ऐसे सुख दुःख के बालसंगी को लेकर इतनी हल्की बात सोच भी कैसे सकते हैं सर! मैं समझ रही थी कि श्यामल, हँसी खुशी का वातावरण क्यों सृजित कर रहा था। उसे लगता था कि मैं कच्ची उम्र के उस दुःख को याद कर भावुक न हो जाऊँ। जानती है निधि, हमारा दुःख हमारे सारे सुखों से अधिक भारी था। मैं भी माँ पापा का मुँह, सारे के सारे अधिकारियों का मुँह देख मर्माहत हो चुप हो गई थी; तबादले के वक्त हम तीनों मिलकर बहुत रोये थे। और उस रोने वाले दिन के बाद हम इत्ते दिनों पर मिल रहे थे। सचमुच श्यामल एक संपूर्ण मानव है; बड़े सोच वाला मानव। दूसरे दिन दोनों पहुँची विभाग। पहले प्रो. शिवरंजन के विभागीय चैंबर में गईं। वहाँ विभाग के सभी लोग थे। इन दोनों के आने से रौनक बढ़ गई। एक मात्र सीनियर प्रोफेसर अस्मिता ने अपने पास की कुर्सी पर दोनों को बैठने का निर्देश दिया। एक प्रोफेसर ने ऊँची आवाज में कहा–
‘सुना है कि वीथिका जी का आलेख सबसे अच्छा था और ये बोली भी बढ़ियाँ।’
‘अपने नये विभाग का नाम ही तो रौशन हुआ न।’ दूसरे ने कहा–‘जिस विभाग की शोधार्थी इतना बढ़िया लिखेगी बोलेगी, वहाँ के सीनियर लोग कैसा बोलेंगे?’
‘सर शर्मिंदा न करें, सारा श्रेय हमारे गाइड को जाता है। खुद विभागाध्यक्ष सर ने लिखवाया…।’–वीथिका की बात स्वयं प्रो. शिवरंजन ने काट दी।
‘मेरा काम गाइड करना है सो किया, लिखा तो इसने स्वयं ही। मैंने थोड़ा सुधार दिया।’–कहा उन्होंने। सभी लोग एक दूसरे को देखकर मुस्कुराये। ऐसा कैसे हो सकता है कि स्टेनो टाईपिस्ट ने डिक्टेशन किससे ली आलेख की, वह न कहता। उसने सारी बातें बताई लोग समझ गये।
‘कोई बात नहीं सर, वीथिका थोड़ी ज्यादा विनम्र हो गई है।’
‘मुझे बतायें कि आपलोग ने मार्केटिंग की या नहीं?’–अस्मिता थीं।
‘ये हुई न असली बात।’–एक प्रोफेसर थे।
‘वीथिका मेरे लिये चिकन की साड़ी लाई है।’–निधि ने कहा।
‘आपलोग को मैम, यही सूझता है। सचमुच वीथिका और हिमाचल वाली रिसर्च स्कॉलर ने सत्र बंक किया और साड़ी खरीद लाईं।’–प्रो. शिवरंजन ने कहा। सब हँस पड़े। वीथिका संकोच से लाल हो गई।
‘तो सर आप नहीं गये बाजार? मैम के लिए साड़ी अपने लिये कुरता वगैरह लाते।’–एक ने कहा।
‘अब छोड़ो यार, और अस्मिता जी यह टॉपिक छोड़िये, कहीं मेरी मैडम के कानों में पड़ जाएगी तब मेरी शामत है।’–प्रो. शिवरंजन ने कहा।
‘और तुम निधि उन्हें मत अपनी साड़ी की खरीदारी पहुँचा आना’–उसकी बात पर सभी ने निधि को हिदायत दी।
‘न, न, मैं कहे बिना न रह पाऊँगी वरना मेरा पेट फूल जाएगा। मैं साड़ी पहन कर जाऊँगी और उन्हें दिखाऊँगी।’–निधि थी।
‘ऐसा न करना।’–अस्मिता ने कहा।
‘मैं ऐसा करने न दूँगी।’–वीथिका थी।
देर तक सब हँसते बोलते रहे। उस दिन काम की कोई बात नहीं हुई। लेकिन इन लोगों को अपना शोध प्रबंध लिखकर टाइप करवाना तो था सो अगले दिन गयीं। अपराह्न में, अक्सर सब अपने अपने काम में लगे हों तो प्रो. शिवरंजन भी अपने पुस्तकालय वाले कक्ष में रहते। वीथिका उनके पास और निधि अस्मिता के कक्ष में गईं।
‘सर, ये कुछ लिखे हैं मैंने, तीन अध्याय हैं।’–विनीता ने कहा।
‘रख दो, देख लूँगा। दो दिन बाद आना।’–कटा हुआ उखड़ा स्वर।
‘ठीक है सर, नमस्ते मैं जाऊँ?’
‘जाने की हड़बड़ी है तो जाओ।’
‘आपने कहा दो दिन बाद आने सो…।’
‘ओह, तो बैठ नहीं सकती।’
‘सॉरी सर।’
‘क्या सॉरी, आपका रवैया ठीक नहीं मिस वीथिका सान्याल।’
‘मैंने क्या किया है?’
‘आप अपने को समझती क्या हैं? मुझसे भागती रही हैं। क्यों?’
‘नहीं तो सर।’
‘मैं सब समझता हूँ। उस श्यामल दास के साथ आपकी चोंचलेबाजी मुझे खूब दिखाई पड़ रही थी। उसी ने मेरे खिलाफ आपको भड़का दिया है।’
‘वह क्यों भड़कायेगा सर, आप मेरे हेड हैं, मेरे गाइड हैं, वह क्यों भड़कायेगा? आपको गलतफहमी हुई है। वह अच्छे घर का अच्छा लड़का है।’
‘तो जाइये उसी से शोध पत्र दिखाइये। वहीं जाकर क्यों नहीं पढ़ाती हैं? जाइये।’–डपटा उन्होंने। तभी दरवाजे की घंटी बजी।
‘निधि?’–वीथिका बोली और रोने लगी। प्रो. शिवरंजन उत्तेजना में खड़े हो गये थे सो बैठ गये।
‘प्रणाम सर,’–निधि ने कहा।
‘मैंने समझा बातें हो गई होंगी, मेरी अस्मिता मैम से हो गई। मैंने देखने के लिए फाइल उनके पास छोड़ दी है। सो इसे साथ करने आ गई।’–निधि ने बिना पूछे सफाई दे डाली।
‘आओ बैठो निधि, और इन मोहतरमा को समझाओ–कि सिर्फ दुखी होने से नहीं होता है समाधान। कर्म पर डटे रहो कर्म पर।’
निधि चूँकि बाहर देर से खड़ी थी उसने सारी लड़ाइयाँ सुन ली थी। वीथिका ने इनके पॉजिसिवनेस के बारे में जरूर कहा था। अभी की बातों से यही तो जान पड़ता रहा था। उसने अपने हाथों से आँसू पोंछे और चलने को कहा।
‘सर इसे जाने दीजिये, हम साथ हैं।’
‘चलो छोड़ देता हूँ।’–उठे और नीचे आ गये। ये चुपचाप गाड़ी में बैठ गई और गाड़ी से ही आवास पर आ गयी। छोड़कर वे चले गये।
कमरे में आकर कपड़े बदलने, हाथ पैर धोने तक दोनों मौन थी। वीथिका ने चाय बनाई और आराम से बिस्तरे पर बैठ कर चाय पीने लगी। निधि कुर्सी पर बैठी। चाय खत्म कर, निधि अपने तख्त पर आकर लेट गई।
‘वीथि, मामला गंभीर है। मैं डर गई हूँ।’–निधि ने कहा।
‘क्या सोच रही हो, बताओ तो।’–क्लांत थी वीथिका।
‘जब वो तुमको डाँट रहे थे तब मैं वहीं थी। सोचा, शांत हों तो आऊँ लेकिन, मामला बदतर होने लगा तो मैं भीतर आ गई उनकी सारी बातें चौंकाने वाली लगीं।’
‘हाँ निधि, जान पड़ता है मैं उनकी जरखरीद गुलाम हूँ।’
‘पर वो उस बेचारे श्यामल दास के पीछे क्यों पड़ गये थे। कहीं इनके ही मन में कोई खोट तो नहीं है?’
‘कैसे कहूँ?’
‘चुपचाप रहकर पीएच.डी. तो कंप्लीट हो जाय। सो तू चुप ही रह।’
‘मैं तो चुप ही हूँ।’
‘दोनों ने दो दिन बाद बुलाया है। सोमवार को चलते हैं।’
‘जाना होगा ही, चाहे डरूँ या घबड़ाऊँ।’
‘किसी से राय विचार भी तो नहीं ले सकते हैं हम! चारों ओर शोर मच जाएगा। तुम्हारी ही भद्द पिटेगी।’–दोनों बेसहारा लड़कियाँ अपनी इस अवस्था से विचलित थीं। दुःख बहुत सारे ऊँच-नीच सिखाता है। वीथिका ने चुपचाप प्रो. शिवरंजन के सारे वाचिक प्रहार सह लिये। काम करती रही। प्रो. शिवरंजन की कृपा समझिये या परिश्रम वीथिका की पीएच.डी. की डिग्री इसे मिल गई। कॉलेज में अभी भी वी.सी. एपायंटमेंट के कार्य विस्तार पर चर्चा चल रही थी।
अगला दो सेमिनार प्रस्तावित था, एक लखनऊ में दूसरा हिमाचल में। लखनऊ वाले में शहरी स्लम पर आधारित विषय था तथा हिमाचल में जनजातियों पर आधारित। लखनऊ के सेमिनार में अस्मिता तथा निधि गईं और हिमाचल के सेमिनार में प्रो. शिवरंजन और वीथिका। वीथिका इस बार जाना नहीं चाहती थी। उसने कहा भी कि उसे माँ के पास जाना है, उसका स्वास्थ्य ठीक नहीं है। इन दिनों माँ यूथिका के साथ दिल्ली में थी। प्रोफेसर साहब ने उसके आग्रह को टाल कर कहा–‘तुम्हारी माँ दिल्ली में है न! वहीं से चली जाना।’–अब इसके पास कोई चारा नहीं था। जाने से पहले वीथिका और निधि प्रोफेसर साहब के आवास पर गये। गेट में घुसते ही रम्या जी के रियाज की स्वर लहरी सुन ये दोनों मंत्रमुग्ध थीं। लॉन में रखी कुर्सी पर बैठ चुपचाप सुनती रहीं।
‘कितना मीठा स्वर है न, निधि।’
‘हाँ, कमाल का गाती हैं।’–कहीं कोई नहीं था। रियाज समाप्त कर स्वयं रम्या जी बाहर आईं। ‘अरे तुमलोग यहाँ चुपचाप बैठी हो, कब आई?’
‘हमलोग चुपचाप बैठ कर आपकी स्वर लहरी का आनंद ले रही थीं। क्या स्वर्णिम स्वर है मैम।’–वीथिका ने कहा।
‘अरे यह तो रियाज कर रही थी। मुझे भी लखनऊ जाना है जब तुम वहाँ रहोगी निधि।’
‘वाह आंटी यह आपने लाख टके का समाचार सुनाया। हम सीधे स्टेज पर अपनी आंटी को सुनेंगे।’–निधि ने कहा।
‘लेकिन मैं तब हिमाचल में रहूँगी। बहुत बेकार लगेगा।’
‘तुम शिवरंजन के साथ जा रही हो। उसके साथ का सुख लो। बड़े-बड़े लोग तरसते हैं वीथिका। तुम भाग्यशाली हो।’–कहा रम्या ने।
‘जी मैम, पर आपको सुनती न!’
‘इस बार यहाँ भी कौमुदी महोत्सव के स्टेज पर मैं गा रही हूँ। तब सुन लेना।’… ‘सच मैम, यह हमारे लिये परम सौभाग्य की बात होगी।’
‘मैम क्षमा करेंगी, मैं हिमाचल से आपके लिए शॉल लाना चाहती हूँ। कौन सा रंग लें आऊँ? वह जो आपके पास न हो।’
‘रंग पूछ कर गिफ्ट लाओगी?’ वो हँसी।
‘आपकी पसंदगी पूछ रही हूँ।’
‘मस्टर्ड या मरून में कोई ले लेना। शिवरंजन से रुपये ले लेना।’
‘मैं स्वयं लाना चाहती हूँ, उनसे नहीं पूछूँगी। स्वस्ति है न, उसी के साथ जाऊँगी बाजार।’
‘अरे तो शिवरंजन नहीं लेगा क्या?’
‘मैम, वो तो सीनियर लोगों में बैठ कर वर्ल्ड के डेवलपमेंट पर बातें करते रहते हैं। हम उस बीच से चुपके से निकल जाते हैं।’
‘ठीक है, जैसी तुम्हारी मर्जी।’
अपने कॉलेज में वीथिका ने फिर सेमिनार में जाने की अर्जी दी। प्रिंसिपल बहुत खुश हुईं। स्टाफ के सामने कहा–‘इसको देखो इसने छह महीने में दो सेमिनार में भाग ले लिया। आपलोग ध्यान नहीं देती हैं। बहुत बढ़िया वीथिका।’
‘नया विषय है, नये लोग हैं, अपना नाम दर्ज कराना है न! हम क्यों इतनी आपाधापी में रहें मैम?’–अर्थशास्त्र वाली ने कहा। बाहर निकली कि प्रो. शम्पा ने बुलाया अपने कक्ष में, वह साथ गई।
‘आओ बैठो वीथिका, तुम तो कभी दिखाई ही नहीं पड़ती।’–कहा।
‘विभाग के काम में उलझी रहती हूँ मैम।’
‘यह जरूरी है। किस जगह जा रही हो सेमिनार में?’
‘हिमाचल मैम।’
‘वाह, घूम फिर भी लेना। साथ में कौन है यहाँ के?’
‘हेड साहब हैं मैम?’
‘ओ? प्रो. शिवरंजन?’–मुस्कुराई विद्रूप से। वीथिका सहम गई पता नहीं क्या बोलेंगी।…‘जी मैम।’
‘काफी साथ मिलता है तुम्हें अपने गाइड का। जर्मनी में मेरी गाइड थी मैडम डिसिल्वा। बहुत प्यार करती थीं। मूडी भी थीं। मैंने उनको खुश करने के लिए शराब पीनी शुरू कर दी। सिर्फ साथ देने के लिए, अब छूटती नहीं। सो बेबी, याद रखना, गाइड के अजीबोगरीब शौक में उलझ मत जाना।’–वह हँसी।
‘सर में ऐसी कोई आदत तो नहीं है मैम।’–वीथिका ने कहा।
‘यू नेवर नो।’–चलो घर चलते हैं। यहाँ स्मोक करना नहीं है चलती हो?’
‘नहीं मैम तैयारी सारी पड़ी है।’–वीथिका ने कहा। तभी एन.सी.सी. की कैप्टन जूली राणा आ गई।
‘नमस्ते मैम’–उसने शम्पा के बाद वीथिका का भी अभिवादन किया। जूली राणा ने इस वक्त एन.सी.सी. का यूनिफार्म पहन रखा था, चाल भी वैसी ही थी। परंतु हिंदी ऑनर्स की यह लड़की लड़कों जैसे कपड़े पहनती। कॉलर वाला कुरता और पैंट, तस्में वाले जूते मोजे। बालों की चिपटी चोटी वाला जूड़ा जो एन.सी.सी. में कैप के नीचे विहित था। लड़कों जैसी बोली वैसी ही चाल। अपने आपको जूली राणा ने लड़के के रूप में ढाल लिया था।
‘जूली, चलेगी मेरे घर?’–शम्पा ने पूछा।
‘इसीलिये तो आई हूँ। आप कार से हैं मैं स्कूटर से। आप आगे बढ़िये मैं स्कूटर से आती हूँ।’–कहा उसने।
‘क्या तुम वीथिका को छोड़ने जाओगे?’–अनायास शम्पा ने कहा। जूली चौंक गई।
‘नहीं मैम; वैसे मैम आप किधर रहती हैं?’–चकित वीथिका ने कहा अपना पता, साथ ही मना भी कर दिया।
‘ओह तब तो आप वैसे भी उल्टी दिशा में हैं।’–जूली थी।
‘मुझे लगा–तुम इस ब्यूटी पर डोरे डालने चल दोगी।’–शम्पा ने कहा जूली हो हो कर लंपट की तरह हँसने लगी। यह पूरा वाद-संवाद वीथिका को कतई न भाया। वह चुपचाप बाहर आ गई। रिक्शा पकड़ा और लौट आई। आकर निधि से सारी बातें बताये बिना चैन तो पड़ता नहीं। उसने सब कुछ कह सुनाया।
‘धत्, वे लोग चौपट हैं। हमारे यहाँ भी इनकी कुख्याति है। शम्पा प्रसाद के किस्से सब जानती हैं। असल में ये लेस्बियन हैं। जूली राणा तो, लड़कियों का शिकार करती ही है। उसका शिकार शम्पा प्रसाद ने कर लिया। हूँ।’–निधि ने सर झटका, वीथिका देखती ही रह गई।
‘हमलोग उस दिन गये थे तब तुम्हें पता था?’
‘नहीं यार, अपनी एक कलीग से कहा कि हम अपनी दोस्त के साथ शम्पा प्रसाद के घर गये थे। वे खासी इंटलेक्चुअल हैं।’
‘माई गॉड कब गई? कितनी देर रही?’–आश्चर्य से भरकर कहा उसने। ‘मैंने सब कुछ बताया। तब उसने यह सब कहा।’
‘अजीब बातें हैं।’–वीथिका ने कहा।
‘पहले जब तक उनके घर नहीं गई या हमारी कलीग ने न बताया तब तक उन पर दया आती थी, मोह होता था। रम्या आंटी का रूखा व्यवहार देख बुरा लगता था पर जब से मैंने यह सुना तब से मामला उलटा लगता है।’
‘अब दया की क्या बात हो गई? मस्त तो हैं।’
‘मैं सब जानती हूँ न, तुम नहीं जानती।’
‘क्या जानती है तू?’–खीझ गई वीथिका।
‘इनकी शादी हुई थी उस लड़के से जो फ्रांस में सेट्ल हैं। उसके पूरे परिवार के लोग वहीं हैं। शादी करके गईं, एम.ए. कर चुकी थीं, वहाँ पीएच.डी. करने लगीं। कुछ ही दिन ससुराल में रहकर स्वतंत्र रहने लगीं। पीएच.डी. करके यहाँ लौटीं अपनी नौकरी पर आ गईं।’
‘पहले से यहाँ थी?’
‘हाँ, पहले से थी।’
‘क्यों अलग हुई?’
‘कहा कि पति का किसी से चक्कर था। पर मुझे तो लगता है ये अपनी कुमारिका गाइड से चक्कर चला रही होंगी।’
‘दोनों बातें हो सकती हैं सच हों।’–वीथिका ने कहा।
‘हो सकती हैं।’
‘चलो, उन्हें जीने दो अपनी जिंदगी। हम क्यों सोचें?’–कहकर वीथिका ने बात खत्म की। मन जुगुप्सा से भर गया। लेकिन कई बार सोचती तो है कि लड़कियों का जीवन बहुत सहज नहीं होता। क्या पता अपने आप को बचाने के लिए, पुरुष से दूर रहने के लिए ये अपने खोल में सिमट आई हों। पर यह क्या बचाना अपने आप को? सिगरेट शराब में अपने आप को डुबो लेना! लेकिन प्रोफेसर के रूप में शम्पा प्रसाद की महिमा थी छात्राओं के बीच।
निधि और प्रो. अस्मिता लखनऊ विदा हुईं। उनका गंतव्य वहीं था। प्रोफेसर शिवरंजन तथा वीथिका हिमाचल के पर्वतीय प्रदेश में पहुँच गये। सेमिनार का सिलसिला वैसा ही था जैसा लखनऊ में था पर चूँकि यह स्थान मनोरम था सो वीथिका का मन प्रसन्न था। प्रो. शिवरंजन भी तनाव मुक्त लग रह थे। इस बार न उनकी आँखें इसकी चौकसी में चौकन्नी थी न पीछे पीछे फिर रहे थे। वे बेलौस होकर अपने साथियों से बातें करते। स्वस्ति ने समय निकाला और कुछ शॉलें खरीद लाई वीथिका। सभी विदा हो रहे थे लेकिन प्रो. शिवरंजन ने दो दिन के बाद का टिकट ले रखा था। घूमने-फिरने का बहाना था। स्वस्ति ने गाइड से संपर्क करा दिया था। वह थकी हुई थी। आराम करने चली गई। उस शाम देर तक सोते रहे थे प्रो. शिवरंजन। वीथिका उनके कमरे में गई। उन्हें अलसाया देखा। दोनों ने साथ चाय पी। प्रोफेसर साहब ने कहना शुरू कर दिया कि वे उदास हैं। उदासी का सबब है कि कोई उनका अपना नहीं है।
‘सर, आप देश विदेश में समादृत हैं, सब आपके अपने ही हैं।’–वीथिका ने उन्हें समझाया।
‘उस अपनेपन की कमी नहीं है वीथिका, मेरे अपने मन का कोना सदा उदास है।’
‘क्यों सर?’
‘जीवन में प्रेम प्यार नहीं है।’
‘इतनी गुणी हैं मैम, आपने पसंद से ही शादी की थी, सुना है।’
‘मैं संगीत प्रेमी हूँ। रम्या का गीत गाना मेरे रग रग में उछाह भर देता था। मैं सचमुच इसका दीवाना हो गया था। शादी भी कर ली। शादी के बाद पता चला कि उसकी स्प्लिट पर्सनालिटी है। यह कभी भी भयानक व्यवहार करने लगती है। दोनों बेटियों का पालन पोषण मैंने ही किया है।
‘ओह सर, यह मैं नहीं जानती थी।’–वीथिका ने कहा।
‘तुम कैसे जानती, मैंने कहा क्या?’
‘जी नहीं सर।’
‘इनकी माँ ने कभी इन पर ध्यान न दिया। बहन खुद नॉर्मल नहीं है। मेरी माँ, जब मैं छोटा था तभी गुजर गई। मैं अकेला ही गृहस्थी की गाड़ी धकेलता रहा।’
‘जी सर।’
‘यही कारण है कि मैं कभी कभी तुमसे प्यार की अपेक्षा करता हूँ। तुम मुझे जाने क्यों अपनी सी लगती हो।’
‘धन्यवाद सर।’
‘धन्यवाद क्यों? मैंने कई बार तुम्हें परेशान किया, गुस्सा किया। किसी के निकट जाते वक्त ईर्ष्या की, यह यों ही नहीं है। मैं मन ही मन तुमसे शायद अपेक्षा करने लगा हूँ कि तुम ही मुझे इस भँवर से निकालोगी।’–कहकर उसकी ओर देखने लगे प्रो. शिवरंजन, वीथिका जमीन की ओर खोयी सी जाने क्यों देखे चली जा रही थी।
‘पर यह मेरी भूल थी कि मैं तुममें आसरा ढूँढ़ूँ। तुम्हें हक है अपना जीवन अपनी तरह जीने का। मेरे दुःख से दुखी होने की बिलकुल जरूरत नहीं है।’–वीथिका चुप रही, पर उनके चेहरे को आर्द्र भाव से देखने लगी। गेहूँए रंग का सुंदर पुरुष, बड़ी बड़ी सम्मोहक आँखें, घने घुँघराले केश, जिसका एक गुच्छा अक्सर पेशानी पर झूलता रहता। इतना, सुंदर सुपुरुष टॉल डार्क ऐंड हैंडसम इनसान प्रेम के लिए तरस रहा है? जबकि मैम रम्या इंदु इनके सामने कहीं नहीं ठहरतीं। हाँ, उनका गायन जरूर दिल में उतर जाता है। काश! संगीत जीवन होता!
‘क्या सोचने लगी वीथिका? मैंने अपना गोपन तुम्हारे सामने खोल दिया है तो इसलिए नहीं कि तुम मुझसे सहानुभूति रखो। ऐसी चुप हो गई हो कि मुझे अफसोस हो रहा है, मैंने तुम्हारी ट्रिप खराब कर दी।’
‘नहीं सर, ऐसी बात नहीं है। मैं अब इतनी अज्ञानी नहीं हूँ। दुनिया में जो कुछ इनसान चाहता है वह मिल जाय ऐसा कहाँ होता है?’
‘जैसे तुम यदि श्यामल दास को चाहती हो, वह न मिले।’
‘मैं ऐसा नहीं चाहती सर, श्यामल मेरा बड़ा भाई समान है। उधर मेरा दिमाग नहीं जाता है कभी।’
‘मुझे लगता है उसके मन में जरूर है कुछ।’
‘अगर रहता तो वह फोन करता प्रेम पत्र लिखता, पर ऐसा नहीं किया। आप कैसे कह रहे हैं कि वह मुझे उस रूप में देखता भी है?’
‘तुमसे कुछ देर बातें करके मन हल्का हो गया। बुरा न मानना।’
‘नहीं सर, अच्छा लगा आप अब हल्के हुए।’
‘कोई शेयर करने वाला हो तो मन हल्का होगा न!’
‘बाहर निकलियेगा?’
‘अब आज रहने दो, कल हमलोग घूमने निकलेंगे।’
‘कुछ बाजार भी करना है?’
‘अभी खुला है तो अभी चल सकते हैं।’–प्रोफेसर शिवरंजन ने कपड़े पहने और बाजार निकल गये। इंपोरियम में जाकर कुछ शॉलें मफलर तथा बच्चों के लिए कोट खरीदा। एक कोट गहरे लाल रंग का वीथिका के लिए भी खरीदा।
‘इसे पहन कर दिखाओ’–कहा और पहनने में मदद करने लगे। मदद करते वक्त वीथिका को महसूस हुआ कि नितंब और सीने पर उनके हाथ सरसराते रहे। उसने कुछ न कहा। उसे अजीब भी नहीं लगा। टैक्सी में बैठे प्रोफेसर साहब ने उसका हाथ अपने हाथों में लेकर कहा कि उसने साथ देकर उनका मन प्रसन्न कर दिया है। वह मन ही मन विचार रही थीं कि उनका स्पर्श इसे अवांछित क्यों नहीं लग रहा है। ऐसा क्यों लग रहा है मानो यही व्यक्ति इसके काम्य हैं? यह महसूस करने की कोशिश कर रही थी कि क्या प्रो. शिवरंजन की, उसके साथ की यह कामना कर रही थी पहले से? बिलकुल उलझ गई थी। मन को तन नहीं समझ रहा है और तन बेहाथ हुआ चला जा रहा है। होटल में आकर नीचे डाइनिंग हॉल में ही इन्होंने रात्रि भोजन किया और सामान लेकर अपने कमरे में आ गये।
‘गुड नाइट सर, कल मिलेंगे।’–कहकर वह दरवाजे के बाहर से ही चली गई। प्रोफेसर शिवरंजन उसे बाँह पकड़कर खींच लेना चाहते थे पर न कर सके, वह अपने कमरे में चली गई। वह अकेली कितना सोचे? निधि होती तो कुछ समाधान होता। यह जरूर समझ रही थी कि दो दिन लगातार साथ रहने, घूमने का कार्यक्रम अधिक गिरहें खोलेगा। अपने मन पर नियंत्रण रखने को कृतसंकल्प हो वीथिका सो गई।
प्रो. शिवरंजन का मन प्रफुल्लित था। उन्हें अनुमान हो गया था कि वीथिका इनके हाथ आ जायगी। कोमल हृदय की लड़की है। उस पर इनकी निगाह पहले दिन से ही थी। ऐसा कभी नहीं हुआ कि जिसे पाना चाहा वह इन्हें नहीं मिला। संगीत प्रेम के कारण रम्या पर रीझे थे। रूपहीना रम्या इनके रूप पर पहले ही रीझ चुकी थी। प्रो. शिवरंजन अपने स्वभाव के गुलाम थे। उन्होंने अपनी ओर से आकर्षण का जाल फेंक दिया था। दूसरे दिन वादियों की ओर घूमने फिरने गये। जहाँ खुलकर इन्होंने अपने व्यवहार से प्रेम का इजहार किया। बेलौस रहने और दीखने में बड़ा फर्क होता है पर पहली बार किसी पुरुष के सन्निकट आई युवती वीथिका समझ न पाई। वह धीरे-धीरे उनके साथ हो ली। अब इनमें कोई दूरी न रही। वीथिका का संकल्प धरा का धरा रह गया।
‘यूथिका को बैंक की विदेशी शाखा में पदस्थापन मिला। असल में इसे पसंद करने वाला एक रसूखवाला आर्किटेक्ट विदेश चला गया था। उसी ने इसे वहाँ बुलवा लिया। परंतु इनकी माँ ने शर्त रखी कि जब तक यूथिका शादी नहीं कर लेती वह उसके साथ नहीं जाएगी। भले ही वीथिका के पास रह जाय। लेकिन यह यूथिका के गले नहीं उतरता।
‘माँ, मैंने आप दोनों का जिम्मा लिया है। वीथि ने अभी अपनी पढ़ाई ही पूरी न की। पूरी करे, स्थाई नौकरी में लगे तब मैं उससे निश्चिंत होऊँगी।’
‘तो भी तुम मिस्टर चड्ढा से शादी कर लो।’–चड्ढा साहब पहले तैयार बैठे थे, यूथिका की ओर से हरी झंडी नहीं मिल रही थी। यूथिका और चड्ढा ने कोर्ट मैरीज कर ली। इसकी तरफ से सिर्फ श्यामल दास, माँ और बहन थी। निधि भी दिल्ली पहुँची थी। छोटे से समारोह के बाद श्यामल ने चड्ढा से हाथ मिलाते हुए कहा–‘बच के रहना मिस्टर चड्ढा, यह शेरनी साथ जा रही है।’–खूब हँसी खुशी से विदा हुई यूथिका। जाते जाते श्यामल को हाथ पकड़ कर कहा–‘मेरी इन दोनों छोटी बहनों का खयाल रखना।’
‘थैंक गॉड, तुमने यह नहीं कहा कि छोटी बहन समझना।’–हँसी का फव्वारा फिर छूटा। पहली बार यूथिका वीथिका के गले लग कर रोती रही देर तक। माँ का क्या कहना, वह रोती ही रहीं।
‘हर हफ्ता में एक ठो चीठी लिखेगी न?’–माँ कहती।
‘मैं अगर तीन लिखूँ तो कोई एतराज है माँ?’–वीथिका के भी आँसू निकल आते।
‘मुझे नहीं कहती हैं मासी माँ।’–निधि बोलतीं।
‘ना रे तुम दोनों एक दूसरे का हाल लिखना।’
अरब देश का कायापलट हो गया था। तेल के अकूत भंडार का पता चल गया था। नई बस्तियाँ रेगिस्तान में बस रही थीं। डॉ. चड्ढा वहीं चले गये थे। विवाह के बाद यूथिका भी माँ के साथ वहाँ पहुँच गई। वीथिका का लगाव प्रो. शिवरंजन से बढ़ गया। शोध के बहाने वे अतिरिक्त समय निकाल कर मिलते। इसका और निधि का थीसिस साथ ही जमा हुआ, एक हफ्ते के अंतराल पर दोनों का वाइवा हुआ और ये डॉक्टर हो गईं। तभी एक दिन निधि की गाइड प्रोफेसर अस्मिता ने इसे उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद विश्वविद्यालय में व्याख्याता बहाली का विज्ञापन दिखाया तथा भर देने को भी कहा। इसके विषय के चार व्याख्याता नियुक्त होने थे। उन्होंने निधि तथा वीथिका को आवेदन देने कहा। निधि ने आवेदन दे दिया परंतु वीथिका ने टाल दिया।
‘मुझे पटना में रहना अच्छा लगता है निधि। हड़बड़ा क्यों गई यहाँ भी विज्ञापन होने वाले हैं।’–वीथिका ने कहा।
‘तब यहाँ भी भर दूँगी। अभी अस्मिता मैम ने कहा है, कैसे टाल दूँ?’–
निधि ने फार्म पोस्ट कर दिया। उसका साक्षात्कार हुआ। स्वयं अस्मिता बोर्ड में थीं। निधि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के लिए चुन ली गई। जाते वक्त बड़ा नेह उमड़ा इसे अपने जन्मस्थल से। जिस दिन इलाहाबाद से लौटी सबसे पहले गंगा किनारे के उस छोटे से देवी मंदिर में पहुँची। मंदिर के गर्भगृह में बड़ा वाला पीतल का प्रदीप जल रहा था। माता का शृंगार हो चुका था। परिचित सुगंध से वातावरण सुगंधित था। जो भी पुजारी है वह बाबा के मिजाज का है, सोचा निधि ने। माता को सर झुका कर घंटा एक बार बजा कर वह निकल आई। कहीं कोई नहीं था। आवास की तरफ सफाई थी फूल-पत्तियाँ खिली खिली हरी भरी थीं। आँवले का विशाल तरू फल से लदा हुआ था। उसके नीचे का स्थान सदा की तरह लीपा हुआ था। वहीं पार्श्व में एक चबूतरा था और एक प्रस्तर खंड जिस पर लिखा है–बाबा पं. राखालचंद्र भट्टाचार्य समाधि स्थल। वहाँ ताजे फूल चढ़े थे। अगरबत्ती जलकर खाक हो चुकी थी पर गुलाब की खुशबू फैल रही थी। निधि की आँखें भर आईं। वह बाबा की समाधि के नीचे बैठ गई, चबूतरे पर सर टेक कर फूट फूट कर रो पड़ी–‘बाबा ओ बाबा, आमि एरोची, तोभार खुकी बाबा, आमी प्रो. डॉक्टर निधि भट्टाचार्य हुए गेलाम, शुनचो?’
‘दीदी, बाबा सब सुन रहे हैं। वे सब जानते हैं, उनका आशीष है आप पर।’ स्वर सुन मुड़ी। देखा राधाकृष्ण मंदिर के प्रधान पुजारी का शिष्य संबंधी किशोर अब युवक है। त्रिपुंड के साथ सिंदूर ललाट पर तिलक के रूप में। युवक वहीं समाधि के निकट निधि के पार्श्व में बैठ गया।
‘तुमने ही पूजा की है भुवन?’–निधि ने पूछा।
‘जिन्होंने कब्जा किया उन्हें भगाया गया। दीदी, कॉलेज की ओर से प्रो. शिवरंजन की इच्छा से मैं ही पुजारी नियुक्त हुआ। मैं मनोयोग से पूजा करता हूँ दीदी। आपकी राह देखता रहता था। आज आप आई हैं दीदी। आप कहाँ रहती हैं वह नहीं जानता था और बाबा तथा माँ भगवती को छोड़कर जाना भी नहीं चाहता था।’
‘तुम हो तो सब ठीक रहेगा।’
‘भरसक वैसे ही करता हूँ जैसा आपने सिखाया था।’
‘तुम्हारा परिवार कहाँ है?’
‘मैं अनाथ बालक था, गुरु जी ने मुझे पाला संस्कार दिये और जीवन दिये। आपने वृत्ति दी। यह परिसर, इसके पेड़-पौधे ही मेरे परिवार हैं। पहले से जो अलगू पियुन का परिवार बाबा ने रखा था, वही अब भी है, बस।’
‘ओह, भुवन मेरी नौकरी लग गई है–इलाहाबाद विश्वविद्यालय में। मैं वहाँ जा रही हूँ। जाते ही पत्र दूँगी। तुम भी पत्रोत्तर देना।’ निधि के सीने पर से सिल सा भार उतर गया। मंदिर सुरक्षित हाथों में है। बाबा की और बाबा के प्रिय पेड़ों की परिचर्या हो रही है। वहाँ से उठकर गंगा किनारे गई, चुल्लू भर पानी लेकर मुँह पर मारा–हे गंगे मैं आपको छोड़कर स्वर्ग में भी नहीं रह सकती। सदा आशीर्वाद देती रहें, कभी अपने तट से विलग न करें।
भरे मन से निधि अपना सामान बाँध रही थी। सामान के साथ अपनी सुधियाँ भी समेट रही थीं। अटाला था भट्टाचार्य आवास में, वस्त्र आभूषण और मुहरों का। लोहे, बाँस काठ के अनगिनत फर्नीचर। सब कुछ बहनों ने बाँट लिया। दोनों निर्मम बहनें क्या उसी माता-पिता की थीं जिसकी ये स्वयं हैं? उनकी निर्मम चालें याद कर फूट-फूट कर रो पड़ी निधि। देर तक अकेली रोती-रोती फिर सो गई थी। बदन अब भी हिचकियों से काँप रहा था। दरवाजा मात्र सटा हुआ था बंद नहीं था। वीथिका आई तो देखा यह गहरी नींद में थी पर हिचकियाँ ले रही थी। उसे निधि पर मोह हो आया। वहाँ अकेली कैसे रहेगी? वीथिका के जीवन में तो प्रेमांकुर फूट चुका था जिसके सहारे अकेलापन न रहेगा पर निधि सचमुच अकेली हो जाएगी। थोड़ी देर बाद निधि को जगाया वीथिका ने, दोनों ने सैंडविचेज और कॉफी पीये। अलग से डिनर की जरूरत महसूस नहीं हो रही थी।
‘निधि, तू यहाँ भी साक्षात्कार के लिए आना। वहाँ अकेली तेरा मन न लगेगा।’–वीथिका ने कहा।
‘आऊँगी!’–संक्षिप्त उत्तर था इसका।
‘मैं यहाँ बिलकुल एकाकी रह जाऊँगी।’
‘इतना रो क्यों रही थी?’
‘बाबा के मंदिर गई थी। वहाँ वह लड़का भुवन शर्मा पुजारी नियुक्त हुआ है। उसी ने बाबा को अग्नि प्रदान की, उसी ने श्राद्ध किया, उसी ने उनकी समाधि बनवाई। वही बाबा का कर्त्तापुत्र है वीथिका। सामने से गंगा की धारा उसे देख रही हैं। वही धारा जिसने बाबा के पुत्र को छीन लिया था उसी ने उस अनाथ बालक को भेज दिया। अब सचमुच लगता है कि मनुष्य तो निमित्त होता है।’
‘ओह, अच्छा किया निधि कि वहाँ हो आई, जहाँ तुम्हारी नाल गड़ी है, जहाँ बाबा हैं। मैं चाहती हूँ कि तेरा यहीं इसी विश्वविद्यालय में स्थाई चयन हो जाय।’
‘होगा तो देखेंगे वीथि, तुम्हारा हो यह कामना करती हूँ।’–वह हौले से हँसी।…‘मैं राह देखूँगी तुम्हारी।’
‘मेरी गाइड ने मुझको वहाँ स्थान दिया अब तेरे गाइड और सर्वशक्ति संपन्न हेड साहब की मदद तुझे मिलनी चाहिए। मैं भी प्रतीक्षा करूँगी।’
लगातार दो साल तक जिस कॉलेज में पढ़ाती रही थी निधि वहाँ की शिक्षिकाओं तथा छात्राओं ने उसे बढ़िया विदाई दी। जाने से एक दिन पहले प्रो. शिवरंजन प्रसाद के आवास पर निधि गई। रम्या इंदु गर्मजोशी से मिलीं।
‘अरे जाओ निधि, वह हमारी यूनिवर्सिटी है। मैंने वहाँ पढ़ाई की है। शिवरंजन ने भी वहीं से पढ़ाई की, पढ़ाया। लंदन जा कर विशेष योग्यता प्राप्त की। बहुत मन लगेगा तुम्हारा।’
‘मैम, जैसे आपको वहाँ के लिए फील हो रहा है वैसे ही मुझे यहाँ के लिए लगता है। मैं अपनी यूनिवर्सिटी को सबसे बड़ा मानती हूँ। यहाँ का सब कुछ छूटना कुछ दिन तकलीफ तो देगा।’
‘अरे नहीं, तुम वहाँ रम जाओगी। सारे विश्वविद्यालय एक से होते हैं। सारे परिश्रमी लोग एक से ही होते हैं।’
‘जी आंटी, कोई दिक्कत होगी नहीं, क्योंकि आपलोग का हाथ सिर पर है।’…‘तुम्हारी दोस्त नहीं आई?’
‘वो तो यहीं रहेगी। मेरे लिये वो कुछ पक्वान्न बना रही है।’–हँसने लगी निधि।…‘यह तो बहुत बढ़िया बात है। सामान सब ले लिया?’
‘जी, अभी तो एक अटैची है और एक होल्डऑल। वहाँ कुछ दिन यूनिवर्सिटी होस्टल में रहूँगी फिर घर देखकर शिफ्ट कर जाऊँगी।’
‘बिलकुल सही सोचा है निधि।’–मैडम रम्या इंदु ने कहा।
निधि ने दूसरी बार इलाहाबाद की यात्रा की। अपने परिवेश में वह जानती थी कि इलाहाबाद में संगम है, गंगा यमुना और लुप्त सरस्वती का जहाँ कुंभ लगता है। थोड़ी बड़ी हुई तो जाना कि वहाँ अपने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का घर है। जब एम.ए. करने के बाद पीएच.डी. करने लगी तब अंदाजा हुआ कि इलाहाबाद बहुत यशस्वी विश्वविद्यालय है। कभी-कभी आश्चर्य होता कि मात्र संस्कृत और बांग्ला के ज्ञान वाले पुजारी पिता की खुकी को इतना ज्ञान क्यों और कैसे हो गया? मानो वह गंगा की धारा में खड़ी थी ज्ञान का सैलाब इस पर से गुजर गया।
निधि के लिए इलाहाबाद में रहना और अध्यापन करना आसान नहीं था। एक तो बिलकुल नया माहौल दूसरे अपरिचित लोग। पटना की भाषा और इलाहाबाद की भाषा का अंतर इसे अब समझ में आया। उच्चारण की विसंगतियों से यह त्रस्त रही कुछ दिन तक। तभी एक दिन देवदूत की तरह श्यामल दास अवतरित हुआ। निधि को सुखद आश्चर्य हुआ।
‘श्यामल सर, आप किस सिलसिले में यहाँ आये हैं?’
‘जिस सिलसिले में आप आई हैं मिस भट्टाचार्य।’
‘मैं तो पढ़ाने आई हूँ। आप लखनऊ…’
‘वहाँ था, अब यहाँ आ गया हूँ। आपको अच्छा नहीं लगा?’
‘अगर यह सच है तो भगवती की बड़ी कृपा है।’
‘सच है, मैंने रीडर के पद के लिए आवेदन दिया था, चुन लिया गया।’–उसने हँसकर कहा।
‘ओह, आप सोच नहीं सकते मैं कितनी खुश हूँ। मेरा मन यहाँ बिलकुल नहीं लग रहा था। मैं पटना को बहुत मिस कर रही थी। आपने आकर मुझे उबार लिया।’
‘रुकिये रुकिये, जरा बताईये कि पटना को आप क्या अपनी दोस्त वीथिका के लिए मिस कर रही हैं या और कोई वजह है?’
‘अगर मैं वीथिका के साथ यहाँ होती तो चल जाता, जैसे अब आपके आ जाने से।’–हँसी निधि। श्यामल दत्ता ने गौर किया निधि गुलाबी आभा लिये गोरे रंग की युवती है। बड़ी-बड़ी नीलेपन लिये काली आँखें हैं। घनी बरौनियाँ और उन्नत भाल हैं। बिलकुल सीधा लंबा केश है जिसकी कस कर चोटी बनी है। हँसती है तो ओठों के कोनो पर अत्यंत छोटे गड्ढे पड़ते हैं। कुल मिलाकर निधि एक अति सुंदर लड़की थी जिसकी ओर श्यामल का आज ध्यान गया। लखनऊ में यह अपनी गाइड अस्मिता के साथ सदा चिपकी रही थी। बढ़िया पेपर पढ़ा था परंतु वीथिका जितना न तो पेपर तगड़ा था न बोलने का अंदाज। इसे वीथिका की परम मित्र के रूप में जानता था। वीथिका ने पत्र लिखकर बताया था कि निधि की नियुक्ति वहाँ हो चुकी है। वह वहाँ अकेली है, उसका मन नहीं लग रहा है, पर श्यामल ने जब उसे बताया कि वह भी वहाँ जा रहा है तब वीथिका को बहुत अच्छा लगा। श्यामल ने पत्र में कहा कि उसे अभी न बताये, जाकर एकबारगी चौंका देगा। श्यामल का यही नाटकीय अंदाज है। उसने निधि को न बताया। अब दोनों ने अलग-अलग पत्र वीथिका को लिखा। निधि को अब इलाहाबाद में मन लगने लगा।
क्लास खत्म कर वीथिका घर लौटने की तैयारी कर रही थी कि शम्पा प्रसाद आईं शिक्षिकाओं के कक्ष में।
‘वीथिका, मुझे कुछ मार्केटिंग करनी है, क्या तुम मेरे साथ चलोगी कि तुम्हें यूनिवर्सिटी जाना है?’–शम्पा ने पूछा।
‘नहीं मैम, मैं घर ही जा रही थी आज कहीं नहीं जाना है।’–कहा उसने सहज भाव से।
‘काम न भी हो तो तुम जा सकती हो, आफ्टरऑल तुम्हारे हेड साहब जो हैं।’–व्यंग्य किया उसने।
‘जी मैम, उनसे कई बार कुछ पूछने या विभागीय पुस्तकालय से पुस्तकें लेने जाती हूँ। यहाँ तो है नहीं।’ सपाट ढंग से कहा, यह कहते-कहते वे कार तक आ गये। शम्पा ने कार खोली और इशारा किया। कार स्वयं शम्पा चलाती सो यह उसके पास आगे ही बैठ गई। गाड़ी चौराहे पर रोककर दुकान में गये ये लोग। शम्पा साबुन, शैंपू, सिगरेट वगैरह लेकर निकल आई।
‘अब चलो मैं तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ आऊँ।’–शम्पा ने कहा।
‘नहीं मैम मैं रिक्शे से चली जाऊँगी।’
‘कोई बात नहीं बेबी, मैं छोड़ दूँगी न, अगर कहोगी तो उतरकर चाय पीने में भी कोई एतराज न करूँगी।’–कहकर कंधे उचकाये। वीथिका बैठ गई। शम्पा इसके कमरे में आकर बैठी नहीं। घूम घूमकर देखती रही। निधि के तख्त पर एक खादी की दरी बिछी थी। बाकी सब जैसे पहले देखा वैसे ही था। वीथिका ने चाय के साथ झटपट पकौड़े भी तल लिये थे।
‘वाह, इतनी जल्दी पकौड़े भी तल लिये?’–शम्पा ने खाते हुए कहा।
‘मिलाकर रखा हुआ था मैम, इसीलिए झट से बन गये।’–वीथिका ने कहा।…‘तुम यह सब बनाना जानती हो।’
‘जी मैम, कामवाली काटकर मिलाकर रख जाती है, मैं तल लेती हूँ सब्जी और रोटी मैं खुद बनाती हूँ।’
‘तब तो तुम गुणी लड़की हो। मैं सोचती थी कि होस्टल में जीवन भर रहने वाली कैसे जान सकती है।’
‘छुट्टियों में माँ के साथ सीखा मैम।’
‘गुड’–थोड़ी देर बैठकर शम्पा चली गई। शायद इसके सहज शांत व्यवहार से परेशान होकर वे व्यंग्य बाण चलाना भूल गईं, उन्होंने हथियार डाल दिये। जाते जाते वीथिका के गाल मसलकर बोली ‘कभी मेरी तरफ की रास्ता भूल जाया करो, तुम मुझे पसंद हो।’–वीथिका सहम गई। आकर अपना चेहरा दस बार धोया, बड़ी घृणा सी हुई। प्रकृति ने स्त्री पुरुष का संयोग बनाया है, ये क्यों ऐसी है? सब कुछ होते हुए भी कितना भोंडा है इनका आचरण। और वह जूली राणा? क्या वह स्त्री है? पता नहीं हो सकता है न हो स्त्री। कॉलेज में जब वीथिका इनकी गाड़ी में बैठ रही थी तब सारे स्टाफ मुस्कुरा रहे थे। एक दूसरे को देखकर इशारा कर रहे थे। माली वगैरह भी इनका लक्षण जानते थे। जब इनके गमलों की देखभाल करने पहुँचते तब जूली राणा के साथ व्यवहार देखते। ये अच्छी बख्शीश देती सो सब काम करने को तत्पर रहते। किसी की व्यक्तिगत जिंदगी में घुसपैठ की जरूरत नहीं समझते। वीथिका खूब समझ रही थी कि उन्हें लगता होगा एक नई चिड़िया फँसी है। वीथिका इन दिनों अपने गुरु जी के सुरूर में थी। वह अपने कैरियर को लेकर भी चिंतित थी। कोलकाता वाले सेमिनार में ये अकेली भाग लेने गई थी। लेकिन दूसरे दिन प्रो. शिवरंजन भी पहुँच गये। सेमिनार के बाद उनके साथ दो दिन किसी दूसरे होटल में जाकर बिताया। इसने पूर्णतया अपने आपको समर्पित कर दिया। उस प्रसंग में अब यह बुरी तरह फँस गई। इसे भान हुआ कि वह गर्भवती हो गई है। तीसरा महीना चढ़ गया यह जान पड़ा। उसने तुरत प्रो. शिवरंजन को विभाग में जाकर कहा।
‘लगता है मैं फँस गई सर।’
‘क्या हुआ?’–बड़े भोलेपन से पूछा प्रोफेसर ने।
‘मैं गर्भवती हूँ।’
‘क्या? तुमने कोई सावधानी नहीं बरती?’
‘मुझे तो कुछ पता नहीं।’
‘यह तो बड़ी मुश्किलात पैदा करेगी।’–वह रुआँसी हो गई। उन्होंने उसे सँभाला। कोई उपाय निकाला जाएगा। तुम घबड़ाओ नहीं। लेकिन सचमुच यह घबड़ा गई। कैसे ऐसा हुआ? अब क्या करेगी यह? क्या अविवाहित माँ बन जाएगी? इसके इस लांछन का जिम्मेवार क्या ये स्वयं नहीं है? उधेड़बुन में पड़ी घर आई। ऐसे ही उदास आते-जाते चार महीने बीत गये प्रो. शिवरंजन लगातार आश्वासन देते रहे। अब इसके शरीर में कुछ परिवर्तन भी होने लगे। यहाँ तो कोई नहीं जिसे यह कह पाये। उसने मन ही मन संकल्प कर लिया कि वह निधि के पास चली जाएगी। वहाँ जरूर कोई उपाय सूझेगा। फोन कर निधि से पूछा।
‘मैं अगर तेरे पास रहने आ जाऊँ तो तुझे बुरा तो न लगेगा?’
‘कैसी बात करती है? मैं तो पुनर्जीवित हो जाऊँगी। पर तू आयेगी?’
‘मेरा मन है तेरे पास सदा के लिए आ जाऊँ।’
‘क्या हुआ वीथि? तू ठीक तो है?’
‘नहीं हूँ ठीक, मैं आ जाऊँ?’
‘आ जा।’–उसी दिन वीथिका प्रो. शिवरंजन के पास गई और उनसे अपना निर्णय कह सुनाया।
‘सर, वहाँ मैं अकेली हूँ, मेरे कहीं जाने पर विभाग में पढ़ाई ठप हो जाती है। अब मैं लंबे समय तक नहीं रहूँगी। हो सकता है कभी नहीं। विभाग स्थापित है तो कोई व्याख्याता भेजेंगे न?’
‘अभी कहाँ जाना है? दो तीन माह में स्थाई नियुक्ति होने वाली है। ऐसी बातें क्यों करती हो?’…‘सर, मैं अब इस अवस्था में यहाँ नहीं रह सकती। आप किसी और को वहाँ भेज दें।’
‘तुम दो दिन समय दो।’–सचमुच दो दिनों बाद एक व्याख्याता को उस कॉलेज में तथा वीथिका को विश्वविद्यालय तबादला कर दिया गया। थोड़ा आश्चर्य हुआ लोगों को पर कोई कुछ न बोला। वह व्याख्याता भी स्थाई नहीं था। विश्वविद्यालय में आकर वीथिका ने दो चार दिन क्लास लिया तथा आठ दिनों की छुट्टी ली और इलाहाबाद चली गई। अनायास इसे देखकर निधि चौंक गई। उतरते ही समझ गई कि वीथिका गर्भवती है। पर उसने उत्साहपूर्वक इसका स्वागत किया। थकी-थकी सी वीथिका बिस्तरे पर लेट गई। थोड़ी देर में चाय नाश्ता करने के बाद निधि निकट बैठी। वह रविवार की वजह से घर में ही थी।
‘निधि, तू मुझे देखकर सब समझ तो गई न?’–वीथिका ने पूछा।
‘सब नहीं वीथि, बस थोड़ी परेशानी समझ पाई हूँ। बाकी तू बता।’–वीथिका रोने लगी फूट-फूट कर।
‘मैं बुरी फँसी निधि, अब क्या करूँ?’
‘सोचना पड़ेगा।’
‘यहाँ रह गई तो तू बदनाम होगी।’
‘यह सब न बोल वीथि, मुझे सोचने दे उपाय।’–वह पूरा दिन और पूरी रात सोचने में लगी रही। वीथिका कोई अनजान स्त्री नहीं थी। इस विषय के लोग उसे पहचानते हैं। श्यामल दास भी तो हैं। पर श्यामल दास को कैसे कहा जाये? वे इसे इसके परिवार को बचपन से जानते हैं। बड़ी मुश्किल है। सुबह उठकर निधि ने चाय बनाई। दोनों चाय पी रहे थे कि प्रो. शिवरंजन का फोन आ गया।
‘जी प्रणाम अंकल, कैसे हैं आप?’–निधि ने औपचारिकतावश कहा।
‘निधि, क्या वीथिका तुम्हारे यहाँ है?’
‘जी सर मेरे पास ही है।’
‘मैं अगले रविवार को आ रहा हूँ। तुम लोगों से मिलना जरूरी है। निधि वीथिका से कहो वह बिलकुल फिक्र न करे।’
‘आप आयें सर, तब आगे बातें होंगी।’–फोन रख दिया निधि ने।
‘वीथि सर का फोन था, वो आ रहे हैं रविवार को।’–वीथिका ने कुछ न कहा, मुँह ताकती रही। उसके पास बोलने को कुछ न था एक ज्वार ने उसके अस्तित्व को लील लिया हो मानो। तीव्र बुद्धि, सारे आदर्श धरे के धरे रह गये। अनायास यह किसी कटघरे में फेंक दी गई। सींखचों में बंद है। अपने आप को बचाने की जद्दोजहद में बेहद थक गई। यह फिर सो गई। जाते जाते इसे निधि कहती गई कि ये सोई रहे बाहर से ताला बंद कर देगी। उधर टेरेस पर भी एक दरवाजा है, जरूरत हो तो खोल ले। पर इसे कोई जरूरत नहीं थी। निधि चली गई। फिर निधि आई और इसे उठाया तभी जगी, निधि ने कॉलेज कैंटीन से लंच लाया था। टेबुल पर प्लेटें सजाकर उसे ही परोस लिया दोनों सहेलियों ने। प्रो. श्यामल से सायास यह समाचार छुपा लिया गया। अगले रविवार को मानो बम विस्फोट हो गया। प्रो. शिवरंजन के साथ रम्या इंदु भी थीं। निधि ने दोनों के पैर छुए, वीथिका फटी-फटी आँखों से उन्हें देखती रही भावहीन सी। रम्या जी स्वयं उसके पास आईं और उसके माथे पर अपना हाथ रखा। निधि और वीथिका ने खाना खा लिया था। वे दोनों होटल से खाकर आये थे।
‘वीथिका मैं तुम्हें इतनी बेवकूफ नहीं समझती थी। तुम इन पुरुषों के मुलम्मे में पड़ जाओगी मुझे जरा भी गुमान नहीं था। वरना मैं तुम्हें समझा देती। और ये? मैं इनके फिसलन भरे आचरण को खूब ठीक से जानती हूँ।’–वीथिका निःशब्द रोती रही। प्रो. शिवरंजन एक पिटे हुए आज्ञाकारी बच्चे की तरह सिर झुकाकर बैठे थे, निधि चकित थी रम्मा आंटी के व्यवहार से।
‘अब आँसू पोछो और मेरी बात सुनो, उत्तर दो।’–वीथिका ने उनकी ओर अब सीधी नजरों से देखा।
‘छह महीने का गर्भ है न? क्योंकि तुमलोग छह माह पहले ही कलकत्ते गये थे।’
‘जी, छह महीने पूरे होने वाले हैं।’–उसने कहा।
‘यह तुमसे शादी नहीं कर सकते, करेंगे भी नहीं, इनकी आदत ऐसी ही है। यह पहला मौका है जिसे मैं इस अवस्था में देख रही हूँ। पहले पता चलता तो और बात थी अब इस बच्चे को जन्म देना ही होगा।’–वीथिका ने पीड़ा भरी नजरों से उन्हें देखा।
‘ये कैसे होगा आंटी?’–निधि थी।
‘जैसे हर माँ अपना बच्चा जन्म देती है।’
‘पर…’
‘पर वर कुछ नहीं। एक महीने बाद मैं इसे लेकर हिमाचल चली जाऊँगी। वहीं बच्चा होगा। यह तत्काल बच्चा मुझे दे देगी और भूल जाएगी कि इसने जना है।’
‘आंटी…।’–उन्होंने हाथ उठाकर निधि को चुप करा दिया।
‘तुम यह न समझना कि मैं भी तुम्हारे सर प्रो. शिवरंजन की तरह निर्मम और खुदगर्ज नहीं हूँ। मैं इस आदमी से इतना जरूर चाहूँगी कि यह तुम्हें स्थाई व्याख्याता बनवा दे। वहाँ रहोगी तो अपने बच्चे से मिलोगी, उसे देखोगी सिर्फ अपना न कह सकोगी। यह तुम्हें करना पड़ेगा वीथिका।’–वे लोग जैसे आए थे वैसे ही लौट गये। वीथिका को लग रहा था कि वह गश खाकर गिर पड़ेगी। निधि ने उसे सहारा देकर लिटा दिया।
‘देख वीथिका, मुझे लगता है मैम ने जो कहा है वह व्यावहारिक है।’–निधि के मन में क्षोभ उपजा प्रोफेसर शिवरंजन के प्रति और क्रोध वीथिका के प्रति। फिर सोचा कहीं जबरन तो नहीं शारीरिक संबंध बनाया?
‘वीथि, एक बात सच सच बताना कि इतने गहरे संबंध क्या तूने स्वेच्छा से बनाये?’–वीथिका उसकी ओर मुड़ी और दृढ़ स्वर में जो कहा वह निधि की समझ में आ गया।
‘उन्होंने बार बार पहल की पर मैं स्वयं उनमें अनुरक्त हो गई थी निधि। जब फिसलने की उम्र थी तब घरेलू दबाव के कारण खड़ी रही पर अब जब सब कुछ मेरे सामने सफलता की तरह परोसी थी तब मैं इनसे दिल लगा बैठी। इन्होंने अपने कुछ अफेयर्स भी शेयर किये। पर कहा कि तुमसे मिलकर जान पड़ा कि यही मेरी मंजिल है।’
‘यह सब धोखा है।’
‘उनकी ओर से होगा पर मेरी ओर से धोखा नहीं है। मेरे ये प्रथम प्रेम हैं। यह बच्चा इनके प्यार की निशानी है। जब मैम खुद ले लेंगी तो मुझे सुकून ही होगा।’
‘अब कहने सुनने की कोई बात नहीं रही।’–तभी दरवाजे की घंटी बजी। निधि को किसी अनजान व्यक्ति ने एक पैकेट थमाया और कहा–‘साहब मेम साहब के साथ था दिनभर। अभी उन्हें ट्रेन में बिठाकर आया हूँ। उन्होंने ही दिया है।’–पैकेट में दवायें और प्रेस्क्रीप्शन थे। निधि ने देखा। दवायें और पौष्टिक टॉनिक थे। एक पुरजा था रम्या इंदु के हाथों का लिखा। पटना जाकर बातें करूँगी। निधि तुम वीथिका का ध्यान रखना।’
पूरा एक माह घर में ही बिताया था वीथिका ने। एक माह के बाद दोनों सोलन चले गये। सोलन में एक फ्लैट था इंदुमती जी का। वहीं रहकर समय बिताये दोनों ने। रम्या के गीत विभोर होकर सुनती वीथिका। वह मन को दृढ़ कर रही थी। बच्चा होने का दर्द उठा वीथिका को, नर्सिंग होम की परची में नाम लिखाया रम्या प्रसाद का। पिता का नाम प्रो. शिवरंजन प्रसाद होना ही था। नाल सूखने तक पुत्र को वीथिका ने दूध पिलाया। उसका मोह बढ़ रहा था कि विदा की बेला आ गई।
‘वीथिका, हमारे इस पुत्र का नाम विवस्वान हुआ, यह सूर्य-सा प्रतापी होगा। तुम इसे देखती रहोगी। प्यार भी कर सकोगी पर मौसी कहलाओगी।’–सिर सहलाते हुए इलाहाबाद स्टेशन पर कहा था। निधि की सेवा से वीथिका पूरी स्वस्थ हो गई थी। दो माह बाद स्थाई नियुक्ति में चयनित हो गई थी वीथिका। उसी कॉलेज में आई जिसमें अस्थाई थी।
‘बहुत दिनों बाद आई हो, निखर उठी हो।’–पुरानी शिक्षिकाओं ने कहा। अधिकतर जिन्हें कोई लगाव था उन्हें बताया कि माँ से मिलने गई थी। जिस मकान में उसका आवास था उसका नियमित किराया रम्या मैम देती रही थीं, सो वह था। वीथिका की देहयष्टि और रूपाकार में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ था। विषय में कई नवनियुक्त व्याख्याता थे जिन्हें विभागाध्यक्ष के बंगले पर भोजन संग परिचय के लिए बुलाया गया था। सभी पुराने सहकर्मी भी थे। वीथिका यहीं की अस्थायी व्याख्याता थी अतः सारे लोग अपने थे। रम्या ने बच्चे को लाकर इसकी गोद में दे दिया। इसे रोमांच हो आया। लगा कि अभी दूध की धार फूट पड़ेगी। बच्चा गदबदा-सा हँसमुख था। चेहरा हू-ब-हू वीथिका जैसा था। घने बाल थे पर सीधे थे। प्रो. शिवरंजन का कुछ भी नहीं लिया। शायद कद काठी लेगा ऐसा लगा। प्रोफेसर साहब नवनियुक्त लोगों में लगे थे, वीथिका के पास उनकी दोनों बेटियाँ और बेटा थे। किसी को कोई अस्वाभाविक भी न लग रहा था क्योंकि इसके गाइड शिवरंजन प्रसाद ही थे, आना जाना लगा रहता। जाते जाते रम्या ने कहा–‘कभी कभी आ जाया करो।’–भरे गले से इसने हामी भरी थी। लेकिन मन ही मन सोच लिया कि नहीं आना है वरना अपने आपको सँभाल न पायेगी।
उस दिन बच्चे के साथ एक फोटोग्राफर ने इसकी तस्वीर ली थी। उसकी एक कॉपी इसे दे भी गया था। वीथिका ने उस तस्वीर को फ्रेम कराया और अपने टेबुल पर रख लिया।
कॉलेज वही है। वही प्रिंसिपल। सब स्टाफ वे ही हैं, पर जाने क्यों वीथिका को सब बदला बदला सा नजर आ रहा था। यह बदलाव इसके अपने मन और शरीर का था। अब यह पुष्पित पल्लवित स्त्री थी, इसकी न देह कुँवारी थी न मन कुँआरा रहा। एक ठहराव सा आ गया था। कुछ सुस्ती सी थी। यह भाव सिर्फ इसके अंदर था, दूसरे कुछ नहीं सोच रहे थे।
विभाग में मीटिंग थी। सभी नये पुराने प्रोफेसर्स और रिसर्च स्कॉलर्स दरभंगा हाउस में प्रो. शिवरंजन के कक्ष में जुटे हुए थे। जब सब आ गये तब उनका संबोधन शुरू हुआ।
‘हम वर्ष में तीन बार किसी न किसी विश्वविद्यालय में जाते हैं सेमिनार वगैरह में भाग लेने। इस बार हम ही आहूत कर रहे हैं। क्या आप सब इससे सहमत हैं?’
‘जी सर, यह तो गौरव का विषय है।’–एक ने कहा। सभी ने ताली बजाकर समर्थन कर दिया। विषय पर थोड़ी देर बहस हुई फिर सर्वसम्मति से ‘स्त्री और बच्चे’ पर मुहर लग गई। सूची भी बन गई। मजदूर, मेहनतकश, स्कूल कॉलेज ऑफिस में विभिन्न कार्य करने वाली स्त्री और उनके बच्चे के पालन पोषण रख-रखाव पर विषय बने। उनकी स्थिति में सुधार के लिये विषय पर भी विचार हुआ। काम भी बाँट दिये गये। कार्यक्रम स्थल का चयन भी होना था। सर्वसम्मति से यही अपने विभाग में हो ऐसा ही सोचा गया। सभी प्रोफेसर्स को कार्यभार बाँट दिया गया। प्रो. वीथिका ने सांस्कृतिक संध्या का भार स्वयंमेव ग्रहण कर लिया।
तैयारियाँ जोर शोर से चलने लगीं। अस्मिता मैम से जाकर विशेष रूप से वीथिका ने निधि को बुलाने का आग्रह किया।
‘मैम, निधि को तो आप जरूर बुलायेंगी न।’–वीथिका ने कहा।
‘इसमें क्या शक है, मेरी पहली पसंद निधि है।’–अस्मिता थीं।
‘मैम वो मेरे साथ ही रहेगी।’–अत्यंत प्रसन्न थी वीथिका।
‘ऑफ कोर्स, मैं तुम्हारी मित्र स्वस्ति को भी बुलवा रही हूँ। मैं स्त्रीवादी हूँ। अपर्णा को कलकत्ते से बुला रही हूँ।’– हँसकर कहा अस्मिता जी ने। आठ दिनों पर कार्यक्रम संबंधी प्रगति रिपोर्ट करने को।
सब साथ फिर बैठे और अपनी अपनी तैयारी कह सुनाई। वीथिका ने भी सुनाया। सेमिनार शुरू होने से पहले उसके कॉलेज की एक सुकंठी छात्रा सरस्वती वंदना गायेगी। सेमिनार के दोनों सत्रों के अंत में चाय के साथ पहले दिन यहाँ का लोकगीत होगा। इस दिन चाय की व्यवस्था छोटे से स्टेज के पास ही रहेगी। दूसरे और समापन के दिन चाय के बाद स्टेज पर विशिष्ट गायन शास्त्रीय होना है। उसके बाद विभाग में ही डिनर का प्रबंध है।
‘आपका यह कार्यक्रम चाय तथा डिनर से जुड़ा है। बैठने की व्यवस्था से भी जुड़ा है। क्या तीनों प्रबंधकों से तालमेल हो गया है? क्योंकि यह व्यवस्था का एक मामला है। कहीं भंग न हो।’–विभागाध्यक्ष ने कहा, तीनों व्यवस्थापक ने तालमेल की सहमति जताई। इससे अधिक पूछने की जरूरत नहीं थी। सब संतुष्ट थे। दो दिनों की अच्छी गहमागहमी रही। स्वागत से लेकर पहले दिन संध्या तक वीथिका के कॉलेज की लड़कियों ने सांगीतिक समाँ बाँधा।
सेमिनार का समापन हुआ और सभी कॉलेज के प्रिंसिपल तथा कई विभागाध्यक्ष आ गये। थोड़ा आश्चर्य भी हुआ प्रो. शिवरंजन को। डॉ. रम्या इंदु भी काफी सजधज कर बैठी थीं। गहरे पीले रंग की साड़ी का हरा किनारा था जो उनके साँवले रंग पर खिल उठा था। उन्होंने स्टेज पर जाने योग्य मेकअप कर रखा था। जूड़े में गजरा लगा रखा था। मंच पर साजिंदे बैठ चुके थे तब इनका शुभ नाम पुकारा गया। वीथिका और निधि स्वयं आगे आकर उन्हें स्टेज तक पहुँचा रही थीं। तालियों की गड़गड़ाहट से हॉल गूँज उठा। वीथिका ने अपने सभी अतिथियों को बता रखा था कि समापन में डॉ. रम्या इंदु का अलभ्य गायन सुनने का सौभाग्य मिलेगा। घंटे भर श्रोताओं ने मंत्रमुग्ध होकर गायन सुना। सभी विश्वविद्यालय से आये अतिथिगण ने उन्हें अंगवस्त्र और श्रीफल से सम्मानित किया। प्रो. शिवरंजन प्रसाद विस्मित थे कि कैसे रम्या तैयार हुईं? वह अब मात्र रेडियो में गातीं, मंच पर जाना छोड़ दिया था। परंतु वीथिका तथा निधि ने यह संभव कर दिखाया क्यों न हो, वीथिका ने अपने जीवन का सर्वोत्तम उन्हें उपहार रूप में दे दिया। सरकारी योजना के तहत कई कॉलोनियाँ बसने लगी थीं। छोटे-छोटे प्लॉट में छोटे बड़े अहाते और घर बनाकर सरकार कम कीमत में दे रही थी। कॉलेज की अपनी सहकर्मी लोगों के सहयोग से एक छोटे घर का आवेदन वीथिका ने भी दे दिया। उस समय लोग अपने प्लॉट में अपना घर बनाना अधिक पसंद करते थे। अतः सबसे पहले जिनको दिया गया उसमें वीथिका थी। वीथिका ने अपने घर के उत्साह में यूथिका और माँ को आने का आग्रह किया। दिन तय किया गया गृह-प्रवेश का। छोटा सा दो हजार स्क्वायर फुट का मकान था जिसमें सामने छोटा-सा लॉन, पीछे चारदीवारी से घिरा छोटा सा आँगन था। बरामदे के बाद एक हॉल और दो रहने का कमरा। पीछे बरामदा था बरामदे से लगा स्नानघर और एक शौचालय भी था। चौका छोटा-सा था पर बरामदे से लगा हुआ था। वीथिका ने एक कमरे से संलग्न शौचालय स्नानघर जो इंग्लिश कमोड से युक्त था बनवाया। अच्छा प्लास्टिक पेंट करवाया फूल और गमले रखे। परदे तथा फर्नीचर खरीदे।
गृह प्रवेश में निधि आई। रम्या इंदु जी ने खूब भजन गाये। यूथिका तथा माँ उनसे बहुत प्रभावित थे। यूथिका ने उनसे दुबई आने का आग्रह किया। मंच पर बुलाने का उसका मन था। रम्या ने हाँ कर दी। यूथिका ने माँ को वीथिका के पास छोड़ा और कहा–‘वीथि खुकी, माँ का ध्यान रखना, ऐसा नहीं कि माँ ही तुम्हारा खयाल रखने लगे।’
‘जलती क्यों हो?’–वीथिका ने माँ को अंकवार में भरते हुए कहा।
‘माँ, आप संगम स्नान तो करेंगी?’–निधि ने कहा।
‘हाँ बेटा, करूँगी जरूर, तुम्हारे पास आऊँगी।’–माँ ने प्यार करते हुए कहा। यूथिका माँ को लेकर थोड़ी असुरक्षित महसूस करती।
‘जल में अकेली न जाने देना।’–कहा उसने।
‘नः, तुम ही सिर्फ मासी माँ का ध्यान रख सकती हो। हम तो बुद्धू हैं।’–श्यामल ने आते आते सुना और कहा।
‘तुम तो होगे ही वहाँ, मुझे तब कोई फिक्र नहीं।’
‘अच्छा हुआ तुम अकेली आई, साला चड्ढा साथ आता तो मैं उसे बोटिंग के बहाने गंगा जी में ले जाता और ढकेल देता।’
‘ओ माँ गो, लेकिन क्यों ऐसा करते?’
‘बचपन से जिस शेरनी का चंगुल सहता आया उसको वो ले उड़ा साला!’
‘देखो जरा इसकी शानपट्टी, अरे मेरी नजर बहुत तेज है बच्चू; तेरी नजर उस दूधिया कन्या के सीधे चिकने केशों में जा उलझी है जो कोमल स्वर वाली कोकिला को भी मात देती है। पहले बताओ कब की तारीख निकल रही है? शादी कहाँ करोगे, इसी बंगले में न? कन्यादान करने को मैं मिसेज यूथिका चड्ढा कब आ जाऊँ’–यूथिका के कहते ही निधि ने सर झुका लिया। वीथिका बेवकूफों की तरह दोनों का मुँह ताक रही थी।
‘मैं सीधा पाणिग्रहण करूँगा। तुम सब सिर्फ दूर्वाक्षत छींटोगे क्या समझी?’–शर्माया सा श्यामल बोल उठा था। यूथिका और निधि, श्यामल को जाने से पहले रम्या इंदु ने अपने आवास पर दोपहर का भोजन करने बुलाया। वहाँ विवस्वान के साथ नानी का अतिशय लगाव देख निधि तथा वीथिका का दिल भर आया। यूथिका जो बच्चों को दूर से ही प्यार करती है वह भी इसे प्यार कर रही थी, वह भी गोद में लेकर।
माँ और वीथिका की गृहस्थी खूब ही अच्छी चलने लगी। गोपालपुर में जो हवेली और खेत देख रहे थे, वे अपनी अकेली बहन को माँ की सेवा के लिए छोड़ गये थे। अब वहाँ से चावल मूँग और उड़द की दालें आने लगीं, सारा बेचकर रुपया जमा कर दिया करते थे। फल वगैरह खाते-पीते थे। गोपालभोग चावल खुद खाने का बिलकुल मन नहीं करता था। उसे ऊँचे दाम पर बेच दिया जाता था। अब वह माँ के पास आने लगा।
वीथिका का मन बदलने लगा। वह खुश रहने लगी। निधि आई थी तब वह श्यामल के साथ मंदिर तथा अपने पुराने आवास पर गई थी। श्यामल के बाबा राखाल भट्टाचार्य की समाधि पर खड़े होकर उनकी बेटी का हाथ माँगा तथा संकल्प लिया कि यहीं आकर विवाह करेगा। वही हुआ। उसने उसी भगवती मंदिर में निधि का पाणिग्रहण किया। मंदिर की देवी ने मानो अपनी बड़ी-बड़ी पथराई आँखों से सब कुछ देखा। वे आज विवाह के जोड़े में निधि को देख रही थीं जिसे सफेद लिबास में चंदन का तिलक लगाये देखा था। उसे सन्यस्त जीवन से मानो गृहस्थी की ओर लौटती देख रही थीं। यह पूरा विश्वविद्यालय परिसर तब घोर उथल-पुथल से गुजर रहा था। देश की सीमा पर युद्ध हो रहा था। जनजीवन सामान्य नहीं था। तब इनके विवाह की किसी पार्टी या समारोह की गुंजाइश ही न थी। चार दिन निधि और श्यामल यहाँ रहे फिर चले गये। इलाहाबाद में इनकी गृहस्थी शुरू हो गई। निधि कभी कभी सोचती कि गंगा के ऐन तट पर बने मंदिर के परिसर में जन्म और लालन पालन। सबसे छोटी होने के नाते खेलती नाचती गाती कब बड़ी हुई, कब कॉलेज से विश्वविद्यालय की ओर कदम बढ़ाये और कब एक चट्टान सा मुसीबतों का टूट पड़ा समझ न पाई। वीथिका जैसी गंभीर संवेदनशील लड़की के जीवन का ऐसा रहस्यमय मोड़ आया यह सब निधि ने अपने ऊपर झेला। यह श्यामल दास वीथिका के परिवार का पुराना साथी कोई मदद नहीं कर पाया उसकी। श्यामल दास भी वंचित सा दीख रहा है, यह बड़े अफसर परिवार का लड़का ऐसा लगता है मानो बड़े पेड़ से गिरा हुआ पत्ता हो। अब वह वृक्ष में लग नहीं सकता। वृक्ष को इसकी पीड़ा नहीं सताती शायद इसे भी दर्द का अहसास नहीं है। कैसे निधि के जीवन की अमूल्य थाती बनकर आ जुड़ा। नदी नाव के इस संयोग का कहना ही क्या? श्यामल का इजहार भी चौंकाने वाला था। एक दिन नौका विहार की सोचकर संगम की ओर गये दोनों। पटना के नौका विहार को याद कर रही थी निधि। उसके बाबा प्रतिदिन मंदिर की नाव खेकर उत्तर की ओर बढ़ते और कलसी में गंगाजल भर लाते भगवती के स्नान के लिए। निधि प्रायः साथ हो लेती। कहते कि उत्तर का जल शुद्ध होता है। दक्षिणी तट से जल लेकर पूजा नहीं होती।
इलाहाबाद की विराट गंगा यमुना को देख मचल जाती निधि। वहीं बैठे-बैठे इसने कहा था–‘श्यामल, क्या आप वीथिका को पसंद करते हैं?’
‘बिलकुल, वीथि को मैं बहुत प्यार करता हूँ।’–स्निग्ध हो आया चेहरा।
‘तब आप झिझकते क्यों हैं उससे कहने से?’
‘मैं नहीं झिझकता, सदा कहा है कि मैं उसे बहुत प्यार करता हूँ।’
‘क्या?’–हैरत में थी निधि कि इस नवयुवक को छोड़ वीथिका क्यों विपथगा हुईं? जैसा कि लोग कहते हैं वो मैटेरियलिस्टिक है? सिर्फ कैरियर के लिए रिस्क लिया? नहीं, वीथिका ऐसी नहीं हो सकती है।
‘क्या सोचने लगी मोहतरमा?’–श्यामल दास ने पूछा।
‘सोचने लगी कि उसने मुझे क्यों नहीं कहा?’
‘कभी उसने नहीं कहा कि मैं उसे प्यार करता हूँ?’–
‘नहीं, पर तब देर क्यों कर रहे हैं। आपलोग शादी क्यों नहीं…।’
‘एक मिनट, मैंने शादी कर लेने वाले प्यार के विषय में कहा क्या?’
‘तो?’
‘उसे छोटी बच्ची, बहन के रूप में देखता रहा हूँ।’
‘ओह।’–श्यामल गंभीर थे, उसकी ओर देख रहे थे।
‘निधि, मैं तुम्हें कैसा लगता हूँ?’
‘एक सहृदय विश्वसनीय व्यक्ति लगते हैं आप, तभी आपसे कहा है मौका देंगे तब और कुछ कहूँगी।’
‘मैं अब अपने आप को मौका देना चाहता हूँ। मैं तुम्हें पसंद करता हूँ। वैसा वाला प्यार करता हूँ अगर तुम कहो तो तुमसे विवाह करना चाहता हूँ।’–निधि का चेहरा लाल हो गया। वह शर्मा गई।
‘मेरी पृष्ठभूमि तुम जानती हो पर आंशिक रूप से। मैं एक हरिजन हूँ। तुम उच्च कुलीन ब्राह्मण। मेरे चाहने से कोई फर्क नहीं पड़ता है, क्या तुम मुझे यह जानकर स्वीकार करोगी?’–निधि की जान हलक में आ गई थोड़ी देर को। सचमुच क्या यह बुद्धिजीवी सुदर्शन सुपुरुष हरिजन है? कभी वीथिका ने जिक्र नहीं किया। पर किसी जाति-पाति की चर्चा कहाँ की वीथिका ने? इनलोग के बीच बातचीत के ऐसे विषय कभी नहीं आये। सामाजिक संरचना, परेशान हाल औरतें, भूखे बच्चे तो होते केंद्र में परंतु जाति की चर्चा नहीं होती। इनके पिता वन-अधिकारी थे इन्हें भी हरिजन होने की त्रासदी जो जमीनी है झेलने की कभी जरूरत नहीं पड़ी होगी। उम्दा स्कूल में पढ़ाई, टाई से लेकर चमाचम जूते पहने श्यामल दास कहीं से हरिजन नामक जातीय चौखटें में फिट नहीं बैठ रहा है। क्या यह सच कह रहा है? यह संजीदगी से कह रहा है एक बार भरपूर नजरों से श्यामल दास की ओर देखा निधि ने। श्यामल स्थिर आँखों से इसी की ओर याचक बना देख रहा था।
‘आप अब तक हमारे आदरणीय वरीय प्रोफेसर थे; हम साथ-साथ मिल बैठ कर पेपर तैयार करते, एक ही थाली में खाते समय बिता रहे थे श्यामल जी, मुझे नहीं लगा कि हममें कोई फर्क है। हमारी शिक्षा दीक्षा एक है, हम एक ही हैं। मैं तो जाने कब से आप पर रीझ चुकी थी। मुझे लगता आप वीथिका को प्यार करते हैं। यही सोच कर सिमट जाती थी। मैं आपसे जरूर विवाह करूँगी। मुझे किसी से आदेश भी तो नहीं लेना है, कोई है कहाँ कन्या आपके हाथों में सौपने को।’–साफ साफ कहा निधि ने। श्यामल ने उसके दोनों थरथराते हाथ अपने मजबूत हाथ में गह लिये। आश्वस्ति का उदय हुआ यमुना की लहरों को कत्थई करती दिनमान की आभा विलीन हो रही थी। यहाँ मानो गंगा यमुना का संगम अपने आपको सार्थक कर रहा था।
इनके राग को यूथिका ने वहाँ पहचान लिया था। ऐसी परिपूर्ण गृहस्थी की साक्षी बनी वीथिका और माँ। माँ इन दिनों काफी कमजोर हो गई थी, गाँव से आई फूलमती ने उनकी पूरी सेवा की पर वह अधिक कमजोर हो गई। एक दिन उन्होंने भी शरीर छोड़ दिया। वीथिका ने माँ को अग्नि प्रदान किया, यूथिका आ गई थी। दोनों बहनों ने गोपालपुर जाकर श्राद्ध किया। खेत और कुछ घर सेवकों को दे दिये, परंतु रिहायशी हवेली तथा धान के खेत, आम कटहल के बाग रख लिये। यूथिका ने प्रो. शिवरंजन से गोपालपुर चलने का आग्रह किया था। उन्होंने टालमटोल की परंतु रम्या इंदु जी ने दोनों बेटियों और विवस्वान को साथ कर लिया। वे गईं। उनकी मंशा साफ थी वे चाहती थीं कि वह अपनी सगी नानी के क्रियाकर्म का हिस्सा बने। गाँव के खुले वातावरण में सभी बच्चों को बहुत नया नया सा लगा। आते वक्त उन्हें भी गोपालभोग चावल की बोरी मिली जिसका चावल सुगंधित खीर बनाने के काम आता। माँ के साथ रहने वाली फूलमती वीथिका के साथ रहने न आई। घर बेहद सूना सूना लगता। गृह प्रवेश से लेकर अब तक घर भरा-भरा था। अब काट खाने दौड़ता। ऐसे समय में इसे छात्रावास अधीक्षिका होने की पेशकश की गई। यह सहर्ष तैयार हो गई। एक कमरे में अपना सामान रख वीथिका ने घर को किराया पर उठा दिया।
अपने कॉलेज परिसर के छात्रावास नंबर एक की अधीक्षिका हुई। साठ लड़कियों के बीच रहकर यह फिर से जीवन में लौट आई। जिंदगी बार-बार अकेला करती है, फिर जीवन की ओर लौटा लाती है। वीथिका अपने विषय की लोकप्रिय शिक्षिका थी ही, कॉलेज की अन्य लड़कियों की भी प्रिय शिक्षिका थी। यह ड्रामेटिक सोसायटी की अध्यक्षा भी थी। अक्सर लड़कियों के खेल तमाशों में भाग लेने बैठ जाती। रविवारीय फिल्में देखने चली जातीं। इसके दिन भी कटते। पढ़ना पढ़ाना कितना होता? सेमिनार वगैरह जो होते उसमें किसी का कितना समय जाता? एक या दो दिन। छात्रावास की पिकनिकें, एक्सकर्षन वगैरह का आयोजन करती वीथिका। नई लड़कियाँ प्रथम वर्ष में आती उन्हें थोड़ा सँभालना पड़ता। कुछ तो खूब रोती धोतीं। बाकी उदास तो होती ही। चूँकि वीथिका खुद छात्रावास में रहने वाली छात्रा थी सो उन्हें इनका अवसाद समझ में आता जिसे होशियारी से सुलझा लेती।
फ्रांस से घूम-फिर कर आने के बाद प्रो. शम्पा प्रसाद थोड़ी अधिक खोई-खोई रहने लगीं। कक्षा में छात्राओं को पढ़ाते समय टॉपिक भूल जाती। अपने कक्ष में कई बार दौरे से पड़ते तब जूली राणा आकर सँभालती। प्रिंसिपल के लिए कई बार बहुत अजीब परिस्थिति हो जाती। बहन और बहनोई से न के बराबर संबंध था और अपना कोई कहने को नहीं था। प्रिंसिपल ने ही मनोचिकित्सक डॉ. श्रीवास्तव से संपर्क किया था। उनका पर्सनालिटी डिसऑर्डर ठीक होने का नाम ही नहीं लेता। जूली राणा एम.ए. फाईनल में थीं। यहाँ इस कॉलेज में मात्र एन.सी.सी. के संयोजक के रूप में आती थीं। वो जिस दिन आती उस दिन शम्पा जितना हो सकता था उतना नखरा दिखातीं। अभी इनके दुःख का कारण था कि जूली की शादी ठीक हो गई थी। वह शादी के बाद अमेरिका जाने वाली थी। एक हल्ला था कि कोर्ट मैरेज हो चुका था, बीसा के लिए आवेदन दिया जा चुका था। उसके इंजीनियर पति को ग्रीन कार्ड था। सुनने में आया था कि शम्पा प्रसाद ने जूली को कहा था कि वो कैसे किसी पुरुष से शादी कर सकती है? वह तो शम्पा की पुरुष संगी है। पर जूली राणा ने सिगरेट के धुएँ में उसे उड़ा दिया। उसने स्त्रियोचित शलवार सूट दुपट्टे लेने शुरू कर दिये। माथे पर बिंदी और एक ढीली चोटी करनी शुरू कर दी। जूली राणा एक कद्दावर सुंदर स्त्री में तब्दील हो गई थी। यह शम्पा के सीने को चाक कर गया। वह उसे मारने पीटने पर उतारू हो गई।
‘मैं इनके इस मेंटल डिसॉर्डर की कारण नहीं हूँ। इन्होंने मुझे बर्बाद करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। वह तो मेरे निजी परिवार के लोगों ने मुझे मेरी पहचान बताई। अब मैं क्या कर सकती हूँ? मैं आगे बढ़ गई हूँ।’–कंधे उचका कर जूली राणा ने कहा।
‘यू आर राइट जूली सिर्फ ह्यूमैनिटी के नाते तुम जब तक हो तब तक इनका ध्यान रखो।’–मनोविज्ञान की अध्यक्षा ने कहा था।
‘ओह नो, आइ कान्ट! मैं बहुत जल्द जाने वाली हूँ।’–उन्हें छोड़कर जूली चली गई। शीघ्र ही जूली के विवाह का कार्ड मिला सब को, शम्पा प्रसाद की प्रतिदिन आने वाली कामवाली ने देखा वे जले हुए बिस्तर पर पड़ी कराह रही है। उसी ने दौड़ भाग कर अपने रिक्शे वाले पति की मदद से अस्पताल में भर्ती कर दिया और वीथिका सान्याल को खबर की। वीथिका ने डरते-डरते रम्या इंदु को सूचना दी। रम्या ने बड़ी बहन का कर्त्तव्य निभाते हुए उसे एक नर्सिंग होम में भर्ती करा दिया। परिचर्या से शम्पा ठीक हो गई। अकेली वीथिका ही थी जो प्रतिदिन शम्पा के पास बैठती, उसे मनुहार कर खिलाती पिलाती।
‘तुम अकेली हो न वीथिका?’–एक दिन पूछा था शम्पा ने।
‘मैं अकेली नहीं रहती शम्पा दी, कभी नहीं रही। अभी मैं छात्रावास में हूँ।’
‘पर हो तो अकेली।’
‘अकेले होने का एहसास सचमुच जानलेवा है, मैंने अकेला रहना कभी चाहा नहीं। आप भी चाहतीं तो यह वरण नहीं करतीं।’
‘मुझे लगा मैं एक उपेक्षित प्राणी हूँ। छुटपन में अम्मा के पास छोड़ कर पापा चले गये। अम्मा सिगरेट और शराब पीती थी, मैं सीख गई। उसका गुण नहीं सीखा, वह दीदी ने सीखा अवगुण मैंने ले लिया।’
‘आप अब नशे को अवगुण समझती हैं दीदी?’
‘मैं सदा समझती रही। अपने आप से बदला लेने के लिए ही मैंने यह सब धारण किया। जानती हो वीथिका, दीदी की सूरत अच्छी नहीं है, मेरी ठीक-ठाक है, तुम सी तो नहीं पर युवाकाल में मैं भी अच्छी दिखती थी।’–मुस्कुरा कर कहा शम्पा प्रसाद ने।
‘आप अभी भी अच्छी दिखती हैं मैम, आयु के अनुसार अपने को धारण करें, यही सुंदरता है।’
‘क्या तुम मेरे बिगड़ने की कहानी सुनोगी वीथिका? अब कुछ सुनकर न तो सँभलोगी न बिगड़ जाओगी। मेरे विचार से वह समय निकल गया है। तुम काफी मैच्योर हो गई हो। शायद रीडर भी हो गई हो?’
‘जी दीदी!’
‘यों ही, कह रही हूँ। संगीत प्रेमी शिवरंजन प्रसाद मेरी माँ और बहन के पास आते थे। उन्होंने मुझे पहले प्रपोज किया था। मैं पूरी तरह उनसे समर्पित हो गई थी पर मुझे पुरुष का साथ रास नहीं आता था। तब मैं उनसे दूर हो गई। इन्होंने दीदी से शादी कर ली। मेरी माँ ने मेरी शादी भी जबरन कर दी जो चली नहीं। वह आदमी ठीक नहीं है लेकिन मैं भी निर्वाह नहीं कर पाती। मेरी माँ को मुझसे कुछ लेना देना न था। यहाँ मैंने विज्ञापन देख कर आवेदन दिया था। नौकरी मिल गई। आज मैं इतनी दूर तक चल कर अपने बल पर आई हूँ।’–वह थक गई थीं।
‘मैम, आपकी प्रखर बुद्धि की चर्चा सब करते हैं।’–हौले से हँसी–शम्पा। प्रिंसिपल से शम्पा को अपने पास लेकर आने की बात पूछ रही थी वीथिका। ‘मैम, अकेली है शम्पा दी, क्या उन्हें पूरी तरह स्वस्थ होने तक मैं अपने साथ होस्टल में रख सकती हूँ?’
‘उसकी बहन है, बहनोई है वहाँ रहेगी। तुम क्यों रखोगी?’–उत्तर सुन उदास हो गई वीथिका और स्टाफ रूम में जाकर बैठ गई। आमतौर पर वीथिका कुछ पढ़ती रहती। अभी दीवार की ओर देखती चुप बैठी थी।
‘वीथिका, तुम क्या सोच रही हो?’–मनोविज्ञान की विभागाध्यक्ष ने पूछा।
‘कुछ खास नहीं।’–उदास मुस्कुराहट थी।
‘मैं समझती हूँ कि जरूर तुम शम्पा दी के बारे में सोच रही हो।’
‘यस मैम!’…‘कैसी हैं अब वो?’
‘मन स्थिर हो रहा है। घाव सूख गये हैं दी।’
‘डिस्चार्ज हुईं?’
‘नहीं होने वाली हैं। पर समस्या है कि वे फिर उसी घर में अकेली गई तो बीमारी लौट न आये। अभी सिगरेट और शराब छूट गई है? पर…।’
‘क्या उपाय है?’
‘मैंने सोचा कुछ दिन हमलोग साथ रहते पर प्रिंसिपल मैम ने परमीशन नहीं दिया। कहा उनकी बहन है न!’
‘तुम क्या सोचती हो कि अगर शम्पा दी यहाँ तुम्हारे साथ कुछ दिन रहेंगी तब सदा के लिए ठीक हो जाएगी? पर कैसे? कभी भी किसी समय उन्हें दौरा पड़ गया तो?’
‘दीदी मैं समझती हूँ मैं और साठ लड़कियाँ उनके साथ होंगी। वे अकेली नहीं होंगी। मैंने अनुभव किया है कि वो अपने को असुरक्षित महसूस करती हैं।’
‘हूँ।’–‘यही सब परेशान किये हुए हैं मुझे।’
‘मैं अपनी ओर से कोशिश करती हूँ प्रिंसिपल मैम के पास।’
‘हाँ जाइये शायद आपकी बात समझें। मनोचिकित्सक की।’–यही हुआ, सचमुच प्रिंसिपल मान गईं। यद्यपि कुछ वरीय प्रोफेसर लोगों के सामने यह बात रखी गई। सब ने वीथिका के आग्रह को मान लिया। वीथिका ने शम्पा प्रसाद से जब यह किस्सा सुनाया तब वह उसके हाथ पकड़कर रोने लगी।
शम्पा को अपने साथ छात्रावास में ले आईं वीथिका। पहले उनके विषय की, बाद में दूसरी लड़कियों ने भी उनसे बातचीत किया। वे सामान्य होने लगीं। बैडमिंटन वगैरह खेलने लगीं। माली के साथ बागीचा में समय बिताने लगीं। दो तीन माह के अंदर वे कॉलेज में पढ़ाने योग्य हो गईं। कॉलेज की नयी इमारत बनकर तैयार हो गई थी। उसके बन जाने से कुछ नये विभाग भी बढ़े और कुछ सीट भी बढ़े। कॉलेज में छात्राओं की संख्या बढ़ा दी गई। ऐसे में परिसर में एक और छात्रावास बनाया गया। इन दिनों शम्पा का परिवर्तन पूरे विश्वविद्यालय में चर्चा का विषय बना हुआ था। कॉलेज की प्रिंसिपल ने उन्हें बुलाया और पूछा
‘शम्पा आप अब अच्छी तरह स्वस्थ हैं, आपको देखकर लगता है। क्या मैं सही कह रही हूँ?’
‘जी मैम, मैं बहुत हल्की हो गई हूँ। आपलोग को धन्यवाद। आपने पूरे धैर्य से मुझे झेला है।’–उसने नजरें झुका लीं।
‘यह भूल जाइये। आपको शायद पता हो कि परिसर में एक और छात्रावास बना है। आप क्या उसकी सुपरिंटेंडेंट बनना पसंद करेंगी?’–शम्पा ने हैरत से उन्हें देखा। वे मुस्कुरा रही थीं।
‘आपका मुझ पर भरोसा है?’
‘बिलकुल है।’
‘तो मैं भरसक आपका भरोसा नहीं तोड़ूँगी।’–प्रिंसिपल ने एक फार्म सामने रख दिया जिसे हाथों हाथ शम्पा ने भरकर दे दिया। नये छात्रावास एक ही परिसर में होने के कारण शम्पा का साथ वीथिका को मिलता रहा। दोनों प्रतिदिन चाय का मग लिये गंगा किनारे के बेंच पर बैठ कर गप्पे मारतीं।
‘वीथिका, मैं तुमसे एक बात पूछूँ?’–शम्पा ने कहा।
‘पूछिये मैम।’
‘तुम शादी कब करोगी?’
‘अब यह प्रश्न पूछने में देर हो गई मैम।’
‘क्यों? अब भी समय है, कर लो शादी।’
‘मन नहीं है।’
‘तुम इतनी खूबसूरत हो क्या किसी ने प्रपोज नहीं किया?’
‘अब यह सब कोई मानी नहीं रखता मैम।’–हँसकर टाल गई।
‘निधि का क्या हाल है?’
‘वह अपने जीवन से खुश है मैम। उसकी दो प्यारी-प्यारी बेटियाँ हैं।’
नये छात्रावास की अधीक्षिका होने के बाद शम्पा ने रम्या और बच्चों को बुलाया था। परिसर और नये आवास को देख विवस्वान बहुत खुश हो गया था। दोनों बेटियाँ मेडिकल में थीं। संगीत की ओर किसी का रुझान नहीं था। विवस्वान के स्कूल की परीक्षायें चल रही थीं। बड़े-बड़े बच्चों को देख शम्पा ने हँसते हुए कहा–‘दीदी, मुझे लगता है अब बूढ़ी हो गई हूँ।’
‘अभी हम क्यों बूढ़े हों शम्पा, बच्चे जरूर जवान हो गये हैं।’–कहा रम्या ने।
सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ती वीथिका एक प्रख्यात प्रोफेसर है। राष्ट्रीय समिति में रहती है। बड़े-बडे़ सेमिनारों की मुख्य अतिथि रहती है। प्रो. शिवरंजन नवस्थापित विश्वविद्यालय के कुलपति होकर चले गये। विवस्वान आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली चला गया था। दोनों बेटियाँ डॉक्टर बन चुकी थीं। विवाह भी डॉक्टर से हो गया। बड़ी बेटी अपने डॉक्टर पति के साथ इंग्लैंड उच्च शिक्षा के लिए चली गई। वीथिका की लिखी किताबें कई विश्वविद्यालय की विषय सूची में दर्ज थी। न यूथिका न वीथिका को कोई जरूरत रह गई थी गोपालपुर के बंगले की न खेत की। उसके माता-पिता की पीढ़ी कब की गुजर चुकी थी। गोपालपुर के खेतिहर नक्सलवाद के प्रकोप के कारण गाँव घर छोड़ महानगर की ओर चले गये। यूथिका ने वीथिका से पूछा–‘क्या वहाँ के खेत बेच लिये जायें?’
‘मेरा विचार है माँ बाबा के नाम का स्कूल खोल कर जमीनें उसी ट्रस्ट में दे दिया जाये।’–इसी पर सहमति हुई। यूथिका भारत आकर सारा कागज तैयार कर गाँव की ओर गई। पुराने मैनेजर के पढ़े लिखे पोते के साथ मिलकर योजना बना डाली। हवेली को स्कूल की शक्ल दे दी गई। गोपालपुर से लौटती दोनों बहनें बेहद भावुक हो गईं। दादा जी की उँगली पकड़कर घूमती छोटी बच्ची के रूप में यूथिका वीथिका। पापा के साथ बगीचे में अमरूद तोड़ती यूथिका वीथिका। माँ के साथ मालगुजारी का हिसाब करती आज आखिरी बार गोपालपुर को अलविदा कर रही है। कोई आलता लगाने वाली नहीं है, कोई हाथ छापा लेने वाली भी नहीं है। न है वो लोग न है वह रिवाज। समय के साथ रिवायतें बदल गई हैं। एक पूरी ग्रामीण दुनिया बदल गई है।
‘नये विश्वविद्यालय के पहले कुलपति के रूप में बहुत सारे काम निपटाने थे प्रो. शिवरंजन को। वे देर रात तक फाइलें देख रहे होते। यह दुनिया शिक्षा की दुनिया से अलग थी। यहाँ सिर्फ व्यवस्था करनी थी जिसमें अनेक बाधायें थीं, बेईमानी थी, टाँग खिंचाई थी। प्रो. शिवरंजन को यह सब रास नहीं आ रहा था। वे पुनर्विचार करने लगे थे।
‘मैं लौट जाना चाहता हूँ अपनी किताबों की दुनिया में।’ एक दिन उन्होंने रम्या से कहा था।
‘क्यों आपने दो-दो जगह विभाग स्थापित कर यश अर्जित किया है। यह कौन-सा बड़ा भारी काम है।’–रम्या ने कहा।
‘भारी है। वह एक विभाग था। यह सैकड़ों कॉलेज और दर्जनों विभागों की बात है। कोई तुलना नहीं है।’
‘उसके लिए विभागाध्यक्ष आदि तो हैं।’
‘मुझे रास नहीं आता रम्या जी।’
‘क्या चाहते हैं?’
‘मेरा कार्यकाल मुश्किल से साल भर है विश्वविद्यालय में। पर मैं लौट जाना चाहता हूँ। इज्जत से अपने द्वारा स्थापित विभाग में, दरभंगा हाउस के गंगातट वाले परिसर से सेवानिवृत्ति चाहता हूँ।’–भावुक स्वर था इनका। रम्या ने देखा एक व्यावहारिक, समझदार प्रोफेसर जो दुनिया के छल प्रपंच से पूरी तरह वाकिफ हैं वह निरीह-सा दीख रहा है। जीवन के दुरूह से दुरूह अगम्य गलियों से बेदाग निकल कर खड़ा हो जाता है, वह आज दाग लगने से डर रहा है। यह सच है कि सारे दाग धोने या छुपाने में इन्होंने उनकी मदद की, पर यहाँ यह संभव नहीं है। पर रम्या इंदु ने क्यों इनकी सदा मदद की? क्या वो इन्हें सच में प्रेम करती हैं? इस सौंदर्य लोलुप भ्रमर को क्या रम्या इंदु सी स्त्री प्रेम कर सकती है? यह प्रेम है या प्रतिदान? क्या रम्या को लगता है कि इसकी तरह की साधारण रूप वाली स्त्री से इस व्यक्ति ने विवाह किया और सदा अनुगत रहा यह बड़ी बात है। रूप स्वरूप ही सब कुछ नहीं होता, गुण ग्राहक गुण को देखते हैं। यह व्यक्ति सच्चा गुण ग्राहक तो है। सारी साध प्रो. डॉ. शिवरंजन की ही क्यों पूरी हो? नियति ने अपना काला वितान खड़ा कर लिया। दूसरे दिन सुबह शिवरंजन अपने स्टडी के तख्त पर शांत महानिद्रा में डूबे हुए पाये गये। अर्थी तो उनकी जरूर दरभंगा हाउस लाई गई, गंगा लाभ भी उनका कराया गया पर मन की मन में ही रही। बेटियाँ दामाद छात्र-छात्राएँ और पुत्र विवस्वान प्रसाद शोकाकुल चकित थे। रिटायरमेंट के पहले प्रो. शिवरंजन प्रसाद अकूत यश और हजारों शिष्य छोड़कर पंचतत्त्व में विलीन हो गये।
विवस्वान स्टेट बैंक के अधिकारी चुन लिये गये थे। आग्रह पर वे इसी शहर में पदस्थापित कर दिये गये। दोनों बहनें बाहर थीं, विवस्वान माँ के पास रहता। शम्पा तथा वीथिका लगातार साथ थीं। दोनों बेटियाँ अपने अपने काम पर लौट गई। रह गये मात्र विवस्वान और रम्या।
‘विभु बेटा, तुम बिलकुल अकेले हो गये हो, अब शादी करने का सही समय है।’…‘आपको बहू चाहिए क्या मम्मी?’–विवस्वान ने कहा।
‘हाँ मुझे भी चाहिए। क्या किसी लड़की को पसंद किया है?’
‘नहीं मम्मी, मुझे अलग से कोई लड़की पसंद नहीं है।’
‘बिलकुल पक्का?’
‘हाँ पक्का, यह काम आपको ही करना है।’
‘मैं खोजबीन शुरू कर देती हूँ। फिर अड़ंगा न लगाना।’
‘बिलकुल नहीं। जब कहेंगी मैं दूल्हा बन खड़ा हो जाऊँगा।’–दोनों हँसे दूसरे दिन रम्या ने वीथिका को बुला भेजा। वीथिका आई तो कहा–
‘वीथिका, मैं विवस्वान की शादी करना चाहती हूँ।’
‘जी दीदी, अब करने का समय आ गया है। किसी लड़की को चुना है क्या? आपसे कहा क्या?’
‘नहीं, कहा यह काम आपको करना है। वह बाप पर नहीं अपनी अम्मा पर गया है।’–हँसी रम्या, वीथिका शरमा गई।
‘यह काम थोड़ा कठिन है दीदी।’
‘है तो, तभी तो तुम्हें बुलाया। मेरे लिये दोनों बेटियों ने आसान कर दिया था सब कुछ। खुद दूल्हे चुन लिये। पर यह तो भार दे ही दिया, मेरे मन में एक विचार आया है। तुम कहो तो बात चलाऊँ।’
‘कहिये न दीदी। आप निर्णय लेने को स्वतंत्र हैं।’
‘मेरा विचार है निधि से बात चलाई जाय। उसकी बेटी ने दिल्ली विश्वविद्यालय में पीएच.डी. का रजिस्ट्रेशन कराया था। हो भी गया होगा।’
‘हाँ शायद–अर्थशास्त्र में। उसने अगर किसी को न पसंद किया हो तो बात चलाऊँ?’
‘जी दीदी, पूछना पड़ेगा।’
‘बहुत खूबसूरत लड़की है और गंभीर समझदार भी लगी।’
‘निधि की बेटी है दीदी, रूप गुण तो हैं ही उसके वाले।’
‘पत्र लिखूँ क्या? तुम लिखोगी क्या?’
‘मैं उससे बात कर लेती हूँ दीदी। पूछूँगी कि बिटिया कृति ने किसी को पसंद किया है या नहीं अब तक?’
‘हाँ, पहले पता कर लो तब उसे आगे बढ़ने को प्रेरित करूँगी।’
‘ठीक है दीदी। पर एक बात मैं कह दूँ कि यदि जाति वगैरह के संबंध में कोई पूर्वाग्रह हो तब बात न करें।’
‘मुझे कोई एतराज किसी जाति से नहीं है वीथिका। विवस्वान को मैंने पाला है, उसे भी नहीं है। अब समय भी बदल गया। पर यह तुमने क्यों कहा? क्या तुम्हें एतराज है?’
‘नहीं दीदी, मुझे नहीं है एतराज।’
‘तब? निधि बड़े ब्राह्मण की बेटी है, श्यामल दास भी कायस्थ जान पड़ते हैं। हम वही तो हैं।’
‘यही भ्रम है जो मैं मिटाना चाहती हूँ।’
‘क्या भ्रम है?’
‘श्यामल दादा दलित हैं कायस्थ नहीं; क्या कभी कहा उन्होंने?’
‘नहीं नहीं, ऐसी कोई बात कभी नहीं कही उन्होंने।’
‘प्रसंगहीन रहा होगा पर अभी प्रसंग है सो मैं कह दे रही हूँ।’
‘मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है वीथिका। मुझे मनुष्य से ही मात्र मतलब है। मेरे पिता अमेरिका जाकर एक क्रिश्चियन स्त्री से विवाह कर दो भाई बहन हमें दे गये। उनसे मेरी मुलाकात है। वे मेरे सगे भाई बहुत स्नेही हैं। उनका धर्म ही अलग है। तो क्या हुआ। तुम्हें तो नहीं एतराज है?’
‘नहीं दीदी, मुझे कोई एतराज नहीं है, मैं आज पूछती हूँ निधि से।’
वीथिका के अंतस् में उमंग-सा छा गया। पर रम्या के अतिरिक्त कहे किससे? उछाह में आकर गंगा किनारे वाले बेंच पर बैठ निहारने लगी। सूर्य अस्ताचलगामी था। गंगा उत्तर की ओर थी सीधे सीधे न यहाँ से सूरज का उगना दीखता न डूबना। परंतु स्वर्णाभा पसरी मिलती। हवा की सिहकी से हौले हौले मचलती लोल लहरियाँ दीप्त हो उठी थीं। यह तो प्रतिदिन होता आज इसे खींच रहा था अपनी ओर। उसका कोख जाया, इसके हाड़ मांस का पुतला आज इतना बड़ा हो गया कि विवाह होगा। वह गुनगुना उठी एक मंगल गीत।
‘क्या हो रहा है वीथिका? बड़ी खुश नजर आ रही हो।’–शम्पा पहुँच गई थी। वीथिका ने कोमल दृष्टि से उन्हें देखा और मुस्कुराई।
‘इंतजार करें दीदी, खुशखबरी आने वाली है।’
‘अच्छा, कोई पसंद आ गया क्या?’–शम्पा ने बैठते हुए कहा।
‘पसंद आ गई है हमें अब पक्की भी हो जाय।’
‘पहेलियाँ न बुझाओ, सीधे सीधे बताओ अकेले में क्या सोच कर मुस्कान फैली थी तुम्हारे चेहरे पर?’
‘अपना विवस्वान अब दूल्हा बनेगा।’–हर्ष से भरी थी।
‘अच्छा, किस लड़की को पसंद किया है उसने?’
‘नः, उसने नहीं पसंद किया है, रम्या दी को कह दिया है कि वे पसंद करें। रम्या दी ने मुझे कहा है कि मैं निधि से उसकी बड़ी बेटी के लिए पूछूँ। वही सोचकर हँस रही थी कि यदि तय हो जाय तो कितना अच्छा होगा, है न दीदी?’
‘हूँ अच्छा होगा। स्ट्रेंज, यह लड़का अपने पापा पर नहीं गया।’
‘आप भी न दी।’–हँसने लगी।
जब निधि से वीथिका की बात हुई तो वह चौंक गई। रम्या मैम ने बहुत सोच समझकर यह प्रस्ताव रखा है। दोनों सहेलियों को एक सूत्र में बाँधने की चेष्टा की है।
‘वीथि, मेरी बेटी कृति ने किसी से दिल न लगाया है पर वह विवस्वान से विवाह के लिए तैयार है कि नहीं यह पूछकर बताती हूँ। एक और एतराज है कि वह बिना सेटल हुए शादी करना चाहती है क्या?’
‘ये सब तुम्हें सुलझाने पड़ेंगे। वैसे किस कैरियर को चुनना चाहती है कृति?’
‘पीएच.डी. किया है, पेपर पब्लिश कराती रहती है, जाहिर है कि हमारी लाइन में जाना चाहती है।’
‘किसी प्रतियोगी परीक्षा में नहीं बैठती हैं?’
‘नहीं।’
‘तब शादी करने में हर्ज क्या है? पीएच.डी. हो गई है। आगे की राह अब कहीं से भी तय की जा सकती है।’
‘सही बात, पहले पूछ लूँ तब श्यामल से कहूँगी।’–इस तरह की बातों के बाद मन में बेचैनी हो गई वीथिका को। श्यामल को संभवतः नहीं पता है कि विवस्वान वीथिका का पुत्र है। मुझे नहीं लगता है उसे कोई फर्क पड़ेगा। मन के गोपन का साक्षात्कार कर उछाह से भर रही थी वीथिका। उसके स्तन दूध से भर रहे थे, पीते हुए बच्चे को जिस निर्ममता से रम्या ने खींचा था रम्या इंदु प्रसाद ने वह पुनः आकर चिपट गया है। दुग्ध धार बह रही है वैसी ही जैसी उस वक्त! दबाने से नहीं दबती थी। वह धवल धार, जिसने इसके बदन पर नीले निशान छोड़ दिये थे। आप से आप अभी इसके दोनों हाथ स्तन पर चले गये। इसने दूध की तरह मन के भाव को दबा रखे थे वह आँखों से चुपचाप निकल कर कपोल सिक्त कर रहा था। पीड़ा का यह सुख भी वीथिका का नितांत निजी है जैसा दुःख निजी था। बाँटने को थी निधि। वही निधि इसके सभी गोपन की साक्षी है, कई अर्थों में वह भोक्ता भी है।
दूसरे दिन निधि ने उसे खुशखबरी सुनाई। कृति विवस्वान से विवाह करने को तैयार है। वे दिल्ली विश्वविद्यालय में मिल चुके हैं। विवस्वान ने भी अर्थशास्त्र ही पढ़ा था। वहाँ के स्टडी सेंटर में मुलाकात हुई। पटना कनेक्शन के कारण ये निकट आये थे। जाहिर है विवस्वान एक आकर्षक व्यक्तित्व का युवक था। उसने कभी सोचा न हो पर निधि के कहने पर तुरंत तैयार हो गई।
‘निधि, मैं यहाँ रोमांचित हो रही हूँ। पर एक आग्रह है।’
‘क्या? वही भी कह डाल।’
‘तुम श्यामल दा को बता देना कि मैंने अवैध संतान को जन्म दिया जो विवस्वान है।’
‘संतान अवैध नहीं होती है ओ समाजशास्त्री। इतने दिन यही पढ़ा गुना प्रो. वीथिका द ग्रेट? आत्म प्रताड़ना की शिकार न बनो।’
‘अरे यार, मुझे ही पढ़ाने न लग जा, श्यामल दा को बता दे।’
‘जरूर बता दूँगी। तू ज्यादा न सोच।’–वीथिका ने रम्या मैम को यह खुशखबरी दी और प्रतीक्षा करने लगी कि विवस्वान क्या कहता है।
रम्या इंदु ने नाश्ते की टेबुल पर विवस्वान से कहा सब कुछ–
‘मैंने तुम्हारे लिये लड़की पसंद कर ली है बेटे। फोटो और कोई परिचय नहीं दिखाऊँगी क्योंकि तुमने उसे देखा है।’
‘कौन है माँ, मैंने कब देखा है?’
‘कृति कल्पना को तुमने दिल्ली विश्वविद्यालय के स्टडी सेंटर में देखा है। वह भी अर्थशास्त्र की छात्रा थीं।’
‘अच्छा वो चूने की बोरी?’
‘क्या मतलब? अरे वह बिलकुल चूना की तरह सफेद है।’
‘ऊँह, गोरी लड़की को चूने की बोरी कहता है। अपनी काली मम्मी को देख देख कर गोरी लड़की पर छींटाकशी करता है। मैंने उसे ही तेरे लिए चुना है। तुझे कोई ऐतराज है तो बताना।’
‘तुमने पसंद कर लिया हो गया।’
‘अच्छा, तुम्हें नहीं?’–वह हँसता हुआ चला गया। रम्या के मन को बहुत शांति मिली। इलाहाबाद से आई हुई रम्या पूरी तरह से पटना की हो चुकीं। पटना की निधि इलाहाबाद की हुई। दोनों संस्कृति का मिलन होगा। खुशी हुई कि कृति कल्पना विश्वविद्यालय सेवा के लिए अपने आप को तैयार कर रही है। ऐसे समय उन्हें प्रो. डॉ. शिवरंजन प्रसाद याद आये। प्रखर और संवेदनशील व्यक्ति थे। रूप गुण संपन्न। एक ही अवगुण था कि भौंरा-सा स्वभाव था। जिस पर दिल आ जाता बिना हासिल किये न मानते थे। रम्या की बेहद इज्जत करते थे पर अपने मन पर वश नहीं था। वीथिका उनकी अंतिम पड़ाव थी। रम्या को मलाल है कि उन्होंने वीथिका का जीवन-रस सोख लिया। वीथिका ने किसी दूसरे पुरुष को पसंद नहीं किया। इन्होंने कई बार कोशिश की। अनेक स्त्री अनेक कारणों से प्रो. शिवरंजन के संसर्ग में आईं, देख समझ रही थीं रम्या इंदु पर इसका आना, इसकी समस्या और इसका विराग भरा जीवन भीतर तक साल गया। इसके लिए उन्होंने कभी प्रो. शिवरंजन को माफ नहीं किया। भरसक वीथिका के जख्म पर मरहम लगाने की कोशिश करतीं।
निधि ने प्रो. श्यामल दास से इस संबंध में चर्चा की।
‘आपको विवस्वान कैसा लगता है?’
‘अपना विवस्वान? प्रो. शिवरंजन का बेटा?’
‘हाँ वही।’
‘बहुत अच्छा लड़का है। क्यों पूछ रही हो?’
‘बताती हूँ। वह स्टेट बैंक में अफसर है। पटना में ही है।’
‘हाँ, पता है।’
‘आज उनकी मम्मी, रम्या मैम ने फोन कर उसके लिए अपनी कृति का हाथ माँगा?’
‘क्या? अपनी कृति अभी शादी के लिए तैयार होगी?’
‘वह तैयार है सर।’
‘ओहो, तो तुमने सारे होमवर्क कर लिये हैं। एक मिनट, ये दोनों दिल्ली में एक ही विभाग में थे। वहीं तो नहीं एक दूसरे को पसंद कर लिया था?’
‘हाँ थे, परिचय भी था लेकिन यह प्रस्ताव रम्या मैम की ओर से आया है। दोनों को पूछा गया, दोनों ने हाँ कह दी।’
‘बहुत खुशी की बात है, पर हमारी जाति बता दी? वे तब भी राजी हैं, तब मुझे कोई शंका नहीं।’
‘वह सब वीथिका ने बता दी है, कोई एतराज नहीं। आप बेसुरी वंशी बजाना छोड़िये। मैं एक अति महत्त्वपूर्ण राज खोलने जा रही हूँ। ध्यान से सुनिये।’
‘कहो’–उसने कान आगे कर कहा। निधि ने आँखें तरेरीं। वह मुस्कुराकर सीधा बैठ गया।
‘विवस्वान प्रो. शिवरंजन और वीथि का पुत्र है।’
‘अच्छा, तो?’
‘यही सूचना देनी थी।’
‘यह सूचना देकर तुमने कौन सा तीर मार लिया?’
‘क्या आप जानते थे?’
‘बिलकुल जानता था। तुम्हारे पास लगातार रही। बीच में ही महीने दिन के लिए चली गई। फिर वह आकर तब तक थी जब तक उसे पटना में परमानेंट नौकरी नहीं लगी। मैं जानता था।’
‘मुझे कभी नहीं कहा?’
‘तुम कहो यह चाहता था।’
‘मैं अपनी प्रिय सहेली का गोपन कैसे कहती? वह तो उसी ने कहा है कि श्यामल दा को कह दो।’
‘तुम्हारी यही ईमानदारी मुझे पसंद है निधि; तुम एक सच्ची मित्र हो ऐसी ही रहना सदा। मैंने समझ बूझकर तुम्हारा मान रखा।’
‘विवाह कब करें?’
‘अब तक विचार किया जा रहा है। प्रस्ताव भेजना होगा। क्या हमें स्वयं जाना चाहिए?’
‘बिलकुल, इसी रविवार को चलते हैं।’–वहाँ खबर बिना किये ये दोनों पटना पहुँच गये। रम्या जी के यहाँ इनका आना सुखद आश्चर्य से भर गया। बातचीत हुई। रम्या, शम्पा, वीथिका तो थे ही, थोड़ी देर के लिए विवस्वान भी बैठा रहा। विवाह का समय तय हुआ, खुशी-खुशी सब ने मिठाइयाँ खाईं और चलते बने।
‘वीथिका, तुम अमरूद डॉक्टर बेटियों के लिए भी रखना। ये नहीं कि सारा गड़प कर जाओ।’–श्यामल ने कहा।
‘ऊँह, मैं जो भी करूँ क्या आप देखने आयेंगे?’–वीथिका ने भी तुर्की बतुर्की उत्तर दिया।
‘उस मिसेज चड्ढा से कहना, मुंबई कोई दूर नहीं है। वो पूरे चार दिनों की छुट्टी लेकर आ जाये।’–श्यामल ने कहा।
‘मैं कहूँगी तो पटना के लिए, आप अपने लिए कहिये।’
‘ओह, यह बात तो हुई नहीं।’–रम्या जी ने कहा।
‘क्या बात दीदी?’–शम्पा थी।
‘यही कि शादी यहीं से होगी।’–रम्या थी। निधि और श्यामल दोनों ने एक दूसरे को देखा। सहमति आँखों आँखों में हो गयी।
‘जी, जैसा आप चाहें।’–श्यामल ने कहा।
‘वीथिका, एक बात याद रखना, चड्ढा से कहना वो मेरे सामने जरा कम ही आये वरना पिटेगा।’–समवेत हँसी गूँजी।
‘माई गॉड अब तक क्रश बाकी है।’–रम्या इंदु ने कहा।
‘सच मैम, वो जिगर कहाँ से लाऊँ?’–उसकी अदा निराली थी।
‘वो जिगर तो लाना पड़ेगा मित्र!’–शम्पा थीं।
विवाह की तैयारियों में समय पंख लगाकर उड़ गया। गंगा किनारे बेंच पर बैठी शम्पा ने वीथिका से कहा–‘मैं यहाँ से अपने पुराने फ्लैट में नहीं जाना चाहती हूँ।’
‘कहीं और बात करूँ क्या?’
‘विवस्वान कह रहा था कि गंगा किनारे अपार्टमेंट बन रहा है वैसा ही जैसा बंबई में होता है। उसमें इसने दो फ्लैट अपने नाम पर बुक कर लिया है।’
‘कब तक बना लेंगे वे लोग?’–वीथिका थी।
‘मुझे लगता है बन गया है। कहा है चलिये देख लीजिये।’
‘यह तो नये प्रकार की बिल्डिंग बन रही है।’
‘पटना के लिए नया है।’
‘चलिये, देख लेते हैं।’
‘वहाँ लोगों से अधिक बैंक वालों ने बुक कराया है। अभी समझ में नहीं आ रहा है लोगों को। पर मुझे लगता है सुरक्षित होगा।’
‘बाँम्बे की तरह होगा तब गार्ड वगैरह रहेगा। सुरक्षित तो होगा।’
दोनों ने संध्याकाल जाकर अपार्टमेंट देखा। देखकर अच्छा लगा गंगा की ओर खुलने वाली खिड़की वाला फ्लैट शम्पा के लिए चुना था विवस्वान ने।
‘मौसी, आप पेंट का रंग खिड़की के पल्ले के पेंट का रंग बता दें। परदे देख लें कितने लगेंगे, सब ठीक रहेगा। आप फर्नीश्ड फ्लैट में रिटायरमेंट के बाद रहेंगी।’
‘और लोग तो रहेंगे न?’–वीथिका थी।
‘करीब दस परिवार आ गया है। हमलोग का गेस्ट-हाउस भी शुरू हो गया है। जब तक ये आयेंगी, सब गुलजार हो जाएगा।’
‘यह कॉर्नर पूरा मैंने बुक किया है। मेरा मन है, मम्मी को भी मनाऊँ कि वह आ जाये।’–फिर कहा विवस्वान ने।
‘तब तो बड़ा अच्छा रहेगा।’
‘हाँ शम्पा दीदी, आपकी किताबों की रैक सजेंगी और बड़ी दी के साज-बाज।’
‘काश! तुम भी आ जाती।’–शम्पा ने कहा।
विवस्वान की शादी के कुछ ही दिन बाद शम्पा सेवानिवृत्त हो रही थी। तब तक फ्लैट तैयार था। उसके अपने पुराने मकान से किताबें आ गई थीं। उस फ्लैट को एक स्टेट बैंक के कर्मचारी ने किराये पर ले लिया था। शादी के समय आई हुई बहनों को गंगा टावर का फ्लैट दिखाया। उन्हें काफी पसंद आया। जब शम्पा का गृह प्रवेश हो रहा था तब विवस्वान ने वीथिका से कहा–‘मौसी, आपके लिए भी एक फ्लैट बुक कर दूँ?’
‘अभी बहुत दिन है रिटायर करने में, यह क्यों आयेगी?’–शम्पा थी।
‘कितने दिन है मौसी?’
‘सात साल।’–वीथिका ने कहा।
‘चुटकी बजाते ही बीत जाएगा। बनने में समय लगेगा। ऊपर एक फ्लोर बन रहा है। आधे में फ्लैट्स आधे में बागीचा। मनोरम होगा।’–कहा विवस्वान ने।
बेटी का विवाह करने के बाद निधि बाबा की समाधि की ओर गई। देखा समाधि को चारदीवारी से घेर दिया गया था। पूरे परिसर में कई अनगढ़ झोपड़ियाँ बनी पड़ी थीं। कुछ गायें और भैंसे पागुर करती बैठी थीं। यह दुर्दशा देख, समाधि पर फूल चढ़ा मंदिर की ओर गई। मंदिर में पूर्ववत् दीया जल रहा था। पूजा होने का संकेत था। वह वहीं बैठ गई। प्रणाम कर उठी और बाहर निकली कि भुवन आ गया।
‘प्रणाम दीदी, विवाह विदाई संपन्न हो गया?’
‘हाँ भुवन तुम तो थे ही।’
‘बहुत शालीन ढंग से विवाह हुआ, अति सुंदर।’
‘यहाँ तुम कहाँ रहते हो?’
‘यही,’ मंदिर में बनी छोटी सी कोठरी की ओर दिखायी उँगली।
‘यहाँ?’
‘इससे अधिक की मुझे जरूरत कहाँ है दीदी?’
‘पर उसमें झोपड़ियाँ कैसी है?’
‘यहीं के कर्मचारियों की है। जबरन बना लिया।’
‘किसी ने रोका नहीं?’
‘मैंने नहीं देखा रोकते दीदी। मैं पुजारी हूँ पूजा करता हूँ।’–निधि मायूस हो गई पर इसके वश में कुछ न था।
‘समाधि की चारों तरफ चारदीवारी मैंने बनवा दी क्या जाने गायें-भैंसे चढ़कर तोड़ डालतीं। वे अनजान जीव हैं।’
‘वो तो ठीक किया तुमने।’–भारी मन से लौटी थी निधि, वीथिका से सारा हाल कह सुनाया था।
‘निधि बहुत दिन बीत गये। विश्वविद्यालय का तौर तरीका बदल गया। उनकी शह पर ही यह सब होता है।’
‘ऐसी अवस्था में किसी से कुछ कहना नामुमकिन है।’–निधि ने सब कुछ सुन कर कहा।
‘मोह छोड़ निधि, मोहपाश की जकड़न जानलेवा होती है।’
‘सही कहा तुमने। यही भुवन ने भी कहा था।’
इन दिनों कई नये विश्वविद्यालय स्थापित हो चुके थे। उनके कई कॉलेज स्थापित हो गये। जागरूकता आने से शिक्षा की दिशा में लोग आगे बढ़ने लगे। तकनीकी शिक्षा, व्यवहारिक शिक्षा का भी खासा प्रचार प्रसार हो रहा था। कई कॉलेजों का पूर्णतया सरकारीकरण हो गया था सरकारीकरण की प्रक्रिया में अच्छी संख्या में नयी प्रतिभायें अब कॉलेज में नियुक्ति पा रही थीं। कृति कल्पना को भी ऐसे ही सरकारीकृत संस्थान में मन लायक काम मिल गया था। एक दिन रम्या इंदु जी अपने स्नानघर में गिरी पाई गई। वे अचेत थीं। आवाज सुनकर कामवाली दौड़कर आईं। उसी ने आवाज लगाई तो कृति भी आ पहुँची। दोनों ने मिलकर बिस्तरे पर लिटाया और एक साथ डॉक्टर तथा विवस्वान को फोन लगाया। विवस्वान डॉक्टर साहब के साथ आये। जाँच करने पर पता चला कि मात्र ब्लडप्रेशर बढ़ जाने के कारण वे अचेत होकर गिर पड़ी थीं। लेकिन अधिक सावधानी की आवश्यकता तो हो ही गई थी। समय बाँट लिया गया था। शम्पा दिनभर रहती। गपशप और सहायक को बुलाने का काम तो वह करती ही, दवा वगैरह भी दे देती। दोपहर बाद वीथिका, कृति, शाम को विवस्वान आ जाते। दोनों डॉक्टर बेटी आकर चली गईं।
‘मम्मी, तुम सिर्फ कमजोर हो गई हो और कोई बीमारी नहीं है समझ लो। मेरे साथी डॉक्टर आते रहेंगे तुम्हें देखने।’–डॉक्टर बेटी ने कहा। मम्मी मुस्कुराकर रह गई। अब सारा काम पूरा हो गया है, चली भी जायें तो कोई बात नहीं, ऐसा विचारतीं रम्या इंदु अपने समय की सुकंठी गायिका। पुत्र और पुत्रवधू के स्नेह समर्पण से अभिभूत एक दिन रम्या ने उन्हें पास बैठाकर कहा।
‘बेटे विवस्वान, तुम सूर्य से समदर्शी हो यही कामना थी मेरी, तुम मेरी कामना के अनुरूप हो। तुम सदा सुखी रहो। मैं आज तुम्हें एक विशेष बात बताने जा रही हूँ। पूरे भरे हृदय से सुनना।’–कहती हुई मानो साँस लेने को रुकीं।
‘विभु मेरे बेटे, तुम मेरे पेटजाये नहीं हो।’–विवस्वान की ओर देखा रम्या ने। उसका चेहरा लाल हो रहा था। ‘तुम्हारी माँ वीथिका है। उसी ने तुम्हारा अंश तुम्हारे पिता से लेकर गर्भ में पाला, उसी ने दुग्ध पान कराया। वही तुम्हारी जन्मदात्री माँ है, मैं बस धात्री हूँ बेटे।’–फिर चुप हो गईं। विवस्वान उनके गले लग गया। वह चिपट कर रोने लगा–‘मम्मी आप मेरी माँ हैं, मैं आपका ही पुत्र हूँ।’
‘जरूर हो पर मैं मात्र यशोदा की भूमिका में थी देवकी वीथिका है।’
‘मम्मी’
‘उसे वंचित न करना कभी। मैंने तुमसे दूर कभी न रखा। तुम दूर न करना वह समाज के कठघरे में कैद बिन ब्याही माँ की और तुम्हारे पिता के विवाहेतर संबंध का दंश लिये जी रही है। वह तुम्हारा मुँह देख कर ही जी रही है। दूसरी कोई होती तो जीवन में आगे बढ़ जाती। ऐसे अनेक अवसर उसके जीवन में आये लेकिन वह साधिका है, तुम्हारी माँ सबसे अलग है।’
‘आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। मैं उन्हें आदर देता हूँ अब माँ ही समझूँगा। पर उनसे अभी न बतायें कि मैं जानता हूँ।’–आग्रह किया विवस्वान ने।
‘नहीं बताऊँगी। तुमने और कृति ने जान लिया। वह जानती है। मेरे सीने पर से मानो पत्थर हट गया।’
‘मम्मी, मुझे पता है कि वीथि मौसी विभु की माँ हैं।’–कृति ने कहा और सिर झुका लिया।
‘अच्छा यह तो बड़ी खुशी की बात है।’
‘मैं प्रतीक्षा कर रही थी कि आप स्वयं इनकी जन्मदात्री का नाम बतायेंगी। सही समय पर बता दिया।’
कुछ ही दिनों बाद इस आख्यान का अवसान हो गया। रम्या इंदु जी हृदयाघात से चल बसीं। क्रियाकर्म के बाद विवस्वान ने माता-पिता का बंगला उनके ही नाम पर क्लिनिक के लिए बहनों को समर्पित कर दिया। वह स्वयं गंगा टावर में रहने चला गया।
गंगा टावर का ऊपर वाला फ्लैट तैयार हो चुका था जिसमें वीथिका का आना तय था। उसके अधिकतर सामान जा चुके थे। छात्रावास से दो दिन पहले विदाई पार्टी हो चुकी थी, आज विभाग से विदा हो गई। शून्य में ताक रही है। गंगा किनारे वह बेंच नहीं है, न खुला किनारा है। दीवारों से घिरा परिसर एक फॉन्क से कभी कभी धारा को झाँक लेता है।
‘वीथिका दी, कॉलेज छूटने का यह मतलब तो कतई नहीं है कि हमारा संबंध टूट गया।’–भारती ने कहा।
‘बिलकुल नहीं। तुम आती रहना। मैं भी कॉलेज आती जाती रहूँगी। संबंध नहीं छूटते।’
‘दी, आपने इतना बड़ा जीवन सिर्फ किताबें पढ़कर सेमिनार में हिस्सा लेकर, लिखकर कैसे काटा? क्या किसी ने आपको प्रपोज भी नहीं किया? आपका दिल नहीं आया किसी पर?’
‘अब यह सब पूछने की क्या जरूरत है भारती? सबकी अपनी अपनी नियति होती है, मैं क्या तुम्हें कभी उदास दीखी?’
‘आप मुझे अच्छी खासी संवेदना की धनी दिखाई पड़ती हैं कोई रूखी सूखी शख्शियत होती तो और बात थी। इतनी खूबसूरत हैं, स्मार्ट हैं, कैसे बची रह गईं?’
‘अब छोड़ो इन बातों को। मैं प्रतीक्षा कर रही हूँ कि विवस्वान आ रहा है। कैंपस खाली है। शायद हम दो ही बचे हैं। चलो आगे सामने वाले बगीचे में बैठें।’–वीथिका निर्मोही-सी गेट की ओर बढ़ गई। भारती साथ थी। गेट खुला। विवस्वान की गाड़ी खड़ी हुई। उतर कर वीथिका के पैर छुए, भारती को नमस्ते की और गाड़ी का गेट खोला। वीथिका बैठ गई, दरवान ने विदाई सामग्री पीछे की सीट पर रखी। गाड़ी चल पड़ी, भारती हाथ हिलाती हुई अपनी कार की ओर बढ़ गई।
बहुत सारे परिवर्तन हो गये हैं, छत्तीस वर्ष पहले सा कॉलेज नहीं रहा, फिर भी एक आभावलयित सा कुछ है जो अपने गुंजलक में इसे आविष्ट कर रहा है। सोचते विचारते कब गंगा टावर पहुँची, कब लिफ्ट में चढ़ी और कब अपने फ्लैट के दरवाजे पर पहुँची यह खयाल ही न रहा। अनायास अपने फ्लैट के दरवाजे पर सजे गेंदा के बंदनवार की ओर नजर गई। लिखा था–‘स्वागत माँ।’
‘आपके घर में आपका स्वागत है माँ’–कृति ने बायाँ और विवस्वान ने दायाँ हाथ पकड़ा। हौले-हौले वे सोफा की ओर बढ़े।
‘बैठिये माँ’–उन्हें बैठा कर दोनों ओर दोनों बैठ गये। उलझी सी वीथिका ने देखा शम्पा को व्हील चेयर पर लेकर दोनों डॉक्टर बहनें श्रेया और प्रेया सामने खड़ी हैं। तस्वीरें ली जा रही हैं। व्हीलचेयर पर बैठी शम्पा ने खुली आँखों से देखा है अपनी बहन रम्या को बच्चा पालते पर वीथिका को आत्मा से। जिस दिन जीजा कुलपति आवास में मृत पाये गये थे उसी दिन शोक के आवेग में मन की गाँठ खोली थीं।
‘इसे अभी नहीं जाना था शम्पा, ऐसे तो बिलकुल नहीं।’–रम्या ने कहा था। उनके स्वर में तल्खी भरी थी।
‘हाँ दीदी, अभी तो जीवन का उत्कर्ष आना बाकी था।’
‘मैं इसलिए नहीं कर रही हूँ। मैं चाहती थी कि विवस्वान पूरी तरह वयस्क हो जाय, काम-धाम में लग जाये, तब मैं इसकी बाजू में वीथिका को खड़ी करके बताऊँ कि यही हैं तेरे माता-पिता। वीथिका कब तक एक वातभक्षा नारी अहिल्या-सी बनकर रहेगी?’
‘दीदी, क्या कह रही है?’–चकित हुई थी शम्पा।
‘यही सच है। अपनी अनैतिकता का बोझ मुझ पर डालकर चला गया।’–शम्पा गले से लग गई।
‘दीदी सुपात्र को प्रकृति चुनती है। आप ही बिगड़े को बना सकती हैं। मैं आपको रूखा समझती थी पर आप तो फल्गु नदी सी अंत:सलिला हैं। अब मेरी समझ में आ रहा है कि वीथिका को इतना अधिक तरजीह क्यों देती हैं, उसे क्यों बुलाती रहती हैं।’
‘मैं विवस्वान की सारी प्रगति से उसे रू-ब-रू कराती रहना चाहती हूँ।’
‘आप के सामने नतमस्तक हूँ दीदी। अब तक की उपेक्षा के लिए मुझे माफ करें।’–यह सब याद आ गया शम्पा को।
‘हम पापा के जाने के बाद जान पाये, वीथिका माँ’–श्रेया ने कहा।
‘क्रियाकर्म के बाद माँ ने समझाया कि पिता की गरिमा न भंग हो इसलिए तब न कहा! पर वीथिका को उसका दाय मिले सो अब कह रही हूँ’–प्रेया ने कहा।
‘वीथिका माँ, आप सा धीरज हम में नहीं हैं। आप लेकिन हमारी रोल मॉडल नहीं हो सकतीं। आपने अपने पूरे जीवन को एक बिंदु के घेरे में कैद कर लिया। ऐसा क्यों किया?’–श्रेया ने कहा।
‘अपने समय का सच है, तुम कैसे जानती हो कि इसके मन में क्या है? यह यदि अपने आप में परिपूर्ण नहीं तो इतनी नॉर्मल क्यों रहीं? यही विचारणीय है। मेरी तरह असहज हो सकती थी, पर इसके सामने यह था’–विवस्वान की ओर उँगली उठाकर कहा शम्पा ने।
‘कोई व्यक्ति मात्र अपनी महानता साबित करने को ऐसे नहीं रह सकता है। वीथिका माँ मुझे बताइये क्या था आपके मन में?’–श्रेया थी। वीथिका का चकित चेहरा अब धीरे धीरे तनाव मुक्त हो गया था। वह मुस्कुरा रही थी। अच्छा, तो सब ने तुम्हें ठीक से पहचान लिया है वीथिका। तुम्हें किसी ने कम करके न आँका। किसी ने तुम्हें दोष नहीं दिया है। तुम्हें एक संपूर्ण स्त्री के रूप में जाना है। तुम अपने आप को वृथा खाली समझती रही, अपने को छाया समझती रही। नः, तुम संज्ञा हो वीथिका। यह तुम्हारी ओर देखता तुम्हारा परिवार ही समाज है। इसके सामने टेबुल पर रखा मोबाईल बजा नाम चमक उठा–यूथिका।
‘बधाई, काँग्रेच्युलेशन्स वीथि बेबी, तुम्हारी लाइफ के नये सूरज की; याद रखना वही मेरा भी है विवस्वान!’