उड़ता जा रहा हूँ! (यात्रा वृत्तांत) : रामवृक्ष बेनीपुरी
Udta Ja Raha Hoon ! (Hindi Travelogue) : Ramvriksh Benipuri
प्राचीन ऋषियों ने कहा था—चरैवेति, चरैवेति—चलते चलो, चलते चलो।
आधुनिक मानव कहता है—उड़ते चलो, उड़ते चलो।
प्राचीन ऋषियों का कहना है—पृथ्वी चल रही है, चंद्रमा चल रहा है, सूर्यदेवता चल रहे हैं, इसलिए तुम भी चलते चलो, चलते चलो।
आधुनिक मानव देखता है—पृथ्वी, चंद्रमा या सूर्यदेवता की दूरी प्रति घंटा लाखों, करोड़ों, अरबों मील है। किंतु उसके पैर की गति अत्यंत परिमित, धीमी है। अतः वह कहता है, चीन ने जो साधन दिए हैं, उनका सहारा लेकर कम से कम पाँच सौ मील प्रति घंटे के हिसाब से तो उड़ते चलो।
प्राचीन ऋषि की दुनिया छोटी थी, वह उसे पैदल चल कर भी पार कर ले सकते थे। आधुनिक मानव का संसार बहुत लंबा-चौड़ा हो गया है। वह कहाँ तक पैरों को घसीटता हुआ वह उड़ेगा, वह उड़ रहा है!
मैं भी यह दूसरी बार उड़ रहा हूँ। चार्ट बताता है, बंबई से पेरिस पौने पाँच हज़ार मील है; फिर बीच में समुद्र-पहाड़ हैं, मरुभूमि है, जंगल हैं। ऋषियों का वचन मानकर पैदल चला जाता, तो कितने दिन लग जाते! किंतु यह टाइम-टेबुल बताता है, अभी दोपहर को 1 : 40 बजे हम चल रहे हैं, कल सुबह-सुबह ठीक आठ बजे पेरिस की रंगीनियों में डूबते उतारते होंगे!
सांताक्रूज से अभी एक झमा के साथ हमारा यह जहाज़ खड़ा है। ऊपर से बंबई की पूरी झलक भी नहीं लेने पास, कि यह देखिए, नीचे समुद्र लहरा रहा है और ऊपर हम उड़े जा रहे हैं।
पथ-पुस्तिका में उन स्थानों के रंगीन चित्र देख रहा हूँ जो हमारे नीचे आएँगे—तरह-तरह के द्वीप, तरह-तरह के रंग, तरह-तरह के जीव-जंतु! अपने स्वाद से जीभ को पानी-पानी कर देने वाली समुद्री मछलियाँ, अपने मोती से हमारे गलों को जगमगाने वाली सीपियाँ, अपने आँसू की लड़ियों से मुकायें बनाने वाली जल-परियाँ। वह द्वीप जहाँ क़ैदियों को गले में तख़्ता पहना पर छोड़ दिया जाता था, वह द्वीप जहाँ लदस्युओं के अड्डे रहते थे। क़ालीनों का बंदरगाह मझट, मार्कोपोलो की प्रसिद्ध सराय, हरमुज़, संसार की सबसे गर्म जगह रास मसंदम, खजूरों की भूमि नज़्द। जिनमें सबसे पहले मक्खन तैयार हुआ बेदुइनों के वे चलते-फिरते घर, ऊँचें के कारवान, अरबी घोड़ों के झुंड! जब हम और चले जाए हैं, नीचे हम क्या क्या न छोड़ते जाएँगे! निस्संदेह हम पैदल चलते, तो इन सबको देखते; किंतु, इनमें से कितने को देख पाते!
नहीं-नहीं, उड़ते चलो, उड़ते चलो! बंबई से काहिरा, काहिरा से पेरिस—सिर्फ़ दो हुक्के और हम अपने मंतव्य स्थान को पा लेंगे।
अहा! हम उड़ते जा रहे हैं, देखते जा रहे हैं और लिखते भी जा रहे हैं—यह सुख तो ऐरोलेन पर ही मिल सकता है।
पिछली बार की तरह इस बार की यह यूरोप-यात्रा भी आकस्मिक ही रही। उस दिन पटना रेडियो स्टेशन पर संगीत सभा हो रही थी। रात में, वहीं जाने के लिए में तैयार हो रहा था कि एक तार मिला—पेरिस में होने वाली सांस्कृतिक स्वाधीनता काँग्रेस के साहित्यिक-समारोह में सम्मिलित होने के निमंत्रण पर क्या विचार कर सकोगे?
तार भेजने वाले का नाम स्पष्ट नहीं था; किंतु स्थान का नाम बंबई स्पष्ट था। मैं सोचने लगा, यह अचानक निमंत्रण कैसा? किससे?
साथ में सियाराम था। मैंने उससे कहा, चलो, पेरिस चलें। पेरिस का मतलब उसने संगीत सभा समझ लिया। कोई बुरा तो नहीं समझा? उसने हाँ भर दी। मैं रेडियो स्टेशन की ओर तेज़ी से आप खाना बाना बुन रहा था।
चुनाव के बाद की थकान थी, कुछ अधूरे काम थे। सोचा था, कुछ दिनों घर पर ही रह कर उन कामों को पूरा कर लूँगा। पेरिस जाऊँ, तो फिर वही दौड़-धूप; फिर काम अधूरे के रह जाएँगे!
रेडियो-स्टेशन पर एक-दो मित्रों को वह तार दिखलाया, फिर उसे जेब में रख दिया, सो तीन दिनों तक वह वहीं पड़ा रहा। मेरा मन असमंजस में था। किंतु धीरे-धीरे मित्रों को इसकी ख़बर होती जाती थी और उन सबका आग्रह कि ज़रूर जाओ। अंततः प्यारे गंगा ने सारे तर्क-वितर्क को शांत कर दिया—नहीं, तुम्हें जाना ही चाहिए। ये काम दो महीने बाद भी हो जाएँगे और यूरोप की आबोहवा में थकान भी भूल जाएगी! ...और प्रोफ़ेसर कपिल ने अपने ही हाथों से स्वीकृति का तार भाई मसानी के पास भेज दिया। तार के प्रेक्षक वही थे, दूसरे दिन, दिन की रोशनी में स्पष्ट हो गया था।
उधर मसानी के तार पर तार आने लगे, इधर बेमन की तैयारियाँ भी होने लगीं। किंतु बीच में एक ऐसा भी अवसर आया कि मैंने तय किया, अब जाना रोक ही देना है। किंतु फिर मित्रों ने कहा, जाइए ही, यहाँ हम सब सम्हाल लेंगे। किंतु इन झंझटों का यह असर कि जा रहा हूँ, पर मेरे पास मेडिकल सर्टिफिकेट भी अधूरे ही हैं। कभी-कभी चिंता होती है, न जाने इसके चलते क्या हो? किंतु, चलते समय एयर इंडिया के मि० दस्तूर ने विश्वास दिलाया—है चिंता न कीजिए सब ठीक रहेगा!
हाँ, इस बार एयर इंडिया इंटरनेशनल के प्लेन पर जा रहा हूँ—अपने देश के प्लेन पर! पिछली बार बी० ओ० ए० सी० के प्लेन पर गया था। प्लेन का रंगरूप तो एक ही है, किंतु निस्संदेह ही इसके भीतर भारतीय वातावरण लगता है!
यह हमारे सामने के थैले में जो पंखा है, उसपर एक नृत्यशील भारतीय लड़की का चित्र है। भारतीय कला इससे छलकी पड़ती है। जो बैग हमें छोटे सामानों को रखने के लिए मिला है, उसपर एक भारतीय पग्गड़धारी चपरासी का चित्र है, जो हमें सलाम करता-सा दीखता है। जो होस्टेस अभी रूई और पिपरममिंट की पुड़िया दे गई है, वह एक पारसी लड़की है।
प्लेन में अधिकांश यात्री भारतीय हैं। कैसा संयोग, इसी प्लेन से पेरिस के भारतीय राजदूत मि० मल्लिक भी जा रहे हैं—दाढ़ी और पगड़ी वाले बूढ़े सज्जन!
यह कल्पना करके बार-बार पुलक होती है कि हम एक भारतीय हवाई जहाज़ से सफ़र कर रहे हैं। किंतु, सोचता हूँ, हमलोग अपने देश में अपने हवाई जहाज़ बनाना कब तक शुरू करेंगे? वह भी होकर रहेगा, शीघ्र ही होना चाहिए।
उड़ा जा रहा हूँ, किंतु अजीव सूना-सूना लग रहा है, यद्यपि पिछली बार की अपेक्षा इस बार की यात्रा निस्संदेह ही महत्वपूर्ण है। इस कांग्रेस की ओर से इस साहित्य-समारोह के अतिरिक्त बीसवीं सदी की सर्वोत्तम कलाकृतियों का प्रदर्शन भी होने जा रहा है। एक साथ, एक ही जगह, यूरोप के संगीत, नृत्य, कला, साहित्य सबकी बानगी देखने-सुनने का सुअवसर प्राप्त होगा!
इस बार के साथी भी अच्छे मिले हैं। मित्रवर मसानी के पिता सर रुस्तम भसानी हमारे दल के नेता है। सर रुस्तम बंबई के प्रसिद्ध शिक्षा-प्रेमी ही नहीं हैं, एक उच्च कोटि के लेखक भी हैं। बंबई विश्वविद्यालय के वह वाइस चांसलर रह चुके है और उनकी लिखी दादा भाई नौरोजी की जीवनी उत्कृष्ट कोटि की जीवनी मानी जाती है। उनकी कुछ रचनाओं का अनुवाद फ़्रेंच में भी हो चुका है!
अभी आए थे, मेरी बग़ल में बैठे और बड़े प्रेम से बातें की, जैसे कोई पिता अपने बच्चे की मिजाज़पुरशी कर रहा हो।
पी० वाई० देशपांडे मेरे पुराने परिचितों में से हैं। जब सोशलिस्ट पार्टी का जन्म हुआ, वह भी शामिल थे। मराठी के सुप्रसिद्ध लेखक : 'नागपुर टाइम्स' के संचालकों में। वह भी आकर इस बार की यूरोप-यात्रा के खाके के बारे में बातें कर गए हैं। वह पहली ही बार यूरोप जा रहे हैं।
चौथे-पाँचवें सज्जन हैं, फिलिप स्मैट और का० ना० सुब्रह्मण्यम्। फिलिप स्मैट—सुप्रसिद्ध 'मेरठ षडयंत्र' के अभियुक्त। अँग्रेज़ हैं, किंतु अब भारत को ही घर बना लिया है। एक भारतीय महिला से शादी की है। मैसूर से 'मिस इंडिया' नामक पत्रिका निकालते हैं। शांत चेहरा मौन स्वभाव! सुब्रह्मण्यम् मद्रासी हैं, तेलगु के नामी लेखक! घड़ल्ले से बोले जा रहे हैं।
और, मेरे सामने हैं, मेरे दो आत्मीय—शिवाजी और उनकी पत्नी शीला। जब मुझे निमंत्रण मिला, शिवाजी ने भी साथ देने की इच्छा प्रकट की। मैंने मसानी को लिखा और वह भी प्रतिनिधि की हैसियत से जा रहे हैं। उनकी पत्नी शीला ने उनका साथ देकर बिल्कुल घरेलू वातावरण बना दिया है!
प्लेन उड़ा जा रहा है। हम संध्या को चले हैं, नीचे समुद्र लहरा रहा है; ऊपर हम आगे बढ़े जा रहे हैं—अपनी मातृभूमि से दूर! कितनी दूर?—अभी कप्तान का सूचना पत्रक नहीं मिला है।
बम्बई में दो दिन रहा, वहाँ के मित्रों के चेहरे और स्वागत सत्कार के दृश्य आँखों के सामने घूम रहे हैं।
बम्बई स्टेशन पर उतरकर जब बाहर हो रहा था, इस काँग्रेस की भारतीय शाखा के श्री बरखेदकर मिले। उन्होंने मेरी कोटवाली तस्वीर देखी थी, अतः हिचकिचा रहे थे, किंतु मेरे मोटे चश्मे ने उनकी झिझक दूर की। उन्होंने मसानी का सलाम कहा, किंतु मैं तो पहले से ही तय कर चुका था, मैं पृथ्वीराजजी के साथ ठहरूँगा। अतः सीधे भाटूँगा!
पृथ्वीराज जी, उनकी धर्मपत्नी रमाजी, बेटे शमी और शशि और बेटी उसी के स्नेह से अब भी अभिभूत हो रहा हूँ। शमी ने अपने स्वाभाविक नाटकीय ढंग से कहा था—चाचाजी, वहाँ एक चपरासी भी लेते चलिए!
जब मसानी से उनके दफ़्तर में मिला, हिंदी में ही बातें शुरु हुई! हमलोग सदा हिंदी में ही बातें करते आए हैं, तब भी, जब वह मुश्किल से हिंदी में बोल सकते थे।
हमारी विदाई के लिए जो समारोह हुआ था, उसमें अशोक और पुरुषोत्तम आए थे। पुरुषोत्तम ने उलहूना दिया—मेरे यहाँ नहीं ठहरे! और अशोक के सिर पर पूरी बम्बई पार्टी कीहमारी बिदाई के लिए जो समारोह हुआ था, उसमें अशोक और पुरुषोत्तम आए थे। पुरुषोत्तम ने उलहना दिया—मेरे यहाँ नहीं ठहरे! और अशोक के सिर पर पूरी बम्बई पार्टी की ज़िम्मेवारी; तो भी, मेरे ही कारण वहाँ आए थे, ऐसा उन्होंने स्नेह से कहा!
देवेंद्र मेरे साथ गया था, पीछे वीरेंद्र भी गए थे। शीला को पहुँचाने बालाजी आए थे। शिशिर आजकल बम्बई में ही हैं, कल से ही साथ में लगे हैं। देवघर का इंद्रनारायण सम्मेलन में काम करता था; अख़बारों में आज भोर को मेरे; जाने की सूचना पढ़ी थी। वह अपने साथ एक सज्जन को लेते आया था। उसी सज्जन, श्री मुकुन्द गोस्वामी के मगही पान के बीड़े चाभता उड़ा जा रहा हूँ।
किंतु, यह पान कब तक चलेगा, कहाँ तक चलेगा? ज़्यादा से ज़्यादा काहिरा तक तो क्यों नहीं सिगरेट शुरु कर दूँ। पिछले छः सात महीनों से सिगरेट छोड़ रखा था, और पान पर ही काटे जा रहा था। किंतु यूरोप में पान कहाँ? अतः बम्बई में ही दो दिन सिगरेट के ख़रीद लिए।
किंतु, यह क्या? सिगरेट जलाता हूँ, तो मुँह में अजीब स्वाद लगता है! कुछ मज़ा नहीं आ रहा है। लेकिन, आएगा, आएगा! पुरानी चीज़ भी नया अभ्यास खोजती है न?
अंधकार फैल रहा है। प्लेन की बत्तियाँ जल रही हैं। उधर होस्टेस खाने के लिए हर सीट के सामने सँकरा टेबुल सजा रही है। चलो बेनीपुरी, हाथ-मुँह धोओ, खाओ-पीओ और सोओ। बहुत थके हों! पेरिस घूँघट उठाए तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही होगी; फिर वहाँ विश्राम कहाँ? हाँ, शांति और क्लान्ति भी नहीं होगी वहाँ; किंतु उस रास-हास के लिए भी तो शक्ति-संचय आवश्यक है!
(स्रोत : पुस्तक : उड़ते चलो उड़ते चलो)