तितली (उपन्यास) तृतीय खंड : जयशंकर प्रसाद
Titli (Novel) Part-3 : Jaishankar Prasad
1
निर्धन किसानों में किसी ने पुरानी चादर को पीले रंग से रंग लिया, तो किसी की पगड़ी ही बचे हुए फीके रंग से रंगी है। आज बसंत-पंचमी है न ! सबके पास कोई न कोई पीला कपड़ा है। दरिद्रता में भी पर्व और उत्सव तो मनाए ही जाएंगे। महंगू महतो के अलाव के पास भी ग्रमीणों का एक ऐसा ही झुंड बैठा है। जौ की कच्ची बालों को भूनकर गुड़ मिलाकर लोग 'नवान' कर रहे हैं, चिल ठंडी नहीं होने पाती। एक लड़का, जिसका कंठ सुरीला था, बसंत गा रहा था -
मदमाती कोयलिया डार-डार
दुखी हो या दरिद्र, प्रकृति ने अपनी प्रेरणा से सबके मन में उत्साह भर दिया था। उत्सव मनाने के लिए, भीतर की उदासी ने ही मानो एक नया रूप धारण कर लिया था। पश्चिमी पवन के पके हुए खेतों पर से सर्राटा भरता और उन्हें रौंदता हुआ चल रहा था। बूढ़े महंगू के मन में भी गुद-गुदी लगी। उसने कहा-दुलरवा, ढोल ले आ, दूसरी जगह तो सुनता हूँ कि तू बजाता है, अपने घर काज-त्योहार के दिन बजाने में लजाता है क्या रे ?
दुलारे धीरे-से उठकर घर में गया। ढोल और मंजीरा लाया। गाना जमने लगा। सब लोग अपने को भूलकर उस सरल विनोद में निमग्न हो रहे थे।
तहसीलदार ने उसी समय आकर कहा-महंगू !
सभा विश्रृंखल हो गई। गाना-बजाना रुक गया। उस निर्दय यमदूत के समान तहसीलदार से सभी कांपते थे। फिर छावनी पर उसे न बुलाकर स्वयं महंगू के यहाँ उनके अलाव पर खड़ा था। लोग भयभीत हो गए। भीतर से जो स्त्रियां झांक रही थीं उनके मुँह छिप गए। लड़के इधर-उधर हुए, बस जैसे आतंक में त्रस्त !
महंगू ने कहा-सरकार ने बुलाया है क्या ?
बेचारा बूढा घबरा गया था।
सरकार को बुलाना होता तो जमादार आता। महंगू ! में क्यों आता हूँ जानते हो ! तुम्हारी भलाई के लिए तुम्हें समझाने आया हूँ।
तुम्हारे यहाँ मलिया रहती है न। तुम जानते हो कि वह बीबी-रानी छोटी सरकार का काम करती थी। वह आज कितने दिनों से नहीं जाती। उसको उकसाकर बिगाड़ना तो नहीं चाहिए। डांटकर तुम कह देते कि 'जा, काम कर' तो क्या वह न जाती ?
मैं कैसे कह देता तहसीलदार साहब। कोई मजूरी करता है तो पेट भरने के लिए, अपनी इज्जत देने के लिए नहीं। हम लोगों के लिए दूसरा उपाय ही क्या है। चुपचाप घर भी न बैठे रहें।
देखो महंगू, ये सब बातें मुँह से न निकालनी चाहिए। तुम जानते हो कि...
मैं जानता हूँ कि नहीं, इससे क्या ? वह जाय तो आप लिवा जाइए। मजूरी ही तो करेगी। आपके यहाँ छोड़कर मधुबन बाबू के यहाँ काम करने में कुछ पैसा बढ़ तो जायगा नहीं। हाँ, वहाँ तो उसका बोझ लेकर शहर भी जानापड़ता है। आपके यहाँ करे तो मेरा क्या ? पर हाँ, जमींदार मां-बाप हैं। उनके यहाँ ऐसा ...
मधुबन बाबू। हूँ, कल का छोकरा ! अभी तो सीधी तरह धोती भी नहीं पहन सकता था। 'बाबा' तो सिखाकर चला गया। उसका मन बहक गया है। उसको भी ठीक करना होगा। अब मैं समझ गया। महंगू ! मेरा नाम तुम भी भूल गए हो न ?
अच्छा, आपसे जो बने, की लीजिएगा। मैंने क्या किसी की चोरी की है या कहीं डाका डाला है ? मुझे क्यों धमकाते हैं ?
महंगू भी अपने अलाव के सामने आवेश में क्यों न आता ? उसके सामने उसकी बखारे भरी थीं। कुंडों में गुड़ था। लड़के पोते सब काम में लगे थे। अपमान सहने के लिए उसके पास किसी तरह की दुर्बलता न थी। पुकारते ही दस लाठियां निकाल सकती थीं। तहसीलदार ने समझ-बूझकर धीरे-से प्रस्थान किया।
महंगू जब आपे में आया तो उसको भय लगा। वह लड़कों को गाने-बजाने के लिए कहकर बनजरिया की ओर चला। उस समय तितली बैठी हुई चावल बिन रही थी, और मधुबन गले में कुरता डाल चुका था कहीं बाहर जाने के लिए। मलिया, एक डाली मटर की फलियां, एक कद्दू और कुछ आलू लिए हुए मधुबन के खेत से आ रही थी। महंगू ने जाते ही कहा-मधुबन बाबू ! मलिया को बुलाने के लिए छावनी से तहसीलदार साहब आए थे। वहाँ उसे न जाने से उपद्रव मचेगा।
तो उसको मना कौन करता है, जाती क्यों नहीं ?- कहकर मधुबन ने जाने के लिए पैर बढ़ाया ही था कि तितली ने कहा- वाह, मलिया क्या वहाँ मरने जाएगी !
क्यों जब उसको छावनी के काम करने के लिए, फिर से रख लेने के लिए, बुलावा आ रहा है, तब जाने में क्या अड़चन है ? रुकते हुए मधुबन ने पूछा।
बुलावा आ रहा है, न्योता आ रहा है। सब तो है, पर यह भी जानते हो कि वह क्यों वहाँ से काम छोड़ आई है ? वहाँ जाएगी अपनी इज्जत देने ? न जाने कहाँ का शराबी उनका दामाद आया है। उसने तो गांव भर को ही अपनी ससुराल समझ रखा है। कोई भलामानस अपनी बहू-बेटी छावनी में भेजेगा क्यों ?
महंगू ने कहा-हाँ बेटी, कह रही हो। पर हम लोग जमींदार से टक्कर ले सकें, इतना तो बल नहीं। मलिया अब मेरे यहाँ रहेगी तो तहसीलदार मेरे साथ कोई-न-कोई झगड़ा-झंझट खड़ा करेगा। सुना है कि कुंवर साहब तो अब यहाँ रहते नहीं। आज-कल औरतों का दरबार है। उसी के हाथ में सब-कुछ है।
मधुबन चुप था। तितली ने कहा-तो उसे यहीं रहने न दो, देखा जाएगा। महंगू ने वरदान पाया। वह चला गया।
मलिया दूर खड़ी सब सुन रही थी। उसकी आंखों से आंसू निकल रहा था। तितली ने कहा-रोती क्यों है रे, यहीं रह, कोई डर नहीं, तुझे क्या कोई खा जाएगा ? जा-जा देख, ईंधन की लकड़ी सुखाने के लिए डाल दी गई है, उठा ला।
मलिया आंचल से आंसू पोंछती हुई चली गई। उसका चाचा भी मर गया था। अब उसका रक्षक कोई न था। तितली ने पूछा-अब रुके क्यों खड़े हो ? नील-कोठी जाना था न ?
जाना तो था। जाऊंगा भी। पर यह तो बताओ, तुमने यह क्या झंझट मोल ली। हम लोग अपने पैर खड़े होकर अपनी ही रक्षा कर लें यही बहुत है। अब तो बाबाजी की छाया भी हम लोगों पर नहीं है। राजो बुरा मानती ही है। मैंने शेरकोट जाना छोड़ दिया। अभी संसार में हम लोगों को धीरे-धीरे घुसना है। तुम जानती हो कि तहसीलदार मुझसे तो बुरा मानता ही है।
तो तुम डर रहे हो !
डर नहीं रहा हूँ। पर क्या आगा-पीछा भी नहीं सोचना चाहिए। बाबाजी तो काशी चले गए संन्यासी होने, विश्राम लेने। ठीक ही था। उन्होंने अपना काम-काज का भार उतार फेंका। पर यदि मैं भूलता नहीं हूँ तो उन्होंने जाने के समय हम लोगों को जो उपदेश दिया था उसका तात्पर्य यही था कि मनुष्य के जान-बूझकर उपद्रव मोल न लेना चाहिए। विनय और कष्ट सहन करने का अभ्यास रखते हुए भी अपने को किसी से छोटा न समझना चाहिए, और बड़ा बनने का घमंड भी अच्छा नहीं होता। हम लोग अपने कामों से ही भगवान को शीघ्र कष्ट पहुंचाने और उन्हें पुकारने लगते हैं।
बस करो। मैं जानती हूँ कि बाबाजी इस समय होते तो क्या करते और मैं वही कर रही हूँ जो करना चाहिए। मलिया अनाथ है। उसकी रक्षा करना अपराध नहीं। तुम कहाँ जा रहे हो ?
जाने को तो मैं इस समय छावनी पर ही था, क्योंकि सुना है, वहाँ एक पहलवान आया है, उसकी कुश्ती होने वाली है, गाना-बजाना भी होगा। पर अब मैं वहाँ न जाऊंगा, नील-कोठी जा रहा हूँ।
जल्द आना, दंगल देख आओ। खा-पीकर नील-कोठी चले जाना। आज बसंत-पंचमी की छुट्टी नहीं है क्या? -तितली ने कहा।
अच्छा जाता हूँ-कहता हुआ अन्यमनस्क भाव से मधुबन बनजरिया के बाहर निकला। सामने ही रामजस दिखाई पड़ा। उसने कहा-मधुबन भइया, कुश्ती देखने न चलोगे ?
अकेले तो जाने की इच्छा नहीं थी, पर जब तुम भी आ गए तो उधर ही चलूंगा।
भइया ! लंगोट ले लूं।
अरे क्या मैं कुश्ती लडूंगा ? दुत !
कौन जाने कोई ललकार ही बैठे।
इस समय मेरा मन कुश्ती लड़ने लायक नहीं।
वाह भइया, यह भी एक ही रही। मन लड़ता है कि हाथ-पैर। मैं देख आया हूँ उस पहलवान को। हाथ मिलाते ही न पटका आपने तो जो कहिए मैं हारता हूँ।
मधुबन अब कुश्ती नहीं लड़ सकता रामजस ! अब उसे अपनी रोटी-दाल से लड़ना है।
तो भी लंगोट लेते चलने में कोई ...
अरे तो क्या मैं लंगोट घर छोड़ आया हूँ। चल भी हंसते हुए मधुबन ने रामजस को एक धक्का दिया, जिसमें यौवन के बल का उत्साह था। रामजस गिरते-गिरते बचा।
दोनों छावनी की ओर चले।
छावनी में भीड़ थी। अखाड़ा बना हुआ था। चारों ओर जनसमूह खड़ा और बैठा था। कुरसी पर बाबू श्यामलाल और उसके इष्ट-मित्र बैठे थे। उनका साथी पहलवान लुंगी बांधे अपनी चौड़ी छाती खोले हुए खड़ा था। अभी तक उसने लड़ने के लिए कोई भी प्रस्तुत न था। पास के बांव के दो-चार वेश्याएं भी आम के बौर हाथ में लिए, गुलाल का टीका लगाए, वहाँ बैठी थीं-छावनी में वसंत गाने के लिए आई थीं। यही पुराना व्यवहार था। परंतु इंद्रदेव होते तो बात दूसरी थी। तहसीलदार ने श्यामलाल बाबू का आतिथ्य करने के लिए उनसे जो कुछ हो सका था, आमोद-प्रमोद का सामान इकट्ठा कर लिया था। सवेरे ही सकबी केसरिया बूटी छनी थी। श्यामलाल देहाती सुख में प्रसन्न दिखाई देते थे। उन्हें इस बात का गर्व था कि उनके साथी पहलवान से लड़ने के लिए अभी तक कोई खड़ा नहीं हुआ। उन्होंने मूंछ मरोरते हुए कहा- रामसिंह, तुमसे यहाँ कौन लड़ेगा जी। यहीं अपने नत्थू से जोर करके दिखा दो! सब लोग आए हुए हैं।
अच्छा सरकार! - कहकर रामसिंह ने साथी नत्थू को बुलाया। दोनों अपने दांव-पेंच दिखाने लगे।
रामजस ने कहा - क्यों भइया, यह हम लोगों को उल्लू बनाकर चला जाएगा?
मधुबन धीरे-से हुंकार कर उठा। रामजस उस हुंकार से परिचित था। उसने युवकों की-सी चपलता से आगे बढ़कर कहा- सरकार! हम लोग देहाती ठहरे; पहलवानी क्या जानें! पर नत्थू से लड़ने को तो मैं तैयार हूँ।
सब लोग चौंककर रामजस को देखने लगे। दांव-पेंच बंद करके रामसिंह ने भी रामजस को देखा। वह हंस पड़ा।
जाओ, खेत में कुदाल चलाओ लड़के ! रामसिंह ने व्यंग्य से कहा।
मधुबन से अब न रहा गया। उसने कहा - पहलवान साहब, खेतों का अन्न खाकर ही तुम कुश्ती लड़ते हो।
पसेरी भर अन्न खाकर कुश्ती नहीं लड़ी जाती भाई ! सरकार लोगों के साथ माल चबाकर यह कसाले का काम किया जाता है। दूसरे पूत से हाथ मिलाना, हाड़-से हाड़ लड़ाना, दिल्लगी नहीं है।
मैं तो इसे ऐसा ही समझता हूँ।
तो फिर आ जा न मेरे यार ! तू भी यह दिल्लगी देख !
रामसिंह के इतना कहते ही मधुबन सचमुच कुरता उतार, धोती फेंककर अखाड़े में कूद पड़ा। सुंदरियां उस देहाती युवक के शरीर को सस्पृह देखने लगीं। गांव के लोगों में उत्साह-सा फैल गया। सब लोग उत्सुकता से देखने लगे ! और तहसीलदार तो अपनी गोल-गोल आंखों में प्रसन्नता छिपा ही न सकता था। उसने मन में सोचा-आज बच्चू की मस्ती उतर जाएगी।
रामसिंह और मधुबन में पैतरे, दांव-पेंच और निकस-पैठ इतनी विचित्रता से होने लगी कि लोगों के मुँह से अनायास ही 'वाह-वाह' निकल पड़ता। रामसिंह मधुबन को नीचे ले आया। वह घिस्सा देकर चित करना ही चाहता था कि मधुबन ने उसका हाथ दबाकर ऐसा धड़ उड़ाया कि रामसिंह की छाती पर बैठ गया। हल्ला मच गया। देहातियों ने उछलकर मधुबन को कंधे पर बिठा लिया।
श्यामलाल का मुँह तो उतर गया, पर उन्होंने अपनी उंगली से अंगूठी निकालकर, मधुबन को देने के लिए बढ़ाई। मधुबन ने कहा - मैं इनाम क्या करूंगा - मेरा तो यह व्यवसाय नहीं है। आप लोगों की कृपा ही बहुत है।
श्यामलाल कट गए। उन्हें हताश होते देखकर एक वैश्या ने उठकर कहा - मधुबन बाबू ! आपने उचित नहीं किया। बाबूजी तो हम लोगों के घर आए हैं, इनका सत्कार तो हमीं लोगों को करना चाहिए। बड़े भाग्य से इस देहात में आ गए हैं न !
श्यामलाल जब उसकी चंचलता पर हंस रहे थे, तब उस युवती मैना ने धीरे से अपने हाथ का बौर मधुबन की ओर बढ़ाया, और सचमुच मधुबन ने उसे ले लिया। यही उसका विजय चिन्ह था।
तहसीलदार जल उठा। वह झुंझला उठा था, कि एक देहाती युवक बाबू साहब को प्रसन्न करने के लिए क्यों नहीं पटका गया। उसे अपने प्रबंध की यह त्रुटि बहुत खली। छावनी के आंगन में भीड़ बढ़ रही थी। उसने कड़ककर कहा - अब चुपचाप सब लोग बैठ जायं। कुश्ती हो चुकी है। कुछ गाना-बजाना भी होगा।
श्यामलाल को यह अच्छा तो नहीं लगता था, क्योंकि उनका पहलवान पिट गया था; पर शिष्टाचार और जनसमूह के दबाव से वह बैठे रहे। अनवरी बगल में बैठी हुई उन पर शासन कर रही थी। माधुरी भीतर चिक में उदास भाव से यह सब उपद्रव देख रही थी। श्यामदुलारी एक ओर प्रसन्न हो रही थीं, दूसरी ओर सोचती थीं। - इंद्रदेव यहाँ क्यों नहीं है।
जब मैना गाने लगी तो वहाँ मधुबन और रामजस दोनों ही न थे। सुखदेव चौबे तो न जाने क्यों मधुबन की जीत और उसके बल को देखकर कांप गए। उसका भी मन गाने-बजाने में न लगा। उन्होंने धीरे से तहसीलदार के कान में कहा - मधुबन को अगर तुम नहीं दबाते, तो तुम्हारी तहसीलदारी हो चुकी। देखा न !
गंभीर भाव से सिर हिलाकर तहसीलदार ने कहा - हूँ।
2
धूप निकल आयी है, फिर भी ठंड से लोग ठिठुरे जा रहे हैं। रामजस के साथ जो लड़का दवा लेने के लिए शैला की मेज के पास खड़ा है, उसकी ठुड्ढी कांप रही है। गले के समीप कुर्ता का अंश बहुत-सा फटकर लटक गया है, जिसमें उसके छाती की हड्डियों पर नसें अच्छी तरह दिखायी पड़ती हैं।
शैला ने उसे देखते ही कहा - रामजस ! मैंने तुमको मना किया था। इसे यहाँ क्यों ले आए? खाने के लिए सागूदाना छोड़कर और कुछ न देना ! ठंड बचाना !
मेम साहब, रात को ऐसा पाला पड़ा कि सब मटर झुलस गई। हरी मटर शहर में बेचने के लिए जो ले जाते तो सागूदाना ले आते। अब तो इसी को भूनकर कच्चा-पक्का खाना पड़ेगा। वही इसे भी मिलेगा।
तब तो इसे तुम मार डालोगे !
मरता तो है ही ! फिर क्या किया जाए?
रामजस की इस बेबसी पर शैला कांप उठी। उसने मन में सोचा कि इंद्रदेव से कहकर उसके लिए सागूदाना मंगा दें। सब बातों के लिए इंद्रदेव से कहता देने का अभ्यास पड़ गया थ। फिर उसको स्मरण हो गया कि इंद्रदेव तो यहाँ नहीं हैं। वह दुखी हो गई। उसका हृदय व्यथा से भर गया। इंद्रदेव ही निर्दयता पर-नहीं-नहीं, उनकी विवशता पर-वह व्याकुल हो उठी। रामजस को विदा करते उसने कहा-मधुबन से कह देना, वह तुम्हारे लिए सागूदाना ले आएगा।
यही एक छोटा भाई है मेम साहब ! मां बहुत रोती है।
जाओ रामजस ! भगवान सब अच्छा करेगा।
रामजस तो चला गया। शैला उठकर अपने कमरे में टहलने लगी। उसका मन न लगा। वह टीले से नीचे उतरी; झील के किनारे-किनारे अपनी मानसिक व्यथाओं के बोझ से दबी हुई, धीरे-धीरे चलने लगी। कुछ दूर चलकर जब कच्ची सड़क की ओर फिरी तो उसने देखा कि अरहर और मटर के खेत काले होकर सिकुड़ी हुई पत्तियों में अपनी हरियाली लुटा चुके हैं। अब भी जहाँ सूर्य की किरणें नहीं पहुचती हैं, उन पत्तियों पर नमक की चादर-सी पड़ी है। उसके सामने भरी हुई खेती का शव झुलसा पड़ा है। उसकी प्रसन्नता और साल भी आशाओं पर बज्र की तरह पाला पड़ गया। गृहस्थी के दयनीय और भयानक भविष्य के चित्र उसकी आंखों के सामने, पीछे जमींदार के लगान का कंपा देने वाला भय ! दैव को अत्याचारी समझकर कि जैसे वह संतोष से जीवित है।
क्यों जी? तुम्हारे खेत पर भी पाला पड़ा है?
आप देख तो रही हैं मेम साहब - दुख और क्रोध से किसान ने कहा। उसको यह असमय की सहानुभूति व्यंग्य-सी मालूम पड़ी। उसने समझा मेम साहब तमाशा देखने आई हैं।
शैला जैसे टक्कर खाकर आगे बढ़ गई। उसके मन में रह-रहकर यही बात आती ळै कि इस समय इंद्रदेव यहाँ क्यों नहीं हैं, उपने ऊपर भी रह-रहकर उसे क्रोध आता कि वह इतनी शीतल क्यों हो गई। इंद्रदेव को वह जाने से रोक सकती थी; किंतु अपने रूखे-सूखे व्यवहार से इंद्रदेव के उत्साह को उसी ने नष्ट कर दिया, और अब यह ग्राम सुधार का व्रत एक बोझ की तरह उसे ढोना पड़ रहा है। तब क्या वह इंद्रदेव से प्रेम नहीं करती ! ऐसा तो नहीं; फिर यह संकोच क्यों? वह सोचने लगी- उस दिन इंद्रदेव के मन में एक संदेह उत्पन्न करके मैंने ही यह गुत्थी डाल दी है। तक क्या यह भूल मुझे ही न सुधारनी चाहिए? वसंतपंचमी को माधुरी ने बुलाया था, वहाँ भी न गई। उन लोगों ने भी बुरा मान लिया होगा।
उसने निश्चय किया कि अभी मैं छावनी पर चलूं। वहाँ जाने से इंद्रदेव का भी पता लग जाएगा। यदि उन लोगों की इच्छा हुई तो मैं इंद्रदेव को बुलाने के लिए चली जाऊंगी, और इंद्रदेव से अपनी भूल के लिए क्षमा भी मांग लूंगी।
वह छावनी की ओर मन-ही-मन सोचते हुए घूम पड़ी। कच्चे कुएं के जगत पर सिर पकड़े हुए एक किसान बैठा है। शैला का मन प्रसन्न वातावरण बनाने की कल्पना से उत्साह से भर उठा था। उसने कहा-मधुबन ! तितली से कह देना, आज दोपहर को मैं उसके यहाँ भोजन करूंगी; मैं छावनी से होकर आती हूँ।
मैं भी साथ चलूं-मधुबन ने पूछा।
नहीं, तुम जाकर तितली से कह दो भाई, मैं आती हूँ। - कहकर वह लंबा डेग बढ़ाती हुई चल पड़ी। छावनी पर पहुँचकर उसने देखा, बिलकुल सन्नाटा छाया है। नौकर-चाकर उधर चुपचाप काम कर रहे हैं।
शैला माधुरी के कमरे के पास पहुँचकर बाहर रुक गई। फिर उसने चिक हटा दिया। देखा तो मेज पर सिर रखे हुए माधुरी कुर्सी पर बैठी है- जैसे उसके शरीर में प्राण नहीं !
शैला कुछ देर खड़ी रही। फिर उसने पुकारा-बीबी-रानी !
माधुरी सिसकने लगी। उसने सिर उठाया। शैला ने उसके बालों को धीरे-धीरे सहलाते हुए कहा- क्या है, बीबी-रानी !
माधुरी ने धीरे से सिर उठाया। उसकी आंखें गुड़हल के फूल की तरह लाल हो रही थीं। शैला से आंख मिलाते ही उसके हृदय का बांध टूट गया। आंसू की धारा बहने लगी। शैला की ममता उमड़ आई। वह भी पास बैठ गई !
जी कड़ा करके माधुरी ने कहा- मैं तो सब तरह से लुट गई !
हुआ क्या ? मैं तो इधर बहुत दिनों से यहाँ आई नहीं, मुझे क्या पता। बीबी-रानी ! मुझ पर संदेह न करो। मैं तुम्हारा बुरा नहीं चाहती। मुझसे अपनी बीती साफ-साफ कहो न। मैं भी तुम्हारी भलाई चाहने वाली हूँ बहन !
माधुरी का मन कोमल हो चला ! दुख की सहानभूति हृदय के समीप पहुँचती है। मानवता का यही तो प्रधान उपकरण है। माधुरी ने स्थिर दृष्टि से शैला को देखते हुए कहा - यह सच है मिस शैला, कि मैं तुम्हारे ऊपर अविश्वास करती हूँ। मेरी भूल रही होगी। पर मुझे जो धोखा दिया गया वह अब प्रत्यक्ष हो गया। मैं यह जानती हूँ कि मेरे पति सदाचारी नहीं है, उनका मुझ पर स्नेह भी नहीं, तक भी यह मेरे मान का प्रश्न था और उससे भी मुझे धक्का मिला। मेरा हृदय टूक-टूक हो रहा है। मैंने कृष्णमोहन को लेकर दिन बिताने का निश्चय कर लिया था। मैं तो यह भी नहीं चाहती थी कि वह यहाँ आवें। पर जो होनी थी वह होकर ही रही।
माधुरी को फिर रुलाई आने लगी। वह अपने को सम्हाल रही थी। शैला ने पूछा - तो क्या हुआ, बाबू श्यामलाल चले गए?
हाँ, गए, और अनवरी को लेकर गए। मिस शैला ! वह अपमान मैं सह न सकूंगी। अनवरी ने मुझ पर ऐसा जादू चलाया कि मैं उसका असली रूप इसके पहले समझ ही न सकी।
यह कैसे हुआ ! इसमें सब इंद्रदेव की भूल है। वह यहाँ रहते तो ऐसी घटना न होने पाती। - शैला ने आश्चर्य छिपाते हुए कहा।
उनके रहने न रहने से क्या होता। यह तो होना ही था। हाँ, चले जाने से मेरे-मां के मन में भी यह बात आई कि इंद्रदेव को उन लोगों का आना अच्छा न लगा। परंतु इंद्रदेव को इतना रूखा मैं नहीं समझती। कोई दूसरी ही बात है, जिससे इंद्रदेव को यहाँ से जाना पड़ा। जो स्त्री इतनी निर्लज्ज हो सकती है, इतनी चतुर है, वह क्या नहीं कर सकती ? उसी का कोई चरित्र देखकर चले गए होंगे। सुनिए, वह घटना मैं सुनाती हूँ जो मेरे सामने हुई थी-
उस दिन मां के बहुत बकने पर मैं रात को उन्हें व्यालू कराने के लिए थाली हाथ में लिए, कमरे के पास पहुंची। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि भीतर कोई और भी है। मैं रुकी। इतने में सुनायी पड़ा - बस, बस, एक ग्लास मैं पी चुकी और लूंगी तो छिपा न सकूंगी। सारा भंडाफोड़ हो जाएगा।
उन्होंने कहा- मैं भंडाफोड़ होने से नहीं डरता। अनवरी ! मैंने अपने जीवन में तुम्हीं को तो ऐसा पाया है, जिससे मेरे मन की सब बातें मिलती हैं ! मैं किसी की परवाह नहीं करता, मैं किसी का दिया हुआ नहीं खाता, जो डरता रहूँ। तुम यहाँ क्यों पड़ी हो, चलो कलकत्ते में? तुम्हारी डाक्टरी ऐसे चमकेगी कि तुम्हारे नाम का डंका पिट जाएगा। हम लोगों का जीवन बड़े सुख से कटेगा।
लंबी-चौड़ी बातें करने वाले मैंने भी बहुत-से देखे हैं। निबाहना सहज नहीं है बाबू साहब ! अभी बीबी-रानी सुन लें तो आपकी...
चलो, देखा है तुम्हारी बीबी-रानी को। मैं...
मैं अधिक सुन न सकी। मेरा शरीर कांपने लगा। मैंने समझा कि यह मेरी दुर्बलता है। मेरा अधिकार मेरे ही सामने दूसरा ले और मैं प्रतिवाद न करके लौट जाऊं, यह ठीक नहीं। मैं थाली लिए घुस पड़ी। अनवरी अपने को छुपाती हुई उठ खड़ी हुई। उसका मुँह विवर्ण था। शराब की महक से कमरा भर रहा था। उन्होंने अपनी निर्लज्जता को स्पष्ट करते हुए पूछा-क्या है?
भला मैं इसका क्या उत्तर देती ! हाँ, इतना कह दिया कि क्षमा कीजिए, मैं नहीं जानती थी कि मेरे आने से आप लोगों का कष्ट होगा।
यह बड़ी असभ्यता है कि बिना पूछे किसी के एकांत में...
उसकी बात काटकर अनवरी ने कहा - बीबी-रानी ! मैं कलकत्ते में डाक्टरी करने के संबंध में बातें कर रही थी।
यह भी उसका दुस्साहस था ! मैं तो उसका उत्तर नहीं देना चाहती थी परंतु उसकी ढिठाई अपनी सीमा पार कर चुकी थी। मैंने कहा- बड़ी अच्छी बात है, मिस अनवरी ! आप कब जाएंगी।
मैं अधिक कुछ न कह सकी। थाली रखकर लौट आई। दूसरे दिन सवेरे ही अनवरी तो बनारस चली गई और उन्होंने कलकत्ते की तैयारी की ! मां ने बहुत चाहा कि वे रोक लिए जाएं। उन्होंने कहलाया भी, पर मैं इसका विरोध करती रही। मैं फिर सामने आ गई। वह चले गए।
शैला ने सांत्वना देते हुए कहा- जो होना था सो हो गया। अब दुख करने से क्या लाभ?
हम लोगों का भी आज शहर जाना निश्चित है। मां कहती है कि अब यहाँ न रहूँगी। भाई साहब का पता चला है कि बनारस में ही हैं। उन्होंने बैरिस्टरी आरंभ कर दी है। हाँ, कोठी पर वह नहीं रहते, अपने लिए कहीं बंगला ले लिया है।
वह और कुछ कहना चाहती थी कि बीच में किसी ने पुकारा- बीबी-रानी !
क्या है ? - माधुरी ने पूछा।
मां जी आ रही हैं।
आती तो रही, उन्हें उठकर आने की क्या जल्दी पड़ी थी?
श्यामदुलारी भीतर आ गईं। उस वृद्धा स्त्री का मुख गंभीर और दृढ़ता से पूर्ण था। शैला का नमस्कार ग्रहण करते हुए एक कुर्सी पर बैठकर उन्होंने कहा- मिस शैला ! आप अच्छी हैं? बहुत दिनों पर हम लोगों की सुध हुई।
मां जी! क्या करूं, आप ही का काम करती हूँ। जिस दिन से यह सब काम सिर पर आ गया, एक घड़ी की छुट्टी नहीं। आज भी यदि एक घटना न हो जाती तो यहाँ आती या नहीं, इसमें संदेह है। आपके गांव भर में रात को पाला पड़ा। किसान का सर्वनाश हो गया है। कई दवाएं भी नहीं है। तहसीलदार के पास लिख भेजा था। वे आईं नहीं और ...
शैला और भी जाने क्या-क्या कह जाती; क्योंकि उसका मन चंचल हो गया था। इस गृहस्थी की विश्रृंखलता के लिए वह अपने को अपराधी समझ रही थी। उसकी बातें उखड़ी-उखड़ी हो रही थीं। किंतु श्यामदुलारी ने बीच में ही रोककर कहा- पाला-पत्थर पड़ने में जमींदार क्या कर सकता है। जिस काम में भगवान का हाथ है, उसमें मनुष्य क्या कर सकता है। मिस शैला, मेरी सारी आशाओं पर भी तो पाला पड़ गया। दोनों लड़के बेकहे हो रहे हैं। हम लोग स्त्री हैं। अबला हैं। आज वह जीते होते तो दो-दो थप्पड़ लगाकर सीधा कर देते। पर हम लोगों के पास कोई अधिकार नहीं। संसार तो रुपए-पैसे के अधिकार तो मानता है। स्त्रियों के स्नेह का अधिकार, रोने-दुलारने का अधिकार, तो मान लेने की वस्तु है न?
अपनी विवशता और क्रोध से श्यामदुलारी की आंखों से आंसू निकल आए। शैला सन्न हो गयी। उसे भी रह-रह कर इंद्रदेव पर क्रोध आता था। पुरुष के प्रति स्त्रियों का हृदय प्राय: विषम और प्रतिकूल रहता है। जब लोग कहते हैं कि वे एक आंख से रोती हैं तो दूसरी से हंसती हैं, तक कोई भूल नहीं करते। हाँ, यह बात दूसरी है कि पुरुषों के इस विचार में व्यंग्यपूर्ण दृष्टिकोण का अंत है।
स्त्रियों को उकी आर्थिक पराधीनता के कारण जब हम स्नेह करने के लिए बाध्य करते हैं, तब उनके मन में विद्रोह की सृष्टि भी स्वाभाविक है ! आज प्रत्येक कुटुंब उनके इस स्नेह और विद्रोह के द्वंद्व से जर्जर है और असंगठित है। हमारा सम्मिलित कुटुंब उनकी इस आर्थिक पराधीनता की अनिवार्य असफलता है। उन्हें चिरकाल से वंचित एक कुटुंब से आर्थिक संगठन को ध्वस्त करने के लिए दिन-रात चुनौती मिलती रहती है। जिस कुल से वे आती हैं , उस पर से ममता हटती नहीं, यहाँ भी अधिकार की कोई संभावना न देखकर, वे सदा घूमने वाली गृहहीन अपराधी जाति की तरह प्रत्येक कौटुंबिक शासन को अव्यवस्थित करने में लग जाती हैं। यह किसका अपराध है ? प्राचीन-काल में स्त्रीधन की कल्पना हुई थी। किंतु आज उसकी जैसे दुर्दशा है, जितने कांड उसके लिए खड़े होते हैं, वे किसी से छिपे नहीं।
श्यामदुलारी का मन आज संपूर्ण विद्रोही हो गया था। लड़के और दामाद की उच्छृखंलता ने उन्हें अपने अधिकार को सजीव करने के लिए उत्तेजिना दी। उन्होंने कहा-मिस शैला ! मैंने निश्चय कर लिया है कि अब किसी को मनाने न जाऊंगी। हाँ, मेरी बेटी का दु:ख से भरा भविष्य है और अपने नाम की जमींदारी माधुरी को देने का निश्चय कर लिया है। तुम क्या कहती हो ? हम लोग तुम्हारी संपत्ति चाहती हैं।
मां जी, आपने ठीक सोचा है। बीबी-रानी को और दूसरा क्या सहारा है। मैं समझती हूँ कि इसमें इंद्रदेव से पूछने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि उसके लिए कोई कमी नहीं। वह स्वयं भी कमा सकते हैं और संपत्ति भी है ही !
माधुरी अवाक् होकर शैला का मुँह देखने लगी। आज स्त्रियां सब एक ओर थीं। पुरुषों की दुष्टता का प्रतिकार करने में सब सहमत थीं। श्यामदुलारी ने शैला का अनुकूल मत जानकर कहा-तो हम लोग आज ही बनारस जाएंगी। वहाँ पहले मैं दान-पत्र की रजिस्ट्री कराऊंगी। तुम भी चलोगे ?
बिला कुछ सोचे हुए शैला ने कहा-चलूंगी।
तो फिर तैयार हो जाओ। नहीं, दो घंटे में उधर ही नील-कोठी पर आकर तुम्हें लेती चलूंगी।
बहुत अच्छा-कहकर शैला उठ खड़ी हुई। वह सीधे बनजरिया की ओर चल पड़ी। मधुबन से कह चुकी थी, तितली उसकी प्रतीक्षा में बैठी होगी।
शैला कुछ प्रसन्न थी। उसने अज्ञात भाव से इंद्रदेव को जो थोड़ा-सा दूर हटाकर श्यामदुलारी और माधुरी को अपने हाथों में पा लिया था, वह एक लाभ-सा उसे उत्साहित कर रहा था। परंतु बीच-बीच में वह अपने हृदय में तर्क भी करती थी- इंद्रदेव को मैं एक बार ही भूल सकूंगी ? अभी-अभी तो मैंने सोचा था कि चलकर इंद्रदेव से क्षमा मांग लूंगी, मना लाऊंगी, फिर यह मेरा भाव कैसा ?
उसे खेद हुआ। और फिर अपनी भूल सुधारते हुए उसने निश्चय किया कि बुरा काम करते भी अच्छा हो सकता है। मैं इसी प्रश्न को लेकर इंद्रदेव से अच्छी तरह बातें कर सकूंगी और सफाई भी दे लूंगी।
वह अपनी धुन में बनजरिया तक पहुँच भी गई, पर उसे मानो ज्ञान नहीं। जब तितली ने पुकारा-वाह बहन ! मैं कब से बैठी हूँ, इस तरह के आने के लिए कहकर भी कोई भूल जाता है- तो वह आपे में आ गई।
मुझे झटपट कुछ लिखा दो। अभी-अभी मुझे शहर जाना है।
वाह रे चटपट ! बैठो भी, अभी हरे चने बनाती हूँ, तब खाना होगा। ठंडा हो जाने से वह अच्छा नहीं लगता। हम लोगों का ऐसा-वैसा भोजन, रूखा-सूखा गरम-गरम ही तो खा सकोगी। चावल और रोटियां भी तैयार हैं ! अभी बन जाता है।
तितली उसे बैठाती हुई, रसोई-घर में चली गई। हरे चनों की छनछनाहट अभी बनजरिया में गूंज रही थी कि मधुबन एक कोमल लौकी लिए हुए आया। वह उसे बैठकर छीलने-बनाने लगा
शैला इस छोटी-सी गृहस्थी में दो प्राणियों को मिलाकर उसकी कमी पूरी करते देखकर चकित हो रही थी। अभी छावनी की दशा देखकर आई थी। वहाँ सब कुछ था, पर सहयोग नहीं। यहाँ कुछ न था, परंतु पूरा सहयोग उस अभाव से मधुर युद्ध करने के लिए प्रस्तुत। शैला ने छेड़ने के लिए कहा-तितली ! मुझे भूख लगी है। तुम अपने पकवान रहने दो, जो बना हो, मुझे लाकर खिला दो।
आई, आई, लो, मेरा हाथ जलने से बचा।
मधुबन ने कहा-तो ले आओ न !
वह भी हंस रहा था।
पहले केले का पत्ता ले आओ। फिर जल्दी करना।
मधुबन केले का पत्ता लेने के लिए बनजरिया की झुरमुट में चला। शैला हंस रही थी। उसके सामने रहे-हरे दोनों में देहाती दही में भींगे हुए बड़े और आलू-मटर की तरकारी रख दी गई। पत्ते लेकर मधुबन के आते ही चावल, रोटी, दाल, हरे चने और लौकी भी सामने आ गई।
शैला खाती भी थी, हंसती भी थी। उसके मन में संतोष-ही-संतोष था। उसके आस-पास एक प्रसन्न वातावरण फैला रहा था, जैसे विरोध का कहीं नाम नहीं। इंद्रदेव ! उस रूठे हुए मन को मना लाने के लिए तो वह जा रही थी।
भोजन कर लेने पर शैला ने हाथ पोंछते हुए मधुबन से कहा-नील कोठी की रखवाली तुम्हारे ऊतपर। मैं दो-चार दिन भी वहाँ ठहर सकती हूँ ! सावधान रहना। किसी से लड़ाई-झगड़ा मत कर बैठना।
वाह ! मैं सबसे लड़ाई ही तो करता फिरता हूँ।
दूर न जाकर घर में तितली ही से, क्यों बहन ! - शैला ने हंसकर कहा।
तितली लज्जा से मुस्कराती हुई बोली- मैं क्या कलकत्ते की पहलवान हूँ बहन !
मधुबन उत्तर न दे सकने से खीझ रहा था। पर वह खीझ बड़ी सुहावनी थी। सहसा उसे एक बात का स्मरण हुआ। उसने कहा-हाँ, एक बात तो कहना मैं भूल ही गया था। मलिया को लेकर वह तहसीलदार बहुत धमका गया है। मेरे सामने फिर आवेगा तो मैं उसके दो-चार बचे हुए दांत भी झाड़ दूंगा। वह बेचारी क्या इस गांव में रहने न पावेगी। और तो किसी से बोलने के लिए मैं शपथ खा सकता हूँ।
मधुबन ! सहनशील होना अच्छी बात है। परंतु अन्याय का विरोध करना उससे भी उत्तम है। तुम कोई उपद्रव न करोगे, इसका तो मुझे विश्वास है। अच्छा तो चलो मेरे साथ, और बहन तितली ! तो मैं जाती हूँ।
तितली ने नमस्कार किया। दोनों चले। अभी बनजरिया से कुछ ही दूर पहुंचे होंगे कि मलिया उधर से आती हुई दिखाई पड़ी। उसकी दयनीय और भयभीत मुखाकृति देखकर शैला को रुक जाना पड़ा। शैला ने उसे पास बुलाकर कहा-मलिया, तू तितली के पास निर्भय होकर रह, किसी बात की चिंता मत कर।
मलिया की आंखों में कृतज्ञता के आंसू भर आए। नील कोठी पर पहुँचकर दो-चार आवश्यक वस्तुएं अपने बेग में रखकर शैला तैयार हो गई। मधुबन को आवश्यक काम समझाकर वह झील की ओर पत्थर पर बैठी हुई, सड़क पर मोटर आने की प्रतीक्षा करने लगी। मधुबन को भूख लगी थी। उसने जाने के लिए पूछा। तितली भी अभी बैठी होगी -यह जानकार शैला को अपनी भूल मालूम हुई। उसने कहा-जाओ, तितली मुझे कोसती होगी।
मधुबन चला गया। तितली की बातें सोचते-सोचते उसकी छोटी-सी सुख से भरी गृहस्थी पर विचार करते-करते, शैला के एकांत मन में नई गुदगुदी होने लगी। वह अपनी बड़ी-सी नील कोठी को व्यर्थ की विडंबना समझकर, उसमें नया प्राण ले आने की मन-ही-मन स्त्री-हृदय के अनुकूल मधुर कल्पना करने लगी।
आज उसे अपनी भूल पग-पग पर मालूम हो रही थी। उसने उत्साह से कहा-अब विलंब नहीं।
दूर से धूल उड़ाती हुई मोटर आ रही थी। ड्राइवर के पास एक पांडेजी बंदूक लिए बैठे थे। पीछे श्यामदुलारी और माधुरी थीं।
टीले के नीचे मोटर रुकी। चमड़े का छोटा-सा बेग हाथ में लिए फुरती से शैला उतरी। वह जाकर माधुरी से सटकर बैठ गई।
माधुरी ने पूछा - और कुछ सामान नहीं क्या ?
नहीं तो।
तो फिर चलना चाहिए।
शैला ने कुछ सोचकर कहा-आपने तहसीलदार को साथ में नहीं लिया। बिना उसके वह काम, जो आप करना चाहती हैं, हो सकेगा ?
क्षण-भर के लिए सन्नाटा रहा। माधुरी कुछ कहना चाहती थी। श्यामदुलारी ने ही कहा-हाँ, यह बात तो मैं भी भूल गई। उसको रहना चाहिए।
तो आप एक चिट लिख दें। मैं यहीं नील-कोठी के चपरासी के पास छोड़ आती हूँ। वह जाकर दे देगा। कल तहसीलदार बनारस पहुंचेगा।
श्यामदुलारी ने माधुरी को नोट-बुक से पन्ना फाड़कर उस पर कुछ लिखकर दे दिया। शैला उसे लेकर ऊपर चली गई।
श्यामदुलारी ने माधुरी को देखकर कहा-हम लोग जितना बुरी शैला को समझती थीं उतनी तो नहीं है, बड़ी अच्छी लड़की है।
माधुरी चुप थी ! वह अब भी शैल को अच्छा स्वीकार करने में हिचकती थी।
शैला ऊपर से आ गई। उसके बैठ जाने पर हार्न देती हुई मोटर चल पड़ी।
3
धामपुर में सन्नाटा हो गया। जमींदार की छावनी सूनी थी। बनजरिया में बाबाजी नहीं। नील-कोठी पर शैला की छाया नहीं। उधर शेरकोट के खंडहर में राजकुमारी अपने दुर्बल अभिमान में ऐंठी जा रही थी। उसका हृदय काल्पनिक सुखों का स्वप्न देखकर चंचल हो गया था। सुखदेव चौबे ने अकाल जलद की तरह उसके संयम के दिन को मलिन कर दिया था। वह अब ढलते हुए यौबन को रोक रखने की चेष्टा में व्यस्त रहती है।
उसकी झोंपड़ी में प्रसाधन की सामग्री भी दिखाई पड़ने लगी। कहीं छोटा-सा दर्पण, तो कहीं तेल की शीशी। वह धीरे-धीरे चिकने पथ पर फिसल रही थी। लोग क्या कहेंगे, इस पर उसका ध्यान बहुत कम जाता। कभी-कभी अपनी मर्यादा के खोये हुए गौरव की क्षीण प्रतिध्वनि उसे सुनाई पड़ती, पर वह प्रत्यक्ष सुख की आशा को-जिसे जीवन में कभी प्राप्त न कर सकी थी-छोड़ने में असमर्थ थी।
मधुबन भी तो अब वहाँ नहीं आता। उस दिन ब्याह में राजकुमारी का वह विरोध उसे बहुत ही खला। उसे धीरे-धीरे राजकुमारी के चरित्र में संदेह भी हो चला था। किंतु उसकी वही दशा थी, जैसे कोई मनुष्य भय से आंख मूंद लेता है। वह नहीं चाहता था कि अपने संदेह की परीक्षा करके कठोर सत्य का नग्न रूप देखे।
मधुबन को नील-कोठी का काम करना पड़ता। वहाँ से उसको कुछ रुपए मिलते थे। इसी बहाने को वह सब लोगों से कह देता कि उसे शेरकोट आने-जाने में नौकरी के लिए असुविधा थी। इसीलिए बनजरिया में रोटी खाता था। राजकुमारी की खीझ और भी बढ़ गई थी। यों तो मधुबन पहले ही कुछ नहीं देता था। राजकुमारी अपने बुद्धि-बल और प्रबंध-कुशलता से किसी-न-किसी तरह रोटी बनाकर खा लिया लेती थी। पर जब मधुबन को कुछ मिलने लगा, तब उसमें से कुछ मिलने की आशा करना उसके लिए स्वाभाविक था। किंतु वह नहीं चाहती कि वास्तव में उसे मधुबन कुछ दिया करे। हाँ, यह तो यह भी चाहती थी, मधुबन इसके लिए फिर शेरकोट में न आने लगे, और इससे नवजात विरोध का पौधा और भी बढ़ेगा। विरोध उसका अभीष्ट था।
संध्या होने में भी विलंब था। राजकुमारी अपने बालों में कंघी कर चुकी थी। उसने दर्पण उठाकर अपना मुँह देखा। एक छोटी-सी बिंदी लगाने के लिए उसका मन ललच उठा। रोली, कुंकुम, सिंदूर वह नहीं लगा सकती, तब ? उसने नियम और धर्म की रूढ़ि बचाकर काम निकाल लेना चाहा। कत्थे और चूने को मिलाकर उसने बिंदी लगा ली। फिर से दर्पण देखा। वह अपने ऊपर रीझ रही थी। हाँ, उसमें वह शक्ति आ गई थी कि पुरुष एक बार उसकी ओर देखता। फिर चाहे नाक चढ़ाकर मुँह फिरा लेता। यह तो उनकी विशेष मनोवृत्ति है। पुरुष, समाज में वही नहीं चाहता, जिसके लिए उसी का मन छिपे-छिपे प्राय: विद्रोह करता रहता है। वह चाहता है, स्त्रियां सुंदर हों, अपने को सजाकर निकलें और हम लोग देखकर उनकी आलोचना करें। वेश-भूषा के नए-नए ढंग निकालता है। फिर उनके फिर नियम बनाता हैं पर जो सुंदर होने की चेष्टा करती हो, उसे अपना अधिकार प्रमाणित करना होगा।
राजो ने यह अधिकार खो दिया था। वह बिंदी लगाकर पंडित दीनानाथ की लड़की के ब्याह में नहीं जा सकती थी। दु:ख से उसने बिंदी मिटाकर चादर ओढ़ ली। बुधिया, सुखिया और कल्लो उसके लिए कब से खड़ी थीं। राजकुमारी को देखकर वह सब-की-सब हंस पड़ीं।
क्या है रे ?- अपने रूप की अभ्यर्थना समझते हुए भी राजकुमारी ने उनकी हंसी का अर्थ समझना चाहा। अपनी किसी भी वस्तु की प्रशंसा कराने की साथ बड़ी मीठी होती है न ? चाहे उसका मूल्य कुछ हो। बुधिया ने कहा-चलो मालकिन ! बारात आ गई होगी !
जैसे तेरा ही कन्यादान होने वाला है। इतनी जल्दी। कहकर राजकुमारी घर में ताला लगाकर निकल गई। कुछ ही दूर चलते-चलते और भी कितनी ही स्त्रियां इन लोगों के झुंड में मिल गईं। अब यह ग्रामीण स्त्रियों का दल हंसते-हंसते परस्पर परिहास में विस्मृत, दीनानाथ के घर की ओर चला।
अन्नों को पका देने वाला पश्चिमी पवन सर्राटे से चल रहा था। जौ-गेहूँ के कुछ-कुछ पीले बाल उसकी झोंक में लोट-पोट हो रहे थे। वह फागुन की हवा मन में नई उमंग बढ़ाने वाली थी, सुख-स्पर्श थी। कुतूहल से भी ग्राम-वधुएं, एक-दूसरे की उमंग आलोचना में हंसी करती हुई, अपने रंग-बिरंगे वस्त्रों में ठीक-ठीक शस्य-श्यामल खेतों की तरह तरंगायित और चंचल हो रही थीं। वह जंगली पवन वस्त्रों से उलझता था। युवतियां उसे समेटती हुई, अनेक प्रकार से अपने अंगों को मरोर लेती थीं। गांव की सीमा में निर्जनता थी। उन्हें मनमानी बातचीत करने के लिए स्वतंत्रता थी। पीली-पीली धूप, तीसी और सरसों के फूलों पर पड़ रही थी। बसंत की व्यापक कला से प्रकृति सजीव हो उठी थी। सिंचाई से मिट्टी की सोंधी महक, वनस्पतियों की हरियाली की और फूलों की गंध उस वातावरण में उत्तेजना-भरी मादकता ढाल रही थी।
राजकुमारी इस टोली की प्रमुख थी। वह पहले ही पहल इस तरह ब्याह के निमंत्रण में चली थी ! संयम का जीवन जैसे कारागार के बाहर आकर संसार की वास्तविक विचित्रता से और अनुभूति से परिचित हो रहा था।
राजकुमारी को दूर से दीनानाथ के घर की भीड़-भाड़ दिखाई पड़ी। उसकी संगिनियों का दल भी कम न था। उसने देखा कि राग-विरागपूर्ण जन-कोलाहल में दिन और रात की संधि, अपना दु:ख-सुख मिलाकर एक तृप्ति भरी उलझन से संसार को आंदोलित कर रही है। राजकुमारी का मन उसी में मिल जाने के लिए व्यग्र हो उठा।
जब वह पंडितजी के घर पर पहुंची तो बारात की अगवानी में गीत गाने वाली कुल-कामिनियों के झुंड ने अपनी प्रसन्न चेष्टा, चपल संकेतों और खिलखिलाहट-भरी हंसी से उसका स्वागत किया। राजकुमारी ने देखा कि जीवन का सत्य है, प्रसन्नता। वह प्रसन्नता और आनंद की लहरों में निमग्न हो गई।
तहसीलदार बारात का प्रबंध कर रहे थे इसलिए गोधूलि में जब बारात पहुंची तो वही सबके आगे था। इधर दीनानाथ के पक्ष से चौबे अगवानी कर रहे थे। द्वारपूजा होकर बारात वापस जनवासे लौट गई। वहाँ मैना का नाच होने लगा।
इधर पंडितजी के घर पर स्त्रियों का कोलाहल शांत हो रहा था। बहुत-सी तो लौटने लगी थीं। पर राजकुमारी का दल अभी जमा था। गाना-बजाना चल रहा था। लग्न समीप था, इसलिए ब्याह देखकर ही इन लोगों को जाने की इच्छा थी।
तितली, जो भीड़ में दूसरी ओर बैठी थी, उठकर आंगन की ओर आई। वह जाने के लिए छुट्टी मांग चुकी थी। छपे हुए किनारे की सादी खादी की धोती। हाथों में दो चूडि़यां और सुनहले कड़े। माथे में सौभाग्य सिंदूर। चादर की आवश्यकता नहीं। अपनी सलज्ज गरिमा को ओढ़े हुए, वह उन स्त्रियों की रानी-सी दिखलाई पड़ती थी।
पंडित की बड़ी लड़की जमुना शहर में ब्याही थी। उसने तितली को जाते देखा। देहात में यह ढ़ंग ! वह चकित हो रही थी। मित्रता के लिए चंचल होकर वह सामने आकर खड़ी हो गई।
वाह बहन ! तुम चली जाती हो। यह नहीं होगा। अभी नहीं जाने दूंगी। चलो, बैठो। ब्याह देखकर जाना।
वह गाने वाले झुंड की ओर पकड़कर उसे ले चली। राजकुमारी ने तितली को देखा और तितली ने राजकुमारी को। तितली उसके पास पहुंची। आंचल का कोना दोनों हाथों में पकड़कर गांव की चाल से वह पैर छूने लगी। राजकुमारी अपने रोष की ज्वाला में धधकती हुई मुँह फेरकर बैठ गई।
जमुना को राजो के इस व्यवहार पर क्रोध आ गया। वह तो तितली की मित्र थी। फिर दबने वाली भी नहीं। उसने कहा-बेचारी तो पैर छू रही है और तुम अपना मुँह घुमा लेती हो, यह क्या है। तुम तो तितली की ननद हो न !
मैं कौन हूँ ? यह सिरचढ़ी तो स्वयं ही दूल्हा खोजकर आई है। भला इस दिखावट की आवभगत से क्या काम ?
राजकुमारी का स्वर बड़ा तीव्र और रूखा था।
अब तो आ गई हूँ, जीजी-तितली ने हंसकर कहा परंतु एक दल ऐसा भी था, जो तितली से उग्र प्रतिवाद की आशा रखता था। गाना-बजाना बंद हो गया। तितली और राजकुमारी का द्वंद्व देखने का लोभ सब को उस ओर आकर्षित किए था।
एक ने कहा-सच तो कहती है, अब तो वह तुम्हारे घर आ गई है। तुमको अब वह बातें भुला देनी चाहिए।
मैं कर क्या रही हूँ। मैं तो कुछ बोलती भी नहीं। तुम लोग झूठ ही मेरा सिर खा रही हो। क्या मैं तो चली जाऊं ? कहती हुई राजकुमारी उठ खड़ी हुई। जमुना ने उसका हाथ पकड़कर बिठलाया, और तितली भौंचक-सी अपने अपराधों को खोजने लगी। उसने फिर साहस एकत्र किया और पूछा-जीजी, मेरा अपराध क्षमा न करोगी ?
मैं कौन होती हूँ क्षमा करने वाली ? तुमको हाथ जोड़ती हूँ, तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, तुम राजरानी हो, हम लोगों पर दया रखो।
राजकुमारी और कुछ कहना ही चहती थी कि किसी प्रौढ़ा ने हंसकर कहा-बेचारी के भाई को जादू-विद्या से इस कल की छोकरी ने अपने बस में कर लिया है। उसे दुख न हो ?
राजकुमारी ने देखा कि वह बनाई जा रही है, फिर भी तितली की ही विजय रही। वह जल उठी। चुप होकर धीरे-से खिसक जाने का अवसर देखने लगी - पंडित दीनानाथ कुछ क्रोध से भरे हुए घर में आए और अपनी स्त्री से कहने लगे-मैं मना करता था कि इन शहरवालों के यहाँ एक ब्याह करके देख चुकी हो, अब यह ब्याह किसी देहात में ही करूंगा। पर तुम मानो तब तो। मांग-पर-मांग आ रही है। अनार-शरबत चाहिए। ले आओ, है घर में ? इस जाड़े में भी यह ढकोसला ! मालूम होता है, जेठ-वैसाख की गरमी से तप रहे हैं !
जमुना की मां धीरे-सी अपनी कोठरी में गई और बोतल लिए हुए बाहर आई। उसने कहा-फिर समधी हैं, अनार-शरबत ही तो मांगते हैं। कुछ तुमसे शराब तो मांगते नहीं। घबराने की क्या बात है ? सुखदेव चौबे से कह दो, जाकर दे आवें और समझा दें कि हम लोग देहाती हैं, पंडित जी को सागसत्तू ही दे सकते हैं, ऐसी वस्तु न मांगें जो यहाँ न मिल सकती हो।
जमुना की मां एक बहन बड़ी हंसोड थी। उसने देखा कि अच्छा अवसर है। वह चिल्ला उठी-छिपकली।
पंडित जी-कहाँ-कहते हुए उछल पड़े। सब स्त्रियां हंस पड़ीं। जमुना की मां ने कहा-छिपकली के नाम पर उछलते हो, यह सुनकर समधी तो तुम्हारे ऊपर सैकड़ों छिपकलियां उछाल देंगे।
पंडित जी ने कहा-तुम नहीं जानती हो, इसके गिरने से शुभ और अशुभ देखा जाता है। यह है बड़ी भयानक वस्तु। इसका नाम है 'विषतूलिका'। सामने गिर पड़े तो भी दु:ख देती है।
पंडित जी जब 'विषतूलिका' का उच्चारण अपने ओठों को बनाकर बड़ी गंभीरता से कर रहे थे और सब स्त्रियां हंस रही थीं, तब राजकुमारी ने तितली की ओर देखकर मन-ही-मन घृणा से कहा-विषतूलिका। उस समय उसकी मुखाकृति बड़ी डरावनी हो गई थी। परंतु सुखदेव चौबे को सामने देखते ही उसका हृदय लहलहा गया। रधिया को न जाने क्या सूखा, ढोल बजाती हुई सुखदेव के नाम के साथ कुछ जोड़कर गाने लगी। सब उस परिहास में सहयोग करने लगीं। तितली उठकर मर्माहत सी जमुना के पास चली गई।
रात हो गई थी। राजकुमारी भी छुट्टी मांगकर अपनी बुधिया, कल्लो को लेकर चली। राह में ही जनवासा पड़ता था। रावटियों के बाहर बड़े-से-बड़े चंदोवे के नीचे मैना गा रही थी - 'लगे नैन बालेपन से'
राजकुमारी कुछ काल के लिए रुक गई। दुनिया ने कहा-चलो, न मालकिन ! दूर से खड़ी होकर हम लोग भी नाच देख लें।
नहीं रे ! कोई देख लेगा।
कौन देखता है, उधर अंधेरे में बहुत-सी स्त्रियां हैं। वहीं पीछे हम लोग भी घूंघट खींचकर खड़ी हो जाएंगी। कौन पहचानेगा ?
राजकुमारी के मन की बात थी। वह मान गई। वह भी जाकर आम के वृक्ष की घनी छाया में छिपकर खड़ी हो गई। बुधिया और कल्लो तो ढीठ थीं, आगे बढ़ गई। उधर गांव की बहुत-सी स्त्रियां और लड़के बैठे थे। वे सब जाकर उन्हीं में मिल गईं। पर राजकुमारी को साहस न हुआ। आम की मंजरी की मीठी मतवाली महक उसके मस्तिष्क को बेचैन करने लगी।
मैना उन्मत्त होकर पंचम स्वर में गा रही थी। उसका नृत्य अद्भुत था। सब लोग चित्रखिंचे-से देख रहे थे। कहीं कोई भी दूसरा शब्द सुनाई न पड़ता था। उसके मधुर नूपुर की झनकार उस वसंत की रात को गुंजा रही थी।
राजकुमार ने विह्वल होकर कहा- बालेपन से; साथ ही एक दबी सांस उसके मुँह से निकल गई। वह अपनी विकलता से चंचल होकर जल्दी से अपनी कोठरी में पहुँचकर किवाड़ बंद कर लेने के लिए घबरा उठी। पर जाय तो कैसे। बुधिया और कल्लों तो भीड़ में थीं। वहाँ जाकर उन्हें बुलाना उसे जंचता न था। उसने मन-ही-मन सोचा-कौन दूर शेरकोट है। मैं क्या अकेली नहीं जा सकती। तब तक यहीं खड़ी रहूँगी? - वह लौट पड़ी।
अंधकार का आश्रय लेकर वह शेरकोट की ओर बढ़ने लगी। उधर से एक बाहा पड़ता था। उसे लांघने के लिए वह क्षण-भर के लिए रुकी थी कि पीछे से किसी ने कहा-कौन है ᣛ?ᣛ
भय से राजकुमारी के रोएं खड़े हो गए। परंतु अपनी स्वाभाविक तेजस्विता एकत्र करके वह लौट पड़ी।उसने देखा, और कोई नहीं, यह तो सुखदेव चौबे हैं।
गांव की सीमा में खलिहानों पर से किसानों के गीत सुनाई पड़ रहे थे। रसीली चांदनी की आर्द्रता से मंथर पवन अपनी लहरों से राजकुमारी के शरीर में रोमांचक उत्पन्न करने लगा था। सुखदेव ज्ञानविहीन मूक पशु की तरह, उस आदमी की अंधेरी छाया में राजकुमारी के परवश शरीर के आलिंगन के लिए, चंचल हो रहा था। राजकुमारी की गई हुई चेतना लौट आई। अपनी असहायता में उसका नारीत्व जगकर गरज उठा। अपने को उसने छुड़ाते हुए कहा- सुखदेव ! मुझे सब तरह से मत लूटो। मेरा मानसिक पतन हो चुका है। मैं किसी और की न रही। तो तुम्हारी भी न हो सकूंगी। मुझे घर पहुंचा दो।
सुखदेव अनुनय करने लगा। रात और भींगने लगी। ज्यों-ज्यों विलंब हो रहा था, राजकुमारी का मन खीझने लगा। उसने डांटकर कहा- चलो घर पर, मैं यहाँ नहीं खड़ी रह सकती।
विवश होकर दोनो ही शेरकोट की ओर चले।
उधर बारात में नाच-गाना, खाना-पीना चल रहा था। सब लोग आनंद-विनोद में मस्त हो रहे थे, तब एक भयानक दुर्घटना हुई। एक हाथी,जो मस्त हो रहा था, अपने पीलवान को पटककर चिंघाड़ने लगा। उधर साटे-बरदार, बरछी वाले दज्ञैड़े, पर चंदोवे के नीचे तो भगदड़ मच गई। हाथी सचमुच उधर ही आ रहा था। मधुबन भी इसी गड़बड़ी में अभी खड़ा होकर कुछ सोच ही रहा था, कि उसने देखा, मैना अकेली किंकर्तव्यविमूढ़-सी हाथी के सूंड़ की पहुँच ही के भीतर खड़ी थी। बिजली की तरह मधुबन झपटा। मैना को गोद में उठाकर दैत्य की तरह सरपट भगने लगा। मैना बेसुध थी।
उपद्रव की सीमा से दूर निकल जाने पर मधुबन को चैतन्य हुआ। उसने देखा, सामने शेरकोट है। आज कितने दिनों पर वह अपने घर की ओर आया था। अब उसे अपने विचित्र परिस्थिति का ज्ञान हुआ। वह मैना को बचा ले आया, पर इस रात में उसे रखे कहाँ। उसने मन को समझाते हुए कहा- मैं अपना कर्तव्य कर रहा हूँ। इस समय राजो को बुलाकर इस मूर्च्छित स्त्री को उसकी रक्षा में छोड़ दूं। फिर सवेरे देखा जाएगा।
मैना मूर्च्छित थी। उसे लिए हुए धीरे-धीरे वह शेरकोट के खंडहर में घुसा। अभी वह किवाड़ के पास नहीं पहुंचा था कि उसे सुखदेव का स्वर सुनाई पड़ा-खोल दो राजो ! मैं दो बात करके चला जाऊंगा। तुमको मेरी सौगंध।
मधुबन के चारों ओर चिनगारियां नाचने लगीं। उसने मैना को धीरे-से दालान की टूटी चौकी पर सुलाकर सुखदेव को ललकारा- क्यों चौबे की दुम। यह क्या ?
सुखदेव ने घूमकर कहा- मधुबन ! बे, तो मत करो।
साथ ही मधुबन के बलवान हाथ का भरपूर थप्पड़ मुँह पर पड़ा-नींच कहीं का। रात को दूसरों के घर की कुंडियां खटखटाता है और धन्नासेठी भी बघारता है। पाजी !
अभी सुखदेव सम्भल भी नहीं पाया था कि दनादन लात-घूंसे पड़ने लगे। सुखदेव चिल्लाने लगा। मैना सचेत होकर यह व्यवहार देखने लगी। उधर से राजो भी किवाड़ खोलकर बाहर निकल आई ! मधुबन का हाथ पकड़कर मैना ने कहा- बस करो मधुबन बाबू।
राजो तो सन्न थी। सुखदेव ने सांस ली। उसकी अकड़ के बंधन टूट चुके थे।
मैना ने कहा- हम लोग यहीं रात बिता लेंगे। अभी न जाने हाथी पकड़ा गया कि नहीं। उधर जाना तो प्राण देना है।
सुखदेव चतुरता से चूकने वाला न था। उसने उखड़े हुए शब्दों में अपनी सफाई देते हुए कहा- मैं क्या जानता था कि हाथी से प्राण बचाने जाकर बाघ में मुँह चला गया हूँ।
मैना को हंसी आ गई। पर मधुबन का क्रोध शात नहीं हुआ था। वह राजकुमरी की ओर उस अंधकार में घूरने लगा था। राजो का चुप रहना उस अपराध में प्रमाण बन गया था। परंतु मधुबन उसे और अधिक खोलने के लिए प्रस्तुत न था।
मीना एक वैश्या थी। उसके सामने कुलीनता का आडंबर रखने वाले घर का यह भंडाफोड़। मधुबन चुप था। राजकुमारी ने कहा- अच्छा, भीतर चलो। जो किया सो अच्छा किया। यह कौन है ?
अब मधुबन को जैसे थप्पड़ लगा।
मैना का प्राण बचाकर उसने कच्छा ही किया था। पर थी तो वह वेश्या ! उतनी रात को उसे उठाकर ले भागना; फिर उसे अपने घर ले आना ! गांव भर में लोग क्या कहेंगे ! और तब तो जो होगा, देखा जाएगा, इस समय राजकुमारी को क्या उत्तर दे। उसका संकोच उसके साहस को चबाने लगा।
मधुबन की परिस्थिति मैना समझ गई। उसने कहा- मैं यहाँ नाचने आई हूँ। हाथी बिगड़कर मुझी पर दौड़ा। यदि मधुबन बाबू वहाँ न आते तो मैं मर चुकी थी। अब रात भर मुझे कहीं पड़े रहने की जगह दीजिए, सवेरे ही चली जाऊंगी।
राजकुमारी को समझौता करना था। दूसरा अवसर होता तो वह कभी न ऐसा करती। उसने कहा- अच्छा आओ मैना- उसके साथ भीतर चलते हुए मधुबन का हाथ पकड़कर मैना बोली- सुखदेव को वहीं पड़ा रहने दीजिए। रात है, अभी न जाने हाथी कुचल दे तो बेचारे की जान चली जायगी।
मधुबन कुछ न बोला वह भीतर चला गया।
सुखदेव सवेरा होने से पहले ही धीरे-धीरे उठकर बनजरिया की ओर चला। उसका मन विषाक्त हो रहा था। वह राजकुमारी पर क्रोध से भुन रहा था। मधुबन को कभी चबाना चाहता था। परंतु मधुबन के थप्पड़ों को भूलना सहज बात नहीं।वह बल से तो कुछ नहीं कर सकता था, तब कुछ छल से काम लेने की उसे सूझी। अपनी बदनामी भी बचानी थी।
बनजरिया के ऊपर अरुणोदय की लाली अभी नहीं आई थी। मलिया झाडू लगा रही थी। तितली ने जागकर सवेरा किया था। मधुबन की प्रतीक्षा में उसे नींद नहीं आई थी। वह अपनी संपूर्ण चेतना से उत्सुक-सी टहल रही थी। सामने से चौबेजी आते हुए दिखाई पड़े। वह खड़ी हो गई। चौबे ने पूछा- मधुबन बाबू अभी तो नहीं आए न ?
नहीं तो।
रात को उन्होंने अद्भुत साहस किया। हाथी बिगड़ा तो इस फुर्ती से मैना को बचाकर ले भागे कि लोग दंग रह गए। दोनों ही का पता नहीं। लोग खोज रहे हैं। शेरकोट गए होंगे।
तितली तो अनमनी हो रही थी। चौबे की उखड़ी हुई गोल-मटोल बातें सुनकर वह और भी उद्विग्न हो गई। उसने चौबे से फिर कुछ न पूछा। चौबेजी अधिक कहने की आवश्यकता न देखकर अपनी राह लगे। तितली को इस संवाद में कलंक की कालिमा बिखरती जान पड़ी। वह सोचने लगी- मैना ! कई बार नाम सुन चुकी हूँ। वही न ! जिसने कलकत्ते वाले पहलवान को पछाड़ने पर उनको बौर दिया था। तो...उसको लेकर भागे। बुरा क्या किया। मर जाती तो? अच्छा तो फिर यहाँ नहीं ले आए ? शेरकोट राजकुमारी के यहाँ ! जो मुझसे उसको छीनने को तैयार ! मुझको फूटी आंखें भी नहीं देखना चाहती। वहीं रात बिताने का कारण ?
वह अपने को न संभाल सकी? रामनाथ की तेजस्विता का पाठ भूली न थी।उसने निश्चय किया कि आज शेरकोट चलूंगी, वह भी तो मेरा ही घर है, अभी चलूंगी। मलिया से कहा- चल तो मेरे साथ।
तितली उसी वेश में मधुबन की प्रतीक्षा कर रही थी जिसमें दीनानाथ के घर गई थी। वहाँ, आंखें जगने से लाल हो रही थीं। दोनों शेरकोट की ओर पग बढ़ाती हुई चलीं।
ग्लानि और चिंता से मधुबन को भी देर तक निद्रा नहीं आई थी। पिछली रात में जब वह सोने लगा तो फिर उसकी आंख ही नहीं खुलती थी। सूर्य की किरणों से चौंककर जब झुंझलाते हुए मधुबन ने आंखें खोली तो सामने तितली खड़ी थी। घूमकर देखता है तो मैना भी बैठी मुस्करा रही है। और राजो वह जैसे लज्जा-संकोच से भरी हुई, परिहास-चंचल अधरों में अपनी वाणी को पी रही है। तितली को देखते ही उससे न रहा गया। उसका हाथ पकड़कर वह अपनी कोठरी में ले राते हुए बोली- मैना ! आज मेरे मधुबन की बहू अपनी ससुराल में आई है। तुम्हीं कुछ मंगल गा दो। बेचारी मुझसे रूठकर यहाँ आती ही न थी।
मधुबन अवाक् था। मैना समझ गई। उसने गाने के लिए मुँह खोला ही था कि मधुबन की तीखी दृष्टि उस पर पड़ी। पर वह कब मानने वाली। उसने कहा- बाबूजी, जाइए, मुँह धो आइए। मैं आपसे डरने वाली नहीं। ऐसी सोने-सी बहू देखकर गाने का न करे, वह कोई दूसरी होगी। भला मुझे यह अवसर तो मिला।
मधुबन ने तितली से पूछा भी नहीं कि तुम कैसे यहाँ आई हो। उसने बाहर की राह ली। तितली इस आकस्मिक मेल से चकित-सी हो रही थी। उस दिन राजो के घर धूम-धाम से खाने-पीने का प्रबंध हुआ। मधुबन जब खाने बैठा तो मैना गाने लगी। तितली की आंखों में संदेह की छाया न थी। राजो के मुँह पर स्पष्टता का आलोक था। और मधुबन ! वह कभी शेरकोट को देखता, कभी तितली को।
मैना रामकलेवा के चुने हुए गीत गा रही थी। मलिया अपने विलक्षण स्वर में उसका साथ दे रही थी। मधुबन आज न जाने क्यों बहुत प्रसन्न हो रहा था।
4
जब से श्यामदुलारी शहर चली गई; धामपुर में तहसीलदार का एकाधिपत्य था। धामपुर के कई गांवों में पाला ने खेती चौपट कर दी थी। किसान व्याकुल हो उठे थे। तहसीलदार की कड़ाई और भी बढ़ गई थी। जिस दिन रामजस का भाई पथ्य के अभाव से मर गया और उसकी मां भी पुत्रशोक में पागल हो रही थी, उसी दिन जमींदार की कुर्की पहुंची। पाला से जो कुछ भी बचा था, वह जमींदार के पेट में चला गया। खड़ी फसल कुर्क हो गई। महंगू भी इस ताक में बैठा ही था। उसका कुछ रुपया बाकी था। आज-कल करते बहुत दिन बीत गए। रामजस के बैलों पर उसकी डीठ लगी थी। रामजस निर्विकार भाव से जैसे प्रतीक्षा कर रहा था कि किसी तरह सब कुछ लेकर संसार मुझे छोड़ दे और मैं भी माता के मर जाने के बाद इस गांव को छोड़ दूं। दूसरे ही दिन उसकी मां भी चल बसी। मधुबन ने उसे बहुत समझाया कि ऐसा क्यों करते हो, मेम साहब को आने दो, कोई-न-कोई प्रबंध हो जाएगा; परंतु उसके मन में उस जीवन से तीव्र उपेक्षा हो गई थी। अब वह गांव में रहना नहीं चाहता। मधुबन के यहाँ कितने दिन तक रहेगा। उसे तो कलकत्ता जाने की धुन लगी थी।
उसी दिन जब बारात में हाथी बिगड़ा और मैना को लेकर मधुबन भागा तो गांव-भर में यह चर्चा हो रही थी कि मधुबन ने बड़ी वीरता का कार्य किया। परंतु उसके शत्रु तहसीलदार और चौबेजी ने यह प्रवाद फैलाया कि 'मधुबन' बाबा रामनाथ के सुधारक दल का स्तंभ है। उसी ने ऐसा कोई काम किया कि हाथी बिगड़ गया, और यह रंग-भंग हुआ ! क्योंकि वे लोग बारात में नाच-रंग के विरोधी थे।'
महंगू के अलाव पर गांव पर की आलोचना होती थी। रामजस को बेकारी में दूसरी जगह बैठने की कहाँ थी। महंगू ने खांसकर कहा-मधुबन बाबू ऐसा नहीं करना चाहता था। भला ब्याह-बारात में किसी मंगल काम में, ऐसा गड़बड़ करा देना चाहिए।
झूठे हैं, जो लोग ऐसी बात कहते हैं महतो ! रामजस ने उत्तेजित होकर कहा।
और यह भी झूठ है कि रात-भर मैना को अपने घर ले जाकर रखा। भाई, अभी लड़के हो तुम भी तो उसी दल के हो न ! देह में जब बल उमगता है तब सब लोग ऐसा कर बैठते हैं। फिर भी लोक-लाज तो कोई चीज है। मधुबन और क्या-क्या करते हैं, देखना, मेरा भी नाम महंगू है।
तुम बूढ़े हो गए, पर समझ से तो कोसों दूर भागते हो। मधुबन के ऐसा कोई हो भी। देखो तो वह लड़कों को पढ़ाता है, नौकरी करता है, खेती-बारी संभालता है, अपने अकेले दम पर कितने काम करता है। उसने मैना का प्राण बचा दिया तो यह भी पाप किया ?
तुम्हारे जैसे लोग उसके साथ न होंगे तो दूसरे कौन होंगे। उसी की बात सुनते-सुनते अपना सब कुछ गंवा दिया, अभी उसकी बड़ाई करने से मन नहीं भरता।
रामजस को कोड़ा-सा लगा। वह तमककर खड़ा हो गया। और कहने लगा-चार पैसे हो जाने से तुम अपने को बड़ा समझदार और भलेमानुस समझने लगे हो। अभी उसी का खेत जोतते-जोतते गगरी में अनाज दिखाई देने लगा, उसी को भला-बुरा कहते हो। मैं चौपट हो गया तो अपने दुर्दैव से महंगू ! मधुबन ने मेरा क्या बिगाड़ा। और तुम अपनी देखो। कहता हुआ रामजस बिगड़कर वहाँ से चलता बना। वह तो बारात देखने के मलिए ठहर गया था। आज ही उसका जाने का दिन निश्चित था। मधुबन से मिलना भी आवश्यक था। वह बनजरिया की ओर चला। उसके मन में इस कृतघ्न गांव के लिए घोर घृणा उत्तेजित हो रही थी। वह सोचता चला जा रहा था कि किस तरह महंगू को उसकी हेकड़ी का दंड देना चाहिए। कई बातें उसके मन में आईं। पर वह निश्चय न कर सका।
सामने मधुबन को आते देखकर वह जैसे चौंक उठा। मधुबन के मुँह पर गहरी चिंता की छाया थी। मधुबन ने पूछा-क्यों रामजस, कब जा रहे हो ?
मैं तो आज ही जाने को था, परंतु अब कल सवेरे जाऊंगा, मधुबन ! एक बात तुमसे पूछूं तो बुरा नहीं मानोगे ?
बुरा मानकर कोई क्या कर लेता है रामजस ! तुम पूछो !
भइया, तुमको क्या हो गया जो मैना को लेकर भागे ? गांव-भर में इसकी बड़ी बदनामी है। वह तो कहो कि हाथी ही बिगड़ा था नहीं तो इस पर परदा डालने के लिए कौन-सी बात कही जाती ?
और हाथी को भी तो मैंने ही छेड़कर उत्तेजित कर दिया था। यह क्या तुम नहीं जानते ?
लोग तो ऐसा भी कहते हैं।
तब फिर मैना के लिए क्या ऐसा नहीं किया जा सकता। जिन लोगों के पास रुपया है वे तो रुपया खर्च कर सकते हैं। और जिसके पास न हो तो वह क्या करे ?
नहीं, यह बात मैं नहीं मानता। मेरे भाभी के पैर की धूल भी तो वह नहीं है 1
तेरी भाभी भी यही बात मानती है।
तब यह बात किसने फैलायी है, जानते हो भइया, उसी पाजी महंगू ने। तुम्हारी ही खाकर मोटा हुआ है, तुम्हारी ही बदनामी करता है !अपने अलाव पर बैठकर हुक्का हाथ में ले लेता है, तब मालूम पड़ता है कि नवान का नाती है। अभी उससे मेरी एक झपट हो गई है। भइया मैंने सब गंवा दिया, अब तो मुझे यहाँ रहना नहीं है। कहो तो रात में उसको ठीक करके कलकत्ते खिसक जाऊं। किसको पता चलेगा कि किसने यह किया है।
नहीं-नहीं रामजस ! उसके ऊपर तुम संदेह न करो। यह सत्य है कि उसके पास चार पैसा हो गया है। उसके पास साधन-बल और जनबल भी है। इसी से कुछ बहकी हुई बातें करने लगा है, वह मन का खोटा नहीं है ! संपन्न होने से इस तरह का अभिमान आ जाते देर नहीं लगती। इस तरह की बात, जब तुम गांव छोड़कर परदेश जा रहे हो तब, न सोचना चाहिए। न जाने किस अपराध के कारा तुमको यह दिन दिखाई पड़ा तब सचमुच तुम चलते-चलते अपने माथे कलंक का टीका न लो। मैं जानता हूँ जो यह सब कर रहा है। पर मैं अभी उसका नाम न लूंगा।
बता दो भइया, मैं तो जा ही रहा हूँ। उसको पाठ पढ़ाकर जाता तो मुझे खुशी होती। मेरा गांव छोड़ना सार्थक हो जाता।
ठहरो भाई ! हम लोगों के संबंध में लोगों की जब ऐसी धारणा हो रही है तो सोच-समझकर कुछ कहना चाहिए। जिसकी दुष्टता से यह सब हो रहा है उसके अपराध का पूरा प्रमाण मिले बिना दंड देना ठीक नहीं। परंतु रामजस, न कहने से पेट में हूक-सी उठ रही है। तुमसे कहूँ, लज्जा मेरा गला दबा रही है।
कहते-कहते मधुबन रुककर सोचने लगा। उसका श्वास विषधर के फुफकार की तरह सुनाई पड़ रहा था। फिर उसने ठहरकर कहना आरंभ कर दिया -भाई, जब मैना के सामने यह बात खुल गई तो तुमसे कहने में क्या संकोच ! सुनो, भगदड़, में जब मैं मैना को लेकर भाग तो ज्ञान न था कि मैं किधर जा रहा हूँ। जा पहुंचा शेरकोट और वहाँ देखा कि भीतर से किवाड़ बंद है, बाहर सुखदेव चौबे खड़ा होकर कह रहा है, 'राजो, किवाड़ खोलो'। मेरा खून खौल उठा। मैना को छोड़कर मैंने उसे दो-चार हाथ जमाया ही था कि मैना ने रोक लिया और मैं तो उसकी हत्या ही कर बैठता, पर यही जानकर कि जब राजो के साथ चौबे का कोई संबंध था तभी तो यह बात हुई, मैं रुक गया। तुम तो जानते हो कि मैं ब्याह के बाद शेरकोट गया ही नहीं : इधर यह सब क्या हो गया, मुझे मालूम नहीं। मेरा हृदय जला जा रहा है। मैं जानता हूँ कि चौबे ही इसकी जड़ में है, पर क्या करूं, लोक-लाज और अपना कलंक मेरा गला घोंट रहा है।
रामजस ने अपनी लाठी पटकते हुए कहा-ब्याह करके तुम कायर हो गए हो, यह नहीं कहते। स्त्री का मोह हो रहा है। सुखदेव को तो मैं उसी दिन समझ गया था कि बह पड़ा पाजी है, जब वह मां के मरने में ज्योनार देने के लिए बहुत-बहुत कह रहा था। उस नीच को मालूम था कि मेरा भाई पथ्य के लिए भूखों मर गया। और मां दरिद्रता की उस घोर पीड़ा और अभिमान के कारण पागल होकर मर गई। परंतु वह श्रद्धा के अवसर पर बड़ी-सी ज्योनार देने के लिए निर्लज्जता से हठ करता रहा। ऐसे ढोंगी को तो वहीं मार डालना चाहता था। पाजी जब मेरे खेत कि लिए नीलाम की बोली बोलने आया था तब नहीं जानता था कि मेरे पास कुछ नहीं है। मुझे धर्म और परलोक का पाठ पढ़ाता था। मैं तो अब कलकत्ते नहीं जाता। देखूं, कौन मेरा खेत काटता है। मैं तो आज से प्रतिज्ञा करता हूँ कि बिना इसका सिर फोड़े नहीं जाता। पैसे के बल पर धर्म और सदाचार का अभिनय करना भुलवा दूंगा !मैंने जो कुछ पढ़ा-लिखा है, सब झूठा था। आज-कल क्या, सब युगों में लक्ष्मी का बोलबाला था। भगवान भी इसी के संकेतों पर नाचते हैं। मैं तुम्हारी इस झूठे पाप-पुण्य की दुहाई नहीं मानता।
तुम ठहरो रामजस ! इस दरिद्रता का अनिवार्य कुफल लोग समझने लगे हैं, देखते नहीं हो, गांव में संगठन का काम चलाने के लिए मिस शैला कितना काम कर रही हैं। सबका सामूहिक रूप से कल्याण होने में विलंब है अवश्य, परंतु से अपनी उच्छृंखलताओं से अधिक दूर करने से तो कुछ लाभ नहीं। मैं कायर हूँ, डरपोक हूँ, मुझे मोह है, यह सब तुम कह रहे हो केवल इसलिए कि मुझे भविष्य के कल्याण से आशा है। मैं धैर्य से उसकी प्रतीक्षा करने का पक्षपाती हूँ।
मैं यह सब मानता। पेट के प्रश्न को सामने रखकर शक्ति-संपन्न पाखंडी लोग अभाव-पीडि़तों को सब तर के नाच नचा रहे हैं। मनुष्य को अपनी वास्तविकता का जैसे ज्ञान नहीं रह गया है। तब यह सब बातें सुनने के योग्य नहीं रह जातीं। प्रभुत्व और धन के बल पर कौन-कौन से अपराध नहीं हो रहे हैं। तब उन्हीं लोगों के अपराध-अपराध चिल्लाने का स्वर दूसरे गांव में भटक कर चले आने वाले नए कुत्ते के पीछे गांव के कुत्तों का-सा है। वह सब मैं सुनते-सुनते ऊब गया हूँ मधुबन भइया !
मधुबन ने गंभीर होकर कहा-तुम्हारे खेत की फसल नीलाम हो चुकी है। अब तुम उसे छुओगे तो मुकदमा चलेगा। चलो तुम बनजरिया में रहो। फिर देखा जाएगा।
होठ बिचकाकर रामजस ने जैसे उसकी बातों को उड़ाते हुए हंस दिया। फिर ठहरकर उसने कहा-अच्छा आज तो मैं अपने खेत का हाबुस भूनकर खाऊंगा। फिर कल, यहाँ रहना होगा तो बनजरिया में ही आकर रहूँगा।
रामजस चला गया, परंतु मधुबन के हृदय पर एक भारी बोझ डालकर। वह बाबा रामनाथ की शिक्षा स्मरण करने लगा-मनुष्य के भीतर जो कुछ वास्तविकता है, उसे छिपाने के लिए जब वह सभ्यता और शिष्टाचार का चोला पहनता है तब उसे सम्हालने के लिए व्यस्त होकर कभी-कभी अपनी आंखों में ही उसको तुच्छ बनना पड़ता है।
मधुबन के सामने ऐसी ही परिस्थिति थी। रामनाथ के महत्व का बोझ अब उसी के सिर पर आ पड़ा था। वह बनावटी बड़प्पन से पीडि़त हो रहा था। उसके मन में साफ-साफ झलकने लगा था कि रामनाथ के लिए जो बात अच्छी थी वही उसके लिए भी सोलह आने ठीक उतरे, यह असंभव है।
जीवन तो विचित्रता और कौतूहल से भरा होता है। यही उसकी सार्थकता है। उस छोटी-सी गुड़िया ने मुझे पालतू सुग्गा बनाकर अपने पिंजड़े में रख छोड़ा है। मनुष्य का जीवन, उसका शरीर और मन एक कच्चे सूत में बांधकर लटका देने का खेल करना चाहती है , यही खेल बराबर नहीं चल सकता। मैना को लेकर जो कांड अकस्मात् खड़ा हो गया है उसके जैसे वह आज-कल दिन-रात सोचती है। रूठी हुई शांत-सी, किंतु भीतर-भीतर जैसे वह उबल पड़ने की दशा। बोलती है तो जैसे वाणी हृदय का स्पर्श करने नहीं आती। मैं अपनी सफाई देता हूँ, उसकी गांठ खोलना चाहता हूँ, किंतु वह तो जैसे भयभीत और चौकन्नी सी हो गई है। पुरुष को सदैव यदि स्त्री को सहलाते, पुचकारते ही बीते तो बहुत ही बुरा है। उसे तो उन्मुक्त, विकासोन्मुख और स्वतंत्र होना चाहिए। संसार में उसे युद्ध करना है। वह घड़ी-भर मन बहलाने के लिए जिस तरह चाहे रह सकता है। उसके आचरण में, कर्म में नदी की धारा की तरह प्रवाह होना चाहिए। तालाब के बंधे पानी-सा उसके जीवन का जल सडने और सूखने के लिए होगा तो वह भी जड़ और स्पंदन-विहीन होगा !
अभी-अभी रामजस क्या कह गया है ? उसका हृदय कितना स्वतंत्र और उत्साहपूर्ण है। मैं जैसे इस छोटी-सी गृहस्थी के बंधन में बंधा हुआ, बेल की तरह अपने सूखे चारे को चबाकर संतुष्ट रहने में अपने को धन्य समझ रहा हूँ। नहीं, अब मैं इस तरह नहीं रह सकता। सचमुच मेरी कायरता थी। चौबे को उसी दिन मुझे इस तरह छोड़ देना नहीं चाहता था। मैं डर गया था। हाँ, अभाव! झगड़े के लिए शक्ति, संपत्ति और साहाय्य भी तो चाहिए। यदि यही होता, तब मैं उसे संग्रह करूंगा। पाजी बनूंगा, सब करते क्या हैं। संसार में चारों ओर दुष्टता का साम्राज्य है। मैं अपनी निर्बलता के कारण ही लूट में सम्मिलित नहीं हो सकता। मेरे सामने ही वह मेरे घर में घुसना चाहता था। मेरी दरिद्रता को वह जानता है। और राजो। ओह ! मेरा धर्म झूठा है। मैं क्या किसी के सामने सिर उठा सकता हूँ। तब...रामजस सत्य कहता है। संसार पाजी है, तो हम अकेले महात्मा बनकर मर जाएंगे।...
मधुबन घर की ओर मुड़ा। वह धीरे-धीरे अपनी झोंपड़ी के सामने आकर खड़ा हुआ। तितली उसकी ओर मुँह किए एक फटा कपड़ा सी रही थी। भीतर राजो-रसोईघर में से बोली-बहू, सरसों का तेल नहीं है। ऐसे गृहस्थी चलती है, आज ही आटा भी पिस जाना चाहिए।
जीजी, देखो मलिया ले जाती है कि नहीं। ! उससे तो मैंने कह दिया था कि आज जो दाम मटर का मिले उससे तेल लेते आना।
और आटे के लिए क्या किया ?
जौ, चना और गेहूँ एक में मिलाकर पिसवा लो। जब बाबू साहब को घर की कुछ चिंता नहीं तब तो जो होगा घर में वही न खाएंगे ?
कल का बोझ जो जाएगा उसमें अधिक दाम मिलेगा, करंजा सब बिनवा चुकी हूँ 1 बनिए ने मांगा भी है। गेहूँ कल मंगवा लूंगी 1 उनकी बात क्या पूछती हो। तुम्हीं तो मुझसे चिढ़कर उसके लिए मैना को खोज लाई हो, जीजी ! कहती हुई तितली ने हंसी को बिखराते हुए व्यंग्य किया।
भाड़ में गंई मैना ! बहू, मुझे यह हंसी अच्छी नहीं लगती। आ तो आज तेरी चोटी बांध दूं।
मधुबन यह बातें सुनकर धीरे-से उल्टे पांव लौटकर बनजरिया के बाहर चला गया। वह मैना की बात सोचने लगा था। कितनी चंचल, हंसमुख और सुंदर है, और मुझे...मानती है। चाहती होगी ! उस दिन हजारों के सामने उसने मुझे जब बौर दिया था, तभी उसके मन में कुछ था।
मधुबन को शरीर की यौवन भरी संपत्ति का सहसा दर्प भरा ज्ञान हुआ। स्त्री और मैना-सी मनचली ! यह तो तब इस कूड़ा करकट में कब तक पड़ा रहूँगा ? रामजस ठीक ही करता था।
न जाने कह, हृदय की भूमि सोंधी होकर वट-बीज-सा बुराई की छोटी-सी बात अपने में जमा लेती है। उसकी जड़ें गहरी और भीतर-भीतर घुसकर अन्य मनोवृत्तियों का रस चूस लेती हैं। दूसरा पौधा आस-पास का निर्बल ही रह जाता है ?
मधुबन ने एक दीर्घ नि:श्वास लेकर कहा-स्त्री को स्त्री का अवलंबन मिल गया। तितली, मैना के भय से राजो को पकड़कर उसकी गोद में मुंछ छिपाना चाहती है। और राजो, उसकी भी दुर्बलता साधारण नहीं। चलो अच्छा हुआ एक-दूसरे को सम्हाल लेंगी।
मधुबन हल्के मन से रामजस को खोजने के लिए निकल पड़ा।
तहसीलदार की बैठक में बैठे चौबेजी पान चबाते हुए बोले-फिर सम्हालते न बनेगा। मैं देख रहा हूँ कि तुम अपना भी सिर तुड़ाओगे और गांव-भर पर विपत्ति बुलाओगे। मैं अभी देखता आ रहा हूँ, रामजस बैठा हुआ अपने उपरवार खेत का जौ उखाड़ कर होला जला रहा था, बहुत-से लड़के उसके आसपास बैठे हैं।
उसका यह साहस नहीं होता यदि और लोग न उकसाते। यह मधुबन का पाजीपन है। मैं उसे बचा रहा हूँ, लेकिन देखता हूँ कि वह आग में कूदने के लिए कमर कसे है। बड़ा क्रोध आता है, चौबे, मैं भी तो समय देख रहा हूँ। बीबी-रानी के नाम से हिस्सेदारी का दाखिल खारिज हो गया है। मुखतारनामा मुझे मिल जाए तो एक बार इन पाजियों को बता दूं कि इसका कैसा फल मिलता है।
वह तो सबसे कहता है कि मेरे टुकड़ों से पला हुआ कुत्ता आज जमींदार का तहसीलदार बन गया। उसको मैं समझता क्या हूँ !
पला तो हूँ, पर देख लेना कि उससे टुकड़ा न तुड़वाऊं तो मैं तहसीलदार नहीं। मैं भी सब ठीक कर रहा हूँ। बनजरिया और शेरकोट पर घमंड हो गया है। सुखदेव ! अब क्या यहाँ इंद्रदेव या श्यामदुलारी फिर आवेंगी ? देखना, इन सबको मैं कैसा नाच नचाता हूँ।
तहसीलदार के मन में लघुता को-पहले मधुबन के पिता के यहाँ की हुई नौकरी के कलंक को-धो डालने के लिए बलवती प्रेरणा हुई-यह कल का छोकरा सबसे कहता फिरता है तो उसको भी मालूम हो जाए कि मैं क्या हूँ - कुछ विचार करके सुखदेव से कहा-
तुम जाकर एक बार रामजस को समझा दो। नहीं तो अभी उसका उपाय करता हूँ। मैं चाहता हूँ कि भिड़ना हो तो मधुबन पर ही सीधा वार किया जाए। दूसरों को उसके साथ मिलने का अवसर न मिले।
मैं जाता तो हूँ, पर यदि वह मुझसे टर्राया और तुम फिर चुप रह गए तो यह अच्छी बात न होगी-कहकर सुखदेव चौबे रामजस के खेत पर चले। वहाँ लड़कों की भीड़ जुटी थी। पूरा भोज का-सा जमघट था। कोई बेकार नहीं। कोई उछल रहा है, कोई गा रहा है, कोई जौ के मुट्ठों की पत्तियां जलाकर झुलस रहा है। रामजस ने जैसे टिड्डियों को बुला लिया है। वह स्थिर होकर यह अत्याचार अपने ही खेत पर करा रहा है। जैसे सर्वनाश में उसको विश्वास हो गया हो। अपनी झोंपड़ी में से, जो रखवाली के लिए वहाँ पड़ी थी, सूखी खरों को खींचकर लड़कों को दे रहा था। लड़कों में पूरा उत्साह था। जिसके यहाँ कोल्हू चल रहा था, वे दौड़कर अपने-अपने घरों से ऊख का रस ले आते थे। ऐसा आनंद भला वे कैसे छोड़ सकते थे। एक लड़के ने कहा-रामजस दादा, कहो तो ढोल ले आवें।
नहीं बे, रात को चौताल गाया जाएगा। अभी तो खूब पेट भरकर खा ले। फिर ...
अभी बात पूरी न हो पाई थी कि सामने से सुखदेव ने कहा-यह क्या हो रहा है रामजस ! कुछ पीछे की भी सुध है ? क्या जेल पाने की तैयारी कर रहे हो?
क्या तुम हथकड़ी लेकर आए हो ?
अरे नहीं भाई ! मैं तो तुमको समझाने आया हूँ। देखो ऐसा काम न करो कि सब कुछ चौपट हो जाने के बाद जेल भी जाना पड़े। यह खेत...
यह खेत क्या तुम्हारे बाप का है? मैंने इसे छाती का हाड़ तोड़कर जोता-बोया है, मेरा अन्न है, मैं लुटा देता हूँ, तुम होते कौन हो ?
पीछे मालू होगा, अभी तुम मधुबन के बहकाने में आ गए हो, जब चक्की पीसनी होगी, तब हेंकड़ी भूल जाएगी।
कहे देता हूँ कि सीधे-सीधे चले जाओ, नहीं तो तुम्हारी मस्ती उतार दूंगा। कहकर रामजस सीधा तनकर खड़ा हो गया। सुखदेव ने भी क्रोध में आकर कहा-दूंगा एक झापड़, दांत झड़ जाएंगे। मैं तो समझा रहा हूँ, तू बहकता जा रहा है।
तो तुमने मुझको भी मधुबन भइया समझा रखा है न। अच्छा तोलेते जाओ बच्चू ! कहकर रामजस ने लाठी घुमाकर हाथ उसके मोढ़े पर जड़ दिया। जब तक चौबे सम्हले तब तक उसने दुहरा दिया।
चौबेजी वहीं लेट गए। लड़के इधर-उधर भाग चले। गांव भर में हल्ला मचा। लोग इधर-उधर से दौड़कर आए।
महंगू ने कहा-यह बड़ा अंधेर है। ऐसी नवाबी तो नहीं देखी 1 भला कुर्क हुए खेत को इस तरह तहस-नहस करना चाहिए।
पांडेजी ने कहा-चौबेजी को तो पहले उठा ले चलो, यहाँ खड़े तुम लोग क्या देख रहे हो।
पांडेजी के कहने पर लोगों को मूर्च्छित चौबे का ध्यान आया। उन्हें उठाकर जब लोग जा रहे थे तब मधुबन वहाँ आया। उसने सुन लिया कि सुखदेव पिट गया। मधुबन ने क्षण-भर में सब समझ लिया। उसने कहा-रामजस ! अब यहाँ क्या कर रहे रहे ? चलो मेरे साथ।
उसने कहा-ठहरो दादा, लगे हाथ इस महंगू को भी समझा दें।
मधुबन ने उसका हाथ पकड़कर कहा-अरे महंगू बूढ़ा है। उसे बेचारे ने क्या किया है ? अधिक उपद्रव न बढ़ाओ, जो किया सो अच्छा किया।
अभी मधुबन उसको समझा ही रहा था कि छावनी से दस लट्ठबाज दौड़ते हुए पहुँच गए। 'मार-मार' की ललकार बढ़ चली। मधुबन ने देखा कि रामजस तो अब मारा जाता है। उसने हाथ उठाकर कहा-भाइयो, ठहरो, बिना समझे मारपीट करना नहीं चाहिए।
यही पाजी तो सब बदमाशी की जड़ है। कहकर पीछे से तहसीलदार ने ललकारा। दनादन लाठियां छूट पड़ीं। दो-तीन तक तो मधुबन बचाता रहा, पर कब तक ! चोट लगते ही उसे क्रोध आ गया। उसने लपककर एक लाठी छीन ली और रामजस की बगल में आकर खड़ा हो गया।
इधर दो और उधर दस। जमकर लाठी चलने लगी। मधुबन और रामजस जब फिधर जाते तो लाठी टेककर दस-दस हाथ दूर जाकर खड़े हो जाते। छ: आदमी गिरे और रामजस भी लहू से तर हो गया।
गांव वाले बीच में आकर खड़े हो गए। लड़ाई बंद हुई। मधुबन रामजस को अपने कंधे का सहारा दिए धीरे-धीरे बनजरिया की ओर ले चला।
5
कच्ची सड़क के दोनों ओर कपड़े, बरतन, बिसातखाना और मिठाइयों की छोटी-बड़ी दुकानों से अलग, चूने से पुती हुई पक्की दीवारों के भीतर, बिहारीजी का मन्दिर था। धामपुर का यहीं बाजार था। बाजार के बनियों की सेवा-पूजा से मंदिर का राग-भोग चलता ही था, परंतु अच्छी आय थी महंतजी को सूद से। छोटे-छोटे किसानों की आवश्यकता जब-जब उन्हें सताती, वे लोग अपने खेत बड़ी सुविधा के साथ यहाँ बंधक रख देते थे।
महंतजी मन्दिर से मिले हुए, फूलों से भरे, एक सुंदर बगीचे में रहते थे। रहने के लिए छोटा, पर दृढ़ता से बना हुआ, पक्का घर था। दालान में ऊंचे तकिए के सहारे महंतजी प्राय: बैठकर भक्तों की भेंट और किसानों का सूद दोनों ही समभाव से ग्रहण करते। जब कोई किसान कुछ सूद छोड़ने के लिए प्रार्थना करता तो वह गंभीरता से कहते-भाई, मेरा तो कुछ है नहीं, यह तो श्री बिहारीजी की विभूति है, उनका अंश लेने से क्या तुम्हारा भला होगा ?
भयभीत किसान बिहारीजी का पैसा कैसे दबा सकता था ? इसी तरह कई छोटी-मोटी आसपास की जमींदारी भी उनके हाथ आ गई थी। खेतों की तो गिनती न थी।
सन्ध्या की आरती हो चुकी थी। घंटे की प्रतिध्वनि अभी दूर-दूर के वायुमंडल में गूंज रही थी। महंतजी पूजा समाप्त करके अपनी गद्दी पर बैठे ही थे कि एक नौकर नेआकर कहा-ठाकुर साहब आए हैं।
ठाकुर साहब ! - जैसे चौंककर महंत ने कहा।
हाँ महाराज ! - अभी वह कही रहा था कि ठाकुर साहब स्वयं आ धमके। लंबे चौड़े शरीर पर खाकी की आधी कमीज और हाफ-पैंट, पूरा मोजा और बूट, हाथ में हंटर !
इस मूर्ति को देखते ही महंतजी विचलित हो उठे। आसन से थोड़ा-सा उठकर कहा...
आइए, सब कुशल तो है न ?
कुर्सी पर बैठते रामपाल सिंह इंस्पेक्टर ने कहा-सब आपकी कृपा है। धामपुर में जांच के लिए गया था। वहाँ से चला आ रहा हूँ। सुना कि वह चौबे जो उस दिन की मार-पीट में घायल हुआ था, आपके यहाँ है।
हाँ साहब ! वह बेचारा तो मर ही गया होता। अब तो उसके घाव अच्छे हो रहे हैं। मैंने उससे बहुत कहा कि शहर के अस्पताल में चला जा, पर वह कहता है कि नहीं, जो होना था, हो गया, मैं अब न अस्पताल जाऊंगा, न धामपुर, और न मुकदमा ही चलाऊंगा, यहीं ठाकुरजी को सेवा में पड़ा रहूँगा।
पर मैं तो देखता हूँ कि यह मुकदमा अच्छी तरह न चलाया गया तो यहाँ के किसान फिर आप लोगों को अंगूठा दिखा दंगे। एक पैसे भी उनसे आप ले सकेंगे, इसमें संदेह है। सुना है कि आपका रुपया भी बहुत-सा इस देहात में लगा है।
ठाकुर साहब ! मैं तो आप लोगों के भरोसे बैठा हूँ। जो होगा देखा जाएगा। चौबे तो इतना डर गया कि उससे अब कुछ भी काम लेना असंभव है। वह तो कचहरी जाना नहीं चाहता।
अच्छी बात है, मैंने मुकदमा छावनी के नौकरों का बयान लेकर चला दिया है। कई बड़ी धाराएं लगा दी हैं। उधर तहसीलदार ने शेरकोट और बनजरिया की बेदखली का भी दावा किया। अपने-आप सब ठीक हो जाएंगे। फिर आप जानें और आपका काम जाने। धामपुर में तो इस घटना से ऐसी सनसनी है कि आप लोगों का लेन-देन सब रुक जाएगा।
महंतजी को इस छिपी हुई धमकी से पसीना आ गया। उन्होंने सम्हलते हुए कहा-बिहारीजी का सब कुछ है, वही जानें।
ठाकुर साहब पान-इलाइची लेकर चले गए। महंतजी थोड़ी देर तक चिंता में निमग्न बैठे रहे। उनका ध्यान तब टूटा, जब राजकुमारी के साथ माधो आकर उनके सामने खड़ा हो गया। उन्होंने पूछा-क्या है ?
राजकुमारी ने घूंघट सम्हालते हुए कहा-हम लोगों को रुपए की आवश्यकता है। बंधन रखकर कुछ रुपया दीजिएगा ? बड़ी विपत्ति में पड़ी हूँ। आप न सहायता करेंगे तो सब मारे जाएंगे।
तुम कौन हो और क्या बंधन रखना चाहती हो ? भाई आज-कल कौन रुपया देकर लड़ाई मोल लेगा। तब भी सुनूं।
शेरकोट को बंधक रखकर मेरे भाई मधुबन को कुछ रुपए दीजिए। तहसीलदार ने बड़ी धूम-धाम से मुकदमा चलाया है। आप न सहायता करेंगे तो मुकदमे की पैरवी न हो सकेगी। सब-के-सब जेल चले जाएंगे।
शेरकोट ! भला उसे कौन बंधक रखेगा ? तुम लोगों के ऊपर तो 'बेदखली' हो गई है। बनजरिया का भी वही हाल है। मैं उस पर रुपया नहीं दे सकता। मैं इस झंझट में नहीं पडूंगा। कहकर महंतजी ने माधो की ओर देखकर कहा-और तुम क्या चाहते हो ? रुपए दोगे कि नहीं ? आज ही न देने के लिए कहा था ?
महंतजी, आप हमारे माता-पिता हैं। इस समय आप न उबारेंगे तो हमारा दस प्राणियों का परिवार नष्ट हो जाएगा। घर की स्त्रियां रात की साग खोंटकर ले आती हैं। वही उबालकर नमक से खाकर सो रहती हैं। दूसरे-तीसरे दिन अन्न कभी-कभी, वह भी थोड़ा-सा मुँह में चला जाता है। हम लोग तो चाकरी मजूरी भी नहीं कर सकते। मटर की फसल भी नष्ट हो गई। थोड़ी-सी ऊख रही, उसे पेरकर सोचा था कि गुड़ बनाकर बेच लेंगे, तो आपको भी कुछ देंगे और कुछ बाल-बच्चों के खाने के काम में आएगा।
फिर क्या हुआ, उसकी बिक्री भी चट कर गए ? तुमको देना तो है नहीं, बात बनाने आए हो।
महाराज, मनुवां गुलौर झोंक रहा था, जब उसने सुना कि जमींदार का तगादा आ गया है, वह लोग गुड़ उठाकर ले जा रहे हैं, तो घबरा गया। जलता हुआ गुड़ उसके हाथ पर पड़ गया। फिर भी हत्यारों ने उसके पानी पीने के लिए भी एक भेली न छोड़ी। यहीं बजार में खड़े-खड़े बिकवा कर पाई-पाई ले ली। पानी के दाम मेरा गुड़ चला गया। आप इस समय दस रुपए से सहायता न करेंगे तो सब मर जाएंगे। बिहारी जी आपको ...
भाग यहाँ से, चला है मुझको आशीर्वाद देने। पाजी कहीं का। देना न लेना, झूठ-मूठ ढंग साधने आया है। पुजारी ! कोई यहाँ है नहीं क्या ?- कहकर महंतजी चिल्ला उठे।
भूखा और दरिद्र माधो सन्न हो गया 1 महंत फिर बड़बड़ाने लगा-इनके बाप ने यहाँ पर जमा दिया है, बिहारीजी के पुछल्ले !
भयभीत माधो लड़खड़ाते पैर से चल पड़ा। उसका सिर चकरा रहा था। उसने मंदिर के सामने आकर भगवान को देखा। वह निश्चल प्रतिमा ! ओह करुणा कहीं नहीं ! भगवान के पास भी नहीं !
मधुबन गाढ़े की दोपहर में अपना अंग छिपाए था। वह सबसे छिपना चाहता था। उसने धीरे से माधो को मिठाई की दुकान दिखाकर कुछ पैसे दिए और कहा-वहीं पर चल पीकर तुम बैठो। राजो के आने पर मैं तुमको बुला लूंगा।
मधुबन तो इतना कहकर सड़कर के वृक्षों की अंधेरी छाया में छिप गया, और माधो जल पीने चला गया। आज उसको दिन-भर कुछ खाने के लिए नहीं मिला था।
उधर राजो चुपचाप महंतजी के सामने खड़ी रही। उसके मन में भीषण क्रोध उबल रहा था, किंतु महंतजी को भी न जाने क्या हो गया था कि उसे जाने के लिए तब तक नहीं कहा था ! राजो ने पूछा-महाराज ! यह सब किसलिए !
किसलिए ? यह सब ? चौंककर महंतजी बोले।
ठाकुरजी के घर में दुखियों अैर दीनों को आश्रय न मिले तो फिर क्या यह सब ढोंग नहीं ? यह दरिद्र किसान क्या थोड़ी-सी भी सहानुभूति देवता के घर से भीख में नहीं पा सकता था ? हम लोग गृहस्थ हैं, अपने दिन-रात के लिए जुटाकर रखें तो ठीक भी हैं। अनेक पाप, अपराध, छल-छंद करके जो कुछ पेट काटकर देवता के लिए दिया जाता है, क्या वह भी ऐसे ही कामों के लिए है ? मन में दया नहीं, सूखा-सा...
राजकुमारी तुम्हारा ही नाम है न ? मैं सुन चुका हूँ कि तुम कैसी माया जानती हो। अभी तुम्हारे ही लिए वह चौबे बिचारा पिट गया है। उसको मैं न रखता तो यह मर जाता। क्या यह दया नहीं है ? तुमके भी, यहाँ तो सब कुछ मिल सकता है। ठाकुरजी का प्रसाद खाओ, मौज से पड़ी रह सकती हो। सूखा-रूखा नहीं !
फिर कुछ रुककर महंत ने एक निर्लज्ज संकेत किया। राजकुमारी उसे जहर के घूंट की तरह पी गई। उसने कहा-तो क्या चौबे यहीं हैं।
हाँ, यहीं तो है, उसकी यह दशा तुम्हीं ने की है। भला उस पर तुमको कुछ दया नहीं आई। दूसरे की दया सब लोग खोजते हैं और स्वयं करनी पड़े तो कान पर हाथ रख लेते हैं। थानेदार उसको खोजते हुए अभी-आए थे। गवाही देने के लिए कहते थे।
राजकुमारी मन-ही-मन कांप उठी। उसने एक बार उस बीती हुई घटना का स्मरण करके अपने को संपूर्ण अपराधिनी बना लिया। क्षण-भर में उसके सामने भविष्य का भीषण चित्र खिंच गया। परंतु उसके पास कोई उपाय न था। इस समय उसको चाहिए रुपया, जिससे मधुबन के ऊपर आई हुई विपत्ति टले। मधुबन छिपा फिर रहा था, पुलिस उसको खोज रही थी। रुपया ही एक अमोघ अस्त्र था जिससे उसकी रक्षा हो सकती थी। उसका गौरव और अभिमान मानसिक भावना और वासना के एक ही झटके में, कितना जर्जर हो गया था। वही राजकुमारी ! आज वह क्या हो रही है ? और चौबेजी! कहाँ से यह दुष्ट-ग्रह के समान उसके सीधे-सादे जीवन में आ गया? अब वह भी अपना हाथ दिखावे तो कितनी आपत्ति बढ़ेगी ?
सोचते-सोचते वह शिथिल हो गई। महंत चुपचाप चतुर शिकार की तरह उसकी मुखाकृति की ओर ध्यान से देख रहा था।
इधर राजकुमारी के मन दूसरा झोंका आया। कलंक ! स्त्री के लिए भयानक समस्या मैं ही तो इस काण्ड की जड़ हूँ-उसने मलिन और दयनीय चित्र अपने सामने देखा। आज वह उबर नहीं सकती थी 1 वह मुँह खोलकर किसी से कुछ कहने जाती है, तो शक्तिशाली समर्थ पापी अपनी करनी पर हंसकर परदा डालता हुआ उसी के प्रवाद-मूलक कलंक का घूंघट धीरे-से उधार देता है। ओह ! वह आंखों से आंसू बहाती हुई बैठ गई। उसकी इच्छा हुई कि जैसे हो, जो कुछ वह मधुबन की सहायता करेगी ही क्यों। मधुबन कहता था कि उसने जाते-जाते लड़ाई-झगड़ा करने के लिए मना किया था। अब वह लज्जा से अपनी सब बातें कहना भी नहीं चाहता। मेरा प्रसंग वह कैसे कह सकता था। इसीलिए शैला की सहायता से भी वंचित ! अभागा मधुबन !
राजकुमारी ने गिड़गिड़ाकर कहा-सचमुच मेरा ही सब अपराध है, मैं मर क्यों न गई ? पर अब तो लज्जा आपके हाथ है। दुहाई है, मैं सौगंध खाती हूँ, आपका सब रुपया चुका दूंगी। मेरी हड्डी-हड्डी से अपनी पाई-पाई ले लीजिएगा। मधुबन ने कहा है कि वह पहले वाला एक सौ का दस्तावेज और पांच सौ यह, सब मिलाकर सूद-समेत लिखा लीजिए।
और जमानत में क्या देती हो ? कहकर महंत फिर मुस्कराया।
राजकुमारी ने निराशा होकर चारों ओर देखा। उस एकांत-स्थान में सन्नाटा था महंत के नौकर-चाकर खाने-पीने में लगे थे। वहाँ किसी को अपना परिचित न देखकर वह सिर झुकाकर बोली-कया शेरकोट से काम न चल जाएगा ?
नहीं जी, कह तो चुका, वह आज नहीं तो कल तुम लोगों के हाथ से निकला ही हुआ है। फिर तुम तो अभी कह रही थी कि मेरी हड्डी से चुका लेना। क्यों वह बात सच है ?
अपनी आवश्यकता से पीड़ित प्राणी कितनी ही नारकीय यंत्रणाएं सहता है। उसकी सब चीजों का सौदा मोल-तोल कर लेने में किसी की रुकावट नहीं। जिस पर वह स्त्री, जिसके संबंध में किसी तरह का कलंक फैल चुका हो। उसको मधुबन मना कर रहा था कि वहाँ तुम मत जाओ, मैं ही बात कर लूंगा। किंतु राजो का सहज तेज गया तो नहीं था। वह आज अपनी मूर्खता से एक नई विपत्ति खड़ी कर रही है, इसका उसको अनुमान भी नहीं हुआ था। वह क्या जानती थी कि यहाँ चौबे भी मर रहा है 1 भय और लज्जा, निराशा और क्रोध से वह अधीर होकर रोने लगी। उसकी आंखों से आंसू गिर रहे थे। घबराहट से उसका बुरा हाल था। बाहर मधुबन क्या सोचता होगा ?
महंत ने देखा कि ठीक अवसर है। उसने कोमल स्वर में कहा-तो राजकुमारी ! तुमको चिंता करने की क्या आवश्यकता ? शेरकोट न सही, बिहारीजी का मंदिर तो कहीं गया नहीं। यहीं रहो न ठाकुरजी की सेवा में पड़ी रहोगी। और मैं तो तुमसे बाहर नहीं। घबराती क्यों हो ?
महंत समीप आ गया था, राजकुमारी का हाथ पकड़ने ही वाला था कि वह चौंककर खड़ी हो गई। स्त्री की छलना ने उसको उत्साहित किया उसने कहा-दूर ही रहिए न ! यहाँ क्यों !
कामुक महंत के लिए दूसरा आमंत्रण था। उसने साहस करके राजो का हाथ पकड़ लिया। मंदिर से सटा हुआ वह बाग एकांत था। राजकुमारी चिल्लाती, पर वहाँ सहायता के लिए कोई न आता ! उसने शांत होकर कहा-मैं फिर आ जाऊंगी। आज मुझे जाने दीजिए। आज मुझे रुपयों का प्रबंध करना है।
सब हो जाएगा। पहले तुम मेरी बात तो सुनो। कहकर वह और भी पाशव भीषणता से उस पर आक्रमण कर बैठा।
राजकुमारी अब न रुकी। उसका छल उसी के लिए घातक हो रहा था। वह पागल की तरह चिल्लाई। दीवार के बाहर ही इमली की छाया में मधुबन खड़ा था। पांच हाथ की दीवार लांघते उसे कितना विलंब लगता ? वह महंत की खोपड़ी पर यमदूत-सा आ पहुंचा। उसके शरीर का असुरों का-सा संपूर्ण बल उन्मत्त हो उठा। दोनों हाथों से महंत का गला पकड़कर दबाने लगा। वह छटपटाकर भी कुछ बोल नहीं सकता था। और भी बल से दबाया। धीरे-धीरे महंत का विलास-जर्जर शरीर निश्चेष्ट होकर ढीला पड़ गया। राजकुमारी भय से मूर्च्छित हो गई थी, और हाथ से निर्जीव देह को छोड़ते हुए मधुबन जैसे चैतन्य हो गया।
अरे यह क्या हुआ ? हत्या !- मधुबन को जैसे विश्वास नहीं हुआ, फिर उसने एक बार चारों ओर देखा। भय ने उसे ज्ञान दिया, वह समझ गया कि महंत को एक स्त्री के साथ जानकर यहाँ अभी कोई नहीं आया है, और न कुछ समय तक आवेगा। उसको अपनी जान बचाने की सूझी। सामने संदूक का ढक्कन खुला था, उसमें से रुपयों की थैली लेकर उसने कमर में बांधी। इधर राजकुमारी को ज्ञान हुआ तो चिल्लाना चाहती थी कि उसने कहा-चुप ! वहीं दुकान पर माधो बैठा है। उसे लेकर सीधे घर चली जा। माधो से भी मत कहना। भाग ! अब मैं चला !
सड़क पर सन्नाटा हो गया था। देहाती बाजार में पहर-भर रात जाने पर बहुत ही कम लोग दिखाई पड़ रहे थे। मिठाई की दुकान पर माधो खा-पीकर संतुष्टि की झपकी ले रहा था। राजकुमारी ने उसे उंगली से जगाकर अपने पीछे आने के कहा। दोनों बाजार के बाहर आए। एक्के वाला एक तान छेड़ता हुआ अपने घोड़े को खरहरा कर रहा था। राजकुमारी ने धीरे-से शेरकोट की ओर पैर बढ़ाया। दोनों ही किसी तरह की बात नहीं कर रहे थे। थोड़ी ही दूर आगे बढ़े होंगे कि कई आदमी दौड़ते हुए आए। उन्होंने माधो को रोका। माधो ने कहा-क्यों भाई ! मेरे पास क्या धरा है, क्या है ?
हम लोग एक स्त्री को खोज रहे हैं। वह अभी-अभी बिहारीजी के मंदिर में आई थी-उन लोगों ने घबराए हुए स्वर में कहा।
यह तो मेरी लड़की है। भले आदमी, क्या दरिद्र होने के कारण राह भी न चलने पावेंगे ? यह कैसा अत्याचार ? कहकर माधो आगे बढ़ा। उसके स्वर में कुछ ऐसी दृढ़ता थी कि मंदिर के नौकरों ने उसका पीछा छोड़कर दूसरा मार्ग ग्रहण किया।
6
मधुबन गहरे नशे से चौंक उठा था। हत्या ! मैंने क्या कर दिया ? फांसी की टिकठी का चित्र उसके कालिमापूर्ण आकाश में चारों ओर अग्निरेखा में स्पष्ट हो उठा। इमली के घने वृक्षों की छाया में अपने ही श्वासों से सिहरकर सोचता हुआ वह भाग रहा था।
तो, क्या वह मर गया होगा ? नहीं-मैंने तो उसका गला ही घोंट दिया है। गला घोंटने से मूर्च्छित हो गया होगा। चैतन्य हो जाएगा अवश्य ?
थोड़ा-सा उसके हृदय की धड़कन को विश्राम मिला। वह अब भी बाजार के पीछे-पीछे अपनी भयभीत अवस्था में सशंक चल रहा था। महंत की निकली हुई आंखें जैसे उसकी आंखों में घुसने लगीं। विकल होकर वह अपनी आंखों को मूंदकर चलने लगा, उसने कहा-नहीं, मैं तो वहाँ गया भी नहीं।किसने मुझको देखा ? राजो ! हत्यारिन ! ओह उसी की बुलाई हुई यह विपत्ति है। यह देखो, इस वयस में उसका उत्पात ! हाँ, मार डाला है मैंने, इसका दंड दूसरा नहीं हो सकता। काट डालना ही ठीक था। तो फिर मैंने किया क्या, हत्या ? नहीं ! और किया भी हो तो बुरा क्या किया।
उसके सामने महंत की निकली हुई आंखों का चित्र नाचने लगा। फिर-तितली का निष्पाप और भोला-सा मुखड़ा। हाय-हाय। मधुबन ! तूने क्या किया ! वह क्या करेगी ? कौन उसकी रक्षा करेगा ?
उसका गला भर आया। वह चलता जाता था और भीतर ही भीतर अपने रोने को, सांसों को, दबाता जाता था। उसे दूर से किसी के दौड़ने का और ललकारने का भ्रम हुआ। अरे पकड़ा गया तो ...।
क्षण-भर के लिए रुका। उसने पहचाना, यह तो मैना के घर के पीछे की फुलवारी की पक्की दीवार है। तो छिप जाए। यहीं न, अच्छा अब तो सोचने का समय नहीं है। लो, वह सब आ गए।
छोटी-सी दीवार फांदते उसको क्या देर लगती। मैना की फुलवारी में अंधकार था 1 उसके कमरे की खिड़की की संधि से आलोक की पहली रेखा निकलकर उस विराट अंधकार में निष्प्रभ हो जाती थी।
मधुबन सिरस से ऊपर चढ़ी हुई मालती की छाया में ठिठक गया। पीछा करने वालों की आहट लेने लगा। किंतु मेरा भ्रम है। अभी कोई नहीं आया। उसने साहस भरे हृदय से विश्वास किया, यह सब मेरा भ्रम है। अभी कोई नहीं आया और न जानता है कि मैं कहाँ हूँ। तो यह मैना का घर है। कोई दूसरा भी तो यहाँ आ सकता है। कौन जाने वह किसी के साथ उस कोठरी में सुख लुटाती हो। वैश्या ...रुपए की पुजारिन ! है तो ... मेरे पास भी।
उसने अपनी थैली पर हाथ रखा। फिर महंत की आंखें उसके सामने आ गई। धीरे-धीरे बड़ी होने लगीं। ओह ! कितनी बड़ी उनसे छिपकर वह बच नहीं सकता। समूचा आकाश केवल महंत की आंख बनकर उसके सामने खड़ा था।
मधुबन ने आंख बंद करके अपना सिर एक बार दोनों हाथों से दबाया। उसने कहा-तो भय क्या ! फांसी ही न पाऊंगा फिर इस समय तो, अच्छा देखूं कोई है तो नहीं।
वह धीरे-धीरे बिल्ली के-से दबे पांवों से मैना की खिड़की के पास गया। संधि में से भीतर का सब दृश्य दिखाई दे रहा था। आंगन में भीतर खुलने वाला किवाड़ बंद था। खिड़की से लगा हुआ मैना का पलंग था। वह लालटेन के उजाले में कोई पुस्तक पढ़ रही थी। मधुबन को विश्वास न हुआ कि वह अकेली ही है। उसने धीरे से खिड़की के पल्लों को खोला। मैना ध्यान से पढ़ रही थी। उसने फिर पल्लों को हटाया। अब मैना ने घूमकर देखा।
वह चिल्लाना ही चाहती थी कि मधुबन की अंगुली मुँह पर जा पड़ी। चुप रहने का संकेत पाकर वह उठ खड़ी हुई। धीरे से किवाड़ खोला। उसने चकित होकर मधुबन का उस रात में जाना देखा। वह संदेह, प्रसन्नता और आश्चर्य चकित हो रही थी।
मधुबन ने भीतर आकर किवाड़ बंद कर दिया। मैना सोच रही थी-मधुबन बाबू सबसे छिपकर मुझ बेश्या के यहाँ इस एकांत रजनी में अभिसार करने आए हैं ! उसने न जाने क्यों विरक्ति सी हुई। उसने मधुबन को पलंग पर बैठाते हुए कहा-भला इधर से आने की ....
उसके मुँह पर हाथ रखकर मधुबन ने कहा चुप रहो। पहले यह बताओ कि तुम्हारे यहाँ इस समय कौन-कौन है। यहाँ कोई हम लोगों की बात सुनता तो नहीं है ?
वह मुस्कुराने लगी। वेश्या के यहाँ आने में इतने भयभीत। क्यों? यहाँ तो कोई नहीं सुन सकता ! मां और निद्धू तो आंगन के उस पार सड़क वाले कमरे में हैं। रधिया सोई होगी। वह तो संध्या से ही ऊंघने लगती है। इधर तो मैं ही हूँ। फिर इतना डर काहे का। कुछ चोरी तो नहीं कर रहे हैं। एक रात मेरे घर रहने से बहू रूठ न जाएगी। मैं...
मधुबन ने फिर उसकी चुप रहने का संकेत किया। मैना ने देखा कि मधुबन का मुँह विवर्ण और भयभीत है। उसने मधुबन के शरीरसे सटकर पूछा-बात क्या है ?
मधुबन का हाथ अपने कमर में बंधी थैली पर जा पड़ा। ओह ! हत्या का प्रमाण तो उसी के पास है। उसने धीरे से उसे कमर से खोल कर पलंग पर रख दिया। थैली का रंग लाल था। उसे देखते-ही-देखते मधुबन की आंखें चढ़ गई।
मैना ने देखा कि मधुबन उन्मत्त सा हो गया है। उसे झिंझोड़कर उसने हिला दिया, क्योंकि मधुबन का वह रुप देखकर मैना को भी भय लगा। उसने पूछा-क्यों बोलते नहीं ?
मधुबन को सहसा चेतना हुई। उसने धीरे-से थैली खोलकर उसमें सी गिन्नियां और रुपए पलंग पर रख दिए। मैना को तो चकाचौंध-सी लग गई।
मधुबन ने धीरे-से लैंप की चिमनी उतारकर उसकी लौ से थैली लगा दी। वह भक-भक करके जल उठी।
अब तो मैना से न रहा गया। उसने मधुबन का हाथ पकड़कर कहा-तुम कुछ न कहोगे तो मैं मां को बुलाती हूँ। मुझे डर लग रहा है।
मैंने खून किया है- मधुबन ने अविचल भाव से कहा।
बाप रे ! यह क्यों ? मुझे रुपए देने के लिए ?
मैना का श्वास रुकने लगा। उसने फिर संभलकर कहा-मैं तो बिना रुपए की तुम्हारी ही थी। यह भला तुमने क्या किया ?
जो करना था कर दिया। अब बताओ, तुम मुझे यहाँ छिपा सकती हो कि नहीं ? मैं कल यहाँ से जाऊंगा। रात भर में मुझे जो कुछ करना है, उसे सोच लूंगा। बोलो !
मधुबन बाबू ! प्राण देकर भी आपकी सेवा करूंगी , पर आप यह तो बताइए कि ऐसा क्यों ?
क्यों-मत पूछो। इस समय मुझे अकेले छोड़ दो। मैं सोना चाहता हूँ।
मैना ने स्थिर होकर कुछ विचार किया। उसने कहा-तो मेरी बात मानिए। जैसा भी कहती हूँ। वैसा कीजिए।
मधुबन ने कहा-अच्छा, जो तुम कहो वही करूंगा।
मैना ने पलंग पर से चादर को रुपया समेत बटोर लिया और धीरे से दूसरी छोटी कोठरी में चली गई।
थोड़ी देर के बाद जब वह उसमें से निकली तो उसके मुँह पर चंचलता न थी। हाथ में एक कटोरा दूध था। मधुबन के मुँह से लगाकर उसने कहा...पी जाइए।
मधुबन बच्चों की तरह पीने लगा-उसका कंठ प्यास से सूख रहा था। दूध पीकर मधुबन ने मैना से कहा-मैं कुछ दिनों के लिए धामपुर छोड़ देना चाहता हूँ। रामजस वाले मामले में पुलिस मेरे पीछे पड़ी है। अब एक और कांड हो गया है। मैना ! तुम वेश्या हो तो क्या, न जाने क्यों मैं तुम्हारे ऊपर विश्वास करता हूँ। तुम तितली की रक्षा करना, वह निरपराध !
इसके आगे मधुबन कुछ न कह सका। वह सिसककर रोने लगा। मैना की आंखों से भी आंसू बहने लगे। उसने बड़ी देर तक मधुबन को समझाया और कहा कि - घबराने की कोई बात नहीं। तुम सीधे गंगा के किनारे-किनारे भागो, फिर चुनार जाकर रेल पर चढ़ना। इधर कोई तुम्हारा पता न पावेगा। एक पहर रात रहते मैं तुम्हें जगा दूंगी। इस समय सो जाओ।
मधुबन आज्ञाकारी बालक के समान सोने की चेष्टा करने लगा पर उसे नींद कहाँ आती थी !
मैना ने उसके पास जाकर समय बिताया। जब पीपल पर पहला कौआ अपने आलस भरे स्वर में एक टीस हुई। अपनी जन्मभूमि छोड़ने का यह पहला अवसर था।
मैना ने उसे समझाया कि तुम कुछ दिन कलकत्ते रहो, फिर यहाँ सब ठीक हो जाएगा तो तुमको पत्र लिखूंगी।
उस पिछली रात में मधुबन चल पड़ा। कच्ची सड़क, जो गंगा के घाट पर जाती थी, सुनसान पड़ी थी- धूल ठंडी थी, चांदनी फीकी। मधुबन अपनी धुन में चल रहा था। घाट पर पहुँचते-पहुँचते उजेला हो चला। एक नाव बनारस जाने के लिए थी। मांझी मधुबन की जान-पहचान का था। उसने पूछा-मधुबन बाबू इतना सवेरे ?
तुम कहाँ- मधुबन ने नाव पर बैठते हुए कहा-जानते नहीं हो ? रामजस के मुकदमे में पुलिस मुझको भी चाहती है। मैं बनारस जा रहा हूँ। वकील से सलाह करने।
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बरना के उत्तरी तट पर, सुंदर वृक्षों से घिरा हुआ एक छोटा-सा बंगला है। वहाँ पर आस-पास में ऐसी बहुत-सी कोठियां हैं जिसमें सरकारी उच्च कर्मचारी रहते हैं बैरिस्टर, वकील और डॉक्टर-जैसे स्वतंत्र व्यवसायी अपने सुखी परिवार को लेकर नगर से बाहर और अधिकारियों के समीप रहना अधिक पसंद करते हैं। इसी स्थान पर बाबू मुकुंदलाल भी रहते हैं। उनके पास तीन छोटे-बड़े बंगले हैं जिनमें से एक में तो वह स्वयं रहते हैं और बाकी दोनों के किराए से उनकी गृहस्थी का सारा खर्च चलता है। दोनों का भाड़ा 200/ मिलता है। परंतु मुकुन्दलाल का तो उतना बाहरी खर्च है। गृहस्थी का आवश्यक व्यय तो कर्ज के बल पर चल रहा है। आज से नहीं, कई बरस से।
नंदरानी चुपचाप अपने बंगले से सटकर बहती हुई बरना की क्षीण धारा को देख रही है। उसके सुंदर मुख पर तृप्ति से भरी हुई निराशा थी। तृप्ति इसलिए कि उसका कोई उपाय न था, और निराशा तो थी ही। उसका भविष्य अंधकारपूर्ण था। संतान कोई नहीं। पति निश्चित भाग्यवादी कुलीन निर्धन, जिसके मस्तिष्क में भूतकाल की विभव-लीला स्वप्न-चित्र बनाती रहती है।
कत्थई रंग की ऊनी चादर, जिसे वह कंधो से लेपेटे थी, खिसककर गिर रही थी। किंतु वह तल्लीन होकर बरना की अभावमयी धारा को देख रही थी। और उसका समय भी वैसा ही ढक रहा था, जैसा गोधूलि से मलिन दिन।
दो वृक्षों की ऊंची चोटियां पश्चिम के धुंधले और पीले आकाश की भूमिका पर एक उदास चित्र का अंश बना रही थीं। उसके पैरों के समीप बड़ी मटर और शलजम की छोटी-सी हरियाली थी, किंतु नंदरानी बरना के ढालुवे करारे पर दृष्टि गड़ाए थी, इंद्रदेव का आना उसे मालूम नहीं हुआ।
इंद्रदेव ने 'भाभी' कहकर उसे चौंका दिया। वह कपड़े को सम्हालती हुई घूम पड़ी। इंद्रदेव ने कहा-आज मेरे यहाँ कुछ लोग बाहर के आ गए हैं। उनके लिए थोड़ी-सी मटर चाहिए।
और बनावेगा कौन ? वही आपका मिसिर न ! रानी ने मुस्कराते हुए कहा।
तो फिर दूसरा कौन है ? कितने हैं, कैसे हैं ?
मिस शैला का नाम तो आपने सुना होगा ? संकोच से इंद्रदेव ने कहा।
ओहो ? यह तो मुझे मालूम ही नहीं ! तब तुम लोगों को आज यहीं ब्यालू करना पड़ेगा। मैं अपने मटर की बदनामी कराने के लिए तुम्हारे मिसिर को उसे जलाने न दूंगी। मिस साहिबा किस समय भोजन करती हैं ? अभी तो घंटे भर का समय होगा ही।
इंद्रदेव भीतर के मन से तो यही चाहते थे। पर उन्होंने कहा- उनको यहाँ...
मैं समझ गई !चलो, तुम्हारे साथ चलकर उन्हें बुला लाती हूँ। भला मुझे आज तुम्हारी मिस शैला की ... कहकर नंदरानी ने परिहासपूर्ण मौन धारण कर लिया।
इंद्रदेव नंदरानी के बहुत आभारी और साथ ही भक्त भी थे। उसकी गरिमा का बोझ इंद्रदेव को सदैव ही नतमस्तक कर देता। गुरुजनोचित स्नेह की आभा से नंदरानी उन्हें आप्लावित किया ही करती।
भाभी-कहकर वह चुप रह गए।
क्यों, क्या मेरे चलने से उसका अपमान होगा। एक दिन तो वही मेरी देवरानी होने वाली है, क्या यह बात मैंने झूठ सुनी है ?
वास्तविक बात तो यह थी कि इंद्रदेव शैला के आ जाने से बड़े असंमजस में पड़ गए, उनकी भी इच्छा थी। कि नंदरानी से उसका परिचय कराकर वह छुट्टी पा जाएं। उन्होंने कहा-वाह भाभी, आप भी ...
अच्छा-अच्छा, चलो। मैं सब जानती हूँ, कहती हुई नंदरानी बगल के बंगले की ओर चली 1 इंद्रदेव पीछे-पीछे थे।
छोटे-से बंगले के एक सुंदर कमरे के बाहर दालान में आरामकुर्सी पर बैठी हुई शैला तन्मय होकर हिमालय के रमणीय दृश्यवाला चित्र देख रही थी। सहसा इंद्रदेव ने कहा-मिस शैला ! मेरी भाभी श्रीमती नंदरानी।
शैला उठ खड़ी हुई। उसने सलज्ज मुसकान के साथ नंदरानी को नमस्कार किया।
नंदरानी उसके व्यवहार को देखकर गद्गद हो गई। उसने शैला का हाथ पकड़कर बैठाते हुए कहा-बैठिए , इतने शिष्टाचार की आवश्यकता नहीं।
नंदरानी और इंद्रदेव दोनों ही कुर्सी खींचकर बैठ गए ! तीनों चुप थे।
नंदरानी ने कहा-कहा-आज आपको मेरा निमंत्रण स्वीकार करना होगा। देखिए, बिना कुछ-पूर्व परिचय के मेरा निमंत्रण स्वीकार करना होगा। देखिए, बिना कुछ-पूर्व परिचय के मेरा ऐसा करना चाहे आपको न अच्छा लगे, किंतु मेरा इंद्रदेव पर इतना अधिकार अवश्य है और मैं शीघ्रता में भी हूँ। मुझे ही सब प्रबंध करना है। इसलिए मैं अभी तो छुट्टी मांग कर जा रही हूँ। वहीं पर बातें होंगी।
शैला को कहने का अवसर बिना दिए ही वह उठ खड़ी हुई। शैला ने इंद्रदेव की ओर जिज्ञासा - भरी दृष्टि से देखा।
नंदरानी ने हंसकर कहा-इन्हें भी वहीं ब्यालू करना होगा।
शैला ने सिर झुकाकर कहा-जैसी आपकी आज्ञा।
नंदरानी चली गई। शैला अभी कुछ सोच रही थी कि मिसिर ने आकर पूछा... ब्यालू के लिए ...।
उसकी बात काटते हुए इंद्रदेव ने कहा-हम लोग आज बड़े बंगले में ब्यालू करेंगे। वहाँ, घीसू से कह दो कि मेरे बगल वाले कमरे में मेम साहब के लिए पलंग लगा दे।
मिसिर के जाने पर शैला ने कहा-मैं तो कोठी पर चली जाऊंगी। यहाँ झंझट बढ़ाने से कया काम है। मुझे तो यहाँ आए दो सप्ताह से अधिक हो गया। वहाँ तो मुझे कोई असुविधा नहीं है।
इंद्रदेव ने सिर झुका लिया। क्षोभ से उनका हृदय भर उठा। वह कुछ कड़ा उत्तर देना चाहते थे परंतु सम्हलकर कहा-हाँ शैला ! तुमको मेरी असुविधा का बहुत ध्यान रहता है। तुमने ठीक ही समझा है कि यहाँ ठहरने में दोनों को कष्ट होगा।
किंतु यह व्यंग्य शैला के लिए अधिक हो गया। इंद्रदेव को वह मना लेने आई थी। वह इसी शहर में रहने पर भी आज कितने दिनों पर उनसे भेंट करने आई, इस बात का क्या इंद्रदेव को दुख न होगा ? आने पर भी यह यहाँ रहना नहीं चाहती। इंद्रदेव ने अपने मन में यही समझा होगा कि वह अपने सुख को देखती है। शैला ने हाथ जोड़कर कहा-क्षमा करो इंद्रदेव ! मैंने भूल की है।
भूल क्या ! मैं तो कुछ न समझ सका।
मैंने अपराध किया है। मुझे सीधे यहीं आना चाहिए था। किंतु क्या करूं, रानी साहिबा ने मुझे यहीं रोक लिया। उन्होंने बीबी-रानी के नाम अपनी जमींदारी लिख दी है। उसी के लिखाने-पढ़ाने में लगी रही। और मैंने उसके लिए आकर तुम्हारी सम्मति नहीं ली, ऐसा मुझे न करना चाहिए था।
मैं तो समझता हूँ कि तुमने कुछ भूल नहीं की। मुझे उसके संबंध में कुछ कहना नहीं था। हाँ,यह बात दूसरी है कि तुम यहाँ क्यों नहीं आ पायीं। उसे लिखाते-पढ़ाते रहने पर भी तुम एक बार यहाँ आ सकती थीं। किंतु तुमने सोचा होगा कि इंद्रदेव स्वयं अपने लिए तंग होगा, मैं वहाँ चलकर उसे और भी कष्ट दूंगी। यही न ? तो ठीक तो है। अभी मेरी बैरिस्टरी अच्छी तरह नहीं चलती, तो भी इन कई महीनों में सादगी से जीवन-निर्वाह करने के लिए मैं रुपए जुटा लेता हूँ। मुझे संपत्ति को आवश्यकता नहीं शैला !
शैला ने देखा, इंद्रदेव के मुँह पर दृढ़ उदासीनता है। वह मन ही मन कांप उठी। उसने सोचा कि इंद्रदेव को आर्थिक हानि पहुंचाने में मेरा भी हाथ है। वह कुछ कहना ही चाहती थी कि इंद्रदेव बीच में ही उसे रोककर कहने लगे-मैं संकुचित हो रहा था। मुझे यह कहकर मां का जी दुखाने में भय होता था कि - मैं संपत्ति और जमींदारी से कुछ संसर्ग न रखूंगा। अच्छा हुआ कि कि उन्हीं लोगों ने इसका आरंभ किया है। तुमको अब यहाँ कुछ दिनों तक और ठहरना होगा, क्योंकि नियमपूर्वक लिखा-पढ़ी करके मैं समस्त अधिकार और अपनी संपत्ति मां को दे देना चाहता हूँ। मेरे परम आदर की वस्तु 'मां का स्नेह' जिसे पाकर खोया जा सके, वह संपत्ति मुझे न चाहिए और मैं उसे लेकर भी क्या करूंगा ? अधिक धन तो पारस्परिक बंधन में रहने वाले को ...
शैला चौंककर बोल उठी-तो क्या तुम संन्यासी होना चाहते हो ? इंद्रदेव अंत में यह क्या कलंक भी मुझको मिलेगा।
इंद्रदेव इस अप्रिय प्रसंग से ऊब उठे थे। इसे बंद करने के लिए कहा-अच्छा इस पर फिर बातें होंगी। अभी तो चलो, वह देखो, भाभी का नौकर बुलाने के लिए आ रहा होगा। आओ, कपड़ा बदलना हो तो बदलकर झटपट तैयार हो लो।
शैला हंस पड़ी उसने पूछा - तो क्या यहाँ किसी की साड़ियां भी मिल जाएंगी ? मुझे तो तुम्हारी गृहस्थ बुद्धि पर इतना भरोसा नहीं !
इंद्रदेव लज्जित से खीझ उठे। शैला हाथ-मुँह धोने के लिए चली गई। इंद्रदेव क्रमश: उस घने होते हुए अंधकार में निश्चेष्ट बैठे रहे। शैला भी आकर पास ही कुर्सी पर बैठकर तितली की छोटी-सी सुंदर गृहस्थी का काल्पनिक चित्र खींच रही थी। दासी लालटेन लेकर शैला को बुलाने के लिए ही आई।
इंद्रदेव ने कहा-चलो शैला !
दोनों चुपचाप नंदरानी के बंगले में पहुंचे। दालान में कंबल बिछा था। मुकुंदलाल कंबल के लिए सिरे पर बैठे हुए छोटी-सी सितारी पर ईमन का मधुर राग छेड़ रहे थे। दम चूल्हे पर मटर हो रही थी। उसके नीचे लाल-लाल अंगारों का आलोक फैल रहा था। लालटेन आड़ में कर दी गई थी, बाबू मुकुंदलाल को उसका प्रकाश अच्छा नहीं लगता था।
नंदरानी उस क्षीण आलोक में थाली सजा रही थी। सरूप नि:शब्द काम करने में चतुर था। वह नंदरानी के संकेत से सब आवश्यक वस्तु भण्डार में से लोकर जुटा रहा था।
शैला और इंद्रदेव को देखते ही मुकुंदलाल ने सितारी रखकर उनका स्वागत किया। शैला ने नमस्कार किया सब लोग कंबल पर बैठे। नंदरानी ने थाली लाकर रख दी। इंद्रदेव ने शैला का परिचय देते हुए यह भी कहा कि - आप हिंदू धर्म में दीक्षित हो चुकी हैं। आपने धामपुर में गांव के किसानों की सेवा करना अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया है।
नंदरानी विस्मित होकर शैला के मौन गौरव को देख रही थी। किंतु मुंकुंदलाल का ललाट, रेखा-रहित और उज्जवल बना रहा। जैसे उनके लिए यह कोई विशेष ध्यान देने की बात न थी। उन्होंने मटर का एक पूरा ग्रास गले से उतारते हुए कहा-भाई इंद्रदेव, तुम जो कह रहे हो, उसे सुनकर मिस शैला की प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकता। यह भी एक तरह का संन्यास धर्म है। किंतु मैं तो गृहस्थ नारी की मंगलमयी कृति का भक्त हूँ। वह इस साधारण संन्यास से भी दुष्कर और दंभ-विहीन उपासना है।
नंदरानी ने कुछ सजग होकर अपने पति की वह बात सुनी। उसके उधर कुछ खिल उठे। उसने कहा-इंद्रदेव जी, और क्या दूं ?
मुकुंदलाल ने थोड़ा-सा हंसकर कहा अपनी सी एक सुंदर धर्मिणी। शैला के कर्णमूल लाल हो उठे। और इंद्रदेव ने बात टालते हुए कहा-मैं समझता हूँ कि भाभी जानती होंगी कि इस अपने पेट के लिए जुटाने वाले मनुष्य को, उनकी-स्त्री की आवश्यकता नहीं हो सकती।
शैला और भी कटी जा रही थी। उसको इंद्रदेव की सब बातें निराश हृदय की संतोष-भरी सांस -सी मालूम होती थीं। वह देख रही थी नंदरानी को और तुलना कर रही थी तितली से। एक की भरी-पूरी गृहस्थी थी और दूसरी अभाव से अकिंचन तिस पर भी दोनों परिवार सुखी और वास्तविक जीवन व्यतीत कर रहे थे।
नंदरानी ने कहा-इतना पेटू हो जाना भी अच्छा नहीं होता इंद्रदेव। अपना ही स्वार्थ न देखना चाहिए।
कहाँ भाभी ! मैंने तो अभी कुछ भी नहीं खाया। अभी मिठाइयां तो बाकी ही हैं। तिस पर भी मैं पेटू कहा जाऊं ? आश्चर्य।
अरे रमा ! मैं खाने के लिए थोड़े ही कह रही हूँ। अभी तो तुमने कुछ खाया ही नहीं। मेरा तात्पर्य था तुम्हारे ब्याह से।
ओहो ! तो मैं देखता हूँ कि कोई मूर्ख कुमारी मुझसे ब्याह करने की भीख मांगने के लिए तुम्हारे पास पल्ला पसार कर आई थी न ! उसको समझा दो भाभी ! मैं तो उसके लिए कुछ न कर सकूंगा।
नंदरानी हंसने लगी। शैला से उसने पूछा-क्यों, आप तो कुछ ? जी नहीं, मुझे कुछ न चाहिए। कहकर शैला ने उसकी ओर दीनता से देखा।
मुकुंदलाल ने इंद्रदेव से कहा-तुम ठीक कहते हो इंद्रदेव, मैं भूल कर रहा था। स्त्री के लिए पर्याप्त रुपया या संपत्ति की आवश्यकता है। पुरुष उसे घर में लाकर जब डाल देता है तब उसकी निज की आवश्यकताओं पर बहुत कम ध्यान देता है। इसलिए मेरा भी अब यही मत हो गया है कि स्त्री के लिए सुरक्षित धन की व्यवस्था होना चाहिए। नहीं तो तुम्हारी भाभी की तरह वह स्त्री अपने पति को दिन-रात चुपचाप कोसती रहेगी।
नंदरानी अप्रतिभ-सी होकर बोली-यह लो, अब मुझी पर बरस पड़े।
मुकुंदलाल ने और भी गंभीर होकर कहा-अच्छा इंद्रदेव। तुमसे एक बात कहूँ ? मिस शैला के सामने भी वह बात करने में मुझे संकोच नहीं। यह तो तुम जानते हो कि मैं धीरे-धीरे ऋण में डूब रहा हूँ। और जीवन के भोग के प्याले को, उसका सुख बढ़ाने के लिए, बहुत धीरे-धीरे दस बीच बूंद का घूंट लेकर खाली कर रहा हूँ। होगा सो तो होकर ही रहेगा। किंतु तुम्हारी भाभी क्या कहेंगी। मैं चाहता हूँ कि ये दोनों छोटे बंगले मैं नंदरानी के नाम लिख दूं। और फिर एक बार विस्मृति की लहर में धीरे-धीरे डूबूं और उतराऊं।
नंदरानी की आंखों से दो बूंद आंसू टपक पड़े। न जाने कितनी अमंगल और मंगल की कामल भावनाएं संसार के कोने-कोने से खिलखिला पड़ीं। उसने मुकुंदलाल का प्रतिवाद करना चाहा, परंतु नार-जीवन का कैसा गूढ़ रहस्य है कि वह स्पष्ट विरोध न कर सकी। इतने में इंद्रदेव ने कहा-भाई साहब मुझे एक रजिस्ट्री करानी है। मैं अपनी समस्त संपत्ति मां के नाम लिख देना चाहता हूँ। क्योंकि ...
शैला ने तौलिए से हाथ पोंछते हुए इंद्रदेव की ओर देखा। उसने अभी-अभी इंद्रदेव के अभावों का दृश्य देखा है। उसने संपत्ति से और उसकी आशा से भी वंचित होने की मन में ठानी है।
मुकुंदलाल ने कहा-हाँ, हाँ, कहो क्योंकि स्त्रियों को ही धन की आवश्यकता है। और संभवत: वे ही इसकी रक्षा भी कर सकती हैं। तो फिर ठीक रहा। कल ही इसका प्रबंध कर दो।
सब लोग हाथ-मुँह धोकर अपनी कुर्सियों पर आराम से बैठे ही थे कि सरूप ने आकर कहा-बैरिस्टर साहब से मिलने के लिए एक स्त्री आई है। उसका कोई मुकद्दमा है।
सब लोग चुप रहे। शैला सोच रही थी कि क्या स्त्रियां सचमुच धन की लोलुप हैं। फिर उसने अपने ही उत्तर दिया-नहीं, समाज का संगठन ही ऐसा है कि प्रत्येक प्राणी को धन की आवश्यकता है। इधर स्त्री को स्वावलंबन से जब पुरुष लोग हटाकर, उसके भाव और अभाव का दायित्व अपने हाथ में ले लेते हैं, तब धन को छोड़कर दूसरा उनका क्या सहारा है ?
इतने में सरूप गरम कमरे में चाय की प्याली सजाने लगा।
नंदरानी भोजन करने बैठी। उससे खाया न गया।
दालान में परदे गिरा दिए गए थे। ठंडी हवा चलने लगी थी। किंतु नंदरानी झटपट हाथ-मुँह धोकर पान मुख में रखकर वहीं एक आरामकुर्सी पर अपनी ऊनी चादर में लिपटी हुई पड़ी रही, उसके मन में संकल्प विकल्प चल रहा था। आज तक का त्याग, कुछ मूल्य पर बिकने जा रहा है। उसका मन यह मूल्य लेने से विद्रोह कर रहा था। तब भी जीवन के कितने निराशा भरे दिन काटने होंगे। ज्योतिषी ने कह दिया है कि बाबू मुकुंदलाल अब अधिक दिन जीने के नहीं हैं उनका भीतरी शरीर भग्न पोत की तरह काल-समुद्र में धीरे-धीरे धंसता जा रहा है, फिर भी, उस ऊर्जस्वित आत्मा का सेतु अभी डुबा देने वाले जल के ऊपर ही है। उनकी अवस्था पचास वर्ष की और नंदरानी की चालीस की है। किंतु संसार जैसे उनके सामने अंतिम घड़ियां गिन रहा है। गार्हस्थ्य जीवन के मंगलमय भविष्य में उनका विश्वास नहीं। उसमें रहते हुए भी पुराना संस्कार, उन्हें थके हुए घोड़े के लिए टूटा हुआ छकड़ा बन रहा है, वह जैसे उसे घसीट रहे हैं।
किंतु मुकुंदलाल के लिए यह अवस्था तभी होती है जब वह नंदरानी को अपने जीवन के साथ मिलाकर देखते हैं। फिर जैसे अपने स्थान को लौटकर सितारी, मित्र वर्ग और उनके आतिथ्य-सत्कार में लग जाते हैं।
नंदरानी खिन्न होकर सो गई। उसने नहीं जाना कि कब शैला और इंद्रदेव दूसरी और चले गए।
मुकुंदलाल ने सोने के कमरे में जाते हुए देखा कि नंदरानी अभी वहीं पड़ी है। वह एक क्षण तक चुपचाप खड़े रहे। फिर दासी को बुलाकर धीरे-से कहा-कुछ और ओढ़ा दो। न जागें तो यहाँ आग भी सुलगा दो। देखो, परदे ठीक से बांध देना। यहाँ गरम रहे, तुम्हारी मालकिन थक गई हैं। फिर सोने चले गए।
दूसरे दिन, बरकतअली ने स्टाम्प इंद्रदेव के पास भेज दिया और बाहर मिलने की आशा में बैठा रहा। जब बारह बजने लगा तब घबराकर कोठी के बाहर निकल आया और आम के पेड़ के नीचे बैठी हुई एक स्त्री से उसने कहा-मां जी ! आज बैरिस्टर साहब एक काम में फंसे हुए हैं। आप जाइए, कल आपका काम हो जाएगा।
वह सिर झुकाए हुए बोली-कल कब आऊं ?
आठ बजे।
तब मैं जाती हूँ - कहकर स्त्री धीरे-से उठी और बंगले के बाहर हो गई।
अभी वह थोड़ी दूर सड़क पर पहुंची होगी कि उसी फाटक से एक मोटर उसके पीछे से निकली। उसका शब्द सुनकर, मोटर की ओर देखती हुई, वह एक ओर हटी और उसने पहचान लिया इंद्रदेव और शैला। उसने साहस से पुकारा-बहन शैला।
किंतु शैला ने सुना नहीं। इंद्रदेव मोटर चला रहे थे। वह करुण पुकार दोनों के कान में नहीं पड़ी।
वह स्त्री धीरे-धीरे फाटक में लौट आई, और आम के नीचे जाकर बैठ रही।
शैला जब रजिस्ट्री पर गवाही करके इंद्रदेव के साथ उस बंगले पर लौटी, तो उसे न जाने क्यों मानसिक ग्लानि होने लगी। वह हाथ-मुँह पोंछकर बगीचे में घूमने के लिए चली। एक छोटा-सा चमेली का कुंज था। उसमें फूल नहीं थे। पत्तियां भी विरल हो चली थीं, वह रुखी-रुखी लता, लोहे के मोटे तारों से लिपट गई थी, तीव्र धूप में चाहे उसे कितना ही जलाता हो, फिर भी उसके लिए वही अवलंब था। किरणें उसमें प्रवेश करके उसे हंसाने का उद्योग कर रही थीं। शैला उस निस्सहाय अवस्था को तल्लीन होकर देख रही थी।
सहसा तितली ने उसके सामने आकर पुकारा बहन ! मैं कब से तुमको खोज रही हूँ। तुमको देखा और पुकारा भी, पर तुमने न सुना। सच है, संसार में सब मुँह मोड़ लेते हैं ! विपत्ति में किससे आशा की जाय।
शैला ने घूमकर देखा। यह वही तितली है ? कई पखवारों में ही वह कितनी दुर्बल और रक्त शून्य हो गई है। आंखें जैसे निराशा नदी के उद्गम सी बन गई हैं। बाहरी रुप रेखा जैसे शून्य में विलीन होने वाले इंद्रधनुष सी अपना वर्ण खो रही है। उसे अभी अपने मानसिक विप्लव से छुट्टी नहीं मिली थी। फिर भी उसने सम्हलते हुए पूछा-तितली! क्या हुआ है बहन ! तुम यहाँ कैसे !
बड़े दु:ख में पड़कर मैं यहाँ आई हूँ बहन ! मैं लुट गई ! तितली की रूखी आंखों से आंसू निकल पड़े।
क्यों मधुबन कहाँ है। सुनते ही शैला ने पूछा।
पता नहीं। उस दिन गांव में लाठी चली। रामजस को लोग मारने लगे। उन्होंने जाकर रामजस को बचाया, जिसमें छावनी के कई नौकर घायल हो गए। पुलिस की तहकीकात में सब लोगों ने उन्हीं के विरुद्ध गवाही दी। थानेदार ने रुपया मांगा। और मुकद्दमे के लिए भी रुपया की आवश्यकता थी। महंतजी के पास उन्होंने राजो को भेजा। राजो कहती थी कि महंत ने उसके साथ अनुचित व्यवहार करना चाहा। इस पर वहीं छिपे हुए उन्होंने महंत का गला घोंट दिया। राजो तो चली आई। पर उनका पता नहीं !
यहाँ तक ! और जब लड़ाई हुई। तब तुमने मुझे क्यों नहीं कहला भेजा ? शैला ने पूछा।
परंतु तितली चुप रही। मैना के संबंध की बात, अपनी उदासी और राजो की सब कथा कहने के लिए जैसे उसके हृदय में साहस नहीं था।
तब क्या किया जाय ? उनका पता कैसे लगेगा बहन ! इधर शेरकोट पर बेदखली हो गई है। और बनजरिया पर भी डिग्री हुई है, कोई रुपया देता नहीं। मुकदमा कैसे लड़ा जाय ? मुझे कोई सहायता नहीं देना चाहता। मैं तो सब ओर से गई। यां कई वकीलों के पास गई। वे कहते हैं, पहले रुपया ले आओ, तब तुम्हारी बात सुनेंगे। फिर एक सज्जन ने बताया कि यहीं कहीं मिस्टर देवा नाम के एक सज्जन बैरिस्टर रहते हैं। वे प्राय : दीन-दुखियों के मुकदमे बिना कुछ लिए लड़ देते हैं। मैं उन्हीं को खोजती हुई यहाँ तक पहुंची।
शैला घबरा गई। वह अभी तो इंद्रदेव के सर्वस्व-त्याग करने का दृश्य देखकर आई थी। उसके मन में रह-रहकर यही भावना हो रही थी, कि यदि मैं इंद्रदेव को थोड़ा-सा भी विश्वास दिला सकती, तो उनके हृदय में यह भीषण विराग न उत्पन्न होता। वह फिर अपने को ही इंद्रदेव की सांसारिक असफलता मानती हुई मन ही मन कोस रही थी कि तितली का यह दुख से दग्ध संसार उसके सामने अनुनय की भीख मांगने के लिए खड़ा था। वह किस मुँह से इंद्रदेव से उसकी सहायता के लिए कहे। यदि नहीं कहती है तो अपनी सब दुर्बलताएं तितली से स्वीकार करनी होंगी। जिसको हम प्यार करते हैं, जिसके ऊपर अभिमान करने का ढोंग कई बार संसार में प्रचलित कर चुके हैं, उसके लिए यह कहना कि 'वह मुझसे अप्रसन्न है, मैं नहीं...' कितनी छोटी बात है ! वह कैसे निराश करती। उसने तितली से कहा-अच्छा, ठहरो। मैं आज इसका कोई उपाय करूंगी ! तितली ! क्या यह जानती हो कि यह मिस्टर देवा कोई दूसरे नहीं, तुम्हारे जमींदार इंद्रदेव ही हैं।
तितली सन्न हो गई। उसने चारों ओर निराशा के सिंधु को लहराते हुए देखा वह रो पड़ी और बोली-बहिन ! तब मुझे छुट्टी दो। मैं जाऊं, कहीं दूसरी शरण खोजूं !
प्यार से उसकी पीठ थपथपाते हुए शैला ने कहा-नहीं, तुम दूसरी जगह न जाओ, मैं आज अपनी ही परीक्षा लूंगी। तुमको यह नहीं मालूम कि आज ही उन्होंने अपनी जमींदारी का स्वतत्व त्याग दिया है।
क्या कहती हो बहन !
हाँ तितली! इंद्रदेव ने अपने ऐश्वर्य का आवरण दूर फेंक दिया है। वह भी आज हमीं लोगों के से श्रमजीवी मात्र हैं। मुझे तुम्हारे लिए बहुत-कुछ करना होगा। गांव का सुधार करने मैं गई थी। क्या एक कुटुंब की भी रक्षा न कर सकूंगी ? चलो तुम मेरे कमरे में नहा-धोकर स्वस्थ हो जाओ। मैं इंद्रदेव से पूछकर तुमको बुलाती हूँ।
इतना कहकर शैला ने तितली का हाथ पकड़कर उठाया और अपनी कोठरी में ले गई।
उधर इंद्रदेव चाय की टेबल पर बैठे हुए शैला को प्रतीक्षा कर रहे थे। उनका हृदय हल्का हो रहा था। त्याग का अभिमान उनके मुँह पर झलक रहा था और उसमें छिपा था एक व्यंग्य भरा रूठने का प्रसंग शैला भी क्या सोचेगी। मन में मनुष्य अपने त्याग से जब प्रेम को आभारी बनाता है तब उसका रिक्त कोश बरसे हुए बादलों पर पश्चिम के सूर्य के रत्नालोक के समान चमक उठता है। इंद्रदेव को आज आत्मविश्वास था और उसमें प्रगाढ़ प्रसन्नता थी।
शैला आई और धीरे-धीरे-से एक कुर्सी खींचकर बैठ गई। दोनों ने चुपचाप चाय की प्याली खाली कर दी। फिर भी चुप ! दोनों किसी प्रसंग की प्रतीक्षा में थे।
परंतु इंद्रदेव का हृदय तो स्पष्ट हो रहा था। उन्होंने चुप रहने की आवश्यकता न समझकर सीधा प्रश्न किया-तो मैं समझता हूँ कि, कल तम धामपुर जाओगी ? आज तो यहीं कोठी पर रुकना पड़ेगा ! क्योंकि मैंने तुम्हारा अधूरा काम पूरा कर दिया है। उसे तो जाकर मां से कहोगी ही ! फिर समय कहाँ मिलेगा। कल सवेरे जाओगी। एं !
शैला मेज के फूलदार कपड़े पर छपे हुए गुलाब की पंखुरियां नोच रही थी ? सिर नीचा था और आंखें डबडबा रही थीं। वह क्या बोले ?
इंद्रदेव ने फिर कहा-तो आज यहीं रहना होगा !
क्या तुम चाहते हो कि में अभी चली जाऊं ?- बड़े दु:ख से शैला ने उत्तर दिया 1
यह लो, मैं पूछ रहा हूँ। नहीं-नहीं मैं तो तुम्हारी ही बात कर रहा हूँ। तुम तो उसी दिन चली जा रही थीं। मैंने देखा कि तुम अपना काम अधूरा ही छोड़कर चली जा रही हो, इसीलिए रोक लिया था। अब तो मैं समझता हूँ कि तुम अपने ग्राम-सुधार की योजना अच्छी तरह चला लोगी। मां को समझा देना कि जब इंद्रदेव को ही अपने लिए संपत्ति की आवश्यकता नहीं रही, तब उन्हें चाहिए कि यह संचित संपत्ति अधिक से अधिक दीन-दुखियों के उपकार में लगाकर पुण्य और यश की भागी बनें।
तो, तुम अब भी गांव के सुधार में विश्वास रखते हो ?
मेरे इस त्याग में इस विचार का भी एक अंश है शैला कि जब तक उस एकाधिपत्य से मैं अपने को मुक्त नहीं कर लेता, मेरी ममता उसके चारों ओर प्रेम की छाया की तरह घूमा करती। अब मेरा स्वार्थ उससे नहीं रहा। मैं तो समझता हूँ कि गांवों का सुधार होना चाहिए। कुछ पढ़े-लिखे संपन्न और स्वस्थ लोगों को नागरिकता के प्रलोभनों को छोड़कर देश के गांव में बिखर जाना चाहिए। उनके सरल जीवन में-जो नागरिकों के संसर्ग से विषाक्त हो रहा है। विश्वास, प्रकाश और आनंद का प्रचार करना चाहिए। उनके छोटे-छोटे उत्सवों में वास्तविकता, उनकी खेती में संपन्नता और चरित्र में सुरुचि उत्पन्न करके उनके दारिद्रय और अभाव को दूर करने की चेष्टा होनी चाहिए। इसके लिए संपत्तिशालियों को स्वार्थ-त्याग करना अत्यंत आवश्यक है।
किंतु अधिकार रखते हुए तो उसे तुम और भी अच्छी तरह कर सकते थे। शक्ति केंद्र यदि अधिकारों के संचय का सदुपयोग करता रहे, तो नियंत्रण भली-भांति चल सकता है, नहीं तो अव्यवस्था उत्पन्न होगी। तुम्हारे इस त्याग का अच्छा ही फल होगा, इसका क्या प्रमाण है ? मैं तो समझी हूँ कि तुमने किसी झोंक में आकर यह कर डाला।
शैला की यह बात सुनकर इंद्रदेव हंसने लगे। उसी हंसी में अवहेलना भरी थी। फिर उन्होंने कहा-संसार के अच्छे-से अच्छे नियम और सिद्धांत बनते औ बिगड़ते रहेंगे। मैं सबको प्रसन्न और संतुष्ट रखने के लिए अपने-आपको जकड़कर रखना नहीं चाहता। जो होना हो वह हो ले। मैंने जो अच्छा समझा, वही किया। अच्छा, तो अब अपनी कहो। क्या निश्चय हुआ ?
मैं कल जाना चाहती थी। पर अब तो कुछ दिनों के लिए रुकना पड़ा।
क्यों-कोई आवश्यक काम आ पड़ा क्या ?
हाँ, पहले मैं तुम्हारे त्याग की ही परीक्षा करूंगी, फिर दूसरों के किवाड़ खटखटाऊंगी।
शैला ! सुनूं भी। मुझे क्या परीक्षा देनी है ? तितली बड़ी विपत्ति में पड़कर सहायता के लिए आई है। उसका शेरकोट बेदखल हो रहा है। बनजरिया पर भी लगान की डिग्री हो गई है। उधर आपके तहसीलदार ने एक फौजदारी करवा दी है, जिसमें मधुबन पर पुलिस ने वारंट निकलवाया है। और भी, बिहारीजी के महंत ने डाके का मुकदमा भी उस पर चलाया है। मधुबन का पता नहीं। तितली का कोई सहायक नहीं। उसके ब्याह के बाद ही गांव वालों का एक विरोधी दल इन लोगों के विनाश का उपाय सोच रहा था। हम लोगों के हटते ही यह सब हो गया। क्या उसको तुम कानूनी सहायता दे सकोगे ?
एक सांस में यह सब कहकर शैला उत्सकुता से उत्तर की प्रतीक्षा करने लगी। इंद्रदेव चुप रहे। फिर धीरे-धीरे उन्होंने कहा-मैं अब उस गांव के संबंध में कुछ करना नहीं चाहता ! शैला ! तुम जानती ही हो इसका क्या फल होगा !
मैं सब जानती हूँ। पर तुम अभी कह रहे थे कि मैं जाकर वहाँ सुधार का काम अधिक वेग से आरंभ करूं। यदि मेरे कुछ समर्थकों का इस तरह दमन हो जाएगा, तो मैं क्या कर सकूंगी ? अभी तो चकबंदी के लिए कितने झगड़े उठाए जाएंगे। तो मैं समझ लूं कि तुम मुझे कानूनी सहायता भी न दोगे !
मैं तो श्रमजीवी हूँ शैला ! मुझे जो भी फीस देगा, उसी का काम करने के लिए मुझे परिश्रम करना पड़ेगा।
तुमको फीस चाहिए ! क्या कहते हो इंद्रदेव ! इसीलिए तितली की सहायता करने में तुम आनाकानी कर रहे हो न ? शैला की वाणी में वेदना थी।
अपनी जीविका के लिए मैं अब दूसरा कोई काम खोज लूं। फिर और लोगों का काम बिना कुछ लिए ही कर दिया करूंगा। तब तक के लिए क्या तुम क्षमा नहीं कर सकती हो ? इंद्रदेव की मुक्तिमयी निश्चिंत अवस्था व्यंग्य कर उठी।
शैला के हृदय में जो आंदोलन हो रहा था उसे और भी उद्धलित करते हुए इंद्रदे ने फिर कहा-और यह पाठ भी तो तुम्हीं से मैंने पढ़ा है। उस दिन, तुमने जब मेरा प्रस्ताव अस्वीकार करते हुए कहा था कि 'काम किए बिना रहना मेरे लिए असंभव है, अपनी रियासत में मुझे एक नौकरी और रहने की जगह देकर बोझ से तुम इस समय के लिए छुट्टी पा जाओ, तब तुम्हारी जो आज्ञा थी, वही तो मैंने किया। अपने इस त्यागपत्र में नील-कोठी को सर्वसाधारण कामों अर्थात औषधालय, पाठशाला और हो सके तो ग्रामसुधार संबंधी अन्य कार्यालय - के लिए, दान करते हुए मैंने एक निधि उसमें लगा दी है, जिसका निरीक्षण तुमको ही आजीवन करना होगा। उसके लिए तुम्हारा वेतन भी नियत है। इसके अतिरिक्त...।
ठहरो इंददेव ! क्या तुम मुझे बंदी बनाना चाहते हो ? मैं यदि अब वह काम न करूं तो ? बीच ही में रोककर शैला ने पूछा।
नहीं क्यो ? तुमने मुझे जो प्रेरणा दी है, वही करके भी मैं क्या भूल कर गया ? और तुमने तो उस दिन दीक्षा लेते हुए कहा था कि 'तुम्हारे और समीप होने का प्रयत्न कर रही हूँ ' तो क्या यह सब करके भी मैं तुम्हारे समीप होने नहीं पाऊंगा ?
क्यों नहीं ?- कहते हुए सहसा नंदरानी ने उसी कमरे में प्रवेश किया।
शैला और इंद्रदेव दोनों ही जैसे एक आश्चर्यजनक स्वप्न देखकर ही चौंक उठे।
फिर नंदरानी ने हंसते हुए कहा-मिस शैला, आप मुझे क्षमता करेंगी। मैं अनधिकार प्रवेश कर आई हूँ। इंद्रदेव से क्षमता मांगने की तो मैं आवश्यकता नहीं समझती।
इंद्रदेव जैसे प्रकृतिस्थ होकर बोले-बैठिए भाभी ! आप भी क्या कहती हैं !
शैला ने लज्जका से अब अवसर पाकर नंदरानी को नमस्कार किया। नंदरानी ने हंसकर कहा-तो मैं तुम दोनों को ही आशीर्वाद देती हूँ, यह जोड़ी सदा प्रसन्न रहे।
अभिमान से भरा हुआ शैला का हृदय अपने को ही टटोल रहा था-क्या मेरे समीप आने के लिए ही इंद्रदेव का वह त्याग है ? यह प्रश्न भीतर-भीतर स्वयं उत्तर बन गया।
शैला ने नंदरानी की प्रसन्न आकृति में विनोद की मात्रा देखी, वह क्षण-भर के लिए अपने को वास्तविक जगत में देख सकी। उसने एक सांस में निश्चय किया कि 'हाँ' कह दूं। किंतु अब प्रस्ताव करने में कौन आगे बढ़े ? वह लज्जा और आनंद से मुस्कुरा उठी।
नंदरानी ने भाव पहचानते ही कहा-मिस शैला ! जब तुम इंद्रदेव को बहुत दूर तक अपने पथ पर खींच लाई हो, तब यों अकेले छोड़ देना क्या कायरता नहीं ? बोलो, मैं किसी दिन अपने इष्ट मित्रों को निमंत्रित करूं ? मुझे इंद्रदेव का ब्याह करने का अधिकार है। मैं उकी कुटुंबिनी हूँ। अब मुझे केवल तुम्हारी स्वीकृति चाहिए।
शैला का सिर नीचे झुका हुआ था। उसकी ठुड्डी उठाकर नंदरानी ने कहा-अब बहाना करने से काम नहीं चलेगा। कहाँ 'हाँ', बस मैं कर लूंगी।
बहन ! मैं स्वीकार करती हूँ। परंतु इधर मेरे मन की जो दशा है, वह जब तक तितली का कुछ उपाय ...।
चुप भी रहो तितली, बुलबुल, कोयल, सबों का स्वागत होगा। पहले वसंत का उत्सव तो होने दो। मैं तितली को अपने पास रखूंगी और इंद्रदेव को उसकी सहायता करनी होगी।
शैला को चुप देखकर फिर नंदरानी ने कहा। इंद्रदेव ! तुम बोलते क्यों नहीं ? क्या मैं तुम्हारी वकालत करूं और तुम बुद्ध बैरिस्टर बनकर बैठे रहो ?
इंद्रदेव हंसकर बोले-भाभी ! संसार में कई तरह के न्यायालय होते हैं। आज जिस न्यायालय में खड़ा हूँ, वहाँ आप जैसे वकीलों का ही अधिकार है।
तो फिर मैं तुम्हारी ओर स्वीकृति देती हूँ। कल अच्छा दिन है। यहीं मेरे बंगले में यह परिणय होगा। इंद्रदेव, तुम्हारा महत्वपूर्ण आडम्बर हट गया है, तब तुम अपने मनुष्य के रूप में वास्तविक स्वतंत्रता का सुख लो। केवल स्त्री और पुरुष ही का संयोग जटिलताओं से नहीं भरा है। संसार के जितने संबंध-विनिमय हैं, उनमें निर्वाह की समस्या कठिन है। तुम जानते हो कि मैंने उसका त्यागपत्र फाड़कर फेंक दिया और रजिस्ट्री कराने के लिए उन्हें नहीं जाने दिया। उनसे सब अधिकार लेकर मैं उनको अपदस्थ करके नहीं जाने दिया। उनसे सब अधिकार लेकर मैं उनको अपदस्थ करके नहीं रखना चाहती। वे मेरे देवता हैं। उनकी बुराइयां तो मैं देख ही नहीं पाती हूँ। हाँ, अर्थ-संकट है सही, पर यही उनकी मनुष्यता है। धोखा देकर कई बार उनसे कुछ झंस लेने वाले मित्र भी फिर उनसे कुछ ले लेने की आशा रखते हैं। क्या यह मेरे गौरव की वस्तु नहीं है ? मैंने उसका त्यागपत्र अस्वीकार कर दिया हैं। परंतु अब मैं अर्थ सचिव बन गई हूँ। अब वे सीधे मेरे पास कुछ भेज देते हैं। मैं कहती हूँ कि पुरुष और स्त्री को ब्याह करना ही चाहिए। एक दूसरे के सुख-दुख और अभाव-आपदाओं को प्रसन्नता में बदलने के लिए सदैव प्रयत्न करना चाहिए। इसीलिए तुम दोनों को मैं एक में बांध देना चाहती हूँ।
शैला ने इंद्रदेव की ओर जिज्ञासा भरी दृष्टि से देखा। इंद्रदेव ने मिसिर को पुकारकर कहा-देखो, तितली नाम की एक स्त्री बाहर है, उसे बुला लाओ। तितली आई। उसने नमस्कार किया। इंद्रदेव ने कुर्सी दिखलाकर कहा-बैठो।
सहसा उनके मन में वह बात चमक गई जो उनके और तितली के ब्याह के लिए धामपुर में एक बार अदृश्य का उपहास बनकर फैल गई थी। फिर प्रकृतिस्थ होकर, तितली के बैठे जाने पर, इंद्रदेव ने कहा-मुझे तुम्हारी सब बातें मालूम हैं। मैं सब तरह की सहायता करूंगा। किंतु जब मधुबन इस समय कहीं जाकर छिप गया है, तब सोच-समझकर कुछ करना होगा। मैं उसका पता लगाने का प्रयत्न करूंगा। और रह गया शेरकोट, उसका कागज मैं देख लूंगा तब कहूँगा। बनजरिया का लगान जमा करवा दूंगा। फिर उसका भी प्रबंध कर दिया जाएगा। तब तक तुम यहीं रहो। क्यों शैला ! कल के लिए तुम तितली को निमंत्रित न करोगी ?
तितली ने चुपचाप सुन लिया। शैला ने कहा-तितली ! कल के लिए, मेरी ओर से निमंत्रण है, तुमको यहीं रहना होगा।
तितली के मुँह पर उस निरानंद में भी एक स्मित-रेखा झलक उठी। दूसरे दिन वैवाहिक उत्सव के समाप्त हो जाने पर, तितली वहाँ से बिना कुछ कहे-सुने कहीं चली गई। शैली और इंद्रदेव दोनों ही उसको बहुत खोजते रहे।
8
चुनार की एक पहाड़ी कंदरा में रहते हुए, मधुबन को कई सप्ताह हो चुके थे। वह निस्तब्ध रजनी में गंगा की लहरों का, पहाड़ी के साथ टकराने का, गंभीर शब्द सुना करता। उसके हृदय में भय, क्रोध और घृणा का भयानक संघर्ष चला करता। उसके जीवन में आरंभ से ही अभाव था, पर वह उसे उतना नहीं अखरता था जितना वह एकांतवास। सब कुछ मिलाकर भी जैसे उसके हाथ से निकल गया। छोटी-सी गृहस्थी, उसमें तितली-सी युवती का सावधानी से भरा हुआ मधुर व्यवहार, और भी भविष्य की कितनी ही मधुर आशाएं सहसा जैसे आने वाले पतझड़ के झपेटे में पड़कर पत्तियों की तरह बिखरकर तीन-तेरह हो गईं।
वह अपने ही स्वार्थ को देखता, दूसरों के पचड़े में पड़ा होता, तो आज वह दिन देखने की बारी न आती। उसने मन-ही-मन विचार किया कि समूचा जगत मेरे लिए एक षड्यंत्र रच रहा था। और मूर्ख मैं, एक भावना में पड़कर, एक काल्पनिक महत्व के प्रलोभन में फंसकर, आज इस कष्ट में कदर्थित हो रहा हूँ।
उसके जीवन का गणित भ्रामक नहीं था। और फल अशुद्ध निकलता दिखाई पड़ रहा है। तब यह दोष उसका हो ही नहीं सकता। नहीं, इसमें अवश्य किसी दूसरे का हाथ है।
मुझे पिशाच के भयानक चंगुल में फंसाकर सब निर्विघ्न आनंद ले रहे हैं। कौन। राजो ...तितली...मैना....सुखदेव...तहसीलदार....और शैला ! सब चुपचाप ? मैं कितने दिनों तक छिपा-छिपा फिरूंगा ? और शेरकोट, बनजरिया, उसमें तितली का सुंदर सा मुख-सोचते सोचते उसे झपकी आ गई। भूख से भी वह पीड़ित था। दिन ढल रहा था, परंतु जब तक रात न हो जाए, बाजार तक जाने में वह असमर्थ था। उसकी निद्रा स्वप्न को खींच लाई।
उसने देखा-तितली हंसती हुई अपनी कुटिया के द्वार पर खड़ी है। उधर से इंद्रदेव घोड़े पर उसी जगह आकर उतर गए। उन्होंने तितली से कुछ पूछा और तितली ने मंद मुस्कान के साथ न जाने क्या उत्तर दिया। इंद्रदेव प्रसन्न से फिर घोड़े पर चढ़कर चले गए।
उस समय अपने को उसने घुमची की लता की आड़ में पाया। वह छिपकर देख रहा है।- हाँ।
फिर सुखदेव आता है। वह भी तितली से बात करके चला जाता है। स्वप्न की संध्या दिन को ढुकलाकर रात को बुला लाई। अंधेरा हो गया। तारे निकल आए। उसे फुसफुसाहट सुनाई पड़ी। तितली अपने अंचल में दीप लिए किसी को पथ दिखलाने के लिए खड़ी है। उसका मुख धूमिल है 1 वह घबराई-सी जान पड़ती है।
दूसरा दृश्य, अंधकार में और भी मलिन, कलुषपूर्ण हृदय की भूमिका में अत्यंत विकृति होकर प्रतिभासित हो उठा। शेरकोट-खंडहर, उसमें भीतरी यह लिपी-पुती चूने से चमकीली एक छोटी-सी कोठरी ! और राजो बन ठनकर बैठी है। क्यों ? किवाड़ बंद है। भीतर ही वह शीशे में अपना रूप देख रही है। बाहर किवाड़ों पर खट-खट का शब्द होता है। वह मुस्कुराकर उठ खड़ी होती है।
स्वप्न देखते हुए भी मधुबन और बलपूर्वक पलकों को दवा लेता है। आंखें जो बंद थीं। वह मानों फिर से बंद हो जाती हैं। आगे का दृश्य देखने में वह असमर्थ है।
तब, वह पुरुष है। उसको मान के लिए मर मिटना चाहिए; परंतु यह नीच व्यापर यों ही चलता रहे। कुत्सित प्राणियों का कालिमापूर्ण...नहीं...अब नहीं। संसार को अपने एक कोने में सुख नहीं, आनंद नहीं, किसी तरह जीवन को बिता लेने के लिए भी अवसर नहीं देना चाहता। तो जिनको मैं परम प्रिय मानता हूँ, उनका अपमान चाहे, वह उन्हीं की स्वीकृति से हो रहा हो- नहीं होने दूंगा। नहीं- वह सपने का वीर हुंकार कर उठा।
पहले तितली ही-हाँ, उसी का गला घोंटना होगा। उसे प्यार करता हूँ। नहीं तो संसार में न जाने क्या कहाँ हो रहा है, मुझे क्या? नहीं, तितली को मेरी रक्षा के बाहर संसार में जाने से अपमान, कुत्सा और दु:ख भोगना पड़ेगा। मैं चढूंगा फांसी पर। चढ़ने के पहले एक बार सबको जी खोलकर गाली दूंगा। संसार को- हाँ, इसी पाजी, नीच और कृतघ्न संसार को- जिसने मेरा मूल्य नहीं समझा और हाहाकार में व्यथित देखकर धीरे-धीरे मुस्कराता हुआ अपनी चाल पर चला जा रहा है... यह क्या रहने के उपयुक्त है? तब... ठीक... तो... अंधकार है।
वह फिर उसी बनजरिया में घुसता है।
फिर तितली का भोला-सा सुदर मुख!
उसका साहस विचलित होता है। शरीर कांपने लगता है और आंखें खुल जाती हैं। वह पसीने से तर उठ बैठता है।
दिन ढल चुका है। वह धीरे-धीरे अपनी कंदरा से बाहर आया। गंगा की तरी में खेत सुनसान पड़े थे। फसल कट चुकी थी। दूर पर किले की भद्दी प्राचीर ऊंची होकर दिखाई पड़ी। वह धीरे-धीरे बाजार की ओर न जाकर किले की ओर चला। सूर्य डूग रहे थे। अभी कोयले से भरी हुई छोटी-छोटी हाथ-गाडि़यां रिफार्मेटरी के लड़के ढकेल रहे थे। मधुबन ने आंख गड़ाकर देखा; वह, रामदीन तो नहीं है। है तो वही।
वह वेग से चलने लगा और रामदीन के पास जा पहुंचा। उसने कहा- रामदीन !
रामदीन ने एक बार इधर-उधर देखा, फिर जैसे प्रकृतिस्थ हो गया। इधर कई महीनों से वह धामपुर को भूल गया था। उसे अच्छा खाना मिलता। काम करना पड़ता। तब अन्य बातों की चिंता क्यों करे? आज सामने मधुबन ! क्षण भर में उसे अपने बंदी-जीवन का ज्ञान हो गया। वह स्वतंत्रता के लिए छट-पटा उठा।
मधुबन बाबू!- वह चीत्कार कर उठा।
क्या तू छूट गया रे, नौकरी कर रहा है ?
नहीं तो, वही जेल का कोयला ढो रहा हूँ।
और कौन है तेरे साथ?
कोई नहीं, यही अंतिम गाड़ी थी। मैं ले जा रहा हूँ और लोग आगे चले गए हैं।
दूर पर प्रशांत संध्या की छाती को धड़काते हुए कोई रेलगाड़ी स्टेशन की ओर आ रही थी। बिजली की तरह एक बात मधुबन के मन में कौंध उठी।
उसने पूछा- मैं कलकत्ता जा रहा हूँ- तू भी चलेगा ?
रामदीन- नटखट! अवसर मिलने पर कुछ उत्पात-हलचल-उपद्रव मचाने का आनंद छोड़ना नहीं चाहता। और मधुबन तो संसार की व्यवस्था के विरुद्ध हो ही गया था। रामदीन ने कहा- सच! चलूं?
हाँ, चल !
रामदीन ने एक बार किले की धुंधली छाया को देखा और स्टेशन की ओर भाग चला। पीछे-पीछे मधुबन !
गाड़ी के पिछले डिब्बे प्लेटफार्म के बाहर लाइन में खड़े थे। प्लेटफार्म के ढालुवें छोर पर खड़े होकर गार्ड ने धीरे-धीरे हरी झंडी दिखाई। उस जगह पहुँचकर भी मधुबन और रामदीन हताश हो गए थे। टिकट लेने का समय नहीं। गाड़ी चल चुकी है, उधर लौटने से पकड़े जाने का भय। गार्ड वाला डिब्बा गार्ड के समीप पहुंचा। दूर खड़े स्टेशन-मास्टर से कुछ संकेत करते हुए अभ्यस्त गार्ड का पैर, डिब्बे की पटरी पर तो पहुंचा; पर वह चूक गया। दूसरा पैर फिसल गया। दूसरे ही क्षण कोई भयानक घटना हो जाती, परंतु मधुबन ने बड़ी तत्परता से गार्ड को खींच लिया। गाड़ी खड़ी हुई। स्टेशन पर आकर गार्ड ने मधुबन को दस रुपए का एक नोट देना चाहा। उसने कहा- नहीं, हम लोग देहाती हैं, कलकत्ता जाना चाहते हैं। गार्ड ने प्रसन्नता से उन दोनों को अपने डिब्बे में बिठा लिया।
गाड़ी कलकत्ता के लिए चल पड़ी।
उसी समय बनजरिया में उदासी से भरा हुआ दिन ढल रहा था। सिरिस के वृक्ष के नीचे, अपनी दोनों हथेलियों पर मुँह रखे हुए, राजकुमारी, चुपचाप आंसू की बूंदें गिरा रही थी। उसी के सामने, बटाई के खेत में से आए हुए, जौ-गेहूँ के बोझ पड़े थे। गऊ उसे सुख से खा रही थी। परंतु राजकुमारी उसे हाँकती न थी।
मलिया भी पीठ पर रस्सी और हाथ में गगरी लिए पानी भरने के लिए दूसरी ओर चली जा रही थी।
राजकुमारी मन-ही-मन सोच रही थी- मैं ही इन उपद्रवों की जड़ हूँ। न जाने किस बुरी घरी में, मेरे सीधे-सादे हृदय में, संसार की अप्राप्त सुखलालसा जाग उठी थी, जिससे मेरे सुशील मधुबन के ऊपर यह विपत्ति आई। तितली भी चली गई। उसका भी कुछ पता नहीं। सुना है कल तक लगान का रुपया न जमा हो जाएगा, तो बनजरिया भी हम लोगों को छोड़ना पड़ेगा। हे भगवान !
वैशाख की संध्या आई।नारंगी के हल्के रंग वाले पश्चिम के आकास के नीचे, संध्या का प्राकृतिक चित्र मधुर पवन से सजीव हो हिल रहा था। पवन अस्पष्ट गति से चल रहा था। उसमें अभी कुछ-कुछ शीतलता थी ! सूर्य की अंतिम किरणें भी डूब चुकी थीं; किंतु राजकुमारी की भावनाओं का अंत नहीं !
साहस तितली ने पास आकर कहा- मलिया कहाँ गई? जीजी ! क्या तुमने गऊ के ही खाने के लिए इतना-सा बोझ यहाँ डाल दिया है?
वही दृढ़ स्वर ! वही अविचल भाव !
राजो ने चौंककर उसकी ओर देखा- तितली! तू आ गई ! मधुबन का पता लगा? मुकदमे में क्या हुआ?
कहीं पता नहीं लगा। और न तो उसके बिना आए मुकदमा ही चलता है। तब तक हम लोगों को मुँह सीकर तो रहना नहीं होगा जीजी ! जीना तो पड़ेगा ही; जितनी सांसें आने-जाने को हैं, उतनी चलकर ही रहेंगी। फिर यह क्या हो रहा है ? कहकर उसने गऊ को हाँकते हुए अपनी छोटी सी गठरी रख दी।
आग लगे ऐसे पेट में। जीकर ही क्या होगा। भगवान मुझे उठा ही लेते, तो क्या कोई उनको अपराध लगता ! मैं तो... !
मैं भी तुम्हारी-सी बात सोचकर छुट्टी पा जाती जीजी ! मैं वैसा नहीं कर सकती। मुझे तो उनके लौटने के दिन तक जीना पड़ेगा। और जो कुछ वे छोड़ गए हैं, उसे सम्हालकर उसके सामने रख देना होगा।
तितली की प्रशांत दृढ़ता देखकर राजो झल्ला उठी। वह मन-ही-मन सोचने लगी- पढ़ी-लिखी स्त्रियां क्या ऐसी ही होती हैं ? इतने विपत्ति में भी जैसे इसको कुछ दुख नहीं ! न जाने इसके मन में क्या है!
मनुष्य इसी तरह प्राय: दूसरे को समझा करता है। उसके पास थोड़ा-सा सत्यांश और उस पर अनुमानों का घटाटोप लादकर वह दूसरे के हृदय की ऐसी मिथ्या मूर्ति गढ़कर संसार के समने उपस्थित करते हुए निस्संकोच भाव से चिल्ला उठता है कि लो यही है वह हृदय, जिसको तुम खोज रहे थे। मूर्ख मानवता !
राजकुमारी ने एक बार और भी किया- तितली ! कल लगान का रुपया न जमा होने से बनजरिया भी जाएगी।
तितली ने गठरी खोलकर अपना कड़ा, और भी दो-एक जो अंगूठी-छल्ला था, राजकुमारी के सामने रख दिया।
राजो ने पूछा- यह क्या?
इसको बेचकर रुपए लाओ जीजी। लगान का रुपया देकर जो बचे उससे एक दालान यहीं बनवाना होगा। मैं यहाँ पर कन्या-पाठशाला चलाऊंगी और खेती के सामान में जो कुछ कमी हो, उसे पूरा करना होगा। गायें बेच दो। आवश्यकता हो तो बैल खरीद लेना। तुम देखो खेती का काम, और मैं पढ़ाई करूंगी। हम लोगों को इस भीषण संसार से जब तक लड़ना होगा, जब तक वे लौट नहीं आते।
फिर ठहरकर तितली ने कहा- जी मिचलता है, थोड़ा जल दो जीजी !
अंततोगत्वा तितली के उस उत्साह भरे पीले मुँह को राजो आश्चर्य से देख रही थी। मलिया ने आकर उसका पैर छू लिया। बनजरिया में दिया जल उठा।