तुम मेरी माँ हो (कहानी) : विष्णु प्रभाकर

Tum Meri Maan Ho : Vishnu Prabhakar

वायुयान निरंतर तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है। ऊपर नीलगगन है। बीच में नाना रूप धारण किए मेघ-मालाएँ कहीं शुभ्र-श्वेत रंग के हिमखंड जैसी फैली हुई हैं। उनके ऊपर पड़ती धूप उन्हें और भी उज्ज्वल बना देती है। कहीं तीव्र गति से आक्रामक रूप धारण किए काली घटाएँ पास और पास—आती दिखाई देती हैं।

तभी एकाएक तीव्र झटका लगता है। वायुयान ऊपर उठ जाता है। सघन मेघ-मालाएँ तरल वायु में परिवर्तित होकर नीचे रह जाती हैं।

यह सब देखते हुए अन्नापाउला न जाने कब इनसे मुक्त होकर मस्तिष्क में उठते नाना रूप विचारों में खो गई। नाना रूप मानव-मूर्तियाँ तेजी से उसके सामने उभरती हैं और उतनी ही तेजी से पीछे छूटती चली जाती हैं। इस प्रक्रिया में न जाने वह कब सुदूर भूतकाल में भटक गई, जहाँ रह-रहकर अनेक स्मृतियाँ उसके मानस-पटल पर उभरतीं और उसे बेचैन कर जातीं।

वह अपनी माँ से मिलने जा रही है—उस माँ से, जिसके शरीर के अंश से उसका शरीर निर्मित हुआ है, जिसकी धमनियों में बहनेवाला रक्त उसकी धमनियों में बह रहा है। उसने कहीं पढ़ा था—‘माँ तो आकाश है। आकाश, जहाँ सूर्य है, चंद्र है और है नक्षत्र मंडल। जीवनदायी जल है, और...और...’

कुछ क्षणों के लिए सहसा वह कहीं खो गई। उसे माँ के बारे में बहुत कुछ पता था। माँ जो हमें गिर-गिरकर उठना सिखाती है, चलना सिखाती है। उसी माँ के पास तो वह रहती थी; पर अचानक एक दिन जब वह सात-आठ साल की थी, उसके पिता ने उसे बताया, ‘‘बेटी, तू जिसे अपनी माँ मानकर इतना प्यार करती है और बदले में वह भी तुझे माँ का प्यार देती है, वह तेरी ‘जन्मदात्री माँ’ नहीं है। तेरी जन्मदात्री माँ सुदूर भारत के एक प्रांत गोवा के एक गाँव के छोटे से घर में रहती है।’’

उसने सुन लिया, पर उसे सहसा विश्वास नहीं आया। वह फिर अपने खेल में लग गई, लेकिन वह बात तो उसके मस्तिष्क में अपना स्थान बना चुकी थी। बीच-बीच में जैसे बिजली कौंधती हो, उसके मन में प्रश्न उभरता, विशेषकर जब उसकी यह माँ उसे प्यार कर रही होती तो उसके अंतर में सहसा एक आवाज उभरती, ‘यदि यह मेरी माँ नहीं है तो मुझे इतना प्यार कैसे करती है और जो मेरी जन्मदात्री है, वह कहाँ है, कैसी है, उसने मुझे अपने पास क्यों नहीं रखा?’

सहसा वह मौन हो गई। इस प्रश्न का उत्तर तो अब वह जान चुकी है और उसपर उसे विश्वास भी हो गया है। पता नहीं इस ‘माँ’ शब्द में क्या आकर्षण है। वह धीरे-धीरे पागल हो उठी अपनी उस जन्मदात्री माँ को देखने के लिए। उसे याद है, आज भी जब वह कुछ बड़ी हुई तो उसे इस बारे में पूछते हुए बहुत गुस्सा आया था। उसने अपने पिता को पीट दिया था। उन्होंने उससे यह बात क्यों छिपाए रखी अब तक?

और इसी प्रक्रिया में उन्होंने एक दिन मुझे सबकुछ विस्तार से बताया था। बताया था कि मेरी जन्मदात्री गोवा की रहनेवाली भी नहीं थी। वह श्रीलंका में रहनेवाले एक गरीब डच परिवार की बेटी थी। उस समय श्रीलंका पर डच लोगों का अधिकार था। उसका परिवार बहुत गरीब था, लेकिन वह बहुत सुंदर थी। उसके पड़ोस में ही गोवा का एक दंपती रहता था। वह जानता था कि यह परिवार इस सुंदर कन्या का लालन-पालन नहीं कर सकता। इसलिए उन्होंने उसे गोद ले लिया और जब वह परिवार गोवा लौटा तो वह भी उनके साथ गोवा आ गई।

लंबी कहानी है। बालिका किशोर हुई, किशोर कन्या ने यौवन की दहलीज पर पैर रखा। उसी के साथ निखर उठा उसका रूप। यौवन के साथ-साथ वह भी अँगड़ाई लेने लगा था। उस समय गोवा पर पुर्तगाल का शासन था। वह छोटा सा समुद्र तटीय प्रांत पुर्तगाल के सैनिकों से भरा हुआ था। यौवन और सौंदर्य यदि मुक्त हो जाए तो क्या नहीं हो सकता है। वह सैनिकों के चक्रव्यूह में फँस गई और एक दिन उसके और मेरे पिता के बीच के संबंध बहुत सघन हो उठे। उसी प्रक्रिया में मेरा जन्म हुआ।...

सोचते-सोचते सहसा अन्ना ने बाहर की ओर देखा। बादल अब नहीं थे। निपट नीला आकाश कितना सुंदर लग रहा था। विमान में सहसा चाय आ जाने से हलचल मच उठी थी। वह सहज हो पाती कि उसके पति ने धीरे से उससे कहा, ‘‘उठो, चाय आ गई है।’’

उसने अचरज से उन्हें देखा और बस मुसकराती रही। कुछ भूलने का प्रयत्न करती रही और धीरे-धीरे चाय का घूँट भी भरती रही।

उसके मस्तिष्क में फिर कुछ घटनाएँ तेजी से घूमने लगीं। उसे कुछ याद नहीं। तब वह कुछ भी तो नहीं समझती थी। सबकुछ सुना है उसने। उसकी वह स्वच्छंद वृत्तिवाली माँ उसकी देखभाल नहीं कर सकती थी। वह अपने भारतीय दादा-दादी की गोद में पलकर ही बड़ी हुई थी।
जब वह दो वर्ष की भी नहीं थी कि भारतवासियों ने गोवा को पुर्तगाल के चंगुल से मुक्त करा लिया। वह अब भारत का स्वतंत्र प्रांत था।
तब अपने देश जाते हुए उसके पिता ने सोचा कि मेरी जन्मदात्री मेरा पालन-पोषण नहीं कर पाएगी। मैं इसे अपने साथ पुर्तगाल ले जाऊँगा।

और उसके लिए उन्होंने बाकायदा कानूनी काररवाई करते हुए अंततः मुझे अपने साथ ले जाने का अधिकार प्राप्त कर लिया। माँ को इन बातों की बहुत चिंता नहीं थी। दादा-दादी अशक्त हो चुके थे, इसलिए एक दिन उसने अपने को पुर्तगाल में पाया और फिर वह पुर्तगाल की होकर ही रह गई।

वायुयान तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है। कभी शुभ्र-श्वेत मेघों के बीच से गुजरता है, कभी तीव्र गति से आगे बढ़ते हुए भूरी घटनाएँ उसे घेरने की चेष्टा करती हैं, पर चालक तो ऊपर—और ऊपर उठ जाता है। वहाँ वही नीला आकाश, नीचे चारों ओर फैली धूप। वह देर तक इस वातावरण में आगे बढ़ता है। इस सारी प्रक्रिया में विचारों का एक तुमुल-नाद निरंतर उसके अंतर में गूँजता रहता है।

सहसा वह वर्तमान में लौट आती है, यह सोचते हुए—मैं माँ के पास जा रही हूँ। वह माँ जिसने मुझे जन्म दिया था। बहुत-बहुत सुंदर थी वह। मेरे परिवारवाले कहते हैं, मैं भी सुंदर हूँ। क्या मैं अब अपनी जन्मदात्री माँ के उसी सुंदर रूप को देख पाऊँगी? कैसा है यह ‘माँ’ शब्द। जिसको मैंने देखा नहीं, जिसकी ममता का स्पर्श मैंने पाया नहीं, उसी को देखने के लिए मैं कब से भारत आने के सपने देख रही थी। पर पिता के घर में रहते हुए यह संभव नहीं हो सका। हो नहीं सकता था, लेकिन शादी हो जाने के बाद मैंने अपने पति को सबकुछ बता दिया। कुछ भी तो नहीं छिपाया। सारी कहानी सुनकर वह मुसकराए। बोले, ‘‘सचमुच तुम्हारी कहानी बहुत करुणाजनक है। हम प्रयत्न करेंगे उस माँ से मिलने का।’’

और उन्होंने बड़ी ईमानदारी और बड़ी तन्मयता से प्रयत्न किया। तब हम लोग फिनलैंड की राजधानी हेलिंसकी में आ बसे थे। मेरे पति को वहीं काम मिल गया था और कुछ दिन बाद मुझे भी किंडर गार्टन में काम करने का अवसर मिल गया। तब एक दिन मैंने दृढ़ स्वर में अपने पति से कहा, ‘‘अब हम गोवा जाएँगे।’’

और मेरे पति, जो सचमुच मेरे जीवनसाथी थे, मुसकराए, ‘‘सब प्रबंध हो गया है, बस टिकट आने बाकी हैं।’’

और सचमुच अब मैं भारत पहुँच गई हूँ तथा गोवा जा रही हूँ। वहाँ मेरी जन्मदात्री माँ रहती है। ...ओह, जन्मदात्री माँ! कैसा है यह तेरा आकर्षण, तेरी ममता! तूने ही तो मनुष्य को सभ्यता के शिखर पर पहुँचाया है, इसलिए तो मैंने और मेरे पति ने अनथक परिश्रम करके साल्वेशन आर्मी के द्वारा तेरा पता लगाया। तुझे पत्र लिखा। उत्तर भी मिला, ‘तुम आ सकती हो।’

अन्ना जैसे-जैसे अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही है वैसे-वैसे उसकी बेचैनी भी बढ़ रही है। कैसी होगी मेरी जन्मदात्री माँ? कैसे प्यार करेगी? रोते-रोते आतुर हो उठेगी मुझे अपने में समाने के लिए, जैसे मैं आतुर हूँ उसे देखने के लिए।
किसी कवि ने कहा है, जैसे गंगा-स्नान करने के बाद पवित्र हो जाता है आदमी वैसे ही माँ के स्पर्श मात्र से भर उठता है तन-मन प्यार से।

सोचते-सोचते अन्ना पाउला बहुत दूर चली जाती है। बीच-बीच में उसके पति उससे बातें करते हैं। चूँकि अब खाना भी तो आने वाला है, इसलिए वह अचानक सबकुछ भूल जाती है और एक सहज पत्नी की तरह पति के साथ खाना खाती है, बातें करती है। उनके अभी कोई अपना बच्चा नहीं हुआ है, इसलिए अन्ना का सारा आकर्षण ‘जन्मदात्री माँ’ में केंद्रित हो गया है। भगवान् हर समय पृथ्वी पर नहीं आ सकते, इसलिए तो उन्होंने माँ को अपना स्थानापन्न बनाकर भेजा है। तभी तो इतना आकर्षण है इस ‘माँ’ शब्द में। माँ स्वयं भगवान् है।

वह फिर विचारों में खोने लगती है। उसके पति उसे झकझोरते हैं, ‘‘अब तैयार हो जाओ। हम पहुँचने वाले हैं।’’
‘‘कहाँ?’’
‘‘गोवा, तुम्हारी माँ के पास।’’
‘‘माँ के पास!’’ गद्गद हो उठती है वह यंत्रवत्।

पर दूसरे ही क्षण वह फिर विचारों में डुबकी लगाने को होती है, लेकिन अब समय नहीं है। उसके पति गोवा की प्रकृति को देखकर मुग्ध हो रहे हैं। कैसा सुंदर है यह देश, ऊपर निरभ्र नीला गगन, नीचे नीला सागर, कभी लहरें तीव्र होकर तटों से टकराती हैं। शोर उठता है, लेकिन दूसरे ही क्षण वे सब उसकी तरफ लौट जाती हैं। यहीं से तो वैज्ञानिक और खोजी लोग दक्षिणी धुव्र की ओर जाते हैं। फिनलैंड उत्तरी धुव्र के पास है और गोवा दक्षिण धुव्र को जानेवाला मार्ग है। दो विभिन्न संसार, दो विभिन्न संस्कृतियाँ, लेकिन मनुष्य तो एक ही है। संसार बदले, संस्कृति बदले पर मनुष्य और उसके पारिवारिक संबंध कभी नहीं बदलते। सारे संसार में माँ का एक ही अर्थ है। वही अर्थ तो उसे खींच लाया है यहाँ तक।

तभी सहसा परिचारिका की आवाज गूँजती है, ‘‘कुछ ही क्षणों में हम गोवा पहुँच जाएँगे। कृपया पेटियाँ बाँध लीजिए।’’

गद्गद हो उठी अन्ना पाउला।...अब मैं माँ के पास पहुँच जाऊँगी, वही माँ, जिसकी मुझे कुछ याद नहीं, लेकिन जिसका निर्विकार आकर्षण मुझे पागल किए हुए है; क्योंकि मेरी रगों में इसी माँ का रक्त बह रहा है। मैं उससे प्राकृतिक रूप से जुड़ी हूँ। कितनी भी दूर चली जाए, सदा जुड़ी रहेगी। उसी माँ को मैं अपनी आँखों से देखूँगी। उसे प्यार करूँगी, उसे छू सकूँगी और वह भी मुझे अपनी छाती से चिपटाकर कितना रोएगी। आँसू प्यार का प्रतीक ही तो है।

उनका वायुयान तीव्र गति से नीचे उतरता हुआ धरती पर दौड़ रहा है। गति धीरे-धीरे कम होती जाती है और अंततः वायुयान रुक जाता है। उसके अधिकारी हमें अलविदा कहते हुए हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं। वे भी मुसकराते हैं। उन्हें धन्यवाद देते हैं और नीचे उतरते हुए चले जाते हैं।
सारी औपचारिकताएँ पूरी होने में कोई परेशानी नहीं हुई; क्योंकि उनके पास कुछ भी आपत्तिजनक नहीं था।
बाहर आकर वे टैक्सी लेते हैं। कोई परेशानी नहीं होती। कैसी शांति है! कैसा वातावरण है!

...यही सब देखते-देखते वे अंततः कुछ देर बाद अपने गंतव्य पर पहुँच जाते हैं। एक छोटा सा सुंदर गाँव, नाम है ‘बारदेज’। प्राकृतिक दृश्य बहुत सुंदर हैं। यहाँ के नाना रूप स्त्री-पुरुष उनमें संपन्न भी हैं, असहाय भी। अन्ना सबको गहरी दृष्टि से देखती है। वह ढूँढ़ना चाहती है अपने अस्तित्व को। इसी वातावरण में तो उसने अपने प्रारंभिक जीवन के दो साल बिताए थे। दो साल का वैसे क्या अर्थ होता है, पर उसके पूरे जीवन के लिए एक अर्थ है उनका; क्योंकि उसकी जड़ें तो यहीं पर हैं। कोई कभी अपनी जड़ों से मुक्त हो सकता है क्या?

...लो, अब वह उस घर के सामने है, जिसमें उसकी माँ रहती है, जहाँ उसका शैशव मुसकराता था; लेकिन...लेकिन इस समय उसके अंतर में तो विचित्र तूफान उठा है। वह पागलों की तरह टैक्सी से उतरकर द्वार की ओर लपकती है। तभी उसके सामने समय से पहले वृद्धा हुई एक जर्जर, एक एल्कोहलिक महिला आ खड़ी होती है और लड़खड़ाती हुई आवाज में पूछती है, ‘‘तुम अन्ना हो, अन्ना पाउला...मेरी बेटी...’’
अन्ना हतप्रभ टकटकी लगाए उसे देखती है—यह है मेरी माँ, यह...।

उस एक क्षण में न जाने कितने युग बीत जाते हैं। दूसरे ही क्षण वह दौड़ती हुई जाकर जर्जर वृद्धा से लिपट जाती है, ‘‘हाँ-हाँ, मैं हूँ अन्ना, तुम्हारी अपनी बेटी। मेरे शरीर की धमनियों में तुम्हारा ही रक्त बह रहा है। मेरा शरीर तुम्हारे शरीर का ही अंग है।’’

अन्ना शायद इतना कुछ नहीं कह सकी थी। वह तो केवल भाव-विह्वल थी, लेकिन उसकी जन्मदात्री उतनी ही अलिप्त है। वह यंत्रवत् उसके शरीर पर हाथ फेरती है, ‘‘तुम मेरी बेटी हो, मेरी बड़ी बेटी! तुम्हें तुम्हारा बाप मुझसे छीनकर ले गया था।’’
‘‘हाँ-हाँ, माँ! मैं वही तुम्हारी बड़ी बेटी हूँ, तुम्हारी जाया, तुम्हारा रक्त। मैं तुमसे मिलने, तुम्हें लेने आई हूँ।’’

उसकी माँ के दूसरे पति भी तब तक वहाँ आ गए थे। वह उतने ही एल्कोहलिक हैं, पर संज्ञाहीन नहीं हैं। उसे समझाते हैं...तभी माँ पर जैसे दौरा पड़ता है। वह रोते-रोते विह्वल होकर उसे छाती से चिपटा लेती है, लेकिन दूसरे ही क्षण उसे अलग भी कर देती है। तभी एक किशोर और एक किशोरी वहाँ आते हैं। वे अन्ना के सौतेले भाई-बहन हैं। वह बड़े प्यार से उनसे बातें करती है। वे चकित भी हैं और खुश भी, उनसे मिलने उनकी बहन आई है।...

तब तक और भी स्त्री-पुरुष वहाँ घिर आते हैं। उनमें वे भी हैं, जिन्होंने अन्ना को दो वर्ष की आयु में खिलाया था। उनके साथ वह किलकारी मारती थी। वे उसे देखकर बहुत खुश हुए। वह इतनी बड़ी हो गई। माँ जैसी सुंदर है। कैसे सुंदर कपड़े पहने हैं! उसका पति कैसा गबरू जवान है और कैसा प्यारा! जरूर उनके पास बहुत पैसा होगा। लाए भी होंगे अपने साथ।

और अंततः उनकी सारी उत्सुकता पैसे पर केंद्रित होकर रह जाती है। अन्ना उनके प्रश्नों का बड़े प्रेम से उत्तर देती है। वे पूछते हैं, ‘‘तुम दोनों तो अच्छी नौकरी करते होगे। खूब कमाते होगे। तुम्हारी माँ तो सबकुछ पीने में खर्च कर देती है।’’

अन्ना पाउला के भीतर तो एक आग प्रज्वलित हो उठी है। उस वातावरण में उसका दम घुटने लगता है, पर वह आश्चर्यजनक रूप से अपने पर काबू पा लेती है। सब लोग अंदर आते हैं और फिर नाना रूप बातें, सुख-दुःख की बातें, परिवार से परिचय की बातें।

इसी तरह तीन दिन लोगों से मिलने-जुलने और उन स्थानों को देखने में बीत गए, जहाँ उसके पिता का परिवार रहता था। वह उस अस्पताल में भी गई, जहाँ उसका जन्म हुआ था, लेकिन इस प्रक्रिया में निरंतर उसके अंतर में एक प्रश्न घुमड़ता रहता कि मेरी माँ का क्या होगा? क्या इसे मैं अपने साथ ले जा सकती हूँ? उसके सौतेले पिता भाई-बहन! क्या करूँ मैं इन सबके लिए?...

इन तीन दिनों में वह निरंतर यही सोचती रहती थी, विशेषकर रात में, जब वह सोने के लिए अपने होटल में आती तब अपने पति से बराबर यही कहती कि मैं माँ को अपने साथ नहीं ले जा सकती, लेकिन इस हालत में उसे छोड़ भी नहीं सकती। मैं उसे दोष नहीं देती, लेकिन...लेकिन...

वह सहसा चुप हो जाती है, क्योंकि उसका अंतर उमड़ आया है और आँखों से बहने लगा है। उसके पति ने उसका कंधा थपथपाते हुए दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘देखो अन्ना, यह निश्चित है कि तुम अपनी माँ को अपने साथ नहीं ले जा सकतीं। उसके पति हैं उसकी देखभाल करने के लिए; लेकिन अपने भाई-बहन के लिए तुम अवश्य व्यवस्था कर सकती हो।’’

अन्ना ने सहसा एक अनचीन्हे आह्लाद से भरते हुए पूछा, ‘‘कैसे?’’

उसके पति मक्कू ने उत्तर दिया, ‘‘तुम अपनी बहन सैंडरीना को अपने साथ ले जा सकती हो। वह तुम्हारे साथ रहेगी, पढ़ेगी और अपने भाई रॉय को तुम किसी बोर्डिंग स्कूल में दाखिला करवा सकती हो तथा पढ़ने-लिखने का खर्च भेज सकती हो।’’

उसका पति अपनी बात पूरी कर पाता कि अन्ना ने उत्फुल्ल होकर उसे अपनी बाँहों में भर लिया। उसके मुँह पर चुंबनों की बौछार कर दी, ‘‘ओह मक्कू, तुम कितने महान् हो! तुम मेरे मन की बात कैसे जानते हो?’’
उसके पति ने मुसकराते हुए उत्तर दिया, ‘‘जैसे तुम्हें जानता हूँ।’’

अगले दिन सबकुछ भूलकर एक निश्चित भाव से वे सबसे पहले चर्च गए, उस देवी के सामने जहाँ उसके पिता ने उसके सकुशल जन्म लेने के लिए प्रार्थना की थी। वे उस अस्पताल में भी गए, जहाँ उसने पहली बार प्रकाश किरणों का स्पर्श पाया था। वह उस वकील से मिलने भी गई, जिसकी सहायता से उसे उसके पिता अपने साथ ले जा सके थे। वह उस घर को देखना भी नहीं भूली, जहाँ वह अपने पिता के साथ पुर्तगाल जाने से पहले रही थी। उसने ढूँढ़-ढूँढ़कर उन सभी व्यक्तियों को अपना परिचय दिया, जो उसके पिता को जानते थे, उनके मित्र थे।

कितनी खुशियाँ बटोरी अन्ना ने। उसने अपनी बारह वर्ष की सौतेली बहन सैंडरीना को साथ ले जाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी। कितनी बाधाएँ आईं उसके रास्ते में, लेकिन वह अंततः उस नाबालिग लड़की की अभिभावक बन ही गई। उसके लिए पासपोर्ट बनवाने के लिए उसने क्या कुछ नहीं किया। हेल्सिंकी से अपने बैंक से पैसा मँगवाया टिकट खरीदने के लिए।

वास्तव में अब तक यहाँ के लोगों में उसके प्रति ममता पैदा हो गई थी और उन्होंने सारी बाधाओं को पार करने में उसकी पूरी मदद की तथा अंततः सैंडरीना को साथ ले जाने के सारे रास्ते सुलभ हो गए।

लेकिन उसकी समस्याओं का अंत नहीं हुआ। रॉय? वह अपने सौतेले भाई रॉय का क्या करे? अंततः सबकी सलाह से उसने निश्चित किया कि जब तक वह उसे अपने साथ हेल्सिंकी नहीं ले जाती तब तक वह उसे ‘डान बोस्को हाई स्कूल’ में दाखिल करवा देगी।

और उसने वही किया और इसी के साथ उसकी तात्कालिक समस्याओं का अंत हो गया। माँ की देखभाल के लिए अपने सभी शुभचिंतकों को कह दिया। वह और कुछ कर भी नहीं सकती थी। उसका मन बार-बार भर आता था।

जिस दिन उसने अपनी सौतेली बहन सैंडरीना के साथ अपनी माँ और सौतेले पिता से विदा ली, उस दिन उसके अंतर में गर्व की लहरें उठ रही थीं। यद्यपि वह माँ के लिए वह कुछ नहीं कर पाई थी, जो वह करना चाहती थी, पर माँ के बच्चों के लिए उसने वह कुछ किया जिसकी कल्पना वहाँ के लोग भी नहीं कर सकते थे।

एक भीड़ उमड़ आई थी उसे विदा देने के लिए और वह भाव-विह्वल रोती हुई हवाई अड्डे के अंदर भागती हुई चली गई थी। मक्कू ने उसे अकेला छोड़ दिया था। वह जानता था कि हे‌ल्सिंकी पहुँचते-पहुँचते अन्ना का अंतर्मन अद्भुत सुगंध से भर उठेगा और वह सुगंध उसके जीवन की पहचान बन जाएगी।