तुलसी चौरा (उपन्यास) : ना. पार्थसारथी

Tulsi Chaura (Novel) : Na. Parthasarathy

संस्कृति व्यापक संदर्भो में देशकाल की पहचान में अखिल सार्वभौमिक मानवता से जुड़ती है। इस उपन्यास की कथाभूमि शंकर मंगलम् जैसे तमिलनाडु के छोटे से गाँव की है पर इसके पात्र ऐसे हैं जो गांव को ही नहीं विश्व को प्रभावित करते हैं। दुनिया के लिए केवल इस बात का महत्व है कि इस सुन्दर दक्षिण भारतीय गांव में विश्वेश्वर शर्मा के घर तुलसी चौरे पर दीया लगातार प्रज्ज्वलित होता रहेगा पर गांव के लिए केवल यह महत्वपूर्ण है कि दीये को प्रज्ज्वलित करने वाले हाथ किसके हैं। पूर्ण ज्ञानी और इच्छा द्वेष से रहित बुद्धिजीवी विश्व को रंग, वर्ग, जाति, भाषा खेमों में नहीं बांटते। उनकी सम दृष्टि यदि सभी को मिल जाए तो विश्व में शांति की प्रतिष्ठा में देर नहीं। यदि इस उपन्यास के माध्यम से लोगों में यह समदृष्टि पैदा हो सके तो यह उपन्यास की सफलता होगी।-ना० पार्थ सारथी

दो शब्द

समय मेरे लिए शाश्वत न सही पर उसके प्रति आस्थावान मैं हमेशा रही हूँ। अपने काम और समय के विस्तार के बीच संगति बरकरार रखने की कोशिश करती रही हूँ। इसी विश्वास और आस्था के बल पर कभी-कभी काम समय की प्रतीक्षा के लिए सरकाली भी रहती हूँ! ‘तुलसी माडम’ के अनुवाद की योजना पिछले वर्ष से दिमाग में रही, और इसी प्रतीक्षा के लिए स्थगित होती रही। पर ना॰ पार्थसारथी को इस वर्ष के प्रारम्भ में हुई असामयिक एवं आकस्मिक निधन से मेरे इस विश्वास को गहरा आघात पहुँचा है। एक मोह भंग, एवं एक नयी समझ भी पैदा हुई, वह यह कि समय नश्वर है। मनुष्य का कार्य असीमित हैं। मेरे मित्र सतीश जायसवाल ने एक जगह लिखा है, “मनुष्य के संदर्भ में समय की अनश्वरता अमुक मनुष्य के जीवन काल तक ही सीमित होती है।”
सच है, अगर यह बोध पहले ही होता तो यह पुस्तक उनके जीवन काल में प्रकाशित हो चुकी होती। इस महोभंग से उपजे बोध का ही परिणाम है, यह पुस्तक। इसे मैं उनकी पुत्री के विवाह पर भेंट के रूप में उसके मेंहदी लगें हाथों में सौंप रही हूँ। ना॰ पा॰ तमिल साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे। साहित्य अकादमी, राजा सर अण्णामलै चेट्टियार साहिंत्य पुरस्कार से पुरस्कृत, तथा ‘पोन विलंगु’ ‘समुदाय वीथि’ ‘नील नयनंगल’ जैसे सशक्त उपन्यासों के रचयिता का व्यक्तित्व इतना सहज और सरल था कि पहली ही भेंट में उनकी निश्छल आत्मीयता मुझे गहरे छू गयी। पहली ही भेंट में अपनी कई किताबें मुझे भेंट कर ढाली थीं, इस छूट के साथ कि मैं उनकी किसी भी कृति का उपयोग करने के लिए स्वतंत्र हूँ।
‘तुलसी माडम’ उनकी पसंद थी राजा सर अण्णामलै चेट्टियार पुरस्कार से पुरस्कृत इस उपन्यास की कथा भूमि ने मुझे भी प्रभावित किया था। सांस्कृतिक आदान-प्रदान की यह प्रक्रिया विपरीत देश/ काल/भाषा। संस्कृति के लोगों को कितना समीप ला सकती है, इस उपन्यास के पात्रों के माध्यम से बखूबी ना॰ पा॰ ने कहा है। धर्म का आधार बाह्याडेबर ही नहीं होता। होता है, तो इसके भीतर निहित मानवीय संबेदन शीलता। इसे महसूस करने के लिए भाषा, धर्म, प्रांत का सहारा नहीं लेना पड़ता। ‘तुलसी चौरा’ इसी सोच की परिणति है।
ना॰ पा॰ का वह दबंग ब्यक्तित्व, समझौता न करने की जिद्द, स्वतंत्र पत्रकारिता करते हुए भी सैद्धांतिक मूल्यों को बरकरार रखने की ताकत, ‘दीपम’ के माध्यम से नयी प्रतिमाओं को मंच देने का महत्वपूर्ण दायित्व- कितनी बातें इस वक्त याद आ रही हैं। अच्छा लेखन उन्हें प्रभावित करता था। नये से नये लेखक को वे पढ़ते, और मुझे लिखते। कई बार पुस्तकें भी भिजवाते। तमिल साहित्य का अच्छे से अच्छा लेखन मैं पढ़ूँ हिन्दी में उसका अनुवाद कर हिन्दी पाठकों के सामने उन्हें रखूँ―यह उनकी कोशिश रही। उनकी यह विशेषता थी कि- पारस्परिक वैचारिक मतभेदों को वे लेखन के मूल्यांकन के बीच नहीं लाते थे। अपने कटु से कटु आलोचकों की रचनाओं को भी वे पढ़ते, और उनकी उन्मुक्त कंठ से तारीफ भी करते। कई बार अपने साहित्यिक अमित्रों की रचनाओं का अनुवाद मुझसे करवाते। आज के महत्वाकांक्षी आत्म केंद्रित लेखकों में यह गुण शेष होता जा रहा है। आज ‘आरम उन्नयन’ का दौर है, पर ना॰ पा॰ उस दौर के थे, जब हमारी सुबह ‘सर्वे भवन्तु सुखिःन’ से शुरू होती थी और रात ‘मा कश्चिद् दुख भाग भवेत्’ से खत्म होती थी। हमारी सांस्कृतिक अस्मिता, निष्ठा, पर उनकी आस्था रही। उनकी कलम की निष्ठा भी इसलिए बरकरार रही। उस निष्ठावान कलम को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करती हुई, कामना करती हूँ कि सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति उनकी आस्था के एक अंश को ही सही मैं ग्रहण कर सकूँ।

जून, 1988
—सुमति अय्यर

तुलसी चौरा (उपन्यास)

शंकरमंगलम विश्वेश्वर शर्मा के परिवार में बुधवार और शुक्रवार के बीच भला ऐसा क्या घट गया है? हो सकता है इसका मूल कारण रवि का वह पत्र हो जो पैरिस से लिखा गया था। पं॰ विश्वेश्वर शर्मा इस बीच जाने क्या-क्या सोच गए थे। पर अब क्या करेंगे वे? बेटे की इस जिद को कैसे मान लें वह? लोग बाग भला क्या कहेंगे...ऐसी ही जाने कितनी ऊल जलूल बातें जेहन में घूम गयीं।

अब तो उन्हें लगता है, रवि को पैरिस भिजवाकर भूल की। वेणु काका की सलाह पर अखबारों में जो वैवाहिक विज्ञापन देना चाहते थे, उसकी तो अब जरूरत ही नहीं रही। साहबजादे ने कुछ गुँजाइश बचा रखी हो, तब न! सब कुछ तो खत्म हो गया है अब!

इसी शुक्रवार की ही तो बात है, स्थानीय संवाददाता विज्ञापन लेने आया तो वे सफाई से टाल गए बोले ‘फिर देख लेते हैं। ऐसी भी क्या जल्दी मची है।’ अपना कहा खुद को झूठ लगा।

जबकि बुधवार को, उसे स्वुद ही कहलवा भेजा था। सारा हिसाब भी लगा लिया था। पर शुक्रवार के आते-आते सब कुछ पलट गया।... एजेन्ट भी बेचारा दुखी हो गया होगा उसका कमीशन जो मारा गया। यह एजेन्ट आस-पास के शहरों से विज्ञापन बटोर कर भिजवाया करता। खैर, नुकसान तो हो ही गया उसका।

वेणु काका से पूछकर ही तो तैयार किया था, वह वैवाहिक विज्ञापन। कितनी आकर्षक पंक्तियाँ गढ़ी थीं उन्होंने 'यूरोप के शहर में, कुछ वर्ष तक रहकर, स्वदेश लौट रहे, उच्च शिक्षा प्राप्त बत्तीस वर्षीय कौशिक गोत्रीय युवक के लिए वधू की आवश्यकता है। सुन्दर, सुशील और मृदुभाषिणी कन्या के माता पिता संपर्क करें। लड़की कम से कम बी॰ ए॰ पास हो। फोटो सहित पूर्ण विवरण भेजें।'

एक प्रति पैरिस भी भिजवायी गयी। वेणु काफा की ही सलाह पर तो भिजवाया था।

वेणु काका के बेटा सुरेश, पैरिस स्थित यूनेस्को में अच्छे पद पर कार्यरत हैं। सुरेश पहले यू. एन. ओ. न्यूयार्क में था। फिर तबादले पर पैरिस चला आया। तब से पैरिस में सपरिवार रहता रहा था। जाने कितनी बार लिखता रहा वेणु काका और उनकी बेटी को। चार पाँच महीने पहले तो हवाई टिकट ही भिजवा दिए थे। वेणु काका और उनकी बिटिया को हार कर जाना ही पड़ा। वे लोग लौटे, तो विश्वेश्वर शर्मा के पास रवि की खबर भी लाए।

वेणु काका ने जब सारी बातें बतायीं, शर्मा जी को विश्वास नहीं हुआ। हालांकि वेणु काका ने सूचना देते वक्त पूरी सतर्कता बरती थी। उसमें शिकायत का लहजा कतई नहीं था।

'मैं तो खालिस तुम्हें आगाह करना चाहता था। अब गुस्से में, उसे उल्टा सीधा कुछ मत लिख बैठना, समझे। आजकल के लौंडों को लिखते वक्त भी खूब सोचना पड़ता है। कहीं यह मत लिख बैठना कि काका कह रहे थे कि वहाँ किसी फिरंगिन के चक्कर में पड़े हो। बस इतना लिखना कि इस बार छुट्टियों में जब घर आओगे तो सोचता हूँ, तुम्हारा ब्याह कर दूँ। देखते हैं क्या उत्तर आता है।' शर्मा जी ने दो सप्ताह पहले, इसी आशय का एक पत्र डाल दिया था। बृहस्पतिवार की सुबह, बेटे का एक संक्षिप्त पर तीखा उत्तर आ गया।

इन्हें लगा जैसे रवि ने हड़बड़ी में उत्तर दिया है।

'बाऊ जी, वैवाहिक विज्ञापन देने की कोई आवश्यकता नहीं है। उसे रोक लीजिए। मैं जानता हूँ, बेणु काका और दीदी ने यहाँ का सारा समाचार आएको दे ही दिया होगा। मैं नहीं जानता कि आपने सब कुछ समझ बूझकर लिखा है, या फिर अनजाने में ही लिख डाला है। मेरा उत्तर यही है, और रहेगा। कैमिल से मैं प्यार करता हूँ। वह भी मुझसे प्यार करती है। उसके बिना मैं जी नहीं सकता। यह सच है। मुझे लगता है, अगर कैमिल को मैं सुविधा के लिए कमली कहूँ, तो आपको जरूर अच्छा लगेगा। वह भी भारत आना चाहती है, और आप लोगों से मिलना चाहती है। इस बार मैं कमली को साथ लाना चाहता हूँ।"

लक्ष्मी सा चेहरा है उसका, सोने सा रंग। अम्मा से कहिएगा कि उसके लिये चाँद सी बहू ला रहा हूँ। कमली भी, अम्मा से बहुत कुछ सीखना चाहती है। मुझे भरोसा है, आप या अम्मा उसे कुछ नहीं कहेंगे। समझ लीजिए यह मेरा अनुरोध है।

याद है, बचपन में आप जब मुझे संस्कृत काका पढ़ाया करते थे, तो 'गांधर्व विवाह' की परिषाभा स्पष्ट करते हुए आपने कहा था कि जिस विवाह में न देने वाला हो, न लेने वाला पर दो व्यक्ति परस्पर एक दूसरे को चाहें। तन और मन दोनों से एकाकार हों वही गंधर्व विवाह है।....आपने यह भी कहा था कि यह विवाह सर्वश्रेष्ठ होता है। आज मैं वह सब आपको याद भर दिलाना चाहता हूँ।

यहाँ बैठे-बैठे मैं इस वक्त आपकी और अम्मा की मनःस्थिति का अंदाज लगा सकता हूँ।

कुमार की पढ़ाई कैसी चल रही है। पारू को मेरा प्यार पहुँचा दीजिए। कहिए कि उसकी फ्रैंच भाभी उनसे मिलना चाहती है।

बेणु काका और बसंती वी को मेरी याद कहें बसँती यहाँ कमली से खूब घुल मिल गयी थी। मेरे आने की सूचना उन्हें भी दे दें।

शर्मा जी ने इस पत्र को जाने कितनी बार दोहरा डाला होगा। कामाक्षी अलग से जान खाती रही।

'ऐसा क्या लिख दिया है, उसने? हमें भी तो कुछ बताइए।'

'तुम चुपा जाओ अब। साफ-साफ बता दूँ, तो सारा मोहल्ला इकट्ठा कर डालोगी। फिर...‘छोड़ो। मुँह मत खुलवाओ।'

'तो क्या आप सोचते हैं, मैं चिट्ठी पढ़वा नहीं सकती? अरे, पारू से पढ़वा लूँगी। नहीं तो शाम को कुमार आयेगा उसी से पढ़वाय लेंगे।'

उन्होंने पत्र को सँदूक में बंद कर दिया। सँदूक की चाबी अंटी में ही बँधी रहती है। वैसे कामाक्षी उनके इस दो टूक जवाब से ही कुछ अंदाजा लगा चुकी होगी। कहने को कह भी देते पर इधर वह कुछ ऊँचा सुनने लगी है। एकबार लो वे ऊँची आवाज में कहना शुरू किया था, फिर जुबान काट ली थी। खैर, कामाक्षी ने भी जिद नहीं की, यह अच्छा ही हुआ।

XXX

शंकरमंगलम का अग्रहारम आम अग्रहारों की तरह ही है। आपसी खींचातानी, उठापटक, बैर भाव, ईष्र्या-द्वेष सब है वहाँ। बुजुर्गों की पुरातन कट्टरता, जातिगत भेदभाव, नये लड़कों का शहर की ओर पलायन, दलगत राजनीति, खेत खलिहान के झगड़े, आगजनी― सब कुछ वैसा ही है जैसा किसी भी गाँव में होता है।

यूँ आज का आम भारतीय गाँव, पुराने मूल्यों का पक्षधर भी कहाँ रहा? नये मूल्यों के प्रति सहजता भी नहीं रहती वहाँ। न पुराने का मोह छूट पाता है न नये बदलते मूल्यों को ही वे अपना पाते हैं। लिहाजा एक त्रिशंकु की-सी स्थिति बनी रहती है। धर्म- अधर्म, न्याय-अन्याय, लालच, ईर्ष्या, चोरी, दोस्ती, जुएबाजी-पूजा पाठ, तंबाकू-कथा पुराण, गरीबी-संपन्नता―ऐसी कितनी ही बेमेल बातों का पिटारा है, यह गाँव। यही क्यों? शायद हर गाँव...। और फिर यदि गाँव उपजाऊ क्षेत्र में हो, तो फिर पूछना ही क्या। एक के बाद एक समस्यायें। कोई अंत ही नहीं। शंक रमंगलम की जमीन बेहद उपजाऊ है। तिस पर अगस्त्य नदी, कभी सूखने का नाम नहीं लेती। सोना उगलने वाली धरती। गाँव से निकलकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जीने वालों में वेणु काका के बेटे सुरेश का नाम सबसे पहले लिया जाता है। हालांकि इस गाँव के कई लोग अच्छे उद्योगों में लगे हैं, कुछ ऊँचे सरकारी ओहदों पर हैं, कुछेक कम्पनी के प्रबन्धक भी हैं, पर सुरेश के बाद शर्मा जी का बेटा रवि ही है, जिसे सम्मान हासिल हुआ है। चार पाँच वर्ष पहले रवि ने जब इस नौकरी के लिये आवेदन भिजवाया था, तो उसने कल्पना भी नहीं की थी कि यह नौकरी उसे मिलेगी।

फ्रांस स्थित एक विश्वविद्यालय में 'प्रोफेसर ऑफ इंडियन स्टडीज- एंड ओरियंटल लैंगबेज डिपार्टमेंट' के रिक्त पद के लिये वह विज्ञापन 'इंजियन काउंसिल फाँर कल्चरल रिलेशन्स' की ओर से दिया गया था। अनिवार्य योग्यताओं में पी. एच. डी. के अतिरिक्त तमिल, संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी और फ्रेंच के विशेष ज्ञान की आवश्यकता पर बल दिया गया था। रवि के पास ये तमाम योग्यताएँ थीं। एक साल की बेकारी में, उसने फ्रेंच की कक्षाओं में जाना शुरू कर दिया था। वहीं डिप्लोमा तब काम आ गया।

दिल्ली में हुए इन्टरव्यू में कुल छह लोग आये थे। दो तो उम्र की वजह से रह गये। बाकी बचे लोगों में किसी को फ्रेंच का ज्ञान नहीं था, किसी को संस्कृत का सो खारिज कर दिया गया। बाजी मार ली, रवि ने।

शुरू में शर्मा जी हिचकिचाए, पर जो मासिक आय वहाँ मिल रही थी, उसकी तो कल्पना तक भारत में नहीं की जा सकती थी। लिहाजा बेटे को भिजवाने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था। रवि की विदेशी नौकरी का संक्षिप्त इतिहास यही है। शर्मा जी ने आज की इस समस्या पर विचार करते हुए इस इतिहास को भी मन ही मन दोहरा डाला। उन्हें लगा, कि इससे पहले कि वे कोई निर्णय लें, वेणु काका से सलाह करना जरूरी है।

रवि का पत्र लेकर वे काका के घर चले गए। काका घर पर नहीं थे। बसंती बैठक में ईब्स बीकली पढ़ रही थी।

शर्मा जी को देखते ही उठ खड़ी हुई, ‘आइए काकू, बाबा बाहर गए हैं। लौटते ही होंगे। बैठिए....।’

‘ठीक है, बिटिया। बाबा को आने दो। पर तुमसे भी बातें करनी हैं, कुछ जरूरी।’

‘बस, अभी आयी। माँ से कह कर पहले काँफी तो बनवा लूँ।’

'काँफी के चक्कर में काहे पड़ गयी, बिटिया। हम तो बस, अभी पीकर आये हैं।’

‘तो क्या हुआ? मुझे भी पीनी है। तो क्या आप साथ नहीं देंगे?’

‘अरे क्यों नहीं। तू कहे, और मैं न मानूँ?’

बसंती हँसती हुई भीतर चली गयी। काकी कभी सामने नहीं पड़ती।

गांव की यह आदत अभी भी बरकरार है। बसंती और काकी के बीच एक पूरी पीढ़ी का अंतराल है।

काकी, शर्मा जी के सामने कम ही पड़ती। पर बसंती? शर्मा जी के सामने बैठती ही नहीं बल्कि उनसे किसी भी विषय पर धड़ल्ले से चर्चा करती, हँसती, बतियाती।

‘क्यों काका? रवि का कोई पत्र आया?’

‘हाँँ, बिटिया। इसी पर बात करने आया हूँ।’

‘काहिए, काका? क्या लिखा है?’

शर्मा जी ने रवि का पत्र उसकी और बढ़ा दिया। बसंती ने पत्र पढ़कर उन्हें लौटा दिया। ‘कमली सचमुच बहुत प्यारी लड़की है।’ यह वाक्य उसकी जुबान तक आते-आते रुक गया। पर जाने क्या सोचकर अपने को रोक लिया।

पता नहीं, काका कैसी मनःस्थिति में यहाँ आए हों। जल्दबाजी में कुछ कह देना बुद्धिमानी नहीं।

भीतर से काकी ने आवाज लगाई। बसंती दो गिलास़ो में काँफी ले आयी।

दोनों ने चुपचाप काँफी पी। इस बीच कोई बातचीत नहीं हुई। शर्मा जी ने ही बात शुरू की, मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा होगा।

‘ऐसा क्या गलत हो गया, काका?’

‘अब और क्या बाकी रह गया।’

‘देखिए काका, मेरी मानिए! चुपचाप दोनों को लिख दीजिए कि वे यहाँ आ जाएँ। मैंने और बाबा ने तो वहीं भाँप लिया था। हमें लगा, कि आपको किसी तरह का संदेह न रह जाए, इसलिए वैवाहिक विज्ञापन वाली बात सुझाई थी। अब तो रवि ने स्वयं ही सब कुछ स्वीकार कर लिया है।’

‘क्यों बिटिया, बुरा न मानो तो एक बात कहूँ।’

‘क्या है काकू?’

‘कुछ लोग कहते हैं, कि ये फिरंगिनें पैसे के लालच में हिन्दुस्तानी लड़कों को फँसाती हैं। फिर पैसे झटककर चलती बनती है। तुम तो उस लड़की को जानती हो, मिली भी हो। रवि यहाँ आये, हमें इसमें कौन एतराज हो सकता है। यहाँ आ जाएँ तो उस लड़की से बातें करके देख लेना।’

‘क्या बात करूँगी काकू?’

‘वही पैसे वाली बात! और कौन सी?’

‘शायद आप गलत समझ रहे हैं। कमली वैसी लड़की नहीं है। रवि पर तो जान देती है, वह लड़की। पैसा तो उसके लिये मामूली बात हैं, काका। वह करोड़पति बाप की इकलौती बेटी है। पैरिस और फ्रैंच रिवेरों में उसके पिता के कई होटल हैं। लाखों के वाइन यार्ड हैं। अपने शंकरमंगलम जैसे दस शंकरमंगलम वे खड़े-खड़े खरीद डालें।’

शर्मा जी चुप लगा गए, समझ में नहीं आया क्या कहें।

XXX

‘कुछ देर के मौन के बाद फिर बोले, तुम्हारा भाई भी तो वहीं है न। उसे लिखकर देंखे? क्या कुछ हो सकेगा?’

आखिर आप चाहते क्या हैं, काका?

‘सोच रहा था कि उनके रवाना होने के पहले ही सुरेश उन लोगों से मिल लेता। तुम ही बताओ बिटिया? यह कैसे संभव हो सकता है?’ ‘मेरी तो समझ में ही नहीं आता काका कि मैं आपको क्या जवाब दूँ। इस समस्या पर उनका दृष्टिकोण बिल्कुल दूसरा होता है। जो लोग यहाँ से जाकर वहाँ बस गये हैं, उनमें भी यही उदारता, पर्सिसिवनेस आ ही जाती है। अगर सुरेश को इसके बारे में बता भी दिया जाए तो वह तुरन्त कहेगा, ‘यह तो अच्छी बात है। रवि बहुत भाग्यशाली है?’ ऐसा है काका कि इस समस्या को आप जिस दृष्टि से देख रहे हैं, वह उनकी समझ से परे है। अगर वे समझ भी लें, तो उनकी दुनिया की मान्यताएँ अलग हैं, काका!

‘पर बिटिया, लोगबाग क्या कहेंगे? थूकेंगे नहीं हम पर कि शंकर- मंगलम व्याकरण शिरोमाणि कुप्पुस्वामी शर्मा का पोता फिरंगिन को भगा लाया। हमारे संस्कार, हमारी परम्परा सब कुछ कैसे छूटे, बिटिया? कल हमें कुछ हो जाए, तो क्रिया कर्म भी तो उसी को तो करना है ना!’

इलने में ही बेणु काका भीतर आ गए।’ अरे! शर्मा जी आइए!’ शर्मा जी ने सविस्तार सारी बातें फिर से बताई। पत्र भी पढ़वा दिया। वेणु काका हँस दिये। बोले, वाह पठ्ठा बया खूब याद दिला रहा है, गंधर्व विवाह की।’

शर्मा जी ने सहमते हुए सुरेश के माध्यम से अपने बेटे का मन टोहने का सुझाव भी दिया।

‘नहीं, शर्मा, यह असंभव है। वहाँ तो कोई भी किसी की निजी जिंदगी में दखल नहीं देता। सुरेश तो शादी ब्याह के बाद दिल्ली से वहाँ पहुँचा था। पहले न्यूयार्क रहा, फिर पैरिस। अगर वह भी वहाँ छड़ा ही गया होता तो हो सकता है, मेरी स्थिति भी तुम्हारी जैसी हो गयी होती। हो सकता है, एक अमेरिकी या फ्रैंच बहू होती, और मैं विरोध तक न कर पाता।’

वेणु काका तो शर्मा जी का बोझ कम करना चाहते थे। वे शर्मा जी के भीतर की शंका, उनका भय बखूबी समझ रहे थे। शर्मा जी का परिवार वैदिक कर्मकांडी पंडितों का रहा है। शर्मा जी स्वभाव से भले ही अच्छे हों, पर हैं, दकियानूस। बचपन में ही वेद शास्त्रों का अध्ययन कर चुके थे। पीढ़ी-दर-पौड़ी वेदों का अध्ययन उनके यहाँ होता रहा था। गाँव के कई धार्मिक, नैतिक मसलों पर शर्मा के परिवार की ही सलाह ली जाती। उत्तरी दक्षिणी और बीच के मोहाल में अद्वैत मठ के आचार्य के विशेष प्रतिनिधि थे। इस कारण उनकी प्रतिष्ठा जो थी सो थी ही, साथ ही श्रीमठ के लिए दान आदि जुटाने का काम भी उन्हें ही सौंपा गया था। बेटे के इस विवाह का प्रभाव उनकी प्रतिष्ठा पर पड़ेगा, यह वह समझ रहे थे। वेणु काका की समझ में बात आ गयी। ‘मैं तो सोच रहा था कि किसी तरह इसे रोक लूँगा। तभी तो मैंने इस पत्र के बारे में किसी से चर्चा नहीं की।’

‘अब तो काकू, ऐसा सोचना ही छोड़ दो। कमली को अब अलग करके देखना नामुमकिन है। मैं जब पैरिस में कमली से विदा ले रही थी, तो उसने बहुत प्यार से एक अलबम भेंट में दी थी। अगर आप बुरा न मानें तो दिखा दूँ?’

भीतर की तमाम नफरत के बावजूद, कहीं न कहीं उस फिरंगिन को देखने की इच्छा तो थी ही। बेटे की पसंद को वे देखना भी चाहते थे। पर अपनी इस प्रबल इच्छा को कैसे प्रकट करते। लिहाजा चुप्पी साध गये।

‘अरे, काकू को दिखा दो न। देख लें वे भी’ वेणु काका बोले। फिर शर्मा को देखकर मुस्कुरा दिए। ‘शर्मा सोचो तो, मन में अगर थोड़ा भी छल कपट होता तो क्या वह अलबम भेंट में देती? फ्रैंच लोग होते ही हैं, इतने आत्मीय। और आपके रवि की यह जो कमली है न, अद्भुत लड़की है। उससे तो दिन भर बातें की जा सकती हैं। अंग्रेजी में एक कहावत है। ‘फ्रांस ईज नाट एक कंट्री बट एन आयडिया’―उस पर पूरी तरह चरितार्थ होती है।’

देणु काका के मुँह से कमली की प्रशंसा सुनकर शर्मा जी सोचने लगे। बसंती ने भी खासी तारीफ ही की थी। अब काका भी! शर्मा जी को एक बात साफ समझ में आ गयी। कमली और रवि को अलगाने में इन लोगों से कोई मदद उन्हें नहीं मिल सकती।

उन्हें याद आया कि काका बातों-बातों में ‘रवि की बो’ कहते हुए अटक गये थे। शायद पत्नी कहना चाहते रहे हों और उनका लिहाज कर रुक गये हों। क्या पता वहाँ थे लोग अँगूठी-वगूँठी बदलकर पति पत्नी ही बन गये हों, और यहाँ ये टापते ही रह जाएँ।

बसंती के अलबम ला कर दी। पहला चित्र बर्फ पर फिसलते रवि और उस फिरंगिन का था।

बसंती ने कहा, ‘यह चित्र स्विट्जरलैंड का है। जब वे दोनों वहाँ घूमने गये थे...।’

‘शर्मा जी, फोटो देखकर यह मत समझ लें कि लड़की सिर्फ घूमने फिरने वाली तितली है। आप सारा यूरोप छान डालें, ऐसी बुद्धिमान लड़की नहीं मिलेगी। फ्रैंच के अलावा जर्मन, अंग्रेजी भी जानती है। रवि से संस्कृत, तमिल और हिन्दी भी सीख रही है!’

शर्मा ने अगला पृष्ठ पलटा।

‘यह बेनिस में लिया गया है। इटली में इसे तैरता शहर कहते हैं। पैरिस से जेनिवा, रोम सभी स्थानों को रेल से ही जाया जा सकता है। बाबा के साथ मैं भी गयी थी। पता है काकू, वे लोग रोम को रोमा कहते हैं। अगला पृष्ठ! शर्मा जी की उँगलियाँ काँपने लगी। वेणु काका उन्हें उत्साहित करने लगे।

'पैरिस में जब मैं उससे सौंदर्य लहरी' की चर्चा कर रहा था, तो मुझसे जाने क्या-क्या सवाल करने लगी। पर मैं ठहरा निपट अनाड़ी। मैंने तो कह दिया कमली से, कि भई यह सब अपने भावी ससुर से पूछ लेना। वे संस्कृत के प्रकांड पंडित हैं।'

'क्यों? रवि ही बतला देता!' शर्मा जी की आवाज में कटुता थी।

वेणु काका हतोत्साहित नहीं हुए। शर्मा जी के मन की कटुता को करने की एक कोशिश और की।

'कमली की विनम्रता, सौम्यता, देखकर तो शक होता है कि क्या सचमुच वह इतने बड़े बाप की बेटी है। इतना प्यारा स्वभाव है उसका।'

शर्मा जी ने खटाक् से अलबम बन्द किया और उठ गये। 'मन ठीक नहीं है, किसी दिन फिर आऊँगा। कहकर चलने लगे। बसंती और काका ने उन्हें किसी तरह समझा बुझाकर बिठाया।

पंडित जी को लगा, इस मामले में रवि को वेणु काका और बसंती का पूरा सहयोग मिल रहा है।

उन्हें शान्त करने के लिए बातों का रुख बदलना जरूरी लगा। वेणु काका ने कहा, 'नहरिया के पास वाले नारियल के बाग को बटाई के लिए उठाया या नहीं! इस साल लगता है, नारियल, आम और कटहल की अच्छी उपज रहेगी।'

'न, अभी कहीं बात जमी नहीं। अच्छा आदमी नहीं मिला।, न हुआ कुछ तो सोचता हूँ, एक चौकीदार रख लूँगा और खुद काम देख लूँगा।'

'और ये मठ वाले खेत! इनका क्या करेंगे?'

'अब उसके लिए तो किसी से बात तय करनी ही होगी। खेती की बात और है, बागों की और। खेत बटाई में आसानी में उठ जाएँगे।'

'दक्खिनी मोहल्ले के शंकरसुमन ने, सुना है बिटिया के ब्याह के लिए खेत समेत बाग भी बेच डाले! कुछ पता है?'

'हाँ, सुना तो मैंने भी हैं।'

थोड़ी देर इधर उधर की बातों में शर्मा जी को लगाकर वेणु काका ने पुरानी बात फिर छेड़ दी।

'अब आप गुस्से में रवि को उलटा सीधा मत लिखिए। खुले मन से काम ले लो फिर। वैसे आप समझदार हैं आपको बताने की जरूरत नहीं है।'

आप तो महापंडित हैं, ज्ञानी हैं।

'पर आप मेरी समस्याओं के बारे में भी तो सोचिए। मुझे तो गाँव वालों और मठाधिकारियों को भी तो जवाब देना होगा। और लोगों को तरह मैं सीना फुला कर नहीं चल सकता। यह मत भूलिये काका, कि रवि के अलावा भी, मेरे दो बच्चे और है। गाँव वालों के बारे में लो आप लोग जानते ही हैं। कोई धरम करम की बात हो, तो कोई साथ नहीं देता, पर एक आदमी पर थूकना हो, तो साले सब एक हो जाएँगे। अच्छी बातें तो समझ में नहीं आयेंगी, बुराइयों को उछालेंगे। बाज वक्त तो अच्छी बातें भी उन्हें बुरी नजर आती हैं। ऐसे लोग है कि बस....!'

तुम्हारी बात से मैं इन्कार नहीं करता, शर्मा पर रवि का मन? उसे क्यों दुखायेंगे आप? फूल सा मन है, उसका।'

शर्मा जी चुप रहे। अलबम को उठाकर फिर पलटने लगे। वेणु काका बसंती को देखकर आँखों में ही हँस दिए। बसंती ने अपनी कमेंट्री फिर चालू कर दी....।

'यह जनेवा की झील है। किनारे पर घंटों खड़े रहो, वक्त का पता ही नहीं चलता, मुझे यह जगह बहुत पसन्द है काकू!'

एक आग का चित्र था। बड़े-बड़े फूलों वाले बाग में कमली और रवि दोनों ही थे।

'यह फूल कौन सा है। बिटिया? इतना बड़ा और इतना सुन्दर.....'

'इसे टुलिप कहते हैं। हालैंड में बहुत होते हैं काकू। वहाँ तो इसके फूलने के मौसम में टुलिप उत्सव ही मनता है।'

अगला पृष्ठ!

'यह क्या है? कोई खंडहर लगता है। महल का चित्र है क्या?'

'अग्रो-पोलिस है। ग्रीस की राजधानी एवेन्स में यह मशहूर स्थल है।'

'मतलब यह हुआ कि दोनों पूरा यूरोप घूम आये।'

'अकेले ही तो घूमे होंगे वहाँ? क्यों?'

वेणु काका और बसंती समझ नहीं पा रहे थे कि पंडित जी का यह प्रश्न सहजता से भरा था या के कुछ उगलवाने की चालाकी पर उतर आये थे।

एक सधे हुए नाविक की तरह उन्हें बातचीत की नाव आगे धीमे धीमे खेनी पड़ी। शर्मा जी के गुस्से का झंझावात कभी भी उठ सकता था। पंडित शर्मा जी, फिर कहीं उठ कर न निकल पड़ें, इसकी पूरी सतर्कता बरती जा रही थी।

आशा के विपरीत रवि की बातचीत पंडित जी ने स्वयं छोड़ दी थी, पर क्या पता बातचीत का रुख किस ओर निकल जाए। यह खटका उन्हें लगातार बना रहा। यही वजह थी कि कुछ प्रश्नों से वे कतरा रहे थे। पर उन्हें लगा, वे बच नहीं सकते, पंडित जी बातचीत के इसी ओर आगे बढ़ाना चाहते हैं।

उन्हें देखकर बोले, 'चलो, यह मूर्खता कर बैठा, मान लिया।

पर उसका परिवार? उसके घरवाले नहीं मना करते? आप ही तो कह रहे थे कि उसका बाप करोड़पति है ...।'

'काका, वहाँ के लोग रोकने का अधिकार नहीं रखते। पढ़े लिखे युवकों को अपनी जिंदगी चुनने की पूरी स्वतन्त्रता है वहाँ। वहाँ तयशुदा शादियां, जिन्हें माता पिता तय करते हैं, बहुत कम होती है।'

'तुम तो कह रही थी कि वह करोड़पति बाप की बेटी है। तो उन्हें क्या अपनी इज्जत हैसियत का भी ख्याल नहीं?'

'वै यहाँ के धनिकों की तरह नहीं होते। उन्हें चौबीसों घंटे अपने पैसे का गुमान नहीं रहता। पैसा वहाँ सुविधा भोग के लिए है, वरदान नहीं। कितनी लड़कियाँ हैं जिन्होंने नीग्रो लड़कों से प्रेम विवाह किया है। ऐसी शादियों का भी विरोध नहीं होता। ऐसी शादियाँ परिवार में मनमुटाव नहीं लातीं। वहाँ दुराव छिपाव जैसा कुछ नहीं है। लड़कियाँ इतनी साहती और ईमानदार होती हैं कि प्रेमी को ले जा कर माता पिता के सामने खड़ा कर दें। कमली तो, इंडियन स्टडीज, फेकल्टी के अन्तर्गत रवि से इन्डोलोजी पढ़ रही थी। वहीं से वह रवि को चाहने लगी। यह बात उसने खुद मुझे बतायी थी।'

'अब कोई कुछ भी कह ले। क्या होगा इससे बिटिया? मेरी तो मति मारी गयी थी। न भेजता इस लौंडे को फ्रांस, न यह दिन देखना पड़ता।'

'कमाल करते हैं, शर्मा जी। थोड़ी देर बाद कहेंगे कि काश इसे पैदा ही न किया होता...'

वेणु काका हँस दिये धीमे से।

कुछ देर के मौन के बाद शर्मा जी ने ही बातों का सूत्र फिर से जोड़ दिया।

'अब आप लोग ही बताइए, क्या करना होगा मुझे। इस पत्र का उत्तर दूँ या न दूँ। मैं नहीं चाहता कि वे यहाँ आएँ। अब न कहने की भी हिम्मत नहीं पड़ती।'

'अरे, पेट जाये बेटे को भला कोई आने से रोकता है क्या? अब ऐसा उसने क्या कर डाला, कि आप बेहाल हो रहे हैं?'

'अभी तक तो नहीं हुआ काका। अब लगता है, हो जाऊँगा?'

'आप ऐसी ऊल जलूल बातें क्यों करते हो शर्मा जी? ईश्वर की कृपा से आप को कुछ नहीं होगा। जो होगा उसकी इच्छा से ही होगा। बस इतना अनुरोध जरूर करूँगा कि कुछ दिनों के लिए मन शांत रखें।' देणु काका ने प्यार भरे स्वर में कहा।

'रवि बहुत दिनों के बाद लौट रहा है। आप अपना मन शांत कर लें। हमारी भारतीय परम्परा परिवार के बंधनों को महत्व देती है। इस बात की तारीफ वे लोग करते हैं। हम संयुक्त परिवार की बात कहते हैं, ये बंधन, यह आपसी स्नेह, उन लोगों के लिये अपूर्व अनुभव है। उनके सामने बाप बेटे एक दूसरे के खिलाफ खड़े होंगे तो, सोचिए कैसा लगेगा? वे लोग अभी बातें ही कर रहे थे कि बसँती ने सड़क की ओर देखते हुए कहा,' 'काकू, पारू शायद आपको ढूँढ़ती हुई आ रही है।'

शर्मा जी ने सड़क की ओर देखा। बसंती बाहर निकल आयी।

'बाऊ भूमिनाथपुरम वाले मामा जी आए हैं। कह रहे थे लगन पत्र तैयार करना है। एक घंटे में आकर ले जाएँगे।'

'कौन?' रामस्वामी...? अरे हाँ, भूल ही गया था। आज संझा भूमिनाथपुरम वरीच्छ में जाना है।'

'तो क्या हुआ? यहाँ से भूमिनाथपुरम कौन बहुत दूर है। नदी पार ही तो है। सूरज ढलने लगे तो निकल लीजिए घर से।' वेणु काका ने कहा। शर्मा जी की लड़की पार्वती लहँगा चुनरी पहनी थी। मुश्किल से बारह की उम्र होगी, पर तीन चार साल अधिक की ही लगती है। भरी हुई देह, सुन्दर नाक नक्श, एक दम साफ रंग। काले घुँघराले बाल। एक बार कोई देख ले, दुबारा जरूर देखना चाहेगा।

'क्यों री, स्कूल छूट गया क्या अभी तो छूटने में वक्त है।' बसँती ने पूछा 'चार, पाँच टीचर छुट्टी पर हैं, दीदी। इसलिये आखिरी पीरियड छूट गया।' बसंती ने उसे अपनी देह से सटा लिया और भीतर ले गयी।

'इस साल इसका स्कूल फाइनल हो जाएगा,' कुमार का बी॰ ए॰ में पहला साल है। कालेज जाने के लिये रोज बीस मील की यात्रा करनी पड़ती है। रोज उसे लौटते सात साढ़े सात हो जाते हैं। बेटी को तो नहीं पढ़ाऊँगा। बस स्कूल फाइनल कर ले, फिर व्याह दूँगा।'

'गांव में ही कोई कालेज हो तो पढ़ा सकते हैं। लड़कियाँ बाहर पढ़ने जाएँ, यह कुछ ठीक नहीं लगता। फिर कस्बे के एक मात्र कालेज में भी लड़के लड़कियाँ साथ-साथ पढ़ते हैं। आपको वह अच्छा नहीं लगेगा।'

'मुझे क्या अच्छा लगता है, क्या बुरा, यह तो बाद की बात है। विद्या ज्ञान और विनय का संबर्द्धन करे, यह जरूरी है। पर देखता हूँ, इधर विद्या अज्ञान और उद्दंडता को ही बढ़ाती है। हर एक छात्र अपने को फिल्मी नायक समझने लगा है और छात्रा अपने को नायिका से कम नहीं समझती। आप ही बताइये, गलत कह रहा हूँ?'

'पर आपकी बात सुनने वाला यहाँ है कौन? लोग आपको दकियानूस कहकर मखौल बनाएँगे।'

'बस यही तो नहीं होता। बस आप ही ऐसा कहते हैं। हमारे यहाँ पुस्तकालय के इरैमुडिमणि है न, वह भी मेरी बातों से सहमत है। उनका कहना है, कि आज की युवा पीढ़ी भविष्य की चिंता नहीं करती, श्रम का महत्व नहीं समझती, बस नकली और क्षणिक सुख सुविधाओं में ही लिप्त है। वह न शारीरिक श्रम के योग्य है न मानसिक। बस एक त्रिशंकु की स्थिति में जी रहे हैं ये लड़के। यह बहुत ही घातक स्थिति है।'

'कौन? देवशिखामणि नाडार? यह तो मेरे लिये आश्चर्य की बात है कि आप दोनों के विचार एक हैं।'

'खैर जो भी हो। हम लोगों में कई मतभेद हैं पर कुछ मुद्दों पर दोनों की सोच एक सी है। वह ईमानदार है, परोपकारी है, एकदम पारदर्शी है सहज और सरल।'

'आप इतने निष्ठावान आस्तिक हैं और वह घोर तार्किक! आप उसकी इतनी तारीफ जो कर रहे हैं....।

'क्यों, क्या नास्तिक ईमानदार नहीं हो सकते?'

'हाँ, हाँ ठीक है। आप अपनी बात भूल गए और मैं भी बातों में उलझ गया। यह आस्तिक नास्तिक वाली चर्चा फिर कभी फुर्सत में करेंगे। फिलहाल हम अपनी असली बात पर आ जाएँ।

शर्मा जी वेणु काका के पास आकर धीमे से बोले, 'इस साहब- जादे ने जो गुल खिलाया है, मुझे तो लग रहा है, बिटिया के लिये कहीं भी बात तय करने में मुश्किल हो जाएगी। कुमार की तो कोई फिक्र नहीं। लड़का है। शादी में विलंब भी जाए तो कोई चिंता नहीं। उसकी पढ़ाई के दो साल अभी बाकी हैं। पर बेटी के लिये चिंता तो करनी होगी नं। एक परिवार में पुरुषों के द्वारा किये जाने वाली एक-एक गलती की सजा उस परिवार के स्त्रियों की ही तो भुगतनी पड़ती है? तिस पर जहाँ लड़कियाँ सयानी हों...।'

'आपने फिर वही बात उठा ली। देखिए! रवि ने ऐसा अनर्थ नहीं किया है, कि आपका परिवार ही बरबाद हो जाए। यह बीसवीं शताब्दी है। इस शताब्दी में, हवाई यात्रा, रेल यात्रा, चुनाव, प्रजातंत्र एवं समाजवाद की तरह प्यार करना भी उतनी ही आम बात हो गयी है।'

'पर काका, शंकरमंगलम जैसी जगह के लिये यह खास बात है। खासतौर पर हमारे खानदान में। अब तो लगता है, पारू की पढ़ाई अधूरी ही छुड़वा दूँ, और झटपट कहीं बात तय कर दुँ। इससे पहले की साहबजादे फिरंगिन के साथ यहाँ आकर नंगा नाच मचाएँ, इस लौंडिया को उसके घर भिजवा दूँ।'

'यह गुड्डे गुड़ियों का ब्याह तो है नहीं। जरा सी बच्ची है, उसकी पढ़ाई छुड़वा कर उसका ब्याह रचा देंगे आप? क्यों यार, मन में माया मोह भी नहीं बचा?'

'बाल विवाह कोई नयी बात तो नहीं है। हमारी और आपकी शादी भी तो ऐसी ही हुई थी।'

'तो? क्या यह गलती इन लोगों के साथ भी दोहरायी जाएगी? कोई मजबूरी तो है नहीं!'

'न! मैं तो यह कह रहा था, कि साइबजादे की करतूत देखकर तो वही मन में आता है कि…।

'बस बस! अब ऐसी बातें सोचना भी मत! आगे की सोचो। सबसे पहले तो उसे एक पत्र लिखो। फिर उन लोगों के ठहरने की व्यवस्था शुरू करो…।'

'क्या करूँ?'

'फ्रेंच लोगों के लिये प्रायदेसी बहुत जरूरी है। यूँ तो सभी विदेशी प्रायदेसी को महत्व देते हैं, पर फ्रेंच लोगों का दिल बहुत नरम होता है। उनके तौर तरीके, उठने बैठने की नजाकत और नफासत देखते ही बनती है। शंकरमंगलम के अग्रहारम में बीचों बीच स्थित आपका पुश्तैनी घर तो धर्मशाला लगता है। एक ही बैठक है नीचे, ऊपरी तल्ले पर एक बड़ा कमरा। स्नानघर भी नहीं है। और तो और कुँए के पास नहाने की व्यवस्था भी नहीं है। आप और पंडिताइन दोनों ही नदी में नहा आते हैं। अब तो आपका रवि भी यहाँ नहाने में कतरायेगा उसको तो स्नानघर की आदत पड़ गयी होगी।'

'तो क्या अब उन दोनों के लिये नया घर बनवाऊँ? शर्मा जी घबराये।'

'मेरा मतलब यह नहीं था। ऊपर एक कमरा और बनवा लीजिए। भूल जाइए कि यह सब आप कमली के लिये कर रहे हैं। अब तो आपके बेटे के लिये भी यह सब जरूरी हो गया होगा। मेरा बेटा सुरेश दो महीने के लिए जब आया था, तब मैंने पूरे घर की मरम्मत करा डाली थी। अगर बात झूठी लग रही हो, तो चलिए दिखा देता हूँ।

शर्मा जी को लेकर बेणु काका भीतर जाने लगे, पार्वती सामने पड़ गयी।

'बाऊजी, मैं घर जा रही हूँ। आप जल्दी आ जाइए।'

भूमिनाथपुरम बाले मामा जी आएँगे तो उन्हें बिठा लूँगी। पार्वती चली गयी।

'बसंती, ऊपर वाली चाबी ले आना बिटिया। तुम्हारे काकू को दिखा दें।'

बसंती ने चाबी लाकर दी। विदेश में जा वसा बेटा हर माह मोटी रकम भिजवाता तो है ही, पर साथ ही साथ वेणु काका की पुश्तैनी जायदाद भी अच्छी खासी है। सुरेश इकलौता बेटा है, इधर बसंती भी एक मात्र लड़की। बसंती का पति बम्बई स्थित प्रतिष्ठित कम्पनी में सेल्स मैनेजर है। इस कम्पनी के उत्पाद बस्तुओं की खपत मध्य पूर्व देशों में अधिक है, इसलिए अक्सर इस सिलसिले में वे इन देशों के दौरे पर रहते हैं। उनका दौरा जब महीनों तक खिंचता बसंती यहीं माता पिता के साथ रहती। विवाह के कई-साल हो गए, पर बाल बच्चे नहीं हुए। बेटे और दामाद दोनों की सुविधाओं का ख्याल करते हुए बेणु काका ने ऊपर कमरों से लगे बाथरूम बनवा दिये थे। ऊपर की मंजिल से नीचे आने के लिये दो सीढ़ियाँ थीं। एक पिछवाड़े उतरती थी, दुसरी आगे। बालकनी में कई गमले सजा दिए गये थे। शर्मा जी ने घूम कर कमरे देखे फिर बोले, 'खैर, आपकी बात और है। कभी बेटा, तो कभी दामाद आना जाना लगा ही रहता है। पर यहाँ तो एक दिन की नौटंकी के लिये सिर मुड़ाने वाली बात हो जाएगी न। आपने तो इधर इलायची वाला इस्टेट भी खरीद लिया है। लोग बाग इस सिलसिले में आपके पास आते जाते रहेंगे। यह तो आप जैसे लोगों के लिए है, जिनके यहाँ चार लोगों का आना लगा रहता है।

'यार शर्मा, बस यही चालाकी तो नहीं रास आती। मेरी जरूरत के बारे में आपको प्रमाणपत्र देने की कोई आवश्यकता नहीं। मैं तो सुझाव दे रहा था, पर आप हैं कि सुन ही नहीं रहे।'

बसंती ने टोक कर कहा, 'अगर काकू को कोई आपत्ति न हो, तो कमली और रवि यही रह लेंगे। मुझे भी बम्बई लौटने में माह दो माह लगेंगे। तब तक कमली का साथ भी दे दूँगी। आप तो कर्म- कांडी आदमी हैं, और काकी भी नेम, अनुष्ठान छूतपात मानती हैं। बल्कि काकी तो इस मामले में आपसे भी दो हाथ आगे हैं। अब ऐसे में आने वाले भी परेशान हों, और आप भी…।'

शर्मा जी ने कोई उत्तर नहीं दिया। पर काका ने बसंती के इस सुझाव की जी खोलकर तारीफ की।

'वाह, क्या सुझाव है? हमें क्यों नहीं सूझा? अच्छा है, वे लोग यहीं रह लेंगे। शर्मा के रुपये भी बच जायेंगे और मेहनत भी! क्यों शर्मा……?'

शर्मा ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे सोच में डूबे हुए थे। बसंती ने झट एरोग्राम का लिफाफा उन्हें पकड़ा दिया।

'अब आप भूमिनाथपुरम के लिए निकलेंगे, कल डाक की छुट्टी है। एरोग्राम न खरीदेंगे, न लिखेंगे,। बस इसी में दो पंक्तियाँ लिख डालिए। मैं खुद डाल आती हूँ।'

उसका स्वर अनुरोध भरा था। पहले तो वे कुछ हिचकिचाए फिर उनका मन कुछ पिघल गया।

'पन हो, तो दे दो बिटिया। मैं तो लाया ही नहीं।'

वेणु काका ने झट कमीज की जेब से पेन निकाल लिया। शर्मा जी के भीतर का उफनता आक्रोश उनकी पंक्तियों में उतर आया। 'चि. रवि को आर्शीवाद तुम्हारा पत्र मिला। विज्ञापन रुकवा लिया है।

तुम्हारी माँ, पार्वती और कुमार मजे में हैं। शेष, जब तुम यहाँ आओगे।' सिर्फ इतना लिखकर छोड़ दिया और लिफाफे को मोड़कर बसंती को पकड़ा दिया।

'गुस्से में, कुछ ऐसा वैसा तो नहीं लिख डाला, काकू।'

बसंती ने हँसकर पूछा।

अब पहले तू ही इसे पढ़ ले, फिर अपने बाऊ को भी पढ़वा दे। ऐसा कोई रहस्य तो है नहीं। 'शर्मा जी हँस पड़े।

'मेरे पढ़ने की कोई जरूरत नहीं है, काकू। आपने ठीक ही कहा होगा।'

'कह तो रहा हूँ न। तू पढ़ ले…।'

बसंती ने लिफाफो को खोलकर पढ़ा और पिता को और बढ़ा दिया। पढ़कर बोले, 'यार जब हवाई डाक में इतना खर्च करते हो, तो चार लाइन की कंजूसी भी दिखा दी! इतनी दूर से बेटा आ रहा है, तो क्या इतना भी नहीं लिख सकते कि यहाँ तुम्हारी प्रतीक्षा हो रही है।'

शर्मा जी ने कोई उत्तर नहीं दिया। शर्मा जी चुप रहे।

'अब बाऊ, आप काकू को और परेशान क्यों करते हैं? इतना लिख दिया, वहीं बहुत है।'

वेणु काका और उनकी बेटी बसंती से जब शर्मा जी विदा लेने लगे, तो काका ने पूछ लिया, 'तो फिर यहाँ उन्हें ठहराने के सम्बन्ध में क्या निर्णय लिया है?'

'अपने ही गांव में, अपने ही मां-बाप, भाई-बहन के बीच कोई लौट रहा है। अगर वह अपने ही घर नहीं ठहर सकता तो फिर जहाँ जी में आये ठहर ले। ऐसी सुविधाएँ तो पी. डब्ल्यू. डी. के बंगले में भी हैं, फारेस्ट रेस्ट हाउस में भी हैं…।'

वेणु काका तो उन्हें देखते ही रह गए। भीतर कुछ चुभा जरूर पर इस खीझ में बेटे के लिए प्यार साफ नजर आ रहा था। अपने बेटे को अपने पास नहीं ठहरा पाने की तकलीफ साफ पकड़ में आ रही थी।

शर्मा जी लौट गए।

'बसंती, यह क्या कह गए?'

'गलत क्या कह गये, बाऊ? बेटे का मोह भी उनसे नहीं छूट रहा, दूसरी ओर अपने नेम अनुष्ठानों को भी चिंता उन्हें है। बस, दोनों ओर से पिसे जा रहे हैं, बेचारे।'

'अच्छा, छोड़ो। पहले इसे पोस्ट कर आओ। यही गनीमत है, कि चार पंक्तियाँ लिख दी।'

बसंती ने लिफाफे पर पता लिखा और खुद डाकखाने के लिए निकली। आधा रास्ता ही पार किया होगा कि सामने से पार्वती को अपनी ओर भागकर आती हुई देख रुक गयीं।

पार्वती हांफती हुई उसके पास रुक गयी।

'दीदी, बाऊ जी ने कहलाया है, कि यह लिफाफा आज नहीं डाले।'

'क्यों री? क्या हो गया है, तेरे बाऊ जी को?'

'हमें तो कुछ पता नहीं। बस यही कहलाया है।'

बसंती को लगा, पारू को आसानी से वश में किया जा सकता है।

'पारू देख, तू चाहती हैं न कि तेरे भैय्या यहाँ आएँ।'

'हाँ' दीदी। भैय्या को देखे तीन साल हो गए। माँ और कुमार भी उन्हें देखना चाहते हैं।'

तो फिर एक काम करो। बाऊ जी से जाकर कह दो, कि तुम्हारे पहुँचने के पहले ही मैंने यह लिफाफा पेटी में डाल दिया था। रवि को बुलवाने के लिए अभी-अभी तेरे बाऊ जी ने लिखा था। अब जाने क्यों मना कर रहे हैं। देख, मेरी तो समझ में नहीं आता तेरे बाऊ क्या करेंगे? हो सकता है, कि इस पत्र को फाड़ दें, और फिर दूसरा पत्र डालें कि बेटा, अब मत आओ।'

'नहीं, दीदी! आप इसे पोस्ट कर दीजिए। मैं बाऊ जी से कह दूँगी।

बसंती दी ने मेरे पहुँचने के पहले पोस्ट कर दिया। दोनों अपने अपने घर लौट गयीं।

पार्वती घर लौटी तो पं. विश्वेश्वर शार्मा भूमिनाथपुरम के लिए निकल रहे थे।

अम्मा संझवाती आले पर रख रही थी। चौखट पर, ओसारे के बाहर, छोटी सी रंगोली बना दी थी। इस उम्र में भी माँ, कितनी सुन्दर अल्पना बनाती हैं? हाथ तक नहीं काँपते। पार्वती उनकी बनाई अल्पना देखकर अक्सर सोचती। पर उसके हाथ इतने सधे क्यों नहीं हैं। अम्मा की तो एक भी लकीर टेढ़ी नहीं पड़ती। कभी कभी तो अम्मा के हाथ की इस सफाई से उसे ईर्ष्या भी होने लगती है। एक बार उसने टीन के बने मोल्ड खरीदने चाहे तो अम्मा ने साफ मना कर दिया।

'हमारे जमाने में यह सब कहाँ चलता था, कन्या लड़कियों के मन और हाथों में लक्ष्मी और सरस्वती का वास होना चाहिए। श्रद्धा और निष्ठा हो तो सारे काम सधे हुए ही होते हैं। हमारे जमाने में अगर अल्पना के लिए बने बनाए मोल्ड की बात कोई करता भी तो लोग मजाक बनाते। कोई जरूरत नहीं। बस, धीरे-धीरे कोशिश करो। अपने आप हाथ सधेगा।'

शंकरमंगलम का समूचा अग्रहारम भी कोई छान डाले पर कामाक्षी की तरह सुघड़ गृहणी कहीं नहीं मिलेगी। 'गृह लक्ष्मी' शब्द को साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं, वे! पर वे ऊँचा सुनती हैं, इसलिए शर्मा जी उन्हें अक्सर डाँटते, फटकारते पर इस डाँट फटकार के पीछे दुत्कार या तिरस्कार की भावना कतई नहीं होती! बस अपना अधिकार और आधिपत्य जमाना चाहते हैं। कामाक्षी भी इसे

समझती थी! जहाँ प्रेम होता है, वहाँ गालियाँ अर्थहीन हो जाती हैं। प्रेम और स्नेह के प्रवाह में जब शब्द डूब जाते हैं। तो उनके अर्थ भला कहाँ उतरायेंगे?

शर्मा जी का गुस्सा हो या उनकी चीख। कामाक्षी उसे अपने साथ किया जाने वाला सार्थक संवाद ही मानती। वैसे कठोर शब्द वे कामाक्षी के अतिरिक्त किसी के लिए नहीं कहते, यह वह अच्छी तरह जानती है। कामाक्षी उनके इस अधिकार क्षेत्र को लेकर मन ही मन खूब प्रसन्न होती है। दरअसल यह आम हिन्दुस्तानी औरतों का-सा संतोष है, जो कामाक्षी में भी है। पति के आधिपत्य में जीने को महान समझने वाली पारंपरिक नारी! उस आधिपत्य से मुक्त होने के लिए संघर्षरत शहरी नारी वो उनकी कल्पना से भी परे है। उलके लिए उनका सुख दुख, मान सम्मान, स्वतन्त्रता सब कुछ उस चौखट के भीतर ही है। कन्या के रूप में देहरी लांधकर एक बार भीतर जो आती है, वहीं माँ, नानी, दादी बनकर रह जाती है। इससे बाहर की किसी भी आजादी की न तो वे कल्पना करती हैं, न ही इच्छा।

क्यों री कामू? बेटा परदेश में पिछले तीन साल से है। मेरी मानो, यहाँ बुलवा लो, और ब्याह कर भिजवा दो। मीनाक्षी दादी ओसारे पर आकर बैठ गयी। काम से चूँकि यह बात ऊँचे स्वर में कही गयी थी। आसपास के चार पांच घरों तक बदस्तूर पहुँच गयी।

संझवाती जलाकर कामाक्षी श्लोक गुनगुना रही थी। मुस्कराते हुए संकेल से उन्हें रोका। दादी पारू की ओर मुड़ी। 'कुमार कालेज से नहीं लौटा था हमने कस्बे से एक सामान का दाम पुछवाया था।'

'अभी नहीं लौटा दादी। लौटने में सात बज जाते हैं।'

इतने में कामाक्षी श्लोक समाप्त कर वहीं आकर बैठ गयी। दादी ने अपना सवाल दाग दिया।

'तेरा बेटा इस बार आयेगा या नहीं?'

'हाँ लिखा तो है। इन्होंने भी आने को लिख दिया है। वेणु काका की बनंती, पारू को बता रही थी में, ये कहाँ बताते हैं हमें?'

'तो वेणुगोपाल की बिटिया से तुम्हें खबर लगी, क्यों?'

'हाँ हाँ! और कौन है, जो हमें आकर बताए। इनसे तो कुछ पूछ लो, बस सर्र से गुस्सा चढ़ जाता है।'

मीनाक्षी दादी और कामाक्षी ओसारे पर बैठी बतिया रही थी। पारू सीढ़ियों के पास बैठी थी।

पश्चिम की ओर से एक मोटा और नाटा आदमी चला आ रहा था। चार हाथ की धोती, काले रंग की कमीज, कंधे पर अंगोछा और बड़ी बड़ी मूँछों वाला वह व्यक्ति घर के सामने आ खड़ा हुआ। पार्वती धीमे से उठ गयी।

'बिटिया! बाऊ जी घर पर हैं?'

'न' भूमिनाथपुरम गये हैं। लौटने में देर लगेगी।'

'तो ठीक है। वे लौटें तो बोल देना इरेमुडिमणि आये थे। कल सुबह फिर आ जाऊँगा।'

वह व्यक्ति लौट गया। कामाक्षी ने आवाज सुनकर बाहर झाँका।

बाऊ जी से मिलने आये थे। कल सुबह फिर आएँगे' पार्वती बोली।

'कौन था री! देशिकामणि नाडार की आवाज लग रही थी।' मीनाक्षी दादी ने पूछा।'

'हाँ, दादी, वे ही थे। इनके पास काम से आए थे।'

'तो वही था। उसको विश्वेश्वर से कौन सा काम पड़ गया?'

'हमें तो नहीं मालूम। कभी वह आते हैं, कभी वे उससे मिलने चले जाते हैं।'

'येल्लो। यह कैसा आश्चर्य है।'

'इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है?'

मीनाक्षी दादी ने इस बात का सीधा उत्तर नहीं दिया और दैव-शिखामणि नाडार के बारे में विस्तार से बताने लगीं।

कामाक्षी ने पूरी बात सुनकर कहा, 'दादी आप तो, जाने क्या क्या कह रही हैं। यह तो उनकी बहुत तारीफ करते हैं।

इतने में एक बीस वर्षीय दुबला पतला युवक भीतर आया। पारू ने आवाज दी, 'दादी, कुमार लौट आया।'

दादी को देखते ही कुमार को जैसे काम याद आ गया और बोला, 'दादी' आपने जितना बड़ा पतीला बताया था न, उतना बड़ा तो अब नहीं मिलता। दुकानदार कह रहा था, यह तो स्टील के बर्तनों का जमाना है। यहाँ पीतल या फूल के बर्तनों को कौन पूछता है?

'वह मरा लाख कह ले! तू पूछ के देख ले। 'अपनी अम्मा से। फूल के पतीले मैं पकी दाल के क्या कहने? उसका स्वाद कहीं स्टील के बर्तन में मिलता है?'

'अब मिले न मिले। उसने जो कहा, मैंने आपको बता दिया।'

'ठीक है, बैठ। पर कालेज तो चार बजे छूट जाता है, तुझे आते आते इतनी देर क्यों हो जाती है? पुदुनगर से शंकरमंगलम गाड़ी को आने में तीन घंटे लगते हैं क्या?

'वह तो बीस किलोमीटर की दूरी ही है दादी। पर बस बीस मील की दूरी में छोटे बड़े मिलाकर कुल उनतालीस गांव हैं। चार गांवों के स्टेशन हैं। कानूनन गाड़ी को उनमें ही रुकना है। पर बाकी लड़के इधर-उधर चेन खींच देते हैं। सुबह भी यही होता है, शाम भी।

कुमार के पीछे पीछे पार्वती भी चली गयी।

'बाऊ जी कहाँ हैं पारू?'

बाऊ भूमिनाथपुरम गए हैं। अच्छा छोड़ो, पता है, भैय्या आ रहे हैं। बाऊ ने उन्हें लिखा है।'

'न कब आ रहे हैं?' वह चहका

'पता नहीं। पर रवि भैय्या आ रहे हैं, यह तय है।

पार्वती ने स्टोव जलाकर काँफी बनाने के लिए दूध गरम किया।

चौके में कॉफी या चाय नहीं बन सकती।

चाय कॉफी पीने वाले तीन ही प्राणी हैं। शर्मा जी, पारू और कुमार। इसलिए बैठक में ही एक ऊँचा चबूतरा बना दिया गया था। स्टोव, मिट्टी का तेल चौके में वजित था। चौके में तो पुरानी परम्परा का चूल्हा ही था। कामाक्षी चौके को खूब साफ रखा करती थी। मंदिर के नियमों की तरह उसके चौके के भी अपने नियम थे। लोगों को भी उन्हें नियम अनुष्ठानों के अनुसार चलना पड़ता था।

शर्मा जी भी कई दिनों तक चाय कॉफी से परहेज करते रहे। इधर पिछले कुछ ही सालों से उन्होंने चाय कॉफी पी लेनी शुरू की है। पर उनके लिए भी चौके के नियमों में कोई फेर बदल नहीं किया गया। उनको भी बैठक के चबूतरे तक ही सीमित रखा।

रवि पैरिम जाने के पहले मद्रास में था। छुट्टियों में घर आता तो हँस कर कहता, 'अम्मा, तुम यह जो अल्ल पुबह से चालु हो जाती हो न, गोपूजन फिर तुजसी पूजा, दीप पूजा... पूरे घर को मंदिर बना डालती हो। अब हम लोगों को रहने के लिए कोई दूसरी जगह ढूँढ़नी होगी।'

हालाँकि माँ की लगातार को रोकटोक से खीझ कर वह यूँ कहा करता था, पर मन ही मन माँ के नियम अनुष्ठान की तारीफ किया करता। माँ की सत्यनिष्ठा और सिद्धांतवादिता से वे लोग हमेशा प्रभावित रहे। देखा जाए, तो शर्मा जी की परम्परावादिता और कट्टरपन भी कामाक्षी की ही प्रेरणा का परिणाम है। वह उन्हें छेड़ती, बस, कॉफी तक ही रहिएगा। एक-एक कर बुरी आदतें डालते जायेंगे तो...!' अल्ल सुबह स्नानादि से निपट कर भीगे बालों को खोले, माथे पर सिंदूर का टोका लगाए, बेला, कपूर, तुलसी, दशाँश की महक फैलाती माँ रवि को साक्षात् देवी स्वरूपा लगती।

माँ के तमाम नियम अनुष्ठानों से लाख असुविधायें भले ही होती हों, पर उसे ही नहीं घर के बाकी सदस्यों को भी उनके नियम मान्य रहे। यह माँ के दिए संस्कारों का प्रभाव है, यह बह खूब जानता था।

इसी अगस्त्य नदी के तट पर स्थित शंकरमंगलम से कुछ ही मील दूर स्थित ब्रह्मपुरम के एक वैदिक ब्राह्मण के परिवार की पुत्री पिरू कैसे संस्कार लेकर आती? माँ का संस्कृत और शास्त्र, ज्ञान बाऊ जी की तरह गहन भले ही न हो पर उन्हें अच्छा ज्ञान था, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। अपने छात्र जीवन में माँ के इस पूजा पाठ से दैनिक जीवन में होने वाली असुविधाओं को रवि न एक खूबसूरत नाम दे रखा था―'पवित्र असुविधाएँ है!' पर पूरा घर इस असुविधाओं के साथ जीता था। मजे की बात यह कि उनसे अलग भी नहीं होना चाहता था।

रवि का पत्र कामाक्षी के भय से ही शर्मा जी ने छिपा रखा था। रवि के इस प्रेम प्रसंग की बात उनके अतिरिक्त दे दो ही लोग जानते थे, जिनसे उन्होंने चर्चा की थी।

रवि के फ्रेंच युवती सहित भारत आने की बात के किसी को फिल- हाल बताना नहीं चाहते थे। इसमें कई दिक्कतें थी। वेणु काका ने रवि और उसको प्रेमिका को अपने घर ठहराने की पहल की थी, पर उनके होते हुए उनका बेटा सिर्फ इस वजह से किसी गैर के घर रहे कि उसकी प्रेमिका विदेशी है―उन्हें यह बात नागवार लगी।

उन्होंने इस मसले पर और अधिक व्यावहारिक होकर सोचना चाहा। बेटे पर जान देने वाली वह युवती क्या सोचेगी उसके बारे में? बेटा भी उसे कैसे समझायेगा कि किसी पराये घर में उन दोनों को क्यों ठहराया गया है। मान लो वह पलट कर एक सवाल कर दे कि क्या इस देश में प्रेम करना पाप है, तो? अगर वह घर की असुविधाओं की बात कहे और वह लड़की इन असुविधाओं के साथ भी यहाँ रहने को तैयार हो जाये तब? उन्हें तकलीफ हुई कि वर्षों बाद घर लौटते बेटे के स्वागत में इतनी दिक्कतें आ रही हैं। इन्हें लगा, अगर उनका बेटा, एक माह बाद आता तो उन्हें इस मुद्दे पर सोचने को पर्याप्त वक्त मिल जाता। यही वजह थी पार्वती को भिजवा कर उन्होंने पत्र को भेजने से रोका था।

भूमिनाथपुरम जाते और वहाँ से लौटते में भी वे लगातार रवि के पत्र के विषय में सोचते जा रहे थे। वे लौटे, तो पार्वतो सो चुकी थी। सुबह पूजा पाठ समाप्त कर वे काँफी पी रहे थे कि पार्वती ने कहा, 'बाऊ मेरे पहुँचने के पहले ही बसंती दी ने पत्र भिजवा दिया था। और हाँ जब आप भूमिनाथपुरम गये थे तब इर्रमणिमुडि आपसे मिलने आये थे। सुबह फिर आने को कह गए हैं।

'इरैमणिमुडि नहीं री, इरैमुडिमणि कहो।'

'इरैमणिमुडि'

'फिर गलत कहा? देवशिखामणि का तमिल पर्याय है, यह नाम दैव' यानी इरै, शिखा यानि कि मुडि मणि-यानी मणि।'

'हटो बाऊ, हमसे नहीं होगा'

वे हँसते हुए बाहर आए। इरैमुडिमणि ठीक उसी वक्त पहुँच गए।

'नमस्कार, विश्वेश्वर जी।'

'कौन? दैवशिखामणि? आओ ...।'

'कल आया था, बिटिया ने बताया था कि तुम भूमिनाथपुरम गए हो।'

काले बालों की शिखा माथे पर भभूत, धोती, उत्तरीय और गले में रुद्राक्ष पहने वैदिक पंडित के साथ लंबी घनी मूंछों और काली कमीज वाले परम नास्तिक को बैंठे और बतियाते देखकर लोगबाग विस्मित होकर क्षण भर के लिए ठिठक जाते।

पंडिल विश्वेश्वर शर्मा और इरँमुडिमणि सालों पहले शंकर- मंगलम के माध्यमिक विद्यालय में सहपाठी रहे थे। जीवन की दिशाएँ, उनके मूल्य एक दूसरे के विरोधाभासी भले ही रहे हों, पर मैत्री उसी तरह बरकरार रही। तु-तड़ाक में ही बातें होतीं। पर दूसरों के साथ चर्चा करते तो एक दूसरे का उल्लेख आदर के साथ करते। वे अपने- अपने मूल्यों पर टिके रहते हुए भी दोस्ती को बखूबी निभा रहे थे, इस बात का उन्हें गर्व था। इरैमुडिमणि इतने सबेरे, उनके पास किस काम से आया होगा! शर्मा जी सोचने लगे। वह स्वयं बतलायेगा। इतना अधीर होना भी शोभा नहीं देता। वे परिवार का कुशल- क्षेम पूछने लगे। बात रवि पर आ कर टिक गयी।

‘बेटे से कोई पत्र आया है?’

‘हाँ, आया है। आने ही वाला है।’

‘कब आ रहा है?’

‘तारीख तो नहीं पता, हाँ जल्दी आयेगा। हमने तो लिख दिया है।’

शर्मा जी को लगा, इस परम प्रिय मित्र से खुलकर सब कुछ कह डालें और उससे परामर्श लें। फिर भी वे पहले उसके आने की वजह से वाकिफ हो जाना चाहते थे।

इरैमुडिमणि जल्दी ही असली मुद्दे पर आ गए।

‘उत्तरी मोहल्ले के छोर पर जो खाली जमीन पड़ी है, उसमें बड़का जमाई,....

अरे वही गुरु स्वामी―दुकान उठाना चाहता है। पूछा तो पता लगा, जमीन मठ की हैं। इसलिए तुम्हारे पास चला आया। सही किराये पर जमीन मिल जाये तो अच्छा रहेगा।

XXX

'इसके लिए तो श्री मठाधीश को एक पत्र डालना होगा। उनसे पूछकर ही कुछ कर पाऊँगा।'

'अब जो भी लिखना है जल्दी लिख डालो।'

'ठीक है याद से आज ही लिख दूँगा।'

'तो फिर चलूँ।'

'ठहरो देशिकामणि। तुमसे एक सलाह लेनी है।'

इरैमुडिमणि फिर ओसारे पर बैठ गए। धीमे स्वर में शर्मा जी ने रवि के पत्र और अपने उत्तर के विषय में सूचना दी।

'तुम तो मेरे जिगरी दोस्त हो तुम ही बताओ मुझे क्या करना होगा?'

'तो उसने कुछ गलत तो नहीं किया। आज्ञवल्क्ष्य में पता है, क्या लिखा है? विवाह की आयु को प्राप्त युवक का विवाह यदि उसके माता-पिता उचित काल में नहीं करते, तो उसे अपनी पत्नी स्वयं चुनने का पूरा अधिकार है।'

'देख यार! मैं तुमसे अधिकार या न्याय की बात नहीं पूछ रहा! मैं तो उसके व्यावहारिक पक्ष के विषय में जानना चाहता हूँ।'

'संभव या असंभव के बीच त्रिशंकु की तरह झूलते रहने से बेहतर है कि संभव बना लिया जाए। जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मैं इस तरह विवाह का स्वागत करता हूँ।'

कुछ देर बातें करने के बाद इरैमुडिमणि लौट गए।

इरंमुडिमणि ने एक तार्किक बुद्धिजीवी के रूप में अपनी बात रख दी थी। याज्ञवल्क्य का उद्धरण देकर अपनी बात की पुष्टि भी कर दी। शर्मा जी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ। इसकी वजह भी थी।

इरैमुडिमणि एक आश्चर्यजनक व्यक्ति थे। एक बार हुआ यह था कि उन्होंने किसी पुराण कथा का तार्किक विश्लेषण करते हुए उसका संदर्भ गलत दे दिया था। विरोधी पक्ष ने जमकर खिंचाई की थी। किसी भी तथ्य के अधूरे ज्ञान के आधार पर तर्क नहीं किया जा सकता। बस तभी से वे जुट गए थे। लगन से संस्कृत और तमिल के पुराण पढ़ डाले, नीति शतक और धार्मिक ग्रन्थों का गंभीर अध्ययन प्रारम्भ कर दिया। उनकी इस लगन और ईमानदारी की कइयों ने तारीफ की। किसी भी बात का खन्डन करने के पहले जरूरी है कि उसके बारे में पूरी तरह आश्वस्त हो लिया जाय। यह उनकी निष्ठा का तकाजा था। नास्तिकवाद और बुद्धिवाद के प्रति लोगों में विश्वास भी, इसी कारण जगा। पर शंकरमंगलम और उसके आस पास के गाँव वालों को जब भी कोई पौराणिक, ऐतिहासिक या धार्मिक शंका उठती वे या तो शर्मा जी के पास आते या परम नास्तिक इरैमुडिमणि के पास पहुँचते। शर्मा जी देर तक याज्ञवल्क्य के उद्धरण पर विचार करते रहे। फिर भीतर से कागज कलम उठा लाए। खाली जमीन के संदर्भ में श्री मठ को एक पत्र लिखा। कुमार के हाथों उसे भिजवा भी दिया, ताकि जल्दी पहुँच सके।

पर मन था कि बार बार रवि और उस फ्रेंच युवती के बारे में सोच रहा था।

'धरमशाले से आपके मकान में प्रायवेसी कहीं नहीं हैं। कहाँ ठहरायेंगे उन्हें?'

वेणु काका का प्रश्न बार-बार जेहन में उभर रहा था। उनके घर ठहराना उचित नहीं होगा।

गाँव वाले तो यूं ही बात का बतंगड़ बनाते हैं, यदि ऐसा किया तो अच्छी खासी पंचायत हो जाएगी। लोगबाग ताने कसेंगे कि घर वालों के साथ रवि की पटरी नहीं बैठी, इसलिए वेणु काका के घर ठहर गया।

शर्मा जी का ध्यान भंग हुआ। पार्वती स्कूल जाते हुए उनसे विदा लेने बाहर आयी मन ने जैसे कोई निर्णय लिया और उठकर भीतर चले गये। बैठक और ऊपरी मंजिल को ध्यान से देखने लगे। मन ही मन बैठक की लम्बाई चौड़ाई आंकने लगे।

उनकी पत्नी कामाक्षी चौके में थी। रवि को पूरा अधिकार है कि वह सटे स्नान घर वाला कमरा बनवा ले। पिछले कुछ वर्षों में प्रतिमाह वह जो रुपये भेजता रहा है, वह बैंक में यूँ ही पड़ा है। ब्याज समेत अब रकम खासी मोटी हो गयी थी। फिर भी उसने अपने पत्र में किसी सुविधा की माँग नहीं की थी। एक बारगी संदेह भी हुआ, कहीं ऐसा तो नहीं कि साहबजावे का इरादा स्वयं वेणु काका के यहाँ ठहरने का हो। खैर, कुछ भी हो। अब उसका आना टाला नहीं जा सकता।

अब तक इस समस्या की चर्चा जिनसे भी की है, वे सभी रवि के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रहे हैं। रवि के अलग कमरे और स्नानघर की व्यवस्था वे खुद ही क्यों न कर डालें। रवि नहीं लिखता है, तो न सही। उन्हें तो करना चाहिये। वे तो किसी तरह मन को मना लेंगे पर यह औरत! यह क्या करेगी? उसे कैसे समझायेंगे वे? रवि के शंकरमंगलम पहुँचने के पहले यह खबर उसे देना आवश्यक है। अभी कुछ कहेंगे, तो यह मीनाक्षी दादी से कह देगी फिर सारे गाँव में बात फैलते देर नहीं लगेगी।

काफी देर सोचने के बाद उन्होंने निर्णय लिया कि रवि के आने के पहले उन्हें कुछ तैयारियाँ करनी होंगी। इस मकान के दो प्रवेश द्वार हैं। बगल में एक द्वार है, जो मवेशियों के आने-जाने के काम आता है। वहीं हौदी भी है। दस-बारह नारियल के पेड़, चार-पाँच आम, कटहल के पेड़ और फूलदार पौधों समेत एक बड़ा सा कुआँ भी वहीं है। नौकर-चाकर इसी रास्ते का उपयोग करते थे, चाहे बाग में आना हो या मवेशियों को ले जाना हो। इसी द्वार के पास सीढ़ियाँ ऊपर से उतरती थीं। ऊपरी तल्ले पर लकड़ी का एक पार्टीशन डलवा देंगे। एक पंखा भी लग जाएगा। बगल वाले कमरे में कुछ कुर्सियाँ, डयनिंग टेबल भी पड़ जायेगा। शर्मा जी ने निर्णय ले लिया था। लाख भीतरी तकलीफों के बावजूद, जो लड़की उनके बेटे को इतना प्यार करती है। वह करोड़पति की पुत्री, साधारण से साधारण सुविधा के लिए भी तरसे, यह वह कतई नहीं चाहते। वेणु काका के कहे वाक्य याद आ गये।

'शर्मा का रुपया भी बच जायेगा।' उनके अहँ को चोट लगी थी। क्या दे खर्च बचाना चाहते हैं? नहीं…।

उस दिन किसी उत्तर भारतीय पर्व के लिए बैंक और डाकखाने बन्द थे। शर्मा जी ने बढ़ई और मिस्त्री को कहला भेजा। फिलहाल खर्च के लिए घर पर पर्याप्त रुपये थे। कभी सस्ते में शीशम की लकड़ी खरीदकर पिछवाड़े में डलवा दी थी। चलो अब काम आ जाएगी।

दूसरे पहर जब मिस्त्री और बढ़ई मा पहुँचे तब कामाक्षी ने पूछा, 'क्या बनवा रहे हैं? ये लोग किसलिए आये हैं?'

'तुम्हारा साहबजादा आ रहा है न, फ्रांस से। सोच रहा हूँ, उसके लिए ऊपर एक कमरा बनवा दूँ। उसे सुविधा रहेगी।' रवि के आने की सूचना भर दी। शाम अचानक वेणु काका इधर से निकले तो सारी तैयारियाँ देखकर हँस पड़े। 'वाह! जब मैंने कहा था, तो मुँह बना रहे थे। अब सारा तामझाम इकट्ठा किए बैठे हो।'

'अब मन को अच्छा लगे या बुरा, करना तो होगा ही न।'

'अब ऐसा मत कहो। ऐसी कोई बात तो हुई नहीं।' वेणु काका ने उनका उत्साह बढ़ाया।

दस दिनों में सारा काम निपट गया। एक कमरा बनकर तैयार हो गया। वेणु काका और बसन्ती उन्हें प्रमाण पत्र दे गए।

पुताई-सफाई हो रही थी कि रवि से उसके आने की तारीखवार सूचना देता पत्र आ पहुँचा। उसमें एक चित्र भी था। भारतीय पारम्परिक परिधान में कमली का चित्र। चित्र भारतीय दुताबास में हुए किसी भोज के अवसर पर लिया गया था। 'आपको अवश्य पसन्द आयेगा'-रवि ने लिखा था। संचमुच उस चित्र में कमली बहुत खूबसूरत लग रही थी। शर्मा जी को वह चित्र बहुत पसन्द आया। उन्हें बगा, कामाक्षी को अब साफ-साफ सब कुछ बताने का अवसर आ गया है।

बिना किसी भूमिका में पन लिए उसके पास पहुँचे और पत्र पढ़ता शुरू किया। पढ़ने के बाद कामाक्षी के हाथ लिफाफा भी थमा दिया। बे चाहते थे, कि कामाक्षी उस चित्र को देखे। उन्हें लगा, वह भावुक हो उठेगी। पर इसके विपरीत वह शान्त रहीं।

'क्यों जी, लगता है, वह अकेला नहीं आ रहा है। कोई और भी साथ आ रहा है क्या?'

'हाँ, तुम्हें जो चित्र दिया है, उसे देखा नहीं तुमने?'

'न पत्र आपने पढ़ाया था। चित्र कहाँ है?'

शर्मा जी ने लिफाफा उसके हाथ से लिया और चित्र निकालकर दिखाया।

'यह लड़की कौन है?'

'लिखा है न उसने। कमली है।'

'यह कौन है?'

'सुन्दर है न?'

'लड़की जवान हो, और रंग साफ हो तो खूबसूरत लगती ही है। पर यह है कौन? साड़ी तो पहनी है, पर नाक नक्श तो हमारे यहाँ के नहीं लगते?'

'रवि की दोस्त है। फ्रांसिसी लड़की है।'

'तो क्या उसके साथ बही आ रही है?'

'हाँ'

'तो हमारा देश देखने आ रही है।'

'हाँ, लगता तो कुछ ऐसा ही है।'

कामाक्षी ने आगे कुछ नहीं पूछा। पत्र उन्हें पकड़ाकर चली गयी। शर्मा जी को यह पत्र छिपाने की आवश्यकता नहीं रही। आले पर ही अन्य पत्रों के साथ उसे भी रख दिया था। शाम को कुमार, पार्वती दोनों में ही पत्र पड़ा। चित्र भी देखा। शर्मा जी को लगा अब बात उस सीमा तक पहुँच गयी है, जब तीली जलती हुई उंगली के पास तक पहुँच जाती है। हड़बड़ाहट में या तो तीली फेंकनी होगी या उँगली जलानी होगी। शुरू-शुरू में उनके भीतर जो नफरत और क्रोध घर कर रहा था, वह जाने कहाँ बिला गया। कुछ हजार और खर्च कर उस पुराने ढंग के मकान में एक अलग कमरा, सटा हुआ स्नानघर, दाश बेसिन दर्पण, खाने की मेज, कुसियाँ–सारी सुविधायें इकट्ठी कर ली गयी थी। रवि ने लिखा था कि वह दो दिन बम्बई रहेगा फिर मद्रास से रेल द्वारा शंकरमंगलम आयेगा। रवि ने किसी को भी मद्रास आने से मना कर दिया था। पहले तो दिन धीरे-धीरे रेंग से लग रहे थे, फिर तो जैसे पंख लगा कर उड़ने लगे।

'तुम बैलगाड़ी लिए मत पहुँच जाना। मेरी कार हाजिर है। एस्टेट वाले शारंग पाणि नायडू से भी कार माँग रखी है। सब लोग चलेंगे, उन्हें लेने। उस दिन एक शादी में भी जाना है। तुम लोगों को पहुँचाकर मैं चला जाऊँगा।' वेणु काका बोले।

शर्मा जी बोले, 'यह तो अच्छा हुआ कि इस महीने से गाड़ी पौने छह बजे आने लगी हैं। वरना पहले तो साढ़े तीन आया करती थी। बड़ी दिक्कत होती थी।'

'कुमार, पार्वती और रवि की माँ भी चलेंगी न स्टेशन?'

'कुमार और पार्वती दोनों आ रहे हैं। उसका कोई ठिकाना नहीं। कल शुकवार भी है। पूजापाठ का दिन है।'

'एक दिन पूजापाठ जल्दी निपटा लेगी। इतनी दूर से बेटा लौट रहा है, माँ को स्टेशन आना ही होगा।'

'मैं उसे समझा कर देखता हूँ। पर मुझे तो शक है, उसके आने में।'

'चुप रहो यार। मैं सुबह चार बजे बसन्ती को भिजवाकर सब ठीक करता हूँ।' रवि के आने के एक दिन पूर्व का वार्तालाप था यह! अगले दिन सुबह चार बजे ही शार्मा जी तैयार हो गएँ। लग्न का दिन था इसलिए हवा में तैरती नादस्वरम की मधुर ध्वनि पुष्प वर्षा की तरह उनके मन को भिगो रही थी। बसन्ती ने बहुत समझाकर देखा पर कामाक्षी टस से मस नहीं हुई।

'मेरा भला वहाँ क्या काम है, री? तुम लोग हो आओ। कोई घर पर भी तो रहे, उसके स्वागत के लिए। मैं रहूँगी घर पर।'

बसन्ती घर गयी। बाकी लोगों को लेकर चल दी। रास्ते में गाड़ी रोककर दो हार ले लिए। सुबह की ठंडी हवा, बेले के फूलों की भीनी महक और ऊपर से हवा में तैरती नादस्वरम की मधुर ध्वनि-विवाह का-सा माहौल लगने लगा था।

वेणु काका ने बसन्ती से पूछा, 'रवि की माँ क्यों नहीं आयी, बसन्ती! गुस्से में हैं क्या?'

'पता नहीं बाऊ। ऊपर से तो शांत ही लगती हैं, पर मन में जाने क्या…?'

'ऐसी कोई बात नहीं होगी। बेटा आ रहा है न। घर पर खीर- वीर बनाने में जुट गई होंगी।' वेणु काका ने बात बदल दी।

ट्रेन सही वक्त पर आ गई। इन लोगों की अपेक्षा के विपरीत रवि और कमली दूसरी श्रेणी के डिब्बे से उतरे। सूती धोती पहने माथे पर कुंकुम का टीका लगाए, कमली ने उन लोगों को देखकर हाथ जोड़े। स्टेशन के पास बने विवाहमंडप में मंगल ध्वनि होने लगी थी, ठीक उसी क्षण रवि और कमली ने शंकरमंगलम की भूमि पर पैर रखे। 'यह मेरे पिता हैं।' रवि ने परिचय दिया। कमली झट पंडित विश्देश्वर शर्मा के चरणों पर झुक गई। शर्मा जी पुलकित हो उठे। उसे मन से असीसा। विवाह मंडप में भी वर और वधू को उसी क्षण आशीर्वाद दिए गये होंगे। कैसा संयोग था। शर्मा जी का मन तृप्त हो उठा था। कमली की देह से उठती भीनी सुगन्ध प्लैट फार्म पर फैलने लगी। शर्मा जी ने एक वधू को दिया जाने वाला आशीष ही अनजाने में दोहरा दिया था। उन्हें लगा वे चाह कर भी उसका तिरस्कार नहीं कर सकते। जाने क्यों, उनका मन ही उनके खिलाफ होने लगा था। कमली ने बसन्ती को गले लगा लिया। वेणु काका ने रवि को और बसन्ती ने कमली को हार पहनाये। 'वेलकम टु शंकरमंगलम' कहते हुए वेणु काका ने हाथ आगे बढ़ाया।

'हैंड शेकिंग ईज नॉट एन इंडियन कस्टम' कहते हुए कमली ने हाथ जोड़ दिए। रवि ने पार्वती और कुमार परिचय करवाया।' पार्वती की पीठ थपथपाते हुए कमली ने तमिल में ही वार्तालाप प्रारम्भ किया। कुमार की पढ़ाई के विषय में, उससे कुछ सवाल किए। लगा, रवि ने उसे सब कुछ पहले से ही सिखा-पढ़ा दिया है। वह क्षणांश के लिए भी नहीं हिचकी।

कमली ने वहाँ अजनबियों की सरह व्यवहार नहीं किया। लगा, जैसे इस परिवार को वह वर्षों से जानती रही हो। स्टेशन के प्लैट- फार्म पर एक छोटी भीड़ इकट्ठी हो गयी। यूँ भी रंगरूप या वेश- भूषा की भिन्नता थोड़ी भी नजर आ जाए, लोग घूरते हैं। भारतीय गांवों की यह मानसिकता आम है। हरेक को, हर वक्त समझने देखने की जिज्ञासा और उसके लिए पर्याप्त वक्त दोनों ही उनके पास हैं। गांव की जिज्ञासाओं का अंत नहीं।

शंकरमंगलम रेलवे स्टेशन पर यह बात साफ पकड़ में आ गयी, पिछले पचीस वर्षों से 'बड़े' वेचने वाले सुब्बा राव, अखबार वाला चिन्नैया, फल वाला वरदन, सभी उस भीड़ में शामिल थे। सुब्बा राव से तो इस रूट पर अन्सर जाने वाले अधिकांश यात्री इस कदर परिचित थे कि उनकी आवाज से ही स्टेशन का नाम भांप लेते।

पूरी भीड़ में सुब्बाराव को देखकर रवि ने उसका कुशल क्षेम पूछ लिया। सुब्बा राव की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। स्टेशन से लौटते हुए वेणु काका ने जान बूझकर रवि, कमली और शर्मा जी को एक कार में पीछे कर दिया और स्वयं बसंती, कुमार और पार्वती को लेकर आगे चले आएँ। इन लोगों को घर पर उतार कर काका शादी में चले गए। चौखट पर एक साधारण सी अल्पना ही बनायी गई थी। बसंती ने पारू को हांक दिया।'

'जल्दी से चावल का घोल बना ला। सुन गेरू भी लेती आना। बड़ी सी अल्पना बना लेंगे। झटपट एक थाल में हल्दी-चूना घोल कर आरती तैयार कर ले। वे लोग आते ही होंगे।' एक नब विवाहिता जोड़े के स्वागत की भी तैयारी करती हुई बसंती मन ही मन कामाक्षी काकी से घबरा भी रही थी।

रवि और कमली के प्रति अगाध प्रेम ही था कि भय को भी परे कर दिया।

पार्वती ने गेरू का घोल तैयार किया। भीतर से कामाक्षी की स्त्रोत लहरी हवा में तैरकर बसंती के कानों तक पहुँच गयी।

'तुलसी श्रीसखि, शुभे पापहारिणी पुण्यदे

नमस्ते नारदनुते नारायण मनप्रिये।'

काकी के उच्चारण की स्पष्टता पर बसंती मुग्ध हो उठी। उसे जाने क्यों बार-बार यही लग रहा था; कि काकी ने काम वाला बहाना जान बूझ कर बनाया है। उनके न आने की वजह तो कुछ और ही है।'

पार्वती ने खूबसूरत अल्पना बना दी थी। बसंती ने गेरू की रेखा से सटी एक रेखा और खींच दी। पार्वती भीतर से आरती का घोल ले आयी। शंकरमंगलम रेलवे स्टेशन से गाँव के भीतर आते हुए रास्ते में पीपल के पेड़ के नीचे गणेश जी का एक पुरातन सा मन्दिर था। चाँद वाले उन्हें 'पथबन्धु विनायक मन्दिर' कहते थे। गाँव से बाहर जाने वाले और बाहर से गाँव आने वाले एक पल के लिए यहाँ जरूर रुकते। शर्मा जी भी सोच में पड़े थे, इसलिए भूल ही गए। पर रवि ने कार रुकवाई। शर्मा जी और रदि की चप्पलें कार में छोड़कर नंगे पाँव उतरे, तो कमली ने भी उनकी देखादेखी बही किया। नारियल फोड़कर परिक्रमा की और कार में आकर बैठ गए। रवि रास्ते में कमली को गणेश मन्दिर और गाँव में प्रचलित प्रथा के सन्दर्भ में बताता रहा। रेवलोन इंटीमेट की गंध कार में फैली हुई थी। कमली को गाँव का प्राकृतिक माहोल बहुत अच्छा लग रहा था। रवि हालाँकि उसे अंग्रेजी या कभी फ्रेंच में समझाने की कोशिश कर रहा था, पर कमली ने तमिल बोलने की पूरी चेष्टा की।

उसके बोलने का लहजा कुछ अटपटा जरूर था, पर उसके शब्द साफ समझ में आ रहे थे। प्रत्येक नये शब्द को वह उत्साह से सीख रही थी। जैसे वे शब्द न होकर कोई मानदेय हों। यूँ यह स्थिति हर उस छात्र की रहती है, जो किसी भाषा को सम्पूर्ण उत्साह के साथ सीखता है। 'पथ बंधु विनायक' का नामकरण उसे बेहद भा गया। उसे बार-बार दोहराती रही।

शर्मा जी ने बताया, 'गाँव के इतिहास में इसका नाम 'मार्गसहाय विनायक' है। पर लोगों ने सुविधानुसार इन्हें 'पथबंधु' कहना शुरू कर दिया।

'इतिहास चाहे जो भी कहे, लोगों की प्रचलित मान्यताएं ही स्थाई होती हैं। लोगों की भाषा, लहजा उनके भाव को महत्व दिया जाता रहा है। भाषा विज्ञान की अवधारणा का मूल कारण यही तो है। यदि ऐसा न हो, तो भाषा व्याकरण के घेरे में बंधकर बस धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी और उसकी जगह म्यूजियम में ही रह जायेगी।' कमली बोली। शर्मा जी को लगा यह फिरंगी युवती सुन्दर ही नहीं है बल्कि इसे विषय का ज्ञान भी खूब है। उन्हें याद आया रवि को बचपन से भाषा विज्ञान और तुलनात्मक अध्ययन में बेहद रुचि रही है।

कार घर के आगे जब रुकी, सुनह खिल आयी थी। कार की आवाज सुनकर अड़ोस-पड़ोस के लोग बाहर निकल आये। कामाक्षी ओसारे के खम्भे के सहारे खड़ी हुई थी।

कार से उतरे रवि और कमली को देखकर बसन्ती शरारत से मुस्कुराई और बोली, 'तुम दोनों इस रंगोली के ऊपर खड़े हो जाओ, पूरब की ओर मुँह करके। आरती उतार देती हूँ।' शर्मा जी कार से उतर गए थे।

बसन्ती की इच्छानुसार ही रवि कमली का हाथ पकड़कर रंगोली के ऊपर आकर खड़ा हो गया। बसन्ती और पार्वती ने मिलकर आरती उतारी।

'मंगलम मंगलम जय मंगलम
श्री रामचन्द्र की शुभ जय हो,
महिलाओं की मंगल आरती,
कन्याओं की कपूर आरती
सोने की थाल में, पंचरंगी रंगोली,
मोती के थाल में नवरत्नों की आरती,
सीतापति की शुभ जय हो'

बसन्ती का गला इतना मधुर है, कमली को पहली बार पता लगा। सुबह के सन्नाटे को चीरते पक्षियों के कलरव के बीच यह मधुर गीत बेहद सुखद लगा। कमली ने रंगोली और गीत दोनों की तारीफ की।

किनारे खड़ी माँ के पास रवि कमली को ले गया, और उसका परिचय करवाया। कमली ने झुककर उनके पैर भी छू लिए। कामाक्षी सकुचाकर कुछ पीछे हो गई। यह सकुचाहट थी या गुस्सा कोई भांप नहीं पाया।

'ऊपर ले जाओ उसे। वहाँ तुम लोगों के ठहरने की पूरी व्यवस्था है।' शर्मा जी ने रवि से कहा।

'व्यवस्था कैसी, बाऊ? यहीं रह लेंगे। कमली के लिए किसी अतिरिक्त सुविधा की कोई आवश्यकता नहीं है।'

'एस, आयम टायर्ड आफ लक्सरीज। धन प्रधान जीवन से भी ऊब गई हैं।' कमली भी रवि का समर्थन करने लगी। फिर भी शर्माजी के आदेशानुसार उन दोनों का सामान ऊपर वाले कमरे में पहुँचाया गया। कुमार और पार्वती ने छुट्टी ले रखी थी। बसन्ती भी साथ ही बनी रही।

'इतना सब क्यों कर डाला बाजी? मैंने तो आपको लिखा ही नहीं था। कमली बहुत लचीले स्वभाव की है। सुविधानुसार अपने को दाल सकती है' 'कुछ भी हो, आखिर सभ्यता भी तो कोई चीज है। मुझसे जो बन पड़ा मैंने कर दिया। वेणु काका और बसंती ने भी कहीं-कहीं सुझाव दिए।'

वे लोग ऊपर बने कमरे में रखी कुर्सियों पर बैठे थे।

'बाऊ जी भुमिनाथपुरम गए हैं। दोपहर तक लौट आएँगे। तुम आते वक्त सुरेश से मिले थे? कुछ कहलाया है उसने?'

'न, पर यूनेस्को के दफ्तर में फोन जरूर किया था। पता लगा…… सुरेश जिनेदा गया है। लौटने में हपता लग जायेगा।'

पार्वती नये खरीदे गये हैं और प्यालों में कॉफी ले आयी। रवि ने महसूस किया कि बाऊ जी ने बहुत ही मुश्किल से एक-एक कर चीजें जुटाई हैं।' आज तक घर पर कांच या चीनी मिट्टी के बर्तन कभी नहीं आये। पीतल या कांसे के गिलास में ही कॉफी पी जाती थी। यह परिवर्तन किसके लिए हो सकता है? उसके लिए या फिर कमली के लिये! उसे लगा कमली के आगमन ने इस गाँव के पुराने घर को बहुत अधिक प्रभावित किया है।

कॉफी पी चुकने के बाद कमलो को घर और बगीचा घुमाने ले गया। पार्वती भी उनके साथ हो ली। कुमार किसी खरीददारी के लिये दुकान गया हुआ था।

ऊपर के कमरे में बाप-बेटे अकेले छूट गए थे। शर्मा जी ने ही बात शुरू की, 'यह कोई महल तो है नहीं, कि दिलाने को कुछ हो। बसन्ती बता रही थी कि वह करोड़पति की बेटी है।'

'महल हो या झोपड़ी। मुझसे जुड़ी हर चीज से उसे प्यार है। भारत, भारतीय संस्कृति, भारतीय गाँव, गाँव का जीवन―कमली को इन सबसे बहुत प्यार है।'

'तुम्हारी अम्मा को मैंने पूरी बात अभी नहीं बताई है। तुम्हारा दूसरा पत्र ही उसे पढ़वा दिया था। चित्र को देखकर पूछने लगी कि क्या यह भारत घूमने आ रही है? मैंने भी हामी भर दी। बस! न उसने आगे कुछ पूछा, न मैंने बताया।'

'आपने गलत किया जो उन्हें नहीं बताया। बात को छिपाने की कला हम भारतीय जाने कितनी पीढ़ियों से पालते चले आ रहे हैं। यही तो सारी समस्याओं की जड़ है।'

'तुम्हारी माँ से ही नहीं, मैंने तो यह बात अभी किसी को नहीं बताई है। वेणु काका और बसन्ती को यह बात पहले से ही मालूम है। और अब मैं जान गया हूँ, बस।'

'ऐसे गाँव में बात को सीधी तरह से कह देना ही अच्छा होता है, बाऊ। अनुमान पर छोड़ देना बहुत खतरनाक होता है।'

'तुम पता नहीं, फंसे कह रहे हो? मेरी दो हिम्मत हो नहीं पड़ती। तुम्हारी अम्मा को बताते ही डर लग रहा है। दूसरों की तो बात ही छोड़ दो। तुम स्वयं सब जानते-समझते हो। तुम्हें समझाने की जरूरत नहीं। जब से श्रीमठ का उत्तरदायित्व मुझे दिया गया है, पता है गाँव में मेरे कितने विरोधी हो गए हैं।

'विरोध से भयभीत हो जाएँ, तो फिर क्या विरोध खत्म हो जाएगा? हमें तो डटकर सामना करना चाहिए। हमने कोई गलती तो की नहीं, फिर हमें किस बात का भय है?"

'वह सब तो ठीक है, बेटे। इसके बारे में फिर बातें करेंगे! तुम पहले अपनी अम्मा से मिल लो। उसने तो लगता है, तुमसे ठीक से बातें भी नहीं की। तुम उस लड़की को उसके पास ले गए थे ना, तो उसकी प्रतिक्रिया कैसी रही?' 'अम्मा बिल्कुल सामान्य नहीं हैं, बाऊ। कमली ने पैर छुए, तो मुँह बनाए खड़ी रहीं। मैंने सोचा घर के बाहर कोई विवाद खड़ा करना ठीक नहीं।

'यह रंगोली वगैरह भी पारू और बसंती ने ही मिलकर बनायी है। कामू को यह सब रास नहीं आया होगा। तुम्हारे विवाह के लिये जाने क्या-क्या कल्पनाएँ लिये बैठी थी। पूरी गली में शामियाना लगाकर बिल्कुल पारम्परिक ढंग से विवाह रचाना चाहती थी।'

'तो मना कौन कर रहा है? हमारी परम्पराओं को मैं जितना प्यार करता हूँ, कमली भी उतनी ही रुचि रखती है। तो ठीक है, चार दिन का विवाह ही सही…।'

'तुम भी बेटे। मैं क्या कह रहा हूँ, और तुम अपनी ही कहे जा रहे हो, कामू को घरेलू, गाँव की लड़की चाहिए।'

अखबार वाला अखबार डाल गया। रवि ने पिता को अखबार पकड़ाते हुए कहा, 'आप तब तक अखबार देखिए, बाऊजी। मैं अम्मा से बातें करके देख लेता हूँ।'

रवि भी माँ से मिलने कतरा रहा था। अम्मा चौके में थीं। उनकी आवाज पिछवाड़े से आ रही थी। वसंती अम्मा की किसी बात का उत्तर दे रही थी, शायद।

रवि पिछवाड़े की ओर तेजी से लपका। अम्मा सामने से चली आ रही थी। उसे देखकर भी अनदेखा करती चौके में चली गयी। वसंती और अम्मा के बीच क्या बातें हुई होंगी, यह जानने की उत्सुकता उसमें थी। वह पहले कुँए के पास गया। तुलसी चौरे के पास खड़ी बसंती कमली को कुछ समझा रही थी। कमली ध्यान से सुन रही थी। पार्वती भी उनके पास खड़ी थी। 'अम्मा क्या कह रही थी?' रवि ने पूछा।

'कुछ नहीं रवि, अम्मा ने अभी-अभी पूजन खत्म किया है। हम लोग बगैर नहाए ही यहाँ पास पहुँच गये, तो अशुद्धि के भय से कह दिया था बस! और कोई बात नहीं। पर काकी के कुछ कहने के पहले, ही कमली ने मुझसे कहा था, कि अल्पना और दीये को देखकर लगता है, कि अभी-अभी पूजन किया गया है। न मैंने स्नान किया है, न तुमने। इसलिए दूर ही से देख लेते हैं। मैंने भी काकी से वहीं कह दिया। कमली बतला रही थी कि उसने यह सब बातें 'हिन्दू मैनर्स, कस्टम्स एंड सेरिमोनीज,' नामक पुस्तक में पढ़ रखा है।' रवि मुस्कुरा दिया। कमली भी उसे देखकर मुस्करा दी।

'कमली को बाग दिखा लाओ बसंती। चमेली के हार को देख कर उसकी महक के बारे में जाने कितनी बार कह चुकी है। वह 'जास्मीन' नाम के स्टेशन से परिचित हैं, बस! उसे चमेली के पौधे दिखा दो।'

वे लोग बाग की ओर चले गये। रवि चौके की ओर चला आया। चौके में जिस सीमा तक सबको प्रवेश मिलला रहा, उसी सीमा पर खड़ा रहा। 'अम्मा, मैं रवि आया हूँ।' उसने कुछ जोर से आवाज दी। कोई उत्तर नहीं मिला।

दुबारा उसने आवाज लगाई तो भीतर से आवाज आयी।

'जानती हूँ रे। वहीं ठहरों, भीतर मत चले आना! नहाये तो होगे नहीं अब तक। मैं ही आ रही हूँ उधर?'

अम्मा मथानी से दही मथ रही थी। अम्मा उस वक्त कैलेंडर वाली यशोदा लग रही थीं।

'तो मैं फिर आ जाऊँ? नहाकर आऊँ तो बात करोगी?'

'यहर, अभी आयी।'

'तुम मुझसे नाराज क्यों हो, अम्मा?'

'तो तुम नहीं जानते? मुझसे पूछ रहे हो?'

'मैंने ऐसा क्या कर दिया है?'

'तो और क्या बचा है?'

'अम्मा का सारा जोर 'और' 'शब्द पर था और रवि इसका वजन समझ रहा था। उसे लगा सारा आक्रोश इसी शब्द पर उतर आया है। बाऊ जी भी शायद कुछ पिघल गये हैं। पर अम्मा! अम्मा की सख्ती को गलाना बेहद टेढ़ा काम है। उसके मन की तरह उसके शब्द भी तीखे और संक्षिप्त हो गये थे। दस मिनट से अधिक उसे बाहर ही रहना पड़ा। अम्मा बाहर निकली।' अब से परे हट कर बड़े हो जाओ हथेली आगे करी।' अम्मा बोली।

रवि के मन में एक बचकानी शंका भी उभर आयी। कहीं अम्मा बेंत तो नहीं लगाएँगी। पर हुआ कुछ और ही।

अम्मा मक्खन में गुड़ मिलाकर उसकी हथेली पर रख दिया। 'खा लो! तुम्हें पसन्द है न? 'अम्मा सतर्क थी कि हथेली छू न जाए।

बिसी भी उन में किसी भी महौल में, किसी के भी समक्ष अपने पेट जाए बेटे को बिल्कुल बच्चे की तरह बदल देने की कला सिर्फ मां ही जानती है। ज्ञान, अहंकार, यश, प्रतिभा, घमंड, उम्र―से तमाम मुखौटे मातृत्व के समक्ष किस कदर उतरने लगते हैं।

विदेश में रहने वाले नामी प्रोफेसर को उस माँ ने क्षण भर में ही, नंगे धड़गे शरारती शिशु के रूप में बदल डाला।

मक्खन को निगलता हुआ रवि बोला, 'तुमने हथेली आगे करने को कहा था न अम्मा, मैं तो डर ही गया था कि कहीं बेंत न लगा बैठो।'

'बेंत से तो क्या, तूने जो काम किया है, लगता है, तुम्हें इस बेलन से ही चार हाथ लगा दूँ।'

इस वाक्य में प्यार और गुस्से का सानुपातिक मिश्रण था। रवि कुछ कहता कि मीनाक्षी दादी आ गयी। रवि ऊपर जाने लगा, पर दादी ने उसे रोक लिया।

'कौन? रवि है न? सुबह आये हो? ठीक ठाक तो हो न?'

'हो दादी! ठीक हूँ।' रवि खिसकने लगा। पर दादी भला कैसे छोड़ती! आँखें भरीं, ठीक से दिखती ही नहीं। तनिक पास आओ रवि, जी भर कर देख लें...।' अपनी हथेली की ओट आँखों पर कर ली और पास आ गयीं। रवि को अपर से देखा।

'पहले से रंग निखर आया है। ठंडी जगह है न? इसलिए। क्यों कामू? ठीक ही कहा न।'

उन दोनों को उसी बहस पर लटकाकर रवि ऊपर चला आया। वाऊ जी सोलह पेजी अखबार के संपादकीय पृष्ठ तक पहुँच चुके थे। पाठकीय पत्रों को देख रहे थे। रवि को लगता है कि रिटायर होने वाले पिताओं का इस पत्र वाले कालम से कोई खास रिश्ता होगा। उसने देखा है, कि भारतीय अखबारों में इस कालम में लिखने वाले एक खास वर्ग/उम्र के लोग होते हैं। वह बाऊ जी को उसी काम में उलझा देखकर मुस्करा दिया।

बाऊ जी ने सिर उठाकर उसे देखा और पूछा,

'क्यों रवि? उससे बातें हुई? क्या कह रही है?'

'बातें शुरू ही की थी कि मीनाक्षी दादी चली आयीं। अम्मा तो सहज ही थीं, पर बाऊ जी लगता है, उनके भीतर गुस्सा है।'

'यही तो फर्क है स्त्रियों और पुरुषों में। पुरुष जिस पर विचार करता है, और उस पर संदेह व्यक्त करने की सोचता है, उसी बात को स्त्रियाँ जाने कैसे भाँप लेती हैं, और शुरुआत ही संदेह से करती हैं।'

'आप अम्मा को पहले से ही पूरी बात बता चुके होते तो सारी बातें साफ हो जाती अब छिपाने की वजह से परस्परिक मतभेद की गुंजाइश बढ़ गयी है।'

'सोचो तो, जब उसे कुछ भी नहीं मालूम है, तब इतना गुस्सा आ रहा था। मालूम हो गया होता तो? तुम्हारा पत्र पढ़कर तो मैं ही चौंक गया था। समझ में ही नहीं आया क्या उत्तर दूँ। वेणु काका और बसन्ती ने मुझे समझा बुझाकर मेरा गुस्सा शांत किया।'

'अब यहाँ झगड़ा और समाधान की बात कैसे आ गयी, मैंने तो आपसे कुछ नहीं छिपाया। मुझे लगा आपको गलतफहमी न हो, इसलिए पहले ही लिख दिया। वेणु काका और बसन्ती जब पैरिस आये थे, उन्हें भी सब कुछ बता दिया था। उन्हें समझा दिया था कि वे लोग आपको समझा दें।'

'माना, तुम ठीक कह रहे हो। पर यह गांव? तुम तो जानते ही हो कि हमारे कितने और कैसे विरोधी हैं। अगस्त्य नदी के तट पर स्थित इन गाँववासियों के लिये विटामिनों की तरह यह पंचायत भी जरूरी है। विटामिन शरीर में कम हो तो कोई बात नहीं, पर दूसरों की पंचायत करने का तौर तरीका ये छोड़ नहीं सकते। पुराने जमाने में ये ओसारे इसलिए बनाये जाते थे कि मित्रों, अतिथियों और राहगीरों को विश्राम के लिए स्थान मिले। पर अब? यहाँ तो पंचायत बैठने लगी है। चुगल खोरी, बुराइयाँ कहने-सुनने का अड्डा भर बन कर रह गए हैं, ये ओसारे। इस गांव में तीन सौ ओसारें हैं। इसे वाद रखना। अभी भी पनघट पर तुम्हारी ही चर्चा हो रही होगी।'

'बाऊ जी, मेरी जिंदगी मेरी अपनी है। इसका निर्णायक मैं हूँ, यह तीन सौ ओसारे या तीन गलियां नहीं।'

'ठीक है, तुम पहले नहा धोकर आओ। कॉफी ही तो पी है। इन बातों पर फिर चर्चा करेंगे। उससे भी कह दो नहा ले। और खाना? हमारे यहाँ का खाना चलेगा?'

'हाँ, बाऊ जी। जो भी मिलेगा, वह खा लेगी। यही तो हममें और उनमें फर्क है। वे लोग स्थान के अनुरूप रहना जानते हैं। अपनी ही आदत के अनुसार रहने की जिद हम लोगों में ही है।'

'ऐसा तो नहीं कहा जा सकता। कुछ बातों में जिद करना ठीक भी है।'

'पर सही बात के लिए जिद नहीं करते। जहाँ नहीं करनी चाहिए वहाँ करते हैं।

रवि ने अपने बक्से खोलने शुरू किये।

'पारू और कुमार दोनों ने ही पत्र लिखा था कि उन्हें रिस्टवाच चाहिये। कोई सात आठ महीने पहले की बात है। मैं तो भुल भी गया था। कमली ने ही याद दिलाया। उसने याद न दिलाया होता तो भूल ही गया होता। 'रवि ने दो छोटी-छोटी डिविया आगे बढ़ायी।

शर्मा जी ने खोल कर देखा।

'अच्छी हैं, उससे कह दो, खुद अपने हाथों से बच्चों को दे दे।'

कुछ देर तक गाँव की बात होती रहीं।

शर्मा जी नीचे उतरने लगे।

बसंती के साथ टोकरी भर चमेली के फूल गये कमली सीढ़ीयाँ चढ़ रही थी। उसका बच्चों का सा उत्साह देखकर शर्मा जी हँस दिए।

कमली को ऊपर छोड़कर बसंती वर लौटने लगी। घर जाने के 'पहले याद से चौके तक गयी और कामाक्षी से बोली, 'काकी'! खीर बनाइए! कितने दिनों बाद तो बेटा लौटा है। 'बसंती खीर का असली कारण छिपा गयी। लौटकर उसे कमली को फूल गूंथना भी सिखाना है। वह घर के लिए चल दी।

सुबह से लगातार बूंदा-बांदा हो रही थी। शंकरमंगलम बैहद खूब सूरत लग रहा था! पश्चिमी दिशा की पर्वत श्रेणियाँ गहरे नीले रंग में चमक रही थीं। बरसात के दिनों में पर्वतीय इलाके दुलहन की तरह खूबसूरत लगने लगते हैं। शर्मा जी ने दुबारा स्नान किया और पूजाघर के अंदर चले गये। उस घर में सुबह की पूजा का विशेष महत्व है। पौन घंटे से एक घंटे तक यह पूजा चलती है। कामाक्षी ने धूप जला दिया। लकड़ी के दहकते कोयले धूपदानी में डाल दिए। पार्वती ने नहा धोकर पूजा के लिये फूल लाकर रखा दिए। 'पारू भैय्या नहा चुके हों तो कह दो नीचे आ जाएँ।’―पारू से कहला भेजा।

कामाक्षी ने उन्हें झिड़का। ‘उसे काहे परेशान कर रहे हैं। थका हुआ आया है। आराम कर ले।’

‘बहुत दिनों के बाद लौटा है। पूजा भी देख ले।’

कामाक्षी भीतर से भोग लाने चली गयी। रवि और कमली इसी बीच नीचे उतर आए। रवि धोती और उतरीय में था। कमली पीले रंग की चुनरी साड़ी पहने थी। माथे पर टीका। शेंपू से धुले बाल, स्लीवलेस ब्लाउज। ब्लाउज का रंग स्वचा से मेल खाता हुआ, पह- चान में ही नहीं आ रहा था! एक नयी कोमल कविता की तरह वह पूजाघर में आ खड़ी हुई।

वह पहले ही नहा चुकी थी और रवि उसके बाद नहाने वाथरूम पहुँचा। बाथरूम में उसके शैंपू, साबुन की महक फैली हुई थी। चूने और गारे की गंध जाने कहाँ गुम हो चुकी थी। रवि को लगा, जैसे वह गंधर्व लोक में विचरण कर रहा हो। वह नहाकर बाहर निकला, तो कमली तैयार हो चुकी थी। स्लीवलेंस ब्लाउज पर वह उसे टोकना चाहता था, पर जाने क्या सोचकर रुक गया। कहीं वह यह न समझ ले कि उसकी स्वतन्त्रता पर आघात किया जा रहा है।

सम्पन्नता में पली लड़की उसके प्यार में सब कुछ छोड़कर यहाँ आयी है। उसे एक-एक बात पर टोकना वह नहीं चाहता। हालाँकि कह देता तो वह मानने को सहर्ष तैयार हो जाती। फिर भी वह चुप रहा। दूसरों की आजादी को महत्व देने की यह सभ्यता उसने विदेश में रहकर सीखी थी।

दूसरी ओर शंकरमंगलम जैसे गाँव में सोने की मूर्ति सी कोई युवती, कंधे उघाड़ कर चले, तो इसकी क्या प्रतिक्रिया हो सकती है, उससे भी वह खूब वाकिफ था।

गाँव की बात जाने भी दें, तो भी, घर पर बाऊ जी और अम्मा क्या सोचेंगे? उसने मन ही मन सोचा। जहाँ तक उसका प्रश्न था उसे कमली इस रूप में बेहद खूबसूरत लग रही थी। इतनी कि मन हुआ उसे अपने सीने से लगा ले। पर चुप ही रहा।

अम्मा भी उसे बहुत प्यार करती हैं। कमली तो जान भी दे सकती है। पर वह कतई नहीं चाहता कि अम्मा और कमली के बीच में हल्का सा मनमुटाव भी हो। कमली का मन तो फूल सा कोमल है। उसको सौजन्यता किसी भी समस्या को सुलझा सकेगी, इसका पूरा विश्वास उसे था। उसकी सारी चिंता अम्मा को लेकर थी। पुरुष दूधमुँहे उम्र से केवल एक ही स्त्री से प्यार करता है, यह होती है माँ। युवावस्था में वह प्रेम दूसरी युवती का हो जाता है। लिहाजा माँ के भीतर की ईर्ष्या उस नवागत युवती के लिए होती है। रवि को लगा, माँ के गुस्से का कारण कहीं यह स्वाभाविक ईर्ष्या तो नहीं? हालाँकि अभी तक आधिकारिक तौर पर भावी बहू के रूप में उसका परिचय नहीं करवाया गया है। अम्मा को संदेह है!

स्नान के बाद शुद्ध कपड़ों में ही भीतर प्रवेश की अनुमति है।

कालेज के दिनों में रवि अक्सर अम्मा को छेड़ा करता था, 'घर पर ही मंदिर प्रवेश संघर्ष समिति बनानी होगी, अम्मा।'

पता नहीं अम्मा कमली से क्या का कह दें। वह स्वयं भी कमली के लिये बाहर ही खड़ा रहा। कमली की तंगी बाहों को अम्मा और बाऊ दोनों ने ही घूर कर देखा। अम्मा ने तो मुँह भी बिचका दिया। अच्छा हुआ कमली पारू से बातों में लगी थी, ध्यान नहीं दिया।

पूजा समाप्त होने के बाद प्रसाद लेकर बाहर बैठक में गए, बसँती लौट आयी थी। बाऊ जी ने ही पहल की थी। 'खाना ऊपर भिजवा दूँ, या यहीं पत्तल बिछा दिया जाए?'

कमली सबके साथ पत्तल में खाते को तैयार थी। परोसने में कामाक्षी का हाथ बँटा कर, सबको खिलाने के बाद खाने की इच्छा थी। पर क्या अम्मा कमली को चौके में घुसने देंगी। रवि और बसंती दोनों ने ही इसमें फेर बदल कर दिया। बोली, 'काका और काकी नीचे खा लेंगे। तुम, कमली, पारू और कुमार ऊपर आराम से बतियाते हुए खाना। आज तो मैं भी यहीं खाऊँगी। बुजुर्गों को तंग करना ठीक नहीं। हम लोग ऊपर ही बैठ लेंगे। बसंती ने स्थिति को संभाल लिया था। शर्मा जी भांप गए। उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। 'ठीक ही तो कह रही है। ऐसा ही करो।' शर्मा जी कुछ और नहीं कह पाये। रवि कमली को लेकर ऊपर चला गया।

बसंती, कुमार और पार्वती चौके से खाना ऊपर ले जाने लगे। उनके ऊपर आने के पहले जो थोड़ा वक्त हाथ लगा था रवि ने कमली को दो तीन बातें बता दी। कुमार और पारू को अपने हाथ से घड़ी देने को कहा। अम्मा की परम्परावादिता, कट्टरपन को साफ शब्दों में न बताकर प्रकारान्तर से बोला, 'कुछ भी हो, उसे आराम से लेना। पुरातन पंथी गाँव है यह। लोग भी कट्टर और हठधर्मी हैं। यहाँ मैनर्स जैसी बातों की अपेक्षा नहीं की जा सकती।'

'आप जो मुझे यूं बताकर, अनुरोध सा कर रहे हैं, यही अटपटा लगता है, बस।' कमली हँस दी।

कमली ने परोसने में उत्साह दिखाया। दो पापड़ उसके हाथों से फूट गए, तो बसंती ने उसे बिठा दिया। 'तुम बैठ जाओ। आदत पड़ जाएगी, फिर यह काम करना।

खाने से निपट कर रवि थकान से चूर सोने चला गया।

कुमार और पार्वती को बुलाकर उनकी घड़ियाँ दे दीं। बसंती को सेंट की बोतल पकड़ाती बोली, 'बसंती, यदि रोज एक टोकरी भर चमेली के फूलों का वादा करो, तो ये तमाम इत्र सड़क पर फेंक दूं।'

चमेली को गूंथने की कला को देखकर कमली आश्चर्थ में पड़ गयी। गूंथने की तेजी देखकर बह हैरान रह गयी।

हम लोग जिन कामों के लिए मशीनों की मदद लेते हैं, भारतीय स्त्रियाँ उन्हें अपने कोमल हाथों से करती हैं। ऐसा लगता है, प्रत्येक स्त्री कलाओं की देवी रही होगी। कामाक्षी काकी; यानी कि तुम्हारी सासू और फुर्ती से फूल गूंथती हैं। रंगीली बनाना, फूल गूंथना, गिट्टियाँ खेलना, पल्लांगुषि खेलना, अम्मानै खेलना, कौड़ियाँ खेलना, खाना बनाना―काकी हर काम में माहिर हैं। गाना भी खूब गाती हैं। बसंती ने कहा।

'यह अम्मानै क्या है?' कमली ने पूछा।

बसंती ने पारू से वहफार पीतल की गोलियाँ मँगवाई। नीबू के आकार की गोलियों से खेला जाने वाला यह खेल, बसंती ठीक से खेल नहीं पाती थी। आदत जो नहीं थी। बसंती को उसी क्षण लगा कि वह खुद शहरी सभ्यता में अपनी जमीन से जुड़ी चीजों को भूलती जा रही है। तीन गोलियों को लगातार ऊपर फेंक एक हाथ से उन्हें लोक भी नहीं पायी।' तुम रुको कमली, मैं काकी को बुला लाती हूँ। वह तो पाँच गोलियाँ लगातार लोकती हैं। बसंती नीचे उतर गयी।

XXX

काकी चौके की चौखट के पास ही पटरे पर सिर रखे लेटी हुई थी। बसंती ने धीमे से झाँक कर देखा। कहीं सी तो नहीं गयी। न, जगी हुई थी।

'तूने अम्मानै सँगवाये थे! कुछ और चाहिये?' काकी स्वयं उठ बैठी।

थके हुए चेहरे में भी कितना तेज था! बसंती उन्हें देखती रही। मानो मह रही हो कि वह इस घर की गृह लक्ष्मी है, अन्न पूर्ण है। गंभीर तेज, तप से निखरा शरीर, ऋषि पत्नी की तरह लग रही थों वे।

बसंती को भय था, कहीं काकी निष्ठुरता से उसके प्रस्ताव को ठुकरा न दें।

'हमारी पारंपरिक कलाएँ, गीत, खेल, हमारे रीति रिवाजों को देखने समझने की खूब जिज्ञासा है कमली में! काकी, आप अम्मानै खेलकर दिखाएँगी? मुझसे तो बना नहीं।'

'उसने तो बाँह उखाड़ने वाला ब्लाउज पहन रखा है, री।'

'अगर उसे पता चल जाए कि आपको यह अच्छा नहीं लगा, तो अगले ही क्षण उसे उतार फेंकेगी। आपके प्रति इतनी श्रद्धा है उसके मन में।'

'मैं कौन होती हूँ री उसकी, कि मेरे प्रति श्रद्धा रखे। यहाँ ठहर गयी है, इसलिये कहना पड़ रहा है। मठ के उत्तराधिकारी के धर कोई फिरंगिन नंग धड़ंग धूमे तो लोग हमारे बारे में क्या कहेंगे?'

मैं उसे समझा दूँगी, काकी? फिलहाल आप ऊपर चलिए न!'

बसंती अपना वाक्य खत्म करे इससे ही कामाक्षी का तीखा स्वर उसे काट गया।

'मैं ऊपर नहीं आती। उसे देखना है, तो नीचे आ जाए। यही खेल कर दिखा दूँगी।'

'अभी आयी, काकी!' बसंती ऊपर लपकी। इतना ही हो गया तो बहुत समझो।

उसे लगा, काकी में सुबह वाली निष्ठुरता उतनी नहीं रही। चेहरे का कसाव अब कुछ ढीला पड़ गया था। पार्वती ने बताया था कि कमली की दी हुई घड़ियों की अम्मा ने तारीफ की थी। बसंती इस खिंचाव को अपने ढंग से कम करना चाहती थी। काकी की तारीफ कमली से और कमली की प्रशंसा काकी से कर, वह चाहती थी कि दोनों एक दूसरे के प्रति रुचि लें।

ऊपर पहुँच कर बसँती ने सबसे पहले कमली का बिना बाहों बाला ब्लाउज बदलवा दिया।

'कमली, हम लोग नीचे ही चलते हैं। काकी नहीं बुला रही हैं। शी ईज ए स्ट्रैंज ट्रेडिशन लिस्ट...!'

'बीइंग ट्रेडिशनलिस्ट ईज नाट एट आलं ए क्राइम...। 'बसंती' चलो चलें।' कैमरा और कैसेट रिकार्डर लेकर नीचे चलने को तैयार हो गयी।

भारतीयता, भारतीय रीति रिवाज, आचार अनुष्ठान के संबंध में जब भी उसे क्षमा माँगनी पड़ी है बसंती को लगा कमली का उत्तर तटस्थ और एक सा ही रहता है। यह अपने को इन परंपराओं के अनुरूप ढालने को तैयार है, पर यह कलई नहीं चाहती कि परंपराओं को उसके लिए छोड़ दिया जाए या उनमें कोई ढील दी जाए। दूसरों की संस्कृति को दी जाने वाली यह इज्जत कमली के निजी स्वभाव का अंश था और बसंती को उसका यह स्वभाव बहुत अच्छा लगा। उसे लगा यह गहन अध्ययन और ज्ञान का ही परिणाम हो सकता है। मन जब तक परिपक्व नहीं होता, तब तक दूसरों की भाषा, सभ्यता, संस्कृति के प्रति यह उदार दृष्टिकोण नहीं पनप सकता। 'कल्चरल ईगो' यानी कि सांस्कृतिक अहं ही तो है, कि पूरे विश्व में भाषाई, क्षेत्रीय झगड़े पनपने रहते हैं। इन झगड़ों से बचने का सर्वश्रेष्ठ तरीका यही हो सकता है कि दूसरों की सभ्यता और संस्कृति को आदर की दृष्टि से देखा जाए। कमली की यह कोमलता, यह संवेदनशीलता बसंती को अच्छी लगी। मन की परिपक्वता और गंभीरता एक सुन्दर स्त्री को और अधिक सुन्दर बना डालती है। कमली और बसंती जब नीचे आयी, दोपहर हो चुकी थी। अम्मा के लोकगीतों में या अम्मानै के खेल में नयापन कुछ नहीं था, पर कमली ने जिस उत्साह के साथ उन्हें कैश करने के लिये कैमरे और कैसेट का उपयोग किया, कुमार और पारु को भी उसमें आनंद आने लगा।

कासाक्षी ने आराम से अम्मानै खेल कर दिखाया। पहले तीन गोलियों से फिर पाँच।

मधुर स्वर में प्रचलित लोक गीत गाकर सुनाया।

'हल्की सी हँसी सजाये होठों पर सखि री,

सुन्दरी, सजी धजी, गहनों से आयी सखि री,

शिव की तपस्या भंग करने चली आयी वह सखि री, कुंकुम का टीका लगाए, कलश से स्तनों वाली है वह सखि री,

बहतीपमाली, शिव को जया चली पथ पर, सखि री।'

काकी अनायास ही अपनी री में गाती जा रही थी। लगा, खेल में ध्यान को केन्द्रित करने के लिये ये लोकगीत गढ़े गये है। कमली ने गीन को रिकार्ड में कद कर लिया मानाने कमरे से चित्र भी लिये। गांव का चौका, गाँव के लेज, आँचलिक गीत······।

'इन खेलों से जुड़े कई लोकगीत है, कमनी, यह गीत पार्वती पर लिखा गया है, बालासर में यह लोकगीतों का अंग बन गया और गाँव की जिंदगी में जुड़ गया। कुछ लोकगीतों में तो इतने खुले वर्णन मिलेंगे कि बस······।'

'हो सकता है, कि ऐसे असाधारण खेनों में ध्यान को केन्द्रित रखने के लिए ही इन लोकगीतों को गढ़ा गया हो। कई बार जंगल के रास्ते अकं गुजरने वाला पधिक अपने को उत्साहित करने के लिए ही सही, कभी कुछ गुनगुनाता है, कभी सीटी बजाता है। अपने लिये एक काल्पनिक सहयात्री को परिकल्पना जैसा कुछ। लोकगीतों से संबंधित शोध में यही पाया गया है! आगीतों की मौखिक परम्परा है। यदि उनका अनगढ़पन वा कच्चापन का अश्लीलता निवाल दें, तो फिर ये मिट्टी से जुड़े गीत हो ही नहीं सकते।'

'पर यहां तो ऐसे भी स्वयं भू विद्वान हैं, जो इन्हें वैयाकरणिक शुद्धता प्रदान करने लगे हैं।'

'यह राजनीतिज्ञों द्वारा दी जाने वाली नयाँ उपसंरकृति है, बसंती। साधारण साधारण बातों को बढ़ाचढ़ाकर प्रस्तुत करना और पान- विक रूप में अदाधारक बालों को खन्न होने देना । यह साजिश है।'

बसंती को लगा कि जिस बात की चर्चा के लिये ही दीन बार सौ गृपठों की जयधो में एक ही काश्य में कमली ने सफलता से कह डाला है। स्थानोत्तर भारत की इन एक कार ने संपूर्ण का परिभाषित कर दिया है। कमली ने एक-एक कर सभी बातें जान लीं :

उस गोरी युवती को तमिल में बातें करते देख काकाजी को आश्चर्य होने लगा। काकाजी ने पुरी जिंदगी में कभी अपनी को नहीं बुना था। बसंती के कलाक्षी को बुम करने के लिहाज में टेकिर चला दिया जा : कमली के कान में फुसफुसाई, 'दूर ही रखना इस कार को इसमा कबर बनने का है। चमड़ा छु जाए तो कार सवार कर।'

काकी शरमाई भी अपने ही भाएं मीनों को सुन रही थी। कमली, एक छात्रा बोलर हाथ बांधेनु मात्र से उनके चेहरे को निहार रही थी। कैसी मोहक मुना थी, उसकी आखों में

सड़क पर कार के समाने आज आयी। अगले ही क्षण बेगु काका का स्वर और धारपर लेटे मंदिर शमी का स्वर भी सुनाई दिया।

'बाऊ जी, पडोसाले हाँय गए थे। अभोनीटे है। शायद!' बसंती बाहर चली गयी।

'क्यों पसंती? बाह्य और आंतरिक मामले कैसे हैं। कोई इंप्रूवमेंट?'

बसंनो आशय समर गयी।

'आऊजी' कल्चरल ज' का काम चल रहा है। काको ने अम्मान का गोत माया, कमला ने इसे रिकार्ड कर लिया और दुवारा काकी को सुनका की। काकी को अच्छा लग रहा है, कि विदेशी युवती इन बातों से तचि ले रही है। पर···।'

पर क्या?

'कमल और राव के संबंधों की बात: यदि वे जान जाएँ तो पता. नहीं उनका साथै या नहीं।'

'रिश्तों को सुनियाद हैं, पारस्परिक दिवानाबही डिप्लोमेसी हैं।' बेणुकामा मुस्कराये।

'जल्दबाजी में सीधे-सीधे कुछ मत कह बैठना बिटिया। काकी को अपने भ्रम में ही कुछ दिन जी लेने दो वरना घर में कलह मच जाएगा। वह अपने आप बात को समझे यही उचित है। उसे बात को समझने में जितना वक्त लगेगा, हमें इनों दिनों तक तो शांति मिलेगी!' पार्मा जी ने कहा।

वेणुकाका और बसंती ने रवि और कमली के रिश्ते को ले कर जिस सहजता से बातचीत की शर्मा जी उसे उसी सहजता से नहीं ले पाये। पता नहीं कितनी शंकाएं――चिताएँ उन्हें घेरने लगी थीं।

उस रात रवि और कमली को अपने घर रात्रि भोजन के लिए वेणुकाका ने बुलवा लिया।

'आप भी आइए न!' वेणुकाका ने शर्मा जी को भी आमंत्रित किया। उन्होंने औपचारिकतावश ही बुलाया था। वे जानते थे शर्मा जी आने से रहे।

'आप क्या हैं? एस्टेट के मालिक हैं। अपने दोस्तों को बुला- येंगे। शहरी सभ्य लोग होंगे। मैं तो कर्मकांडी ब्राह्मण हूँ। हमें छोड़िए। रवि और कमली को बुलाना ही उचित है उन्हें ले जाइवे! हमारे प्रतिनिधि के रूप में कुमार और पारू को भिजवा दूँगा।'

रवि अभी तक सो रहा था। वेणुकाका रुके रहे, कि वह जगे तो उससे भी कह दें।

तभी सड़क पर चाँदी की मूठ वाली छड़ी लिए राजसी चाल में चार किसानों के साथ एक व्यक्ति आते दिखे। जरीदार धोती और उत्तरीय, माथे पर चंदन का टीका, मुँह में पान!

'क्यों शर्मा, सुना है तुम्हारा बेटा आया है?' पान की पीक थूकते हुए बोले।

'हाँ। आइए सीमावय्यर जी!' 'शर्मा जी उठकर खड़े हो गये। पर वेणुकाका न उठे, न अभिवादन ही किया। उनका चेहरा घृणा से विकृत हो गया। उनके भाव से लगा शर्मा का अभिवादन करना भी उन्हें अच्छा नहीं लगा।

'नहीं, जरा जल्दी में हूँ। फिर आऊँगा।' वेणुकाका को यहाँ बैठे देखकर सीमावय्यर कतरा कर निकल गए!

'चोर है, पक्का। पता नहीं किस जमीन के झगड़े को उकसाने गया है।' वेणुका का बड़बड़ाए। शर्मा जी ने बात अनसुनी कर दी।

रवि के उठते ही, उसे भी रात्रि भोज के लिए आमंत्रित किया और बसंती को लेकर तैयारियों के लिए घर चले गये।

रात्रि भोज में लगभग दस बीस लोग थे। कमली ही आकर्षण का केन्द्र रही। अधिकांश लोग एल्टेट के मालिक थे।

कमली के सामने बैठे बेणुकाका के मित्र शारंगपाणि नायडू के माथे के तिलक को देखकर कमली भाप गयी कि वे वैष्णव हैं। अत: उनसे अण्टाक्षर मंत्र और रामानुज के बारे में पूछने लगी।

नायडू उसे समझा नहीं सके। लिहाजा पैरिस के नाइट क्लब के बारे में पूछने लगे। अष्टाक्षर मंत्र के बारे में जानकारी की इच्छुक विदेशी युवती और नाइट क्लबों के बारे में उत्सुक दक्षिण भारतीय अधेड़ बैष्णव के बीच इस विरोधाभास का आनन्द रवि ले रहा था।

XXX

श्रीमठ के शंकरमंगलम उत्तराधिकारी पं॰ विश्मेश्वर शर्मा के प्रमुख कार्यों में एक कार्य, मठ की जमीन को बटाई पर उठाना भी हैं। उस शाम पट्टेदारों की बैठक बुलाई गई है। इसी बैठक में या अगली बैठक में बटाई तय करनी होगी। अक्सर पश्चिमी पहाड़ी में जब बारिस शुरू होने लगती है, बटाई की बात तय कर ली जाती है।

रवि के आने की हड़बड़ी में शर्मा जी इस बैठक की बात भूल ही गए थे।

रवि, कमली के साथ जब पार्वती और कुमार जाने लगे, श्री मठ के कारिन्दे ने आकर उन्हें याद दिला दिया। मठ को डाक भी दे गया। बैठक का ध्यान आते ही शर्मा जी को सीमावय्यर की याद आ गयी।

आज चार किसानों को लिये वे जिस तरह जा रहे थे, निश्चित रूप से बैठक से इसका कोई न कोई संबंध होगा। सीमावय्यर बिना किसी काम के यूं भीड़ लगाकर नहीं चलते।

गांवों में इस तरह को बैठकें अमूमन रात आठ बजे शुरू होती हैं, और रात दस ग्यारह तक चलती हैं। किसानों को इसी वक्त फुर्सत मिलती है। शंकरमंगलम में शतप्रतिशत खेतिहर लोगों की आबादी है। बादल धोखा भले ही दे दें, अगत्स्य नदी के तटवर्ती क्षेत्र की जमीन उर्वरा है। मठ की सम्पत्ति के बाग बगीचे, दो तीन गौशालायें, विवाह मंडप, मकान, खाली जमीन, सभी इसी गांव में ही तो थे।

दो तीन वर्ष पहले तक शर्मा जी केवल धार्मिक कार्यों की देख रेख किया करते थे। बटाई की आमदनी, मकान, विवाहमंडप के किराये, उनका हिसाब किताब सब सीमावय्यर के जिम्मे था। काफी घपला होने लगा, शिकायतें भी पहुँची, लिहाजा वह जिम्मेदारी भी शर्मा जी पर आ गयी।

शर्मा जी सीमावय्यर से बैर मोल लेना नहीं चाहते थे। पर कोई दूसरा रास्ता नहीं था। आचार्य ने स्वयं शर्मा जी को बुलवाकर उन्हें इस उत्तरदायित्व को सम्हालने का आदेश दिया। शर्मा से 'न' करते नहीं बना। इसके बाद शर्मा जी और सीमावय्यर के बीच एक दूरी आ गयी। औपचारिकतावश दोनों मिलते थे, पर सीमावय्यर के भीतर आग लगी हुई थी।

ईमानदार व्यक्ति बेईमान और कपटी को एकबारगी क्षमा भी कर देगा पर बेईमान व्यक्ति कतई एक ईमानदार को सहन नहीं कर सकता। क्योंकि ईमानदार व्यक्ति ही दूसरे व्यक्ति की बेईमानी का परिमाप बनता है साथ ही वह बेईमानी में बाधक भी बनता है। पंडित जी सीमावय्यर के लिए कुछ वैसे ही समझे जाते थे। शर्मा जी का मन गरल विश्वासी था यही कारण है कि सीमावय्यर के साथ भी शर्मा जी उसी सहजता से पेश आते। क्रोध और ईर्ष्या पर उनके ज्ञान और विवेक ने विजय प्राप्त कर ली थी। वे मानसिक रूप से परिपक्व हो चुके थे।

सीमावय्यर की बात सोचते हुए, शर्मा जी डाक देखने लगे। पहला पत्र इरैमुडिमणि के सम्बन्धित था।

'यदि किराया नियमित रूप से भरने के योग्य व्यक्ति मिल जाएँ तो शर्मा जी स्वयं किराये पर उठा दें।' श्रीमठ के मैनेजर ने उत्तर दिया था। दूसरे पत्र में बटाई का लाभ गरीब किसानों को दिलवाने पर जोर दिया गया था। कुछ जमींदार और उनके कारिन्दे या धनी ठाकुर, गरीब किसानों के मार्फत स्वयं बटाई का काम उठा लेते। थोड़े बहुत रुपये देकर उन गरीब किसानों का मुँह बंद कर देते थे। इस आशय के एकाध शिकायत पत्र भी साथ में नत्थी किये गये थे।

अगला पत्र स्कूल के छात्र-छात्राओं के लिए भगवत्‌गीता, तिरुकुरल प्रतियोगिता आयोजित करने से सम्बन्धित था।

चौथे पत्र में, संस्कृति वैदिक पाठशाला के संदर्भ में कुछ बातें पूछी गयी थीं। अगले पत्र में इलाके के उन पुराने मन्दिरों का ब्यौरा मंगवाया था, जिनका निर्माण कार्य बाकी है।

पत्रों को भीतर जा कर रख दिया और संध्यावंदन करने नदी की ओर चले गये। लौटते हुये रास्ते में इरैमुडिमणि की दुकान की ओर निकल गये।

दुकान में भीड़ नहीं थी। लगा, दुकान बंद करने का समय है। इरैमुडिमणि के संगठन के कुछ लोग वहाँ बातें कर रहे थे। शर्मा जी को देखकर इरैमुडिमणि स्वयं उठ आये।

'क्या हो गया विश्वेश्वर? अगर कहला दिया होता, तो हम ही बने आते। तुम काहे परेशान हो रहे हो?'

'यहाँ नदी की ओर आया था, तुम्हें भी देखने चला गया। इस जमीन के बारे में मठ का उत्तर आ गया।'

'क्या लिखा है?'

'लिखा है, कि किराया वक्त पर भरने वाला व्यक्ति हो…।'

'तो तुम्हें क्या लगता है? मैं भर सकता हूँ?' इरैमुडिमणि हँस पड़े।

'विश्वास का क्या है। फल आना तय कर लेंगे।' शर्मा जी चलने लगे तो उन्हें रोक कर इरैमुडिमणि बोले, 'कल आ जाऊँगा, वहीं तय कर लेंगे। एक मिनट ठहरो। एक जरूरी बात बतानी थी।'

'कहो।' शर्मा जी ने कहा। इरैमुडिमणि ने भीतर देखकर आवाज लगाई। मलरकोडि इधर आना, बिटिंया।'

काले रंग की सूती साड़ी पहने एक युवती बाहर निकल आयी। साँवला रंग था उसका, पर तीखे नाक नक्श थे।

'यह मलरकोडि है। यहीं के अंतोनी प्राथमिक पाठशाला में टीचर है। हमारे संगठन की सक्रिय कार्यकर्ता है अठारह साल पहले हमारे यहाँ जो सुधारवादी सम्मेलन हुआ था न, तब यह साल भर की रही होगी। इसका नाम नेता जी ने ही रखा था। खैर वह तो पुरानी बातें हैं। पर मैं जो कहना चाहता है, वह कोई दूसरी ही बात है। शाम को यह घर लौटती है तो सीमावय्यर की अमराई से होकर लौटना पड़ता है। एकाध दिन इससे छेड़छाड़ भी की थी। एक दिन तो इसका हाथ ही पकड़ लिया। तुम जरा उसे समझा देना। मैं सोचता हूँ, बात को बहुत आगे न बढ़ने दिया जाए। तुम समझा सको तो…।'

'देशिकामणि! वह तो गुंडा है। मेरे कहने पर वह सुधरने से रहा। गाँव का बड़ा आदमी है, पैसे वाला है। आज शाम को चार किसानों के साथ जरी का उत्तरीय पहले ऐसी शान से चला जा रहा था कि बस! पूछ रहा था, रवि के बारे में। मैंने भी बस दो बातें कर ली।'

'तो बेटा आ गया?'

'हाँ, आ गया। कल मिल लेना।'

'दो, कुछ प्रेम वेम का जो चक्कर था...वह क्या हुआ।'

'चक्कर भी साथ लाया है। देख लेना न आकर!'

'ऐसे क्यों कह रहे हो यार! उसकी जिंदगी में तुम काहे टाँग अड़ा रहे हो।'

'मेरी टाँग अड़ाने की आदत ही नहीं है?'

'अच्छा छोड़ो! मैं खुद उससे बात कर लूँगा।'

शर्मा जी विदा लेकर वहाँ चल पड़े। सीमावय्यर के संदर्भ में इस तरह की शिकायतें पहले भी वे सुन चुके हैं। गढ़ी हुई प्रतिमा की तरह सुन्दर मलरकोडि के साथ उन्होंने बदतमीजी की होगी, इसमें कोई संदेह की गुंजाइश नहीं हैं। सीमावय्यर तो छुट्टे साँड़ हैं। उनकी वजह से गाँव का नाम बदनाम हो रहा है। कई जगह मुँह की खा चुके हैं, पर अभी तक अक्ल नहीं आयी। इन्हीं कारणों से सीमावय्यर के हाथों से मठ के तमाम अधिकार छीन लिये गए थे। पर सीमा- वय्यर को अपनी गलतियों का एहहास तक नहीं होता। उन्हें तो हमेशा यही लगता रहा कि शर्मा जी ने उनके खिलाफ साजिश की है और अधिकार हथिया लिए हैं।

'इन्सान बाज वक्त कामुक भी हो सकता है। पर हमेशा कामुक की तरह फिरता पशु, इन्सान कैसे हो सकता है?' नीति श्लोक में कहा गया है। शर्मा जी को श्लोक याद आया। सीमावय्यर की तरह यदि उच्च वर्ग में कुछ गंदे लोग पैदा होते रहे तो इरैमुडिमणि जैसे लोगों को भी, उन्हें सुधारने के लिये निम्न वर्ग में जन्म लेना होगा।

शर्मा जी यूँ दीया बाती के बाद, पका हुआ भोजन नहीं करते। गाय का दूध और दो केले यही उनका रात्रि भोजन है। अपना भोजन समाप्त कर वे श्रीमठ के विवाह मंडल की ओर चल दिये। यह बैठक वहीं होनी थी। बटाई का बही खाता, मठ के काम आए पत्र दोनों को ही झोले में डाल लिया। रास्ते में देशुकाका का घर पड़ता था। वहाँ की जगमगाहट और सड़क पर लगी कारों को देखकर उन्हें लगा कि रवि और कमली को घर लौटने में ग्यारह बज जाएँगे।

श्रीमठ विवाह मंडप के पास गली में वह मुड़ने लगे, तो सामने से आता एक किसान रुक गया। सिर के अँगोछे को कमर में बाँध लिया और बोला, 'सरकार, आज बटाई की बैठक नाहीं है क्या? फिर कब आवै के परै?'

'किसने कहा कि आज बैठक नहीं है? बैठक आज ही है। चलो मेरे साथ।'

'पर सीमावय्यर कहत रहे कि आज नहीं है।'

'तू चल मेरे साथ।' शर्मा जी विवाहमंडप के अन्दर गए। वहाँ आमतौर पर लगते वाली भीड़ नहीं थी। केवल सीमावय्यर और उनके चार पाँच खास किसान बैठे हुए थे।

आस-पास के अठारह गाँवों से बटाई के लिये किसान आया करते थे। और आज एक भी नहीं आये, यह अविश्वसनीय बात लगी।

मरवन बांगला, नत्तमपाडी, आनंद कोकै, अलंकासमुद्रम––आस-पास के इन गाँवों से भी कोई नहीं आया।

'आइए पंडित जी। आज तो भीड़ ही नहीं है। काम जल्दी निपट जाएगा।' सीमावय्यर ने उत्साह के साथ आवाज लगाई। उन्हें लगा होगा कि इस बार सस्ते में वे पट्टीदारी ले लेंगे, शर्मा जी को उनकी चाल समझ में आ गयी।

'आप क्षमा करें, सीमावय्यर! श्रीमठ के आदेशानुसार आस-पास के अठारह गाँव के लोगों के सामने ही बैठक होनी है।'

'तो, इसका मतलब यह हुआ कि तीन चार गाँवों से जो लोग आए हैं, उन्हें अपमानित करके भिजवा दिया जाए, क्यों?'

'इनमें कैसा मान अपमान! श्रीमठ के आदेश की, अवहेलना मैं नहीं कर सकता।' 'मेरे जमाने में वो ऐसा नहीं होता था। काम जल्दी मिपटा लिया जाता था।'

शर्मा जी ने कोई उत्तर नहीं दिया। कारिदे को बुलवा कर अगले सप्ताह इसी दिन फिर बैठक के आदेश देकर आस-पास के अठारह गाँवों में मुनादी करवाने को कह दिया।

वे लौटे तो कामाक्षी ओसारे पर बैठी मीनाक्षी दादी से बतिया रही थी। दादी अमली के बारे में पूछताछ कर रही थी।

कामाक्षी जाने क्या कहती, पर शर्मा जी इसी बीच सीढ़ियाँ चढ़- कर भीतर आ गए।

'वे लोग नहीं आए'

'किन्हें पूछ रहे हैं?'

'वही जो पार्टी में गए हैं।'

'नहीं! अभी तो देर लगेगी। इतनी जल्दी कहाँ लौटेंगे।'

शर्मा जी के आते ही दादी उठकर चली गयी।

आधे घंटे में पार्वती और कुमार अकेले ही लौटे।

'क्यों? वे लोग कहाँ रह गए?'

'बाऊ जी, पार्टी में एस्टेट मालिक शारंगपाणि नायडू आये थे। पार्टी खत्म होने के बाद उन्होंने भैय्या और उनकी दोस्त को एस्टेट गेस्ट हाउस में रात ठहरने के लिए कहा। वे लोग वहीं चले गए।'

'कौन? नायडू!'

'हाँ, बाऊजी।'

कामाक्षी ने कुमार की बातें ठीक से नहीं सुनीं। शर्मा जी से फिर पूछा, वे 'लोग कहाँ हैं।' शर्मा जी ने वही बात फिर दोहराई।

XXX

वेणु काका के घर पार्टी खत्म होते-होते दस बज गए थे। वेणु- काका और बसँती ने ही नायडू को सुझाया था कि वे रवि और कमली को आमंत्रित करें। उस रात उस प्रेमी युगल को एकांत सुख देने के लिये यह योजना बनायी गयी थी। कामाक्षी क कट्टरपन और कठोर नियमों से एक दिन तो मुक्ति मिले।

वेणू काका का एस्टेट भी पहाड़ में ही था। पर वहाँ तक पहुँचने के लिए चार घंटे की यात्रा करनी पड़ती। पर नायडू का एस्टेट घंटे भर की दूरी पर ही था। वहाँ ठहरने की अच्छी व्यवस्था थी। नायडू एस्टेट में भी परिवार के साथ रहा करते थे। पर वेणु काका ने अपने एस्टेट में एक छोटा सा गेस्ट हाउस भर बनाया था। यही कारण था कि नायडू के एस्टेट बंगले में रवि और कमली के साथ वेणुकाका बसंती भी चले गये।

एक कार में नायडू, वेणुकाका, बसंती, दूसरी कार में रवि और कमली थे। ठंडी हवा के झोंके में कमली जल्दी ही सो गयी। रवि चूंकि दोपहर में खूब सो लिया था, इसलिए उसे नींद नहीं आयी। कंधे से लगी कमली के देह की गंध उसे उत्तेजित करने लगी। उसे लगा सुन्दर युवती के वालों की सुगंध और चमेली की सुगंध के बीच कोई रिश्ता भी हो सकता है। कुछ फूलों की सुगंध आलिखित कवि- ताओं की तरह होती है। शब्दों के माध्यम से व्यक्त कविताओं की अर्थ सीमा निर्धारित होती है अलिखित कविता असीमित होती है। श्रेष्ठ फूलों की सुगंध भी असीमित होती है। सुगंध और कवियों के बीच बहुत मधुर रिश्ता हो।

फूलों की यह सुगंध रवि को बहुत सालों पीछे ले गयी। शंकर- मंगलम में अलसुबह ये फूल खिलते, बाग में सुगंध फैलाते और वह ठंडे पानी में मुँह हाथ धोकर ओसारे पर आकर बैठता। अमर कोश और शब्द मँजरी बाऊ के सामने बैठकर याद करता। सुबह साढ़े तीन- बजे से साढ़े पांच बजे तक―बाऊ के साथ संस्कृत शिक्षा फिर सुबह बच्चों के साथ स्कूल में अंग्रेजी की विधिवत् शिक्षा। उन दिनों गाँव में बिजली कहाँ थी? बाऊ जी से दीया भी जलाने नहीं देते।' ओसारे पर बैठकर अपनी गुरु गंभीर आवाज में शुरू कर देते थे 'रामः रामौ रामा। रामम् रामी रामान...राम के रूप को दोहराते वक्त, वह सुबह, वह सुगंध याद आने लगती। एक बार भी भूल कर देता, तो बाऊ को लगता वह सो गया है, कान उमेठ देते। दोनों का सम्मिलित स्वर गूँजता और शकरमंगलम में सुबह होती। निघंटु, शब्द―आदि समाप्त करने के बाद रघुवंश का अध्ययन याद आया। शंकरमंगलम में बिताया वह अनुशासन युक्त बाल्य काल, कुछ-कुछ स्वतंत्रता लिये हुए कालेज के दिन, फिर पैरिस की स्वच्छंद जिंदगी-कमली से प्यार, सब कुछ जैसे कितनी जल्दी में घट गए और अब पहाड़ की ओर यह यात्रा। उसे लगता है, उम्र चाहे जितनी हो जाये, पहाड़ की ओर चढ़ते हुए, या तेजी से अपनी ओर आती समुद्र की लहरों को झेलते हुए आदमी बिल्कुल बच्चों की तरह हो जाता है। इन दोनों ही स्थानों पर आदमी की उम्र सहसा कम हो जाती है। बुढ़ापा जाने कहाँ गायब हो जाता है। थकान, हिचकिचाहट सब गुम होने लगते हैं। पहाड़ पर चढ़ते हुए ऊपर चढ़ते जाने का उत्साह हावी होने लगता है।

कार जैसे ऊपर चढ़ती चली गई, हवा कानों के पास सनसनाती हुई निकलती रही। ठंडक बढ़ने लगी तो रवि ने खिड़की के दरवाजे बन्द कर दिए। कमली फूलमाला की तरह उस पर टिककर सो रही थी।

बाऊ के अनुशासन में बंधी बधाई जिंदगी जीते हुए आधी नींद में ही उठकर श्लोक रटते हुए उसने तो कल्पना तक नहीं की थी, कि वह कभी विदेश जायेगा, या किसी विदेशी युवती से प्यार करेगा। कुछ भी घटा है, वह सच है। प्रमाण है यह कमली। निश्शब्द संगीत की तरह आश्वस्त करने वाला यह सौदर्य आप्लावित करने वाला यह यह मधुर स्वभाव......।

चूँकि रात का वक्त था, और रास्ते में कई हेयरपिन वाले मोड़ पड़ते रहे, वे साढ़े ग्यारह के लगभग ही एस्टेट वाले बंगले तक पहुँच जाए।'

एस्टेट में ठंड बढ़ गयी थी वेणु काका और बसंती नायडू के बंगले में ही ठहर गया। बंगले की कुछ ऊँचाई पर गेस्ट हाउस था। ऊपर जाने के लिए धुमावदार सड़क थी। नायडू ने उन्हें बंगले तक छोड़ दिया, जैसे वे दोनों हनीमून मनाने आए कोई नवविवाहिता जोड़े हों। बेडरूम में हीटर लगा था। नायडू सब दिखा बुझाकर चले गये। थोड़ी ही देर में नौकर थर्मस में गरम दूध और प्लेट में फल दे गया

कमली जग गयी थी। रवि उनके पास बैठ गया था। धीमे से पूछा, 'कमली, लगता है, दोपहर भर तुम सोई नहीं। क्या करती रही? तुम ऊपर तो थी नहीं। नीचे अम्मा से बातें करती रही थी क्या?'

कमली ने सारी बातें कह सुनाई।

'अम्मा का व्यवहार कैसा था? गुस्से में तो नहीं थी?'

'कह नहीं सकती। गुस्से में तो नहीं लग रही थीं। हाँ, सामान्य भी नहीं लग रही थीं।'

'तुम थोड़ा धैर्य रखो, और उसका मन जीत लो। अम्मा की पोढ़ी की जितनी भी हिन्दुस्तानी माँ हैं, उनका मन इतना ही जिद्दी होता है। वे इतनी जल्दी नहीं मानतीं।'

'मुझे लगता है, हमारे रिश्ते को लेकर माँ के मन में संदेह और भय भी। बसंती ने बताया था कि मेरा बिना बाहों वाला ब्लाउज पहनना अम्मा को अच्छा नहीं लगा। मैंने तुरन्त बदल डाला।'

'तुम्हारे कपड़े पहनने ओढ़ने को लेकर अगर माँ नाराज होने लगी हैं, तो मैं समझता हूँ, यह अच्छी शुरुआत है। यदि एक युवती के पहनने ओढ़ने, बैठने उठने को लेकर उसके प्रेमी की माँ यदि चितित होने लगे, तो समझ लो, वह अपने की भावी सास मानने लगी है।' कमली हँस पड़ी। रवि भी हँस दिया। कमली कामाक्षी के स्वर की मधुरता, लोक कलाओं में उसकी प्रवीणता की प्रशंसा करती रही।' आप के यहाँ की स्त्रियाँ ललित कलाओं में कितनी पारंगत होती हैं? मुझे तो ईर्ष्या होने लगी है।'

'यदि एक ही स्त्री अपने से उम्र में वरिष्ठ दूसरी स्त्री से ईर्ष्या करने लगे तो समझो बहू होने की सम्पूर्ण योग्यता उसमें है।'

रवि काफी उत्साहित लग रहा था। कमली ने वेणुकाका के घर भोज में मिले कुछ लोगों के बारे में, उनकी बातों की चर्चा करने लगी।

'एक बात कहूँ कमली जो पुरुष स्त्रियों के सामने संकोच होने का प्रदर्शन करते हैं, उनसे अकेले में सतर्क रहना चाहिए। बहुत अधिक संकोची पुरुष और आवश्यकता पर थोड़ा सा भी संकोच न करने शली स्त्री दोनों ही विश्वसनीय नहीं होते। भोज में जिनसे तुम मिली हो उनमें अधिकांश विघटित व्यक्तित्व वाले हैं। तुम्हारे जैसे यूरोपीय 'कृष्ण कान्शन्सेन्स' "योग" "सेक्रेन्ड बुक्स ऑफ ईस्ट" को देख कर पूर्व के प्रति आकर्षित होते हैं। यहाँ के कुछ कुंठा ग्रस्त लोग पश्चिम को देखकर आकर्षित होते हैं। इसलिए होता यह है, कि अब तुम दोनों मिलते हो, तो जिज्ञासायें विपरीत दिशा की ओर प्रवृत्त होती हैं।

तुम नायडू से विशिष्टाद्वैत के बारे में पूछती हो और नायडू तुमसे 'मौलिन रोज', 'पलोर शो' के विषय में जानना चाहते हैं।"

'आप ठीक कह रहे हैं। पर नायडू या उसके जैसे लोग ही तो भारतीयों के प्रतिनिधि नहीं हैं। इसी भारत में ही तो शास्त्रों, महाकाव्यों के अध्येता तुम्हारे पिता और ललित कलाओं की ज्ञाता तुम्हारी माँ भी है न!

'तुम मेरे माता पिता की जरूरत ने ज्यादा प्रशंसा करने लगी हों, कमली!'

‘वे लोग इस योग्य हैं ही! मैंने तो ऐसा कुछ भी नहीं कहा, जो उनमें नहीं है।’

रवि को यह जानकर अच्छा लगा कि कमली शंकरमंगलम से या उसके माता पिता से ऊबी नहीं। फ्रेंच युवतियों का स्वाभाविक आकर्षण, अनुशासन, तहजीव निश्छल स्वभाव और समझदारी और एक तरह की खास स्मार्टनेस सब कुछ है कमली में। इन्हीं बातों की वजह से तो वह कमली के प्रति आकर्षित हुआ था। अब उसकी बातों से उसका अंदाज सही साबित हो रहा था। देर तक ये बातें करते रहे फिर सो गये।

पहाड़ी क्षेत्र होने की वजह से सुबह नौ बजे के पहले कोई नहीं उठा। सुबह कोहरे में लिपटी थी और ठंडक भी बढ़ गयी थी। रवि और कमली दस बजे ही उठे। काँफी पीकर बे चलने लगे तो नायडू ने रोक लिया।

‘वाह! पहाड़ आए हैं तो क्या बगैर देखे लौट जायेंगे। पास ही मैं एक झरना है। आराम से नहाया जा सकता है। फिर दस मील दूर ‘एलीफेंट वैली, है, वहाँ हाथी झुन्ड के झुन्ड आते हैं। दुरबीन से देखा जा सकता है। सब देख दाख कर दोपहर तक लौट जाना, वेगुकाका और बसंती ने भी इनका समर्थन किया! कमली की इच्छा भी झरने में स्नान करने और हाथियों के झुंड देखने की थी।

दोपहर ग्यारह के आस-पास गुनगुनाती धूप फैली। धूप निकलने के बाद ही वे झरने तक गये। नायडू रास्ते में इलायची, चाय, काँफी के बागान दिखाते हुए ले गए।

झरने में दूधिया साफ पानी छल-छल कर रहा था। कमली ने बसँती से जानना चाहा कि क्या इतनी तेजी से गिरते पानी में सिर दर्द नहीं हो जायेगा?

बसँती ने उसे बताया कि नारियल का तेल लगाकर नहाना होगा।

पर तेल कैसे छूटेगा? चेहरे पर नहीं फैलेगा? कमली ने पूछा। ‘न! शैंपू से भी इतना साफ नहीं होगा, जितना इसमें होता है। तुम भी तेल लगा लो।’ कमली ने मना नहीं किया। ‘तेल लगाये बिना वहाँ चली गयी तो गले और कनपटी पर खून जम जाएगा।’ बसंती ने समझाया।

पहले वेणु काका, रवि और नायडू नहाकर निकले। कमली और बसंती का तो निकलने का मन ही नहीं हो रहा था।

देर हो गयी तो रवि और काका ने आवाज लगायी। बसंती ने ठीक कहा था, ‘बाल एकदम रेशम की तरह हो गए थे। कमली को आश्चर्य हुआ।

नायडू के सिर पर तेल का नाम निशान नहीं था। उनका गंजा सिर चमचमा रहा था काका ने छेड़ा, ‘क्यों नायडू, लगता है सिर कुछ नहीं रहा। एकदम खाली हो गया।’

'वाक्य ठीक नहीं बना, काकू। कुछ और मतलब निकलता है इसका।' रवि ने कहा।

'देखिये, मजाक छोड़िये। बाल झड़ना अनुभव के पकने का लक्षण है। गंजापन तो आपके भी बालों में है। आप भी जल्दी ही हमारी बिरादरी में शामिल हो जायेंगे हाँ......।'

'नायडू! अच्छा हुआ हमारे देश में बस एक यही दल तो नहीं बना है। पर लगता है, जल्दी ही एक दल ऐसा भी बन जायेगा।'

'तो इसमें गलत क्या है।'

'गलत तो कुछ भी नहीं है। जितनी जनसंख्या है अगर सभी एक एक दल बना डालें तो वोट डालने के लिये कौन बचेगा? एक-एक दल को एक-एक वोट मिलेगा। फिर हर व्यक्ति देश का नेता बन जाएगा। जनता तो रहेगी ही नहीं।'

वणु काका और नायडू जैसे युवा हो गए थे। युवतियों के कपड़े बदलने तक यह राजनीतिक चर्चा चलती रही। 'देखा जाए तो हमारे यहाँ की राजनीति और प्लांटेशन की स्थिति एक सी है। रोपाई, कटाई, निराई सबकी बातें दोनों मिलती जुलती हैं। राजनीति की बातें भी प्लांटेशन की ही भाषा में की जाती हैं। युवा आगे निकल आएँ तो कहते हैं, दो पसे भी नहीं फूटे, चला आया राजनीति में। चुनाव में जो जैसा खर्च करता है बाद में वैसी कंटाई भी करता है। असंतुष्ट और विरोधी कार्यकर्तानों की निराई की जाती है।

'अरे रे, आप तो इस पर पूरी थीसिस लिख डालेंगे, लगता है।' रवि हँस पड़ा।

'अरे यही नहीं। आगे भी सुन लीजिए! खेत में जैसे बीज पड़ जाता है और फसल उग भाती है, ठीक इसी तरह परिवार में एक राजनीतिज्ञ ऊँचे पद पर पहुँच जाए तो फिर उस परिवार में वह पद पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होने लगता है।

'एलीफंट वैली' चलें?

वेणु काका ने बातों की दिशा बदली। कमली और बसंती ने कपड़े, बदल लिये थे। जीप से फिर चल दिए वे लोग।

'आपके घर से कोई साथ नहीं आया, नायडू?'

'है कौन यहाँ साथ लाने के लिये! बच्चे नीचे मैदान में पढ़ रहे हैं। पत्नी बीमार रहती है। गरम पानी में ही नहायेगी। ठंडा पानी उसे रास नहीं आता।' कोई बारह मील चलने के बाद एक मोड़ पर जीए रुक गयी। सौ डेढ़ सौ फीट नीचे हरी घाटी फैली थी। एक झील भी नजर आया। झील के किनारे काले-काले धब्बों की तरह कुछ हिल डुल रहे थे।

'वह देखिए,―हाथियों के झुंड…।'

दूरबीन कमली की ओर नायडू बढ़ाया।

कमली ने दूरबीन से देखा। दस बीस बड़े हाथी एकाध छोटें हाथी―झूमते खेलते साफ उसे नजर आए उसे छोड़ कर बाकी लोग वहाँ कई बार आ चुके थे इसलिए उन्हें अधिक आश्चर्य नहीं हुआ। कमली ने हाथियों के बारे में कई सवाल किए। सभी प्रश्नों का उत्तर वेणुकाका और नायडू बारी-बारी से दिए जा रहे थे।

'एलीफेंट बैली' से लौटते कमली ने नायडू से वंदन का पेड़ देखने की इच्छा प्रकट की। कुछ दूर बाद जीप रुकवा कर नायडू ने कमली को चंदन का एक पुराना पेड़ दिखाया। वन विभाग के लोगों ने पेड़ की एक शाखा पर कुल्हाड़ी चलाई होगी, वहीं से भंध फूट रही थी। कमली ने सूंघ कर देखा। नायडू ने आश्वासन दिया कि दो तीन दिन में वे चंदन का एक टुकड़ा भिजवा देंगे।

लौटते में रवि और कमली पिछली सीट पर पास बैठे थे। पहाड़ी हवा की ठंडक और झरने के पानी के सुख ने उसके उत्साह को दूना कर दिया था। कमली के कानों के पास झुक कर बोला 'कमली मेरे लिये तो तुम ही चंदन का पेड़ हो। तुम्हारे शरीर में लो इतनी सुगंध है, वह चंदन के पेड़ में क्या होगी। मैं इसीलिये तो जीप से उतरा ही नहीं। चंदन का वृक्ष तो मेरे पास है ही……।'

कमली उसे देख कर मुस्कुरा दी। बंगले की ओर लौटते दूर क्षितिज में इन्द्र धनुष निकल आया था। पहाड़ की हरियाली हल्की बूँदा-बाँदी, जंगल की महक, इन्द्रधनुष, पूरे माहौल में बिल्कुल बच्चे हो गए थे वे। दोपहर में नायडू ने भोज का आयोजन किया था। भोजन समाप्त करके, कुछ देर आराम करने के बाद ही वे निकल सके।

'आप जब तक भारत में हैं, कभी भी यहाँ आकर ठहर सकते हैं। आपका अपना ही घर समझें।' रवि और कमली से नायडू बोले। हरी इलायची की एक माला, कमली को भेंट में दी। कमली उसकी बुना- बट को देख आश्चर्य में पड़ गयी।

'बीक एंड में कहीं निकलना हो, तो इससे बढ़िया जगह कोई नहीं हो सकती।' वेणु काका ने कहा।

'वे लोग यहाँ आयेंगे, तो अबकी बार अपने गेस्ट हाउस की चावी भी दे देंगे।' बसंती ने कहा।

नीचे आते-आते तीन बज गये थे। रवि और कमली जब घर पर कार से उतरे साड़े चार बज गए थे।

ओसारे पर शर्मा जी इरैमुडिमणि से बातें कर रहे थे। इरैमुडिमणि ने रवि का उत्साह के साथ स्वागत किया। कमली का परिचय करवाया गया। इरैमुडिमणि–नाम का उच्चारण करती हुई कमली ने नाम का अर्थ पूछ लिया। रवि ने बताया कि यह देव शिखामणि का रूपांतरण है।

मरै-भलै अडिगल, परिदिगात्र कलेंडर जैसे ही यह भी नाम है न।' कमली ने रवि से पूछ लिया।

'अरे, तमिल भी जानती है यह तो। बैंठो बेटा। उनसे भी कहो, बैठ जाएँ।' इरैमुडिमणि ने कहा। रवि सामने वाले ओसारे पर बैठ गया। कमली नहीं बैठी। शर्मा जी के सामने बैठते सकुचा रही थी। शर्मा जी ने भांप लिया।

'आप लोग बातें करें, मैं अभी मठ के कारिदे को बुला लाता हूँ।' कहते हुए वे निकल गये। उनके जाने के बाद तीनों को बातें शुरू करने की स्वतन्त्रता मिल गयी। कमली रवि से थोड़ा हटकर बैठ गयी।

'तमिल ही नहीं, हमारे रीति रिवाज भी आपने इन्हें सिखाया है। इस बात की बहुत खुशी हैं, मुझे।' इरैमुडिमणि ने कहा।

उनकी गुरु गंभीर आवाजा, मंचीय भाषण का सा सधा हुआ बात- चीत का लहजा…कमली उनके विषय में जानने को उत्सुक हो गयी। रवि ने उसे सविस्तार समझाया। उसकी बातों को इरैमुडिमणि ने विभन्नता से नकारा।

'बेटे का मेरे प्रति प्यार ही है कि मेरी बहुत तारीफ करने लगा।' हैं। मैं तो एक साधारण सा व्यापारी हूँ। बस रेशनल मूवमेंट से जुड़ा हूँ। आप अपने मूवमेंट के बारे में कुछ बताएँगे?'

'बहुत दिनों से ताँबे का कोई बर्तन कोने में पड़ा रहे, तो उसकी चमक बिल्कुल गायब हो जाती है। इसी तरह…इस देश के ज्ञान और विवेक पर जाति और धर्म प्रथाओं, रीति रिवाजों का और अंधविश्वास की परत चढ़ गयी है, उन अंधविश्वासों को दूर करना हमारा आधार भूत सिद्धांत है। ताकि उसका असली रूप निखर कर सामने आए। ठीक उसी तरह से ताँबे के बर्तन को इमली से माजकर चमकाते हैं। यह आत्म-मर्यादा का आंदोलन इसी कारण शुरू किया गया था। इन बाह्य आडम्बरों और कर्मकांडों से असली ज्ञान और विवेक ही महत्वपूर्ण है।

'यह आत्म मर्यादा क्या है…।'

'किसी भी स्थिति में दूसरों से अपने को अपमानित न होने देना और दूसरों का अपमान न करना यही आरम-मर्यादा का आन्दोलन का मूलभूत सिद्धांत है।'

'आपका स्पष्टीकरण बहुत सुन्दर है।' कमली ने जी खोलकर प्रशंसा की।

'अरे, हाँ, बाऊ जी किसलिये कारिदे को बुलवाने गए हैं। रवि ने पूछा।

इरैमुडिमणि ने रवि को बताया कि मठ की जमीन को किराये पर ले रहे हैं।

कमली को ओसारे पर बैठे देखकर आस-पास के मकानों से कुछ चेहरे झाँकने लगे। रवि और इरैमुडिमणि ने इसे ध्यान से देखा?

'गाँव के लोग, अपने घर से ज्यादा दूसरों के घरों के मामलों में रुचि लेते हैं।'

'यही नहीं, चाचा। इस वक्त गाँव का सारा ध्यान मुझ पर और कमली पर है। हमारी ही वातें घर-घर होने लगी होंगी।'

'हाँ, हाँ, होंगी। तो इससे क्या? तुम घबरा मत जाना बेटे। शर्मा जी कारिदे के साथ लौट आए। रवि और कमली ऊपर चले गए।

'स्टाम्प पेपर ले आया हूँ। जो लिखवाना है, लिख ले। दुकान मेरा दामाद चलाएगा, पर करारनाम मेरे नाम पर हो जाए तो ठीक है।'

'दो महीने का किराया पेशगी देना होगा। जमीन पर कुछ भी बनवाना हो, तो वह भी आपके ही जिम्मे होगा।'

'ठीक है, मँजूर है। पेशगी लाया हूँ।'

शर्मा जी को उत्तर देकर इरैमुडिमणि रूपये गिनने लगें। सीढ़ियों पर किसी के चड़ने की आवाज बायी। दोनों ने सिर उठाकर देखा। कपड़ों के व्यापारी बहमद अनी सीढ़ियाँ चढ़कर भीतर आ गए थे, और हाथ जोड़कर खड़े हो गये।

'क्या बात है?' अहमद अली में शर्मा जी ने पूछा।

अहमद अली हँसते हुए बोले, 'आपकी कृपा चाहिए। लीजिए,' एक पत्र शर्मा की ओर बढ़ाते हुए बोले 'सीमावय्यर ने आपके लिए भिजवाया है।'

शर्मा जी ने पत्र खोलकर पढ़ा। उनके चेहरे पर किसी तरह के भाव नहीं उभरे।

'सीमावय्यर से कहिए पत्र मैंने पड़ लिया है। मैं आपको बाद में कहूला भेजूँगा 'पैसों की कोई चिंता मत करें। आप जो भी निर्णय लें, मैं स्वीकार कर लूँगा।'

'कहा न, मैं कहला भेजूँगा।'

'तो चलूँ। आर जरूर कहना भेजियेगा। आज ही कुछ तय कर लें……।'

'हाँ कहला दूँगा।'

अहमद अली ने शर्मा जी से विदा ली। कारिंदे से और वहाँ बैठे इरैमुडिमणि से भी विदा लेकर उतर गए। शर्मा जी को लगा, इरैमुडिमणि तुरन्त पूछेंगे, मियां किसलिए आये थे, पर उन्होंने नहीं पूछा। बर्मा जी को आश्चर्य सा हुआ।

करारनामा तैयार करवा कर इरैमुडिणि से पेशगी ले ली। फिर कारिंदे को देकर बोले, 'लो इसे मठ के खाते में जमा कर देना।'

उसे भिजवा कर फिर बोले, 'देशिकामणि, इसे पढ़ लेना।' पत्र उनकी ओर बढ़ा दिया।

इरैमुडिमाणि उनसे पत्र ले कर पढ़ने लगे। पन सीमावय्यर का था। मठ की जमीन अहमद अली मियां की नई दुकान को बीस साल की पट्टेदारी पर देने की सिफारिश की गयी थी। यह भी लिखा था कि मियां अच्छी खासी रकम देने को तैयार हैं और मठ को अच्छी पेशगी भी दे सकते हैं। मठ को इससे कितना लाभ होगा। इसका व्यौरेवार विवरण था।

'तो तुम क्यों चुप रह गए?'

'तो फिर क्या, आदमी बेईमानी करे! बचन मैंने तुम्हें दिया था। अगर कोई लालच दे, तो क्या मैं बचन से मुकर जाऊँ? मैंने तो मठ से सलाह भी ले ली थी। अब किसी का डर नहीं पड़ा है।'

'देखा, कैसे वक्त पर पहुँच गए। सीमावय्यर और अहमद अली मियां के बीच 'धड़ल्ले से लेन-देन चलता है।'

'कुछ भी चलता हो। इस जमीन पर परचून की दुकान खुलेगी तो लोगों का फायदा होगा। कपड़ों की दुकान को खास फायदा नहीं होगा। यूँ भी बाजार में दस बीस दुकानें हैं कपड़ों की। इन सब में कई दुकानें इन्हीं मियाँ की हैं। फिर यह जमीन क्यों किराये पर लेना चाहते हैं? सिंगापुर से पैसा अनाप शनाप आ रहा है। गाँव के आधे से ज्यादा मकान, खेत खलिहान खरीद डाले। अभी तक लालच नहीं गया।'

'ऐसा नहीं लगता कि यह जान बूझकर मेरी प्रतिद्धिंता के लिए किया गया है। पता नहीं इन्हें सब कुछ पहले कैसे मालूम हो जाता है?'

'मुझे तो अपने इस कारिदे पर ही शक है। सीमावय्यर का खास आदमी है यह!'

'हो सकता है। किसी से पता लगा होगा। तभी तो, सीमावय्यर ने मियां को सीधे यहाँ भिववा दिया। यहाँ तो हम लोगों को एक एक पाई जोड़नी पड़ती है और एक यह अहमद अली है, चारों ओर से पँसा ही पैसा। समझ में नहीं आता होगा इन्हें कि कैसे खर्च किया जाए। शान में किराया पर खर्च किए चले जा रहे हैं।'

'पैसा केवल सुन या सुविधाएँ दे सकता है पर अनुशासन और ईमानदारी नहीं दे सकता। कितने लोग हैं, जिनके पास अथाह पैसा है, पर अनुशासनहीनता और बेईमानी की वजह से चैन से सो भी नहीं पाते हैं।'

'अच्छा है। हम इससे दूर ही रहें। ईमानदार होते हुए गरीब बने रहना ज्यादा अच्छा है। हमारे लिये तो यही काफी है।'

इरैमुडिमणि और शर्मा दोनों अच्छी तरह जानते थे कि सीमा- वय्यर और अहमद अली इस बात को यूं ही नहीं छोड़ेंगे।

शर्मा इरैमुडिमणि से बोले, 'लालच, राजनीतिक दाँँव पेंच, उठापटक, दूसरों को धोखा देकर पैसा कमाने की ये तमाम बुराइयाँ पहले शहरों तक ही सीमित थीं। अब हमारे गाँवों में भी आ गयी हैं। और तो और अब तो ये लोग दलीलें देने लगे हैं कि इस तरह कमाना कहीं से गलत नहीं हैं। आज का नया दर्शन ही यह है कि अपनी गलतियों को प्रमाणित करते चले जाओ।'

'विश्वेश्वर, तुम्हारे इस उपकार का आभार किस तरह प्रकट करुँ, मैं समझ नहीं पा रहा। मुझसे भी अधिक किराया देने वाले तुमें मिले, पर तुमने मुझे ही यह जगह दिलवाई। है यह आस्तिकों का मठ है। उनकी जमीन है। मैं नास्तिक हूँ यह जानने के बाद भी तुमने बचन को निभाया है।'

'ऐसा क्या कर दिया है, मैंने! जो सही था वही किया।'

'नहीं यार! यह सचमुच बहुत महत्वपूर्ण कार्य था। इस अग्र- हारम के तीनों मोहल्लों में मैं किसी का भी इज्जत नहीं करता। पर तुम्हें! तुम्हें इज्जत दिए बिना भी नहीं रह पाता।'

अपने अजीज, मित्र के मुँह से अपनी प्रशंसा सुनकर शर्मा भी सकुचा गए। बोले, 'हम लोग परस्पर एक दूसरे की प्रशंसा करें, कुछ अच्छा नहीं लगता।'

'झूठ कह रहा हूँ, क्या?'

'यदि एक ऐसा सच, जिसके कहने से सामने वाले का सिर चढ़ जाए, उसे भीतर ही रखना बेहतर और श्रेयस्कर है।'

'देखो यार, जो सही और ईमानदार व्यक्ति होता है, उसकी तारीफ तुरन्त कर देनी चाहिए। ऐसे लोगों की तारीफ में कुछ कड़े शब्द भी प्रयोग किए जा सकते हैं न।'

'तभी न, ऐसे लोग पैदा होते जा रहे हैं, जो प्रशंसा की अपेक्षा में अच्छे कार्य करते हैं, या प्रशंसा का तामझाम जुटाते हैं। फूल में महक हो सकती है पर उसे सूँघने वाले उस महक को समझ सकें, जरूरी है। जरूरी नहीं कि वह फूल अपनी महक को जान सके। शास्त्रों में यश की खोज में भागने वाले व्यक्ति को, शराब की खोज में भटकने वाले शराब के समान बताया गया है। यशेच्छा भी एक तरह का व्यसन ही है।'

इरैमुडिमणि ने बात की दिशा बदल दी।

'बेटे के साथ जो फेंच युवती आयी है, वह बहुत अच्छी लड़की लगती है। तमिल बढ़िया बोलती है। तुम यहाँ जब तक बैठे रहे, तुम्हारे सामने बैठी ही नहीं। बहुत इज्जत देती है यार तुम्हें।'

'यही नहीं, बहुत बुद्धिमान भी है। काफी कुछ पड़ रखा है।'

'एक फ्रेंच लड़की इतनी अच्छी तमिल बोले, यह सचमुच आश्चर्य की बात है। तुम्हें आपत्ति न हो, तो हमारे वाचनालय में एक दिन एक गोष्ठी कर दें। बेटा बहुत भाग्यशाली है। सुन्दर, बुद्धिमान और व्यवहार कुशल जीवन साथी मिलना बहुत भाग्य की बात है।'

'यह तो अब तय करना है कि जीवन साथी बनेगी भी या नहीं' शर्मा जी हँसते हुए बोले। पर इरैमुडिमणि ने नहीं छोड़ा। उसी समय उन्हें झिड़क दिया।

'किसी के जीवन साथी के बारे में तो उसे तय करना है कि दूसरे ही तय करेंगे?'

'पर व्यावहारिक जीवन में दूसरों के विचार भी तो महत्व रखते हैं। माँ बाप, घर समाज यह भी तो देखना पड़ता है?'

'बच्चे खुश रहें, बस काफी है! जाति, धर्म, कुल, गोत्र आदि भी बातें कहीं उनकी खुशियों को कहीं मार न दें।'

'देखते हैं।……और कुछ?'

'मैं चलता हूँ। उन लोगों से कह देना। फिर आऊँगा, फुर्सत में। मलरकोडि वाले मामले में सीमावय्यर को जरा चेता देना। भूलना मत।' इरैमुडिमणि ने कहा।

इरैमुडिमणि अभी गली के मोड़ तक ही गए होंगे कि शर्मा जी में अहमद अली भाई और सीमावय्यर को पश्चिमी दिशा से आते देखा।

भीतर जाते-जाते ओसारे पर ही रुक गए। इससे पहले कि वे लोग बातें शुरू करते शर्मा जी बोल पड़े, 'क्यों मियाँ, मैंने तो कहा था कि मैं कहला दूँगा। इन्हें क्यों तकलीफ दी।'

'नहीं! सरकार खुद ही बोले कि हम भी चलेंगे।'

'बैठिए सीमावय्यर जी। आपने इतनी तकलीफ क्यों ली?'

सीमावय्यर ने पानदान और छड़ी दोनों को ओसारे पर रखा और बैठ गए

'आना तो नहीं चाहता था। मन नहीं माना। मठ की सम्पत्ति अच्छे लोगों के काम आए और मठ का भी फायदा उसमें हो……।'

'ठीक कहा आपने, इसमें कोई संदेह है? इस बात पर तो दो राय हो ही नहीं सकती।'

'बात तो आप बिल्कुल मीठी करते हैं। पर काम तो विपरीत करते हैं।'

पिछले दिन वाली बटाई की घटना और उस बैठक को स्थगित करने से उत्पन्न सीमावय्यर गुस्सा साफ झलक रहा था।'

ओसारे पर वह भी एक तीसरे आदमी के सामने सीमावण्यर से किसी बहस में, शर्मा जी उलझना नहीं चाहते थे। उनका ज्ञान, उनका विवेक इन्हें तमाम बहमों, लड़ाई झगड़ों की अनुमति नहीं देता। ऊँचे स्वर में बोलना तक वे नहीं जानते। कामाक्षी से बाज वक्त ऊँचे स्वर में बोलना पड़ता, तो वे सकुचा जाते। पर वहाँ मजबूरी थी। सीमावय्यर की तरह वे बातें नहीं कर सकते। वे सीमावय्यर को समझा बुझाकर भेजना चाहते थे।

शाम का वक्त था और ओसारे पर किसी तरह का विवाद संझ- वाती के वक्त नहीं उठाना चाहते थे।

बोले, 'इस वक्त आप क्या चाहते हैं? मुझे देर हो रही है। संध्या वंदन का समय हो रहा है। नदी तक जाना है। आपके पास भी काम होंगे। बड़े आदमियों को मैं देर तक नहीं रोकता। आप बताइए……।' शर्मा जी ने पूछा।

'तो क्या, फिर से बताना होगा? मैंने तो लिखा था न। मियाँ को बह खाली प्लाट दिलवाना है।'

'तो ठीक है। आप यह मियाँ एक पत्र लिखकर दें। उसे मठ भिजवा देता हूँ। जवाब मिलेगा तो बता दूँगा।'

'मेरा पहले वाला पत्र भिजवा दो, काफी है।'

शर्मा जी ने वह पत्र दुबारा पढ़ा और बोले, 'इसमें तारीख तो पड़ी ही नहीं। डाल दीजिये।' उनकी ओर बढ़ाते हुए बोले।

घर के भीतर से कोई संझवाती लिए आले पर रख गया। कमली थी यह! लगा एक स्वर्ण दीपक दूसरे दीपक को लिये चला आ रहा : हो। सीमावय्यर और अहमद अली ने भी उसे देखा।

'यह कौन है?'

'यहाँ आयी है।'

'यूरोपियन लगती है।'

'हाँ! संध्या वंदन में देर हो रही है। आम तारीख डाल दीजिये।'

सीमावय्यर ने तारीख डालकर पन शर्मा जी को दे दिया।

'ठीक है, उत्तर आने पर मैं कहला दूँगा।' वे हाथ जोड़कर उठ गए।

सीमावय्यर और अहमद अली चले गए।

शर्मा जी का ध्यान संझवाती लाती कमली पर ही केन्द्रित था। संस्कृत काव्यों में कितनी बार पढ़ा है, 'स्वर्ण दीपक लिए दूसरा स्वर्ण दीपक चलता रहा……।' पर यह तो आज ही प्रत्यक्ष देखा। पर यह हुआ कैसे? क्या दीया वह खुद लायी थी। या किसी ने उसे बताया था। अब तो सीमावय्यर को एक मुद्दा भी मिल गया है।

वे यह अच्छी तरह जानते थे कि इस छोटे से गाँव रवि और कमली ने आने की बात छिपा नहीं पायेंगे। बात तो यूँ भी फैल ही गयी है पर इस गुन्डे के सामने कमली ने यह क्या स्थिति पैदा कर दी। ये चिंतित हो उठे।

सीमावय्यर को यह बात तो मालुम ही हो गई होगी, कि उनके बेटा के साथ एक फ्रेंच युवती ठहरी है। पर कैसा नाटक किया यहाँ पर? जैसे पहली बार देख रहे हों। सीसावय्यर की इसी चालाकी पर तो उन्हें क्रोध आता है।

'मठ से सम्बन्धित कागजात को बक्से में रखकर चौके में झांका तो गुत्थी अपने आप पहले सुलझ गयी। डोसे के लिए आटा पीसती कामाक्षी ने पूछा, 'सुनिए, बाहर शायद कुछ लोग बैठे थे, मैंने पाक को आवाज लगाकर संझनाती रखामे को कहा था। रख आयी कि नहीं। ढीठ हो गयी है लौंडिया। दस बार बावाज लगा चुकी हूँ। जवाब देते नहीं बनता। बस दो अक्षर क्या पड़ जाती है, सिर चढ़ जाता है इनका।'

'पारू कहाँ है? वह तो अभी लौटी नहीं।' शर्मा बी यह वाक्य बोलते-बोलते रुक गये।

'संशवाती रखी है आले में। तुम अपना काम करो,' शर्मा जी ने कहा। कमली का नाम लेकर उसे… किसी वाद विवाद में उलझाना नहीं चाहते थे।'

अच्छा हुआ, कमली भी इस वक्त यहाँ नहीं थी। ऊपर थी शायद। रवि को अपने साथ ले जाना चाहते थे, चार सीढ़ियाँ चढ़ कर आवाज लगायी।

'वह तो अपने किसी दोस्त से मिलने गये हैं।' कमली ने कहा 'कोई काम है? बताइए मैं किये देती हूँ।'

'कुछ नहीं बिटिया! तुम कुछ पढ़ रही थी ना, पढ़ो' शर्मा जी सीढ़ियाँ उतर आए। कमली को आप कहते-कहते रुक गये। गाँव की लड़कियों, बहुओं को, वे तुम कहकर ही सम्बोधित करते हैं उसी उन्न की हो तो हैं! 'आप' कहना अच्छा नहीं लगता। और फिर उनका मन कमली को गैर नहीं समझ पाया था। उसका सुन्दर गम्भीर व्यक्तित्व, भारतीय परम्परा के प्रति रुचि उसकी जिज्ञासा और अपने विपुल ज्ञान से उसने शर्मा जी का मन जीत लिया था।

कामाक्षी को आवाज पर खुद ही संझवाती चुपचाप जलाकर रख गयी। उसका यह व्यवहार उन्हें बहुत सन्तोष ले गया। बस सीमावय्यर की उपस्थिति ही कुछ खटकने वाली बात रही और फिर ऊपर से सीमावय्यर की कमली के प्रति जिज्ञासा। इरैमुढिमणि के जाते ही सीमावय्यर अहमद अली के साथ मठ के कारिंदे के उकसाने पर ही आए होंगे, यह शर्मा जी अच्छी तरह समझ गए। वह सीधा सीमावय्यर के पास गया होगा और पूरी बात कह सुनाई होगी। शर्मा जी को लगा कि सीमावय्यर सब कुछ जान कर भी अनजान बनने की कोशिश कर रहे थे। उस बात को उसी ढंग से इन्होंने संभाल लिया। सीमावय्यर के पत्र के साथ वे अपनी टिप्पणी भेज देंगे। किसी विरोध की गुंजाइश नहीं रह जायेगी। उनके पांडित्य और विवेक ने उन्हें इतना आत्म संतोषी बना दिया था कि ईर्ष्या, द्वेष, झगड़ों से वे दूर ही रहना चाहते थे। वे ऐसी कोई हरकत या ऐसी कोई भी बात नहीं कहना चाहते थे जिनसे दूसरों को चोट पहुँचे। यही वजह थी कि वे सीमा- वय्यर के साथ किसी विवाद में उलझना नहीं चाहते थे।

संध्या वंदन के लिए वे घाट की सीढ़ियाँ उतरने लगे तो तीन चार वैदिक पंडित जाप कर रहे थे। जाप समाप्त कर उनके पास आए। सुना, बेटा आया है?

पहले प्रश्न का उत्तर मिलने के बाद अगला सवाल कुछ सकुचा कर पूछा―

'साथ में, कोई और भी है।'

'हो' शर्मा जी ने एक शब्द में उत्तर दिया।

'उनका लहजा ही कुछ ऐसा था कि वे आगे कुछ पूछने का साहस नहीं कर पाए। शर्मा जी नदी तट से लौटे तो अँधेरा घिर चुका था। शिवालय के घंटे शाम के सन्नाटे को तोड़ रहे थे। शिवालय में माथा टेककर ही दे घर लौटे। बीच में कई लोग मिले। औपचारिक प्रश्न, कई जिज्ञासाएँ। वही उत्तर…वही समाधान।

घर की सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे, ओसारे पर कामाक्षी की तेज आव़ाज सुनाई दी। पारु और कमली बैठक में कामाक्षी के सामने खड़ी थी।

रवि शायद अब तक घर नहीं लौटा था। शर्मा जी के भीतर आते ही, एक सन्नाटा खिंच गया। पर एक अशांत कसमसार हवा में तैर गयी थी। शर्मा जी को देखकर ही कामाक्षी ने शुरू किया, 'अब आप ही बताइए, यह भी कोई बात हुई?'

शर्मा जी की समझ में आया कि जिस बात को वे सफाई से छिपा गए थे, उसका पता कामाक्षी को चला गया था।

कामाक्षी ने प्रत्यक्ष रूप से कमली को कुछ नहीं कहा, पर पारू पर जिस-जिस तरह उनका गुस्सा बरस रहा था प्रकारान्तर से कमली को प्रभावित कर रहा था। पारू को देखते ही कामाक्षी ने झिड़का था 'कहाँ मर गयी थी? संशवाती जलाने को कहा, तो क्या जवाब देते नहीं बनता। दीयाबाती के बाद घर से बाहर कहाँ निकल गयी थी?'

'मुझे क्या पता, तुमने कब कहा था! मैं तो बाहर से अब आ रही हूँ। मैंने न तुम्हारी बात सुनी न संझवाती की? पारु ने तेज आवाज में उत्तर दिया था। उसकी आवाज सुनकर कमली नीचे उतर आयी थी।

'आपने जब कहा था, तो पारू घर पर नहीं था, मैंने ही संझवाती की थी आज।' कमली की बात को पारु ने ऊँची आवाज में कामाक्षी तक पहुँचायी। कामाक्षी इस पर पार्वती पर बरसने लगी। पर बातें कमली को तकलीफ देने वाली ही कही गयी थीं।

'जहाँ घर की औरतें संज्ञवाती करती हैं, वहीं लक्ष्मी का बास होता है। आने जाने वालों दीयाबाती करते रहें और तू आवारागर्दी करती फिरे, क्यों?'

अम्मा की यह दो टूक बातें पार्वती को अच्छी नहीं लगीं। कमली के संवेदनशील मन को बात चुभ गयी। तभी शर्मा जी लौट आए। भाते ही वे बात समझ गए। जिस विवाद के समय से वे बात को छिपा गए थे, वहीं विवाद उठ खड़ा हुआ।

बेटे पर पूर्ण विश्वास के साथ समर्पित एक युवती हजारों मील दूर-एक पराये देश में आयी है। कामाक्षी ने उसे आहत कर दिया। शर्मा जी को बेहद दुख हुआ। ऐसी क्या अनहोनी हो गयी है, कि तुम चीखे जा रही हो। चुपचाप भीतर जाओ और अपना काम करो―। कामाक्षी को डपट दिया और पास को देखकर बोले, 'पारू, उसे लेकर ऊपर जाओ।' दोनों ऊपर चले गए। उनके जाने के बाद कामाक्षी को डाँटने, लगे 'तुम्हें अपनी बेटी पर नाराज होने का हक है, पर दूसरों का मन दुखाना क्या अच्छा लगता है? कैसी बातें बोल गयी हो तुम?'

'मैं क्या, पुरा गाँव बोल रहा है। आप शायद नहीं जानते।'

शर्मा जी ताड़ गए कामाक्षी युद्ध की तैयारी कर रही है। फिर कोई झगड़ा बड़े और कमली तक बात पहुँचे यह वह नहीं चाहते थे।

'जाओ, अपना काम करो।' उनके स्वर की तेजी में कामाक्षी सक- पका कर भीतर चली गयी।

देर सबेर जिस समस्या के उठने की प्रतीक्षा कर रहे थे, 'वह अब सिर पर आ पहुँची।

कामाक्षी तो अधूरी जानकारी पर ही भड़क उठी है। शर्मा को एक बात साफ समझ में आ गयी कि अब डांट उपटकर इस समस्या को दबाया नहीं जा सकता।

XXX

अभी तो कामाक्षी और कमली के बीच सास बहू का औपचारिक रिश्ता भी नहीं बना था, पर लगता है झगड़ा पहले उठ जायेगा। यही कारण था कि वे रवि से साफ-साफ बातें कर लेना चाहते थे। रवि की योजना क्या है, वह क्या करना चाहता है, यह सब बातें वे साफ-साफ कर लेना चाहते थे। अब बात और नहीं दवायी जा सकती। यह सच है कि बाहर दबाव अभी पड़ना शुरू नहीं हुआ, पर घर के भीतर की स्थितियाँ लगातार खिलाफ होने लगी थीं सीमावय्यर का प्रश्न, घाट पर दूसरे पंडितों की जिज्ञासा, इनके सबके बारे में सोचने लगे। कुल मिलाकर यह बात जल्दी ही गाँव में अफवाह बनकर फैलने वाली हैं। कामाक्षी की बातों के लिए कमली से क्षमा याचना कर लेना जरूरी लगा। ऊपर सीढ़ियाँ चढ़ने लगे थे कि कानों में 'दुर्गा स्तुति' अमृत की तरह उतरने लगी।

'सर्व मंगल मांगल्ये, शिवे सर्वाथ साधके,
शरण्ये बयम्बके देवी नारायणी नमोस्तुते।'

पार्वती बोल रही थी, कमली उसे दोहरा रही थी। कमली के उच्चारण में कहीं भी अटपदापन नहीं था। शर्मा जी के रोयें खड़े हो गए। इतना साफ उच्चारण है इस लड़की का और मूर्ख कामाक्षी इसी के लिये कह रही थी कि इसके दीयाबाती करने से लक्ष्मी नहीं टिकेगी। कामाक्षी पर उन्हें क्रोध आया। शर्मा जी सीढ़ियों पर ही खड़े रहे। देश काल, आचार संस्कृति जाति, रंग―इन सबके आधार पर पूरी मानवजाति के बीच दरार पैदा करने वालों पर उन्हें क्रोध आया। ऊपर जाकर उनके एकांत को भंग करना क्या जरूरी हैं? उन्होंने सोचा। पर कमाक्षी की हरकत के लिये क्षमा याचना किये बगैर, उन्हें चैन नहीं मिलेगा।

उन्होंने कमरे में प्रवेश किया कमली और पार्वती ने श्लोक पाठ रोक दिया और उठकर खड़ी हो गयी।

'कामाक्षी की उम्र हो गयी पर वह नहीं जानती है कि किससे क्या कह रही है।―'मन में मैल मत रखना बेटी, भूल जाना इसे...।'

कमली समझ गयी कि बात उसको लक्ष्य कर कही जा रही है। उसके उत्तर की प्रतीक्षा किये बगैर ही वे तेजी से सीढ़ियाँ उतर गए। मन बहुत परेशान था। इससे तो अच्छा यही होता कि वेणुकाका की सलाह पर कमली और रवि को उनके ही घर ठहराते। इससे क्या हुआ, यह शुभ कार्य अब कर डालेंगे। हालांकि इससे घर और बाहर समस्यायें पैदा होंगी। रवि के लौटने पर इस बारे में विस्तार से बातें करेंगे, और एक निर्णय लेंगे। उन्हें एक ही बात का भय था, ऐसा न हो कि एक के बाद एक ऐसी घटनाएँ घटती चली जाएँ कि कमली का फूल सा मन दुख जाए।

कामाक्षी की बातों पर, उसके व्यवहार पर लगातार नजर रखना असंभव है। कमली पर उन्हें रह-रहकर तरस आ रहा था। स्वच्छंद युवती को इस घर की रूढ़िवादी मान्यताओं के पिंजड़े में वे कैद नहीं करना चाहते। कमली और रवि के यहाँ आने के पहले जाने कितनी हिचकिचाहट थी। पर उसमें घृणा का अंशमात्र भी नहीं था। कमली के आने के बाद, उससे मिलने के बाद रही सही हिचकिचाहट भी कहीं गायब गयी और उनके भीतर एक तरह का स्नेह भाव पनपने लगा था।' उन्हें लगा, यह देह का आकर्षण मात्र नहीं है दोनों के आकर्षण की बुनियाद है, एक दूसरे की स्वभावगत विशेषताएँ। रवि उसकी गोरी चमड़ी के प्रति आकर्षित होकर उसे मात्र अपनी दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये नहीं लायेगा। यह सचमुच गांधर्व संबंध है। रवि ने ठीक ही लिखा था। दोनों के समर्पण भाव और प्रेम के प्रति वे आश्वस्त थे। देह के अलावा विचारों का, संवेदनाओं का, बुद्धि का साम्य ही इस आकर्षण के बुनियादी कारण रहे होंगे। यह वह बखूबी समझ गए।

कामाक्षी की तरह वे इनसे घृणा नहीं कर सकते। पूर्ण ज्ञान की उदारता जिसमें हो, वह ईर्ष्या, घुणा आदि दुर्गुणों का दास नहीं हो सकता। जहाँ ईष्या द्वेष, जैसी ओछी भावनाएँ हों वहाँ पूर्ण ज्ञान नहीं होता।

रवि लौट आया। शर्मा जी ने ओसारे पर ही उसे रोक कर कहा, 'मैं घाट पर जा रहा था। तो तुम्हें बहुत पूछा, तुम मिले नहीं। मैं तुमसे अकेले में बात करना चाहता हूँ।'

'सुन्दररामन ने बुलवाया था। वहीं चला गया था।'

'बातें यहीं करें, कि घाट तक चले चलें ।'

'क्यों, यहीं पिछवाड़े में बगीचे में बैठकर बातें कर लेते हैं।'

'चलो, फिर....।' दोनों पिछवाड़े के कुएँ के पास बनी सीमेंट के चबूतरे पर बैठ गए।

बातें शुरू करने के पहले शर्मा जी ने भूमिका बाँधी। कमली के बारे में कामाक्षी की शंकाएँ, उसके प्रश्न, संशवाती की घटना से उठा विवाद, सीमावय्यर का प्रश्न, घाट पर पंडितों की पूछताँछ-एक-एक कर बताते चले गये। बोलते-बोलते एकाएज रुक गए। रवि की प्रति- किया जानना चाहते थे।

'आप ठीक कह रहे हैं, बाऊ जी। यह तो मैं अपेक्षा कर ही रहा था। पर अब मुझे क्या करना होगा, यह तो बताइए।'

'मुझे गलत मत समझना। तुम्हारा पत्र मिलने पर मेरे मन में जो क्षोभ उभरा था, वह अब लेश मात्र भी नहीं रहा। कमली मुझे बहुत पसंद है। तुम्हारे प्यार में मैं कोई कमी नहीं पाता। पर तुम यह मत भूलना कि तुम्हारी माँ, घर, गाँव सब इसके विपरीत है।'

'आप इसे सही समझ रहे हैं, यह मेरा सौभाग्य है।'

'मैं सही समझ रहा हूँ वह ठीक है, पर यह मत भूलना कि मैं भी समाज के नियमों से मुक्त नहीं हूँ।'

'यही तो अपने देश की विडम्बना है कि हमारे यहाँ के विद्वान बुद्धिजीवी भी कायर हैं।'

'देखो बेटे, ज्ञान और सामाजिकता दोनों अलग बातें हैं। मैं यह अपने लिये नहीं कह रहा। शाम जो घटना घटी थी, यदि इसी तरह की घटनाएँ एक के बाद एक घटती चली जायें तो... उसका मन कितना दुखी हो जाएगा कभी सोचा तुमने।'

'तो बाऊ जी, आप ही बताइए, क्या किया जाए। यह तो एक या दो दिन की बात नहीं है। मैं इस बार एक वर्ष के लीव में आया हूँ। वह भारत के औपनिवेशिक फ्रेंच समाज पर और भारतीय संस्कृति की फ्रेंच संस्कृति पर पड़े प्रभाव पर शोध कार्य करने आयी है। इस कार्य के लिये अमेरिकन फाउंडेशन उसकी मदद कर रहा है। वह भी साल भर यहीं रहेगी। मैं भी लगभग कुछ ऐसे ही एंसाइनमेंट पर आया हूँ। हमारा मुख्यालय शंकरमंगलम रहेगा....।’

‘मुझे कोई आपत्ति नहीं है। तुम साल भर यहाँ रहोगे यह मेरे लिए खुशी की बात है।’

‘फिर आप चिंता किस बात की कर रहे हैं, बाऊ?’

‘यही कि एकदम गंवार और दकियानूस औरत के आधिपत्य में तुम दोनों यहाँ रहकर काम कर सकोगे या नहीं, मेरी तो चिंता इसी बात की है कि इस घर में मेहमान की तरह जो आयी है उसका मन दुखे।’

‘कमली मेहमान नहीं है बाऊ। वह इस घर की ही एक सदस्या है।’

शर्मा जी कुछ हिचके, फिर पूछ लिया।

‘ठीक है, तुम कहते हो, और मैं भी मान लेता हूँ। पर तुम्हारी मांं? उसे तो अभी पूरी बात नहीं मालूम है। पर हजार शंकायें हैं उसके दिमाग में। तुम्हारी माँ के भय से ही एकबारगी सोचा था कि तुम दोनों को वेणुकाका के घर ठहरा दूँ।’

‘अब बात समझ में आयी है, बाऊ! आप यही पूछना चाहते हैं न कि इस माहौल में हमारा यहाँ रहना संभव है या नहीं।’

‘तुम्हारे ठहरने के बारे में मुझे कोई चिंता नहीं है। यह घर तुम्हारा है और तुम्हारे मां-बाप और तुम्हारे बीच कोई झगड़ा होने से रहा। समस्या कमली की है। यदि तुम्हें आपत्ति न हो तो कमली को वेणुकाको के घर ठहरा देंगे। वे लोग प्रगतिशील विचारों के हैं, इसलिए वहाँ कोई समस्या नहीं होगी।’

‘अगर ऐसा हुआ, तो उसे अकेले वहाँ भेजते अच्छा नहीं लगेगा। मुझे भी साथ ही जाना होगा।’

‘उसके जाने से तो कुछ नहीं होगा। अगर तुम भी साथ चले गए तो अफवाहें फैलेगी।’ *'मेरी तो राय यही है, कि कमली भी यहीं ठहर जाए। अम्मा लाख समस्यायें पैदा करें, कमली उन्हें संभाल लेगी।'

'यह तुम कह रहे हो। वह जाने क्या सोच रही होगी?'

'इसमें कैसा दुराव छिपाव। आइए, मैं अभी पुछवा देता हूँ।'

'मैं क्या करूँगा वहाँ आकर! तुम ही पूछ कर बता देना।'

'नहीं! मैं एक खास मकसद से कह रहा हूँ। तभी आप उसे समझ पायेंगे। शक की कोई गुंजाइश नहीं रहेगी।'

शर्मा जी हिचकिचाए।

'सोचिए मत बाऊ जी। मेरे साथ चलिए।'

रवि उठ गया। शर्मा जी भी उसके पीछे चल दिए।

वे लोग ऊपर पहुँचे तब भी दुर्गा स्तुति पाठ चल रहा था।

'पास, तुम नीचे जागों बिटिया। हमें कुछ बातें करती हैं।'

शर्मा जी ने उसे भिजवा दिया। रवि को, पारू को इस तरह भिजवा देना अच्छा नहीं लगा!

'वह भी रह जाती बाऊ जी, उसे क्यों भिजवा दिया।'

'नहीं वह बाद में आ जायेगी। तुम चुप रहो।'

रवि ने फिर इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा।

कमनी उन्हें आते देख उठकर खड़ी हो गयी थी।

'मैं कुछ पूछूँगा तो आपको लगेगा, यह मेरे लिए जबाब दे रही हैं। आप खुद ही पूछ कर देख लें। रवि ने कहा।

शर्मा और रवि कुर्सी पर बैठ गए। कमली नहीं बैठी।

'बैठो बिटिया। हम तुमसे कुछ बातें करना चाहते हैं। कब तक खड़ी रहेगी। मैं तुम्हारा लिहाज समझ रहा हूँ। अब मैं कह रहा हूँ। बैठ जाओ।’

'कोई बात नहीं। खड़े रहने में मुझे कोई दिक्कत नहीं।'

'तुम्हें हो न हो, हमें तो है न।'

'नहीं, आप कहिये तो.......।'

'मेरी बातों का साफ जवाब देना बिटिया। आभार मानूँगा। मैंने तो रवि से कहा था कि तुमसे पूछ कर जवाब दे। पर उसने तो मुझे ही सामने लाकर खड़ा कर दिया।'

'………………'

'क्यों बिटिया। संशवाती वाली घटना पर कामाक्षी पारू को डांट रही थी, तुम्हें बुरा तो नहीं लगा। तुम मुझे साफ-साफ बताना बिटिया………।'

'इसमें बुरा मानने की क्या बात है? उन्होंने पारू को डांटा। मैं कैसे मना करूँ? अगर वे पास को नहीं मुझे ही बुलवा कर डांट देती तब भी बुरा नहीं मानती। मुझे तो इसी बात का बुरा लगता है, कि वह अधिकारपूर्ण मुझे क्यों नहीं डांटती। इस बात का बुरा नहीं लगता कि क्यों डांट रही हैं। यदि रवि की माँ मुझे सीधे डाँट देतीं तो मैं बहुत खुश होती।'

शनी जी ने ऐसे विनम्र उत्तर की अपेक्षा नहीं की थी।

एक क्षण मौन रह के फिर पूछ लिया।

'मैंने सुना तुम्हें साल भर से ऊपर यहीं रहना है। सुनकर अच्छा लगा। इस घर की असुविधाओं में रह जाओगी? रह सको, तो यहाँ आराम से रह लो, वरना तुम लोगों के लिए पास ही में कोई दूसरा इंतजाम किए देता है।'

'यहाँ मुझे कोई असुविधा नहीं है। घर हो तो दोनों ही बातें होंगी। केवल अनुविधाओं से भरा घर या केवल असुविधाओं से भरा घर, ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलेगा।'

'ऐसी बात नहीं है बिटिया। अगर मन न मिले, तो रोज-रोज की झिकझिक लगी रहेगी। फिर बाकी कामों के लिए वक्त कहाँ मिलेगा?'

'मुझे आपकी बात सुनकर आश्चर्य होता है। अभी तक तो मेरी वजह से कोई बात नहीं हुई। मैं तो इसी घर में रहना चाहती हूँ। कामाक्षी काकी को कई अर्थों में अपना गुरू माना है। उनसे कितना कुछ सीखना है मुझे।

'पर यदि तुम्हें शिष्या के रूप में वे न स्वीकारें तो?'

'तो क्या एकलव्य ने शिष्यत्व ग्रहण करने के पहले द्रोण की अनुमति ली थी। श्रद्धा और भक्ति भाव हो तो बहुत कुछ सीखा जा सकता है।'

'तो फिर तुम उससे अधिक सुविधाजनक स्थान में रहना नहीं चाहती?'

'तहीं। आपके यहाँ कहावत भी तो है, जहाँ राम हैं वहीं अयोध्या है। मैं तो सुविधाओं में रहते उकता गयी हूँ।'

पूर्वी संस्कृति में उसकी पकड़, उसका गहन अध्ययन, उसकी बातों से साफ झलक रहा था। बोले तो ठीक है। इस तरह के सवालों से तुम्हें कोई चोट पहुँची हो, तो बुरा मत मानना बेटी। हमारे जाने-अनजाने में तुम्हें कोई तकलीफ हो या असुविधा पहुँचे तो उसे भूल जाना। बस, मैं तो सिर्फ इतना चाहता था कि तुम्हें यहाँ किसी तरह की तकलीफ न हो।'

'आप रवि के पिता हैं, विद्वान हैं। भारतीय संस्कृति को पूर्णता को समझते हैं। आपको मैं कतई गलत नहीं समझूँगी। ईश्वर करे ऐसी परिस्थिति कभी न आए।'

रवि ने उन्हें देखा। मानो पूछ रहा हो, अब तो आपको तसल्ली हो गयी होगी।'

'ठीक है, मैं पारू को भिजवाता हूँ।'

शर्मा जी उतरने लगे।

'आप चलिए बाऊ, मैं अभी आया।' रवि बोला। 'आराम से आना। जल्दी नहीं है।' शर्मा जी ने उत्तरते हुए कहा उन्हें एहसास हो गया, इस युवती की संस्कृति के प्रति गहरी श्रद्धा है और वह तमास असुविधाओं के साथ जीने का साहस रखती है। अब उससे यह पूछना कि वह वेणुकाका के साथ ठहरेगी या नहीं मूर्खता भरा प्रश्न था। रवि ने कमली के विषय में जो कुछ भी कहा था, बह शत-प्रतिशत सही है। कामाक्षी की हरकतों के प्रति ही वे भयभीत थे। अब उन्हें विश्वास हो गया कि कमली इन हरकतों से प्रभावित नहीं होगी।

संझबाती वाली बात को लेकर कहीं कमली रवि से कुछ कह न बैठे, उसका खटका उन्हें था। पर कमली ने साफ जता दिया कि उसके मन में इस बात को लेकर कोई मैल नहीं है। कामाक्षी के प्रति उसकी श्रद्धा में रत्ती भर भी फर्क नहीं आया है।

कमली की ओर से समस्यायें भले ही उठें, पर कामाक्षी की ओर से या फिर इस गाँव वालों की ओर से समस्या उठ सकती है। इसका भय उन्हें था।

रवि नीचे आ गया। बाप-बेटे ने इस विषय पर फिर से कोई बातचीत नहीं की। अगले दिन वेणूकाका से गाड़ी लेकर रवि और कमली पांडीचेरी, कारैक्काल आदि स्थानों के लिए निकले। साथ में किसी ड्राइवर को ले जाने पर काका ने जोर दिया।

'नहीं काका, हम दोनों ही ड्राइविंग जानते हैं। कोई खराबी आ जाए तो हम संभाल लेंगे।'

हालांकि वे सप्ताह भर के लिए गये थे। घर उन्हें लौटने में दस दिन लग गए।

दस दिनों तक घर सूना पड़ा रहा।

वे लोग जिस समय घर लौटे, कामाक्षी बैठक में बैठी हुई वीणा में राग तोड़ी बजा रही थी। भीतर प्रवेश करते ही कमली खड़ी की खड़ी रह गयी। साक्षात् सरस्वती की तरह लग रही थीं वे। राग की वर्षा में पूरा घर भीग उठा था।

कमली के लिए यह अनिवर्चनीय अनुभव था। वीणा बजाती कामाक्षी के चेहरे की अपूर्व आभा को ठगी सी देखती रह गयी।

'क्या हुआ बेटी? अभी लौटी हो! यहीं क्यों खड़ी रह गयी?' शर्मा जी के प्रश्न ने उसे यथार्थ में ला पटका। रवि अटैची लिए भीतर आ गया।

कमली का ध्यान अब भी कामाक्षी की उस अलौकिक रुप पर ही रमा हुआ था।

XXX

पर अगले कुछ दिनों में जो कुछ घटा, वे शर्मा जी की धारणा के विपरीत ही रहीं। कर्मकांडी ब्राह्मण परिवार, यहाँ के नियम, धर्म एवं असुविधाएँ, पुरातन पंथी गृहस्वामिनी का व्यवहार कमली के लिए अड़चनें ही पैदा कर सकती हैं। शर्मा जी ने यही सोचा था! पर कमली ने उस घर के नियमों के अनुरूप अपने को ढालना शुरू कर दिया, पूरे समर्पण भाव के साथ। उसने अपने को इस घर की परम्पराओं के अनुकूल ढाल लिया, घर के अन्य सदस्यों को अपनी इच्छा के अनुरूप बदलने की कोशिश नहीं की। कमली के प्रति शर्मा जी की सहानुभूति का कारण, उसका यह स्वभाव ही था।

जिस रात वे पांडीचेरी से लौटे, कमली ने रवि से कहा था, 'आपकी माँ को वीणा बजाते देखने लगा था, जैसे साक्षात् वीणा- वादिनी उतर आयी हो।'

'अच्छी डिप्लोमेसी है, यह। दुश्मन को भी प्रशंसा से जीत लो।' रवि उसे छेड़ना चाहता था। पर कमली के स्वर में इतनी मुग्ध आर्द्रता थी कि वह उसके पीछे छिपी श्रद्धा को भांप गया। इसलिए चुप रहा।

'अम्मा में पुरातन कर्मकांडी परिवार की सारी विशेषताएँ मौजूद हैं।'

मेरा मतलब प्लस और माइनस दोनों ही गुणों से हैं। पर देख रहा हूँ, तुम अम्मा के प्लस पाहट को ही देखती हो....।'

'जो चीज हमें नहीं रुचे, उसे माइनस पाइंट कह देना गलत है रवि।' रवि को लगा कि वह स्वयं रवि के मुँह से अम्मा की कम- जोरियों को नहीं सुनना चाहती। अम्मा की फुर्ती, तुलसी पूजन, गोपूजन करना, गिट्टो खेलना, कौड़ियाँ खेलना, वीणा बजाना, स्त्रोत श्लोक पाठ करना, सब कुछ कमली के लिए अपूर्व है। लगा कि उसने कमली को इन तमाम विरोधाभाषों के बीच जीने का जो अभ्यास फ्रांस में करवाया था, उसमें आशातीत सफलता मिली है।

'मुझे अम्मा की तरह नौ गजी धोती पहनने की इच्छा है। बसंती को कल बुलवाया है सिखाने के लिए।' कमली ने कहा सो रवि चौंक गया। जब अपने ही यहाँ की युवतियाँ अठारह हाथ की लांग वाली धोती पहनना भूलती जा रही हैं। ऐसे में कमली की इसके प्रति रुचि उसे अच्छी लगी।

XXX

अगले दिन सुबह इरैमुडिमणि अपनी नई दुकान के उद्घाटन में जन्हें आमंत्रित करने आए, तो शर्मा जी घर पर नहीं मिले। रवि और कमली को अपने आने का मकसद बता कर चले गए।

'देखो बेटा, बाऊ जी भले ही न मानें, पर हम तो मुहूर्त और लग्न के विपरीत ही काम करते हैं। कल का दिन शुभ तो नहीं, पर मैं कल ही उद्घाटन करवा रहा हूँ। वे आएँ न आएँ, उनकी मर्जी है। तुम आओगे तो इन्हें भी लेते आना।'

सुबह साढ़े नौ बजे जब शर्मा जी लौटे तो रवि ने सूचना दी।

पर शर्मा जी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। पर उनका चेहरा परे- शान लग रहा था।

'वह अपने ढंग से अशुभ दिन में कमी की शुरूआत कर रहे हैं। आपको भी आने को कहा है―।

'..............'

'क्या हुआ बाऊ! आपका चेहरा उतरा क्यों है?'

'सारे फसाद की जड़ तो यही है न। ऊपर से मैं वहाँ चला जाऊँ तो फिर सीमावय्यर छोड़ेंगे थोड़े ही।'

'कैसा फसाद बाऊ?'

सीमावय्यर चाहते थे कि यह जगह देशिकामणि को न मिले। इसलिये उन्होंने मेरे पेशगी लेने के बाद अहमद अली को मेरे पास भेजा! मैंने अपने वचन से अनुसार देशिकामणि को ही दिलवा दिया। मठ से भी पत्र आ गया है। मैंने जब सीमावच्यर को पढ़वा भी दिया।

खूब बिगड़े। बोले, नास्तिक को मठ की जमीन किराये पर दी जा रही है। यह अधर्म है, अनाचार है। 'मुझको गालियाँ भी सुनाई। परसों बटाई की बैठक थी, तब भी मैंने सही जरूरतमंदों को ही बटाई पर खेत उठवाये। उस बात से भी चिढ़े बैठे हैं। वे अपने आदमियों को ही दिलवाना चाहते थे। मैंने उस दिन भी बैठक स्थगित कर दी।'

'तो इसमें आप दुखी क्यों होते हैं? आपने तो सही काम किया है।'

'दुखी नहीं हूँ बेटे। वहाँ जाते डर लगता है! फिर यह देशिका- मणि अशुभ मुहूर्त में काम शुरू कर रहा है। सीमावव्यर को अब इस बात से भी चिढ़ होगी। वैसे सैद्धांतिक रूप से चाहे जैसा भी हो, देशिकामणि ईमानदार है।’

'आपकी हिचकिचाहट पर हँसी आ रही है, बाऊ जी! बेईमान चाहे जो भी सोच ले, इससे क्या ईमानदार का साथ देना छोड़ देंगे। यही तो हमारे देश की खासियत बनती जा रही है।

बेईमानों, अत्याचारियों के डर से ईश्वर को पूजने वाला देश है या न्याय और आंतरिक शुद्धि से युक्त सत्य दर्शन न हो तो वैसी भक्ति किस काम की। किसी बेईमान गुन्डे के डर से अपने अजीज मित्र के समारोह में आप न जाएँ, यह कुछ जब नहीं रहा। आप जाएँ न जाएँ, मैं और कमली जरूर जाएँगे।'

'बात वह नहीं है। खैर, चलो, हम साथ ही चलते हैं।' शर्मा भी क्षणभर की हिचकिचाहट के बाद मान गये। पर उनका चेहरा परेशान था। मन में जाने कैसी हिचकिचाहट बाकी थी। कर्मकांडी ब्राह्मण का एक विदेशी युवती के साथ नास्तिक के यहाँ जाने की घटना को शंकरमंगलम के लोग किस रूप में देखेंगे....." वे यह सोच कर आतंकित हो रहे थे।

उनका भय सीमावय्यर और अपने अन्य विरोधियों को लेकर ही था। पर निजी तौर पर देशिकामणि के दामाद के इस उद्घाटन समारोह में सम्मिलित होने की उनकी हार्दिक इच्छा थी। उद्घाटन के लिए शुभ मुहूर्त तय करना न करना हर व्यक्ति की अपने इच्छा पर निर्भर है। उसे विवश नहीं किया जा सकता।

बेटे ने किस तरह सही नब्ज पर उंगली रख दी थी।

कहा था 'आप लोग न्याय की पूजा करते हैं पर अन्याय से भय- भीत होते हैं।'

शर्मा को वहीं बात चुभ गयी थी और चलने के लिए तैयार हो हो गए।

रवि और कमली के तैयार होने के पहले वे कामाक्षी से बोलकर बाहर आ गये।

वही हुआ जिसका उन्हें सन्देह था। रवि, कमली और शर्मा को साथ निकलते देखकर, लोगबाग बाहर ओसारे पर निकल आए।

सामने से पण्डित शम्भू नाथ शास्त्री आ रहे थे। शर्मा और रवि को अभिवादन किया और कमली को देखकर शर्मा जी से सवाल किया, ये कौन हैं?'

'फ्रांस से आयी हैं। हमारे देश, हमारी संस्कृति के विषय में कुछ लिखना चाहती हैं।' शर्मा ने कहा।

'ठीक है फिर मिलते हैं,' शास्त्री चले गए। दो चार और लोग मिले उन्हें भी इसी तरह उत्तर देकर टरकाना पड़ा।

'वहां तो जब तक परिचय नहीं करवाया जाता, लोग बाग पूछते तक नहीं' रवि ने कहा तो शर्मा ची हँस दिए।

'तुम पश्चिमी सभ्यता के बारे में कहते रवि, यहाँ तो नाभि नाला से अलग होते ही शिशु दूसरों में रुचि लेने लगता है।'

वे पहुँचे तो इरैमुडिमणि की दुकान में भीड़ नहीं थी। तीन तरफ दीवारें खड़ी की गयी थी। न फूलों का हार न आम की पत्तियों का तोरण, कोई हल्दी, चन्दन, कुंकुम नहीं। बस, उनके आन्दोलन के नेता की बड़ी तस्वीर टंगी थी। इरैमुडिमणि सबका स्वागत कर रहे थे। लोगों के बैठने के लिए बैंचें पड़ी थीं। इरैमुडिमणि ने उन्हें बैठाया। चंदन लगाया और मिश्री खिलाई। कुछ देर बातें करते रहे। वे लोग चलने लगे तो इरैमुडिमणि शर्मा जी को एक ओर ले गए।

'अहमद अली को यह जगह नहीं मिली, इसलिए सीमावययर पूरे गाँव में बदनामी फैला रहा है। उसका कहना है कि मैं आस्तिकों से बैर मोल लेना चाहता हूँ, इसीलिए यह दुकान यहाँ लगायी है। सबको धमका रखा है कि कोई भी यहाँ से सामान नहीं खरीदेगा। मैं अच्छों के लिए अच्छा, बुरों के लिए बुरा। व्यापार के लिए सिद्धान्तों को हवा में नहीं उड़ा सकता। अपने सिद्धान्तों को दूसरों पर मैं थोपता भी नहीं। मैं जानता हूँ किस तरह ईमानदारी से व्यवसाय चलाया जा सकता है। हजार सीमावय्यर पैदा हो जाएँ, वे कुछ नहीं बिगाड़ सकते।'

'वह तो ठीक है, देशिकामणि। तुम यह मत सोचना कि तुम्हारे अधिकार पर हमला कर रहा हूँ। यह मठ की जगह है। आस-पास के लोग धामिक हैं।

यहाँ कुछ दुकान का यह नास्तिक नाम, यह चित्र.... तुम्हें अट- पटा नहीं लगता?'

'हो तो, हो। मैं स्वांग नहीं भर सकता। व्यापार में घाटा हो जाए पर सिद्धान्त में घाटा न हो।" इरैमुडिमणि तैश में आ गए। इरैमुडिमाणि की यह साफ गोई शर्मा को अच्छी लगती थी पर वे जानते थे कि एक न एक दिन सीमावय्यर की दुश्मनी महँगी पड़ेगी।

'तुम ठीक कहते हो यार, तुम्हें अपने सिद्धान्तों पर अटल रहने की पूरी छूट है। पर सीमावय्यर को जानता हूँ न, इसलिए कह रहा हूँ। यह मल सोचना कि तुम्हें विवश कर रहा हूँ। दुकान तुम्हारी है, जैसा चाहो चलाओं।'

'मैं तो आपको घटना से वाकिफ कर देना चाहता था।'

इरैमुडिमणि ने वार्तालाप को पूर्ण विराम दिया। इसी समय काली कमीज पहने तीन चार कार्यकर्त्ता आ गये। उन्हें विदा कर फिर वहीं लौट आए।

'अच्छा हुआ, तुम इन्हें भी साथ ले आए।'

कुछ देर मोन के बाद शर्मा जी ने सीमावय्यर की धमकी के बारे में कह सुनाया। 'रहने दो यार उसे। उसका तो अन्तिम समय आ गया है।' इरै मुडिमणि कड़ुवाहट के साथ बोले।

शर्मा, रवि, कमली तीनों ही इरैमुरिमणि से विदा लेकर निकलने लगे, जाते-जाते रवि बेंच पर रखीं किताबें पलटने लगा।' आदि शंकर दर्शन' 'बोधायनीयनम्' पाँच रात्र वैखानख पद्धति श्री वैष्णव चण्डमारुतम' आदि पुस्तकें रखी हुई थीं।

'क्या देख रहे हो, बेटा। अपनी ही है। पढ़ रहा हूँ इन दिनों, रबि से बोले।'

'कुछ नहीं यूं ही पलट रहा था।' रवि ने कहा।

मोड़ पर आकर रवि ने पूछा, 'एक ओर तो यह अशुभ मुहूर्त में कार्य करते हैं।' दूसरी और धर्म और दर्शन की पुस्तकें पढ़ते हैं। अजीब नहीं लगता।'

'इसमें अजीब क्या है? वह हर बात को जानना चाहता है। ज्ञान को भूख उसमें जबर्दस्त है। इन विरोधाभास के बीच में उसमें एक पूर्णता है।'

'पर कितना खूबसूरत विरोधाभास है, बाऊ। एक ओर जब ओसारे पर पान चबाते, ताश के पत्ते खेलते सीमावय्यर को देखता हूँ, और दूसरी ओर इनके बारे में सोचता हूँ तो लगता है, ज्ञानू का जाति से कोई सम्बन्ध नहीं है न?' रवि ने पूछा। शर्मा ने कोई उत्तर नहीं दिया। उन्होंने उत्तर भले ही न दिया हो, पर वे उसके बारे में लगातार सोच रहे हैं, वह यह जानता है। वह सोच रहा था, बाऊ उसकी इस बात को कहेंगे, पर बाऊ जी की चुप्पी उसे सन्तोषजनक लगी।

XXX

घर लौटते ही, सीमावय्यर के प्रचार का परिणाम भी उन्होंने देख लिया। अग्रहारम के तीन चार सम्माननीय व्यक्ति उनकी प्रतीक्षा में खड़े थे। शर्मा जी ने उनका स्वागत किया और ओसारे पर ही बैठ गए। रवि और कमली भीतर चले गये।

आगंतुकों के चेहरे देखकर ही शर्मा जी उनका मकसद भाप गये।

भजन मंडली के पद्यनाभ अय्यर, वेद धर्म सभा के सचिव हरि- हर गनुपाड़ी, कर्णम मातृभूतम, और जमींदार स्वामीनाथ―भी आये थे। बात की शुरूआत हरिहर गनपाड़ी ने की, 'जब यह सार्वजनिक सम्पत्ति है, तो मठ से जुड़े चार लोगों से सलाह लेनी चाहिये थी। अग्रहारम का ही कोई तैयार हो जाता। पहले उनसे पूछ लेना चाहिये था आपको।'

शर्मा जी ने धैर्य के साथ इसका उत्तर दिया। पर किसी ने भी उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया।

'आप टेंडर मँगवा लेते। बोलियाँँ लगती और अच्छा किराया मिल जाता। एक नास्तिक को नहीं मिलनी चाहिये थी।'

'श्रीमठ को मैंने लिखा था। उन्होंने तो सिर्फ इस बात पर जोर दिया था कि किराया समय पर मिल जाये। पार्टी को नेक और ईमानदार होना चाहिये बस! यही वे चाहते थे।'

'तो यह नास्तिक बनिया आपको ईमानदार लगा, क्यों?'

'कोई क्या है, इससे मुझे कुछ लेना देना नहीं। वह कैसे है, मुझे यही देखना है।'

'यही तो हम भी आपसे पूछ रहे हैं। यानी कि आप जानते हैं वे कैसे हैं। और जानबूझकर यह किया गया है।'

विवाद बढ़ने लगा। शर्मा जी समझ गए यह सारी आग सीमा- वय्यर की लगायी है। जाते-जाते शर्मा जी को भला बुरा कह गए।

दोपहर शर्मा जी किसी काम से भूमिनाथपुरम गए थे। बसँती आयी थी। हफ्ते भर में उसे बंबई जाना था। कमली ने उससे सुझाब माँगे। कामाक्षी की तरह लांग वाली धोती पहननी भी सीखी।

रवि घर पर नहीं था, इसलिए जी खोलकर बातें करने का अवसर हाथ लग गया। हालांकि कमली ने भारतीय रीति रिवाजों, नियमों, अनुष्ठानों के बारे में काफी जानकारी थी, पर कुछ छोटी-छोटी शकाएँ बनी रहीं।

बसँती से उनका निवारण कर लिया। एक प्रश्न बेह्द निजी था। बसँती ने उसे सविस्तार साफ-साफ समझा दिया। 'ऐसे दिनों के लिए पिछवाड़े में एक कमरा है। वहीं रहनो पड़ता है। ढेर सारी किताबें रख लेना। पढ़ती रहना। तीन दिनों की जेल समझ लो।'

कमली कामाक्षी को पूरी तरह से संतुष्ट करना चाहती थी। सँझवाती वाली घटना, फिर रवि के पिता का उसे सलाह देने की बात बसंती से उसने कुछ भी नहीं छिपाया।

'अंगर बहुत परेशानी हो, तो मेरे घर चली जाना। बाऊ जी से कह जाऊँगी।' पर कमली नहीं मानी।

'देखेंगे! मुझे लगता है, इसकी जरूरत नहीं रहेगी।' कमली ने निर्णयात्मक स्वर में कहा।

'तुम उन तीन दिनों के लिये पारू को स्कूल में छुट्टी दिलवा देना। कौड़ियाँ खेल लेगी तुम्हारे साथ।'

'अरे, तो क्या समझती है? मुझे अकेले में डर लगेगा।' कमली ने पूछा! उसकी इच्छा के अनुसार ही उस दिन शाम भूमिनाथपुरम के शिव मंदिर ले गयी। और एक विदेशी युवती को भारतीय परिधान में, पूजन सामग्री लेकर चलते देख लोग ठिठक गये। बसंती ने कमली को मंदिर की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से परिचित करा दिया।

बसंती के साथ वह गर्भ गृह के समीप गयी। शर्मा जी के परिवार कुशल मंगल की कामना करती रही।

भूमिनाथपुरम का भव्य शिव मंदिर उसका कलात्मक सौन्दर्य और शिल्प उसे बेहद भाया।

लौटते में कमली ने बसँती से गद्गद स्वर में कहा, 'तुम लोगों के प्राचीन मंदिर कला के भंडार हैं। पर तुम्हारे यहाँ की युवा पीढ़ी तो अब सिनेमा थियेटरों में भक्ति भाव से जाने लगी है। मंदिर जाना कौन पसंद करता है? वहीं सिगरेट के धुएँ में उनकी पूजा अर्चना चलती है।'

'ठोक कहती हो, तुम। यहाँ मंदिरों से अधिक भीड़ टूरिंग थियेटरों में मिलेगी।'

'मैक्समूलर के जमाने से पश्चिमी देशों में पूर्व को सभ्यता और संस्कृति के प्रति एक आकर्षण उत्पन्न हो गया था। मैक्समूलर ने आक्सफोर्ड में वेद और उपनिषदों का अनुवाद कर उन्हें प्रकाशित करने का काम शुरू किया, तब से ही पश्चिम ने पूर्व की ओर देखना प्रारम्भ कर दिया। और तबसे यह भी होने लगा―कि तुम लोगों ने पश्चिम की ओर आँखें फाड़कर देखना शुरू किया और वहाँ की भौतिकवादी उपभोक्ता संस्कृति को अपनाना शुरू किया।'

सच कहती हो। आज भारत भौतिकवादी हो गया है।

स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी गरीबी इसकी सांस्कृतिक गरीबी है। भूख से अधिक यह सांस्कृतिक गरीबी खतरनाक है।

'हाँ, संस्कृति और आध्यात्म की गरीबी सचमुष में भयंकर हैं। एक देश को पतन के गर्त तक ले जाने वाला है.......।'

लौटते में वार्तालाप चल रहा था। बसंती में महसूस किया कि कमली एक हिंदू युवती की तरह रहना चाहती है। उस तरह दिखने और रहने की उसकी ललक को बसंती समझ गयी।

'हम लोग तो जन्म से हिंदू हैं। पर बाहर से आने वाले लोगों को हिंदू धर्म इतना आकर्षित करता है―यह सचमुच आश्चर्यजनक है।'

'तुम लोग सुधार और पुनर्जागरण के नाम पर एक पवित्र और पुरातन गंगा प्रवाह से निकल कर धूप सेंकना चाहते हो, पर हम लोग उस प्रवाह में डूबकर पवित्र होना चाहते हैं। हिंदू के रूप में जन्म लेने वाला पूर्ण हिंदू नहीं होता। जो हिंदुत्व को समझकर हिंदू की तरह रहना चाहता हो, वही पूर्ण हिन्दू है, हिंदू एक धर्म नहीं― जीवन की एक पद्धति है।'

'पर जो गंगा तक नहाने जाता है, वही तो भीगेगा।'

'गंगा, उत्तर में बहने वाली नदी ही नहीं बल्कि भारत में फैली हुई एक पावन भावना है। तुम्हारे यहाँ सांस्कृतिक एकता है। तुम्हारा इतिहास ही गवाह है कि देश के कई स्थानों में झीलों तालाबों में गंगा के जल को ही सबसे पहले लाया जाता है। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक कोई भी हिंदू मरता है तो मुँह में गंगा जल ही डाला जाता है।'

बसंती अपने ही इतिहास को दूसरों के मुँह से सुनकर पुलकित हो उठी।

बम्बई जाने से पहले कई शामें कमली और बसंती ने साथ बिताई। जी भर कर बातें की।

उसके बम्बई जाने के दूसरे या तीसरे सप्ताह ही, श्रीमठ से एक तार आया और शर्मा जी कामाक्षी को लेकर यहाँ चले गए। लौटते में हफ्ता लग जाने की संभावना थी। कामाक्षी ने घर की जिम्मे- दारी पार्वती को सौंप दी थी। ज्यादातर पक्का खाना बैठक में ही बनाने की सख्त हिदायत भी।

शर्मा जी के जाने के दूसरे तीसरे दिन घर पर एक दुर्घटना हो गयी। जान बूझकर दुर्घटना की गयी थी। किसने की है यह भी साफ ही जाहिर था। पर यह व्यक्ति नहीं मिला? पिछवाड़े में बाग और गौशाला के बीच में पुआल का ढेर था। सुबह तीन बजे के लगभग किसी ने उसमें भाग लगा दी। मीनाक्षी दादी अपने घर के पिछवाड़े में आई, तो लपटें उठती देखी और चीख पुकार मचाने लगी। दादी में तो जब देखा तब तक देर हो चुकी थी। आग गौशाला तक पहुँच गई थी। घर के लोग सो रहे थे। जब तक ये लोग पहुँचे अड़ोस-पड़ोस के लोग बाल्टियों से आग बुझाने लग गए थे। पर आग इतनी आसानी से नहीं बुझ रही थी। गौशाला की छत गिर गई, इसलिए एकाध बछड़ों के अलावा शेष सब गायें दब गयीं। घर में धुआँ फैल गया। पिछवाड़े के दरवाजे और आंगन के बीच लगी तुलसी के पत्ते भी झुलस गए। यदि गौशाला की छत दबने के बजाय, एक किनारे ढहती तो तुलसी चौरा टूट चुका होता।

लोमबाग, कुएं से पानी निकाल-निकाल कर लपटें बुझाने की कोशिश करते रहे। पूरी कोशिश करते रहे कि गायों को निकाल लिया जाए। पर नहीं हो पाया। अंत में बाकी धरों की गौशालाओं को आग से बचाने का अभियान चलने लगा।

किसी से समाचार मिलते ही इरैमुडिमणि दस पन्द्रह आदमी लेकर भागते हुए चले आए। वे भी इस अभियान में शामिल हो गए।

सुबह तक आग काबू में आ चुकी थी। फूल का ढेर राख हो चुका था। गौशाला की तीनों गाएँ झुलस कर खत्म हो गई थीं।

रवि को बहुत दुःख हुआ। एक तो बाऊ भी इस वक्त घर से बाहर हैं। पर वह अच्छी तरह समझ गया कि यह जानबूझकर की गयी साजिश है। वेणुकाका समेत अधिकांश लोगों की राय थी कि यह कर्मों का फल है। जाने ईश्वर किस बात पर नाराज हो गये हैं।'

पर इरैमुडिमणि चीखे, 'आदमी जानबूझकर किसी का अहित करे, और लोग भाग्य पर उसका भार डाल देते हैं। हिम्मत हो तो उसे पकड़िये जिसने यह हरकत की है। वरना चूड़ियाँ पहन डालिए।'

रवि और इरैमुडिमणि का संदेह सीमावय्यर पर था। सुबह सीमा- वय्यर भी सबके साथ आकर बैठ गए। 'पता नहीं क्या अनर्थ हो गया वरना ब्राह्मण के घर गाय और तुलसी झुलस जाए? यह कैसे संभव है।' उनके इस वाक्य में जो शरारत थी उससे उनकी आगे की कार्यवाही स्पष्ट हो गई। रवि ने उनसे सीधे मुँह बात नहीं की। वे खुद आए, स्यापा मचाया और लौट गए। लगा, अपने को बचाने के लिए यह हरकत उन्होंने की है।

रवि ने जो सोचा था, वही हुआ। सीमावय्यर ने पूरे अग्रहारम् में ढिंढोरा पिटवा दिया कि शर्मा जी ने एक नास्तिक को मठ की जमीन किराये पर दी। घर पर अनाचारी लोगों को बिठा रखा है। ईश्वर भला कैसे सहे इसे? बस आग लग गयी। कुछ लोग उनके बहकावे में आए भी।

कमली, कामाक्षी के जाने के बाद रोज सुबह नहा धोकर, लांग वाली धोती पहनकर, गो पुजन और तुलसी पूजा करती आ रही थी। आग लग जाने के बाद उसे तो कुछ नहीं सूझा। तुलसी के पत्ते ऊपर झुलस गए थे, पर जड़ें हरी थीं। उसने तो उस दिन भी वाकायदे पूजा की।

इस दुर्घटना के तीसरे दिन शर्मा जी और कामाक्षी लौट आए। शर्मा जी क्षणांश के लिए विचलित हुए। फिर जल्दी सहज हो गए। बाऊ जी की इस हरकत पर रवि को एक पौराणिक घटना याद आ गयी। एक बार राजर्षि जनक अपने अन्य विद्वानों के साथ एक सुरम्य स्थान पर चर्चा में लीन थे। उन्हें तो दीन दुनिया का होश भी नहीं था। बस ज्ञान के अथाह सागर में गोता लगा रहे थे। तभी कोई भागा आया और बोला, 'मिथिला में आग लगी है राजर्षि जनक शांत रहे, और बोले, मैंने तो मिथिला में कोई ऐसी चीज नहीं छोड़ी है। जो बाद में मिल नहीं सके। यह घटना राजर्षि जनक का वीतरागी स्वभाव और ज्ञान के प्रति उनकी अटूट आस्था का ही उदाहरण है।'

उस दिन बाऊजी उसी जनक की तरह लगे।

XXX

बाऊ को दुख हुआ होगा, पर पानी की लकीर की तरह सब कुछ मिट गया। लोगों की बातें भी उन्होंने सुनी, पर कुछ नहीं बोले। भूमिनाथपुरम के अपने किसी परिचित को दूसरी गाय भिजवाने को कहला भेजा।

पर अम्मा का व्यवहार ठीक विपरीत था। लोगों की बातें उसने भी सुनी थी।

दादी ने ही उन्हें बताया था कि मठ की जमीन नास्तिक को दी गयी है और घर पर अनाचारी लोगों से पूजा पाठ करवाया गया है। ईश्वर की आँखें क्या फूट गयी हैं, वह तो देखता है। पर कामाक्षी को पार्वती से पता चल गया कि उसकी अनुपस्थिति में सारा पूजा पाठ कमली ने किया था।

इसे किसने कह दिया। उनके यहाँ तो कुल्ला किए बगैर कॉफी पी जाती है। न आचार, न नियम, न अनुष्ठान। इसलिए तो यह सब गत हुई है। इस घर में मेरी सुनता कौन है। यहाँ तो पीढ़ियों से गो- पूजन, तुलसी पूजन चला आ रहा है। घर की सम्पन्नता तो इसी पूजा का फल है। एक फिरंगिन में पूजा पाठ की कौन सी योग्यता है? आने दो उन्हें। मैं छोड़ूँगी नहीं। इनसे साफ साफ कह दूँगी।

'अम्मा कमली तो तुम्हारी ही तरह नहा धोकर यह सब किया करती थी।' पार्वती ने उसका पक्ष लिया।

'चुप कर! तेरे प्रमाण पत्र की कोई जरूरत नहीं, समझी। कामाक्षी ने उसे झिड़क दिया।

पार्वती को अम्मा का गुस्सा नहीं जँचा। अम्मा कमली पर बे- वजह नाराज हो रही हैं।

दस पंद्रह दिनों में ही, तुलसी में नयी कोपलें फूटने लगीं। भूमि- नाथपुरम से आयी नयी गाय और बचे हुप बछड़े एस्वेस्टस की छत के नीचे आराम से जुगाली कर रहे थे। पर इन तमाम बातों के बीच कमली की ही आलोचना हुई।

बाहर वालों ने तो इस कांड का जिम्मेदार उसे ठहराया ही। घर पर कामाक्षी ने भी कभी खुल कर, कभी प्राकारान्तर से यही खरी खोटी सुनाई। शर्मा से खूब झगड़ी। पर वे टस से मस नहीं हुए। कमला की विनम्रता, उसका शील, हिन्दू धर्म के प्रति उसकी आस्था और इस धर्म में घुल जाने की उसकी तत्परता―शर्मा जी को बहुत अच्छा लगा था। अपनी ही संस्कृति को अंधविश्वास समझकर भूलते जा रहे भारतीयों के सामने, विज्ञान और तकनीक में विकसित देश से आयी वह युवती इसकी विनम्रता, इसका स्वभाव उन्हें बेहतर लगा था।

शर्मा जी ने कमली के गोपूजन, तुलसी पूजन, दुर्गा सप्तशती पाठ को एक मनोरंजन या अलोचना की दृष्टि से नहीं देखा। उसमें निहित उसको अंतरंग शुद्धि को वे समझ सके। जो आदमी की भीतरी शुद्धि को नहीं समझ पाता, वह कतई सत्य मानने योग्य नहीं, यह उनकी मान्यता रही।

कमली सुबह योगासन करती है, यह वें जानते हैं। एक दिन बनियाइन और पैंट पहने वह शीर्षासन में लीन थी, तो कामाक्षी ने उसे देख लिया। लपक्रती हुई नीचे गयी और बगीचे में पूजा के लिए फूल चुन रहे शर्मा जी के पास गयी और बोली, 'देखिए, आपको यह सब अच्छा लगता है क्या? इस उम्र में आधे कपड़े पहने उल्टी खड़ी है।'

शर्मा जी मुस्कुराप 'वह योगासन कर रही है। तुम्हें अच्छा न लगे, तो मत देखो।'

शंकरमगंलम में दासियों का एक मोहल्ला है। उस मोहल्ले में शिवराज नहुबनार नाम के एक नृत्य गुरु थे। कमली भरतनाट्यम और कर्नाटक संगीत सीखना चाहती थी। लिहाजा रवि ने उस मोहल्ले के एक भागवतर और शिवराज नहुबनार को घर आकर प्रशिक्षण देने को राजी करवा लिया था। सप्ताह के तीन दिन संगीत, तीन दिन नृत्य और एक दिन शर्मा जी से संस्कृत।

'उसे अगर इतना ही पागलपन है, तो वहीं जाकर सील लें। नृत्य, संगीत के नाम पर जाने कैसे-कैसे गवैये, नचाये घर चले आते हैं।' कामाक्षी तो लड़ बैठी। लिहाजा उनका आना बंद हो गया, कमली वहाँ जाने लगी।

शर्मा जी और रवि एक दिन घाट से लौट रहे थे, तो रवि को पहली बार उस बात का पता लगा।

'इस गांव के लोग बहुत दूषित प्रकृति के हैं। रवि! पता है, मुझे मठवालों ने तार देकर क्यों बुलवाया था। तुमने मुझसे नहीं पूछा अब तक, पर मैं तुम्हें अब बता रहा हूँ। तुम्हारे और कमली के यहाँ रहने और देशिकामणि को वह जगह किराये पर उठाने को लेकर किसी ने एक गुमनाम पत्र लिख दिया था और मुझे मठ के उत्तरदायित्व से मुक्त करने की सिफारिश की थी। उसका आरोप था कि मैं विदेशी युवती को घर पर अंडा, मांस-मछली बनवा कर खिलाता हूँ। नास्तिक को मठ की जमीन देकर आस्तिकों के लिए परेशानियाँ खड़ी करता हूँ। सब सीमावय्यर का काम है। पर अच्छा हुआ वहाँ मठ के मैनेजर ने इन आरोपों पर विश्वास नहीं किया। आचार्य का मेरे प्रति स्नेह और वात्सल्य कम नहीं हुआ। जब मैं वहाँ गया था तो अर्जेन्टाइना से एक युवती वहाँ आयी थी। ऋग्वेद पर आचार्य जी से चर्चा कर रही थी।

मैंने उन्हें बताया कि मैं आत्मा के साथ विश्वासघात नहीं किया है। श्रीमठ के आदेशों को मैंने हमेशा माना है। यदि आचार्यजी को सन्देह हो तो मैं मठ का कार्य छोड़ने को तैयार हूँ। मैंने जो भी किया मुझे इसमें लेशमात्र भी लालच नहीं है यह श्रीमठ का काम समझकर ही मैंने किया। मेरे बताने पर आचार्यजी को असली बात का पता लगा।

बोले, ‘तुम पर पूरा विश्वास है। तुम ही मठ का सारा कार्य भार देखोगे!’ गुमनाम पत्र की वजह से तुम्हें यहाँ बुलवा लिया और स्पष्टीकरण भी तुमसे मांगा। इसे अन्यथा मत लेना। मुझे तब कहीं जाकर तसल्ली हुईं। कामू के साथ जब आचार्यजी से मिलने गया तब ये बातें नहीं हुईं। फिर अकेले में बातें हुईं। तुम्हारी माँ को ये बातें नहीं मालूम हैं। पता चल जाए तो बस, कमली पर ऐसे ही बरसा करती है। फिर तो खदेड़ ही देगी।’

रवि को पहली बार अपनी वजह से बाऊ को होने वाली परेशानियों का एहसास हुआ।

‘पता नहीं लोगों को इन बेकार के झगड़ों में क्या मजा आता है। अब तो यूरोप में इससे भी अधिक शाकाहारी होने लगे हैं। कमली तो मुझसे मिलने के बाद पूरी तरह शाकाहारी बन चुकी है। अब तो शाकाहारी खानों को हेल्थ फूड कहा जाता है। अब तो सभ्यता का पुनर्जागरण इस रूप में हो रहा है, और यहाँ लोगों को इन फालतू बातों से फुर्सत नहीं।’ रवि ने कहा।

‘बुरा मत मानना। मैं तो तुम्हें सूचित भर करना चाहता था। रवि, मैं इन बातों से नहीं घबराता। मेरी सोचः बहुतः साफ होने लगी है।

कमली को पहले से ज्यादा समझ रहा हूँ। परसों मुझसे संस्कृत पढ़ रही थी, तो ‘वागार्थविव....’ वाले श्लोक का अर्थ समझते हुए पता है उसने क्या किया? सौन्दर्य लहरी का वह श्लोक याद दिला दिया। जैसे ज्योति स्वरूप सूर्य को दीप की आरती की जाए, जैसे चन्द्रकांतमणि से चन्द्र को अर्घ्य दिया जाए, जैसे समुद्र के ही जल से एक समुद्र को स्नान करवाया जाये उसी तरह तुम्हारे ही शब्दों से तुम्हारी ही अर्चना करता हूँ।’ मैं तो चकित रह गया। मैं गुरु हूँ या वह, मेरी समझ में नहीं आया।

मैंने तो वागर्थ की तरह एक दूसरे से जुड़े हुए शिव और पार्वती की वंदना का श्लोक उसे समझाया था। तब से वह हर श्लोक के साथ इसे जोड़कर देखने लगी है वे तुलनात्मक अध्ययन तो पश्चिम का एक प्रमुख उपकरण है।

‘उसका चिन्तन बहुत गहन है, रवि।’

रवि का मन खुशी से भर गया।

उसी सप्ताह के अंत में, बाऊ से अनुमति लेकर, कमली को चार दिनों वाले विवाहोत्सवों में ले गया। होम, औपासना, काशी यात्रा, झूला, अंरुधती दर्शन, सप्तपदी, कमली एक-एक अंश को कैमरे में कैद कर रही थी। रवि एक-एक का अर्थ समझा रहा था। विवाह के गीतों को उसने कैसेट में रिकार्ड किया। उसे यह पारंपरिक विवाह बहुत अच्छा लगा।

कमली ने विवाह में बहुत रुचि ली। पांचवे दिन लौटी तो उसने एक विचित्र अनुरोध सामने रखा।

XXX

‘तुम विदेशी हो। लोग समझते हैं कि तुम मजे के लिए यह सब करती हो। हमारे यहाँ विवाहित महिलाएँ ही लांग वाली धोती पहनती हैं।’ रवि ने कहा! कमली ने ऐसे ही वक्त में अपनी इच्छा जाहिर की।

'ऐसा मत कहिए। मैं आपके धर्म, आपके आचार-विचार नियम- अनुष्ठानों को मजे के लिए नहीं, पूरी श्रद्धा के साथ देखती हूँ, अपनाना चाहती हूँ। यदि मेरे इस एप्रोच में कहीं गलती हो तो मुझे रोकिये। लोगों के उपहास का पात्र मत बनाइए। आपकी प्रेमिका से मुझे शास्त्रसम्मान पत्नी का दरजा दीजिए। मैं चाहती हूँ, कि हमारा विवाह भी चार दिनों का हो।

'मैं जानता था, कि तुम्हारी इच्छा कुछ इसी तरह की होगी। पर मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं तुम्हारे कहने के पहले ही मैंने बाऊ से कह दिया है। पर इन भारतीयों की एक कमजोरी मैं तुम्हें बता वेना चाहता हूँ। हम लोग फूप्स के ढेर में सोये कुत्तों की तरह न तो खुद उसका सुख लेते हैं, न दूसरों को लेने देते हैं।'

सौ साल पहले जब मैक्समूलर ने वेद और उपनिषदों को प्रकाशित करना शुरू किया तो बजाय यह सोचने के कि एक विदेशी हमारी परंपरा की रक्षा में सक्रिय हैं, लोगों ने आपत्तियों की कि एक म्लेच्छ वेदों का प्रकाशन किस अधिकार से कर रहा है। स्वामी विवेकानन्द और रविन्द्र नाथ ठाकुर ने ही सैक्समूलर की प्रशंसा की थी।

'हो सकता है। पर मुझे लगता है, यहाँ भी परिवर्तन हुआ है।'

रवि ने आश्वासन दिया कि कुछ दिनों बाद वह फिर बाऊ से बात करेगा।

बसंती के चले जाने के बाद कमली के लिए ऐसा कोई नहीं था जिससे जी खोलकर बातें करती। कामाक्षी की घृणा और विरोध के बावजूद उन्हें अपना गुरु ही मानती रही। कई बातें सीख ली। घर में बीच-बीच में छिटपुट घटनाएँ भी घटीं, पर रवि और शर्मा जी इस बात के लिए सतर्क रहते थे कि कमली का मन न दुखे।

इस बीच कामाक्षी के मायके से, उसकी बूढ़ी मौसी मन्दिर के किसी उत्सव में भाग लेने आयी थी। उनका उद्देश्य वहाँ दसेक दिन ठहरने का था। बेहद कर्मकांडी महिला थीं। अपना काम स्वयं करतीं। कमली को देखकर तो उन्होंने घर में एक छोटे युद्ध की ही योजना बना डाली। 'यह क्या कर डाला कामू? हमारे कुल गोत्र में कहीं ऐसा भी हुआ है? मैं यहाँ कैसे रहूँगी री?'

'मैं क्या करु मौसी, मुझे भी नहीं पसन्द है। तुम इस ब्राह्मण महाराज से पूछ लो। देखें कुछ यात पल्ले पड़ती है या नहीं।'

कामाक्षी के अनुसार घर में शर्मा, रवि, पार्वती, कुमार, कमली को तरफ हैं।

अब तक अपना विरोध इसलिए वह प्रकट नहीं कर पाती थी पर मौसी के आगमन से उस नफारत को बाहर निकालने का रास्ता मिल गया। बुढ़िया ने एक-एक कर सबको भड़काना चाहा। पर किसी ने भी उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया।

अन्त में शर्मा से ही पूछ लिया।

'तुम शास्त्र जानते हो। ऐसा अनाचार किसलिए कर रहे हो? इस उम्र में यह सब भी झेलना लिखा है।'

'उससे कोई अनाचार नहीं होगा। वह हमसे भी अधिक इन बातों को मानती है, शर्मा जी बोले।

'यह कैसे हो सकता है?' बुढ़िया बुदबुदायी।

'न बने, तो कहीं और ठहर लें!' शर्मा जी कहना तो यही चाहते थे, पर चाहते थे कि बुढ़िया ही पहल कर ले।

'सोचती हूँ, शंकर सुब्बन के घर ठहर लूँ।'

'आप ऐसा चाहती हैं तो मैं कौन होता हूँ रोकने वाला।' शर्मा जी ने बातचीत बंद की पर कामाक्षी को गुस्सा आ गया।

'बीस साल से यहाँ ब्रह्मोत्सव में मौसी आती रही हैं। आपने उन्हें क्षण भर में नीचा दिखा दिया। क्यों हमारे मायके वालों आपको काटते हैं? बाहर वालों के लिये हमारे घर वालों को भगायेंगे?'

'मैं किसी को नहीं भगा रहा। वे खुद वहाँ रहना चाहती हैं तो इसमें मेरा क्या दोष! तो क्या तुम चाहती हो मैं पैर पड़कर उन्हें मनाऊँ?'

'वह गाँव जाकर मुझ पर थूकेंगी। ऐसे ही तुम्का फजीहत क्या कम हो रही है?'

शर्मा जी चुप रहे। शर्मा जी का दृढ़ विचार था कि एक सीमा तक मौन धारण करना घर के कलह को कम करने में सहायक होता है।

कमली को इस बात का पता न चले कि उसकी वजह से घर में कलह मच रहा है, इस स्थिति के प्रति वे सतर्क थे।

एक दिन रवि से ही लड़ बैठी कामाक्षी। 'सारे फसाद की जड़ तू ही है।'

'मैंने क्या किया है, अम्मा! अगर मौसी खुद ही गयी हैं, तो कौन क्या कर सकता है? कमली तो तुम्हें भगवान की तरह पूजती है। तुम उसे गालियाँ निकालती हो।'

'हाँ रे, एक यही तो रह गयी है, मुझे पूजने वाली! मैं तो यहाँ रात-दिन घुट रही हूँ। अब जाओ तुम………।'

'तो कहाँ जाऊँ? पेरिस?'

कामाक्षी चली गयी चुपचाप।

कमली की पढ़ाई निर्वाध चलती रही। ध्वनि वक्रोक्ति, ध्वन्यालोक के बारे में कमली शर्मा जी से पूछा करती। शर्मा जी उसकी रुचि और कुशाग्र बुद्धि पर मुग्ध होते।

'अब तो मैं भी भूलता जा रहा हूँ। अच्छा हुआ तुझे पढ़ाने के बहाने मुझे भी सब याद आ रहा है। महान विद्वानों ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि संस्कृत की यह दुर्दशा होगी।'

'कई यूरोपीय भाषाओं की जननी लैटिन का जो हाल हुआ है, वहीं भारत में संस्कृत का भी हुआ है। पुरातन लैटिन भाषा आज धार्मिक संस्थाओं, चौं तक की सीमित रह गयी है इसी तरह संस्कृत भी। पर शोध विद्वानों का कहना है कि संस्कृत, ग्रीक और लैटिन में संस्कृत ही पुरातन भाषा है।'

लैटिन और संस्कृत की यह तुलना शर्मा जी को अच्छी लगी। कमली ने सविस्तार बताया कि किस तरह तीनों ही भाषाओं में अंक उच्चारण सामान है। शर्मा जी को आश्चर्य हुआ। अंग्रेजी के 'वन' को तमिल के 'ओन्स' से जोड़ दिया। रवि ने साल भर के लिए अमेरिकन सेंटर और ब्रीटिश काउन्सिल बाइब्रेरी की सदस्यता ले ली थी। वे लोग कभी पाँच दिन के लिए, कमी दस दिन के लिए मद्रास चले जाते।

ऐसे में शर्मा जी को घर काटने को दौड़ता। कमली और रवि जिन दिनों शंकरमंगलम में थे, एक बार इरैमुहिमणि ने कमली को अपने संगठन में आमंत्रित किया। एक गोष्ठी का आयोजन भी किया गया था। एक फ्रैंच युवती को तमिल में बोलते हुए सुनने के लिये काफी भीड़ इकट्ठी हो गयी थी।

इरैमुडिमणि ने कमली का परिचय देते हुए यह भी बताया कि वह शीघ्र ही शर्मा जी की बहू बनने वाली है। इस अंतर्राष्ट्रीय विवाह के लिये अपने संगठन की ओर से बधाई भी दी।

द्रविड़ परिवार की भाषाओं के बारे में कमली ने एक भाषण दिया। पंद्रह मिनट तक उसने तमिल में ही भाषण दिया। भीड़ आश्चर्यचकित रह गयी। कमली को हार पहनाने के उद्देश्य से महि- लाओं की भीड़ में किसी को आमंत्रित करना चाहा। पर महिलाओं में से कोई मंच तक आने को तैयार नहीं हुई।

अंत में क्षणभर सोचकर इरैमुडिमणि ने हार रवि को पकड़ाकर कहा, 'अब तो बेटा तुम ही पहना दो।' रवि ने भी हँसते हुए कमली को माला पहना दी। सीमावय्यर के प्रचार में अब घी पड़ गया था। इस घटना का उन्होंने खूब दुरुपयोग किया। इरैमुडिमणि और शर्मा दोनों के ऊपर एक साथ गुस्सा निकालने का अच्छा अवसर था, यह! शंकरमंगलम में ही नहीं, आस-पास के गाँवों में भी अफवाह फैला दी।

दो दिन बाद शाम के वक्त रवि को पिछवाड़े में बुलाकर कामाक्षी ने जवाब तलब किया।

'क्यों रे, यह मैं क्या सुन रही हूँ। इरैमुडिमणि के यहाँ गोष्ठी में इतने लोगों के सामने तुमने शर्म ह्या छोड़कर उसे माला पहनायी थी।'

रवि को हँसी आ गयी। पर हँसता तो अम्मा का गुस्सा और भड़क जाता। यही सोचकर बोला, 'औरतों में कोई और तैयार ही नहीं हो रही थी, सो मुझे ही पहनाना पड़ा।'

'सांड सी उम्र हो गयी है। कोई किसी भी लड़की को दिखा कर कह दे, तो क्या माला पहना दोगे?'

'इसमें गलत क्या है, अम्मा?'

'तुमसे बातें करना तो फिजूल है।'

रवि वहाँ से खिसक गया।

इस घटना के दो-तीन दिन बाद दोपहर बारह बजे डाक से दो रजिस्ट्रियाँ मिलीं। एक शर्मा के नाम दूसरी कमली के नाम। शर्मा जी को आश्चर्य हुआ कमली को यहाँ कौन पत्र लिख सकता है?

अपने नाम आये पत्र को पढ़कर शर्मा जी न घबराये, न चौंके। इसकी अपेक्षा उन्होंने की थी।

पर कमली को अपना पत्र पढ़कर बेहद आश्चर्य हुआ। उसकी समझ में कुछ नहीं आया। ऐसा उसने क्या कर दिया है कि आरोप-पत्र रजिस्ट्री से उसे मिले।

पढ़ने के बाद रवि की ओर बढ़ा दिया।

रवि ने उसे पढ़ा, बाऊ का पत्र तो वह पढ़ ही चुका था। दोनों पत्रों का उद्देश्य एक था 'लोका समस्ता सुखिनो भवन्तु', 'सर्वे जना सुखिनो भवन्तु' से प्रार्थना समाप्त करने वाले अपने पड़ोसी को भी सुखी नहीं देख पाते।

आस्तिक जनों की ओर से यह नोटिस भेजा गया था।

वकील के नोटिस में साफ वे ही आरोप लगाये गए थे। जो भास्तिक बुजुर्गों ने लगाए थे। नास्तिक को मठ की जमीन किराये पर उठाना तथा अनाचारी गैर धर्मावलंबियों को घर पर ठहराना।

कमली ने मंदिर में प्रवेश किया था जो आगम को अपवित्र करने वाली तथा आस्तिक जनों की भावनाओं से खिलवाड़ करने वाली सायास कोशिश थी। इसलिए कमली पर कानूनन् कार्यवाही करने की धमकी थी।

रवि ने कमली का पत्र बाऊ को पढ़ा दिया। पढ़ने के बाद दोनों ही पत्र शर्मा जी ने अपने पास रख लिए।

'तुम फिक्र मत करो बिटिया, मैं देख लूँगा।'

कमली के पत्र में मन्दिर को शुद्ध करने का मुआवजा दण्डस्वरूप उसे ही उठाने का आदेश दिया गया था। शर्मा जी समझ गए कि सीमावय्यर ने अपना आखिरी पासा फेंक दिया है। शर्मा जी को विश्वस्त सूत्रों से पता चल गया था। आगजनी वाली घटना में भी सीमावय्यर का ही हाथ था।

'मैं किसी वकील से मिल आऊँ।' रवि ते पूछा।

'नहीं, मैं फिर तुम्हें कहूँगा। वेणुकाका इसमें काफी जानकारी रखते हैं। उनसे पहले मिल लें।'

'ठीक है बाऊ।'

शर्मा जी वेणूकाका के धर चल दिये। उनके आगे बैलगाड़ी से सीमावय्यर जा रहे थे। उन्हें देखते ही सीमावय्यर ने इस तरह हाल चाल पूछा, जैसे इस बीच कुछ घटा ही नहीं।

शर्मा ने भी हँसते हुए प्रत्युत्तर दिया।

'आप बाहर थे, तब सुना आग लग गयी थी। समय ही खराब चल रहा है।'

शर्मा जी को उनका इस तरह गाड़ी में चलते हुए सवाल करना और अपना उत्तर देते हुए चलना अच्छा नहीं लगा।

वे फिर मिलने की बात कहकर गाड़ी के आगे-आगे चलने लगे। एक बदमाश से बदमाश व्यक्ति भी किस तरह अपने को सीधा और नेक प्रदर्शित करना चाहता है। कई बार यह भी होता है कि बदमाश व्यक्ति अपने इस स्वांग में इतना दक्ष होता है, कि जो सचमुच नेक है वे भी झूठे पड़ने लगते हैं।

पता नहीं इस कमली का कैसा पूर्व जन्म का रिश्ता है, हिन्दू धर्म से। मन्दिर जाती है तो श्रद्धा पूर्वक। जबकि इसी संस्कृति में जन्में पने सीमावश्यर को ताश के पत्ते से फुर्सत नहीं मिलती। मन्दिर गये जाने कितने साल हो गए होंगे। पर जो श्रद्धा पूर्वक मन्दिर जाते हैं उन्हें नोटिस जरूर भिजवा देते हैं। इसी विरोधाभास पर ही शर्मा का मन क्षुब्ध होता है।

शर्मा जी जब पहुँचे, बेगुकाका कहीं जाने की तैयारी कर रहे थे।

'कहीं जा रहे हैं क्या! तो मैं फिर आता हूँ।'

'न, कोई जल्दी नहीं है डाकखाने तक जा रहा था। बाद में चला जाऊँगा।'

'हाथ में क्या है, कोई पत्र है क्या?'

शर्मा ने वह पत्र बढ़ा दिये।

'पढ़ लीजिए। मैं इसी के बारे में सलाह लेने आया था।'

'एक तो कमली के नाम है, शायद।'

'हाँ एक मेरे नाम है, एक उसके नाम।'

वेणुकाका ने पत्र पढ़े।

'तो बात यहाँ तक पहुँच गई? किसकी शरारत है यह सब फूस ढेर में आग लगाने पर भी छाती ठंडी नहीं हुई।'

'अब ये तो आप जानते ही हैं। सीमावय्यर गुस्से में जाने क्या-क्या किये जा रहे हैं। गुस्सा तो मुझ पर है न, उस लड़की से कैसा विरोध?'

'तो अब क्या करने का इरादा है?'

'वस, वही तो सलाह लेने आया हूँ।'

'अच्छा किया जो आ गए। इसका कोई जवाब मत देना। इसे उठाकर कोने में फेंको।'

'पर यह तो वकील का नोटिस है, इसका जवाब तो देना होगः न।'

'पहले उन्हें कार्यवाही तो करने दो। फिर देखेंगे।'

'मैं इसका जवाब लिख देता हूँ कि मैंने धर्म के विरुद्ध कोई कार्य नहीं किया है और कमली भी लिख देगी कि वह पूरी श्रद्धा के साथ ही मन्दिर जाती है। यह ठीक नहीं रहेगा क्या?'

'यह तो टंटा मोल लेने के लिए भेजे गये नोटिस हैं। इनको इतनी सम्मान क्यों दिये जा रहे हो। तुम लोग जवाब दो या न दो कार्यवाही तो होनी ही है। तुम्हारे पत्र लिख देने भर से कुछ बदलना तो है नहीं पहले देखते हैं वे क्या कर रहे हैं, फिर करेंगे कुछ।'

'अब आप कह रहे हैं।' तो ठींक है।

'देखो यार, तुम साहस मत छोड़ो। इतने विद्वान हो, बस इन गीदड़ भभकियों में आ गये। यही तो कमी है तुममें। पहले तो आप रवि को यहाँ बुलवाने में हिचक रहे थे। तब मैंने ही आपको हिम्मत दिलाई थी न। अब भी मैं ही कह रहा हूँ, यहाँ तो अब हाल यह हो गया है कि जो डरपोक है पर नेक है, उसे डराओ, पर जो निडर बदमाश है, उससे डरो।'

'आप मेरे भीतर के सात्विक गुण को भय क्यों मान लेते हैं? मैं डरपोक नहीं हूँ। डरपोक होता तो इन दोनों को घर पर न ठहराना। मेरी बीबी ही मेरा विरोध कर रही है। डरपोक होता तो नास्तिक को जमीन किराये पर नहीं देता। यह सही है अपने साहस का ढिंढोरा पीटता नहीं फिरता।'

वेणूकाका ने सिर उठाकर देखा।

'शाबाश, अब हुई न बाल। साहस के बिना ज्ञान का भला क्या मूल्य? वेद का गलत पाठ करने वाले की तुलना में सही दाढ़ी बनाने वाला नाई ही श्रेष्ठ है। भारती ने यही तो कहा है।'

शर्मा जी की बात सुनकर वेणुकाका को लगा, वे सचमुच उन्हें गलत समझ बैठे हैं। उनकी वेशभूषा या आचार व्यवहार भले ही पुरातन हो, पर वे मन से प्रगतिशील हैं।'

'अब इसका जबाब मत देना। शाम को रवि से कहना कमली को मन्दिर ले जाए।' सबकी बातें उन्होंने शर्मा जी के कान में कही।

'इससे क्या लाभ होगा?'

'क्यों नहीं होगा, इस रसीद ले लेना। इसे कल परसों पर भत टालना। आज ही निपटा लेना।

'ठीक है, तो चलूँ।' शर्मा उठ गये। वेणुंकाका ने शर्मा जी को उत्साह के साथ विदा कर दिया।

शाम शर्मा जी ने रवि को बुलाकर कहा, 'रवि आज कमली को मन्दिर लिया जाना वहाँ अर्द्ध मंडप के पास चंदे वाला बैठा होगा। पांच सौ रुपये कमली के हाथ से दिलवा देना और रसीद ले आना।'

'तो हुँडी में डलवा देंगे बाऊ। रसीद की क्या जरूरत?'

'नहीं रसीद चाहिए, कमली के नाम की। ले आना।'

रवि कमली को लेकर मन्दिर गया। हिन्दू स्त्री की तरह कमली हाथों में पूजा की सामग्री लेकर उसके साथ मन्दिर हो आयी।

XXX

एक स्त्री और पुरुष बिना किसी रिस्ते के साथ-साथ रहने लगें इसे शंकरमंगलम जैसा। भारतीय गाँव बहुत दिनों तक नहीं पचा सकता। जिस पर वह विदेशी युवती हो तो फिर अफवाहों की तो कोई सीमा ही नहीं रहती। न ही उन अफवाहों में कोई शालीनता होती है। अफवाह फैलाने वाले भी ऐसी शालीनता का ध्यान नहीं रखते। साधारण से साधारण घटनाओं को विकृत कर देखा जाता है।

रवि और कमली के बारे में कुछ खुसुर-पुसुर फैली हुई थी पर उसका आधार नहीं था। पर इरैमुडिमणि की गोष्ठी में भावी बहू के रूप में उसका परिचय करवाया जाना, फिर रवि के हाथ मालार्पण किया जाना, इन तमाम बातों ने अफवाहों को तूल दे डाला था।

शर्मा जी से ही खास लोगों ने इस बारे में सीधे पूछ लिया। शर्मा जानते थे कि बातों को छिपाने की भादत देशिकामणि में नहीं है। पर उन्होंने निश्चय किया कि इस सन्दर्भ में भी इरैमुडिमणि से बातें करेंगे।

कमली और रवि को मन्दिर भिजवाकर शर्मा नी इरैमुडिमणि से मिलने निकले।

पहले दुकान गए। वहाँ वह नहीं मिले। दामाद ही बैठा था। उसी ने बताया कि वे लकड़ी टाल में ही हैं।

दुकान में काफी भीड़ थी। साफ लग रहा था कि सीमावय्यर के प्रचार का कोई असर नहीं हुआ। अच्छी चीजें और सही दामों की वजह से दुकान चल निकली थी। ग्राहकों के प्रति विनम्र भाव से इरैमुडिमणि का दामाद पेश आता था―

शर्मा जी ने औपचारिकतावश पूछ लिया। 'कैसी चल रही है।'

'बढ़िया चल रही।' शर्मा जी वहाँ से रैमुडिमणि के पास पहुँचे। ट्रक से लकड़ियाँ उतर रही थीं।

'देशिकामणि, अकेले में बातें करनी है। यहाँ तो भीड़ है। घाट पर चलें।'

'बस दस मिनट बैठ जाओ। अभी निपटा देंगे।'

दस ही मिनट में इरैमुडिमणि लौट आए। दोनों बतियाते हुए घाट तक पहुँच गए। इरैमुडिमणि को एक जगह बिठाकर शर्मा ने संध्या बंदन समाप्त किया।

इरैमुडिमणि उनके लौटने की प्रतीक्षा करते रहे। आते ही शर्मा ने बात शुरू की, 'कमली को और मुझे वकील का नोटिस भिजवाया गया है। मैंने यह बात वेणुकाका और तुम्हें ही बतायी है।'

'कैसा नोटिस? किसने भिजवाया है?'

'किसका नाम लें। यहीं के लोग हैं। मेरे बारे में और कमली के मंदिर प्रवेश के बारे में उन्हें शिकायतें हैं।'

'एक बात कहूँ यार, तुम्हारी जात बाले जलने के सिवा कुछ नहीं करते। अब तो मंदिर में जाने वाले ही कम होते जा रहे हैं। जो लोग श्रद्धा के साथ जा रहे हैं, उन्हें तुम्हारे ही लोग रोकने लगे हैं। लगता है, मेरे संगठन का काम अब ये लोग करने लगेंगे।'

'सीमावय्यर ही फसाद की जड़ है। सामने मिलो, तो इतने प्यार से बातें करेंगे कि बस! पीठ पीछे ये सारी करतुतें, लोगों को भड़काना………।'

'बह तो मरेगा कुत्ते की मौत। संपोले की तरह घूम रहा है गाँव में। (इस उसको भड़काने के अलावा आता भी है कुछ! हमारी दुकान को बंद करवाना चाहा। नहीं बना। लोग तो माल देखते हैं)। आदमी को थोड़े न देखते हैं।'

'इस नोटिस में यह भी एक आरोप है।'

'अच्छा? यार, पहले मालूम होता तो मैं तुमसे माँगता ही नहीं। तुमने किराये पर उठाने की बात कही थी, सोचा हम ही क्यों न ले लें।'

'तुमने मांगा और मैंने दिलवाया गलती दोनों की नहीं है। सब नीति नियम के अनुसार ही हुआ है। अहमद अली को जगह दिलवायी जा सकती है तो तुम्हें क्यों नहीं।'

'मन्दिर और भगवान को न मानने वाले नास्तिक से मन्दिर की मूर्तियों को चुराकर बेचने वाले उन्हें बेहतर लगते होंगे। सीमावय्यर को बोतल, सेंट, विदेशी समान भी देता है न।

'सो ठीक है। तुमने गोष्ठी में यह क्या कह दिया? मेरी भावी बहू के रूप में उसका परिचय करवाया था क्या?'

'हाँ' कहा था। गलत कहा क्या? काहे मरे जा रहे हो। वो तो रवि ने खुद मुझसे कहा था कि सूरज भले ही पश्चिम में उगने लगे, वह इसके अलावा किसी के साथ विवाह नहीं करेगा। वह लड़की भी रवि को ही नहीं, हमारे यहाँ की सांस्कृतिक आचार व्यवहार को प्यार करती है। अन्धविश्वासों को भी मानती हैं। हमारे यहाँ गोष्ठी में हम वन्दना वगैरह तो करते नहीं। उस दिन उस लड़की ने जानते हो क्या किया?

गणेश वन्दना के बाद ही गोष्ठी की शुरुआत की था। हमारे संगठन वालों को यह अच्छा नहीं लगा होगा। पर तमिल में इतना सुन्दर भाषण दिया कि वे लोग शिकायत भूल ही गये। एकाध सोगों ने टोका था। मैंने तो कह दिया, कि उसका अपना विश्वास है। तुम्हारे यहाँ ब्राह्मणों में इतनी पढ़ी लिखी ऐसी प्रतिभा- शाली लड़की नहीं मिलेगी। उसका रंग ही नहीं स्वभाव भी सोने सा है। मुझसे तो कुछ छिपाते नहीं बनता।'

'जब बातें समय के पहले सामने आ जाएँ तो अफवाहों को जन्म देती हैं। कुछ बातें भले ही सच हों, उन्हें घटित होने में कुछ वक्त लग सकता है। पहले घट जाएँ तो गर्भपात वाली स्थिति हो जाती है।'

'ठीक है, पर गर्भवती होने की बात छिपाये नहीं छिपती न।

शर्मा हँस पड़े। इरैमुडिमणि का तर्क कठोर था। आगे विवाद नहीं घसीटा। इरैमुडिमणि ने आगे कहा, 'यहीं नहीं, विश्वेश्वर! भैय्या जी ने एक बात और कही है। एक दिन हम दोनों यहीं बैठे बातें कर रहे थे। तब मन खोलकर कई बातें कही। वह लड़की अँगूठी बदलने वाला विवाह नहीं चाहती। यहाँ की तरह शास्त्र सम्मत विवाह करना चाहती है। मैंने कहा, यह तो पागलपन है। यहाँ हम लोग चार दिन के विवाह को एक दिन में समेट रहे हैं। रजिस्टर्ड शादियाँ करवाने लगे हैं और यह पड़ी लिखी लड़की इतने पिछड़े विचार की है? मैंने भैय्या जी को छेड़ा था। तब बोले कि वह जिद कर रही अपने पिता से इसके लिये काफी पैसे मांग कर लायी है।'

'लोगों की बात जाने दो देशिकामणि। यह कामाक्षी ऐसा होने ही नहीं देगी।'

'उसका मन तो तुम्हें बदलना होगा। एक की जिद के लिये किसी की जिंदगी खराब करोगे?'

'वकील नोटिस का क्या करें?'

'धमका रहे हैं, साले। कचहरी में निपट लेंगे। तुम डरना मत।'

'वणुकाका के सुझाव की बात बताई।'

'अच्छा सुझाव है। तुम उत्तर मत देना। मामला अदालत में आने दो, देखते हैं।'

काफी देर तक बातें करते रहे। अंधेरा घिर आया था। इसलिये लौट आये। इरैमुडिमणि अपनी दुकान में रह गये। शर्मा जी का मन हल्का हो गया था। दोस्त से बातचीत के बाद तमाम चिताएं दूर होने लगी थीं। शर्मा जी घर लौटे तो पार्वती दीप जला रही थी। कामाक्षी शायद पड़ोस में गयी थी। पार्वती का श्लोक पाठ खत्म हो गया तो उसे बुलाया, 'पारू इधर बाना बिटिया।' एक जरूरी काम हैं। भगवान के आगे पर्ची डाल रहा हूँ। तुम ध्यान करके एक पर्ची निकालना।'

पार्वती ने वैसा ही किया। शर्मा जी ने पर्ची खोंली―उनका चेहरा खिल गया।

'बाऊ बात बनेगी या नहीं'

'बनी है, बिटिया।' उन्होंने पर्ची को आँखों से लगा लिया। किसी के सीढ़ियाँ चढ़ने की आवाज आयी। पार्वती ने बाहर झांक कर देखा।

'बाऊ जी, भैय्या और कमली आ रहे हैं, मंदिर से।'

कमली के माथे पर भभुत और कुंकुम लगा था। शर्मा जी के पास आयी और उन्हें कागज को पुड़िया में बँधी भभूति, कुंकुम और बेल के पत्ते बढ़ा दिये। रवि को डर लग रहा था। कहीं बाऊजी कमली के हाथों से प्रसाद लेने से इन्कार न कर दें। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

शर्मा जी ने प्रसाद ले लिया। कमली के हाथों से थाली लेकर उसे आंखों से लगाया और प्रसाद ले लिया। रवि को जैसे विश्वास नहीं हुआ।

'चंदा दे दिया था। रसीद भी मिल गयी। ये लीजिये बाऊ जी।' रवि ने रसीद उनको दिखाया।

कमली ऊपर चली गयी। रवि उसके पीछे जाने लगा तो शर्मा ने रोक लिया 'तुम ठहो, तुम से कुछ बातें करनी हैं।' उसके कान में कहा, 'अभी आया बाऊ, बस एक मिनट।' रवि ने उनसे कहा और सीढ़ियाँ चढ़ गया। इस क्षण शर्मा का मन बिल्कुल साफ था। पूर्णज्ञानी की अवस्था में पहुँच गये थे वे। इसलिये उनकी निश्छल मुसकान लौट आयी थी। रवि की प्रतीक्षा में पेपर पेंसिल लिए बैठे रहे मन में जैसे कुछ निश्चय कर लिया था।

रवि के मन में एक नामालूम सी खुशी थी। बाऊ का उसे बुला- कर मन्दिर जाने को कहना, फिर कमली के हाथों से प्रसाद लेना, फिर उससे बातें करने की इच्छा जाहिर करना―उसे लगा, एक अच्छी शुरुआत है।

कमली के हाथ से प्रसाद लेने की इस उदारता से वह अभिभूत हो उठा था। कमली से बाऊ की इस उदारता की चर्चा करते हुये बोला, 'इसी जगह अगर माँ होती तो एक महाभारत हो जाता। पर बाऊ तो बाऊ ही हैं।' वह सीढ़ियाँ उतरने लगा, तो कमली ने कहा, 'देख लीजिये एक दिन आपकी माँ भी इसी तरह मेरे हाथ से प्रसाद लेगी। और आप लोग भी उसे देखेंगे।'

'पिछवाड़े चलें!' रवि ने पूछा।

'न, यहाँ तीसरा कौन है? यहीं ओसारे पर बैठ जाते हैं।'

बाऊ के हाथों में पँचांग, एक कागज और कलम था।

बह बात उनके मुँह से ही सुनना चाहता था। बचपन में पाठ कंठस्थ करते वक्त जिस तरह बैठा करता था। उसी तरह हाथ बांध- कर बैठ गया।

'क्यों रे, क्या है, तेरे मन में? तुम्हें पहले मुझे बताना चाहिये न, गैर लोग आकर मुझे बताएँ, भला कैसा लगता है। एक छोटी सी बात में तुम इतने असभ्य कब से हो गये?'

रवि को समझ में कुछ नहीं आया। वह तो मन में उत्तर तैयार कर रहा था कि शर्मा जी और आगे बोले, 'बात तो मुझे तय करनी है। तुम देशिकामणिं से कहो या वेणूकाका से क्या फायदा?'

'ठीक कहते हैं, बाऊ। हमने तो आपका मित्र समझ कर ही पूछा था।'

'मैंने तो तय कर लिया। तुम्हारी अम्मा से लेकर गाँव वालों को, कमली के बारे में, उसके यहाँ रहने के बारे में, कुछ नहीं बता पा रहा हूँ। स्वामखाह अफवाहों को ही बल मिल रहा है। ऐसे में मुझे लगता है, कि लोगों का मुँह बन्द करने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि तुम दोनों का शास्त्र सम्मत विवाह कर दिया जाय। तुमने आते ही मुझसे पूछा था। पर अब मैं खुद तैयार हूँ।'

रवि को विश्वास नहीं हुआ था क्या सचमुच बाऊ ही है, उसे शक हुआ।

'सच बाऊ?' वह उत्साह में चीखा।

'तो क्या? मैं क्या मजाक कर रहा हूँ? इस माह के अन्त में एक मुहूर्त निकल रहा है। पर उसके माता पिता यहां नहीं हैं , उसका कन्यादान कौन करेगा।'

'केवल देंगे, तो उसके माँ बाप आ जायेंगे। पर इस मुहूर्त में तो उनका आ पाना असम्भव है। वेणुकाका से पूछ लें?'

'क्यों, उनसे भी पहले ही बातें कर ली। सभी तैयारी हो गयी है क्या?'

'न सोचा पूछ लें, शायद वे मान जाएँ।'

'चलो उनसे पूछ लो।'

'मैं कहाँ जाऊँगा, बाऊ जी, आपकी बात वे काटेंगे नहीं। पर अगर मेरा आना जरूरी है तो आऊँगा।'

'अरे यूँ ही आ जाओ। तुम्हें कुछ बोलना नहीं है। मैं खुद ही उनसे पूछ लूँगा।'

उन्हें लगा, रवि साथ आते शरमा रहा है। पर उनकी बात टाल नहीं सका। इस मामले में बात की रुचि और जल्दबाजी ने उसे हक्का- बक्का कर दिया था।

इसकी सुखद अनुभूति से वह उभर नहीं पाया। रास्ते भर बाऊ से वह कुछ बोल भी नहीं पाया। घर की सीढ़ियाँ उत्तरे तो एक सुहागन पानी का कलशा लिये सामने से आती दिख गयी। 'शगुन तो बहुत अच्छा है।' शर्मा ने कहा―

वे लोग पहुँचे तो वेणुकाका ओसारे पर ही बैठे थे। उनके पास वे एक थाल में फल-फूल, पान-सुपारी कच्ची इलायची के गुच्छे रखे थे। वेणुकाका उत्साह में थे।

'आइये, हमारे एस्टेट के मैनेजर अपने नये घर का गृह प्रवेश कर रहे हैं। अभी आये थे बुलौवा दे गये। क्या हुआ? बाप-बेटे एक साथ कैसे आ गये? इसे भी कोई नोटिस मिल गया है क्या?'

'नहीं! मन्दिर के लिये, अपने कहे के अनुसार बन्दा दिलवा दिया हैं। रसीद भी ले ली है?'

'शाबाश, फिर?'

कहते हैं 'शुभस्य शीघ्रम्।' यहाँ फैलती अफवाहों को देख सुन- कर अब मैंने भी जिद पकड़ ली है। बस आपको एक मदद करनी होगी। इस गाँव में आपकी तरह मदद करने वाला और कोई नहीं है।'

'क्या बात है, इतनी लम्बी भूमिका क्यों बांधी जा रही हैं?'

बात क्या है, पहले बताओ तो!

शर्मा जी ने किसी तरह हकलाते हुये बात पूरी की।

यह सुनते ही वेणुकाका भागे-भागे भीतर गये और मुट्ठी भर चीनी ले आये, शर्मा जी के मुँह में चीनी डाल दी। उनकी खुशी जैसे फूटी पड़ रही थी।

'बसंती को तार अभी किये देता हूँ। तुम फिक्र मत करना। जब कमली का कन्यादान मुझे करना है, तो उसका मायका यही हुआ न।' शादी इसी घर में होगी। 'लग्न पत्र' मण्डप की तैयारियाँ शुरू करता हूँ।'

'अपनी घरवाली से और पूछ लेते....।'

'क्या पूछूँ उसे कह दूँगा कि बसंती की तरह यह भी अपनी बिटिया है। इसका कन्यादान हमें ही करना है। मेरे पास वेदी पर आकर बैठ जाओ। वह कोई ना-नुकुर नहीं करेगी, जानता हूँ। यह दिक्कत तो तुम्हारे घर पर है तुम्हारी पत्नी मण्डप में आयेगी भी या नहीं?'

'उसके बारे में क्या कहूँ, पर हाँ मुझे तो नहीं लगता की वह आयेगी।'

'कोई बात नहीं। जो जिंद में अड़े रहते हैं, दुनिया उनके लिये नहीं रुकती। बीस-तीस साल पहले जब अपनी शादी हुई थी तो जितने भी अनुष्ठान उसमें हुये थे, सब करेंगे। मेरे ऊपर छोड़ दो। सब कुछ मैं देख लूँगा। तुम तो समधी हो। मैं तो लड़की वाला हूँ न। तुम बस विवाह पर आ जाना। बाकी मैं देख लूँगा।'

'तो क्या मैं फिक्र करना छोड़ दूँ। यह आम शादियों की तरह तो है नहीं। चार दिनों के अनुष्ठान के लिये पण्डित कहाँ से मिलें। सीमावय्यर उन्हें भी धमका कर रखेंगे। कहेंये यह शास्त्र सम्मत विवाह नहीं है। तो क्या कर लेंगे? खैर दिक्कतें आये भी तो कोई बात नहीं सम्हाल लूँगा।'

'उसकी कोई जरूरत नहीं है यार। आज तो अधिकांश पंडित और वैदिक ब्राह्मम शास्त्र और सन्त्रों को अच्छी कीमत पर बेच ही रहे हैं। दस रुपये की अतिरिक्त दक्षिणा दे देना तो देखना, सीमावय्यर के घर के पण्डित ही भागे चले आयेंगे।'

'ये यूरोपीय बड़े मजेदार लोग हैं। अपने पिताजी से कहकर इन अनुण्ठानों के लिये स्पये माँग कर लायी है। तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं। कमली से ही ले लेंगे।'

'बको मत यार। मुझे कौन सी परेशानी होनी है। इस तरह के तो दासियों विवाह मैं कर डालूँ। भगवान का दिया इतना कुछ है। मेरी एक और बिटिया होती तो क्या उसके लिये खर्च नहीं करता?'

'बात वह नहीं है, मुझे गलत मत समझना। कमली इसे कहीं बुरे अर्थों में न ले ले। इसलिये उसके ट्रैवलर्स चेक को मैं कैश करबा लेता हूँ।' रवि ने बीच में टोका।

'वाह! पहली बार तो ऐसा दामाद मिला है, जो लड़की के बाप से खर्च नहीं करवाना चाहता।' वेणुकाका रवि को देखकर हँस पड़े।

शर्मा या रवि ने उस वक्त देणुकाका को बातों का विरोध नहीं किया। बसंती के लिए रवि के माध्यम से ही तार दिलवा दिया।

'यह मत सोचना शादी के पहले ही दामाद से काम लेने लगा हूँ। जब विवाह शास्त्र सम्मत ढंग से हो रहा है, तो कायदा यही कहता है कि कमली यहाँ आकर रहे। उसके लिए साथ की भी तो जरूरत है। इसलिए बसंती को तो बुलवाना पड़ेगा। वह यहाँ रहेगी तो अच्छा लगेगा। उसे तो इस विवाह में बहुत रुचि है।'

रवि निकल गया।

'शर्मा, सच यार, मैं बेहद खुश हूँ। इतनी खुशी कभी नहीं रही। तिलक के लिए तुम शुभ मुहूर्त निकलवा लेना।

‘खुशा तो मैं भी हूँ यार। पर हिचक भी है एक ओर यह काम आवश्यक भी है दूसरी ओर लोगों का मुँह बन्द करने के लिए यही एक तरीका मेरी समझ में आया था। पर इसमें भी कई दिक्कतें आयेंगी.....।’

‘दिक्कत क्या आयेगी। मैं तो हूँ न, देख लूँगा।’

‘तुम तो क्या तुम्हारा निर्माता ब्रह्मा ही चले आएँ तब भी मेरी पत्नी का मन नहीं बदल सकतें। बात उसे मालूम हो जाए, तो खा जाएगी मुझे।’

‘उसे समझा बुझाकर देखो शर्मा। तुम्हारी घर वाली क्या तुमसे भी अधिक कर्मकांडी है।’

‘हो न हो, पर जिद्दी बहुत है। अक्ल हो तो कार्य और कारण पर विचार करें। पर जिद्दी और अड़ियल लोग किसी पर भी विचार नहीं करते।’

‘रवि से ही कहीं न, बात कर ले।’

‘वह तो किसी के कहे नहीं मानेगी। वह उसकी सोच है। उसे अपनी ही तरह, परदेवाली बहू चाहिए। जो कम पढ़ी लिखी हो और उसके वश में बनी रहे।’

‘शादी तो बेटे को करनी है, उसे नहीं। बेटा जहाँ नौकरी कर रहा है, वहाँ का माहौल जैसा है, वैसी ही तो बीबी उसे चाहिए। हमारे यहाँ के यह ढोंग किसे चाहिए। यह तो भाग्य की बात है कि उसे लड़कों की अच्छी मिल गयी। हम बीच में क्यों पड़े।’

किमली तो विनम्र भी हैं, पढ़ी लिखी भी। हमारे यहाँ की पढ़ी लिखी लड़कियों भी शायद ही इतनी विनम्र हों।’

शर्मा, तुम दो दिन सब कर लो। बसंत को आने दो। वह बात करके देख लेगी। हो सकता है वह प्लेन में ही चली आवे। इतनी जल्दबाजी कर रही थी, वह तो।’ *‘मुझे तो लगता है, कि काम अपने से ही मानेगी। किसी के कहने पर मान जाए, मुझे नहीं लगता।’

रवि तार देकर लौट रहा था।

वेणुकाका ने रवि से पूछा’ ‘एक्सप्रेस दिया है, या सादा.......।

‘एक्सप्रेस ही दिया है, सुबह तक मिल जाएगा।’

‘शर्मा जी पंचांग साथ ही थामे थे, इसलिए मंडप, तिलक के लिए भी मुहूर्त निकालने का अनुरोध किया गया।’

शर्मा जी ने पंचांग पलटकर तिथि निश्चित की।

‘आज तो इतनी खुशी हो रही है कि बस खीर खिलाने का मन हो रहा है। यहीं खाना बनेगा?’

बेणुकाका ने बहुत आग्रह किया।

‘आज रहने दो। तिलक वाले दिन खा लेंगे। तुम्हारे यहाँ का खाना कहाँ भगा जा रहा है।’ शर्मा जी लौट आए।

लौटते में दोनों में कोई बातचीत नहीं हुई। फिर भी शर्मा जी वेणुकाका की तारीफ करते हुए चले आ रहे थे। बहुत अच्छे इन्सान हैं। मदद करना हो तो हमेशा हाजिर। मदद करने की भावना के साथ-साथ साहस्र का होना और वही दात है। लोग बड़ा मदद तो कर देंगे पर ऐसे कामों में जहाँ साहस की जरूरत होगी, पीछे हटेंगे। पर वेणुकाका में यह बात नहीं.....।

रवि जैसे उनकी बातों को मौन स्वीकार कर रहा था। जब तक तैयारियाँ पूरी न हों, बात को छिपाय रखने का आश्वासन एक दूसरे को दिया। कामाक्षी से बातें करने का जिम्मा बसन्ती पर छोड़ दिया गया। उस रात कमली से रवि ने इस बात का जिक्र किया।

अगले दिन सुबह को डाक से मठ के मैनेजर का एक पत्र आया। वकील के नोटिस की प्रतिलिपि शायद वहाँ भी भेजी गयी थी। कुछ गुमनाम पत्र भी वहाँ पहुँच गए थे। श्रीमक के मैनेजर ते उन पर ध्यान दो नहीं दिया पर हाँ यह सुझाव जरूर दिया था कि शर्मा जी रवि और उस फ्रेंच युवती के साथ आचार्य जी के दर्शन करने आएं। उनके पत्र से लगा जैसे बह दर्शन ही उनके लिए परीक्षा की वह बड़ी थी जिसके उत्तीर्ण होने या अनुत्तीर्ण होने पर उनकी भावी जिंदगी प्रभावित होगी। शर्मा बी समझ गए कि यह पत्र आचार्य जी की इच्छा पर ही लिखा गया होगा।

रवि को पन देते हुए बोले, 'उसे लेकर एक बार हो आओ आचार्य जी का आशिर्वाद मिल जायेगा।'

रवि मान गया। पर हौले से पूछ लिया, 'लोगों के पत्र पर ही मठवानों ने वहाँ आने को लिखा है। पता नहीं वहाँ क्या हो? वे बुला रहे हैं, आप भिजवा रहे हैं। हम लोग यही सोच कर जा रहे हैं, कि महाज्ञानी पूर्ण दृष्टि वाले पुण्यात्मा के दर्शन होंगे। इसमें कोई कठिनाई तो नहीं होगी।'

'कुछ नहीं होगा। हो आओ! उनका आशिर्वाद ले आओ।'

सोचने का या यात्रा की तैयारी का वक्त नहीं था। उसी दिन दोपहर वाली गाड़ी से निकल पड़े। अगले दिन सुबह साढ़े पाँच बजे ही वहाँ पहुँच गए।

श्रीमठ और पुरातन मन्दिरों के दर्शनार्थ आने वाले भक्त जनों और यात्रियों के लिए शहर में कुछ अच्छे लाँज और होटल बने हुए थे। उन्हीं में से एक जगह ठहर गए। नहा धो कर तैयार हो गये।

होटल मैनेजर ने बताया कि यह शहर से तीन चार किलो- मीटर दूर अमराई में आचार्य जो ठहरे हैं। चतुर्मास होने की वजह से वे मौन व्रत में हैं। केवल संकेतों में ही बातें करते हैं।

भीड़ के पहले जल्दी निकल जाएँ तो दर्शन आराम से हो सकते हैं। उसने स्वयं एक टैक्सी का प्रबन्ध कर लिया।

कमलो ने बंधेज की सूती साड़ी पहन रखी थी। माथे पर टीका और गीले बालों का जूड़ा बना लिया था। गोरा रंग, नीली आँखें और भूरे बाल न होते तो वह एक भारतीय स्त्री ही लगती। एकाध डायरियाँ उसने हाथ में रख ली।

रवि ने जरी के किनारे की धोती, उत्तरीय पहन लिया था। फलों की दुकान पर रुक कर उसने फल और तुलसी की माला ले ली।

पूर्व दिशा लाल होनी लगी थी, कि दोनों निकल पड़े इतनी सुबह की यह यात्रा उन्हें बहुत पवित्र और निश्छल लगी। मन और देह शांत थे।

इतनी सुबह भी अमराई के बाहर चार पाँच टूरिस्ट बसें, दस बारह कारें, कुछ इक्के वाले खड़े थे। अमराई के बीचोंबीच तालाब के किनारे एक पर्णशाला बनी थी जिसमें वे ठहरे थे। अगरुगंध, कपूर और चंदन की मिली जुली महक वहाँ फैली हुई थी। कई पुरुष और स्त्रियाँ दर्शनार्थ खड़े थे।

रबि कमली के साथ श्रीमठ के संचालक के पास गया। उन्होंने उनका स्वागत किया और कुशल क्षेम पूछ लिया। सहसा कमली को देखकर बोले, 'आपको संस्कृत के शास्त्रों से और भारतीय संस्कृति के प्रति इतना लगाव है, यह सुनकर आचार्य जी को बहुत प्रसन्नता हुई।

कमलो और रवि को पहली बार एहसास हुआ कि उनके बारे में पहले ही चर्चा की जा चुकी है।

उन्होंने कमली को बताया कि कि वे चतुर्मास व्रत में हैं। संकेतों से ही बातें करेंगे। वकील के नोटिस के बारे में या उन गुम- नाम पत्रों के बारे में कोई बातचीत नहीं हुई।

दर्शनार्थियों की भीड़ में वे भी शामिल हो गये। एक यूरोपीय युवती को भारतीय परिधान में वहाँ आया देखकर बाकी लोगों की जिज्ञासा फैल गयी। कुछ ने रवि से पूछ लिया, कुछ लोगों ने कमली से पूछा। पर कमली ने तमिल में ही उत्तर दिया। कमली के आस-पास महिलाओं की भीड़ लग गयी। वहाँ के लोगों ने बताया कि आचार्य जी जाप कर रहे हैं। पर्ण- शाला लौटने पर दर्शन होंगे।

सुबह खिल आयी थी। पक्षियों की चहचहाहट फैल रही थी। श्री- मठ के संचालक उनके पास आए।

'आप लोग सीढ़ियों के पास जाएँ। आचार्य जी के पास जाकर बैठें। बातें वहीं हो जाएँगी। दोनों वहीं पहुँचे। अब वे सीढ़ियों पर ही बैठे थे। उन्हें देखकर लगा कि जैसे तालाब में खिले कई कमलों में से एक कमल सीढ़ियों पर आकर बैठ गया है। पूर्व में सूर्योदय हो रहा था। सीढ़ियों पर बैठा ज्ञान का सूर्य उसका स्वागत कर रहा था। उनके पैरों के पास फलों की थाल रखकर रवि और कमली ने साष्टांग प्रणाम किया।

उनका दायाँ हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठ गया। रवि ने आद- तन यह सोचकर अपना परिचय देना चाहा कि शायद है पहचान न पाये हों।

शंकरमंगलम विश्वेश्वर शर्मा के……………

उन्होंने मुस्कराकर हाथ से संकेत किया और बैठने को कहा। कमली ने एक पृष्ठ खोल लिया और उनके चेहरे को ध्यान से देख ने लगी। उसी तरह प्रसन्न मुद्रा में उन्होंने उसे पढ़ने का संकेत किया।

कमली ने कहा, 'मेरा जो थोड़ा बहुत ज्ञान है, उसके आधार पर कनक धारा स्तोत्र 'सौन्दर्य लहरी' का फेंच में मैंने अनुवाद किया है। आप सुनेंगे तो कृपा होगी।' वे मुस्कराये। उन आँखों में ज्ञान और करुणा का अवाह सागर था। उसने पहले संस्कृत में पढ़ा और फिर फ्रेंच अनुवाद पढ़ा।

रवि उन दोनों के बीच पवित्र साक्षी की तरह बैठा हुआ था।

सीढ़ियों के ऊपर भक्तों की भीड़ लग गयी। एक यूरोपीय युवती द्वारा 'सौन्दर्य लहरी' को स्पष्ट उच्चारण, फिर उसका फ्रेंच अनुवाद सुनकर भीड़ ठगी सी खड़ी रह गयी। उनके लिए यह अभूतपूर्व अनुभव था।

एकाध जगह फिर से पढ़ने का संकेत किया। वह उनके संकेत करने पर रोक लेना चाहती थी पर वे तो सुनते ही चले गये। समय का किसी को ध्यान नहीं रहा। सौन्दर्य लहरी और 'कनक धारा स्तोत्र' समाप्त करने पर उसके पृष्ठ बंद कर लिया। आचार्य जी ने संकेत से पूछा, 'कुछ और काम चल रहा है?' कमली संकेत समझ गयी, 'भजगोबिन्दम' का अनुवाद कर रही हूँ।' मुँह पर हथेली रखकर बात करने की उस विनम्रता पर सब मुग्ध हो रहे थे।

आचार्य जी ने संकेत किया, कि 'भजगोबिन्द' से भी एकाध अनु- बाद सुना दे। 'पुनरपि जनमें पुनरपि मरणम् पुनरपि जननी जठरे शयनम्' का फ्रेंच अनुवाद सुनाया।

आश्चर्य की बात यह थी कि उन्होंने संकेत से जो कुछ कहा, कमली को उसे समझने में कहीं गलती नहीं हुई।

महात्मा अपने विचारों को वगैर शब्द के ही दूसरों को समझा सकते हैं शब्द और कान इनका उपयोग तो अज्ञानियों के लिए हैं। महात्मा इन दोनों माध्यमों के बिना ही अपने विचारों का सम्प्रेषण कर देते हैं।

बहुत देर के बाद उनकी दृष्टि रवि पर गयी। अपने विनम्र भाव से अपने और कमली के विषय में कुछ सूचनाएँ दीं। फ्रांस में भारतीय भाषाओं के छात्रों के विषय में बताया। कमली की विशेषताओं का जिक्र किया।

फलों के थाल में से एक अनार, सेव और तुलसी की माला आचार्य ने उठायी। रवि के हाथ में सेव और कमली के हाथ में अनार रख दोनों को आशीर्वाद दिया। साष्टांग प्रणाम करके वे लोटने लगे थे कि कमली ने सहसा अपना फोटोग्राफ उनके सामने कर दिया। रवि चौंक गया। ऐसी कोई प्रथा यहाँ प्रचलित नहीं है। पता नहीं, आचार्य जी विगड़ जाएँ तो। पर उन्होंने मुस्कराते हुए कुंकुम और अक्षत को पृष्ठ पर बिखेर दिया। फिर आने का संकेत भी किया।

रवि ने उपर आकर घड़ी देखी। पौने ग्यारह हो रहे थे। अमराई में अभी धूप नहीं पसरी थी। मैनेजर प्रसाद और प्रकाशित पुस्तकें ले आए।

बोले, 'आचार्य जी कलम उठाकर हस्ताक्षर कभी नहीं करते पर इनके ऊपर उनकी कृपा रही, इसलिए अक्षत और कुमकुम उस पर बिखेर दिया। इसके पहले कइयों ने इस तरह माँगे हैं। तब वे संकेत से उन्हें जाने को कह देते। पर आज पहली बार हँस कर अक्षत कुमकुम बिखेर दिया। आप सचमुच भाग्यशाली हैं।' वे लोग लौटने लगे तो बोले, 'जब सौन्दर्य लहरी कनकधारा स्तोत्र फ्रेंच में अनूदित कर छप जाये तो एक प्रति जरूर भिजवाएँ।'

रवि और कमली होटल में कॉफी पी रहे थें। तो मठ का चपरावी एक बड़ा लिफाफा उन्हें दे गया। लिफाफे पर बाऊ का नाम था।

XXX

घर लौटते हुए उनका मन सन्तुष्ट था। आचार्य जी ने कोई सवाल नहीं किया। कोई बात नहीं पूछी। उन्हें आशीर्वाद भिजवाया था। उनकी उदारता, उनकी करुणा का ध्यान आते ही, वे सिहर उठे। उसी दिन बसन्ती भी बम्बई से लौटी थी। आते ही पहला काम यही किया कि कमली को असबाब समेत घर ले गयी। चार दिनों वाले विवाह के बाद ही उसे इस घर में प्रवेश करना है, यह तय हुआ था। तब तक उसे बेणुकाका के घर ही रहना है। जब से रवि श्रीमठ से लौटा है अम्मा के व्यवहार में एक खास परिवर्तन देखा कि उसमें और बाऊ से बातचीत एकदम बन्द कर दी थी। वे लोग अपने से बातें करते भी तो जवाब न देकर मुँह घुमा कर चल देती।

'जब से तुम मठ गये हो यही हाल है। वेणुकाका और मेरी बात इसके कानों तक जाने कैसे पहुँच गयी।' रवि को भी लगा, यही हुआ होगा। बसंती उससे बातें कर लें, तो उसके गुस्से का कारण पता चल जाये। उसी दिन शाम तय भी किया गया कि बसंती कामाक्षी से बात कर रे। श्री मठ के मैनेजर ने शर्मा जी को लिखा था कि आचार्य जी में किस तरह इन दोनों को स्नेह दिया। शर्मा को लगा, यह पत्र कामाक्षी को पढ़ा दिया जाए। खुद पढ़ें या रवि इसे पढ़कर सुनाएँ तो यह समझेगी, कि यह जान बूझकर पढ़ा गया होगा। पत्र को इसलिए पार्वती और कुमार के हाथ भिजवा दिया। वे जल्दी ही लौट आए।

'अम्मा ने तो पथ को छूने से भी मना कर दिया।'

शर्मा की हिम्मत नहीं पड़ी कि खुद जाकर दें। अंत में बसंती के हाथ उस पत्र को कामाक्षी तक पहुँचाना तय हुआ। रवि और कमली यहाँ नहीं थे। तन उसके कानों खबर लग गयी थी। चीस चिल्लाहट मचायी थी। जाने क्या-क्या कह डाला था। क्या-क्या पूछ डाला था। शर्मा यह बात रवि, कमली से छिपा गये। उनका मन दुखी हो जाएगा। कानाक्षी को रक्तचाप को बीमारी है। घर पर उसकी सलाह के बिना, उसकी स्वीकृति के बिना, की जाने वाली तमाम तैयारियों ने उसे भीतर तक हिला दिया था। वह शरीर और मन दोनों से अस्वस्थ थी। कुमार से कहकर नारियल के बांण वाली खाट भी डलवायी, पर नहीं मानी। कच्ची फर्श पर लेटती। न खाना, न पीना। एकदम दुबली हो गयी थी। उस शाम बसंती के आने के वक्त रवि या खुद वह वहाँ नहीं रहेंगे――यह उन्होंने तय कर लिया था। योजना के अनुसार वे घाट चले गये। रवि इरैमुडिमणि के पास चला गया। कुमार परीक्षा की तैयारी कर रहा था, पार्वती घर के काम कर रही थी।

बसंती जब भी बंबई से आती, छुहारे, किसमिश, काजू लाती। पूजन के लिये इन चीजों को अक्सर जरूरत होती।

बसंती शाम को आयी।

'क्या हुआ काकी। इतनी दुबली कैसे हो गयी।'

'आओ बिटिया, कब आयी?'

'सुबह आयी थी आपकी चीजें भी याद से लायी हूँ।'

'शादी में आया हो न।'

बसंती उनके स्वर से भाप नहीं पायी कि वे उसे सहज ढंग से पूँछ रही हैं या व्यंग्य में।'

'आप क्या समझती हैं, काकी, यहाँ आने के लिये बहाना चाहिए।'

'मैं तो आती जाती रहती हूँ।'

थोड़ी देर मौन छा गया। कामाक्षी का मौन आगे नहीं खिंच पाया।

अनर्गल बातें शुरू कर दी―'जैसे पुरुष अग्नि की उपासना करते हैं और उसे सदा प्रज्वलित रखते हैं, इस परिवार की औरतें पीढ़ियों से तुलसी का पूजन करती आयी हैं। इस परिवार को प्राप्त सौभाग्य लक्ष्मी की कृपा और श्रीदृष्टि―इस शारीरिक और आतंरिक शुद्धि से की गयी तुलसी पूजा का ही परिणाम है। दस पीढ़ियों के हाथों चला आ रहा या दीया इस परिवार की सुख शांति और संस्कृति की रक्षा करता है। कहते हैं, कई पीढ़ियों पहले रानी मंगम्मा एक व्रत नियम वाली ब्राह्मणी की तलाश में दीपक लिये भटकती रही थी। अंत में वह दीया इसी परिवार की एक बहू को दे डाला था। तब से इस परिवार की स्त्रियों को पीढ़ी दर पीढ़ी इस दीप को प्रज्वलित करने की योग्यता मिलती है। आजतक मैं उस दीपक को तुलनी चौरा में प्रज्वलित करती हूँ।'

इतना कहकर अपने सिरहाने से एक पेटी खींची और रेशमी कपड़े में लिपटा छोटा सा दीपदान उसके समीप कर दिया।

'मैं इस घर की नयी बहू बनकर आयी तो मेरी सास ने मुझे दिया।'

इतना कहती हुई रुक गयी। 'आप चिंता क्यों करती हैं? आप भी अपनी सास की तरह अपनी बड़ी बहू को इसको दे दीजिए।'

'कुमार की शादी होगी और उसकी पत्नी इस घर के योग्य हुई तो उसे दूँगी।'

'क्यों आपकी बड़ी बहू में क्या खराबी है?'

'चुप करो। उसके बारे में, रवि के बारे में मुझसे बातें मत करो। मेरी तो छात्री में आग लगी है।'

मैं आचार न नेम, पता नहीं किस देश से घसीट कर ले आया है और कहता है, इसी से विवाह होगा। और यह ब्राह्मण महाराज भी, उसकी हाँ में हो मिलाए जा रहे हैं। मुझे तो कुछ और अच्छा नहीं लग रहा। सर्वनाश होने वाला है। वह तो एक-दो महीने में उसे लेकर चला जाएगा। हमारे जमाने में बहू लक्ष्मी की तरह घर की रोशनी हुआ करती थी। पर ये? जाने कहाँ से आई है, और जाते हुए यहाँ से लड़के को भी ले जाएगी। इसे मैं लक्ष्मी कैसे कह दूँ।'

'काकी, तुम चाहे जो कहो, पर कमलो को आचार नेम से शून्य मत कहना। हमारे घरानों की लड़कियों की तुलना में कमली को तो बहुत कुछ आता है। हमारे यहाँ की लड़कियों को नहीं पाता जितना वह जानती हैं। ऐसा नहीं होता तो आचार्य जी स्वयं उसे बुलाकर आशीर्वाद नहीं देते। उसने फ्रेंच में सौन्दर्य लहरों और कनक धारा स्तोत्र का जो अनुवाद किया है, उसे सुनकर आचार्य जो प्रसन्न हो गए। यह कितनी बड़ी बात है। काकू को उन्होंने एक लंबा सा पत्र लिखा है। सुनेंगी आप।'

रहने दो। मैनेजर साहब को तो सोमावव्यर से पड़ती नहीं है। सीमावय्यर ने जो धाँधलेबाजी की, उसके बाद ही इन्हें उत्तरदायित्व किया गया। तब यही मैनेजर थे। अपने ब्राह्मण महाराज के दोस्त हैं न इसलिए लिख दिया होगा। अरे मैं तो कहूँ, कहीं खुद उन्हें न लिख दिया हो, कि भई ऐसा लिख देना! क्या पता किया भी हो।'

बसंती की समझ में नहीं आया वह उन्हें कैसे समझाये। काकी को एक ही चिंता थी कि बेटा उस फ्रेंच औरत के साथ हमेशा के लिये उनसे दूर हो जाएगा। काकी को उसने सविस्तार बताया कि कैसे करोड़पति पिता की इकलौती बेटी रवि के भरोसे यहाँ आयी है। काको ने कोई विरोध नहीं किया। शांत सुनती रही, यह अच्छा हुआ।

'अरे, हमें सब पता है तुम्हारी, रवि, बाऊ, सबकी इसमें मिली भागत है। सबने मिलकर मुझे उल्लू बनाया। मुझे तो मालूम था कि तुम इस बारे में मुझसे बातें करोगी।'

'मै कुछ गलत कह रही है, काकी। जो सच है वही तो कह रही हूँ। कमली बहुत बच्छी लड़की है।'

'तो होगी। हमें क्या? लास सोने का मूला हो, तो कोई आँखें तो नहीं फोड़ लेगा।'

'आप पर तो, उसकी अपार श्रद्धा है काकी। आपको तो भार- तीय संस्कृति के प्रतिमूर्ति कहती है।'

'हो, कह रही होगी, कि मैं पुरातन पंथी हूँ, क्यों?

'हाय राम! ऐसा नहीं है काकी। वह तो मज़ाक तक नहीं करती! वह आपको देवी मानती है।'

'पर मुझे वह अच्छी नहीं लगती।'

'पर काकी, आप ऐसा. मत कहिए। आपको तो काका के साथ मंडप में आना है। कन्यादान लेना हैं। हम लोग तो लड़की वाले है।'

'ऐसी बेमतलब की शादी और तिस पर लड़की वाले और लड़के वाले, हुँह ।'

'काकी, आप तो बड़ी हैं, बुजुर्ग हैं इस मंगल बेला में अशुभ क्यों बोल रही हो आपको समझाने की या कुछ कहने की औकाव ही कहाँ।' *'तुम ही बताओ जिस विवाह के लिए लड़के की माँ राजी न हो, उसे बुलानें का क्या तुक?'

'आप को आना है, आपके आशीर्वाद के बिना कैसे कुछ हो सकता है।' 'मैं काहे आऊँगी। तुमने क्या समझ रखा है। मेरी कोई इज्जत नहीं है। इन्होंने इतना कुछ कर डाला पर मेरे कानों तक खबर नहीं होने दी। तिलक और मंडप का दिन भी सुना, तय कर लिया गया है। तुम किसे बना रही हो? मैं तो इस विवाह में आऊँगी ही नहीं। कोई किसी से ब्याह करे, मेरा क्या।'

काकी के इस क्रोध का दूसरा पक्ष भी बसंती को समझ में आ रहा था। रवि के प्रति उनका अगाध स्नेह, अपने एक बहुत प्रिय विषय के सन्दर्भ में काकी ने कितनी नफरत पाल ली थी। पर उस घृणा और क्रोध के पीछे छिपी उनकी अनुरक्ति बसन्ती ने बेहद कोशिश की, कि काकी का मन पिघल जाए किसी तरह। पर उसे सफलता नहीं मिली। आस पास के गाँव की लड़की से विवाह करता तो माता पिता, गाँव देश से उसका नाता बना रहता। पर कमली से ब्याह करके कहीं वह फ्रांस ही न बस जाए, यह आशंका ही काकी को हिलाए जा रही थी। बसन्ती को ऐसा ही कुछ लग रहा था। अंतिम कोशिश उसने फिर की। 'शादी चार दिनों की होगी। सारे अनुष्ठान होंगे।'

'कितनी बातों में तो तुम लोगों ने शान के विपरीत काम किया हैं। अब इसमें नेम अनुष्ठान क्या बचा है। क्यों, उनके यहाँ के रिवाज के अनुसार अगूठियाँ बदल लेते न।'

काकी के स्वर में कड़ वाहट थी।

अपने बड़े बेटे को एक विदेशी युवती अपने से अलग कर ले जाएगी। इसकी कड़वाहट काकी में थी। बसंती ने कितनी कोशिश की, पर कामाक्षी मन नहीं पिघला तो नहीं पिघला। विद पकड़ ली थी उन्होंने। स्वास्थ्य ठीक रहता तो सूर्योदय के पहले घाट जाकर नहा आती पर उन्हें किसके माध्यम से सारी बातों को पता चल रही थी। यह वसंती की समझ में नहीं आया। पार्वती ने ही बताया कि मीनाक्षी दादी सारी खबर रखती है और वही परोसती है।

पार्वती ने ही बताया कि मीनाक्षी दादी अम्मा को भड़काती रही, कि यदि घर की स्त्री जिद पकड़ ले तो पुरुष अकेला क्या कर लेगा? बसंती को लगा इस तरह की अज्ञानी ईष्या और जिद रखने वाली बूढ़ी औरतें ही गाँव की राजनीति खेलती हैं। शादियों को रुकवाना, परस्पर वैमनस्य पैदा करना, अफवाहें फैलाना, पीठ पीछे बुरा कहना, कान भरना, बूढ़ी औरतों के पास यही काम बच रहा है। कुछ जरूर ऐसी हैं जो इन बुराइयों से दूर रहती हैं। पर कितनी कम हैं वे संख्या में। वसंती ने शर्मा जी को आकर सूचना दी। पर रवि और कमली से कुछ नहीं कहा। उन्हें किसी तरह की घबराहट तक नहीं देना चाहती थी।

जहाँ तक वेणुकाका का प्रश्न था। काकी को इस जिद का उन पर कोई असर नहीं पड़ा। वे विवाह की तैयारियों में लगे थे। नादस्वरम तथा अन्य तैयारियाँ की जा रही थीं।

इन सबसे सीमावय्यर का क्रोध और भड़क उठा था। आग में घी पड़ने वाली एक घटना भी घट गयी थी, सीमावय्यर उसमें बुरी तरह फंस गए।

शंकरमंगलम के अंतोनी प्राथमिक पाठशाला की अध्यापिका मलरकोटि स्कूल से लौट रही थी कि सीमावय्यर ने अकेले में आकर हाथ खींच लिया। उनके एकाध नौकर भी बाग में थे। इसलिए उनकी हिम्मत और बढ़ गयी थी। अहमद अली की दी हुई विदेशी शराब भी पी रखी थी। सीमावय्यर के बाग में रात में चलने वाले पंपसेट के लिए एक सीमेंट की कोठरी बनी थी। उन के पीने पिलाने और रास लीला के लिए इसका खास उपयोग होता था। ये सारे कर्म वे घर में नहीं करते। बाग चूँकि गाँव से कुछ दूर पड़ता था, इसलिए सुविधा रहती थी। मलरकोडि पर उनकी आँखें कई दिनों से थीं। उस रात उन्होंने फिर अकेले में छेड़ा तो वह चीखी चिल्लाई। पीछे ही इरैमुडिमणि के संगठन के कार्यकर्त्ता आ रहे थे। उन्होंने सीमावय्वर को रंगे हाथों पकड़ लिया और नारियल के पेड़ से बाँध दिया। इरैमुडिमणि को कहलवाया गया और वे पुलिस को खबर कर आए। सीमावय्यर के नौकर इन लोगों का सामना नहीं कर पाए और उन लोगों ने अहमद अली को खबर पहुँचाई। पैसे का सारा खेल खेल लिया गया, पुलिस समय पर नहीं पहुँची। पर सीमावय्यर को छुड़ाने के लिए अहमद अली ने किराये के गुण्डों की एक छोटी सी फौज ही भेज दी थी, अंधेरा घिरते ही उन लोगों ने सीमावय्यर को छुड़ाया था।

फिर वहाँ जो मार काट मची, उसमें इरैमुडिमणि और उनके कुछ साथियों को हँसिए के गहरे घाव लगे। इससे पहले कि पुलिस पहुँचे, गुंडे भाग लिए।

सीमावय्यर बच कर भागे ही नहीं बल्कि उन्होंने दो तीन साक्ष्य भी तैयार कर लिए जिन्होंने यह प्रमाणित कर दिया कि घटना के वक्त सीमावय्यर शिव मंदिर में थे।

पुलिस वालों ने इरैमुडिमणि और संगठन के कार्यकर्ताओं के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया कि वे उन लोगों ने सीमावव्यर के बाग में जवरन प्रवेश कर वहाँ उत्पात मचाया। इरैमुडिमणि के बायें कंधे पर गहरा घाव था। शंकरमंगलम के अस्पताल में भर्ती थे। अस्पताल पहुँ- चने में देर हो गयो काफी खून निकल गया था। खबर लगते ही शर्मा, रवि, कमली, घबराये हुए अस्पताल पहुँचे। इरैमुहिमणि का परिवार और वह उनके मित्र वहाँ जमा थे। खून दिया जाना था। कई लोग आगे आये पर किसी का खून उनके खून से नहीं मिल पाया।

डॉ॰ ने शर्मा को देखा।

'मेरा भी खून जाँच लीजिए।' शर्मा जी ने सहर्ष कहा। शर्मा जी का खून उसी ग्रुप का था। अगले दिन सुबह इरैमुडिमणि होश में आए। शर्मा जी को छेड़ते हुए बोले, 'हमारे संगठन के आदमी घबरा रहे हैं, कि मैं ठीक होने के बाद आस्तिक बन जाऊँगा। सुना है खून तुमने दिया है।' पास ही में खड़े एक कार्यकर्ता ने कहा, 'एक बाँमन ने अपना खून बहाया था, दूसरे ने उसको खून देकर बचाया।' इरैमुडिमणि ने उसे धुरा। 'देखो! तुम बाहर रहो, मैं फिर बुलाऊँगा।'

शर्मा भी तुरन्त बोले, 'उन पर क्यों बिगड़ रहे हो। ठीक ही तो कहा है, उन्होंने।' पर व कार्यकर्त्ता जा चुका था। इरैमुडिमणि बोले, 'देख, सीमावय्यर ने कैसे बात पत्तट दी। हम पर उलटा आरोप लगा दिया कि उनके बाग में हम लोगों ने घुस कर उत्पात मचाया है। उस मरदुए ने तो साबित कर दिया कि वे उस समय शिव मंदिर में पूजा कर रहे थें। देखा, अपनें पर पड़ी तो भगवान को साक्षी बना डाला।'

'साक्षी जो भी हो। पर अन्याय करने वालों का विनाश निश्चित है।'

'पर कहाँ हुआ, विश्वेश्वर? देखो न, हम लोग पड़े हैं अस्पताल में। वहाँ तो चार पैसे वाले कानून पुलिस सबको खरीद लेते हैं।'

'ठीक कहते हो, आज ईश्वर पर विश्वास करने वालों की तुलना में सुविधा भोगी लोगों की संख्या अधिक है। मेहनत और ईमानदारी से कोई काम नहीं करना चाहता। नेक और ईमानदार बनने को अपेक्षा नेक और ईमानदार दिखने में लोग ज्यादा विश्वास करने लगे हैं। वेद पाठ करने वाले झूठ भी बोलने लगे हैं। सीमावय्यर अव ईश्वर से ज्यादा अहमद अली के रुपयों पर भरोसा करने लगे हैं।

'पर जहाँ तक मेरा प्रश्न है। जो दूसरों को धोखा नहीं देता, मेहनत और ईमानदारी से जीता है, छल-कपट से दूर रहता है, वही सच्चा आस्तिक है। जो दूसरों को धोखा देकर, छल-कपट से कमाता है। मेहनत नहीं करता है। ऐसे व्यक्ति को मैं नास्तिक ही मानूँगा।

'यह तो तुम्हारा कहना है न। लोगों की नजरों में तो सीमावय्यर आस्तिक है और मैं नास्तिक।

'ऐसा चाहे जो सोचे पर मैं तुम्हारे बारे में कतई नहीं सोच सकता।'

'तुम नहीं सोचोगे यार, यह मैं जानता हूँ।'

दोनों देर तक भीगे हुए खड़े रहे थे। इरैमुडिमणि को दस दिनों तक अस्पताल में रहना पड़ा। शर्मा उनसे मिलने रोज आते। एक दिन अस्पताल से लौट रहे थे कि रास्ते में सीमावय्यर के मित्र पंडित जी मिले। शर्मा कतराकर निकलना चाहते थे पर उन्होंने शर्मा को जबरन रोक लिया और कुशल क्षेम पूछने लगे।

'कहाँ से आ रहे हैं।'

'मेरा एक खास दोस्त अस्पताल में पड़ा है उसी से मिलकर आ रहा हूँ।'

'कौन? वही परचून वाला न! साला नास्तिक है। ईश्वर के खिलाफ बोलता है, न उसी की सजा भुगत रहा है।'

शर्मा जलभुन गए। ईश्वर के कृत्यों को इस तरह तोड़ मरोड़ कर देखने की प्रवृत्ति कितनी ओछी है। ऐसा आस्तिक किसी नास्तिक से कम नहीं होता। ईश्वर निन्दा तो इसका एक प्रकार है। जब व्यक्ति सोचें कि हमारे दुश्मनों के घर ईश्वर गाज गिराए। हमारे खिलाफ बोलने वालों का सर्वनाश हो। यदि यह सही है, तो क्या ईश्वर को भी क्षुद्र राजनीतिज्ञों को जमात में हम नहीं ले आते? सच पर तिल- मिलाने वाले, पद के उन्माद में झूमने वाले अहंकारी राजनीतिज्ञ की तरह। शास्त्री जी ने वेंदाध्यान किया है।

उपनिषद् पढ़ रखे हैं, पर कैसी बात कह दी है। शर्मा जी को घृणा होने लगी। इनको तुलना में वेदों को पढ़कर उन्हें उनके सही अर्थों के साथ जोड़कर देखने वाले इरैमुडिमणि अधिक विवेकशील लगे।

शर्मा ने भीतर की खीझ दबाते हुए कहा, 'यदि हम आपकी बात ही मान लें, तो क्या इसका मतलब यह हुआ ईश्वर भी आम लोगों की तरह स्वार्थी है। अपने खिलाफ बोलने वालों को दंडित करता है; क्यों?'

'और नहीं तो क्या? भई, ईश्वर कब तक सहे।'

शार्मा जी को शास्त्री जी के मन्दबुद्धि पर तरस आ गया। वे फिर वोले, 'ईश्वर तो स्वयं लोगों के लिये सरल शीलता का उदाहरण है। हम सहनशील व्यक्ति को देवता की उपाधि देते हैं। मेरे लिए तो ईश्वर क्षुद्र स्वार्थी कतई नहीं हो सकता।'

'आप यह क्या कह रहे हैं? उसके साथ मिल बैठकर आप भी उनकी तरह बातें करने लगे हैं।'

'नहीं, 'यह बात नहीं कई बार आस्तिक भी अपनी अज्ञता में ईश्वर का अपमान कर देते हैं। वह भी एक प्रकार से निंदा ही है आपने अब जो कहा है, वह भी कुछ ऐसा ही है।

हमारा द्वेष, हमारा अज्ञनाता, हमारे भीतर बदले की भावना सब कुछ इस ईश्वर पर आरोपित कर लेते हैं और कह देते हैं कि ईश्वर सर्वनाश करेगा, कितनी मूर्खता है, कभी सोचा है आपने। आपने तो वेद उपनिषद का पाठ किया है, क्या लाभ हुआ भला बताइये।

शर्मा जी नहीं चाहते थे, फिर भी उनके वाक्य में कड़वाहट घुल गयी। शास्त्री ने शर्मा की बातों का कोई उत्तर नहीं दिया और गुस्से में पैर पटकते हुए सीमावय्यर के ओसारे पर जा पहुँचे। वहाँ पंचायती लोगों की गोष्ठी जमी हुई थी। इनके पहुँचने के पहले भी वहाँ शर्मा विरोधी चर्चा ही चल रही थी। सीमावय्बर सबको मुफ्त में पान पेशकर रहे थे और इस शर्मा विरोधी अभियान को उत्साहित कर रहे थे।

शास्त्री ने आकर पूरी बात बतायी तो सीमावय्यर का उत्साह और बढ़ गया। मेरे बाग में पम्पलेट के मोटर को चुराने की योजना थी उस इरैमुडिमणि की। अच्छा हुआ बटाई वाले वक्त पर पहुँच गये और यह शर्मा उसकी तरफदारी कर रहा है। इसकी तो मति मारी गयी है। क्या करे बेचारे। उनके ऊपर मार भी तो कैसी पड़ी है। लड़का एक फ्रेंचन को घसीट लाया। अब उसका ब्याह करना पड़ रहा है। सुना है, चार दिन का शास्त्र सम्मत विवाह होगा। और कैसा शास्त्र? सारा अनाचार कर डाला और शास्त्र का सहारा लिया जा रहा है।'

'यही नहीं, अस्पताल में पड़े उस नास्तिक को खून दिया है!'

'अरे इसके बाबा भी सरग से आ जाएँ तब भी वह नासपीटा नहीं बचेगा। अहमद अली की दुश्मनी मोल ले रखी है। मियां तो करोड़- पति है यह परचून वाला उसकी बराबरी करेगा?'

'पर मैंने तो सुना है कि उसकी दुकान चल निकली है। कहते हैं, दाम वाजिब है और चीजें भी साफ।'

'यह तो चालाकी है। कुछ दिन लोगों को आकर्षित करना है ना, पर इसकी असलियत तो आगे ही खुलेगी' सीमावय्यर ने बात काट दी। इरैमुडिमणि या शर्मा इन दोनों के बारे में लोगों के मन में थोड़ी सी भी जगह न बने इस संदर्भ में बेहद सतर्क थे। इरैमुडिमणि की दुकान की तारीफ उन्हें फूटी आँखें नहीं सूहा रही थी। शर्मा और इरैमुडिमणि को कोर्ट तक पीट कर मुकदमे का खर्चा स्वयं उठा लेने का आश्वासन―अहमद अली ने दिया था।

शर्मा जी ने उन्हें जमीन नहीं दी, यह अहमद अली की नाराजगी का कारण था। व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता ने इरैमुडिमणि के खिलाफ कर दिया था। लिहाजा शर्मा और इरैमुडिमणि को परेशान करने के लिये वे रुपये खर्च करने को तैयार थे।

कमली और रवि के विवाह की तैयारियाँ चल रही थीं तभी कोर्ट से कमली और शर्मा के नाम सम्मन जारी किये गये। कमली के मन्दिर प्रवेश से भूमिनाथपुरम और शंकरमंगलम के मन्दिरों की पवित्रता नष्ट हो गयी है, इसलिये पुनः शुद्धिकरण के लिये दस हजार रुपये का दावा किया गया था। उनके अनुसार कमली के मन्दिर प्रवेश से मन्दिर की पवित्रता भ्रष्ट हो गयी है। आस्तिक हिन्दुः अब वहाँ पूजन नहीं कर सकते। कुंभाभिषेक की तैयारियाँ किये जाने की मांग दावेदारों ने की है।

शर्मा और कमली को तारीख भी दे दी गयी है। शर्मा ने वेणुकाका से ही सलाह की। काका शांत रहे।

'देखा, विवाह के एक सप्ताह पहले की तारीख जान बूझकर दी है। कोई बात नहीं। प्रैक्टिस नहीं रही, इसलिये जो पढ़ा भूल गया। पर इस मुकदमें में तुम दोनों का बकील मैं बनूँगा। देख लेना सबके मुँह पर कालिख पोत दूँगा।'

'पर आप क्यों परेशान होंगे? किसी और वकील पर छोड़ देता हूँ, आपको विवाह की तैयारियाँ भी तो करनी है।'

'कुछ नहीं, वह काम भी चलेगा। इस केस में कुछ तर्क हैं। उस पर पहले ही सोचकर रख लिया है, बस पूरे केस को हथेली पर रख- कर फूँक कर उड़ा दूँगा। तुम चिंता मत करना।'

'मेरी बेइज्जती करने के लिये इस बात को अखबारों में दे दिया है।'

कितने केस रोज निपटाये जाते हैं, पर उनकी तो खबर नहीं बनती।

'अरे नहीं यार। यहाँ मामला विदेशी का है वह उनके लिये लिखेंगे―विदेशी का मन्दिर प्रवेश―धर्म भ्रष्ट। ऐसे हथकण्डे अखबारों की बिक्री के लिये जरूरी हैं।

जिन लोगों ने मानहानि का दावा किया है, कुछ तो धर्माधिकारी हैं। हो सकता है, किं पुजारी भी डर के मारे खिलाफ गवाही दे डाले।

'तुम्हें याद है कि उस दिन पुजारी कौन था?'

'जब भी कमली गयी है रवि, बसंती या पारू ही साथ में रहे हैं। उनसे पूछ लेंगे तो पता चल ही जायेगा।'

'यह तुम तुरन्त पता कर लो फिर उन्हें बुलवाकर बातें कर लेते हैं। केस में यह बहुत जरूरी हैं हमारे लिये।'

'ठीक है आज ही पूछकर बता दूँगा। कोई गवाह और भी चाहिये।'

'तुम्हारा संगठन बाला कार्यकर्ता मित्र दे सकेगा।'

'उनकी गवाही से क्या होगा। वह तो इन बातों को मानता ही नहीं।'

'वह तो दूसरी बात है। मैंने तो सुना है, कि उनके यहाँ की गोष्ठी में भी कमली ने पहले गणेश वन्दना से भाषण शुरू किया था। वह उनके सिद्धान्तों के खिलाफ था पर सभ्यता के नाते वे लोग चुप रहे।'

'हाँ―पर इसका केस से क्या सम्बन्ध है?'

'वह तो मुझे देखना है न। वह साथ देंगे।'

'जरूर देंगे। देशिकामणि सच जरूर बोलेगा किसी से नहीं डरता, वह!'

'बस यही काफी है।'

"सीमावय्यर के अन्याय की खामियाँ बह बेचारा भुगत रहा है। अभी लौटा है अस्पताल से।"

'क्या करें शर्मा! भभूत और ईश्वर भक्ति उन्हें अच्छा और नेक होने का प्रमाण पत्र जो दे देती है।'

'यदि निडर और सच्चे मन से कहूँ तो देशिकामणि ही सही मायने में आस्तिक है।' सीमावव्यर को घोर नास्तिक कहा जा सकता है।

'ढोंग करने वालों से बेहतर ही हैं, जो साफ और निष्कपट हैं। सीमावय्यर न तो शास्त्र जानते हैं, न पुराण, न रिवाज। बस ढोंग करते हैं। किसी की बुराई करो, तो उसके बारे में पूरी जानकारी भी होनी चाहिये। उस सिद्धान्त को देशिकामणि ने समझा है। इसलिए तो उसने सारे शास्त्र पढ़ डाले पर, पर उसे देखिए तो कितना विनम्र है।

'मेरी तो इच्छा है, सीमावय्यर को फँसाया जाय और उनसे क्रास सवाल किए जाएँ।'

'वे कहाँ आएँगे? दूसरों को भड़काकर चुप बैठना उनकी आदत है। उन्हें तो दूसरों का नुकसान ही करना है। वही एक काम तो वे जानते हैं। उनकी भक्ति वक्ति तो महज ढोंग है।’

‘कमली के जाने से मंदिर अशुद्ध हो गया है न उनका और इससे पता नहीं चलता कि खुद कैसे हैं?’

‘वैसे इसमें कमली को फिजूल में घसीटा गया है। उनका गुस्सा मेरे और देशिकामणि के ऊपर है। मुझे तंग करना है, सड़क पर लाकर छोड़ना है। सीमावय्यर पहले मठ का काम देखते थे तो अच्छे पैसे बन जाते थे। पर मठ के मैंनेजर को लगा उनसे मठ की प्रतिष्ठा धूमिल पड़ जाएगी। इसलिए मुझे कार्य भार सौंप दिया, तब से और गुस्से में हैं। फिर उन्होंने कोशिश की कि मैं उनकी इच्छा के अनुसार चलूँ। खेत बटाई पर उठाने से लेकर, जमीन किराये पर देने तक। पर मैं नहीं माना। उस पर भी नाराज हैं।’

‘देखो शर्मा सीमावय्यर एक बार विटनेस बाक्स में चढ़ जाएँ तो यह सब एक्सपोज कर दिया जाएगा।’

‘उनका फँसना तो मुश्किल है वे तो पानी के साँप हैं सिर भर बाहर निकालते हैं, हाथ में पत्थर उठाया कि कि नहीं भाग कर छिप जाते हैं।’

‘क्या बढ़िया उदाहरण दिया है। ऐसे ओछे आदमी की तुलना तुम साधारण साँप से भी नहीं करना चाहते। साँप का अपमान जो होगा।’

साधारणतया साँप में खुदारी होती है उसे मारने दौड़ो तो फुंका- रता है, फन उठाता है। काटने भी दौड़ता है।

शर्मा जी ने जिस तरह सीमावय्यर का चित्रण किया, वेणुकाका खूब हँसे। फिर बोले―

‘मंदिर के लिये कमली ने जो चँदा दिया है उसकी रसीद मिल गयी। उसे संभालकर रखा है। क्या लिखा है उसमें याद है?’

‘आस्तिकों! यह आपका पुनीत कार्य है। आप खुशी से दान करें। शायद यही लिखा है। फिर दान देने वालों का नाम उसके नीचे धर्मकर्ता के हस्ताक्षर हैं।’

‘उसे ले आना, याद से।’

‘सुनो, यह लम्बा तो नहीं खिंचेगा। ऐसा न हो कि विवाह की तैयारियाँ न हो पायें।’

‘न मुझे नहीं लगता। उन लोगों ने इसमें जल्दबाजी की है। चूँकि मंदिर के भ्रष्ट होने और उसके शुद्धीकरण का मामला है इसलिये जल्दी ही कार्यवाही करने की इच्छा प्रकट की है, उन्होंने। इसलिये केस की सुनवाई भी जल्दी होगी।’

XXX

कमली के शंकरमंगलम आने के दिन से लेकर, आज तक की सारे घटनाओं तत्संबंधी गवाहों की एक सूची तैयार कर ली। वे लोग, जो उनके काम आ सकते थे, उन लोगों को कहलवा भेजा।

मंदिर के पुजारियों से मिलना तय हुआ। वेणुकाका ने कमली को बुलबा कर कहा, ‘उन लोगों से यहाँ बात करूँगा। जब वे लोग आएँगे, तुम इसी बैठक में कैसेट रिकार्ड आन कर देना और दीया जलाकर श्लोक पढ़ती रहना। या तो चुप हो जाना या उठ कर चली जाना।’

शाम, पुजारी वेणुकाका से मिलने आए। काका बैठक के झूले पर बैठे थे। पास ही में एक ऊँची चौकी पर दीपदान प्रज्वलित किया गया था। चौकी के नीचे कैसेट रिकार्डर था।

‘ओंकार पूविके देवी। बीणा पुस्तक धारिणी। वेदमादः नमस्तु- भ्यम अवैतप्यप्रयच्छ मे।’

कमली ने श्लोक को गुनगुनाया। पुजारीगण भीतर आए तो वेणुकाका और कमली ने उठकर उनका स्वागत किया।

काका ने एक-एक को प्यार से बुलाकर बेंच पर बिठा दिया। उनके कुछ कहने के पहले ही बे लोग बोले। 'यह साक्षात् महालक्ष्मी लगती है। अभी जब यह श्लोक उच्चारण कर रही थी तो मुझे लगा सरस्वती देवी ही यहाँ आ गयी हैं। और हमें इनके खिलाफ कोर्ट में बयान देने को मजबूर किया जा रहा है।'

'अब ऐसा क्या कर दिया है मंदिर में। कौन करवा रहा है यह सब?'

'इसने क्या गलत किया। ऐसा तो सोचना ही पाप है। हमारे और आस्तिकों के तुलना में इन्होंने तो मन्दिर के नियम की पूरी रक्षा की है।'

'अब यही बात आप कोर्ट में आकर बताएँगे?'

'अब वहाँ क्या बताऊँगा, नहीं जानता। पर यह सच है। रोजी रोटी के लिये सीमावय्यर जैसा रटाएगा वैना तो कहना होगा।'

आप हमें गलत नहीं समझें। वे लोग हमें तंग कर रहे हैं। हमारे पास कोई दूसरा रास्ता ही नहीं है।

'बड़े पुजारी दुखी हो रहे थे। शेष दोनों से कुछ सवाल किए और उनके उत्तर भी मिले। फिर बातचीत की दिशा बदल दी।

'हमने आप लोगों को इसलिए नहीं बुलवाया था। यह तीन ब्राह्मणों को वस्त्र धान करना चाहती थी।' वेणुकाका ने कमली को बुलबाया। उसने तीन थालों में―फल, पान, सुपारी और धोती, उत्तरीय का एक सेट उन्हें भेंट में दिया और उनको प्रणाम किया। उन लोगों ने उसे आशीर्वाद दिया। उनके जाने के बाद केसँट को चलाकर देखा। सारा संवाद दर्ज हो गया था। इसी तरह बाकी लोगों से भी बातचीत कर डाली।

XXX

सुनवाई का दिन आ ही गया। उस दिन कचहरी में भीड़ थी, अखबारों ने खूब विज्ञापित कर डाला था।

'प्रतिपक्ष के वकील ने सवाल किया, 'आपने कमली को अपने घर मेहमान के तौर पर ठहराया और शंकरमंगलम के आस पास के हिन्दू मन्दिरों के दर्शन करवाये। क्या यह सच है?'

शर्मा ने स्वीकार किया। कमली को शपथ लेने के लिए बाइबिल दिया गया।

पर उसने गीता मंगवा कर उसे छूकर शपथ लिया।

'आपने हिन्दू मंदिरों के दर्शन किए हैं, सच है।'

कमली ने कहा 'हाँ'।

'इसका मतलब दोनों ने ही अपनी गलती मान ली तो आगे सुन- वाई क्या की जाए। अब तो भी लार्ड बस संप्रेक्षण के लिये कोई रास्ता सुझा दिया जाए।'

तब वेणुकाका कमली और शर्मा जी के वकील की हैसियत से हर वाद का खंडन किया।

सब ज़ज ने उन्हें अपना पक्ष प्रस्तुत करने की अनुमति दी।

'कमली जैसी विदेशी युवती को अपने घर ठहराने तथा उसे मन्दिरों के दर्शन करवाने में कानून क्या गलत है।'

'कमली, विदेशी ही नहीं, वह दूसरे धर्म की है।'

मुझे इस पर एतराज है। कमली दूसरे धर्म की नहीं, उसने कई वर्षों से हिंदू धर्म और हिन्दू संस्कृति को अपना रखा है।

बेणुकाका के इतना कहते ही, प्रतिपक्ष के वकील ने इस बात की पुष्टि के लिए साक्ष्य की मांग की।

वेणुकाका ने साक्ष्य प्रस्तुत करने की अनुमति मांगनी चाही। सबसे पहले शंकरमंगलम सेंट एन्टोनी चर्च के पादरी को बुलवाया गया। पादरी ने बताया कि इस युवती को कभी भी चर्च में आते नहीं देखा। उल्टे इसे साड़ी पहने और कुंकुम का टीका लगाए शिवालयों में देखा है। प्रतिपक्ष के वकील ने पादरी से कुछ सवाल करने चाहे, पर असफल रहे।

इसके बाद रवि ने गवाही दी। फ्रांस के विश्वविद्यालय में किस तरह भारतीय दर्शन के प्रोफेसर की हैसियत से वह कमली से मिला और छात्र के रूप में कमली को भारतीय संस्कृति से कितनी रुचि रही―यह सारी बातें बतायी। इसके बाद अखबार वाला कनैया, फूल वाला माली पंडारम, फलवाला बरदन―सभी ने एकमत से कमली की आस्था की तारीफ की!

एस्टेक्ट के मालिक सारंगपाणि नायडू ने अपनी गवाही में बताया कि किस तरह उसने पहली मुलाकात अष्टाक्षर मन्त्र की विशद चर्चा की। उनकी धारणा थी की क्रमली अपने व्यवहार में पूर्ण रूप से हिन्दू धर्म के प्रति समर्पित है।

प्रतिपक्ष के वकील ने रोककर पूछा, आप कहते हैं कि अष्टाक्षर मन्त्र का अर्थ आप से पूछा था। तो इससे क्या यह नहीं साबित होता कि उसे इस बारे में पहले कोई जानकारी नहीं थी।'

'ऐसा तो मैंने नहीं कहा। उसने मन्त्र की व्याख्या की और यह जानना चाहा कि मैं इस बारे में क्या जानता हूँ।' नायडू बोले। कोर्ट में हँसी फैल गयी।

कमली के भरत नाट्यम के गुरु, कर्नाट संगीत के गुरु ने भी अपनी गवाही में बताया कि उसने उन्हें गुरु का पूरा सम्मान दिया। उसके नियम अनुष्ठानों की प्रशंसा की। उनके अनुसार आम हिन्दुओं की तुलना में उसमें श्रद्धाभाव अधिक है। वह नृत्य यहाँ संगीत सिखने आती है? बाहर ही चप्पल उतार दिया करती है। हाथ पाँव धोकर पूजा घर में मत्था टेककर ही वह पाठ शुरू करती है।

अंतिम साक्ष्य इरैमुडिमणि का था। उन्होंने गीता की सौगन्ध के बजाय, आत्मा की सौगन्ध ली। प्रतिपक्ष के वकील ने ऐसे नास्तिक के साक्ष्य को बेईमानी करार दिया। पर न्यायाधीश का विचार था कि उन्हें अपनी बात कहने की स्वतन्त्रता है।

'हिन्दू संस्कृति के इन तमाम साक्ष्यों से अधिक हिन्दुत्व इस कमली में है।'

हमारे संगठन में जब वह भाषण देने आयी थी, उसने सर्वप्रथम ईश्वर की स्तुति की। उसके बाद ही अपना भाषण प्रारम्भ किया।

वकील बीच में कुछ नहीं पूछ पाए। वेणुकाका ने पूरे मुद्दे को ढंग से रखा और उन्हें समझाते हुए अपना तर्क प्रस्तुत किया।

'हिन्दू आचार अनुष्ठानों को या मन्दिर की पवित्रता को हमारे मुवक्किल से कोई खतरा नहीं है। यह मात्र दर्शन लिए श्रद्धालु की तरह गयी थी। यह पूरा केस उन्हें बदनाम करने की नियत से तैयार किया गया है। यहाँ कानूनन् कुछ भी गलत नहीं हुआ हैं। शुद्धीकरण की कोई भी आवश्यकता नहीं है।

कल और आज भी उन्हीं मन्दिरों में पूजा, भजन बाकायदे किये जा रहे हैं यदि ऐसा कुछ हुआ होता और मन्दिर भ्रष्ट हो गया होता तो इसे तो श्रद्धालुभक्तों के लिए बन्द कर दिया जाना चाहिए था। पर ऐसा नहीं किया गया।

प्रतिपक्ष के वकील ने कुछ कहना चाहा। पर न्यायाधीश ने उसे नहीं माना और काका को आगे कहने का आदेश दिया।

'फिर मेरे मुवक्किल ने इन मन्दिरों, संस्थाओं इनसे जुड़े लोगों के समक्ष अपने को श्रद्धालु साबित किया है। यह रसीद देखिए। शिव मन्दिर के पुननिर्माण के लिए आस्तिक हिन्दुओं से ली जाने वाली रसीद है। यह इसमें मन्दिर के धर्माधिकारी के हस्ताक्षर भी हैं। यह कैसा विरोधाभास है, कि इस मुकदमें को दायर करने वालों में यह धर्माधिकारी भी हैं। यदि मेरे मुवक्किल को मन्दिर में प्रवेश करने की योग्यता नहीं है तो अर्द्धमण्डप तक उन्हें प्रवेश की अनुमति देना फिर उन्हें पाँच सौ रुपये की रसीद भी देना……यह सब क्या है। फिर इस रसीद में देखिये ऊपर क्या लिखा है। हिन्दू आस्तिकों से मन्दिर के लिए उनसे चन्दे की रसीद। जहाँ मतलब पैसे का हो वहाँ आपने उन्हें हिन्दू आस्तिक मान लिया पर जब बात दर्शन की आयी तो आपके लिए ये विधर्मी हो गए। यह कैसा अन्याय है? यहाँ अदालत को यह सूचित कर देना चाहता हूँ कि मेरी मुवक्किल जब मन्दिरदर्शनार्थ गयी थी तब उन्होंने यह दान मन्दिर के निर्माण के लिए दिया था। तब धर्माधिकारी को मन्दिर की पवित्रता भंग होने का विचार क्यों नहीं आया? इतने दिनों के बाद अगर आया है, तो क्या इसके पीछे कोई वजह नहीं हो सकती?

प्रतिपक्ष के वकील ने फिर कुछ कहना चाहा। पर न्यायाधीश ने वेणुकाका को बोलने की अनुमति दी।

बेणुकाका ने अपना पूरा पक्ष प्रस्तुत किया, रसीद भी न्यायाधीश के पास रख दी और बैठ गये। अगले दिन बहस के लिए अदालत स्थगित कर दी गयी।

इस मुकदमें की कार्यवाही को देखने के लिए भूमिनाथपुरम शंकर- मंगलम से कई लोग आए और अदालत से बाहर निकलने पर सभी को पत्रकारों ने घेर लिया और धड़ा-धड़ फोटो खींचने लगे। कई वकीलों ने बेणुकाका की तारीफ की।

सीमावय्यर भी प्रेक्षकों की भीड़ में थे। वहाँ से खिसकने लगे।

'विश्वेश्वर देखो, सब कुछ कर दिया और पानी के सांप की तरह कैसे निकल भागे।' इरैमुडिमणि ने―शर्मा के कानों में कहा। 'पानी का सांप।'

अव सीमावय्यर नम पड़ गया था। कचहरी से लौटते रास्ते में मण्डी में रुकवाकर बेणूकाका ने विवाह के लिए सब्जी वाले को पेशगी दी, तो शर्मा जी ने धीमे से कहा, 'अब केस पहले निपट जाए।'

'केस की चिंता तुम मत करो।' वेणुकाका ने शर्मा को उत्साह से हिलाया।

उनका आत्म विश्वास, साहस और उत्साह, शर्मा के लिए नहीं बाकी लोगों के लिए भी आश्चर्य का विषय था।

XXX

अगले दिन की सुनवाई के दौरान जब प्रतिपक्ष के वकील ने इस मुकदमें की खासियत को मद्देनजर रखते हुए कुछ और साक्ष्यों को प्रस्तुत करने की अनुमति चाही, तो वेणुकाका ने इस पर आपत्ति की। पर न्यायाधीश ने उसकी अनुमति देते हुए कहा, 'उनके गवाहों से आप भी प्रश्न कर सकते हैं तब फिर आप चिंता क्यों करते हैं।

वेणुकाका को हल्का सा आभास हो गया था कि वे किन्हें गवाह के रूप में प्रस्तुत करेंगे। उनको कुछ विश्वास था कि वे अपने तर्कों के बल पर उससे निपट लेंगे।

मुकदमें की कार्यवाही देखने के लिए शर्मा, कमली, रवि, बसंती भी कोर्ट में हाजिर थे। भीड़ पिछले दिन से कुछ ज्यादा ही थी।

पहला गवाह इस तरह प्रस्तुत किया गया था जो कि यह साबित कर सके, कि कमली हिन्दू धार्मिक रिवाजों से अनभिज्ञ है।

शिवमन्दिर के मुख्य द्वार के चौकीदार मुत्तूवेलप्पन ने गवाही दी कि दो तीन माह पहले कमली चप्पल पहने ही मन्दिर के भीतर प्रवेश कर गयी। साफ लगा कि वह जानबूझकर तैयार की गयी गवाही है। वेणुकाका ने अपने प्रश्न किए घटना से सम्बन्धित दिन समय सबकी जानकारी माँगी। उसने उत्तर दिया तो बोले। 'दर्शन के वक्त ये अकेली थी कि साथ में कोई और था।'

'न अकेली थी।'

'तो तुमने अपना कार्य पूरा किया या नहीं। उन्हें रोका क्यों नहीं?'

'मैंने तो रोका था! पर ये मानी नहीं।'

किस भाषा में रोका था? और उन्होंने किस भाषा में उत्तर दिया।'

मैंने तोतमिल में कहा था। इन्होंने पता नहीं किस भाषा में उत्तर दिया।

'उनकी भाषा तुम्हारी समझ में नहीं आयी, तो तुम कैसे कह सकते हो, कि उन्होंने इन्कार किया था।'

'नहीं... वह तमिल में बोली थी।

'पहले तो तुमने बताया कि जाने किस भाषा में बोली थी, और अब कह रहे हो, कि तमिल में बोली है। अब इसमें सच क्या है?'

वे बौखला गये। उत्तर देते नहीं बना। वेणुकाका जाकर अपनी जगह पर बैठ गए। अगले गवाहों से शिव मन्दिर के पुजारी एक-एक कर आए। पहले गवाह थे कैलाश नाथ उम्र कुल अट्ठावन वर्ष, बुजुर्ग। शिवागम का पूर्ण ज्ञान है उन्हें।

गवाह के रूप में उन्होंने, शपथ ली तो शर्मा और वेणुकाका को बेहद तकलीफ हुई, इतने विद्वान व्यक्ति किस तरह झूठी गवाही के लिए तैयार हो गये हैं।

'वह लड़की, हमारे रिवाजों को नहीं जानती ऊपर से उन पर विश्वास भी नहीं करती। मैंने उसे भभूत और बेल पत्र दिये थे उन्होंने पैरों के नीचे उसे डाल कर रौंद दिया।'

वेणुकाका तुरंत बोले, 'पुजारी जी आप यह मन से कह रहे हैं, या किसी के भड़काने पर?'

प्रतिपक्ष के वकील ने इस पर एतराज किया। उनके वाद दो पुजारियों ने लगभग ऐसी ही गवाही दी, कि उसने परिक्रमा गलत ढंग से की। मन्दिर के नियमों का पालन नहीं किया।

'उस वक्त वे अकेली थीं या कोई और था। किस तारीख को किस वक्त यह घटना घटी थी।' बेणुकाका ने तीनों से यही सवाल किया।

तीनों ने एक ही तारीख और समय बताया। और कमली के अकेले ही आने की बात दोहराई।

वेणुकाका सबसे एक सवाल क्यों किए जा रहे हैं। यह प्रतिपक्ष का वकील समझ नहीं पाया। इसके बाद के गवाहियों में भजन मद वाले पद्मनाभ अय्यर, बेदधर्म परिपालन सभा के सचिव, हरिहर गनपाडी, सरपंच मातृभूत्भ, जमींदार स्वामीनाथ। तीनों ने ही एक बात कही। मन्दिर के दूसरे प्राकार मैं―रति मिथुन मूर्ति के नीचे रवि और कमली भी उसी मुद्रा में एक दूसरे से लिपटे चूम रहे थे। इसे दर्शनार्थियों ने भी देखा। ऐसी गन्दी हरकत, वह भी मन्दिर की परि- कमा में करने वाले को सजा मिलनी चाहिये। कुछ और लोगों ने भी इसी घटना का हवाला दिया, इसे सुनकर कमली, रवि, शर्मा और बसंती का खून खौलने लगा। वेणुकाका शांत बने रहे और मुस्कुराते हुए अपनी जिरह प्रारम्भ की फिर वही सवाल किया।

'यह मिथुन मूर्ति किस प्राकार में है?' किस दिन और किस तारीख को यह घटना घटी थी?'

'यह मूर्ति दुसरी परिक्रमा के उत्तरी कोने पर है।' पर वह दिन और समय का उल्लेख नहीं कर पाये।

तुरन्त वेणुकाका ने कहा, 'चौकीदार ने चप्पल वाली जिस घटना का उल्लेख किया है, उसी तारीख को यह घटना या उसके किसी और तारीख को।'

'उसी दिन की यह घटना घटी थी।' तीनों गवाहों ने यह बात दोहराई। अन्तिम गवाही धर्माधिकारी की थी। मन्दिर के लिये कमली द्वारा दिया गया चन्दा, कमली ने स्वयं नहीं दिया, बल्कि उसके नाम पर किसी और ने वह रसीद बनवा ली। ये मान गये कि हस्ताक्षर उनके हैं। वेणुकाका ने तुरन्त कहा, 'क्या यह नियम नहीं बनाया गया था कि दस पांच के बन्दे के अलावा सो या उसके ऊपर के चन्दे की वसूली मन्दिर के भीतर देवालय के दफ्तर में होगी।'

धर्माधिकारी सकपका भये। समझ नहीं पाये कि यह नियम इन्हें कैसे मालूम हो गया। क्योंकि समिति की एक निजी बैठक में यह निर्णय लिया गया। उनकी गवाही झूठी पड़ गयी। साबित हो गया कि कमली के नाम पर बाहर यह धन्दा नहीं जमा किया गया।

तमाम गवाहों को देणुकाका ने झूठा साबित कर दिया। 'अदालत से निवेदन करता हूँ कि पुजारियों ने यहाँ, जो भी गवाही दी है, वह झूठी है, इसको प्रमाणित करने के लिये मैं यह कैसेट चलाता हूँ।' वेणुकाका ने कैसेट आन किया। अदालत ने उसे ध्यान से सुना।

वेणुकाका ने दुबारा उसे चलाया। कमली का श्लोक पाठ और तुरन्त वाद संवाद―यह तो साक्षात् महालक्ष्मी लगती है। अभी जब यह श्लोक उच्चारण कर रही थी मुझे लगा सरस्वती देवी ही यहाँ आ गयी हैं। और हमें इनके खिलाफ कोर्ट में गवाही देने को मजबूर किया जा रहा है।

'हमारे और आस्तिकों की तुलना में इन्होंने मन्दिर के नियमों की पूरी रक्षा की है।'

'कोर्ट में क्या कहूँगा कह नहीं सकता। पर यह सच है। सब जज ने इसे ध्यान से सुना, कुछ नोट किया तीनोंपु जारी हकबका गये!'

'यह आप की ही आवाज है।' काका ने पूछा।

'मेरे घर आप लोगों ने स्वयं आकर बातचीत चलायी थी। क्या यह सच नहीं है।'

वे लोग इन्कार नहीं कर सके।

'विपक्ष के वकील ने लाख समझाने की कोशिश की कि यह इन पुजारियों को धमका कर लिया गया बयान हो सकता है। पर न्याया- धीश नहीं माने। टेप रिकार्डर वाले प्रकरण ने तीनों पुजारियों को चुपा दिया था।

…यहाँ तक कि गवाहों ने भी इसकी अपेक्षा की थी प्रतिपक्ष के वकील का रहा सहा विश्वास भी खत्म हो गया था।

इसके बाद वेणुकाका ने बताया कि उनके मुवक्किल ने फ्रेंच में सौन्दर्य लहरी, कनकधारा स्तोत्र, भजगोबिंदम् का अनुवाद किया है। इसके लिए हिन्दू धर्म चर्चा को प्रशंसा भी प्राप्त ही है इस सम्बन्ध में मठ के मैनेजर का पत्र भी उन्होंने दिखाया। *मिथुन मूर्ति की घटना को वेणूकाका ने झूठा सिद्ध कर दिया। उनके अनुसार चप्पल वाली घटना और मिथुन मूर्ति की घटना एक ही दिन घटी है। तो चौकीदार और पुजारी के बयान के अनुसार तो वह अकेली थी। फिर भिथुन मूर्ति के साथ रवि कहाँ से आया। गवाह एक दूसरे को काट रहे हैं। फिर इन लोगों को मन्दिर में दर्शनार्थ गए सालों हो गये हैं, शायद तभी मिथुन मूर्ति की सही स्थिति वे नहीं बता पाये। दो बार पूछने पर दूसरी परिक्रमा के उत्तरी कोने में इसकी स्थिति पुजारी जी ने बतायी है, तो मैं आप लोगों की सूचना के लिए बता दूँ कि यह तीसरी परिक्रमा में है। इससे साफ जाहिर है कि मेरे मुवक्किल को अपमानित करने के लिए ऐसी घटना गढ़ी गयी है।'

वेणुकाका के इस तर्क को काटते हुए प्रतिपक्ष के वकील ने कहा, 'अब यहाँ मुद्दा यह नहीं है कि घटना किस जगह घटी। मुद्दा यह है कि उन दोनों ने मन्दिर को भ्रष्ट किया।'

वह आगे कुछ नहीं बोल सके। प्रतिपक्ष के वकील ने अंत में अपने ही गवाहों के आधार पर अपनी ही बात दोहराई और मन्दिर के शुद्धी- करण की माँग पर विचार करने का अनुरोध किया।

निर्णय की तिथि सप्ताह भर बाद के लिए स्थगित कर दी गयी।

पर प्रतिपक्ष के वकील का विचार था कि चूँकि मामला मन्दिर के शुद्धीकरण से संबंधित है, इसलिए इसे शीघ्र निपटाया जाना चाहिए। उनके अनुरोध पर तीसरे दिन निर्णय तिथि घोषित कर दी गयी।

अदालत की कार्यवाही स्थगित कर दी गयी।

वेणुकाका बाहर आये तो पुजारियों ने उन्हें घेर लिया। 'यह क्या कर दिया आपने हमने तो आन पर विश्वास करके ही बात की थी। उसे आपने रिकार्ड कर लिया और हमें बेइज्जत कर दिया।' कैलाश नाथ पुजारी ने दीन आवाज में पूछा। 'जो झूठ बोलता है, उसको कहीं भी किसी भी तरह से वेइज्जत किया जा सकता है।' वेणुकाका ने निष्ठुर स्वर में कहा। पुजारी उनके स्वर की कठोरता को बर्दाश्त नहीं कर पाये और चले गए।

रवि ने कहा, जो 'झूठ बोलता है, उसकी अपनी ही जीभ धोखा दे जाती है। उस चौकीदार ने पहले बताया कि कमली ने अंग्रेजी में कुछ कहा था। फिर घबराकर कहने लगा कि तमिल में बोली थी। उन्हें तो पता ही नहीं है कि मिथुन मूर्ति कहाँ है। झूठ भी बोला जाए, ऐसे कि सच लगे। देखा सारे गवाह टांय टाय फिस्स…।'

'अरे यही क्यों, इन आस्तिकों ने तो ईश्वर को साक्षी बनाकर झूठी गवाही दी पर मेरे नास्तिक मित्र ने आत्मा को साक्षी बनाकर सच्ची गवाही दी।' शर्मा जी उस दिन की कार्यवाही से खासतौर पर भजन मन्डली के पद्मनाभ अय्यर के उस झूठे बयान से बेहद दुखी थे। माना उनका गुस्सा शर्मा जी पर था, पर इसके लिए कितने ओछेपन पर उतर गए।

'शर्मा, देखा यार, उन्हें जबरन यहाँ गवाही देने लाया गया था। किस तरह खुद ही अपने खिलाफ होते चले गए।'

वेणुकाका ने कहा। कमली ने कुछ नहीं कहा।

शर्मा जी ने उसे देखा और बोले, 'इसे देख कर, बेटी यह मत सम- झना, कि मेरा देश ही गलत है। यहाँ का शास्त्र, यहाँ का दर्शन जितना ऊँचा है, लोग उतने ऊँचे नहीं उठ पाये। यह हमारी त्रासदी है दरअसल अध्ययन और जीवन में अब कोई मेल नहीं रहा।'

'बाऊ जी, कुछ लोग अज्ञानतावश झूठा कहते हैं, तो इसके लिए देश कहाँ से जिम्मेदार बन जाएगा।' कमली ने कहा।

शर्मा आश्वस्त हो गये।

XXX

घर के लोग अदालत के मामले में उलझे थे, इधर कामाक्षी की हालत बिगड़ती चली गयी। कुमार और पार्वती ही घर पर उनकी देखभाल कर रहे थे। एक पुरजोर गुस्से और जिद में वह लोगों को अपने पास ही नहीं आने दे रही थी। जब से उसे इस बात का पता चल गया कि शर्मा जी उसकी सलाह के बगैर ही कमली और रवि के विवाह की तैयारियों में लगे हैं, तब से कामाक्षी बिस्तर से लग गयी। शर्मा और लोगों की परवाह किए बिना ही, कुमार को अपने मायके भिजवाकर मौसी को बुलवा लिया। कमली चूँकी वेणुकाका के घर रह रही थी इसलिए मौसी को यहाँ रहने में कोई आपत्ति नहीं होगी। यही सोचा था। मीनाक्षी दादी, देख रेख के बहाने अक्सर आ जाती।

शर्मा, रवि या कमली की बातें उठते ही वह तिलमिला जाती और उसका स्वास्थ्य बिगड़ने लगता। यही वजह थी कि कुमार और पारू उनकी बातें ही नहीं करते। हालांकि किसी तरह झगड़ा नहीं हुआ, पर झगड़े की शुरूआत के पूर्व वाला असहज भौन जरूर वहाँ पसर गया था।

कुमार मौसी को गाँव से लिवा लाया। उसी दिन शाम मौसी ने कामाक्षी से पूछ लिया, 'क्यों री कामू, पहले एक फिरंगिन यहाँ रहा करती थी, कहाँ गयी? लौट गयीं या तुम लोगों ने उसे निकाल दिया।'

कामाक्षी ने पहले तो इसे अनसुना कर दिया पर बुढ़िया भी पीछा कहाँ छोड़ने वाली थी।

'जानती हो, काहे पूछ रही हूँ। हमने तो कुछ सुना था। हमारे गाँव से कुछ लोग आचार्य जी के पास गये थे, उन लोगों ने लौट कर बताया कि वह फिरंगिन तुम्हारे बेटे के साथ वहाँ आयी थी। उसने सौन्दर्य लहरी, कनक धारा स्तोत्र, भजगोबिंद का स्पष्ट पाठ किया था और अपनी भाषा में भी उसे सुनाया था। सुना है, आचार्य जी बहुत खुश थे। वे मौन ब्रत में रहे, इसीलिए सुना, कुछ नहीं बोले, पर बहुत प्यार से सुनते रहे, आशीर्वाद भी दिया । पूरा गांव कह रहा है। हम तो हैरान रह गए। आचार्य जी को तो जानते ही हैं हम। वे सबको इस तरह नहीं बिठाते। दो साल पहले, तुम्हारे गाँव के सीमावय्यर ने मठ का रुपया मबन कर लिया था, तब उनके पास क्षमा याचना करने गया था। तो उन्होंने सिर्फ हाथ हिलाकर जाने का संकेत कर दिया था। और वही आचार्य जी इनके प्रति इतना स्नेह दिखाये। कुछ खासियत जरूर है इनमें।' 'हाँ' हमसे भी कहते रहे लोग, पर हम ही नहीं माने। हमने तो सोचा ये ही सब मनगढ़न्त सुना रहे हैं कि हमारा मन बदल जाए। मठ के मैनेजर का पत्र भी पढ़कर सुनाने को कहा, वह भी जिसने नहीं सुना।'

'झूठ नहीं कहा होगा। अरे, हमारे गाँव के लोग तो तारीफ पै तारीफ किए जा रहे हैं। झूठी बात होती तो इतनी तारीफ कैसे होती।'

कामाक्षी सोच में पड़ गयीं। आगे क्या कहे, उसकी समझ में नहीं आया। कमली और रवि की शादी की बात क्या मौसी जानती है? या फिर सिर्फ टोह लेना चाहती है? मौसी ने वही पुराना सवाल दोहराया, 'क्यों री जवाब नहीं दे रही। कहाँ गयी वह फिरंगिन?'

'कहीं नहीं गयी है मौसी। वेणुकाका के घर ठहरी है। उनकी बिटिया बसँती उसकी अच्छी सहेली है। वह भी बम्बई से आयीं हुई है। जो भी हो, यहाँ तो पिंड छूटा।' कामाक्षी ने बातचीत को खत्म करना चाहा। पर मौसी को तो नहीं टाल सकी।

दो दिन बाद मीनाक्षी दादी ने पूछ लिया, 'क्यों री, तूने मुझे बताया ही नहीं। सुना है कोर्ट में केस चल रहा है। सारा गाँव कह रहा है। तुम्हारे मरद ने, तुम्हारे बेटे ने भी गवाही दी है।' मौसी उस वक्त सामने थी, कमली की बात फिर आ गयी। कामाक्षी ने ही पूछा, 'कैसा केस दादी! हमें तो मालूम नहीं। हमें कौन आकर बताता है।'

पता नहीं लोग बता रहे थे कि उसके मन्दिर प्रवेश से मन्दिर भ्रष्ट हो गये हैं, इसलिए उसे पवित्र करना था। सुना है, चप्पल पहने ही मन्दिर चली गयी। बाकी तो हमें नहीं मालूम।

पर कमली चप्पल पहने मन्दिर गयी हो, हमें नहीं विश्वास होता। इस घर में जब तक रही, उसके नेम अनुष्ठान में कोई कमी नहीं देखी हमने। हमारे देश की नहीं है, जाति की नहीं है, हमारे रंग की नहीं है, पर इतना सम्मान, इतनी विनम्र और सुशील है...।'

मीनाक्षी दादी चौंक गयी। क्या सचमुच कामाक्षी है?

'दादी, क्या हुआ? ऐसे क्या देखती हो? शक होने लगा है क्या? अरे, किसी को पसन्द नहीं करते, तो उसके ऊपर झूठे आरोप तो नहीं लगा सकते। कमली से मेरे मन मुटाव के कारण कुछ और हैं। मौसी ने आकर बताया है कि उसके श्लोक पाठ से आचार्य जी भी खुश हुए। हम कैसे उसकी बुराई कर दें। यहाँ के लोगों की तो आदत ही पड़ गयी है, कि किसी को नापसन्द करो, तो उसकी बेइज्जती कर डालो।'

'कोर्ट में वेणुगोपाल ही तुम्हारे पति का वकील था। सुना है कि कैलाश नाथ जी उनके घर पर तो कमली को साक्षात् सरस्वती का अवतार कहा, पर कोर्ट में कमली के खिलाफ गवाही दी। पर इन्होंने उस बात को रिकार्ड कर लिया और कोर्ट में सुनवा दिया। बड़ी बेइज्जती हो गयी। बेचारे की।'

'तो और नहीं तो क्या इतने बुजुर्ग हैं। मन्दिर में पूजा पाठ करते हैं पर झूठ कैसे बोल लेते हैं?'

'झूठ ही नहीं, यहाँ तक कह दिया कि कमली और रवि ने मन्दिर को भ्रष्ट कर दिया है....।'

'लोगबाग केस के बारे में क्या कह रहे हैं?'

'तुझे क्या? तू तो अभी अच्छी हो गयी है। उसकी फिक्र क्यों कर रही है।'

'फिक्र नहीं दादी, बात जानना चाहती हूँ।'

'वेणुगोपाल और तुम्हारे पति तो विवाह की तैयारी में लगे हैं। आज भी वेणु के घर सुहागन का ज्योनार है। उनकी बिटिया के ब्याह में जैसा करवाया था वैसा ही अब भी करवाया है।'

'मौसी ने बीच में ही रोक दिया।'

'क्यों कामू? कैसी शादी! किसकी शादी।'

पहले तो कामाक्षी हिचकी। फिर एक-एक कर सारी बातें बता डाली यह भी बता दिया कि हम ब्याह की वजह से दोनों में बोलचाल बन्द है।

'घोर कलयुग आ गया है तभी न ऐसा हो रहा है।' मौसी ने कहा।

कामाक्षी चुप रही।

'तेरा बेटा रवि तो पगला गया है, पर तुम्हारे आदमी की मति भ्रष्ट हो गयी है क्या?'

'छोड़िए भी। अब क्या कहें, मौसी! हमारी बात सुनने वाला कौन है?'

कामाक्षी की आवाज भीग गयी। बोल नहीं पायी आँखें पनिया गयीं।

'हे भगवान व्याकरपा शिरोमणि रचुस्वामी शर्मा के खानदान में यह भी लिखा था।'

कामाक्षी ने करवट लेकर मुँह छिपा लिया। आँखें बरसने लगीं रवि के ब्याह के लिए जो-जो सपने वर्षों से देखे थे सब चकनाचूर हो गये।

'कुछ लोगी। कब तक भूखे पेट रहोगी।'

'कुछ नहीं चाहिए मौसी। भूख ही नहीं लगती। पेट ठीक नहीं है। थोड़ी देर आँखें मूँद लेती हूँ। थकान सी लग रही है।'

उनके बार्तालाप को वे एक अन्त देना चाहतीं थीं।

XXX

अगले दिन केस का निर्णय होना था। पहले दिन शर्मा और वेणुकाका अपने मित्रों को निमंत्रण-पत्र बाँट रहे थे। वे लोग न केस के बारे में सोच रहे थे, न निर्णय के बारे में चिंतित थे। मद्रास से एक पत्रिका के सम्पादक इस विवाह का आँखों देखा हाल लेना चाहते थे उसके लिए अनुमति भी ली थी। वेणुकाका ने उन्हें अनुमति ही नहीं दी, बल्कि उन्हें एक निमंत्रण-पत्र भी भिजवा दिया। समाचार पत्रों में दक्षिण भारतीय ब्राह्मण और फ्रेंच करोड़पति की बेटी के इस विचित्र विवाह की सबर छप गयी थी।

शर्मा जब इरैमुडिमणि को निमंत्रण देने के लिए गए, उस समय वह अपने संगठन का समाचार पत्र पढ़ रहे थे। उसकी एक ही प्रति शंकरमगलम में आती। आमतौर पर यह पत्र स्टाल में नहीं मिलता। इस विवाह के बारे में एक खबर उसमें भी थी। इरैमुडिमणि ने हँसते हुए शर्मा को अखबार पढ़ाया।

'एक ओर कोर्ट में सीमावय्यर और मेरा केस चल रहा है। मलर- कोडी वाली घटना याद है न वही। सीमावय्यर की दिली इच्छा है कि मैं और मेरे साथी जेल चले जाएँ। जेल नहीं गए तो जरूर हाजिर होंगे।'

'तुम यार, जेल-वेल कहाँ जाओगे। आ जाना शादी में। शर्मा लौट गए।' अगले दिन कोर्ट में काफी भीड़ थी। बसंती, कमली, रवि, शर्मा, वेणुकाका, इरैमुडिमणि―सब आए थे। सीमावय्यर और उनके मित्र भी थे। पत्रकारों की भीड़ भी थी। लोग निर्णय की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे।

न्यायाधीश अपनी जगह पर भाकर बैठ गए, कोर्ट में निस्तब्धता छा गयी। कई पृष्ठों में लिखे गए निर्णय को पढ़ना शुरू किया। पहले कुंछ पृष्ठों में हिन्दु धर्म की स्थितियाँ, आचार-विचार, धर्म परिवर्तन के आधिकारिक रिवाज के न होने की कमी आदि पर टिप्यणी की गयी थी।

'हिन्दू धर्म से जुड़े लोग इसका प्रचार प्रसार करें या उसमें सहायक हों, ऐसी घटनाएँ कई बार देखने को मिलती हैं। स्वार्थी और ईर्ष्यालु लोगों से एक धर्म का विकास नहीं रुक जाता है। हिन्दू धर्म ने ईसाई और इस्लाम की तरह कई देशों में जड़ें नहीं फैलाई। भारत और नेपाल में यह धर्म इस मामले में विशिष्ट है―कि सच्ची भक्ति और श्रद्धा के साथ जो पालन करे, उन्हें अपने में स्थान देता है।

कन्वर्शन या परिवर्तन न होकर यह स्वीकार की पद्धति को अप- नाता है। भीतर समाहित करने की यह उचारता भारतीय है। एनी वैसेन्ट जैसे कितने लोग भारतीय संस्कृति के प्रचार का कार्य करते रहे हैं।'

कई यूरोपीय भक्ति और श्रद्धालु भी हिन्दू धर्म के अनुयायी हो गए! इसके कई उदाहरण हैं। (न्यायाधीश ने कुछ उदाहरण दिए) यहाँ जब तमाम गवाहों के आधार पर मामले की जाँच की गयी, तो लगता है, कि ये तमाम आरोप जानबूझकर लगाए गये हैं। कमली नाम की फ्रेंच युवती के हिन्दू धर्म के प्रति आस्था और अभिव्यक्ति के कई तर्क संगत प्रमाण हैं। यहाँ उन लोगों की निष्ठा पर प्रश्न चिन्ह लगता जो यह दावा करते हैं इसके मन्दिर प्रवेश के कारण मन्दिर अपवित्र हो गए हैं।

देखा जाए तो गवाहों और विवरणों से स्पष्ट है कि गाँव के आम आस्तिकों की तुलना में वह अधिक आस्थावान और श्रद्धालु रही है। मेरे विचार में मन्दिरों की पवित्रता कहीं भंग नहीं हुई है, इसलिए इस मुकदमे को स्थगित किया जाता है। 'यह भी कहा गया था कि शर्मा व कमली को मुकदमे का सारा खर्च वादी द्वारा दिया जाये।'

वेणुकाका को ऐसे निर्णय की अपेक्षा थी ही पर फूले नहीं समाए। रवि भागता हुआ आया और वेणुकाका का हाथ थाम लिया। कमली ने उन्हें पूरी श्रद्धा के साथ धन्यवाद दिया। उस दिन सांयकालीन अखबारों और अगले दिन प्रातःकालीन अखबारों की प्रमुख खबर यही रही।

सीमावय्यर और उनके साथियों ने कलियुग पर सारी जिम्मेदारी डाल दी। 'सर्वनाश होने वाला है संसार का।'― अब सीमावय्यर दूसरी शरारतों में लग गए। हलवाई, पंडित आदि को विवाह में सम्मिलित होने से रोक देना चाहते थे।

'देखो जंबूनाथ पंडित, वेणुकाका के रुपयों के लालच में शास्त्र द्वारा निषिद्ध विवाह करा दोगे क्या? तुम करवाओगे, और तुम्हें रुपये भी मिल जाएँगे। चलो मान लिया, पर सोच लो कल फिर गाँव वाले तुम्हें अपने घर के कामों में बुलवायेंगे?'

पुरोहित जी घबड़ा गये। काशी यात्रा का बहाना बनाकर वहाँ से गायद हो गये।

वेणुकाका ने छेड़ा, 'शादी में काशी यात्रा का विधान हैं। पर यह शख्स खुद चला गया यात्रा में।'

उन्होंने तुरन्त दूसरे शहरी पुरोहित को बुलवा लिया।

पर हलवाई को सीमावय्यर रोक नहीं पाये?

'हलवाई शंकर अय्यर बोले 'हम तो नौकरों को रखे इसी आय में जीते हैं, कि कब यहाँ शादी का मुहूर्त आए। अब तुम्हारे लिये हम अपना धन्धा चौपट कर लें, यह नहीं होगा। चार दिन का ब्याह है। काम भी अधिक है, कोई किसी से ब्याह करे, तुम्हें क्या? चुपचाप घर पर पड़े रहो।' हलवाई ने मना कर दिया। सीमावय्यर कुछ नहीं कह पाये।

पुरोहित जंबूनाथ शास्त्री के गाँव से भाग निकलने की बात इरै- मुडिमणि ने जब शर्मा से सुनी तो बोले, 'ऐसे पुरोहितों के कारण ही तो शास्त्र सम्मत विवाह हमारे संगठन वाले नहीं करते। बस रजिस्टर्ड विवाह करवा देते हैं हम, वे हँस पड़े। शर्मा भी चुप नहीं रहे। बोले, 'तो वह भी क्या आसान है? अब तो एक के दस पुरोहित हो गये। तुम्हारे संगठन वाले, मंत्री, जाने किस-किस को बुलवाते हैं। जिस दल की सरकार है, उस दल के किसी कार्यकर्ता का विवाह हो, तो मंत्री ही पुरोहित बन बैठता है।'

'तुम भी यार, 'अपनी ही कहोगे। और मैं अपनी जिद पर अड़ा रहूँगा।’

छोड़ो अब।’ इरैमुडिमणि ने कहा।

पारस्परिक मतभेद हो, तब भी उनमें एक खास शालीनता रही। उनकी दोस्ती में इससे कोई फर्क नहीं पड़ा वह इनकी टाँग खींचते हैं, ये उनकी। पर सीमा का उल्लंघन कभी नहीं किया। विवाह के पहले दिन पथबंधु विनायक के मन्दिर से ही बारात प्रस्थान तय हुआ था। नादस्वरम के स्वर में पूरे वातावरण में मंगलध्वनि घोल दी।

‘रवि जमाई बाबू के लिए नया सूट, नये जूते सब तैयार हैं, बसंती ने रवि से कहा।’

‘अब तो यहाँ ब्राह्मणों के विवाह में भी फैंसी ड्रेस चलने लगा है। हम लोंगों के विवाह में इसका प्रवेश कहाँ से हो गया? धोती, कुरता और उत्तरीय पहन कर यदि बारात में चलूँ, तो क्या घट जाएगा। मुझे यह नहीं चाहिए। ले जाओ यदि लड़के को सूट पहनाया जाना है, तो क्या लड़की स्कर्ट पहनेगी? इंडियन मेरेज शुड वी इंडियन मैरेज... रवि ने मना कर दिया। शर्मा जी का हृदय भर गया। विदेश में कार्य- रत दुल्हे को, धोती और उत्तरीय में देखकर पूरा गाँव आश्चर्य में पड़ गया।

पूरा गाँव बारात में उमड़ आया था। आस पास के गाँव वाले भी समाचार पत्रों के माध्यम से इसमें रुचि लेने लगे थे। इसलिए वे भी चले आये।

शहरी पुरोहित ने विवाह के सारे अनुष्ठान पूरे किए। कमली को ठेठ देहाती शैली में सजाया गया था। हाथों और पाँवों में लगी मेंहदी उसके साफ गुलाबी रंग पर निखर आयी थी। दुल्हन को सजाने के बाद बसन्ती ने उसकीं नजर उतारी।

वेणूकाका की तैयारियों में कोई कमी नहीं थी। रवि-कमली का विवाह उनके लिये एक चुनौती थी। अग्रहारग के लोगों को कुछेक को छोड़कर शेष इस विवाह में रुचि लेने लगे। कुछ लोगों ने इसका मजाक बनाया, कुछ ने निंदा की।

जब बारात सीमावय्यर के घर के आगे से निकली, तो वहाँ पंचायत बैठी थी। पर सबके चेहरे बुझे थे।

सीमावय्यर ने जानबूझकर छेड़ा―क्यों हरिहरअय्यर....।

तुम बारात में नहीं गए। सुना जनता के लिये जबर्दस्त भोज का प्रबंध किया गया है। दुल्हन फ्रेंच है न, इसलिये बकरे का सूप, मछली का झोल जाने क्या क्या...।’

‘शंकरअय्यर की हलवायी है पूरी तथा शाकाहारी भोजन की व्यवस्था है। वैदिक रिवाज के अनुरूप ही विवाह हो रहा है। यह सब जानते हुए भी सीमावय्यर छेड़ रहे थे। विश्वेश्वर शर्मा को बद- नाम करने का मौका नहीं छोड़ना चाहते थे। पर हरिहरअय्यर कहाँ छोड़ने वाले थे।’

‘अरे, तो मुझे कौन बुलाता? आप तो श्रीमठ के भूतपूर्व एजेंट हैं आपके उत्तराधिकारी ही हैं न, शर्मा जी। जब आप को नहीं खबर दी गयी, तो मेरी क्या औकात?’

सीमावय्यर को उल्टे छेड़ दिया।

‘तुमसे किसने कह दिया कि हमें नहीं बुलवाया है। हमारे नाम निमंत्रण है। पर मैं नहीं गया। ऐसी शादी में भला किसे जाना है?’ सीमावय्यर ने हाँका। भीतर ही भीतर उबल रहे थे। वंश चलता तो शर्मा को कच्चा ही खा जाते। केस से हार जाने की बौखलाहट भी थी। किसी तरह शादी से अपमानित करना चाहते थे वे।

‘हम ही हैं! जो यहाँ जले भुने जा रहे हैं। पूरा गाँव वहाँ पहुँचा है। दस हजार का ठेका है शिवकाशी वालों का आतिशबाजी के लिए। नागस्वरम् को पाँच हजार। वेणुगोपाल पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं वह फिरंगिन भी अपने करोड़पति बाप से रुपये लायी है। सब शाही खर्च हो रहा है। तुम्हारे या मेरे न जाने से उनका क्या नुकसान हो जाएगा? बड़े-बड़े व्यापारी जो वेणुगोपालन के दोस्त हैं आए हैं। पहाड़ के एस्टेट मालिक सारे पहुँचे हैं। रोटरी क्लब के सारे सदस्य बारात के आगे चल रहे हैं। शर्मा को अब किस बात की कमी है।' हरिहर अय्यर ने सीमावय्यर को और भड़का दिया।

'देखते जाना। आखिर भगवान भी है न, वह इनसे निपट लेगा।' सीमावय्यर उँगलियाँ चटखाते बोले।

'अब हमें भला लगे या बुरा। अच्छा काम हो रहा है। तो हम उनका अनर्थ क्यों सोचें। चुप भी करो, अब।' हरिहर अय्यर ने जब उलट कर सीमावय्यर को डपट दिया, वे चौंक गए।

सीमावय्यर भाँप गए कि केस के हार जाने के बाद उनसे जुड़े तमाम लोग हताश हो गये। उन्हें और अधिक समय तक शर्मा के विरोध में खड़ा करना शायद संभव न हो। इरैमुडिमणि भी भड़के हुए हैं। इन लोगों की पोल पट्टी खोलने की धमकी दी है। सीमावय्यर के बुरे दिन शुरू हो गए। शर्मा जैसे आस्तिक का भी विरोध करते रहे और इरैमुडिमणि जैसे नास्तिक का भी। इसके विपरीत शर्मा को दोनों ही पक्षों का सहयोग और सहानुभूति मिल रही थी। मुकदमे के स्थ- गित होने के कारण लोमावय्यर की प्रतिष्ठा अब वह नहीं रही। पर उनकी करतूतें वैसी ही थीं।

पुरोहित और हलवाई को भड़काने की सारी कोशिश उन्होंने की थी। पर वह भी नहीं कर सके। वेणुकाका बुद्धि, धन और समा- जिक प्रतिष्ठा में सीमावय्यर से दस हाथ आगे थे।

उस दिन बारात के स्वागत के बाद रात ग्यारह बज गये। सभी गाँव वालों को खाना खिलाया और जात पाँत का कोई भेदभाव नहीं रखा गया।

XXX

सुबह मुहूर्त था। सबको काम निपटाकर सोते रात दो बज गए। ढाई बजे तक हलवाई भी अंगोछा बिछाकर लेट गए।

रात पौने तीन के लगभग पंडाल में आग लग गयी। लोगों के समझते बूझते देर नहीं लगी। हड़प मच गया। आग पर काफी देर बाद काबू पाया गया सुबह साढ़े पाठ से नौ बजे तक मुहूर्त का वक्त था। वेदों के आस पास सब कुछ राख हो गया।

वेणूकाका घबराये नहीं। सारंगपाणि नायडू को बुलवा कर बोले, 'मैं नहीं जानता तुम कैसे करोगे। किसी गुंडे का काम है यह। सुबह छह बजे तक यह पंडाल बन जाना चाहिये। लाख रुपये भी लग जाए― पर काम हो जाना चाहिए। वे भावुक हो उठे।

नायडू ने कहा, 'हो जाएगा। फिक्र मत कीजिए।' और सचमुच हुआ भी। सुबह साढ़े पाँच तक फिर वैसा ही पंडाल तैयार हो गया।

XXX

कमली के माता-पिता और रिश्तेदारों को दिखाने के लिए मूबी कैमरे से एक एक अनुष्ठान को फिल्माया गया। बसंती ने अंतिम कोशिश की, कामाक्षी को किसी तरह बुला लाने की। पर कामाक्षी उठने बैठने की हालत में कतई नहीं थी।

'काकी, तुम आ जाओ न। यह तुम्हारे घर का विवाह है, पर कामाक्षी ने कोई उत्तर नहीं दिया पर विरोध भी नहीं किया। बसंती चुप बनी रही। खाक काम हो रहा है वहाँ। लड़के की अम्मा यहाँ मर रही है और तुम लोग वहाँ गाजे बाजे के साथ व्याह रचाओं।' मीनाक्षी दादी, और मौसी ने बसंती से कहा पर कामाक्षी ने उस वक्त कुछ खिलाफ नहीं कहा। पर उसकी बात मानी भी नहीं।

'मैं तो पड़ी हूँ बिस्तर पर। कहाँ जाऊँगी। काहे जाऊँगी।' बारीक सी आवाज में बोली।

'कल रात आग भी लग गयी कैसा अपशकुन हो गया। देखो तो…………।'

मीनाक्षी दादी ने खीझा तब का राग अलापा। बसंती ने कोई उत्तर नहीं दिया लोगों की चालों को इस तरह अपशकुन का नाम दे देने की प्रवृत्ति पर वह खीझ गयी। पहले जब पुवाल के ढेर में आग लगी थी तब भी कमली को कोसा गया था। जैसे ही उसे लगा कामाक्षी आने की स्थिति में नहीं हैं, वह अधिक देर तक नहीं रुकी। गाँव की परंपरा के अनुसार घर-घर जाकर लोगों को बुलावा दिया।' वह समझ नहीं पायी कि कामाक्षी का रवि और कमली के प्रति क्रोध और बढ़ गया है, अथवा वह बीमारी के कारण शांत है। फिर भी वह सोचकर गयी थी कि कामाक्षी उसे गालियाँ देगी, पर उसके विपरीत कामाक्षी एकदम शांत रही। बसंती के लिए यह सुखद आश्चर्य था।

कमली की इच्छा थी कि कोई भी मन्त्र नहीं छूटे। पुरोहित को आश्चर्य हुआ कहाँ अपने यहाँ की लड़के-लड़कियाँ जल्दबाजी मचाते हैं। कहाँ एक विदेशी युवती एक-एक मन्त्र पर जोर दे रही है।

कुछ जिद्दी और ईर्ष्यालु लोगों को छोड़कर पूरा गाँव उमड़ पड़ा था। भीड़ काफी थी। इरैमुडिमणि भी आए थे। कई व्यापारी, उद्योगपति भी आए थे।

'तुम तो साक्षात् हनुमान हो गए नायडू। हनुमान रातोंरात संजीवनी पर्वत उठा लाए और तुमने रातोंरात में सारा पंडाल फिर बनवा डाला।' नायडू की तारीफ करते हुए वेणुकाका ने कहा। जहाँ तक महिलाओं का सवाल नहीं गाँव के ब्राह्मण घरों की महिलाएँ तो नहीं दिखीं पर कुछ प्रगतिशील―महिलाएँ वेणुकाका के कुछ दूर की रिश्तेदार महिलाएँ सहज भाव से आयी थीं।

पाणिग्रहण, सप्तपदी, अरुन्धती दर्श आदि अनुष्ठानों के बारे में कमली ने पढ़ रखा था या सुन रखा था। पर यहाँ एक-एक निजी अनुष्ठान को उसने मन ही मन सराहा।

'सात पग मेरे साथ चलने के बाद तुम मेरी सखि बन गयी हो। हम दोनों अब अंतरंग सखा हो गये हैं। तुम्हारे साथ के इस बन्धन से अब मैं कभी भी मुक्त नहीं होऊँगा मेरे स्नेह बन्धन से मुक्त नहीं होगी। हम दोनों एक हो जाएँगे।

अब हम दोनों संकल्प लेकर कार्य करेंगे। एकमत होकर एक दूसरे को प्रकाश देते हुए, अच्छी भावनाएँ रखते हुए, सोच और बल का एक साथ उपयोग करें। हमारे विचार एक हों―व्रत आदि अनुष्ठान एक साथ कर हमारी इच्छाएँ एक हो।

तुम ऋग्वेद और मैं सामवेद की भाँति रहूँ। मैं गगन की तरह रहूँ, तुम भूमि की भाँति रहो। मैं बीज और तुम खेत हो। मैं चिंतन हूँ, तुम शब्द। तुम मेरी और मेरी अनुचरी बनो। गर्भधारण के लिए, अखंड सम्पत्ति के लिए हे मधुर भाषिणी मेरे साथ चलो………।'

सप्तपदी की शपथ को सुनकर कमली रवि को देखकर मुस्करा दी एक-एक अनुष्ठान कमली को पुलकित कर रहे थे। छोटी-छोटी खुशियाँ, छेड़-छाड़ उत्साह, हँसी-सब कुछ तो था उस विवाह में। बसंती ने आँखों में काजल, परों में आलता और बालों में लम्बा चुटीला लगा दिया। केवल रंग से वह विदेशी लग रही थी बस। विवाह के दिन और उसके बाद के कुछ दिन कुमार और पार्वती वेणु- काका के घर ही रह गए थे, इसलिए कामाक्षी, मीनाक्षी दादी और मौसी के पास अकेली छूट गयी। चूँकि यह घर भी विवाह से संबंधित था। इसलिए द्वार पर केले का पेड़, आम के पत्तों का तोरण, दीवारों पर चूने और गेरू की पट्टी और द्वार पर एक छोटी सी―रंगोली बनी थी। पर घर में सन्नाटा था।

बीच-बीच में कामाक्षी की खांसी या हल्की सी कराह सुनाई पड़ती। बुढ़ियों का स्वर सुनाई देता। एकदम सन्नाटा पसरा था।

'वहाँ कलेवा हो रहा है, तू तो अच्छा गाती है, पर तेरे बेटे का व्याह तेरे बिना ही हो रहा हैं।' मीनाक्षी दादी ने कुछ बोलना चाहा। पहले तो कामाक्षी चुप रही लाख मतभेद हो, घर की बात इस तरह अफवाह की शक्ल ले यह बह कतई नहीं चाहती थी,। थोड़ी देर बाद कामाक्षी अपनी जिज्ञासा रोक नहीं पायी, खुद विवाह के बारे में कुछ पूछने लगी।

'काम, बिल्कुल नहीं लगता कि यह वहीं फिरंगिन है। इस तरह सजा कर उसे बिठाया है। कि बस......।'

कामाक्षी का मन हुआ तुरन्त जाकर देखें पर चुप रही। कुछ उत्सु- कता दिखायेंगी तो दादी और मौसी जाने क्या सोचेंगी। पर दादी बोले जा रही थीं।

'जंबूनाथ शास्त्री ने तो मना कर दिया पुरोहिताई के लिए, बोले, आज पैसे के लालच में करता हूँ कल लोग मुझे नहीं पूछेगे, इसलिए चले गये।

वेणु ने मद्रास से बुलवाया है। गाँव के पंडित तो गए ही नहीं, पर सूना है बाहर से खूब पुरोहित आए हैं। कोर्ट ने उस लड़की को पवित्र साबित कर दिया पर ये पंडित?

'कन्यादान किसने किया?'

'तुम्हें नहीं पता? वही वेणु और उसकी घरवाली। उनके घर ही तो सुहागिनें खिलायी गयीं।'

कामाक्षी ने आगे कुछ नहीं पूछा।

मुहूर्त समाप्त होने के अगले दिन मौसी ने कामाक्षी ने कहा, 'तुम्हें देखने तुम्हारा घरवाला और वह वेणु आये थे। तू सो रही थी, मैंने पूछा जगा दूँ। बोले नहीं फिर मिलेंगे। तुम्हारी तबियत के बारे में पूछा, फिर चले गये।'

'यहाँ कौन रो रहा था। इनके लिए।' कामाक्षी बोली। रुलाई रोक ली थी मुश्किल से।

'उनको छोड़ो। तेरा वह पेट जाया बेटा आशीर्वाद लेने नहीं आया। उसे क्या हो गया।'

मीनाक्षी दादी ने कहा।

'आए तो आएं, न आएं तो न सही। मरे नहीं जा रहे हम....।'

'ऐसी बातें मत करो। तुम्हें नहीं चाहिए था। तो ठीक है पर कायदे की बात भी होती है। उन्हें तो आना चाहिए न....।'

कामाक्षी की आँखें भर गयीं। रुलाई रोक नहीं पायी। इस विवाह के प्रति रुखाई जरूर छिपाने की कोशिश की पर मन तो जैसे वहीं लगा था। एक-एक क्षण वहीं कल्पना में डूबी थी। रवि, कमली, शर्मा, बसंती के बारे में लगातार सोच रही थी।

विवाह के बारे में मीनाक्षी दादी या मौसी कुछ बताती तो ध्यान से सुनती।

ऊपर दिखाने को भले ही तटस्थ रहती।

चार दिन में एक-एक अनुष्ठान की खबर, मीनाक्षी दादी देती रहीं। कामाक्षी ने ये बात जरूर पूछी।

'गृह प्रवेश कब करेंगे दादी?'

'मैंने तो पूछा नहीं।'

'पूछ लीजिए। उस दिन तो सब यहाँ आएँगे। हम रोक नहीं सकते। उनका घर है।'

'अरे, हमें तो ध्यान ही नहीं रहा।'

'मीनाक्षी दादी शाम ही खबर लायी।'

'कल का दिन शुभ बताया है। इसलिए कल सुबह छह बजे से साढ़े सात के बीच वे लोग यहाँ आयेंगे। तुम बीमार हो, इसलिए हलवाई पहले ही यहाँ भिजवा देंगे।'

कामाक्षी के मन में कड़वाहट घोलनी चाही।

गृह प्रवेश के लिए यहाँ आने की क्या जरूरत। वह भी वहीं कर डालते। शास्त्र का हवाला क्यों दे देते हैं, ये लोग।'

मौसी ने टोका पर कामाक्षी को यह अच्छा नहीं लगा।

उन लोगों का विचार था कि कामाक्षी के मन में देर कड़वाहट भरी होगी। पर कामाक्षी का मन रवि और कमली को दूल्हा और दुल्हन के रूप में देख रहा था। लांग की धोती से सजी कमली का चेहरा उनकी आँखों में घूमने लगा। मन लगातार डांवाडोल हो रहा था।

'तू तो पड़ी है। यहाँ तो आरती उतारने वाला कोई नहीं। शायद यह बसंती पहले आ जाती तो ठीक।'

'आप ठीक कहती हैं। शादी पसन्द से हो न हो। लड़का तो अपना है शादी के बाद नयी धोती पहने दुल्हन को लेकर आ जाएँ तो द्वार पर आरती उतारनी होगी न। मौसी ने कहा।

पर कामाक्षी सोच नहीं पायी उसे क्या करना है। दादी ने फिर कामाक्षी को टोका।

'लाख मतभेद हो, पर लड़के को छोड़ा थोड़े ही जा सकता है। लड़का अपना है....।'

'ऐसे में हम लोग ही साथ छोड़ते हैं, तो लोगबाग क्या कहेंगे? मौसी बोली।'

'आप दोनों थोड़ी देर चुप रहेंगी? मेरा तो दिमाग काम नहीं कर रहा है, 'कामाक्षी ने रुआंसे स्वर में कहा। पर उसकी मनोदशा वे दोनों भाप नहीं पायीं। उसकी मनःस्थिति को समझने की कोशिश उन्होंने की पर कोई सफलता नहीं मिली। परसों सुबह गृह प्रवेश हो कामाक्षो पता नहीं क्या सोच रही है उसके चेहरे पर रौनक नहीं है। शरीर में शक्ति भी नहीं रही। आँखों में आँसू भी नहीं बन्द हुए। किसी से उसने बात भी नहीं की।'

गृह प्रवेश के पहले दिन मीनाक्षी दादी बोली। 'कल मंगल कार्य रहा है, मैं विधवा यहाँ क्या करूँगी―मैं तो चली....।'

वे चली गयीं मीनाक्षी दादी के जाने के बाद मौसी भी रिश्तेदारों के घर जाने का बहाना कर वहाँ से चली गयी।

हलवाई पिछवाड़े में तंबू लगाकर अपने काम में लगे थे। कामाक्षी के चौके में उनका प्रवेश पता नहीं सम्भव हो या नहीं। इस भय से के पिछवाड़े में ही रहे। शर्मा पहले दिन रात को ही घर आ जाना चाहते थे पर कामाक्षी के मन में उन्होंने अपने इस विचार को स्थगित कर डाला था। आम के पत्तों का बन्दनबार द्वार पर रंगोली 'भीतर से आती खांसी और कराहों की आवाजें―घर का माहौल मिला जुला था। आस पड़ोस का कोई भी वहाँ नहीं आया।'

अगले दिन सुबह चार बजे ही कामाक्षी की आँख खुल गयी। इत्तफाक से वह शुक्रवार का दिन था। पार्वती और कुमार सो रहे थे।

कामाक्षी किसी तरह लड़खड़ाती हुई कुँए तक चली आयी। उसे उस वक्त रोकने वाला घर पर कोई नहीं था। सुबह की ठंडी हवा उसके चेहरे को भिगो गयी। चमेली की खुशबू नथुनों में भर गयी। कुँए से खुद पानी खींच कर नहाया।

गहरे नीले रंग की कांजीपुरम् साड़ी पहनी। इसे केवल विशेष उत्सवों में पहना करती थी। गौशाला में जाकर दूध दुहा। बगीचों से फूल ले आयी और उन्हें गूंथ कर। थोड़ा अपने सिर पर लगा लिया, बाकी रख लिया। घर से पुराना चाँदी का थाल निकाला और उसमें आरती घोल ली। द्वार पर पानी छींट कर रंगोली बनायी। पार्वती की आँख खुली। अम्मा को दीयाबाती करते देख चौंक गयी।

'अम्मा! तुम्हें किसने कहा उसे करने को?' हायराम, ठंडे पानी से सिर भी धो लिया! क्यों किया यह सब मैं तो यहीं थी न....?

'चल, तुझे क्या मालूम है। झटपट तुम नहा कर आ जाओ' अम्मा का उत्साह पार्वती के लिये अविश्वसनीय रहा।

कितने दिनों से खाना पीना छूट गया था। दलिया और फल के सिवा कुछ नहीं खाया। पर आज का उत्साह देखते ही बनता था। गृह स्वामिनी की फुर्ती में सारा काम किए जा रही थी। कितना तेज था उसके चेहरे पर। थकी जरूर लग रही थी।

सुबह सूर्योदय के साथ ही नुक्कड़ से नादास्वरम का स्वर सुनाई दिया।

कामाक्षी मे ओसरे से झांका। झुँड में दे लोग घर की ओर वर बधू को लिए आ रहे थे। उत्साह में वह कुछ अधिक ही काम कर रही थी। खंभे का सहारा लेकर खड़ी हो गयी। सिर चकराने लगा, आँखों के आगे अंधेरा छा गया। धड़कन तेज हो गयी। पार्वती नहाकर कपड़े बदल रही थी अम्मा को देखकर चौंक पड़ी। 'क्या हुआ अम्मा' सिर चकरा रहा है? तुम्हें किसने कहा इतना सब करने को! बस मैं सब कर लूँगी। तुम भीतर जाकर लेट जाओ, बस―।'

'चिल्लाओ मत। कुछ नहीं हुआ है मुझे। भीतर से आरती का थाल उठा लाओ।' कामाक्षी का स्वर धीमा था।

पक्षियों का कलरव, कहीं से हवा में तैरता, वेदपाठ का स्वर, नादास्वरम् से मिल कर बहती राग भोपाल―सुबह के अर्थ में कितनी ताजमी थी।'

आस पड़ोस के लोग बाहर निकल आए। पारू को आरती की याद दिलाने बसंती पहले ही भागी चली आ रही थी। ओसारे पर कामाक्षी को देखकर ठिठक गयी।

'काकी, आप ने यह सब क्यों कर डाला?' आप लेटिए…न…।'

'कुछ नहीं हुआ मुझे। शुक्रवार है―विस्तर में पड़े रहने का मन नहीं हुआ। आओ इधर बैठ जाओ। पारू आरती लेने भीतर गयी है।'

पार्वती भीतर से थाल लिये चली आयी। कामाक्षी को देखकर बसंती को पहले तो लगा। कहीं उनका इरादा, व्यवधान डालने का तो नहीं है। पर बातों से तो लगा, उनका ऐसा कोई इरादा नहीं है। वह बिल्कुल शांत और सामान्य स्थिति में थी कामाक्षी का यह बदलाव उसे आश्चर्यचकित कर दिया।

'काकी, सिर धोया है क्या? बाल गीले हैं।'

'हाँ री, शुभ दिन है, तो क्या बगैर नहाए पड़ी रहूँ?'

कामाक्षी ने उत्तर दिया ही था कि लोग घर के द्वार तक आ गए। कामाक्षी को आरती का थाल लिये द्वार पर देखकर कमली, रवि, शर्मा और वेणुकाका चौंक गए, कामाक्षी और बसंती ने आरती गायी। कामाक्षी ने कमली से दायाँ पैर पहले भीतर रखने को कहा। शर्मा को लगा कि अकेले में कामाक्षी ने स्वयं अपने को समझा बुझा लिया होगा। वर वधू को वह अपने बिस्तर तक ले गयी। वेणुकाका इसी अवसर की तलाश में थे जैसे, अक्षत की कटोरी रवि को पकड़ा दी बोले, 'अम्मा से आशीर्वाद ले लो।'

रवि ने अक्षत माँ के हाथ देकर उन्हें प्रणाम किया।

'दीर्घायुष्मान भव' कामाक्षी का स्वर शांत था।

दूध में केला और चीनी मिलाकर बोली, 'विवाह में दूध-केला देना शास्त्र सम्मत है। मैं तो वहाँ आ नहीं पायी, तुम दोनों पहले इसे ले लो……।'

रवि और कमली के हाथ से चम्मच में दूध केले का मिश्रण दिया। उनका स्नेह, वह आत्मीयता रवि और कमली को ही नहीं सभी को भिगो गयी।

'सहसा कामाक्षी का सिर चकराया और लड़खड़ने लगी! रवि ने लपक कर उसे थाम लिया'

'तुम उस पर जाकर बैठ जाओ। मैं बहू से दो बातें कर लूँ।'

रवि पीछे रह गया। कमली को इशारे से अपने पास बुलाया। उनका चेहरा एकदम निष्कलंक लग रहा था।

कामाक्षी की हालत देखकर कमली ने उन्हें सहारा दिया और बिस्तर पर बैठा दिया, 'आप बैठ जाइये, बहुत कमजोर हो गयीं हैं आप……।' और उनके पास सिर झुकाकर खड़ी हो गयी, कामाक्षी ने उसे आँख भर कर देखा दुल्हन रूप में कमली की खूबसूरती देखकर उनका जी जुड़ा गया। पारू को बुलवाकर गुँथे हुए फूल मँगवाए। अपने हाथों से कमली के बालों में लगाया।

'खड़ी क्यों हो। यही मेरे पास बैठ जाओ।' कमली वहीं खाट के पास नीचे बैठ गयी।

'तुम बहुत चतुर हो। सब कुछ तुम्हारी इच्छा के अनुसार हुआ है। इस वक्त मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है। पर कभी यह भी सोचा है मेरा मन इस समय भरा हुआ है! तुम दोनों सुखी रहोगें, इसमें कोई संदेह नहीं। पता नहीं मैं ही मूर्ख थी, जिंद करती थी विवाह के खिलाफ भी रही। पर अब सब कुछ भूल गयी हूँ। तुम भी भूल जाना बेटी। या माफ कर देना...।'

'अरे, ये क्या कह रही हैं अम्मा। मैं तो बहुत छोटी हूँ। आपसे तो बहुत कुछ सीखना है। मैं कौन होती हूँ माफ करने वाली?'

'तुममें अहँ नहीं है, तुम सचमुच पढ़ी लिखी हो। तभी तो मेरे इस निष्ठुरता के बावजूद मेरे प्रति आदर भाव अब भी बना है। खैर कोई बात हो अब एक ही अनुरोध और करूँगी।'

'अनुरोध नहीं आप तो आज्ञा दीजिए अम्मा....।'

'मैं तो इसे अनुरोध ही मानूँगी अगर तुम ही मेरा आदेश मानती हो तो मुझे खुशी है।'

'मैं भी तुम्हारी तरह जब इस घर में बहू बनकर आयी थी। तो मेरी सास ने जो सीख मुझे दी वही तुम्हें भी दूँगी। पर एक फर्क जरूर है। हम लोग तो इसी मिट्टी के थे। पर तुम इस मिट्टी के आचार अनुष्ठानों पर विश्वास करती हो। विद्या और विनय दोनों का यह मेल कठिन है। तुम्हारे पास दोनों ही हैं।'

'मैंने तो अग्नि को साक्षी मानकर आपके बेटे से विवाह कर लिया अब मैं दूसरे देश की कैसे रह गयी हूँ।'

'अब नहीं कहूँगी। देश जो भी चाहे हो। प्रेम, लगाव, परोपकार, सम्मान, सत्य, सहनशी यता, न्याय, निष्ठा―यह सब तो सार्वभौम सत्य है सब लोग कह रहे थे कि यहाँ के लोगों की अपेक्षा तुममे श्रद्धा अधिक है। मेरी कोई बहुत अधिक इच्छा नहीं है। मेरे बेटे के साथ तुम यहीं रहो, गृह लक्ष्मी बनकर इसी घर में बनी रहो। यह अन्तर्जातीय विवाह है। लोगों के डर से या उनकी बातों के भय से, ऐसा मत करना कि से चली जाओ। यहीं इसी घर में तुम रहो। पुरुष अग्नि संघातम औपासना करते हैं और अग्नि को प्रज्जवलित करते हैं इसी तरह इस घर की औरतें वर्षों से इस तुलसी के पौधे को दीये से प्रज्वलित करती रही हैं। पूजन भी होता है। मैं नहीं चाहती, कि यहाँ पूजन करने वाला कोई भी न रहे। तुलसी सूख जाये, यह मैं नहीं चाहती। केवल खास दिनों में ही नहीं प्रतिदिन दीप प्रज्वलित हो, यह मेरी कामना है। मेरा विश्वास है इस परिवार का सौभाग्य, लक्ष्मी और श्रीवृद्धि हमारी इस अन्तरंग शुद्धि और तुलसी पूजन के कारण ही है। यही हमारे परिवार की रक्षिका शस्कि है।

एक बार रानी मंगम्मा एक व्रत नेम वाली ब्राह्मण सुहागन की तलाश में थी। अन्त में खोजकर उसे इसी परिवार की एक बहू को उसने दान में दिया था। उसी दिन से इस परिवार की बहुएँ उस स्वर्ण दीपक एवं तुलसी पूजन की अधिकार अपनी पिछली पीढ़ी से ग्रहण करती आयी हैं। आज भी पौष का शुक्रवार है। तुम इस स्वर्ण दीपक से प्रज्वलित करो और अब पूजन तुम ही करना।' स्वर्ण दीपक को प्रज्वलित कर उसके हाथ में पकड़ा दिया।

'जैसा आपने कहा, मैं अब इस दीपक को बुझने नहीं दूँगी। पर एक बार जरूर मैं अपने माता पिता से मिलने की अनुमति चाहूँगी?'

कमली ने भक्तिभाव से उस दीपक को हाथ में लिया। कामाक्षी ने कमली का अनुरोध स्वीकार किया। उसकी आँखें भींग गयीं। वह विस्तर पर थक कर लेट गयी। बसंती रवि कुछ दूरी पर यह देख सुन रहे थे। शर्मा और वेणुकाका, पुरोहित के साथ तैयारियों में लगे थे। पार्वती उनकी मदद कर रही थी। कुमार कुएँ के पास कुल्ला करने चला गया। सुबह खिल आयी थी।

कमली हाथ में दीपक लिये तुलसी चौके के पास गयी।

'तुलसी! श्रीसखि शुभे पापा हारिणी पुण्यदे, नमस्ते नारदनुते नारायण नमः प्रिये।

कमली का मधुर स्वर गूँजने लगा। वह भीतर लौटी, तो बैठक में सन्नाटा छाया था। रवि, शर्मा, वेणुकाका, बसंती, पार्वती इत्यादि सभी कामाक्षी के विस्तर के पास शाँत खड़े थे। कमली तेजी से लपकी। कामाक्षी बेहोश सी पड़ी थी।

'शर्मा कामाक्षी के तलुओं की मालिश कर रहे थे।'

रवि मां की नाड़ी देख रहा था। वेणुकाका ने कुमार को दौड़ाया।

'डाटर को बुलवा लाओ, कार बाहर खड़ी है। तुम्हारी अम्मा को अंग्रेजो डाक्टर पसन्द नहीं है। पर इस समय तो वही काम आयेगा। जाओ―भागो―'

कुमार दौड़ गया। पार्वती डर के मारे रोने लगी। शर्मा ने वेणुकाका और रवि को देखा और होंठ बिचका दिए। सीधे पूजा घर गये और गंगाजल लाकर कामाक्षी के मुँह में डाल दिया। जल होठों के कोर से बह गया।

अब तक शर्मा किसी तरह शांत बने रहे थे फूट-फूट कर रो पड़ें।

'भाग्यशाली हैं शुक्रवार के दिन सुहागिन ही चढ़ रही है...।'

पुरोहित बुदबुदाए। रवि की आँखें लाल हो गयीं। कमली, बसंती भी फूट-फूट कर रो दीं।

तुलसी चौरे पर दीपशिखा शांत प्रकाश फैला रही थी। गृह लक्ष्मी के आते ही, कामाक्षी ने बिदा ली। बसन्ती ने धीमे से कमली के कान में कहा? 'लगता है जैसे काकी। आशीर्वाद देने भर के लिए रुकी थीं।'

कमली फूट पड़ी।

'रो नहीं कमली। उन्हें तो हमेशा यही भय लगा रहता था कि तुम रवि को अपने साथ विदेश ले जाओंगी। तुमसे कुछ कहा क्या?'

'न, उन्होंने बता दिया कि मैं यहीं रहूँ, और तुलसी पूजन करती रहूँ। यह आश्वासन लेकर ही मुझे यह दीपक सौंपा है।'

'और नहीं तो क्या तुम उनके दिए आश्वासन की रक्षा करना तुलसी को सूखने मत देना।'

शंकरमंगलम में सुबह अब सरकने लगी थी। सूर्य की किरणें मन्दिर कलश पर चमक उठीं।

अंतिम बात

अब तक इस उपन्यास को सुरुचि पूर्वक पढ़ने वाले पाठकों के लिए यह अंतिम बात कहना चाहूँगा। पूर्व की संस्कृति पश्चिम के लोग और पश्चिम की संस्कृति पूर्व के लोग अपना रहे हैं, परस्पर विनिमय भी करते हैं दुनिया की सीमाएँ सिमट रही हैं। लोगों के बीच वैर-वैमनस्य और नफरत अब कम होने लगी है। आस्तिक सीमावय्यर की तुलना में नास्तिक इरैमुडिमणि अधिक सभ्य और मानववादी हैं। कमली को भारतीयता से मोह है कामाक्षी की हठधर्मिता को उसकी सहज निष्ठा ने चूर-चूर कर दिया।

विपरीत सिद्धान्तों वाले शर्मा और इरैमुडिमणि पारस्परिक स्नेह भाव से मित्रवत बने रह सकते हैं।

'हमारे चारों ओर विश्व में 'ट्रांसफर ऑफ वैल्यूज (मूल्यों का अंतरण, लगातार चल रहा है। धर्म और दर्शन सम्बन्धी विश्वासों और सांस्कृतिक रीति रिवाजों को यह अंतरण किसी न किसी रूप में प्रभावित करते हैं। पर वह भी सच है कि एक धारा दूसरे को भिगोती चल रही है। इस तरह के सांस्कृतिक आदान प्रदान, या सांस्कृतिक परिवर्तन भी हो रहे हैं इसे कोई नहीं रोक सकता। कमली और रवि भी सांस्कृतिक आदान प्रदान के प्रतीक हैं। हजार भेद- भावों के बावजूद, उन्हें भूलकर स्नेह को बनाये रखना भारतीय मातृत्व की खास पहचान है।'

संस्कृति का तात्पर्य अब राष्ट्रीय पहचान ही नहीं बल्कि मानवता के रूप में 'अंतर्राष्ट्रीय पहचान है।' कहानी की कथाभूमि शंकरमंगलम जैसे छोटे गाँव की है, पर इसमें आने वाले पात्र ऐसे हैं जो गाँव को ही नहीं विश्व को प्रभावित करते हैं, 'प्रभावित कर चुके हैं और करने वाले पात्र हैं।'

परिचय

तमिल कथा एवं उपन्यास साहित्य के एक
महत्वपूर्ण नाम। लगभग बीस-एक उपन्यास
और कई संग्रह प्रकाशित। 'पोन विलंगु',
'नील नयनंगल', कुरंजी मेलर', 'समुदाय
वीथि' चर्चित पुरस्कृत उपन्यास है।
'समुदाय वीथि' के लिए साहित्य अकादमी
पुरस्कार से पुरस्कृत। तमिल की प्रतिष्ठित
साहित्य पत्रिका 'दीपम' के सम्पादक।
१९८७ में मात्र ५५ वर्ष की आयु में देहांत।

सुमति अय्यर

हिन्दी कथा लेखिका एवं कवियित्री। हिन्दी
में मौलिक लेखन। तमिल व अंग्रेजी से
अनुवाद कार्य भी प्रकाशित। दो कथा
संग्रह, जीवनियाँ, कविता संग्रह एवं सम्पा-
दित संग्रह प्रकाशित।

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