उसका श्राप (कहानी) : डॉ. महिमा श्रीवास्तव

Uska Shraap (Hindi Story) : Dr. Mahima Shrivastava

मैं एक बैंक पदाधिकारी हूं। एक छोटे से कस्बे से निकल, मैंने अपनी मेहनत व मेधा से पद, प्रतिष्ठा, धन- संपदा सब प्राप्त करी । मुझे ईश्वर ने बुद्धि विलक्षण दी तो शारीरिक सौन्दर्य से तनिक वंचित रखा। मैंने इसकी क्षतिपूर्ति अपनी काव्य प्रतिभा, लेखन क्षमता व सौम्य व्यक्तित्व से कर ली ।

अनेक कन्याऐं मेरे सामीप्य के लिए उत्सुक रहतीं थीं। मेरी अनेक महिला मित्र थीं जो मेरे सानिन्ध्य के लिए आतुर रहतीं थीं। मेरी शायरी व गीतों पर अनेक दिल फिदा थे। महफिलों में, मैं समा बांध देता था।मेरा स्वयं का मन अस्थाई रूप से ही किसी के प्रति आकर्षित हो पाता था ।

मेरे विवाह के लिए भी माता- पिता अब व्याकुल थे। पर मेरा तो ,भंवर सदृश, मन हो चुका था।

मैं शीघ्र ही अपनी मित्रों से उकता भी जाता था।

उम्र और समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता।

हार कर मेरे पिता श्री ने एक अच्छे परिवार की सुंदर ,उच्च पद पर आसीन ,कन्या से, मेरी सगाई तय कर दी।

उन्ही दिनों मेरे पास मेरे कॉलेज के दिनों की सहपाठिन, काव्या ,का फेसबुक पर मित्रता आग्रह ( रिक्वेस्ट) आया । मैं अधिकतर सोशल मीडिया से ,समयाभाव के कारण दूर रहता हूं। फिर भी न जाने क्यों मैं काव्या से चैट करने लगा।शायद कैशोर्य- वय का कुछ आकर्षण शेष रहा होगा।

शीघ्र ही हम मानसिक व बौद्धिक रूप से निकट हो गये। काव्या अंदर बाहर दोनों रूपों में सुंदर थी।उसकी भावुक कवितायें दिल को छू जातीं थीं।मैं उसके प्रति लगाव अनुभव करने लगा। पहली बार कोई मुझे प्रभावित कर पाई थी। मेरे प्रति उसकी श्रद्धा स्पष्ट थी।मैंने भी अनेक कवितायें उसकी स्तुति में लिख डालीं जो किसी के भी दिल को जीतने में सक्षम थीं। बहुत ही मर्यादित ढंग से हमने परस्पर स्नेह प्रगट कर दिया था। उसके मन की, कांच की भांति पारदर्शिता, मुझे छू जाती थी।

मुझे अपना अता-पता ना था। उसके प्रति आकर्षण तो था, किन्तु स्थाई प्रेम करना मेरे स्वभाव में ना था। भावनात्मक बंधन मुझे अब तक अस्वीकार्य रहा है। मैं अपने कार्य के प्रति भी समर्पित था व उसमें कोई मानसिक व्यवधान ना चाहता था। मुझे अपनी स्वतंत्रता प्रिय थी। इस जमाने में शरतचंद्रीय प्रेम हास्यास्पद था। काव्या और उसकी मूर्ख भावुकता पर मुझे झल्लाहट होने लगी थी। मेरे पास समयाभाव भी था।

मैं वैसे भी विवाह के लिए किसी और से वचनबद्ध था। यह बात काव्या को पता थी किन्तु उसे अपने प्रेम पर कुछ अधिक ही विश्वास था। उसने यूं भी कभी कोई शर्त न रखी थी ना ही कोई अधिकार मांगा था। मीरा की भांति उसका प्रेम अलौकिक व निस्वार्थ था।

मैंने उसके संदेशों का उत्तर देना बंद कर दिया। उसको कई बार ब्लॉक भी किया। दूरदराज के शहर की निवासिनी होने के कारण मिल तो वैसे ही नहीं पाती थी । उस ने ईमेल कर ,कई बार अनुनय विनय करी पर मैंने कठोरता से चुप्पी साध ली। मुझे पता था कि उस सरल ह्रदया ने खूब आंसू बहाये होंगे किन्तु मैं अपने स्वार्थ से आगे सोचने में असमर्थ था।

उसने मुझे तनिक भी भला -बुरा नहीं कहा। उसकी तीक्ष्ण बुद्धि मुझे व मेरी विवशता को समझ गई थी संभवतः। बिना बुरा माने उसने संपर्क साधने के प्रयास किये, अपने स्वाभिमान को आड़े ना आने दिया पर मैं तो जैसे एक हठ ठान गया था, उससे दूर होने की। शायद इसी में सबकी भलाई थी, फिर मुझे मेरी वाग्दत्ता से भी धोखा ना करना था। पर काश मैंने एक बार मिलकर उसे स्नेहपूर्वक सब समझा कर विदा ली होती। उल्टे मैंने तो उसे फोन पर डपट कर, उल्टा- सीधा बोल अपमानित किया व पीछा छुड़ाना चाहा। उसकी भर्राई आवाज़ अनसुनी कर दी।

इस भांति मैंने उस मासूम से कन्नी काट ली । मेरा धूमधाम से विवाह हुआ। धनाढ्य ससुराल। लक्ष्मी सब ओर से बरस रही थी। मेरे कार्यक्षेत्र में भी मेरा खूब नाम हुआ। मैं एक अत्यंत व्यस्त अधिकारी था। यांत्रिक जीवन में मैं रच बस गया था। कविता शायरी सब छूट गई थी। छुट्टियों में विदेश की सैर आनन्दित करती थी। एक भौतिक जीवन का मैं अभ्यस्त हो चला था।

किन्तु ,एकाएक मेरे सुख को किसी की नज़र लग गई जैसे। पत्नी को असाध्य कैंसर रोग हो गया। बीमारी और उसकी चिकित्सा से वह बहुत चिड़चिड़ी हो गई। वैसे भी मेरा कवि मन उससे कुछ खास जुड़ ना पाया था। गृह क्लेश असहनीय हो चला। मैं आध्यात्म की ओर उन्मुख हो गया व मन वैरागी सा हो गया। मैं अन्तर्मुखी हो चुका था।सभी मित्रों- संबंधियों से भी दूरी बना ली।सोशल मीडिया से भी विमुख हो गया।अवसाद सा हावी हो गया।

मुझे कई बार काव्या का विचार आता कि कहीं उसका श्राप तो नहीं लग गया। पर अगले पल ही मेरी आत्मा मुझे धिक्कारती। उसका मधुर,स्नेही, दयालु एवं करूणामय स्वभाव याद आता। उसका अंतिम संदेश भी समर्पण भाव से भरपूर था। उसने लिखा था कि उसकी श्रद्धा किसी सोशल मीडिया एप या मुलाकात की मोहताज नहीं है। वह आजीवन अक्षुण्ण रहेगी।

आज मैं कहीं से भी उसे ढूंढ़ क्षमायाचना करने को व्याकुल हूं। पर उसका अता- पता तो दुनिया के नक्शे से जैसे गायब सा हो गया है । जो निस्वार्थ हो समर्पित प्रेम करे उसकी नाराज़गी स्थाई नहीं हो सकती यह मेरा ह्रदय कहता है। एक बार पुनः मिलने की आशा की ज्योत मेरे मन मंदिर में अब भी जल रही है।

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