उपन्यास और कहानी (निबंध) : हजारीप्रसाद द्विवेदी
Upanyas Aur Kahani (Hindi Nibandh) : Hazari Prasad Dwivedi
उपन्यास और कहानियाँ हमारे साहित्य में नई चीज़ हैं। पुराने साहित्य में कथा, आख्यायिका आदि के रूप में इस जाति का साहित्य मिलता है पर उनमें और आधुनिक कथाओं-उपन्यास और कहानियों में मौलिक भेद है। मौक़ा पाकर हम इस भेद को समझने का प्रयत्न करेंगे। अभी तो हम आधुनिक ढंग के उपन्यासों और कहानियों की ही चर्चा करने जा रहे हैं।
उपन्यास इस युग का बहुत ही लोकप्रिय साहित्य है। शायद ही कोई पढ़ा-लिखा नौजवान इस ज़माने में ऐसा मिले जिसने दो-चार उपन्यास न पढ़े हों। यह बहुत मनोरंजक साहित्यांग माना जाने लगा है। आजकल जब किसी पुस्तक को बहुत मनोरंजक पाया जाता है तो प्रायः कह दिया जाता है कि इस पुस्तक में उपन्यास-का-सा आनंद मिल रहा है। किसी-किसी यूरोपियन समालोचक ने उपन्यास का एक मात्र गुण उसकी मनोरंजकता को ही माना है। इस साहित्यांग (उपन्यास) ने मनोरंजन के लिए लिखी जाने वाली कविताओं का ही नहीं, नाटकों का भी रंग फीका कर दिया है; क्योंकि पाँच मील दौड़कर रंगशाला में जाने की अपेक्षा पाँच सौ मील दूर से ऐसी किताब मँगा लेना कहीं अधिक आसान हो गया है जो अपना रंगमंच अपने पन्नों में ही लिए हुए हो।
उपन्यास में उन टंटों की कोई ज़रूरत नहीं रह जाती जो रंगमंच सजाने में आ खड़े होते हैं। किसी ने बिल्कुल ठीक कहा है कि आज के ज़माने में उपन्यास एक ही साथ शिष्टाचार का संप्रदाय, बहस का विषय, इतिहास का चित्र और पॉकेट का थियेटर है। मशीन ने ही इस जाति के साहित्य का उत्पादन बढ़ाया है और उसी ने इसके वितरण का पथ प्रशस्त किया है। उपन्यास साहित्य में मशीन की विजय-ध्वजा है। ऐसे लोकप्रिय साहित्य को समझने का प्रयत्न क्या करना भला! किंतु दुनिया में प्रायः ही ऐसा देखा जाता है कि सबसे प्रिय वस्तु को समझने में ही आदमी सबसे अधिक ग़लती करता है। प्रिय वस्तुओं के प्रति एक प्रकार का मोह हुआ करता है जो ज्ञान की परिपंथी है। उपन्यास को समझने में भी बहुत ग़लतियाँ की जाती हैं। सीधी लकीर का खींचना सचमुच टेढ़ा काम है।
परंतु उपन्यास है क्या चीज़? हिंदी के श्रेष्ठ औपन्यासिक प्रेमचंद्र ने लिखा है कि उपन्यास की ऐसी कोई परिभाषा नहीं है जिसपर सब लोग सहमत हों। फिर भी उन्होंने उसे समझाने का प्रयत्न किया है। वे कहते है :
“मैं उपन्यास को मानव-चरित्र का चित्र-मात्र समझता हूँ। मानव-चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्त्व है। किन्हीं भी दो आदमियों की सूरतें नहीं मिलतीं, उसी भाँति आदमियों के चरित्र नहीं मिलते। जैसे सब आदमियों के हाथ, पाँव, आँखें, कान, नाक, मुँह होते हैं पर इतनी समानता रहने पर भी विभिन्नता मौजूद रहती है, उसी भाँति सब आदमियों के चरित्रों में भी बहुत कुछ समानता होते हुए भी विभिन्नताएँ होती हैं। यही चरित्र-संबंधी समानता और विभिन्नता-अभिन्नत्व में भिन्नत्व और विभिन्नत्व में अभिन्नत्व दिखाना उपन्यास का मूल कर्तव्य है।”
“संतान-प्रेम मानव चरित्र का एक व्यापक गुण है। ऐसा कौन प्राणी होगा जिसे अपनी संतान प्यारी न हो। लेकिन इस संतान-प्रेम की मात्राएँ हैं, उसके भेद हैं। कोई तो संतान के लिए मर मिटता है, उसके लिए कुछ छोड़ जाने के लिए आप नाना प्रकार के कष्ट झेलता है लेकिन धर्मभीरूता के कारण अनुचित रीति से धन-संचय नहीं करता। उसे शंका होती है कि कहीं इसका परिणाम हमारी संतान के लिए बुरा न हो। कोई औचित्य का लेशमात्र भी विचार नहीं करता और जिस तरह भी हो कुछ धन-संचय करना अपना ध्येय समझता है, चाहे इसके लिए उसे दूसरों का गला ही क्यों न काटना पड़े। वह संतान-प्रेम पर अपनी आत्मा को भी बलिदान कर देता है। यह तीसरा संतान-प्रेम वह है जहाँ संतान की सच्चरित्रता प्रधान कारण होती है, जबकि पिता उसका कुचरित्र देखकर उदासीन हो जाता है, उसके लिए कुछ छोड़ जाना या कर जाना व्यर्थ समझता है। इसी कारण अन्य मानवी गुणों की भी मात्राएँ और भेद हैं। चरित्राध्ययन जितना ही सूक्ष्म और जितना ही विस्तृत होगा उतनी ही सफलता से चरित्रों का चित्रण हो सकेगा। संतान-प्रेम की एक दशा यह भी है कि जब पिता पुत्र को कुमार्ग पर चलते देखकर उसका घातक शत्रु हो जाता है। और वह भी संतान-प्रेम ही है, जब पिता के लिए पुत्र घी का लड्डू होता है, जिसका टेढ़ापन उसके स्वाद में बाधक नहीं होता। ऐसा संतान-प्रेम भी देखने में आता है, जहाँ शराबी और जुआड़ी पिता पुत्र-प्रेम के वशीभूत होकर सारी बुरी आदतें छोड़ देता है।”
इस प्रकार प्रेमचंद्र जी उपन्यास को बहु-विचित्र मनुष्य जीवन का चित्र-मात्र मानते हैं। यह चित्र सुंदर हुआ है या नहीं और यदि सुंदर हो सका है तो पाठक की उत्कर्ष-सिद्धि में कहाँ तक सहायक हुआ है? यह बात फिर भी विचारणीय रह जाती है।
उपन्यास और कहानियों की हम इस अध्याय में एक साथ विवेचना करने जा रहे हैं। इसका कारण यह है कि दोनों वस्तुतः एक ही जाति की चीज़ें हैं। शुरू-शुरू में तो छोटे उपन्यास को 'कहानी' कहते थे। परंतु छापे की कल तथा सामयिक पत्र-पत्रिकाओं के प्रचार ने छोटी कहानियों का बहुत प्रचार किया और धीरे-धीरे वे उपन्यास से स्वतंत्र हो गईं। बाद में चलकर यह निश्चय हो गया कि आकार-मात्र ही कहानी की विशेषता नहीं है। कहानी का अपना एक लक्ष्य होता है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए कहानी-लेखक कम-से-कम पात्रों और घटना और निमित्त मात्र। इस प्रकार उपन्यास और कहानी का प्रधान अंतर यह होता है कि उपन्यास में चरित्रों और घटनाओं का प्राधान्य रहता है। वे केवल निमित्तमात्र नहीं होते बल्कि उन्हें स्वच्छंद रूप से विकसित होने का मौक़ा मिलता है, जबकि ये दोनों ही तत्त्व कहानी में प्रधान न होकर निमित्त मात्र बने रहते हैं।
यह ध्यान में रखना चाहिए कि यह नहीं कहा जा सकता है कि कहानी में पात्र और घटना गौण होते हैं, बल्कि यह कहा जा सकता है कि वे निमित्त मात्र होते हैं। असली बात लक्ष्य होती है और उस लक्ष्य की सिद्धि के लिए पात्र और घटना जितने सहायक होते हैं उतने ही रखे जाते हैं। लेखक का व्यक्तिगत मत इसमें अधिक स्पष्ट होता है। कुछ समालोचकों ने एक उपमा देकर इस बात को समझने की चेष्टा की है। उपन्यास एक शाखा-प्रशाखा वाला विशाल वृक्ष है, जबकि छोटी कहानी एक सुकुमार लता। कुछ दूसरे समालोचकों ने बताया है कि उपन्यास और कहानी एक सुकुमार लता। कुछ दूसरे समालोचकों ने बताया है कि उपन्यास और कहानी का वही संबंध है, जो महाकव्य और गीतिकाव्य का। इन उपमाओं के बहाने जो बात कही गई है उसे स्पष्ट भाषा में इस प्रकार रखा जा सकता है। उपन्यास और कहानी दोनों एक ही जाति के सहित्य हैं, परंतु उनकी उपजातियाँ इसलिए भिन्न हो जाती हैं उपन्यास में जहाँ पूरे जीवन की नाप-जोख होती है, वहाँ कहानी में उसकी सिर्फ़ एक झाँकी मिल जाती है। मानव-चरित्र के किसी पहलू पर या उसमें घटित किसी एक घटना पर प्रकाश डालने के लिए छोटी कहानी लिखी जाती है।
देखा गया है कि अच्छे उपन्यासकार सब समय अच्छे कहानी-लेखक नहीं हो सकते हैं, ठीक उसी प्रकार अच्छे महाकाव्य-लेखक सब समय अच्छे गीतिकाव्य-लेखक नहीं हुए हैं। यह तथ्य इस बात का सबूत है कि कहानी और उपन्यास के लिखने में भिन्न-भिन्न कोटि की प्रतिभा आवश्यक होती है। प्रेमचंद्र जी ने कहा है कि कहानी में बहुत विस्तृत विश्लेषण की गुंजाइश नहीं होती। कहानी-लेखक का उद्देश्य संपूर्ण मनुष्य जीवन को चित्रित करना नहीं, वरन् उसके चरित्र के एक अंग मात्र को दिखाना होता है।
नए आलोचकों के मत से इधर कहानी की कारीगरी वाले दृष्टिकोण में थोड़ा और परिवर्तन हुआ है। अब प्रतिभा की अपेक्षा चतुरता और कारीगरी का मूल्य ज़्यादा आँका जाने लगा है। इसका नतीजा यह हुआ कि उन्नीसवीं शताब्दी तथा बीसवीं शताब्दी के आरंभ काल के लेखकों की लिखी हुई अत्यंत श्रेष्ठ कहानियों को भी कहानी-कला की दृष्टि से फीका समझा जाने लगा है।
“उन्नीसवीं शताब्दी के श्रेष्ठ कहानी-लेखक अपनी रचनाओं में मनोरंजकता रहस्यमय कथानक, मानव-हृदय का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण, गहरे यथार्थवाद और अनोखी सूझों का समावेश करके कहानियों के क्षेत्र में यथेष्ट सफलता प्राप्त कर लेते थे। परंतु कहानी कला के वर्तमान आलोचकों की राय में इन सारी बातों की महत्ता बहुत कम रह गई है। इन चीज़ों को व्यर्थ या निस्सार तो आज का समालोचक भी नहीं कहता, परंतु अब वह कहानी के कलेवर में उसकी आत्मा से भी अधिक महत्त्व देने लगा है। (चंद्रगुप्त विद्यालंकार)
परंतु आज के समालोचक का यह मत केवल सामयिक नवसर्जन-मनोवृत्ति का परिणाम है। इस युग में सबको सब समय कुछ नया गढ़ने का पागलपन ग्रास किए हुए है। कोई आश्चर्य नहीं कि साहित्य के क्षेत्र में इस मनोवृत्ति ने प्रतिभा को कारीगरी के सामने गौण बना दिया है। सही बात, जैसा कि चंद्रगुप्त विद्यालंकार जी ने कहा है, यह है कि प्रतिभा नई-नई कारीगरियों को जन्म देती है; वह सदा प्रधान रहेगी।
उपन्यास हो या कहानी, उसकी आलोचना करते समय हम एक बात भूल नहीं सकते वह यह कि उपन्यास या कहानी, और कुछ हो या न हो, एक कहानी या कथा ज़रूर है। कहानी या कथा में जो बातें आवश्यक हैं वे उनमें अवश्य होनी चाहिए। कोई उपन्यास (या छोटी कहानी) सफल है या नहीं, इस बात की प्रथम कसौटी यह है कि कहानी कहने वाले ने कहानी ठीक-ठीक सुनाई है या नहीं, अनावश्यक बातों का तूल तो नहीं दिया है, जहाँ-तहाँ कहानी अधिक मर्मस्पर्शी हो सकती थी वहाँ-वहाँ उसने उसे उचित रीति से संभाला है या नहीं, छोटी-छोटी बातों में ही उलझकर तो नहीं रह गया, प्रसंगवश आई हुई घटना का इतना अधिक वर्णन तो नहीं करने लगा जिससे पाठक का जी ही ऊब जाए और सौ बात की एक बात यह कि वह शुरू से अंत तक सुनने वाले की उत्सुकता को जाग्रत रखने में नाकामयाब तो नहीं रहा। कहानीपन इस साहित्य की प्रथम शर्त है।
सभी कहानी नहीं कह सकते, कुछ लोगों को यह गुण विधाता की ओर से मिला होता है। असल में वे ही लोग अच्छे उपन्यास-लेखक हो सकते हैं जो कहानीपन के जानकार है और शुरू से अंत तक श्रोता की उत्सुकता बनाए रखने की कला के उस्ताद हैं।
कोई भी कहानी हो, यहाँ 'कहानी' नामक साहित्य रचना से मतलब नहीं है, बल्कि लोकप्रचलित मामूली अर्थ में व्यवहार हो रहा है; उसमें छह बातें ज़रूरी हैं :
(1) कुछ प्राणियों के जीवन की घटना होती है, (2) इन लोगों का संबंध कुछ घटनाओं या व्यापारों से रहता है, (3) जिनके जीवन की कथा सुनाई जा रही है वे आपस में, और कभी ख़ुद से भी, बातचीत ज़रूर करते हैं, (4) कथा की घटना किसी-न-किसी स्थान और किसी-न-किसी काल में ज़रूर घटती है, (5) फिर कहने वाले का अपना कोई-न-कोई ढंग ज़रूर रहता है। कोई भी कहानी हो ये पाँच बातें उसमें रहती हैं, यह तय है।
एक छठी बात भी है जो आजकल उपन्यास में प्रधान हो उठी है। पुराने ज़माने में सब समय इसका रहना ज़रूरी नहीं समझा जाता था। यह छठी बात है, उद्देश्य। उपन्यास में ये छः बातें रहती हैं। शास्त्रीय भाषा में इन्हें क्रमशः (1) पात्र, (2) कथा-वस्तु, (3) कथोपकथन, (4) देश-काल, (5) शैली और (6) उद्देश्य कहते हैं।
उपन्यास के इन छह तत्त्वों में से कभी-कभी एक या दो तत्त्व प्रधान हो जाते हैं। उनकी प्रधानता के अनुसार उपन्यासों के भिन्न-भिन्न भेद हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, जिन उपन्यासों में पात्रों की प्रधानता होती है वे ‘चरित्रप्रधान’ और जिनमें घटना की प्रधानता होती है उन्हें ‘घटनाप्रधान’ उपन्यास कहते हैं। अन्यान्य बातों की प्रधानता भी उनके नाम पर ही प्रसिद्ध होती है। यदि हम इन तत्त्वों पर ध्यान देकर विचार करें तो यह मालूम होगा, कि घटना इन सबमें स्थूल वस्तु है और उद्देश्य सबसे सूक्ष्म। इन बातों का अलग-अलग सुंदर निर्वाह उपन्यासकार का आवश्यक गुण है, परंतु इन सबके सामंजस्य से ही उपन्यास की कथा मनोहर होती है। इनके उचित सन्निवेश से ही उपन्यास का रसास्वाद सुकर होता है।
कथा-वस्तु का ठोस और सुंसबद्ध होना परम आवश्यक है। कथा की गति को अग्रसर करने के लिए और उसके पात्रों की मनोवृत्ति को स्पष्ट करने के लिए जितना आवश्यक है, उससे कुछ भी अधिक होने से घटनागत औचित्य नष्ट हो जाता है। उद्देश्य विशेष की सिद्धि के लिए लेखक कभी-कभी ऐसी घटनाओं की योजना करता है जो कथा-वस्तु के ठोसपन की दृष्टि से एकदम अनावश्यक और अप्रसांगिक होती हैं। 'प्रेमाश्रम' में सनातन धर्म-सभा का भड़कीला अधिवेशन बहुत आवश्यक नहीं था, वह तो सिर्फ़ ज़मींदारी प्रथा की कलंक-रेखा को और भी गाढ़ा बना देने के उद्देश्य से लिखा गया था। उसके निकाल देने से मूलकथा का कोई विशेष नुकसान नहीं होता। परंतु लेखक को ज़मींदारी प्रथा और वकालत के पेशे को बुरा सिद्ध करने का मोह था और वे इन लंबे प्रसंगों को छोड़ नहीं सके।
मूलकथा को उज्ज्वल रूप में प्रत्यक्ष करने के लिए कभी-कभी ग्रंथकार अवांतर घटनाओं की सृष्टि करता है। वे अवांतर घटनाएँ दो प्रकार से मूलकथा को उज्ज्वल और गतिशील बनाती हैं। (1) सहायक के रूप में या (2) विरोधी के रूप में। सुग्रीव और बालि का झगड़ा रामायण की मूल-कथा को अग्रसर करने में सहायक है, परंतु 'गोदान' में होरी की कहानी के साथ रायसाहब आदि उच्चतर वर्ग के लोगों का जो समानांतर घटना-प्रवाह चलाया गया है, वह इसलिए कि किसान के जीवन को उसके एकदम प्रतिकूल जीवन की पृष्ठभूमि में रखकर और भी उज्ज्वल रूप में दिखाया जा सके।
घटनाग्रस्त औचित्य का तक़ाज़ा है कि अवांतर घटनाएँ इस प्रकार मूल घटना के साथ बुन दी जाएँ कि पाठक को कहीं भी संदेह न होने पावे कि वह दूसरी कथा भी पढ़ रहा है। 'रंगभूमि' एक तरफ़ सूरदास आदि ग्रामीण पात्र की कहानी है और दूसरी तरफ़ राजे और रईस की। परंतु लेखक ने बड़ी मुस्तैदी से दोनों कथा-वस्तुओं को एक दूसरे से उलझा दिया है। ‘गोदान' को कथा-वस्तुओं में इतनी सफ़ाई नहीं है। इस प्रकार यद्यपि उद्देश्य की सिद्धि के लिए लेखक को बहुत-कुछ करने का साधन और अधिकार प्राप्त है, परंतु घटनागत औचित्य का निर्वाह भी कम जवाबदेही का काम नहीं है।
औचित्य उपन्यास की जान है। औचित्य का अभाव सर्वत्र खटकता है, पर उपन्यास में उसका अभाव तो बहुत अधिक खटकने वाला होता है। पात्रों के चरित्र-चित्रण में, उनकी बातचीत में, उनके वस्त्रालंकारों के वर्णन में, उन रीति-नीति के उपस्थापन में सर्वत्र औचित्य की आवश्यकता होती है। सर्वत्र यह आवश्यक है कि उपन्यासकार पूरी ईमानदारी और सच्चाई से काम ले। इन सब बातों में देश, काल और पात्र ज्ञान की आवश्यकता रहती है। ऐतिहासिक उपन्यास लिखने वाला लेखक उस काल के वातावरण से बँधा होता है। वह कोई भी ऐसी बात अगर लिख दे जो उस ज़माने में संभव नहीं थी, तो बात खटक जाएगी और सहृदय पाठक के रसास्वादन में बाधा उपस्थित होगी।
एक प्रसिद्ध उपन्यासकार ने पठानकाल की एक घटना को आश्रय करके उपन्यास लिखा है। उसमें अमरूद के पेड़ों का वर्णन है। यह बात काल-विरुद्ध है क्योंकि अमरूद का पेड़ पोर्तुगीजों का ले आया हुआ है। उनसे पहले वह इस देश में था ही नहीं। उपन्यास का एक पात्र खाट पर लेटे-लेटे पुस्तक पढ़ता है, यह भी काल-विरुद्ध बात है। उन दिनों न तो छापे की कला के कारण आधुनिक ढंग के उपन्यास ही थे, न पुट्ठोवाली पुस्तकें ही थीं और न लेटे-लेटे पढ़ने की प्रथा ही थी। उन दिनों खुले पत्रों की पुस्तकों का ही प्रचलन अधिक था। इसी प्रकार देश-विरुद्ध बातें भी खटकने वाली होती हैं।
एक लेखक ने उत्तर-भारत के नगरोद्यान के वर्णन-प्रसंग में वसंत ऋतु में शेफालिका-पुष्पों का वर्णन किया है। दक्षिण-भारत में तो सुना जाता है, वसंत में शेफालिका खिलती है, पर उत्तर भारत में यह बात साधारणतः नहीं दिखती। पात्रगत औचित्य के निर्वाह में प्रायः प्रमोद का परिचय पाया जाता है। कभी-कभी बड़े-बड़े सम्राटों के मुँह से ऐसी बातें कहलवाई जाती हैं जो न उनके पद-मर्यादा के उपयुक्त होती हैं, और न चरित्र-विकास के। इस औचित्य-निर्वाह के लिए परम आवश्यक है कि उपन्यास-लेखक अपने देश और काल का पूरा जानकार हो और पात्रों के चरित्र-विकास को समझने वाला हो। वह जो कुछ कहे, उसका देखा-जाँचा और अनुभव किया हुआ हो। ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक की ईमानदारी की यही कसौटी है।
कहा जा सकता है कि ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक प्राचीनकाल की बातों को स्वयं कैसे देख सकता है? उत्तर यह है कि ऐतिहासिक लेखक का वक्तव्य इतिहास की उत्तम जानकारी तथा उस युग की प्रमाणिक पुस्तकों, मुद्राओं और शिलालेखों के आधार पर जाँची हुई होनी चाहिए। ऐतिहासिक उपन्यास का लेखक मृत घटनाओं और अर्द्धज्ञान या नाम मात्र से परिचित व्यक्तियों के कंकाल में प्राण-संचार करता है। कल्पना उसका प्रधान अस्त्र है। पर उस कल्पना के साथ उसकी जानकारी का सामंजस्य होना चाहिए। अगर उसके कल्पना के पोषक प्रामाणिक नहीं हुए तो रसास्वाद में पद-पद पर बाधा पहुँचेगी। इस प्रकार विषयगत औचित्य और विषयगत ईमानदारी उपन्यास की जान है। ये ही लेखक पर पाठक का विश्वास स्थिर करते हैं। जो उपन्यास-लेखक पाठक का विश्वास अर्जन नहीं कर सकता, वह कभी सफल नहीं हो सकता।
लेखक की ईमानदारी का एक उत्तम उदाहरण सुभद्राकुमारी चौहान की कहानियों के स्त्री-पात्र हैं। इनकी कहानियाँ बहुओं, विशेषकर शिक्षित बहुओं के दुखःपूर्ण जीवन को लेकर लिखी गई हैं। उन्होंने किताबी ज्ञान के आधार पर या सुनी-सुनाई बातों का आश्रय करके कहानियाँ नहीं लिखीं, बल्कि अपने अनुभवों को ही कहानी के रूप में रूपांतरित कर दिया है। यही कारण है कि उनके स्त्री-पात्रों का चरित्र-चित्रण अत्यंत मार्मिक और स्वाभाविक हुआ है। उनसे परिचय पाकर हम सजीव प्राणियों के संसर्ग में आते हैं, जो अपने जीवन के उन पहलुओं से हमारा परिचय कराते हैं जिन्हें हम बहुत कम जानते हैं। उस ईमानदारी के कारण ही उनके पात्र इतने प्रभावशाली हो सके हैं।
उपन्यासकार के पात्रों की सजीवता और स्वाभाविकता सदा अपेक्षित है। पाठकों को उनके संसर्ग में आते समय यह विश्वास बना रहना चाहिए कि वे सत्य हैं, कपोल-कल्पित नहीं। प्रेमचंद्र को “कल्पना के गढ़े हुए आदमियों में विश्वास नहीं था। उन्होंने लिखा है कि इन गढ़े हुए पात्रों के कार्यों और विचारों से हम प्रभावित नहीं होते। हमें इसका निश्चय हो जाना चाहिए कि लेखक ने जो सृष्टि की है। वह प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर की गई है, या अपने पात्रों की ज़बान से वह ख़ुद बोल रहा है। इसीलिए कुछ समालोचकों ने साहित्य को लेखक का जीवन-चरित्र कहा है। आजकल का लेखक कहानी लिखता है पर वास्तविकता का ध्यान रखते हुए; मूर्ति बनाता है पर ऐसी जिसमें सजीवता हो; वह मानव-प्रकृति का सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन करता है, मनोविज्ञान का अध्ययन करता है और इस बात का प्रयत्न करता है कि उसके पात्र हर हालत में और हर मौक़े पर इस प्रकार आचरण करें जैसे रक्त-माँस का मनुष्य करता है।
पात्रों का चारित्रिक विकास स्वाभाविक होना चाहिए। साधारणतः दो तरह से उपन्यास-लेखक अपने पात्रों के चरित्र का विकास करता है (1) घटनाओं से टक्कर खिलाकर और (2) पात्र के भीतर के स्वाभाविक अंकुर के विशेष गुण को निमित्त बनाकर। प्रथम को बाह्य उपकरण मूलक विकास कहते हैं और दूसरे को आंतरिक उपकरण मूलक। दूसरे प्रकार का विकास ही स्वाभाविक और हृदयग्राही होता है। घटिया श्रेणी के लेखक प्रायः इस विषय में असफल सिद्ध होते हैं। उपन्यास का नायक ही समस्त घटनाओं में योग स्थापित कर रहा हो और उन घटनाओं का आपस में कोई संबंध न हो तो ऐसे कथानक को शिथिल कथानक कहते हैं, परंतु यदि घटनाएँ एक दूसरे से गुँथी हो तो उस कथानक को संग्रथित कहते हैं।
कुछ उपन्यासकार आत्म-कथा की शैली पर उपन्यास लिखते हैं, कुछ डायरी के रूप में, कुछ चिट्ठियों के रूप में, कुछ बातचीत के रूप में और कुछ पूर्वापर रूप में कहानी को कह जाने के रूप में। सर्वत्र औचित्य का ध्यान रखना आवश्यक है। आत्म-कथा या डायरी के रूप में लिखने वाले पर केवल नायक की जानी हुई बातों के सहारे उपन्यास गत औत्सुक्य बनाए रखने तक रस-परिपाक कराने की ज़िम्मेदारी होती है। उसे कथा-प्रवाह के बढ़ाव के लिए बड़ी सावधानी से ऐसी नई-नई घटनाओं का उल्लेख करना पड़ता है, जो पाठक की जानकारी में संभव हो। चिट्ठियों और बातचीत के रूप में लिख गए उपन्यासों में लेखक को कुछ अधिक सुविधा प्राप्त होती है, पर बंधन वहाँ भी होता है। सबसे सहज शैली होती है उपन्यासकार का सर्वज्ञ बन जाना। दुनिया के बड़े-बड़े उपन्यासकारों ने अधिकतर इसी शैली को अपनाया है। उपन्यासकार वहाँ सब जानता है पात्र के भीतर क्या घट रहा है, उसके संपर्क में आने वाले क्या और कितना समझ रहे हैं, बाहर क्या घट रहा है इत्यादि सभी बातें उसे मालूम होती हैं। परंतु सर्वज्ञता की जवाबदेही के कारण उसका कार्य बड़ा कठिन होता है। जो शैली सबसे सहज है उसमें औचित्य का निर्वाह सबसे कठिन है।
अपने उद्देश्य को सिद्ध करने के लिए लेखक सारी घटनाओं का सन्निवेश करता है, पात्रों के चरित्रों को अभीष्ट दिशा में विकसित होने देता है, उनमें बातचीत करता है और शैली-विशेष का आश्रय लेता है। कभी-कभी वह जिस उद्देश्य को लेकर लिखने बैठता है, अंत तक सिद्ध नहीं होता। 'प्रेमाश्रम' में लेखक का उद्देश्य प्रेम और भ्रातृ-भाव के महान आदर्श का अंकित करना जान पड़ता है। ग्रंथकार ने इसी उद्देश्य से कहानी का भित्ति स्थापन किया था और चरित्रों की योजना की थी, पर अंत तक जाकर यह उद्देश्य दब गया है और एक दूसरा प्रतिपाद्य प्रबल हो गया है। यह दूसरा उद्देश्य है ज़मींदारी-प्रथा की अनिष्टकारिता। लेखक का भावात्मक आदर्श गौण हो गया है और भावात्मक आदर्श प्रधान।
उपन्यास के भिन्न-भिन्न तत्त्वों का अलग-अलग और मिलाकर भी किया हुआ सूक्ष्म चित्रण और सफलतापूर्वक निर्वाह ही उपन्यास को बड़ा नहीं बना देता, बड़ा बनाती है उद्देश्य की महत्ता और उसकी सफल सिद्धि। सब तत्त्व मिलकर पाठक के ऊपर जिस प्रभाव की सृष्टि करते हैं, उस प्रभाव के माप पर ही उपन्यास का महत्त्व निर्भर है। घटना, पात्र, कथोपकथन और शैली आदि का सफल निर्वाह उस प्रभाव की अपेक्षा में ही उत्तम हो सकता है। कई, उपन्यास-लेखकों की कृतियों में इस तत्त्वों का ज़ोरदार सन्निवेश है, फिर भी उनसे पाठक के चित्त पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता। वे मानव-जीवन की सड़ान और गंदगी को मोहक बनाकर रखते हैं और इस प्रकार पाठक को एक प्रकार की गंदी शराब पिलाकर मोहग्रस्त कर देते हैं। यह वस्तु कभी बड़ी नहीं हो सकती। भोजन की उत्तमता की कसौटी केवल परिपाक, सुगंधि और द्रव्यों का सन्निवेश मात्र नहीं है और न ख़ूब सुस्वादु होना ही उसकी कसौटी है। भोजन अच्छा वह है, जो इन सारे गुणों के साथ-ही-साथ मनुष्य को स्वस्थ और सबल बनाए। जो भोजन परिणाम में मोहग्रस्त कर देता है, या रोगी बना देता है, या मृत्यु का शिकार बना देता है, उसे अच्छा भोजन नहीं कह सकते। बुरे प्रभाव वाला उपन्यास भी ऐसा ही है। मानव-जीवन की गंदगियों को मोहक और आकर्षक करके चित्रण करने वाले उपन्यास विषाक्त भोजन के समान घातक है। सुप्रसिद्ध पत्रकार पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने ऐसे उपन्यासों को ‘घासलेटी साहित्य' नाम दे रखा है।
प्रश्न हो सकता है, उद्देश्य की महत्ता की परख क्या है? मनुष्य का चरित्र जिस रूप में आज परिणत हुआ है उसके कई कारण हैं। नाना मनीषियों ने इसे नाना रूप में समझने-समझाने की चेष्टा की है। अपने विशेष दृष्टिकोण का समर्थन तब तक नहीं किया जा सकता जब तक पूर्ववर्ती दृष्टिकोण से उसकी श्रेष्ठता न प्रमाणित कर ली जाए। इस प्रकार पूर्वमत को निरस्त्र करके नए मत के स्थापित करने का नियम है। उपन्यास-लेखक दार्शनिक पंडित के इस नियम को नहीं मानता, पर जीवन के प्रति उसका जो विशेष दृष्टिकोण है उसे कौशलपूर्ण ढंग से स्थापित करते समय उस विशेष दृष्टिकोण के प्रति उपेक्षा का भाव पैदा कर देता है जो उसका अभिप्रेत नहीं है। इस कार्य को वह बड़ी सावधानी से करता है। हिंदी में प्रेमचंद्र जी इस कला के उस्ताद थे। उनकी कहानियों में जीवन को समझने की अनेक दृष्टियाँ मिलेंगी। अपने जीवन में उन्होंने मानव-जीवन को समझने के लिए दृष्टिकोण भी बदले हैं पर पुरानी दृष्टि-भंगियों की ग़लती दिखाने के बाद ही। ‘कफ़न’ नामक कहानी इस बात का एक उत्तम उदाहरण है। उसके पढ़ने से जीवन की व्याख्या करने वाले अनेक मत निस्सार प्रतीत होते हैं। जान पड़ता है कि लेखक ने उन व्याख्याओं को सामने रखकर ही कहानी लिखी है।
धार्मिक व्याख्या यह है कि भगवान् संसार को एक सामंजस्यपूर्ण व्यवस्था में रखने के लिए सदा प्रयत्नशील हैं। जो कोई भी जीव, जहाँ कहीं भी, जिस-किसी रूप में दिख रहा है, वह उसी रूप में वहाँ आने को बाध्य था। सबकुछ किसी अदृश्य शक्ति द्वारा पूर्व निर्णीत है। पाप और पुण्य, धर्म और कर्म, ऊँच और नीच, सब। दूसरी एक व्याख्या एक प्रकार के नास्तिकों की है। प्रसिद्ध फ़्रेंच पंडित टेन को इस मत का पोषक बताया जाता है। जो कुछ भी, जहाँ-कहीं भी, जिस-किसी रूप में दिख रहा है, वह तीन कारणों से हुआ है; जातिगत विशेषता के कारण, भौगोलिक, सामाजिक आदि परिस्थितियों के कारण और ऐतिहासिक परंपरा के भीतर से आने के कारण। इन तीनों बातों को अलग-अलग एकमात्र मानकर भी जीवन की व्याख्याएँ की गई हैं। एक प्रकार के पंडित हैं, जो स्वीकार करते हैं कि भौगोलिक परिस्थिति ही हमारे समस्त विधि-निषेध, आचार-विचार और दर्शन-काव्य के मूल में है। एक दूसरे पंडित समस्त सद्गुणों और असद्गुणों के कारण आर्थिक परिस्थितियों में खोजते हैं। उनके मत से आर्थिक सुविधा या असुविधा ही सामाजिक, धार्मिक और मानसिक विधान-श्रृंखला के वास्तविक मूल हैं। 'कफ़न' में इस दृष्टिकोण की ही प्रधानता है। धार्मिक और सामाजिक दृष्टिकोण के प्रति उसमें कौशलपूर्ण प्रतिवाद के भाव हैं। आर्थिक दृष्टिकोण की प्रधानता इस कहानी में कुछ इस प्रकार उपस्थित की गई है कि मध्यवर्ग की बहुविघोषित करुणा और प्रेम की कोमल भावनाओं का कोमलपन अत्यंत खोखला होकर प्रकट हुआ है।
उत्तम लेखक समाज की जटिलताओं की तह में जाकर उसे समझता है और वहीं से अपनी विशेष दृष्टि पाता है। यदि कोई लेखक परंपरागत रूढ़ियों को सत् और असत् की निर्धारित सीमाओं को बिना विचारे ही उपन्यास या कहानी लिखने बैठता है तो वह बड़ी कृति नहीं दे सकता है। उसे हमेशा जटिलताओं को चीरकर भीतर देखने का व्रत लेना पड़ता है। ऐसा करने के बाद यदि वह रूढ़ियों को ही सत्य समझे तो कोई हर्ज नहीं, परंतु सच्चाई उसकी अपनी आँखों देखी होनी चाहिए। इसके बिना वह बड़ी कृति नहीं पैदा कर सकता। साधारण पाठक भी इस कसौटी पर उपन्यास-लेखक के उद्देश्य से और जीवन के प्रति उसकी विशेष दृष्टि-भंगी की महत्ता समझ सकता है।
अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए सभी लेखक अपनी तरफ़ से काट-छाँट और कमी-वेशी करके मानव-चरित्र को हमारे सामने रखते हैं। बात यह है कि कोई कितना ही ब्यौरेवार जीवन को उपस्थित करने का यत्न क्यों न करे, उसे बहुत-सी बातें छोड़नी ही पड़ेंगी। किसी आदमी के जीवन में एक दिन में जितने प्रयत्न और चेष्टाएँ होती हैं उनको लिपिबद्ध करने से पोथा तैयार हो सकता है। इसलिए लेखक अपने विशेष उद्देश्य की सिद्धि के लिए और कथा को प्रवाहशील तथा मनोरंजक बनाए रखने के लिए जितना भी आवश्यक है उतना ही अंश लिपिबद्ध करता है, बाक़ी जो तुच्छ है, अनायास-ग्राह्य है, उसे उबा देने वाला है और जो अनावश्यक हैं, उन्हें छोड़ देता है। प्रश्न किया गया है कि क्या ऐसा करने का उसे अधिकार है?
एक श्रेणी के साहित्यिक हैं जो चरित्रों में काट-छाँट और सजाव-बनाव को दोष समझते हैं। ये लोग यथार्थवादी कहलाते हैं। ये लोग मानव-चरित्र को उसके नग्नतम रूप में अर्थात् उसे बनाए-सजाए बिना जैसा है वैसा ही रूप रख देने के पक्षपाती हैं। उनके चरित्रों का प्रभाव पाठक पर बुरा पड़ेगा या भला इसकी वे परवाह नहीं करते। उनके चरित्र अपने जीवन की कमज़ोरियाँ और मजबूतियाँ, दोष और गुण, अमृत और विष दिखाते हुए अपनी जीवन लीला समाप्त कर देते हैं। संसार में स्पष्ट दिखता है कि सब समय सत्कर्मों का फल शुभ ही नहीं होता और असत् कर्मों का फल अशुभ ही नहीं होता, इसलिए इन यथार्थवादी साहित्यकों के चरित्र अच्छा काम करके भी ठोकरें खाते रहते हैं और अपमानित-लांछित होते रहते हैं। अपने अनुभवों के बल पर यथार्थवादी ने देखा है कि संसार में बुरे चरित्रों की ही अधिकता है और अच्छे-से-अच्छे समझे जाने वाले चरित्र में भी दाग़ होता है। इसलिए यथार्थवाद मनुष्य के चरित्र को नग्न रूप में उपस्थित करता है। प्रेमचंद्र ने यथार्थवादी के इन गुणों को ध्यान में रखकर यह निष्कर्ष निकाला था कि यथार्थवाद हमें निराशावादी बना देता है। वह हमारी विषमताओं और ख़ामियों का नंगा प्रदर्शन है। वह मानव-चरित्र पर से हमारा विश्वास उठा देता है और पाठक को ऐसा बना देता है कि उसके चारों ओर बुराई ही बुराई दिखाई देने लगती है। परंतु उन्हें भी इसमें संदेह नहीं कि समाज की कुप्रथा को दिखाने के लिए यथार्थवाद अत्यंत उपयुक्त है क्योंकि इसके बिना बहुत संभव है कि हम उस बुराई को दिखाने के लिए अत्युक्ति से काम लें और चित्र को उससे कहीं काला दिखाएँ, जितना कि वह वास्तव में है। लेकिन जब दुर्बलताओं के चित्रण में शिष्टता की सीमा लाँघ जाता है, तब आपत्तिजनक हो जाता है।
दूसरा दल आदर्शवादी कहलाता है। वह ऐसे चरित्रों की सृष्टि करना पसंद करता है जो दुनिया की कमज़ोरियों से ऊपर होते हैं, जो प्रलोभनों से डिगते नहीं और जिनकी सरलता दुनियादारी और कूट-बुद्धि से हारकर भी पाठक को उन्नत बनाती है। आदर्शवादी यह नहीं मानता कि मनुष्य में छोटा अहंभाव है, जो उसे आहार, निद्रा आदि पशु सामान्य प्रवृत्तियों की ग़ुलामी करने को ही प्रयोजित करता है, या जो सारी दुनिया को वंचित कर अपने को समृद्ध बनाने में रंग पाता है वही वास्तव या यथार्थ है। उसके मत से मनुष्य का सच्चा मनुष्यत्व उसका आत्मत्याग है, सत्यनिष्ठा है, कर्त्तव्यपरायणता है और इसी को वह बड़ा करके चित्रित करता है। वह कठिन-से-कठिन कष्ट की हालत में भी अपने आदर्श पात्र के चेहरे पर शिकन नहीं पड़ने देता।
यथार्थवाद के साथ रोमांस की भी तुलना की जाती है। ‘रोमांस' शब्द अँग्रेज़ी का है साहित्य में इसका प्रयोग दीर्घकाल से होता रहा है, इसलिए इस शब्द से जो कुछ समझा जाता है उसमें बहुत परिवर्तन भी होता रहा है। साधारणतः रोमांस उन साहस और प्रेम-मूलक कथाओं को कहा जाता है जो भारतीय साहित्य के गद्यकाव्य की श्रेणी में आते हैं। यही कारण है कि अँग्रेज़ी पंडितों ने 'कादंबरी', 'दशकुमार-चरित' आदि को भारतीय रोमांस कहा है। रोमांस में कल्पना का प्राबल्य होता है और उसमें एक ऐसे वातावरण का निर्माण किया जाता है, जो इस वास्तविक दुनिया की जटिलताओं से मुक्त रहता है पर जहाँ मनुष्य के मनोराग वैसे ही होते हैं जो इस दुनिया में होते हैं।
वस्तुतः रोमांस का वातावरण काव्यमय होता है और उसमें कल्पना और भावावेग का प्राधान्य होता है। यथार्थवाद को यह ठीक विरुद्ध दशा में जाता है। आदर्शवाद के साथ यथार्थवाद का अंतर उद्देश्यगत है, परंतु रोमांस के साथ उसका विरोध प्रकृतिगत है। किसी पश्चिमी पंडित ने रोमांस के मूल में जो सत्य है उसकी तुलना काव्यगत सत्य से की है। यथार्थवाद तथ्य-जगत के बाहर की चिंता नहीं करता। रोमांस मनुष्य के चित्त की उस वास्तविक मनोवांछा से उत्पन्न है जो चिरंतन है और सत्य है। काव्यगत सत्य ही रोमांस का भी सत्य है क्योंकि रोमांस वस्तुतः गद्यकाव्य है।
भारतवर्ष के साहित्यिक इतिहास में एक समय आया है जब रोमांस की मनोवृत्ति प्रबल रूप में प्रकट हुई थी।
सातवीं-आठवीं शताब्दी से इस देश में ऐतिहासिक व्यक्तियों के नाम पर काव्य लिखने की प्रथा ख़ूब चली। इन्हीं दिनों ईरान के साहित्य में भी इस प्रथा का प्रवेश हुआ। इस काल में उत्तर-पश्चिम सीमांत से बहुत-सी जातियों का प्रवेश हुआ। इस काल में उत्तर-पश्चिम सीमांत से बहुत-सी जातियों का प्रवेश इस देश में होता रहा। वे राज्य स्थापना करने में भी असमर्थ हुईं। पता नहीं कि उन जातियों की स्वदेशी प्रथा की क्या-क्या बातें इस देश में चलीं। साहित्य में नए-नए काव्य रूपों का प्रवेश इस काल में हुआ अवश्य। संभवतः ऐतिहासिक पुरुषों के नाम पर काव्य लिखने या लिखाने का चलन भी उनके संसर्ग का फल हो। परंतु भारतीय कवियों ने ऐतिहासिक नाम भर लिया, शैली उनकी वही पुरानी रही इसमें काव्य-निर्माण की ओर अधिक ध्यान था, विवरण-संग्रह की ओर कम; कल्पना विकास का अधिक मान था, तथ्य निरूपण का कम; संभावनाओं की ओर अधिक रुचि थी, घटनाओं की ओर कम; उल्लासित आनंद की ओर अधिक झुकाव था, विलसित तथ्यावली की ओर कम। इस प्रकार इतिहास की कल्पना के हाथों परास्त होना पड़ा। ऐतिहासिक तथ्य इन काव्यों में कल्पना को उकसा देने के साधन मान लिए गए हैं। राजा का विवाह, शत्रु-विजय, जल-क्रीड़ा, शैल-वन-विहार, दोला-विलास, नृत्य-गान-प्रीतिये सब बातें ही प्रमुख हो उठी हैं। बाद में क्रमशः इतिहास का अंश कम होता गया और संभावनाओं का ज़ोर बढ़ता गया। राजा के शत्रु होते हैं, उनसे युद्ध होता है। इतिहास की दृष्टि में एक युद्ध हुआ, और भी हो सकते थे। कवि संभावना को देखेगा, राजा के एकाधिक विवाह होते थे। यह तथ्य अनेक विवाहों की संभावना उत्पन्न करता है, जल क्रीड़ा, और वन-विहार की संभावना की ओर संकेत करता है और कवि को अपनी कल्पना के पंख खोल देने का अवसर देता है। उत्तरकाल के ऐतिहासिक काव्यों में इसकी भरमार है। ऐतिहासिक विद्वान के लिए संगति मिलना कठिन हो जाता है।
वस्तुतः इस देश की साहित्यिक परंपरा में इतिहास को ठीक आधुनिक अर्थ में कभी नहीं लिया गया। बराबर ही ऐतिहासिक व्यक्ति को पौराणिक या काल्पनिक कथा-नायक जैसा बना देने की प्रवृत्ति रही है। कुछ में दैवी शक्ति का आरोप करके पौराणिक बना दिया गया है जैसे उदयन, विक्रमादित्य और हाल। जायसी के रतनसेन, रासो के पृथ्वीराज में तथ्य और कल्पना का फ़ैक्ट्स और फ़िक्शन का अद्भुत योग हुआ है। कर्मफल की अनिवार्यता में, दुर्भाग्य और सौभाग्य की अद्भुत-शक्ति में, मनुष्य के अपूर्व शक्ति भंडार होने में दृढ़ विश्वास ने इस देश के ऐतिहासिक व्यक्तियों का भी चरित्र लिखा जाने लगा, तब भी इतिहास कार्य नहीं हुआ; अंत तक ये रचनाएँ काव्य ही बन सकीं, इतिहास नहीं। फिर भी निजंधरी कथाओं से इस अर्थ में भिन्न थीं कि उनमें बाह्य तथ्यात्मक जगत से कुछ-न-कुछ योग अवश्य रहता था, कभी-कभी मात्रा में कमीवेशी तो हुआ करती थी पर योग रहता अवश्य था। निजंधरी कथाएँ अपने आप में ही परिपूर्ण होती थीं।
जिस प्रकार भारतीय कवि काल्पनिक कथानकों में ऐसी घटनाओं को नहीं आने देता जो दुःख-परक विरोधों को उकसावे, उसी प्रकार वह ऐतिहासिक कथानकों में भी करता है। सिद्धांततः काव्य में उस वस्तु का आना भारतीय कवि उचित नहीं समझता जो तथ्य और औचित्य की भावनाओं में विरोध उत्पन्न करे, दुःखोद्रेचक विषम परिस्थितियोंट्रेजिक कंट्रेडिक्शंस की सृष्टि करें; परंतु वास्तव जीवन में ऐसी बातें होती ही रहती हैं। इसलिए इतिहासाश्रित काव्य में भी ऐसी बातें आएँगी। बहुत कम कवियों ने ऐसी घटनाओं की उपेक्षा कर जाने की बुद्धि से अपने को मुक्त रखा है। यही कारण है कि इन ऐतिहासिक काव्यों के नायक को धीरोदात्त बनाने की प्रवृत्ति ही प्रबल हो गई है; परंतु वास्तविक जीवन के कर्तव्य-द्वंद्व आत्म-विरोध और आत्म-प्रतिरोध जैसी बातें उसमें नहीं आ पातीं। ऐसी बातों के न आने से इतिहास का रस भी नहीं आ पाता और कथा-नायक कल्पित पात्र की कोटि में आ जाता है। फिर, जीवन में कभी हास्योद्रेचक अनमिल सवर भी मिल जाते हैं। संस्कृत-काव्य का कर्ता कुछ अधिक गंभीर रहने में विश्वास करता है और ऐसे प्रसंगों को छोड़ जाता है। ऐसे प्रसंगों को तो वह भरसक नहीं आने देना चाहता जहाँ कथा-नायक के नैतिक पतन की सूचना मिलने की आशंका हो। यदि ऐसे प्रसंगों की अवतारणा भी करता है तो घटनाओं और परिस्थितियों का ऐसा जाल तानता है जिसमें नायक का कर्तव्य उचित रूप से प्रतिभासित हो। सब मिलाकर ऐतिहासिक काव्य, काल्पनिक निजंधरी कथानकों पर आश्रित काव्य से बहुत भिन्न नहीं होते। उनसे आप इतिहास के शोध की वह सामग्री संग्रह कर सकते हैं पर इतिहास को नहीं पा सकते। इतिहास, जो जीवंत मनुष्य के विकास की जीवन-कथा होता है, परिस्थितियों के भीतर से मनुष्य की विजय-यात्रा का चित्र उपस्थित करता है और जो काल के पर्दे पर प्रतिफलित होने वाले नए-नए दृश्यों को हमारे सामने सहज भाव से उद्घाटित करता रहता है। भारतीय कवि इतिहास-प्रसिद्ध पात्र को भी निजंधरी कथानकों की ऊँचाई तक ले जाना चाहता है। इस कार्य के लिए वह कुछ कथानक रूढ़ियों का प्रयोग करता है जो कथानक को अभिलषित दिशा में मोड़ देने के लिए दीर्घकाल से प्रचलित हैं। इनसे कथानक में सरसता आती है और घटना-प्रवाह में एक प्रकार की लोच आ जाती है।
उपन्यासकार परिस्थितियों के सच्चे चित्रण से विमुख नहीं हो सकता, परंतु उसका उद्देश्य केवल फ़ोटोग्राफ़ी नहीं है, वह कलाकार है। यथार्थवाद चित्र का सिर्फ़ एक पहलू है। केवल सच्चा जीवन-चित्रण भी अपना नैतिक संदेश रखता ही है परंतु सच्चा चित्रण होना चाहिए। बहुत से लेखक यथार्थवाद के नाम पर समाज की उन गंदगियों का ही चित्रण करते हैं जो समग्र रूप का एक नगण्य अंश मात्र है। यह यथार्थवाद नहीं हो सकता। यथार्थवाद भले की उपेक्षा करके बुरे के चित्रण को नहीं कहा जा सकता, फिर वह चित्रण कितना ही यथार्थ क्यों न हो। इसी प्रकार उस चीज़ को आदर्शवाद नहीं कह सकते जो केवल रूढ़ि-समर्पित सदाचार के उपदेश का नामांतर है। उपन्यासकार का व्यक्तिगत उद्देश्य और मतवाद ठोस तथ्यों पर आधारित होता है। उसका प्रचारित नैतिक संदेश इन तथ्यों से विच्छिन्न होकर कला के ऊँचे सिंहासन से च्युत हो जाता है। जिस प्रकार समग्र रूप से विच्छिन्न बुराईयाँ अपना मूल्य खो देती हैं, उसी प्रकार समग्र से विच्छिन्न भले-भले उपदेश भी फीके हो जाते हैं। उपन्यास का उपदेश भी काव्य के अर्थ की भाँति व्यंग्य होना चाहिए। वाच्य होने से उसका मूल्य कम हो जाता है। इसीलिए प्रेमचंद्र जी ने कहा है कि अच्छा उपन्यास वह है जहाँ यथार्थवाद और आदर्शवाद का उचित समन्वय हो।
केवल यथार्थ चित्रण उपन्यास या कहानी को महान नहीं बनाता। हिंदी की एक प्रसिद्ध कवियित्री की कहानियाँ हमने पढ़ी हैं। उन कहानियों के स्त्री-पात्र बड़े ही सच्चे और सजीव थे। इन पात्रों से परिचय पाने के बाद मनुष्य बहुत-कुछ सोचने-समझने का अवसर पाता है। परंतु फिर भी उनकी कहानियों में समाज के प्रति सिर्फ़ एक नकारात्मक घृणा का भाव ही स्पष्ट हुआ है। पाठक यह तो सोचता है कि समाज किस प्रकार स्त्रियों पर विशेषकर शिक्षित बहुओं पर निर्दयता का व्यवहार कर रहा है, परंतु उनके चरित्रों में कहीं भी वह भीतरी शक्ति या विद्रोह-भावना नहीं पाई जाती, जो समाज की इस निर्दयतापूर्ण व्यवस्था को अस्वीकार कर सके। कहीं भी वह मानसिक दृढ़ता नहीं पाई जाती, जो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी दुःख पाने वाले को विजयी बना सके, जो स्वेच्छापूर्वक समाज की बलिवेदी पर बलिदान होने की प्रतिवाद कर सके। इसके विरुद्ध उनके चरित्र अत्यंत निरुपाय से होकर समाज की अग्निशिखा में अपने आपको होम देते हैं और चुपके से दुनिया की आँखों से ओझल हो जाते हैं।
सवाल यह नहीं है कि सचमुच ही ऐसा होता है या नहीं। सचमुच ही होता होगा, किंतु सचमुच का बहुत कुछ होना ही बड़ी बात नहीं है। एक जहाज तूफ़ान में उलझता है। भयंकर संघर्ष के बाद डूब जाता है। हज़ारों आदमी 'हाय-हाय' करते हुए समुद्र के गर्भ में बैठ जाते हैं। इन मरने वालों में जहाज का वह वीर कप्तान भी है, जो अंतिम क्षण तक अदम्य आशा और उत्साह लेकर अपनी सारी विद्या और बुद्धि के बल पर तूफ़ान से जूझता रहता है और निरुपाय यात्रियों को बचा लेने के लिए जान लड़ाता रहा। मरना कप्तान का भी सही है, और 'हाय-तोबा' मचाने वाले हज़ारों भीरु यात्रियों का भी सही है। दोनों सचमुच ही हुए हैं और दोनों ही यथार्थ हैं। परंतु एक यथार्थ मनुष्य में आशा और विश्वास पैदा करता है और दूसरा यथार्थ निराशा और भीरुता। कोई भी लेखक जब दुनिया के लाखों-लाख मनुष्यों में से किसी एक को चुनकर अपने ग्रंथ का नायक बनता है, तो वह चुनता ही है। चुनाव तो उसे करना पड़ेगा। तो फिर क्यों न ऐसे यथार्थ चरित्र चुने जाएँ जो यथार्थ में मनुष्य हों, मनुष्य का खाल ओढ़े हुए कीड़े-मकोड़े नहीं?
मेरे कहने का यह मतलब नहीं कि दुनिया के दुःख और अवसाद से आँख मूँद ली जाए। आँख मूँदने वाला बड़ा लेखक नहीं हो सकता। परंतु लेखक से यह आशा करना बिल्कुल असंगत नहीं है कि वह दुःख, अवसाद और कष्टों के भीतर से उस मनुष्य की सृष्टि करे जो पशुओं से विशेष है, जो परिस्थितियों से जूझकर अपना रास्ता साफ़ करता आया है, जो सत्य और कर्तव्यनिष्ठा के लिए किसी की स्तुति या निंदा की बिल्कुल परवाह नहीं करता। इन्हीं बातों से उपन्यास बड़ा होता है, काव्य महान होता है, कहानी सफल कही जाती है।
ऐसा करना असंभव नहीं है। शिवरानी देवी की कहानियों को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। ‘आँसू की दो बूँदें' नामक कहानी इस विषय में पहले बताई हुई कहानियों के विरोध में रखी जा सकती है। इस कहानी में सुरेश नामक युवक की बेवफ़ाई कनक नामक लड़की के सर्वनाश का कारण नहीं हो जाती। कनक अपने लिए रास्ता खोज लेती है। यह रास्ता सेवा का है। अगर उसका प्रेम नकारात्मक होता अर्थात् उसमें लोभ की जगह विराग, क्रोध के स्थान पर भय और आश्चर्य की जगह संदेह, सामाजिकता के बदले एकांत-निष्ठा और संगमेच्छा की जगह पीड़ा का उदय होता तो वह भी शायद आत्मघात कर लेती।
मनोविज्ञान के पंडित मनुष्य के दो प्रकार के चरित्रों की बात बताते हैं। नकारात्मक या 'नेगेटिव' और धनात्मक या 'पॉजिटिव'। लोभ, क्रोध, आश्चर्य, सामाजिकता और संगमेच्छा धनात्मक गुण हैं और इनके स्थानों में क्रमशः विराग, भय, संदेह, एकांतनिष्ठा और बीड़ा नकारात्मक। पहले विश्वास किया जाता था कि स्त्रियों में नकारात्मक गुण अधिक होते हैं और पुरुषों में धनात्मक गुण। आधुनिक काल के प्रयोगों से इस विश्वास को बहुत अधिक ज़ोर देने योग्य नहीं कहा जा सकता। यह माना जाने लगा है कि प्रत्येक मनुष्य में इन दोनों प्रकार के गुणों का मिश्रण होता है। जिसमें धनात्मक गुण अधिक होते हैं उसी का चरित्र आशा और विश्वास का संचार कराता है।
वस्तुतः कोई भी लेखक एक व्यक्ति में केवल एक ही प्रकार के गुण दिखाकर आज के युग में पाठक का विश्वास पात्र नहीं बना रह सकता क्योंकि मनुष्य-चरित्र दोनों का मिश्रण है। मनोविज्ञान की प्रयोगशाला में यह बात सिद्ध हुई है कि कमज़ोर-चरित्र का आदमी जिस प्रकार के बलिष्ठ-चरित्र के संसर्ग में आता है उसी प्रकार का हो जाता है। उपन्यास के जीवंत और बलिष्ठ पात्र पाठकों के सहचर हैं। नाना विपत्तियों और कष्टों के भीतर से गुज़रती हुई उनकी कर्तव्य-निष्ठा और सच्चा मनुष्यत्व पाठक को बल देता है, परंतु उनकी इंद्रियपरायणता, कूटबुद्धि और कुटिल कर्म पाठक को दुर्बल और निरुत्साह बना देते हैं। परिस्थितियों से आँख मूँदना आदर्शवाद नहीं है। वस्तुतः सच्चा आदर्शवादी सच्चा यथार्थवादी होता है। वह मनुष्य का मनुष्यत्व पहचानता है और प्राण-धर्म का रहस्य समझता है।
शायद यह बात सुनने में आश्चर्यजनक मालूम दे कि मानवता के सच्चे स्वरूप और प्राण-धर्म को पहचानने वाला लेखक यदि चरित्र-चित्रण में छोटी-मोटी ग़लतियाँ भी करे तो भी वह बड़ी कृति दे सकता है। हम शुरू से ही इस प्रसंग में 'चित्रण' शब्द का व्यवहार करते आए हैं। यह शब्द चित्र बनाने की विद्या से लिया गया है; उपन्यास या कहानी के प्रसंग में इसका प्रयोग लाक्षणिक है। उपन्यास या कहानी में हमें जो मानव जीवन प्राप्त होता है, उसे इस चित्र की भाँति प्रत्यक्ष देखते हैं। इसीलिए बार-बार साहित्य में इस शब्द का प्रयोग होता है। यदि ऊपर की बात को हम चित्र की भाषा में कहने का प्रयत्न करें तो वह कुछ इस प्रकार होगी। किसी मनुष्य के चित्र में यदि उसके हाथ-पैर ठीक-ठीक चित्रित न हों और फिर भी यदि आदमी का प्राण-धर्म ठीक-ठीक चित्रित किया जा सकता हो, तो चित्र बड़ी कृति बन सकता है! ऊपर-ऊपर से यह कथा न बड़ा विचित्र मालूम पड़ता है। आदमी के हाथ-पैर दुरुस्त नहीं और फिर भी वह चित्र बड़ा हो सकता है! मनुष्य का अन्यान्य जीवों से जो वैशिष्ट्य है वही मनुष्य का प्राण-धर्म है अर्थात् उसी को आश्रय करके मनुष्य, मनुष्य बना हुआ है। यदि वह धर्म ठीक है तो यह कोई आवश्यक नहीं है कि इसके अंग-प्रत्यंग ठीक ही हों, हों तो बहुत अच्छा, न हों तो कोई बात नहीं। जायसी कुरूप थे, सूरदास अंधे थे, चौरंगीनाथ लँगड़े थे; फिर भी कौन कहेगा कि ये सिद्ध पुरुष नहीं थे?
एक चित्र के उदाहरण से समझने पर यह बात ज़्यादा आसान हो जाएगी। इस विषय में हम भारतवर्ष के श्रेष्ठ शिल्पाचार्य श्री नंदलाल वसु महाशय के लेख से एक उदाहरण यहाँ संग्रह कर रहे हैं। वसु महाशय ने रवींद्रनाथ के चित्रों की आलोचना करते हुए एक बार कहा था कि “उनके चित्र यथार्थ तो होते हैं पर यथार्थवादी नहीं होते।” जब बहुत से पाठकों ने उनसे इस बात को स्पष्ट करने का अनुरोध किया तो उन्होंने लिखा
“पश्चिमी देशों में चित्रणीय वस्तुओं का इतना सूक्ष्म अध्ययन हुआ कि एक शिल्प संप्रदाय वस्तु को जैसा वह वैसा ही दिखाने पर अड़ गई यही यथार्थवादिता (या 'रियलिस्टिक') है। किंतु एक सिंह अंकित करने वाला चित्रकार, सिंह के सभी अंगों और चेष्टाओं को अंकित करे भी अर्थात् सिंह की बनावट के प्रति पूर्ण ईमानदार रहकर भी एक ऐसा सिंह बना दे सकता है, जिससे वह शौर्य, पराक्रम और अकृतोभय भाव नहीं आ सकता, जो सिंहत्व की जान है। उसका यह अंकित चित्र यथार्थवादी तो होगा, पर यथार्थ नहीं। दूसरी तरफ़ एक शिल्पी सिंह के अंगोपांगों के चित्रण में ग़लती करके भी यदि जैसी सिंह-मूर्ति बना देता है, इसे देखकर दर्शक के मन में सिंहत्व का भाव जग उठे, तो वह यथार्थवादी न हो करके भी यथार्थ सिंह अंकित कर सका है। रवींद्रनाथ इसी श्रेणी के शिल्पी थे।
“औसत शिक्षित व्यक्ति को ऊपर की बात ज़रा अजीब लगेगी। सिंह की बनावट ठीक होने पर भी क्यों सिंह ग़लत हो गया और बनावट में ग़लती होने पर भी क्यों ठीक हो गया, यह बात ऊपर-ऊपर से पहेली जैसी लगती है। इस बात को यों समझा जाएsrc=/Uploads/Images/ContentImages/Capture.JPGऊपर के चित्रों में नं. 1 एक आधुनिक कलाकार का बनाया हुआ सिंह है। इसमें सभी अंग ठीक-ठीक चित्रित हुए हैं। इसलिए इसे 'रियलिस्टिक' कहा जा सकता है। चित्र नं. 2 एक बहुत पुराने असीरियन कलाकार का अंकित सिंह है। इसका अंग-विन्यास उतना यथार्थ नहीं है जितना प्रथम चित्र का है। फिर भी इसमें सिंहत्व पूर्ण मात्रा में विद्यमान है। इस चित्र को देखने वाले के मन में सिंह-संबंधी सभी गुण जाग्रत हो जाते हैं। इसीलिए यह 'रियलिस्टिक' न होकर भी ‘रियल' है। ऐसा यह इसलिए हुआ है कि सिंहत्व का जो छंद है वह इसमें वर्तमान है। यह 'छंद' नं. 3 के चित्र में दिखाया गया है। अनेक परिश्रम और अनुधावन के बाद कलाकारों ने इस 'छंद' का आविष्कार किया है। यही वह अरूप (एब्सट्रेक्ट) धर्म है जो वस्तु के बिना भी सत्य है। रवींद्रनाथ के चित्रों में यह धर्म वर्तमान है। वह कभी वस्तु के साथ है और कभी वस्तु से अलग। इसी 'छंद' की यथार्थता के कारण अनेक चित्र 'रियलिस्टिक' न होकर भी 'रियल' हैं। (हिंदी 'विश्वभारती पत्रिका', खंड 1, अंक 1)
कला के क्षेत्र में यथार्थवाद किसी विशेष प्रकार की प्रकाशन-भंगिमा का नाम नहीं है, बल्कि वह एक ऐसी मानसिक प्रवृत्ति है जो निरंतर अवस्था के अनुकूल परिवर्तित और रूपायित होती रहती है और इसीलिए नाना प्रकार के कला-रूपों को अपनाने की अद्भुत क्षमता रखती है। यह स्वयं कारण भी है और कार्य भी है। वस्तुतः यह मनोवृत्ति उन सिद्धांतों, मान्यताओं और भावप्रवण उद्देश्यों की अनुगामिनी होती है जो अवसर के अनुकूल विविध रूपों में अपने को प्रकाशित कर सकते हैं। मुश्किल से सौंदर्य-निर्माण की कोई ऐसी आकांक्षा मिलेगी जो युक्तिसंगत परिणति तक ले जाने पर यथार्थवादी प्रवृत्ति के आसपास न पहुँच पाती हो। फिर उपन्यास का तो जन्म ही समाज की यथार्थ परिस्थितियों के भीतर से हुआ है। उपन्यास किसी देश की साहित्यिक विचारों और बढ़ती हुई यथार्थताओं के बीच निरंतर उत्पन्न होती रहने वाली खाई को पाटना ही उपन्यास का कर्तव्य है। इसीलिए उपन्यास के अध्ययन का मतलब होना चाहिए; किसी जाति या समाज के बढ़ते हुए विचारों और निरंतर उत्पन्न होती रहने वाली जीवन की यथार्थ परिस्थितियों से संपर्क स्थापित करते रहने के प्रयत्नों का अध्ययन। जन्म से ही उपन्यास यथार्थ जीवन की ओर उन्मुख रहा है। पुरानी कथा-आख्यायिकों से वह इस बात में भिन्न है। वे जीवन के खटकने वाले यथार्थ के संघर्षों से बचकर स्वप्न-लोक की मादक कल्पनाओं से मानव को उलझाने, बहकाने और फुसलाने का प्रयत्न करती थीं, जबकि और उपन्यास जीवन की यथार्थताओं से रस खींचकर चित्त-विनोदन के साथ-ही-साथ मनुष्य की समस्याओं के सम्मुखीन होने का आह्वान लेकर साहित्य-क्षेत्र में आया था। उसके पैर ठोस धरती पर जमे हैं और यथार्थ जीवन की कठिनाइयों और संघर्षों से छनकर आने वाला 'अव्याज-मनोहर' मानवीय रस ही उसका प्रधान आकर्षण है। जो उपन्यास इस रस से शून्य है वह अपनी मृत्यु का परवाना साथ लेकर साहित्य-क्षेत्र में आया है। वह केवल पाठक का समय नष्ट करता है और समाज की अनियंत्रित उत्पादन व्यवस्था पर काला प्रश्न-चिह्न मात्र है।
पोथी में पढ़े हुए वादों के आधार पर उपन्यास लिखे गए हैं, पर वे टिक नहीं सके हैं। बड़े-बड़े विदेशी उपन्यासकारों के अनुकरण पर उपन्यास लिखे गए हैं, पर वे उसी श्रेणी का प्रभाव उत्पन्न नहीं कर सके हैं क्यों? क्योंकि उन्होंने अपने देश की यथार्थ परिस्थितियों को नहीं समझा और इसीलिए वे उस खाई की भी ठीक-ठीक जानकारी नहीं पा सके जिसे पाटने का प्रयत्न ही उपन्यास को सच्चे अर्थों में यथार्थवादी बनाना है और जो नित्य बदलती हुई परिस्थितियों से और बढ़ते हुए ज्ञान से पिछड़ी हुई आचार्य-परंपरा और पुरानी मान्यताओं के व्यवधान के कारण निरंतर नए आकार-प्रकार में प्रकट होती रहती है।
विज्ञान के प्रभावशाली रूप धारण करने के बाद क्रमशः मनुष्य की सोचने-विचारने की प्रणाली में परिवर्तन होते गए हैं। कभी भौतिक-विज्ञान ने मानव-बुद्धि को अभिभूत किया था, फिर जीव-विज्ञान ने उसे चकित कर दिया और कुछ दिनों से मनोविज्ञान का प्रभाव प्रबल होता जा रहा है। उपन्यास में ये तीनों अभिभूतकारी तत्त्व यथासमय प्रकट हुए हैं, परंतु हिंदी-उपन्यासों में यह क्रम स्वाभाविक रूप से प्रकट नहीं हुआ। जिन दिनों पश्चिम मनोविज्ञान की ओर झुकने लगा था उन दिनों हमारा उपन्यास-साहित्य आरंभ हुआ। हिंदी में ज्ञान-विज्ञान पर आधारित सिद्धांत कभी भी घासलेटी साहित्य की मर्यादा के ऊपर नहीं उठ सका क्योंकि जब साहित्य में मनोविज्ञान की बढ़ती हुई मर्यादा का प्रभाव पड़ा, तब प्रकृतिवादी क्रमशः मद्धिम पड़ता गया; और मनोवैज्ञानिक गुत्थियों का प्रभाव प्रबल हो गया। उस समय खाई जीव-विज्ञान द्वारा निश्चित सिद्धांतों द्वारा निश्चित होती थी।
हिंदी में जब उपन्यास-साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ, तब इस देश की वही अवस्था नहीं थी जो इंग्लैंड की, अन्य पश्चिमी देशों की थी। हिंदी का पिछला साहित्य सीमित क्षेत्रों में आबद्ध रह गया था। यथार्थ की उसमें उपेक्षा तो नहीं थी; किंतु यथार्थ को मादक बनाकर प्रकट करने की प्रवृत्ति ज़ोरों पर थी। रीतिकालीन कविता से यह मादक बनाने की प्रक्रिया उन दिनों विरासत में प्राप्त हुई थी। वह समय न तो यथार्थवाद के अनुकूल था और न प्रकृतिवादी सिद्धांतों के। फिर भी पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव से क्रमशः इहलौकिक और मानवतावादी दृष्टि प्रतिष्ठित होती जा रही थी। प्रथम धक्के में इस देश के उपन्यासों की दृष्टि सामाजिक कुरीतियों पर पड़ी। प्रकृतिवादी सिद्धांतों का ज़ोर कभी भी इस देश में बढ़ नहीं पाया क्योंकि न तो यहाँ के विचारशील लोगों का मत इसके अनुकूल पड़ते थे, और न विज्ञान का और उससे उत्पन्न युक्तिवाद का विकास ही वैसा हुआ जैसा पश्चिमी देशों में हुआ था। जिन दिनों हिंदी के उपन्यास कुछ-कुछ प्रकृतिवादी सिद्धांतों से प्रभावित होने लगे, उन दिनों विज्ञान बहुत आगे निकल गया था और यूरोपीय साहित्य में प्राणि-विज्ञान की मर्यादा चढ़ाव पर नहीं थी। हिंदी के प्रकृतिवादी साहित्यिक यूरोप के पिछड़े ज़माने के साहित्य के प्रभाव थे। वे नवीन विचारधाराओं से अनभिज्ञ ही रहे। यही कारण है कि हिंदी के प्रकृतिवादी साहित्यिक साहित्य में कभी महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं प्राप्त कर सके और घासलेटी साहित्य से उच्चतर मर्यादा भी नहीं प्राप्त कर सके।
साहित्य और कला विविध क्षेत्रों में नए तत्त्व-ज्ञान (फ़िलॉसफ़ी) द्वारा सुझाए गए युक्ति-तर्कों से प्रभावित अनुसंधान-पद्धति का आश्रय लिया गया। परिणाम यह हुआ कि कला और साहित्य के क्षेत्र का विस्तार होता गया और ऐसे बहुत सी बातें साहित्य में प्रवेश करने लगीं, जो पहले निषिद्ध मानी जाती थीं। ज्ञान अधिकाधिक अवितथ होने का प्रयत्न करता जा रहा था और गणितशास्त्र की पद्धतियों का आश्रय लेता जा रहा था। साहित्य में भी उन पद्धतियों का प्रवेश किसी-न-किसी तरह हो ही गया। इतिहास और नैतिक-विज्ञान के क्षेत्र में गणितिक पद्धतियों का प्रयोग होने लगा और उनकी देखा-देखी उपन्यास-साहित्य में दलील और सनद उपस्थित करने वाली मनोवृत्ति क्रमशः शक्तिशाली होती गई।
यही सांप्रदायिक यथार्थवाद की ओर जाने वाली मनोवृत्ति है। ऐसा यथार्थवादी साहित्यकार बाहरी दलीलों और सनदों का इस प्रकार प्रयोग करता है, जिससे पाठक के ऊपर यह प्रभाव पड़े कि वह यथार्थ जीवन में घटने वाली सच्ची बात कह रहा है। परंपरा-प्रथित धार्मिक, आध्यात्मिक और नैतिक विश्वासों के कारण मानव-जीवन के जो तत्त्व साहित्य में जुगुप्सित और निषिद्ध और अमंगलकारी माने जाते थे, उनका साहित्य में धीरे-धीरे प्रवेश होने लगा और यथार्थवाद के उस रूप का प्रचलन हुआ, तो मनुष्य की बाह्य प्रकृति को प्रधानता देने वाले विज्ञान से विशेषकर प्राणि-विज्ञान से प्रभावित थे।
इस प्रकार उस समय प्रकृतिवादी सिद्धांत साहित्य में गृहीत हुआ। वस्तुतः प्रकृतिवादी सिद्धांत जो मनुष्य की शारीरिक भूख के विविध रूपों पर ही आश्रित है, प्राणि-विज्ञान की बढ़ती हुई मर्यादा के साथ ही बढ़ा है और घटती हुई मर्यादा के साथ घटा है।
उपन्यास-लेखक कभी भी वर्तमान प्रगति से पिछड़ा रहकर सफल नहीं हो सकता। हिंदी के घासलेटी उपन्यासकार इस तथ्य के प्रबल प्रमाण हैं।
कहा जाता है कि इंग्लैंड में भी प्रकृतिवाद उस प्रकार का महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं प्राप्त कर सका, जैसा कि उसने फ़्रांस में किया था। इंग्लैंड की जनता अधिक रक्षणशील (कंजर्वेटिव) थी, वह मानव शरीर की उच्छृंखल बुभुक्षा को सहज ही बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। यही कारण है कि उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम भाग तक इंग्लैंड के साहित्य में यथार्थवादी उपन्यासकार तो हुए, उल्लेख योग्य प्रकृतिवादी उपन्यासकार नहीं हुए। भारतवर्ष में तो उनके प्रधान होने की नौबत कभी आई ही नहीं। उन्नीसवीं शताब्दी के यथार्थवादी उपन्यासकारों की भी कई श्रेणियाँ हैं। थैकरे, रीड, जॉर्ज इलियट, जेन आस्टिन आदि उपन्यासकारों की रचनाएँ, इस देश के उपन्यासकार बराबर पढ़ते रहे और उनकी रचनाओं से प्रेरणा पाते रहे। इसलिए हमारे देश के उपन्यासों में यथार्थवादी झुकाव तो पाया जाता है, किंतु यथार्थवाद का जो वास्तविक मर्म है अर्थात् आगे बढ़े हुए ज्ञान और पीछे के आदर्शों से चिपटी हुई आचार-परंपरा, इन दोनों के व्यवधान को पाटते रहने का निरंतर प्रयत्नवह कम उपन्यासकारों के पल्ले पड़ा। आगे बढ़ा हुआ ज्ञान तो सारे संसार के लिए एक होता है, किंतु पीछे के आदर्शों से चिपटी हुई आचार-परंपरा विभिन्न देशों-समाजों में भिन्न-भिन्न होती हैं; इसीलिए यथार्थवादी लेखक के सामने व्यवधान की मात्रा देश-विदेश और समाज विशेष के अनुसार बदलती रहती है और उसी के अनुपात में उसके प्रयत्नों में तारतम्य आता है। दुर्भाग्य-वश अपने देश के कम लेखकों ने इस व्यवधान के स्वरूप को समझने का प्रयत्न किया है।
इस दृष्टि से देखा जाए तो हमारे नए उपन्यासकार सच्चे अर्थों में यथार्थवादी नहीं हैं। वे यथार्थवाद को उसके वास्तविक अर्थ में नहीं ग्रहण कर सके हैं परंतु उन पर यथार्थवाद का आतंक अवश्य है। जो लोग केवल वाद-विशेष से आतंकित हैं, या उसे फ़ैशन के रूप में ग्रहण करते हैं वे कोई अविस्मरणीय चरित्र नहीं पैदा कर सकते, और जिन सिद्धांतों के प्रचार के उद्देश्य से उपन्यास लिखे जाते हैं, उनकी अमिट छाप भी नहीं छोड़ पाते। इसीलिए इन उपन्यासों को पढ़कर कोई उल्लास नहीं होता है। आज भी प्रेमचंद्र हमें जहाँ छोड़ गए थे वहाँ से हम आगे नहीं बढ़ पाए। क्षेत्र तो प्रस्तुत हो ही रहा है। आशा करनी चाहिए कि शीघ्र ही वह औपन्यासिक हिंदी-जगत में अवतीर्ण होगा, जो जीवन के व्यापक अनुभवों के भीतर से 'अव्याज-मनोहर' मानवीय रस को खींच लाएगा।
कुछ लोग उपन्यासों को तीन श्रेणी का मानते हैं घटना-प्रधान, चरित्र-प्रधान और भाव-प्रधान। स्टीवेंसन इसी मत के उपस्थापक थे। वे घटना-प्रधान उपन्यास को ही सबसे उत्तम समझते थे। उनके मत से उपन्यासकार की सबसे बड़ी सफलता यह है कि वह एक ऐसी माया की सृष्टि कर दे और रोचक परिस्थितियों को मोहक ढंग से उपस्थित कर दे कि पाठकों की कल्पना उससे आकर्षित हुए बिना न रह सके। उपन्यास पढ़ते समय पाठक अपने को घटनाओं में तन्मय कर दे ओर पात्रों के साथ एकाकार कर दे, ताकि पात्रों के साहसपूर्ण कृत्यों को अपना-सा समझकर वह उनमें रस लेने लगे।
स्टीवेंसन का यह मत सर्वांश से ग्राह्य नहीं है, यह हम आगे चल कर समझ सकेंगे; पर इसमें संदेह नहीं है कि घटनाओं का मनोरंजक सन्निवेश उपन्यासकार का बड़ा भारी गुण है। (1) हिंदी में नाना प्रकार के घटना-प्रधान उपन्यास लिखे गए हैं। सबसे प्रधान और प्रथम प्रयत्न देवकीनंदन खत्री के तिलस्मी उपन्यास हैं, जिनमें ऐयारों के घात-प्रतिघातमूलक घटनाओं का सन्निवेश बड़ी तत्परता के साथ किया गया है। इन उपन्यासों में अद्भुत तिलस्मों का चित्रण है, परंतु ये घटना-प्रधान उपन्यास ही है। यद्यपि ऐयारों के चरित्रगत गुण भी इनमें कम आकर्षक नहीं हैं, तथापि घटनाओं की प्रधानता इनमें स्पष्ट है। इसी प्रकार डकैती आदि के साहसिकतापूर्ण कथानक, जासूसी उपन्यास, प्रेमाख्यान, ऐतिहासिक और पौराणिक उपन्यास केवल घटनाओं के सन्निवेश से ही मोहक बने हैं। (2) हिंदी में प्रेमचंद्र, सुदर्शन और कौशिक आदि लेखकों की कहानियाँ और उपन्यास चरित्र-प्रधान श्रेणी में पड़ेंगे, और (3) प्रसाद का 'तितली' और 'कंकाल', शिवनंदन सहाय का ‘सौंदर्योपासक' तथा 'हृदयेश' की कहानियाँ भाव-प्रधान श्रेणी में पड़ेंगी।
जिन्हें भाव-प्रधान उपन्यास कहकर ऊपर उल्लेख किया गया है उनमें बहुत कुछ पुरानी कथा-आख्यायिकाओं के गुण हैं। उनमें भाषा की मनोहारिता, अलंकार-योजना, पद लालित्य और भावावेग इतनी अधिक मात्रा में है कि उन्हें गद्य-काव्य कहना ज़्यादा उचित होगा। उपन्यास विशुद्ध गद्य-युग की उपज है। उनमें भाषा की गद्यात्मकता और सहजभाव अपेक्षित है। इन उपन्यासों में वह बात नहीं है।
हिंदी के एक प्रवीण विद्वान ने उपन्यास को गद्य-काव्य का ही एक भेद माना है किंतु यह बात आंशिक रूप में ही सत्य है। पुराने ज़माने के ‘वासवदत्ता', ‘दशकुमार-चरित', 'कादंबरी' आदि काव्यों से ये आधुनिक उपन्यास भिन्न श्रेणी के हैं। उपन्यास नए यंत्र-युग की उपज है। नए यंत्र-युग ने जिन गुण-दोषों को उत्पन्न किया है उन सबको लेकर यह नया साहित्यांग अवतीर्ण हुआ है। छापे की कला ने इनकी माँग बढ़ाई है और उसी ने उनकी पूर्ति का साधन बताया है।
यह ग़लत धारणा है कि उपन्यास और कहानियाँ संस्कृत की कथा आख्यायिकाओं की सीधी संतान है। ऊपर जिन भाव-प्रधान उपन्यासों की चर्चा हुई है, उनकी रचना के मूल में संभवतः पुरानी कथा-आख्यायिकाओं का आदर्श था, परंतु शीघ्र ही यह भ्रम टूट गया कि शब्दों में झंकार देकर गद्य-काव्य लिखना और आधुनिक ढंग के उपन्यास लिखना, एक ही बात है। झंकार कविता का एक बड़ा भारी गुण है, परंतु उपन्यास में वह थोड़ी मात्रा में ही काम देता है। चूँकि उपन्यास और कहानियाँ विशुद्ध गद्य-युग की उपज हैं, इसीलिए उनकी प्रकृति में गद्य का सहज, स्वाभाविक प्रवाह है। इस नवीन साहित्यांग का पुराने गद्य-काव्यों से जो प्रधान अंतर है, वह आदर्शगत है। यंत्र-युग ने पश्चिम में जिस व्यावसायिक क्रांति को जन्म दिया उसके कई फलों में एक है, वैयक्तिक स्वाधीनता। यह वैयक्तिक स्वाधीनता ही उपन्यासों का आदर्श है और काव्य-काल का रूढ़ि-निर्धारित और परंपरा-समर्थित सदाचार कथा-आख्यियाओं का आदर्श है। उपन्यास में दुनिया जैसी है वैसी ही चित्रित करने का प्रयास होता है। इस वास्तविकता के भीतर से ही उपन्यासकार अपना आदर्श ढूँढ़ निकालता है। कथा और आख्यायिका में कवि कल्पना के बल पर वास्तविक दुनिया से भिन्न एक नई दुनिया बनाता है।
उपन्यास और काव्य में यह मौलिक अंतर है कि उपन्यास मौजूदा हालत को भुलाकर भविष्य की कल्पना नहीं कर सकता, जबकि काव्य वर्तमान परिस्थिति को संपूर्ण उपेक्षा करके अपने आदर्श गढ़ सकता है। यही कारण है कि उपन्यासकार वर्तमान पर जमा रहता है। प्राचीन ऐतिहासिक कथानक की रचना के समय भी वह वर्तमान-काल की जानकारियों के बल पर ही अपना कारबार चलाता है। और जासूसी तथा वैज्ञानिक कथावस्तु को संभालने में भी आधुनिक जानकारियों की जहाँ तक पहुँच है, उसी के आधार पर अपनी कल्पनाओं और संभावनाओं की सृष्टि करता है। वह कवि की भाँति ज़माने के आगे रहने का दावा करता है। काव्य दुनिया की छोटी-मोटी तुच्छताओं को भी महिमा-मंडित करके प्रकाशित करता है, जो कुछ है उसे सजाकर सँवार कर सुंदर और महत् बनाने की साधना करता है।
वस्तुतः जहाँ कहीं भी तुच्छता को महिमा-मंडित करके प्रकाशित करने का प्रयत्न आता है वहाँ उपन्यासकार कवि का काम करता है। एक उदाहरण लिया जाए कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर ने अनेक उपन्यास लिखे हैं, जिनमें सर्वत्र काव्य का सुर ही प्रधान हो उठा है। उन्होंने जान-बूझकर एक उपन्यास ऐसा लिखा है जिसमें आलोचकों का मत है कि, कवित्व को दबाकर औपन्यासिकत्व प्रधान हो उठा है। इस उपन्यास का नाम है, ‘भालञ्च'। इसमें नायिका बीमार पड़ जाती है और नायक किसी और लड़की के साथ काम-काज में लग जाता है। नायिका को ईर्ष्या होती है। ज्यों-ज्यों वह मृत्यु के निकट पहुँचती जाती है त्यों-त्यों उसकी ईर्ष्या बढ़ती जाती है। अपने देवर के समझाने से वह संकल्प करती है कि मरते समय वह अपनी समस्त स्वार्थबुद्धि को तिलांजलि देकर अपने हाथों से उस लड़की को पति को सौंप जाएगी। ऐसा मौक़ा आता है। उस मौक़े पर मरती-मरती यदि वह कह देती है कि 'हे प्रिय, मैंने अपना सर्वस्व तुम्हें दिया है, इस बालिका के साथ अपना मान-अभिमान सब कुछ तुम्हें निःशेष भाव से देकर विदा लेती हूँ’, और प्यार से उस लड़की का हाथ पति के हाथों में रखकर दम तोड़ देती तो यह बात कवित्व का एक सुंदर उदाहरण हो जाती। पर मौक़ा आने पर वह ऐसा नहीं करती। अपनी तुच्छ ईर्ष्या को अंत तक वह अपने त्याग की महिमा से महिमा-मंडित नहीं कर पाती। लड़की को देखकर और भी ईर्ष्या से जल उठती है और दुर्वाच्य कहती हुई मरने बाद भी उसे जलती रहने का अभिशाप देती हुई दम तोड़ देती है। इस प्रकार कवित्व का वातावरण छिन्न-विच्छिन्न हो गया है और उपन्यासकार की वास्तव-प्रियता प्रधान हो उठी है।
उपन्यास और कहानियाँ आज के ज़माने में बहुत शक्तिशाली और प्रभावोत्पादक साहित्यांग समझे जाते हैं। इनके लेख का अपना एक ज़बर्दस्त व्यक्तिगत मत होता है, जिसकी सच्चाई के विषय में लेखक का पूरा विश्वास होता है। वैयक्तिक स्वाधीनता का यह सर्वोत्तम साहित्यिक रूप है। 'घासलेटी' उपन्यास के लेखक का अपना कोई मत नहीं, जो एक ही साथ उसका अपना भी हो और जिस पर उसका अखंड विश्वास भी हो। इसीलिए 'घासलेटी' लेखक ललकारे जाने पर या तो भाग खड़ा होता है या विक्षुब्ध होकर गाली-गलौज पर उतर आता है। वह भीड़ के आदमियों को तो अपनी नज़र के सामने रखकर लिखता है, पर अपने प्रचारित मत पर उसे कभी कोई विश्वास नहीं होता।
प्रेमचंद्र का अपना मत है कि जिस पर वे पहाड़ के समान अविचलित खड़े हैं। इस एक महागुण के कारण नाना विरोधों के होते हुए भी जैनेंद्र कुमार को साहित्य में अपना स्थान बना लेने से कोई नहीं रोक सका। उपन्यासकार है ही नहीं, यदि उसमें अपनी विशेष दृष्टि न हो और उस विशेष दृष्टि पर उसका दृढ़ विश्वास न हो। महत्त्वपूर्ण उपन्यास या कहानी केवल अवसर-विनोदन का साधन नहीं है। वे इसलिए महत्त्वपूर्ण होती है, जो निरंतर गंभीर भाव से और निर्विवाद रूप में हमारी सामान्य मनुष्यता की कठिनाइयों और द्वंद्वों को प्रभावित करती हैं। हम उपन्यासकार के रचना-कौशल, घटना-विकास की चतुराई, पात्रों के सहज स्वाभाविक विकास की सच्चाई और अपने निजी दृष्टिकोण की ईमानदारी के कारण मनुष्य मात्र के साथ एकात्मतः अनुभव करते हैं, दूसरों के दुःख-सुख में अपनापन पाते हैं, इस प्रकार हमारा हृदय संवेदनशील और आत्मा महान बनती है। हम पहले तय कर चुके हैं कि यह एकात्मता की अनुभूति साहित्य का चरम साध्य है।