तोताराम : जसवंत सिंह विरदी (पंजाबी कहानी)
Tota Ram : Jaswant Singh Virdi
तोताराम ने अपनी लंबी नोकवाली चोंच से मुझे गुदगुदाया। यह उसकी प्रसन्नता की अवस्था का प्रतीक था। आज उसे बहुत सी चूरी खाने के लिए मिल गई थी और वह खा-पीकर इठला रहा था। हर बार ही वह पूँछ ऊपर उठाता और तीखी नोकवाली चोंच फैलाकर पटाखता...तोताराम पटाखता हुआ ही अच्छा लगता था।
मगर तोताराम को पटाखता रखने के लिए यह आवश्यक था कि हर समय उसे तरोताजा चूरी मिलती रहे।
जब तोताराम आँखें मूंदकर अंतर्धान की अवस्था में होता तो बहुत उदासीन नजर आता। लोग तो और भी उदासीन थे, मगर तोताराम की दशा कुछ अधिक परेशान थी। मैं उसे झिंझोड़कर पूछता, "तोताराम! चूरी खानी है?"
तोताराम आँखें खोलकर थिरकता।
"तोताराम! आज चूरी नहीं मिली?'' मैं फिर पूछता।
"नहीं!" वह चोंच हिलाकर कहता, निराशा से।
"हाय रे बेचारे तोताराम!" मैं एक लंबी आह भरकर कहता। तोताराम मेरी आह सुनकर उदासीन हो जाता और मुझे उस पर दया आती। तोताराम शुरू के दिनों से ही चूरी खाने लगा था और उसे जीवित रखने के लिए यह आवश्यक था कि हर समय उसके लिए चूरी का प्रबंध किया जाए। कई एक तोते लाल और हरी मिर्च और कबरों की बेरियों के बेर खाते हैं। मगर यह तोताराम उनमें से नहीं था।
मैं तोताराम का पड़ोसी था और मैं बता नहीं सकता कि तोताराम का पड़ोसी होकर सुख-चैन से कैसे रहा जा सकता है! क्योंकि जब तोताराम को चूरी नहीं मिलती थी, वह मेरी उँगली खाने की कोशिश में रहता था। इसलिए मैं उसकी तीखी नोकवाली चोंच से बहुत डरता था। अगर किसी समय उसके समीप जाता भी, तो हाथ में लाल मिर्च लेकर जाता था। (मेरी लाल मिर्च का दफ्तरी फीताशाही से कोई संबंध नहीं है।)
मैं भरती होकर इस दफ्तर में आया तो तोताराम अपनी चार खिड़कियों वाले पिंजरे में बैठा पटाख रहा था। वह मेरा परिचित सा पुराना मित्र था। इसलिए कुछ दिनों तक उसने मैत्री का अच्छा प्रदर्शन किया। पहले भी जब उससे कोई काम करवाना होता, चूरी का प्रबंध करके ही उसके पास जाना पड़ता था। यहाँ दफ्तर में उसे देखकर मैं पहले दिन ही घबरा गया था। इस बात के लिए भी परेशान होने लगा कि उसके लिए चूरी का प्रबंध कैसे करूँगा?...मुझे परेशान देखकर वह जोर से हँसा और पटाखने लगा, "चिंता न करो, मैं तुमसे नहीं माँगता चूरी!"
"क्यों?" "सात घर तो डायन भी छोड़ देती है। मैं तो फिर भी तोताराम हूँ।"
मगर मुझे विश्वास न हुआ और तोताराम की अग्नि-परीक्षा लेने के लिए जब मैंने अपनी उँगली उसके पिंजरे में डाली तो उसने तुरंत काट लिया।
"सात घर तो डायन भी छोड़ देती है!" मैंने कहा, मगर व्यंग्य से नहीं। केवल कहा।
"हाँ, छोड़ देती है!" वह हँसकर बोला। "मगर तुमने एक घर भी नहीं छोड़ा।"
"यह मेरा स्वभाव है!"
"यह कैसा स्वभाव है?"
"मैं क्या जानूँ! मैं तो बीवी-बच्चों को भी नहीं छोड़ता!"
"मगर क्यों?"
"मेरा स्वभाव है न!"
"स्वभाव?"
"हाँ, लोग मुझे शताब्दियों से चूरी खिला रहे हैं। उन्होंने मुझे यही सिखाया है!"
मैं क्रोध में आ गया और जोर से उसे ललकारा, "तोताराम! यह बात ठीक नहीं है।"
"हाँ, ठीक तो नहीं है!" वह तीखी नोकवाली चोंच झुकाकर मान गया।
"देख! मैं तुझे सदियों से जानता हूँ। तुम्हारी चोंच छील-तराशकर सीधी कर दूंगा।" वह सचमुच घबरा गया।
स्वभावतः फिर कहा, "देखो तोताराम! तुम स्वभाव के वह हो तो मैं भी वही हैं। कल को लोग तमाशा न देखें! तुम्हारी ठक-ठक मैंने नहीं बरदाश्त करनी।"
बात सुनकर तोताराम ने बलपूर्वक अपने शक्तिशाली पंख फड़फड़ाए। लोगों की चूरी खाकर बढ़े हुए पंख।
उस दिन तोताराम ने मुझे विश्वास दिलाया कि वह मेरी उँगली को नहीं काटेगा। उसको चूरी मिले अथवा न मिले।
मुझे मालूम था। तोताराम चूरी खाए बिना जीवित नहीं रह सकता। इसलिए प्रतिदिन कहीं-नकहीं से मैं उसके लिए चूरी का प्रबंध कर देता। कोई दोस्त-मित्र अथवा अपरिचित मेरे पास आता कि तोताराम से उसका काम करवा दिया जाए। मैं उसे कहता कि तोताराम के लिए चूरी ले जाइए! चूरी के बिना काम नहीं हो सकता।
दफ्तर में लड़-झगड़कर उसने बहुत सा ऐसा एस्टेब्लिशमेंट का काम सुरक्षित कर लिया था, जिससे हरेक व्यक्ति का संबंध था। इसलिए जब लोगों का किसी काम के लिए तोताराम से संपर्क बनता, वह उन्हें रास्ता दिखा देता था।
लोग अनेक प्रकार की ऊलजलूल बातें करते थे। तोताराम के विरुद्ध सरकार के पास शिकायतें भेजते थे। मगर मेरी उँगलियाँ सुरक्षित थीं। मुझे कोई चिंता नहीं थी। चिंता करके दफ्तरों में जीवित भी नहीं रहा जा सकता। फिर तोताराम तो सभी दफ्तरों में बैठे हैं। मैं किस-किस की परवाह करता?
एक दिन मैं दफ्तर गया तो देखा कि तोताराम की खिड़कियों के पास एक नाग बैठा था।
ऊँचा, लंबा और गोरा सफेद नाग! कुछ नाग धरती के भीतर धन-दौलत दबाकर लोगों से उसकी सुरक्षा करते हैं। किसी को धरती के नीचे दबाए हुए धन के पास नहीं फटकने देते। क्या यह वही नाग था?
उसे तोताराम के साथ एक जरूरी काम था। तोताराम उसके साथ तीखी नोकवाली चोंच ही नहीं मिला रहा था। मैं घबरा गया। मैंने सोचा कि यदि तोताराम ने नाग का काम न किया तो नाग उसे एक फुफकार के साथ ही नष्ट कर देगा। मगर एस्टेब्लिशमेंट के कुछ अधिकारियों ने अपने प्रभाव दुवारा फनियर नाग और तोताराम का संपर्क बना दिया। फनियर नाग अपनी नागभाषा में लतीफों की एक पत्रिका प्रकाशित करना चाहता था। उसने तोताराम को अपनी पत्रिका का अवैतनिक संपादक नियुक्त कर लिया। तोताराम अब अपने लंबे-लंबे पंख फड़फड़ाकर दूर-पार से फनियर नाग की पत्रिका के लिए लतीफे इकटठे करता। पत्रिका लोगों के पास पहुंचती तो देखते कि बहुत से व्यक्तियों की उँगलियाँ गायब होतीं। तोताराम लचर और अश्लील लतीफों द्वारा लोगों की उँगलियाँ काटता और फनियर नाग लोगों का खून पी जाता...!
कुछ लोगों ने फनियर नाग की ऐसी हरकतों के कारण उसका सिर काटने की कोशिश की मगर फनियर नाग को कुछ सरकारी लालफीतेबाजों का बढ़ावा, प्रोत्साहन था। इसलिए उसकी कुछ हानि न हो सकी। उसके प्रोत्साहन के बलबूते पर तोताराम लतीफों द्वारा पटाखता।
मगर कुछ समय बाद तोताराम के लतीफे खत्म हो गए। पत्रिका भी कम बिकने लगी। फनियर नाग को लोगों का खून भी कम मिलने लगा। अब वह तोताराम का खून पीने की तैयारी कर रहा था। मगर हर बार तोताराम अपने लंबे पंख फड़फडाकर उड़ जाता। फिर उसने मेरे सुझाव पर एक कासा बनवा लिया और दर-दर जाकर अलख जगाने लगा। जब घर की कोई महिला आटा या दाल आदि लेकर आती तो तोताराम उदासीन भाव से निराश होकर कहता, "आटा नहीं, माता! लतीफा!"
उस समय उसकी लंबी नोकवाली चोंच लुढ़क जाती और बड़े-बड़े पंजे सिकुड़ने लगते। बड़े-बड़े पंजे, जिनके कारण वह दुनिया को बेचकर खा जाता।
फनियर नाग का खून पीनेवाला मित्र बनकर अब तोताराम मुझे भी आँखें दिखा रहा था। हर बार मेरी उँगली खाने की ताक में रहता।
मैंने कहा, "तोताराम! तुम बेगानी छाछ पर मूंछे मुँड़वा रहे हो!"
तोताराम ने अपनी मुँडी हुई मूंछों पर हाथ फेरकर आश्चर्य से कहा, "बेगानी छाछ पर मूंछे मुंडवाना किसे कहते हैं?"
"तुमने वह कहानी नहीं सुनी?"
"कौन-सी?"
"कहते हैं कि किसी गाँव में से कोई व्यक्ति भैंस लेकर जा रहा था। वहाँ अँधेरा हो गया और वह अपने रिश्तेदारों के पास ठहर गया। उसके रिश्तेदारों ने भैंस दूहकर रात को दूध में झाग लगाकर सुबह दही को मथा और माखन निकालकर छाछ पड़ोस के लोगों में बाँट दी। एक मुच्छल पड़ोसी ने जब छाछ पी तो उसकी मूंछे छाछ से लिबड़ गई। उसने सोचा कि छाछ तो रोज ही मिलेगी, मगर मूंछे? वह तुरंत नाई के पास जाकर मूंछे मुँड़वा आया कि छाछ तो ठाठ से पिएँगे!"
तोताराम गौर से मेरी बात सुन रहा था। अपनी लंबी मोटी चोंच हिलाकर उसने उत्सुकता से पूछा, "फिर क्या हुआ?"
मैंने कहा, "होना क्या था, अगले दिन भैंसवाला व्यक्ति अपनी भैंस लेकर अपना रास्ता नापने लगा और लोग मुच्छल को समझाते रहे-मूर्खजी! बेगानी छाछ पर कोई मूंछे नहीं मुँड़वाया करता।"
बात की तीक्ष्णता को अनुभव करके तोताराम तेजी से मेरी उँगली खाने के लिए भागा। मैंने तुरंत उँगली की जगह चूरी उसकी ओर बढ़ा दी। वह प्रसन्न हो गया।
मगर अब तोताराम चूरी खाकर भी उदासीन नजर आता और उसकी लंबी नोकवाली चोंचवाले चेहरे पर हर समय परेशानी छाई रहती। मैं हैरान था कि तोताराम पर्याप्त चूरी खाकर भी दुर्बल क्यों होता जा रहा है? अब वह मेरे साथ बात नहीं करता था। आधुनिक कहानी के अजनबी दिखते नायक की तरह मुझे घूरता था। वह हर समय कासा पकड़कर लोगों के घरों में अलख जगाता। कोई महिला आटे की चुटकी लेकर आती तो वह कहता, "माता, आटा नहीं, लतीफा!"
जब दर-दर पर भटककर और ठोकरें खाकर भी उसे कोई लतीफा न मिलता तो वह मेरे बारे में टूटा-फूटा लतीफा बनाकर पत्रिका छापने की कोशिश करता, ताकि नाग उसका खून न पी जाए।
(अधूरी रचना)