उत्कंठा (कोंकणी कहानी) : ओलीव्हीन गोमिश

Utkantha (Konkani Story in Hindi) : Olivinho Gomes

यद्यपि शोभा मेरी आँखों से कोसों दूर है, तब भी उसने मेरे अन्तर्मन में अपना अमिट स्थान कायम कर लिया था। अपने सामीप्य के अलावा उसने किसी और को मेरे पास फटकने भी नहीं दिया। बीसों प्रलोभनों ने मेरे रास्ते में रोड़े अटकाने के प्रयत्न किये, मगर मेरे कलेजे के भीतर की किसी अद्भुत शक्ति ने उन सभी को नकार दिया। मैं सब पर हावी होकर सुयश का भागी हो गया। बरसों के बन्दी अँधेरे में इसी मधुर स्मृति के स्नेह ने मेरे शुष्क और उदास विचारों को प्रकाश की उज्ज्वल रेखा दिखाई थी! मेरे दुःखी और नमक से व्याप्त खारे आगार में मिठास के कण मिलाये थे।

'मैं गोवा के लिए रवाना हो रहा हूँ' यह खबर मैंने उसे अपनी आखिरी चिट्ठी में लिख भेजी थी। उस चिट्ठी को भेजे कोई बीस दिन बीत चुके होंगे। पोर्तुगाल से गोवा के लिए निकल पड़े जहाज पर सवार होने के बाद कोई पन्द्रह दिन बीते होंगे ! फिर भी चिट्ठी का जवाब क्यों नहीं मिला? इस उलझन और अधीरता के भंवर में मैं हिचकोले खा रहा था।

'लॉरेन्स माकिस' से निकला हुआ बी० आई० का 'कांपाला' जहाज १६ मई को दुपहर में मामुगोवा बंदरगाह पर आ पहुंचा। इतने लम्बे अरसे के बाद गोवा के बदले हुए रूप को मैं निरखता रहा। ऊपर नीला आसमान और इर्द-गिर्द की हरीभरी धरती मेरे मन में हर्षोल्लास भर रही थी। मुझे स्वर्ग में पैर रखने का आभास हो रहा था।

मगर इस लुभावने दृश्य को भुलाकर एक स्मृति केवल मेरे मन पर कब्जा करने का प्रयत्न कर रही थी। उसी की जीत हुई। वह याद थी केवल एक व्यक्ति याने 'शोभा' की। और किसकी याद आ सकती थी? मेरे माता-पिता तो संसार से विदा हो चुके थे। केवल 'शोभा' के लिए ही मुझे गोवा आना था ! वर्ना मैं वहीं पुर्तगाल ही में फंसा रह जाता। वहाँ की अनेकानेक सुन्दर और गुणवन्ती लड़कियों से मेरी जान-पहचान थी। इतना ही नहीं, वे मुझ पर मर मिट रही थीं। मगर मैंने अपने मन के द्वार बन्द कर लिये। कई बार मुझ पर सन्देह भी किये जाते थे। गोवा को छोड़े पूरे पन्द्रह बरस बीत चुके थे। इतने बरस तन्हाई से ऊबकर मैंने ब्याह तो नहीं कर डाला? पिछले दो महीनों से शोभा की कोई चिट्ठी नहीं आई थी। जाने क्यों नहीं ? यही कारण तो नहीं हुआ है ? कहते हैं 'खाली मन भूतों का डेरा' होता है । मगर नहीं...ऐसा कभी नहीं हो सकता। मैंने अपने ही मन को धीरज बँधाकर अपने को संभाल लिया । जहाज बन्दरगाह के किनारे आ लगा। मैंने अपनी नजर चारों ओर दौड़ाई।

हाँ ! वह मेरी शोभा ही थी। उसकी बेचैन नज़रें चारों ओर किसी को खोज रही थीं। शोभा और मेरी आँखें चार हो गई। मन बेकाबू होकर खुशी से नाच उठा। उसकी आँखों में चमक थी। एक अनोखी खुशी की आभा उसके चेहरे पर झलक रही थी। इसके पहले भी मैंने उसे देखा था, मगर पहले की अपेक्षा आज उसकी खूबसूरती निखर उठी थी। वैसे शोभा बहुत अधिक सुन्दर तो नहीं थी, किन्तु मधुर व्यवहार और स्वभाव की अजीब मोहकता शोभा में थी। उसकी प्रशंसा करनी ही पड़ती थी। उसकी भीतरी सुन्दरता को मैंने बाह्य स्वरूप में देखा था। इसी सुन्दरता ने उसके आकर्षण में चार चाँद लगा दिये थे।

जिस क्षण के लिए मेरा मन तरस रहा था, वह क्षण आ गया था। मैंने उसको छाती से लगाये रखा-बड़ी देर तक । बिलकुल खुल्लम-खुल्ला और मुक्त रूप में।

मेरे भाग्य का सूरज निकल आया था। शोभा मेरी ही प्रतीक्षा में इतने बरस रही थी। मैंने अपने पुलकित तन-मन को उसके अधीन कर दिया था। उसने भी मुझे आलिंगनबद्ध कर रखा था। कुछ क्षण बाद अलग होते हुए मैंने पूछा
"क्यों री शोभा-तू अभी तक कुंवारी ही रही? या अपना घर बसा लिया?"

"हाय !"
शोभा गहरी साँस लेकर रह गई। आँखों में आँसू लाकर वह बोली,
"एडवर्ड, क्या पूछा तुमने? तुमको छोड़कर किसी से मैं सगाई के बारे में सोच . सकती हूँ? कभी नहीं। न रहे बाँस न रहे बांसुरी। मैं अपने निश्चय पर अटल रही -शादी करूंगी तो तुम्हीं से । वैसे देखा जाए तो उम्मीद नहीं रही थी। जो एक से दो की हो जाती है वह किसी की नहीं रहती—यही मेरी पक्की धारणा थी। दूसरे के साथ शादी के विचार ने मेरे मन को छुआ तक नहीं। और छूता भी तो कैसे? तुमने मुझे अपने कलेजे के साथ बाँधकर जो रखा था।"

"सच कहती हो?" मैंने चकित होकर प्रसन्नता के साथ कहा, "मुझे विश्वास नहीं होता । तुम सुन्दर हो, जवान हो । मेरे-जैसे नाचीज आदमी के लिए जो जेल में बन्द था और जिसकी जल्दी रिहाई की आशा नहीं थी, उसके लिए इतने बरस तक ?"

बड़ी मुश्किल से अपने आँसुओं को रोकने की चेष्टा करती हुई वह बोली, "मेरे भाइयों ने मुझ पर बड़ा दबाव डाला कि मेरा ब्याह हो जाय। अच्छे-अच्छे लड़कों को वे ले आए, मगर मैंने सबको कोरा जवाब दिया। उनको तेरे बारे में सन्देह हो गया था।" शोभा ने कहा-"वे कहते–'उस एडवर्ड को भाड़ में जाने दो ! आजादी के आन्दोलन में पड़कर वह हमारे घर-बार को नेस्तनाबूद करने चला था और तू अब अंगारों में नाचकर दिखाना चाहती है ? अरी पगली, वह अब काम से गया ही समझो; उसके गोवा में लौट आने की आशा अब बिलकूल नहीं है।' इस प्रकार वे जले पर नमक छिड़कते और कहते—'एडवर्ड में कौन-से सुर्खाब के पर लगे हैं ?"

मैंने कहा-"अच्छा, अब उन बातों को भूल जाओ। चलो, अब हम घर चलें।"
"घर? किसका घर? अब मेरा कोई घर नहीं रहा।" निराशा और उद्विग्नता से उसकी आँखें डबडबा आईं। बह बोली--"मेरे भाइयों के ब्याह हो गए। उनकी बीवियों से छुटकारा पाने के लिए मैं अपनी मौसी के यहाँ जाकर रहने लगी।"
"जाने भी दो।" मैंने उसको समझाया "चलो, हम अपने खुद के घर जाकर बसेंगे। कटु यादों को अब भूल जाएँगे।"

मई के महीने का वह दिन अपनी सुनहरी किरणों को लेकर उदित हुआ। गरमी का प्रभाव बढ़ने लगा। एक स्वतन्त्रता का सैनिक इतने बरस तक जेल में रहकर घर लौट आया है, उससे मिलने चिड़िया का एक पंख तक नहीं फटका ! आखिर मैं ठहरा एक सामान्य आदमी ! जो धनी-मानी थे उनके स्वागत में सभाएँ, भाषण, गौरवगान महीनों तक होता रहा। दूसरों के अपार त्याग को लोग भूल गए। इस देश में मेरी पूछ करने वाला कोई नहीं है।

इन क्षुद्र विचारों को वहीं छोड़, अतीत की मधुर स्मृतियों की लहरों को मैंने मुक्त रूप से बहने दिया। वे दिन कितनी खुशी के थे जब मैंने 'नॉर्मल का कोर्स' पूर्ण किया था और माशेल ग्राम में मैं प्रोफेसर की जगह पर नियुक्त हो गया ! मेरी आयु उस समय यही कोई बाईस-तेईस की होगी। वहाँ जिस मकान में मैं रहा करता था, उसके पड़ोस की एक युवती कलसा लिये ठुमकती हुई पानी लाने जा रही थी।

युवती अधिक सुन्दर तो नहीं थी, पर आकर्षक थी। उससे मेरी आँखें चार हुई। तभी से मेरे दिल में एक तूफ़ान-सा उठ खड़ा हुआ। उसकी आँखों में कुछ जादू था। उसकी आँखों ने मुझे मोह लिया था। हम हर रोज आते-जाते आपस में मिल जाते। उसकी लज्जाशील आँखें ऊपर उठने से झिझकती थीं। वह ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी, फिर भी व्यवहार में चतुर और मन की पक्की थी। इसमें कोई सन्देह नहीं था कि वह बुद्धिमती थी।

ज्यों-ज्यों दिन बीतते गये, हम दोनों एक-दूसरे के नजदीक आते गए। होतेहोते हम दोनों में गाढ़ी मित्रता हो गई। मेरी दृष्टि और किसी लड़की की ओर नहीं मुड़ती थी। दिन-रात मैं शोभा की छवि की ही मन-ही-मन पूजा करता । शोभा को भी सारे संसार में मेरे जैसा दूसरा कोई भी दिखाई नहीं देता था। मैं जहाँ रहता था, वहाँ वह मेरे लिए पानी भर लाती थी। मेरे खाने-पीने की ओर वह विशेष ध्यान देती थी और अपने यहाँ से अच्छे-अच्छे जायकेदार खाद्य पदार्थ ले आती थी।

स्कूलों की छुट्टियाँ होती तो मैं अपने गाँव 'काणकोण' जाया करता । वहाँ मेरा मन नहीं लगता था। दिन-रात शोभा ही मेरी आँखों के आगे घूमती रहती। मैं सप्ताह में एक बार किसी-न-किसी बहाने शोभा से मिलने आ जाया करता । शोभा मेरा स्वागत बड़े ही उत्साह से और आत्मीयता से किया करती। हमारे सारे दिन मधु में घुले हुए-से लगते—वहाँ मेरे लिए एक स्वर्ग ही था।

एक दिन किसी चाबुक की मार से मैं तिलमिला उठा । मैं आज तक सोया-सा पड़ा था—अब पूरी तरह जाग उठा। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मेरी मातृभूमि विदेशी शासकों के जूतों के नीचे कुचली जा रही थी। ७-८ जून १९४६ को डॉ० राममनोहर लोहिया गोवा में आए। उसी दिन उन्होंने गोवा में स्वतन्त्रता की ज्योति को जगा दिया। उसी ज्योति के प्रकाश की एक किरण मेरे भीतर के देशभक्त को स्पर्श कर गई। मेरे अन्दर एक अद्भुत प्रेरणा पैदा हुई और अपने जीवन की ओर देखने की नयी दृष्टि मुझे मिल गई।

मैंने अपना निश्चय शोभा को सुना दिया जिस पर मुझे पूरा भरोसा था। उस समय उसने अपना विषाद प्रकट किया; क्योंकि आगे चलकर इसका परिणाम कितना भयानक होगा इसे वह जानती थी। स्वतन्त्रता के आन्दोलन में कूद पड़ने का अर्थ यही था कि पोर्तुगीज राजमुकुट के विरुद्ध बग़ावत में शामिल होकर खूनखराबा करना । यह जीने-मरने का ही सवाल था। उस वक्त वह बोली-“एडवर्ड, तुम मुझे अकेली ही इस भयानक बाढ़ में छोड़ देना चाहते हो? मेरी कैसी दशा होकर रहेगी, इस पर भी कुछ सोचा है तुमने?"

उसका चेहरा चिन्ता और मारे डर के सफेद-सा पड़ गया था। यह देख मेरी हिम्मत भी डांवाडोल-सी होने लगी। इस विचार को छोड़ देने को मन हो गया। शोभा के भावी जीवन की चिन्ता मुझे झिझोड़ रही थी। मैंने उसे छाती से लगाकर समझाया । उसे कुछ सांत्वना मिली।

इसी विषय पर सोचते-सोचते हम दोनों कुटहाली की फेरी बोट तक पहुंचे। जुवारी की लहरें आपस में टकरा रही थीं। फेरी बोट में तिल रखने की जगह नहीं थी। उसी भीड़ में हम दोनों घुस गए। मेरे चिंतामग्न चेहरे को देखकर शोभा सवाल पर सवाल कर रही थी। मैं अपने ही विचारों में खोया रहा। उसके सवालों को अनसुना कर गया। शोभा ने उत्सुकता से पूछा-"किस चिन्ता में पड़े हो? अपनी चिन्ता में मुझे भागी नहीं बनाना चाहते ? एडवर्ड, तुम्हारे सुख-दुःख में हाथ बँटाकर जीने का मैंने निश्चय किया है; समझ लो कि इसमें मेरी ही जीत हुई है।" शोभा के इन शब्दों से मेरे सिर का बोझ हल्का हो गया । आज तक मेरे पास शोभा ही खड़ी थी। मुझे उसके भविष्य की चिन्ता थी। अब वह मेरे विश्वास में हिस्सेदार बन गई थी। मैं उसके साथ अपनी यादों के पन्ने उलटने लगा।

प्रेम के इस सागर में हमारी नाव विहार करने लगी ही थी कि अचानक तूफ़ान बरपा हो गया। इस तूफ़ान ने मुझ अकेले को ही घेर लिया। भारतीय झण्डा फहराने और दूसरे अनेक राजकीय गुनाहों का इल्जाम लगाकर एक रात मुझे पुलिस पकड़कर ले गई। निर्दयता से मेरी खाल उधेड़ दी गई; सरकारी नौकर होने से मुझे दुगुनी सजा सुनाई गई। कुछ काल के लिए मुझे घर भेज दिया गया। शोभा मुझसे किसी भी समय आ मिलती थी। खुफिया पुलिस की पैनी नजर मुझ पर हमेशा रहती थी। कुछ बरस बाद मुझे पुलिस दुबारा पकड़कर ले गई। पुलिसअफसरों को मेरी करतूतें अधिक काल तक सहन नहीं हुई और मुझे कैद करके पोर्तुगाल की कुख्यात 'पेनीस' जेल में भेज दिया गया। मैंने शोभा के प्यार की परवाह नहीं की और मैं जान-बूझकर उस जहरीले कुंए में कूद पड़ा था। राष्ट्र के प्रेम ने मुझे पागल बना दिया था। मुझे एक ही बात पर खेद होता था कि मैंने शोभा पर अन्याय किया था । मगर उस काल में मेरे लिए यह एक ही रास्ता था और मैं उस पर चलता रहा।

पेनीस के बन्दीखाने में मुझे नियम से शोभा की चिट्ठी मिला करती थी। उसके सीधे-सादे भोले-भाले शब्द मुझे प्रेम के अमरकाव्य-से लगते थे। वे चिट्ठियाँ मेरी निराशा को हटाकर मुझे प्रसन्न रखती थीं। मुझे पेनीस जेल में कठोर यन्त्रणाएँ दी जाती थीं । जवानी की उम्र में मुझे वे पन्द्रह बरस काटने थे। ये पन्द्रह बरस मेरे त्याग की वेदी पर झुलस गये थे। अन्तिम दो बरस थोड़ी राहत वाले थे।

इन दो बरसों में मार-पीट नहीं हुई। बाहर-भीतर आने-जाने की आजादी मुझे मिल गई थी। अपने पोर्तुगीज दोस्तों के साथ मैं घूमता-फिरता और नाच-गान में भी शामिल हो जाता था । हमारे बीच क्रोध या घृणा के लिए स्थान नहीं था। उलटे वे लोग उदारहृदय और प्रेमी थे। उनकी समझ में यह बात नहीं आती थी कि हम भारत में विलीन होना क्यों चाहते हैं ?

शोभा के प्यार-भरे पत्र मुझे मिलते रहे। उन पत्रों के कारण मुझे बहत-सी खबरें मिलती रहतीं। मेरी रिहाई के लिए वह व्यग्रता नहीं दिखाती थी। वह तो सौ फी सदी मेरी ही बनकर रहना चाहती थी। रिहाई से दो महीने पहले तक मुझे शोभा की कोई चिट्ठी नहीं मिली। मैं इस कारण बहुत बेचैन था। मेरे माता-पिता के चल बसने की खबर उसी ने मुझे लिख भेजी थी। वही उनकी पूछताछ करती रहती थी। चिट्ठी लिखना बन्द करने का कारण भी एक ही था। किसी ने शोभा को मनगढ़त बुराइयां लिख भेजी थीं-'मैं किसी पोर्तुगीज गोरी युवती के साथ घूमता-फिरता हूँ. "गुलछर्रे उड़ाता हूँ।' ऐसी झूठी बातों से उसके कान फूँकने के प्रयत्न किये गये थे। यह भी उसे लिखा गया था कि मैं जल्द ही अपनी गोरी पत्नी को साथ लेकर भारत-गोवा में जाने की तैयारी में लगा हूँ। मगर शोभा किसी के झाँसे में नहीं आई। लोगों के विरोध की ओर उसने बिलकुल ध्यान नहीं दिया। उसने ठान लिया था कि शादी होगी तो मुझसे ही होगी। आग में भी कूदना पड़े तो भी वह मेरे साथ ही कूदेगी। उसकी दृढ़ता मुझे चकित कर देती। कितना महान् त्याग था शोभा का!!

मैंने जेल से रिहा हो जाने की खबर उसको लिख भेजी थी। तब उसका मधुर और हर्ष से भरा हुआ एक पत्र मुझे मिला था। मगर जेल से बाहर निकलने के दो महीने पहले तक उसकी कोई चिट्ठी मुझे नहीं मिली थी-उसी की मुझे चिन्ता थी। मगर अब शोभा के सभी सन्देह हवा हो गये थे। हम फिर से आपस में मिले थे। माशेल जाने के बदले मैंने टैक्सी को काणकोण की ओर मुड़ने को कहा । हमारा भावी जीवन उसी घर में बीतेगा। अपना भविष्य हम अपने ही हाथों गढ़ेंगे। सभी हमें भूल जायें, तो भी क्या?

शोभा मेरी थी ! जिस तरह चिड़िया को साथी मिल जाने पर घोंसला बनाने की चिन्ता होती है, वैसे ही शोभा अपनी कल्पना के अनुसार काम में लग गई थी। सिसकियाँ भर-भरकर वह मेरी छाती से लग जाती। मेरे साथ एकरूप हो जाने वाली शोभा ने मुझे छाती के साथ कस लिया और लम्बे पन्द्रह बरस याद करके उसके रुके हुए आँसुओं ने रास्ता पा लिया।

(अनुवाद : नारायण शेजवलकर)

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