Tumhare Sadachar Ki Kshay (Hindi Lekh/Nibandh) : Rahul Sankrityayan

तुम्हारे सदाचार की क्षय (हिंदी निबंध) : राहुल सांकृत्यायन

1. व्यभिचार

सद्-आचार अर्थात श्रेष्ठ पुरुषों का आचार। श्रेष्ठ किसे कहते हैं? क्या श्रेष्ठ की कोटि में उस ग़रीब की गिनती हो सकती है जो ईमानदारी से की गयी अपनी कमाई को खाने का हक़ न रखकर दाने-दाने को मुहताज है? नहीं, श्रेष्ठ से मतलब है पुराने-नये राजा, राजऋषि, बड़े-बड़े राजाओं के पुरोहित और गुरु-ऋषि-मुनि; जिन्होंने कि सदाचार-प्रतिपादक शास्त्र और स्मृतियाँ बनायी हैं। श्रेष्ठ से मतलब है पीर-पैगम्बर, मूसा दाऊद से, जो कि ख़ुद राजा या शासक थे, अथवा किसी दूसरे तरीक़े से बहुत जन-धन के स्वामी बन गये थे। ऐसे ‘श्रेष्ठ’ पुरुषों का चाल-व्यवहार तो दुनिया का सदाचार बना हुआ है। उनके सदाचार भी एक तरह के नहीं हैं। कहीं सोलह-सोलह हज़ार स्त्रियाँ कृष्ण और दशरथ जैसे सदाचारियों के यहाँ बतलायी जाती हैं। सुलेमान, दाऊद तथा दूसरे सामीय पैगम्बर भी इस बारे में बहुत ‘उदार’ थे। आज भी हमारे यहाँ वाजिद अली शाहों की कमी नहीं है। अभी हाल ही में एक महाराजा मरे हैं जो कि इस बारे में दूसरे वाजिद अली शाह थे। सच तो यह है कि यदि धनिक ही हमारे सदाचार के आदर्श माने जाएँ, तो ऐसे सदाचार का तो न रहना ही भला है। एक पुरुष एक स्त्री के रहते दो-दो, चार-चार और अधिक विवाह भी कर सकता है, तो भी हिन्दू और इस्लाम धर्म के अनुसार उसके सदाचारी होने में कोई शंका नहीं उठ सकती, लेकिन इन धर्मों के अनुसार इसी स्वतन्त्रता को लेकर यदि कोई स्त्री एक साथ दो पति रखे तो वह दुराचार हो जाएगा। आख़िर दुनिया में ऐसे भी देश हैं जहाँ एक स्त्री का एक साथ कई पति रखना ज़रा भी अनुचित नहीं समझा जाता। तिब्बत में यह प्रथा आम है। वहाँ शायद ही कोई स्त्री मिलेगी जिसके अनेक पति न हों और, यह बात तो हमारे पुराने इतिहास में भी मिलती है। पाँच पति रखने पर भी द्रौपदी भारत की प्रातःस्मरणीय पंचकन्याओं में से थी। आख़िर इसमें सदाचार है क्या? बहुत से देश हैं जहाँ पुराने समय से आज तक बहुपति-विवाह, बहुपत्नी-विवाह विहित समझा गया है और बहुत से ऐसे देश हैं जहाँ बहुपत्नी-विवाह, को उतना ही अनुचित समझा जाता है जितना कि बहुपति-विवाह को। यूरोप, अमेरिका, जापान ऐसे ही देशों में हैं। न्याय की दृष्टि से देखने पर तो यह साफ़ मालूम पड़ता है कि यदि एक स्त्री के अनेक पति होना ख़राब है, तो एक पुरुष की अनेक पत्नियाँ होना भी उतना ही ख़राब है। आजकल के जीवित प्रधान धर्मों में कोई भी ऐसा नहीं है जो सिर्फ़ एक पति-विवाह और एक पत्नी-विवाह को ही उचित ठहराता हो तथा दोनों तरह के बहुविवाहों का निषेध करता हो।

लेकिन यह यौन सदाचार सिर्फ़ बाहरी बात है। भीतर देखने पर तो हालत और भी वीभत्स मालूम देती है। हर एक धनी और शक्तिशाली व्यक्ति पुराने समय से आज तक विवाहिता स्त्रियों के अतिरिक्त भी अनेक दासियाँ और रखेलियाँ रखता आया है और वेश्यावृत्ति तो लक्ष्मी की शोभा समझी जाती है। यदि पुरुष उतनी ही चंचलता दिखलाए तो वह मर्द-बच्चा कहलाकर बच जाता है, लेकिन ‘वेश्या’ शब्द का लांछन सिर्फ़ स्त्री पर लगता है। बचपन से हर एक व्यक्ति तथा चिरकाल से हमारा समाज ऐसे वातावरण में पलता चला आया है जिसमें पुरुष के लिए सदाचार की जो कसौटी क़ायम है, उस पर जब स्त्री को तौलने लगते हैं, तो हम आश्चर्य करते हैं। दुनिया भर में ‘सदाचार’-‘सदाचार’ चिल्लाया जा रहा है। हिन्दुस्तानियों को यह नहीं समझना चाहिए कि इसका ठेका सिर्फ़ उन्हीं को मिला है। यूरोप, अमेरिका, एशिया सभी मुल्कों में इस पर ज़ोर दिया जाता है, धर्म और ईश्वर पर विश्वास रखने वाले तो ख़ास तौर से इसके लिए ज़मीन-आसमान एक करते हैं। लेकिन साथ ही सदाचार का जितना कम पालन धर्मानुयायी और ईश्वर-भक्त करते हैं, जितनी अवहेलना उनके यहाँ इस नियम की होती है, उतनी और जगह नहीं। रूस से धर्म और ईश्वर का राज उठ गया है, लेकिन आप दुनिया में सिर्फ़ वही एक देश पाएँगे जहाँ से वेश्यावृत्ति एकदम उठ गयी है। क्या हमारे देश में ऐसे सदाचार की खिल्ली उड़ाने वाले सबसे ज़्यादा हिन्दू-तीर्थ और हिन्दू-मठ नहीं हैं? अयोध्या में चले जाइए और वहाँ के बड़े से बड़े अवतारी भगवद्भक्त और सिद्ध-महात्मा को ले लीजिए, उनके बारे में भी पूछ लीजिए कि जिन्हें मरे अभी कुछ ही साल हुए हैं। मालूम होगा, सदाचार के सम्बन्ध में कैसे-कैसे वीभत्स काण्ड वहाँ होते हैं। ये स्थान स्वाभाविक ही नहीं, अस्वाभाविक व्यभिचार के सबसे बड़े अड्डे हैं। बाहर से जाने वाली भोली-भाली जनता, जिन पर तप, ब्रह्मचर्य, सदाचार की साक्षात मूर्ति समझकर अपना तन-मन-धन वारती है, वे हैं जघन्य कामुकता के साक्षात अवतार। ऐसे आदमियों के मुँह से ब्रह्मचर्य और सदाचार के लम्बे-लम्बे उपदेश सुनकर तो हठात कहना पड़ता है—निर्लज्जता, तेरा बेड़ा ग़र्क़ हो। साधु-संन्यासियों के इस विषय के क्रियात्मक विचार उससे बिल्कुल ही दूसरे हैं, जैसे कि वे उनके श्रीमुख से निकलते हैं। भारत में कितनी ही धर्म-मण्डलियाँ गुप्त व्यभिचार में आसानी पैदा करने के लिए क़ायम हुई हैं; कितने ही भगवद्भवन और भजनाश्रम लोगों की आँखों में धूल झोंकने को स्थापित हुए हैं। चाहे युक्त प्रान्त में घूमिए, चाहे गुजरात में; चाहे पंजाब को देखिए, चाहे बंगाल को; चाहे नेपाल को जाइए, चाहे मद्रास को, सभी के घर में मिट्टी का चूल्हा है, सभी नागनाथ-साँपनाथ बराबर हैं। सदाचार में जो जितना ही पतित है, वह उतना ही अधिक सुन्दर लच्छेदार शब्दों में उस पर व्याख्यान दे सकता है। नगरों और देशों के दृष्टान्त देने की आवश्यकता नहीं। जहाँ आप हैं, वहीं घरों और चहारदीवारियों के भीतर सभ्यता और दिखावे के बाहरी लिबास को हटाकर देखिए। आपको मालूम होगा कि ब्रह्मचर्य और सदाचार के नियम जितने ही कड़े बनाये गये हैं, उतनी ही आसानी से उन्हें तोड़ा जाता है। हमारे एक महान राजनैतिक नेता का ब्रह्मचर्य पर बड़ा ज़ोर है; लेकिन पास में, उनकी छाया में, उनके बड़े-बड़े अनुयायियों ने जिस प्रकार बराबर उन्हें तोड़ने में ही उन नियमों का पालन किया है, उससे तो यही मालूम होता है कि जब बाँध से बूँद भर पानी का रुकना सम्भव नहीं, तो ऐसे बाँध की ज़रूरत ही क्या?

सदाचार के सम्बन्ध में दरअसल ‘मानसि अन्यत्-वचसि अन्यत्’ का पक्का अनुयायी हमारा समाज दिख पड़ता है। भीतर की सारी पोल को देखते हुए कितनी तन्मयता के साथ हम आपस में इसकी धार्मिक चर्चा करते हैं? उस वक़्त मालूम होता है कि हमारे समाज में कोई उसकी अवहेलना करने वाला है ही नहीं! या, हम किसी दूसरे जगत में बैठकर वार्तालाप कर रहे हैं। निश्चय ही हम लोग जब वास्तविक स्थिति पर विचार करते हैं, तब मालूम होता है कि हमारे समाज में ब्रह्मचर्य और सदाचार एक भारी ढकोसले से बढ़कर कोई महत्त्व नहीं रखता। ताज्जुब होता है कि हज़ारों बरसों से हमारे समाज ने ऐसी आत्मवंचना का धुआँधार प्रचार करके कौन-सा लाभ समझा है? ‘मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की’—के अनुसार बल्कि जितनी ही शताब्दियाँ बीतती गयीं उतना ही हमारे सदाचार का तल नीचे गिरता गया है—परिमाण में नहीं, उसमें तो देशकाल-भेद से कोई अन्तर नहीं पड़ा, हाँ, जुगुप्सित प्रक्रिया में।

जिन देशों में स्त्रैण सम्बन्ध पर हल्के नियन्त्रण रखे गये हैं, वहाँ के लोग इस विषय में ज़्यादा अनुकरणीय आचरण रखते हैं। नियमों और निर्बन्धों की अधिकता सिर्फ़ दूसरों की आँख में धूल झोंकने के लिए हमें अधिक निपुण बनाने में सफल हुई है। रोमन-कैथोलिक जैसे कितने ही धर्म ऐसे अपराधों की स्वीकृति के लिए बहुत ज़ोर देते हैं। वहाँ गृहस्थ स्त्री-पुरुष, साधु-साधुनी किसी माननीय व्यक्ति के सामने समय-समय पर अपने अपराधों को स्वीकार करते हैं। शायद यह प्रथा इसलिए चलायी गयी कि ‘बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेय।’ लेकिन परिणाम क्या होता है? पहले एक-दो बार अपराध-स्वीकृति में जो थोड़ा संकोच होता है, वह भी पीछे जाता रहता है। मानस-शास्रवेत्ता ठीक कहते हैं कि अपूर्ण स्त्रैण इच्छाएँ और भी उग्र रूप धारण कर मनुष्य के अन्तस्तल में मौक़े की ताक में पड़ी रहती हैं। धर्मों ने सबसे ज़्यादा ज़ोर जिस पर दिया है, उसकी इस प्रकार से सार्वदेशिक, सार्वकालिक, सार्वजनीन अवहेलना देखकर तो यही कहना पड़ता है कि इस ढोंग, इस बकवास से फ़ायदा क्या?

हमारे देश के एक बड़े आदमी हैं। धर्म पर वह अपनी बड़ी भारी अनुरक्ति दिखलाते हैं। भगवान का नाम लेते-लेते गदगद होकर नाचने लगते हैं और ऐसे प्रदर्शन में काफ़ी रुपया ख़र्च करते रहते हैं। उनकी हालत यह है कि जिस वक़्त बड़े वेतन वाले पद पर थे, तब कभी रिश्वत बिना लिए नहीं छोड़ते थे और स्त्रियों के सम्बन्ध में तो मानो सभी नियमों को तोड़ देने के लिए भगवान की ओर से उन्हें आज्ञा मिली है।

एक प्रातःस्मरणीय राजर्षि को मरे अभी बहुत दिन नहीं हुए हैं। उनकी भगवद्भक्ति अपूर्व थी। सबेरे ईश्वर-भक्ति पर एक पद बनाये बिना वह चारपाई से उठते न थे और पूजा-पाठ में उनके घण्टों बीत जाते थे। लेकिन, दूसरी ओर हाल यह था कि अपने नगर और राज्य में जहाँ किसी सुन्दरी का जैसे ही पता लगा कि जैसे हो उसे मँगवाकर ही छोड़ते थे।

एक तरुण विधवा रानी थीं। उनके पास बड़ी भारी जायदाद थी। एक बड़े तीर्थ में भगवद्-चरणों में लवलीन हो अपना दिन काटती थीं। धार्मिक-उत्सव, पूजापाठ में खुलकर रुपया ख़र्च करती ही थीं, साथ ही उनके यहाँ बहुत से विद्यार्थियों को भी रखकर भोजन दिया जाता था। रानी साहिबा अपनी आँख से देखकर विद्यार्थी को भर्ती होने देती थीं और तरुण विद्यार्थी रात-रात भर पार्थिव पूजा में उनकी सहायता करते थे। अत्यन्त वृद्धा होने पर भी उनकी अपार काम-पिपासा में कोई अन्तर नहीं आया।

एक बड़े भारी हिन्दू धर्म के नेता और विष्णु के साक्षात अवतार महात्मा की बात है। उन्होंने हिन्दू-धर्म के प्रचार और रक्षा के लिए बहुत विशाल आयोजन किया। उसमें भारत के बड़े-बड़े राजा, सेठ-साहूकार शामिल थे। धार्मिक जगत में जितनी उनकी धाक रही, उतनी कम ही किसी की होगी। लेकिन उनकी भीतरी लीला को देखिए तो मालूम होगा कि रासलीला करने के लिए साक्षात कन्हैया ही अवतार लेकर चले आए हैं। सुन्दरी विधवाओं पर आपका ख़ास तौर से अनुराग रहता है।

एक और महाराज रहे हैं जिनकी शास्त्रीय विद्वता, धर्म-परायणता, दान और सदाचार की धाक सारे भारत पर रही है। लेकिन भीतर से उपासना, कुमारी-पूजा आदि धार्मिक अनुष्ठानों के नाम पर वह अपनी सभी वासनाओं की पूर्ति के लिए स्वतन्त्र थे और ऐसे धार्मिक पुरुष से परिवार वाले लोग बहुत बचकर रहना चाहते थे।

2. मद्यपान

शराब की मुमानियत संसार के कई प्रधान धर्म करते हैं। इस्लाम भी अपने को इसका जानी दुश्मन कहता है। शराब पीना भारी दुराचार माना जाता है। लेकिन धनिकों में पिछले तेरह सौ साल के भीतर कितनों ने इस नियम की पाबन्दी की है? बहुत जगह तो शराब की दुकानों के मालिक मुसलमान हैं। जिस वक़्त मुसलमानी सल्तनतों ने शराब के ख़िलाफ़ कड़ी-कड़ी सज़ाएँ मुकर्रर की थीं, उस वक़्त भी धनी लोगों को शराब पीने में बाधा नहीं होती थी। हिन्दुओं में भी कितने ही सम्प्रदाय मद्यपान को महापाप समझते हैं। लेकिन कितनी जातियाँ हैं जिनके धनिक उससे बचे हुए हैं? ब्राह्मण, बनिया, राजपूत, जिस किसी के पास ख़र्च करने के लिए इफ़रात पैसा है, बेखटके पीता है; और जात वाले टुक-टुक ताकते रह जाते हैं। शराब के पीछे लाठी लेकर फिरने वाले महात्माजी के अनुयायियों में भी कितने बड़े-बड़े महापुरुष हैं जो भीतरी तौर से इसके बारे में अपने गुरू से भारी मतभेद रखते हैं, चाहे मद्य-निषेध की व्यवस्था देने में वह किसी से पीछे रहनेवाले न भी हों।

3. असत्य

सत्य-भाषण की ओर धर्म और समाज ज़ोर दे रहा है; और मैं मानता हूँ कि वह उतना मुश्किल नहीं है, यदि समाज में अधिक कृत्रिमता न हो; तो यह सत्यभाषण भी आजकल कितना कठिन काम है, यह कहने की आवश्यकता नहीं। इस कठिनाई की जवाबदेही है अधिकतर हमारे समाज की वर्तमान बनावट पर, जिसमें सत्यवक्ता के लिए स्थान नहीं है। हमारी राजनीतिक संस्थाएँ असत्य-प्रचार के सबसे बड़े अड्डे हैं। झूठ का प्रयोग होता है लोगों को धोखा देने में। अपने स्वार्थ के लिए झूठ बोलकर दूसरों को धोखा देना हर एक राष्ट्र और राजनीतिज्ञ अपना परम कर्तव्य समझता है। राजनीतिक कोश में मानो झूठ बोलना पाप में गिना नहीं जाता। हमारे धर्म और समाज का सत्यभाषण पर इतना ज़ोर व्यर्थ है, जब दूसरी ओर वही व्यक्तियों को झूठ बोलने के लिए मजबूर करता है। स्कूल में एक लड़का दवात तोड़ देता है। यदि वह तोड़ना स्वीकार करता है, तो उसे दण्ड और भर्त्सना सहने के लिए मजबूर होना पड़ता है और झूठ बोल देता है तो साफ़ छूट जाता है। मारपीट और दूसरे अपराधों में भी झूठ बोलने वाले ही नफे में रहते हैं, फिर कौन सत्य बोलकर दण्ड भोगने के लिए तैयार होना चाहेगा? ईमानदारी से काम करके आजकल पेट भर खाना मिलना मुश्किल है। सच बोलकर लोगों की मैत्री प्राप्त करना असम्भव है। इसलिए तो आदमी झूठ बोलने पर उतारू होता है। आजकल की बड़ी-बड़ी सम्पत्तियाँ, बड़े-बड़े पद, ऊँचे-ऊँचे सम्मान झूठ बोलने की निपुणता के लिए पारितोषिक हैं; कहने के सदाचार और हैं, करने के और। जब तक सारे समाज के सम्बन्ध में यह बात है, एक अकिंचन व्यक्ति अपने को कैसे उससे बचा सकता है? कितनी ही जंगली जातियाँ हैं जो पूँजीवादी सभ्यता और संस्कृति में इससे नीची समझी जाती हैं, लेकिन उनमें झूठ बहुत कम देखा जाता है। इसका मतलब है कि यह सभ्यता और संस्कृति उन्नत होकर हमारे समाज को सत्य के सम्बन्ध में और नीचे ले जाती है। हमारे समाज ने ढोंग, आत्मवंचना को जितना ही अधिक आश्रय दिया है, उतना ही हर एक व्यक्ति अपने विचारों को स्वतन्त्रतापूर्वक प्रकट करने में असमर्थ है, समाज का हर एक व्यक्ति अपने लिए तो नहीं चाहता, लेकिन दूसरे को जैसे हो तैसे धोखा देकर अपना काम बनाना चाहता है। किसी का किसी के ऊपर पूरी तरह से विश्वास नहीं, इसका परिणाम हो रहा है—स्त्री पुरुष को वंचित करना चाहती है और पुरुष स्त्री को; पिता पुत्र को धोखा देना चाहता है और पुत्र पिता को। आख़िर इस प्रकार की अराजकता का जिम्मेवार कौन है? हमारा समाज।

4. चोरी-रिश्वत

पुराने ज़माने में चोरी के लिए लोगों का हाथ काट दिया जाता था, जान ले ली जाती थी। आजकल सज़ाएँ कुछ हल्की हैं, लेकिन तब भी समाज की दृष्टि में चोरी भारी पाप समझी जाती है। उसके लिए सख़्त क़ानून और ज़बरदस्त जेलख़ाने बने हैं। सरकार लाखों रुपया पुलिस पर ख़र्च करती है। बड़ी-बड़ी तनख़्वाहें पाने वाले जज और मैजिस्ट्रेट इसके लिए नियुक्त किये गये हैं। लेकिन क्या इससे यथेष्ट रोकथाम है? जिन लोगों को चोरी बन्द करने का काम मिला है, यदि वे ख़ुद वही काम करते हों, तो उनके किये चोरी कैसे बन्द होगी? पुलिस चोरों को पकड़ने और चोरी रोकने के लिए अपने को जिम्मेवार समझती है, लेकिन चौकीदार और कान्सटेबल ही नहीं, थानेदार, इन्सपेक्टर और ऊपर के अफ़सर तक हाथ गरम कर देने पर तरह दे देते हैं। सभी लोग जानते हैं कि सौ में नब्बे थानेदार रिश्वत लेते हैं, देहात में किससे यह बात छिपी हुई है? पुलिस कुछ चोरों को पकड़-पकड़कर जेल में भेजती ज़रूर है, लेकिन क्या कभी किसी ने यह हिसाब लगाया है कि कितने असली अपराधियों को उसने रुपया लेकर छोड़ दिया? जनता की सरकार के क़ायम होने पर भी हम पुलिस के इस रवैये में कोई फ़र्क़ नहीं देखते। जब तक इस तरह रिश्वत का बाज़ार गर्म है, तब तक चोरी कैसे रुक सकती है? ख़याल करने की बात है कि जिन लोगों को अपने परिवार की परवरिश के लिए काफ़ी रुपया हर महीने मिल जाता है, यदि वे अवैध आमदनी से हाथ हटाना नहीं चाहते तो भूख की पीड़ा से पीड़ित होकर चोरी करने वाले अपने को कैसे रोक सकेंगे?

जेलों में अपराधी चालचलन सुधारने के लिए भेजे जाते हैं। किसी समय दण्ड का अभिप्राय यन्त्रणा से अपराधी को भयभीत करना था, लेकिन आज की सभ्यता की दुनिया सज़ा और जेल को सुधार करने का मौक़ा देना समझती है। इन जेलों की क्या हालत है? क़ैदी जाकर वहाँ देखता है कि छोटे सिपाही से लेकर सुपरिण्टेण्डेण्ट तक क़ैदियों के भाग में से कुछ न कुछ ज़रूर अपने इस्तेमाल में लाते हैं। तीन मन चावल में आधा मन निकाल लिया जाता है। आटे में चोकर और मिट्टी भी डाल दी जाती है। अच्छी तरकारियाँ अफ़सरों की डालियों के लिए सुरक्षित रक्खी जाती हैं और मामूली तरकारी में से भी अच्छा भाग दूसरे ले जाते हैं और क़ैदियों के हिस्से में सिर्फ़ घास और पत्ता पड़ता है। तेल, दूध, घी, गुड़—सभी खाद्य वस्तुओं में इस तरह की लूट है। सिगरेट और तम्बाकू को वर्जित कर सरकार क़ैदियों को संयम का पाठ पढ़ाना चाहती है, लेकिन उसका परिणाम सिर्फ़ इतना ही है कि पैसे वाले क़ैदियों को ये चीज़ें कुछ महँगी पड़ती हैं। वस्तुतः जिस क़ैदी के पास रिश्वत देने के लिए पैसा है, उनके लिए जेल में सब तरह का प्रबन्ध हो जाता है। इस तरह के वातावरण में ख़ाक सुधार होगा?

5. तुम्हारे न्याय की क्षय

हमेशा से न्याय करने का ढिंढोरा पीटा जा रहा है। समाज और उसके नेता धनिकों की तरफ़ से ग़रीबों पर कितना अन्याय होता है, इसके बारे में हम कह आए हैं! दुनिया की सरकारें कितना न्याय कर रही हैं, इसे ज़रा देखना है। आजकल की सरकारें न्यायालय और क़ानून बनाने पर बहुत ध्यान देती हैं और कहा जाता है कि यह सब इसीलिए कि जिसमें सबको न्याय पाने में सुभीता हो। लेकिन क्या ग़रीबों को न्याय पाने का सुभीता है? जिस वक़्त न्यायालय नहीं थे, सिर्फ़ पंचायतें थीं; जिस वक़्त क़ानून नहीं थे, सिर्फ़ व्यवहार-बुद्धि निर्णायक थी, जिस समय वकील नहीं थे, हर आदमी अपना वकील था—उस वक़्त ग़रीब के लिए न्याय पाना अधिक आसान था! क़ानून न्याय समझने में आसानी नहीं पैदा करते, बल्कि भारी भ्रम पैदा करने का काम देते हैं; उनके कारण स्पष्ट बात भी अस्पष्ट हो जाती है। कहने को तो यह भी कहा जाता है कि क़ानून अवलम्बित है व्यवहार-बुद्धि—कॉमन सेंस—पर। किन्तु आजकल तो उसका काम व्यवहार-बुद्धि को निकम्मा बना देने का है। सूक्ष्म प्रतिभाएँ जो समाज के हित के काम को कर सकती थीं, आज बाल की खाल उतारती क़ानून के अर्थ का अनर्थ करने में तत्पर हैं। झूठे मुक़दमे को सच्चा और सच्चे को झूठा करने में ही अच्छे वकील की तारीफ़ है। आए दिन, दिन-दहाड़े हम सफ़ेद को काला और काले को सफ़ेद होते देखते हैं।

क़ानून और न्यायालय धनी के विरुद्ध ग़रीब को न्याय देने में कितने असमर्थ हैं, इसके लिए दूर के दृष्टान्त की ज़रूरत नहीं। भारत के हर एक गाँव में इसके अनेक उदाहरण मिलेंगे। मामूली अपराध की तो बात ही क्या, ख़ून तक पचा लिए जाते हैं। ज़मींदार या धनी के इशारे पर आदमी मारा गया। धनी आदमी ने रुपयों का तोड़ा खोलकर डाक्टर के सामने रख दिया। डाक्टर समझता है, दस बरस में जो कमाएँगे, वह सामने रखा है, घर आयी लक्ष्मी को ठुकराना नहीं। लिख देता है—दिल कमज़ोर था, चोट साधारण थी, आदि, और, मामला दूसरे से दूसरा हो जाता है। बहुत बार तो लाश को ले जाकर तुरन्त जला दिया जाता है और फिर भय और प्रलोभन से गवाहियाँ अपने पक्ष में बना ली जाती हैं। अक्सर ग़रीब आदमी अदालत तक नहीं जाते। अगर धनियों द्वारा किए गये तीन ख़ून किसी थानेदार को मिल जाएँ, तो उसका भाग्य ही खुल जाए। वह इतना रुपया जमा कर ले कि उसकी नौकरी चली भी जाए तो भी वह ज़िन्दगी भर चैन की बंशी बजाता रहेगा।

बिहार के एक बड़े ज़मींदार की बात है। उन्हें लाखों की आय है जिसे एक जाली बिल के ज़रिये उनके बाप ने उनके लिए प्राप्त किया। उस वक़्त वे बिल्कुल तरुण थे। एक स्वजातीय ग़रीब लड़का उनके पास रहा करता था। एक दिन किसी बात से नाराज़ तरुण ज़मींदार ने उस लड़के पर पिस्तौल दाग़ दी। लड़का वहीं ढेर हो गया। लाश फुँकवा दी गयी और थाने के दारोग़ा को बुलाकर एक भारी रक़म उनके सामने पेश की गयी। उस रुपये की राशि को देखकर थानेदार की आँखें चमक उठीं। पीछे वही थानेदार असहयोग में नौकरी से इस्तीफ़ा दे राष्ट्रीय युद्ध में शामिल हो गये थे। बहुत वर्षों तक हम दोनों साथ काम करते थे। वह बतलाते थे कि कैसे रात को उन्होंने मृत लड़के के बाप के गाँव में जाकर वहाँ उसके सम्बन्धियों को पट्टी पढ़ायी। किस प्रकार ऊपर और नीचे के अफ़सरों में रुपये बाँटकर क़ानून और न्याय को अँगूठा दिखाया। ख़ून हुआ है, इसकी ख़बर तक अदालत में नहीं पहुँचने पायी। जिस तरुण ने अपने साथ खेलने वाले लड़के को इस तरह पिस्तौल का निशाना बनाया, वह साधारण अपराधी दिमाग़ का व्यक्ति नहीं हो सकता है। यदि वह ग़रीब घर में पैदा हुआ होता, तो ख़ून के कारण फाँसी पड़ने से यदि वह बच भी जाता, तो उसका स्थायी निवास प्रान्त के बड़े-बड़े जेलख़ानों में जन्मजात अपराधियों में तो ज़रूर होता, लेकिन आज वह व्यक्ति प्रान्त के बड़े प्रभावशाली धनिक अगुवों में है।

एक-दूसरे धनी ज़मींदार की बात है। वह अपने रोब-दाब के लिए पास-पड़ोस के बहुत से गाँवों में मशहूर थे। कहने को तो हिन्दुस्तान में अंग्रेज़ों का राज है, लेकिन जहाँ तक उनकी ज़मींदारी का सम्बन्ध था, अंग्रेज़ी शासन का नम्बर उनके बाद आता था। मामूली मारपीट ही नहीं, बड़े-बड़े मुक़दमों तक का फ़ैसला वे जुर्माने लेकर कर दिया करते थे और किसकी शामत आती कि उनके फ़ैसले के ख़िलाफ़ थाने तक भी जाने की हिम्मत करता। उनके गाँव में एक आदमी ने एक मैना पाला था। मैना आदमी की बात बोलता था। इसकी ख़बर ज़मींदार साहब को लगी। झट मैना माँग लाने को आदमी भेजा गया। ग़रीब ने दुनिया के अनुभव से बहुत शिक्षा नहीं ली थी। अपने प्रिय पालतू पशु-पक्षी में आदमी का पुत्रवत स्नेह हो जाता है। उसी स्नेह से अन्धा होकर उसने मैना को देना नहीं चाहा। यह ख़बर जब ज़मींदार को मिली तो वह आग बबूला हुआ। तुरन्त उसने एक पहलवान सिपाही उसे मारकर मैना छीन लाने के लिए भेजा। सचमुच ग़रीब को जान से ख़त्म कर मैना को पकड़ मँगाया गया। मुक़दमा अदालत तक गया तो ज़रूर, लेकिन ज़मींदार साहब को एक दिन की हवालात तक की हवा खाने की नौबत न आयी।

मगह प्रान्त—पटना-गया ज़िलों—के ज़मींदार अपने अत्याचार के लिए सारे बिहार में प्रसिद्ध हैं। वहाँ के एक ज़मींदार का संकल्प था कि जहाँ तक हो सके, उनकी ज़मींदारी में किसी किसान के नाम काश्तकारी न लगने पाए। वह अपने हर गाँव में झूठे मुक़दमे चला, मारपीट और दूसरे ज़रियों से लोगों को तंग करके उन्हें काश्तकारी से इस्तीफ़ा देने को मजबूर करते थे। उनके एक गाँव—जिसका नाम अब दूर तक प्रसिद्ध हो गया है—के प्रायः सभी किसान काश्तकारी से हाथ धोकर ज़मींदार के शिकमी रैयत बन चुके थे। उस गाँव में एक किसान का घर था जिसके पास खाने-पीने के लिए काफ़ी खेत और धन था और परिवार में कई काम करने वाले जवान व्यक्ति भी थे। ज़मींदार को इस परिवार को परास्त करने में कई बार मुँह की खानी पडी़। इस पर उसने प्रतिज्ञा की कि उस परिवार को तबाह करके उसके घर पर रेंड़ न बोआएँ तो नाम नहीं। अबकी बार किसी दूसरे गाँव से एक मरणासन्न आदमी लाकर उस गाँव में मरवाया गया और उस परिवार के व्यक्तियों पर ख़ून का मुक़दमा चलाया गया। डाक्टर ने रिपोर्ट दी कि जान-बूझकर सही-सलामत आदमी का ख़ून किया गया है। पुलिस ने ‘प्रत्यक्षदर्शी’ गवाहों के बयान लिए। घर के सभी सयाने पुरुष जेल में बन्द कर दिये गये। मुक़दमा लड़ने में घर की सम्पत्ति स्वाहा हो गयी। आदमियों को लम्बी-लम्बी क़ैद की सज़ाएँ हुईं। घर में सिर्फ़ स्त्रियाँ रह गयी थीं और उनमें से भी अधिकांश भूख और बीमारी के कारण कुछ ही वर्षों में चल बसीं। मकान मरम्मत के बिना गिर पड़ा और उसके ऊपर बोये रेंड़ को कुछ साल बाद मैंने ख़ुद अपनी आँखों देखा।

यह है आज के क़ानून की करामात और आज के न्याय का नमूना।

न्याय सस्ता और सुलभ नहीं है, बल्कि ज़बरदस्त शत्रु के मुक़ाबिले में वह दुनिया की सबसे महँगी चीज़ है। वह इतनी ख़र्चीली चीज़ है कि धनी आदमी हारते-हारते भी ग़रीब को उजाड़ देता है। बिना स्टाम्प का पैसा दिये तो ग़रीब अदालत में दरख़ास्त भी नहीं दे सकता। और, फिर, स्टाम्प ही तो काफ़ी नहीं है? वहाँ चाहिए वकील और मुख़्तार को फ़ीस, पेशकार और सरिस्तेदार को नज़राना, अर्दली और चपरासी को भेंट। ज़बरदस्त प्रतिद्वन्द्वी बड़े-बड़े वकीलों को बड़ी-बड़ी फ़ीस देकर रख लेता है। यदि तुमने किसी टुटपुँजिया वकील को खड़ा किया तो बने मुक़दमे के भी बिगड़ जाने की सम्भावना हो जाती है। घर, ज़मीन बेचो, ज़ेवर बन्धक रक्खो, जैसे भी हो रुपया ख़र्च कर मुक़दमे की पैरवी करो। अगर मुक़दमा दीवानी में है और एक ही है तो फ़ौजदारी मुक़दमों की तो संख्या निर्धारित नहीं की जा सकती। मार-पीट, चराई आदि के कई मुक़दमे साथ ही साथ फ़ौजदारी अदालत में भी चल रहे हैं। मुन्सिफ़ के यहाँ से यदि फ़ैसला पक्ष में हुआ तो सब-जज के यहाँ अपील हुई। वहाँ से भी यदि क़िस्मत ने मदद की तो हाईकोर्ट और इसके बाद प्रीवी कौंसिल। फ़ौजदारी मुक़दमे अलग चल रहे हैं। यदि हर इजलास में ख़र्च करने के लिए तुम्हारे पास रुपया नहीं है तो तुम्हारी जीत भी हार में बदल जाती है।

यह तो हुआ तब जबकि हाकिम लोग ईमानदार हों, लेकिन आजकल के हाकिमों में कितने हैं जो जल्द से जल्द धनी बनना पसन्द नहीं करते? जिसे ढाई सौ माहवार तनख़्वाह मिलती है, वह भी चाहता है पास में मोटर रखना, वह भी चाहता है कि वह और उसकी स्त्री शाहाना ठाठ में रहे, उसके लड़के-लड़कियाँ शाहज़ादों-शाहज़ादियों के कान काटें; उसके महल में राजमहल का समाँ दिखायी पड़े, उत्सव और त्यौहारों में वह शाहख़र्ची का ज़बरदस्त सबूत दे सके; बच्चों के पढ़ाने-लिखाने में ख़र्चीले से ख़र्चीले स्कूल और कॉलेजों की तलाश करे; ब्याह-शादी में बडे़-बड़े तिलक-दहेज दे और दोनों हाथों अशर्फ़ियाँ लुटाए; उसकी पार्टी में बड़े से बड़े हाकिम और रईस शामिल हों जिनके लिए देशी और विलायती सब तरह के सुन्दर से सुन्दर भोजन परोसे जाएँ। आजकल के हमारे हाकिमों की जब ये हार्दिक लालसाएँ हैं, तो रुपये की चमचमाहट उन्हें क्यों न अपनी ओर आकर्षित करेगी? अगर किसी को रिश्वत लेने में संकोच होता है तो या तो इसलिए कि वह कम है अथवा भेद छिपा लेने में कठिनाई होगी। अनौचित्य के ख़याल से रिश्वत से बाज़ आने वाले लोग बहुत मुश्किल से मिलते हैं। ज़िलों के छोटे-मोटे अधिकारियों की तो बात ही छोड़ दीजिए, हाईकोर्ट के जज तक रिश्वत लेते पाये गये हैं और इसे मुक़दमा लड़ने वाली जनता ख़ूब जानती है। छोटे और बड़े लाटों तक को घुड़दौड़ के घोड़े, क़ीमती हार तथा दूसरी बड़ी-बड़ी भेंटों को देकर अपना काम बनाया गया है। एक रियासत के ख़िलाफ़ कई ज़बरदस्त प्रमाण जमा हो गये थे। रिकार्ड के अधिकारी को इकट्ठा कुछ लाख रुपये दे दिये गये और दूसरे दिन देखा गया कि वे सारे प्रमाण ग़ायब हैं।

राज तो आजकल है थैली का। शासन पर अनुशासन उसका है जिसके पास धन है। क़ानून बनाने वाले वे ही हैं जिनके पास तोड़ें हैं। इंग्लैण्ड के थैली वाले हिन्दुस्तान के मालिक हैं। वे कभी ऐसा क़ानून बनने देना पसन्द नहीं करते जिससे कि उनकी थैली पर हाथ पड़ने पाए। देश और विदेश में यातायात के साधन जहाज़ और रेलें इसी दृष्टि से संचालित की जाती हैं। भारत की रेलों का एक अलग महकमा बना दिया है, यह ख़याल करके कि कहीं भारतीय राजनीतिज्ञों का दबाव उस पर न पड़ने लगे। क़ानूनों की भरमार है। हर साल हमारे देश में सैकड़ों क़ानून बनते और सुधरते रहते हैं। लेकिन वह इसलिए नहीं कि मनुष्य ईमानदारी से कमाई अपनी सम्पत्ति का अपने आप उपभोग कर सके। इनका मतलब सिर्फ़ इतना ही है कि कैसे धनिकों के हित के लिए चलते इस शासन की सहायता के लिए कुछ और क़ाबिल-दिमाग़ आदमी ख़रीदे जा सकते हैं? कैसे कुछ और चिल्लाने वाली जमातों का मुँह बन्द किया जा सकता है? क़ाबिल दिमाग़ों को सरकारी बड़े-बड़े पदों पर सिर्फ़ इसलिए नहीं नियुक्त किया जाता कि वे अपनी योग्यता से जनता को फ़ायदा पहुँचाएँ, बल्कि इसलिए कि वे चिरकाल से स्थापित स्वार्थों को अक्षुण्ण बनाए रखने में सहायता करें। सभी जानते हैं कि सरकारी नौकरियों में लोग बड़ी-बड़ी तनख़्वाहों और स्थायी जीविका के लिए दौड़ते हैं। यदि सरकारी धन को इंसाफ़ के साथ वितरण करना ही है तो उसके बड़े हक़दार हैं, ग़रीबों की सन्तानें। लेकिन हम क्या देखते हैं? ग़रीबों की सन्तानों के लिए तो पहले पढ़ना ही मुश्किल है, पढ़-लिखकर योग्यता प्राप्त करने पर भी बड़ी नौकरियों के लिए अपेक्षित सिफ़ारिशें वे जमा नहीं कर सकतीं। परिणाम यह हो रहा है कि हर तरह की बड़ी-बड़ी नौकरियों में लखपतियों-करोड़पतियों, बड़े-बड़े ज़मींदारों और राजा-नवाबों के लड़के भरे पड़े हैं। आई.सी.एस., आई.पी.एस., आई.एम.एस. आदि अधिकारियों की सूची को उठाकर देखिए तो मालूम होगा कि देश के धनी, ज़मींदारों, महाजनों और प्रभावशाली राजनीतिज्ञों के लड़के ही हैं। पिता लाखों का मालिक है, एक रियासत का बड़ा मन्त्री है और लड़का सरकार के एक विभाग का सेक्रेटरी। अखिल भारतीय सरकारी अफ़सरों में ही नहीं, प्रान्तीय बड़ी-बड़ी नौकरियों में भी उन्हीं को जगह मिली है जिनमें अधिकांश के पास जीविका के अन्यत्र स्वतन्त्र साधन हैं। जब सरकार के चलाने वाले ये बड़े-बड़े कर्मचारी धनिक श्रेणी से आए हैं तो धनी ग़रीब के मामले में वे अपनी श्रेणी के स्वार्थ के विरुद्ध काम करेंगे, यह कब सम्भव हो सकता है? अंग्रेज़-अधिकारियों के बारे में पिछले डेढ़ सौ बरसों का तजरबा हमें बताता है कि जहाँ काले गोरे का सवाल होता है, वहाँ वे न्याय को ताक़ पर रख देते हैं। कितने ही निरपराध भारतीय अंग्रेज़ों की ठोकरों और गोलियों के शिकार हुए हैं, लेकिन कितने मुक़दमों में ख़ूनी को फाँसी की सज़ा हुई है? साहेब की ठोकर से मरे आदमी की तिल्ली, डाक्टरी जाँच से, बढ़ी पायी गयी। यही न्याय का अभिनय हम धनी और ग़रीब के मामले में न्यायाधीश के पद पर आरूढ़ धनिकों की सन्तानों द्वारा किया जाता देखते हैं। ज़मींदारों और किसानों, मज़दूरों और मिल-मालिकों के झगड़े में जो कड़ुवा तजरबा हमें मिल रहा है, उससे मालूम हो रहा है कि उनकी सहानुभूति हमेशा धनिकों की ओर रहती है। मारपीट और बलवे की तैयारी सबसे ज़बरदस्त ज़मींदारों की ओर से होती है। अपनी जीविका के छिन जाने के भय से किसान शान्तिमय तरीक़े से उसका विरोध करते हैं। लेकिन सभी जगह देखा जाता है कि पुलिस और मजिस्ट्रेट किसान को ही अपराधी ठहराते हैं और उन्हीं के ऊपर दफ़ा 107 या दफ़ा 144 की कार्रवाई की जाती है, आँखों से साफ़ देखा जाता है कि ज़मींदार ने बलवा करने में कोई कसर उठा नहीं रखी तो भी उसके एक आदमी को भी कुछ कहने की ज़रूरत नहीं पड़ती।

एक जगह का हमें ताज़ा तजरबा हैं ज़मींदारों ने पीढ़ियों से जोतते आते किसानों से उनके खेत को छीनना चाहा। किसान सोचने लगे कि यदि खेत निकल जाएँगे तो बाल-बच्चे जिएँगे कैसे? उन्होंने मार खाकर भी खेत छोड़ना नहीं चाहा। ज़मींदार ने थाने में रिपोर्ट लिखवायी। किसान की रिपोर्ट को थानेदार लिखना नहीं चाहते थे। थानेदार ने ज़मींदार के पक्ष में होकर कुछ किसानों पर शान्तिभंग का आरोप करके मजिस्ट्रेट को लिख दिया। फ़ौजदारी अदालत को अपना फ़ैसला क़ब्ज़े को देखकर देना चाहिए। मजिस्ट्रेट को ज़मींदार की बातों से सच्चाई का पता लग गया। किसान चिल्लाते ही रह गये कि चलकर देख लिया जाए, खेत पर क़ब्ज़ा हमारा है। दो सौ-चार सौ बीघे जोतनेवाला आदमी चौथाई और पचइयाँ एकड़ में अलग-अलग फ़सल नहीं बोएगा। लेकिन मजिस्ट्रेट को वहाँ जाने की ज़रूरत नहीं मालूम पड़ी, उसने झट उन पर दफ़ा 144 लगा दिया। ऊपर के अफ़सर ने भी बार-बार प्रार्थना करने पर भी, खेत को देखना पसन्द न किया और मजिस्ट्रेट के फ़ैसले को बहाल रखा। सब तरफ़ से न्याय का रास्ता बन्द देखकर किसानों ने शान्तिमय सत्याग्रह की शरण ली। दिन मुकर्रर हुआ। पुलिस और हाकिमों को मालूम था कि ज़मींदार की तरफ़ से मारपीट की ज़बरदस्त तैयारी हो रही है। वे यह भी जानते थे कि किसान हर हालत में शान्त रहना चाहते हैं। उनको यह भी मालूम हो चुका था कि ज़मींदार के हाथी इस युद्ध में ख़ास तौर से भाग लेने के लिए तैयार किए जा रहे हैं। निश्चित दिन पर हाथियों के साथ कई सौ आदमी लाठी-गँड़ासे लिए एकत्र हुए। किसानों की ओर सिर्फ़ थोड़े-से निहत्थे सत्याग्रही। जनता को ख़ास तौर से बहुत संख्या में न आने के लिए कहा गया था। किसान सिर्फ़ ग्यारह खेतों की तरफ़ बढ़ते हैं। हाथियों और लट्ठधारी जवानों को लेकर ज़मींदार सत्याग्रहियों पर हमला करने के लिए खेत पर पहुँचता है। पुलिस की अधिक संख्या का वहाँ पता नहीं। गिरफ़्तारी के बाद जब सत्याग्रही पुलिस की हिरासत में थे, तब ज़मींदार के आदमी ने एक सत्याग्रही पर लाठी-प्रहार किया। सिर से ख़ून की धार बहने लगती है। प्रहार करने वाला आदमी उस वक़्त गिरफ़्तार कर लिया जाता है, लेकिन थोड़ी देर बाद सरकारी अधिकारी उसे छोड़ देते हैं। अन्धा भी देखकर कह सकता था कि मारपीट की सारी तैयारी ज़मींदार की ओर से हुई थी। लेकिन उसके एक भी आदमी को न तो पकड़ा जाता है और न उसे वैसा करने से रोका जाता है। उसके लठैत सरकार की ओर से क़ानून को अपने हाथ में ले लेने के लिए आज़ाद छोड़ दिये गये थे। (अमवारी में राहुल जी पर लाठी से प्रहार हुआ था)।

एक-दूसरे ज़मींदार का किस्सा है जो बतलाता है कि धनिकों के सामने न्याय और क़ानून की कितनी दुर्गति होती है। वे नहीं चाहते थे कि किसानों को अपने खेत में काश्तकारी का हक़ मिले। बहुत दिनों से किसान खेत जोतते आ रहे थे। सर्वे में लाख कोशिश करने पर भी काश्तकारी लग ही गयी। ज़मींदार ने मामले-मुक़दमे और ज़ोर-ज़ुल्म की तैयारी की। किसान जानते थे कि इतने ज़बरदस्त ज़मींदार से लड़ने में उजड़ जाएँगे, इसलिए अधिकांश ने जा-जाकर अपने इस्तीफ़े की रजिस्टरी कर दी। मैंने पुलिन्दे के पुलिन्दे उन रजिस्टरी-शुदा इस्तीफ़ों को देखा है और देखते वक़्त मैं सोच रहा था कि इन ग़रीबों के लिए न्याय क्या माने रखता है? यदि ज़रा भी न्याय पाने का उन्हें भरोसा होता तो अपनी और अपनी सन्तानों की जीविका के साधन इन खेतों से वे इस्तीफ़ा क्यों देते?

जुए को क़ानून के ख़िलाफ़ समझा जाता है। लेकिन घुड़दौड़ की बाज़ी क्या है। चूँकि उसमें बादशाह तक के घोड़े शामिल होते हैं, इसलिए घुड़दौड़ का जुआ हलाल है। और बड़ी-बड़ी लाटरियाँ क्या जुआ नहीं हैं? छोटे-मोटे जुए तो पुलिस की संरक्षकता में अक्सर होते हैं। बड़े-बड़े जुओं के संरक्षण का भार तो राज्य के सूत्रधारों के कन्धे पर है। यही न्याय है? आश्चर्य!

6. तुम्हारे इतिहासाभिमान और संस्कृति की क्षय

‘इतिहास’-‘इतिहास’ – ‘संस्कृति’-‘संस्कृति’ बहुत चिल्लाया जाता है। मालूम होता है, इतिहास और संस्कृति सिर्फ़ मधुर और सुखमय चीज़ें थीं। पचीसों बरस का अपने समाज का तजरबा हमें भी तो है। यही तो भविष्य की सन्तानों का इतिहास बनेगा? आज जो अन्धेर हम देख रहे हैं, क्या हज़ार साल पहले वह आज से कम था? हमारा इतिहास तो राजाओं और पुरोहितों का इतिहास है जो कि आज की तरह उस ज़माने में भी मौज़ उड़ाया करते थे। उन अगणित मनुष्यों का इस इतिहास में कहाँ ज़िक्र है जिन्होंने कि अपने ख़ून के गारे से ताजमहल और पिरामिड बनाए; जिन्होंने कि अपनी हड्डियों की मज्जा से नूरजहाँ को अतर से स्नान कराया, जिन्होंने कि लाखों गर्दनें कटाकर पृथ्वीराज के रनिवास में संयोगिता को पहुँचाया? उन अगणित योद्धाओं की वीरता का क्या हमें कभी पता लग सकता है जिन्होंने कि सन् सत्तावन के स्वतन्त्रता-युद्ध में अपनी आहुतियाँ दीं? दूसरे मुल्क के लुटेरों के लिए बड़े-बड़े स्मारक बने, पुस्तकों में उनकी प्रशंसा का पुल बाँधा गया। गत महायुद्ध में ही करोड़ों ने क़ुर्बानियाँ दीं, लेकिन इतिहास उनमें से कितनों के प्रति कृतज्ञ है?

इतिहास हमारे समाज की पुरानी बेड़ियों को मज़बूत करता है। इतिहास हमारी मानसिक स्वतन्त्रता का सबसे बड़ा शत्रु है। इतिहास हमारी पुरानी दुश्मनी और अनबनों को ताज़ा करता रहता है। सहस्राब्दियों से मनुष्यता का घोर शत्रु सिद्ध हुआ धर्म, बहुत कुछ इतिहास के आधार पर टिका है। विश्वामित्र हों चाहें वशिष्ठ, मनु हों चाहे याज्ञवल्क्य, व्यास हों चाहे पतंजलि, नानक हों चाहे कबीर, मूसा हों चाहे ईसा—सभी पचासों बरस इस धरती पर जीते रहे। न जाने कितनों के दिल को उन्होंने दुखाया होगा, न जाने कितनों के हक़ को छीना होगा, न जाने कितने दास-दासी ख़रीदकर ज़िन्दगी भर उनसे पशु की तरह काम लेते रहे होंगे। अपने मालिकों और अन्नदाताओं की चापलूसी में जाने क्या-क्या कुकर्म उन्होंने किए होंगे। सफल लुटेरों और ख़ूनियों को आसमान पर चढ़ाने की जो प्रवृत्ति देखी जाती है, उससे मालूम होता है कि इतिहास की वीरपूजा में भी इसका बहुत बड़ा अंश रहा होगा।

हिन्दुओं के इतिहास में राम का स्थान बहुत ऊँचा है। आजकल के हमारे बड़े नेता, गांधीजी, मौक़े-ब-मौक़े रामराज्य की दुहाई दिया करते थे। वह रामराज्य कैसा होगा जिसमें कि बेचारे शूद्र शम्बूक का सिर्फ़ यही अपराध था कि वह धर्म कमाने के लिए तपस्या कर रहा था और इसके लिए राम जैसे अवतार और धर्मात्मा राजा ने उसकी गर्दन काट ली? वह रामराज्य कैसा रहा होगा जिसमें किसी आदमी के कह देने मात्र से राम ने गर्भिणी सीता को जंगल में छोड़ दिया? रामराज्य में दास-दासियों की कमी न थी। अट्ठारहवीं-उन्नीसवीं सदी तक दुनिया में दास-प्रथा कितनी क्रूरता के साथ प्रचलित थी, इसका हमें काफ़ी ज्ञान है। उस वक़्त स्वेच्छापूर्वक अपने को और अपनी सन्तान को बेचा ही नहीं जाता था, बल्कि समुद्र और बड़ी नदियों के किनारे के गाँवों में तो आदमियों को पकड़ ले जाने के लिए बाक़ायदा हमले हुआ करते थे। डाकू गाँव पर छापा मारते थे और धन के साथ-साथ वहाँ के काम करने लायक़ आदमियों को पकड़ ले जाते थे। हर साल हज़ारों इस तरह के ग़ुलाम पोर्तुगीज़ डाकू पकड़कर बर्मा के अराकन प्रदेश में बेचा करते थे। रामराज्य में यदि इस तरह की लूट और डाकेजनी न रही होगी तो दास-प्रथा तो ज़रूर ही थी। अभी दस ही बारह साल हुए हैं जबकि हिन्दुओं के अभिमान की जगह नेपाल राज ने अपने यहाँ दास-प्रथा का अन्त किया। मिथिला में अब भी कितने घरों में वे काग़ज़ हैं जिनमें बहिया (दास) के क्रय-विक्रय दर्ज हैं। दरभंगा ज़िले के तरौनी गाँव (थाना बहेड़ा) में दिगम्बर झा के परदादा ने कुल्ली मँड़र के दादा को किसी दूसरे मालिक से ख़रीदा था और दिगम्बर झा के दादा ने पचास रुपये के फ़ायदे के साथ उसे बेच दिया। अभी तीन ही पीढ़ी पहले अंग्रेज़ी राज तक में यह प्रथा मौजूद थी और सच्चे धार्मिक हिन्दू हों चाहे मुसलमान, दोनों जब अपनी मनुस्मृतियों और हदीसों में दासों के ऊपर मालिकों के हक़ के बारे में पढ़ते हैं तो उनके मुँह में पानी भर आए बिना नहीं रहता।

आइए, रामराज्य की दास-प्रथा की एक झाँकी लीजिए। एक साधारण बाज़ार है जिसमें सिर्फ़ दास-दासियों की बिक्री होती है। लाखों वृक्षों का बाग़ है। खाने-पीने की चीज़ों की दुकानें सजी हुई हैं। भेड़-बकरियों और शिकार किए जानवरों के अतिरिक्त उच्च वर्ण के आर्यों के भोजन तथा मधुपर्क के लिए गोमाँस ख़ास तौर से तैयार करके बेचा जा रहा है। जगह-जगह सफ़ेद दाढ़ी वाले ऋषि, दूसरे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य अपने पड़ाव डाले पड़े हुए हैं। कोई नया दास या दासी ख़रीदने आया है, किसी के दिन कुछ बिगड़ गए हैं, इसलिए वह अपने दासों या दासियों को बेचकर कुछ नक़द जमा करना चाहता है। कुछ सिर्फ़ इस ख़याल से अपने दास-दासियों को मेले में लाए हैं कि उन्हें बेचकर ‘नया’ कर लिया जाए। कुछ बड़े व्यापारी ऐसे भी हैं जो झटपट बेचकर चले जाने की इच्छा रखने वालों की आसानी के लिए सस्ते में दास-दासी ख़रीद लेते हैं और अधिक मुनाफ़े के साथ बेचते हैं। स्वामियों ने महीनों पहले मेले में चलने का निश्चय कर लिया था। उन्होंने अपने दास-दासियों को ख़ूब अच्छा खाना देना शुरू किया था जिसमें कि माँस और चर्बी से उनकी हड्डियाँ ढक जाएँ और बाज़ार में अधिक दाम आ सकें। उनके सफ़ेद बालों को काला रंगा गया है और मेले में कपड़े-लत्ते से अच्छी तरह सँवारकर उनकी हाट लगायी गयी है। कहीं-कहीं आदमी अपने एकाध दास या दासी को लेकर बैठे हैं और कहीं-कहीं सौ-सौ, दो-दो सौ की पाँत लगी हुई है। ख़रीदारों की भीड़ है। ख़रीदने वाले कहते हैं—अबकी बाज़ार बहुत महँगा रहा, पिछले साल अठारह बरस की हट्टी-कट्टी सुन्दरी दासी दस रुपये में मिल जाती थी, अबकी बार तो तीस में भी हाथ धरने नहीं देते। एक आदमी को दासी ख़रीदनी है, लेकिन पैसे उसके पास कम हैं। वह एक चालीस बरस के सौदे के पास पहुँचता है। दासी के तिहाई बाल यद्यपि सफ़ेद हो गए थे, लेकिन उन्हें रंगकर काला किया था। मालिक की ख़ुशक़िस्मती समझिए कि दासी के दाँत सभी मज़बूत थे। ख़रीदार ने पास जाकर उसके दाँत देखे—बिल्कुल दुरुस्त। आँखों देखीं—कोई फ़र्क़ नहीं। कान देख-सुन सकती है। हाथों को उठा और ठोंककर देखा—कमज़ोर नहीं है। चलाकर देखा—पैर भी दुरुस्त हैं। पूछा— “वाशिष्ठ जी! आपकी दासी बूढ़ी तो हो गयी है। लेकिन ख़ैर, हमारे यहाँ काम हल्का है; बतलाइए तो मूल्य क्या है?”

वाशिष्ठ— “गौतमजी, आप ग़लत कह रहे हैं। अभी तो यह बीस बरस की छोकरी है। आपने देखा नहीं कि इसके हाथ पैर कितने मज़बूत हैं, कितनी सुन्दरी है; दस साल में दस तो इसके लड़के पैदा हो जाएँगे। दूना दाम तो एक ही लड़के से निकल आएगा। हम आपसे मोल-भाव करना नहीं चाहते। पचास रुपया हमें मिल रहा था। ख़ैर, आप परिचित हैं, आपको दस रुपया कम करके दे देंगे।”

गौतम— “आप तो बहुत कड़ा दाम माँग रहे हैं। बालों को काला कर देने और दो महीने के खिलाने-पिलाने से—यह न समझिए कि मैं नहीं जानता—यह पचास साल की बूढ़ी है। मुझे हल्का सौदा लेना है, यदि आप दाम-काम ठीक करें तो इसे ले लूँ।”

वाशिष्ठ— “आप मेले के दूसरे आदमियों की तरह मुझे भी समझ रहे हैं? इसी की बहन को मैंने सौ रुपये में अयोध्या के महाराज रामचन्द्र के लिए बेचा है। आजकल महाराज यज्ञ कर रहे हैं, दक्षिण में वह हर एक ऋषि को एक-एक तरुण सुन्दरी दासी देना चाहते हैं। देखा नहीं, इस साल दासियों का भाव बहुत चढ़ गया है? अच्छा जाइए, तीस ही रुपये दे दीजिए; हमें भी घर लौटने की जल्दी है। यह दासी ऐसी-वैसी नहीं है, यह ख़ूब नाचना-गाना जानती है। काली! ज़रा एक गीत तो सुना दे।”

काली ने एक गीत सुनाया और नाच के भी एक-दो तर्ज़ दिखलाए। अन्त में पन्द्रह रुपये पर सौदा पटा।

लोग अपने-अपने दासों को घर ले जा रहे हैं। कितनी दासियों के बच्चे बिककर सैकड़ों कोस दूर पहुँच गये हैं। कितनों के प्रेमी हमेशा के लिए छूट गये हैं। बच्चों और प्रेमियों के इस बिछोह के कारण किसी काम में उनका मन नहीं लग रहा है और नये मालिक उनसे काम लेने को उकता रहे हैं। दो-चार दिन जो नरमी देखी गयी, उसे ख़त्म करके अब ज़रा-ज़रा-सी शिकायत पर—दासियों पर कोड़े पड़ रहे हैं। दासों को जान तक मार डालने में मालिकों को कोई ज़बरदस्त सज़ा पाने का भय नहीं है। मालिक उनके प्रति वही ख़याल रखते हैं जो कि अपने पशुओं के लिए।

यह है रामराज्य में मनुष्यों के एक भाग का जीवन! और, यह है रामराज्य में मनुष्य का मोल! इसी पर हमको नाज़ है! ऋषियों की दया और सहृदयता का गुण गाते तो हम थकते नहीं, जिन ऋषियों के आश्रमों के आस-पास मनुष्य इस प्रकार ग़ुलाम बनाकर रखे जाते थे, जिन ऋषियों को स्वर्ग, वेदान्त और ब्रह्म पर बड़े-बड़े व्याख्यान और सत्संग करने की फ़ुर्सत थी, जो दान और यज्ञ पर बड़े-बड़े पोथे लिख सकते थे, क्योंकि इससे उनको और उनकी सन्तानों को फ़ायदा था, परन्तु मनुष्यों के ऊपर पशुओं की तरह होते इन अत्याचारों को आमूल नष्ट करने के लिए उन्होंने किसी तरह के प्रयत्न की आवश्यकता न समझी। उन ऋषियों से आज के ज़माने के साधारण आदमी भी मानवता के गुण से अधिक भूषित हैं।

संस्कृति का अंग कला है। कला में हमने कहाँ तक सारे समाज का ख़याल रखा और पुराने ज़माने में भी साधारण जनता उससे फ़ायदा उठा सकती थी? सहस्राब्दियों से संगीत राजाओं और धनियों की कामुकता को उत्तेजित करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। संगीत की रुचि मनुष्य में स्वाभाविक होती है। सभ्यता के निम्न तल पर रहने वाली जातियों से लेकर सभ्यता के उत्कर्ष की चोटी तक पहुँची हुई जातियों तक सभी में नृत्य का प्रेम देखा जाता है। लेकिन यह हमारा ही देश है जो कि सभ्य कहलाने में दुनिया के सभी देशों से अपने को पहले रखना चाहता है; लेकिन इन दोनों ललित कलाओं को ऐसी निम्न श्रेणी में डाल रखा है कि जिनकी दुनिया में मिसाल नहीं। इंग्लैण्ड, अमेरिका और जापान के सुशिक्षित परिवार संगीत और नृत्य-कला को अपने सभ्य जीवन का एक अंग समझते हैं, लेकिन ये चीज़ें हमारे यहाँ वेश्याओं के लिए रख छोड़ी गयी हैं। इस श्रेणी के कारण संगीत और नृत्य-कलाएँ सम्भ्रान्त कुल की स्त्रियों से बहिष्कृत समझी जाती हैं।

हम संस्कृत हैं, हम सभ्य हैं—इस तरह अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने से दुनिया हमें सभ्य नहीं मानेगी। हमारे जीवन का हर एक अंग जिस तरह कलुषित और दिखावट से भरा हुआ है, उस तरह की जाति दुनिया में शायद ही कोई हो। अभी तक तो हमने आदमी की तरह रहना भी नहीं सीखा। पास-पड़ोस की सफ़ाई की अवहेलना में तो हम जानवरों से भी गये-बीते हैं। हिन्दुस्तान के गाँवों जैसे गन्दे गाँव दुनिया के किसी भी देश में खोजने से नहीं मिलेंगे। यह हमारे ही गाँव की ख़ूबी है कि एक अन्धा आदमी भी एक मील पहले से ही हमारे गाँव को पहचान लेता है, जबकि उसकी नाक पाख़ाने की बदबू से फटने लगती है। सफ़ाई के लिए अपने को लासानी समझने वाले हमारे देश के हिन्दू-मुसलमान पाख़ाने के लिए किसी प्रबन्ध की कोई ज़रूरत नहीं समझते। गाँव के पड़ोस के खेत तो इसके लिए हैं ही। कोई भी विदेशी जो एक बार हिन्दुस्तानी गाँव से गुज़र जाएगा और पास के खेतों में अलग-अलग फैले हुए हवा और धूप में सूखते पाख़ानों को देखेगा, वह कैसे समझेगा कि हिन्दुस्तान में आदमी रहते हैं। एक बार मेरे एक जापानी मित्र को, जिनके स्नेहपूर्ण आतिथ्य को पाने का मुझे कई दिनों तक मौक़ा मिला था, भारत आने के लिए लिखा। उन्होंने भी यह इच्छा प्रकट की थी कि मैं भारत के ग्रामीण जीवन को नज़दीक से देखना चाहता हूँ। मुझे पत्र पाकर यह चिन्ता हुई कि किन गाँवों में मैं अपने मित्र को ले जाऊँ। सबसे बड़ी दिक़्क़त मुझे पाख़ाने और नहाने की मालूम पड़ती थी। हिन्दुस्तान के गाँवों में खुले खेतों के अतिरिक्त पाख़ाने का कोई इन्तज़ाम नहीं। गाँव ही क्या, शहर में भी पचास हज़ार लगाकर महल बनाने वाले पाख़ाने के लिए पचास रुपये का ‘सेप्टिक टैंक’ लगाना दण्ड समझते हैं। ग़ुसलख़ाना तो अंग्रेज़ों और क्रिस्तानों की चीज़ है। मेरे तरद्दुत को देखकर एक मित्र ने अपने यहाँ ख़ास तौर से पाख़ाने और ग़ुसलख़ाने तैयार करने का इरादा ज़ाहिर किया। ख़ैर, मेरे जापानी मित्र ने अपनी यात्रा स्थगित कर दी। लेकिन पत्र को पाकर जिस फ़िक्र में मैं महीनों रहा, उससे मुझे यह तो मालूम हो गया कि हम लोग कितने पानी में हैं। मुझे आश्चर्य होता है कि हमारे पूर्वजों ने स्वच्छता के लिए अत्यन्त आवश्यक इन चीज़ों की ओर क्यों नहीं ध्यान दिया? बल्कि जो ध्यान दिया भी है तो उल्टा; जिससे स्वच्छता में और बाधा पड़ती है। पाख़ाना उठानेवाले को हमारे देश में सबसे नीच समझा जाता है। अभी तो उन जातियों को हमने आर्थिक चक्की से पीस रखा है और पेट के आगे उन्हें इज़्ज़त-आत्मसम्मान का ख़याल ही नहीं आता। लेकिन किसी-न-किसी दिन वह आवेगा ज़रूर। फिर समाज की इस सबसे बड़ी सेवा के लिए सबसे ज़बरदस्त लाँछना को सहने के लिए वे कैसे तैयार होंगे? और, यदि उन्होंने पाख़ाना साफ़ करना छोड़ दिया तो चन्द ही दिनों में क्या हमारे महल सूने नहीं हो जाएँगे? इंग्लैण्ड में चले जाइए, वहाँ जो व्यक्ति रसोई बनाता है, वह पाख़ाने में भी झाड़ू दे देता है। जापान में देखिए, वहाँ तो पाख़ाना बेचने वाले कितने सम्भ्रान्त व्यापारी हैं। किसी को पाख़ाना उठाने में घृणा नहीं है। हमारी दुनिया ही न्यारी है।

हर एक उपयोगी नयी चीज़ को ग्रहण करने में हम अपनी संस्कृति और सभ्यता की दुहाई देने लगते हैं। हैट, कोट, पतलून को देखकर हमारे कितने ही लोग नाक-भौं सिकोड़ते हैं। वित्त से अधिक ख़र्च करने का जहाँ तक सवाल है, वहाँ तक हम कुछ नहीं कहते; किन्तु ढीली-ढाली धोती या लम्बे-चौड़े सलवार क्या काम करने वाले आदमी के लिए उपयुक्त हो सकते हैं? अधबहियाँ कुर्ता, जाँघिया और सोला हैट (मोटा टोप) काम करने के लिए सबसे उपयुक्त पोशाक है। धूप से बचाने के लिए सोला हैट बड़े काम की चीज़ है। इन चीज़ों को पश्चिमी यूरोपीय या क्रिस्तानी कहकर हम दुत्कारते हैं। लेकिन क्या मालूम नहीं कि न ये पश्चिमी हैं, न यूरोपीय हैं और न क्रिस्तानी। दो सौ बरस पहले अंग्रेज़ों के पूर्वज भी सिर पर झोंटा रखते थे। उनकी पोशाक भी ऊल-जलूल थी। आधुनिक पोशाक पिछले दो सौ वर्षों के चिन्तन और परिवर्तन का परिणाम है। अभी महायुद्ध के आरम्भ तक यूरोप की स्त्रियाँ बड़े-बड़े बाल रखती थीं। उनकी पोशाक में आज से कई गुना ज़्यादा कपड़ा लगता था। कमर अस्वाभाविक तौर पर कसकर पतली बनायी जाती थी। आज यूरोप की स्त्रियों ने बाल कटा लिए हैं, उनकी पोशाक हल्की हो गयी है। कमर पतली करने की वह पुरानी सनक अब उनमें नहीं रही।

स्त्री-पुरुष का ब्याह किसलिए होता है? सन्तान ही उसमें मुख्य बात नहीं है। अव्वल तो हमारे यहाँ विवाह का भार ज़बरदस्ती माँ-बाप अपने ऊपर लेना चाहते हैं। सन्तान इसमें दस्तन्दाज़ी न करे, इसलिए बचपन में ही विवाह कर देना चाहते हैं। यह भी हमारी संस्कृति का एक बहुत ‘उज्ज्वल’ अंग है कि जिन्हें सारी ज़िन्दगी एक-दूसरे के साथ बितानी है, उन्हें एक-दूसरे की प्रकृति और दिलचस्पी से परिचय प्राप्त करने का मौक़ा बिना दिए हमेशा के लिए गले में बाँध दिया जाए। इस तरह की स्वेच्छाचारिता ने लाखों पारिवारिक जीवनों को नरक के रूप में परिणत कर दिया है, तो भी कोई इससे शिक्षा लेने को तैयार नहीं है। माता-पिता विवाह कर देते हैं, लेकिन विवाहित जोड़े के लिए समाज की सख़्त हिदायत है कि कम-से-कम जवानी भर वे एक-दूसरे से खुले तौर पर न मिलें। दुनिया के सभी भागों में विवाहित स्त्री-पुरुष की अलग चारपाई नहीं होती। वहाँ चारपाई अलग होने का मतलब है तलाक़ की तैयारी। लेकिन हमारे यहाँ तो चारपाई ही अलग नहीं, सोने की जगह भी अलग होनी चाहिए और शिष्टता का तक़ाज़ा है कि पति घर वालों की जानकारी में पत्नी के पास न जाए। विवाहित पुरुष अपनी पत्नी को अपने साथ नहीं रख सकता। चाहे वर्षों नौकरी या व्यापार में दूर-दूर रहना पड़े तो भी इस तरह की स्वतन्त्रता को शिष्टाचार के विरुद्ध समझा जाता है।

सारांश यह कि जिस अपने इतिहास और संस्कृति का अभिमान हम करते हैं, वह हमें साधारण मनुष्य-जैसा जीवन भी बिताने देना नहीं चाहती। खान-पान, रहन-सहन, शादी-ब्याह, स्वास्थ्य-सफ़ाई और भाईचारा—सभी में वह हमें दुनिया की नज़र में ज़लील बनाना चाहती है। हमारे लिए सबसे अच्छा यही है कि अपने इतिहास को फाड़कर फेंक दें और संस्कृति से अपने को वंचित समझकर दुनिया की और जातियों से फिर क, ख पढ़ना सीखें।

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