तितिक्षा (कहानी) : डॉ. पद्मावती

Titiksha (Hindi Story) : Dr. Padmavathi

‘शोभा शोभा, कहाँ हो भई! मैं अस्पताल जा रहा हूँ... अभी फोन आया है...बच्चे कहाँ है? खाना खिला के उन्हें सुला देना’ ।

शंकर की आवाज कांप रही थी।

शोभा जब तक दौड़ती हुई अंदर से बाहर आती, तब तक शंकर स्कूटर निकाल कर फर्राटे से निकल गया था ।

आज पाँच दिन हो गए थे गिरधर भाई साहब और नीलिमा भाभी को अस्पताल में भरती हुए । भाभी की तबीयत तो एक सप्ताह से ठीक नहीं थी । भाई साहब दो दिन से तेज बुखार से तप रहे थे । दोनों कोरोना पॉजिटिव जो थे . महामारी की जकड में । पता नहीं कैसे होंगे । कुछ ज्यादा भी नहीं बताया गया केवल कह दिया गया , आ जाइए । घुड्मुड कई विचार एक साथ शोर मचा रहे थे ।

पार्किंग में गाड़ी रख शंकर रिसेप्शन की ओर लपका ...

‘देखिए शंकर हूँ मैं गिरधर और नीलिमा का भाई .... आपने अभी फोन किया....आने को....

‘जी! देखिए मिस्टर गिरधर अग्निहोत्री और उनकी पत्नी दोनों नहीं रहे । हम उन्हें नहीं बचा सके । आप कमरा नं 1008 में जाइए। वहाँ ड्यूटी नर्स है .. वे आपको सब वीडियो दिखा देंगी । और आप तो जानते है , बॉडी नहीं दी जाएगी । उनका फोन और वगैरह जो भी संभाल कर रखा है ... आपको दे दिया जाएगा’ । नर्स ने औपचारिक आवाज में कहा ।

‘आप वहाँ दस्तखत कर दीजिए.... हेलो आप ठीक है ... क्या हुआ’ ... शंकर को लगा नर्स की आवाज बहुत दूर से आ रही है । सारा अस्पताल, कमरे की छत उसे घूमती हुई नजर आ रही थी , बडी मुश्किल से वह गिरते गिरते बचा, पागलों की तरह नर्स को घूरने लगा । समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या बोल रही है । ऐसा कैसे हो सकता था .... उसकी दुनिया ही बदल गई । पिछले हफ्ते तो सब ठीक था । फिर क्या हुआ ? तबीयत सुधर रही अचानक इतनी कैसे बिगड़ गई ।

‘सुनिए आप यहाँ ज्यादा वक्त नहीं रह सकते’ ।

‘जो भी देखना हो देख कर तुरंत निकल जाइए । पर सारी फोरमालिटी पूरी करके’ । नर्स ने चिल्ला कर कठोर लहजे में कहा । शंकर ने अर्ध विक्षिप्त अवस्था में यंत्रवत वो सब किया जो अपेक्षित था । सब निपटाकर खाली हाथ भारी मन से वह लौट पडा ।

शंकर बड़ा बाजार में चप्पलों का व्यापारी था । पुश्तैनी धंधा था । दादा गांव में यही काम किया करते थे , पिता ने इस शहर में छोटी सी दुकान खोली थी जिसे शंकर ने खूब मेहनत लगन से ऊँचाइयों तक पहुँचा दिया था । शोभा , उसकी पत्नी उसके व्यापार में हाथ बंटाती थी और उनका एक ही बेटा था राहुल, तेरह बरस का .. जो यहीं पब्लिक स्कूल में पढ रहा था।

गिरधर जी कहने को तो उनके पडौसी थे लेकिन भाई से कम नहीं थे । बडे ही सौम्य , मिलनसार और स्नेहिल । किसी बडी कंपनी में कार्यरत थे ।काफी पढे-लिखे । नीलिमा भाभी स्कूल में पढाती थी । दो प्यारे प्यारे बच्चे थे , रश्मि और दीपक । रश्मि सात साल की और दीपक चार साल का । दोनों परिवारों में बडी घनिष्ठता थी । बाकी के दिन तो व्यस्तता में बीत जाते थे पर रविवार तो सब मिलकर ही बिताते थे । दोनों घरों में मजेदार व्यंजन बनाए जाते , भाभी तो खाना बनाने में सिद्धहस्त थी ही , दोनों घरों का खाना एक साथ लगाया जाता , सब मिल बैठकर बतियाते रहते , उनकी बातें कभी खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थी .. शाम को घूमना और रात का खाना बाहर खाकर फिर देर गए वे लोग अपने घरों को वापस लौटते थे । यह नियमित बंधा बंधाया हुआ क्रम था उन परिवारों का जिसे वे कभी भी किसी हालत पर तोड़ते नहीं थे ।

नीलिमा भाभी और गिरधर जी का प्रेम विवाह था, अंतरजातीय । और इसी कारण भाभी का अपने परिवार से रिश्ता टूट गया था । वे अकसर इस विषय को लेकर बडी उदास हो जाती थी । शोभा उनकी बहन से कम नहीं थी । दोनों में काफी लगाव था । भाभी हमेशा बताती थी उनके परिवार ने घोषणा कर दी थी कि .....अब वह उनके लिए मर चुकी है , उनसे उनका कोई नाता नहीं और वह द्वार उनके लिए सदा के लिए बंद हो गया है ।

दरअसल भाभी जी निचली जाति से थी और गिरधर जी अग्निहोत्री ब्राह्मण । गिरधर जी के पिता का गंगा पार गांव में बड़ा घर था, संपत्ति थी, खेत खलिहान थे, गांव में बहुत मान सम्मान था । काफी सम्पन्न और काफी धार्मिक प्रवृति का परिवार था । दो बेटे थे, बड़ा लक्ष्मी प्रसाद, दूसरा गिरधर प्रसाद । छोटे बेटे गिरधर को काफी ऊँची शिक्षा दीक्षा दी थी और उनके परिवार का मानना था कि इसी कारण छोटे का दिमाग फिर गया था जो उन्होंने ऐसी युवती से शादी रचा ली थी जो उनके बराबरी की नहीं थी । जब तक जीवित थे पिता जी हमेशा कहा करते थे गिरधर के इस विजातीय विवाह ने ही उनकी तथाकथित प्रतिष्ठा को दाग लगा दिया था । लेकिन गिरधर भाई साहब काफी प्रगतिशील विचारों के व्यक्ति थे । इन दकियानूसी विचारों को उन्होंने कभी तवज्जोह नहीं दी थी । जब पिता का देहांत हुआ , तब उन्हें सूचना काफी देर से मिली , वो भी आने की सख्त मनाही के साथ । दिल पर पत्थर रख कर रह गये थे । अब बडे भाई के हाथ में सम्पूर्ण अधिकार आ गया था । सब हिसाब किताब वही देखते थे । हाँ, गिरधर जी का हिस्सा हर वर्ष उन्हें भेज दिया जाता था। संबंध विच्छेद नहीं किया था , यही बडी बात थी । अब कितना भेजते है, कितना मिलता है, यह गिरधर जी ने न कभी जानने की कोशिश ही की और न उन्होंने कभी बताना आवश्यक ही समझा । लेकिन इनके विवाह के बारह सालों में एक बार भी उन्होंने यहाँ आने की ‘गलती’ नहीं की थी । फोन पर कभी कभार बात हुआ करती थी ।

अब समस्या यह थी कि भाई साहब के बच्चों का क्या होगा?

अगले दस दिन किस प्रकार बीते , इसकी कल्पना भी कठिन थी । सब सदमे में थे …कोई किसी से बात भी नहीं कर रहा था । खाना बच्चों के लिए बनता तो था, लेकिन घर के सदस्य एक दो निवाले बडी मुश्किल से गले में ठूँस कर पानी पी लेते थे । दीपक तो शोभा से चिपका हुआ था । एक ही जिद्द । अगर मम्मी पापा नहीं आ सकते तो मुझे वहाँ भेज दो । कहीं बाहर भी तो नहीं जाया जा सकता था । सब बंद था । पता ही नहीं लग रहा था कि क्या करें , किसे समझाएं ... बच्चों को या अपने मन को । बडी भारी मुसीबत में थे। न दिन को चैन न रात को नींद ... अचानक ऐसा हो गया था, इतना बड़ा अन्याय , ईश्वर का क्रूर मजाक, सोचने और समझने की शक्ति भी नहीं बची थी । मन मानने को तैयार ही नहीं हो रहा था ।

कुछ दिन यूँ ही बीते... अब आवश्यकता हुई दोनों मृतकों के परिवारों को सूचित करने की । और बच्चों के भविष्य पर निर्णय लेने की ।

भाभी के परिवार से तो शंकर की अधिक अपेक्षा नहीं थी लेकिन हाँ भाई साहब के वंश के वारिस थे ये बच्चे । तो उन्हें उन को सौंपना आवश्यक था । और उनका परिवार भी काफी धर्मनिष्ठ संस्कारी परिवार था जैसा कि भाई साहब हमेशा कहते थे, तो हो सकता है वे अपनी सहिष्णुता और औदार्य दिखाकर उन बच्चों को अपना लें । जो भी असंतोष था , वह तो भाभी को लेकर था और अब उनकी मृत्यु के साथ सब विवाद भी खत्म हो जाने चाहिए । व्यावहारिक दृष्टि से भी यह उचित था और कानूनन भी कि बच्चे भाई साहब के परिवार को ही सौंप दिए जाए ।

मन मान तो नहीं रहा था । बहुत व्यथित था । लेकिन बच्चों के प्रति अतिशय मोह उनके भविष्य में बाधा नहीं बनना चाहिए । शंकर अपने मन को समझाने का बहुत प्रयास कर तो रहा था लेकिन फिर भी यह संदेह खाए जा रहा था कि बच्चे नए वातावरण में अंजान लोगों के साथ कैसे रहेंगे... माँ बाप को खो देने के पश्चात यह घर ही तो उनका आसरा था, अगर वही दूर हो गया तो सह नहीं पाएंगे... कुछ गलत हो गया तो ... उन्हें भी खो दिया तो... तरह तरह के ख्याल मन में बवंडर मचा रहे थे । मन डरा हुआ था । लेकिन विवश होकर उसने बच्चों को उनके अपनों के पास भेज देने का ही निर्णय लिया ।

शंकर ने पहले अपने को तैयार किया ..मन पर पत्थर रख पूर्वाभ्यास किया कि क्या बात करे.. कैसे बात शुरू की जाए ..।

भाभी जी की डायरी रश्मि निकाल कर लाई थी जिसमें सभी के नम्बर क्रम से लिखे हुए थे । पहले भाभी जी के परिवार से बात करने की सोची ।

फोन लगाते ही उधर से आवाज आई ,‘कौन है’?

‘मैं शंकर बोल रहा हूँ’ शंकर ने खंखारते हुए कहा ।

‘कौन शंकर?’

‘देखिए आपकी बेटी नीलिमा जी हमारे पडौसी थे । अभी हाल में दोनों दंपति, नीलिमा और उनके पति कोरोना से चले गए है हमें अनाथ छोड़कर’ । शंकर की रुलाई फूट पडी । शब्द गडबडा गए ।

कुछ देर फोन पर शांति बनी रही .... कुछ प्रतिक्रिया न पाकर शंकर ने धीरे से कहा,

‘हेलो.... हेलो... आप लोग सुन रहे है न....’ आवाज में कंपन थी ।

‘हाँ.... यह तो बड़ा अन्याय हुआ.. दुखद , मैं उसका बड़ा भाई बोल रहा हूँ ... नीलिमा में इस घर से बहुत पहले ही संबंध तोड लिए थे ... हमारे लिए तो वह बहुत पहले ही मर चुकी थी, उसने हमें बहुत अपमानित किया, उस आदमी से विवाह कर अपनी मन मर्जी से परिवार को ठोकर मार दिया था ...क्या पा लिया ? अब क्या खबर दे रहे है आप और क्यों’ ? क्या चाहते है ... उसे तो हमने जायदाद से भी बेदखल कर दिया है । आप है कौन और हमसे क्या चाहते है’?

‘नहीं नहीं ... भाभी जी हमेशा आप सबको याद कर रोती थी, ऐसा मत कहिए, दो छोटे छोटे बच्चे है उनके, अब आप ही तो उनके सब कुछ है, आप नहीं तो उनका कौन है? आप ही बताइए?

‘ओह! तो इसलिए आप फोन पर खबर दे रहे है हमें ! आप चाहते है जिसने जीते जी कोई संबंध न निभाया , कभी बात नहीं की , उसकी औलाद की हम देखभाल करें , जिम्मेदारी उठाएं , उन्हें पाले पोसें बड़ा करें ... क्यों ठीक है न’ ..?

‘उन्होंने आपसे संबंध सुधारने की बहुत कोशिश की थी, है कि नहीं, क्या यह सच नहीं है? लेकिन आप लोगों का क्रोध कभी कम ही नहीं हुआ… जानने की कोशिश ही नहीं की कि गिरधर जी कैसे इंसान है .. क्या आपका कुछ फर्ज नहीं बनता था बड़प्पन दिखाने का , इतने बुरे भी तो नहीं थे भाई साहब ....’। शंकर की आवाज संभल गई थी । लहजा गर्म हो गया था ।

‘तो आप कहना क्या चाहते है? आप हमें दोष दे रहे है? उस निकम्मी औलाद की कोई गलती नहीं थी ? लड़की होकर भी उसे पढाया लिखाया, शहर के सबसे बडे कॉलेज भेजा, पढ लिख कर यह सिला हमें मिला , हमसे ही बगावत, हमें ही छोडकर उससे शादी की, उसका तो रिश्ता भी तय हो गया था, प्रेम,प्यार न जाने क्या क्या... काट कर फेंक देता था मैं , माँ ने रोक लिया था उस वक्त वरना…. खैर ,... अब क्या चाहते है आप .. जब लड़की हमारी नहीं तो दामाद भी हमारा नहीं और वे बच्चे भी हमारे कुछ नहीं लगते ... आप फिर हमें फोन करने की हिम्मत मत करें.. हमारा और उन बच्चों से हमें कुछ लेना देना नहीं ... समझ रहें है आप ... ’ ... फोन कट गया ।

शंकर सकते में आ गया । सोचने लगा ,इतने ह्रदयहीन , पाषाण ह्रदय ! हे ! भगवान ! कितनी आसानी से कह दिया कि वे बच्चे कुछ नहीं लगते जैसे किसी बेकार अंग को शरीर से काट कर अलग कर दिया गया हो । तभी भाभी कितना दुखी होती थी अपना मायका खोकर । पति कितना भी प्यार दे लेकिन मायके की कमी तो कमी ही रहती है । उस रिक्तता की भरपाई करना कितना कठिन होता है । ओह ! मन कड़वा हो गया । शूल की तरह चुभी थी उनकी बातें । इतना कठोर व्यवहार । अप्रत्याशित ! आँख में नमी तैर गई ।

अचानक पाया मुन्नी सामने खडी थी ... रश्मि को मुन्नी, गुडिया कहकर पुकारते थे ।

चाचा को देखकर बोली, ‘ मामा ने क्या कहा? हमें ले जाएंगे’ ?

‘नहीं मुन्नी, तुम अंदर जाओ। तुम्हें इन सब बातों से कोई वास्ता नहीं है । तुम्हारा चाचू है अभी तुम्हारे लिए, समझी’ ।शंकर मुन्नी पर उबल पड़ा । वह सहम गई और अंदर भाग गई ।

उस रात बच्चों को सुलाकर शोभा कमरे में आई । दरवाजा बंद किया और बिस्तर पर सिरहाने बैठ गई ।

‘क्या हुआ जी, आप मेरे बच्चों पर क्यों चिल्ला रहे थे?

‘नहीं । कुछ नहीं’ ।

‘आप उन पर मत चिल्लाया करें । वो पहले ही ड़रे हुए है । खैर, भाभी के मायके वालों ने क्या कहा’?

‘उन्होंने साफ इनकार कर दिया । वे कोई रिश्ता नहीं रखना चाहते’ ।

‘अब क्या सोचा है’?

‘भाई साहब के बडे भाई को फोन पर मेसेज भेजा है, आ जाएंगे’ ।

‘आप क्यों मेरे बच्चों के पीछे पड़े हुए हो? क्यों इन्हें कहीं न कहीं भेज देना चाहते हो’? शोभा तैश में आ गई थी।

‘पागल हो शोभा, क्या मैं नहीं चाहता कि वे यहीं रहे, पर तुम जानती हो न कि कानूनन हम उन्हें नहीं रख सकते और कल कोई उनके परिवार से आए और हम पर दोष लगा दे कि हमने अपने स्वार्थ के लिए बच्चों को हथिया लिया है तो बेकार ही फंस जाएंगे’ ।

‘तो मैं कहती हूँ कि कानूनन उन्हें ले लो, आप जानते हो मैं ने उन्हें पाला है…. भाभी अस्पताल से आते ही बच्चों को मेरे हवाले करती थी ... क्या आप भूल गए है... और अब क्या ये बोझ है .. बन गए है’... ?

‘पागल मत बनो. मैं ने ऐसा कब कहा है’?

‘फिर क्यों उनको बुला रहे हो’?

‘नहीं तुम नहीं समझोगी. जरूरी है ... जाओ बच्चों के पास जाकर सो जाओ ... कल देखते है’ ।

आज सुबह शोभा चाय की प्याली रखकर चली गई। हर दिन वे दोनों साथ बैठकर पीते थे । आज बस चली गई, उस ने देखा , वह बच्चों के साथ बैठकर चाय पी रही थी । शंकर के चेहरे पर कई दिनों पश्चात मुस्कान आ गई , दृश्य अच्छा लगा , तीनों बच्चे गुमसुम से शोभा से लिपटे बैठे हुए थे ।

गाड़ी की आवाज से ध्यान हटा और शंकर ने बाहर देखा ..

दरवाजा खुला ...एक संभ्रांत दंपति उतरे । महिला गहनों से लदी हुई थी और पुरुष काफी रोबदार लिबास में रेशमी धोती माथे पर तिलक और गले में सोने की माला पहने ठाठ से उसी की ओर चले आ रहे थे । राजसी संपन्नता की अभिजात्यता उनके हाव भाव चाल ढाल में झलक रही थी ।

‘आप ही है गिरधर अग्निहोत्री के मित्र जिन्होंने मुझे सूचना दी थी? मैं उनका बड़ा भाई लक्ष्मी प्रसाद अग्निहोत्री हूँ’ ।

‘ओह! अंदर आइए’ । शंकर ने हाथ जोड़ कर अभिनंदन किया ।

नहीं । आप यही बरामदे में कुर्सियाँ लगवा दीजिए’ । उनकी दृष्टि घर का निरीक्षण कर रही थी ।

‘जी’ । शंकर अंदर से दो कुर्सियाँ ले आया और बरामदे में लगा दी । खुद चबूतरे पर बैठ गया ।

‘आपको कोई परेशानी तो नहीं हुई घर ढूँढने में.’ शंकर ने बहुत ही मर्यादित स्वर में कहा ।

‘जी नहीं । मैं विषय पर आता हूँ’ । उन्होंने गला साफ किया, पीठ सीधी की और लम्बी सांस ली । फिर गंभीर आवाज में कहना शुरु किया , ‘मेरे अनुज गिरधर ने कभी परिवार का मान नहीं रखा । अपने उसूलों पर ही चलता रहा । पिताजी को हमेशा यही बात बुरी लगती थी । आधुनिकता को वे भी मानते थे लेकिन अपनी परम्परा को उन्होंने कभी नहीं छोडा जिसे गिरधर दकियानूसी समझता था । उस औरत से ….”

‘जी क्या कहा? भाभी उनकी विवाहिता थी, कुछ तो मान दीजिए’ । शंकर कड़क स्वर में बोला ।

‘जो भी हो, हमारी नजर में वह सबसे बड़ा अपराध था जो गिरधर ने किया था’ ।

‘अपराध? पढी लिखी अपनी पसंद की महिला से विवाह इतना बड़ा अपराध भी नहीं माना जा सकता लक्ष्मी प्रसाद जी’ ।

‘विवाह अपराध नहीं था शंकर बाबू, लेकिन उस जाति की लड़की से विवाह अवश्य गलत था । आप जानते है हम कौन है? अग्निहोत्री ! हमारे गांव का लक्ष्मी नारायण मंदिर हमारे पूर्वजों की देन है,पूरे जिले में प्रसिद्ध है वो मंदिर । गांव के कुएं तालाब हमने खुदवाए … चार बार चार धाम की यात्रा कर चुके है हम .. भागवत और रामायण के पाठ हम करवाते है, पूरा गांव हमारे आगे सर झुकाता है , जानते है कुछ आप? और ऐसे परिवार के वंशज ने हमारी नाक कटवा दी’ ।

‘लेकिन अब आपके उसी वंश के वारिस अनाथ हो गए है । नहीं, नहीं क्षमा करना, आप जैसे धर्मात्मा ताऊ के होते वे अनाथ कैसे हो सकते है, सनाथ ही रहेंगे… आप ही अब उनका आधार हो । क्या आप उन नन्हों को देखना चाहेंगे? बुलाऊँ’? शंकर गिड़गिड़ाते हुए बोला ।

‘नहीं! हम उस गलती को देखना नहीं चाहते’ ।

‘गलती’? शंकर को धक्का लगा ।

‘जी हाँ । गिरधर के जीवन का पाप फल । हमें उस पाप में कोई दिलचस्पी नहीं है । वैसे हम भी उसके भाई हैं, वह था तो हमारा ही खून, इसीलिए हमने उनके भविष्य की व्यवस्था कर दी है ।शहर के एक अनाथाश्रम में ..लडकियों और लडको को अलग रखा जाएगा ।यह सरकारी बंद समाप्त होते ही आश्रम खुलने की संभावना है । तब तक आप और थोडा सहन कर लीजिए , वैसे तो मैं देख रहा हूँ आपकी आर्थिक स्थिति में यह अपेक्षा कुछ ज्यादती है लेकिन कुछ दिन और... हमें धैर्य रखना होगा । वैसे आप कहें तो मैं आपको आर्थिक सहायता देने के लिए तैयार हूँ .. आखर आपने भी तो उन अनाथ बच्चों को........’

‘खबरदार अगर एक और शब्द भी मेरे बच्चों के लिए निकाला तो’... शंकर का क्रोध आपे से बाहर हो गया था । उसकी सहन शक्ति जवाब दे गई । वह अपने आप को और रोक नहीं पाया । चीखते हुए बोला, ‘चूल्हे में जाये आपकी शान आपका पैसा और आपकी धर्म निष्ठा । ईश्वर ने मां बाप छीन लिए आप भाई बहन को अलग कर देंगे? उन्हें अनाथाश्रम में भेजेंगे? हिम्मत कैसे हुई आपकी ऐसा बोलने की ? आप जानते है गिरधर मेरे भाई समान थे , कितने प्रिय थे हमारे लिए , अरे आप क्या जाने प्यार क्या होता है ? आपको तो जाति ही प्यारी है,आदर्श और उसूल ... खाक डालो उनपर ... भगवान को समझ लिया इंसानियत को नहीं समझा । लानत है ऐसे ज्ञान पर .... और हाँ! मेरी स्थिति पर आपको दया करने की आवश्यकता नहीं । भगवान ने इतनी ताकत दी है कि मैं इन बच्चों को आराम से पाल सकता हूँ । कानूनन मैं इन्हें अपनाऊँगा । गिरधर भाई साहब के कई उपकार है मुझपर , क्या उनके लिए इतना भी न होगा .. और हाँ ,भविष्य में कभी भी इधर आने की ‘गलती’ मत करना , अपराध मत करना । निकल जाइए यहाँ से... आपकी उपस्थिति से यह घर संक्रमित हो गया है , भयंकर कीटाणु से , विषाक्त कीटाणु …. कोरोना से भी भयंकर .... आपके दिमाग में फैले है न वे कीटाणु ,उसूलों के आदर्शों के जाति के अहंकार के वही कीटाणु ....चले जाइए यहाँ से , निकल जाइए यहाँ से इससे पहले मैं पशु बन जाऊँ’...। शंकर सचमुच पागलों की तरह चीख रहा था ।

लक्ष्मी प्रसाद अग्निहोत्री की लंबी गाडी सड़क पर धूल उडाती हुई आँखों से ओझल हो गई ।

बाहर गर्मी आग उगल रही थी । शंकर का दिमाग भट्टी की तरह जल रहा था ।सब्र का बांध टूट चुका था । खोखले रिश्तों की सड़ांध से मन वितृष्णा से भर गया था । घिन्न आने लगी । शरीर पसीने से तरबतर हो गया । सांस उखड़ गई । क्रोध से अंग -अंग कांप रहा था जिसका अंत हुआ रुलाई से । वह बच्चों की तरह फफक फफक कर रोने लगा ।

दीपू डर कर अंदर दुबक गया था। गुडिया भी सहम गई थी । उसके बाल मन ने इतना तो जान ही लिया था कि अब सब मार्ग बंद हो चुके है और कोई उन्हें अपनाने को तैयार नहीं है । लेकिन देर तक वह अपने चाचू को बिलखते न देख सकी । अपने आपको न रोक पाई ।पानी का गिलास लेकर आई और बड़ी मासूमियत से कहा , ‘ चाचू मत रो प्लीज, लो पानी पी लो ।हम अब कहाँ जाएंगे चाचू ? किसके पास रहेंगे? अब तुम हमें कहाँ भेजोगे चाचू ’?उसकी डबडबाती आँखों में संदेह और भय स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था । माँ पिताजी के बाद इन पंद्रह दिनों में चाचू ही उनकी दुनिया बन चुका था । लेकिन दुर्भाग्य वश आज वह विश्वास ड़गमगाने की कगार पर था ।

शंकर का मन पश्चाताप और ग्लानि से भर उठा । उसके इस पूरे उपक्रम से बच्चों का मन इस कदर आहत हो जाएगा उसने कभी सपने में भी न सोचा था । कितनी बडी गलती कर दी थी उसने उन लोगों को यहाँ बुलाकर । अपने ही हाथों अपने बच्चों को अपमान और तिरस्कार की भट्टी में झोंक दिया था ! अंजाने में ही सही उनके मासूम हृदय को कितनी ठेस पहुँचा दी थी ! उफ् ! अक्षम्य अपराध ! वह उनका दोषी था । उसे माफी माँगनी चाहिए , हाँ माफी माँगनी चाहिए .. मुन्नी से भी और भगवान से भी !

भर्राए हुआ कंठ , बडी मुश्किल से आवाज निकली , ‘नहीं मुन्नी नहीं !मुझे माफ कर दो । मैं तुम्हारा अपराधी हूँ । मैं तुम्हारा दिल अब कभी नहीं दुखाऊँगा । अब तुम्हारा चाचू तुम्हें कही नहीं भेजेगा । कहीं नहीं । तुम मेरे पास रहोगे । यहीं मेरे पास । कोई भी तुम्हें मुझसे अलग नहीं कर सकता… मैं भी नहीं .. मुझे माफ कर दे मुन्नी .. मैं ने बडी गलती कर दी .. भगवान के लिए माफ कर दे’ । पश्चाताप आँसुओं में बह रहा था ।

दीपू और राहुल सहमे हुए कमरे के अंदर से पूरा दृश्य देख रहे थे। इशारा पाते ही दौड़ कर आए और उससे लिपट गए ।आनंद और तृप्ति की अनुभूति ! सुख और दुख का समागम । बस बीच में ये आँसू ही थे जो थमने का नाम नहीं ले रहे थे । शंकर की आँखें अनायास ही आसमान की ओर उठ गईं मानो अपने भाई साहब से अनुमति और आशीर्वाद चाह रही हों ।

भयंकर तूफान आया और उतर गया । सब स्थिर हो गया था । शांत ! अब किसी प्रकार का कोई भय नहीं ,कोई भ्रम नहीं ।सब स्पष्ट दिख रहा था । अब वह ही इन बच्चों का संरक्षक, अभिभावक,पालन हार और पिता है । बच्चे उसकी अमानत हैं, उनका पालन पोषण ही उसका जीवन ध्येय है ..यही उसका परमार्थ है ..... और अपने भाई साहब के प्रति यही उसकी सच्ची कृतज्ञता ....।

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