टॉम काका की कुटिया (उपन्यास) : हैरियट बीचर स्टो
अनुवाद : हनुमान प्रसाद पोद्दार
Uncle Tom's Cabin (Novel in Hindi) : Harriet Beecher Stowe
21. घर की देख-भाल
कुछ दिनों बाद बुढ़िया प्रू की जगह एक दूसरी स्त्री बिस्कुट और रोटियाँ लेकर आई। उस समय मिस अफिलिया रसोईघर में थी। दीना ने उस स्त्री से पूछा - "क्यों री, आज तू रोटी कैसे लाई है? प्रू को क्या हुआ?"
"प्रू अब नहीं आएगी" , उस स्त्री ने यह बात ऐसे ढंग से कही, जैसे इसमें कुछ रहस्य हो। दीना ने पूछा - "क्यों नहीं आएगी? क्या वह मर गई?"
उस स्त्री ने मिस अफिलिया की ओर देखते हुए कहा - "हम लोगों को ठीक-ठीक मालूम नहीं है। वह नीचे के तहखाने में है।"
मिस अफिलिया के रोटियाँ ले लेने के बाद दीना उस स्त्री के पीछे-पीछे दरवाजे तक गई। उससे पूछा - "प्रू है कहाँ? कुछ तो कह!"
वह स्त्री कहना चाहती थी, पर डर से नहीं कह रही थी। अंत में दबी जबान से चुपके-चुपके बोली - "अच्छा देख, तू किसी से कहना मत। प्रू ने एक दिन फिर शराब पी ली, इस पर उन लोगों ने उसे नीचे के तहखाने में बंद करके दिन भर रख छोड़ा। फिर मैंने लोगों को कहते सुना कि उसके शरीर पर मक्खियाँ भिन-भिना रही हैं और वह मरी पड़ी है।"
यह सुनकर दीना ने विस्मय से हाथ उठाया और पीछे हट गई। तभी देखती क्या है कि इवान्जेलिन उसके पास खड़ी है। इवा की आँखें स्थिर हैं, मुँह सूख गया है, गालों और होंठों की सुर्खी गायब होकर सफेदी छा रही है। दीना चिल्ला उठी - "बाप-रे-बाप! भगवान बचाएँ! इवा बेहोश हो रही है। अरे, हम लोगों को क्या पड़ी थी जो उसे ये सब बातें सुनने दीं? मालिक को पता लगने से वह बहुत नाराज होंगे।"
बालिका ने दृढ़ता से कहा - "मुझे बेहोशी नहीं होगी। और मुझे ये बातें सुननी क्यों नहीं चाहिए? कष्ट की बातें सुनने में मुझे उतनी पीड़ा नहीं होगी, जितनी प्रू को कष्ट सहने में।"
दीना ने कहा - "नहीं, तुम-सरीखी कोमल नन्हीं बालिकाओं को ये कष्ट-कथाएँ नहीं सुननी चाहिए। इन बातों से तुम्हें बड़ी पीड़ा होती है।"
इवा ने फिर ठंडी साँस ली, और बड़े वितृष्ण चित्त से पैर धरती हुई दुमंजिले कमरे में चली गई।
मिस अफिलिया ने प्रू के बारे में बड़ी सरगर्मी से पूछताछ की। दीना से जो कुछ सुना था, उसे खूब नमक-मिर्च लगाकर कह सुनाया। टॉम ने अपने पहले दिन की तहकीकात सुनाई।
सेंटक्लेयर जिस कमरे में बैठा अखबार पढ़ रहा था, उसमें जाकर पैर रखते ही मिस अफिलिया ने कहा - "ओफ, कैसा बीभत्स कांड है! कैसा जघन्य व्यापार है!"
सेंटक्लेयर ने पूछा - "जीजी, आज कौन-सा अधर्म का पहाड़ टूट पड़ा?"
मिस अफिलिया बोली - "तुम्हारे लिए कोई बात ही नहीं है। मैंने तो ऐसी बात कभी नहीं सुनी। उन लोगों ने मारे कोड़ों के प्रू को मार डाला।" मिस अफिलिया ने बहुत विस्तार से वह बात कह सुनाई।
सेंटक्लेयर ने अखबार पढ़ते-पढ़ते कहा - "मैंने तो पहले से समझ रखा था कि किसी दिन यही होना है।"
अफिलिया बोली - "तुमने समझ रखा था और इसके प्रतिकार का कोई उपाय नहीं किया! क्या तुम्हारे यहाँ ऐसे पाँच भलेमानस नहीं हैं, जो मिलकर इन निष्ठुरताओं का निवारण करने का यत्न करें।"
सेंटक्लेयर ने कहा - "जो अपने दास-दासियों की जान लेता है, वह स्वयं अपना माल नष्ट करता है। इसमें दूसरे को बोलने का कोई अधिकार नहीं। अपना नफा-नुकसान हरेक आदमी दूसरे की अपेक्षा अच्छी तरह समझता है। भरसक अपने दास-दासियों को मारकर अपना नुकसान कोई नहीं करता, पर प्रू पैसे चुरा-चुराकर शराब पीती थी, इससे उसके मालिक का बहुत नुकसान होता था, इसी से उसे मार डाला होगा।"
मिस अफिलिया ने कहा - "अगस्टिन, वास्तव में यह बड़ा ही भयंकर धंधा है। निश्चय ही इसके लिए तुम्हें ईश्वर का कोप-भाजन बनना पड़ेगा।"
सेंटक्लेयर बोला - "प्यारी जीजी, मैंने कभी ऐसा नहीं किया, पर मैं दूसरों को नहीं रोक सकता। यदि नीच पशु के जैसे मनुष्य अपनी इच्छानुसार यह अत्याचार करते हैं तो बताओ, मैं उसमें क्या करूँ? कानूनन हर आदमी अपने-अपने दास-दासियों पर पूर्ण अधिकार रखता है। दास-दासियों को जान से मारकर भी कोई दंड नहीं पा सकता। जब कानून ने उन्हें इतना अधिकार दे रखा है तो कोई क्या कर सकता है? इसलिए सबसे भली बात चुप रहना है। उधर से अपने आँख-कान बंद किए बैठे हैं। जो होता है सो होता है।"
मिस अफिलिया ने कहा - "तुम कैसे अपनी आँखों और कानों को इधर से बंद कर लेते हो? तुम कैसे चुपचाप ये अत्याचार होने देते हो? इस भयंकर आचरण की कैसे उपेक्षा की जा सकती है?"
सेंटक्लेयर बोला - "बहन, तुम क्या आशा करती हो? देखो, यह एक मूर्ख, आलसी, भले-बुरे का ज्ञान न रखने वाली, चिर-पराधीन मनुष्य-जाति दूसरी बहुत ही स्वार्थ-परायण, अर्थ-पिशाच मनुष्य-जाति के पंजों में फँसी हुई है। इन स्वार्थियों को जब इतनी बेहिसाब ताकत दे दी गई है, तब ऐसे भयंकर और कठोर आचरणों का होना अवश्यंभावी है। ऐसे समाज में एकाध सज्जन होकर ही क्या कर सकते हैं? मेरी अकेले की ऐसी बिसात नहीं कि इस देश भर के गुलामों को खरीदकर उन्हें दु:ख से मुक्त कर दूँ।"
यह कहते-कहते सेंटक्लेयर का सदा प्रफुल्ल मुख कुछ देर के लिए कुम्हला गया। उसकी आँखें डबडबाई-सी जान पड़ीं, पर तुरंत उसने अपने मनोभाव को छिपाकर मुस्कराते हुए कहा - "बहन, तुम वहाँ यमराज की नानी का-सा मुँह बनाए क्या खड़ी हो? इधर आओ। तुमने अभी देखा क्या है? इस संसार भर के पाप, अत्याचार और सख्तियों का हिसाब लगाकर सोचा जाए तो जीवन मुश्किल हो जाए। इस संसार में कुछ भी अच्छा न लगे।"
यह कहकर सेंटक्लेयर लेट गया और अखबार पढ़ने लगा।
मिस अफिलिया जमीन पर बैठी-बैठी उदासी के साथ मोजा बुनने लगी। उसके हाथ चलते थे, पर जब वह उन बातों को सोचने लगी तो अकस्मात उसके हृदय में आग भभक उठी और अंत में वह फूट पड़ी। उसने कहा - "अगस्टिन, मैं तुम्हारी भाँति इस विषय की उपेक्षा नहीं कर सकती। मेरा मत है कि इस प्रथा का समर्थन करना तुम्हारे लिए बहुत ही घृणाजनक है।"
सेंटक्लेयर बोला - "क्यों बहन, तुमने फिर वही पचड़ा छेड़ा।"
अफिलिया ने और तेजी के साथ कहा - "मैं कहूँगी कि इस प्रथा का समर्थन करना तुम्हारे लिए बहुत ही घृणाजनक है।"
सेंटक्लेयर बोला - "प्यारी बहन, मैं इसका समर्थन करता हूँ? किसने कहा कि मैं इसका समर्थन करता हूँ।"
अफिलिया ने कहा - "निस्संदेह तुम इसका समर्थन करते हो - तुम सब जितने दक्षिणी हो वे सब। नहीं, तो बताओ कि तुमने दासों के लिए क्या किया?"
सेंटक्लेयर बोला - "क्या तुम मुझे संसार में कोई ऐसा निर्दोष मनुष्य बताओगी, जो किसी काम को बुरा समझ लेने पर फिर उसे नहीं करता? क्या तुमने कभी ऐसा काम नहीं किया या नहीं करती हो, जिसे तुम बिल्कुल ठीक नहीं समझती?"
अफिलिया ने कहा - "यदि कभी करती हूँ तो मैं उसके लिए पश्चाताप करती हूँ।"
सेंटक्लेयर ने नारंगी छीलते-छीलते कहा - "मैं भी ऐसा ही करता हूँ। सारा समय इस पश्चाताप ही में बीतता है।"
अफिलिया बोली - "पश्चाताप करने के बाद आखिर उस को क्यों करते जाते हो?"
सेंटक्लेयर ने कहा - "बहन, तुम क्या अनुमान करने के बाद फिर उस बुरे काम को नहीं करती?"
अफिलिया ने उत्तर दिया - "केवल ऐसी दशा में जब मैं बहुत लोभ में पड़ जाती हूँ।"
सेंटक्लेयर बोला - "हाँ, तो मैं बड़े लोभ ही में फँसा हुआ हूँ। जो मुश्किल तुम्हें पड़ती है, वही मुझे भी पड़ती है।"
अफिलिया ने कहा - "पर मैं सदा अपने दोष को दूर करने की चेष्टा किया करती हूँ।"
सेंटक्लेयर बोला - "बहुत ठीक। मैं भी तो दस वर्षों से चेष्टा कर रहा हूँ, पर अभी तक मैं अपने कितने ही दोष दूर नहीं कर पाया। कहो बहन, तुम क्या सब पापों से छुटकारा पा चुकी हो?"
इस बार मिस अफिलिया ने बड़ी गंभीरता से बुनने के काम को किनारे रखकर कहा - "भाई अगस्टिन, मुझमें अनेक दोष हैं, उनके लिए तुम मेरी भर्त्सना कर सकते हो। तुम्हारा कथन यथार्थ है। अपनी कमजोरी के विषय में मुझसे अधिक कोई दूसरा अनुभव नहीं कर सकता। पर मैं तुमसे कहूँगी कि अपना यह दाहिना हाथ काटकर फेंक सकती हूँ, पर अपने दोष की उपेक्षा कभी नहीं कर सकती। जिस काम को मैं बुरा समझती हूँ, उसे सदा कभी नहीं करती रह सकती।"
अगस्टिन ने कहा - "बहन, क्या तुम्हें मेरी बात पर गुस्सा आ गया? तुम तो जानती हो कि मैं बराबर दुष्ट लड़का था। मुझे तुम्हें खिझाने में हमेशा आनंद आया करता था। तुम्हारा स्वभाव कितना पवित्र है, सो क्या मैं जानता नहीं! तुम्हारी सहृदयता क्या मैं भूल गया हूँ? पर तुम जरूरत से ज्यादा भली हो - इतनी भली कि तुम्हारे मरने का खयाल करके मुझे बड़ा दु:ख होता है।"
अफिलिया ने माथे पर हाथ रखकर कहा - "अगस्ट, यह बड़ी गंभीर बात है। हँसी-मजाक की नहीं।"
सेंटक्लेयर बोला - "हाँ, हिसाब से गंभीर है सही, पर मैं इतनी गर्मी में तो गंभीर होने से रहा। गर्मी तो गर्मी, उस पर मच्छरों का उपद्रव अलग परेशान किए हुए है। इस समय कोई भी इतनी ऊँचाई की नैतिक आलोचना नहीं कर सकता।"
सेंटक्लेयर ने एकाएक अपने आप उठकर कहा - "मैंने अब समझा कि तुम्हारे यहाँ के उत्तरवाले लोग हम दक्षिणवालों से यों अधिक धार्मिक होते हैं। इसका कारण यह जान पड़ता है कि तुम्हारे वहाँ यहाँ के जैसी गर्मी नहीं पड़ती। लो, मुझे इस नए आविष्कार के लिए बधाई दो।"
अफिलिया बोली - "अगस्टिन, तुम बड़े ही खफ्ती दिमाग के हो।"
सेंटक्लेयर ने कहा - "मैं खफ्ती दिमाग का हूँ! ठीक है, होऊँगा, कोई ताज्जुब की बात थोड़े ही है। पर अब मैं एक बार गंभीर बनता हूँ। तुम जरा यह नारंगी की टोकरी मुझे उठा देना। देखो, तुम मेरे लिए थोड़ा कष्ट करो, मैं भी तो गंभीर बनने में कितना कष्ट उठाऊँगा।"
इतना कहने के बाद सचमुच ही उसका चेहरा गंभीर हो आया। वह बड़ी संजीदगी से, अपने भाव प्रकट करने लगा - "बहन जहाँ तक मेरा खयाल है, इस दासत्व-प्रथा के खयाल पर कोई मतभेद नहीं हो सकता। पर हमारे यहाँ के अर्थलोभी गोरे जमींदार, स्वार्थवश, दासत्व प्रथा को न्यायसंगत बताते हैं और उनके टुकड़ों पर बसर करनेवाले खुशामदी पादरी इन्हें खुश रखने के लिए इसे बाइबिल से साबित करने को तैयार रहते हैं। वकील और नीति के पंडित अपना मतलब गाँठने के लिए आडंबर फैलाकर इस भयंकर रीति का समर्थन करते हैं। ये लोग अपने मतलब के लिए भाषा, नीति और धर्मशास्त्र का मनमाना अर्थ लगाते हैं। इस काम में इनकी अक्ल की दौड़ देखकर हैरान होना पड़ता है। पर सच तो यह है कि चाहे इसे बाइबिल से सिद्ध किया जाए, अथवा कानून की दुहाई दी जाए, या कितनी युक्तियाँ क्यों न दिखाई जाएँ, किंतु दुनिया कभी उनपर विश्वास नहीं कर सकती। यह घृणित दास-प्रथा नरकीय प्रथा है, नरक से निकली हुई है।"
अगस्टिन बड़ी उत्तेजना से ये बातें कह रहा था। मिस अफिलिया को इस पर बड़ा विस्मय हुआ। वह अपना बुनना छोड़कर सेंटक्लेयर का मुँह देखने लगी। उसे विस्मित देखकर सेंटक्लेयर फिर कहने लगा - "तुम मेरी बात पर विस्मित-सी जान पड़ती हो, पर मैं आज जब कहने ही बैठा हूँ तब सारी बातें खोलकर कहता हूँ। गुलामी की इस घृणित प्रथा का मूल कारण देखना चाहिए, इसके ऊपर के सारे आवरणों को अलग करके देखना चाहिए कि यह क्या है? वास्तव में, हम भी इंसान हैं और कुएशी (जो लोग दास बनाए जाते थे) भी इंसान हैं। पर वे बेचारे मूर्ख और निर्बल हैं और हम बुद्धिमान और सबल हैं। हम छल-बल में पक्के हैं, इससे हम उनका सब कुछ हर लेते हैं और उसमें से जितना हमारा जी चाहता है, उन्हें लौटा देते हैं। जो काम गंदा, कठिन और अप्रिय जान पड़ता है, उसे हम कुएशियों से कराते हैं, क्योंकि हमें मेहनत करना पसंद नहीं, इसलिए कुएशी हमारे लिए पिसेंगे। हमें धूप अखरती है, कुएशी धूप में जलेगा। कुएशी रुपए कमाएगा और हम उसे खर्च करेंगे। हमारे जूतों में कीचड़ न लगे, इसके लिए कुएशी अपने हाथ से कीचड़ उठाकर रास्ता साफ रखेगा। यहाँ तो कुएशी को हमारी इच्छा के अनुसार चलना ही है, किंतु उसके परलोक के स्थान के निर्णय का ठेका भी हमीं लोगों के हाथ में है। हमारी कोई स्वार्थ-सिद्धि होती हो तो उसे अवश्य नरक में जाना पड़ेगा। हमारे देश के कानून का मतलब इसके सिवा और कुछ नहीं है। गुलामी की प्रथा के दुर्व्यवहार करने का हल्ला मचाना पागलपन है। इतनी बड़ी कुप्रथा का और क्या दुरुपयोग हो सकता है? इस घृणित रिवाज का जारी होना ही मनुष्य-शक्ति का घोरतर दुरुपयोग है। इस पाप से यह पृथ्वी रसातल को क्यों नहीं चली जाती? इसका कारण यह है कि हम में से सब जंगली जानवर ही नहीं है, कोई-कोई आदमी बनकर पैदा हुए हैं। हम में से कुछ के हृदय में थोड़ी बहुत दया भी है। कानून ने गुलामों पर अत्याचार करने की जो शक्ति प्रदान की है, उसका भी हम पूरा-पूरा प्रयोग नहीं करते। इस देश का नीच-से-नीच दास-स्वामी गुलामों के साथ चाहे जितना बुरा बर्ताव करता हो, चाहे जितने अत्याचार करता हो, सब कानून की सीमा के अंदर ही हैं।"
इतना कहते-कहते सेंटक्लेयर बेहद उत्तेजित हो गया। वह उठकर फर्श पर जल्दी-जल्दी टहलने लगा। उसका सुंदर चेहरा सुर्ख हो गया, और उसके विशाल नेत्रों से आग-सी निकलने लगी। इसके पहले मिस अफिलिया ने कभी उसकी ऐसी भावभंगिमा नहीं देखी थी। इससे विस्मित होकर वह चुपचाप उसकी ओर देखती रही। सेंटक्लेयर ने एकाएक मिस अफिलिया के सामने रुककर कहा - "इस विषय पर कुछ कहने या सोचने का कोई नतीजा नहीं है। पर मैं तुमसे कहता हूँ, एक समय था जब मैं सोचता था कि सारी पृथ्वी रसातल में चली जाए और यह भीषण अन्याय और अविचार निबिड़ अंधकार में लुप्त हो जाए, तो मैं सानंद इसके साथ रसातल को चला जाऊँगा। जब-जब मैं जहाज की यात्रा में या अपने खेतों के दौरे के समय सैकड़ों नीच, निष्ठुर पशुप्रकृति गोरों को अन्याय से प्राप्त किए गए धन द्वारा उन अनगिनत स्त्री-पुरुषों और बालक-बालिकाओं को खरीदकर उनपर मनमाना अत्याचार करते देखता हूँ तब मेरी छाती फट जाती है। मैं मन-ही-मन अपने देश को कोसता हूँ और सारी मनुष्य-जाति को शाप देता हूँ।"
मिस अफिलिया बोली - "अगस्टिन, अगस्टिन, मैं समझती हूँ कि तुमने बहुत-कुछ कह डाला। मैंने अपने जीवन में गुलामी की प्रथा के विरुद्ध ऐसे ओजस्वी घृणापूर्ण वाक्य कभी उत्तर प्रदेश में भी नहीं सुने।"
यह सुनकर सेंटक्लेयर के मुँह का भाव बदल गया। उसने स्वाभाविक व्यंग्य के साथ कहा - "उत्तर प्रदेश में? तुम्हारे उत्तर प्रदेशीय लोगों का खून बहुत ही सर्द है। तुम लोग हर बात में ठंडे हो। हृदय के आवेग द्वारा उत्तेजित होकर उत्तर प्रदेशवाले हम लोगों की भाँति अन्याय के विरुद्ध जोरदार आंदोलन करके आकाश-पाताल नहीं गुँजा सकते। तुम्हारे उत्तर प्रदेश में निम्नश्रेणी के लोगों से क्या सच्ची सहानुभूति रखी जाती है?"
पाठक जरा ध्यान से देखेंगे तो उन्हें मालूम हो जाएगा कि गुलामी की यह प्रथा संसार भर में फैली हुई है। संसार में कोई स्थान ऐसा नहीं है, कोई जाति ऐसी नहीं है, जहाँ और जिसमें यह घृणित प्रथा किसी-न-किसी रूप में प्रचलित न हो। मनुष्य-समाज के मानसिक भावों की जाँच कीजिए और देखिए कि प्रत्येक व्यक्ति के अंदर क्या भाव काम कर रहे हैं। दूसरों पर प्रभुत्व रखना, दूसरों को नीचे रखकर स्वयं ऊपर जाना, यही मनुष्यों के मन का एक सार्वभौमिक भाव है। इसी लिए समाज में, जहाँ देखिए, वहीं सबल निर्बल को सताता है, पंडित मूर्ख पर प्रभुत्व जमाता है। बड़े आदमी अपने से छोटी श्रेणी के मनुष्यों का खून चूस-चूसकर मोटे बन रहे हैं। अपने से ऊपरवाली श्रेणी के कारण निम्न श्रेणी के लोग बड़े दु:ख से दिन बिता रहे हैं।
मिस अफिलिया ने उत्तर प्रदेश क बात सुनकर कहा - "ठीक है, पर यहाँ एक प्रश्न उठता है।"
सेंटक्लेयर बोला - "मैं तुम्हारे प्रश्न को समझ गया। तुम यही कहना चाहती हो न कि यदि मैं गुलामी की प्रथा का अनुमोदन नहीं करता, तो फिर क्यों इन दास-दासियों को रखकर अपने सिर पाप की गठरी लादता हूँ? ठीक है, मैं तुम्हारे ही शब्दों में इसका उत्तर दूँगा। तुम बचपन में मुझे बाइबिल पढ़ाने के समय कहा करती थीं कि हमारे पाप पुरुष-परंपरा से हमारे पीछे लगे हुए हैं। वही बात इन दासों के संबंध में भी है। ये पुरुष-परंपरा से मुझे मिले हैं। मेरे दास मेरे पिता के थे। और तो क्या, मेरी माता के भी थे। अब वे मेरे हैं। तुम जानती हो कि मेरे पिता पहले न्यू इंग्लैंड से यहाँ आए थे और उनकी प्रकृति बिल्कुल तुम्हारे पिता के समान ही थी। वह सब तरह से प्राचीन रोमनों की भाँति न्यायी, तेजस्वी, महानुभाव और दृढ़-प्रतिज्ञ मनुष्य थे। तुम्हारे पिता न्यू इंग्लैंड में ही रहकर पत्थरों और चट्टानों पर शासन करते हुए कमाने-खाने लगे और मेरे पिता लुसियाना आकर अगणित नर-नारियों पर प्रभुत्व फैलाकर उन्हीं के परिश्रम से अपनी जीविका का निर्वाह करने लगे। मेरी माता..."
कहते-कहते सेंटक्लेयर उठ खड़ा हुआ और कमरे में दूसरे सिरे पर लटकती हुई माता की तस्वीर के पास जाकर खड़ा हो गया और बड़े भक्ति-भाव से उस चित्र की ओर देखकर कहने लगा - "वह देवी थी... मेरी ओर इस तरह क्या देखती हो? तुम जानती हो कि मेरे कहने का तात्पर्य क्या है। यद्यपि माता ने मानव का तन धारण किया था तथा जहाँ तक मेरा अनुभव है, मैंने देखा और समझा है, उनमें मानसिक दुर्बलता और भ्रम का लेश तक न था। क्या अपने, क्या पराए, और क्या दास-दासी, सभी की यही राय है। बहन, माता ने ही मुझे कट्टर नास्तिकता के भाव से उबारा। मेरी माता एक जीती-जागती धर्मशास्त्र थीं और मैं उस धर्मशास्त्र की सत्यता में संदेह नहीं कर सकता।"
यह कहते हुए सेंटक्लेयर का हृदय एकदम उछल उठा। वह अपने को भूलकर हाथ जोड़कर माता के चित्र की ओर देखते हुए, 'माँ, माँ' कहकर पुकारने लगा और फिर सहसा अपने को सँभालकर वह लौट आया। अफिलिया के पास एक कुर्सी पर बैठकर उसने फिर कहना आरंभ किया - "मेरा भाई और मैं, दोनों जुड़वा पैदा हुए थे। लोग कहा करते हैं कि जुड़े हुए पैदा होनेवाले दो भाइयों में विशेष समानता होती है; पर हम दोनों में सब विषयों में भिन्नता थी। उसकी गठन रोमनों की भाँति दृढ़ थी, आँखें दोनों काली और ज्योतिपूर्ण थीं, सिर के बाल घने और छल्लेदार थे, शरीर का रंग भी गोरा था। मेरी आँखें नीली, बाल सुनहरे, देह की गठन ग्रीकों की-सी और रंग सफेद है। वह कामकाजी और चतुर था; मैं भावुक था, पर कामकाज में बिल्कुल निकम्मा। वह बराबरवालों तथा मित्रों के साथ बड़ी सज्जनता का व्यवहार करता था; पर अपने से छोटे लोगों पर बड़ा रौब रखता था। अपनी इच्छा के विरुद्ध काम करनेवाले पर वह कभी दया नहीं करता था। हम दोनों ही सत्यवादी थे। उसकी सत्य-प्रियता साहस और अहंकार से उत्पन्न हुई थी, और मेरी सत्यनिष्ठा भावुकता से। हम दोनों एक-दूसरे को चाहते थे। वह पिता का प्यारा था और मैं माता का दुलारा। मैं बड़ा भावुक था। मैं हर बात की बारीकी से छान-बीन करता था, जरा-सी बात से मेरा हृदय टूट जाता था। मेरे इस भाव से उसकी और पिता की जरा भी सहानुभूति न थी, पर माता मेरे हृदय को समझती थी और मेरे भाव से पूरी हमदर्दी रखती थी। इसी कारण अलफ्रेड से झगड़ने पर जब पिता मुझे तीखी निगाह से देखते थे, तब मैं माता के कमरे में आकर उसके पास बैठ जाता था। माँ की उस समय की वह स्नेह-भरी दृष्टि मुझे आज भी याद आती है। वह हमेशा सफेद कपड़े पहना करती थीं। मैं जब कभी बाइबिल के 'रेवेलेशन' अंश में निर्मल, शुभ्रवस्त्रधारी देवताओं का वर्णन पढ़ता हूँ तब मुझे अपनी माता की याद आ जाती है। अनेक विषयों में माता बड़ी पारदर्शिनी थी। संगीत में उनकी बड़ी पहुँच थी। माँ जब आर्गन बाजे पर अपने देवोपम कंठ से गातीं, तब मैं उनकी गोद में सिर रखकर कितना विह्वल हो जाता, कितने स्वप्न देखता, कितना सुख पाता - इसका वर्णन करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं।..."
"उन दिनों दास-प्रथा का विषय इतने वाद-विवाद का विषय नहीं था। कोई व्यक्ति स्वप्न में भी इसे हानिप्रद नहीं समझता था।"
"मेरे पिता जन्म से ही जात्यभिमानी थे। जान पड़ता है कि इस लोक में जन्म होने के पूर्व वे आध्यात्मिक जगत की किसी उच्च श्रेणी में थे और वहीं से अपनी कुल-मर्यादा और अहंकार को साथ लेकर उतरे थे, नहीं तो दरिद्र और उच्च-कुल से रहित व्यक्ति के घर में जन्म लेकर भी कुल का ऐसा अभिमान होना पूर्वसंस्कार के सिवा और क्या कहा जा सकता है? मेरे भाई ने पिता की प्रकृति पाई थी।"
"तुम जानती हो, जाति-कुलाभिमानियों के हृदय में सार्वभौम प्रेम का स्थान नहीं हो सकता। उनकी सहानुभूति समाज की एक निर्दिष्ट-सीमा के पार नहीं जा सकती। इंग्लैंड में सीमा की यह रेखा एक जगह टिकी हुई है, तो ब्रह्मदेश में दूसरी जगह, अमरीका में तीसरी जगह; पर इन सब देशों के जाति-कुलाभिमानियों की दृष्टि इससे आगे कभी नहीं बढ़ती। इस श्रेणी के लोग केवल अपने बराबरवालों से ही सहानुभूति रखते हैं। वे अपनी श्रेणीवालों के लिए जिन बातों को अत्याचार और अन्याय में गिनते हैं, उन्हीं बातों को दूसरी श्रेणीवालों के लिए कुछ भी नहीं समझते। पिता की दृष्टि में 'रंग' सीमा-निदर्शक था। गोरों को वह अपनी श्रेणी का समझते थे और उनके साथ उनका व्यवहार भी न्याय-संगत और आदर्श था। पर इन बेचारे गुलामों को वह मनुष्य नहीं समझते थे - इन्हें तो वे मनुष्यों और पशुओं के बीच की श्रेणी का जीव मानते थे। मैं समझता हूँ कि अगर कोई उनसे पूछता कि इन गुलामों में आत्मा है या नहीं, तो वह बड़े संदेह में पड़कर, 'हाँ' में इसका उत्तर देते। मेरे पिता आध्यात्मिक आलोचना की कुछ भी परवा नहीं करते थे। धर्म पर भी उनकी वैसी श्रद्धा न थी। वह समझते थे कि कोई ईश्वर है तो जरूर, पर वह भी उच्चजाति के लोगों का ही रक्षक है।"
"मेरे पिता के कपास के खेतों में कम-से-कम पाँच सौ गुलाम काम करते थे। इनके काम की देखरेख के लिए स्टव नाम का एक नर-पिशाच रखवाला था। वह गुलामों को दिन-रात सताया करता था। वह व्यक्ति माता को और मुझे फूटी-आँख न सुहाता था, पर पिता उसे चाहते और उसका विश्वास करते थे, इससे गुलामों को वह खूब सताता और मारता-पीटता था..."
"मैं उस समय बच्चा ही था, पर उसी समय से मामूली आदमियों पर मेरा बड़ा प्रेम हो गया था। मैं सदा खेत और घर के गुलामों की झोंपड़ियों में जाया करता, उनकी सब तरह की शिकायतें सुनकर आता और माता से कहता। फिर हम दोनों मिलकर उनका दु:ख दूर करने के उपाय साचते थे। हम लोगों की कोशिश से जुल्म कुछ कम होने लगे। हम जब कभी गुलामों का दु:ख थोड़ा भी दूर करने में सफल हो जाते, तो हमारे हर्ष की सीमा न रहती। इन सब बातों को देखकर एक दिन स्टव ने जाकर मेरे पिता से शिकायत की कि उससे प्रबंध नहीं हो सकेगा, उसका इस्तीफा मंजूर कर लिया जाए। मेरी माता पर पिता का बड़ा अनुराग था, पर वह जिस काम को आवश्यक समझते थे, उसमें कभी पीछे नहीं हटते थे। सो उन्होंने सम्मानसूचक पर स्पष्ट शब्दों में मेरी माता से कहा कि घरेलू दास-दासियों पर उनका पूरा अधिकार है, किंतु खेत के गुलामों के संबंध में उनकी कोई बात न मानी जाएगी। वह कहा करते कि मेरी माता ही क्या, स्वयं ईसा की माता मेरी भी आकर उनके काम में व्याघात डालें तो वह ऐसी ही खरी-खरी सुनाएँगे।"
"इसके बाद भी माता कभी-कभी पिता से स्टव के अत्याचारों की बातें कहा करती थी। पिता अविचलित मन से उन बातों को सुन लेते और अंत में कह देते कि क्या करें, स्टव को नहीं छुड़ा सकते। उसके जैसा काम में होशियार और बुद्धिमान आदमी दूसरा नहीं मिलेगा। स्टव इतना ज्यादा सख्त भी नहीं है। यों कभी-कभी थोड़ी-बहुत सख्ती कर लेता है, उसके लिए उसे दोष नहीं दिया जा सकता। बिना शासन के काम बिगड़ जाता है। कहीं की शासन-प्रणाली देख लो, कोई भी निर्दोष नहीं मिलेगा। आदर्श शासन-प्रणाली इस संसार में है ही नहीं। जिनका हृदय मेरी माता की भाँति कोमल और ममतामय है, जिनकी प्रकृति महान है, वे जब चारों ओर अत्याचार-अविचार और दु:ख यंत्रणाएँ देखते हैं तथा उन्हें दूर नहीं कर सकते, तब उन्हें जैसी मानसिक वेदना होती है, इसका हाल अंतर्यामी के सिवा दूसरा नहीं जान सकता। वे जिसे अन्याय समझते हैं उसे दूसरा कोई अन्याय नहीं कहता; वे जिसे भीषण निष्ठुर समझते हैं, उसे दूसरे दस निष्ठुरता नहीं मानते। इसी से लाचार होकर वे चुपचाप अपने मन के दु:ख को मन ही में दबाए बैठे रहते हैं। इस पाप-संताप-कलुषित पृथ्वी पर उनका जीवन सदा दु:खों का आधार बना रहता है। मेरी माता ने जब देखा कि वह दु:खी दासों का दु:ख दूर नहीं कर सकतीं तब वह निराश हो गईं। लेकिन हम दोनों भाइयों को भविष्य में निष्ठुर न होने देने के विचार से अपने विचारों और भावों की शिक्षा देने लगीं। शिक्षा के संबंध में तुम चाहे जो कुछ क्यों न कहो, पर मैं समझता हूँ कि जन्म से मनुष्य की जैसी प्रकृति होती है, वह सहज में नहीं बदलती। अलफ्रेड जन्म से ही हुकूमत-पसंद और जात्याभिमानी था। उस पर माता के उपदेशों और अनुरोधों का कोई असर न होता था। मानो संस्कारवश अलफ्रेड की युक्तियाँ और तर्क दूसरा पक्ष समर्थन करते थे, परंतु मेरे हृदय में माता की कथनी अच्छी तरह जमने लगी। उनका जीता-जागता विश्वास और उनके हृदय की गाढ़ी भक्ति, उनके प्रत्येक उपदेश के साथ-साथ मेरे हृदय में प्रवेश करती थी। वह मुझे समझाया करती थीं कि 'मनुष्य धनी हो या दरिद्र, उसके धनी या दरिद्र होने से उसकी आत्मा का महत्व नष्ट नहीं हो जाता। एक दिन आकाश में तारे दिखाकर मुझे कहने लगीं, 'बेटा अगस्टिन! आकाश में जो लाखों तारे दिखाई दे रहे हैं, किसी समय इनका नाम-निशान मिट जाए ऐसा हो सकता है; सारा संसार भी नष्ट हो सकता है, और सूर्य का पूर्व से पश्चिम में उदय हो सकता है; पर एक आत्मा का चाहे वह कितना ही दीन और दरिद्र क्यों न हो, नाश नहीं हो सकता। धनी, निर्धन, पंडित, मूर्ख, सब अमर रहेंगे और मंगलमय ईश्वर की गोद में सदा सुख-शांति पाएँगे। प्रत्येक दीन-दरिद्री के लिए उसकी भुजाएँ सदा फैली रहती हैं।'…
"माता के कमरे में बहुत-सी तस्वीरें थीं। उनमें एक वह तस्वीर थी, जिसमें ईसा मसीह का अंधे को आँखें देने का दृश्य दिखाया गया था। उस तस्वीर को दिखाकर माता कहा करतीं, 'देखो अगस्टिन, परम धार्मिक यीशु की दीन पर कितनी दया है। वह अपने हाथों से बेचारे अंधे की सेवा-शुश्रूषा कर रहे हैं। अंधे को आराम पहुँचाने का प्रयत्न कर रहे हैं।' यदि मुझे अधिक दिन तक ऐसी स्नेहमयी दयालु जननी की छत्रछाया का सौभाग्य रहता तो मैं अवश्य उच्च कोटि का मनुष्य होता। यदि जवानी तक भी मुझे माता का साथ मिला होता तो मेरा जीवन ऐसा सुगठित हो जाता कि फिर मैं इन दास-दासियों के उद्धार के लिए अपने प्राणों की मोह-माया तज सकता था। देश-सुधार का व्रत ले सकता था। पर मेरा दुर्भाग्य कि मुझे तेरह वर्ष की अवस्था में ही उत्तर की ओर जाना पड़ा और जननी का साथ छोड़ना पड़ा। यही कारण है कि मैं जैसा चाहता था, वैसा जीवन प्राप्त नहीं कर सका।"
सेंटक्लेयर सिर पर हाथ रखकर जरा देर तक चुप रहा। वह फिर कहने लगा - "इस संसार के कामें में क्या कहीं सत्य धर्म-भाव, न्यायसंगत आचरण और नि:स्वार्थ प्रेम दिखाई पड़ता है? मैंने लड़कपन में भूगोल में पढ़ा था कि सब जगह की जलवायु भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है, इसी से भिन्न-भिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न प्रकार के पेड़-पौधे होते हैं। यही हाल मनुष्य-समाज के आचरण और मतामत का है। जिस देश का जैसा आचार-व्यवहार होता है वहाँ के लोगों का, सामाजिक दशा के अनुसार, वैसा ही चरित्र बन जाता है। हमारे देश में दास-प्रथा प्रचलित है, इसी से यहाँ के लोग इस दास-प्रथा में कोई बुराई नहीं समझते। पर इंग्लैंडवालों के कानों में जब इस प्रथा की कठोरता की भनक पहुँचती है तब उनकी छाती दहल जाती है। इस संसार में क्या शिक्षित और क्या गँवार, अधिकतर लोग ऐसे ही होते हैं कि जिनका निज का कोई स्वतंत्र मत नहीं होता। वे प्रवाह के साथ बहते हैं। वे अवस्था के दास होते हैं। देश में प्रचलित अवस्था उन्हें जिस ओर ले जाती है उसी ओर आँख-कान बंद करके बहे चले जाते हैं…।"
"किसी विषय की भलाई-बुराई की स्वाधीनतापूर्वक परख करने की शक्ति उनमें नहीं होती। तुम्हारे पिता उत्तर की दास-प्रथा के विरोधी संप्रदाय के साथ रहते थे, इससे दासत्व-प्रथा के विरोधी हो गए थे; और मेरे पिता इस दास-प्रथा के चलनेवाले देश में रहते थे, इससे इस प्रथा के पक्षपाती थे। पर इस देश और संग-भेद से उत्पन्न हुई भिन्नता के सिवा उनमें और किसी प्रकार की भिन्नता नहीं थी। और बातों में उनकी प्रकृति में पूरी समता थी। दोनों में ही अपनी जाति का अभिमान था और शासन को पसंद करते थे।"
22. आपसी चर्चाएँ
मिस अफिलिया सेंटक्लेयर की इस बात का प्रतिवाद करने जा रही थी, पर सेंटक्लेयर ने उसे रोककर कहा - "तुम जो कहना चाहती हो, उसे मैं जानता हूँ। मैं यह नहीं कहता कि वे बिल्कुल एक से-ही थे। मैं मुक्त कंठ से स्वीकार करता हूँ कि तुम्हारे और मेरे पिता के कामों में भिन्नता थी, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि स्वभाव दोनों का एक ही-सा था। इस संसार में दो तरह के आदमी होते हैं। एक तो जो वृथाभिमान में फूलकर लोगों के साथ बात तक नहीं करते, मनुष्यों को मनुष्य नहीं गिनते; अपने को सबसे बड़ा और दूसरों को अपने से छोटा समझते हैं। और दूसरे वे जो इन सब दुर्गुणों के रहते हुए भी लोगों के सामने यह साबित करने की फिक्र में लगे रहते हैं कि उनमें अहंकार की छूत भी नहीं है। इसी लिए वे छोटे-बड़े सबका ऊपर से आदर-सत्कार करते हैं, खुले दिल से आत्माभिमानियों की निंदा करते हैं, वे भी वैसे ही कुलाभिमानी हैं जैसे पहली श्रेणी वाले। एक खुल्लमखुल्ला दूसरों से घृणा करके अपने हार्दिक अभिमान को तृप्त कर लेते हैं और दूसरी श्रेणीवाले वैसा अवसर न पाने के कारण अपने अभिमान को तृप्त करने के लिए दूसरे उपाय की शरण लेते हैं। इन दो श्रेणियों के मनुष्यों में जितना भेद है, उतना ही भेद तुम्हारे और मेरे पिता के आचरणों में भी था। तुम्हारे पिता जाति के अभिमान से घृणा दिखाकर हृदय के महत्व का परिचय देते थे और मेरे पिता हजारों मनुष्यों के मस्तक पर पैर रखकर अपनी श्रेष्ठता साबित करते थे। दोनों अगर लुसियाना के जमींदार होते तो बिल्कुल ही एक प्रकृति के होते, इसमें कोई संदेह नहीं।"
अफिलिया ने कहा - "अगस्टिन, तुम कैसे आदमी हो!"
अगस्टिन बोला - "मैं पिता या चाचा की निंदा की नीयत से ये बातें नहीं कहता, लेकिन किसी पर मेरी झूठी भक्ति भी नहीं है, विशेषकर मुझे अपने जीवन की घटनाओं के प्रसंग में इन बातों का उल्लेख करना पड़ा है। पर अब फिर मैं अपने रामकहानी चलाता हूँ। पिता मरते समय सारी संपत्ति हम दोनों भाइयों के लिए छोड़ गए और उसको आपस में बाँट लेने का भार हमीं लोगों पर रहा। हम दोनों भाइयों ने बड़ी सफाई से आपस में बँटवारा कर लिया। मैं कहूँगा कि आपसवालों के साथ उत्तम व्यवहार करने में अल्फ्रेड-सरीखा आदमी इस संसार में शायद ही दूसरा होगा। हम दोनों ने खेत का काम उठा लिया। थोड़े ही दिनों में अल्फ्रेड खेत के काम में बड़ा पक्का अनुभवी और पारदर्शी मनुष्य बन गया। पर मैंने दो वर्षों के परिश्रम से समझ लिया कि मुझसे यह काम पार नहीं पड़ेगा, क्योंकि कम-से-कम सात सौ कुली हमारे खेतों में काम करते थे। उन्हें पीट-पीटकर काम लेना, उनकी देख-रेख के लिए शैतान से बढ़कर देखभाल करनेवाला रखना, इत्यादि सैकड़ों तरह के ऐसे काम थे, जिनसे मुझे बड़ी घृणा थी। यह पैशाचिक व्यवहार मुझे असह्य हो उठा। मुझे अपनी जननी के वचनों का ध्यान आने लगा कि इन काले दीन-दु:खी गुलामों में भी हमारी-जैसी आत्मा है, ये भी उसी मिट्टी के बने हैं, जिसके हम। इन्हें सताने से उतना ही दु:ख मिलता है, जितना हमें। ये सब बातें सोचकर तथा दास-दासियों की यंत्रणा देखकर मेरा हृदय पिघल जाता था। मैं ईश्वर से प्रार्थना किया करता था कि इस पाप-भरे संसार से मुझे शीघ्र उठाकर माता के पास पहुँचा दो। भला ऐसी मानसिक दशा में क्या कभी किसी का काम में जी लग सकता है? धीरे-धीरे मेरे दिल में यह खयाल पक्का होने लगा कि इन गुलामों का सत्यानाश हम लोगों के हाथों से हो रहा है। ईश्वर ने इन्हें मनुष्य बनाया है, पर हमने इन्हें पशुओं से बदतर बना डाला है। वास्तव में ऐसी पराधीन अवस्था में रहकर मनुष्य क्या मनुष्यत्व को पहुँच सकता है? मनुष्य की स्वाधीन इच्छा में बाधा पड़ते ही वह मनुष्यत्व-विहीन हो जाता है। यह सब सोचते-सोचते मैंने खेत का काम छोड़ने का संकल्प कर लिया।"
अफिलिया ने कहा - "अगस्टिन, मेरा सदा से यह विश्वास था कि तुम सब लोग दास-प्रथा को बाइबिल से सिद्ध सचाई मानते हो। और तुम लोगों की दृष्टि में दास-प्रथा ईश्वरीय विधान है।"
अगस्टिन बोला - "हम लोगों का अभी यहाँ तक पतन नहीं हुआ है। अल्फ्रेड इतना सख्त आदमी है कि बाध्य होने पर दासों की जान लेने में संकोच नहीं करता। दासों को किसी प्रकार के मानुषिक अधिकार हैं - इस बात तक को वह स्वीकार नहीं करता, किंतु इस दास-प्रथा को तो वह भी बाइबिल-अनुमोदित या ईश्वर-सम्मत विधान नहीं समझता। इस विषय में उसका यह मत है कि जब तक एक श्रेणी के मनुष्य आत्मविहीन होकर पशुओं की भाँति काम न करें, तब तक मनुष्य-समाज की उन्नति नहीं होती, संसार की सभ्यता आगे नहीं बढ़ती। उसका कथन है कि मनुष्य-समाज के अधिकार उन्नत बनाने के लिए बलवान और बुद्धिमानों का निर्बल मूर्खों पर प्रभुत्व रहना आवश्यक है, अपने इस मत के समर्थन में वह कह सकता है कि दास-प्रथा कहाँ नहीं, सारे विश्व में तो छाई हुई है। अमरीका के जमींदार अपने गुलामों से जैसा सख्त बर्ताव करते हैं, इंग्लैंड के बड़े आदमी और महाजन लोग दूसरी तरह से अपने देश के मजदूरों से ठीक वैसा ही व्यवहार करते हैं कि मानव-समाज की व्यवस्था को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि जब तक एक श्रेणी के लोगों का दासत्व न करें तब तक किसी प्रकार सामाजिक-उन्नति और सभ्यता का विकास संभव नहीं है। उसके मतानुसार संसार की समता-वृद्धि के लिए निर्बल और मूर्खों को सदा बलवान और बुद्धिमानों के अधीन रहना पड़ेगा; आजन्म उन्हें पशुवत्-कार्य करना पड़ेगा और बलवान तथा बुद्धिमानों के आराम के लिए अपने शरीर को कष्ट देना पड़ेगा। पर मैं अल्फ्रेड की इन युक्तियों में सार नहीं देखता। स्वार्थी मनुष्य ही अपने मन को समझाने के लिए ऐसी युक्तियों का सहारा लेते हैं।"
अफिलिया बोली - "भला इंग्लैंड के मजदूरों के साथ तुम्हारे यहाँ के गुलामों की तुलना कैसे हो सकती है? तुम्हारे यहाँ की तरह न वे बेचे ही जाते हैं, न उनका सौदा ही किया जाता है, और न वे अपने कुटुंब से अलग ही किए जाते हैं। उन्हें दोष भी नहीं लगाए जाते।"
अगस्टिन ने कहा - "बहन, हम कोड़ों की मार से गुलामों को मारते हैं, पर इंग्लैंडवाले क्या करते हैं कि मजदूरों का सारा धन चूसकर उन्हें भूखों मारते हैं। हम लोग गुलामों के बाल-बच्चों को उनके माता-पिता से अलगकर बेचते हैं; पर इंग्लैंड के मजदूरों के बाल-बच्चे बिना भोजन के भूखों मरते हैं। इसमें कौन बुरा और अच्छा है, यह नहीं कहा जा सकता।"
अफिलिया ने कहा - "पर तुम्हारी इस युक्ति से दास-प्रथा का पाप दूर नहीं होता। दूसरी जगह कोई बुराई होती हो, तो क्या उसका उल्लेख करके तुम अपने यहाँ के अत्याचार का समर्थन कर सकते हो?"
अगस्टिन बोला - "मैंने दास-प्रथा के समर्थन के अभिप्राय से इस विश्वव्यापी अत्याचार का उल्लेख नहीं किया। मैंने तो उन्हीं युक्तियों को दोहराया है, जिनके बल पर अल्फ्रेड दास-प्रथा का समर्थन करता है। मुझे इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि हमारे यहाँ की गुलामी की चाल हद से ज्यादा घृणित है। यह भी सही है कि अन्य देशों में निम्न श्रेणी के मनुष्यों पर जो अत्याचार होते हैं, उनसे हजार गुना भारी अत्याचार और उत्पीड़न हमारे यहाँ के गुलामों को सहना पड़ता है। हमारे देश के गोरे इन कालों को निरा पशु समझते हैं। क्रीत-दासियों के गर्भ से संतान पैदा करके उन्हें भेड़-बकरियों की भाँति बेचते हैं। ऐसा हृदय कँपानेवाला व्यापार और कहीं नहीं दिखाई पड़ता। और देशों में निर्बल को सताने के लिए छल-बल की दरकार होती है, पर यहाँ कोई जरूरत नहीं। जैसे जी चाहे, निर्बल को सताया जा सकता है, उनके प्राण तक लेने में कोई कानून किसी तरह की बाधा नहीं डालता।"
अफिलिया ने कहा - "आज मैंने दास-प्रथा के संबंध में तुमसे बहुत-सी नई बातें सुनीं। मैंने इस विषय में कभी इतना नहीं सोचा था।"
अगस्टिन बोला - "मैंने इंग्लैंड के अनेक स्थानों की सैर करके वहाँ की निचली श्रेणी के लोगों की अवस्था का खूब अनुभव किया है। उनकी दुर्दशा देखकर हृदय पिघल जाता है। अल्फ्रेड सदैव बड़े अहंकार से कहा करता है कि उसके गुलाम इंग्लैंड के मजदूरों से अधिक सुखी हैं। वह सचमुच अपने दास-दासियों को खाने-पहनने का कष्ट नहीं देता। यों उसकी प्रकृति बहुत कठोर भी नहीं है। कोई उसका कहा नहीं मानता, तभी वह आग-बबूला होकर उसकी जान तक लेने में नहीं हिचकता। उसके कहे पर चलने से वह किसी को कभी नहीं पीटता। जब हम दोनों भाई साथ-साथ खेत का काम करते थे तब मैंने अल्फ्रेड से बड़ा अनुरोध किया कि इन दास-दासियों की शिक्षा के लिए एक पादरी रख दो। अल्फ्रेड का खयाल था कि कुत्ते-बिल्लियों के लिए पादरी रखने से जो नतीजा होता है, वही इन गुलामों के लिए पादरी रखने से होगा। फिर भी उसने मेरी प्रसन्नता की खातिर गुलामों की शिक्षा के वास्ते एक पादरी रख दिया। हर रविवार को पादरी साहब आकर उन्हें धर्म-शिक्षा दिया करते थे, लेकिन गुलामी में पड़े-पड़े इन गुलामों की आत्माएँ जड़ हो गई हैं। अच्छे-अच्छे उपदेश और शिक्षा का इनके जड़ हृदय पर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ता। बहन, तुम मुझे इन गुलामों को शिक्षा देने के संबंध में अक्सर कहा करती हो। लेकिन मैं तुमसे कहता हूँ कि जब तक इन्हें गुलामी की जंजीर मुक्त करके स्वाधीनता नहीं दी जाएगी, तब तक इन्हें शिक्षा देने का कोई नतीजा न होगा। इनमें कुछ धर्म जीवित जरूर दीखता है, पर उस धर्म-भाव में किसी प्रकार की वीरता व निर्भीकता का भाव नहीं है। यह भयभीत प्रकृति से उत्पन्न धर्म है।"
अफिलिया बोली - "हाँ, तुमने खेती के काम से कब संबंध छोड़ा, सो तो बताया ही नहीं।"
अगस्टिन ने कहा - "हाँ, दो बरस तक मैंने अल्फ्रेड के साथ खेत का काम किया। पर इतने दिनों के अनुभव से ही मुझे मालूम हो गया कि मेरे लिए यह काम बड़ा मुश्किल है और अल्फ्रेड ने भी जान लिया कि मुझसे कोई काम नहीं होता। मेरे संतोष के लिए वह कुलियों को नाना प्रकार की सुविधाएँ भी देने लगा, पर मेरा मन किसी तरह राजी न हुआ। मुख्य बात यह थी कि मैं कुलियों के साथ जैसा बर्ताव करने को कहता था, वैसा करने से काम में पूरी हानि होने की संभावना थी। मैं कुलियों से पशुओं की भाँति काम लेना बिल्कुल नहीं चाहता था। मनुष्य को पशु बनाकर धन बटोरने की फिक्र करना मुझे अत्यंत घृणित मालूम होने लगा। मैं स्वयं बड़ा आलसी हूँ, इससे स्वभावत: मुझे आलसी कुलियों पर भी तरस आ जाता था। आलस्य करने पर भी मैं उन्हें कभी मारने नहीं देना चाहता था। ऐसी दशा में मैंने सोचा तो यही उचित जान पड़ा कि मुझसे कुछ होना-जाना तो है नहीं, मेरे द्वारा अल्फ्रेड के काम में उल्टे और अड़चन पड़ती है, इससे उस काम को मैंने बिल्कुल छोड़ दिया। अल्फ्रेड ने सब खेत ले लिए और मैंने मकान और नकद संपत्ति ले ली।"
अफिलिया बोली - "इसके बाद फिर अपने दासों को तुमने क्यों नहीं छोड़ दिया?"
अगस्टिन ने कहा - "मेरा दिल इतना ऊँचा नहीं था। मैंने सोचा कि इन्हें रुपए कमाने की कल न बनाना ही काफी है, घर रखकर इनका भरण-पोषण करने से कोई दोष न होगा, खासकर इनमें से बहुतेरे हमारे पुराने नौकर हैं। मैं उन्हें बहुत चाहता था, और वे भी मुझे बहुत चाहते थे। जिन नए लोगों को तुम देखती हो, ये सब उन्हीं पुराने गुलामों के वंशज हैं। ये हमारे घर से किसी तरह हटना नहीं चाहते। ये यहीं पैदा हुए, यहीं बड़े हुए, इससे मुझसे इनकी बड़ी ममता हो गई है। बहन, मेरे जीवन में भी कोई समय था जब मैं बड़े-बड़े खयाली पुलाव बनाता था। मैं सोचा करता था कि इस संसार में मैं कुछ-न-कुछ करूँगा जरूर। यों ही निकम्मा जीवन नहीं बिताऊँगा। देश-सुधारक बनकर जन्म-भूमि से दास-प्रथा का कलंक दूर करने की मेरी बड़ी इच्छा थी, पर कोई भी इच्छा पूरी न हुई। जान पड़ता है, युवावस्था में सबके मन में ऐसी ही तरंगे उठा करती हैं। पर जब संसार की बेड़ी पाँव में पड़ जाती हैं तो जवानी के सब मंसूबे जहाँ-के-तहाँ रह जाते हैं।"
अफिलिया ने पूछा - "तुमने अपने जीवन के इस महान उद्देश्य को छोड़ क्यों दिया? अभी क्या बिगड़ा है। अब से तुम अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए यत्न कर सकते हो।"
अगस्टिन बोला - "युवा-अवस्था के आरंभ में ही मेरी आशा-लता पर पाला पड़ गया। मैं जैसे जीवन की आशा करता था, उसे प्राप्त नहीं कर सका। इसी से किसी काम में मेरा उत्साह नहीं रह गया। अब तो घटना-स्रोत के साथ बह रहा हूँ। पूर्णरूप से अवस्था का दास बन गया हूँ। संसार की वर्तमान अवस्थाओं और घटनाओं के पीछे खिंचा चला जा रहा हूँ। सच तो यह है कि अल्फ्रेड मुझसे सौगुना मजे में है। वह अर्थ-संग्रह को ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य समझता है और अपने उसी विश्वास के अनुसार काम भी कर रहा है। पर मेरा जीवन व्यर्थ ही जा रहा है। वही मसल हुई कि 'धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का'।"
अफिलिया ने कहा - "भैया, यों लक्ष्यहीन जीवन बिताकर क्या तुम शांति प्राप्त कर सकते हो?"
"शांति! कहाँ है शांति? अपने इस पाप-भरे जीवन में मुझे स्वयं से घृणा है। अपने आचरण और व्यवहार से मैं स्वयं संतुष्ट नहीं हूँ। ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि शीघ्र ही यहाँ से उठाकर जननी से मिला दे। मैं इस दास-प्रथा के संबंध में कभी अपना मत प्रकट नहीं करता, पर आज तुमने बड़े आग्रह से बार-बार पूछा, तब मुझे अपने मन की इतनी बातें तुमसे कहनी पड़ीं। इस देश में ऐसे बहुत से आदमी हैं, जो मेरी ही तरह गुलामी की प्रथा से हृदय से घृणा करते हैं। इस प्रथा के कारण सारे देश का सत्यानाश हुआ जा रहा है। तरह-तरह के पाप और व्यभिचार हमारे समाज में घुसते जाते हैं। नैतिक वायु दूषित होकर नाना प्रकार के मानसिक रोग उत्पन्न कर रही है। इस घृणित दास-प्रथा के कारण गुलामों का ही बुरा नहीं हो रहा है, बल्कि जो लोग इन्हें अपने घर में रखते हैं, इन पर प्रभुत्व करते हैं, उनकी इनसे भी अधिक क्षति हो रही है। मानसिक रोग भी, कई शारीरिक रोगों की भाँति, संक्रामक होते हैं। इन गुलामों की गिरी हुई मानसिक अवस्था संक्रामक रोग की भाँति हमारे सभ्य समाज का नाश कर रही है। यह निश्चित बात है कि जहाँ कहीं अथवा जिस किसी जाति में किसी एक श्रेणी के लोग बिल्कुल गिरी हुई दशा में जीवन बिताते हैं, वहाँ अथवा उस जाति के सब लोगों की अंतरात्माएँ उन गिरी हुई दशावाले लोगों की छूत से धीरे-धीरे कलुषित हो जाती हैं। समाज में एक श्रेणी के लोगों की अवनति दूसरी श्रेणी के लोगों को भी अवनति की ओर आकर्षित करती है। पर हमारे यहाँ इन गुलामों की गिरी हुई अवस्था सभ्य लोगों के जीवन को जितना कलुषित करती है, वैसी दशा और कहीं नहीं है। कारण यह है कि हमें दिन-रात इनके साथ रहना पड़ता है, क्योंकि इन्हें आठ पहर चौंसठ घड़ी घर में ही रखना पड़ता है, पर इंग्लैंड में यह बात नहीं। वहाँ गरीब मजदूरों के साथ रईस, जमींदार और महाजनों को रहना नहीं पड़ता। वहाँ काम लिया, दाम लिया और छुट्टी। यहाँ तो ये दिन-रात घर में बने रहते हैं। इसलिए इनके जीवन के बुरे उदाहरण, इनसे मालिकों का कठोर व्यवहार हमारे बाल-बच्चे दिन-रात देखते रहते हैं। इन बुरे उदाहरणों का प्रभाव उनके जीवन पर पड़े बिना नहीं रह सकता। इससे उनके चरित्र बिगड़ जाते हैं और मन विकृत हो जाते हैं। इवा यदि जन्म से ही देव-बाला सरीखी निर्मल प्रकृति की न होती तो अवश्य इनके साथ बरबाद हो जाती। हैजे के रोगी के पास रहने से जैसे हैजा होने का डर रहता है, वैसे ही इन्हें घर में रखकर सदैव अपना बुरा होने का डर है। हमारे यहाँ के राज-कर्मचारी इन्हें शिक्षित नहीं बनाना चाहते। वे कहते हैं कि शिक्षा पाते ही इनकी आँखें खुल जाएँगी और फिर ये तत्काल अपनी स्वाधीनता के लिए विद्रोही बन खड़े होंगे। पर इन अक्ल के अंधों को यह बात नहीं सूझती कि शिक्षा पाने से तो ये स्वाधीनता के लिए विद्रोही होंगे और दासता की बेड़ी काटने की चेष्टा करेंगे, पर बिना शिक्षा के कौन-सी भलाई हो रही है? भीतर-ही-भीतर उससे भी अधिक नाश हुआ जा रहा है, इसका उन्हें ख्याल ही नहीं। सचमुच इन कानून बनानेवालों और वकीलों से मनुष्य-समाज का जितना नुकसान हो रहा है, उतना और किसी श्रेणी के लोगों से नहीं।"
अफिलिया बोली - "गुलामी की इस प्रथा का अंतिम परिणाम क्या होगा?"
अगस्टिन ने कहा - "पता नहीं। पर एक बात निश्चित है; इनकी आँखें खुल रही हैं और इनकी दृष्टि स्वाधीनता की ओर बढ़ रही है। स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि थोड़े ही दिनों में बड़ा भारी सामाजिक विप्लव होनेवाला है। संसार के सभी देशों में निम्नश्रेणी के लोगों में नवजीवन का संचार दिखाई दे रहा है। मेरी माता कभी-कभी कहा करती थी कि जगत में शीघ्र ही स्वर्ग का राज्य होगा। उस समय ईसा मुकुट धारण करके इस संसार में राज्य करेंगे। तब संसार में दु:ख, कष्ट और यंत्रणा का नाम भी न रहेगा। सारे संसार में शांति छा जाएगी। मेरी माता ने जो प्रार्थना मुझे सिखलाई थी, उसमें यह वाक्य भी था-'हे पिता! संसार में आपका राज्य हो।' कभी-कभी मैं इन बेचारे गुलामों की आहें और उत्तेजित भाव देखकर, सोचता हूँ कि अब शीघ्र ही संसार में वह राज्य होनेवाला है। पिछले फ्रांसीसी विप्लव की आलोचना करने से सहज ही मालूम हो जाता है कि संसार में बहुत थोड़े ही दिनों में समानाधिकार की दुंदुभि बजनेवाली है।"
अफिलिया ने अपना बुनने का काम छोड़कर कहा - "मैं तो कभी-कभी सोचती हूँ कि तुम इसी स्वर्ग-राज्य में विचरते हो।"
अगस्टिन बोला - "हाँ, मेरी बातों से यही जान पड़ेगा, पर कार्य देखकर मालूम होगा कि मैं घोर नरक में पड़ा हुआ हूँ।"
ये बातें हो ही रही थीं कि भोजन की घंटी हुई।
भोजन के समय मेरी ने प्रू की घटना का उल्लेख करके कहा - "दीदी, मैं समझती हूँ कि तुम हम सब लोगों को जंगली जानवर समझती हो।"
अफिलिया बोली - "प्रू के साथ जैसा व्यवहार हुआ है, उसे मैं अवश्य पशु-तुल्य व्यवहार समझती हूँ। लेकिन मैं तुम सब लोगों को जंगली जानवर नहीं समझती।"
मेरी ने कहा - "तुम्हें नहीं मालूम कि इस गुलाम-जाति में कोई-कोई ऐसे पाजी होते हैं कि वे किसी तरह वश में नहीं आते। ऐसे पाजियों का मरना ही भला है। मुझे ऐसे लोगों से जरा भी हमदर्दी नहीं होती। मालिक के कहने पर चलें और भले बनने का यत्न करें तो इन लोगों को मार खाकर कभी न मरना पड़े।"
इवा ने कहा - "माँ, वह बेचारी बड़ी दु:खी थी। अपना दु:ख भूले रहने के लिए शराब पीती थी।"
मेरी बोली - "तू रहने दे दु:ख की बातें। दास-दासियों को दुख क्या? मैं तो दिन-रात शारीरिक दु:ख में पड़ी रहती हूँ, पर शराब नहीं पीती। मुझसे अधिक दुख उसे क्या होगा? पर सच तो यह है कि गुलामों की जाति बड़ी पाजी होती है। कितने तो ऐसे भी होते हैं कि हजार बेंत मारो, तब भी वे सीधे नहीं होते। मुझे याद है कि मेरे पिता के यहाँ एक गुलाम बड़ा ही आलसी था। वह काम से बहाना करके दलदल में रहता था। चोरी करता था, और भी कितने ही बुरे-बुरे काम करता था। उस पर बहुत मार पड़ती, पर उसका चाल-चलन तनिक भी न सुधरा। अंत में एक दिन कोड़ों की मार से उसकी चमड़ी उधड़ गई, फिर भी वह भटकते-भटकते दलदल में चला गया और वहीं मर गया। अब कोई क्या करे, पिता तो दासों के साथ बड़ी दया का बर्ताव करते थे।"
सेंटक्लेयर ने कहा - "मैंने एक बार बदमाश गुलाम को सीधा किया था। कितने ही मालिक और खेतों की देखभाल करनेवाले उससे हार चुके थे।"
मेरी बोली - "अच्छा, बताओ, तुमने भी इस जन्म में कभी कोई ऐसा काम किया था?"
सेंटक्लेयर ने कहा - "मैंने जिसे वश में किया था वह आदमी बड़ा बलवान था, सूरत-शक्ल में दैत्स-सा था। बड़ा स्वतंत्रता-प्रिय और तेजस्वी था। किसी से नहीं दबता था। ठीक अफ्रीकी सिंह-सा था। लोग उसे सीपिओ कहते थे। बहुतों के हाथ के नीचे वह रहा, पर किसी से सीधा न हुआ। अंत में अल्फ्रेड ने उसे खरीदा, क्योंकि उसने सोचा कि वह उसे दुरुस्त कर लेगा। एक दिन सीपिओ खेत के ओवरसियर को लात मारकर जंगल में भाग गया। मैं उसी समय अल्फ्रेड से मिलने गया था। यह बात मेरे खेत का साझा छोड़ देने के बाद की है। इस घटना से अल्फ्रेड बड़ा क्रुद्ध हो रहा था। मैंने उससे कहा कि उसके निज के दोष से ऐसा हुआ है। मैं उसे सहज ही वश में कर सकता हूँ। और यह तय हुआ कि उसे पकड़कर दुरुस्त होने के लिए मुझे सौंप दिया जाएगा। उसे पकड़ने के लिए पाँच-छ: आदमी, शिकारी कुत्ते और बंदूकें लेकर चले। हिरन का शिकार करने में मनुष्य जैसे उत्साही रहता है, वैसा ही मनुष्य का शिकार चालू रहने पर शिकार में भी मनुष्य का उत्साह हो जाता है। मैं भी थोड़ा उत्साही हो गया था, पर मेरा भाव उसे शिकारियों से बचाकर ही वश में करने का था। खैर, हम लोगों के इस दल ने उसका पीछा किया। कुछ देर तक तो वह भागा और उछला, पर थोड़ी ही देर में एक बेंत के झाड़-झंकार में उलझ गया और पकड़ा गया। तब उसने घूंसों से लड़ना आरंभ किया, और मैं तुमसे कहता हूँ कि वह बड़ी ही भयंकरता से लड़ा। उसने केवल घूंसों की मार से तीन कुत्तों को मार गिराया, पर अंत में हम लोगों की गोली की चोट खाकर वह धरती पर, मेरे पैरों के पास, गिर पड़ा। उसका सारा शरीर लहू-लुहान हो गया। उसने आँख उठाकर मेरी ओर देखा। उसकी आँखों में वीरता की ज्योति और निराशा का अंधकार, दोनों दिखाई पड़ते थे। मैंने अल्फ्रेड के आदमियों को उसे मारने से मना किया और मैं अल्फ्रेड से उसे खरीदकर ले आया। यहाँ वह पंद्रह दिन में ही इतना सीधा हो गया कि मेरे लिए जान तक दे सकता था।"
मेरी ने कहा - "तुमने उस पर ऐसा कौन-सा जादू कर दिया था?"
सेंटक्लेयर बोला - "मुझे उसके लिए कुछ अधिक नहीं करना पड़ा। मैं उसे साथ लेकर अपने निजी कमरे में गया और उसके लिए अच्छा बिछौना लगा दिया, उसकी मरहम-पट्टीकर दी और अपने हाथों से उसकी सेवा करता रहा। जब वह ठीक हो गया, तब मैंने उसे मुक्ति-पत्र देकर कहा कि जहाँ जी चाहे, वहाँ चला जा।"
अफिलिया ने पूछा - "क्या वह चला गया?"
सेंटक्लेयर ने जवाब दिया - "नहीं। उस मूरखराज ने उस कागज के दो टुकड़े करके फेंक दिए और मुझे छोड़कर जाने से इनकार कर दिया। ऐसा साहसी और विश्वासी नौकर मुझे फिर कभी नहीं मिला। थोड़े दिनों बाद वह ईसाई हो गया, और बच्चों की तरह सीधा हो गया। एक बार हैजे का बड़ा प्रकोप हुआ। मैं भी उसके चक्कर में आ गया। उस समय उसने मेरे लिए अपनी जान की बाजी लगा दी, क्योंकि मेरे बचने की आशा न देखकर घर के जितने लोग थे सब भाग गए, पर वह निर्भीक होकर जी-जान से मेरी सेवा करता रहा। उसी के यत्न और परिश्रम से मैं जीवित बच गया। पर अफसोस, कुछ ही दिनों बाद उसे भी हैजा हो गया और बहुत कोशिश करने पर भी वह मृत्यु के पंजे से न बच सका। उसकी मृत्यु से मुझे जितना दु:ख हुआ, उतना कभी नहीं हुआ।"
सेंटक्लेयर जब ये बातें कह रहा था, उस समय इवा धीरे-धीरे उसके पास आकर खड़ी हो गई थी। वह बड़ी उत्सुकता से आँखें फाड़कर एकाग्रता से पिता की ओर देख रही थी। सेंटक्लेयर की बात समाप्त होते ही वह उससे लिपटकर रोने लगी। उसका सारा शरीर काँपने लगा।
सेंटक्लेयर ने कहा - "इवा, प्यारी बच्ची, क्या हुआ?" और फिर कहा - "तुमको ये बातें नहीं सुननी चाहिए। तुम बहुत ही कमजोर हो।"
तब इवा ने आत्मसंयम करके कहा - "नहीं बाबा, मैं कमजोर नहीं हूँ; पर ये बातें मेरे हृदय में बहुत चुभती हैं।"
सेंटक्लेयर बोला - "इवा बेटी, तुम्हारे कहने का क्या मतलब है?"
इवा ने कहा - "बाबा, मैं तुम्हें समझा नहीं सकती। मेरे मन में बहुतेरे विचार चक्कर लगाया करते हैं। शायद किसी दिन मैं तुमसे कहूँगी।"
सेंटक्लेयर ने कहा - "बेटी, चाहे जितना सोचती-विचारती रहो, केवल रोकर अपने बाबा का जी मत दुखाना। लो, यह देखो, तुम्हारे लिए मैं कैसा सेब लाया हूँ।"
पिता के हाथ से सेब लेकर इवा मुस्कराई, किंतु उस समय भी उसके होठ काँप रहे थे। सेंटक्लेयर उसका हाथ पकड़कर उसे बरामदे में ले गया और तरह-तरह की चीजें दिखाकर उसे बहलाने लगा। कुछ ही क्षणों के बाद दोनों को हँसी सुनाई दी, मानो दोनों खेल रहे हों।
बड़ों की बातें कहते-कहते हम अपने मित्र टॉम की बात भूले जा रहे हैं, पर यदि आप हमारे साथ अस्तबल की कोठरी में चलें तो टॉम की कुछ खबर पा सकते हैं। टॉम की यह कोठरी बहुत ही साफ-सुथरी है। उसमें एक चारपाई, एक कुर्सी और एक मेज रखी है। उस पर एक बाइबिल और भजनों की एक पुस्तक है। टॉम इसी कोठरी में बैठा हुआ किसी गहरी चिंता में डूबा है। सामने एक स्लेट है। स्त्री, पुत्र और कन्या आदि के लिए उसका मन व्याकुल हो रहा है। उनका समाचार जानने के लिए उसने इवा से चिट्टी लिखने का एक कागज माँग लिया है और पत्र लिखने के कठिन काम में जुट गया है। पहले के मालिक के लड़के जार्ज से टॉम ने थोड़ा-थोड़ा लिखना सीखा था; लेकिन सब अक्षर अब उसे याद नहीं हैं। जो याद हैं, उनमें भी कोई कहाँ लिखना चाहिए, यही समझ में नहीं आता। टॉम बड़ी कठिनाई से स्लेट पर पत्र-रचना कर रहा था, इसी समय चिड़ियों की तरह फुदकती हुई इवा चुपके से आकर उसके पीछे खड़ी हो गई और कंधे पर से झाँककर बोली - "अहा टॉम काका! यह तुम क्या तमाशा कर रहे हो?"
टॉम ने कहा - "मिस इवा! मैं अपनी बेचारी बुढ़िया पत्नी तथा अपने छोटे बच्चों को पत्र लिखने की कोशिश कर रहा हूँ, पर मैं देखता हूँ कि यह काम मुझसे होगा नहीं।"
इवा ने कहा - "टॉम, मैं तुम्हारी सहायता करना चाहती हूँ। मैंने कुछ लिखना सीखा था। पिछले साल मैं सब अक्षर जानती थी, पर जान पड़ता है, अब मैं सब भूल गई हूँ।"
इसके बाद दोनों पास बैठकर एक मन से पत्र लिखने में लग गए। दोनों की विद्या की दौड़ बराबर ही है। बड़े परिश्रम और एक-दूसरे से सलाह करने के बाद एक-एक शब्द लिखा जाने लगा। अंत में इवा ने उत्साह से कहा - "टॉम काका, खूब अच्छी चिट्ठी बन गई। तुम्हारी पत्नी और बच्चे इसे पाकर बड़े खुश होंगे। ओह, बड़े दु:ख की बात है कि इन लोगों को छोड़कर तुम्हें आना पड़ा। मैं किसी दिन बाबा से कहूँगी कि वह तुम्हें उन लोगों के पास लौट जाने दें।"
टॉम ने कहा - "मेरी मालकिन ने कहा है कि रुपया जुटते ही वह मुझे फिर खरीद लेंगी। मालिक के बेटे जार्ज ने कहा है कि वह खुद आकर मुझे ले जाएँगे। यह देखो, उन्होंने अपनी याद की निशानी के रूप में मुझे यह मुद्रा दी है।"
उसने कपड़ों के भीतर से मुद्रा निकालकर दिखलाई।
इवा बोली - "हाँ-हाँ, तब वह जरूर आकर तुम्हें ले जाएँगे। मुझे बड़ी खुशी होती है।"
टॉम ने कहा - "इसी से मैं पत्र लिखकर उन्हें अपना पता बता देना चाहता हूँ और अपनी कुशल लिख देना चाहता हूँ। इससे मेरी पत्नी लोई को बड़ा संतोष होगा। चलते समय वह मेरे लिए बहुत रोई थी।"
इतने में सेंटक्लेयर ने दरवाजे से आते हुए आवाज दी - "टॉम!"
टॉम और इवा दोनों चौंक पड़े।
सेंटक्लेयर ने अंदर आकर और स्लेट देखकर कहा - "क्या हो रहा है यह?"
इवा बोली - "यह टॉम की चिट्ठी है। मैं लिखने में इसकी मदद कर रही हूँ। क्या यह अच्छी बात नहीं हुई?"
सेंटक्लेयर ने कहा - "मैं तुम्हारा साहस भंग नहीं करना चाहता। पर मेरी समझ में अच्छा होता कि टॉम मुझसे चिट्ठी लिखवा लेता। मैं घूमकर आऊँगा तो लिख दूँगा।"
इवा बोली - "यह जरूर चिट्ठी लिखवाएगा क्योंकि उसकी मालकिन ने उसे रुपया भेजकर फिर खरीद लेने का वादा किया है। वह अभी मुझे बता रहा था।"
सेंटक्लेयर ने मन-ही-मन सोचा कि यह केवल फुसलाने की बात है। जो लोग कुछ दयालु होते हैं, वे दासों को बेचने के समय ऐसी ही बातें कहकर झूठमूठ उसे समझा देते हैं। लेकिन उसने मुँह से कुछ कहा नहीं, केवल टॉम को घोड़ा कस लाने की आज्ञा दी।
शाम को लौटकर सेंटक्लेयर ने टॉम की चिट्ठी लिखकर डाक में डलवा दी।
इधर मिस अफिलिया घर के कामों में लगी रहती थी। दीना से लेकर दास बच्चे तक सब कहते थे कि मिस अफिलिया अजब किसम की स्त्री है, क्योंकि उसके नियमों के कारण सब तंग आ रहे थे।
उच्च श्रेणी के दास-दासियों अर्थात् एडाल्फ, रोजा और जेन की तो राय थी कि वह भली औरत नहीं है, क्योंकि उसके हावभाव बड़े आदमियों के-से नहीं हैं। इस पर उन्हें बड़ा अचरज होता था कि वह सेंटक्लेयर की चचेरी बहन है। मेरी का कहना था कि अफिलिया दीदी जिस तरह दिन-रात काम में जुटी रहती हैं, उसे देखने से ही आदमी को थकावट हो जाती है।
23. अफिलिया की परीक्षा
एक दिन सवेरे जब मिस अफिलिया घर के कामज-काज में लगी हुई थी, उसी समय सेंटक्लेयर ने सीढ़ी के पास खड़े होकर उसे पुकारा - "बहन, नीचे आओ, मैं तुम्हें दिखाने के लिए एक चीज लाया हूँ।"
मिस अफिलिया ने नीचे आकर पूछा - "कहो, क्या दिखाते हो?"
सेंटक्लेयर ने आठ-नौ वर्ष की एक हब्शी लड़की को खींचकर उसके सामने कर दिया।
लड़की बहुत ही काली थी। अपने चंचल नेत्रों से वह कमरे की चीजों को बड़े कौतूहल से देख रही थी। जिस प्रकार अत्याचार से पीड़ित होकर हृदय की नीचता और दुष्टता बाहरी गंभीर भाव के आवरण से ढकी रहती है, उसी प्रकार बाहरी गंभीर भाव और विनय उसके मुँह पर झलक रही थी। उसके कपड़े बड़े मैले-कुचैले और फटे-पुराने थे; शरीर उसका दुबला-पतला और बड़ा ही गंदा था। उसे देखकर मिस अफिलिया ने पूछा - "अगस्टिन, क्या सोचकर तुमने इसे खरीदा है?"
सेंटक्लेयर बोला - "यही कि तुम इसे सिखाओ-पढ़ाओ और कर्तव्य का ज्ञान कराओ। इसका नाम टप्सी है। यह खूब नाचती-गाती है।"
इसके बाद सेंटक्लेयर ने टप्सी से कहा - "यह तेरी नई मालकिन हैं। मैं इनके हाथ में तुझे सौपता हूँ। देखना, इन्हें खुश रखना।"
टप्सी गंभीरता का भाव धारण करके बोली - "जो आज्ञा!"
सेंटक्लेयर ने फिर कहा - "टप्सी, तुझे भला बनना पड़ेगा।"
उसने फिर कहा - "जो आज्ञा!"
मिस अफिलिया ने सेंटक्लेयर से कहा - "अगस्टिन, तुम्हारा घर यों ही इन गुलामों और इनके बच्चों से भरा पड़ा है। इनके मारे घर में पैर रखने की तो जगह नहीं है। सवेरे उठ कर देखती हूँ, कोई दरवाजे के पास पड़ा है तो दो-एक मेज के नीचे से सिर निकाल रहे हैं, कोई सीढ़ी पर पड़ा हुआ है तो कोई नहीं। फिर इतनों के होते हुए भी यह एक और नई आफत क्यों मोल ले आए?"
अगस्टिन बोला - "मैंने तुमसे कहा न कि सिखाने-पढ़ाने के लिए। तुम शिक्षा पर बहुत भाषण दिया करती हो। इससे मैंने सोचा कि इसे तुमको दूँगा, जिससे तुम इसे खूब पढ़ा-लिखाकर अपने साँचे में ढालो और इसे कर्तव्य का ज्ञान कराओ।"
अफिलिया ने कहा - "मैं इस नहीं चाहती। पहले से ही जितने हैं, कम नहीं हैं। उन्हीं के लिए कुछ कर सकूँ तो बहुत है।"
अगस्टिन बोला - "बस, यही तुम ईसाइयों का धर्म है! एक सभा बना ली और दो-चार गरीब लड़कों को, (जो दरिद्रता के मारे पढ़ नहीं सकते) पादरी बनाकर धर्म-प्रचार करने को विदेश में भेज दिया। इन बेचारों को जन्म भर विदेश में गला फाड़-फाड़कर मरना पड़ता है। तुम लोग दो-एक को सिखा-पढ़ाकर ईसाई बनाओ तो जानूँ कि अलबत्ता तुम लोग धर्म पर श्रद्धा रखते हो। पर तुमसे परिश्रम नहीं होगा, मुँह से चाहे जो कह लो, काम पड़ने पर कहोगी कि ये मैले हैं, बड़े गंदे हैं, इन्हें देखकर घिन आती है।"
अफिलिया बोली - "मेरे कहने का मतलब यह नहीं था। इसे पढ़ाना धर्म का काम जरूर है, पर तुम्हारे घर में तो यों ही बेहिसाब दास-दासी भरे पड़े हैं। मेरा समय और दिमाग चाटने के लिए वही काफी हैं। एक नए को और लाए बिना आखिर क्या बिगड़ रहा था?"
सेंटक्लेयर ने कहा - "खैर बाबा, तुम रास्ते पर आईं, यही बहुत है। सुनो, मैं इसे केवल शिक्षा दिलाने के लिए नहीं लाया हूँ। पड़ोस में हमारे एक साहब हैं। वह मर्द-औरत दोनों-के-दोनों बड़े शराबी हैं। यह लड़की उन्हीं के यहाँ रहती थी। वे दिन-रात इसे पीटते थे और यह चिल्लाया करती। इसकी चीखों के मारे घर के सामने से गुजरना मुश्किल था, इसी से मैंने इसे खरीद लिया। इसमें कुछ अक्ल जान पड़ती है। कोशिश करके देखो कि तुम इसे सिखा-पढ़ाकर आदमी बना सकती हो कि नहीं। मैं इसे तुम्ही को सौंप दूँगा। तुम इसे अपना ईसाई धर्म सिखलाओ। मुझमें तो शिक्षा देने की योग्यता नहीं है। तुम कुछ कर सको तो यत्न करके देखो!"
जैसे कोई दुर्गंधित और सड़ी हुई चीज को उठाने के लिए बेमन से आगे बढ़ता है, वैसे ही मिस अफिलिया उस बालिका के पास जाकर बोली - "ओह, कितनी गंदी है! आधे बदन पर कपड़ा ही नहीं है।"
वह उसे नीचे रसोईघर के पास ले गई। उसे देखकर दीना बोली - "मेरी तो अक्ल ही काम नहीं करती कि मालिक ने इसे किसलिए खरीदा है। मैं इसे अपने पास नहीं रहने दूँगी।"
जेन और रोजा ने मुँह बनाकर कहा - "हम इसे कभी अपने पास न आने देंगी।"
मिस अफिलिया ने देखा कि उस बालिका का बदन धोना और कपड़े पहनाना तो दूर की बात है, कोई उसको छूना भी नहीं चाहता। तब ईसाई धर्म के अनुरोध से लाचार होकर वह स्वयं ही उसका शरीर साफ करने लगी। बड़ी अनिच्छा से जेन ने उसकी कुछ मदद की।
लड़की की पीठ और कंधों पर कोड़ों की मार के दाग और घाव देखकर मिस अफिलिया को उस बच्ची पर बड़ी दया आई।
साफ कपड़े पहनाकर अफिलिया ने कहा - "अब यह जरा ईसाई-सी जान पड़ती है।" फिर मन ही मन उसका शिक्षाक्रम निश्चय करके पूछने लगी - "टप्सी, तू कितने बरस की है?"
टप्सी ने दाँत निपोरकर कहा - "मालूम नहीं।"
अफिलिया बोली - "अरी, तू अपनी उम्र नहीं जानती? तुझे कभी किसी ने नहीं बताई। तेरी माँ कहाँ है?"
टप्सी ने फिर खीस निकालकर कहा - "मेरे माँ कभी नहीं थी।"
"तेरे माँ कभी नहीं थी! इसके क्या माने? तू कहाँ पैदा हुई थी?"
"मैं कभी पैदा नहीं हुई थी।"
"मेरी बातों का जवाब इस तरह नहीं देना चाहिए। मैं तेरे साथ खेल नहीं कर रही हूँ। तू बता कहाँ जन्मी थी और तेरे माँ-बाप कौन थे?"
"मैं कभी नहीं जन्मी थी। एक व्यापारी के यहाँ बूढ़ी मौसी ने मुझे कुछ और लड़कों के साथ पाला था।"
जेन दाँत निकालकर बोली - "मिस साहब, आप जानती नहीं कि गुलामों का व्यापार करनेवाले लोग बकरी के बच्चों की तरह छोटे-छोटे लड़के-लड़कियों को खरीद लाते हैं और कुछ दिन उन्हें पालकर बड़े होने पर बाजार में बेचते हैं। शायद इसे भी किसी व्यापारी ने दो-तीन बरस की उम्र में खरीदा होगा, इसी से यह अपने माँ-बाप की बाबत कुछ नहीं जानती।"
अफिलिया ने पूछा - "इस मालिक के घर तू कितने दिनों से थी?"
"मालूम नहीं!"
जेन बोली - "हब्शी बच्चे ये सब बातें नहीं बता सकते। इन्हें न गिनती आती है और न यही जानते हैं कि बरस किसे कहते हैं।"
अफिलिया ने पूछा - "टप्सी, तुने कभी ईश्वर का नाम सुना है?"
टप्सी को इस सवाल पर अचरज हुआ, पर वह अपने स्वभाव के अनुसार खीस निकालकर हँसने लगी।
"तू जानती है, तुझे किसने बनाया है?" अफिलिया ने अगला सवाल किया।
"किसी ने नहीं बनाया। मुझे लगता है, मैं अपने-आप बड़ी हो गई।"
"तू सीना जानती है?"
"नहीं।"
"तू क्या कर सकती है? अपने मालिक के यहाँ तू क्या करती थी?"
"पानी भरती थी, बरतन माँजती थी, छुरी-काँटा साफ करती थी।"
"क्या वे तुझसे भलमनसी का बर्ताव करते थे?"
अफिलिया की ओर एकटक देखकर वह बोली - "जान पड़ता है, वे अच्छे थे।"
इसी समय सेंटक्लेयर ने आकर मिस अफिलिया की कुर्सी के पीछे से कहा - "जीजी, इसे पढ़ाने में बड़ी सुविधा रहेगी। इसके मन में कोई पूर्व संस्कार नहीं है। इसका मन एकदम कोरे कागज की तरह है। तुम्हें इसके किसी तरह संस्कार दूर करने का कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा।"
मिस अफिलिया के शिक्षा-संबंधी विचार भी उसके और विचारों की भाँति एकदम नपे-तुले हुए थे। उसके ये विचार वैसे ही थे, जैसी शिक्षा सौ बरस पहले इंग्लैंड में प्रचलित थी। छात्रों के लिए जो जरूरी हो, उसे मन लगाना सिखलाना; सवाल-जवाब के ढंग से बालकों को यह बताना कि ईश्वर ने ही इस जगत को रचा है और वही पालन कर रहा है; पुस्तक-पाठ, सीना-पिरोना और झूठ बोलने पर सड़ासड़ बेतों की मार! अफिलिया ने इन्हीं नियमों के अनुसार टप्सी को शिक्षा देने का निश्चय किया।
सेंटक्लेयर के परिवार में सब टप्सी को मिस अफिलिया की लड़की कहते और समझते थे। सताए हुए लोग इतने गिर जाते हैं कि एक-दूसरे के लिए उनकी कुछ भी सहानुभूति नहीं होती, इसी से सेंटक्लेयर के घर का कोई दास-दासी टप्सी को स्नेह की दृष्टि से नहीं देखता था। सब उसे एक बला समझते थे। इसी कारण मिस अफिलिया उसे अपने ही सोने के कमरे में रखती थी और उसे बिस्तर बिछाने का काम दे रखा था। पर टप्सी से मिस अफिलिया को कितना कष्ट मिल रहा था, इसे उसका जी ही जानता था। लेकिन उसमें हद दर्जे की सहिष्णुता भी थी, इससे वह घबराई नहीं।
पहले दिन मिस अफिलिया ने टप्सी को बिछौना करने का ढंग और उसकी बारीकियाँ बताना आरंभ किया।
"टप्सी, मैं तुझे बताती हूँ कि मेरा बिछौना इस तरह बिछाना। देख ले, अच्छी तरह सीख ले।"
टप्सी ने बड़े उत्साह से कहा - "जो आज्ञा!"
अफिलिया बोली - "टप्सी, इधर देख, यह चादर की सीधी परत है, यह उल्टी। तुझे याद रहेगा न? उल्टी ओर से मत बिछाना।"
बड़े ध्यान से देखते हुए टप्सी ने कहा - "जो आज्ञा!"
जिस समय मिस अफिलिया उसे बिछौना बिछाने का ढंग सिखा रही थी, उसी समय टप्सी ने धीरे-धीरे उसके फीते और दस्ताने चुराकर अपनी आस्तीन में छिपा लिए। अफिलिया ने कहा - "अच्छा, अब बिछाकर दिखला।"
टप्सी बड़ी चतुराई से बिस्तर बिछाने लगी। अफिलिया बड़ी प्रसन्न हुई। लेकिन तभी दुर्भाग्यवश टप्सी की आस्तीन से अकस्मात् फीता बाहर निकल आया। यह देखकर अफिलिया बोली - "अरी, यह क्या? तू बड़ी खोटी है। तूने चोरी करना भी सीखा है?"
यह कहकर उसकी आस्तीन से फीता निकाल लिया। लेकिन टप्सी इससे जरा भी नहीं झेंपी। बड़ी गंभीर बनकर खड़ी रही और जरा देर बाद मानो कोई बात ही न हो, बोली - "मेम साहब का फीता मेरी आस्तीन में कैसे आ गया?"
अफिलिया ने कहा - "तु बड़ी दुष्ट है। मुझसे झूठ मत बोल। तूने फीता चुराया था।"
टप्सी बोली - "मेम साहब, मैं सच कहती हूँ कि मैंने इससे पहले कभी ऐसा फीता नहीं देखा था।"
"टप्सी, तू नहीं जानती कि झूठ बोलना कितना बड़ा पाप है।"
"मेम साहब, मैं कभी झूठ नहीं बोलती। मैं सच-ही-सच कहती हूँ।"
"टप्सी, इस तरह झूठ बोलेगी तो मैं तुझे कोड़े लगाऊँगी।"
"दिन भर बेंत लगाने से भी कोई दूसरी बात नहीं हो सकेगी। मैंने कभी यह फीता नहीं देखा था। आपने बिछौने पर रखा था, सो मेरी आस्तीन में चला गया।"
टप्सी के यों लगातार झूठ बोलने से मिस अफिलिया को ऐसा गुस्सा आया कि उसने कुर्सी से उठकर उसे पकड़कर झकझोरा और कहा - "फिर कभी मुझसे झूठ मत बोलना।"
अफिलिया का झकझोरना था कि टप्सी की दूसरी आस्तीन से दस्ताने निकल पड़े?
अफिलिया ने कहा - "अब बोल, अब भी कहेगी कि तूने दस्ताने नहीं चुराए? फीता तो अपने-आप आस्तीन में चला गया! ये दस्ताने किसने तेरी आस्तीन में ठूँस दिए?"
टप्सी ने दस्तानों की चोरी स्वीकारकर ली, पर फीते की चोरी से इनकार करती गई।
अफिलिया ने कहा - "टप्सी, अगर तू अपनी गलती मान ले तो तुझे चाबुक नहीं लगाऊँगी।"
टप्सी ने सब चीजों की चोरी स्वीकार कर ली और अपनी भूल के लिए बहुत पछतावा करने लगी।
अफिलिया ने कहा - "मैं जानती हूँ कि तूने घर की और भी चीजें चुराई होंगी। कल मैंने तुझे घर में बहुत बार इधर-उधर फिरते देखा था। अगर और कोई चीज चुराई हो तो सही-सही बता दे, मैं तुझे नहीं मारूँगी।"
"मेम साहब, मैंने इवा के गले का हार चुराया है।"
"अरी दुष्टा, और बोल!"
"रोजा के कान की बाली चुराई है।"
अफिलिया ने संयत स्वर में कहा - "जा, अभी दोनों चीजें ला।"
"मेरे पास नहीं हैं। मैंने फूँक डाली।"
"फूँक डाली! झूठ बोलती है। जा, झटपट ला, नहीं तो कोड़े खाएगी।"
टप्सी ने रोते और सिसकते हुए कहा कि वह नहीं ला सकती। सब चीजें जल गईं।
"तूने उन चीजों को जलाया क्यों!"
"मैं बड़ी पापिन हूँ, दुष्टा हूँ, इसी से ऐसा किया।"
ठीक इसी समय इवा अपना हार गले में पहने हुए वहाँ आई। अफिलिया ने कहा - "क्यों इवा, तुमने अपना हार कहाँ पाया?"
इवा विस्मय से बोली - "पाया! खोया कहाँ था! यह तो मेरे गले ही में पड़ा है।"
"कल तूने इसे पहन रखा था?"
"हाँ बुआ, यह सारी रात मेरे गले ही में रहा है। सोते समय मैं इसे उतारकर रखना भूल गई थी।"
अफिलिया अब बड़े चक्कर में पड़ी। इतने में रोजा भी अपनी बाली झुलाती हुई आ पहुँची। उसे देखकर अफिलिया को और भी अचरज हुआ। उसने बड़ी निराशा से कहा - "हे राम, मैं इस लड़की को लेकर क्या करूँगी?" फिर बोली - "टप्सी, तूने जो चीजें नहीं चुराईं, उनके लिए कैसे कह दिया कि तूने चुराई हैं?"
टप्सी ने आँखें मलते हुए कहा - "मेम साहब, आपने मुझे सब स्वीकार करने को कहा था, इसी से मैंने सब स्वीकार कर लिया।"
"लेकिन मैंने तुझसे यह तो नहीं कहा था कि जो नहीं लिया है उसे भी स्वीकार कर ले। यह भी वैसा ही बड़ा झूठ है, जैसा दूसरा।"
टप्सी ने बड़े सरल और आश्चर्य भाव से कहा - "अच्छा यह बात है?"
इस पर रोजा ने टप्सी की ओर तीव्र दृष्टि से देखकर कहा - "भला यह सच कहेगी? मैं इसकी मालिक होती तो मारे कोड़ों के इसकी चमड़ी उधेड़ देती।"
इवा ने आज्ञा के ढंग से कहा - "चुप रहो रोजा, मैं तुम्हारी ऐसी बातें सुनना पसंद नहीं करती।"
रोजा ने कहा - "मिस इवा, तुम बड़ी दयालु हो। इन शैतानों से व्यवहार करना नहीं जानती हो। ये जितने ही काटे जाएँ, उतने ही सीधे रहते हैं।"
इवा ने क्रुद्ध होकर कहा - "रोजा, खबरदार जो ऐसी बात मुँह से फिर कभी निकाली।"
रोजा सकपका गई।
इवा खड़ी टप्सी को देखती रही। आमने-सामने खड़ी ये बालिकाएँ पराधीनता और स्वाधीनता के दो जीत-जागते उदाहरण हैं। स्वाधीनता के उत्तम और पराधीनता के बुरे फल का कैसा अच्छा चित्र है! स्वाधीनता की गोद में पली हुई इवान्जेलिन उमंग से उमड़े हुए सरल और स्नेह भाव से टप्सी को उपदेश दे रही है और टप्सी शुष्क हृदय से बनावटी विनय दिखलाकर संदिग्ध चित्त से उसकी बातें सुन रही है। कितना भेद है! इवा ने कहा - "टप्सी, तू चोरी क्यों करती है? तुझे जो चीज चाहिए, मैं दूँगी। तू फिर चोरी मत करना।"
यह पहला अवसर था जब टप्सी ने ऐसे मधुर और स्नेह-पूर्ण वचन सुने। इस स्नेह-संभाषण से उसका हृदय पिघलने लगा। उसकी आँखों से दो बूँद आँसू गिर पड़े, पर तुरंत ही उसके कठोर भाव ने आकर फिर उसके हृदय पर अधिकार कर लिया। उसने दाँत दिखलाकर इवा की बात हँसी में उड़ा दी। उसे इस बात का बिल्कुल विश्वास नहीं हुआ कि इवा उसे अपनी चीजें दे सकती है।
टप्सी के मन में ऐसे भावों का उदय होना स्वाभाविक था। उसे इस जन्म में न किसी ने प्यार किया, न उसके प्रति दया दिखलाई। उसे कोड़ों की मार और ऊपर से तिरस्कार के सिवा कभी और कुछ नसीब नहीं हुआ। भला ऐसी दशा में पली हुई लड़की इवा की उन सरलतापूर्ण बातों पर सहसा कैसे विश्वास कर सकती थी? उसे इवा की बातें मजाक-सी जान पड़ीं। अफिलिया ने टप्सी को पढ़ाने-लिखाने के अनेक ढंग सोचे, अनेक उपाय किए, पर कोई विधि कारगर न हुई। टप्सी की दुष्टता किसी तरह कम न हुई। हारकर एक दिन अफिलिया ने सेंटक्लेयर से कहा - "मेरी तो समझ में ही नहीं आता कि बिना कोड़े लगाए मैं कैसे उसे राह पर लाऊँ?"
सेंटक्लेयर बोला - "तब तुम अपने दिल के संतोष के लिए उसे कोड़े ही लगाओ। मैं तुम्हें उस पर पूरा अधिकार देता हूँ। जो चाहो, सो करो।"
"लड़के बिना मार के सीधे नहीं होते, पिटने से ही उनकी अक्ल दुरुस्त होती है।"
सेंटक्लेयर ने कहा - "हाँ-हाँ, जरूर। जो तुम ठीक समझो, करो। पर, मैं तुमसे एक बात कहता हूँ। मैंने देखा है कि इस लड़की पर खूब कोड़े पड़ते थे, लोहे की छड़ को गर्म करके इसे दागा जाता था, इसकी लात-घूँसों से ठुकाई होती थी, फिर भी इसका स्वभाव दुरुस्त नहीं हुआ। इसी लिए जब तक इसकी और ज्यादा मरम्मत न होगी, तब तक कुछ न होगा।"
"तब बोलो, क्या उपाय हो? अफिलिया ने पूछा।"
"तुम्हारा सवाल टेढ़ा है।" सेंटक्लेयर बोला - "मैं चाहता हूँ कि तुम अपने-आप ही इसका उत्तर सोच लो। मुझे ऐसे लोगों की दवा नहीं मालूम, जिन्हें कोड़े खाने पड़ते हैं और जो कोड़े खाकर भी नहीं सुधरते।"
अफिलिया बोली - "मेरी तो अक्ल ही काम नहीं करती। मैंने कभी ऐसी लड़की नहीं देखी।"
"क्यों? बस मुझको ही दोष देने के लिए हो? मेरी तो तुम बहुत लानत-मलामत किया करती हो - दास-दासियों को शिक्षा नहीं देते, इनका सत्यानाश कर रहे हो! अब क्या हो गया? तुमसे एक छोटी-सी आत्मा का भी उद्धार करते नहीं बनता? मैं तुमसे यह भी कह देता हूँ कि कोड़ों की मार से इनका सुधार कभी नहीं हो सकता। कोड़ों की मार अफीम की खुराक की तरह होती है। रोज-रोज खुराक बढ़ानी पड़ती है, अंत में बढ़ते-बढ़ते उसका ठिकाना नहीं रहता। प्रू की मौत क्यों हुई? रोज उसके मालिक को कोड़ों की संख्या बढ़ानी पड़ती थी। यों ही बढ़ाते-बढ़ाते आखिर कोड़ों ने ही उसकी जान ले ली। इसी से मैं अपने दास-दासियों को कोड़े नहीं लगाता। मेरे यहाँ के दास-दासी भी बिगड़े हुए हैं। पर कोड़ों की मार से ये नहीं सुधारे जा सकते। इन्हें मारकर और तो कुछ होना नहीं है, अपनी भी प्रकृति पशुओं जैसी बना लेनी है।"
"तुम्हारे यहाँ की दास-प्रथा की बलिहारी!"
"बेशक मैं तो खुद कहता हूँ। पर अब तो ये बुरे बन गए। अब इनके लिए क्या होना चाहिए।"
अफिलिया बोली - "यह तो मैं नहीं कह सकती, लेकिन मैंने अब इनके सुधार को अपना कर्तव्य मान लिया है। अब मैं जी-जान से टप्सी के सुधार का यत्न करूँगी।"
इसके बाद अफिलिया टप्सी के सुधार के लिए बड़ा परिश्रम करने लगी। वह अपने कई घंटे इस काम में लगा देती थी। कैसी भी हैरानी हो, वह परवा नहीं करती थी। इस मेहनत का नतीजा यह हुआ कि टप्सी ने जल्दी ही किताब पढ़ना सीख लिया। पर और कामों में उसका नटखटपन ज्यों-का-त्यों रहा। सिलाई सीखने के समय कभी वह सुई तोड़ डालती, कभी तागे का गोला नोच डालती और कभी कूदकर पेड़ पर चढ़ जाती। ये सब उत्पाद देखकर अफिलिया ने सोचा कि कहीं इसके संग का बुरा प्रभाव इवा पर न पड़े। उसने सेंटक्लेयर से इसकी चर्चा की तो सेंटक्लेयर ने इसे हँसी में उड़ा दिया और कहा कि इवा पर किसी की संगत का बुरा प्रभाव नहीं पड़ सकता। कमल पर जैसे जल असर नहीं कर सकता, वैसे ही इवा के हृदय को कोई भी बुराई नहीं छू सकती।
शुरू में घर के दास-दासी टप्सी से घृणा करते थे। वह उनके पास नहीं फटकने पाती थी, पर अब उससे सब चौंकते थे। वह बड़ी धूर्त थी। जो कोई उसे नाखुश करता, उसका वह नाक में दम कर देती। चुपके से उसके कपड़े कैंची से या दाँतों से काट देती, नहीं तो स्याही ही पोत देती, या उसकी कोई चीज ही चुरा लेती। किसी से छिपा नहीं था कि यह टप्सी की ही करतूत है। कोई उससे कुछ कह भी नहीं सकता था, क्योंकि उसके विरुद्ध कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिलता था, और बिना प्रत्यक्ष प्रमाण के, संदेह का लाभ अपराधी को उठाने देने की पक्षपातिनी अफिलिया दंड न देती थी। टप्सी दास-दासियों को ही तंग नहीं करती थी, वह अफिलिया को भी बहुत परेशान करती थी। एक दिन अफिलिया अपने कपड़ों के संदूक की कुंजी बाहर भूल गई। वह टप्सी के हाथ लग गई। उसने किया क्या कि संदूक से अफिलिया का बहुत बढ़िया दुशाला निकालकर उसे सिर पर लपेट लिया और कुर्सी पर बैठकर आईने में मुँह देखने लगी। अफिलिया ने कमरे में आकर जब यह हाल देखा तो गुस्से में भरकर बोली - "यह तू क्या कर रही है?"
टप्सी ने जवाब दिया - "मैं कुछ नहीं जानती। मैं बड़ी दुष्ट हूँ।"
अफिलिया ने झुँझलाकर कहा - "मेरी समझ में नहीं आता कि तेरे साथ किस तरह पेश आऊँ?"
टप्सी बिना झिझक के बोली - "मेम साहब, मुझे बेंत मारिए, मेरे पहले मालिक भी मुझे बेंत लगाते थे।"
"टप्सी" , अफिलिया ने दया से प्रेरित होकर कहा - "मैं तुझे बेंत नहीं लगाना चाहती, तू अपनी इच्छा से ही सुधर सकती है। तू इस तरह की दुष्टता छोड़ क्यों नहीं देती?"
"मेम साहब, मैंने बेंत खाए हैं। मैं समझती हूँ कि मेरे लिए वही ठीक दवा होगी।" टप्सी ने कहा।
अफिलिया अब कभी-कभी टप्सी को बेंत जमाने लगी। बेतों की मार खाते समय वह बहुत चीखती और तरह-तरह के स्वाँग रचती पर छूटते ही दूसरे लड़कों से जाकर कहती - "मिस अफिलिया का बेंत मारने का ढंग अच्छा नहीं है। उनकी मार तो मुझे मालूम ही नहीं होती। मेरे पहले मालिक की मार से तो चमड़ी निकल आती थी, वह बेंत मारना खूब जानते थे।"
मिस अफिलिया हर रविार को टप्सी को धर्म-शिक्षा दिया करती थी। टप्सी की स्मरण-शक्ति बड़ी अच्छी थी। वह अनायास सब यादकर लेती थी।
अफिलिया के सामने खड़ी होकर अब टप्सी अपना धर्म-पाठ सुनाने लगी :
"हम लोगों के आदि-पुरुष, आदम और हौआ, पूर्ण स्वाधीनता के साथ उच्च-प्रदेश में बिचरने लगे। फिर ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन करने के कारण वे वहाँ से गिरा दिए गए।"
इतना कहकर टप्सी कौतूहलपूर्ण दृष्टि से देखने लगी।
अफिलिया ने कहा - "टप्सी, चुप क्यों हो गई?"
"मेम साहब, क्या हमारे आदि-पुरुष केंटाकी में रहते थे?"
"क्या मतलब?"
"क्या वे केंटाकी से गिराए गए थे? मेरे पहले मालिक कहा करते थे कि वे हम लोगों को केंटाकी से खरीदकर लाए थे।"
सेंटक्लेयर जोर से हँस पड़ा। बोला - "बहन, इन्हें जाकर समझाओ। इसका अर्थ जब तक न समझा दोगी, तब तक ये यों ही अपना अर्थ लगाते रहेंगे।"
अफिलिया ने झुँझलाकर कहा - "तुम रहने दो! तुम्हारे हँसने से पढ़ाने में गड़बड़ होती है।"
"अच्छा अब माफ करो, अब मैं हँसकर कोई गड़बड़ नहीं करूँगा।"
यह कहकर सेंटक्लेयर अखबार पढ़ने लगा। पर मिस अफिलिया की शिक्षा-प्रणाली ऐसी अनोखी थी कि सेंटक्लेयर को बीच-बीच में हँसी आए बिना नहीं रहती थी और अफिलिया उसके हँसने पर बहुत चिढ़ती थी।
टप्सी अफिलिया से धर्मशास्त्र और लिखना-पढ़ना सीखती रही, पर उसकी दुष्टता जरा भी कम न हुई। दूसरे सब दास-दासी उस पर बहुत चिढ़ते थे, पर कोई कभी उसे मारने आता तो वह दौड़कर सेंटक्लेयर की कुर्सी के नीचे छिप जाती थी। दयालु सेंटक्लेयर किसी को उसे मारने नहीं देता था।
24. शेल्वी की प्रतिज्ञा
गर्मी के दिन थे। दोपहर की सख्त गर्मी के कारण शेल्वी साहब अपने कमरे की खिड़कियाँ खोले हुए बैठे चुरुट पी रहे थे। उनकी मेम पास बैठी हुई सिलाई का बारीक काम कर रही थीं। बीच-बीच में मेम के बड़ी उत्सुकतापूर्वक शेल्वी साहब की ओर देखने से प्रकट हो रहा था, जैसे वह अपने मन की कोई बात कहने के लिए मौका ढूँढ़ रही हों। थोड़ी देर बाद मेम ने कहा - "तुम्हें मालूम है, क्लोई के पास टॉम की चिट्ठी आई है?"
शेल्वी बोला - "हाँ, चिट्ठी आई है? जान पड़ता है, टॉम को वहाँ दो-एक भाई मिल गए हैं।"
मेम ने कहा - "मेरा अनुमान है कि किसी बहुत अच्छे परिवारवालों ने उसे खरीदा है। वे टॉम के साथ बड़ी मेहरबानी का बर्ताव करते हैं। और उसे कुछ ज्यादा करना-धरना नहीं पड़ता।"
"यह बड़े आनंद की बात है। मैं समझता हूँ, अब टॉम दक्षिण छोड़कर मुश्किल से यहाँ आना चाहेगा।"
"वहाँ रहने की कहते हो! वह तो यहाँ आने के लिए बेचैन हो रहा है। उसने दरियाफ्त किया है कि उसके खरीदने के लिए रुपए जुट गए या नहीं?"
"मुझे तो रुपए जुटने की आशा नहीं जान पड़ती। कर्ज बड़ी बुरी बला है। एक बार हो जाने के बाद फिर उसका चुकाना पहाड़ हो जाता है। एक का लिया दूसरे को दिया, दूसरे से तीसरे को, इसी उलटफेर में पड़ा हुआ हूँ।"
"मैं समझती हूँ, कर्ज चुकाने का एक उपाय हो सकता है - मान लो, हम अपने सब घोड़े बेच डालें और खेत का कुछ हिस्सा भी बेच दें।"
शेल्वी ने कहा - "ऐमिली यह बड़े शर्म की बात होगी, केंटाकी भर में तुम अच्छी समझी जाती हो, लेकिन तुम दुनियादारी की बातें नहीं समझ सकती। स्त्रियाँ कभी दुनियादारी की बातें नहीं समझती हैं।"
मेम बोली - "खैर, मैं समझूँ या न समझूँ, इससे कोई मतलब नहीं। तुम मुझे अपने कर्ज की एक सूची दो तो मैं देखूँ कि कोई रास्ता निकल सकता है या नहीं।"
"एमिली, मुझे नाहक तंग मत करो। मैं कहता हूँ कि तुम दुनियादारी की बाबत कुछ नहीं जानती।"
स्वामी की बात सुनकर मेम फिर कुछ न बोली। ठंडी साँस लेकर चुप हो गई। पर शेल्वी साहब अपनी स्त्री की सलाह पर चलते, तो सहज में कर्ज से उनका छुटकारा हो जाता। उनकी स्त्री बड़ी होशियार और किफायतशार थी। उन्होंने काम-काज का भार स्त्री को सौंप दिया होता तो कभी उनकी यह दुर्दशा न होती। पर वह तो सदा यही मानकर चलते थे कि स्त्रियों में काम-काज की बातें समझने की अक्ल ही नहीं होती।
मेम मन ही मन सोचने लगी कि मैंने टॉम को फिर खरीदकर अपने यहाँ रखने का वचन दिया है, अब भला मैं कैसे उस प्रतिज्ञा से भ्रष्ट होऊँ। कहा है कि सज्जन अपने वचन से पीछे नहीं हटते। इन्हीं विचारों में गोते खाती हुई फिर बोली - "बेचारी क्लोई स्वामी के शोक में बहुत दुख पा रही है। उसका दिल बैठा जाता है। उसे देखकर मेरा जी भर आता है। क्या इन रुपयों को इकट्ठा करने की कोई सूरत नहीं हो सकती?"
"तुम्हारी शोचनीय दशा देखकर मुझे दु:ख होता है, पर हम लोगों का इस तरह वचन देना ही अन्याय है। टॉम वहाँ एक-दो बरस में कोई दूसरी स्त्री रख लेगा। तुम क्लोई से कह दो कि अच्छा होगा, वह भी यहाँ किसी से अपना संबंध जोड़ ले।"
"मिस्टर शेल्वी" मेम बोली - "मैंने अपने यहाँ के नौकरों को सीख दी है कि उनका भी विवाह-बंधन उतना ही पवित्र है, जितना हमारा। मैं क्लोई को ऐसी सलाह देने का विचार भी मन में नहीं ला सकती।"
"प्यारी, तुमने इन्हें ठीक शिक्षा नहीं दी। इनकी दशा को ध्यान में न रखकर इन पर नैतिक शिक्षा का बोझ लाद दिया है।"
"मैंने इन्हें बाइबिल की नीति सिखलाई है। उसमें मैंने कौन-सी बुराई की?"
"एमिली, मैं तुम्हारी धर्म-संबंधी बातों में दखल नहीं देना चाहता। मेरा केवल इतना ही कहना है कि ये लोग उस शिक्षा के बिल्कुल ही अनुपयुक्त हैं। इनकी दशा उस शिक्षा का भार उठाने योग्य नहीं है।"
मेम ने गंभीर होकर कहा - "वास्तव में इन लोगों की दशा बहुत खराब है और यही कारण है कि मैं दिल से गुलामी की प्रथा से घृणा करती हूँ, पर यह बात पक्की समझो कि मैं इन निराश्रितों को वचन देकर कभी उसे भंग न करूँगी। मैं गाना सिखाने का काम करके रुपए इकट्ठा करूँगी और उससे टॉम को फिर से बुलाने की अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा करूँगी।"
"एमिली, तुम अपने को इतना मत गिराओ। मैं तुम्हारे इस कार्य का कभी समर्थन नहीं कर सकता।"
मेम ने दु:ख के साथ कहा - "गिराने की कहते हो, और प्रतिज्ञा-भंग करने से मेरा पतन नहीं होगा? उससे सौगुना पतन होगा।"
"रहने दो अपने स्वर्गीय नैतिक भाव!"
शेल्वी और उनकी स्त्री में ये बातें हो रही थीं कि इसी बीच क्लोई ने आकर पुकारा - "मेम साहब, जरा इधर तो आइए।"
मेम ने बाहर जाकर पूछा - "क्लोई, क्या बात है?"
उसने कहा - "कहिए तो आज एक मुर्गी का शोरबा बना दूँ।"
मेम ने कहा - "जो तुम्हारी इच्छा हो, बना लो। किसी भी चीज से काम चल जाएगा।"
क्लोई को जब मेम साहब से कोई बात कहनी होती थी, तब वह अच्छे भोजन की बात उठाकर भूमिका बाँधती थी। आज भी उसने आपनी कोई बात कहने के लिए यह भूमिका बाँधी थी। हँसते हुए बोली - "मेम साहब, आप रुपया इकट्ठा करने के लिए गाने का काम सिखाने की तकलीफ क्यों उठाएँगी? इससे साहब की बदनामी होगी। कितने ही लोग अपने दास-दासियों को किराए पर देकर रुपए वसूल करते हैं। इतने दास-दासियों को बैठे-बिठाए मुफ्त में भोजन देने से क्या फायदा?"
"अच्छा क्लोई, किसे किराए पर देना चाहिए?"
"मैं और किसी को किराए पर देने को नहीं कहती। साम कहता था कि लूविल नगर में एक हलवाई है, वह मिठाई बनाने के लिए किसी अच्छे आदमी की खोज में है। मैं वहाँ जाऊँ तो वह हर हफ्ते मुझे चार डालर देगा। यहाँ का काम सैली चला लेगी। वह सब तरह का भोजन बनाना सीख गई है।"
"अपने बच्चों को छोड़कर वहाँ जाओगी?"
"दोनों लड़के तो बड़े हो गए हैं। अब वे काम-काज कर लेते हैं। रही छोटी बच्ची, सो उसे सैली पाल लेगी।"
"लूविल दूर बहुत है।"
"उसी के पास शायद कहीं मेरा बूढ़ा है।"
"नहीं क्लोई, टॉम लूविल से बहुत दूर है, दो-तीन सौ कोस परे है। पर तुम लूविल जाना चाहो तो मुझे उसमें कोई आपत्ति नहीं है। मिठाईवाले के यहाँ तुम्हें जो कुछ तनख्वाह मिले वह सब अपने स्वामी को फिर खरीदने के लिए जमाकर रखना। उसमें से मैं तुम्हें कौड़ी भी खर्च नहीं करने दूँगी।"
क्लोई ने कहा - "मेम साहब, मैं आपके गुणों का बखान नहीं कर सकती। मैंने यही सोचा है कि बूढ़े को छुड़ाने के लिए सब रुपया जमा करती जाऊँगी। हफ्ते पीछे चार डालर मिलेंगे। मेम साहब, साल भर में कितने हफ्ते होते हैं?"
"बावन।"
"तो साल भर में चार डालर हफ्ते के हिसाब से कितने डालर होंगे?"
"दो सौ आठ डालर।"
"तो कितने बरस काम करने से बूढ़े के दामों जितने रुपए होंगे?"
"चार-पाँच बरस। पर चार-पाँच बरस तुझे काम नहीं करना पड़ेगा। कुछ डालर मैं भी दे दूँगी।"
क्लोई ने कातर भाव से कहा - "पर मेरे हाथ-पाँव रहते आप डालरों के लिए गाना सिखाने का काम क्यों करेंगी?"
"अच्छा, तुम कब जाना चाहती हो?"
"कल, साम उधर जाने को है। मैं उसी के साथ जाना चाहती हूँ। आप 'पास' लिख दें तो चली जाऊँ।"
मेम ने बड़ी दयालुता से कहा - "मैं अभी लिखे देती हूँ।"
यह कहकर मेम अपने स्वामी के पास गई और उनकी अनुमति से 'पास' लिखकर क्लोई को दे दिया। क्लोई बड़ी खुशी से अपना सामान बाँधने लगी। वहाँ शेल्वी साहब का लड़का खड़ा था। उसे देखकर बोली - "जार्ज मैं लूविल जा रही हूँ। वहाँ चार डालर हफ्ते में मिलेंगे। वे सब मैं तुम्हारी माता के पास बूढ़े को छुड़ा लाने के लिए अमानत की तरह जमा करती जाऊँगी।"
"कब जाओगी?"
"कल साम के साथ जाऊँगी। मास्टर जार्ज, तुम अभी बूढ़े को जो जवाब दो, उसमें ये सब बातें साफ-साफ लिख देना।"
"मैं अभी लिख दूँगा। अपने नए घोड़े की खरीद की बात भी लिख दूँगा।"
"जरूर-जरूर लिख देना। अच्छा चलो, मैं तुम्हारे खाने के लिए कुछ लाती हूँ। अब न मालूम फिर कितने दिनों बाद तुम्हें अपने हाथ का बनाया खाना खिलाना नसीब होगा!"
25. पुष्पी की कुम्हालाहट
दिनों के बाद महीने और महीनों के बाद वर्ष, देखते-देखते सेंटक्लेयर के यहाँ टॉम के दो वर्ष यों ही बीत गए। टॉम ने अपने घर जो पत्र भेजा था, कुछ ही दिनों बाद उसके उत्तर में मास्टर जार्ज का पत्र आ पहुँचा। इस पत्र को पाकर टॉम को बड़ा आनंद हुआ। टॉम के छुटकारे के निमित्त क्लोई के लूविल में नौकरी करने जाने, टॉम के दोनों पुत्र मोज और पिटे बड़े आनंद में है और कुछ काम-काज करने लायक हो गए हैं, उसकी छोटी कन्या का भार सैली को सौंपा गया है, ये सब बातें इस चिट्ठी में लिखी हुई थीं। जार्ज अपने नए घोड़े की खरीद की बात भी लिखना नहीं भूला था। पत्र पाने के बाद से टॉम को जब फुर्सत मिलती, तभी वह उसे सामने रखकर बड़ी चाह से पढ़ने की चेष्टा करता था। इवा और टॉम में बड़ी देर तक इस बात पर आलोचना होती रही कि इस पत्र को शीशे के साथ एक सुंदर चौखटे में जड़वाकर दरवाजे पर लटकाना ठीक होगा या नहीं। अंत में बहुत सोच-विचार के बाद तय हुआ कि ऐसा करने से पत्र के दोनों हिस्से दिखाई नहीं पड़ेंगे, इससे चौखटे में जड़वाना ठीक नहीं।
टॉम और इवा का स्नेह दिन-दिन बढ़ता गया। टॉम इवा को बहुत प्यार करता था। जब बाजार जाता, उसके मन-बहलाव के लिए कोई अच्छी-सी चीज खरीद लाता। इवा को वह कभी फूलों का सुंदर गुच्छा, कभी सुंदर-सुंदर फूल चुनकर उसकी माला बना कर देता। इवा जब टॉम के पास बैठकर बाइबिल पढ़ती और धर्म-चर्चा करती, उस समय वह उसे मनुष्य-लोक की न मानकर, देव-लोक की कन्या समझकर, मन-ही-मन उसकी आराधना करता था।
गर्मी की ऋतु आ जाने के कारण सेंटक्लेयर शहर छोड़कर, वहाँ से कुछ दूर झील के किनारे अपने उद्यान में सपरिवार जाकर रहने लगा। वहाँ रोज शाम के समय इवा और टॉम बैठकर बाइबिल की चर्चा किया करते थे।
एक दिन रविवार को संध्या-समय वहीं टॉम के पास बैठी हुई इवा बाइबिल पढ़ रही थी। उसमें उसने पढ़ा - "स्वर्ग का राज्य बहुत पास है।" यह पढ़कर उसने कहा - "टॉम काका, मैं जाऊँगी।"
"कहाँ?"
"स्वर्ग के राज्य में।"
"स्वर्ग कहाँ है?"
इवा ने आकाश की ओर अंगुली उठाकर कहा - "वह स्वर्ग है। मैं जल्दी ही जाऊँगी।"
यह सुनकर टॉम के मन को बड़ा धक्का लगा। इवा का शरीर सूखते देखकर टॉम के हृदय में बड़ी चिंता रहा करती थी, खासकर इस बात से कि मिस अफिलिया कहा करती थी, इवा को जिस ढंग की खाँसी की बीमारी हो रही है, वह बीमारी किसी दवा से आराम नहीं होती। इस समय वह बात भी टॉम के मन में जाग उठी। टॉम इवा को देवकन्या समझता था। उसका खयाल था कि उसके मुँह से कभी कोई असत्य वचन नहीं निकलता। इससे आज की बात सुनकर टॉम के हृदय में किस भाव का उदय हुआ होगा, इसका सहज में अनुमान किया जा सकता है।
क्या कभी किसी के घर इवा-सरीखे बच्चे हुए हैं? हाँ, हुए हैं; पर उनका नाम समाधि के पत्थरों पर ही खुदा हुआ मिलता है। उनकी मधुर मुस्कान, उनके स्वर्गीय सुधावर्षी नयन, उनके साधारण वाक्य और आचरण गुप्त धन की भाँति केवल उनके स्नेही आत्मीयों ही के मन-मंदिर में छिपे पड़े रहते थे। कितने ही घरों की बात सुनी जाती है कि उस से एक बच्चा जाता रहा। उसका रंग-ढंग ऐसा सुंदर था कि उसके सामने और बालकों के रूप-गुण फीके थे। जान पड़ता है, मानो विधाता ने मनुष्यों के पापी मन को स्वर्ग की ओर खींचने के लिए वहाँ एक विशेष श्रेणी के देवदूतों का दल रख छोड़ा है। वे थोड़े दिनों के लिए शिशु के रूप में जन्म लेकर मृत्यु-लोक में आते हैं, और चारो ओर के विपथगामी हृदयों को अपने स्नेह-बंधन में इस तरह जकड़ लेते हैं कि जब वे अपने स्वदेश-स्वर्ग-को जाने लगें तो वे विपथगामी हृदय भी उन्हीं के साथ स्वर्ग को जा सकें। जिस शिशु के नेत्रों में यह आध्यात्मिक ज्योति दीख पड़े; या उसकी बातों में साधारण शिशुओं से कुछ विशेषता, मधुरता और विज्ञता का आभास मिले, तब जान लो कि वह इस जगत् में घर बनाने नहीं आया है, उसके बहुत दिनों तक पृथ्वी पर रहने की आशा में मत रहो; क्योंकि उसके ललाट में बिधना के अक्षर हैं, उसके नेत्रों में अमृत की किरणें हैं। इसी से तो स्नेह-धन इवा, घर की एकमात्र उज्जवल तारा, तू भी चली जा रही है; पर जो तुझे प्राणों से अधिक प्यार करते हैं, वे इस बात को नहीं जानते।
मिस अफिलिया के अकस्मात् झील के किनारे आकर इवा को पुकारने पर टॉम और इवा की बातें बंद हो गईं। मिस अफिलिया ने कहा - "इवा बेटी, बड़ी ओस गिर रही है। यह बाहर बैठने का समय नहीं है।"
इवा और टॉम दोनों अंदर चले गए।
बच्चों के पालन-पोषण के काम में मिस अफिलिया की निगाह बड़ी तेज थी। बच्चों के रोग बड़े सहज में जान लेती थी। इवा की सूखी खाँसी देखकर उसके मन में बड़ा खटका लग गया था। ऐसे रोग से उसने कितने ही बच्चों का जीवन नष्ट होते देखा था। वह अपनी आशंका कभी-कभी सेंटक्लेयर पर भी प्रकट करती थी, लेकिन वह उसकी बात पर ध्यान नहीं देता था, उल्टा कभी-कभी असंतुष्ट होकर कहता - "बहन, तुम्हारी ये आशंकाएँ मुझे नहीं भातीं। यों ही जरा-सी बात देखकर तुम लोग जमीन-आसमान एक करने लगती हो। इवा बढ़ रही है, इसी से वह दुबली जान पड़ती है। बच्चे जब बढ़ते हैं, तब हमेशा कमजोर हो जाते हैं।"
पर अफिलिया ने फिर कहा - "अगस्टिन, उसकी खाँसी बहुत बुरी है। इस रोग से जेन, ऐलेन, और सेंडर तीन को तो मैंने मरते देखा है।"
सेंटक्लेयर ने खीझकर कहा - "तुम अपनी ये फालतू बातें रहने दो। उसे रात को बाहर न निकलने दिया करो, बहुज ज्यादा खेलने भी मत दिया करो। इसी से वह अच्छी हो जाएगी।"
कहने को उसने अफिलिया को इस प्रकार कहकर टाल दिया, पर उसके मन में खटका लग गया और बेचैनी छा गई। उसने मन-ही-मन, 'रोग न सही, पर इसका यह धर्म-संबंधी गंभीर विषयों की बातें करना बड़े आश्चर्य में डालता है और मन में शंका उत्पन्न कर देता है।' वह सोचता - यह कैसे आश्चर्य की बात है कि इतनी बड़ी बालिका को जहाँ अपने खेल-कूद में ही मस्त रहना चाहिए, वहाँ अभी से दूसरे का दु:ख देखकर उसका हृदय विदीर्ण होने लगता है। संसार में व्याप्त अत्याचार और उत्पीड़न की बात सोचकर जब इवा बड़ी दु:खी होती और रोने लगती, उस समय सेंटक्लेयर उसे जोर से अपनी छाती से चिपटा लेता।
इवा ने एक दिन एकाएक अपनी माँ से कहा - "हम लोग अपने गुलामों को पढ़ना क्यों नहीं सिखाते?"
मेरी बोली - "यह क्या सवाल है। कोई भी उन्हें पढ़ना नहीं सिखाता।"
"क्यों नहीं सिखाते?"
"इसलिए कि उससे उनका कोई मतलब सिद्ध नहीं होगा। वे संसार में केवल काम करने के लिए बनाए गए हैं। पढ़ाई से उन्हें किसी तरह की मदद न मिलेगी।"
इवा ने कहा - "माँ, मेरी समझ में हरएक इंसान को बाइबिल पढ़ना आना चाहिए। वे पढ़ लेंगे तो बाइबिल तथा और? आप ही पढ़ते रहेंगे।"
"इवा, तू बड़ी अनोखी लड़की है।"
"बुआ ने टप्सी को बाइबिल सिखाया है।"
मेरी ने कहा - "हाँ, पर तू देखती है कि टप्सी क्या बाइबिल पढ़कर सुधर गई?" उस-जैसी तो पाजी लड़की ही मैंने नहीं देखी।
इवा बोली - "मामी को बाइबिल से बड़ा प्रेम है, वह चाहती है कि उसे पढ़ ले...। और जब मैं उसे पढ़कर नहीं सुना सकूँगी तब वह क्या करेगी।"
इवा जब ये बातें कर रही थी, उसी समय उसकी माँ एक संदूक की चीजें ठीक कर रही थी। इवा की बातें समाप्त होने पर उसकी माँ ने कहा - "इवा, ये बातें जाने दे। तू जन्म भर इन नौकरों के सामने बाइबिल ही नहीं पढ़ती रहेगी। बड़ी होने पर सज-धजकर समाज में आना-जाना पड़ेगा। तब फिर तुझे बाइबिल पढ़ने का समय न रहेगा। यह देख, यह हीरे का हार मैं तुझे बाहर आने-जाने लगने पर दूँगी। मैं पहले-पहल जिस दिन यह हार पहनकर दावत में गई थी, उस दिन, मैं तुझसे कहती हूँ इवा, कितनों की आँखें मैंने चकाचौंध कर दी थीं।"
इवा ने उस हार को हाथ में लेकर अपनी माँ से पूछा - "माँ, क्या यह हार बहुत कीमती है?"
मेरी बोली - "निश्चय ही बड़ा कीमती है। पिता ने यह फ्रांस से मँगवाया था। एक साधारण गृहस्थ की सारी संपत्ति भी इसके सामने कुछ नहीं।"
इवा ने कहा - "मैं इसे इस शर्त पर लेना चाहती हूँ कि जो मेरे जी में आएगा, इसका करूँगी।"
"तू इसका क्या करना चाहती है?"
"मैं इसे बेचूँगी और स्वतंत्र देश में जमीन खरीदूँगी। फिर वहाँ अपने सब गुलामों को लेकर मास्टर रखकर उनको पढ़ना-लिखना सिखाऊँगी।"
इवा की बात से उसकी माँ को इतनी हँसी आई कि आगे की बातें बीच में ही रह गईं।
"बोर्डिंग स्थापित करेगी। उन्हें तू पिआनो बजाना और मखमल पर बेल-बूटे काढ़ना नहीं सिखलाएगी?"
इवा ने बड़ी दृढ़ता से कहा- "मैं उन्हें बाइबिल पढ़ना, पत्र लिखना और पत्र पढ़ना सिखलाऊँगी। माँ, मैं जानती हूँ कि वे अपने पत्र अपने हाथ से नहीं लिख सकते, और अपने पत्र अपने आप पढ़ भी नहीं सकते, इससे उनके मन को बड़ा कष्ट होता है। टॉम को, मामी को, बहुतों को इससे बड़ा दु:ख होता है।"
मेरी ने कहा - "चुप रह! तू अजीब ही लड़की है। इन बातों के विषय में कुछ जानती-बूझती नहीं है। तेरी बातों से तो मेरा सिर दुखने लगता है।"
इवा चुप हो गई। मेरी की आदत थी कि जब कोई उसकी मर्जी के खिलाफ बातें करने लगता, तब उसका सिर दुखने लगता था।
26. हेनरिक का संकल्प
जब अगस्टिन अपने झीलवाले मकान में था, उस समय सेंटक्लेयर का भाई अल्फ्रेड अपने बारह वर्ष की उम्र के बड़े बेटे हेनरिक को साथ लेकर वहाँ आया और दो-तीन दिन रहा। यह बड़े आश्चर्य की बात थी कि इन दोनों भाइयों में परस्पर किसी तरह की समानता - न रंग-रूप में, न विचार ही में होने पर भी आपस में बड़ा स्नेह था। प्रकट में ये दोनों सदा एक-दूसरे का मजाक उड़ाया करते थे, पर इनमें आंतरिक प्रेम कम न होता था। दोनों हाथ मिलाकर बाग में टहलते और खूब बातें किया करते थे।
अल्फ्रेड का बड़ा पुत्र हेनरिक बड़ा सभ्य और तेजस्वी बालक जान पड़ता था। कोमल-हृदया इवान्जेलिन को देखते ही उस पर उसका बड़ा स्नेह और प्रेम हो गया।
इवा के पास एक सफेद रंग का बड़ा अच्छा टट्टू था। संध्या के समय इवा को घुमाने के लिए टॉम ने वह टट्टू लाकर बरामदे के पास खड़ा किया, इधर डडो नामक तेरह वर्ष का बालक हेनरिक के लिए काला अरबी टट्टू लेकर आया।
हेनरिक ने घोड़ा देखकर डडो पर लाल-लाल आँखें निकालकर डाँटते हुए कहा - "क्यों बे यह क्या? आज सवेरे तूने मेरे घोड़े को मला नहीं?"
डडो ने बड़े विनीत भाव से उत्तर दिया - "सरकार, वह आप ही लोटकर धूल से भर गया।"
हेनरिक ने चाबुक उठाकर बड़े क्रोध से कहा - "चुप रह! जबान चलाता है। चाबुक से चमड़ी उधेड़ दूँगा।" इतना कहकर उसने तुरंत डडो के मुँह पर पाँच-सात चाबुक जड़ दिए।
वह "सरकार-सरकार" कहकर चीखने लगा। पर हेनरिक ने एक न सुनी और बराबर कोड़े लगाता गया। फिर एक हाथ पकड़कर ऐसी ठोकर मारी कि वह धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ा। तब उसे छोड़कर बोला - "मेरे सामने मुँह खोलने का मजा पा गया। घोड़ा ले जा, उसे ठीक से साफ करके ला। मैं तेरी अच्छी तरह खबर लूँगा।"
टॉम ने कहा - "हुजूर, वह आपसे कहना चाहता था कि सवेरे मैंने घोड़े को मला था, इस वक्त रास्ते में आते समय वह जोश में था, इससे जमीन पर लोट गया। मैंने सवेरे उसे घोड़ा साफ करते देखा था।"
हेनरिक ने ऊँची आवाज में कहा - "तुम चुप रहो। तुमसे कौन पूछता है। फिजूल अपनी बक-बक लगाए हो।"
इतना कहकर हेनरिक इवा के पास जाकर बोला - "प्यारी बहन, मुझे बड़ा खेद है कि उस पाजी के कारण तुम्हें भी इंतजार करना पड़ा। आओ, जब तक वह आए तब तक यहाँ बैठ जाएँ। पर यह क्या बहन! तुम इतनी उदास क्यों हो?"
इवा ने कहा - "तुमने बेचारे डडो के साथ बड़ा जुल्म किया। तुम बड़े ही बेरहम और पापी हो।"
हेनरिक ने बड़े आश्चर्य से कहा - "बेरहम! पापी! यह तुम क्या कह रही हो, प्यारी इवा?"
इवा बोली - "जब तुम ऐसी बेरहमी का काम करते हो, तो मैं नहीं चाहती कि तुम मुझे 'प्यारी इवा' कहकर पुकारो।"
हेनरिक ने कहा - "प्यारी बहन, तुम डडो को नहीं जानतीं। बिना मार खाए वह सीधा नहीं रह सकता। वह बड़ा झूठा और बहानेबाज है। इन लोगों को दुरुस्त करने का यही ढंग है। इनको मुँह नहीं खोलने देना चाहिए। बाबा इसी ढंग से इन पर शासन करते हैं।"
"पर टॉम काका ने तो कहा कि उसका कसूर नहीं था। आकस्मिक बात थी। टॉम काका कभी झूठ नहीं बोलता।"
हेनरिक बोला - "वह बुड्ढा तो हब्शियों में एक साधारण आदमी है। डडो तो बेहिसाब झूठ बोलता है।"
"मार के डर से वह झूठ बोलना सीखता है।"
"इवा, तुम डडो पर बड़ी कृपा दिखाती हो, इससे मेरा मन बड़ा दु:खी होता है।"
"पर तुम उसे बिना कसूर मारते हो!"
"अच्छा, तुम्हें दु:ख होता है तो मैं आगे से उसे तुम्हारे सामने नहीं मारूँगा। मुझे नहीं मालूम था कि काले गुलाम को मार खाते देखकर तुम्हें कष्ट होता है।"
इवा को संतोष नहीं हुआ, पर उसने देखा कि अपने विचार को हेनरिक को समझाने का प्रयत्न करना व्यर्थ है। कोई फल नहीं होगा।
डडो घोड़ा लेकर शीघ्र ही आ पहुँचा।
हेनरिक ने बड़ी कृपा की दृष्टि से कहा - "डडो, इस बार तू बड़ी जल्दी घोड़ा ले आया। इधर आ, मिस इवा का घोड़ा पकड़ ले। मैं उसे सवारी करा दूँ।"
इवा के घोड़े पर चढ़ते समय देखा कि बालक शारीरिक पीड़ा से रो रहा है। उसने डडो को घोड़ा पकड़ने के लिए धन्यवाद दिया और कहा - "तुम बड़े अच्छे लड़के हो।"
मार का यह दृश्य बाग में घूमते हुए सेंटक्लेयर और अल्फ्रेड ने भी देखा। यह देखकर अगस्टिन का चेहरा लाल हो गया। उसने अल्फ्रेड से बड़े व्यंग्य से कहा - "अल्फ्रेड, मैं समझता हूँ कि यही वह शिक्षा है, जिसे हम लोग साधारण तंत्र-प्रणाली की शिक्षा कहा करते हैं।"
अल्फ्रेड ने कहा - "जब हेनरिक को जोश आ जाता है, तब वह शैतान हो जाता है।"
अगस्टिन बोला - "मेरे खयाल से तुम समझ रहे हो कि वह यह बहुत अच्छा काम सीख रहा है।"
अल्फ्रेड ने कहा - "मेरे किए से यह सब दूर नहीं हो सकता। मैं या मेरी स्त्री, दोनों इस विषय में चुप रहते हैं। पर यह डडो छोकरा भी बड़ा बदमाश है। इसे चाहे जितना मारो, सीधा नहीं होता।"
अगस्टिन बोला - "और मैं समझता हूँ कि हेनरिक को साधारण तंत्र-प्रणाली की शिक्षा देने का यही ढंग है, क्योंकि उस प्रणाली का पहला सूत्र है - सब मनुष्य जन्म से स्वतंत्र और समान हैं।"
अल्फ्रेड ने कहा - "ये फिजूल की बातें हैं। फ्रांस में भी एक बार ऐसा ही आंदोलन उठा था। समान अधिकार की बात केवल शिक्षित और उच्च श्रेणी के लोगों में ही चल सकती है, इन नीचों में नहीं।"
अगस्टिन बोला - "पर आँखें खुलने पर वे सब बदला चुका लेते हैं। फ्रांसीसी क्रांति का मूल कारण जानते हो? हाँ, इन निम्न श्रेणी के लोगों की कभी आँखें न खुलने पाएँ, तो बात दूसरी है।"
अल्फ्रेड ने बड़े जोर से पृथ्वी पर पैर पटककर, मानो वह निम्न-श्रेणी के लोगों के सिर पर ही लात मार रहा हो, कहा - "जरूर इन लोगों को गिराकर रखना होगा।"
अगस्टिन बोला - "जब ये अत्याचार-पीड़ित निम्न श्रेणी के लोग उठ खड़े होंगे, तब देश को मिट्टी में मिला देंगे। रईसों और बड़े आदमियों का प्रभुत्व जड़ से उखाड़ देंगे। तुम्हें क्या सेंट डोमिंगो की हकीकत मालूम नहीं है?"
अल्फ्रेड ने कहा - "ओफ, कहाँ की बात करते हो! हम लोग यहाँ सब ठीक कर लेंगे। इन 'जन-साधारण की शिक्षा', 'मजदूरों की शिक्षा' के नारों पर ध्यान न देने से यहाँ विप्लव की कोई संभावना न रहेगी। इन सबको शिक्षा न देने से फिर कोई अड़चन नहीं होने की।"
अगस्टिन बोला - "अब वे दिन गए। अब शिक्षा का प्रवाह किसी के रोके भी नहीं रुक सकता। तुम लोगों को उचित है कि उन्हें शिक्षा देकर उनका नैतिक जीवन ऊँचा कर दो।"
अल्फ्रेड ने कहा - "रहने दो, अपना यह ऊँचा नैतिक जीवन! ये लोग सदा इसी हालत में रहेंगे।"
अगस्टिन बोला - "यह ठीक है, पर इन्हें अच्छी शिक्षा नहीं मिलेगी तो ये कभी-न-कभी उत्तेजित होकर खून की नदी बहा देंगे। क्या तुम नहीं जानते कि सोलहवें लुई की हत्या के बाद फ्रांस की क्या हालत हुई? अल्फ्रेड, मैं कहे देता हूँ कि वह समय अब दूर नहीं, जब ये निम्न श्रेणी के लोग खड़े होकर संसार को अराजकता से भर देंगे। रईसों और बड़े लोगों को अपने रक्त द्वारा जगत् में हो रहे अत्याचारों और उत्पीड़न का प्रायश्चित करना पड़ेगा।"
अल्फ्रेड ने हँसते हुए कहा - "अगस्टिन, तुम तो अच्छे-खासे वक्ता हो गए। मैं कहता हूँ, तुम जगह-जगह घूमकर इस विषय पर व्याख्यान देना शुरू कर दो। इससे पैंगबर की तरह लोग तुम्हें पूजेंगे। लेकिन लगता है कि तुम्हारे इस कल्पित स्वर्ग-राज्य के आने के पहले ही मैं मर जाऊँगा। मुझे यह सब देखना नसीब न होगा।"
अगस्टिन बोला - "फ्रांस के रईस लोग निम्न-श्रेणीवालों से बड़ी घृणा करते थे। पर अंत में उन्हीं निम्न श्रेणीवालों ने उन लोगों पर आधिपत्य जमाया था। जरा खयाल करो। अभी उस दिन हाइटी में क्या हो गया था!"
अल्फ्रेड ने कहा - "हाइटीवालों का क्या जिक्र कर रहे हो! वे भी क्या अंग्रेज हैं? वे अंग्रेज होते तो भला उनकी ऐसी दुर्दशा हो सकती थी? संसार में सब तरफ अंग्रेजों का दबदबा रहेगा। अंग्रेज सब लोगों पर हुकूमत करेंगे। भला हम लोगों (अंग्रेजों) के साथ किसी जाति की तुलना हो सकती है?"
अगस्टिन ने तेज होकर कहा - "बहुत 'अंग्रेज-अंग्रेज' करके मत कूदो। एक बार इन काले हब्शियों की आँख खुलने दो। देखना, तुम लोगों को अपने अत्याचारों का प्रायश्चित करना पड़ता है या नहीं। तब फिर लाचार होकर तुम लोगों को यहाँ से दुब दबाकर भागना पड़ेगा। यहाँ छिपने को तुम्हें जगह न मिलेगी।"
अल्फ्रेड बोल - "तुम्हारी ये सब पागलपन की बातें हैं।"
अगस्टिन ने कहा - "पागलपन की बातें! क्या बाइबिल की बात का तुम्हें स्मरण नहीं है? लिखा है, 'मनुष्य स्वप्न में भी विपदा का खयाल न करता था, पर अकस्मात् एक दिन बाढ़ आई और इन लोगों को बहाकर मृत्यु के मुँह में डाल दिया।' मैं तुमसे अनुरोध करता हूँ कि बाइबिल की इस बात को सदा याद रखना!"
अल्फ्रेड ने हँसते हुए कहा - "अगस्टिन, तुम पैगंबरी का जामा पहनकर जगह-जगह व्याख्यान देते फिरो तो अच्छा होगा। हम लोगों की फिक्र मत करो। हममें बहुत सामर्थ्य है। हम अपनी रक्षा आप कर लेंगे। इन निम्न श्रेणी के लोगों को सदा इस गिरी हुई हालत में ही रहना पड़ेगा। ये लोग सदा हमारे पैरों-तले ही रहेंगे। हममें इन पर शासन करने के लिए पूरी शक्ति है।"
अगस्टिन बोला - "क्यों नहीं, तुम्हारा लड़का इसी शक्ति की शिक्षा पा रहा है। पर तुम लोगों की शक्ति तो क्रोध के साथ काफूर होकर उड़ जाती है। तुम नहीं जानते कि ठंडा लोहा गरम लोहे को काटता है। जो अपने को नहीं सम्हाल सकता, वह दूसरों पर शासन क्या करेगा?"
अल्फ्रेड ने कहा - "मैं मानता हूँ कि शिक्षा-प्रणाली कुछ बुरी है। लड़कपन से ही हमारी संतानें इन काले दासों पर शासन करना सीख जाती हैं। दूसरों को भी कोई अधिकार है, यह समझने का मौका ही नहीं मिलता। पर किसी-किसी विषय में हमारे यहाँ की शिक्षा बहुत अच्छी भी होती है। बच्चे बचपन से ही खूब साहसी और तेजस्वी होते हैं। क्रीत-दासों के बहुत से ऐब उनको छू नहीं पाते। हृदय में भरा हुआ प्रभुत्व का भाव उन्हें अनेक दोषों से दूर रखता है।"
अगस्टिन ने व्यंगोक्ति के भाव से पूछा - "इस प्रकार प्रभुत्व करने की इच्छा क्या ईसाई धर्म के अनुकूल है?"
अल्फ्रेड बोला - "अनुकूल है या प्रतिकूल, इस बारे में मैं बहस नहीं करना चाहता। पर इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे देश की सामाजिक अवस्था लोगों को साहसी और तेजस्वी बना देती है।"
अगस्टिन ने कहा - "यह हो सकता है।"
अल्फ्रेड बोला - "अगस्टिन, ये सब फिजूल की बातें हैं, इनसे नतीजा कुछ नहीं निकलता। कम-से-कम हम लोग पाँच सौ बार तो इस पुराने विषय पर तर्क-वितर्क कर चुके होंगे। चलो, बैठकर शतरंज खेलें।"
दोनों भाई बरामदे में आकर बैठ गए और शतरंज खेलना आरंभ कर दिया। खेलते समय अल्फ्रेड ने कहा - "मैं तुमसे कहता हूँ अगस्टिन, यदि तुम्हारे जैसे विचार मेरे होते तो मैं अपने विचारों के प्रचार के लिए कुछ प्रयत्न अवश्य करता।"
अगस्टिन ने कहा - "हाँ, मैं कह सकता हूँ कि तुम करते। तुम काम-काजी आदमी हो, लेकिन मैं?"
अल्फ्रेड चुटकी लेकर बोला - "अपने दास-दासियों ही की दशा क्यों नहीं सुधारते?"
अगस्टिन ने कहा - "क्या यह भी संभव है? एक बड़ा भारी पहाड़ उनके सिर पर रख दो तो भी उनका सीधे खड़े रहना संभव है, पर हम लोगों के समाज में फैली हुई बुरी शिक्षा, असदाचरण और अत्याचारों के नीचे रहकर उनका सुधरना कभी संभव नहीं। समाज में फैले हुए पापों और बुराइयों से नैतिक वायु दूषित हो जाती है। इसलिए जब तक नैतिक वायु शुद्ध न हो, तब तक किसी एक आदमी के किए-धरे लोगों का सुधार नहीं हो सकता। कितनी ही विजित जातियों को उच्च शिक्षा मिलती है, पर उस शिक्षा से क्या पराजित जाति कभी उन्नत हो सकती है?"
अल्फ्रेड बोला - "तुम देश-सुधार का व्रत ले लो।"
इसके बाद दोनों खेल में तल्लीन हो गए। कुछ देर बाद हेनरिक और इवा घोड़ों पर लौटे। घोड़ों के तेज आने के कारण इवा कुछ थक-सी गई थी, पर उसके क्लांत मुख-कमल पर अनुपम सौंदर्य विकसित हो रहा था। ऋतु बदलने पर जिस प्रकार प्रकृति नए रूप में सज-धजकर मनुष्यों के हृदय में नए-नए भाव उत्पन्न करती है, उसी राग-द्वेष और हिंसा से रहित तथा धार्मिक पवित्रता से पूर्ण निर्मल चरित्रवाली रमणियों के मुख-कमल से एक-एक अवस्था में एक-एक प्रकार के अलौकिक सौंदर्य का भाव विकसित होता है। इवा के इस थके मुखमंडल से शांति और प्रेम का भाव टपक रहा था।
अल्फ्रेड ने उसे इस भाव में देखते ही विमोहित होकर कहा - "क्या अपूर्व रूप-माधुरी है! अगस्टिन, तुम्हारी इवा के सौंदर्य पर संसार रीझ उठेगा।"
लेकिन अगस्टिन ने निराश हृदय से कहा - "हाँ, वह सर्वगुण-संपन्न है, पर कौन जाने, ईश्वर के मन में क्या है? यह कहते हुए उसने दो-चार कदम आगे बढ़कर इवा को घोड़े से गोदी में उतारकर पूछा - "बेटी इवा, तुम बहुत थक तो नहीं गई?"
बालिका ने कहा - "नहीं बाबा!" पर उसके जोर से साँस लेने से उसके पिता को खटका हुआ। उसने कहा - "बेटी, तुम घोड़ा इतना तेज क्यों चलाती हो? तुम जानती हो कि यह तुम्हारे स्वास्थ्य के लिए हानिकर है।"
यह कहकर उसने उसे एक कोच पर लिटा दिया।
सेंटक्लेयर ने कहा - "हेनरिक, तुम इवा को देखना। देखो, जब इवा तुम्हारे साथ हुआ करे, तब घोड़ा इतना तेज मत दौड़ाया करो।"
हेनरिक ने इवा के पास बैठकर अपने हाथ में उसका हाथ लेते हुए कहा - "मैं फिर कभी ऐसी भूल नहीं करूँगा।"
इवा शीघ्र ही स्वस्थ हो गई। उसके पिता और चाचा इन दोनों बच्चों को छोड़कर खेल में लग गए। हेनरिक ने कहा - "इवा, मुझे बड़ा खेद है कि बाबा बस अब यहाँ दो ही दिन ठहरेंगे, फिर हम लोग चले जाएँगे। तुमसे न मालूम फिर कब भेंट होगी। यदि मैं तुम्हारे पास रहता तो भला बनने का प्रयास करता और डडो को कभी न मारता। मैं डडो से बुरा बर्ताव नहीं करता। उसे कभी-कभी पैसे भी दे देता हूँ। तुम देखती हो कि वह अच्छे कपड़े पहनता है। मैं समझता हूँ, कुल मिलाकर डडो बड़े मजे में है।"
इवा ने कहा - "तुम्हें केवल खाना-कपड़ा और पैसे दिए जाएँ, पर संसार में कोई तुम्हें स्नेह करनेवाला न हो, तो क्या तुम अपने को सुखी समझोगे?"
"नहीं।"
"तो तुम देखते हो कि तुम डडो को उसके सारे आत्मीयों से अलग करके ले आए हो और अब उसे कोई भी प्यार करनेवाला नहीं है। ऐसी दशा में पड़कर तो कोई भी व्यक्ति सुखी नहीं रह सकता।"
हेनरिक ने कहा - "इसमें हम क्या कर सकते हैं? मैं उसकी माँ को तो ला नहीं सकता, और न मैं स्वयं ही उसे प्यार कर सकता हूँ।"
इवा बोली - "तुम प्यार क्यों नहीं कर सकते?"
खिलखिलाकर हँसते हुए हेनरिक ने कहा - "डडो को प्यार! उस पर मैं थोड़ी दया करूँ, यही काफी है। तुम क्या अपने नौकरों को प्यार करती हो?"
इवा बोली - "जी हाँ, मैं करती हूँ।"
"कैसी अनोखी बात है!"
"क्या बाइबिल हम लोगों को यह नहीं बताती कि हमें हर एक आदमी को प्यार करना चाहिए?"
हेनरिक ने खिन्नभाव से कहा - "बाइबिल की बात क्या कहती हो! बाइबिल में तो ऐसी-ऐसी कितनी ही बातें लिखी पड़ी हैं; लेकिन कोई उन्हें करने का विचार भी करता है? तुम जानती हो इवा, कोई आदमी बाइबिल का कहा नहीं करता।"
इवा कुछ देर तक बोली नहीं। उसकी आँखें स्थिर और चिंतायुक्त हो गईं। फिर वह बोली - "प्यारे भाई, मेरी एक बात मानो। जैसे भी हो, तुम गरीब डडो को प्यार करना, उस पर दया करना।"
हेनरिक ने कहा - "प्यारी बहन, तुम्हारे अनुरोध से मैं किसी भी चीज को प्यार कर सकता हूँ। तुम सरीखी प्रेममय, शांत और मधुर बालिका मैंने नहीं देखी। मैं अब कभी डडो को नहीं मारूँगा।"
इवा को उसकी इस बात से शांति मिली। उसने कहा - "मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई कि तुम ऐसा अनुभव करते हो। प्यारे हेनरिक, मैं आशा करती हूँ कि तुम्हें अपनी बात याद रहेगी।"
तभी भोजन की घंटी हुई और सब लोग भोजन के लिए उठ गए।
27. मृत्यु के पूर्व-लक्षण
दो दिन के बाद अल्फ्रेड पुत्र सहित सेंटक्लेयर से बिदा होकर अपने घर गया। जब तक अल्फ्रेड वहाँ था, तब तक सब लोग हँसी-खुशी में भूले हुए थे। इस बीच में इवान्जेलिन के स्वास्थ्य की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। एक तो वह पहले ही से अस्वस्थ थी, इधर हेनरिक के साथ खेल-कूद में उस पर बहुत अधिक श्रम पड़ने के कारण वह और भी थक गई। उसका शरीर इतना निर्बल हो गया कि उसमें चलने-फिरने की शक्ति न रही। अब तक तो सेंटक्लेयर ने मिस अफिलिया की बातों पर ध्यान न दिया था, पर अब उसने डाक्टर को बुलाकर इवा को दिखलाया और उसके हृदय में भी भाँति-भाँति की आशंकाएँ उठने लगीं।
सेंटक्लेयर की स्त्री, मेरी, कभी भूल से भी अपनी लड़की के स्वास्थ्य के संबंध में कुछ न पूछती थी। इधर उसने मुहल्ले की स्त्रियों से दो-तीन नए रोगों की चर्चा सुनी थी। बस, अब वह उन्हीं नए रोगों के सब लक्षण अपने शरीर में देखने लगी। वह इन अपने ही कल्पित रोगों में इतनी अधिक उलझी रहती थी कि उसे किसी और के अच्छे या बीमार होने की खोज करने की फुर्सत ही नहीं थी। उसे कन्या की खबर लेने का भी तनिक अवकाश न था। वह तो अपने ही रोगों की चिंता में लगी रहती थी कि कैसे उनसे पिंड छूटेगा। साथ ही एक और बात थी, वह समझती थी कि संसार में किसी भी व्यक्ति को उसके जितनी पीड़ा नहीं हो सकती और रोग जितने होते हैं, उसी के होते हैं दूसरे किसी के रोगों को तो वह एक काम न करने का बहाना और आलस्य भर समझती थी। उसका ख्याल था कि असल रोग उसी को होते हैं।
मिस अफिलिया ने इवा के रोगों के संबंध में कई बार मेरी की आँखें खोलने की चेष्टा की, पर सब व्यर्थ गई। वह कहती थी - "मेरी समझ में तो उसे कुछ नहीं हुआ है। वह मजे से खेलती-कूदती है।"
"तुम उसकी खाँसी नहीं देखती हो?"
"खाँसी के संबंध में आपके कहने की आवश्यकता नहीं है। मैं खुद उस विषय में बहुत जानती हूँ। मैं जब इवा के बराबर थी, तब मेरे घरवाले समझते थे कि मुझे तपेदिक हो गया है। रात-रात भर मामी मेरे पास बैठी रहती थी। इवा की खाँसी मेरी खाँसी के मुकाबले कुछ भी नहीं है।"
अफिलिया कहती - "लेकिन वह दिन-प्रति-दिन कमजोर होती जा रही है।"
"मैं वर्षों ऐसी कमजोर थी। वह कोई खास बात नहीं है।"
"रात को रोज उसका शरीर गरम हो जाता है उसे रात को बराबर बुखार चढ़ता है।"
"वैसा तो मुझे दस साल तक था। बुखार के मारे रात को इतना पसीना आता था कि सारे कपड़े तरबतर हो जाते थे। सवेरे घंटों बैठकर मामी उन्हें सुखाती थी। इवा को कोई वैसा बुखार नहीं है।"
अफिलिया ने इसके बाद मेरी से इवा के संबंध में कुछ भी कहना बंद कर दिया, पर जब इवा इतनी कमजोर हो गई कि चारपाई से भी नहीं उठ सकती और उसके लिए डॉक्टर बुलाया गया, तब एकाएक मेरी का अपनी बच्ची के लिए प्रेम उमड़ पड़ा।
मेरी कहने लगी - "मैं तो पहले ही जानती थी कि सेंटक्लेयर की उदासीनता का यह फल मुझे भोगना पड़ेगा। मुझे संतान-शोक देखना पड़ेगा। एक तो मैं अपने ही रोगों के मारे मर रही हूँ, उस पर यह संतान-शोक! आदमी के इससे ज्यादा और क्या फूटे भाग्य होंगे! न सात न पाँच, मेरे यह एक बच्ची है और उसका यह हाल हुआ।"
ये बातें कहकर वह दास-दासियों पर अपने दिल का गुबार निकालने लगी। मामी ने इवा की देखभाल में लापरवाही की है, यह कहकर उसे खूब कोसा। फिर अभिमान से मुँह फुलाकर मेरी सेंटक्लेयर के सामने रोने लगी। सेंटक्लेयर ने कहा - "प्यारी मेरी, ऐसी बातें मुँह से न निकालो। इवा को अवश्य आराम हो जाएगा। उसे ऐसा क्या हुआ है?"
मेरी बोली - "सेंटक्लेयर, तुम्हें माँ की ममता का क्या पता? तुम मेरा हृदय कभी नहीं समझ सके। अब भी तुम नहीं जान सकते कि अपनी संतान के लिए मेरा जी कितना छटपटा रहा है।"
सेंटक्लेयर ने कहा - "पर ऐसी बातें मत करो, इस तरह छटपटानेवाली कोई बात नहीं है।"
मेरी बोली - "यह दशा देख-सुनकर मेरा जी तो तुम्हारी तरह नहीं मान सकता। सब बातों में तुम जैसे पत्थर दिल के हो, मैं तो वैसी नहीं हूँ। संतान के नाम से यही एक लड़की है, इसकी बीमारी देखकर क्या मैं बरदाश्त कर सकती हूँ?"
"घबराओ मत! इवा का शरीर बड़ा कोमल है, इसी से अधिक गर्मी और हेनरिक के साथ खेल-कूद में अधिक श्रम पड़ने के कारण उसकी तबीयत खराब हो गई है। डाक्टर साहब कहते हैं कि वह शीघ्र ही अच्छी हो जाएगी।"
मेरी ने कहा - "मेरा यह हृदय इस बात को जानकर भी नहीं समझना चाहता। मैं भी चाहती हूँ कि तुम्हारी तरह बिना घबराए सुख से रह सकती तो अच्छा था, पर क्या करूँ, यह जी तो नहीं मानता।"
दो-तीन हफ्ते तक इवा को कुछ आराम लगा। वह उठकर फिर चलने-फिरने लगी। कभी-कभी पहले की भाँति बाग में जाकर टॉम के साथ बैठती थी। उसके पिता को यह देखकर बड़ा आनंद हुआ। पर मिस अफिलिया और चिकित्सक की दृष्टि में बीमारी कुछ भी न घटी थी। इवा स्वयं भी मन-ही-मन समझती कि इस पाप और अत्याचारपूर्ण संसार को उसे शीघ्र ही छोड़ना पड़ेगा।
मनुष्य के हृदय में मृत्यु का संवाद कौन पहुँचाता है? मरणासन्न के कान में कौन कह जाता है कि अब इस संसार में तुम्हारी घडियाँ पूरी हो चुकी हैं? इवा को किसने कहा कि अब शीघ्र ही उसे यह संसार छोड़ना पड़ेगा? यदि कहिए कि मनुष्य के अंदर बैठा हुआ अनंत सुख का अभिलाषी, ईश्वर-सामीप्य का प्रयासी, अमृत का अधिकारी, अविनाशी आत्मा पहले ही से मृत्यु का आगमन जान जाता है, तो फिर सब लोग क्यों नहीं जान लेते? कोई जानता है, बहुत-से नहीं जानते, इसका क्या कारण है? इसके उत्तर में इतना ही कहा जा सकता है कि विषयासक्त सांसारिक जीवों के कान विषय-कोलाहल के बहरे हुए रहते हैं। उनकी आँखें मोहांधकार से ढकी रहती हैं। इस पाप से भरे संसार में रहने की उत्कट इच्छा मृत्यु-चिंता को उनके हृदय में प्रवेश नहीं करने देती; इसी से विषयासक्त जीव पहले से मृत्यु का आगमन नहीं जान सकते। मृत्यु के आगमन की ध्वनि उन्हें कभी नहीं सुनाई देती। किंतु पर-दु:ख-कातर, पवित्र-हृदया इवान्जेलिन के कान सांसारिक कोलाहल से बहरे नहीं हुए थे, अपने सुख की इच्छा कभी उसके हृदय में स्थान नहीं पाती थी। यह संसार उसे दु:खमय जान पड़ता था, इसी से उसे परम पिता जगदीश्वर का, उसके दु:ख-निवारण करने के लिए अपने धाम को बुलाने का संदेशा साफ सुनाई पड़ा। उसे इसका तनिक भी खेद न हुआ कि यह संसार छोड़ना पड़ेगा। उसके हृदय को कुछ आघात पहुँचानेवाली बात थी तो इतनी ही कि उसे अपने स्नेहमय पिता को छोड़ना होगा, और उसकी मृत्यु से उसके पिता शोक में पागल हो जाएँगे।
एक दिन टॉम को बाइबिल सुनाते हुए इवा ने कहा - "टॉम काका, मैं जान गई कि ईसा ने क्यों हम लोगों के लिए प्राण दिए हैं।"
टॉम ने पूछा - "कैसे?"
"ऐसे कि मेरे हृदय में भी उस भाव का अनुभव होता है।"
"वह अनुभव क्या और कैसा है, मिस इवा? यह बात ठीक से मेरी समझ में नहीं आई।"
"मैं तुम्हें समझाकर नहीं बता सकती, लेकिन मैंने जब उस जहाज में तुम्हें तथा जंजीर से जकड़े हुए दूसरे दास-दासियों को, जिनमें कोई अपने बच्चों से, कोई अपने पतियों से, और कोई अपनी माताओं से बिछुड़ने के कारण विलाप कर रहे थे, देखा और जब मैंने बेचारी प्रू की बात सुनी… ओफ, वह कैसा भयंकर कांड था, तब और अन्य बहुत-से अवसरों पर मैंने इस बात का अनुभव किया कि यदि मेरे मरने से ये सब दु:ख-दर्द से छूट सकें तो मैं आनंद से मर जाऊँ।"
इवा ने अपना दुबला-पतला हाथ टॉम पर रखते हुए भावावेश में कहा - "टॉम काका, यदि मेरे मरने से इनका दु:ख दूर हो जाए, तो मैं खुशी से मर जाऊँगी।"
टॉम विस्मित होकर उसका मुख निहारने लगा। पर अपने पिता के पाँवों की आहट पाकर इवा उठकर बरामदे में चली गई।
थोड़ी देर के बाद टॉम जब मामी से मिला तो उसने कहा - "मामी, अब इवा को इस संसार में रखने का प्रयत्न करना व्यर्थ है। उसके भाल पर विधना का लेख है।"
मामी ने अपने हाथ को ऊपर उठाते हुए कहा - "हाँ-हाँ, यह तो मैं हमेशा से कहती आई हूँ। वह लड़की बचनेवाली नहीं है। ऐसे होनहार बच्चे बहुत दिन नहीं जीते। वह हम सब लोगों को अनाथ कर जाएगी।"
इवा अपने पिता के पास आई। उसके पिता ने उसे स्नेहपूर्वक हृदय से लगाकर कहा - "इवा बेटी, आजकल तो तुम अच्छी हो न!"
इवा ने आकस्मिक दृढ़ता से कहा - "बाबा, बहुत दिनों से मैं तुमसे कुछ कहना चाहती थी। अब अधिक निर्बल होने से पहले ही मैं उन बातों को कह डालना ठीक समझती हूँ।"
सेंटक्लेयर का हृदय काँप उठा। इवा ने पिता की गोद में बैठकर कहा - "बाबा, अब मेरे यहाँ रहने के सब उपाय व्यर्थ हैं। तुम्हें छोड़ जाने का समय अब बहुत निकट आ रहा है। मैं वहाँ जा रही हूँ, जहाँ से फिर कभी नहीं लौटा जाता।" कहकर उसने ठंडी साँस ली।
इवा की ये बातें सेंटक्लेयर के हृदय में बरछी की तरह पार हो गईं पर ऊपर से उसने प्रसन्नता का भाव रखकर कहा - "इवा बेटी, तुम्हें झूठा संदेह हो गया है। इन चिंताओं को छोड़ो! यह देखो, मैं तुम्हारे लिए कैसा अच्छा खिलौना लाया हूँ।"
इवा ने खिलौने को हाथ में रखकर कहा - "बाबा, तुम अपने को धोखे में मत रखो। मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि मैं ठीक नहीं होऊँगी। बाबा, मुझे यह संसार छोड़ने में जरा भी कष्ट नहीं जान पड़ता। बस, तुम्हारी और घर के दूसरे लोगों की बात सोचकर बुरा लगता है, नहीं तो मैं यहाँ से जाने में बड़ी खुश हूँ। बहुत दिनों से मैं इस दुनिया को छोड़ने की इच्छा कर रही हूँ।"
सेंटक्लेयर ने कहा - "प्यारी बच्ची, तेरे इस छोटे से मन में इतनी उदासीनता क्यों भरी हुई है? अपनी प्रसन्नता के लिए तुझे जो चाहिए, वह सब हमारे घर में है और वह तुझे मिल सकता है।"
"बाबा, मैं स्वर्ग में ही जाकर रहना चाहती हूँ। बाबा, यहाँ ऐसी बहुत-सी बातें हैं, जो मेरे जी को दुखाती हैं, जो मुझे बड़ी भयंकर जान पड़ती हैं।"
सेंटक्लेयर ने पूछा - "वे कौन-सी बातें हैं, जो तुझे दु:ख देती हैं और भयंकर लगती हैं?"
इवा ने कहा - "बाबा, नित्य ही तो वे बातें होती हैं। मुझे अपने इन दास-दासियों के लिए बड़ा कष्ट होता है। ये मुझे बड़ा प्यार करते हैं, मुझे बहुत चाहते हैं। मैं चाहती हूँ कि ये सब आजाद हो जाएँ।"
सेंटक्लेयर बोला - "क्या तुम समझती हो कि वे हमारे यहाँ आराम से नहीं हैं?"
"हाँ, बाबा, पर तुम्हें कुछ हो जाए तो उनका क्या होगा? बाबा, तुम्हारे सरीखे आदमी दुनिया में कम होते हैं। अल्फ्रेड चाचा तुम्हारे जैसे नहीं है। माँ तुम्हारे जैसी नहीं है। बेचारी प्रू के मालिक की बात सोचो। ओफ, लोग अपने दास-दासियों पर कितना अत्याचार करते हैं, और कर सकते हैं।" इतना कहते-कहते इवा थरथराने लगी।
सेंटक्लेयर ने कहा - "बेटी, तुम्हारा हृदय कोमल है। दूसरों के दु:ख देखकर तुम्हारे दिल को बड़ी चोट लगती है। मुझे खेद है कि मैंने तुम्हें ऐसी बातें सुनने दीं।"
इवा बोली - "ओफ बाबा, तुम्हारी इस बात से मेरा कलेजा फटा जाता है। संसार में दूसरे लोग जब केवल कष्ट और दु:ख सह-सहकर ही जी रहे हैं तब तुम मुझे सुखी बनाकर जीवित रखना चाहते हो? ऐसे कष्ट से बचाना चाहते हो कि किसी के कष्ट की कहानी भी नहीं सुनने देना चाहते! यह तो बड़ी भारी खुदगरजी है कि न तो मुझे ऐसी बातें जाननी चाहिए और न ही अनुभव करनी चाहिए कि जो मेरे हृदय में चुभ जाती हैं। इन बातों के बारे में मैंने बहुत सोचा है। बाबा, क्या इन सब दासों को आजाद कर देने का कोई उपाय नहीं है?"
सेंटक्लेयर ने कहा - "बेटी, यह बड़ा कठिन प्रश्न है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह प्रथा बहुत बुरी है। बहुत-से लोग इसे बुरी-से-बुरी प्रथा समझते हैं। मैं स्वयं इसे बहुत बुरा मानता हूँ। हृदय से चाहता हूँ कि इस पृथ्वी पर एक भी मनुष्य गुलाम न रहे। सब स्वतंत्रता का सुख भोगें पर इसका कोई सरल उपाय मेरी समझ में नहीं आता।"
"बाबा, क्या लोगों के घर घूम-घूमकर सबको नहीं समझा सकते कि यह प्रथा बड़ी घृणित है, इसे तुरंत उठा देना चाहिए? बाबा, मैं जब मर जाऊँगी, तब तुम मेरा खयाल करके मेरे लिए इसे करोगे? मुझसे यह होता तो मैं ही करती।"
इवा की बात सुनकर सेंटक्लेयर ने कहा - "इवा, तुम मरोगी! बेटी, तुम मुझसे ऐसी बातें मत कहो। तुम्हारे सिवा इस संसार में मेरा और है ही क्या?"
इवा बोली - "बाबा, उस बेचारी प्रू के पास उस लड़के के सिवा और क्या था? संतान के शोक में वह पागल हो गई थी। उसके मरने के बाद भी वह उसका रोना सुनती थी। बाबा, तुम मुझे जितना प्यार करते हो, उतना ही ये गुलाम भी अपने बच्चों से करते हैं। ओफ, उनके लिए कुछ करो। हमारे यहाँ मामी है, वह अपने बच्चों को प्यार करती है। जब वह उनकी चर्चा करती है तब मैंने उसकी आँखों से आँसू झरते देखे हैं। और टॉम भी अपने बच्चों को प्यार करता है। बाबा, ये बड़ी भयंकर बातें हैं और मुझसे सहन नहीं होतीं।"
सेंटक्लेयर ने अत्यंत दु:खित होकर कहा - "इवा बेटी, तुम रो-रोकर अपने जी को परेशान मत करो। मरने की बात मुँह से न निकालो। तुम जो चाहती हो, सो मैं करूँगा।"
इवा ने तत्काल कहा - "बाबा, तुम मुझसे प्रतिज्ञा करो कि टॉम को मेरी मृत्यु होते ही मुक्त कर दोगे।"
सेंटक्लेयर ने कहा - "बेटी, जो कुछ तुम कहोगी वह मैं अवश्य कर दूँगा।"
सेंटक्लेयर इवा को छाती से चिपटाए चुपचाप बैठा रहा। देखते-देखते संध्या का आगमन हुआ। चारों ओर से इवा की प्रशांत मूर्ति और विशाल नेत्रों पर घोर अंधकार छा गया। उसका चेहरा अब सेंटक्लेयर को नहीं दिखाई दे रहा था। पर उसकी सुरीली मधुर वाणी देववाणी की भाँति उसके कर्ण-कुहरों में गूँज रही थी। उसे अपने विगत जीवन की संपूर्ण बातें स्मरण हो आईं, अपनी माता की प्रार्थना याद आई। अपने बाल्य जीवन की बातें, संसार में प्रवेश करने के बाद जगत के हित-साधन की इच्छा के जड़ से उखड़ जाने की बातें, एक-एक करके याद आने लगीं। यों ही देर तक बैठे-बैठे सेंटक्लेयर बहुत-सी बातें याद करता और सोचता रहा, पर मुँह से कुछ न बोला।
अंत में जब बहुत अँधेरा हो गया तब इवा को गोद में उठाकर अपने सोने के कमरे में ले गया। उसे अपने ही साथ लिटाकर उस समय तक गीत गाकर सुनाता रहा, जब तक कि नींद ने उसे आ नहीं घेरा।
28. प्रेम का चमत्काकर
रविवार का दिन था। दोपहर बीत चुका था। सेंटक्लेयर अपने घर के बरामदे में बैठा सिगरेट पी रहा था। बरामदे के सामनेवाले कमरे में उसकी स्त्री मेरी एक गद्दीदार कुर्सी पर बैठी हुई थी। मेरी के हाथ में एक बड़ी सुंदर भजनों की जिल्ददार पुस्तक थी। मेरी का खयाल है कि रविवार के दिन धर्म-पुस्तक पढ़ी न जा सके तो कम-से-कम हाथ ही में रहे। खुली हुई पुस्तक सामने थी। उस समय मेरी उसे पढ़ नहीं रही थी। केवल कभी-कभी आँख उठाकर देख लेती थी।
इवा को साथ लेकर मिस अफिलिया मेथीडिस्टों के किसी गिरजे में गई थी, अत: अगस्टिन और मेरी के सिवा वहाँ और कोई न था। कुछ देर बाद मेरी ने कहा - "अगस्टिन, मुझे हृदयरोग-सा हो गया जान पड़ता है। मैं समझती हूँ अपने उस पुराने डाक्टर पोसी साहब को बुलवाने से ही काम चलेगा।"
अगस्टिन ने कहा - "उसको बुलाने की क्या जरूरत है? जो डाक्टर इवा की दवा करता है, वह भी तो बड़ा अच्छा जान पड़ता है।"
मेरी बोली - "मैं ऐसी नाजुक बीमारी में नए डाक्टर पर विश्वास नहीं कर सकती। मैं देखती हूँ, रोग दिन-दिन बढ़ता जा रहा है। दिन भर बदन दर्द किया करता है, और कुछ भी अच्छा नहीं लगता।"
"यह तुम्हारा खाली संदेह ही है, मेरी समझ में तुम्हें ऐसा कोई रोग नहीं है।"
मेरी झुँझलाकर बोली - "यह तो मुझे पहले से ही पता था कि तुम्हारी समझ में कुछ नहीं होगा। इवा को जरा-सी खाँसी या मामूली-सा रोग हो जाता है तो तुम घबरा जाते हो, पर मेरा तुम्हें कभी खयाल तक नहीं होता।"
सेंटक्लेयर ने कहा - "यदि तुम चाहकर हृदय-रोग को बुलाना चाहती हो तो मैं उसमें बाधा नहीं डालूँगा। तुम्हारी निगाह में अगर यह रोग बड़े आदर की चीज है तो ठीक है, मेरा इसमें क्या नुकसान है?"
मेरी बोली - "तुम्हें विश्वास हो या न हो, मैं पक्के तौर पर कहती हूँ कि इधर कई दिनों तक इवा की बीमारी की झंझट में पड़े रहने के कारण मेरा यह रोग बहुत बढ़ गया है।"
सेंटक्लेयर कुछ नहीं बोला। वह चुरुट में दम लगाने लगा और मन-ही-मन कहने लगा - "तुम इवा की बीमारी के झंझट में पड़े रहने की कहती हो? कभी एक दिन भूल से भी तो उसकी खबर नहीं ली!"
इसके कुछ देर बाद मिस अफिलिया इवा को साथ लेकर घर लौटी। वह गाड़ी से उतरते ही सीधी अपने कमरे में चली गई। इवा अपने पिता की गोद में जाकर बैठ गई और गिरजे के उपदेश की चर्चा करने लगी।
तभी मिस अफिलिया के कमरे से बड़ा शोर सुनाई दिया।
सेंटक्लेयर ने कहा - "टप्सी ने न जाने आज कौन-सा नया उत्पात कर दिया। बहन बहुत बिगड़ रही है।"
मिस अफिलिया बड़ी गुस्से में भरी टप्सी का गला पकड़कर घसीटती हुई लाई।
सेंटक्लेयर ने पूछा - "कहो, आज क्या मामला है?"
अफिलिया ने कहा - "यह है कि अब मैं इस आफत से अधिक परेशान नहीं होना चाहती, इसे बरदाश्त करना मेरे बूते से बाहर है। कहीं खेलने भाग जाएगी, यह सोचकर इसे भजनों की पुस्तक देकर दरवाजे में ताला लगा गई थी, लेकिन मेरे जाने के बाद इसने मेरी चाबी निकाल ली और मेरे बक्स से रेशमी कपड़े निकालकर उन्हें कूट-कूटकर गुडियों के कपड़े बना डाले। मैंने जिंदगी में ऐसी पाजी लड़की नहीं देखी।"
फिर सेंटक्लेयर की ओर तिरस्कृत दृष्टि से देखकर बोली - "अगर मेरा वश चलता तो मैं इसे बाहर निकलवाकर इतने कोड़े लगवाती कि इसको छठी का दूध याद आ जाता।"
सेंटक्लेयर ने कहा - "मुझे जरा भी संदेह नहीं है। वास्तव में स्त्रियों का शासन बड़ा ही प्रेम-पूर्ण और मृदुल होता है। मैं अपने इस देश में ऐसी दस स्त्रियाँ भी नहीं देखता कि उनका वश चले तो वे एक घोड़े या एक गुलाम को अधमरा न कर डालें। पुरुषों की मैं क्या कहूँ!"
मेरी बोली - "सेंटक्लेयर, तुम्हारी इस बेढंगी प्रणाली से नौकरों को शिक्षा देने का कोई फल न होगा। दीदी बुद्धिमान स्त्री हैं और वह समझती हैं कि मैंने जो कहा, सो ठीक है या नहीं।"
दूसरी स्त्रियों की भाँति अफिलिया को भी कभी-कभी गुस्सा आ जाता था, विशेषत: टप्सी उसे जितना हैरान करती थी, उससे क्रोध आना स्वाभाविक ही था। पर मेरी जब उनकी बुद्धिमत्ता की प्रशंसा करने लगी तब उसे लज्जा मालूम हुई और उसका क्रोध कम हो गया। उसने कहा - "नहीं, इस लड़की के साथ ऐसा कठोर बर्ताव करने की मेरी कभी इच्छा नहीं होगी। पर अगस्टिन, मेरी अक्ल काम नहीं करती। इस लड़की का क्या करूँ? मैंने इसे बहुतेरा सिखाया-पढ़ाया, समझाते-समझाते हार गई। हर तरह से सजा देकर भी देख चुकी, पर यह जैसी-की-तैसी बनी हुई है।"
सेंटक्लेयर ने कहा - "टप्सी, इधर आ!"
टप्सी उसके सामने आकर, काली-काली आँखें निकालकर, टुकुर-टुकुर ताकने लगी। उसकी आँखों से भय और धूर्तता टपकती थी।
सेंटक्लेयर ने कहा - "क्यों री टप्सी, तू इतना पाजीपन क्यों करती है?"
टप्सी बोली - "जान पड़ता है, मेरा मन बड़ा खराब है। मिस फीली तो यही कहती हैं।"
सेंटक्लेयर ने कहा - "तू नहीं देखती कि मिस अफिलिया ने तेरे लिए कितनी परेशानी उठाई है? वह कहती है कि वह जो कर सकती थी, सब-कुछ करके देख लिया।"
"जी हाँ, पुरानी मालकिन भी यही कहा करती थीं। वह मुझे बहुत कोड़े लगाती थीं, मेरे बाल नोच लेती थीं, दरवाजे से मेरा सिर टकरा देती थीं, पर उससे मैं जरा भी नहीं सुधरी। मैं समझती हूँ, अगर मेरे सिर का बाल-बाल नोच लिया जाए तो भी मेरा कुछ सुधार न होगा। मैं बड़ी पाजी हूँ। मैं हब्शी के सिवा और कुछ नहीं हूँ। कोई उपाय नहीं है।"
अफिलिया ने उत्तेजित होकर कहा - "अब मैं इसे सुधारने की आशा छोड़े देती हूँ। जितना सह चुकी हूँ वही बहुत है। अब और क्लेश नहीं सह सकती।"
सेंटक्लेयर ने कहा - "अच्छा, मैं तुमसे एक बात पूछना चाहता हूँ।"
"क्या?"
"यही कि जब तुम्हारे धर्मशास्त्र में इतनी भी ताकत नहीं कि अपने पास रखकर एक अज्ञानी बालिका का उद्धार कर सको, तब ऐसे-ऐसे हजारों अज्ञानियों के उद्धार के लिए बेचारे दो-एक पादरियों के इधर-उधर भेजने से क्या मतलब सिद्ध होता है?"
मिस अफिलिया ने तत्काल इसका उत्तर नहीं दिया। इवा ने, जो वहाँ चुपचाप खड़ी हुई सब बातें सुन रही थी, टप्सी को अपने पीछे-पीछे आने का इशारा किया। फिर वे दोनों पास ही के उस शीशे के कमरे में चली गईं, जिसमें बैठकर सेंटक्लेयर पढ़ा करते थे।
उन दोनों के आँख से ओझल हो जाने पर सेंटक्लेयर ने कहा - "देखना चाहिए, इवा क्या करती है।"
यह कहकर वह आगे बढ़ा और शीशे पर जो पर्दा पड़ा हुआ था, उसका एक कोना उठाकर झाँकने लगा। एक क्षण के बाद उसने अपने होठों पर अंगुली रखकर इशारे से मिस अफिलिया को भी बुलाया। वे दोनों बालिकाएँ फर्श पर आमने-सामने बैठी हुई थीं। टप्सी के चेहरे पर उसकी स्वाभाविक बेपरवाही और अन्यमनस्कता का भाव दिखाई दे रहा है, पर इवा की आँखें आँसुओं से भरी थीं।
इवा बोली - "टप्सी, तेरा स्वभाव क्यों इतना खराब हो गया? तू सुधरने की कोशिश क्यों नहीं करती? टप्सी, क्या तू किसी आदमी को प्यार नहीं करती?"
टप्सी ने कहा - "मुझे नहीं मालूम, प्यार किस चीज को कहते हैं। मैं चीनी को प्यार करती हूँ और ऐसी ही चीजों को, जो मीठी होती हैं।"
"तू अपने बाप-माँ को प्यार करती है?"
"मेरा कोई नहीं है।"
"क्या तुम्हारा कोई नहीं है - भाई, बहन, चाचा, चाची या..."
"नहीं-नहीं, कोई नहीं। मेरा कभी कोई हुआ ही नहीं।"
"पर टप्सी, यदि तू सुधरने की कोशिश करे तो सुधर सकती है।"
"मैं हब्शी के सिवा और कुछ नहीं हो सकती। अगर मेरी यह काली चमड़ी उतरकर सफेद आ जाए तो मैं सुधरने की कोशिश करूँ।"
"टप्सी, काली होने से क्या हुआ, लोग तुझे अब भी प्यार कर सकते हैं। अगर तू अच्छी बन जाए तो मिस अफिलिया तुझे बहुत चाहेंगी।"
यह बात सुनकर टप्सी ने स्वाभाविक रीति से मुँह फाड़ दिया। इसके माने यह थे कि तुम्हारी इस बात पर विश्वास नहीं होता।
इवा ने पूछा - "क्या तू इस बात पर विश्वास नहीं करती?"
"नहीं मुझे देखकर ही उन्हें घृणा आती है, क्योंकि मैं हब्शी हूँ। मुझे छूने से वह ऐसा चौंकती हैं, जैसे उनपर कोई मेंढक गिर पड़ा है। कोई भी ऐसा नहीं है, जो हब्शियों को प्यार कर सके, और हब्शी भी कुछ हो नहीं सकते, ऐसे-के-ऐसे ही रहेंगे वे। (सीटी बजाना आरंभ करके) उसने कहा: मैं परवा नहीं करती।"
इवा का हृदय द्रवित हो उठा। उसने अपना दुबला सफेद हाथ टप्सी के कंधे पर रखकर कहा - "टप्सी-अभागी टप्सी, मैं तुझे प्यार करती हूँ। मैं तुझे इसलिए प्यार करती हूँ कि तू अनाथ है, तेरे माता-पिता नहीं हैं, न भाई-बहन हैं। मैं तुझे इसलिए प्यार करती हूँ कि तू बड़ी ही दु:खी और सताई हुई है। मैं तुझे प्यार करती हूँ और चाहती हूँ कि तू भली बन जा। टप्सी, मेरी तबियत बड़ी खराब है। मैं अब अधिक दिन नहीं रहूँगी। तेरा यह हाल देखकर मेरा जी बहुत ही दुखता है। मैं अब बहुत थोड़े ही दिनों की मेहमान हूँ। मैं चाहती हूँ कि और न सही, मेरा खयाल करके ही तू सुधरने की कोशिश कर!"
बालिका की आँखें आँसुओं से भर आईं और इवा के हाथ पर टप-टप बड़ी-बड़ी बूँदें गिरने लगीं। उसी क्षण सत्य विश्वास की एक किरण स्वर्गीय प्रेम की एक किरण, उस अज्ञानी अविश्वासपूर्ण बालिका की आत्मा में प्रविष्ट हुई। टप्सी दोनों घुटनों के बीच सिर रखकर रो रही थी और वह लावण्यमयी बालिका झुककर स्नेह-भरे नेत्रों से उसे देख रही थी। मानो कोई ज्योतिर्मय देवदूत झुककर किसी पापात्मा का पाप-पंक से उद्धार कर रहा हो।
इवा ने कहा - "टप्सी, क्या तू नहीं जानती कि ईश्वर हम सबको एक बराबर प्यार करते हैं? वह जितना मुझे प्यार करते हैं, उतना ही तुझे भी। वह ठीक वैसे ही तुझे प्यार करते हैं, जैसे मैं करती हूँ, बल्कि मुझसे अधिक, क्योंकि वे मुझसे बढ़कर हैं। वे सुधरने में तेरी मदद करेंगे। अंत में तू स्वर्ग में पहुँच सकती है और सदा के लिए देवदूत हो सकती है। तेरी काली चमड़ी इसमें बाधा नहीं डालेगी। सफेद चमड़ीवालों के लिए जैसे ये सब बातें हैं, वैसे ही तेरे लिए हैं। टप्सी, इन बातों को सोच! टॉम काका जिन ऊँची आत्माओं के भजन गाता है, तू भी उन आत्माओं की भाँति एक आत्मा हो सकेगी।"
टप्सी ने भरे कंठ से कहा - "मिस इवा, प्यारी इवा, मैं कोशिश करूँगी। मैंने पहले कभी इसकी परवा नहीं की थी।"
सेंटक्लेयर ने पर्दा छोड़कर मिस अफिलिया से कहा - "यह दृश्य देखकर इस समय मुझे अपनी माता की याद आती है। उन्होंने मुझसे ठीक ही कहा था - अगर हम अंधे को आँख देना चाहते हैं तो हमें ईसा के रास्ते पर चलना पड़ेगा। उन्हें अपने पास बुला लो और अपने हाथ उनपर रखो।"
मिस अफिलिया ने कहा - "हब्शियों से मुझे सदा से एक प्रकार की घृणा-सी है, और यह सच्ची बात है कि मैं कभी इस बालिका से अपना शरीर छुआने के लिए तैयार नहीं हो सकती। पर मैंने नहीं सोचा था कि वह मेरे मन के भाव को ताड़ती है।"
सेंटक्लेयर बोला - "ये बच्चे बड़ी जल्दी मन की बात जान लेते हैं। उनसे मन के भाव छिपाना कठिन है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि किसी बालक को यदि तुम मन से घृणा करती हो तो ऊपर से उसके उपकार की चाहे कितनी कोशिश क्यों न करो, उसकी चाहे कितनी भलाई क्यों न करो, वास्तव में जब तक उस पर तुम्हारा स्नेह-भाव न होगा, तब तक वह तुम्हारा रत्ती भर भी कृतज्ञ न होगा।"
अफिलिया ने कहा - "समझ में नहीं आता कि मैं इस भाव को कैसे दूर करूँ। ये हब्शी मुझे अच्छे नहीं लगते, और खासकर यह लड़की।"
सेंटक्लेयर बोला - "मालूम होता है, इवा ने इस भाव को दूर कर दिया है।"
अफिलिया ने गदगद होकर कहा - "हाँ, वह कैसी प्रेममयी है, मानो प्रेम का अवतार ही है। उसने ईसा की-सी प्रकृति पाई है। मेरी इच्छा होती है कि मैं भी उसकी जैसी होती। इवा से मैं बहुत-कुछ सीख सकती हूँ।"
सेंटक्लेयर बोला - "हाँ, बड़े हो जाने से ही आदमी सब बातों का पंडित नहीं बन जाता। बच्चों से भी उसे बहुतेरी बातें सीखने को रह जाती हैं।"
29. इवा की मृत्यु
इस संसार में सच्चा वीर कौन है? जिसने अपनी दृढ़ भुजाओं के प्रताप से अनेक राजाओं का गर्व चूर किया है, सहस्रों नर-नारियों पर आधिपत्य जमाया है, क्या वह सच्चा वीर है? जिसके बल से निर्बल सदा थरथराते, काँपते रहते हैं, जिसकी निर्दयता को स्मरणकर रोमांच हो आता है, क्या वह सच्चा वीर है? नहीं, कभी नहीं! वीर वह है, जो मौत से जरा भी नहीं डरता, सदा सुख-शांति से मरने को तैयार रहता है। वीर वह है, जो संसार की भलाई के निमित्त, जन-साधारण के हितार्थ, अपने जीवन का बलिदान करने में जरा भी संकोच नहीं करता। सच्चा वीर तो वही है, जो कभी किसी को सताता नहीं, और जगत में प्रेम का प्रवाह बहाकर मनुष्यों के अदम्य हृदयों को अपने वश में कर सकता है।
इस छोटी नन्हीं बालिका को देखिए। यह अपने रोग की यंत्रणा से अत्यंत पीड़ित है, पर इसे अपना दु:ख नहीं है। दूसरों का दु:ख देखकर आँसू बहा रही है; दूसरों के दु:ख के ध्यान में अपनी पीड़ा भूल गई है। क्या इसके जीवन में सच्ची वीरता के लक्षण नहीं दिखाई देते?
तीसरे पहर का समय है। इवा अपनी चारपाई पर पड़ी हुई है। सामने उसकी छोटी बाइबिल रखी है। उसे कभी खोलती है, कभी बंद करती है, कभी थोड़ी देर तक पढ़ती है। इसी समय एकाएक उसे बरामदे से अपनी माता की कर्कश आवाज सुनाई देती है:
"क्यों री लड़की, यहाँ खड़ी क्या उत्पात मचा रही है? बता, तूने फूल क्यों तोड़े?" इसी के बाद इवा को एक जोर के तमाचे की आवाज सुनाई दी। फिर उसने टप्सी को बोलते हुए सुना - "मेम साहब, ये सब मिस इवा के लिए..."
बीच में ही उसे रोकती हुई वह बोली - "मिस इवा का नाम लेकर कैसा बहाना बनाती है! तू समझती है, वह तेरे फूल चाहती है। तू किसी काम की नहीं है, हब्शिन भाग, यहाँ से!"
शक्ति के न रहने पर भी क्षण भर में इवा अपनी खाट से उठकर बरामदे में आ पहुँची। बोली - "आह, माँ, उसे मत भगाओ! मुझे फूल बड़े अच्छे लगते हैं। ये सब मुझे दे दो। मैं फूल चाहती हूँ।"
मेरी ने कहा - "क्यों इवा, तेरा कमरा तो इस समय फूलों से भरा पड़ा है?"
"मुझे और भी चाहिए। टप्सी, वे सब फूल यहाँ ले आ।"
टप्सी अब तक हाथ से सिर पकड़े खड़ी थी। इवा की बात सुनकर उसने धीरे-धीरे जाकर बड़े संकोच से फूल इवा के हाथ में दिए। उसके चेहरे पर अब पहले का-सा निस्संकोच, बेलाग और बेपरवाही का भाव दिखाई नहीं देता था।
इवा ने उन फूलों को देखकर कहा - "बड़ा सुंदर गुलदस्ता बनाया है।"
वास्तव में टप्सी ने बड़े जतन से भाँति-भाँति के फूल और पत्तियाँ चुनकर वह गुलदस्ता बनाया था। इवा की बात सुनकर उसका मुख प्रफुल्लित हो उठा।
इवा ने कहा - "टप्सी, तू बड़ी अच्छी तरह से फूल सजाती है। मेरा एक खाली फूलदान पड़ा है। मैं चाहती हूँ कि तू इसके लिए फूलों का एक गुलदस्ता रोज बना दिया करे।"
मेरी ने तुनककर कहा - "बड़ी अनोखी बात है! वह क्या गुलदस्ता बनाएगी?"
इवा बोली - "माँ, तुम्हारा इसमें क्या बिगड़ता है? जैसा टप्सी का जी चाहेगा, बना लेगी। तुम उसे रोको मत।"
टप्सी सिर झुकाकर खड़ी रही। फिर जब वह जाने लगी तो इवा ने देखा, उसकी आँखों से आँसू बह रहे हैं।
इवा ने अपनी माँ से कहा - "माँ, बेचारी टप्सी मेरे लिए कुछ करना चाहती है।"
"करना-धरना क्या चाहती है, वह खाली उत्पात करना चाहती है। वह जानती है कि फूल तोड़ने की मनाही है, इसी से वह तोड़ती है। पर तुम्हें यदि उसका फूल तोड़ना अच्छा लगता है, तो ठीक है।"
"माँ, मेरी समझ में टप्सी में पहले से अब बहुत फर्क है, वह सुधरने की बड़ी कोशिश कर रही है।"
मेरी ने उदासीनता से हँसकर कहा - "अभी उसे सुधरने में बहुत देर लगेगी। कोशिश करने से यदि सुधारा जा सकता है तो अभी उसे बहुत दिनों तक सिर खपाना पड़ेगा।"
इवा बोली - "माँ, तुम जानती हो कि हर एक चीज हमेशा उसके खिलाफ रही है।"
"नहीं, यहाँ आने के बाद तो उसके लिए सब-कुछ अनुकूल है। उसे कितना समझाया गया, कितने सदुपदेश दिए गए। आदमी किसी के लिए जहाँ तक कर सकता है, किया गया, फिर भी वह जैसी थी वैसी ही है, और वैसी ही रहेगी; तुम उसे सुधार नहीं सकती हो।"
इवा बोली - "माँ, हम लोग बड़े स्नेह और यत्न से पलते हैं। हमारे माता-पिता, भाई-बंधु हम सबको प्यार करते हैं, इसी से हमें भले बनने का मौका रहता है; पर उस बेचारी को बचपन से ही कोई प्यार करनेवाला नहीं था। फिर वह कैसे सुधरती?"
मेरी ने जम्हाई लेते हुए कहा - "यही होगा। जाने दो। देखो, आज कैसी गर्मी है?"
इवा ने कहा - "माँ, क्या तुम्हें विश्वास नहीं होता कि टप्सी भी कभी भली बनकर स्वर्गीय प्रकृति प्राप्त कर सकती है?"
मेरी हँसकर बोली - "स्वर्गीय प्रकृति! तुम्हारे सिवा और कोई इस बात पर विश्वास नहीं कर सकता।"
"पर माँ, क्या ईश्वर ने उसे नहीं रचा है? हम लोगों की भाँति टप्सी भी क्या ईश्वर की संतान नहीं है?"
"हाँ, यह हो सकता है। मैं मानती हूँ कि ईश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति को बनाया है। अच्छा, मेरी सूँघनेवाली शीशी कहाँ है?"
माँ के मुँह से ऐसी बात सुनकर इवा ने अर्ध-स्फुट स्वर से कहा - "ओफ, कैसे दु:ख की बात है!"
मेरी ने सुन लिया। बोली - "दु:ख की क्या बात है?"
"माँ, ये हब्शी भी अच्छी शिक्षा मिलने से, प्यार का व्यवहार पाने से स्वर्गीय प्रकृति प्राप्त कर सकते हैं। पर ये लोग बाल-बच्चों सहित नरक की ओर जा रहे हैं। नित्य इनका पतन हो रहा है। कोई इनकी सहायता करनेवाला नहीं है।"
"हम लोग इनकी सहायता नहीं कर सकते। इनकी चिंता करके मरना बेकार है। मैं नहीं जानती कि इनके प्रति हमारा क्या कर्तव्य है? हमें अपने सुख-वैभव के लिए ईश्वर का कृतज्ञ होना चाहिए। नाहक औरों की चिंता करना व्यर्थ है।"
इवा ने बड़े दु:खी स्वर में कहा - "मैं तो अपने सुख से संतुष्ट नहीं रह सकती। मुझे इन दीन-दुखियों की दशा देखकर बड़ी पीड़ा होती है।"
मेरी व्यंग्य से बोली - "तुम्हारी यह बड़ी अनोखी पीड़ा है। मेरा विश्वास है कि अपने धर्म के अनुसार यही ठीक है कि हम अपने सुख के लिए ईश्वर का उपकार मानें।"
जान पड़ता है, मेरी ने ऐंग्लो-इंडियन संहिता से क्रिश्चियन धर्म की शिक्षा पाई थी, इसी से उसने बाइबिल की दस आज्ञाओं (टेन कमांडमेंट्स) पर एकदम हरताल फेर दी थी।
इवा ने अपनी माता से कहा - "माँ, मैं अपने सिर के कुछ बाल कटवाना चाहती हूँ।"
मेरी ने पूछा "क्यों?"
"मैं अपने प्रेमियों को इनमें से कुछ बाल अपने हाथ से दे जाना चाहती हूँ। क्या तुम बुआ को बुलाकर मेरे बाल नहीं कटवा दोगी?"
मेरी ने दूसरे कमरे से मिस अफिलिया को पुकारकर बुलाया।
अफिलिया के आने पर इवा ने अपने घुँघराले बालों को हाथ में लेकर उन्हें हिलाते हुए कहा - "बुआ, आओ, भेड़ को मूंड़ दो।"
सेंटक्लेयर उसी समय इवा के निमित्त कुछ फल लिए हुए कमरे में आया और बोला - "यह क्या हो रहा है?"
इवा ने कहा - "बाबा, मैं बुआ से अपने सिर के बाल कटवा रही हूँ - बहुत बढ़ गए हैं। इससे मेरे सिर में गर्मी बढ़ जाती है। इसके अतिरिक्त मैं कुछ बाल बाँट भी जाना चाहती हूँ।"
मिस अफिलिया अपनी कैंची लेकर आई।
सेंटक्लेयर ने कहा - "देखना जीजी, बड़ी होशियारी से बाल काटना, बालों की शोभा मत बिगाड़ देना। नीचे-नीचे के जो दिखाई नहीं पड़ते हैं, सो काट दो। इवा के घुँघराले बालों पर मुझे अभिमान है।"
इवा ने उदासी से कहा - "यह क्यों?"
सेंटक्लेयर बोला - "हाँ, तुम्हारे बाल उस समय सुंदर रहने चाहिए, जब मैं तुम्हें अपने साथ लेकर तुम्हारे चाचा के खेत पर हेनरिक को देखने चलूँगा।"
इवा ने कहा - "वहाँ मैं कभी नहीं जाऊँगी। बाबा, मैं उससे अच्छे देश को जा रही हूँ। तुम मेरी बात का विश्वास करो। बाबा, तुम क्या देखते नहीं हो कि मैं दिन-प्रति-दिन थकती जा रही हूँ।"
सेंटक्लेयर ने दु:ख-भरे स्वर में कहा - "इवा, मुझे दबाकर ऐसी भयंकर बात पर क्यों विश्वास दिलाना चाहती हो?"
इवा बोली - "केवल इसलिए कि यह बात सत्य है, बाबा! यदि तुम इस पर विश्वास कर लोगे, तो शायद इसके संबंध में मेरी तरह ही अनुभव करोगे।"
सेंटक्लेयर चुप होकर व्यथित-हृदय से कटे हुए सुंदर बालों की ओर देखने लगा। बालों का एक-एक गुच्छा उठाकर इवा भी उत्सुकता से देख रही थी और उन्हें अँगुलियों के चारों ओर लपेट रही थी। बीच-बीच में शंकित होकर पिता के मुख की ओर भी देख लेती थी।
मेरी ने कहा - "मुझे जिसका खटका था, अंत में वही हुआ। जिस सोच में दिन-दिन मेरा शरीर गिरता जाता है, मेरी उम्र कम होती जाती है, वही हुआ। मेरे दु:ख-दर्द का कोई साथी नहीं है। सेंटक्लेयर, बहुत जल्दी तुम देखोगे कि मैं ठीक कहती थी।"
सेंटक्लेयर ने बड़े तीखे और रूखेपन से कहा - "निस्संदेह तुम्हें शांति मिलेगी।"
मेरी रूमाल से आँखें ढककर लेट गई।
इवा की नीली चमकीली आँखें एक बार पिता पर और फिर माता पर पड़ने लगीं। यह दृष्टि शांत दृष्टि थी। जीवनमुक्त आत्मा की गूढ़दर्शी दृष्टि थी। आज उसे अपने पिता और माता की प्रकृति का पूर्ण अनुभव हुआ। उसने हाथ के इशारे से पिता को अपने पास बुलाया। वह आकर उसके पास बैठ गया।
इवा ने कहा - "बाबा, मेरी शक्ति दिन-पर-दिन कम होती जा रही है, और मैं जानती हूँ कि मुझे शीघ्र ही इस संसार को छोड़ना पड़ेगा। कुछ बातें ऐसी हैं, जिन्हें मैं तुमसे कहना चाहती हूँ और कुछ काम ऐसे हैं, जिन्हें करना मेरा कर्तव्य है। उन्हें करने के लिए भी मैं तुमसे प्रार्थना करनेवाली हूँ। तुम इस बात से ऐसे नाराज हो कि मुझे एक शब्द भी मुँह से नहीं निकालने देते। पर मेरे जी को ये बातें बहुत खलती हैं। मैं कहे बिना नहीं रह सकती। तुम अब प्रसन्नता से मुझे कहने की आज्ञा दो।"
सेंटक्लेयर ने एक हाथ से अपनी आँखें पोंछते हुए और दूसरे से इवा का हाथ पकड़ते हुए कहा - "मेरी प्यारी बच्ची, जो कहना हो, कहो।"
इवा बोली - "अच्छा बाबा, यदि तुम मेरी बात मानते हो, तो मैं अपने सब नौकरों को अपने पास इकट्ठा देखना चाहती हूँ। मुझे उनसे कुछ बातें कहनी हैं।"
सेंटक्लेयर ने बड़ी सहिष्णुता से कहा - "अच्छा।"
मिस अफिलिया ने सब दास-दासियों को बुला भेजा। थोड़ी देर में सारे दास-दासी उस कमरे में आकर इकट्ठे हो गए।
इवा तकिए के सहारे लेटी हुई थी। उसके खुले बाल मुँह के चारों ओर बिखरे हुए थे। दोनों आँखों में कुछ ललाई आ जाने से दुर्बल शरीर और भी पीला दिखाई दे रहा था। नेत्रों से मानो आत्मा की उज्ज्वल ज्योति निकल रही थी। बालिका एकाग्रता से प्रत्येक दास-दासी का मुख देख रही थी।
दास-दासियों का जी सहसा उमड़ पड़ा। वह ममतापूर्ण कांतिमय मुख, पास पड़े कतरे हुए लंबे बाल, सेंटक्लेयर का शोक-संतप्त मुख, मेरी की आह- ये सब बातें उनके कोमल हृदय में घुस गईं। वे सब घोर विषाद से ठंडी साँस लेने लगे। थोड़ी देर के लिए वहाँ शमशान जैसा सन्नाटा छा गया।
इवा ने अपना सिर उठाया और घुमाकर बड़े आग्रह से एक नजर सब पर डाली। सबके मुँह पर उदासीनता और भय की रेखाएँ थी। दासियाँ कपड़ों से मुँह ढाँक-ढाँककर सिसकने लगीं।
इवा ने कहा - "मेरे प्यारे भाइयो, मैं तुम्हें प्यार करती हूँ, इसी लिए मैंने तुम सबको यहाँ बुलवाया है। तुम सबको मैं हृदय से चाहती हूँ। आज मुझे तुम लोगों से कुछ बातें कहनी हैं... मैं चाहती हूँ कि तुम लोग सदा उन्हें याद रखो, क्योंकि मैं तुम्हें छोड़ रही हूँ। अब मैं बहुत ही थोड़े दिनों की मेहमान हूँ।"
इतना कहने के बाद सेवकों-सेविकाओं के सुबकने और सर्द आहें भरने से वह कमरा इस तरह भर गया कि उस बालिका की कमजोर आवाज सुनने की संभावना न रही। वह कुछ देर चुप रही, फिर ऐसे स्थिर कंठ से बोली कि वे सब शांत-मौन हो गए। वह कहने लगी:
"यदि तुम लोगों का मुझपर हार्दिक प्रेम है तो तुम्हें मेरे बोलने में विघ्न नहीं डालना चाहिए। मेरी बातें ध्यान से सुनो। मैं तुमसे तुम्हारी आत्माओं के संबंध में कुछ कहना चाहती हूँ। मुझे दु:ख है कि तुममें से बहुतेरे बड़े लापरवाह हैं। तुम लोग केवल इस जगत् की बातें सोचते रहते हो। मैं चाहती हूँ कि तुम लोग इस बात को भी ध्यान में रखो कि इस जगत् के अलावा एक और सुंदर जगत् है, जहाँ ईसा रहते हैं। मैं वहाँ जाती हूँ, तुम्हें भी वहाँ जाने का अधिकार है। पर यदि तुम वहाँ जाना चाहते हो तो तुम्हें अपना आज के जैसा व्यर्थ निरुद्देश्य और आदर्शहीन जीवन नहीं बिताना चाहिए। तुम्हें अपने जीवन में अब कुछ सुधार करना चाहिए। तुम्हें याद रखना चाहिए कि तुममें से प्रत्येक व्यक्ति दिव्य जीवन का सुख प्राप्त कर सकता है। तुम भले बनने की कोशिश करोगे तो ईश्वर तुम्हारी सहायता करेंगे। ईश्वर सदा भले कामों का सहायक होता है। तुम्हें ईश्वर की प्रार्थना करनी चाहिए और तुम्हें पढ़ना चाहिए।"
इतना कहने के बाद बालिका कुछ देर को रुकी। वह उन्हें करुण दृष्टि से देखती रही। फिर दु:खित हृदय से बोली - "हाय प्यारे भाइयों, कितने दु:ख की बात है कि तुम पढ़ना नहीं जानते! और इससे तुम्हें कितना दु:ख है!"
उसका गला भर आया, उसने तकिए में मुँह छिपा लिया और सिसकने लगी। जिन्हें सुनाकर इवा ये बातें कह रही थी, वे उसे चारों ओर से घेरे खड़े थे। उसको बिलखते देखकर वे सब-के-सब भी रो पड़े।
उन लोगों को इस प्रकार रोते देख इवा ने अपने को सँभाला और अपना अश्रुपूर्ण मुख उठाकर उज्ज्वल, मृदुल मुस्कान से बोली - "कोई चिंता नहीं... मैंने सदा तुम लोगों के लिए दयालु प्रभु से प्रार्थना की है, और मैं जानती हूँ कि तुम्हारे पढ़ना न जानने पर भी तुम्हारा सुधार करने में ईश्वर तुम लोगों की सहायता करेंगे। तुम उस ईश्वर से सहायता माँगो, और अपने सुधार की चेष्ट करो! तुमसे जब भी बन सके, धर्म-पुस्तक पढ़ो। मुझे आशा है कि मैं तुम सबों को स्वर्ग में देखूँगी।"
इवा की बात समाप्त होने पर टॉम, मामी और कुछ पुराने सेवकों ने धीरे-धीरे कहा - "परम पिता की इच्छा पूर्ण हो!"
इनमें जो बहुत छोटी उम्र के और चिंताहीन थे, उनका हृदय भी इस समय दु:ख से भर गया। वे घुटनों में सिर रखकर सिसकने लगे।
इवा ने कहा - "मैं जानती हूँ, तुम सब मुझे प्यार करते हो।"
इसके बाद उन सभी के लिए उसने अपनी शुभकामना भेंट की।
इवा बोली - "हाँ, मैं जानती हूँ, खूब जानती हूँ, कि तुम सब मुझे प्यार करते हो। तुममें से एक भी ऐसा नहीं, जिसने मुझे अपना हार्दिक स्नेह न दिया हो। मैं चाहती हूँ कि तुम्हें कोई ऐसी चीज दे जाऊँ कि उसे जब तुम देखो, तभी मुझे याद करो। मैं तुम सबको अपने बालों की एक-एक लट देती हूँ। और जब तुम इसे देखो, तो सोचना कि मैं तुम लोगों से प्यार करती थी, मैं स्वर्ग में चली गई हूँ और मैं चाहती हूँ कि तुम सब को वहाँ देखूँ।"
रोते और सिसकते हुए सब सेवक-सेविकाओं ने उस नन्हीं बालिका के कोमल हाथों से उसके निर्मल प्यार की वह यादगार बड़ी श्रद्धा के साथ अपने हाथों में सँभाल ली। उस हृदय-द्रावक दृश्य को कैसे बताया जाए! कोई रोता हुआ जमीन पर औंधे मुँह पड़ा था, कोई मन-ही-मन दयालु ईश्वर से बालिका के मंगल की प्रार्थना कर रहा था, और कोई उसके कपड़ों का सिरा चूम रहा था। जिसके मन में जैसे आता था, बालिका के लिए अपना शोक और प्रेम दिखलाता था।
जब वे सब लोग प्यार की भेंट-स्वरूप बालों की लटें पा चुके, तब मिस अफिलिया ने यह समझकर कि भीड़ रहने से रोगी को बेचैनी होगी, उन सबको संकेत से बाहर जाने को कहा। सब चले गए। केवल टॉम और मामी दो रह गए।
इवा ने कहा - "टॉम काका, यह एक सुंदर गुच्छा मैंने तुम्हारे लिए रख छोड़ा है। यह सोचकर बड़ा ही हर्ष होता है कि मैं तुम्हें स्वर्ग में देखूँगी। मुझे इसका पूर्ण विश्वास है।" फिर स्नेह के साथ अपनी बूढ़ी धाय मामी से लिपटकर वह बोली - "मामी, तुम बड़ी सीधी और दयालु हो। मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ। मैं जानती हूँ कि तुम भी स्वर्ग में पहुँचोगी।"
मामी ने जोर से रोते हुए कहा - "मेरी प्यारी बच्ची, तेरे बिना मैं कैसे जीऊँगी? तुझे छाती से लगाकर मैं अपनी संतान का दु:ख भूले हुए थी।"
मिस अफिलिया ने मामी और टॉम को धीरे-धीरे वहाँ से बाहर कर दिया। सोचा कि सब चले गए; पर जैसे ही वह घूमी, उसने देखा कि टप्सी वहाँ खड़ी थी। मिस अफिलिया ने एकाएक कहा - "तू किधर से आ टपकी?"
टप्सी ने आँखों से आँसू पोंछते हुए कहा - "मैं यहाँ ही तो थी। मिस इवा, मैं सदा से बुरी लड़की हूँ; पर क्या आप मुझे भी अपने बालों की एक लट नहीं देंगी?"
इवा बोली - "हाँ, टप्सी, तुझे जरूर दूँगी। यह ले, तू जब-जब भी इन बालों को देखना, तब-तब अपने मन में यही सोचना कि मैं भी तुझे बहुत चाहती थी और मेरी इच्छा थी कि तू भली लड़की बन जाए।"
टप्सी ने रुद्ध कंठ से कहा - "मिस इवा, मैं भली बनने की बराबर कोशिश कर रही हूँ। पर भला बनना बड़ा कठिन काम है। मेरी समझ में नहीं आता कि मैं इसमें किसकी मदद लूँ।"
इवा ने कहा - "इसे ईश्वर जानते हैं, टप्सी, वे तुझे प्यार करते हैं, वे ही तेरी सहायता करेंगे।"
टप्सी रोते-रोते चुपचाप वहाँ से चली गई! बालों के गुच्छे को उसने अपनी छाती में आदर से छिपा लिया।
सबके चले जाने पर मिस अफिलिया ने किवाड़ बंद कर लिए। जब ये सारी बातें हो रही थीं, तब मिस अफिलिया की आँखों से भी लगातार आँसुओं की धारा बह रही थी, पर वह बुद्धिमानी रमणी अपने शोक को रोककर रोगी को आराम पहुँचाने की चिंता कर रही थी और चारों ओर से इस शोक-प्रदर्शन से कहीं रोगी का कष्ट बढ़ न जाए, इस डर से वह स्वयं चुप बैठी थी।
सेंटक्लेयर भी एक हाथ से आँखें ढाँपे चुपचाप लड़की के पास बैठा था। सबके चले जाने पर भी वह उसी तरह बैठा रहा।
इवा के पिता के हाथ पर अपना हाथ रखते हुए कहा - "बाबा!"
सेंटक्लेयर सहसा चौंक उठा। उसका सारा शरीर रोमांचित हो गया, लेकिन वह कुछ बोला नहीं।
इवा ने फिर पुकारा - "बाबा!"
सेंटक्लेयर ने तीव्र यंत्रणा से छटपटाते हुए कहा - "अब नहीं सहा जाता - विधाता मुझपर बड़ा निर्दयी है।..."
मिस अफिलिया ने कहा - "वह ईश्वर की चीज है - उसकी इच्छा है कि इसका जो चाहे, करे।"
"शायद ऐसा ही हो, लेकिन इससे कष्ट सहना कुछ सहज तो नहीं होता।" बड़े सूखे और भारी स्वर से सेंटक्लेयर ने यह बात कहकर मुँह फेर लिया। उसकी आँखों से आँसू भरे हुए थे। इवा ने उठकर पिता की गोद में अपना सिर रखते हुए कहा - "बाबा, तुम्हारी बातें सुनकर मेरा हृदय फटा जाता है। तुम इतना दु:ख मत करो।" और वह फफक उठी।
इवा को रोते देखकर पिता को बड़ा भय हुआ। उसकी चिंता-धारा दूसरी ही ओर बह चली।
सेंटक्लेयर ने कहा - "मेरी बेटी इवा, अब शांत हो जा। मुझे भ्रांति हो गई थी, मैंने अन्याय किया है। तुम जो सोचने या करने को कहोगी, मैं वहीं सोचूँगा और वही करूँगा। तुम मेरे लिए दु:ख मत करो। मैं ईश्वर को आत्म-समर्पण करूँगा। ईश्वर को दोष देकर मैंने बड़ा अन्याय किया है। अब फिर ऐसी बात मुँह से नहीं निकालूँगा।"
इवा बहुत थकी-सी होकर अपने पिता की गोद में पड़ी रही और वह उसे प्यारे-प्यारे शब्दों से सांत्वना देने लगा।
मेरी वहाँ से उठकर अपने सोने के कमरे में चली गई। वहाँ उसे बार-बार मूर्च्छा आने लगी।
इवा के पिता ने विषाद से मुस्कराकर कहा - "इवा बेटी, मुझे तो तुमने अपने बालों की एक भी लट नहीं दी।"
इवा ने हँसकर कहा - "बाबा, तुम्हारे तो सभी हैं। तुम्हारे और माँ के ही हैं। हाँ, बुआ जितनी लटें चाहें, उन्हें तुम दे देना। मैंने तो बस अपने दास-दासियों को अपने हाथ से दिए हैं, क्योंकि बाबा, तुम जानते हो, मेरे चले जाने के बाद उन्हें शायद कोई न देता... और मुझे आशा है कि इन बालों को देखकर वे मेरी याद जरूर करेंगे।..."
"बाबा, तुम क्रिश्चियन हो या नहीं?" इवा ने कुछ संदेह से पूछा।
सेंटक्लेयर ने जवाब दिया - "तुम ऐसा क्यों पूछती हो?"
इवा ने कहा - "तुम ऐसे भलेमानस होकर भी क्रिश्चियन नहीं हो, इस पर मुझे आश्चर्य है।"
सेंटक्लेयर ने पूछा - "क्रिश्चियन के क्या गुण होते हैं, इवा?"
इवा बोली - "जो क्राइस्ट को सब चीजों से अधिक प्यार करे।"
सेंटक्लेयर ने कहा - "क्या तुम ऐसा करती हो, बेटी?"
इवा बोली "नि:संदेह!"
सेंटक्लेयर ने कहा - "तुमने तो कभी उसे देखा भी नहीं...।"
इवा ने उत्तर दिया - "नहीं, देखने से क्या बनता-बिगड़ता है! मेरा उस पर विश्वास है, और कुछ दिनों में मैं उसे देख लूँगी।"
यह कहते-कहते इवा का मुख एक दिव्य आनंद से खिल उठा। सेंटक्लेयर ने फिर कुछ नहीं कहा। यह भाव उसने पहले अपनी माता में देखा था, पर स्वयं उसके हृदय में कोई ऐसा भाव नहीं था।
इसके बाद इवा का रोग दिन-दिन बढ़ता ही गया। अब उसके जीने की कोई आशा न रही।
मिस अफिलिया दिन-रात सिरहाने बैठी उसकी सेवा-शुश्रूषा करती थी। इस विपत्ति के समय उसकी असाधारण धीरता, बुद्धिमत्ता और शुश्रूषा में तत्परता को देखकर कोई भी उसे मन-ही-मन सराहे बिना नहीं रह सकता था।
टॉम अधिकतर इवा के कमरे में रहता था। वह कभी इवा को गोद में उठाकर बरामदे में टहलाता, कभी सवेरे की साफ ताजा हवा में घुमाने के लिए उसे बाग में ले जाता और कभी किसी पेड़ की छाया में बैठकर पहले की तरह इवा को उत्तम भक्ति के भजन सुनाता।
इवा का पिता भी प्राय: उसे गोद में लेकर घुमाता था, पर उसका शरीर विशेष सबल न होने के कारण वह जल्दी थक जाता था। तब इवा कहती - "बाबा मुझे टॉम की गोद में दे दो। वह मुझे गोद में लेना चाहता है, मेरे लिए कुछ भी करने में वह बड़ा प्रसन्न होता है।"
सेंटक्लेयर ने कहा - "बेटी ऐसा ही मैं भी अनुभव करता हूँ।"
इवा की सेवा करने की इच्छा केवल टॉम ही को नहीं रहती थी, बल्कि घर के सभी सेवक उसके लिए हृदय से कुछ करना चाहते थे और उन बेचारों से जो-कुछ हो सकता था, करते भी थे।
इवा की सेवा करने के लिए मामी बहुत छटपटाती थी, पर उसे कोई अवसर ही नहीं मिलता था, क्योंकि दिन-रात मेरी उसे अपनी ही टहल-चाकरी से फुर्सत नहीं होने देती थी। मेरी कहती कि कन्या की पीड़ा के कारण उसका मन बड़ा बेचैन हो गया है। उसकी यंत्रणा के मारे कोई चैन नहीं लेने पाता था। रात को भी मामी को कम-से-कम बीस बार जगाकर तंग करती थी - कभी पैर दबवाती, कभी सिर पर पानी डलवाती; कभी रूमाल ढुढ़वाती। कभी कहती - जा, देखकर आ, इवा के कमरे में कैसा शोर हो रहा है। कभी कहती - रोशनी आ रही है, परदा डाल दे। कभी कहती - अँधेरा है, परदा उठा दे! वह दिन में भी मामी को, इवा के कमरे के अलावा इधर-उधर चारों ओर दौड़ाती ही रहती थी। इससे मामी कभी-कभी छिपकर पल भर के लिए इवा को देख आती थी।
एक दिन मेरी ने कहा - "इस समय अपने शरीर के विषय में विशेष सावधान रहना मैं अपना कर्तव्य समझती हूँ। एक तो यों ही कमजोर हूँ, उस पर इवा की सेवा-शुश्रूषा ओर भार-सँभालने का सारा बोझ मुझपर है।"
सेंटक्लेयर ने कहा - "अच्छा, क्या सचमुच ऐसा है? मैं तो समझता था कि बहन ने तुम्हें इससे छुट्टी दे रखी है।"
मेरी बोली - "ठीक है, तुम मर्द हो, अत: मर्दों की-सी बातें करते हो। तुम्हें पता ही नहीं कि संतान की पीड़ा माता के मन पर कैसा असर डालती है। भला ऐसी दशा में माँ का मन कैसे बेफिक्र हो सकता है? हाय, मेरे मन की दशा कोई नहीं समझता। सेंटक्लेयर, मैं तुम्हारी तरह बेपरवाह बनकर नहीं रह सकती।"
सेंटक्लेयर को मेरी की बात पर हँसी आ गई। इस दु:ख के अवसर पर भी हँसी आने से सेंटक्लेयर को निर्दयी न समझा जाए। ऐसी उज्ज्वल शक्ति की लहरों में उसकी आत्मा की परलोक-यात्रा आरंभ हुई थी। ऐसी शीतल-मंद-सुगंध वायु के झोंके खाती हुई वह जीवन की क्षुद्र नौका स्वर्ग की ओर जा रही थी कि इस बात का ध्यान तक न आता था कि यह सब उसकी मौत के समान है। बालिका को कोई विशेष शारीरिक यंत्रणा न थी। अदृष्ट रीति से शनै:-शनै: उसकी निर्बलता बढ़ती जाती थी। शांति और पवित्रता की एक मधुर लहर बालिका के चारों ओर उछालें ले रही थी। उसके मुख की वह सात्त्विक ज्योति, हृदय की वह गंभीर स्नेह-राशि, आत्मा का वह जीवित विश्वास और प्राणों की वह स्थिर प्रफुल्लता देखकर किसी के भी हृदय में एक अद्भुत और नवीन शांति का विकास हो सकता था। यह शांति ईश्वर -निर्भरता के भाव से उत्पन्न शांति न थी, तो क्या आशा थी? असंभव! यह भूत-भविष्य से सर्वथा निराली, वर्तमान की एक शांतिमय अवस्था थी, यह शांति सेंटक्लेयर के मन को ऐसी सांत्वना देती कि अब उसे भयावह भविष्य को सोचने की इच्छा ही न होती।
अपनी आसन्न मृत्यु के संबंध में इवा के हृदय में जो पूर्वाभास था, उसे उसके विश्वासी परिचारक टॉम के सिवा और कोई न जानता था। पिता का हृदय दुखने के डर से इवा उससे अपनी दशा छिपाती ही थी, पर टॉम से वह अपनी कोई बात कहने में संकोच नहीं करती थी। मृत्यु के कुछ ही पूर्व जब शरीर से आत्मा का बंधन ढीला पड़ने लगता है तब हृदय को आप-ही-आप मौत के पैरों की आहट मिल जाती है। इवा ने जब यह जान लिया कि मृत्यु बहुत निकट आ गई है तब उसने टॉम को यह बात बताई। उसी दिन से टॉम ने अपनी कोठरी में सोना छोड़ दिया। अब वह इवा के कमरे से लगे बरामदे में लेटा रहता था, जिससे कोई जरूरी काम हो तो वह तुरंत वहाँ पहुँच सके।
मिस अफिलिया ने एक दिन उससे कहा - "टॉम, तुम कुत्ते की तरह इधर-उधर क्यों पड़े रहते हो? मैं तो समझती थी कि तुम सभ्य आदमी की भाँति अपनी कोठरी में सोते होगे।"
टॉम बोला - "हाँ, मैं हमेशा अपने कमरे में ही सोया करता हूँ, पर अब..."
अफिलिया ने कहा - "अब क्या?"
टॉम ने उत्तर दिया - "जी, जरा धीरे बोलिए, कहीं सेंटक्लेयर साहब न सुन लें। आप जानती हैं कि दुलहे की खबर रखने के लिए किसी को जागना चाहिए।"
अफिलिया ने कहा - "तुम्हारे कहने का क्या मतलब है?"
टॉम बोला - "आप जानती हैं, बाइबिल में लिखा है, आधी रात के समय वहाँ बड़ा शोर-गुल हुआ - देखो, दुलहा आ पहुँचा। मिस फीली, मैं हर रात को उसी की बाट देखा करता हूँ। मैं यहाँ से हटकर नहीं सो सकता।"
अफिलिया ने कहा - "क्यों टॉम काका, तुम ऐसा क्यों सोचते हो?"
टॉम ने जवाब दिया - "मिस इवा मुझसे बहुत-सी बातें कहती हैं। आत्मा के पास परमात्मा अपना दूत भेजते हैं। मिस फीली, यह पवित्र बालिका जब स्वर्ग में जाने लगेगी तब स्वर्ग के द्वार खुल जाएँगे, हम सब लोग स्वर्ग की उज्ज्वल प्रभा का दर्शन पाकर कृतार्थ होंगे। मैं उस समय उसके पास ही रहना चाहता हूँ।"
अफिलिया बोली - "टॉम काका, क्या मिस इवा ने तुमसे कहा है कि और दिनों के बजाय आज उसे अधिक तकलीफ है?"
टॉम ने कहा - "नहीं, पर आज सवेरे उन्होंने मुझसे यह कहा कि मैं परलोक के बहुत पास पहुँच गई हूँ, देवदूत उन्हें संदेशा सुना गए हैं।"
रात के कोई दस बजे होंगे। उस समय मिस अफिलिया और टॉम के बीच ये बातें हुईं। मिस अफिलिया बाहर का दरवाजा बंद करने आई थी।
मिस अफिलिया घबरानेवाली स्त्री न थी। सहज में उनका मन अधीर होनेवाला न था। पर टॉम की गंभीर विश्वासपूर्ण बात सुनकर वह बड़ी घबराई। और दिनों के बजाय उस दिन शाम से ही इवा अधिक प्रसन्न और स्वस्थ दीख पड़ती थी। वह बिछौने पर बैठी सोच रही थी कि अपने गहने किसे देगी तथा अपनी पसंद की और-और चीजें किसे देगी। उस दिन बहुत दिनों के बाद इवा के शरीर में थोड़ी-सी फुर्ती दीख रही थी।
उस दिन शाम को कमरे में आने पर सेंटक्लेयर ने उसे और दिनों से स्वस्थ और सबल देखकर कहा - "इवा, आज बहुत अच्छी जान पड़ती है। बीमारी के बाद ऐसी प्रसन्न वह किसी दिन नहीं दिखाई दी थी।"
फिर रात को सोने के लिए जाते समय सेंटक्लेयर ने मिस अफिलिया से कहा - "बहन, ईश्वर की कृपा से आज इवा और दिनों से काफी अच्छी जान पड़ती है। आशा है, जल्दी ही ठीक हो जाएगी।" इतना कहकर सेंटक्लेयर अपने कमरे में जाकर बेफिक्री की नींद सो गया।
आधी रात हुई। सब सो रहे थे, पर अफिलिया की आँखों में नींद का नाम न था। वह बड़ी एकाग्रता से इवा के मुँह को निहार रही थी। पल-पल बदलते मुख के भाव देख रही थी। एकाएक इवा के चेहरे का भाव ऐसा बदला, मानो उसे लेने को स्वर्ग-दूत आ पहुँचे हों। यह अवस्था देखते ही मिस अफिलिया तत्काल दरवाजा खोलकर बाहर आई। टॉम बाहर बैठा था। रात को उसने पल भर के लिए भी आँखें बंद नहीं की थीं। अफिलिया ने उसे देखते ही कहा - "टॉम, जल्दी से डाक्टर को लाओ।"
टॉम उधर डाक्टर के यहाँ गया, इधर मिस अफिलिया ने आकर सेंटक्लेयर के दरवाजे की कुंडी हिलाई।
उसने कहा - "भैया, जल्दी बाहर आओ।"
इन शब्दों के कान में पड़ते ही सेंटक्लेयर को अपना दिल बैठता-सा मालूम हुआ। उसने समझ लिया कि सर्वनाश की घड़ी आ पहुँची। वह झटपट इवान्जेलिन के कमरे में पहुँचा। वहाँ जाकर देखा तो इवान्जेलिन के मुँह पर दु:ख की कोई रेखा नहीं थी। सदा का-सा एकाग्र तथा मधुर भाव बालिका के मुख पर विराज रहा था। तब क्यों ऐसा लगा कि आज इवा की घड़ियाँ पूरी हो गई हैं? उसके शरीर में एकदम सुस्ती दौड़ गई थी, हाथ-पैर बर्फ के जैसे ठंडे हो गए थे। बस मुख-कमल, आध्यात्मिक ज्योति के कारण, ज्यों-का-त्यों खिला हुआ था, तनिक भी नहीं मुरझाया था।
टॉम जल्दी ही डाक्टर को लेकर पहुँच गया। डाक्टर ने मिस अफिलिया से पूछा - "यह हालत कब से है?"
अफिलिया ने जवाब दिया - "आधी रात के बाद से।"
सारे घर में शोर मच गया। सब लोग जाग उठे। बरामदे में भीड़ लग गई। घर में दौड़-धूप की आवाजें सुनाई देने लगीं, परंतु सेंटक्लेयर ने किसी से न कुछ कहा, न सुना। वह चुपचाप एकटक निद्रित बालिका के मुँह की ओर ही ताकता रहा।
थोड़ी देर के बाद आप-ही-आप बोला - "बेटी एक बार जाग पड़ती... मैं एक बार और इस मुख की मधुर वाणी सुन लेता..."
यह कहकर उसने इवा के कान के पास मुँह ले जाकर कहा - "बेटी इवा!"
ये शब्द सुनकर उन दोनों सुधावर्षी सुदीर्घ नेत्रों का पर्दा हट गया। उसने सिर उठाकर बोलने की चेष्टा की, पर शरीर बेदम था।
सेंटक्लेयर ने कहा - "इवा, तू मुझे पहचानती है?"
बालिका ने अस्फुट स्वर में कहा - "बाबा।"
बड़े कष्ट से उसने अपनी छोटी-छोटी भुजाएँ उठाकर पिता के गले में डाल दीं। देखते-ही-देखते वे दोनों कोमल हाथ लटक गए। पल भर के लिए उसके चेहरे का भाव बदला। बस, यह अंतिम घड़ी थी। आत्मा देह को छोड़कर जाने की तैयारी में थी।... इवा के मुख-कमल पर पल भर के लिए यंत्रणा के चिह्न देखकर सेंटक्लेयर का धीरज जाता रहा। उसे कष्ट से साँस लेते देखकर बोल उठा - "अरे टॉम, यह सब सहा नहीं जाता... मेरे प्राण इवा का कोई भी दु:ख नहीं सह सकते!... मेरी जान गई... तुम प्रार्थना करो, जिससे यह घड़ी टल जाए।"
टॉम की आँखों से आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी। अपने मालिक की यह दयनीय दशा देखकर वह आकाश की ओर मुँह करके परमेश्वर से प्रार्थना करने लगा। विश्वास और भक्ति में भी कैसी अद्भुत शक्ति होती है! टॉम की प्रार्थना सुनी गई, पल भर में इवा की वह यंत्रणा दूर हो गई। टॉम बोल उठा - "धन्य भगवन्! धन्य पिता! सारी यंत्रणाओं के अंत का समय आ गया है!"
बालिका के वे दोनों सुदीर्घ नेत्र स्वर्ग की ओर देख रहे थे, मानो वह विशाल और स्थिर दृष्टि से पुकारकर कह रही थी - "संसार के सारे दु:ख दूर हो गए।"
सेंटक्लेयर ने धीरे से कहा - "इवा!"
किंतु उसने नहीं सुना।
फिर उसके पिता ने कहा - "बेटी, तुम क्या देख रही हो?"
वह मुख कमल मधुर हास्य से जैसे खिल उठा। बालिका ने अस्फुट स्वर से कहा - "अहा, प्रेम-आनंद-शांति!" और उसके बाद देह जीवन-शून्य हो गई। आत्मा ने मृत्यु को पार करके अमरत्व प्राप्त कर लिया। निर्मल-प्रकृति देव-बाला ने पाप और अत्याचारपूर्ण संसार से कूचकर भगवान की गोद में सहारा ले लिया।
30. मृत्यु के उपरांत
इवान्जेलिन की निर्मल आत्मा मंगलमय के मंगल-धाम को चली गई। जीवन से शून्य शरीर घर में पड़ा हुआ है। उसके शयनागार में रखी पत्थर की मूर्तियों और चित्र आदि को सफेद वस्त्रों से ढक दिया जाता है। घर में गहरा सन्नाटा है। बीच-बीच में पैरों की मंद-मंद आहट सुनाई पड़ जाती है। बंद खिड़कियों से बाहर की धुँधली रोशनी अंदर आकर घर के सन्नाटे को और भी बढ़ा रही है।
बिस्तर सफेद चादर से ढका पड़ा है और उसी पर वह नन्हीं सोयी हुई है - ऐसी नींद में, जो कभी खुलने की नहीं।
बालिका की देह लतिका पहले की तरह श्वेत वस्त्रों में लिपटी हुई है। उषा की किरणें यवनिका को पार करके मृत्यु के पंजे में पड़े, शीत से जड़ शरीर पर प्रभा बिखेर रही हैं। सिर एक ओर को झुका हुआ है, मानो बालिका सचमुच सो रही हो। समग्र आनंद-व्यापिनी शोभा, आनंद और शांति की अपूर्व सम्मिलन-श्री देखने से ही पता लगता है कि यह नींद क्षणिक नहीं है। यह लंबी नींद आत्मा का अनंत-पवित्र विश्राम है।
इवा, तुम-सरीखी देवियों की मृत्यु नहीं होती, न मृत्यु की छाया है और न अंधकार। जिस प्रकार प्रात:काल के प्रकाश में शुक्र तारा छिप जाता है, उसी प्रकार तुम लोगों की आँखों से ओझल हो गई हो। बिना युद्ध किए ही तुमने गढ़ जीत लिया है, बिना विरोध के राजमुकुट प्राप्त कर लिया है।
सेंटक्लेयर शय्या के पास खड़ा हुआ एकटक उसकी ओर देख रहा है, मानो वह किसी विचार में मग्न होकर कुछ सोच रहा हो, पर कौन जाने, क्या सोच रहा है... उसे चारों ओर अंधकार-ही-अंधकार दिखाई दे रहा है।
रोडाल्फ और रोजा, दोनों मृत बालिका के कमरे और शय्या को भाँति-भाँति के फूलों से सजा रहे हैं। उनकी आँखों से आँसुओं की धार बह रही है।
कमरे में अब भी पहले दिन के फूलों के ढेर पड़े हैं। इवा की मेज पर यत्नपूर्वक सजाए गुलदस्ते में केवल एक गुलाब की कली है। तभी रोजा एक डलिया भर फूल लेकर घर में आई, किंतु सेंटक्लेयर को सामने देखकर सम्मान से पीछे हट गई। सेंटक्लेयर ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया, यह देखकर वह फिर आगे बढ़ी और मृत देह के चारों ओर फूलों को बड़ी सुघड़ता से सजा दिया। बालिका के सुंदर हाथ में एक सुगंधित पुष्प देकर वह चली गई। सेंटक्लेयर ऐसे देखता रहा, मानो कोई स्वप्न देख रहा हो।
इतने में टप्सी अपने अंचल में एक फूल छिपाए हुए वहाँ आई। रोते-रोते उसकी दोनों आँखें सूज गई थी। उसे देखते ही रोजा ने चुपके से कहा - "भाग-भाग, यहाँ तेरा क्या काम?"
टप्सी ने अंचल से एक अधखिला गुलाब का फूल निकालकर कातरता से कहा - "देखो, मैं यह कैसा सुंदर फूल लाई हूँ!... मुझे जाने दो... मैं इसे वहाँ रखूँगी।"
रोजा ने दृढ़ता से कहा - "भाग जा!"
सहसा सेंटक्लेयर ने टोककर कहा - "उसे मत रोको, आने दो!"
रोजा पीछे हट गई। टप्सी ने धीरे-धीरे बिस्तर के पास आकर वह फूल उसके पैरों पर रख दिया और धरती पर लोटकर जोर-जोर से रोने-चीखने लगी। मिस अफिलिया वहाँ गई और उसे उठाकर समझाने की चेष्टा करने लगी, पर उसको सफलता न मिली। टप्सी रो-रो कहती थी - "मिस इवा, मिस इवा, मैं भी तुम्हारे साथ चलना चाहती हूँ।... मुझे भी ले चलो।"
बालिका का मर्म-भेदी क्रंदन सुनकर सेंटक्लेयर का पथराया हुआ सफेद चेहरा एकदम सुर्ख हो गया। इवा की मृत्यु के बाद अब उसकी आँखों से आँसू गिरे।
मिस अफिलिया ने बड़े स्नेह से कहा - "टप्सी, रो मत। मिस इवा स्वर्ग में गई है।"
टप्सी ने सिसकते हुए कहा - "मुझे तो वह नहीं दिखाई पड़ती हैं।... अब मुझे वह कभी नहीं दिखाई पड़ेंगी।"
पल भर के लिए सब चुप हो गए।
टप्सी ने फिर कहा - "मिस इवा मुझे प्यार करती थीं। उन्होंने स्वयं कहा था कि वह मुझे प्यार करती हैं। हाय, अब तो मेरा कोई भी नहीं रहा! अब मुझे कौन प्यार करेगा?"
सेंटक्लेयर ने ठंडी साँस लेकर मिस अफिलिया से कहा - "बहन, इवा टप्सी को सचमुच प्यार करती थी। तुम इस बेचारी बालिका को समझाकर शांत करो।"
मिस अफिलिया अश्रु-पूर्ण नेत्रों से टप्सी को घर से बाहर ले गई और उससे कहने लगी - "टप्सी, तू दु:खी मत हो, मैं तुझसे प्यार करूँगी। इवा ने मुझे प्यार करना सिखाया है। मैं उसके जैसे दिल की तो नहीं हूँ, तो भी तुझे प्यार करूँगी, तुझे प्यार की निगाह से देखूँगी, अच्छी सीख दूँगी और अच्छे रास्ते पर लाने की चेष्टा करूँगी।"
मिस अफिलिया को सरलता और स्नेह से यों बोलते देखकर आज टप्सी का हृदय उसकी ओर खिंच गया। वास्तव में स्नेह की पहचान बहुत जल्दी हो जाती है। निश्छल प्रेम और सहज स्नेह के प्रभाव से पत्थर का हृदय भी मोम हो जाता है। टप्सी का परिवर्तन देखकर सेंटक्लेयर अपने-आप कहने लगा - "हाय, मेरी इवा! इस संसार में बहुत थोड़े दिन ही रहकर तूने कितना अच्छा काम कर दिखाया! पत्थर-से दिल को कोमल बना दिया। पर मैंने अपनी इतनी बड़ी जिंदगी बेकार ही गँवाई, कुछ भी नहीं किया! मैं ईश्वर के सामने ऐसे जीवन के लिए क्या जवाब दूँगा?"
दिन अच्छी तरह चढ़ आया। चारों ओर से आत्मीय जन आए, पड़ोसी आए, सारा घर भर गया। मधुर प्रतिमा इवान्जेलिन की देह को ताबूत में रखकर उसका मुँह बंद किया गया। बगीचे में जहाँ बैठकर इवा और टॉम बाइबिल पढ़ा करते थे, वहाँ उस ताबूत को दफन कर दिया गया। सेंटक्लेयर खड़ा होकर देखने लगा। वह सोचता था, यह स्वप्न है या सच्ची घटना! क्या सचमुच आज मेरी प्राणाधार इवा धरती में समा गई! नहीं, वह देवकन्या धरती में नहीं समाई। यह तो उसकी काया..., पुराना कपड़ा था। आज इवा ने पुराना चोला त्यागकर नए चोले में स्वर्ग को कूच किया है। कौन है, जो उसका अमरत्व मिटा सके? इवा मर नहीं सकती। अंतिम क्रिया पूरी हुई।
इवा की जननी मेरी विलाप करने लगी। घर के सारे दास-दासियों को असह्य शोक हुआ था, पर उन्हें अपने शोक में रोने-पीटने की फुरसत ही नहीं मिलती थी। मेरी सबका नाकों दम किए रहती थी। शायद वह समझती थी कि संसार में दु:ख, शोक तथा प्यार और किसी के हृदय में प्रवेश नहीं कर सकता। यह सब केवल उसी की बपौती है। जब-तब मेरी कहा करती थी कि उसके स्वामी की आँखों से एक बूँद आँसू तक तो गिरा ही नहीं। वह एक बार भी उसे धीरज बँधाने नहीं आया। उसने एक बार भी उसके इस शोक में सहानुभूति प्रकट नहीं की, उसके स्वामी-जैसा कठोर हृदय आदमी इस संसार में दूसरा नहीं है।
कभी-कभी ये आँखें और कान मनुष्य को बड़ा धोखा देते हैं। ये दोनों इंद्रियाँ केवल बाहरी चीजों को देखती हैं। अंत:करण का गूढ़ भाव नहीं देख पातीं। इसलिए जो लोग केवल बाहरी बातों पर दृष्टि डालकर भले-बुरे का फैसला कर लेते हैं, वे सहज में धोखा खा जाते हैं। मेरी का यह बाहरी रुदन सुनकर टॉम और अफिलिया के सिवा सेंटक्लेयर के घर के कई दास-दासी समझते थे कि इवा की मृत्यु का मेरी को ही सबसे अधिक दु:ख है। सेंटक्लेयर के हृदय के गहरे शोक को टॉम सहज में जान गया। इसी से वह इवा की मृत्यु के उपरांत कभी अपने मालिक का साथ नहीं छोड़ता था। कभी-कभी वह बड़े उदास भाव से इवा के कमरे में बैठता, उसकी छोटी बाइबिल को उठाकर खोलता और फिर बंद करता। यद्यपि उसमें से वह कुछ भी पढ़ता नहीं था, तथापि उस समय उसके हृदय में जैसी विकट यंत्रणा होती थी, इसे टॉम के सिवा और कोई नहीं समझ सकता था। ऐसे नि:शब्द आंतरिक शोक से हृदय जितना जलता था, उसका शतांश भी मेरी की बाहरी चिल्लाहट से नहीं जलता था।
कुछ दिनों बाद सेंटक्लेयर अपने बागवाले घर को छोड़कर परिवार सहित नगरवाले मकान में आ गया। अपने हृदय की असह्य शोक-यंत्रणा को घटाने के लिए वह हर समय किसी-न-किसी काम में लगा रहता। वह पहले की भाँति सब से हँसता-बोलता था। यदि वह शोक-चिह्न धारण न किए होता तो कोई जान भी नहीं सकता था कि उसकी संतान की मृत्यु हो गई है।
एक दिन मिस अफिलिया से मेरी ने शिकायत के ढंग से कहा - "बहन, सेंटक्लेयर भी क्या अजीब आदमी है! मैं समझा करती थी कि संसार में यदि सेंटक्लेयर किसी को सबसे अधिक प्यार करते हैं तो बस इवा को; पर वह उसे भी बड़ी जल्दी भूल गए जान पड़ते हैं। कभी भूलकर भी उसका नाम नहीं लेते। मैंने सोचा था कि उन्हें इसका बहुत दु:ख होगा, पर मेरा यह खयाल गलत निकला।"
अफिलिया बोली - "बात यह है कि अथाह जल अंदर-ही-अंदर जोरों से बहा करता है।"
मेरी ने प्रतिवाद किया - "मैं इन बातों को नहीं मानती। ये सब कोरी बातें-ही-बातें हैं। यदि मनुष्य के मन में दु:ख होगा तो वह उसे अवश्य प्रकट करेगा। बिना प्रकट किए रहा ही नहीं जाएगा। पर मनुष्य के मन में किसी बात के लिए दु:ख होना दुर्भाग्य की निशानी है। भगवान ने यदि मुझे भी सेंटक्लेयर की भाँति निर्दयी बनाया होता तो मैं क्यों दु:ख सहती। मुझमें थोड़ी ममता है, यही मेरी जान लिए लेती है।"
मामी ने कहा - "मेम साहब, आप यह क्या कहती हैं! बेचारे साहब दिन-ब-दिन शोक में सूखे जा रहे हैं। इवा की मृत्यु के उपरांत किसी दिन पेट भर भोजन नहीं किया।" फिर उसने आँसू बहाते हुए कहा - "मैं जानती हूँ कि साहब मिस इवा को कभी भूल नहीं सकते; साहब ही क्या, उस नन्हीं प्यारी बालिका को कोई भी नहीं भूल सकता।"
मेरी बोली - "यह सब होने पर भी वह मेरा कभी खयाल नहीं करते। उन्होंने मुझसे कभी सहानुभूति का एक शब्द भी नहीं कहा। वह यह बात नहीं जानते कि पिता की अपेक्षा माँ को संतान का कितना अधिक दु:ख होता है!"
मिस अफिलिया ने गंभीरता से कहा - "हर एक का हृदय ही अपने-अपने दु:ख हो जानता है। दूसरे के दु:ख को और कोई क्या समझेगा?"
मेरी बोली - "मैं भी यही समझती हूँ। मुझे जितना दु:ख है, उसे दूसरा कौन समझेगा? इवा समझती थी, सो चली गई।" इतना कहकर वह अपने पलंग पर लेट गई और बड़ी बेसब्री से सिसकने लगी।
इधर ये बातें हो रही थीं, उधर सेंटक्लेयर की लाइब्रेरी के कमरे में और चर्चा चल रही थी। पहले कहा जा चुका है कि इवा की मृत्यु के बाद टॉम सदा अपने मालिक के पीछे-पीछे लगा रहता था। आज सेंटक्लेयर अपनी लाइब्रेरीवाले कमरे में गया। टॉम बाहर बैठा बाट देखता रहा। जब देर होने पर भी वह बाहर न निकला तब टॉम धीरे-धीरे कमरे के अंदर गया। वहाँ जा कर देखा कि मालिक इवा की नन्हीं बाइबिल को मुख पर रखे हुए पड़े हैं। टॉम चुपचाप उनकी आराम-कुर्सी के पास जाकर खड़ा हो गया। सेंटक्लेयर उसे देखते ही उठ बैठा। टॉम के मुख की ओर आँखें फेरते ही दयालु सेंटक्लेयर का हृदय भर आया। सरलता और साधुता से परिपूर्ण टॉम का मुख-मंडल स्वामी के दु:ख से एकदम मलिन पड़ गया। उस मुँह से कोई वाक्य नहीं निकला, पर मुख की कातरता और करुणा का भाव प्रभु के दु:ख में स्पष्ट रूप से सहानुभूति प्रकट कर रहा था।
कुछ देर बाद सेंटक्लेयर ने कहा - "टॉम, इस संसार में सब-कुछ असार है।"
टॉम बोला - "मैं जानता हूँ प्रभु, सब-कुछ असार है, पर स्वर्ग की ओर, जहाँ इस समय हम लोगों की इवा है, ईश्वर की ओर निगाह रखने से कल्याण होगा।"
सेंटक्लेयर ने कहा - "टॉम, मैं स्वर्ग की ओर निगाह डालता हूँ और ईश्वर की ओर देखने की चेष्टा करता हूँ, पर मुझे कुछ नहीं दिखाई देता। यदि कुछ दीख पड़ता तो मन को संतोष दिला सकता।"
टॉम ने एक दीर्घ नि:श्वास छोड़ा।
सेंटक्लेयर ने फिर कहा - "टॉम, मैं समझता हूँ कि निर्मल चरित्र शिशुओं को और तुम-सरीखे सरस और साधु-प्रकृति के लोगों को ही ईश्वर दिव्य दृष्टि देता है, हम-जैसों को नहीं; इसी से तुम लोग स्वर्ग की बातें जान सकते हो।"
टॉम बोला - "प्रभु, बाइबिल का मत है कि जो ज्ञान का अभिमान करते हैं और कानून की दुहाई देते हैं उन्हें ईश्वर के दर्शन नहीं होते। जिनका चित्त बालक की भाँति सरल है, उन्हीं को भगवान के दर्शन मिलते हैं।"
सेंटक्लेयर ने कहा - "टॉम, बाइबिल पर मेरा विश्वास नहीं है। अपनी शंकालु प्रकृति के कारण किसी बात पर मेरा विश्वास नहीं जमता। मैं चाहता तो हूँ कि बाइबिल पर मेरा विश्वास जम जाए, पर ऐसा होता नहीं।"
टॉम ने कहा - "प्रभु, आप ईश्वर से प्रार्थना कीजिए कि हे भगवान! मेरे मन के संदेहों को दूर कर दो।"
टॉम की यह बात सुनकर सेंटक्लेयर स्वप्न में पड़े हुए मनुष्य की भाँति बोला - "कोई बात समझ में नहीं आती। क्या संसार का यह प्रेम, विश्वास और भक्ति सभी निरर्थक हैं? क्या मृत्यु के साथ-साथ इन सबका नाश हो जाता है? क्या मेरी इवा नहीं? क्या स्वर्ग नहीं है? क्या ईश्वर नहीं? क्या कुछ नहीं है?"
टॉम ने घुटने टेककर कहा - "प्रभु, सब-कुछ है। मैं भली-भाँति जानता हूँ कि सब कुछ है। आप इन सब पर विश्वास करने की चेष्टा कीजिए, चेष्टा कीजिए।"
सेंटक्लेयर बोला - "तुमने कैसे जाना कि ईश्वर है? तुमने तो कभी ईश्वर को देखा नहीं।"
टॉम ने कहा - "मैंने अपनी आत्मा के अंदर उसे जाना है। इस समय भी वह मेरे अंदर है। प्रभु, जब मैं अपने बाल-बच्चों से अलग करके बेच डाला गया, उस समय एकदम निराश हो गया था। मेरे मन में तनिक भी बल न रहा और तब मैंने निराश होकर ईश्वर को पुकारा। इससे अकस्मात् मेरे मन में शक्ति पैदा हो गई और मेरे अंदर से आवाज आई कि 'टॉम, डरो मत, मैं तुम्हारे साथ हूँ।' इससे मेरे सारे दु:ख दूर हो गए और हृदय में आशा जाग उठी। प्रभु, क्या अपने-आप मन में ऐसा भाव आ सकता है? अंदर बैठे हुए परमात्मा ने ही मेरे मन को बल दिया था।"
ये बातें कहते समय टॉम का हृदय भक्ति और प्रेम से भर गया। उसकी आँखों से पानी की गंगा-यमुना बहने लगीं। सेंटक्लेयर ने उसके कंधे पर सिर रखकर और उसके काले हाथ पकड़कर कहा - "टॉम, तुम मुझे प्यार करते हो?"
टॉम बोला - "प्रभु, यदि मेरे प्राण देने से भी ईश्वर में आपकी भक्ति और विश्वास हो जाए, तो यह दास अभी खुशी-खुशी अपने प्राण देने को तैयार है।"
सेंटक्लेयर ने द्रवित होकर कहा - "मेरे भोले भाई, मेरे लिए प्राण दोगे? मैं तो तुम्हारे-जैसे साधु और सहृदय मनुष्य के स्नेह के योग्य भी नहीं हूँ।"
टॉम बोला - "प्रभु, मेरी अपेक्षा ईश्वर आपको हजार गुना ज्यादा प्यार करते हैं।"
सेंटक्लेयर ने पूछा - "टॉम, यह तुम कैसे जानते हो?"
टॉम ने कहा - "मेरी आत्मा में इसका अनुभव होता है। प्रभु, मिस इवा मुझे बड़ी अच्छी तरह बाइबिल पढ़कर सुनाया करती थी। उसके बाद किसी ने नहीं सुनाई। आप थोड़ा-सा पढ़कर सुनाइए।"
सेंटक्लेयर ने बाइबिल में से लाजरस के उद्धार का वृत्तांत पढ़ा। टॉम भक्ति-भाव से हाथ जोड़कर उसे सुन रहा था। समाप्त होने पर सेंटक्लेयर ने पूछा - "टॉम, क्या तुम्हें ये सब बातें सच्ची जान पड़ती हैं?"
टॉम बोला - "प्रभु, मुझे ये सब बातें साफ दिखाई पड़ रही हैं।"
सेंटक्लेयर ने विभोर होकर कहा - "टॉम, मुझे तुम्हारी आँखें मिल जातीं तो अच्छा होता।"
टॉम ने बड़ी विनम्रता से जवाब दिया - "ईश्वर आप पर अवश्य दया करेंगे।"
"लेकिन टॉम, तुम जानते हो कि तुमसे मेरा ज्ञान कहीं अधिक बढ़ा-चढ़ा है। मैं यदि तुमसे कहूँ कि मैं इस बाइबिल पर विश्वास नहीं करता तो इससे क्या तुम्हारे हार्दिक विश्वास को कुछ ठेस पहुँचेगी?"
"रत्ती भर भी नहीं।" टॉम ने कहा।
सेंटक्लेयर बोला - "क्यों टॉम, तुम तो जानते हो कि मैं तुमसे अधिक पढ़ा-लिखा हूँ।"
टॉम बोला - "प्रभु, अभी आप ही ने तो कहा है कि ईश्वर को वे लोग नहीं देख सकते, जिन्हें अपने ज्ञान का अभिमान है। बालकों-जैसे विश्वासियों को ही भगवान के दर्शन मिलते हैं। जान पड़ता है, आप मेरे हृदय की परीक्षा ले रहे हैं। ये आपके हृदय के सच्चे भाव नहीं हैं।"
सेंटक्लेयर ने कहा - "हाँ, मैंने तुम्हारी परीक्षा के लिए ही ऐसा कहा था। मैं बाइबिल पर अविश्वास नहीं करता। इसमें शक नहीं कि धर्म-शास्त्र युक्ति-संगत है। पर खेद है कि मेरा स्वभाव बिगड़ा हुआ है।"
"प्रभु, प्रार्थना से सुधर जाएगा।" टॉम ने धीमे स्वर में कहा।
"टॉम, तुम कैसे जानते हो कि मैं प्रार्थना नहीं करता?" सेंटक्लेयर ने पूछा।
टॉम बोला - "प्रभु, क्या आप प्रार्थना करते हैं?"
"मैं अवश्य करता, पर किसके सामने करूँ, कुछ भी तो नहीं दिखाई देता। किंतु टॉम, तुम इस समय प्रार्थना करो, मैं सुनता हूँ।" सेंटक्लेयर ने एक साँस में कहा।
टॉम बड़े भक्ति-भाव से ईश्वर की प्रार्थना करने लगा। उसकी सरल प्रार्थना से सेंटक्लेयर का हृदय भर आया। प्रार्थना की धारा में उसका मन स्वर्ग की ओर बह चला। उसने प्रत्यक्ष ही अनुभव किया कि इवा अमृतमय की अमृत-गोद में विराज रही है।
टॉम की प्रार्थना समाप्त होने पर सेंटक्लेयर ने कहा - "टॉम, तुम जब-तब मेरे सामने ऐसे ही प्रार्थना किया करो। परंतु इस समय तुम मुझे थोड़ी देर एकांत में रहने की छुट्टी दो। मैं और किसी समय तुमसे अधिक बातें करूँगा।"
टॉम चुपचाप उस कमरे से चला गया।