उदयभानु हंस : मानव से कहीं देव न बन जाऊँ मैं (निबंध) : पूरन मुद्गल

पहली भेंट में कुछ लोग इतने आत्मीय हो जाते हैं कि लगता है आप उन्हें वर्षों से जानते हैं। यदि यह गुण किसी विशिष्ट व्यक्ति में हो तो उसे मिसाल के रूप में याद किया जाता है। उदयभानु हंस एक ऐसी ही मिसाल हैं। एक शादी में हिसार से भिवानी जाते हुए बस की सीट पर हम साथ-साथ बैठे। उन दिनों हंस द्वारा गुरू गोबिन्द सिंह के जीवन पर रचित महाकाव्य 'संत सिपाही' की चर्चा थी। उसी का ज़िक्र हुआ तो उन्होंने कहा- " कविता के विषय में अब तक हम सिर्फ पढ़ते-सुनते ही आए थे कि 'कविता की नहीं जाती, हो जाती है।' किंतु 'संत सिपाही' लिखते समय मुझे इसकी सच्चाई का अनुभव हुआ। कालिज के स्टाफ रूम में खाली पीरियड में गुरू गोविंद सिंह रचित 'विचित्र नाटक' को पढ़ते-पढ़ते मैं भाव-विभोर हो उठा। अचानक एक पंक्ति अधरों पर उतरी 'नवम नानक का लगा था लोकप्रिय दरबार' और तुरंत उसके साथ आ जुड़ी दूसरी पंक्ति- 'हो रहा था 'पंथ' पर गंभीर सोच विचार ।' जैसे किसी पर्वत की शिला को फोड़कर अचानक कोई झरना प्रवाहित हो जाए। बार-बार ये पंक्तियाँ मन में गूंजती रहीं। कई दिनों से मैं महात्मा गाँधी पर काव्य रचना का मन बना रहा था लेकिन उक्त पंक्तियाँ इस ढंग से नाज़िल हुईं कि उस प्रबल वेग में गाँधी का स्थान गुरू गोबिंद सिंह ने ले लिया ।"

डेढ़-दो घंटे की उस यात्रा में हंस ने अपनी रचना प्रक्रिया तथा अन्य विषयों पर खुलकर बातें कीं। 30 साल पूर्व यह उनसे पहला परिचय था जो कालांतर में अंतरंग होता गया। अब हिसार जाने पर उनसे मिलना पहली प्राथमिकता हो गया। कभी मिलना न हो सका और फोन पर दुआ सलाम होती तो अपना स्नेह उंडेलते हुए आग्रह करते - मिलने का यह मशीनी अंदाज ठीक नहीं, घर पर आओ। घर जाने पर खाने खिलाने की रस्म धार्मिक अनुष्ठान की तरह पूरा करते। शहर की एक खास दुकान से पसंदीदा मिठाईयाँ - नमकीन मंगवाते । गर्मी हुई तो एक खास पेय बनवाते । बाहर किसी मित्र के घर पसंद आने पर वहीं से उस पेय की कई बोतलें अपने साथ ले आते थे। चायपान वे ऐवरेस्ट विजेता तेनजिंग के अंदाज़ से करते हैं यानी कप से प्लेट में डालते हुए पीना स्वयं को भोगी और योगी कहते हुए हंस परत दर परत अपने को खोलते रहते हैं जिसका उल्लेख इस लेख के अंत में उनकी आत्मकथा का जिक्र करने पर कतिपय विस्तार से किया गया है जहां हंस अपने निजी जीवन के आंतरिक क्षणों का काव्यात्मक वर्णन करते हुए भरसक पारदर्शी हो गए हैं।

उदयभानु हंस का नाम हिंदी जगत विशेषतः देश के उत्तरी क्षेत्र में इतना लोकप्रिय है कि बात साहित्य अकादमी (वे हरियाणा साहित्य अकादमी तथा राष्ट्रीय साहित्य अकादमी दिल्ली के सदस्य रह चुके हैं) की हो या किसी कवि सम्मेलन की या फिर स्कूल-कालिज की पाठ्य पुस्तकों की, हंस के बिना 'सब सून' ।

हंस के नाम के साथ कई 'प्रथम' जुड़े हैं- वे हिंदी के पहले कवि हैं जिन्होंने उर्दू रुबाई पर हिंदी की चाशनी चढ़ा कर हिंदी साहित्य में रुबाई सम्राट का खिताब हासिल किया। 1967 में हरियाणा के प्रथम राज्यकवि के सम्मान से अलंकृत हुए और संभवतः देश के साहित्यकारों में इस दृष्टि से 'पहले' कि उनसे घड़ी भर की भेंट में उम्र की तीनों अवस्थाओं के सहज सुख का एक-साथ अहसास होता है : बचपन का भोलापन, यौवन का उत्साह, वार्धक्य की परिपक्वता । कविता की प्रेरणा उन्हें अपने पिता विश्वनाथ शर्मा से मिली जो कर्मकांडी ब्राह्मण तथा लोकप्रिय कथावाचक और जनकवि थे। उनकी प्रथम हिंदी पद्यरचना वर्ष 1941-42 की है। उन्हीं वर्षों में संस्कृत में गद्य-पद्य लेखन के फलस्वरूप पुरी के शंकराचार्य ने उन्हें 'कविभूषणम्' तथा 'साहित्यालंकारः' की मानद उपाधियां प्रदान कीं। उर्दू कविता के लिए वे अपने स्कूल शिक्षक फकीर नूर को मार्गदर्शक मानते हैं। सन् 1944 में फारसी लिपि में अपने हाथों लिखी उर्दू कविता 'मुझे मालूम न था' खुशखती की मिसाल तो है ही, कथ्य और शिल्प की दृष्टि से भी लाजवाब है तथा इसे हंस की कविता के वटवृक्ष के बीज के रूप में देखा जा सकता है। बतौर बानगी -

मेरा महबूब कहाँ था मुझे मालूम न था,
छान मारा ये जहाँ था मुझे मालूम न था।
सूरत-ए-आहू फिरा दश्त-ओ दमन में गरदाँ,
नाक में नाफा निहाँ था मुझे मालूम न था ।
आई जब होश तो ऐ 'हंस' मज़ा ये देखा,
जहाँ देखा वो वहाँ था मुझे मालूम न था ।

हंस की उम्र उस वक्त 18 साल थी। हंस के लेखन में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब सुविख्यात रुबाई लेखक अख्तर रिज़वानी की रुबाइयों से प्रभावित होकर उन्होंने रुबाई लिखना शुरू किया। देश विभाजन से पूर्व उनकी काव्य रचना में राष्ट्रीय एकता तथा सांप्रदायिक सद्भाव का स्वर प्रमुख रहा। 1946 में लिखी निम्न पंक्तियाँ कवि की हिंदू-मुस्लिम एकता में गहरी आस्था का सबूत हैं:

मुसलमां हिंदू की खातिर खुशी से कुर्बान हो,
और मुस्लिम के लिए हिंदू की हाजिर जान हो ।
दिल मिलें ऐसे कि नफरत का नहीं इमकान हो,
जो खुदा मुस्लिम का हो हिंदू का वो भगवान हो ।

हंस उर्दू रुबाई से इस कदर प्रभावित हुए कि उसी छन्द और शिल्प रचना में उन्होंने हिंदी रुबाई का विकास किया। उन्हें हिंदी में एक नई काव्यधारा के प्रवर्तन का यश मिला। कहा जा सकता है कि हंस अपनी रुबाइयों के कारण रातों रात अंग्रेजी कवि बायरन की तरह सुविख्यात हो गए। हंस के संपर्क में आया कोई भी व्यक्ति क्या उनकी यह रुबाई भूल सकता है-

मैं साधु से आलाप भी कर लेता हूँ,
मंदिर में कभी जाप भी कर लेता हूँ।
मानव से कहीं देव न बन जाऊँ मैं,
यह सोच के कुछ पाप भी कर लेता हूँ ।

उनकी निम्न रुबाई लोकसभा में 'कोट' की गई तो सारे देश में इसका प्रचार हुआ-

पंछी यह समझते हैं, चमन बदला है,
हंसते हैं सितारे कि गगन बदला है।
शमशान की खामोशी मगर कहती है,
है लाश वही, सिर्फ कफ़न बदला है।

रुबाई, मुक्तक और ग़ज़ल हिंदी में उर्दू के ज़रिये आए। उर्दू के छंद की नज़ाकत, चुस्त भाषा और बंदिश की कसावट हंस की रुबाइयों और मुक्तकों में स्पष्ट दिखाई देती है। किंतु उन्होंने इस बात का ध्यान रखा कि इन पर रंग भले ही उर्दू कविता का हो किंतु सुगंध हिंदी कविता की रहे। यही कारण है कि उनकी उर्दू छंद से प्रभावित कविता हुस्न-ओ-इश्क तक सीमित न हो कर देश भक्ति, राष्ट्रीय एकता, युवा शक्ति, जिजीविषा, व्यंग्य विनोद आदि का बहुआयामी चित्र है। आज हंस के पास सम्मान और पुरस्कारों की लंबी सूची है। हाल में उन्हें साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा जगन्नाथपुरी में आयोजित सर्वोच्च सम्मान 'साहित्य वाचस्पति' की मानद उपाधि से विभूषित किया गया।

उदयभानु हंस हिन्दी के उन विरले कवियों में हैं जो न केवल पाठकों-श्रोताओं में हरदिलअज़ीज़ रहे अपितु स्तरीय लेखन के कारण साहित्यकारों में भी समादृत हैं। डा. इन्द्रनाथ मदान ने कहा था “हंस सामान्य तथा विशिष्ट वर्ग ( Masses and classes) दोनों का प्रिय कवि है।"

हंस के लिए कविता एक साधना है, एक तपस्या है। एक अनगढ़ पत्थर में छिपी हुई सुन्दर मूर्ति की तलाश और उसे प्रकट करने की कला है। वे छन्द को कविता के लिए अनिवार्य समझते हैं। अपने एक वक्तव्य में उन्होंने कहा है कि 'कविता छन्दमुक्त हो ही नहीं सकती। हां, मुक्त छन्द की कविता सम्भव है । छन्द को परंपरागत सीमा में न बाँधकर उसकी मूल भावना को मैं अधिक महत्वपूर्ण मानता हूँ। मूल अर्थ में छंद एक लय के संगीतमय प्रवाह का नाम है, जो कविता का प्राण होता है। यही गुण कविता की असली पहचान बनता है, जो उसे गद्य से अलग करता है। संस्कृत में पद्य के साथ-साथ गद्य रचना को भी काव्य की संज्ञा दी गई है। फिर हंस को गद्यमय कविता अथवा छन्दमुक्त कविता से क्यों परहेज है? विशेषतया आज की स्थिति में, जब कि 90 प्रतिशत कविता छंदमुक्त लिखी जा रही है। वे अपनी धारणा के पक्ष में तर्क जुटाते हैं- छन्दमुक्त कविता को उर्दू में नसरी (गद्यात्मक) कविता कहते हैं। पाकिस्तानी कवि रियाज़ अनवर के अनुसार पाकिस्तान में 'नसरी शायरी' खत्म हो गई है। यूरोप में भी इस प्रकार की कविता ह्रासोन्मुख है। न जाने हिन्दी आज तक इससे क्यों चिपकी हुई है? चूंकि लय कविता के लिए जरूरी है, गद्य - कविता को लय के अभाव में कविता की संज्ञा देना उचित नहीं है। उसे 'अकविता' या फिर ऐसा ही कोई और नाम दिया जा सकता है।

'संस्कृत की गद्य रचनाओं में प्रायः लयात्मकता है। अतः ये कविता के निकट होने पर काव्य हैं। संस्कृत में साहित्य को 'काव्य' की संज्ञा देने का एक कारण यह है कि अधिकांश संस्कृत साहित्य पद्यमय है।'

हंस की कविता के दो मुख्य विषय हैं- शृंगार और राष्ट्रीयता । उनकी शृंगारिक कविता भावना प्रधान तथा अनुभूति-जन्य है तो राष्ट्रीय कविता में कर्त्तव्य की प्रधानता है। अनुभव और अनुभूति का अन्तर स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि अनुभव में रागात्मकता नहीं होती, जबकि अनुभूति में होती है। गीत रचना उनकी अभिव्यक्ति का मुख्य और प्रिय माध्यम रहा है। धड़कन, सरगम, शंख और शहनाई तथा अमृत कलश कविता संग्रहों में गीतों का स्वर प्रमुख है। गीत का उत्स वे दर्द को मानते हैं। एक टीस, एक आंसू, जो संगीतमय स्वर में फूट पड़ता है और इस प्रकार वे उस परंपरा के संवाहक हो जाते हैं, जो वाल्मीकि से शुरू होकर सूर, मीरा, पंत, महादेवी, ग़ालिब और मीर की करुणापूर्ण अनुभूति और विरहजनित पीड़ा से सराबोर है। उन्हीं के शब्दों में -

'कवि प्रेम की पीड़ा से विवश होकर जब
आंसू ही नहीं दिल का लहू देता है।
तब जाके ही संवेदना की गोदी में
सौन्दर्य भरा गीत जन्म लेता है।'

‘संत सिपाही' उनकी विशिष्ट काव्यकृति है। गुरू गोबिन्द सिंह के जीवन और मानवतावादी आदर्शों पर आधारित यह एक ऐतिहासिक महाकाव्य है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी रचनाकाल के समय से ही इसके अंश सुनते रहे थे। उनका मत था कि हिन्दी महाकाव्यों की सांध्यवेला में 'संत सिपाही' लिखकर उदयभानु हंस ने एक कमी को पूरा किया है। दस सर्गों में विभाजित इस महाकाव्य में गुरू गोबिन्द सिंह के बलिदानी जीवन की रोमांचकारी गाथा है। दशम गुरू के चरित्र में संत, सेनानी और कवि का अभूतपूर्व संगम, असांप्रदायिक दृष्टि, खालसा पंथ की व्याख्या, जीवन के शाश्वत मूल्यों में आस्था और विश्वबन्धुत्व की भावना इस काव्य कृति के विशेष सरोकार हैं। 'संत सिपाही' की रचना प्रक्रिया के विषय में हंस के अपने शब्द- “घर की बैठक में रखे तख्तपोश पर बैठकर लिखने की मुझे आदत है। प्रेरणा हेतु गुरु गोबिंद सिंह के चित्र से विभूषित एक कैलेंडर लाकर सामने टांग दिया।... आठ-दस दिन में पूरा सर्ग समाप्त हो जाता। अभिव्यक्ति को कवित्वमय तथा लाक्षणिक प्रयोगों से सजाने, संवारने तथा बार-बार संशोधनों द्वारा निखारने पर ध्यान मेरी सृजन प्रक्रिया के मूल तत्व हैं । गीत, कविता, रुबाई, ग़ज़ल, मुक्तकों की रचना में हृदय का भावप्रवण होना आवश्यक होते हुए भी अल्पकालीन होता है परन्तु महाकाव्य का रचनाकाल तो कई-कई महीनों अथवा वर्षों तक विस्तृत होने के कारण रचनाकार को सतत सृजनात्मक संवेदना तथा रागात्मक अनुभूति के सुदीर्घकालीन प्रवाह में डूबे रहना पड़ता है। उस सतत सृजनशीलता में शिथिलता आई नहीं कि वीणा के तार ढीले होने की स्थिति में अंतरसंगीत भी बेसुरा और अंततः मौन हो जाता है ।"

'संत सिपाही' के कारण उदयभानु हंस को देश व्यापी ख्याति प्राप्ति हुई । उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें 'निराला पुरस्कार' से सम्मानित किया ।

हंस की काव्य यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है हरियाणा । 'देसां में देस हरियाणा' तथा 'हरियाणा गौरवगाथा' में प्राचीन हरियाणा के गौरवशाली इतिहास तथा आधुनिक हरियाणा के विकास को चित्रित किया गया है। उनका विश्वास है कि 'हरियाणा गौरवगाथा' हिन्दी साहित्य का प्रथम 'वृत्त काव्य' है, जिसमें किसी एक प्रदेश के संपूर्ण इतिहास, लोक संस्कृति को छंदोबद्ध किया गया है। हरियाणा के शीर्षस्थ विद्वानों, लेखकों तथा संस्कृति कर्मियों ने 'हरियाणा गौरव गाथा' को एक मूल्यवान धरोहर के रूप में देखा है। आर्यावर्त, सारस्वत प्रदेश, महाभारतकाल, हर्षवर्द्धन, अन्धकारयुग, स्वतंत्रता संग्राम में योगदान, लोक संस्कृति, तीज-त्यौहार, साहित्य, समाज, राजनीति के स्वर्णिम हस्ताक्षरों के इंद्रधनुषी रंगों से कवि ने हरियाणा का बहुरंगी चित्र प्रस्तुत किया है।

हंस ने पद्य और गद्य में करीब 20 पुस्तकों की रचना की है। दिल्ली के एक प्रकाशक ने 1999 में उनके समग्र कृतित्व के 2500 पृष्ठों को 'उदयभानु हंस रचनावली' शीर्षकांतर्गत चार खंडों में प्रकाशित किया है- पहले दो खंडों में कविता तथा तीसरे चौथे खंड में गद्य ।

हंस की ख्याति एक कवि के रूप में है किंतु गद्य खंडों में प्रकाशित 'हंस उड़ा पश्चिम की ओर' ( विदेश यात्रा) तथा 'स्मृतियों के शिलालेख' (आत्मकथा) में हंस का गद्यलेखन इतना सशक्त है कि आश्चर्य नहीं उन्हें उक्त दो कृतियों की बदौलत पद्य-गद्य का अर्धनारीश्वर कहकर याद किया जाए। विष्णु प्रभाकर की ख्याति नाटक-कहानीकार के रूप में थी किंतु 'आवारा मसीहा' के जीवनीकार के बिना अब उनका आकलन अधूरा रहता है। बच्चन की आत्मकथा की उत्कृष्टता के मद्देनजर आलोचकों को बच्चन के कवि के साथ बच्चन के गद्यलेखक को भी बिठाना पड़ता है।

देखते हैं हंस के गद्य की किन खूबियों के कारण उपर्युक्त टिप्पणी सुसंगत जान पड़ती है। 'हंस उड़ा पश्चिम की ओर एक यात्रावृत्त है जिसकी रवानगी और सादगी पाठक को प्रभावित करती है। दरअसल लेखक की चारित्रिक विशेषताएं ही उसकी शैली में बिंबित होती हैं इसलिए महज इत्तिफाक नहीं कि लेखक का व्यक्तित्व जितना अनुभव सम्पन्न होगा उसकी कृति उसी अनुपात से भरी पूरी होगी। 1994 में इंगलैंड में आयोजित एक कवि सम्मेलन में भारत के चार कवियों को आमंत्रित किया गया था उर्दू के मजरूह सुल्तानपुरी और हसरत जयपुरी, हिंदी के नीरज और उदयभानु हंस हंस दो बार संयुक्त राज्य और एक बार अमरीका की यात्रा कर चुके हैं। आत्मकथा की तरह यात्रावृत्त भी हिंदी में कम लिखे गए हैं। जानकारी की बहुलता के अलावा यात्रावृत्त में कहानी की तरह पाठक के औत्सुक्य भाव को शांत करने की विशेषता होती है। यात्रावृत्त लेखक के पास ऐसे अनेक अवसर होते हैं जब वह पाठक को विचारोत्तेजित करता है, प्रसंगवश संवेदनशीलता के क्षणों को जीवंत करने की भी उसके पास पर्याप्त गुंजाइश होती है। विचारोत्तेजना और संवेदनशीलता के किन-किन पड़ावों से और कितनी आत्मीयता से पाठक गुजरता है, यात्रावृत्त की या फिर किसी भी विधा की सफलता की यही कसौटी है। सृजनात्मकता इस नजरिये से लिखे गए यात्रावृत्त का सहज प्रतिफल है, एक बाइप्रोडक्ट ।

मरुस्थल में नखलिस्तान की तरह हंस के संस्मरणों में ऐसे स्थल मौजूद हैं जहां पहुँचने पर यात्रा की थकान से राहत मिलती है।

विश्व का महान रचनाकार और इंगलैंड का सर्वोत्कृष्ट कवि-नाटककार शेक्सपीयर । हंस ने पहली फुर्सत में उस महाकवि को नमन करने का मन बनाया। शेक्सपीयर के स्मारक का वर्णन उन्हीं के शब्दों में: "विश्व विख्यात नाटककार शेक्सपीयर के जन्म स्थान स्ट्रैफर्ड (स्ट्रेटफोर्ड का स्थानीय उच्चारण) देखने गए। एवन नदी का यह तट विश्व के कोने-कोने से आए हजारों पर्यटकों का आकर्षण केन्द्र है और महान साहित्य तीर्थ।... 500 वर्ष पुराने उस भवन में शेक्सपीयर के जीवन एवं रचनाओं संबंधी प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध है। एक कक्ष में नाटकों की पांडुलिपियां, उनके प्रथम संस्करण, व्यक्तिगत पत्र तथा रूसी और भारतीय भाषाओं में उनके अनुवाद भी मैंने देखे।... एवन नदी के तट पर उस महान लेखक की स्मृति में निर्मित 'रायल शेक्सपीयर थियेटर' का भव्य भवन है जिसमें रंगमंच की नवीनतम सुविधाएं सुलभ हैं ... राष्ट्रीय स्मारक के रूप में सुरक्षित और सुव्यवस्थित शेक्सपीयर के जन्म स्थान को देखकर मन ही मन प्रशंसा करता हुआ जब मैं लौटने लगा तो मेरी आँखों में मुंशी प्रेमचन्द तथा निराला जैसी अमर साहित्य विभूतियों के प्रति भारतीय समाज एवं शासन की घोर उपेक्षा कांटे की तरह खटक रही थी।" अन्तिम पंक्तियों की कचोट से लेखक ही नहीं पाठक का कंठ भी रूद्ध होता है और वह सोचने पर मजबूर हो जाता है।

कहते हैं अमरीका में बाहर - बाहर सब कुछ सुन्दर है, भीतर यानी लोगों का अंतर्जगत इस सुघड़ सौंदर्य से खाली है। खुली चौड़ी सड़कें, कारों के काफिले बाग-बगीचे-पार्क, गगनचुम्बी इमारतें हर सुविधा से सज्जित एवं मनोरंजन साधनों से भरपूर । लेकिन वहां का आदमी है कि तनाव और चिंता से घिरा हुआ : संदेहों के रिश्ते और रिश्तों के संदेह से त्रस्त । बाहर से लंदन के मोम संग्राहालय की मूर्ति सा तराशा हुआ, भीतर से कागभगोड़े की तरह खोखला और असहाय । ऐसा व्यक्ति हफ्ते में पांच दिन हांफता - जूझता, घड़ी की सुई से संचालित भागता - दौड़ता यदि शुक्रवार को "टी0जी0आई0एफ0” (हंस के अमरीका- प्रवास के संस्मरण से उद्धृत) कहता है यानी "थैंक गॉड इट इज फ्राईडे" (शुक्र है खुदा का आज शुक्रवार है) तो हम उसकी छटपटाहट के तंग गलियारों के हमसफर हो जाते हैं। दो- अढ़ाई दिन की सप्ताहान्त छुट्टियों में वह भूल जाना चाहता है जिंदगी की मशीनी जकड़न को जिसमें उसका स्नायुतंत्र टूटने की हदों को छूने लगता है ।

रिलैक्स होने की उस तड़प का अहसास हमें अपने देश के उन लोगों को देखकर भी होता है जो महानगरों से निकलकर गांवों को लौटना चाहते हैं जहां वे "सुख की सांस” ले सकें। तब लगता है एक ही धरातल पर खड़ा है विश्व का आम आदमी। भले ही वह लास एंजल्स में हो अथवा मुंबई में उस अमरीकी नागरिक का सहानुभूतिपूर्ण वर्णन हंस को भी विश्व नागरिक बना देता है। बचपन में पढ़ी “हितोपदेश” की पंक्ति "वसुधैव कुटुम्बकम्" की अनुगूंज उसे अपने भीतर बार-बार सुनाई पड़ती है।

अपने जन्म स्थान दायरा दीनपनाह (अब पाकिस्तान में) का नाम किसी पुराने नक्शे में देखकर हंस रोमांचित हो उठता है, इस विशाल धरती पर फैले नानाविध सुख दुःख उसे भाव विभोर करते हैं। ऐसे ही भावोद्रेक के क्षणों में हंस ने कहा होगा-

जन्म लेती नहीं आकाश से कविता मेरी,
फूट पड़ती है स्वयं धरती से कोंपल की तरह ।

उनके यात्रावृत्त भी धरती की उपज हैं, फिर धरती देस की हो या विदेस की । हंस रचनावली के अंतिम भाग में 'स्मृतियों के शिलालेख' दर्ज हैं जिन्हें हंस ने आत्मकथात्मक संस्मरण कहा है। सात दशक लंबे जीवन को लेखक ने जिस प्रामाणिकता और मौलिकता से बयान किया है उससे उनके गद्य लेखन की परिपक्वता प्रमाणित होती है तथा संस्कृत आचार्यों की उस उक्ति पर हंस खरे उतरे हैं जिसके अनुसार किसी कवि की कसौटी उसका गद्य होता है।

आत्मकथा लेखन एक चुनौती भरा कार्य है विशेषतः एक लेखक के लिए जो सच्चाई और ईमानदारी का अलमबरदार होता है। जीवन की किस सच्चाई को प्रकट किया जाए और किसे छिपाया जाए और लेखकीय ईमानदारी की डोर भी हाथ से न छूटे, एक खिंचे-तने रस्से पर चलाने के समान है। हंस ने एक चतुर नट की भांति अपना संतुलन बनाए रखा है। कहा जा चुका है कि हंस विशिष्ट और सामान्य दोनों वर्गों का चहेता कवि है। यह बात हंस के जीवन पर भी इस रूप में लागू होती है कि उसने विशिष्ट और सामान्य दोनों प्रकार का जीवन जिया है। एक बहुत साधारण घर-परिवार में रहते हुए भी असाधारण प्रतिभा के बलबूते शिक्षा एवं साहित्य के क्षेत्र में लंबे डग भरे, देश-विदेश की यात्राएँ कीं। उसकी जिंदगी में खास-ओ-आम की धूप-छाँव है।

हंस का जीवन दर्शन द्विविध आदर्शों से संचालित रहा- "काम के साथ राम, भोग के साथ योग, देह के साथ आत्मा, भौतिक सुख के साथ आध्यात्मिक आनंद, श्रेय के साथ प्रेय दोनों ही मुझे अभीष्ट रहे । मेरा मन वासना और उपासना, सुंदरी और संन्यासी दोनों में रमा। मैं चाहते हुए भी एक अनासक्त व्यक्ति का जीवन नहीं जी सका.... ।' लेकिन अगले सांस में यह कहना- "मैंने जीवन में बहुत कुछ सहा और कभी अधीर नहीं हुआ। फूल और कांटे दोनों का मैंने सहर्ष स्वागत किया।” विरोधाभासमूलक प्रतीत होता है। लेखक ने ऐसी अनेक घटनाओं का वर्णन किया है जिनमें उल्लास-क्षोभ, प्रेम-घृणा, गर्व-ग्लानि के भाव पूरी रागात्मकता से प्रकट हुए हैं। 19 वर्ष की छोटी आयु में शास्त्री की परीक्षा दी। 17 अगस्त 1945 को अखबार में परीक्षा परिणाम निकला- "मैंने पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर में प्रथम स्थान प्राप्त किया था, मैं इस अविश्वसनीय उपलब्धि पर खुशी से उछल पड़ा।” किंतु उसी रोज अखबार में यह खबर भी छपी थी कि जापान में एक विमान दुर्घटना में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु हो गई। इस आकस्मिक मृत्यु का समाचार पढ़कर मेरी आँखें सजल हो उठीं।” यह स्वाभाविक है, सहज मानवीय गुण है। जीवन के भावपूर्ण क्षणों से गहरा लगाव हंस के आत्मकथात्मक संस्मरणों की विशेषता है। प्रेमचंद की उक्ति है- ज्ञानी कहता है, होठों पर मुस्कान न आए, आँखों में आँसू न आए। मैं कहता हूँ अगर तुम हँस नहीं सकते और रो नहीं सकते तो तुम मनुष्य नहीं पत्थर हो । वह ज्ञान जो मानवता को पीस डाले ज्ञान नहीं कोल्हू है।

'स्मृतियों के शिलालेख' की शैली चित्रात्मक और आत्मीयतापूर्ण है। अनुभवों का चित्रण सजीव, छायाचित्र सा । लेखक के शब्दों में 'मैंने घटनाओं और अनुभूतियों को प्राथमिकता दी है। चिंतन और विवेचन को नहीं। मेरे विचार में विस्तृत एवं अनावश्यक विचारमंथन यात्रावृत्तांत हो या जीवनकथा उसके रसास्वादन में बाधक ही बनता है साधक नहीं।'

आत्मकथा का आरंभ 'मेरा गाँव' से होता है- लेखक का जन्म स्थान दायरा दीनपनाह वर्तमान पाकिस्तान के पंजाब में जिला मुज़फ्फरगढ़ की तहसील कोटअदू के निकट 'मुलतान - मियाँवाली लाइन पर दायरा दीनपनाह का एक छोटा रेलवे स्टेशन, चबूतरे पर खड़ा ऊँचा सिगनल जिसकी एक भुजा नीचे झुक कर रेलगाड़ी के आने का स्वागत करती है और गाड़ी के आ जाने पर तुरंत समानांतर हो जाती है जैसे ड्रिल करते हुए किसी स्कूली बालक की नन्ही भुजाएँ ।'

गाँव, उसके गली-मोहल्ले, घर-परिवार, स्कूल, गुरुकुल अपने अध्यापकों का आत्मीय वर्णन । पिछले दिनों हंस दायरा दीनपनाह के एक व्यक्ति से संपर्क बनाने में सफल हो गए जिसने उनके घर, स्कूल, गली बाजार के अनेक छायाचित्र भेजे। उन्हें देखकर हंस की आँखें भर आईं। उन्होंने वे सारे छाया चित्र अमूल्य धरोहर की तरह सहेजकर रखे हैं।

देश विभाजन की त्रासदी से पीड़ित लाखों लोगों में हंस-परिवार भी शामिल था । हजारों लाखों शरणार्थियों के बोझ को संभालती देश की राजधानी दिल्ली में हंस को एक-साथ पढ़ाई और आजीविका की तलाश से दो-चार होना पड़ा। वह तीन आने में भरपेट भोजन करने और फुटपाथ पर सोने के लिए मजबूर था- 'उन दिनों पुरानी दिल्ली के रेलवे स्टेशन के बाहर खुली सड़क पर यात्रियों को रोटी-सब्जी बेचने वाले बड़ी संख्या में बैठा करते थे। उनके पास लकड़ी का खोखा तक नहीं होता था । मैं भी उनके सामने धरती पर उकहूँ बैठकर अन्य यात्रियों के साथ तीन आने में रोटी और आलू की सब्जी लेकर पेट भर लेता।... रात होते ही मैं चांदनी चौंक के दोनों ओर फुटपाथ पर बिछे तख्तपोशों पर धावा बोलकर वहां सोने लगा। मेरी तरह वहाँ कितने ही शरणार्थी और मजदूर आश्रय लेते थे। रात होते ही अपने-अपने तख्तपोशों पर कब्जा जमाने की होड़ सी लग जाती।'

दिल्ली में रहते हुए प्रभाकर कक्षाओं को पढ़ाने एवं परीक्षोपयोगी गाइड लिखने में ख्याति अर्जित की। उन्हीं दिनों हिन्दी में रुबाइयां लिखना तथा उर्दू-हिंदी मुशायरों में शामिल होना शुरू किया। दिल्ली यूनिवर्सिटी से हिंदी में एम. ए. करके 1954 में गवर्नमैंट कालिज हिसार में प्राध्यापक नियुक्त हुए। फिर तो वे हिसार के ही होकर रह गए । गत आधी सदी में हंस और हिसार का साहित्यिक-सांस्कृतिक इतिहास एक-दूसरे का पर्याय रहे हैं। हिसार में शिक्षित हुआ कौन ऐसा विद्यार्थी होगा जिसे हंस की एक-दो रुबाइयाँ याद न हों। हिसार का मरुस्थली नीरस जीवन हंस की काव्य सलिला से सिंचित होकर सरस हो गया।

मुलतान में फिल्मों के प्रति ऐसा "अंधा शौक था कि रात का अंतिम शो देखने के लिए हम चुपके से कालिज की चारदीवारी फाँद कर निकट के दो सिनेमाघरों में ही नहीं, अपितु दूरस्थ राधू टाकीज तक चले जाते थे।" यह शौक दिल्ली में और भी बढ़ा। उस जमाने की 'किस्मत', 'रतन', 'अनमोल घड़ी' आदि फिल्मों के नायक-नायिका, संगीतकार, अनेक गीतों की पंक्तियाँ उन्हें आज भी याद हैं। करीब 60 वर्ष पुरानी उक्त फिल्मों के वीडियो कैसेट उन्हें दिल्ली में कहीं भी उपलब्ध नहीं तो अपने लंदन प्रवास में एक दूकान से उन्हें 'रतन' और 'अनमोल घड़ी' के कैसेट मिलने पर मानो खोया खजाना मिल गया।

हिसार में रहते हुए उन्होंने हिंदी कविता एवं गद्य साहित्य को समृद्ध किया । इन्हीं उपलब्धियों की बदौलत उन्हें 1967 में हरियाणा के राज्यकवि का सम्मान एवं अलंकरण प्राप्त हुआ। हरियाणा प्रादेशिक हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना एवं समुन्नति में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

आत्मकथा का सर्वाधिक संवेदनशील अंश उनके प्रेम प्रसंगों से संबंधित है। उन्होंने अपने दो प्रणय प्रसंगों का काव्यात्मक वर्णन किया है, "मेरा प्रथम प्रेम नितांत मानसिक, आत्मिक तल पर विशुद्ध, सात्विक, स्वच्छ, अशरीरी और वायवी रहा। दो किशोर हृदयों का गंगा-यमुनी संगम।" इस प्यार को हंस ने पहली दृष्टि में प्यार की अनुभूति कहा जिसमें फिल्मी कहानी का सादृश्य है। कहानी के नायक और नायिका किशोर अवस्था में एक-दूसरे से मिले। किशोरी हंस के पड़ोस में उनके घर के पिछवाड़े रहती थी। वह अचानक एक दिन अपनी बड़ी बहिन को साथ लेकर आई। प्रभाकर की परीक्षा की तैयारी के लिए वह हंस से पढ़ना चाहती थी। हंस ने देखा कि वह खिड़की से सिर झुकाकर अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से भीतर झाँक रही थी। उसके लंबे - घुंघराले केश नीचे लटक गए और मानों काली घटाओं में उसका चाँद सा चेहरा चमक उठा। उसकी यह प्रथम छवि हंस के मन पर अमिट छाप छोड़ गई। हंस ने उसे पढ़ाना शुरू कर दिया। ऊपर माड़ी (चोबारे) में दोनों इकट्ठे बैठते । पढ़ाई धीरे-धीरे कम होती गई और प्यार - मनुहार की बातें अधिक । बिछुड़ने पर दोनों अपने दुमंजिले मकान की छत पर आँखों ही आँखों में दिन में कई बार चुपचाप बातें करते। रामलीला के दिन आए। हंस के घर के सामने खुले मैदान में रामलीला का आयोजन होता था। वे दोनों छत पर साथ-साथ बैठकर रामलीला के दृश्यों में 'रासलीला' का आनंद लेते।

दोनों विवाह के लिए तैयार हो रहे थे। माँ ने भी सहमति दे दी थी लेकिन पिता ने हंस का रिश्ता कहीं और तय कर दिया और इस तरह कहानी का अंत नायक-नायिका की इच्छा के अनुकूल नहीं हो सका। दोनों असहाय प्रेमी मन मसोस कर रह गए।

हंस ने इस स्थिति का वर्णन करते हुए अपनी आत्मकथा में लिखा कि 'मेरा दिन का चैन और रात की नींद हराम हो गई। मेरे हृदय की तड़प, टीस, कसक और विरहवेदना सहसा हिंदी-उर्दू के विरह गीतों के माध्यम से फूट पड़ी। हंस का दूसरा प्रणय युवावस्था का परिपक्व, प्रगाढ़ प्रबुद्ध, प्राकृतिक एवं पूर्ण था। उसमें गुलाब के फूलों का सौंदर्य एवं सुगंध थी। नंदनवन के पारिजात का पराग, सतरंगे इन्द्रधनुष के रंग, तितली के पंखों की फुलकारी, बसंत ऋतु की मादकता और पहाड़ी झरने का मधुर संगीत था । कविता का रस भरा था।"

भले ही “अब पुष्प में न तो वह पराग रहा, न मधुर मधु" किंतु मिलन की वही तड़प, वही व्याकुलता ज्यों की त्यों है। तो क्या इस 'आंतरिक अनुभूति को केवल शारीरिक' मान लेना उचित होगा। प्रेम की वह अद्भुत स्थिति अव्याख्येय है।

आत्मकथा में इन दो प्रसंगों का उल्लेख करके हंस ने भरसक पारदर्शी होने के संकेत दिए हैं। उनके लंबे जीवन में क्या ऐसे रागात्मक क्षण और भी आए ? वे खामोश हो जाते हैं। खामोशी से छन कर आए स्वर का भाव थाः कुछ बातें हज़म करने की होती हैं। लेकिन मेरे इस अनुमान का निराकरण हंस की आत्मकथा का साक्ष्य नकारता प्रतीत होता है - "दिल्ली प्रवास काल में असंख्य सुंदर किशोरियों, नवयुवती छात्राओं से हर समय घिरा देखकर मेरी उपमा 'गोपियों में कृष्ण' के साथ दी जाती थी।...यदि मेरे स्थान पर कोई भी विलासी प्रकृति का व्यक्ति होता तो भावुकता में अंधी कितनी ही सरल, सौम्य, अबोध प्रशंसिकाओं के साथ खिलवाड़ कर सकता था। मैनें कलियों और कुसुमों के रूप-सौंदर्य को तो सराहा, उनकी मादक सुगंध का भी अनुभव किया, किंतु रसास्वादन के लोभ में हरजाई भंवरा नहीं बना।"

लंदन के कवि सम्मेलन की एक घटना का बयान करते हुए हंस अत्यंत भावुक हो उठते हैं। सम्मेलन में दो उर्दू के कवि थे, दो हिंदी के। हंस की बारी आखिर में थी फिर भी श्रोताओं ने उन्हें भरपूर दाद दी। कार्यक्रम की समाप्ति पर एक पाकिस्तानी मुस्लिम बंधु ने उनकी कविता की तारीफ करते हुए 100 पाउंड उनकी जेब में डाल दिए और अगले दिन अपने घर चाय पर बुलाया। इस इज़्ज़त अफज़ाई पर हंस भाव विभोर हो गए- एक पाकिस्तानी नागरिक उर्दू शायरों की बजाए हिंदुस्तान के एक हिंदी कवि के प्रति अपना प्यार उंडेल रहा है।

हंस ने बेतकल्लुफ होकर अपनी कुछ भूलों और 'मूर्खताओं' का भी जिक्र किया है । मस्ती और बेपरवाही भरे उन किस्सों को सुनकर ही उनके कुछ दोस्त उन्हें 'असली कवि' कहते हैं। एक बार गुरूनानकदेव यूनिवर्सिटी अमृतसर ने 'संत सिपाही' महाकाव्य के लेखक के नाते हंस को निमंत्रित किया। हिसार से अमृतसर की 11 घंटे की लंबी यात्रा बस द्वारा पूरी की। वापसी पर प्रातः 7-00 बजे बस फाजिलका अड्डे पर रुकी तो यात्री चाय पीने उतर गए। चाय की इच्छा न होते हुए भी हंस नीचे उतर कर इधर-उधर घूमने लग गए। जब वापिस आए तो बस जा चुकी थी शायद उनके सामने से ही निकली थी। अटैची केस में कपड़ों के अलावा उनकी प्रारंभिक हिंदी कविताओं की एक कापी भी थी। उन्हें उस विशेष हानि का दुःख आज तक है।

वास्तव में ये आत्मकथात्मक संस्मरण अनुभवों के तलछट तक का रसपान है-

वस्तु की ऊष्मा तथा शिल्प का लालित्य अंतरतम को छू जाता है। सूचनात्मक सपाट बयानी हो अथवा घनिष्ठ अनुभूतियों की अलंकृत अभिव्यक्ति, हंस का गद्य पद्य की 'कांता' में रूपांतरित होता प्रतीत होता है। सूक्ष्म और वायवी सौंदर्य आकार ग्रहण करने लगता है। जैसे पूरा खिला फूल-रूप, गंध, स्पर्शसुख युक्त ।

हंस की विद्वत्ता तथा ऊर्जस्वी मस्तिष्क की सराहना के लिए भले ही आप 'संत सिपाही' का उल्लेख करें, हंस का जादू यदि सिर चढ़कर बोलता है तो वह है उसके हृदय की वाणी जो उसकी प्रेम मूलक रुबाइयों और आत्मकथा की पारदर्शिता में सर्दियों की खिली धूप सी फैली हुई है।

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