Tumhari Jaat-Paant Ki Kshay (Hindi Lekh/Nibandh) : Rahul Sankrityayan
तुम्हारी जात-पाँत की क्षय (हिंदी निबंध) : राहुल सांकृत्यायन
हमारे देश को जिन बातों पर अभिमान है, उनमें जात-पाँत भी एक है। दूसरे मुल्कों में जात-पाँत का भेद समझा जाता है भाषा के भेद से, रंग के भेद से। हमारे यहाँ एक ही भाषा बोलने वाले, एक ही रंग के आदमियों की भिन्न-भिन्न जातें होती हैं। यह अनोखा जाति-भेद हिन्दुस्तान की सरहद के बाहर होते ही नहीं दिखलायी पड़ता। और इस हिन्दुस्तानी जाति-भेद का मतलब?—धर्म और आचार पर पूरा ज़ोर देने वाले, भिन्न जाति वालों के साथ खाना नहीं खा सकते, उनके हाथ का पानी तक नहीं पी सकते, शादी का सवाल तो बहुत दूर का है। मुसलमान और ईसाई तक भी इस छूत की बीमारी से नहीं बच सके हैं—कम-से-कम ब्याह-शादी में। अछूतों का सवाल, जो इसी जाति-भेद का सबसे उग्र रूप है, हमारे यहाँ सबसे भयंकर सवाल है। कितने लोग शरीर छू जाने से स्नान करना ज़रूरी समझते हैं। कितनी ही जगहों पर अछूतों को सड़कों से होकर जाने का अधिकार नहीं है। हिन्दुओं की धर्म-पुस्तकें इस अन्याय के आध्यात्मिक और दार्शनिक कारण पेश करती हैं। गांधीजी अछूतपन को हटाना चाहते हैं, लेकिन शास्त्र और वेद की दुहाई भी साथ ले चलना चाहते हैं। यह तो कीचड़-से-कीचड़ धोना है।
अछूतपन को समझना दूसरे मुल्क के लोगों के लिए कितना कठिन है, इसका मैं उदाहरण देता हूँ। 1922 में ब्रिटिश गवर्नमेण्ट ने जब अपना साम्प्रदायिक निर्णय दिया और गांधीजी ने उस पर आमरण अनशन शुरू किया, उस समय मैं लन्दन में था। बहुत दिनों के बाद यह सनसनीख़ेज़ ख़बर भारत के सम्बन्ध में इंग्लैण्ड के पत्रों में छपी। उन्होंने मोटी-मोटी सुर्ख़ियाँ देकर इसे छापा। जिन देशों में अस्पृश्यता नहीं है, वहाँ के लोग इस बारे में क्या जानें? लन्दन यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले एक चीनी छात्र हमारे पास आए और उन्होंने पूछा— “अस्पृश्यता क्या है?” मैंने कुछ समझाना चाहा। उन्होंने पूछा— “क्या कोई छूत की बीमारी होती है या कोढ़ की तरह का कोई कारण होता है जिससे कि लोग आदमी को छूना नहीं चाहते?” मैंने कहा कि आदमी स्वस्थ और तन्दुरुस्त हमारी ही तरह होते हैं, हाँ अधिकांश की आर्थिक दशा हीन ज़रूर होती है। मैं आध घण्टे से अधिक अस्पृश्यता के बारे में समझाने की कोशिश करता रहा, लेकिन देखा कि मेरे दोस्त के पल्ले कुछ पड़ नहीं रहा है। तब मैंने अमेरिका के नीग्रो लोगों का उदाहरण देकर समझाना शुरू किया। अब यद्यपि मैं थोड़ा-बहुत समझाने में सफल हुआ, लेकिन तब भी वह उनकी समझ में नहीं आया कि एक ही रंग और रूप के आदमियों में अस्पृश्यता कैसी?
पिछले हज़ार बरस के अपने राजनीतिक इतिहास को यदि हम लें तो मालूम होगा कि हिन्दुस्तानी लोग विदेशियों से जो पददलित हुए, उसका प्रधान कारण जाति-भेद था। जाति-भेद न केवल लोगों को टुकड़े-टुकड़े में बाँट देता है, बल्कि साथ ही यह सबके मन में ऊँच-नीच का भाव पैदा करता है। ब्राह्मण समझता है, हम बड़े हैं, राजपूत छोटे हैं। राजपूत समझता है, हम बड़े हैं, कहार छोटे हैं। कहार समझता है, हम बड़े हैं, चमार छोटे हैं। चमार समझता है, हम बड़े हैं, मेहतर छोटे हैं और मेहतर भी अपने मन को समझाने के लिए किसी को छोटा कह ही लेता है। हिन्दुस्तान में हज़ारों जातियाँ हैं। और सबमें यह भाव है। राजपूत होने से ही यह न समझिए कि सब बराबर है। उनके भीतर भी हज़ारों जातियाँ हैं। उन्होंने कुलीन कन्या से ब्याह कर अपनी जात ऊँची साबित करने के लिए आपस में बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी हैं और देश की सैनिक शक्ति का बहुत भारी अपव्यय किया है। आल्हा-ऊदल की लड़ाइयाँ इस विषय में मशहूर हैं।
इस जाति-भेद के कारण देश-रक्षा का भार सिर्फ़ एक जाति के ऊपर रख दिया गया था। जहाँ देश की स्वतन्त्रता के लिए सारे देश को क़ुर्बानी के लिए तैयार रहना चाहिए, वहाँ एक जाति के कन्धे पर सारी ज़िम्मेदारी दे देना बड़ी ख़तरनाक बात थी। राजपूत जाति ने, जहाँ तक सैनिक उत्साह का सम्बन्ध है, अपने को अयोग्य नहीं साबित किया, तो भी सिर्फ़ देश-रक्षा की बात नहीं रह गयी, वहाँ तो उसके साथ-साथ राजशक्ति का प्रलोभन भी उनमें बहुत बड़ा था और इसी के लिए आपस में वे बराबर लड़ने लगे। उनके सामने मुख्य बात थी ख़ास-ख़ास राजवंशों की रक्षा करना। राजवंशों के पारस्परिक वैमनस्य—जो कि राजशक्ति को हथियाने के कारण ही था—उन्होंने राष्ट्रीय सैनिक-शक्ति को अनेकों टुकड़ों में बाँट दिया और वे एक साथ होकर विदेशियों से न लड़ सकी। यदि जात-पाँत न होती तो और मुल्कों की तरह सारे हिन्दुस्तानी देश की स्वतन्त्रता के लिए लड़ते। जातीय एकता के कारण छोटे-छोटे मुल्क बहुत पीछे तक अपनी स्वतन्त्रता क़ायम रखने में समर्थ हुए। इतना भारी देश हिन्दुस्तान जबकि बारहवीं शताब्दी में ही परतन्त्र हो गया, लंका (सीलोन) का छोटा टापू जिसकी आबादी अब भी पचास लाख के क़रीब है—1814 तक परतन्त्र न हुआ था। बर्मा तो उससे साठ-बरस और पीछे तक आज़ाद रहा है। हिन्दुस्तान के पड़ोस के इतने छोटे-छोटे मुल्क इतने दिनों तक अपनी स्वतन्त्रता को क्यों क़ायम रख सके, और आज भी अफ़गानिस्तान जैसे देश क्यों आज़ाद हैं। इसलिए कि वहाँ जाति इतने टुकड़ों में विभक्त नहीं है। वहाँ ऊँच-नीच का भाव इतना नहीं फैला है और देश के सभी निवासी अपनी स्वतन्त्रता के लिए क्षत्रिय बनकर कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ सकते हैं।
हिन्दुस्तान के इतिहास में कई बार ऐसा समय आया जबकि देश की स्वतन्त्रता फिर लौटी आ रही थी। लेकिन हमारी पुरानी आदतों ने वैसा होने नहीं दिया। शेरशाह के वंश के राजमन्त्री बहादुर हेमचन्द्र ने एक बार चाहा क्या, दिल्ली के तख़्त पर बैठ भी गया, लेकिन राजपूतों ने बनिया कहकर उसका विरोध किया। दूरदर्शी सम्राट अकबर ने सारे भारत को एक जाति में लाने का स्वप्न देखा, लेकिन उसका वह स्वप्न, स्वप्न ही रह गया। और उसके बाद के हिन्दू-मुसलमानों ने कभी उस जातीय एकता के ख़याल को फूटी आँखों देखना पसन्द नहीं किया। अंग्रेज़ों के हाथ में जाने से पहले भारत में सबसे बड़ा साम्राज्य मराठों का था, लेकिन वह भी ब्राह्मण-अब्राह्मण के झगड़ों के कारण चूर-चूर हो गया। हमारे पराभव का सारा इतिहास बतलाता है कि हम इसी जाति-भेद के कारण इस अवस्था तक पहुँचे।
आधी शताब्दी से अधिक बीत गयी, जबसे कांग्रेस ने जातीय एकता क़ायम करने का बीड़ा उठाया। जो कुछ थोड़ी-बहुत एकता क़ायम करने में वह सफल हुई है, उसका फल भी हम देख रहे हैं और दो प्रान्तों को छोड़कर बाक़ी सभी प्रान्तों के शासन की बागडोर कांग्रेस के हाथ में है। (सिन्ध की सरकार भी कांग्रेस के प्रभाव को मानती है)। लेकिन कांग्रेस के नेताओं के मनोभाव को हम क्या देख रहे हैं? कांग्रेस के बड़े-बड़े हिन्दू जहाँ एक तरफ़ जातीय एकता के शोर से ज़मीन-आसमान एक करते रहते हैं, वहाँ दूसरी तरफ़ ‘भारतीय संस्कृति’ और हिन्दू-धर्म के प्रेम में किसी से एक इंच भी कम नहीं रहना चाहते। और इसी कारण वे अपने-अपने छोटे-से जातीय दायरे से ज़रा भी बाहर निकलने की हिम्मत नहीं रखते। कायस्थ कांग्रेस नेता कायस्थ जाति की एकता और उसके अगुवापन की परवाह बहुत ज़्यादा रखते हैं। जब उनका ब्याह-शादी या जन्म-मरण अपनी ही जाति के भीतर होने वाला है तो उनकी तो दुनिया ही कायस्थों के भीतर है। कायस्थ रिश्तेदार को—चाहे वह योग्य हो या अयोग्य, उसके और उसके परिवार के लिए कोई जीविका का प्रबन्ध करना तो ज़रूरी है—कोई नौकरी दिलानी ही होगी और ऐसे जाति भक्त के काम के लिए कोई भी अन्याय, अन्याय नहीं; पाप, पाप नहीं। भूमिहार कांग्रेस-नेता है। जब तक भूमिहार जाति से अलग उसका नाता-रिश्ता नहीं, तब तक वह कैसे भूमिहार से बाहर की दुनिया को अपनी दुनिया समझेगा? हमारे नेताओं में जातीयता के ये भाव कितने ज़बर्दस्त हैं, यह सभी जानते हैं। इस भाव के कारण हमारा सार्वजनिक जीवन बहुत गन्दा हो गया है और राष्ट्रीय शक्ति सबल नहीं होने पाती। राजनीतिक दल तो पहले से ही हैं, इसमें जातीय दलबन्दी अवस्था को और भी भयंकर बना देती है। यह जाति-भेद सिर्फ़ हिन्दुओं के ही राजनीतिक नेताओं में नहीं, बल्कि मुसलमान और दूसरे भी इससे बचे नहीं हैं। मुसलमानों के ऊँची-जाति के नेताओं के स्वार्थ और अदूरदर्शिता के कारण वहाँ भी मोमिन और ग़ैर-मोमिन का सवाल छिड़ गया है, यद्यपि मुस्लिम नवाबों और सेठ-साहूकारों की बराबर कोशिश हो रही है कि बाजा और गोकशी का सवाल रखकर निम्न श्रेणी के लोगों को उस प्रश्न से अलग रक्खा जाए। लेकिन निश्चय ही इसमें असफलता होगी। राष्ट्रीय नेता की दृष्टि बहुत व्यापक होनी चाहिए। उनका अध्ययन और अनुभव विस्तृत होता है; और इस प्रकार वह भविष्य पर दूर तक सोच सकता है। लेकिन, उसकी यह शोचनीय मनोवृत्ति है। बिहार प्रान्त के कांग्रेसी नेताओं और मिनिस्टरों के इस जात-पाँत के भाव ने बड़ा ही घृणित रूप धारण कर लिया है। मिनिस्टर अपनी जाति के मेम्बरों की ठोस जमात अपने पीछे रखकर उसी दृष्टि से काम करते हैं; और, अवस्था यहाँ तक पहुँच गयी है कि यदि दृष्टिकोण में परिवर्तन नहीं हुआ तो सार्वजनिक जीवन की गन्दगी पराकाष्ठा को पहुँच जाएगी।
ये सारी गन्दगियाँ उन्हीं लोगों की तरफ़ से फैलायी गयी हैं जो धनी हैं या धनी होना चाहते हैं। सबके पीछे ख़याल है धन को बटोरकर रख देने या उसकी रक्षा का। ग़रीबों और अपनी मेहनत की कमाई खाने वालों को ही सबसे ज़्यादा नुक़सान है, लेकिन सहस्राब्दियों से जात-पाँत के प्रति जनता के अन्दर ख़याल पैदा किए गए हैं, वे उन्हें अपनी वास्तविक स्थिति की ओर नज़र दौड़ाने नहीं देते। स्वार्थी नेता ख़ुद इसमें सबसे बड़े बाधक हैं।
संसार की रविश हमें बतला रही है कि हम अधिक दिनों तक इस जातीय भेदभाव को क़ायम नहीं रख सकते। दुनिया की चाल को देखकर अब हिन्दुस्तान के अछूत, अछूत रहने को तैयार नहीं हैं—अर्जल (निम्न जाति) अर्जल रहने को तैयार नहीं है। अछूत और अर्जल बनाये रखकर सिर्फ़ उनके साथ अपमानपूर्ण बर्ताव ही नहीं किया जाता, बल्कि आर्थिक स्वतन्त्रता से भी उन्हें वंचित किया जाता है। फिर वे कब समाज में सहस्राब्दियों से पहले निर्धारित किये स्थान पर रहना पसन्द करेंगे और आज़ादी के दीवाने तो इस प्रथा के विरुद्ध जेहाद बोल चुके हैं। वे इसके लिए सब तरह की क़ुर्बानियाँ करने को तैयार हैं। उनके लिए राजनीतिक युद्ध से यह सामाजिक युद्ध कम महत्त्व नहीं रखता। वे जानते हैं कि जब तक जातियों की खाइयाँ बन्द न की जाएँगी, तब तक जातीय एकता की ठोस नींव रक्खी नहीं जा सकती। वे जानते हैं कि इस बात में मज़हब उनका सबसे बड़ा बाधक है, लेकिन वे मज़हब की परवाह कब करने वाले हैं। वे जात-पाँत के साथ हिन्दू धर्म को एक ही डण्डे से मारकर समुद्र में डुबाएँगे।
देखने में जात-पाँत की इमारत मज़बूत मालूम होती है, लेकिन इससे यह न समझना चाहिए कि उसकी नींव पर करारी चोट नहीं लग रही है। जातीय भेद के दो रूप हैं—एक, रोटी में छूत-छात, दूसरे, बेटी में असहयोग। रोटी में छूत-छात की बात उन्हीं धनिकों ने सबसे पहले तोड़नी शुरू की, जो अपने स्वार्थ को अक्षुण्ण रखने के लिए जातीय संगठनों और जातीय एकताओं के सबसे बड़े पोषक थे। धन उनके पास था और विलायत जाने के लिए सबसे पहले वे ही तैयार हुए। जहाँ पहले विलायत जाने वाले जात से बहिष्कृत किये जाते थे, वहाँ आज वे ही जात के चौधरी हैं। दरभंगा बीकानेर को ही नहीं, दूसरी जातियों के अगुवों को भी देख लीजिए। सभी जगह विलायत में सब तरह के लोगों के साथ, सब तरह का खाना खाकर लौटे हुए लोग ही आज नेता के पद पर शोभित हैं। आई.सी.एस. दामाद पाने वाला ससुर अपने को निहाल समझता है।
पिछले बीस बरसों से रोटी की एकता बड़ी तेज़ी के साथ क़ायम हो रही है। 1921 से पहले हिन्दू होटल शायद ही कहीं दिखलायी पड़ते थे। लेकिन आज छोटे-छोटे शहरों में ही चार-चार, छै-छै दर्ज़न होटल नहीं हैं, बल्कि छोटे-छोटे स्टेशनों पर खुल गए हैं। कुछ साल पहले तक किसको पता था कि छपरा स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर हिन्दू खोमचा वाला गोश्त-पराठे बेचता फिरेगा। मेरे एक दोस्त एक दिन पटने में किसी होटल में भोजन करने गए। उनकी क्यारी की बग़ल में एक लड़का बैठा था और उसकी बग़ल में एक तिरहुतिये ब्राह्मण चन्दन-टीका लगाकर बैठे थे। क्यारी छोटी थी और लड़के का हाथ ब्राह्मण देवता के शरीर से छू गया। वह उस पर आग बबूला हो गए, डाँटकर जात पूछने लगे। हमारे साथी ने लड़के को चुपके से समझा दिया—कह दो रैदास भगत (चमार)। लड़के ने जब ऐसा कहा तो ब्राह्मण का कौर मुँह का मुँह में ही रह गया। वह अभी बोलने को कुछ सोच ही रहे थे कि आसपास के लोग उन पर बिगड़ उठे—यह होटल है, यहाँ दाल-भात की बिक्री होती है। तुमने जात-पाँत क्यों पूछी? ब्राह्मण देवता को लेने के देने पड़ गए। यदि खाना छोड़कर जाते हैं, तो यही नहीं कि पैसे दण्ड पड़ेंगे, बल्कि सब लोगों को खुलकर हँसी उड़ाने का मौक़ा मिलेगा। इसलिए बेचारे ने सिर नीचा करके चुपचाप भोजन कर लिया।
रोटी की छूत का सवाल हल-सा हो चुका है। शिक्षित तरुण इसमें हिन्दू-मुसलमान का भेद-भाव नहीं रखना चाहते। लेकिन बेटी का सवाल अब भी मुश्किल मालूम पड़ता है। एक दिन रेल में सफ़र करते मुझे एक मुसलमान नेता मिले। वह समाजवादियों के नाम से हद से ज़्यादा घबराए हुए थे। बोले, “समाजवादी, ख़ैर, लोगों की ग़रीबी दूर करना चाहते हैं, इस्लाम भी मसावात (समानता) का प्रचारक है, लेकिन वे मज़हब के ख़िलाफ़ क्यों हैं?”
मैं— “साम्यवादी मज़हब के ख़िलाफ़ अपनी शक्ति का तिल भर भी ख़र्च करना नहीं चाहते। वे तो चाहते हैं कि दुनिया में सामाजिक अन्याय और ग़रीबी न रहने पाए।”
मौलाना— “इसमें हम भी आपके साथ हैं।”
मैं— “आप भी साथ हैं? क्या आप सारे हिन्दुस्तानियों की रोटी-बेटी एक कराने के लिए तैयार हैं?”
मौलाना— “इसकी क्या ज़रूरत है?”
मैं— “क्योंकि ग़रीब तब तक आज़ादी हासिल नहीं कर सकते, तब तक अपनी कमाई स्वयं खाने का हक़ पा नहीं सकते, जब तक कि वे एक होकर अपने चूसने वालों—चाहे वे देशी हों या विदेशी—का मुक़ाबला करके उन्हें परास्त नहीं करते।”
मौलाना— “रोटी तक तो हम आपके साथ हैं, लेकिन बेटी में नहीं।”
पास ही एक पण्डित जी बैठे हुए थे जो बातचीत से वकील मालूम होते थे। वह झट बोल उठे— “आप लोग तो दूसरे मुल्कों के साँचे में हिन्दुस्तान को भी ढालना चाहते हैं। आप लोग यह सोचने की तकलीफ़ गवारा नहीं करते कि हिन्दुस्तान धर्म-प्राण मुल्क है, इसकी सभ्यता और संस्कृति निराली है। भारत यूरोप नहीं हो सकता। रोटी की तो बात, ख़ैर, एक होती देखी जा रही है; लेकिन बेटी एक होने की बात कहकर तो आप शेखचिल्ली को भी मात करते हैं।”
मैं— “कुछ बरसों पहले रोटी की एकता भी शेखचिल्ली की ही बात थी। ख़ैर, आज आप उसे तो क़बूल करते है न? बेटी की भी बात शेखचिल्ली की नहीं। बीस बरस पहले के चौके-चूल्हे को देखकर किसको आशा थी कि हमें आज का दिन देखना पड़ेगा? हिन्दू खुल्लम-खुल्ला मुसलमान और ईसाई के साथ खाना खाते हैं, लेकिन बिरादरी की मजाल है कि उनसे नाता-रिश्ता तोड़ें? हिन्दू-मुसलमान की शादियाँ होनी शुरू हो गयी हैं। पण्डित जवाहरलाल की भतीजी ने मुसलमान से शादी की है और बिना कलमा पढ़े। आसफ़ अली की बीवी अरुणा ने इस्लाम धर्म को स्वीकार नहीं किया। प्रोफ़ेसर हुमायूँ कबीर ने भी इसी तरह की शादी बंगाल में की है। ऐसी मिसालें दर्ज़नों मिलेंगी जिनमें हिन्दू युवतियों ने बिना मज़हब बदले शादियाँ की हैं। हिन्दू नवयुवक भी धर्म की ज़ंजीर तोड़कर शादी करने लग गए हैं। गोरखपुर के श्री श्यामाचरण शास्त्री ने बिना शुद्धि के मुसलमान लड़की से शादी की है। गुजरात के एक सम्भ्रान्त कुल के हिन्दू युवक ने एक प्रतिष्ठित मुसलमान-कुल की सुशिक्षिता लड़की से शादी की है। यह निश्चित है कि दिन-प्रतिदिन ऐसे ब्याहों की संख्या बढ़ती ही जाएगी। समाज के ज़बर्दस्त बाँध में जहाँ सुई भर का भी छेद हो गया, वहाँ फिर उसका क़ायम रहना मुश्किल है।”
जात-पाँत तोड़कर एक धर्म के भीतर शादियाँ तो और ज़्यादा हैं। लेकिन हमारे देश का दुर्भाग्य है कि जिस काम को अवश्य करना है, उसे भी लोग बहुत धीमी चाल से करना चाहते हैं। ठोस जातीय एकता हमारे लिए सबसे आवश्यक चीज़ है और वह मज़हबों और जातों की चहारदीवारियों को ढहाकर ही क़ायम की जा सकती है। हमारी रविश जिस बात को अवश्यम्भावी बतला रही है, जिसे किये बिना हमारे लिए दूसरा कोई रास्ता नहीं; उसके करने में इतनी ढिलाई दिखलाना क्या सरासर बेवक़ूफ़ी नहीं है?
हिन्दुस्तानी जाति एक है। सारे हिन्दुस्तानी, चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, बौद्ध हों या ईसाई, मज़हब के मानने वाले हों या लामज़हब; उनकी एक जाति है—हिन्दुस्तानी, भारतीय। हिन्दुस्तान से बाहर यूरोप और अमेरिका में ही नहीं, पड़ोस के ईरान और अफ़गानिस्तान में भी हम इसी—हिन्दी—नाम में पुकारे जाते हैं। हिन्दू सभा वाले अपने भीतर की जातियों को तोड़ने के लिए चाहे उतना उत्साह न भी दिखलाते हों, लेकिन वे मौक़े-बे-मौक़े यह घोषणा ज़रूर कर दिया करते हैं कि हिन्दू जाति अलग है। मुस्लिम लीग ने तो बीड़ा उठाया है कि मुसलमानों की हमेशा के लिए अलग जाति बनायी जाए। वह तो बल्कि इसी विचार के अनुसार हिन्दुस्तान को अलग हिस्सों में बाँटना चाहती है। नौ करोड़ मुसलमानों में सात करोड़ तो सीधे ही वह ख़ून अपने शरीर में रखते हैं जो कि हिन्दूओं के बदन में है। और, बाक़ी दो करोड़ में कितने हैं जो कलेजे पर हाथ रखकर कह सकते हैं कि उनमें चौथाई भी ग़ैर-हिन्दुस्तानी ख़ून है? जाति का निर्णय ख़ून से होता है। और, इस कसौटी से परखने पर दुनिया का कोई भी आदमी—हिन्दुस्तान से बाहर—हिन्दुस्तान के मुसलमानों को अलग क़ौम मानने को तैयार नहीं हो सकता। तीन-चौथाई अरबी शब्द बोलकर हिन्दुस्तानी मुसलमान न अरब में जाकर हिन्दी छोड़कर दूसरा कहला सकता है और न अरबी ज़बान को वह अपनी मातृभाषा ही बना सकता है। हमारे नौजवान इस बँटवारे को अधिक दिनों तक बर्दाश्त नहीं कर सकते। नयी सन्तानों के लिए तो अच्छा होगा कि हिन्दुओं की औैलाद अपने नाम मुसलमानी रक्खे, और मुसलमानों की औलाद अपने नाम हिन्दू रक्खे; साथ ही मज़हबों की ज़बर्दस्त मुख़ालफ़त की जाए। सूरत-शकल के बनावटी भेद को भी मिटा दिया जाए। इस प्रकार मज़हब के दीवानों को हम अच्छी तालीम दे सकते हैं।
निश्चय है कि जात-पाँत की क्षय करने से हमारे देश का भविष्य उज्ज्वल हो सकता है।