उड़न-तश्तरी (कहानी) : सुशांत सुप्रिय
Udan-Tashtari (Hindi Story) : Sushant Supriye
बात तब की है जब वह नौ साल का था और चाचा-चाची के यहाँ मंदिर मार्ग पर बने उनके सरकारी फ़्लैट में गर्मी की छुट्टियाँ बिताने आया था । चूँकि वह दोपहर में खूब सो लेता था , इसलिए रात का खाना खाने के बाद बारह-एक बजे तक आस-पास घूमने-टहलने की छूट उसने चाचा-चाची से ले रखी थी । एक रात वह घूमते-फिरते बिड़ला मंदिर के पीछे ' रिज ' के जंगल में जा निकला था । दरअसल वह बचपन से ही निडर था । भूत-प्रेतों के क़िस्से भी उसे नहीं डरा पाते थे । अकसर वह वीरान पगडंडियों पर अकेले ही घूमने निकल जाता था ।
उस रात भी यही हुआ था जब उसने पहली बार उस विशाल उड़न-तश्तरी को देखा था -- पूर्णिमा की रात में चमकती हुई , बिड़ला मंदिर से भी दस गुना ऊँची , विशाल और भव्य । हैरानी की बात यह थी कि उसके उड़ने से कोई शोर नहीं हो रहा था , बल्कि रात का सन्नाटा और गहरा हो गया था । झींगुरों ने भी अपना गीत गाना बंद कर दिया था , और पहली बार वह अपने दिल की धड़कनें गिन सकता था । आकाश जैसे तारों के बोझ से नीचे झुक आया था । समय जैसे ठिठक कर वहीं रुक गया था । पर कुछ देर हवा में टँगी रह कर वह उड़न-तश्तरी ग़ायब हो गई थी -- उसे मंत्रमुग्ध छोड़ कर ।
वह अगली रात फिर वहाँ आया , लेकिन उस रात उसे वह उड़न-तश्तरी नज़र नहीं आई । उसने भी हार नहीं मानी और वह उसकी खोज में हर रात वहाँ आने लगा -- ' रिज ' के जंगल में , साँप-बिच्छुओं और बंदरों की परवाह नहीं करता हुआ । वह जैसे एक आदिम आकर्षण से खिंच कर वहाँ चला आता , और आख़िर अगली पूर्णिमा की रात में वह उड़न-तश्तरी उसे फिर नज़र आई थी । वह उतनी ही विशाल और भव्य थी और उसके आने में एक शोरहीन तेज़ी थी । उस घनी रात में थोड़ी देर आकाश में मँडरा कर वह ग़ायब हो गई थी -- उसे रोमांच से सिहरता हुआ छोड़ कर ।
जब कई पूर्णिमा की रातों में उसने उस उड़न-तश्तरी को देखा , तब एक दिन उसने खाने की मेज़ पर चाचा-चाची को उसका रहस्य बताना चाहा । पर उन्होंने उसकी बात को मानने से इंकार कर दिया । बल्कि चाची को थोड़ी फ़िक्र भी हुई कि कहीं लड़के का दिमाग़ तो नहीं खिसक गया जो यूँ बहकी-बहकी बातें कर रहा है । चाचाजी ने भी पूछा, " क्या इन दिनों कॉमिक्स ज़्यादा पढ़ रहे हो ? " चाची ने तो यह भी कहा कि कि रात-बिरात जंगल-बियाबान में घूमने से सिर पर भूत-प्रेत और जिन्न-चुडैल चढ़ जाते हैं । इस पर चाचाजी हँस दिए और बात आई-गई हो गई । पर उसने उड़न-तश्तरी की खोज में 'रिज' के जंगल में जाना नहीं छोड़ा ।
अगली बार पूर्णिमा वाली रात वह कॉलोनी में कपड़े इस्त्री करने वाले के छह साल के बेटे रमुआ को भी अपने साथ ले गया । इस बार वह उड़न-तश्तरी उन दोनों को नज़र आई । वे दोनों चिल्ला कर हाथ हिलाते हुए उसकी ओर भागने लगे ।
रमुआ हैरानी से पूछने लगा कि आसमान में लटकी वह इत्ती बड़ी चमकीली , गोल चीज़ क्या है ? तभी , हवा में टँगे उस विशाल यान का दरवाज़ा अचानक खुला और उन दोनों के मुँह भी खुले-के-खुले रह गए । दरअसल यान के भीतर से कुछ अजीब से जीव उड़न-तश्तरी की बाल्कनीनुमा जगह पर आ खड़े हुए । हालाँकि उसके मुँह से 'बाप रे' निकल गया पर वह बिल्कुल नहीं डरा । उसने उनकी ओर हाथ हिलाया और जवाब में उन जीवों ने भी अपने शरीर का हाथनुमा अंग हिलाया । उसे लगा जैसे दुनिया रुक गई हो और अब कोई यह दृश्य नहीं बदलेगा । वह घास पर लेट कर बादलों को उड़ता देख रहे बच्चे-सा खुश हो गया । लेकिन उसी पल रमुआ डर कर थर-थर काँपने लगा । जब उसने रमुआ का हाथ पकड़ कर उसे दिलासा दिया तब जा कर वह कुछ ठीक हो पाया ।
चाँदनी रात में उसने पहली बार उन जीवों की ओर ध्यान से देखा और पाया कि वे सभी बिलकुल काले थे -- रात से भी ज़्यादा काले , इतने काले कि कालापन भी शर्मा जाए । उस पल उसे एक असीम ख़ुशी महसूस हुई , क्योंकि उसका अपना रंग भी काला था , हालाँकि उसके दूसरे भाई-बहन गोरे-चिट्टे थे । शायद इसीलिए उसे दादी उतना प्यार नहीं करती थी जितना उसके और भाई-बहनों को । इससे कभी-कभी उसमें हीनता की भावना आ जाती थी । पर उस रात उन काले जीवों को उड़न-तश्तरी उड़ाता देख कर वह बेहद खुश हुआ । उन जीवों में कोई भी गोरा नहीं था । वे जीव उसके लिए प्रेरणा-स्रोत बन गए । बड़े-बड़े काम करना केवल गोरे लोगों की बपौती नहीं है , यह बात उसे समझ में आ गई । उसी पल वह यह भी समझ गया कि केवल गोरा होने से कुछ नहीं होता । असली बात तो इंसान के भीतर की क्षमता में है । वह जान गया कि काले लोग भी प्रतिभाशाली होते हैं । तभी तो ये काले जीव उड़न-तश्तरी जैसी चीज़ बना और उड़ा पाए । यह सब सोच कर उसे हौसला मिला ।
पर उसी समय रमुआ न जाने क्यों डर कर रोने लगा । तब पल के सौवें हिस्से से भी कम समय में वह उड़न-तश्तरी ग़ायब हो गई और उसे अफ़सोस हुआ कि वह उस पल को कभी न बीतने वाला नहीं बना पाया । रमुआ रो रहा था और उन दोनों में उम्र में वह रमुआ से बड़ा था । इसलिए उसने रमुआ को चुप कराया और वे वापस लौट आए ।
अगले दिन हिम्मत करके उसने फिर चाचा-चाची को उड़न-तश्तरी की घटना विस्तार से बताई , पर उसकी बात सुन कर इस बार चाचा भी चिंतित हो उठे ।
उन्होंने ज़ोर दे कर कहा कि उसने ज़रूर कोई सपना देखा होगा । पर वह जानता था कि वह सब सपना क़तई नहीं था । उसने अपनी बात दोहराई और चाचा जी को बताया कि वह उड़न-तश्तरी केवल पूर्णिमा वाली रात में ही दिखाई देती है । हालाँकि इस बारे में वह कुछ नहीं बता पाया कि ऐसा क्यों था । यह सुन कर चाचा ने कहा कि उड़न-तश्तरी-वश्तरी कुछ नहीं होती , और उन्होंने ज़रूर कोई हेलिकॉप्टर या हवाई जहाज़ देख लिया होगा । लेकिन वह जानता था कि ऐसा नहीं था , कि वह उड़न-तश्तरी एक हक़ीक़त थी ।
अगली पूर्णिमा वाले दिन उसने चाचाजी से फिर बात की और उसकी ग़लतफ़हमी दूर करने के लिए रात में चाचाजी उसके साथ स्वयं चल दिए । लेकिन वह ग़लतफ़हमी नहीं थी बल्कि एक ठोस सच्चाई थी , क्योंकि अचानक वह उड़न-तश्तरी उसे फिर नज़र आई -- उतनी ही विशाल और भव्य । रोमांच से उसकी देह में फिर सिहरन होने लगी और उसे लगा जैसे धरती साँस रोक कर यह नज़ारा देख रही हो । उसने चाचाजी को उड़न-तश्तरी दिखानी चाही पर उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं दिया , हालाँकि रमुआ , जो इस बार भी उनके साथ था , उस उड़न-तश्तरी को साफ़-साफ़ देख पा रहा था । वह इस अजूबे पर हैरान हुआ कि जो चीज़ उन बच्चों को बिलकुल साफ़ दिखाई दे रही थी , वह उसके चाचा को क्यों नहीं दिख पा रही थी । पर उसी समय चाचाजी ने उसे डाँट कर कहा कि कहीं कोई उड़न-तश्तरी नहीं थी । वे सभी चुपचाप लौट आए थे , हालाँकि इस रहस्य का पता लगाने चाचा-चाची और रमुआ का बाप अगली पूर्णिमा की रात भी उन बच्चों के साथ दोबारा ' रिज ' के जंगल में गए । पर उस बार भी बड़े लोगों को वह उड़न-तश्तरी नहीं दिखी , जबकि बच्चों को वह साफ़ नज़र आ रही थी ।
जब वह बड़ा हुआ तो उसने खुद ही इस पहेली का हल निकाल लिया , जो यह था : बच्चे सच्चाई का प्रतीक होते हैं । वे निर्मल और निष्कलंक होते हैं । वे छल-प्रपंच से दूर होते हैं और मासूम होते हैं । उनकी दुनिया बेहद सहज और पारदर्शी होती है । दूसरी ओर बड़े लोग अक्सर पाखण्डी , अवसरवादी , झूठे और दग़ाबाज़ होते हैं । उनकी दुनिया बेहद कृत्रिम और मुखौटों से भरी होती है । वह इस नतीजे पर पहुँचा कि वह उड़न-तश्तरी केवल सच्चे और मासूम बच्चों को ही दिखाई देती थी । उसकी यह धारणा इस बात से भी पुष्ट हो गई कि पाँच-छह साल बाद जब वह दोबारा चाचा-चाची के पास आया और पूर्णिमा की रात में उसने दोबारा उस उड़न-तश्तरी को ढूँढ़ना चाहा तो उसे वह दोबारा दिखाई नहीं दी । वह समझ गया कि अब वह बड़ा हो चुका था और अपने बचपन की मासूमियत खो चुका था ।
कॉलेज में जब उसकी दोस्ती मुझ से हुई तो उसने यह बात मुझे भी बताई । लेकिन मैं उस पर हँसा नहीं और न ही मैंने उसका मज़ाक उड़ाया । मैंने उसकी आँखों में झाँक कर देखा । मुझे उसमें सच्चाई जैसा कुछ नज़र आया । इसलिए एक पूर्णिमा की रात मैं , मेरी दीदी और जीजाजी , उनका पाँच साल का बेटा और वह -- मेरा दोस्त , हम सभी बिड़ला मंदिर के पीछे वाले 'रिज' के जंगल में उसकी बताई जगह पर पहुँचे । उसकी धारणा तब सही निकली जब मेरी दीदी का बेटा उड़न-तश्तरी को देखकर ख़ुशी से किलकने लगा और अपने नन्हें-नन्हें हाथ उसकी ओर हिलाने लगा , जबकि हम बड़ों को वह उड़न-तश्तरी कहीं दिखाई नहीं दी । तब हम जान गए कि वह वहाँ है क्योंकि छोटे बच्चे झूठ नहीं बोलते और यह सच है ।
पर यदि आपके मन में इस बात को ले कर शंका हो और आप यह सोच रहे हों कि यह सब कोरी कल्पना है , मनगढ़ंत बातें हैं , तो मेरी बात पर बिलकुल यक़ीन मत कीजिए । आप अपने छोटे बच्चे को ले कर बिड़ला मंदिर के पीछे वाले 'रिज' के जंगल में पूर्णिमा की रात में जाइए । वहाँ आपका बच्चा आपको स्वयं बता देगा -- " पापा , वह देखो , कित्ता बड़ा उड़ने वाला गोला ! " तब आपको वाकई अफ़सोस होगा कि काश आप भी छोटे बच्चे होते और पूर्णिमा की रात में आप भी उस उड़न-तश्तरी को देख पाते -- बिड़ला मंदिर से भी दस गुना ऊँची , विशाल और भव्य , अपने भीतर एक समूची रहस्यमयी दुनिया समेटे हुए ।