उर्वशी चम्पू (नाटक) : जयशंकर प्रसाद

Urvashi Champu (Play) : Jaishankar Prasad

श्री शिवजी सहाय

निवेदन

परमश्रद्धास्पद -

श्रीयुत् बाबू देवी प्रसाद सुंघनी साहु

पूज्यपाद स्वर्गीय पितृदेव!

आपका वह विद्यानुराग जो वात्सल्य प्रेम के साथ हमारे ऊपर था, उसी के द्वारा यह बीज इस क्षुद्र हृदय में अंकुरित हुआ, यह क्षुद्र पुस्तक उसी का फल है, इसमें उस प्रदेश की भी कुछ बातें हैं जहाँ कि आप इस समय विहरण करते हैं, बाल्यकाल में प्रायः हमसे संस्कृत के श्लोक तथा हिन्दी के दोहे कण्ठस्थ कराकर सुना करते थे, आशा है कि अब इस पुस्तक द्वारा आपका कुछ मनोरंजन होगा।

विजय दशमी
वि. 1966

आशीर्वादभाजन
भवदीयात्मज
जयशंकर

भूमिका

यह उर्वशी नामक चम्पू तथा हमारा प्रथम-परिश्रम साहित्य-सरोज-मकरन्दोन्मत्तमधुकरगण के समक्ष प्रथमोपहार-स्वरूप उपस्थित है जो कि, वि. सं. 1963 में लिखा जा चुका था, किन्तु श्रीपरमेश्वर की कृपा से उसे प्रकाशित होने का अब अवसर मिला। हमने भी काव्य बनाया है, यह ठीक उसी के समान है जैसे एक सीपी पारावार पार करने का गर्व करै, अस्तु जो कुछ हो बाल्यकाल का बालसुलभ अशुद्ध-वाक्यविन्यास भी प्रिय तथा मधुर ही लगना चाहिए।

"चम्पू", यह शब्द आप लोगों से अपरिचित नहीं है, क्योंकि ‘नरहरि चम्पूकार’ ने अपने ग्रंथ की भूमिका में लिखा है कि, "काव्य जो दृश्य तथा श्रव्य इन दो भागों में विभक्त है उन दोनों भागों में प्रत्येक भेद के तीन-तीन भेद हैं प्रथम पद्य, द्वितीय गद्य, तृतीय गद्य- पद्य-चम्पू अतः काव्य के छः भेद हुए अब यह कवि की इच्छा पर निर्भर है कि चम्पू दृश्य बनावै वा श्रव्य"। किन्तु, हमारा कथन है कि चम्पू केवल श्रव्य ही होता है।

साहित्यदर्पण के षष्ठ परिच्छेद की पहली कारिका "दृश्य-श्रव्यत्वभेदेन पुनः काव्यं द्विधामतम्" काव्य का दो भाग करती है दृश्य तथा श्रव्य। अपरञ्च साहित्याचार्य अम्बिकादत्तजी भी गद्यकाव्य मीमांसा में अपनी कारिका -

"दृश्यंश्रव्यमितिद्वेधा तत्काव्यं परिकीर्त्तितम्।।"

से उसी का समर्थन करते है।

अथच, दृश्य काव्य का, साहित्यदर्पणकार षष्ठ परिच्छेद के तृतीय श्लोक -

"नाटकमथप्रकरणं भाण व्यायोगसम्वाकारडिमाः’

इत्यादि से अट्ठाइस भेद मानते हैं तथा अग्निपुराण 338 वें अध्याय के प्रथम श्लोक -

"नाटकं सप्रकरणं डिम ईहामृगोपि वा।"

इत्यादि से भी वे ही अट्ठाइस भेद सिद्ध हैं तथा श्री भारतेन्दुजी ने भी इन्हीं भेदों को अपने नाटक नामक प्रबन्ध में स्थान दिया है। इन दृश्य काव्यों की गद्यपद्यमय प्रणाली ही है तथा अग्निपुराण में तो दृश्यकाव्य को मिश्र के ही भेद में माना है क्योंकि 337 वें अध्याय के 8वें श्लोक -

"गद्यं पद्यं च मिश्रं च काव्यादि त्रिविधं स्मृतम्।"

से आदितः काव्य को गद्य, पद्य, तथा मिश्र इन तीन भागों में विभाजित किया है तथा 337वें अध्याय के 38वें श्लोक -

"मिश्रं वपुरितिख्यातं प्रकीर्णमिति च द्विधा।
श्रव्यं चैवाभिनेयं च प्रकीर्ण सलोकोक्तिभिः।।

से दृश्य (अभिनेय) को तो केवल मिश्र के ही भेद में माना है, तथा भारतेन्दुजी के "नाटक" के मत से नाटक के एक-एक अंक की समाप्ति होने पर पद्यगानमय चर्चरी की आवश्यकता होती है, अतः केवल गद्यमय नाटक दूषित होगा तथा केवल पद्यमय होने से भी दृश्य काव्य दूषित होगा। क्योंकि साहित्यदर्पण के षष्ठ परिच्छेद के -

"भवेदगूढ़ शब्दार्थः क्षुद्रचूर्णकसंयुतः।
नानाविधानसंयुक्तो नातिप्रचुरपद्यवान्।।

इत्यादि से प्रमाणित होता है कि नाटक में क्षुद्रचूर्णक (गद्यभेद) होना चाहिए तथा बहुत से पद्य न होने चाहिए अतः अग्निपुराण-मतसिद्ध दृश्य काव्य मिश्र ही होता है।

अब श्रव्यकाव्य की साहित्याचार्य की कारिका तीन भागों में विभाजित करती है (जिसके अर्थ पर ध्यान न देने से ही ‘नरहरिचम्पूकर्ता’ चम्पू को दृश्य भी मानते हैं) वह यह है।

गद्यं पद्यं तथा गद्यपद्यं श्रव्यमितित्रिधा

गद्य,पद्य, तथा गद्यपद्य, जिस गद्यपद्य को साहित्यदर्पणकार श्रव्य भेद के अन्तर्गत लिखते है

(अथगद्यपद्यमयानि)

"गद्य पद्य मयं काव्यं चम्पूरित्यभिधीयते"

तथा टीककार तर्कवागीश महाशय ने भी लिखा है -

"गद्यपद्यमयानि श्रव्यकाव्यानीत्यर्थः भेदाः श्रव्यकाव्य विशेषाः"

उससे यह सिद्ध हुआ कि चम्पू दृश्य नहीं किन्तु श्रव्य ही होता है, मिश्र होने से ही दृश्यकाव्य चम्पू नहीं होता है।

संस्कृत में अद्यावधि चम्पूनामांकित जितने ग्रंथ देखने में आते हैं वे सब श्रव्य हैं तथा गद्यपद्यमय नाटक शकुन्तलादि चम्पू नहीं कहे जाते हैं, यह भी एक समुज्ज्वल दृष्टान्त है कि संस्कृत में अद्यावधि किसी नाटक को जो कि प्रायः गद्यपद्यमय होते ही हैं चम्पू नहीं कहते हैं। अतः अग्निपुराण के "मिश्रं वपुरिति ख्यातं" इत्यादि में जो मिश्र श्रव्य है अथवा जिसको साहित्याचार्य ने अपनी कारिका -

"गद्यं पद्यं तथा गद्यपद्यं श्रव्यमिति त्रिधा"

में श्रव्य गद्यपद्यमय माना है उसी को साहित्यदर्पणकार ने लिखा है कि -

"गद्यपद्यमयं काव्यं चम्पूरित्यभिधीयते"

तथा टीकाकार ने भी लिखा है (गद्यपद्यमयानि श्रव्यकाव्यानीत्यर्थः) इन प्रमाणों से यह सिद्ध हो गया कि चम्पूनामांकित गद्यपद्यमय श्रव्य-काव्य ही होता है तथा दृश्य जिसकी मिश्र प्रणाली ही है ‘चम्पू’ नहीं कहा जा सकता1।

अनन्तर, हिन्दी में चम्पूनामांकित प्रथम काव्य प्रयाग-निवासी पं. रामप्रसाद तिवारी ने बनाया है जो कि सन् 1876 ई. में इण्डियन प्रेस में मुद्रित हो चुका है जिसकी संक्षिप्त आलोचना पं. देवीदत्त त्रिपाठी नरहरि चम्पूकर्त्ता ने अपने चम्पू की भूमिका में किया है तथा पं. रामप्रसाद जी कृत नृसिंह चम्पू में अनेक दोष दिखाकर अपने ही नरहरि-चम्पू को चम्पू शैली का प्रथम ग्रन्थ माना है किन्तु वह संस्कृत के नृसिंह-चम्पू का छायानुवाद है तथा उसे न तो हम शुद्ध अनुवाद ही कह सकते न तो त्रिपाठी जी की उक्ति ही कह सकते हैं, अस्तु जो कुछ हो। इस उर्वशी में कथा के किसी-किसी अंश की छाया महाकवि कालिदास के विक्रमोर्वशीय त्रोटक से ली गई है, किन्तु उनकी किसी कविता का अनुवाद नहीं किया गया है। अपरञ्च, इसके गद्य भाग में प्रायः संस्कृत के शब्दों का विशेष प्रयोग भाषा की उत्कृष्टता मनोहरता के हेतु किया गया है क्योंकि यह संस्कृत की सहायता बिना नहीं हो सकता, तथा खड़ी बोली के प्रेमी महाशय गण अवश्य ही किंचित् असन्तुष्ट होंगे क्योंकि पद्य के सवैया आदि छन्दों में बृज-भाषा ही विशेष है, वस्तुतः इन छन्दों में खड़ी बोली का व्यवहार करने से उतनी मनोहरता नहीं हो सकती। प्रथम संस्करण होने से तथा प्रूफ-संशोधन के दोष से अशुद्धियाँ रह गयीं है। विद्वज्जनों से बाल्यरचना के हेतु क्षमा प्रथमही प्रार्थित है तथा त्रुटियों के हेतु मुझे चेतावनी देंगे जो कि द्वितीय संस्करण में शुद्ध कर दिया जायगा तथा अपनी कृपा दिखाकर मुझे दूसरा उपहार देने के हेतु प्रोत्साहित करेंगे। किमधिकं विज्ञेषु।

-------------------

1“श्रव्यकाव्य तीन प्रकार का है - गद्यपद्यात्मक, गद्यात्मक और पद्यात्मक। गद्यपद्यात्मक काव्य को चम्पू कहते हैं - जैसे रामायणचम्पू, भारत-चम्पू इत्यादि। नागरी में इस प्रकार का कोई अच्छा ग्रन्थ नहीं, लल्लूलाल के प्रेमसागर को यथाकथान्चित इस कक्षा में सन्निविष्ट कर सकते हैं।

- नैषध चरित चर्चा

कथामुख

कश्यप भगवान् के अदित्य देव को मनु नामक मानव-जाति-प्रथक उत्पन्न हुए, इनको इक्ष्वाकु आदि नवपुत्र तथा इलानाम्नी एक कन्या हुई1 जिसने कि सोमसुन्दर सौभ्य की प्रणयिनी होकर उन्हीं के वीर्य से पुरुरवा को गर्भ में धारण किया तथा जब वे उत्पन्न हुए तो शैशवाऽवस्था उल्लंघन करने पर चन्द्रवंशियों का प्रधान राजकेन्द्र प्रतिष्ठानपुर (झूसी) प्रतिष्ठित किया।

तथा, चन्द्रवंश के प्रथम राजा पुरूरवा ही हुए। एक दिवस मानव-मृगेन्द्र को मृगया खेलने की इच्छा हुई तत्काल ही अश्वरथ गजरथ तथा चतुरंगिणी सैन्य सज्जित कर -

सो. - कुण्डल कर्ण विलोल, वीरवलय भूषित भुजा।
कवच धारि अनमोल, मृगया खेलन सब चले।। 1।।

भु. प्र. - सजे सूर धारे दुधारे सुधारे।
गदा चक्र ओ शूल साँगी सँवारे।।
भरे गर्व से लै सुधन्वा, नुकीले।
लसै चारू नाराच तूणीर में ले।। 2।।
लसै लालिमा नेत्र में बीरता की।
चढ़ी मोछ पै ताव दै दै कमाँ सी।।
बढ़ी ओप दूनी दिपै चारु ओरै।
परै देखि भल्लावली खड्ग छोरै।। 3।।
सबै अस्त्र साजे चढ़े हैं तुरंगे।
चलैं चाल तेजै लजावैं कुरंगे।।
बजे सैन्य भेरी चढै ताव दूनी।
लजै है चमू इन्द्र की होय ऊनी।। 4।।

सो. - अम्बर छाई धूरि, चलत सैन्य नरनाथ के।
रहे सबै भयपूरि, प्रबल प्रताप पुरूरवा।। 5।।

एक बृहत्स्वर्णविनिर्मित किंकिणीजालमालित केतुपताकाविभूषित पार्श्वरक्षक, पृष्ठरक्षक, परिरक्षित रथ पर प्रजारंजन-प्रियदर्शन पुरूरवा आसीन हुए, अपरञ्च सब समूह के संग मृगया खेलते गन्धमादान की एक अधित्यका में पहुँचे, पुरूरवा के कर्ण में अकस्मात् स्त्रीगण का क्रन्दन सुनाई पड़ा। वीरप्रवर पुरूरवा ने तत्काल अरिप्रहास्यकारी कर में धनुर्बाण ग्रहण कर सूत को उसी ओर चलने को प्रेरित किया, कुछ दूर जाने पर एक पद्मिनीवन तीर पर पद्मिनियों का समूह दिखाई पड़ा, जो कि निज पद्मनेत्रों से अविरल जलधारा बहा रही थी, जिज्ञासा करने पर ज्ञात हुआ, कि वे अप्सरायें उस सरोवर में सलिलविहार कर रही थीं, अकस्मात् केशी नामक दैत्य उन सब की प्रिया सखी उर्वशी को उठा कर अभी-अभी ईशान दिशा की ओर ले भागा है। बिना विलम्ब के नरनाथ की आज्ञा से सूत ने रथ को उसी ओर प्रेरित किया, सुदूर जाने पर एक अशोक वृक्ष के तल शोकतुषारम्लान पद्ममुख अवनत किए हुए नैसर्गिक सौन्दर्यमयी बाला दिखाई पड़ी।

दो. - हरिन यूथ ते विलग जिमि, हरिनी होत विहाल।
चितवत चहुँदिशि चकित ह्वै, लोयन, कोयन लाल।। 6।।

तथा, जिसके समक्ष एक पर्वताकार दानव निज पैशाचिक अग्निस्फुलिंगों को विनिर्गत करने वाले नेत्रों से देखता हुआ विनय करता था, किन्तु बाला हेमपुत्तलिका समान स्तब्ध थी।

दो. - सुनि रथांग को शब्द वह, चन्द्रमुखी तत्काल।
चितयो दीन कटाक्ष सों, करत जु तुरत बिहाल।। 7।।

उसी सरल कटाक्ष की उन्मादक शक्ति से पुरूरवा तत्काल असि को कोश-विहीन करते हुए रथ से अवतरण करके उस दुष्ट दैत्य की ओर धावित हुए, वह भी उन्हें निज कार्य में बाधा डालने वाला देख कर खदिरांगार के समान नेत्र लाल कर धावित हुआ। नरनाथ ने तीव्र स्वर में कहा "दुष्ट स्त्रियों से क्या वीरता दिखाता है इधर देख” तत्काल ही उसने अपनी भयानक गदा का अचूक प्रहार इनके ऊपर किया, किन्तु रणचतुर नरनाथ ने हट कर एक ऐसा तीव्र असि प्रहार किया कि वह भीषण राक्षस धाराशायी हो गया। उर्वशी ने यह कृपा देखकर निज रक्षक की ओर विनीत भाव से देखते हुए धन्यवाद दिया, परन्तु उन्होंने हँसकर सुन्दरी से रथ पर बैठने का अनुरोध किया, सुन्दरी स्तिमित कटाक्ष करती हुई युवक नरनाथ के समीप रथ में स्थित हुई।

दो. - प्रथम मिलन के हेतु तैं, सकुचति पुलकति बाल।
ज्यौं समीर के परस ते, खिलत कदम्ब रसाल।। 8।।

अपरञ्च, पुरूरवा उर्वशी को लेकर अप्सराओं के समीप आए। उर्वशी सहित नरनाथ को मूर्तिमान रतिवल्लभ के समान देखकर अप्सराएँ अतीव हर्षित भंईं तथा सबने उर्वशी को कण्ठ से लगाया।

अनन्तर, सब अप्सराओं ने नरनाथ से आतिथ्य स्वीकार करने के हेतु अनुरोध किया, नरनाथ बाध्य होकर सेनापति को सेना लेकर स्कन्धावार में ठहराने की आज्ञा करके अप्सराओं की विहार भूमि नन्दनकानन की ओर गये।

***

ॐ नमः शिवाय

उर्वशी : प्रथम परिच्छेद

सोरठा - शम्भु नयन प्रतिबिम्ब, जयति शैलजा बदन पै।
राजत विधु के बिम्ब, मानहुँ नील कमलावली।। 1।।

कवित्त - रत्नमयी भूमि लगे हाटक के फाटक त्यों
चन्द्र के प्रकाश ते न दीपहु को काम है।
नन्दन के सुमन सुमाल गल बीच मञ्जु
सौरभ अगार बिहरत वरबाम है।।
परम प्रमोद में सकल सुर सुन्दरी
बिहाय के सँकोच करैं नित्य धाम धाम है।
रक्षित सुरेन्द्र सों उतुंग सोधमयी जहाँ
दुःख को न नाम सुरपुरी तासु नाम है।। 2।।

दो. - लोग बतावत चन्द है, पै नहिं मोहिं सुहाय।
नगरी तेज अमन्द को, मण्डल नरहिं लखाय।। 3।।

रो. - कहूँ निकुञ्जन में कूजत कोकिल कलबानी।
कहूँ उपवन ग्रह लता मांहि सारस की बानी।।
कहुँ सुरशिशुगण क्रीड़त है मालिनि कमलन ते।
कहूँ सुन्दरीगण गूँथत अलकहिं कुसुमन ते।। 4।।

रो. - बलित हेमबल्ली कलकुसुम सहित उपवन जहँ।
वलित लताच्छादित अराम मणि खचित अहै जहँ।।
अति उतुंग वातायन सौध ललित जहँ सोहैं।
सुरदम्पती दलबाँही दै जहँ मुनिमन मोहैं।। 5।।

दो. - निधुवन लीला निरत नित, पूरित जहँ कल-कुंज।
नन्दन चित-नन्दन अहै, उपवन सौरभ-पुंज।। 6।।

रो. - कहूँ लोल लतिका पर निरतत मधुकर मुदभरि।
मंजुमंजुजरी ते बरसत मकरन्द सुरस भरि।।
कहूँ प्रस्फुटित पाटल के प्रसून बर सोहैं।
कहूँ खिले कचनारन पै लालरी ललौहैं।। 7।।

रो. - कहुँ पुष्करिणी माँहि हेम-अरविन्द प्रफुल्लित।
मंजु भृंग बालाबलि लुरत चहुं दिसि इत-उत।।
कहूँ मालती-लता-कुञ्ज में स्फटिक शिला पर।
दैं गलबाहीं सुखासीन सुरदम्पती मनहर।। 8।।

रो. - कहूँ कामिनीगण मनमुदित अलापत रागहिं।
वीणा कोकिल कलरव लाजत भरिसुख साजहिं।।
सदा मालती सँग माधव बिहरत जहँ सानँद।
निदरत कृष्णकेलिकल-कुञ्जहि नन्दन भरिमद।। 9।।

रो. - मलयअनिल लहि नवमल्लिका परागहि सुख सों।
बहत सदा आमोद सहित नन्दन के रूख सों।
यक्ष कहूँ कोउ गावत कहुँ कोउ बीन बजावत।
कहूँ अप्सरा निरत नृत्य में रस बरसावत।। 10।।

इन्द्र नगर में नन्दनकानन एक अपूर्व मनोहर स्थान है, उसकी शोभा को शोभा ही कह सकती है; कहीं चञ्चल चञ्चरीक मंजुरसाल-मंजरी पर गूँज-गूँज कर मकरन्द का आनन्द ले रहे हैं; कहीं छोटे-छोटे मृगछौने कान उठाकर इधर-उधर अपने आयत दृष्टिपात करते हुए हरित तृणावली चर रहे हैं, कहीं कामोन्मत्त अप्सराएं सरोवर में अपने मुख से इर्षा करने वाले कमलों पर जल के छींटे डालकर उनको जलमग्न कर देना चाहती हैं, पर वे अपने गर्व से पुनः प्रफुल्लित पत्रावली सहित कमलनालों पर तन कर खड़े हो जाते है, उन्हीं में स्नान करती हुई कोई अप्सरा अपने अलकों को कमलावली पर विलुलित देखकर भ्रमरावली के भ्रम से चकित तथा भयभीत होकर, जलाप्लावित वस्त्रों को समेटकर बाहर निकलने को उद्यत हो जाती है।

सं. - गलबाहीं दै कोऊ कहूँ बिहरैं
सुरनारी कहूँ जल-क्रीड़ा करैं।
कोउ बीनत है कुसुमावलि को
कोउ तीखे कटाक्ष कटा को करैं।।
कोउ भावती नील सरोज से नैन
नचाइ के चाव बढ़ायो करैं।
कोउ मल्लिका की कलिकान सों माला
बनाइ के नाह के डारें गरैं।। 11।।

इसी नन्दनन्दन के लीलाकुञ्ज को तिरस्कार करने वाले नन्दनकानन के एक सघनाच्छादित मालती-कुंज में स्फटिक शिला पर सुखासीन दो व्यक्ति दृष्टिगोचर होते हैं, इनमें से एक तो शरत्चन्द्र-विनिन्दक-मुखारविन्द, आजानुबाहु, वृषभस्कन्ध, कमलनयन, युवा साक्षात् अंगधारी अनंग के तुल्य, विशाल धनुष पार्श्व में रखे हुए पृष्ट पर कराल स्वर्णपुंखितबाणों से पूरित तूणीर धारण किए हुए, एक सर्वांगसुन्दरी के कर कमल को अपने कर में लिए हुए निर्निमेष लोचनों से उसके मुख की ओर निहार रहा है, परन्तु यह कौन मनोहारिणी है ?

स. - चन्द्रकी वल्लरी चन्द्रकला सी
कि चन्द्रमा सी यह दीसत को है ?
नैन भये को किधौं फल हैं
किधौं मैन तरंग के पुंज सी सोहै ।।
कामिनी है किधौं काम नीके कर
आपने ही सों सुधार दियो है।
प्रात दिवाकर ! बालकलाधर !
काम कलाधर ! कामिनी को है ?।। 12।।

स. - ओछे उरोज पै चम्पई कंचुकी
तोरति अंग किये अरसोहैं।
गोल कपोलन पै अरुनाई
अमन्द छटा मुख की सरसोहैं।।
दीरघ कंज से लोचन माते
रसीले उनींदे कछूक लजोहैं।।
छूटत बान धरे खरसान
चढ़ी रहै काम कमान सी भौहें।। 13 ।।

स. - अलकावलि की बनी बेनी भली
गुथि के वर कुन्दकलीगन के।
चपलाई लखे दृगकंजन की
दबि जात गुमान सुमीनन के।।
दृग-चाप चढ़े गुन के बिन
देखि के बुद्धि भ्रमै है मुनीनन के।
लखि ऊँचे उरोजन पै अँचला
मचला मन होत मुनीनन के।। 14।।

अस्तु जो कुछ हो देखिये वह युवा उस सुन्दरी के कण्ठ में हस्तदाम डालकर क्या कह रहा है - "प्रिये ! तुम धन्य हो, और नन्दन। तुम्हारे विहरण से धन्य हो रहा है" अहा! कैसा आनन्ददायक दृश्य है -

रो. - सरसकुसुमित मल्लिकादिकहरिततरुगन चारु।
मंजुमधुकर पुञ्जगुंजित मधुहि चाखन हारु।।
झहरि झरि परिमल परसि हिय देत आनँदपूरि।
विकसि अरविन्दन झरैं सर में कुसुमकर धूरि।। 15।।

रो. - सनी स्वेद पराग सों बसि मञ्जुमालति कुञ्ज।
ललितबेलिकँपाइ मुदभरि हिये मधुकरपुञ्ज।।
यदपि है यह पुण्यभूमि लहै न चित्त विकार।
श्रवण में तउ फूँकि मनमथ मन्त्र देत बयार।। 16।।

सुन्दरी स्निग्ध कटाक्ष करती हुई बोली - "जी हाँ, मन्मथ ! आपके गुरु अब आपके श्रवण में मन्त्र फूकेंगे। अनन्तर आपके चित्त में विकार होगा, तो कृपया मुझको आज्ञा दीजिए"- इतना कहकर सुन्दरी अर्धोत्थित हुई थी, कि युवक सजलनयन अञ्जलिबद्ध होकर कहने लगा - "प्रिये ! इतना कटाक्ष शर सहने को हमारा हृदय असमर्थ है” -

सो. - प्रेम-पाश गल डालि, क्यों खींचत जन दीनको।
प्रिये कण्ठ भुज डालि, मैनपीर खींचहु तुरत।। 17।।

युवक इतना कह रहा था, कि दूर से आती हुई एक युवती को देखकर सुन्दरी कुछ सकुच कर खड़ी हो गई, और कहने लगी - "जीवनधन ! प्राणनाथ ! वह देखो, कमला चली आ रही है ज्ञात होता है कि मुझी को बुलाने आई है, प्रिय ! अब इस चन्द्रमुख का दर्शन कब होगा ?"

युवक निज हृदय का वैकल्य दिखाता हुआ कहने लगा "हाय ! विधाता ! प्रियतमा के मुखावलोकन का आनन्द-विशेष हमारे भाग्य में नहीं है। प्रिये ! हम प्रभात ही प्रतिष्ठानपुर जाने के हेतु उद्यत हो चुके हैं, और सुरेन्द्र से आज्ञा भी मिल चुकी है, अब क्या कहूँ जैसी तुम्हारी और निर्दय दैव की इच्छा।"

सुन्दरी इतना सुनते ही निज अरविन्द-परिहासकारी नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहाने लगी, अनन्तर बोली -

"प्राणनाथ ! आप इसको पूर्णतया जानते हैं कि मैं परवश हूँ तथापि कृपया इस दासी को विस्मरण न कीजियेगा बस यही हमारी हार्दिक प्रार्थना है, इसको निश्चय जानिये कि हम और हमारा तन,मन, यह सर्वस्व आपका है।"

"प्रिये ! विशेष क्या कहूँ कालचक्र की कुटिल गति है।" युवक ने कहा -

दो. - बसि सरोज रस लेन को सन्ध्या समय मलिन्द।
रवि अथवत सम्पुटित भो उड़ि न सक्यो परिफन्द।। 18।।
रैन जाइहै उदय पुनि सुर होइहै प्रात।
सोचि रह्यो अलि वारनहि कमलहि देख्यो खात।। 19।।

"अच्छा प्रिये ! अब सन्ध्या की सन्ध्या करना आवश्यक है, अतएव इस समय विदा माँगता हूँ, पुनः सुरेन्द्र की सभा में एक बार आपका दर्शन करूँगा।"

उर्वशी ने दीर्घ निःश्वास लिया परन्तु साथ ही युवक के मधुर अधरों ने उसे रोक दिया, और वह युवक एक ओर नन्दनकानन के पार्श्व में चला गया।

इतने समय तक वह युवती दूर खड़ी थी, अब समीप आई, परन्तु इन युगल प्रेमी के मधुर प्रेमाप्रलाप को सुन चुकी थी, अतएव सुन्दरी के कोमल कपोल पर कर कमल से चुटकी लेकर बोली "रानी ! प्रेम के पाले पड़ी" - चलो सुरेन्द्र ने आज तुमको नृत्य के लिए शीघ्र आवाहित किया है। आज इस राजर्षि की बिदाई है, उसी के उपलक्ष्य में राग-रंग होगा। अब क्या रूप दिखा कर तो वश में किया ही था आज गुण दिखाकर प्रेमपाश में बाँध लेना, अरे विशेष क्या कहना है तुम तो उनके - "उर-वशी" - हो, परन्तु उर्वशी जो कि अब तक आपे में न थी, एक बार इषत्-हास करके उसकी ओर देखा, और धीरे से एक हस्तप्रहार उस युवती के कपोल पर किया और उसका कर नन्दन के दूसरे पार्श्व की ओर चली गई।

उर्वशी : द्वितीय परिच्छेद

स. - मोदभरी सुकुमोदिनियाँ, हुलसै
लगीं देखि दिवाकर लालिमा।
लागे उलूक चितौन चहूँ दिशि
लै लै पराग उड़ै लगे आलिमा।।
बाल वियोगिनी पीत कपोल सों
इन्दुकला दरसाई अकास मा।
कञ्ज सँकोचि लगे मुरझान,लगी
चकई को वियोग की कालिमा।। 20।।

धीरे-धीरे सन्ध्या की अँधियारी निज आवरण से जगतीतल को अवगुष्ठित कर रही है। और इधर पीतमुख-सुधामुख अपनी सुधाकिरणों से धरातल को परिवेष्टित करने के मिस से औषधियों को सुधासिंचन से सुधाफल देने वाली बनाने लगा है। अहा !

स. - सन्ध्या सुबाल की भालमणी, किधौं-
ताराहरा की सुमेरु-मणी है।
अम्बर के सर शुभ्र सरोज
खिल्यो री पसारि के पत्रावली है।
मैन महीपति को वर छत्र कि
काम कटोरी सुधा सों भरी है।
चन्द्रिका चारु पसारत है यह
चन्द्र किधौं शुचि चन्द्रमणी है।। 21।।

पक्षीगण अपने पथ से विपक्षी हो चुके है, वियोगिनीगण विरजनी रजनी के पैजनी शब्द तुल्य नालिनमकरन्द से मत्त मधुकरनिकर के आनन्दोल्लास को सुनकर पुष्पधन्वा के धनुष्टंकार-शब्द का अनुभव करती हुई व्यथा से अश्रु-वर्षण करने लगी हैं, आकाश के झरोखे से अन्धकार के आवरण का अनुसंधान करते हुए कृष्णाभिसारिका की नाईं तारागण कहीं-कहीं झाँकने लगे हैं।

धवलाज्योत्स्ना, सुप्रतिष्ठित प्रतिष्ठानपुर के श्वेतपाषाण विनिर्मित सुविशाल राजप्रासाद पर निज अधिकार कर चुकी है। राजप्रासाद में एक सुविस्तृत हर्म्य है, जिस पर वही पूर्वकथित युवा राजकीय परिच्छद से आच्छादित, मणिखचित सिंहासन पर अमूल्य मणिमाणिक्य-जटित मुकुट धारण किये हुए उदासीन आसीन है।

यही इस वीरभोग्या वसुन्धरा के चक्रवर्ती सम्राट् है; प्रताप और बल सब में सम होने के कारण बुध लोग पुरूरवा और पुरुहूत नाम के "रवा" और "हूत" के भेद से नरेन्द्र और सुरेन्द्र को भिन्न मानते हैं।

इनका अन्तरंग मित्र तथा, प्रधान सचिव विजयसेन भी पार्श्व में दण्डायमान है, परन्तु महाराज का मुखमण्डल उदासीन है अतएव परिहासप्रिय विजयसेन भी इस समय मौनव्रतालम्बन लिये हैं।

किंचित्कालोपरान्त महाराज के मुख से एक दीर्ध निःश्वास के साथ ही चक्षुकोण में जल बिन्दु दिखाई दिये, जो कि चन्द्र-ज्योत्स्ना से ध्वलित होने के कारण गिरने के समय में चन्द्रमण्डल से तारापात का दृश्य दिखाते थे। विजयसेन से न रहा गया अतएव अकुला कर बोले, "राजन् यह अश्रुवर्षण क्यों है ? कृपया इस दुष्टमेध का निवारण कीजिये, और कहिये वह क्या है जो महाराज को अलभ्य है ?" पुरूरवा ने दीर्घ निःश्वास लेकर कहना आरम्भ किया -

रो. - "अरविन्द पै लखि खंज एक सुराज पावत रंक।
कहत हैं यह लोग नित निरधारि मानि अशंक।।
हाय हम खंजन युगल लखि कंज मुख पै आज।
प्रेम जाल परे, व्यथित-हिय होत है बिन काज।। 22।।

हाय !

सो. - अमल चन्द्र-मुख चारु, नैन खंज-गंजन कुटिल।
रस-सिंगार को सारु, "उर-वशी"! उरबसी।। 23।।

इतना कहते-कहते महाराज के नीलनयन युगन चन्द्रमा के उज्ज्वल-मण्डल में निज नीलिमा प्रसारित करने का उद्योग करने लगे, कि अकस्मात् उस सकलंक शशिमण्डल में से एक निष्कलंक चन्द्र नीचे खसकता हुआ दिखाई पड़ा, मानो महाराज का दृष्टिसूत्र चन्द्र का सारांश खींच रहा हो। किंचित्कालोपरान्त उसी सुविशाल हर्म्यकोण में आकर वह चन्द्रांश का असामान्य सुन्दरी के रूप में परिवर्तित हो गया, क्रमशः वह मूर्ति आगे बढ़ने लगी, इधर महाराज चकित होकर सिंहासन से उतरकर उस सुन्दरी की ओर धावित हुए तथा समीप, जाकर उस पूर्णचन्द्र की अंकावगत किया। प्रेमोद्दीपक चन्द्र के निरखने से महाराज के ऊपर कम्प, अश्रु, स्वरभंग, रोमांच इत्यादि संचारीगण ने अपने संचार का आवरण किया, धीरे-धीरे संयोग में भी वियोग की नवमावस्था मूर्च्छा का अधिकार महाराज पर हुआ। तत्काल ही आकुल होकर सुन्दरी ने कमला को आवाहन किया, उस कोकिल विनिन्दक कण्ठस्वर को सुनते ही उसी क्षण एक युवती ने उस अपूर्व रंगभूमि में प्रवेश किया, अपरंच सुन्दरी ने विजयसेन, युवती इत्यादि की सहायता से, महाराज को ले आकर सिंहासन पर शयन कराया।

अनन्तर वह सुन्दरी पार्श्व में स्थित हुई तथा आकुल होकर उपचार का उद्योग करने लगी -

स. - कंज मुखी लखि कंज सँकोच
सुसोचन ते मन पीर मरोरत।
दै पिचुकारी गुलाब के आब की
केस सने ते सुगन्ध झकोरत।
लै निज पीतम को मुख अंक में
राखि कपोल अमोल निहोरत।
मानह मूरछा को लखि के विधु
वा मुख में ज्यों सुधाहि निचोरत।। 24।।

स. - मूरछा देखि के प्यारे सुजान की
व्याकुल बाल सँजोवती है।
बारहिबार सुवारि भरे दृग -
यन्त्रन ते मुख धोवती है।
दीरघ श्वास बगारि के त्यों
मलयानिल ते मुख गोवती है।
प्यारे मिलाप की मूरछा ते
मन ही मन मोहिनी रोवती है।। 25।।

किंचित्कालोपरान्त महाराज की मूर्च्छा भंग हुई, अपरंच उठ कर बैठे। अब तो सुन्दरी को असीम आनन्द हुआ, उसके विषादाश्रु आनन्दाश्रु में पलट गये, किंचित्काल तक दोनों स्तब्ध, नीरव तथा शान्त रहे, उपरान्त इसके पुरूरवा ने शून्यता भंग की, तथा बोले-

स. - पूरन या मुखचन्द चितै इन
नैन चकोरन ने सुख पायो।
आजु उदै भयो मों सुखचन्द
सुपूरब पुन्यन को फल पायो।
प्रान प्रिये ! मम नैनन मों बसि
प्रेम की गाँठ हिये में बँधायो।
आजु हिये भरि लाइ हिये हम
चाहत प्रेम की गाँठ छुड़ायो।। 26।।

प्रिये -

स. - तेरेई रूप सरोवर मों दृग -
कंज हमारे सुमज्जन कीन्हें।
मत्त मनोभव राम के जाल में
मों मन मीन बसेरों है लीन्हें।
कान में तान सुमोहिनी सी बसि
मों बुधि इन्द्रिन को बस कीन्हे।
आजु तुम्हैं पुनि यों लखि कै
भुजहूँ भरि चाहत अंक मों लीन्हे।। 27।।

स. - नेकु कृपा करि कोर फिरी इतै
कोर फिरी तो तुम्हैं लखि पायो।
चन्द्रमुखी ! सुनु मों मन चन्द्र
सुधासर में पुनि मज्जन पायो।
नेकु दया करिकै कहिये यह
आजु कृपा की प्रथा कहँ पायो।
बान सों बेधि के कोउ अखेट को
आजु सिकरी दया हिय लायो।। 28।।

अनन्तर उर्वशी सलज्ज कटाक्ष करती हुई बोली, "बस - बहुत हुआ, कुछ दूसरे दिवस के हेतु रहने दीजिये।"

तदनन्तर युवती ने कहा -"जी हाँ, रहने के लिये तो आपका शुभागमन हुआ ही है, सरस्वती तो आपकी सिद्ध है.............." वह और कुछ कहना चाहती थी कि उर्वशी ने उसके मुख पर अपना कर कमल रखकर रोक दिया तथा किंचित् भ्रुविलास करके निर्लज्ज इत्यादि शब्द से उसकी उपमा दी।

इस रव ने पुरुरवा के कर्णकुहर में विचित्र ध्वनि उत्पन्न की, बस उन्होंने तत्क्षण ही प्रश्न किया -

"कमले ! इनकी सिद्धता का सविस्तर सुचरित सुनने के लिये हमारा चित्त उत्सुक है, वह क्या है ? तनिक कहो" - अब तो उर्वशी के सहस्रशः वर्जन करने पर भी कमला ने कहना आरम्भ किया -

"आपके आने के पश्चात् सुरेन्द्र की सभा में "लक्ष्मी परिणय" एक नूतन अभिनय हुआ था, उसमें आपकी "उरवशी" को लक्ष्मी का अभिनय करना पड़ा, परन्तुः -

सो. - प्रेम ! अनूपम जाल, मैन सिकारी हाथ में।
मूरख होत बिहाल, सुरझ्यो चाहत अरुझि के।। 29।।

बस उसी समय अचानक इनकी प्रेमसूत्र में बँधी हुई रसना ने ‘पुरुषोत्तम’ के स्थान में ‘पुरूरवा’ शब्द का प्रयोग किया, सिद्ध-सरस्वती ने अपना प्रभाव पुरूरवा शब्द पर डाला, सो पुरूरवा के रव ने पुरुहूत के हृदय में चांचल्योदय किया, उसी क्षण इनसे अमनस्य का कारण पूछा गया, अनन्तर इन्द्र को अतिशय इच्छुक देख कर हमने आद्योपान्त (असुर से इनका हरण किया जाना, और आपका इनको मोक्ष देना इत्यादि) समस्त सुनाया, योगाभ्यास की शक्ति से सुरेन्द्र ने सत्यता की चरम सीमा का अन्वेषण किया, उपरान्त बोले "अहो! पुरूरवा ऐसा ही है कि हमको भी समय पर उसकी सहायता आवश्यक होती है, अतएव मित्र को मित्र का कार्य करना उचित है, सो उर्वशी ! तुम मृत्युलोक में जाकर उस राजर्षि को अब..." इतना कह रही थी, कि उर्वशी ने निज चंचल दृगकोरों से वर्जन किया, तदुपरान्त कुछ संभल कर कमला पुनः बोली "...हाँ राजर्षि को प्रसन्न करो।"

इतना सुनने के समय तक तो महाराज सुधासर में गोता लगा रहे थे, तथा समय-समय पर अनेक भाव उनके मुखमण्डल पर लक्षित होते थे - परन्तु अब अकस्मात् आनन्दोद्वेग से उन्मत होकर महाराज ने उर्वशी के मनोहर अंगों का गाढालिंगन किया।

स. - बीती निशा दुख की, सुख सूर
उदै भयो चारु, मिले पुनि दोऊ।
आनँदसिन्धु समात हिये नहिं
भूलि गये सुबिती हुती जोऊ।
छाकि भले अधरासव को
रसमत्त भये मदमैन में दोऊ।
दोऊ दुहूँ की करैं मनुहारि
निरेखत हैं मुख दोऊ को दोऊ।। 30।।

उर्वशी : तृतीय परिच्छेद

स. - प्यारी निशा को भयो सुख प्रात
दिनेश उदै भये मानो मनी को।
कै रतिकामिनी को भरयो लाल
सुहाला ते प्याला है नीलमनी को।।
प्राची दिशा वरबाल के भाल में
लाग्यो गुलाल को मंगल टीको।
खेलि के होरी निशंक निशा ते
मयंक कढ्यो हुलसाइ कै जी को।। 31।।

प्रभात के समय प्रकृति का विचित्र परिवर्तन] मानव प्रकृति पर कैसा प्रभाव डालता है, अहा ! यह परिमल-पूर-प्रभंजन प्रमोद का मूल है -

स. - विकसाइ रसाल की मंजूरी को
अरुझाइ मिलिन्दन को रस मै।
हिय लाइ भली कलिकान हिये
भरि देत खिलाइ करै बस मै।
अति लोल लजीली लता ललितान
ते कुंजन में करि केलि रमै।
मकरन्द प्रसेद सों सिक्त कलेवर
कामी प्रभात को वायु भ्रमै।। 32।।

भगवान मरीचिमाली निज स्वर्णमरिचि द्वारा धरातल को सींच रहे हैं। सहस्त्राक्ष से इर्षा करने वाले सहस्त्रपत्ररविन्द सरोवर के सुखसलिल में क्रमशः किरणगण के संग अपने पत्रों को प्रसारित कर रहे हैं।

सुखद समीर निज मन्द-मन्द गजगमन से मकरन्द दान करता हुआ गिरिश्रंग तथा वृक्षों पर पड़ती हुई भगवान भुवन-भास्कर की काँचनीय किरणों के साथ कल्लोल करता हुआ उनको विचलित करने का उद्योग कर रहा है।

जम्बीर, जम्बू, खर्जूर, तालीस, पनस, पलाश, निम्बू, कदम्ब, सहकार, अर्जुन, केतकी तथा नीप, तरुगण की शाखा पर आसीन पक्षीगण निज मृदुल कण्ठ से प्रभात का यशोगान कर रहे हैं, सुमनगन्ध से मत्त मातंग के समान गन्धमादनगिरि की एक रमणीक उपत्यका में, बकुल वृक्ष के तल स्फटिक शिला पर बाल-विभाकर-रश्मि के संग चमकते हुए वनविहार-प्रेमी उर्वशी और पुरूरवा सुखासीन हैं, समीप ही में एक निर्झरिणी झर-झर शब्द करती हुई प्रवाहित है, जल में रहने पर भी रज सहित राजीव भृंग-गुंजार से दोलायमान होता हुआ, समीरण को मकरन्द से भर रहा है। पुरूरवा सानन्द सुन्दरी का मुख चुम्बन करते हुए बोले, प्रिये ! देखो तुम्हारे शुभागमन से इस वन्य भूमि की कुछ विचित्र दशा हो रही है -

अहा !

भु. प्र. - कहूँ भृंग-गुंजार अम्भोजिनी में।
कहूँ मान कल्लोल शैवालिनी में।।
विहंगावली नृत्य कल्लोलकारी।
सुकूजै करै केलि दे कीलकारी।। 33।।
चहूँ और कादम्ब जम्बीर जम्बू।
रसालौ तमालावली चारु निम्बू।।
लुरैं लोल लोनी लता फूलफूली।
हरी-पत्रिका कुंज सोहै दुकूलो।। 34।।

त्रो. - चहुँ ओर लखात लता लतिका।
कुसुमावलि ते रहि पूरि धरा।।
मनु बीती निशा लखि सूर उदै।
मद छाड़ि उडूगन भूमि परै।। 35।।

अपरंच इस नदी में -

त्रो. - नव नीरज नील लसै विकसै।
प्रतिबिम्ब परे जल नील लसै।।
जमुना मनु नैन हजारन ते।
सुनिहारत है पितु को सुख ते।
सुनिहारत है पितु को सुख ते।। 36।।

त्रो. - लखु प्रानप्रिये! तुमको लखि कै।
विकसाइ दियो तरु फूल धनै।।
सु मनो निज नैनन ते भरि कै।
तव रूप मरन्द चखैं भरिकै।। 37।।

त्रो. - मकरन्द पराग प्रसेद सने।
तजि चारू सरोवर कञ्ज खिले।
मुख मञ्जु अमोल लखे तव ये।
भ्रमरावलि दौरि लुरै अतिसै।। 38।।

क. - ललित लवंग एला लवली लतान लोनी
सहित सुमन मन मोद के सुहेत हैं।
बहत बयार स्वच्छ परिमल पूर करि
डारन ते मुदित कलोल रस लेत हैं।।
नीलमनि मानिक सुमरकत के आलबाल
परि प्रतिबिम्ब पुष्प रंगबहु लेत है।
चाखि मकरन्द मुखरित मधुकर मानो
फूलन सो फूल को सँदेसो कहि देत हैं।। 39।।

पुरूरवा कुछ और कह रहे थे कि अकस्मात् उर्वशी निज उरोज-सरोज पर सरोज सम्पुट के आघात से चौंक उठी, पुरूरवा के नैन, प्रिया के नील-नीरज-नेत्रों को तामरस रूप धारण करते हुए, तथा उनमें अपमान सूचक जल बिन्दु का आभास देख कर, आरक्तिम हो गये। इधर दृष्टिपात किया तो सामने कुछ दूर में एक युवा अस्त्र-शस्त्र सज्जित इषत्-हास करता हुआ खड़ा है। तत्क्षण तड़िल्लता के समान असि को कोश-धन से बाहर करके, पुरूरवा उसी ओर बड़े वेग से धवित हुए, परन्तु युवा नीरव तथा निस्तब्ध! समीप पहुँचने पर पुरूरवा ने कुपित, कम्पित तथा तीव्र स्वर से प्रश्न किया - "पामर ! तू कौन है ? जो अपनी मृत्यु को आपही बुलाता है ?"

युवा उसी भाव से बोला - "अहा! क्या आप ही यमराज हैं, अस्तु जो कुछ हो, यह बताइये ऐसी कौन अवज्ञा उपस्थित हुई है जो आप इतने कुपित हो रहे हैं ?"

पुरू. - तूने सुन्दरी के ऊपर क्यों सुमन प्रहार किया ?

युवा --(हँस कर) देखिये कहीं सुकुमारी पद्मिनी को पद्मकोरकाघात से मूर्छा तो नहीं आई, अरे कहीं आपके सुमन को सौरभ लेने के मिस से समीकरण उड़ा न ले जाय" -इतना सुनते ही नरनाथ क्रोध से उन्मत्त होकर - "सावधान" - कहते हुये असि प्रहारोद्यत हो गये, उसी समय युवा भी अपने सुदृढ़ हस्त में असि ग्रहण करके युद्ध में सन्नद्ध हुआ, परस्पर घात-प्रत्याघात आरम्भ हुआ।

दोहा - भरेक्रोध-जल जलद-जुग, भिरत करत आधात।
विज्जुलता सी असि युगल, लपटि लपटि छुटि जात।। 40।।

कुल काल तक विषम युद्ध हुआ, परन्तु युगल गजराज की तरह हटते ही नहीं थे, अकस्मात् एक तूर्यनाद बड़े वेग से हुआ, शब्द के सुनते ही यह युवक एक विद्युत-पुंज की नाई चमक कर जो स्थिर हुआ, तो युवा के स्थान में मूर्तिमान अनंग के समान सुन्दर सुरेन्द्र खड़े हुए स्मित कर रहे हैं। पुरूरवा यह विचित्र कौतुक देखकर चकित तथा चित्रित के समान स्तब्ध होकर बद्धाञ्जली करके कहने लगेः -

"सुरेश ! यह क्या ? विचित्र ! आपने क्या दिखाया? धन्य ! आपने माया दिखाकर हमको दोषभागी किया, कृपया हमारा अपराध क्षमा कीजिये।"

सुरेश - (हँसकर) कुछ नहीं, मित्र। यह तो आपकी परिक्षा थी, तथा साथ ही अपने चित्त का आमोद।

पुरूरवा - ऐसा परिहास करना देवेन्द्र को उचित नहीं है, तिस पर एक तुच्छ मनुष्य से, धन्य!

सुरेन्द्र - अत्युत्तम, अब शिक्षा रहने दीजिये, आपकी उर्वशी कहाँ है ? -

इतना कह कर प्रेम के आवेग में पुरूरवा के कण्ठ में हस्तदाम डाल कर परिचित बाल-बकुल पादप की ओर चले, परन्तु वहाँ ‘उर्वशी’ की छाया भी नहीं थी, अपरंच पुरूरवा जो उधर देखने लगे तो इधर इन्द्रदेव भी अलक्ष्य।

उर्वशी : चतुर्थ परिच्छेद

प्रखर किरण-माला-विभूषित भगवान भुवनभास्कर निज जाज्ज्वल्यमान रथ लिये हुए, सुनील स्वच्छ गगन मध्य विश्राम के हेतु स्थित हुए हैं। तथा इधर अश्रु सुधा बरसाता हुआ, प्रजाकमलिनी-शशि पुरूरवा अशोक-पादप-तल आसीन है।

प्रिया-विरह में दग्ध होने पर भी दीर्ध निःश्वास के साथ नरनाथ के नेत्र-नीरज से बारम्बार अश्रुधुनी निकल रही है।

पुरूरवा एक रसाल की डाल पर बैठे हुए तरूण-कोकिल का कलरव सुनकर उसी ओर देखते हुए कहने लगे: -

स. - "शोक समूह अशोक लखात
रसाल की थाल सुज्वाल सी लागत।
किंसुक औ कचनार की डार मैं
फूल खिले ये अँगार बगारत।
कूकिकै क्वैलिया क्रूर कुरूप री
हाय ! हिये को छटूक कै डारत।
प्रानप्रिये ! विरहाग में तेरे
अनंगहू आय हमैं ललकारत।। 41।।

क. - "अमल कपोल वेई झलकि-झलकि उठैं,
वेई कल कुण्डल झलकि उठैं हिय में।
कानन में बोलनि सुकोकिला कलाप ऐसी,
गूँजि गूँजि उठत सने हैं जे अमिय में।
वेई चख चंचल की चलनि चितौनि चारू,
चुभि रही नेकु ना निकरि सकै जिय में।
मेरे अँधियारे हिय-धन बीच प्यारी ! तेरी,
विजुलीसी हँसी चमकत छिन-छिन में।। 42।।

क. - आलस वलित नैन नील अरविन्द की
लजीली चितवन ते चितैबो चारू चाय के।
मुरि मुसुक्यान बतराइबो मधुर बंक,
भौंह को नचाइबो चढ़ाय अनखाय के।।
अलकावलि भारते सुलंक की लचक,
कल किंकिनि झनक में रह्यो है नरमाय के।
चित्त में चुभी है मैन-मोहिनि सी मूरति प्यारी
निकरि ना सकत है जौ कहूँ ते भरमाय के।। 43।।

(कुछ ठहर कर, तथा उन्मत्त के समान) आह। हमारे विरह समुद्र की एक आशा ही नौका है, प्रिया-वियोग-दिवाकर-तप्त-मरु में एक आशा-तरु ही हमको आश्रय-दायक है। ये वन्यवृक्ष किसी अर्थ के नहीं, वरन् विपरीत-फलदायक है। जगदीश! इस प्रेम-कानन से तू ही उबारने वाला है -

बरवै - हाय ! कहाँ आयो मैं एहि बन माँहि।
एक यहै तरु दूजी छाया नाँहि। 44।।
हाय ! न या बन तृनहूँ कहूँ दिखात।
जोऊ है सो नित प्रति सूखत जात।। 45।।
हा रस-मेघ ! द्रवत वारि क्यों मीत।
आशा-लता निरखि हम होत सभीत।। 46।।
रात दिवस सब एक सम लखत न भेद।
जादू सम जग दीसत हा! अति खेद।। 47।।
काह करूँ कित जाऊँ कछु न दिखाय।
हाय ! हाय ! जक लागी कहँ प्रिय बाय।। 48।।
तपन ताप सों सब तन झुरसत जाहि।
छाले पड़िगे सोचत चित्त पदमाँहि।। 49।।
अहा ! प्रेम-देव ! धन्य !

प्यारी के दृग में बनि तीखो सान।
पहिले मरयो मेरे हिय में बान।। 50।।
भरो हलाहल कारो पुतरिन माहँ।
गोली बनि बेधत हिय मिलत न छाहँ।। 51।।
कारी लाँबी लट में बनि के फाँस।
फाँसत है तहँ तेरी ही है बाँस।। 52।।
हाय ! अरे वा सुधा-सनी मुसुक्यान।
अधरन में बनि बस दामिनी समान।। 53।।
अरुनाई जो झलकत बीच कपोल।
तेरोई प्रतिबिम्ब लखै चित लोल।। 54।।
अब जान्यो मैं तेरी छलबल चाल।
बहु रूपन तें करत हिये में साल।। 55।।
तोहि न आवत दया सुहिया कठोर।
विरह तपावत अंगहि निशि अरु भोर।। 56।।
राजकुमारी कुँवर, बिबुध गन्धर्ब।
नर, किन्नर, यक्षादिक, खर्बा-खर्ब।। 57।।
तेरे तीरथ में करि मज्जन आसु।
भये तृप्त नहिं कबहुँ बुझ्यो न प्यास।। 58।।
कण्ठ-विगत किय प्रानहि दीनहि कूर।
अपने जन को मारत बनिकै सूर।। 59।।

हाँ। प्रेम ! हमारा प्रेमभाजन कहाँ है ? (आकाश की ओर देखकर) सुरेन्द्र ! यह छल मित्र से ही किया जाता है ? (आवेग ये) नहीं-नहीं; सुरेन्द्र होकर असुरेन्द्र की क्रिया नहीं कर सकते, विधि ! तुम्हारी कैसी विडम्बना है ? (ठहर कर) आह ! अब यह मुकुट और धनुष किस सुख के लिये..."

इतना कहते-कहते दीर्घ निश्वास के साथ मुख से - "उर्वशी!" बहिर्गत हुआ तथा नरनाथ मूर्छित होकर धरातल पर गिर पड़े। कुछ काल के उपरान्त जब तन्द्रा टूटने लगी तत्काल ही मधुर मन्द-मन्द एक गान-शब्द समीरण के साथ पुरूरवा के कर्ण-कुहर में, तथा कपोल पर टकराने लगा। पुरूरवा की तन्द्रा टूटी, समीप में ही एक नीलवसना सुन्दरी निम्नलिखित पद्य गाती हुई दृष्टिगोचर हुई -

मधुर मन्द मकरन्द पूर हे, मारुत दुख को जान रे।
प्यारी-जीवन-मूल लला को, देहु उठाय सुजान रे।।
खान पान छूट्यो है निसदिन, व्याकुल रहत सुप्रान रे।
चन्द्र बिना नीरज यह मुरझै, अद्भुत बात न जान रे।।
निज विधु मण्डल को नहि पावत, छाया लखै अजान रे।
अश्रु-सरोवर में चकोर-जुग, करत रहत है स्नान रे।।
मधुर मन्द मकरन्द।। 60।।

गान समाप्त होते-होते पुरूरवा उस सुन्दरी के समीप पहुँच गये। समीपस्थ नरनाथ को देखकर सुन्दरी ने कथनारम्भ किया -

अहो पथिक ! यह सोई उपवन कुंज।
जामें भूलि धरे नहिं पग अलि पुंज।। 61।।
चित्त-कल्पना अलि-सम मत गुंजार।
यह तरु में नहि होत सुकुसुमित डार।। 62।।
चन्द्र वहै यह अहै लखै न चकोर।
कमुदिनि विकसित होय न लखि यहि ओर।। 63।।
सूर चन्द्र कछु भाखत बनत न आहि।
देखे नलिन सुनलिनीहू मुरझाहि।। 64।।
यह वह चुम्बक अहै जो निजतैं दौरि।
लपटत लोहा के सँग अति बरजोरि।। 65।।
यह श्रृंगार अहै वह रहै नाहिं जहँ भेद।
भेद रहै जदि, तासु बढ़ै अति खेद।। 66।।
अलंकार यह वहै रहै धुनि-हीन।
यह वह नवरस अहै जो सब रस-छीन।। 67।।
यह उपवन में रहै वायु कहुँ नाहिं।
या मारुत के लगे कली मुरझाहिं।। 68।।
यह वह श्रमशाला अहै रहै जौ सून।
सून रहै पै कलरव नितप्रति दून।। 69।।
प्रेम चक्रवर्ती राजा के राज।
हाय! दुहाई सुनी जात नहिं काज।। 70।।
ह्वै प्र्रसन्न कोऊ को देहि इनाम।
काम न आवै रहै न जग ते काम।। 71।।
मन-मानिक-मनि बेचै, चहैं जो दाम।
लौह दाम गल पड़े लहै न छदाम।। 72।।
हिये राखिये धीरज सहिये पीर।
आशा और निराशा, नैनन नीर।। 73।।
प्रियहि चहौ तौ सीखौ जलज-सुरीति।
रहहु सदा रस-आकुल चाखहु प्रीति।। 74।।
पथिक! धीर धरि चलिये पथ अति दूर।
ह्वै कटिबद्ध सदा सनेह में चूर।। 75।।

स. - नलिनी बलि चाहत है रवि को,
निशि बीततही तेहि पावत है।
टक लावै चकोर ‘कलाधर’ पै
तेहि को मुखचन्द दिखावत है।।
चित्-साँच को चाहो तो साँचो सुनो
कमलासन को नर पावत है।
परमेश्वर साँचे सनेहिन को
मिल्यो चाहिए ताहि मिलावत है।। 76।।

पुरूरवा - किन्तु उसका कुछ उद्योग भी तो होना चाहिए ?

इस पर वह सुन्दरी कोई अवगुण्ठित-वस्तु पुरूरवा के कर में देकर, जब तक वे उसे उत्कण्ठित दृष्टि से देखें, तब तक अदृश्य हो गई, नरनाथ ने उस वस्तु को देखा तो उनको स्वर्ण-मंजूषा में पत्र के साथ एक चमकती हुई वस्तु न दिखायी दी, वे चकित होकर उस पत्र की ओर, पत्र के समान कम्पित हृदय को सावधान करके दृष्टिपात किया -

उसमें लिखा था -

सुहृद्वर ! हमारा अपराध क्षमा करिये, कुछ कार्यवश उस दिन ऐसी घटना को संघटित करना पड़ा, परन्तु उसका परिशोधन करने हेतु यह ‘संगमणि’ जो श्री महारानी गिरिराज-कुमारी के चरण-राग से उत्पन्न हुई है, सो उसको भेजते हैं, "उवर्शी पार्श्ववर्त्ती-कुमार बन में भगवान् क्रौंचदारण के शाप से लता-रूप में परिवर्तित हो गई है, अतएव इस मणि के प्रताप से स्पर्श मात्र ही से उर्वशीलता से उर्वशी हो जायगी - विशेष युगल-मिलाप के उपरान्त सम्मिलन होने पर कहेंगे।

तुम्हारा अभिन्नहृदय, देवराज

तत्काल पत्र और मजूंषा फेंककर मणि लिये अश्रु-वर्षण करते -"हा ! प्रिये ! उर्वशी!" की रट लगाते हुए पुरूरवा समीप ही के कुमार कानन की ओर बारम्बार निम्नलिखित पद्य करुणा से गाते हुए चले।

"शोक हरन हे नव अशोक! हे चारु रसाल-रसाल रे।
हे मधु आकुल-बकुल मधूक अगार विशाल रे।।
एला ललित-लवंग-लता ! हे कनक-यूथिका जाल रे।
मालति ! माधविलता ! बता दे, विधुवल्लरि को आल रे।।
प्राणवल्लरी ! प्रेमवल्लभी ! विकसित देहु लखाय रे।।
शोक हरन हे नव अशोक"।। 77।।

चलते-चलते नरनाथ श्रम से थककर एक बकुल-वृक्ष, जिसका आलवाल मर्मर-विनिर्मित अति स्वच्छ था, जिससे कि एक मनोहारिणी लता लिपटी थी, उसी के नीचे स्थित हुए। क्रमशः ह्रास से आलस्य-पूर्ण होकर निद्रा-वशीभूत हो गये। "मणि” हाथ में थी। सुप्तावस्था में मणि-स्पर्श से वकुलालिंगित लता "उर्वशी" रूप में परिवर्तित हो गई, तथा उस मुकुट विहीन विशाल शिर को निज पीन-जघन पर रखकर चंचल-अंचल से समीर-संचारण करने लगी।

पुरुरवा की निद्रा, स्पर्श-सुख से टूटी तो उवर्शी-मुख-प्रभात सामने था। तत्काल उठकर प्रेमी-युगल ने आलिंगन किया, तथा प्रेमालाप करने लगे, अकस्मात् प्रियामुख-चन्द्र-चुम्बन करते हुए पुरूरवा बोले -

"प्रिये ! इस बन में तो बहुत दिवस व्यतीत हुए, अब राज्य की ओर चलने की इच्छा होती है।" उर्वशी ने कोकिलकण्ठ विनिन्दक मधुर-स्वर से कहा -

"जैसी आपकी इच्छा, मैं तो आपकी अनुचरी हूँ।"

उर्वशी : पञ्चम् परिच्छेद

छन्द - जीति धरा धरि धर्म्म, सुपथ राख्यो निज बस मैं।
बीरन को सन्मान राखि, दै दान द्विजन मैं।।
अचल वीर लक्ष्मी आलिंगन, करत रहत नित।।
सुजस चन्द्र को सो प्रकास, उदयत लखात अतिहि
प्रियानैन जुग प्रजा को, शशि सम सुखदायक अतिहि।
पुरूरवा जय-रव सहित, सिंहासन राजत अतिहि।। 78।।

आज प्रतिष्ठानपुर राज्य-सिंहासन पर आसन किये, प्रिया सहित महाराज पुरूरवा दिखाई देते हैं।

समस्त राज्य कर्मचारीगण आज हर्ष से अंग में फूले नहीं समा रहे है। कहीं चारण पूर्वोक्त पद्य गा रहे हैं। कहीं वैतालिक जयोच्चारण कर रहे हैं, कहीं नृत्य हो रहा हैं, कहीं पुरस्कार बँट रहा है, कहीं दासीगण वस्त्रालंकार की चमक दिखाती हुई, शीघ्रता के साथ इधर-उधर जा रही हैं। आज प्रतिष्ठानपुर नरेन्द्रा गमन से पुनः प्रतिष्ठित हो रहा है। इस समय महाराज अपने सुयोग्य मन्त्री से, राज्य-विषय की कुछ वार्त्ता कर रहे है। अकस्मात् एक दासी दौड़ती हुई आई, परन्तु -

सो. - सजल नयन कर बाँधि, कहन चहत कहि ना सकै।
रही मौन मन साधि, दासी चित्रित सी खड़ी।। 79 ।।

सो. - बोले लखि इमि हाल, दासी आकुल जान के।
राजमुकुट महिपाल, कहहु कहा चाहत कहन।। 80 ।।

दासी कम्पित कण्ठ से बोली -

"महाराज वह मणि।..............."

इतना कहते-कहते वह पुनः स्तम्भित हो गई।

महाराज -"क्यों, कहती क्यों नहीं।"

दासी -"महाराज ! हर्म्य पर से मणि मिलती नहीं है।"

यह सुनते ही महाराज के प्रफुल्ल मुख पर उदासीनता छा गई तथा व्याकुल होकर बोले -"क्यों ? कैसे नहीं मिलती ? शीघ्र उसका अनुसन्धान करो। हाय! वह मणि...हमारी हृदयमणि-दायिनी है।"

बस अब सारी सभा में व्यग्रता छा गई तत्क्षण अनुसन्धान आरम्भ हुआ। महाराज उदासीन हो गये, सूर्य के मन्द प्रकाश होने से, आधीन कमलगण भी मुरझा गये।

निदान महाराज भी उसी छत की ओर चले, और वहाँ जाकर ज्यों ही खड़े हुए कि एक सरसराती हुई कोई वस्तु, बाण के समान, ठीक महाराज के सन्मुख आकर गिरी। वहाँ जो देखा गया तो एक गृद्रध नाराच-विद्ध मृतक पड़ा है, तथा उसके चंचु में वह मणि दबी हुई है-

सो. - लियो उठाय नरेश, लखि मणि दीपत अमल अति।
उदय भयो सुदिनेश, विकसि गयो नृप मुखकमल।। 81 ।।

तथा एक दास को आज्ञा दी कि - "इसका बाण निकालो।"

दास ने तत्काल बाण निकालकर उसका रक्त धोया, और उस बाण में से एक पत्र निकालकर (जो कि उसी बाण में बँधा हुआ था) महाराज को दिया। महाराज स्वयं उसको पढ़ने लगे -

सो. - चन्द्रवंश को सूर, पुरूरवा सुतवीर वर।
करन शत्रुमद चूर, ताको शाणित बाण यह।। 82 ।।

तत्काल ही बाण लिये महाराज हर्ष, विस्मय सहित उर्वशी के समीप आये, तथा वह पत्र, बाण,मणि इत्यादि सब उनको दिया, इतने में अकस्मात् प्रतिहारी ने सविनय निवेदन किया-

"धर्म्मावतार ! तपोवन से एक बालक लिये हुए दो तपस्विनियाँ आई हैं, तथा श्रीमान् के दर्शन की इच्छा करती हैं।"

प्रतिहारी को तत्काल ही सबको लाने की आज्ञा हुई। किंचित काल में मंगल तथा शुक्र के मध्य में चन्द्रमा समान, तपस्विनी-युगल-मध्य-स्थित एक बालक द्वार में प्रवेश करता हुआ दिखाई दिया।

उर्वशी ने आकुल होकर दुग्ध उतरती हुई पयस्विनी के समान, सप्रेम उस बालक को अंकावगत किया, तथा -

"प्रिये ! सत्य कहो, यह सुन्दर बालक कौन है ?"

उर्वशी ने सलज्जावनत मुख से कहा -

"प्राणनाथ ! आपका..........."

"हमारा" इतना कहते हुए, नरेन्द्र ने बालक को कण्ठ से लगा लिया -

बार-बार सुकुमार अंग अवलोकत नृपवर।
बार-बार मुख चूमि अंग पर फैरत निज कर ।

"वत्स ! प्राणप्रिय !” इत्यादि मधुर वचन कहती हुई, उसका मुख चुम्बन करने लगी। महाराज ! ने भी कौतुक वश उर्वशी से प्रश्न किया -

नृप के हिये समात मोद नहिं लखि निज सुत मुख !
चन्द्रकला लखि बारिधि ज्यों उफनत लहि अति सुख।। 83।।

परन्तु उर्वशी की अवस्था कुछ और ही है, समीपस्थ मणिमय स्तम्भ के सहारे हृदय पर रखकर दीर्घ निःश्वास लेती हुई अविरल अश्रुधारा बहा रही है।

कज्जल कलित सुअश्रु जल, धारा अमल कपोल।
नीलकंज सहनाल जिमि, राजत सरवर लोल।। 84।।

महाराज ने देखा तो पूछा - "प्रिये ! यह क्या है ? आनन्द के समय निरानंद कैसा? यह बिना मेघ का जल-वर्षण क्यों ?"

अतिशय आग्रह करने पर उर्वशी बोली -

"सुरेन्द्र की आज्ञा थी कि.........."

इतना ही कहा था, कि अकस्मात् आकाश से बड़े वेग से तूर्य्यनाद प्रारम्भ हुआ, सब कोई चकित होकर उर्ध्वमुख करके देखने लगे। सब मनुष्यों को एक तेज-मण्डल सूर्य के समान नीचे की ओर अवतरण करता हुआ दिखाई दिया। कुछ समीम आने पर वह एक विमान सदृश ज्ञात हुआ।

उर्वशी पुरूरवा के अभ्युत्थान करने पर; सब कोई उठ खड़े हुए, तत्काल ही सुरेन्द्र विमान द्वारा, अवतरण करते हुए दृष्टिगोचर हुए। नरेन्द्र ने देवेन्द्र का पाद स्पर्श करना चाहा, परन्तु उन्होने वर्जन करके नरेन्द्र को कण्ठ से लगा लिया अनन्तर उर्वशी के नमस्कार के उत्तर में आशीर्वाद देकर, गद्गद हो बालक को उठाकर कण्ठ से लगाया, पुनः उर्वशी की ओर दृष्टिपात करके कहा -

"चिरजीवहु लहि युगल सुख, सहित राज सुतवीर।
अरिदल दलि अरु मित्र संग, राखि सनेह गँभीर।। 85 ।।

यह श्रवण करते ही उर्वशी ने कहा "नाथ ! यह कैसे ?"

सुरेन्द्र ने तत्काल ही -"उसका कुछ संशय मत करो" यह कहकर उर्वशी को आनन्दसरोवर की तरल तरंग में तरलित कर दिया।

उर्वशी ने पुनः नमस्कार किया, तब महाराज पुरूरवा ने देवेन्द्र को उसी सिंहासन पर बैठाया तथा देवेन्द्र ने उनको। इधर यह क्रिया देखते ही नगर, राजमन्दिर सर्वत्र आनन्द का मेघ छा गया, चारों ओर मंगल वाद्य सुनाई देने लगा।

समुचित सम्मानसूचक वस्तु व्यवहार करने के उपरान्त पुरूरवा सविनय बोले -

"देवराज ! रहस्य भेद करिये ? चित्त अतिशय उत्सुक है। उस कौशल का कारण क्या है ?"

सुरेन्द्र मन्दस्मित करते हुए बोले -

"नरनाथ ! इसी कार्य के लिए, मुख्यतः हमारा आगमन हुआ है। हमने पत्र द्वारा आपको सूचित किया था कि, "सम्मिलन उपरान्त सविस्तार निवेदन करेंगे।" उसका यथार्थ समय आज है, अतएव सुनिये -

"हमने इनको यहाँ आने के हेतु जो आज्ञा दी, उसे तो कमला ने सब कहा ही होगा, परन्तु किंचित भाग उसका अभी तक आपके कर्णगोचर नहीं हुआ, आने के समय हमने उर्वशी को यह आज्ञा दी कि -

सो. - सुत को सुचि मुखचन्द, जौलौं नहिं देखहिं नृपति।
तौलौं तहँ निर्द्वनद्व, बसहु प्रेम परिपूर ह्वै।।86।।

इतने में आकुल होकर पुरूरवा बोले, "तदुपरान्त ?"

सुरेन्द्र ने सहास कहा -

आप आकुल क्यों होते हैं, सुनिये तो -"विधिवशात् वन्य-विहार में उर्वशी को प्रसव वेदना सहन करना पड़ा......."

अब तो पुरूरवा किञ्चत भ्रूभंग करके बोले -

सो. - "साँची देहु बताय, ऐसो ना कबहूँ सुन्यो।
राखहु क्यों भरमाय, होत असम्भव हू कहूँ।। 87 ।।

सुरेन्द्र ! गम्भीर स्वर से बोले-

"क्या, देवांगना तथा मानवी एक हैं ?

पुरूरवा - "नहीं, उन दोनों में उतना अन्तर है, जितना उनके वासस्थान का।"

सुरेन्द्र - "तो मानवी के समान उनका प्रसवाभास प्रकाश नहीं होता है, अनन्तर -

सो. - जानि विरह को मूल, निज सुतहूँ सुख-मूल को।
बुद्धि भई अनुकूल, चह्यो छिपावन ताहि तब।। 88।।

सो उर्वशी ने पत्र द्वारा प्रसव छिपाने के हेतु हमसे विनय किया।"

"अतएव कौशल से उसे आपकी दृष्टि से हटाया गया, तथा अपने प्रसव को सहचरी को समर्पण करने के उपरान्त जब ये वहाँ से आ रही थीं, उसी समय में भ्रम से पार्श्वस्थ कुमार कानन में जा पड़ीं।

तदुपरान्त आपको विदित ही है। संयोग-वशात् मणिग्राही गृद्ध्र को आज तपोवन में से कुमार ने देखा, आमिष-अंश जान कुमार ने शर-संधान किया, हम भी उचित समय देखकर, तापसी के साथ कुमार का आपके समीप प्रेरण करके सुखी हुए।"

तदनन्तर कुमार को दोनों ने, पुनः कण्ठ से लगाया। अपरंच वन्दनीय युगल की वन्दना करते हुए बन्दीगण निम्नलिखित आशीर्वादिक पद गाने लगे -

छन्द - जय! जयजय! नरेश! किय सुफल सिंहासन।
आजु लख्यो हम चन्द्र्र सूर्य्य बैठे इक आसन।।
जय महारानी, नवकुमार जय कमल प्रजागन।
सदा रहैं विकसित लखि नरनारो श्री आनन।। 89।।
"राज्य मित्रता! बढ़हि नित, बरषहि नूतन जलद जल।
शस्य श्यामला धरा ह्वै, तरुगन फूलहिं फलहिं फलं"।। 90 ।।

***

-----------------------------

1 “सन्तान की कामना करके जब मनु ने ऋषिश्रेष्ठ वशिष्ठ के आज्ञानुसार यज्ञ किया तो रानी की इच्छित प्रथमतः कन्या ही हुई जिसका कि इला नाम पड़ा, महाराज मनु ने दुःखित चित्त होकर वशिष्ट से प्रार्थना किया ‘भगवान ! यह तो कन्या हुई तथा हम पुत्र होने की अभिलाषा रखते है’ तब वशिष्ठ ने देवाधिदेव शंकर की तपस्या करके प्रसन्नतापूर्वक उनसे इला को सुद्युम्न हो जाने का वरदान लिया। ईश्वर की कृपा से इला सुदृढ़ युवक के स्वरूप में परिवर्तित हो गई। वह एक दिवस मृगया खेलते-खेलते गन्धमादन की उस तराई में जा निकला जो कि भगवान् देवाधिदेव तथा जगज्जननी की विहार-भूमि थी। शापवश सुद्युम्न पुनः इला के रूप में परिवर्तित हो गया। तथा स्त्री रूप में देखकर भगवान बुध उन पर आसक्त हो गये, उन्हीं के वीर्य से पुरूरवा उत्पन्न हुए। तथा वहां से आकर स्त्री रूप से दुःखित होकर त्रिवेणी तट पर इला ने जहाँ वास किया था उसी का नाम इलावास हुआ। (अब उसी का अपभ्रंश इलाहाबाद है तथा प्रतिष्ठानपुर अब भी झूसी के टूटे-फूटे रूप में विद्यमान है।)

(श्रीमद्भागवत)

  • मुख्य पृष्ठ : जयशंकर प्रसाद; सम्पूर्ण हिन्दी कहानियाँ, नाटक, उपन्यास और निबन्ध
  • मुख्य पृष्ठ : सम्पूर्ण काव्य रचनाएँ ; जयशंकर प्रसाद
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां