टॉम काका की कुटिया (उपन्यास) : हैरियट बीचर स्टो
अनुवाद : हनुमान प्रसाद पोद्दार
Uncle Tom's Cabin (Novel in Hindi) : Harriet Beecher Stowe
1. गुलामों की दुर्दशा
माघ का महीना है। दिन ढल चुका है। केंटाकी प्रदेश के किसी नगर के एक मकान में भोजन के उपरांत दो भलेमानस पास-पास बैठे हुए किसी वाद-विवाद में लीन हो रहे थे।
कहने को दोनों ही भलेमानस कहे गए हैं, पर थोड़ा ध्यान से देखने पर साफ मालूम हो जाएगा कि इनमें से एक की गणना सचमुच भले आदमियों में नहीं की जा सकती। यह आदमी देखने में नाटा और मोटा है। इसका शारीरिक गठन बहुत ही मामूली है। कपड़े-लत्तों से अलबत्ता खूब बना-ठना है। उसके और रंग-ढंग भी ऐसे हैं जिनसे जान पड़ता है कि यह बड़ा आदमी बनना चाहता है। लगता है, मानो इस समय धन इकट्ठा करके समाज के अंधकूप से बाहर निकलने की चेष्टा कर रहा हो। वह टूटी-फूटी और अशुद्ध अंग्रेजी में बातचीत कर रहा है। बीच-बीच में तरह-तरह के भद्दे और अश्लील शब्द भी उसके मुँह से निकल पड़ते हैं।
दूसरा आदमी घर का मालिक है। वह देखने में सज्जन जान पड़ता है। इसका नाम आर्थव शेल्वी है और पहले का हेली।
उन दोनों में देर से बातें हो रही थीं, पर हम बीच से ही आरंभ करते हैं। शेल्वी ने कहा - "मैं चाहता हूँ कि यही बात पक्की रहे।"
हेली बोला - "नहीं मिस्टर शेल्वी, हम इस बात को कभी नहीं मान सकते, कभी नहीं!"
शेल्वी - "क्यों, तुम सच्ची बात नहीं जानते। टॉम मामूली दास नहीं है। इन दामों पर तो मैं कहीं भी उसे सहज ही बेच सकता हूँ। वह बड़ा सच्चरित्र, ईमानदार और चतुर है। मेरे सारे काम बड़ी चतुराई से करता है।"
"अजी, बस करो, बहुत शेखी मत बघारो। गुलाम लोग जैसे सच्चरित्र और ईमानदार होते हैं, हम खूब जानते हैं। तुम्हारा टॉम ही कहाँ का अनोखा ईमानदार आ गया!"
"नहीं-नहीं, वास्तव में टॉम सच्चरित्र और धार्मिक है। बरसों से वह मेरा काम करता चला आया है, लेकिन कभी किसी काम में उसने मुझे धोखा नहीं दिया है।"
"हाँ साहब, यह तो ठीक है, पर बहुत लोगों का खयाल है कि हब्शी गुलामों को धर्म-कर्म का बिल्कुल ज्ञान नहीं होता है, लेकिन हम ऐसा नहीं समझते। अभी पिछले साल हम अर्लिंस में एक दास बेचने को ले गए थे। वह बड़ा ही धार्मिक और सीधा-सादा था। उसमें हमें खासा मुनाफा रहा। बेचनेवाले ने बड़े संकट में पड़कर हमारे हाथ बेचा था। इसी से सस्ते में हाथ लग गया और बेचने में हमें बड़ा फायदा रहा। खरे धर्म की बड़ी कीमत है। यह गुण होने से दासों के दाम भी बढ़ जाते हैं, लेकिन भाई, माल जरा होना चाहिए असली।"
शेल्वी बोला - "मैं कह सकता हूँ कि टॉम के जैसे सच्चे धर्मात्मा संसार में बहुत कम ही होंगे। अभी कल की बात है। मैंने उसे सिनसिनेटी में एक आदमी के यहाँ से अपने पाँच सौ रुपए लाने को भेजा था। वह फौरन रुपए लेकर लौट आया। वहाँ उसे कितने ही बदमाशों ने पाँच सौ रुपए लेकर चंपत हो जाने की पट्टी पढ़ाई, बहुतेरा बहकाया, पर उसने किसी की एक न सुनी। तुम्हीं कहो, ऐसे ईमानदार दास को क्या कोई अपनी इच्छा से बेचेगा? यह तो तुम्हारे कर्जे में जकड़ जाने से लाचार होकर बेचना पड़ रहा है। टॉम का मूल्य मेरे सारे कर्जे के बराबर है। तुममें समझ हो तो ऐसे गुण-संपन्न टॉम को लेकर मेरा पीछा छोड़ो।"
"भई, कारोबारी आदमी में जितनी समझ होती है, उतनी तो हममें भी है। पर इस साल बाजार की हालत उतनी अच्छी नहीं है, नहीं तो मैं तुम्हारा ही कहना मान लेता।" हेली ने लाचारी के स्वर में कहा।
"फिर तुम क्या कहना चाहते हो?"
"टॉम के साथ एक छोकरा या छोकरी नहीं दे सकते?"
"मेरे पास बेचने के लिए कोई लड़का-लड़की नहीं है। मैं अपने दास-दासियों को कभी नहीं बेचता। यह तो इस बार लाचारी की हालत में बेच रहा हूँ।"
अभी शेल्वी की बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि घर का दरवाजा खोलकर एक पाँच-छह वर्ष का वर्णसंकर बालक अंदर आया। देखने में वह बहुत सुंदर था। काले-काले घुँघराले बाल उसके कोमल चेहरे पर चारों ओर बिखरे हुए थे। उसकी दोनों काली-काली आँखें चमक रही थीं। उसकी आँखों से नम्रता और तेज टपक रहा था। उसके सादे-स्वच्छ वस्त्र मुख की सुंदरता को और भी बढ़ा रहे थे। बालक का लजीला और निडर स्वभाव देखते ही पता लग जाता था कि वह अपने मालिक का प्यारा है।
शेल्वी ने बालक को देखते ही कहा - "जिम, लेना यह।" और एक मुट्ठी किशमिश उसके सामने डाल दी। किशमिश उठाने के लिए बालक को लपकता देखकर उसका मालिक हँसने लगा। किशमिश उठा लेने के बाद शेल्वी ने उस बालक को अपने पास बुलाकर प्यार से कहा - "जिम, इन्हें जरा अपना नाच तो दिखला!"
बालक झट तैयार होकर ठुमुक-ठुमुक नाचने लगा। इस पर हेली बड़ा खुश हुआ, खूब वाह-वाह की और एक नारंगी उस लड़के को दी।
शेल्वी ने कहा - "अब जरा अपने कुबड़े चाचा की तरह कमर झुकाकर लकड़ी के सहारे चलने की नकल तो कर।"
देखते-देखते बालक ने मालिक की लाठी लेकर कुबड़ों के लाठी के सहारे चलने की हूबहू नकल कर दी। बालक की इस विचित्र बाल-लीला को देखकर शेल्वी और हेली दोनों खूब हँसे। इसी भाँति अपने मालिक की आज्ञा से बालक ने और भी कई नकलें करके दिखाईं।
यह सब देखकर हेली बोला - "वाहजी, खूब अलबेला छोकरा है यह तो! बस, इसी को टॉम के साथ दे दो, फिर तुम्हारी छुट्टी, एकदम छुट्टी! कसम से यही करो, सारा हिसाब चुकता हो जाएगा।"
इसी समय एक वर्णसंकर युवती धीरे से दरवाजा खोलकर अंदर आई। वह बालक की माता जान पड़ती थी। दोनों की काली आँखें और घुँघराले बाल एक-से थे। हेली उसकी सुंदरता पर मुग्ध हो, उसकी ओर आँखें गड़ाकर घूरने लगा। शर्म से युवती की आँखें नीची हो गईं। एक बार देखने में ही उसके अंगों की सुडौलता दास-व्यवसायी हेली के मन में घर कर गई।
शेल्वी ने आंगतुक स्त्री इलाइजा को देखकर पूछा - "इलाइजा, क्या चाहती हो?"
"मैं हेरी को ढूँढ़ने आई थी।" बालक पाई हुई चीजों को लेकर माँ के पास दौड़ गया।
शेल्वी ने कहा - "इसे ले जाओ।"
बालक को गोद में उठाकर युवती चली गई। इलाइजा के चले जाने पर हेली बोला - "कैसी सुंदर छोकरी है। इसे अर्लिंस में बेचो तो मालामाल हो जाओ। हमने हजार-हजार पर जिन छोकरियों को बिकते देखा है, वे भी इससे ज्यादा खूबसूरत नहीं होतीं।"
शेल्वी - "मैं इसे बेचकर धन इकट्ठा नहीं करना चाहता।"
"क्यों? बोलो, तुम इसे कितने का माल समझते हो? कितने पर सौदा करने को राजी हो? और बेचो तो क्या लोगे?"
शेल्वी - "मैं इसे कभी नहीं बेचूँगा। बराबर का सोना लेकर भी मेरी स्त्री इसे अलग नहीं करेगी।"
हेली बोला - "वाह उस्ताद, तुमने भी खूब कही! अरे, औरतें नफे-नुकसान की बातें क्या जानें! रुपए के मोल का उन्हें क्या पता! लेकिन तुम अपनी बीवी को एक बार समझाओ तो कि इसे बेच डालने पर कैसे बढ़िया-बढ़िया गहने और कपड़े हाथ लगेंगे। फिर मैं देखूँगा कि तुम्हारी बीवी इसे बेचना चाहती है कि नहीं।"
शेल्वी ने झुँझलाकर दृढ़ता से कहा - "हेली, तुमसे एक बार कह दिया कि मैं इसे नहीं बेचूँगा, फिर क्यों बेकार की बातें करते हो? एक बार जिस काम के लिए इनकार कर दिया, उसे फिर कभी नहीं करूँगा। सच मानो!"
इस पर हेली बोला - "अच्छा, बाबा, जाने दो। लड़के को तो दोगे न? हम ज्यादा दाम देकर इसे खरीद रहे हैं। तुम्हें बेचना ही पड़ेगा।"
शेल्वी - "तुम्हें इस लड़के की क्या जरूरत है?"
हेली - "हमारे एक दोस्त ने बेचने के लिए कुछ खूबसूरत लड़के माँगे हैं। सच कहता हूँ कि तुम्हारे जैसे बड़े आदमी बड़े शौक से ऐसे छोकरों को खरीदते हैं। बाजार में इनके बड़े दाम उठते हैं। फिर यह लड़का! यही तो असल में बेचने की चीज है। कैसा बढ़िया खिलाड़ी है, कैसा गाना गाता है।"
शेल्वी - "मैं इसे नहीं बेचना चाहता। मेरे दिल में कुछ दया है। इसे इसकी माँ की गोद से अलग करने की मेरी इच्छा नहीं है।"
हेली - "सो तो मै खूब समझता हूँ। इन सब नन्हें-नन्हें छोकरों को बेचने के वक्त इनकी माँ बहुत रोती-चिल्लाती हैं और तुम लोग इनका रोना सुनकर पिघल जाते हो। लेकिन जरा हिकमत से काम लिया जाए तो, तुम्हारे सिर की कसम, जरा भी हुल्लड़ नहीं मचता। सुनो, लड़के को बेचने के पहले उसकी माँ को कहीं टरका दो। फिर बच्चे को खरीदार के हवाले कर देने पर जब वह औरत घर लौटे तो उसे एक जोड़ा कर्णफूल या और कोई दिल-बहलाव की चीज खरीदकर दे दो। बस, उसका सारा दुःख-दर्द काफूर हो जाएगा, वह लड़के को याद तक नहीं करेगी। तुम्हारी कसम, यह सब तो हम लोगों के बाएँ हाथ का खेल है।"
शेल्वी ने दुःख के स्वर में कहा, मैं तो नहीं समझता कि इतने से उसके दिल को संतोष हो जाएगा।"
हेली बोला - "संतोष क्यों नहीं होगा? ये भी क्या कोई गोरे हैं? जरा चतुराई से काम लो तो बेड़ा पार है। बहुत लोग कहते हैं कि गुलामी का रोजगार मनुष्य को पत्थर बना देता है, पर यह सरासर झूठ है। बहुतेरे दास-व्यवसायी जरा-सी भावुकता में सारा बना-बनाया खेल बिगाड़ बैठते हैं। सच कहता हूँ, उन्हें इससे बड़ा नुकसान उठाना पड़ता है। तुम्हारी कसम, चाल से काम न लेने की वजह से अर्लिंस में ऐसे ही एक व्यापारी के बहुत-से रुपए मिट्टी में मिल गए। उसने एक औरत खरीदी थी। उसका एक छोटा-सा लड़का था। लड़का दूसरे के हाथ बिका था। खरीदार ने लड़के को औरत की गोद से खींचकर फेंक दिया और उसकी मुश्कें कसकर घर ले गया। इसी से वह रो-रोकर पागल हो गई और आखिर में मर गई। नफे की उम्मीद पर जो एक हजार गिने थे, उसमें नफा तो गया भाड़ में, एक हजार में एक टका भी वसूल न हुआ। इसी से मैं जो करता हूँ, बड़े दावँ-पेंच के साथ करता हूँ। बोलो, यह क्या अक्लमंदी नहीं है? भगवान जानते हैं मेरे काम में कभी कोई टंटा बखेड़ा उठता ही नहीं। तुमने जो कहा, वह हमको भी ठीक जँचता है। दास-दासियों के साथ दया का बरताव तो करना ही चाहिए। हम किसी औरत की गोद से लड़का नहीं छीनते; बल्कि उसे किसी बहाने से दूसरी जगह टरका देते हैं और पीछे से लड़के को भी चंपत कर देते हैं। देख लो, इससे दया-माया, धरम-करम सब बने रहते हैं। हम हमेशा यों ही दया के साथ काम करते हैं। नुकसान किस चिड़िया का नाम है, हम जानते ही नहीं। बहुतेरे तो हमारी दया की बात का मजाक उड़ाते हैं। वे इसे दया नहीं, ढोंग बताते हैं। पर बताया करें, हमने कभी घाटा तो नहीं उठाया। दया से काम लेने से कभी पैसा बरबाद नहीं जाता। तुम्हीं कहो, हम झूठ कहते हैं?"
हेली की दया की डींग ने शेल्वी को हँसा दिया। शेल्वी का हँसना देखकर हेली का उत्साह दूना हो गया। उसने फिर बातों का सूत्र आगे बढ़ाया। कहने लगा - "यह बड़ा अचरज है कि लोग ये सब बातें समझते नहीं। पहले टॉम लोकर नाम का हमारा एक साझीदार था। यों तो इन कामों में वह बड़ा घाघ था, पर गुलामों के लिए तो कमबख्त यमराज ही था। हम उसे बहुत समझाते कि 'टॉम, लड़कियाँ जब रोती हैं तब पीट-पीटकर उनका कचूमर निकालने से क्या फायदा? उनके रोने-धोने से अपना क्या बिगड़ता है? अरे रोना-धोना तो उनका काम ही है। वह तो कभी रुकने का नहीं। फिर नाहक ठोंक-ठोंककर उनका हुलिया बिगाड़ने से क्या फायदा! उलटा अपना ही नुकसान है।' हम उसे दो मीठी बातें करके काम निकालने के लिए बहुत समझाते। कहते कि कोड़ों की मार से जो काम नहीं निकलता, वह दो मीठी बातों से हो जाता है, किंतु टॉम पर इसका कोई असर न होता। आखिर जब उसके साझे में हमें घाटा होने लगा, तो हमने साझा तोड़ दिया। लेकिन भई, मन का बड़ा साफ और पक्का कामकाजी आदमी था वह। उसके मुकाबले का आदमी खोजे जल्दी नहीं मिल सकता, यों तो दुनिया भरी पड़ी है।"
शेल्वी - "तुम क्या टॉम लोकर से अच्छी तरह से काम चलाते हो?"
हेली - "बेशक, जहाँ जरा गड़बड़ जान पड़ती है, वहाँ हम बहुत सँभलकर काम लेते हैं। छोटे लड़के-लड़कियों को बेचने के समय हम उनकी माताओं को खिसका देते हैं। कहावत है न कि आँखों से दूर होने पर मन से भी दूर हो जाता है। गोरों की तरह लड़कों के साथ रहने की आशा करना काले गुलामों का काम नहीं। बराबर ऐसी शिक्षा पानेवाले गुलाम सपने में भी वैसी आस नहीं करते।"
शेल्वी बोला - "मालूम होता है, तब तो मेरे यहाँ के दास-दासियों ने सही शिक्षा नहीं पाई है।"
हेली - "हाँ, बेशक! तुम सारे केंटाकीवालों ने गुलामों को बिगाड़ रखा है। करना चाहते हो तुम भला, नतीजा होता है उल्टा। एक गुलाम आज यहाँ है, कल उसे टॉम ले जाएगा, परसों उसे डिक के घर जाना पड़ेगा और अगले दिन फिर किसी और का होगा। यों ही दुनिया का चक्कर काटता रहेगा। अगर तुम उसे खूब सुख देकर, उसके मन में कुटुंब के साथ रहने की आशा पैदा कर देते हो तो फिर वह तकलीफ सहने लायक नहीं रह जाता। तुम लोग कालों और गोरों का भेद मिटा देना चाहते हो। पर क्या यह कभी संभव है? काला गोरे की बराबरी कर सकता है? काला काला ही है, गोरा गोरा।"
अंग्रेज सौदागरों के दया-धर्म की गूढ़ व्याख्या करके ईसा से अपनी दयालुता की तुलना करते हुए हेली ने एक गिलास शेरी पीकर अपनी प्यास बुझाई और फिर शेल्वी से पूछा, हाँ, तो अब कहो, तुम क्या करोगे?"
शेल्वी ने कहा - "अपनी स्त्री से सलाह करके बताऊँगा। पर तुम किसी के सामने इन बातों की चर्चा मत करना। कहीं मेरी स्त्री के कानों तक यह बात पहुँच गई तो बड़ा बखेड़ा होगा। वह जीते-जी कभी दास-दासी बेचना स्वीकार न करेगी।"
हेली - "हम बहुत जल्दी दूसरी जगह जाना चाहते हैं। जो कुछ करना हो, आज ही तय कर डालो।"
शेल्वी - "अच्छा, तुम सात बजे आ जाना। जैसा होगा, बता दूँगा।"
हेली के जाने के उपरांत शेल्वी साहब मन-ही-मन सोचने लगे कि कर्ज भी बुरी बला है, जिसके पीछे टॉम जैसे स्वामिभक्त ईमानदार नौकर को इस दुष्ट के हाथ बेचना पड़ रहा है! यदि मैं इसका ऋणी न होता तो टॉम को बेचने की बात मुँह से निकालते ही मैं हंटरों से इसकी खबर लेता। पर इलाइजा के लड़के के बेचने की बात अपनी स्त्री से कैसे कहूँगा? वह तो इसे सुनते ही झगड़ने लगेगी।
इस समय केंटाकी प्रदेश में दक्षिण की भाँति दास-दासियों पर घोर अत्याचार नहीं होता था। लुसियाना आदि प्रदेशों में अंग्रेज बनिए, अधिक मुनाफे के लोभ में, गुलामों से दिन-रात काम लिया करते थे और जरा भी भूल होते ही पीठ की चमड़ी उधेड़ देते थे। पर केंटाकी प्रदेश के दो-एक सहृदय अंग्रेज दास-दासियों के साथ सदा अच्छा व्यवहार करते थे। दास-दासियों का भी अपने मालिकों पर प्रेम होता था। किंतु यह सब होने पर भी दासत्व-प्रथा से होनेवाले कष्टों में तनिक भी कमी न होती थी। देश के प्रचलित कानून के कारण कर्ज के लिए सहृदय अंग्रेजों के भी गुलामों को नीलाम होना पड़ता था। शेल्वी साहब बहुत निर्दयी न थे, बल्कि उन्हें मामूली तौर पर सहृदय कहा जा सकता था। दास-दासियों के साथ कठोर व्यवहार करके उनका हाथ कभी कलंकित नहीं हुआ था। पर इस समय वह बेचारे क्या करें, दास-व्यवसायी हेली के कर्ज में बुरी तरह से जकड़ गए थे। उससे छूटने के लिए दास-दासी बेचने के सिवा और कोई उपाय नहीं था। हेली ने उनके टॉम नामक दास को खरीदना चाहा था। टॉम को न बेचें तो सब-कुछ नीलाम हुआ जाता है। पहले हेली के साथ शेल्वी साहब की उसी कर्ज के विषय में बातें हो रही थीं। अंत में हेली ने टॉम को खरीदने का प्रस्ताव किया और शेल्वी साहब को उसे मानना पड़ा; पर इलाइजा के पुत्र को बेचने न बेचने का अभी तक कुछ निश्चित न हुआ था। इलाइजा जब हेरी की खोज में साहब के कमरे में घुसने लगी, तभी उसके कान में भनक पड़ गई कि हेली उसके लड़के को खरीदना चाहता है। इस पर उसने बाहर आड़ में खड़ी होकर उन लोगों की सारी बातें सुनने का विचार किया था, पर शेल्वी साहब की मेम ने उसे किसी दूसरे काम से पुकार लिया। इससे उसे तुरंत वहाँ से हट जाना पड़ा। अपनी संतान की बिक्री की बात सुनकर वह बहुत ही घबरा गई थी। उसकी छाती धड़कने लगी थी। उसके होश-हवास ठिकाने न रहे। शेल्वी साहब की मेम ने उससे कपड़ा लाने को कहा और उसने लाकर रख दिया एक गिलास पानी। कहा पानी को तो उठा लाई बोतल। इससे मेम ने ऊबकर स्नेह-भरे वाक्यों में उसे डाँटकर कहा - "अरी इलाइजा, आज तुझे क्या हो गया है?"
इस पर इलाइजा सिसकने लगी। शेल्वी साहब की मेम ने पूछा - "बेटी, तुझे हो क्या गया है?"
इलाइजा और रोने लगी। थोड़ी देर बाद बोली - "माँ, बाबा के पास एक दास-व्यवसायी आया है। मैंने उसकी बातें सुनी हैं।"
शेल्वी साहब की मेम बोली - "बस, तू ऐसी ही है। अरे, दास-व्यवसायी आया है तो आने दे! क्या हुआ?"
इस पर इलाइजा घबराकर सिसकती हुई बोली - "माँ, बाबा क्या मेरे हेरी को बेच डालेंगे?"
श्रीमती शेल्वी प्रेम-भरे वचनों से बोली - "अरी, तू तो पागल हो गई है। कौन बेचता है तेरे हेरी को? तू नहीं जानती कि तेरे बाबा दक्षिणी प्रदेश के निर्दयी लोगों के हाथ दास-दासी नहीं बेचा करते। अपने दास-दासियों को वे कभी नहीं बेचेंगे। तू नाहक ही 'हेरी-हेरी' करके पागल हो रही है! इधर आ, जल्दी से मेरा जूड़ा बाँध दे।"
इन व्यर्थ की बातों को अनसुनाकर इलाइजा बोली - "माँ, बाबा को मेरे हेरी को मत बेचने देना।"
शेल्वी की मेम ने दया से भरकर कहा - "तू बिल्कुल बेसमझ है। तू चुपचाप बैठी रह। मुझे अपनी संतान बेचना स्वीकार है, पर तेरी संतान नहीं बेचने दूँगी। मैं देख रही हूँ, तू इसी तरह पागल हो जाएगी। हमारे घर कोई आया, बस, तू समझ बैठी कि तेरे लड़के का खरीदार ही है।"
इस समझाने-बुझाने से इलाइजा को कुछ संतोष हुआ और वह मेम के बाल ठीक करने लगी। शेल्वी साहब की मेम बड़ी दयालु थी। उसका हृदय ज्ञान, धर्म और सद्भावों से भरा हुआ था। दास-दासियों को वह अपनी संतान के समान प्यार करती थी। गुलामी की प्रथा से उसे बड़ी घृणा थी। शेल्वी साहब की धर्म पर अधिक श्रद्धा न थी। सारे सत्कर्मों का भार अपनी स्त्री के हाथों में सौंपकर वे निश्चिंत थे। मालूम होता है, उन्होंने समझ रखा था कि बड़े-बड़े सत्कार्य करके उनकी स्त्री जो ढेर का पुण्य इकट्ठा कर रही है, उसी के प्रताप से वे दोनों तर जाएँगे, उन्हें और अलग पुण्य करने की कोई आवश्यकता नहीं है, उतना ही पुण्य दोनों के लिए काफी होगा। आइए, एक बार शेल्वी साहब के निर्जन घर में चलकर देखें कि वे किस सोच-विचार में पड़े हैं।
शेल्वी साहब को अपने चारों ओर अंधकार-ही-अंधकार दिखाई दे रहा है। वे सोच रहे हैं कि इलाइजा के पुत्र की बिक्री के विषय में स्त्री से क्या कहें, कैसे कहें। शेल्वी साहब को अपनी मेम का जितना डर है, इलाइजा के दुःखित होने की उतनी फिक्र नहीं। वे केवल भय से व्याकुल हैं। उनकी समझ में नहीं आता कि वे क्या करें। मेम साहब जानती थी कि शेल्वी साहब दयालु हैं। इसी से उन्होंने इलाइजा को सरलता से इस प्रकार धीरज बँधा दिया था। स्वप्न में भी नहीं सोची थी कि उसके स्वामी ऐसा करेंगे। और तो क्या, इलाइजा की बात का उसने जरा भी खयाल न किया। इसी से उसने अपने पति से इन बातों की चर्चा तक न की और उस दोपहर को वह किसी पड़ोसी के यहाँ मिलने चली गई।
2. स्वतंत्रता या मृत्यु
इलाइजा शेल्वी साहब के घर बड़े लाड़-प्यार से पली थी। श्रीमती शेल्वी इलाइजा पर बड़ा स्नेह रखती थी। अपनी कन्या की भाँति उसका लालन-पोषण करती थी। अमरीका में और जो बहुत-से गोरे अंग्रेजी सौदागर थे, वे सुंदर दासियों के गर्भ से लड़के-लड़की पैदा करके बाजार में उन्हें ऊँचे दामों पर बेच डालते थे। उन पापी कलंकी गोरे अंग्रेज सौदागरों के घर इन अभागी सुंदर दासियों के सतीत्व की रक्षा की कोई संभावना न रहती थी। पर सौभाग्यवश इलाइजा वैसे दुःख, यंत्रणा और पापों से बची हुई थी। शेल्वी साहब की मेम ने उसे ईसाई धर्म की खासी शिक्षा दिलाई थी। सत्संग में रहने के कारण इलाइजा का चरित्र बड़ा पवित्र था। जब वह युवती हुई तो श्रीमती शेल्वी ने जार्ज हेरिस नाम के एक बलिष्ठ, बुद्धिमान और सुंदर वर्ण-संकर के साथ उसका विवाह कर दिया। जार्ज शेल्वी साहब के एक पड़ोसी का दास था। रूप-गुण, सभी बातों में वह इलाइजा के योग्य था। पर जार्ज का मालिक गुलामों से बड़ा निष्ठुर व्यवहार करता था। उन्हें सदा दुःख देता था और उनको कोड़े लगाता था। जार्ज का जन्म एक अंग्रेज बनिए और अफ्रीका की एक क्रीत दासी के मेल से हुआ था। उस बनिए की मृत्यु हो जाने पर, उसके कर्ज के लिए, जार्ज को अपने भाई-बहनों सहित नीलाम होना पड़ा। जार्ज के वर्तमान मालिक ने उसे नीलाम में खरीदकर विलसन नामक एक आदमी के पाट के कारखाने में लगा दिया। जार्ज कारखाने में काम करके जो कुछ पाता था, उसे अपने मालिक को सौंप देना पड़ता था। दासों को अपने कमाए हुए धन पर कोई अधिकार नहीं था। बैल, घोड़े आदि पशुओं को किराए पर चलाकर जैसे लोग धन कमाते हैं, उसी प्रकार अमरीका के गोरे सौदागर गुलामों को किराए पर लगाकर रुपये इकट्ठे करते थे। विलसन के कारखाने में जार्ज बड़ी सावधानी और ईमानदारी से काम करता था। गुलाम होने पर भी उसकी बुद्धि बड़ी तेज थी। उसने अपनी अक्ल से पाट साफ करने के लिए एक बड़ी अच्छी कल बनाई थी। विलसन ने उसकी यह परिश्रमशीलता, होशियारी, चतुराई और ईमानदारी देखकर उसे अपने कारखाने का मैनेजर बना दिया। कारखाने के और नौकर-चाकर उसे बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखने लगे। पर जार्ज था तो गुलाम ही। भला उसका इतना सम्मान और यह उन्नति, उसके नीच मालिक अंग्रेज सौदागर को क्यों सुहाने जाए? जार्ज का कोई भी गुण उसे अपने दुष्ट मालिक के अत्याचारों से न बचा सका।
जार्ज का मालिक उसे इस प्रकार महत्व दिए जाते देखकर मन-ही-मन जल-भुनकर खाक हो गया। जार्ज पर लोग श्रद्धा करने लगे, यह सुनकर उसके विद्वेष की अग्नि भभक उठी। उसने मन-ही-मन ठान लिया कि जार्ज को विलसन के कारखाने से निकालकर और किसी सख्त काम में लगाऊँगा। बस फिर क्या था? विचार उठने भर की देर थी। दूसरे दिन वह विलसन के कारखाने में पहुँचकर उससे बोला - "जार्ज को अब मैं तुम्हारे कारखाने में काम नहीं करने दूँगा।"
विलसन ने कहा - "जार्ज के परिश्रम से मेरे कारखाने की बड़ी उन्नति हुई है। उसको अलग कर लेने से मेरी बहुत हानि होगी।" उसने और भी कहा - "यदि तुम्हें रुपयों का लोभ हो तो मैं उसके लिए तुम्हें अब से दूनी मजदूरी दे सकता हूँ।" पर जार्ज के मालिक ने एक न मानी। उसे कारखाने से अलग करके मिट्टी खोदने के काम में लगा दिया और उसको मनमाने कोड़े लगाने लगा।
जार्ज ने विलसन के कारखाने में नौकर होने पर इलाइजा से विवाह किया था। जार्ज को विलसन बहुत चाहता था। इससे जार्ज रोज का काम खत्म करते ही अपनी स्त्री से मिल सकता था। पर अब उसे वहाँ नहीं जाने दिया जाता था। उसके मालिक ने उसे शेल्वी के यहाँ जाने से रोका और अपने यहाँ की एक दासी से नाता जोड़ने की आज्ञा दी। इलाइजा जार्ज को प्राणों से भी प्यारी थी। भला उसे छोड़कर वह कैसे दूसरी दासी को ग्रहण करे? दास-दासियों के हृदय में क्या शुद्ध प्रेम का संचार नहीं होता? इलाइजा की तीन संतानें हुईं, जिनमें केवल एक ही जीवित है। यह संतान दोनों के दिलों को जोड़ती है। कोई भी आदमी ऐसे पवित्र प्रेम को कैसे भूल सकता है? क्या वह कभी ऐसे गाढ़े स्नेह-बंधन को तोड़ सकता है? जार्ज गुलाम है, पराधीन है, तो क्या हुआ! क्या वह प्रेम के इस बंधन को तोड़ना कभी स्वीकार कर सकता है? क्या अपनी स्त्री की जगह दूसरी स्त्री को अंगीकार कर सकता है? जार्ज ने देख लिया कि अब कोई दूसरा उपाय नहीं है। बस, मौत ही उसे इस गुलामी की चोट से मुक्त कर सकती है। इसी से उसने 'स्वतंत्रता या मृत्यु' इस वाक्य को अपना मूलमंत्र बनाया।
वह भागने का उद्योग करने लगा।
3. बिदाई की व्यथा
दोपहर को शेल्वी साहब की मेम के बाहर चले जाने पर इलाइजा घर में अकेली बैठी हुई चिंता कर रही थी। इतने में किसी ने पीछे से आकर उसके कंधे पर हाथ रखा। वह चौंक उठी। पीछे घूमकर देखा तो उसका स्वामी था। जार्ज को देखते ही इलाइजा आनंदित होकर बोली - "जार्ज, तुम बड़े वक्त से आए हो? माँ घूमने गई हैं।"
पर जार्ज के मुख पर हँसी नहीं थी। उसका दिल बहुत ही दुःखी था। वह इलाइजा से जन्म भर के लिए बिदा माँगने आया था। आज वह और दिनों की भाँति इलाइजा से हँस-हँसकर बातें नहीं कर सकता था। इलाइजा की गोद के बालक ने जार्ज का हाथ पकड़ लिया, पर आज जार्ज ने उसे प्यार नहीं किया और न आज उसने उसका कोमल मुख ही चूमा। जार्ज की यह दशा देखकर इलाइजा ने बहुत डरते-डरते पूछा - "तुम्हें क्या हो गया है? तुम इतने उदास क्यों हो? लो, हेरी को पकड़ो। हेरी तुम्हारी गोद में आना चाहता है।"
जार्ज ने उत्तर दिया - "बड़ा अच्छा होता अगर हेरी का जन्म ही न होता। भगवान का मुझे इनसान पैदा करना व्यर्थ ही रहा।"
इलाइजा बहुत डरी और जार्ज के कंधे पर हाथ रखकर रोने लगी। जार्ज ने फिर कहा - "इलाइजा, हम लोगों का मिलन न होना ही अच्छा था।"
इलाइजा ने गहरा दुःख प्रकट करके कहा - "जार्ज, यह तुम क्या कह रहे हो? मैं तुम्हारे मुख की ओर देखकर अपना सारा दुःख, सारा क्लेश भूल जाती हूँ। आज तुम्हें क्या हो गया है?"
जार्ज ने कहा - "इस संसार में न सुख है, न शांति। यह जीवन एक प्रकार की विडंबना है। इससे तो ईश्वर मौत दे दे तो भला..."
"जार्ज, तुम ऐसा क्यों कह रहे हो? ईश्वर जिस तरह रखे, उसी में संतुष्ट रहना चाहिए। मैं जानती हूँ, विलसन के कारखाने से छुड़ा दिए जाने के कारण ही तुम कितने दुःखी हो। धीरज रखो! देखो, ईश्वर क्या करते हैं!"
"मैंने बहुत सहा और बहुत धीरज रखकर भी देखा, पर अब नहीं सहा जाता इलाइजा, और धीरज रखने की सामर्थ्य नहीं है। सहने और धीरज रखने की भी हद है। हाड़-मांस के शरीर से जितना सहा जा सकता है, उससे सौगुना अधिक सह चुका। आदमी की प्रकृति जहाँ तक धीरज रखने में समर्थ है, उससे अधिक धीरज रख चुका। पर मैं अब और नहीं सह सकता। मैंने विलसन के कारखाने में जो कुछ कमाया, उसमें से कभी एक पैसा नहीं खाया। सब-कुछ उस दुरात्मा मालिक के हवाले कर दिया। इनाम में भी कभी कुछ पाया तो उसी को सौंप दिया। पर उस नीच की करतूत देखो, कारखाने के सब लोगों की मुझपर प्रेम और श्रद्धा थी, मेरे साथ सबका अच्छा बरताव था, यह उस दुरात्मा मालिक से नहीं देखा गया और इसी से कुढ़कर उसने मुझे वहाँ से हटा लिया। इस पर भी मैं कुछ न बोला। अपनी दुर्दशा की बात सोचकर चुपचाप उसका दुर्व्यवहार सह लिया। फिर भी वह मुझपर अत्याचार करने से बाज न आया।"
इलाइजा ने कहा - "नहीं कैसे सहोगे, सहना ही पड़ेगा। वह मालिक और तुम नौकर... वह जो चाहे कर सकता है।"
"जो चाहे सो कर सकता है! मुझपर किसने उसे यह अधिकार दिया है? कहाँ से उसे यह क्षमता मिली है? मुझमें क्या मनुष्य की आत्मा नहीं है? मैं भी क्या उसी की तरह मनुष्य नहीं हूँ? मैं खूब जानता हूँ कि मैं उससे सौगुना सच बोलनेवाला हूँ। मैं जानता हूँ कि मुझे उससे अच्छा लिखना-पढ़ना आता है। मैं उससे लोगों की सौगुनी श्रद्धा का पात्र हो सकता हूँ। फिर कौन-सा कारण है कि वह जब चाहे, बिना कसूर के मुझे मारे? मुझे इस तरह पीटने का अधिकार उसे किसने दिया? मैंने उसके डर से छिपे-छिपे पढ़ना-लिखना सीखा, उसने मेरे पढ़ने-लिखने में क्या-क्या अड़चनें नहीं डालीं। पर अब किस अपराध के कारण वह मुझपर ऐसा घोर अत्याचार कर रहा है? वह मुझे पशुओं के काम में लगाना चाहता है। पाप के दलदल में फँसाना चाहता है। मुझे एकदम नीचे गिराने का उसने संकल्प कर लिया है। बुरी नीयत से मुझे मिट्टी काटने के काम में लगाया है। तुम्हीं कहो, मैं अब कितना सह सकता हूँ?"
"जार्ज, मुझे बड़ा डर लग रहा है। तुम्हारे चेहरे के रंग-ढंग से जान पड़ता है कि तुम कहीं आत्महत्या या और कोई पाप-कर्म न कर डालो। मैं तुम्हारे दिल का दुःख समझती हूँ, पर सावधान रहो और कम-से-कम मेरे और हेरी के भले की खातिर धीरज रखो।"
जार्ज ने कहा - "अब मुझमें धीरज रखने की ताकत नहीं है। तकलीफें दिन-ब-दिन बढ़ रही हैं। आखिर हाड़-मांस का यह शरीर कहाँ तक सहेगा? यह नीच, तरह-तरह की हिकमत करके मुझे सताता है, तरह-तरह से मेरा अपमान करता है। जरा-सा बहाना मिला कि पीट डालता है। मेरी ओर लोगों की थोड़ी-सी श्रद्धा देखी कि जलकर कहता है, तेरे ऊँचे सिर को पैरों के नीचे रौंद डालूँगा। कल की बात है, उसका छोटा लड़का एक घोड़े को दनादन चाबुक मार रहा था। मैंने उसे मना किया। इस पर वह दुष्ट बालक मेरे ही ऊपर चाबुक बरसाने लगा। तब मैंने उसका चाबुक पकड़ लिया। इस पर वह मुझे लात मारकर अपने पिता से जाकर बोला, 'जार्ज ने मेरी बड़ी बेइज्जती की है।' इतना सुनना था कि उसके पिता ने मुझे पास के एक पेड़ से बाँध दिया और अपने लड़के से बोला, 'अपने कोड़े से इसे जहाँ तक बने पीटो।' वह मेरी पीठ पर चाबुक मारने लगा। यह देखो, उस मार से मेरी सारी पीठ छिल पड़ी है। इलाइजा को अपनी पीठ दिखाकर जार्ज फिर कहने लगा, 'किसने इस नीच को मुझपर ऐसा प्रभुत्व जमाने का अधिकार दिया है? इलाइजा, तुम्हारे मालिक ने तुम्हें लाड़-प्यार से पाला है। इससे तुम्हारी उनपर बड़ी भक्ति है। पर मैं ऐसे नर-पिशाच की भक्ति कैसे करूँ? तुम्हारे मालिक ने तुम्हारे लिए बहुत धन खर्च किया, पर मुझे जिस मूल्य में उस नीच ने मोल लिया था, उससे सौगुना मैं उसे कमाकर दे चुका। मैं अब हर्गिज ऐसा वहशियाना व्यवहार नहीं सहूँगा - कभी नहीं, कभी नहीं!"
ये सब बातें सुनकर इलाइजा सन्न हो गई। उसके मुँह से कोई बात न निकली। कुछ देर बाद बोली - "तो अब क्या करना चाहते हो? क्या तुम नहीं जानते कि दुःख-सुख दोनों में उसी परमपिता का भरोसा है?"
"इलाइजा, तुम्हारे दिल में धर्म-भाव है, इसी से तुम ऐसा कहती हो, पर मेरा दिल बदले की हिंसा से भरा हुआ है। भगवान है, इस पर मुझे विश्वास नहीं है। ईश्वर होता तो मेरी यह दुर्दशा क्यों होती?"
"जार्ज, यह न कहो। चाहे जैसी दुर्दशा क्यों न हो, भगवान पर विश्वास करना ही चाहिए। मैं बचपन में माँ से सुना करती थी कि हर हालत में मनुष्य को ईश्वर पर विश्वास रखना चाहिए।"
जार्ज ने तीखे स्वर में कहा - "तुम्हारी माँ ऐसा कह सकती हैं। जो सब तरह से सुखी हैं, आनंद भोगते हैं, जिनके घर-द्वार हैं, धन-दौलत है और जिनको मनचाहा काम करने की आजादी है, वे सहज में ऐसा उपदेश दे सकते हैं। पर अगर वे कभी मेरी-जैसी हालत में पड़कर भी परमेश्वर पर वैसा ही विश्वास रख सकें, तो मैं जानूँ। तब मैं उनकी बात पर भरोसा कर सकता हूँ। मैं अगर सुखी होता, मुझे अगर मनुष्यों के अधिकार मिले होते तो मैं भी ऐसा ही करता। तुमने अभी तक मेरी दुर्दशा की सारी बातें नहीं सुनीं। लो, सुनो। मेरे मालिक ने कहा है कि वह अब मुझे तुम्हारे पास नहीं आने देगा। तुम्हारे मालिक के दास-दासियों के साथ अच्छा व्यवहार करने के कारण वह उनसे बहुत चिढ़ा हुआ है। कहता है, दास-दासियों के साथ अच्छा व्यवहार करने पर वे खराब हो जाते हैं। वे आजाद होने की कोशिश करने लगते हैं, विशेषकर उसका विश्वास है कि तुम्हें ब्याहकर तुम्हारे भड़काने से मैं कुछ आजाद-सा हो गया हूँ। इसी से वह तुम्हारे पास अब हर्गिज नहीं आने देगा। अपने घर की मीना नाम की दासी से वह मुझसे ब्याह करने को कहता है। इसमें कोई शक नहीं कि उससे ब्याह न करने पर वह मुझे दक्षिण देश में बेच डालेगा।"
इलाइजा ने गहरी साँस लेकर कहा - "मीना से तुम्हारा ब्याह कैसे करेगा? ईसाई धर्म के अनुसार पादरियों के सामने हम लोगों का ब्याह हुआ है।"
जार्ज बोला - "तुम्हें मालूम नहीं कि इस देश के कानून में गुलामों को ब्याह करने का अधिकार नहीं है। तुम्हारे और मेरे मालिक जब तक चाहें, तुम्हारे पास मुझे आने देंगे और तभी तक तुम मेरी बीवी हो और मैं तुम्हारा खाविंद हूँ। तुम्हारे मालिक चाहें तो अभी तुम्हें दूसरे आदमी के हाथ सौंप सकते हैं। मेरे मालिक चाहें तो मुझे दूसरी औरत से नाता जोड़ने को मजबूर कर सकते हैं। हम-सरीखे दुखियारे गुलामों का न औरत पर कोई हक है, न औलाद पर। घर के पशु-पक्षियों की जो हालत है, वह हमारी भी है। तुम्हारे बेटे को तुमसे छीनकर बेच सकते हैं। इसी से मैंने पहले ही कहा कि तुम्हारे साथ मेरा मिलना-जुलना न होना ही अच्छा था। मुझे अगर आदमी का तन न मिलता, हम लोगों की अगर औलाद न होती तो ठीक था। हम लोगों का यह तन धारण करना ही विडंबना-मात्र है। हम लोगों का विवाह ही सारे दुःखों का एकमात्र कारण है। हमारी औलाद हमारे दिल की आग बनकर हमारा कलेजा जलाएगी। इसमें कोई शक नहीं कि तुम्हारी यह संतान ही किसी समय तुम्हारे दिल में दुःख की आग जलाने का कारण बनेगी।"
"मेरे मालिक तो बड़े दयालु हैं।" इलाइजा ने संतोष के साथ कहा।
"दयालु होने से क्या हुआ? आज अगर वह मर जाएँ तो तुम्हें अपने लड़के के साथ उनके कर्ज के लिए नीलाम होना पड़ेगा। इस संतान को जितना प्यार करोगी, इसके अफसोस में तुम्हें उतना ही ज्यादा जलना पड़ेगा - इसका न जन्मना ही अच्छा था।"
जार्ज की बात सुनकर इलाइजा को इसके पहले की वे बातें याद आ गईं, जो शेल्वी साहब और गुलामों के व्यापारी हेली के दरम्यान हुई थीं। इससे वह अधीर हो गई। पर वह थी बड़ी बुद्धिमती। जार्ज के सामने उसने अपने मन की बात प्रकट नहीं होने दी। जार्ज अपने ही दुःख से पागल हो रहा है, उसका होश ठिकाने नहीं है। ऐसे समय में यदि उससे यह बात कह दी जाएगी तो वह निस्संदेह शोक से बिल्कुल विह्वल हो जाएगा, यह सोचकर इलाइजा ने जार्ज के सामने हेरी के बिकने की आशंका के विषय में कोई बात नहीं उठाई।
फिर कुछ देर बाद जार्ज ने इलाइजा का हाथ पकड़कर कहा - "इलाइजा, मैं जाता हूँ। यह उम्मीद नहीं कि अब फिर इस जन्म में कभी भेंट होगी। लगता है, यही हम लोगों की आखिरी मुलाकात है।"
"जाते हो? कहाँ जाओगे?" व्याकुल होकर इलाइजा बोली।
"मैं किसी तरह कनाडा उपनिवेश में पहुँचने का यत्न करूँगा। वहाँ गुलामी की चाल नहीं है। वहाँ पहुँच सका तो स्वाधीन हो जाऊँगा। फिर मैं तुम्हें तुम्हारे मालिक से खरीद ले जाऊँगा। अगर बीच ही में भागते हुए पकड़ा गया तो फिर जान देनी होगी। इस कठोर यातना को सहने के लिए फिर इस शरीर का मोह नहीं करूँगा।"
"पर तुम मेरी एक बात मानो", इलाइजा ने डबडबाई आँखों से कहा - "पकड़े जाने पर भी आत्महत्या मत करना।"
"मुझे आत्महत्या नहीं करनी पड़ेगी। पकड़ लेने पर वे ही लोग मेरी हत्या कर डालेंगे।"
"तुम भागना चाहते हो तो भाग जाओ; पर इस अभागिन और इस संतान के कल्याण के लिए आत्महत्या या नरहत्या इत्यादि किसी पाप से अपने हाथों को कलंकित मत करना। मैं फिर कहती हूँ, परम पिता की प्रार्थना करो, और उसी की करुणा का भरोसा रखो।"
जार्ज बोला - "इलाइजा, मैंने मन में जो निश्चय किया है, वह तुम्हें सुनाता हूँ। अभी तक मेरे मालिक के मन में मेरे भागने के विचार पर कोई संदेह नहीं है। मैं आज ही रात को भागने की सारी तैयारी करूँगा। और भी कई गुलाम इस तैयारी में मेरी सहायता करेंगे। सब ठीक-ठाक हो जाने पर इसी सप्ताह में मुझे भागने का अच्छा मौका मिलेगा। तुम मेरे लिए ईश्वर से प्रार्थना करो। तुम्हारे हृदय में भक्ति, विश्वास और श्रद्धा है। ईश्वर तुम्हारी प्रार्थना सुनेंगे। मेरा हृदय तो शुष्क हो गया है। अत्याचार से सताया हुआ हृदय सदा द्वेष और हिंसा से ही भरा रहता है। ऐसे हृदय में ईश्वर का स्थान नहीं। ऐसा हृदय ईश्वर के नाम पर नहीं पसीजता, न ऐसे हृदय में धर्म-विश्वास को ही स्थान मिल सकता है। यही कारण है कि जगत में किसी न्याय-परायण मंगलमय ईश्वर का राज्य है, इस पर मैं कभी विश्वास नहीं कर सकता।"
"जार्ज, जार्ज, मैं बार-बार कहती हूँ कि ऐसी बात तुम जबान पर मत लाओ। चाहे जैसी दुर्दशा क्यों न हो, धीरज रखकर सदा एकाग्रचित्त से मंगलमय परमात्मा के चरणों में आत्म-समर्पण करो। हम जैसे अभागे, निराश्रित, निर्बल और अनाथ गुलामों का एक ईश्वर के सिवा संसार में दूसरा कौन सहायक है? वह दयामय ईश्वर ही हम अशरणों का शरण, निरूपायों का उपाय, अनाथों का नाथ और बेसहारों का सहारा है। हृदय में उस ईश्वर का ध्यान करो, तुम्हें पाप और कलंक कभी छू नहीं सकेंगे।"
इलाइजा की बातें समाप्त होते ही जार्ज ने कहा - "अब विदा होता हूँ।"
वह बारंबार सतृष्ण नयनों से इलाइजा के मुँह की ओर निहारने लगा। अब इलाइजा अपने आँसू न रोक सकी। रो पड़ी। उसके रोने से जार्ज का दिल भी पिघल गया। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। फिर वह आँखें पोंछते हुए हेरी का मुँह चूमकर चल पड़ा। इलाइजा हेरी को गोद में लिए जार्ज के मार्ग की ओर एकटक देखती रही। कुछ देर बाद, जार्ज के आँखों से ओझल हो जाने पर उसे चारों ओर अंधकार-ही-अंधकार दिखाई देने लगा। आज सूर्यास्त के साथ-साथ इलाइजा का सुख-सूर्य भी अस्त हो गया। पर उसके दुःख की घोर अँधियारी आने में अभी कुछ देर थी।
4. टॉम की बिक्री
टॉम को बेचने के संबंध में हेली से शेल्वी साहब की जो बातचीत हुई थी, वह पहले अध्याय में लिखी जा चुकी है। उसे पढ़कर पाठकों को केवल इतना मालूम हुआ होगा कि शेल्वी साहब के यहाँ टॉम नाम का एक स्वामिभक्त क्रीत दास था और उसे खरीदने के लिए ही हेली शेल्वी साहब के पास आया था। इस अध्याय में हम टॉम का विशेष परिचय देते हैं। टॉम यद्यपि अफ्रीका-वासी काला क्रीत दास था, फिर भी उसे धर्माधर्म का खूब ज्ञान था। वह बहुत ही सीधा, परिश्रमी और सदाचारी था। स्वार्थपरता उसे छू तक नहीं सकी थी। वह सब तरह से भला था। शेल्वी साहब पर कर्ज का बोझ न होता, तो वे उसे कभी न बेचते। शेल्वी साहब के यहाँ उनके रहने के स्थान से थोड़ी ही दूरी पर, दास-दासियों के रहने योग्य कई छोटे-छोटे घर थे। अमरीका के प्रायः सभी धनाढ्य बनियों के घर अफ्रीका के अभागे काले दास-दासियों से ठसाठस भरे थे। इनमें से अधिकांश महापुरुष इन अभागे दास-दासियों को सदा सताते और उनपर घोर अत्याचार करते रहते थे। पर इनमें जहाँ हजार बुरे थे, वहीं पाँच भले भी थे। सभी जातियों में भले-बुरे दोनों होते हैं। उन सज्जन अंग्रेजों के यहाँ दास-दासियों को थोड़ा-सा आराम रहता था। पहले कहा जा चुका है कि शेल्वी साहब की मेम का हृदय दया-धर्मादि गुणों से अलंकृत था। दास-दासियों पर अत्याचार करना तो दूर, वह सदा उनकी आत्माओं को उन्नत करने में लगी रहती थीं। वह उन्हें लिखना-पढ़ना सीखने का अवसर देती तथा उन्हें उपदेश देकर सदा उत्तम मार्ग पर चलाने की चेष्टा करती।
शेल्वी साहब के गुलामों में टॉम सबसे पुराना था। क्लोई नाम की एक दासी के साथ टॉम का विवाह हुआ था। उसके गर्भ से टॉम को तीन-चार संतानें हुईं। क्लोई शेल्वी साहब के घर की मुख्य रसोइन थी। वह दूसरे दास-दासियों पर सदा हुक्म चलाती थी और अपने मन में समझती थी कि केंटाकी भर में उसकी-सी रसोइन दूसरी नहीं है। उसके बनाए भोजन में किसी तरह की भूल बताने से वह बहुत ही गुस्सा होती थी। इसलिए वह जो कुछ बनाती थी, वही सबको अच्छा जान पड़ता था। क्लोई में और भी अनेक गुण थे। वह पतिपरायण थी और अपनी संतान को बड़ा प्यार करती थी। टॉम का घर अन्य दास-दासियों के घरों की निस्बत कुछ बड़ा था। शेल्वी साहब के तेरह वर्ष के लड़के जार्ज से टॉम कभी-कभी पढ़ना सीखा करता था। प्रतिदिन संध्या-समय टॉम मुहल्ले के सारे दास-दासियों को बटोरकर अपने घर में उन लोगों के साथ मिलकर ईश्वर की उपासना करता और उन्हें बाइबिल पढ़कर सुनाया करता था। अधिक पढ़ा-लिखा न होने पर भी टॉम का हृदय भक्ति और प्रेम से भरा था। वह बड़ी सीधी-सादी भाषा में ईश्वर की उपासना करता था। दूसरे दास-दासी टॉम को अपना पादरी मानते थे। जिस समय दास-व्यवसायी हेली ने शेल्वी के कमरे में बैठकर टॉम को खरीदने का प्रस्ताव किया था, उस समय शेल्वी का पुत्र जार्ज स्कूल में था। जार्ज को इन बातों का जरा भी पता न था। स्कूल से लौटकर वह नित्य टॉम को पढ़ाने के लिए उसके घर जाया करता था, वैसे ही आज भी उसके घर बैठा पढ़ा रहा था। पर टॉम या जार्ज किसी ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि आज टॉम के सारे सुखों का सूर्य डूब जाएगा, आज टॉम को पतिपरायण स्त्री और संतान से जन्म भर के लिए बिछुड़ना पड़ेगा।
शेल्वी साहब ने संध्या के सात बजे दास-व्यवसायी हेली को बुलाया था। हेली ठीक समय पर शेल्वी साहब के यहाँ आ पहुँचा। इधर टॉम जब जार्ज के पास बैठा पढ़ रहा था, एक कमरे में बैठे शेल्वी साहब और हेली दोनों टॉम की बिक्री के विषय में लिखा-पढ़ी कर रहे थे। लिखा-पढ़ी समाप्त हो जाने पर हेली बोला - "सब ठीक है, अब तुम इस बिक्री के इकरारनामे पर दस्तखत कर दो।" शेल्वी साहब ने बड़े खिन्न मन से हस्ताक्षर करके उसे हेली को सौंप दिया। हेली ने उन्हें एक पुराना बंधक रखा हुआ दस्तावेज वापस किया। इस दस्तावेज के लिए ही शेल्वी साहब को स्वामिभक्त टॉम और इलाइजा के नन्हें बच्चे हेरी को बेचना पड़ा था। हस्ताक्षर का कार्य निबट जाने के बाद शेल्वी साहब हेली से बोले - "तुमने वचन दिया है कि टॉम को किसी निर्दयी बनिए के हाथ नहीं बेचोगे, देखना अपनी बात मत छोड़ना।"
हेली बोला - "जब टॉम को मुझे बेच ही डाला, तब इस बात को बार-बार क्यों दुहराते हो?"
शेल्वी साहब ने कहा - "मैंने संकट में पड़कर बेचा है।"
इस पर हेली हँसते हुए कहने लगा - "और मैं भी तुम्हारी तरह संकट में पड़ जाऊँ तो? पर हम खुद उसपर किसी प्रकार का अत्याचार नहीं करेंगे। तुमसे हम कह चुके हैं कि हम दया-धर्म को साथ रखकर अपना कारोबार करते हैं।"
टॉम और इलाइजा के बच्चे को खरीदकर हेली जब चला गया तो शेल्वी साहब उदास होकर अलग बैठ गए और चुरुट का कश खींचते हुए मन-ही-मन विचार करने लगे कि दास-व्यवसायी भी कैसे पाजी होते हैं! खरीदने के क्षण भर पहले ही कहता था कि टॉम को किसी भलेमानस के हाथ बेचूँगा, और इकरारनामे की लिखा-पढ़ी होते ही बदलकर बातें बनाने लगा!
5. एक हृदयविदारक दृश्य
टॉम और इलाइजा के पुत्र को बेचकर शेल्वी साहब रात को अपने सोने के कमरे में जाकर दुखित चित्त से कुर्सी पर पड़े चिट्ठी-पत्री पढ़ रहे थे। उनकी मेम आईने के सामने खड़ी होकर कपड़े बदल रही थी। शेल्वी साहब को इस प्रकार उदास देखते ही उसे इलाइजा के पुत्र के विक्रय की बात याद आ गई। उसने अपने पति से पूछा - "आर्थर, वह कौन था, जो आज अपने यहाँ बड़े ठाट-बाट से आया था?"
"उसका नाम हेली है।"
"हेली! यह कौन है? यहाँ क्यों आया था?"
"नेसेज नगर में उससे मेरा कुछ काम पड़ा था, उसी संबंध में आया था।"
"बस, एक ही दिन के काम पड़ने में उसने तुमसे इतनी घनिष्ठता पैदा कर ली कि यहाँ आकर घरवालों की तरह खाया-पिया?"
शेल्वी ने कहा - "कुछ हिसाब था, उसी को साफ करने के लिए मैंने उसे यहाँ बुलाया था।"
"क्या वह दास-व्यवसायी है?"
यह प्रश्न सुनकर शेल्वी साहब ने और भी अधिक चिंतायुक्त होकर कहा - "तुम यह क्यों पूछ रही हो?"
मेम बोली - "दोपहर को इलाइजा ने बहुत घबराहट के साथ आकर मुझसे कहा था कि तुम उसके लड़के को बेचने के विषय में उस आदमी से बातचीत कर रहे थे। इस पर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। वास्तव में इलाइजा बड़ी भोली है।"
यह बात सुनकर शेल्वी साहब विचलित होकर बोले - "क्या इलाइजा ऐसा कह रही थी?"
"हाँ, उसने यही कहा था, लेकिन मैंने उसे समझा दिया कि वह बड़ी बेवकूफ है, यों ही बका करती है।"
"एमिली, मैं ऐसे आदमियों के हाथ दास-दासी बेचना हमेशा बड़े अन्याय का काम समझता था, पर आज इस संकट की हालत में बिना बेचे काम नहीं चल सकता। हेली जैसे निर्दयी मनुष्य के हाथ अपने किसी दास-दासी को अवश्य बेचना पड़ेगा।"
"हेली के हाथ! असंभव है! तुम हँसी तो नहीं कर रहे हो?"
"मैं हँसी नहीं करता। मुझे बड़ा दुःख है कि टॉम को बेचना पड़ा।"
"क्या! हमारे टॉम को बेचोगे? ऐसे प्रभु-भक्त विश्वासी दास को? तुमने तो उसकी प्रभु-भक्ति के पुरस्कार में उसे कभी आजाद कर देने का वचन दिया था न? तुम और मैं दोनों उसे गुलामी की बेड़ियों से मुक्त करके स्वाधीनता देने की हजारों बार आशाएँ दिला चुके हैं। उसे कैसे बेच रहे हो? तुम्हारी इस बात से मुझे मालूम होता है कि तुमने इलाइजा के बच्चे को भी बेच दिया है!"
"एमिली, अब तुमसे ये सब बातें छिपाना व्यर्थ है। मैंने सचमुच इलाइजा के लड़के और टॉम को बेचना स्वीकार कर लिया है, पर महज इतने के लिए तुम मुझे निर्दयी क्यों ठहराती हो? यह तो सभी करते हैं।"
"तो और किसी को न बेचकर टॉम और इलाइजा के पुत्र को ही क्यों बेचा?"
शेल्वी ने कहा - "टॉम और इलाइजा के लड़के का मूल्य सबसे अधिक मिलने के कारण ही उन्हें बेचना पड़ा। हेली इलाइजा को इससे भी अधिक मूल्य पर लेने को तैयार था, पर इन दोनों के बदले क्या इलाइजा को देना तुम्हें स्वीकार होता?"
"वह पापी राक्षस मेरी इलाइजा को भी खरीदना चाहता था?"
"तुम्हारे दुःख की बात सोचकर ही मैंने इलाइजा को बेचना स्वीकार नहीं किया। इससे तुम मुझे उतना दोष नहीं दे सकती हो।"
"आर्थर, मुझे क्षमा करो। एकाएक तुम्हारे मुँह से ऐसी बातें सुनकर मैं तो दंग रह गई। तुम जरा विचार करके तो देखो, जिसके पास दिल है वह टॉम जैसे ईश्वर-परायण दास को कैसे बेच सकता है? काले होने पर भी टॉम का दिल बड़ा उजला है। वह बात-की-बात में तुम्हारे लिए जान दे सकता है।" श्रीमती शेल्वी ने हैरानी से भरकर कहा।
"एमिली, यह मैं खूब जानता हूँ, पर करूँ क्या! मैं कर्ज में बुरी तरह फँस गया हूँ... और कोई उपाय भी नहीं सूझता।"
"हम लोगों की और जो कुछ जायदाद है, वह सब क्यों नहीं बेच डालते? धन-संपत्ति की मोह-ममता मैं अनायास छोड़ दूँगी। सब तरह की असुविधाएँ सह लूँगी। गरीबी से जो दुःख होगा, वह हँसते-हँसते उठा लूँगी। तुम्हें मेरे दिल की व्यथा का पता नहीं। मैंने किस तरह से दास-दासियों को पाला-पोसा है, उन्हें धर्म सिखाया, उनके सारे अभाव दूर करने की कोशिश की है और उनके साथ हमेशा धर्म-चर्चा की है। पर आज यदि मैं उन्हें अपने स्वार्थ के लिए बेच डालूँ, तो मैं उन्हें कैसे मुँह दिखाऊँगी? मैंने हमेशा उन्हें स्वामी के साथ स्त्री; स्त्री के साथ स्वामी, संतान के साथ माता-पिता और माता-पिता के साथ संतान के कर्तव्य की शिक्षा दी है। पर यह शिक्षा देकर फिर मैं ही संतान को माता की गोद से और स्वामी को स्त्री के साथ से सदा के लिए अलग करने पर तैयार होऊँ? मैंने कितनी ही बार इलाइजा को समझाया होगा कि संतान को सदाचारी और सुशिक्षित किए बिना माता का कर्तव्य पूरा नहीं होता। मैं इलाइजा को अपनी संतान के भले के लिए ईश्वर से बार-बार प्रार्थना करने को कहती आई हूँ। आज मैं कैसे उसी इलाइजा की छाती से उसके बच्चे को हमेशा के लिए अलग करने दूँगी? मैं इन दास-दासियों से बराबर कहती आई हूँ कि संसार की सारी धन-दौलत से मनुष्य की आत्मा का मूल्य कहीं अधिक है। इससे धन-दौलत के लिए मनुष्यता को नीचे गिराना या नष्ट करना एकदम अनुचित है। पर हाय, आज मैं स्वयं ही धन के लिए उसी मनुष्यात्मा का विनाश करने को आमादा हुई हूँ। ऐसे नीच निर्दयी नर-पिशाच दास-व्यवसायी के हाथ में सौंपकर भी क्या इनकी किसी प्रकार की नैतिक या आध्यात्मिक उन्नति की आशा की जा सकती है?"
"प्यारी, तुम्हारा दुःख देखकर मुझे भी बड़ा दुःख हो रहा है। तुम्हारा दुःख मुझसे सहा नहीं जाता। पर देखो, मेरे पास और कोई चारा नहीं है। इन दोनों को बेचकर कर्ज न चुकाऊँ तो निर्दयी हेली डिग्री जारी कराकर हमारे घर-बार और सारे दास-दासियों को नीलाम करा लेगा। दो को बेचकर सभी की रक्षा करना मुनासिब समझता हूँ।"
शेल्वी साहब की ये बातें सुनकर उनकी स्त्री बार-बार लंबी साँसें ले-लेकर कहने लगी - "गुलामी की इस घृणित प्रथा को आश्रय देने के कारण सचमुच ही ईश्वर हमपर नाराज है। इसमें शक नहीं कि यह प्रथा बहुत ही बुरी है। मालिक या दास, किसी के लिए लाभदायक नहीं है, यह दोनों को घोर नरक में डुबोती है, दोनों के ही दिलों को कलंकित करती है। मेरी यह बड़ी भूल थी, जो मैं समझती थी कि दास-दासियों के साथ अच्छा व्यवहार करने भर से ही गुलामी की इस प्रथा का कलंक धुल जाएगा। इस प्रथा से संबंधित देश का मौजूदा कानून हद से ज्यादा घृणित और नीति-विरुद्ध है। इन कानून को मानकर दास-दासी रखना घोर अन्याय है। दास-दासियों से अच्छा व्यवहार करने पर भी इस प्रथा का कलंक दूर नहीं हो सकता। अच्छे बर्ताव से इस कुप्रथा की गंदगी कुछ अंश भले ही दूर हो जाएँ, पर इसका भीतरी कलंक जड़ से नहीं जा सकता। मैं समझती थी कि दास-दासियों से अच्छा बर्ताव करके और धर्म की शिक्षा देकर मैं उनकी दशा-सुधार लूँगी, पर यह समझकर मैंने कितनी बड़ी मूर्खता की। दासत्व-प्रथा को बिलकुल आश्रय न देना ही बेहतर था।"
शेल्वी साहब ने अपनी मेम का यह पश्चाताप सुनकर कहा - "प्यारी, मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। तुम तो गुलामी की प्रथा के विरोधी दल की एक सदस्य बन बैठी हो।"
"आर्थर, मैं इस प्रथा को कभी न्यायसंगत नहीं समझती थी, और न कभी दास-दासी रखने की मेरी इच्छा ही होती थी।"
शेल्वी ने कहा - "पर बड़े-बड़े पादरियों ने इस प्रथा का समर्थन किया है। अभी उस दिन हम लोगों के पादरी ब्रांसन साहब ने गिरजे में जो उपदेश दिया था, उसे तो तुमने सुना था न?"
"मैं तुम्हारे बड़े पादरी का उपदेश नहीं सुनना चाहती। मैं अब ब्रांसन का उपदेश सुनने के लिए कभी गिरजे में नहीं जाऊँगी। पादरी और ख्रिस्तान पुजारी खुशामद के मारे धनी व्यापारियों की हाँ-में-हाँ मिलाने के लिए उनकी इच्छा के अनुकूल उपदेश देते हैं। क्या उनमें से कोई स्वतंत्र विचार प्रकट करने का भी साहस रखता है? अर्थ ही सारे अनर्थों की जड़ है। धन के लोभ से इस घृणित, अन्यायपूर्ण देशाचार का समर्थन करते हुए इन महात्माओं को लज्जा नहीं आती। केवल धनी व्यापारियों को खुश करने और पापी पेट को भरने के लिए वे ऐसे घृणित मतों का प्रचार करते हैं।"
"लो, अब आगे फिर कभी धर्म-धर्म की बहुत दुहाई मत देना! देख लिया न कि ये धर्म-प्रचारक समय-समय पर कैसे ऊटपटांग मतों का प्रचार करते हैं? उनके ये सब मत तो हमारे जैसे पापियों को भी घृणित मालूम होते हैं। धर्म का तत्व समझना बहुत कठिन है। मुझपर कर्ज का बोझ न होता तो मैं कभी ऐसा काम न करता। अब तुमने समझ लिया होगा कि कैसे संकट में पड़कर मैंने यह काम किया है। अब तुम्हीं देख लो कि मेरा यह काम उचित है या नहीं।"
श्रीमती शेल्वी ने कहा - "हाँ, ठीक है, तुमने सब परिस्थिति के अनुसार ही किया है, किंतु खेद है कि मेरा कोई ऐसा मूल्यवान गहना नहीं है, जिसे बेचकर इलाइजा के हृदय-रत्न, उस दुःखिनी के जीवन-सर्वस्व की रक्षा कर सकूँ। अच्छा, क्या मेरी इस घड़ी को बेचकर उसके पैसे से इलाइजा के बच्चे की रक्षा हो सकती है!" इलाइजा के बच्चे के लिए मैं अपना सब-कुछ देने को तैयार हूँ।
"एमिली, तुम्हारी ऐसी शोचनीय दशा को देखकर मुझे बड़ा दुःख होता है। लेकिन बिक्री की पक्की लिखा-पढ़ी हो चुकी है। हेली ने बिक्री के दस्तावेज पर मेरे दस्तखत करा लिए हैं। अब कोई उपाय नहीं है। हेली के हाथ में मेरे सर्वनाश की बागडोर थी। इलाइजा के बच्चे को बेचकर ही मैंने उससे छुटकारा पाया है।"
"हेली क्या बिल्कुल ही निर्दयी है?" श्रीमती शेल्वी ने आवेश में कहा।
"निर्दयी तो नहीं कह सकता। लेकिन वैसा लोभी और अर्थ-पिशाच तो शायद ही दूसरा हो। वह धन के लिए अपनी स्त्री तक को किराए पर दे सकता है और अपनी माता तक को खुशी से बेच सकता है।"
"यह जानते हुए भी तुमने ऐसे नराधम के हाथ टॉम और इलाइजा के बच्चे को सौंप दिया! ओफ, कितने दुःख की बात है!"
"क्या करूँ? बिना बेचे गुजर न थी। मैं स्वयं ही ऐसे कामों से बड़ी नफरत करता हूँ, पर लाचारी है! हेली कल ही आकर इन लोगों को ले जाएगा। मैं सवेरे ही घोड़े पर सवार होकर दूसरी जगह चला जाऊँगा। टॉम को ले जाने के समय मुझसे नहीं रहा जाएगा। तुम भी इलाइजा को साथ लेकर कहीं चली जाना। हम लोगों के पीछे हेली का इन लोगों को ले जाना अच्छा होगा।"
"मैं यों कपट रचकर इलाइजा को किसी दूसरी जगह नहीं ले जा सकूँगी। मैं ऐसे निष्ठुर काम में कोई सहायता नहीं करूँगी। टॉम को ले जाते समय मैं उससे मिलूँगी। उसे आशीर्वाद भी दूँगी। पर जब मुझे इलाइजा की बात याद आती है तो मेरी छाती फटने लगती है। मुझे चारों ओर अंधकार-ही-अंधकार दिखाई पड़ता है। तुम्हें नहीं मालूम कि गोद से शिशु के छीने जाने पर माता को कितनी वेदना होती है।"
शेल्वी साहब और उनकी मेम में जिस समय ये बातें हो रही थीं, इलाइजा पासवाली कोठरी में बैठी थी और उनकी सब बातें सुन रही थी। उनकी बातचीत समाप्त होने पर इलाइजा धीरे-धीरे, दबे-पाँव, अपने घर की ओर चली। डर से उसका हृदय धड़क रहा था। उसने रोते हुए - "हे ईश्वर, हे दयामय, रक्षा करो!" कहकर घर में प्रवेश किया। खाट पर सोए हुए बालक को गोद में उठा लिया और उसका मुँह चूमकर कहने लगी - "दुखिया के धन, तू दूसरों के हाथ बिक गया है। पर यह दुखिया माँ प्राण रहते तुझे नहीं छोड़ेगी।" डर के मारे उसकी आँखो का पानी सूख गया। जब हृदय बिल्कुल सूख जाता है तो आँखों में पानी नहीं रहता। उस समय हृदय कटकर आँखों से खून बहने की तैयारी हो जाती है। इस समय इलाइजा का यही हाल था। उसका हृदय विदीर्ण होने की नौबत आ गई थी, परंतु निराशा भी कभी-कभी मनुष्य के मन को ढाढ़स बँधा देती है। इस समय इलाइजा केवल साहस के बल पर खड़ी थी। वह एक कागज और पैंसिल लेकर लिखने लगी:
'माता, मुझे अकृतज्ञ मत समझना। बाबा के साथ शाम के समय तुम्हारी जो बातें हो रही थीं, वे सब मैंने आड़ में बैठकर सुन ली हैं। मैं अपनी संतान की रक्षा के लिए भागने को मजबूर हूँ। मंगलमय प्रभु तुम्हारा मंगल करे!' इस आशय का झटपट एक पत्र लिखकर उसने वहीं खाट पर छोड़ दिया।
बालक को सर्दी से बचाने के लिए कुछ कपड़े, एक चादर और एक शाल साथ ले कर, लड़के को हृदय से लगाए, वह घर से बाहर हो गई। पहले वह प्रभु-भक्त टॉम के घर की ओर गई। वहाँ पहुँचकर उसने टॉम के दरवाजे की कुंडी खटखटाई। टॉम बहुत रात गए तक भजन-ध्यान किया करता था। इससे उस समय वह जाग रहा था। टॉम की स्त्री क्लोई ने द्वार खोल दिया। इस समय इलाइजा को देखकर वह चकित रह गई। इलाइजा ने बड़े करुण शब्दों में कहा - "टॉम, मैं हेरी को लेकर भाग रही हूँ। बाबा ने हेरी को और तुम्हें एक व्यापारी के हाथ बेच डाला है।"
टॉम और क्लोई, दोनों ही इस आकस्मिक घटना को सुनकर चौंक पड़े। टॉम निस्तब्ध-सा रह गया। उसके मुँह से कोई बात न निकली। किंतु क्लोई ने कहा कि हम लोगों ने ऐसा कौन-सा अपराध किया था, जो इस तरह बेच दिया? इस पर इलाइजा ने मेम और शेल्वी साहब में जो बातें हुई थीं, वे कह सुनाई और बोली - "कर्जदार होने के कारण बेचा गया है, न कि किसी अपराध के लिए। पर माँ इससे अत्यंत दुःखित हुई हैं। उनका हृदय सचमुच ही दया-ममता से भरा है। मैं बड़ी कृतघ्न हूँ, इसी से माँ को छोड़कर इस प्रकार भागने को तैयार हो गई हूँ, पर भागने के सिवा मेरे पास कोई उपाय नहीं है। बिना भागे हेरी की रक्षा नहीं हो सकती।"
इस पर क्लोई ने टॉम से कहा - "तुम भी क्यों नहीं भाग जाते? मैं तुम्हारे कपड़े-लत्ते ला देती हूँ... तुम्हें तो दूसरी जगह जाने का पास भी मिला हुआ है।"
टॉम बोला - "मैं कभी नहीं भागूँगा। मेरे बेचने से अगर दूसरे दास-दासियों की रक्षा होती है तो मेरा बिकना अच्छा ही है। भगवान सर्वव्यापी है। कहीं क्यों न रहूँ, वह मेरे साथ है। मै कभी विश्वासघात नहीं करूँगा। भला मै धोखा देकर भागने में इसका उपयोग कैसे कर सकता हूँ?"
भागने की अनिच्छा दिखाकर टॉम चुप रह गया और मुँह लटकाकर आँसू बहाने लगा। खाट पर सोए हुए बच्चों की ओर देखकर वह बारंबार आहें भरने लगा। फिर क्लोई चाची से इलाइजा कहने लगी कि आज संध्या को जार्ज मेरे पास आए थे। उनका मालिक उनपर घोर अत्याचार करने लगा है। सताए जाने के कारण वह भी भागने का उद्योग कर रहे हैं। भेंट होने पर मैं उनसे अपने भागने का वृत्तांत कहूँगी। उन्हें भली प्रकार समझाऊँगी कि यदि इस लोक में उनसे भेंट न हुई तो परलोक में अवश्य मिलना होगा। मरते-मरते वही मेरी एकमात्र गति और एकमात्र आधार है।"
इलाइजा की ये बातें पूरी होने पर क्लोई ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से उसका मुँह चूमा और रोते हुए उसे विदा किया।
विकट अँधेरी रात थी। चारों ओर सन्नाटा था। उसी भयंकर अँधियारी रात में बच्चे को गोद में लिए उन्नीस साल की युवती अकेली कदम बढ़ाए जा रही है। उसके लिए चारों दिशाएँ समान हैं, कहीं कोई खतरा दिखाई नहीं पड़ता, पर क्या सचमुच इलाइजा निस्सहाय और शरणहीन है? नहीं, इलाइजा सर्वथा अनाथ नहीं है। अनाथों के नाथ, दीनानाथ, दीनबंधु भगवान अब भी उसके साथ हैं। लोभी गोरे व्यापारी कालों से भले ही घृणा करें, पर सर्वसाक्षी परमात्मा के महान दरबार में कालों और गोरों में कोई भेद नहीं है। वहाँ सभी बराबर हैं।
6. इलाइजा की खोज
रात गई। दिन निकला। प्रभात का सूर्य गगन में उदय होकर गोरे, काले सब पर समान भाव से अपनी मनोहर प्रभा फैलाने लगा। सारा संसार उठकर अपने-अपने कामों में लग गया, पर शेल्वी साहब के कमरे के किवाड़ अभी तक नहीं खुले। कारण यही था कि कल रात को मेम और वे ठीक समय पर नहीं सो सके थे, इसी से आज बड़ी देर तक सोते रहे। मेम बिस्तर से उठते ही इलाइजा को पुकारने लगी, पर कोई जवाब न मिला। कुछ देर बाद उसने आंडी नामक दास को इलाइजा को बुलाने भेजा। आंडी ने इलाइजा के घर से लौटकर कहा कि उसका घर सूना पड़ा है। चीजें जहाँ-तहाँ बिखरी हुई हैं। जान पड़ता है कि वह भाग गई!
इन बातों से शेल्वी साहब और उनकी मेम ने तुरंत समझ लिया कि अपने बच्चे को लेकर वह कहीं चली गई। मेम के मुँह से अकस्मात निकला - "परमात्मा इलाइजा के बच्चे की रक्षा करे।"
लेकिन शेल्वी साहब यह सुनकर बहुत झुँझलाए और बोले - "प्यारी, तुम एकदम नासमझ की-सी बातें कर रही हो। हेली जरूर कहेगा कि मैंने ही षड़यंत्र रचकर इलाइजा को भगा दिया है। उसके कहने की कई खास वजहें भी हैं। और उसका ऐसा सोचना अकारण न होगा, क्योंकि मैंने पहले से ही इलाइजा के लड़के को बेचने की अनिच्छा प्रकट की थी।"
इसके बाद शेल्वी साहब नीचे के घर में आए। इधर घर की नौकर-मंडली में इलाइजा के भागने की बात पर बड़ा आंदोलन आरंभ हुआ। किसी ने कहा कि हेली तो सुनते ही दुःख में पागल हो जाएगा; किसी ने कहा कि वह अर्थ-पिशाच यह खबर पाकर बड़ा ऊधम मचाएगा; कोई बोला कि हेली निश्चय ही गालियों की बौछार करेगा। ये बातें हो ही रही थीं कि चाबुक लिए हेली वहाँ आ पहुँचा। इलाइजा के भागने की बात सुनते ही दाँत पीसकर - "हरामजादी, सूअर की औलाद" , इत्यादि घृणित गालियों की बौछार से वह इलाइजा को याद करने लगा। अंत में वह सहसा असभ्य व्यक्ति की भाँति उस कमरे में पहुँचा जहाँ शेल्वी और उसकी मेम बैठे थे। वहाँ जाकर वह जोर से बोला - "शेल्वी, तुमने बड़ा जुल्म किया है।"
शेल्वी साहब ने कहा - "हेली, जरा भलमनसाहत से बातें करो। देखते नहीं, मेरी स्त्री यहाँ बैठी है!"
पर अर्थ-पिशाच हेली को उस समय भले-बुरे का ज्ञान कहाँ था? उसने फिर उसी प्रकार चिल्लाकर कहा - "सचमुच, तुमने बड़ा जुल्म किया है!"
इस पर शेल्वी साहब बहुत क्रुद्ध हुए और हेली को झिड़ककर बोले - "तुम क्या निरे मूर्ख ही हो! एक भद्र महिला के सामने यों सिर पर टोप डाले खड़े हो!"
इतना कहकर उन्होंने अपने नौकर आंडी को हेली का टोप गिरा देने की आज्ञा दी। आंडी ने तुरंत हेली के सिर का टोप और हाथ का चाबुक छीन लिया। तब हेली मिजाज को ठंडा करके बोला - "भई, तुम्हें भलमनसी से काम लेना चाहिए था।"
इतना सुनना था कि शेल्वी ने बड़े क्रोध से कड़ककर कहा - "मैंने कौन-सी बेईमानी की है? मेरी भलमनसी की बात मुँह से निकाली तो अभी धक्का देकर बाहर कर दूँगा।"
अर्थ-पिशाच प्रायः कायर ही होते हैं। वे कमजोरों के सामने शेर बने रहते हैं, पर जब कोई अपने से सवाया मिल जाता है तो भेड़ बन जाते हैं। हेली ने शेल्वी साहब को क्रुद्ध देखकर डरते हुए कहा - "हमारी किस्मत ही फूटी है, नहीं तो ऐसा क्यों होता?"
शेल्वी साहब क्रोध को रोककर कहने लगे - "तुम्हारा इस तरह नुकसान न हुआ होता तो मैं कभी तुमको घर में घुसने न देता। पर खैर, तुम्हें मेरे साथ कारोबार करके घाटा हुआ है, इसलिए मैं तुम्हें अपने घोड़े और आदमी देता हूँ। तुम इलाइजा को खोज लाओ और उसे पकड़कर अपना खरीदा हुआ माल ले जाओ।"
धन-लोलुप हेली की करतूत देखकर शेल्वी साहब की मेम मन-ही-मन बहुत कुढ़ी और वहाँ से उठकर चली गई। तब शेल्वी ने आंडी को बुलवाकर कहा - "आंडी, तुम और साम दोनों हेली साहब के साथ घोड़ों पर चढ़कर इलाइजा की खोज में जल्दी जाओ।"
आंडी ने अस्तबल में पहुँचकर साम को ये सब बातें सुनाईं और घोड़े तैयार करने को कहा।
मालिक की आज्ञा सुनते ही साम झटपट घोड़ा तैयार करने लगा और कूद-फाँद करके कहने लगा - "इलाइजा को अभी पकड़कर लाता हूँ, अभी लाता हूँ।"
आंडी ने उसके कान में कहा - "अरे, तू समझता नहीं? मेम साहब नहीं चाहतीं कि इलाइजा पकड़ी जाए। इससे घोड़ा कसने में जरा देर कर दे।"
साम बोला - "तुमने कैसे जाना कि मेम साहब नहीं चाहती?"
आंडी ने कहा - "जब मैंने मेम साहब से इलाइजा के भाग जाने का समाचार कहा तो वे बोलीं - "परमात्मा इलाइजा के बच्चे की रक्षा करे।" पर साहब यह सुनकर झुँझला उठे।
साम बड़ा नंबरी था। जब जान लिया कि मेम साहब इलाइजा को पकड़ने के पक्ष में नहीं हैं, तब फिर वह जल्दी घोड़ा क्यों कसे? अस्तबल में जाकर एक घोड़ा खोल देता है, फिर उसको पकड़ता है; फिर छोड़ देता है, फिर पीछे दौड़कर पकड़ता है, यों ही समय टाल रहा है। फिर अपनी सवारी के घोड़े पर काठी कसकर इस ढंग से उसके नीचे एक काँटा लगा दिया कि घोड़े पर चढ़ते ही काँटा चुभने से घोड़ा भड़ककर सवार को जमीन पर पटक दे। हेली के घोड़े की जीन के नीचे भी उसने एक ऐसा ही काँटा लगा दिया।
शेल्वी ने कई बार साम को पुकारकर कहा - "साम, इतनी देरी क्यों हो रही है?"
साम ने कहा - "सरकार, बड़ा बदमाश घोड़ा है। जल्दी जीन ही नहीं धरने देता।"
इस तरह धीरे-धीरे समय निकलने लगा। इधर शेल्वी साहब की मेम ने साम को बुलाकर कहा - "साम, दोनों घोड़ों के पैरों में न जाने क्या हो रहा है! देखना, बहुत दौड़ाकर हैरान मत करना।"
साम को चाहे अक्ल हो या न हो, पर ऐसी बातें वह बड़ी फुर्ती से समझ लेता था। मेम साहब का मतलब वह तत्काल समझ गया। साम को घोड़ा लाने में देरी करते देख हेली स्वयं अस्तबल में पहुँचा। साम और आंडी को झटपट घोड़े पर चढ़ने को कहकर वह अपने घोड़े पर चढ़ने लगा, परंतु उसका पीठ पर बैठना था कि घोड़ा एकदम उछल पड़ा और वह नीचे जमीन पर आ गिरा। हेली को पटककर घोड़ा मैदान की ओर भागा। आंडी, साम तथा शेल्वी के दूसरे नौकर - "अरे, घोड़ा भाग गया! पकड़ो, पकड़ो!" चिल्लाते हुए उसके पीछे दौड़ने लगे। इस तरह दोपहर का दिन चढ़ आया। तीसरे पहर साम घोड़े को पकड़कर हेली के पास आया। हेली साम को डाँटकर बोला - "तूने हमारे तीन घंटे यों ही बरबाद कर दिए। अब फौरन घोड़े पर सवार होकर हमारे साथ चलो।" ...
साम बोला - "आपका घोड़ा पकड़ने में जो मुसीबत मुझे उठानी पड़ी, उसे मेरा जी ही जानता है। और क्या कहूँ! आपको बड़ी जल्दी थी, इसी से मैंने इतनी मेहनत की। मेरी तो जान ही निकल गई। आपका काम था, इसलिए कर दिया। अगर दूसरे का होता तो कभी नहीं करता; पर बिना पेट में दाना पड़े नहीं चला जाएगा। घोड़े भी बहुत थक गए हैं। कोई खटके की बात नहीं है। इलाइजा तेज नहीं चल सकती। भोजन के बाद चलने पर भी उसे चुटकी बजाते पकड़ लेंगे।"
इसी समय शेल्वी साहब की मेम हेली के पास आकर बड़ी नम्रता से बोली - "महाशय, दोपहर दिन बीत चला है। अब बिना खाए, भूखे-प्यासे जाना तो ठीक न होगा। कृपा करके आज हमारे यहाँ भोजन कीजिए।"
सच तो यह है कि शेल्वी की मेम हेली-सरीखे नर-पिशाच से बात तक करने से नफरत करती थी; पर आज उसके साथ बैठकर भोजन तक करने में उसे घृणा नहीं हुई। व्यावहारिक कामों में हेली अपने को बड़ा चतुर समझता था, पर स्त्री की चतुराई समझना कठिन काम है। जो हेली दुनिया को चराता फिरता है, आज वही स्त्री के फंदे में फँसकर स्वयं ठगा गया।
7. माता का रोमांचकारी पराक्रम
श्रीमती शेल्वी के अनुरोध पर हेली भोजन के लिए ठहर गया। पर इधर इलाइजा तेजी से कदम बढ़ाती चली जा रही थी। उसकी उस समय की दुर्दशा सोचकर पत्थर का दिल भी पिघल जाएगा। इस संसार में इलाइजा का कोई नहीं है। उसका पति घोर अत्याचार से तंग आकर भागने की फिक्र कर रहा है, पर भाग न पाया तो आत्महत्या कर लेगा। अब इस जन्म में इलाइजा को पति के दर्शन की आशा नहीं है। यह संसार इलाइजा के लिए अपार समुद्र है। उसे मालूम नहीं कि सांसारिक घटना-स्रोत उसे किधर बहा ले जाएगा। इस संसार-समुद्र में उसके लिए कोई अवलंब, कोई ठिकाना नहीं है। वह लड़के को गोद में लेकर विशाल संसार-सागर में कूद पड़ी है। पर सब प्रकार से आश्रयहीन होते हुए भी उसके जीवन का एक लक्ष्य है। कोई ठिकाना न रहने पर भी यदि मनुष्य के जीवन का कोई लक्ष्य रहे, तो उस तक पहुँचने के उद्योग में वह किसी कष्ट को कष्ट नहीं समझता, किसी यंत्रणा को यंत्रणा नहीं मानता। पर जिसके जीवन का कोई लक्ष्य या कोई उद्देश्य ही नहीं है, ऐसा मनुष्य संसार में पग-पग पर कष्टों का अनुभव करता है, सब प्रकार के भोग उसके लिए दुर्भोग हो जाते हैं।
दास-व्यवसायी के हाथ से संतान की रक्षा करना ही इलाइजा के जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। जीवन के इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए उसे कोई भी कष्ट, कष्ट नहीं लगता, किसी भी दु:ख की उसे परवा नहीं। दुबली-पतली इलाइजा छह बरस के बालक को गोद में लिए बेतहाशा चली जा रही है। बालक पैदल चलने में समर्थ था; पर उसके छिन जाने के भय की भावना उसके मन में ऐसी जम गई थी कि एक बार भी बालक को गोद से नीचे नहीं उतारी। कुछ दूर चलती और फिर पीछे घूम कर देखती जाती कि कहीं कोई आता तो नहीं है। पेड़ के पत्ते के गिरने की आहट सुनते ही चौंक पड़ती और पीछे मुड़ कर देखती हुई - "ईश्वर, रक्षा करो, ईश्वर, रक्षा करो!" कहकर चिल्ला उठती। बालक ने एक बार आँखें खोली, पर इलाइजा ने उससे कहा - "चुप रह, नहीं तो पकड़ा जाएगा।" बालक तत्काल उसके गले से चिपटकर निद्रित-सा हो गया। स्नेह की भी कैसी विचित्र शक्ति है। बालक के अंग-स्पर्श से इलाइजा के शरीर में नया बल आ गया। मानसिक अवस्था मनुष्य को कितना बलवान बना सकती है, इसका अनुमान नहीं किया जा सकता। जो लोग यह कहते हैं कि शारीरिक बल के बिना कोई काम नहीं हो सकता, वे भूल करते हैं। मानसिक शक्ति निर्बल को भी सबल बना देती है। शरीर पर मन का अपूर्व प्रभाव और प्रभुत्व होता है। मानसिक बल कभी-कभी रक्त, मांस और नसों को इस्पात की भाँति दृढ़ और मजबूत बना देता है। वीर-शिरोमणि नेपोलियन का अपूर्व वीरत्व इसी मानसिक बल का फल था। मानसिक बल के बिना शरीर अनायास अवसन्न हो जाता है। मानसिक बल सदैव शरीर में बिजली का-सा काम करता है और शरीर में तेज बनाए रखता है। जो मानसिक बल से हीन है, वही वास्तव में निर्बल है।
इलाइजा शरीर से अवश्य दुर्बल थी, पर उसमें मानसिक बल की कमी न थी। वह बालक को गोद में लिए हुए तेज चाल से कोई दस-बारह कोस चली गई। क्षण भर भी कहीं ठहरकर उसने दम न लिया। लक्ष्य-साधन की प्रबल इच्छा ने ही इस अबला के हृदय को सबल बना दिया था। उसके आंतरिक उत्साह ने ही उसके शरीर में यह अलौकिक पराक्रम भर दिया था। इस तरह चलते-चलते रात बीत चली। सड़क पर चारों ओर घोड़ा-गाडियाँ दौड़ने लगीं। इलाइजा ने यह सोचकर कि अब लड़के को गोद में लिए रहने से उस पर लोग घर छोड़कर भागी हुई होने का संदेह करने लगेंगे, लड़के को गोद से उतार दिया और अपने कपड़े दुरुस्त कर लिए। बालक उसके पीछे-पीछे चलने लगा। कुछ दूर पर एक बाग था, वहीं जाकर वह अपने साथ लाई हुई खाने-पीने की चीजें बालक को खिलाने लगी। पर स्वयं कुछ न खाया। बालक देख रहा था उसकी माता ने कुछ नहीं खाया।
बालक ने स्वयं अपने हाथों से माता के मुँह में खाने की कुछ चीजें डाल दीं, पर इलाइजा से खाया नहीं गया। दु:ख, भय और त्रास से उसका कंठ सूख गया था। बालक ने खाने को कहा तो वह बोली - "बेटा, जब तक तुझे किसी सुरक्षित स्थान पर लेकर नहीं पहुँचती हूँ तब तक मैं कुछ खा-पी नहीं सकूँगी।" बालक के खा लेने पर इलाइजा फिर ओहियो नदी की ओर चल पड़ी। वह सोच रही थी, ओहियो नदी पार करते ही उसकी सारी आशंकाएँ दूर हो जाएँगी। धीरे-धीरे और भी दो-तीन स्थानों को लाँघकर वह एक बिल्कुल अनजान जगह में जा पहुँची। यहाँ किसी के संदेह करने की अधिक संभावना न रही। इलाइजा अफ्रीकी दास-दासियों की भाँति काली न थी। वह अंग्रेज पिता के वीर्य से पैदा हुई थी। देखने में वह कोई अंग्रेज कुलवधू-सी जान पड़ती थी। इस अनजान स्थान में इलाइजा की विपत्ति की आशंका ने ही तो उसके शरीर को ताकत दे रखी थी। आशंका घटने पर उसका शरीर भी क्रमश: शिथिल पड़ने लगा। धीरे-धीरे भूख-प्यास और थकावट ने उसे मजबूर कर दिया। यहाँ किसी के पहचानने का खटका नहीं है, यह सोचकर उसने निकट की एक दुकान में जाकर कुछ खाने की चीजें लीं और बालक के साथ खा-पीकर फिर चलने लगी। सूर्यास्त से कुछ पहले वह ओहियो नदी-तट के एक गाँव में जा पहुँची। तट पर जाकर चाह-भरी आँखों से वह बार-बार ओहियो नदी के दूसरी पार की ओर देखने लगी। अब उसे केवल नदी पार करने की फिक्र थी। बरफ गल गई थी। नाव बिना नदी पार होना असंभव था। किनारे के पास थोड़ी ही दूर पर एक सराय दिखाई दिया। वहाँ एक बुढ़िया बैठी-बैठी कुछ काँटे-चम्मच साफ कर रही थी। इलाइजा ने बुढ़िया से पूछा कि पार जाने के लिए नाव मिलेगी या नहीं? बुढ़िया बोली - "नाव मिलने की कोई संभावना नहीं है।" इससे इलाइजा निराश हो गई। वृद्ध ने उसकी यह दशा देखकर पूछा - "क्या उस पार के किसी गाँव में तुम्हारा कोई कुटुंबी बीमार है?" इलाइजा ने कहा - "कल मुझे खबर मिली कि मेरे एक बच्चे की हालत बहुत खराब है, इसी से मैं घबराई हुई जा रही हूँ। अगर आज नदी पार न कर सकी तो उसे देख पाऊँगी, इसमें संदेह है।"
बुढ़िया ने उसकी यह कातरोक्ति सुनकर एक पुरुष को बुलाया और कहा - "सालोमन भैया, जरा देखना तो, नदी पार करने के लिए कोई नाव है क्या?"
सालोमन ने कहा कि आज पार होने की आशा नहीं है। कल कोई नाव मिल सकती है। इसके बाद इलाइजा, बुढ़िया के कहने पर रात वहीं बिताने को राजी को गई। उसी सराय की एक कोठरी में जाकर उसने बालक को एक तरफ सुला दिया और स्वयं उसकी बगल में बैठकर सोचने लगी।
उधर शेल्वी साहब के घर भोजन करने के लिए गुलामों का व्यापारी हेली फँस गया। शेल्वी साहब की मेम ने क्लोई को बहुत शीघ्र भोजन बनाकर लाने की आज्ञा दी। पर आज अजीब हालत है। क्लोई से झटपट भोजन तैयार ही नहीं हो पा रहा है। कभी चूल्हे की आग बुझ जाती है तो कभी बनती हुई चीज ही बिगड़ जाती है और वह फिर दोबारा बनानी पड़ती है। इस तरह बड़ी गड़बड़ होने लगी। उधर शेल्वी साहब भोजन की शीघ्र तैयारी के लिए आदमी-पर-आदमी भेज रहे हैं। एक दास आकर बोला कि देर होते देखकर हेली साहब बहुत घबरा रहे हैं। क्लोई झुँझलाकर बोली - "घबरा रहे हैं तो मेरी बला से, भाड़-चूल्हे में जाएँ, हम क्या करें!"
वहाँ जैक नाम का एक दास बैठा था। वह बोला - "भाड़-चूल्हे में ही क्यों, वह यम के यहाँ जाने को छटपटा रहा है। उसे अभी नरक की हवा खानी पड़ेगी।" क्लोई ने फिर कहा - "उस शैतान के लिए नरक ही ठीक है। वह सैकड़ों गरीबों के गले पर छुरी फेरता है। वह राक्षस बच्चे को जबरदस्ती माँ की गोद से छीन लेता है। स्त्री को स्वामीहीन और शिशु को पितृहीन करता है। क्या ईश्वर अंधा है? उस पापी को अवश्य नरक की भयंकर आग में तड़पना पड़ेगा।"
जैक बोला - "चाची, तू बहुत ठीक कहती है। नालायक की लाश को गीदड़ों और कुत्तों से नुचते देखकर मैं बड़ा खुश होऊँगा।"
इसी बीच टॉम वहाँ आ पहुँचा। उसके हृदय में अलौकिक धर्म की धारा बहती थी। क्लोई से टॉम कहने लगा - "हमारी किस्मत में जो लिखा था सो हुआ। इसके लिए किसी दूसरे आदमी को कोसना और उसके विरुद्ध दिल में बुरा भाव पोसना अच्छा नहीं।"
टॉम ने अपनी स्त्री से बातचीत शुरू की ही थी कि एक नौकर उसको शेल्वी साहब के पास बुलाने पहुँचा। शेल्वी ने हेली की ओर संकेत करके कहा - "टॉम, मैंने इनके हाथ तुम्हें बेचा है। यह अभी किसी काम से जा रहे हैं। आज तुम्हें नहीं ले जा सकेंगे। दो-चार दिन बाद आकर ले जाएँगे। जब ये लेने आएँ तो तुरंत इनके साथ चले जाना। नहीं गए तो अपनी लिखा-पढ़ी के अनुसार इनको मुझे एक हजार हरजाना देना पड़ेगा। देखो, इस बात में गलती मत करना।"
टॉम बोला - "आपकी आज्ञा सिर-माथे है। मैं छोटी उम्र में आपके यहाँ आया था। जिस समय आप एक साल के थे, उसी समय आपकी माता आपको मुझे सौंपकर बोली, टॉम, यही भविष्य में तुम्हारा मालिक होगा। इसे जतन से पालना। उस समय से आपको गोदी में खिलाया, आपको पाला-पोसा और आपका सारा काम किया। पर कहिए, आज तक क्या कभी किसी काम में मैंने आपको धोखा दिया है?"
टॉम की यह बात सुनकर शेल्वी का सिर झुक गया। उनकी आँखों में पानी भर आया। कहने लगे - "टॉम, तुमने हमेशा बड़ी सच्चाई से मेरा काम किया है, पर कर्ज में फँस जाने के कारण लाचारी में मुझे तुमको बेचना पड़ा है।"
शेल्वी साहब की मेम ने कहा - "टॉम, तुम घबराना मत, मैं रुपया इकट्ठा करके फिर तुम्हें जरूर इनसे खरीद लूँगी।"
साथ ही मेम ने हेली से कहा - "टॉम को आप जिसके भी हाथ बेचें, कृपया उसका नाम-पता हमें अवश्य लिख भेजिएगा।"
हेली ने कहा - "मैं तो दस रुपयों के फायदे के लालच में यह काम करता हूँ। शायद कुछ दिनों बाद फिर आप ही के हाथ बेच दूँ।"
शेल्वी साहब की मेम हेली-सरीखे नर-पिशाच से बात करने में बड़ी नफरत करती थी। फिर भी आज वह बहुत-से विषयों पर उससे बातें करने लगी। इस बातचीत का उद्देश्य था कि किसी तरह समय बीत जाए।
दोपहर के जब दो बज गए, तब साम और आंडी घोड़े लेकर दरवाजे पर आ गए। शेल्वी साहब और उनकी मेम से बिदा माँगकर हेली इलाइजा को पकड़ने चला। घोड़े पर चढ़ते समय उसने साम से पूछा - "क्या तुम्हारे मालिक के यहाँ शिकारी कुत्ते हैं?" साम खूब जानता था कि उनके यहाँ एक भी शिकारी कुत्ता नहीं है, लेकिन फिर भी समय गुजारने के लिए वह दुष्टता से बोला - "हाँ, हमारे यहाँ बहुत कुत्ते हैं। आप ठहरिए, मैं अभी लाता हूँ।" और फिर कई पालतू कुत्ते लाकर उसके सामने पेश कर दिए। उन्हें देखकर हेली बहुत कुढ़ा और बोला - "अरे गधे, ये कुत्ते हम नहीं चाहते। भागे हुए दासों को पकड़ने के लिए शिकारी कुत्ते हुआ करते हैं। तू बहुत बदमाश है। चलो, तुम्हें कुत्ते लाने की जरूरत नहीं है।" थोड़ी दूर जाकर हेली ने कहा - "ओहियो नदी की ओर चलो।"
साम ने बड़ी गंभीरता से मुँह बनाकर कहा - "जनाब, नदी को दो रास्ते गए हैं, एक तो अच्छा-खासा नया रास्ता है, दूसरा खराब हो गया है। इससे अब उधर होकर बहुत लोगों का आना-जाना नहीं है। बताइए आप किस रास्ते से चलना चाहते हैं?"
साम की दो रास्तों की बात सुनकर आंडी की हँसी न रुकी। वह खिलखिलाकर हँस पड़ा। पर साम फिर बड़ी गंभीर सूरत बनाकर आंडी को डाँटकर कहने लगा - "आंडी, तू बड़ा बेवकूफ है। तू वक्त-बेवक्त कुछ भी नहीं देखता। यह भी क्या हँसने का वक्त है? जिसमें हेली साहब का काम हो जाए, वही देखना चाहिए।" वह फिर हेली से कहने लगा - "जनाब, मालूम होता है कि इलाइजा खराब रास्ते ही गई है, क्योंकि उधर बहुत लोगों का आना-जाना नहीं है। लेकिन हम लोगों को उस रास्ते से जाने में सुभीता न होगा। वह रास्ता जगह-जगह से कट गया है। इससे चलिए, हम लोग इस नए रास्ते से ही चलें। अच्छे रास्ते से ही जाने में ठीक रहेगा।"
साम की ये बातें सुनकर हेली सोचने लगा कि इलाइजा निर्जन रास्ते से ही भागी होगी, पर यह लड़का बड़ा धूर्त है। पहले भूल से उस रास्ते का नाम ले गया, अब बहकाकर मुझे दूसरे रास्ते से ले जाना चाहता है, इससे पुराने से ही जाना ठीक होगा। सचमुच इस संसार में वहमी आदमी एकाएक झूठ-सच का निर्णय नहीं कर सकते। हेली ने बीहड़ रास्ते से ही जाना ठानकर साथियों को उसी ओर चलने की आज्ञा दी।
साम ने बहुत मना किया - "साहब, इस रास्ते से मत चलिए। जरूर कहीं-न-कहीं भटक जाएँगे। रास्ता साफ नहीं है। जगह-जगह कट गया है।"
साम की इन बातों से हेली का संदेह और बढ़ गया। वह साम को डपटकर कहने लगा - "हम तेरी बात नहीं सुनना चाहते। इसी रास्ते चलना होगा।"
असल में वह सुनसान रास्ता बहुत दिन से बंद हो गया था। साम यह बात खूब जानता था। उसकी चालाकी न समझकर हेली ने उसी रास्ते से जाने का तय किया, यह देख वह मन-ही-मन खुश होकर हँसने लगा। थोड़ी दूर चला और फिर बोला - "अजी साहब, यह रास्ता बड़ा खराब है। इससे चलना दुश्वार मालूम होता है।" उसकी बातों से हेली को बहुत ही क्रोध आ गया और वह कहने लगा - "तू चुप रह! तेरे कहने से हम रास्ता नहीं छोड़ेंगे।" इस पर साम चुप रह गया और अत्यंत नम्रता दिखाकर बोला - "तो जिधर से आपकी इच्छा हो, चलिए।"
इस तरह चलते-चलते साम और आंडी बीच-बीच में झूठ-मूठ चिल्लाने लगते - "वह रही इलाइजा!... देखो-देखो, कपड़ा दीख पड़ता है!... वह इलाइजा दीख पड़ती है।" इनकी चिल्लाहट से घोड़ा बार-बार चौंकता था, और बेकार देर होती थी। अंत में करीब एक घंटे के बाद वे एक लंबे-चौड़े मैदान में पहुँचे। आगे बढ़ने का रास्ता न था, जो था वह वहीं खत्म हो गया था। तब साम ने हेली से कहा - "देख लीजिए साहब, मैंने आपसे पहले ही कहा था कि यह रास्ता बंद हो गया है। पर आपने मेरी बात सुनी नहीं। अपने यहाँ के रास्तों का हाल हम लोगों को अच्छी तरह मालूम है। आप दूसरी जगह के आदमी ठहरे आपको इन बातों का क्या पता?" हेली क्रोधित होकर कहने लगा - "तू बड़ा बदमाश है। तूने यह सब जान-बूझकर किया है।"
साम ने इस प्रकार डाँट खाकर धीरे-धीरे कहा - "साहब, मैंने तो आपसे पहले ही इस रास्ते से चलने को मना कर दिया था, पर आप नहीं माने तो मैं क्या करूँ? इसमें मेरा क्या कसूर है?"
अब हेली क्या कहे! असल में साम ने दो बार खुल्लमखुल्ल इस रास्ते से जाने को मना किया था। अब वे घोड़ों को घुमाकर अच्छे रास्ते की ओर वेग से बढ़े। शाम भी न हो पाई थी कि वे उसी सराय के सामने, जिसमें इलाइजा ठहरी थी, आ पहुँचे। इलाइजा को यहाँ पहुँचे एक ही घंटा हुआ था। अपने बच्चे को सुलाकर वह खिड़की में खड़ी होकर नदी की ओर देख रही थी। इसी समय साम की निगाह उस पर जा पड़ी। हेली और आंडी साम के पीछे थे। उन्हें इलाइजा नहीं दिखाई दी। साम ने बदमाशी से हवा में अपनी टोपी फेंक दी और जोरों से चिल्लाने लगा - "मेरी टोपी हवा में उड़ गई... अरे, मेरी टोपी उड़ गई!" यह चिल्लाना इलाइजा को सुनाई पड़ा। उसने उधर आँखें घुमाते ही साम और हेली को देख लिया। फिर क्या था! सोते बालक को गोद में लेकर उछलती हुई पीछे का दरवाजा खोलकर भागी। हेली ने उसे देख लिया। वह तत्काल घोड़े से उतरकर बाघ की तरह उसके पीछे लपका। उधर इलाइजा के उस थके हुए शरीर में अकस्मात् मानो हजारों हाथियों का बल आ गया। वह बिजली की भाँति तड़पकर निकट की ओहियो नदी में कूद पड़ी। जल पर उस समय बर्फ तैर रही थी। बर्फ पर कूदते ही वह हिम-खंडों के साथ बहने लगी। उसके बोझ से बर्फ का टुकड़ा ज्यों ही डूबने को होता कि वह कूदकर दूसरे टुकड़े पर जा पहुँचती। इस तरह एक खंड से दूसरे पर कूदती हुई आगे बढ़ने लगी। उसके जूते टुकड़े-टुकड़े हो गए। बर्फ की रगड़ से छिलकर उसके दोनों पैरों से खून बहने लगा। पर बालक को उसने ऐसी दृढ़ता से पकड़ रखा था कि एक बार भी वह गोद से छूटने न पाया।
थोड़ी ही देर में इलाइजा नदी को पार करके दूसरे किनारे पर पहुँच गई। वहाँ उसे एक आदमी किनारे पर खड़ा दिखाई दिया। उसने इलाइजा को हाथ पकड़कर किनारे पर चढ़ा लिया और पूछा - "तुम कौन हो? तुम तो बड़ी बहादुर जान पड़ती हो।" इलाइजा ने आवाज से उसे पहचान लिया। वह शेल्वी साहब के घर के पास ही कहीं खेती करता था। अत: इलाइजा ने उसका नाम लेकर कहा - "सिम, मुझे बचाओ, मुझे बचाओ! मुझे बताओ कि मैं कहाँ छिपकर रह सकती हूँ। मेरे इस बच्चे को मालिक ने बेच दिया है। खरीदार इसे पकड़ने आया है। सिम, तुम भी बाल-बच्चोंवाले हो।"
सिम ने कहा - "मुझसे जहाँ तक बनेगा, मैं तुम्हारा उपकार करूँगा। तुम्हें कोई खटका नहीं। निश्चिंत हो जाओ। तुम पास के ही इस गाँव में चली जाओ। सामने वह जो सफेद घर दिखाई दे रहा है, वहाँ जाने से तुम्हें शरण मिलेगी।"
इस पर इलाइजा सिम को आशीर्वाद देती हुई बच्चे को छाती से लगाकर उसी घर की ओर चली गई।
इलाइजा के चले जाने पर सिम सोचने लगा - "इसे मैंने पकड़ा नहीं, उल्टा भागने का रास्ता बता दिया। इससे कहीं शेल्वी साहब मुझपर नाराज न हो जाएँ। बला से, हो जाएँगे तो क्या है! इस आफत की मारी स्त्री पर क्या कोई सख्ती कर सकता है!"
सिम अपढ़ और गँवार है। उस पर बनावटी धर्म की छाया नहीं पड़ी है। उसके हृदय में ऐसे भाव का आना असंभव नहीं है। पर यदि कहीं वह पढ़ा-लिखा शहरी होता तो प्रचलित कानून के गौरव की रक्षा के लिए जरूर इलाइजा को पकड़कर पुलिस के हवाले कर देता।
हम लोग अब सिम और इलाइजा से विदा होकर पाठकों को हेली की खबर सुनाना चाहते हैं। इलाइजा को जल्दी-जल्दी बर्फ पर जाते देखकर हेली भैचक्का-सा रह गया। साम तथा आंडी से बोला - "अरे, उसके सिर पर भूत सवार है। देखो, ठीक बिल्ली की तरह कूदती जा रही है!"
हेली की बात सुनकर दोनों हँस पड़े। इस पर हेली दोनों को कोड़ा लगाने के लिए उतारू हो गया। वे जरा हटकर बोले - "साहब, हमारा काम हो गया, अब हम जाते हैं। घोड़ा लेकर अधिक दूर जाने से मेम साहब नाराज होंगी। यहाँ और ठहरने की जरूरत नहीं दीख पड़ती।" इतना कहकर दोनों हँसते हुए वहाँ से चल दिए।
8. पकड़नेवालों की तैनाती
संध्या से पहले ही इलाइजा नदी पार करके दूसरे किनारे पहुँच गई। धीरे-धीरे अँधेरा छा गया। इससे अब वह हेली को दिखाई न पड़ी। हेली निराश होकर सराय में वापस चला आया। उस घर में अकेला बैठा-बैठा अपने भाग्य को कोसता हुआ मन-ही-मन कहने लगा - "इस संसार में न्याय नहीं है। यदि न्याय होता तो मेरे इतने रुपयों का नुकसान क्यों होता?"
इसी समय वहाँ दो आदमी और आ गए। उनमें एक ज्यादा लंबा था। उसके चेहरे से निर्दयता टपकती थी। जान पड़ता था, मानो नरक का द्वारपाल है। उसके कपड़े और चाल-ढाल भी इसी बात की गवाही दे रहे थे। उसे देखकर हेली बहुत संतुष्ट हुआ। बोला - "लोकर, आज तो तुम बड़े मौके से आए।"
इस आदमी का नाम टॉम लोकर था। पहले हेली इसके साझे में काम करता था। लोकर के दूसरे साथी कद का नाटा था। उसका नाम था मार्क। हेली ने उसे देखकर पूछा - "लोकर, यह आदमी तुम्हारा साझीदार जान पड़ता है।"
इस पर लोकर ने हेली और मार्क दोनों का आपस में परिचय करा दिया। फिर वह तीनों व्यवस्थापिका-सभा के मेंबरों की भाँति मेज पर बैठ गए। पहले हेली ने अपनी दु:ख-कहानी बड़े करुण शब्दों में आरंभ की। बार-बार वह अपने भाग्य को कोसकर कहने लगा - "औरत की जाति बड़ी दुष्ट होती है। उसे न्याय-अन्याय का जरा भी विचार नहीं होता। हमने कितने रुपए देकर तो उसके छोकरे को खरीदा और वह औरत एक छोकरे की माया न तज सकी। देखो, उस औरत ने कितना अन्याय किया है? वह छोकरे को लेकर भाग गई!"
हेली की बातें सुनकर लोकर का साथी मार्क बड़ी गंभीरता से अपना मंतव्य प्रकट करने लगा - "आजकल खेती-बाड़ी, वाणिज्य, शिल्प और विज्ञान आदि सभी विभागों में नए-नए आविष्कार हो रहे हैं। यदि संतान की मोह-माया न रखनेवाली जाति की स्त्रियों को पैदा करने की कोई कल निकल आए तो उससे संसार का बड़ा भला हो और सब भाँति के आविष्कारों की अपेक्षा ऐसी स्त्रियाँ पैदा करने का आविष्कार सबसे अधिक उपयोगी होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।"
हेली ने उसका हृदय से अनुमोदन करके कहा - "तुम बहुत ठीक कहते हो। कसम है, ऐसी औरतों के पैदा हुए बिना तो रोजी-रोजगार करना दुश्वार है। छोटे-छोटे बच्चे माताओं के सिर के बोझ ही हैं। भाई, तुम्हीं कहो, बच्चों से औरतों को क्या लाभ होता है? कुछ भी नहीं। लेकिन वे बच्चों को छोड़ना नहीं चाहतीं। वे यह भी नहीं समझतीं कि दु:ख देने के सिवा बच्चे उनका कोई फायदा नहीं करते, खास करके चुपचाप लड़कों को खरीदारों के हवाले न कर देने से कितना पाप लगता है, यह उन अल्हड़ों के दिमाग में नहीं बैठता।"
हेली की बात समाप्त होते ही मार्क फिर कहने लगा - "भाई, पिछले माह मैंने एक रोगी लड़के के साथ एक दासी मोल ली थी। सोचा था कि रोगी लड़के को माँ की गोद से लेकर बेचने में उसकी माँ कोई आपत्ति नहीं करेगी। लेकिन स्त्रियों की माया समझ में नहीं आती। रोगी लड़कों पर स्त्रियों का स्नेह और अधिक होता है। भाई, क्या कहूँ, उस रोगी लड़के के बेचने के थोड़े ही दिनों बाद उसकी माँ भी मर गई।"
मार्क की यह बात सुनते ही हेली ने कहा - "तुम्हारे सिर की कसम, भाई, सच कहता हूँ, हमपर भी एक बार ऐसी ही बीती थी। हमने एक बार एक अंधे छोकरे और उसकी माँ को खरीदा था। खरीदने के समय छोकरे के अंधे होने का पता नहीं था, पीछे से पता चलने पर उसे दूसरी जगह बेच दिया। फिर क्या था? उसकी माँ उसे गोद में लेकर नदी में डूबकर मर गई। हमारे सारे रुपए पर पानी फिर गया।"
टॉम लोकर अब तक ब्रांडी की बोतल में ही मस्त था। अब तक उसे बातें करने की फुर्सत न मिली थी। जब पूरी बोतल खाली कर चुका तब बोला - "भाई, मेरे काम का तो ढंग ही निराला है। लड़का-लड़की, पुरुष-स्त्री, कोई हो, मैं पहले से ही कह रखता हूँ कि बेचने के समय जरा भी रोना-पीटना सुना कि मारे बेंतों के चमड़ी उधेड़ दूँगा। युवतियों को खासतौर से समझा देता हूँ कि तुम्हारी गोद के बच्चे पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है। मैंने रुपया देकर मोल लिया है, जो जी चाहेगा, करूँगा। इससे फिर किसी को चूँ करने का साहस नहीं होता और अगर कोई ऐसी निकलती है कि समझाने पर भी रोने-पीटने से बाज नहीं आती तो मेरे ये मजबूत हाथ उसे दुरुस्त करने के लिए तैयार रहते हैं।" इतना कहते-कहते उसने मेज पर इतने जोर से हाथ पटका कि मेज के टुकड़े-टुकड़े हो गए।
हेली ने कहा - "लोकर, हंटरों से यों खबर लेने को हम कोई तुम्हारी अक्लमंदी नहीं समझते। ये बातें कोई कारोबार की नहीं है। समझदार लोग कभी मार-पीट नहीं करते। आत्मा सब में है। चमड़ी उधेड़ने से तुम्हारी और उसकी सबकी आत्मा में बराबर दर्द होता है। हमको इस बात का तजुरबा है कि बिना मार-पीट के कारोबार में ज्यादा फायदा होता है।"
हेली की यह बात लोकर को बहुत चुभी। उसने कहा - "अरे बच्चू, मेरे सामने बहुत 'आत्मा-आत्मा' मत बको। मेरी आत्मा का हाल मैं खूब जानता हूँ। तेरे शरीर को पीसकर चलनी में छान डालने से भी आत्मा का एक कण नहीं निकलेगा।"
हेली ने मुँह बनाकर कहा - "लोकर, इतने झुँझलाते क्यों हो? मुनासिब बात कहने से जलकर खाक हो जाते हो!"
अब लोकर और भी बिगड़कर बोला - "तेरी धर्म की बातें मैं नहीं सुनना चाहता। तू मुझे उपदेश देने चला है? मैं तेरी नस-नस पहचानता हूँ। तू अपने मन में अपने को बड़ा धार्मिक समझता है, लेकिन क्या मुझे खबर नहीं कि तेरा धर्म और भलमनसी लोगों को ठगने के लिए एक तरह का जाल है। लोगों को कर्ज देते समय तू बड़ी भलमनसी दिखाकर मीठी-मीठी बातें बनाता है, और जब रुपया वसूल करने का समय आता है तब तू गला घोंटकर आदमी को मार डालता है और उसका सब-कुछ हजम कर जाता है। यही है न तेरी आत्मा?"
बात बढ़ती देख टॉम लोकर के साथी मार्क ने दोनों हाथ फैलाकर कहा - "भाई, इन झगड़े-टंटों में क्या रखा है! कुछ काम की बातें करो। सबके अपने अलग-अलग मत होते हैं। हेली का अच्छापन उसकी दो-ही-चार बातों से मुझे मालूम हो गया। अब हेली ने जो बात कही है, उसे झटपट तय कर डालो।" फिर हेली से बोला - "भाई, उस स्त्री को पकड़वाने पर क्या दोगे?"
"उस औरत से मेरा क्या मतलब! मैं तो सिर्फ लड़के को चाहता हूँ। उस लड़के को खरीदकर ही मुझे बेवकूफ बनना पड़ा है।"
लोकर ने कहा - "तुम बच्चू, आज के नहीं, हमेशा के बेवकूफ हो।"
मार्क ने कहा - "लोकर, तुम फिर टायं-टायं करने लगे। इन सब बखेड़ों से क्या मतलब? मतलब से मतलब रखो, देने-लेने की बातें करो।"
हेली बोला - "हाँ, बोलो न, तुम लोग कितना चाहते हो? हम कहते हैं कि लड़के को बेचने पर जो मुनाफा मिलेगा, उसमें से दस रुपया सैकड़ा तुम लोगों को देंगे।"
लोकर ने कहा - "अजी, अपनी ये चालाकियाँ रहने दीजिए, हमसे नहीं चलेंगी। तुम्हीं बड़े उस्ताद हो, उसकी खोज में सिर हम खपाएँगे, और जो न पकड़ पाए तो हमारी सारी मेहनत मिट्टी में मिली। पहले हम लोगों की मेहनत के पचास रुपए हाथ पर रखो, तब बात करो।"
मार्क बोला - "इसमें क्या कहना है! यह तो कायदा ही है। कहीं बिना बयाना दिए कोई काम होता है? मेरा तो वकालत का पेशा ही ठहरा, मैं यह सब खूब जानता हूँ।"
बड़ी दलील और हुज्जतों के बाद हेली ने उन लोगों को पचास रुपए दिए। मार्क और लोकर ने उस भगोड़ी को पकड़ने का बीड़ा उठाया। वकालत ही की भाँति यह पेशा भी उस समय बड़े गौरव का समझा जाता था। इससे केवल रुपयों ही की आमद नहीं थी, बल्कि यह पेशा देश-हितैषिता और देशी कानून के गौरव की रक्षा का समझा जाता था, अत: उस काम का बीड़ा उठाकर उनके लज्जित होने का कोई कारण न था। हेली से रुपए पाकर वे नदी पार करने का उपाय खोजने लगे।
9. साम की वक्तृवत्वी-कला
हेली को ओहियो नदी के किनारे ही छोड़कर साम और आंडी घोड़े लेकर घर की ओर लौट पड़े थे। राह में साम को बड़ी हँसी आ रही थी। उसने आंडी से कहा - "आंडी, तू अभी कल का लड़का है। आज मैं न होता तो तुझमें इतनी अक्ल कहाँ थी? देख, दो रास्तों की बात बनाकर मैंने हेली को दो घंटे तक कैसे हैरान किया। यह चाल चलकर दो घंटे की देर न की जाती तो इलाइजा अवश्य पकड़ी जाती।"
इस प्रकार बातें करते हुए रात को दस-ग्यारह बजे वे शेल्वी के घर पहुँच गए। घोड़े की टापों की आहट कान में पड़ते ही श्रीमती शेल्वी तेजी से घर के बाहर आईं और उत्कंठा से बार-बार पूछने लगीं - "हेली और इलाइजा कहाँ हैं?"
साम ने मुस्कराते हुए कहा - "हेली साहब मुँह लटकाए सराय में चित्त पड़े हैं।"
"और इलाइजा का क्या हुआ? वह कहाँ गई?"
"ईश्वर की कृपा से इलाइजा ओहियो नदी पार करके कैनन प्रदेश में पहुँच गई है।"
"कैनन प्रदेश में पहुँच गई! मतलब?" शेल्वी साहब की मेम ने समझा कि शायद इलाइजा की मृत्यु हो गई।
"मेम साहब, ईश्वर अपने भक्तों की रक्षा आप करता है। इलाइजा ओहियो नदी को मानो साक्षात विमान पर चढ़कर पार कर गई। मैंने अपनी जिंदगी में ऐसी अद्भुत घटना कभी नहीं देखी।"
श्रीमती शेल्वी से इस प्रकार बातें करते-करते साम के हृदय में धर्मभाव लहराने लगा। वह इलाइजा के भागने के वृत्तांत को धर्म-शास्त्र के भाँति-भाँति के रूपकों से सजाकर कहने लगा। इतने में शेल्वी साहब ने स्वयं बाहर आकर साम से कहा - "घर के अंदर जाकर मेम साहब से बातें कहो।" फिर मेम साहब से बोले - "तुम इतनी घबराकर इस सर्दी में बाहर क्यों चली आई हो? सर्दी लग जाएगी। अंदर जाकर सब बातें क्यों नहीं सुन लेती? तुम तो इलाइजा के लिए बहुत ही घबरा रही हो।"
मेम ने कहा - "आर्थर, मैं स्त्री हूँ, मेरा भी बच्चा है। संतान का स्नेह माता के सिवा दूसरा नहीं जान सकता। इलाइजा की कैसी दुर्दशा हुई और हम लोगों ने उसके साथ कैसा व्यवहार किया, इसे संतान-वत्सल माता और पतिव्रता स्त्री के अलावा और कोई नहीं समझेगा। सच पूछो तो इलाइजा के साथ ऐसी निर्दयता का व्यवहार करके मैं और तुम दोनों ईश्वर के सामने पाप के भागी हैं।"
"पाप? इसमें पाप की क्या बात है? हारे दर्जे उसे बेचना पड़ा। इसमें भी पाप है?" शेल्वी बोले।
"आर्थर, मैं तुमसे बहस नहीं करना चाहती। मैं अपने मन में भली-भाँति समझती हूँ कि हम लोगों ने इलाइजा पर घोर अत्याचार किया है।"
इस पर शेल्वी ने मेम से और कुछ नहीं कहा। केवल साम से बोले - "अंदर आकर मेम साहब को इलाइजा के भागने का हाल विस्तार से सुना दो।"
साम कहने लगा - "मैंने अपनी आँखों से देखा है। इलाइजा बिना नाव-बेड़े के ओहियो नदी को पार कर गई। बर्फ के टुकड़े बह रहे थे, उन्हीं पर होकर गई। एक टुकड़ा डूबने को होता तो वह झट दूसरे पर कूद जाती। इस तरह बर्फ पर कूदती-फाँदती उस पार निकल गई। उधर एक आदमी ने हाथ पकड़कर उसे किनारे पर कर लिया। इसके बाद अँधेरा ज्यादा हो जाने के कारण और कुछ दिखाई नहीं दिया।"
शेल्वी ने विस्मित होकर कहा - "यह बड़े आश्चर्य की बात है! वह बहती हुई बर्फ पर से कूदती हुई चली गई? मुझे तो विश्वास नहीं होता कि आदमी सहज में यों जा सकता है।"
साम बोला - "हुजूर, सहज में कैसे जाया जा सकता है? ईश्वर की विशेष कृपा के बिना कोई भी इस तरह से नहीं जा सकता। सुनिए, संक्षेप में सारा हाल सुनाता हूँ। आप सुनकर चकित रह जाएँगे। साक्षात ईश्वर के सहारे के बिना यह नहीं हो सकता है। मैं, आंडी और हेली साहब शाम के कुछ पहले ही ओहियो नदी के इस पार पहुँचे। मैं सबके आगे-आगे था। वे दोनों कुछ पीछे थे। मैंने ही सबसे पहले इलाइजा को देखा। वह पास की सराय के जंगले के सहारे खड़ी थी। मैंने झूठ-मूठ सिर की टोपी फेंक दी, और 'हवा में उड़ी-उड़ी' करके चिल्लाने लगा। जिंदे की तो बात क्या, मेरी इस चिल्लाहट से मुर्दा भी जाग सकता था। बस, इलाइजा हम लोगों की ओर देखते ही पिछवाड़े के दरवाजे से भाग चली। हेली साहब की नजर पड़ गई। वह उसके पीछे ऐसे लपके जैसे भेड़ के पीछे बाघ दौड़ता है। इलाइजा ने जब देखा कि अब तो वह पकड़ी जाएगी, कोई उपाय नहीं रहा, तो नदी में कूद पड़ी और बहती बर्फ पर से कूदती हुई उस पार निकल गई।"
शेल्वी की मेम बड़े ध्यान से सब बातें सुन रही थीं। वह बोल उठीं - "भगवान, तुम्हारी महिमा अपरंपार है। तुम्हें सहस्त्रों बार धन्यवाद है। तुम्हारी ही कृपा से आज इलाइजा की जान बची।"
इतना कहकर फिर साम से पूछा - "इलाइजा का लड़का तो जिंदा है?"
साम बोला - "जी हाँ, वह जिंदा है। पर आज मैं न होता तो इलाइजा अवश्य पकड़ी जाती। ईश्वर भी बड़ा कारसाज है। अच्छे कामों के लिए वह कोई-न-कोई रास्ता निकाल ही देता है। आज सवेरे घोड़े कसने में उत्पात मचाकर हेली के दो घंटे खराब किए और फिर राह में कम-से-कम अढ़ाई कोस का उसे बेकार चक्कर दिलाया। ऐसा हैरान किया कि उसे भी याद रहेगा। यह सब ईश्वर की ही कृपा समझनी चाहिए।"
शेल्वी साहब साम के मुँह से ईश्वर की दया की यह व्याख्या सुनकर बहुत ही नाराज हुए और साम से कहने लगे - "यदि तू फिर कभी हमारे यहाँ रहते हुए ईश्वर की विशेष दया का ऐसा काम करेगा, तो तेरी खूब मरम्मत होगी। किसी का काम करना स्वीकार करके इस प्रकार कपट करना बड़ा अन्याय है। मैं तुम्हारी ऐसी दुष्टता और धोखेबाजी के काम को नहीं सराह सकता।"
श्रीमती शेल्वी को अपने पक्ष में देखकर साम बड़ी गंभीरता से कहने लगा - "हुजूर, आप या मेम साहब थोड़े ही ऐसा करती हैं। हम नौकर-चाकर कभी-कभी ऐसी दुष्टता किया ही करते हैं।"
साम के इस काम में श्रीमती शेल्वी का भी हाथ था। अत: साम को वहाँ से शीघ्र हटाने के लिए उन्होंने कहा - "तुम स्वयं ही समझते हो, ऐसी दुष्टता करना बुरा है। अत: तुम्हारा दोष क्षमा करने योग्य है। तुम दोनों बहुत भूखे होगे। शीघ्र क्लोई के पास जाकर खाना माँगकर खा लो।"
साम एक अच्छा वक्ता था। अच्छे भाषणों के लिए वह प्रसिद्ध था। शेल्वी साहब जब किसी राजनैतिक सभा में या कहीं व्याख्यान सुनने जाया करते तो साम को अक्सर साथ ले जाते थे। इस प्रकार साथ रहते-रहते साम बहुत-सी सभाएँ देख चुका था और कितने ही व्याख्यान सुन चुका था। कितनी ही जगहों में शेल्वी साहब जब सभा-मंडप में चले जाते, तब साम अपनी मंडली के दासों को लेकर वहीं बाहर दूसरी सभा किया करता और उसमें व्याख्यान दिया करता था। इसी से उसकी भाषण-शक्ति बढ़ी-चढ़ी थी। उसे मन-ही-मन इस बात का बड़ा दु:ख रहा कि इलाइजा के भागने के संबंध में वह आज जी भरकर व्याख्यान नहीं दे पाया। ईश्वर की विशेष करुणा की बात कहते ही शेल्वी साहब ने धमकाकर उसका उत्साह भंग कर दिया। रसोईघर में जाते हुए वह मन-ही-मन सोचने लगा, बड़े दु:ख की बात है कि ऐसा गंभीर विषय बिना लंबे व्याख्यान के यों ही हाथ से निकला जा रहा है। अत: उसने निश्चय किया कि पाकशाला में दास-दासियों के सामने इस विषय में अवश्य ही व्याख्यान देगा।
क्लोई चाची से भोजन को लेकर कभी-कभी उसकी चखचख हो जाया करती थी। पर आज तेज भूख हो जाने के कारण उसने मेल ही से काम लेना उचित समझा। इससे पाकशाला में पहुँचकर क्लोई को देखते ही उसके रसोई बनाने की लंबी-चौड़ी तारीफ करने लगा। साम के प्रशंसा-वाक्य क्लोई के कानों में सुधा ढालने लगे। घर में जितने प्रकार की खाने की चीजें थीं, उसने सबमें से थोड़ी-थोड़ी साम को परोसी। इस संसार में आत्म-प्रशंसा सभी को भाती है। ऐसे आदमियों की संख्या इनी-गिनी होगी, जो आत्म-प्रशंसा नहीं सुनना चाहते, जिन्हें अपने खुशामद-पसंद न होने का गर्व है। जो ऐसा कहते हैं कि हम खुशामदियों को अपने पास तक नहीं फटकने देते, उन्हें भी खुशामद पसंद है, यह साबित करने के लिए विशेष कष्ट उठाने की आवश्यकता नहीं है। आप इस बार उनसे कहिए - "अजी साहब, आपको तो खुशामद बिलकुल ही पसंद नहीं है। आपको भला कोई खुशामदी अपनी बातों में क्या लाएगा?" इसमें संदेह नहीं कि इस ठकुरसुहाती से वह साहब तुरंत पानी-पानी हो जाएँगे। वास्तव में अपनी प्रशंसा किसी को बुरी नहीं लगती। लेकिन बात यह है कि जितने आदमी हैं, उतनी ही तरह की खुशामदें भी हैं। किसी को किसी ढंग की खुशामद पसंद है, किसी को किसी ढंग की।
साम जब रसोईघर में बैठकर पेट-पूजा करने लगा, तब सब दास-दासी वहाँ इकट्ठे होकर बड़े चाव से इलाइजा और उसके पुत्र के विषय में पूछताछ करने लगे। दास-दासियों से घर भरा हुआ देखकर साम के आनंद की सीमा न रही। इससे उसको एक लंबा व्याख्यान झाड़ने का दुर्लभ अवसर मिल गया। उसकी अपूर्व वक्तृत्व-शक्ति इस प्रकार प्रवाहित होने लगी:
"प्यारे स्वदेश-बंधुओं, देखो, तुम लोगों की रक्षा के लिए मैं किसी भी कठिन-से-कठिन कार्य में अग्रसर हो सकता हूँ। हम लोगों में से किसी एक पर भी यदि कोई अत्याचार करे तो समझना चाहिए, अनुभव करना चाहिए कि उसने हम सब पर अत्याचार किया है। तुम लोग समझ सकते हो कि इसके अंदर एक प्रकार की गूढ़ नीति है। इसलिए प्राण देकर तुम लोगों की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है।"
साम के इतना कहते-कहते आंडी ने टोककर कहा - "सवेरे तो तुम इलाइजा को पकड़वा देने को कहते थे?"
आंडी की बात सुनकर साम ने और अधिक गंभीर बनकर कहा - "आंडी, इन गहरी बातों को समझने की अक्ल तुझमें नहीं है। तेरे जैसे भोले-भाले बालक के हृदय में केवल सद्भाव और सदिच्छा ही हो सकती है। तू इतने जटिल विषयों के नैतिक तत्व समझने के लायक नहीं है।"
'नैतिक तत्व' शब्द सुनकर आंडी चुप हो रहा। पर साम की जीभ फिर डाकगाड़ी की तरह खटाखट चलने लगी:
"मैं सदा सोच-समझकर, यानी विवेक से काम लेता हूँ। विवेक ही मेरी बागडोर है। पहले मैंने देखा कि शेल्वी साहब चाहते हैं कि इलाइजा पकड़ी जाए, अतएव विवेक के अनुरोध से मैंने उसी के अनुसार कार्य करने का निश्चय किया। फिर जब यह सुना कि मेम साहब ऐसा नहीं चाहतीं, तब मेरा विवेक दूसरे रास्ते पर चलने लगा। मेम साहब के पक्ष में विवेक के रहने से अधिक लाभ की आशा रहती है। इसलिए अब तुम लोग अनायास समझ सकते हो कि मैं नीति के रास्ते, विवेक के रास्ते और लाभ के रास्ते ही अधिक जाता हूँ। कहो आंडी, अब समझे असल बात?"
साम के श्रोतागण हुंकारी भरते हुए उसकी बातें सुन रहे थे। यह देखकर साम से चुप न रहा गया। वह एक मुर्गी की टांग मुँह में डालकर फिर कहने लगा:
"विवेक, नीति, अध्यवसाय यह इतना सहज विषय नहीं है। देखो, किसी काम को करने के लिए मैंने पहले एक रास्ता पकड़ा और फिर उसी कार्य को करने के लिए दूसरे रास्ते का सहारा लेता हूँ। ऐसा करने में क्या कम मेहनत और नीति खर्च करनी पड़ती है?"
साम के लंबे भाषण से क्लोई कुछ घबरा-सी गई। अत: लाल झंडी दिखाने के लिए बोली - "अब तुम जाकर सो जाओ और दूसरों को भी सोने की छुट्टी दो।"
क्लोई की बात सुनकर मेल-गाड़ी रुक गई। साम ने वहीं अपना व्याख्यान समाप्त कर दिया और सबको आशीर्वाद देकर बिदा किया।
10. मानवता का हृदयस्पर्शी दृश्य
जिस दिन संध्या को इलाइजा ओहियो नदी पार हुई थी, उस दिन साढ़े सात बजे व्यवस्थापिका-सभा के सदस्य वार्ड साहब घर में बैठे अपनी स्त्री से तरह-तरह की बातें कर रहे थे। नीति-विशारद वार्ड साहब और उनकी मेम के बीच जो बातें हो रही थीं, वे इस प्रकार थीं :
मेम ने कहा - "मैं स्वप्न में भी नहीं सोचती थी कि तुम आज घर आ सकोगे।"
"हाँ, मेरे आने की कोई आशा नहीं थी; पर दक्षिण देश की ओर जाना है, इससे सोचा कि आज की रात घर पर बिताकर कल सवेरे चला जाऊँगा। मेरा तो नाकों दम आ गया। कितने जोर से सिर में दर्द हो रहा है।"
सिर दुखने की बात सुनकर वार्ड साहब की मेम कपूर की शीशी लाने के लिए उठीं। पर वार्ड साहब ने उसका हाथ पकड़कर कहा - "दवा की जरूरत नहीं है, यों ही आराम हो जाएगा। मारे काम के मेरा जी घबरा उठा है। नित्य नए कानून की धाराओं का मसविदा गढ़ना बड़ी आफत का काम है।"
मेम बोली - "आजकल व्यवस्थापिका-सभा में किन-किन कानूनों का मसविदा पेश है?"
वार्ड साहब ने बड़े अचरज में आकर मन-ही-मन कहा - स्त्रियाँ भी कानून की खबर रखती हैं। फिर प्रकट में बोले - "आजकल किसी भारी कानून का मसविदा नहीं बन रहा है।"
"आप यह क्या कहते हैं? मैंने पत्रों में देखा है कि व्यवस्थापिका-सभा से एक ऐसा कड़ा कानून जारी होनेवाला है कि कोई भागे हुए दास-दासियों को शरण नहीं दे सकेगा। चाहे वे भूख-सर्दी से मर भले ही जाएँ, पर उन्हें कोई एक पैसे या कपड़े तक की सहायता न दे सकेगा। क्या यह सच है? मुझे तो विश्वास नहीं होता कि जिनके हृदय में कुछ भी दया-धर्म है वे ऐसा कानून जारी करेंगे! सोचिए, इससे कैसी भयंकर दशा हो जाएगी। मान लीजिए, कोई दास या दासी कहीं से भागी और दस दिन की राह काटकर यहाँ आ पहुँची। पेट भरने के लिए उसके पास एक पैसा तक नहीं है, और न सर्दी से बचने के लिए कोई फटा कपड़ा ही उसके तन पर है, भला कहिए, ऐसे अनाथ और निस्सहाय व्यक्ति को कौन ऐसा निर्दयी होगा, जो एक समय का भोजन और टिकने को स्थान देने से इनकार करेगा? मेरा तो इस बात को सुनकर ही कलेजा काँपता है। यह कानून धर्म और नीति के बिलकुल विरुद्ध है।"
वार्ड साहब हँसते हुए कहने लगे - "प्यारी, मुझे नहीं मालूम था, तुम तो एक खासी नीति-विशारद पंडिता बन गई हो।"
मेम बोली - "मैं आपके कायदे-कानून अथवा राजनीति की कुछ परवा नहीं करती। पर यह मुझे स्पष्ट दिखाई देता है कि ऐसा कानून जारी करना केवल निर्दयता का प्रचार करना है। जिनके पालन करने के लिए यह बनाया जा रहा है, उन्हें भी विवश होकर अपने हृदय की दया और धर्म को सर्वथा तिलांजलि दे देनी पड़ेगी। आप ही कहिए, क्या यह कानून धर्म या न्याय के अनुकूल होगा?"
"इसके न्यायसंगत होने में क्या संदेह है?"
"मैं तो कभी विश्वास नहीं कर सकती कि तुम ऐसे कानून को न्यायसंगत मानते हो। मैं समझती हूँ कि तुमने कभी ऐसे कानून के पक्ष में राय नहीं दी होगी।"
"मैंने तो इस कानून का बड़े जोरों से अनुमोदन किया है।"
"बड़ी लज्जा आती है कि तुमने भी ऐसे कानून के पक्ष में राय दी है। इससे बढ़कर घृणित और नीच कोई कानून हो ही नहीं सकता। मैं निश्चयपूर्वक कहती हूँ कि मैं इस कानून को कभी नहीं मानूँगी। देख लेना, कोई ऐसा अवसर मिला तो फिर मैं निश्चय ही इसका उल्लंघन करूँगी। ओफ, कैसा आश्चर्य है! कोई बेचारा दीन-दरिद्री मनुष्य, काला होने के कारण, गोरों के अत्याचार से दु:खी होकर भूख से मरता मेरे दरवाजे पर किसी दिन आ जाए और मैं उसे एक मुट्ठी अन्न न दे पाऊँ! मैं नहीं जानती कि किसी स्त्री का हृदय विधाता ने ऐसा पत्थर का बनाया है कि ऐसे विपदाग्रस्त मनुष्य को आश्रय देने से वह इनकार कर देगी!"
"मेरी, तुम मेरी बात सुनो। मैं खूब जानता हूँ कि तुम्हारा हृदय बड़ा कोमल है। दया और स्नेह से भरा है, पर कभी-कभी ऐसी दया और धर्म का फल उल्टा भी हो जाता है। सर्व-साधारण के हित के विचार से हमें कभी-कभी दया, माया और स्नेह-ममता को छोड़ने के लिए विवश होना पड़ता है। आजकल जो राजनैतिक आंदोलन चल रहा है, इसमें किसी पर विशेष दया दिखलाने से मुँह मोड़े रहना बहुत जरूरी है। इसलिए इस कानून को न्याय-विरुद्ध नहीं कहा जा सकता।"
"जान, मैं तुम्हारे राजनैतिक आंदोलन को नहीं समझती। पर यह मुझसे छिपा नहीं है कि कौन-सी बात धर्म-विरुद्ध है और कौन-सी धर्म-संगत। मेरी समझ में दीनों पर दया दिखाना, भूखे को अन्न और प्यासे को पानी देना तथा दुखियों का दु:ख दूर करना आदि मनुष्य के जीवन के प्रधान कर्तव्य हैं।"
"पर इन कर्तव्यों का पालन करने में यदि सर्वसाधारण का अहित होता हो, तब क्या करोगी?" वार्ड साहब ने पूछा।
"मेरा अटल विश्वास है कि कर्तव्य-पालन से सर्व-साधारण का अहित कभी हो ही नहीं सकता।"
"मेरी, सुनो मैं तुम्हें अपने कथन की सच्चाई समझाए देता हूँ। यह बहुत सहज-सी बात है।"
"मैं खूब जानती हूँ कि तर्क में तुमसे कोई जीत नहीं सकता। तुम सारी रात तर्क में बिता सकते हो और सच को झूठ और झूठ को सच साबित कर सकते हो। पर इसे जाने दो। मैं तुमसे पूछती हूँ कि अभी तुम्हारे दरवाजे पर भागा हुआ निराश्रित दास आकर एक मुट्ठी दाना माँगे, तो क्या तुम उसे भागा हुआ समझकर अपने दरवाजे से भगा दोगे? ऐसे आदमी पर क्या तुम्हें दया नहीं आएगी?"
वार्ड साहब बोले - "ऐसे आदमी को दरवाजे से भगा देना अवश्य ही बहुत खेदजनक है; पर कर्तव्य के लिए क्या नहीं करना पड़ता?"
"ऐसे निष्ठुर व्यवहार को क्या तुम कर्तव्य समझते हो? इसे कभी कर्तव्य नहीं कहा जा सकता। गुलामों पर लोग जोर-जुल्म करते हैं, उन्हें बहुत सताते हैं, इसी से वे भाग जाते हैं। उनपर अत्याचार न हों तो वे न भागें। दास-दासी रखनेवाले यदि उन्हें न सताएँ, तो फिर कानून की जरूरत ही न पड़े।"
"मेरी, सुनो मैं तुम्हें एक युक्ति से इस कानून की आवश्यकता को समझा दूँ।"
"मैं ऐसे निष्ठुर आचरण के संबंध में तुम्हारी युक्ति या दलीलें नहीं सुनना चाहती। मैं पहले ही कह चुकी हूँ कि तुम लोगों जैसे कानूनी आदमी भाँति-भाँति के कुटिल तर्कों द्वारा सच को झूठ और झूठ को सच साबित कर सकते हैं।"
साहब और मेम में बातें हो रही थीं कि इतने में काजो नाम का एक नौकर वहाँ आया और बड़ी घबराहट से बोला - "मेम साहब, जरा नीचे आकर देखिए, कैसा भयानक दृश्य है।"
नीचे पहुँचते ही मेम ने जो देखा, उससे घबराकर वह बार-बार साहब को पुकारने लगीं। साहब ने वहाँ जाकर देखा कि एक दुबली-सी स्त्री एक बच्चे को छाती से चिपटाए हुए उनके दरवाजे पर अचेत पड़ी है। उसके दोनों पैर बहुत छिले हुए हैं। उनसे लगातार खून बह रहा है। उसके कपड़े चिथड़े हो गए हैं। वार्ड साहब देखते ही समझ गए कि वह भागी हुई दासी है। उन्होंने ऐसी सुंदर दासी कभी नहीं देखी थी। उसकी सुंदरता और उसके सुख की सुदृढ़ता देखकर साहब के हृदय में करुणा का स्रोत बह चला। वह थोड़ी देर पहले की बातचीत को भूल गए। उस स्त्री को होश में लाने के लिए वह भाँति-भाँति के उपाय करने लगे। उन्होंने बेहोश स्त्री की छाती से बालक को उठाकर अपनी गोद में ले लिया था। होश में आते ही स्त्री ने अपने बच्चे को गोद में न देखा तो "हेरी-हेरी!" कहकर चिल्लाने लगी। चिल्लाहट सुनते ही बालक काजो की गोद से अपनी माता की गोद में चला गया। तब वह कुछ शांत होकर वार्ड साहब की मेम से कहने लगी - "मुझे बचाइए! मुझे शरण दीजिए! दुश्मन के हाथ से मेरे बच्चे की रक्षा कीजिए!"
वार्ड साहब की मेम ने कहा - "बेटी, तू डर मत। यहाँ कोई तेरा कुछ न बिगाड़ सकेगा। तू यहाँ बेधड़क होकर रह।"
यह सुनकर उस रमणी ने कहा - "भगवान, आपका भला करें!"
फिर मेम ने रसोईघर के पास उसके विश्राम का प्रबंध कर देने की आज्ञा दी और दास-दासियों से उसकी सेवा-टहल करने के लिए कहकर आप भोजन करने घर में चली गई। वार्ड साहब उस स्त्री का दु:ख देखकर पिघल गए थे। वे अपनी स्त्री से जाकर बोले - "कुछ समझ में नहीं आता कि यह स्त्री कहाँ से आई है। पर यह युवती बड़ी सुंदर है।"
मेम बोली - "अभी तो वह सोई है, उठने पर उससे उसका नाम-धाम पूछूँगी।"
कुछ देर रुककर वार्ड साहब ने फिर कहा - "प्यारी, जो कपड़ा वह पहने है, वह बहुत पुराना हो गया है। देखो तो, तुम्हारा कोई गाउन उसको आ सकता है या नहीं। वह तुमसे थोड़ी लंबी है।"
वार्ड साहब की स्त्री मन-ही-मन में हँसने लगी और सोचने लगी कि स्वामी की कानूनी विद्या धीरे-धीरे कमजोर पड़ रही है। पर प्रकट रूप में केवल इतना ही बोली - "अच्छा देखती हूँ।"
वार्ड साहब कुछ देर बाद फिर बोले - "प्यारी, वह स्त्री बहुत सर्दी खा गई जान पड़ती है। इसे कुछ ओढ़ने को भी देना चाहिए। मेरी पुरानी चादर इसे दे दो।"
इतने में ही दीना नामक दासी ने आकर कहा - "मेम साहब, वह स्त्री जाग गई है। आपसे कुछ कहना चाहती है।"
वार्ड साहब और उनकी मेम, तत्काल दोनों उस स्त्री के पास गए। मेम ने पूछा - "हम लोगों से तुम जो कुछ कहना चाहती हो, सो कहो। उस स्त्री के मुँह से बात नहीं निकलती थी। वह बार-बार लंबी साँसें ले रही थी और रो रही थी। तब वार्ड साहब की मेम उसे ढाढ़स देकर कहने लगी- बेटी, डरो मत। हम तुम्हारा कुछ भी अहित नहीं करेंगे। तुम साफ-साफ कहो कहाँ से आई हो और क्या चाहती हो?"
कुछ देर बाद स्त्री ने कहा - "मैं केंटाकी से आ रही हूँ।" इस पर वार्ड साहब ने उससे जिरह-सी आरंभ कर दी - "केंटाकी से तुम किस तारीख को चली थी?"
"आज ही रात को आई हूँ।"
"रात में कैसे आई?"
"बर्फ के टुकड़ों के सहारे चलकर।"
सब लोग अचरज में आकर कहने लगे - "बर्फ पर से कैसे आई?"
"परमात्मा ने ही मुझे पार लगाया। पकड़नेवालों ने मेरा पीछा कर रखा था। ऐसी दशा में नदी पार करने के सिवा मेरे बचने की और कोई सूरत न थी।"
वार्ड साहब का दास काजो बोला - "बाप-रे-बाप! कैसा अचरज है! गली हुई बर्फ टुकड़े होकर जल पर तैर रही थी, उसी पर से पार चली आई!"
आर्त्त स्वर में स्त्री बोली - "मैं जानती थी कि बर्फ गल रही है। मुझे मालूम था कि इस तरह बहती हुई बर्फ पर से किसी का जाना असंभव है। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं नदी पार कर सकूँगी। मैं तो मौत का आलिंगन करने के लिए नदी में कूदी थी, पर ईश्वर की महिमा अपार है। मनुष्य उसे नहीं समझ सकता। मनुष्य नहीं जानता कि निर्बल के बल एकमात्र भगवान हैं। ईश्वर की महिमा से क्या नहीं हो सकता? मैं केवल उसी की महिमा से पार हुई।"
इतना कहकर आकाश की ओर इस तरह देखने लगी, मानो वह ईश्वर-दर्शन करने की प्रतीक्षा कर रही हो।
वार्ड साहब ने पूछा - "तू क्या किसी की खरीदी हुई दासी है?"
"हाँ, पर मेरे मालिक बड़े दयालु थे।"
"तो तेरी मालकिन तुझे बहुत सताती होंगी?"
"नहीं-नहीं, वह तो माता की भाँति मेरा दुलार करती थीं।"
"फिर तुमने ऐसे मालिक को छोड़कर ऐसी भयानक विपत्ति का रास्ता क्यों अपनाया?"
यह सुनकर स्त्री वार्ड साहब की मेम के मुँह की ओर आँसू भरी आँखों से देखने लगी और बोली - "मेम साहब, पुत्र-शोक कितना दु:खदायी होता है, यह आप अवश्य समझ सकती हैं। आपको क्या कभी पुत्र का वियोग सहना पड़ा है?"
इस प्रश्न से वार्ड साहब की मेम का हृदय एकदम विदीर्ण हो गया। वह अपने आँसू न रोक सकी। अभी एक महीना हुआ, उनका इकलौता बेटा उन्हें छोड़कर चला गया था। मेम को रोते देखकर काजो और दीना इत्यादि सभी आँसू बहाने लगे। वार्ड साहब बड़े कष्ट से आँसू रोककर हृदय के उमड़े हुए शोक के आवेग को छिपाने की चेष्टा करने लगे। वह ठहरे व्यवस्थापिका-सभा के सदस्य! आँसू बहाते देखकर कहीं लोग उन्हें निर्मल आत्मा न समझने लगें।
कुछ देर बाद मेम ने उससे पूछा - "तुमने मुझसे ऐसा सवाल क्यों किया? आज एक महीना हुआ होगा, मेरे हृदय का सर्वस्व हेनरी मुझे अनाथ करके चला गया।"
"तब आप मेरा दु:ख समझ सकती हैं। एक-एक करके मेरी दो संतानें काल की भेंट हो चुकीं, अब यही एक बच्चा मेरे जीवन का आधार है। मैं पल भर के लिए भी इसे आँखों से ओट नहीं कर सकती। लेकिन मेरे मालिक ने इस दुध-मुँहे बच्चे को दास-व्यापारी के हाथ बेच दिया। वह निर्दयी इसे दक्षिण देश में ले जाने की तैयारी कर रहा था। यह दुध-मुँहा बच्चा माँ को छोड़कर कभी नहीं रह सकता। मैं इसे कैसे छोड़ दूँ? इसी से दास-व्यवसायी के चंगुल से बचाने के लिए मैं इसे लेकर भाग आई हूँ। किंतु मेरे भागने के बाद खरीदार ने, मेरे मालिक के दो दासों को साथ लेकर मेरा पीछा किया। ओहियो नदी के उस पार पकड़े जाने के डर से मैं प्राणों की ममता छोड़कर नदी में कूद पड़ी। नदी को पार कैसे किया, यह मुझे याद नहीं। बस, इतना ही ध्यान है कि इधर किनारे पर आते ही सिम नामक एक दास ने मेरा हाथ पकड़कर किनारे उठा लिया और उसी की सलाह से मैं इस घर में आई हूँ।"
"तब तुमने कैसे कहा कि तुम्हारे मालिक और मालकिन बड़े दयावान हैं? इस बालक को बेचकर उन्होंने तुम्हारे साथ बड़ी ही कठोरता का बर्ताव किया है।"
"मैं कभी कृतघ्न नहीं होऊँगी। जब तक जीती रहूँगी, कहूँगी कि मेरे मालिक और मालकिन बड़े दयालु हैं। उन्होंने किसी भी दास-दासी पर कभी बेरहमी नहीं दिखाई। मालिक ने दास-व्यवसायी के कर्ज में जकड़ जाने के कारण लाचार होकर मेरे बच्चे को बेचा।"
"क्या तुम्हारे पति नहीं है?"
"हाँ, हैं। पर वह दूसरे के दास हैं। उनका मालिक बड़ा कठोर है। उसके अत्याचार से मेरा पति बड़ा कष्ट पा रहा है। सुना है कि वह मेरे पति को दक्षिण में बेचनेवाला है। अब इस जीवन में उससे भेंट होती नहीं दिखाई देती।"
"तो अब तुम कहाँ जाना चाहती हो?"
"मैं कनाडा जाना चाहती हूँ। यहाँ से कनाडा कितनी दूर है?"
मेम साहब मन-ही-मन सोचने लगीं कि हाय, कैसी शोचनीय स्थिति है! यह कैसे कनाडा पहुँचेगी? प्रकट रूप से बोलीं - "बेटी, कनाडा बड़ी दूर है। पर हमसे जहाँ तक हो सकेगा, तुम्हारी मदद करने का यत्न करेंगे। आज की रात यहीं रहो। कल जैसा होगा, देखा जाएगा!"
वार्ड साहब की मेम ने दीना को उसके सोने का प्रबंध करने का आदेश दिया और फिर अपने सोने के कमरे में चली गई। वहाँ पहुँचते ही वार्ड साहब बोले - "प्यारी, इस स्त्री के संबंध में अब क्या करना चाहिए? मैं बड़ी आफत में फँस गया हूँ। इस स्त्री की तलाश में कल खरीदार यहाँ अवश्य आएगा। मेरे यहाँ भगोड़ी दासी का निकलना बड़ी लज्जा का विषय होगा। व्यवस्थापिका-सभा का सदस्य होकर मैंने ही कल कानून बनाया कि भगोड़े दास-दासियों को जो कोई अपने यहाँ ठहरने देगा, उसे दंड मिलेगा और आज मैं ही उस कानून को तोड़ूँ! अच्छा होगा कि इस विषय में जो कुछ करना हो, आज रात ही को कर डाला जाए।"
"आज रात को क्या किया जा सकता है?"
मेम अच्छी तरह जानती थीं कि साहब का मन बड़ा दयालु है। वह अवश्य उस अनाथ के लिए कोई-न-कोई ठीक व्यवस्था कर देंगे। मन-ही-मन यह सोचकर वह चुप रह गईं और साहब का कानून का पक्षपात स्मरण करके मंद-मंद मुस्कराने लगीं। कुछ देर बाद साहब बूट पहनकर खड़े हो गए और कहने लगे - "प्यारी, इसके संबंध में मैं जो कुछ करना चाहता हूँ, वह तुम्हें बताता हूँ। इसे किसी निरापद स्थान पर पहुँचा देना ठीक होगा। यहाँ से थोड़ी दूर पर वान ट्रांप नामक मेरा मुवक्किल है। पहले उसके यहाँ दास-दासियों का बड़ा जमघट था, पर समय के फेर से उसकी ऐसी कायापलट हुई कि नर-नारियों को गुलाम बनाकर रखना वह पाप समझने लगा। उसने अपने सारे दास-दासियों की भलाई के लिए और भी कई काम किए। आजकल उसने यहाँ से तीन-चार कोस की दूरी पर जमीन लेकर वहाँ भागे हुए दास-दासियों के लिए ऐसे घर बना दिए हैं, जिनमें ये शरण ले सकें। वह स्वयं भी वहीं रहता है। वहाँ पहुँचा आने से कठोर दास-व्यवसायी के चंगुल से यह अभागिनी स्त्री बच सकती है। पर मेरे अलावा किसी का रात को गाड़ी हाँककर इसे वहाँ पहुँचा आना संभव नहीं।"
"क्यों? काजो खूब गाड़ी हाँक सकता है। क्या वह नहीं पहुँचा आ सकता?"
"वहाँ का मार्ग बड़ा दुर्गम है, राह में दो बड़ी खाड़ियाँ पार करनी पड़ती हैं। काजो को उसे रास्ते का भी पता नहीं होगा। इससे मुझे स्वयं ही जाना पड़ेगा। काजो को 12 बजे गाड़ी तैयारकर रखने को कह दो। मैं स्वयं ही इसे पहुँचा आऊँगा और लौटती बार कोलंबस होता हुआ आऊँगा, जिससे लोग समझ लेंगे कि मैं वहीं किसी काम से गया था।"
"नाथ, दूसरों के दु:ख से सदैव तुम्हारा हृदय पसीज जाता है। तुम्हारी यह सहृदयता ही तुम्हारे ज्ञान और विज्ञता की अपेक्षा लोगों के मन में तुम पर अधिक भक्ति और श्रद्धा उपजाती है। तुम जब-तब अपने को पहचानना भूल जाते हो, पर मैं तुम्हारे हृदय से खूब परिचित हूँ। तुम चाहे जिस खयाल से चाहे जैसा कानून क्यों न बनाओ, किंतु दूसरे कानूनबाजों की तरह तुम आत्मा-विहीन होकर निष्ठुर काम में अपने को नहीं लगा सकते। यह मैं भली-भाँति जानती हूँ कि व्यवस्थापिका-सभा के सभी सदस्यों में मानवात्मा है।"
वार्ड साहब अपनी स्त्री के मुख से अपनी सहृदयता की प्रशंसा सुनते ही प्रेम से पुलकित हो गए। सोचा कि जिन्हें ऐसी स्त्री का सुख प्राप्त नहीं, उनका मनुष्य-जन्म वृथा है। यह सोचते-सोचते वे दरवाजे पर देखने के लिए आए कि गाड़ी तैयार हुई या नहीं। फिर मेम के पास जाकर बोले - "प्यारी, मुझे एक बात याद आई है। हेनरी के जो कुछ कपड़े हैं, उन्हें चाहो तो इस अनाथ बालक के लिए दे डालो।"
मेम ने अपने मृत पुत्र के कपड़े और खिलौने इत्यादि चीजों की एक गठरी बाँध दी। फिर रात को 12 बजे वार्ड साहब इलाइजा को लेकर गाड़ी पर चढ़ने लगे। उस समय वह गठरी इलाइजा के हाथ में दे दी। इलाइजा उस समय बार-बार मेम के प्रति अपनी हार्दिक भक्ति और कृतज्ञता-प्रकट करने की चेष्टा करने लगी, पर उसमें बोलने की शक्ति न थी। उसके हृदय की उस समय की अवस्था शब्दों द्वारा प्रकट नहीं की जा सकती। वह गाड़ी में चढ़ी हुई घूम-घूमकर मेम की ओर देखने लगी। उसकी आँखों में आँसू भर आए।
आज वार्ड साहब में भी विचित्र परिवर्तन हो गया था। कल उनकी वक्तृता से व्यवस्थापिका-सभा का भवन गूँजता था, कल उन्होंने अनेक बार इस बात को दुहराया था कि सर्वसाधारण के हित की दृष्टि से प्रत्येक छोटे-बड़े का कर्तव्य है कि स्त्री-जाति की-सी सहृदयता को छोड़कर भागे हुए दास-दासियों को पकड़ा दे। कल उन्हें स्त्री-जाति मानव-हृदय की दुर्बलताओं की खान जान पड़ी थी; पर आज वही वार्ड साहब स्वयं उस दुर्बलता के शिकार बन बैठे! केवल अखबारों और रिपोर्टों में पढ़कर भगोड़ों की दुर्दशा का अनुमान नहीं हो सकता था। इसी से कल तक 'भगोड़ा' शब्द देखकर उनके हृदय में तनिक भी दया नहीं उपजती थी। पर आज सामने साक्षात भगोड़े की दुर्दशा देखते ही उन्हें चक्कर आ गया, उन्हें सच्ची स्थिति का ज्ञान हो गया और जिस जाति की कमजोरी की उन्होंने निंदा की थी, उसी ने आज उनके मस्तिष्क को चकरा दिया। इससे मालूम होता है कि व्यवस्थापिका-सभा के सदस्यों में भी मानव आत्मा मौजूद है। उनमें भी मनुष्यत्व है। उन्हें सदैव समाचार-पत्रों ओर रिपोर्टों के सिवा देश की सच्ची दशा जानने का अवसर नहीं मिलता। अपनी आँखों से वे लोगों की दुर्दशा का दृश्य नहीं देखते, इसी से उनके कथन में और वास्तविक स्थिति में बहुत अंतर होता है और जान पड़ता है कि वे मनुष्यत्व-विहीन हैं।
वार्ड साहब ने कल जिस कानून को जारी किया था, उसका फल आज उनको ही भोगना पड़ा। घोर अँधेरी रात है। मूसलाधार वर्षा हो रही है। रास्ता कीचड़ से लथपथ है। घोड़ा इस रास्ते से गाड़ी को खींचकर आगे बढ़ने में असमर्थ है। व्यवस्थापिका-सभा के माननीय सदस्य अपने नौकर काजो के साथ गाड़ी से उतर पड़े। काजो ने घंटों घोड़े की लगाम पकड़कर आगे बढ़ाने की कोशिश की और वार्ड साहब ने पीछे से गाड़ी को ठेला, तब कहीं जाकर बड़ी कठिनाई से गाड़ी आगे बढ़ी और धीरे-धीरे उस आश्रम के पास पहुँची। घर का मालिक अभी सो रहा था। उसे बड़ी मुश्किल से जगाया। थोड़ी देर में आँखें मलते हुए वह गाड़ी के पास आया और वार्ड साहब को देखकर नमस्कार करने के लिए हाथ उठाया। मकान-मालिक का नाम था - 'जान वान ट्रंप'। वह पहले केंटाकी नगर में रहता था। उसके पास अनगिनत गुलाम थे, पर अर्थलोलुपता और स्वार्थपरता के कारण उसके हृदय के उत्तम और स्वाभाविक भावों का सर्वथा नाश नहीं होने पाया। उसके दिल में यह बात बैठ गई कि देश भर में प्रचलित गुलामी प्रथा और दासों को सताना, दास और मालिक दोनों की ही आत्मा को नीचे गिराता है। दासों की दुर्दशा पर विचार करते-करते उसका हृदय पसीज गया। फिर उसने तुरंत अपने सारे दास-दासियों को गुलामी की बेड़ी से मुक्त कर दिया। साथ ही उसे दासों के दु:ख दूर करने की चिंता हुई। इस निर्जन भूमि में अनाथ दासों को शरण देने के लिए जो स्थान बना है, वह उसी चेष्टा का फल है।
वार्ड साहब ने जैसे ही उसे इलाइजा की दुरावस्था की बात सुनाई, उसने तुरंत इलाइजा को गाड़ी से उतारकर अपने घर की एक कोठरी में उसके रहने के लिए जगह कर दी। उसे ढाढ़स देकर वह कहने लगा - "बेटी, यहाँ तुम ब्रेफिक्र होकर रहो। मजाल नहीं कि यहाँ से तुम्हें कोई पकड़ ले जाए। मेरे यहाँ बहुत आदमी हैं। यहाँ पकड़नेवालों की पैठ नहीं हो सकती।"
वान ट्रंप ने वार्ड साहब से वह रात वहीं बिताने का अनुरोध किया, पर वह राजी न हुए। उन्होंने पहले से ही कोलंबस होकर लौटने का निश्चय कर रखा था। लोगों के संदेह करने के डर से वह झटपट गाड़ी पर सवार हो गए। चलते समय इलाइजा की सहायता के लिए वान ट्रंप के हाथ में दस रुपए का एक नोट देते गए।