टीपू सुल्तान कहां है ? : जसवंत सिंह विरदी (पंजाबी कहानी)
Tipu Sultan Kahan Hai ? (Punjabi Story) : Jaswant Singh Virdi
बात उस समय की है जब देश में अजीब किस्म की हलचल के दिन थे। कुछ लोग कहते थे, देश में फसाद हो रहे हैं, लोग एक-दूजे को मार-काट रहे हैं और औरतें-बच्चे भी अब सुरक्षित नहीं रहे । चाहे मौसम बहार के ये बसंती दिन थे और हर ओर खिले हुए फूल भी मन को आकर्षित करते थे, पर फिर भी मन परेशान रहने लगा था। मैं कॉलेज की ओर जाते हुए, कुछ इस तरह महसूस कर रहा था जैसे किसी जेलखाने की ओर जा रहा होऊँ ! पता नहीं, मन में इस प्रकार की अविश्वास की भावना क्यों भरती जा रही थी? मैं देखता था, न जाने क्यों हर जगह लोग नुक्कड़ों में सिर जोड़कर खड़े हुए कुछ इस तरह की बातें कर रहे थे, जिनका विषैला प्रभाव तुरंत हवा में फैल जाता था। लगता था कि उस विषैले प्रभाव वाली हवा से फसाद हुआ कि हुआ ! मैं अपने आस-पास अनेक प्रकार की चुभने वाली आवाजों का हो-हल्ला भी सुनता था । क्या दंगों के लिए एक खास किस्म की जहरीली हवा चलती है ? अगर चलती है तो कौन लोग उस हवा को चलाते हैं ? और वह हवा कहां से आती है ?...
इस तरह के बसंती दिनों में ही एक दिन शाम के वक्त ठंडी सडक पर मेरे बराबर एक जीप आकर रुकी और कुछ लोगों ने मुझे जबरदस्ती पकड़कर जीप में बैठा लिया। मैं उन लोगों के चेहरे नहीं देख सका क्योंकि उनमें से किसी एक ने तुरंत मेरी आंखों पर काली पट्टी बांध दी थी। एक पल तो मेरी समझ में नहीं आया कि यह हकीकत है या जासूसी उपन्यास की कोई घटना। पर यह हकीकत ही निकली।
उस वक्त मैं रास्ते में सोचता जा रहा था कि वे कौन लोग थे, पर मैं अनुभव न कर सका । फिर, मुझे जिस तहखाने में ले जाया गया, वहां पहले ही कुछ लोगों को पकडकर बिठाया हुआ था, पर वे मेरे से काफी दूरी पर थे। इसलिए मुझसे पहचाने नहीं गए । अंधेरे में पहचान भी तो खत्म हो जाती है । अंधेरे में तो सब कुछ अंधेरा ही होता है।
मैं अभी तक कुछ भी सोच नहीं सका था कि बड़े सार्जेण्ट ने छूटते ही पूछा, जैसे कोई किसी को कोड़ा मारते हुए पूछता है, "बता, टीपू सुल्तान कहां है?"
सवाल सुनकर मैं घबरा गया, "कौन टीपू सुल्तान?"
एक पल में ही मुझे महसूस हुआ कि मैं किसी षड्यंत्र में फंस गया था। क्यों कि आज तक कभी भी कोई ऐसा दिन नहीं आया था जब कि मुझे एक सम्मानित शहरी न समझा गया हो। जिस ढंग से वो लोग मुझे पड़ककर बड़े पुरअसर तरीके से यहां लाए थे, उसने मेरे मन में कई शंकायें पैदा कर दी थी। मैंने तुरंत सोचा था, 'क्या इस देश में लोगों के मौलिक अधिकारों की आजादी कायम रह सकेगी या नहीं?'
लेकिन, मुझे इस प्रश्न का कोई जवाब समझ में नहीं आ रहा था और मैं काफी घबरा गया था। मेरी घबराहट का एक कारण शायद यह भी हो सकता था कि मेरे साथ ऐसा पहली बार ही हुआ था, जब मुझे शासक तंत्र की बे-रहम मशीनरी ने अपने शिकंजे में जकड़ा था। इस प्रकार रूखेपन से किसी ललकार को सुनने के लिए क्या मुझे इस दिन के लिए ही जिंदा रहना था? मैं कभी भी ऐसी बेरुखी आवाज सुनने के लिए तैयार नहीं था। सच तो यह है कि मैं एक अमनपसंद शहरी रहा हूं और जिंदगी में कभी भी कानून का उल्लंघन नहीं किया था। एक अध्यापक को मौका भी कब मिलता है कि वह कानून का उल्लंघन करे। पर अब?...
मुझे लगता था, किसी गलतफहमी में उन्होंने मुझे पकड़ लिया था, या वह कोई बहुत बड़ी साजिश थी, जिसके विषय में मैं तुरंत नहीं सोच सका। मुझे कुछ सोचने का अवसर ही नहीं मिला । इसलिए मैं प्रश्नचिह्न बना खड़ा था।
"कौन-सा टीपू सुल्तान?" बड़ा सार्जेण्ट फिर गुर्राया, "तू टीपू सुल्तान को नहीं जानता?" "नहीं।" मैंने कुछ न समझते हुए कहा, "मैं नहीं जानता।"
"तू जानता है।" उसने तेज आवाज में दोहराया, "जानता है।" उसके चेहरे पर कठोरता थी।
"बिलकुल नहीं।" मैंने भी पूरी दृढ़ता से कहा तो वे लोग आपस में खुसरपुसर करने लगे। फिर एक अन्य ने गुस्से में देखते हुए मुझसे पूछा, "कल तू क्लास में लड़कों को टीपू सुल्तान के बारे में नहीं बता रहा था ?"
"जी...ई...?" मुझे बात कुछ-कुछ समझ आने लगी।
"हां, और तूने यह भी कहा था कि तुमने टीपू सुल्तान से कई बार बातें की हैं और यह भी कि..."
"जी' पर ''?" मैं कुछ कहता-कहता रुक गया। शायद टीपू सुल्तान के बारे में कुछ याद कर रहा था। यह बात सोचकर मुझे और भी हैरानी हई कि उन्हें कैसे पता चला कि मैंने कक्षा में टीपू सुल्तान के बारे में बताया था। कोई उत्तर देने की बजाय मैंने आंखें मूंदकर उस दृश्य को साकार करने का यत्न किया, जब मैंने कक्षा में भारतीय इतिहास के एक महान नायक टीपू सुल्तान के विषय में लेक्चर दिया था।
"तू बोलता नहीं?" किसी ने मेरे कंधे को पकड़कर इस तरह झिझोड़ा कि जैसे वह मेरा कंधा ही उतार देगा।
"मैं इतिहास का प्रोफेसर हूं।" मैंने इतना ही कहा।
"वह तो हमें भी पता है।" वे लोग चीखे।
"फिर तुम्हें टीपू सुल्तान के बारे में नहीं मालूम ?" मैंने भी क्रुद्ध होकर पूछा।
उनमें से एक ने अफसोस-भरे लहजे में कहा था, "पता होता तो तेरी मुश्कें कसकर यहां क्यों लाते?"
यह बात उन्होंने इस तरह की थी जैसे कि मेरी मुश्कें कसकर मुझे यहां तहखाने के अंधेरे में लाना उनकी बहुत बड़ी मजबूरी हो । उस वक्त मैंने फिर तहखाने में दूर-दूर तक देखने का प्रयत्न किया। वहां भले ही हर ओर अंधेरा था पर फिर भी मैं देख सकता था कि कई कोनों में पतले-मोटे, और ऊंचे-लंबे आदमी उल्टे लटकाये हुए थे। पता नहीं, यह सच था या मेरी नजर का भ्रम, मुझे तो ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कुछ नौजवान लड़कियां भी वहां आगे की ओर झुकी खड़ी हों! अंधेरे में भी उनके वस्त्रहीन जिस्म थरथराते महसूस हो रहे थे।
'यह तो तबाहकुन हालत है।' मैंने असहनीय पीड़ा को महसूस करते हुए सोचा । फिर मुझे ख्याल आया कि अभी कुछ देर बाद ये लोग मुझे भी...आगे मैं कुछ नहीं सोच सका।
तहखाने में अंधेरा था, पर मैंने महसूस किया जैसे कि मेरी बात सुनकर उन लोगों के कठोर चेहरे पर शर्म की कालिख पुत गई हो। पर नहीं, वे लोग दुख-सुख से बहुत दूर रहने वाले हैं। पता नहीं, हमारे देश में सामाजिक अनुशासन कायम रखने वाले इन लोगों को संवेदनशीलता के बारे में क्यों नहीं बताया जाता ?... वैसे यह अच्छा ही हुआ कि उन्होंने मुझे मेरे घर से नहीं पकड़ा था, नहीं तो गली-मोहल्ले के लोग मालूम नहीं किस नजर से देखते, और मेरे बारे में क्या सोचते ! शायद वे मुझे फसादी या आतंकवादी ही समझ लेते । मेरी बीवी पर मालूम नहीं क्या बीतती !
मुझे चुप देखकर एक लंबी मूंछों वाले सार्जेण्ट ने परेशानी से कहा, "यह बड़े दुख की बात है कि हमें टीपू सुल्तान के बारे में कोई नहीं बताना चाहता।"
फिर पल-भर रुककर एक अन्य ने मुझसे पूछा, "क्या तुम लोग उससे इतना डरते हो?"
मैंने अभी कोई जवाब नहीं दिया था कि उसी वक्त कुछ सिपाही, दो अन्य अध्यापकों को घसीटते हुए अंदर की ओर आते दिखाई दिए। उनमें से एक ने कहा, "जनाब, इस मास्टर ने भी टीपू सुल्तान के बारे में कुछ..."
"अभी इन सुअरों को दूर रखो।" बड़े सार्जेण्ट ने हिकारत से कहा और सिपाही मासूम मास्टरों को तहखाने के एक कोने में ले गए।
'क्या आप देश-भर के अध्यापकों से टीपू सुल्तान के बारे में पूछकर रहेंगे?' मैं पूछना चाहता था, पर चुप ही रहा । मुझे महसूस हो रहा था कि जब आदमी पुलिस के शिकंजे में हो तो उसे एक-एक बात का जवाब सौ बार सोचकर देना चाहिए।
मुझे चुप देखकर सार्जेण्ट बोला, "तुम लोग कॉलेज में पढ़ाते हो और तुम्हारी काफी इज्जत भी है।"
मैंने हां में सर हिलाया । इसमें कोई खतरा नहीं था। एक और बोला, "तुम्हारी नॉलेज भी बहुत है।"
मैं चुप रहा। "तू बहुत कुछ जानता है।" अन्य कोई बोला।
मैं अब भी चुप रहा । क्या कहता? उनके हाथों की संगीनें मुझे बोलने से रोक रही थीं। अगर वे खाली हाथ होते...
"तुम लोग टीपू सुल्तान का अता-पता नहीं बता सकते ?" जब एक सार्जेण्ट ने यह प्रश्न किया तो उनका बड़ा अफसर बोला, "ठहरो ! पहले इससे आजकल के हालात के बारे में पूछो।"
"कैसे हालात ?" मेरे मुंह से निकला, पर उन्होंने मेरी बात की ओर ध्यान नहीं दिया। बल्कि दो-तीन सार्जेण्टों ने आपस में सिर जोड़े और फिर एक ने बड़े भेद-भरे अंदाज में मुझसे पूछा, "पहले यह बता कि आजकल देश में फसाद कौन करवा रहा है ?"
'तो यह बात है।' उनकी बात समझकर मैंने मन-ही-मन कहा, मुझे इसलिए पकड़कर लाए हैं ये लोग।
मैं कुछ बोलने लगा तो बड़े सार्जेण्ट ने प्यार से कहा, "सब कुछ ठीक-ठीक बता देगा तो छोड़ दिया जाएगा।"
उसकी बात ने मुझे हिरासत में होने का बड़ी शिद्दत के साथ अहसास करवाया । मैंने कहा, "तो फिर पूछो।"
उन्होंने फिर सिर जोड़े और वही सवाल दोहराया, "आजकल देश में फसाद कौन करवा रहा है ?"
"बता दूं ?" "हां, तुरंत बता।" उनके चेहरे तनावग्रस्त थे।
उस वक्त मैंने आसपास देखा। मुझसे काफी दूरी पर बैठे गिरफ्तार लोग बहुत उत्सुकता से मुझे देख रहे थे। मुझे तुरंत ख्याल आया कि मैं उनमें से जिस किसी का भी नाम लूंगा, उसे ही फांसी दे दी जाएगी। अगर मैं समूचे देश का नाम ले दूं, तो ये लोग जरूर ही इस देश को फांसी पर लटका देंगे । शायद इसी कारण, उन मासूम लोगों की आंखों में डर और सहम भरता जा रहा था। उनकी इस भावना को महसूस करते हुए मुझे हंसी आने को थी कि सार्जेण्ट ने बहुत बुरी तरह मेरा कंधा झिझोड़ा, “याद रख, तुझे सच बोलना पड़ेगा।"
“मैं सच ही कहूंगा।" मैंने कहा, "मैं सच ही बोलता हूं।"
उस वक्त, मैं सोच रहा था कि अधिक-से-अधिक ये लोग मुझे मार ही देंगे। मरने से डरने वाली कौन-सी बात है ? इसलिए सच ही कहूंगा।
आवाज आई, "फिर बता, आजकल देश में फसाद कौन करवा रहा है ?" मैंने बेहद रहस्यमय अंदाज में कहा, “यह बहुत गुप्त बात है।"
"तो क्या तू इसके बारे में जानता है?"
"हां, मैं जानता हूं।"
"फिर, जल्दी बता।"
"क्यों ?"
"ताकि हम देश में फसाद रोककर अमन-चैन कायम कर सकें।"
"तो क्या अब देश में अमन-चैन नहीं है?"
"नहीं।"
"क्यों?"
"साला क्यों का।" एक सार्जेण्ट ने मेरे कंधे पर राइफल का बट मारकर एक गंदी गाली भी निकाली। मैंने बहुत दिनों बाद इस तरह की गंदी गाली सुनी थी।
बड़े सार्जेण्ट ने फिर कहा, "बता फसाद कौन करवा रहा है ?"
"पर यह तो बहुत गुप्त बात है।" मैंने कहा, "नहीं।"
"फिर भी बता दे।" वे गुर्राये।
उस समय, मैंने मन की आंखों के सम्मुख उस दृश्य को लाने का यत्न किया जब लोग छोटी-छोटी बातों पर पहले लड़ते-झगड़ते थे और फिर पता नहीं किसी शह पर बाकायदा तौर पर फसाद शुरू कर देते थे। उस वक्त, उनके पास छुरे, बरछे, तलवारें, राइफलें और पिस्तौलें भी होती थीं । पता नहीं लोगों को यह असला कौन देता था?
मैं कुछ नहीं सोचता था। मैं इस सबसे अनभिज्ञ था। मैं तो हर रोज सवेरे घर से निकलकर कॉलेज पहुंचता और फिर अपनी कक्षाओं को पढ़ाकर घर की ओर चल पड़ता। किताबें पढ़ता, आसपास के लोगों से कभी-कभार गप्पें मार लेता, और अक्सर अपने बच्चों के संग ताश खेलता, हंसता और बीबी के साथ चुहल भी करता । मेरे लिए यही जिंदगी थी।...
मुझे चुप देखकर उन्होंने मेरी ओर घूरा तो मैंने बेचैनी को बड़ी शिद्दत के साथ महसूस किया।
"लोग मुझे कच्चा ही खा जाएंगे।" मैंने आसपास देखकर डरते हुए कहा, क्योंकि मुझे पता था कि इन रक्षा दलों में भी फसादियों और आतंकवादियों के साथी होते हैं। वे फौरन खबर कर देते हैं । अब कोई भी जगह उनसे मुक्त नहीं है।
वे लोग कह रहे थे, "नहीं, हम तुझे बचा लेंगे।"
मैंने पूछा, "कैसे?"
"तुझे अमन-चैन कायम होने तक जेल में ही रखेंगे। जैसा कि हम करते ही हैं।"
"अगर यहां कभी अमन हुआ ही नहीं ?"
"फिर जिंदगी-भर तू जेल में ही रहना।"
मैंने हंसकर उत्तर दिया, "जेल में भी लोग मुझे जीने नहीं देंगे । वहां भी तो... और मैंने घूरकर सार्जेण्टों की ओर देखा। उनमें से एक का चेहरा उतर गया। पता नहीं क्यों? उसने मुंह दूसरी ओर कर लिया। फिर आगे बढ़कर मुझे राइफल के बट से मारते हुए बोला, "बकवास करता है !"
मैंने देखा, उसकी तीखी नजरें मुझे घूरे जा रही थीं, पर मैं कुछ भी ऐसा नहीं कह रहा था जो उनके काम का हो।
मेरी बात सुनकर बड़ा सार्जेण्ट भी गुर्राया, "बकवास बंद करता है कि नहीं?"
मैं चुप हो गया। मुझे बहुत बुरी तरह सहसूस हुआ कि हमारे देश में भी इन लोगों का बर्ताव नाजियों जैसा ही है । रब खैर करे!
मुझे चुप देखकर एक और सार्जेण्ट ने फिर मेरे कंधे पर राइफल का बट मारा, "बकता है कि नहीं?"
"बकता हूं।" मैंने चोट को महसूस करते हुए कहा । मैं बेकसूर ही फंस गया था और बचने की अब कोई भी राह नहीं थी।
"तो बता, फसाद कौन करवा रहा है ?"
"फसादी लोग ।" मैंने जोर से कहा । कुछ इस ढंग से जैसे कोई ईश्वरीय भेद उन्हें बता रहा होऊं। मेरी आवाज दूर तक फैल गयी लगती थी, भले ही वह बहुत धीमी थी, जैसे कोई व्यक्ति सरगोशी में बोल रहा हो।
"वे फसादी लोग कहां हैं ?" बड़े सार्जेण्ट ने भी मेरी तरह गरजकर पूछा। मैंने धीमे से जवाब दिया, "मुझे नहीं पता।"
"तुझे पता है।"
"नहीं।" मैंने पूरी दृढ़ता से कहा और उन लोगों को घूरकर देखा जैसे मुझे उनका कोई भी डर न हो । मार तो मैं खा ही रहा था । गोली की कसर ही बाकी थी।
पल-भर की खामोशी के पश्चात् एक सार्जेण्ट फिर बोला, "फिर यही बता दे, टीपू सुल्तान कहां है ?"
मैंने बड़े रहस्यमय अंदाज में पूछा, "तुम्हें उससे क्या लेना?"
मुझे लगा, मेरी आवाज काफी तल्ख थी। तल्खी तो थी ही। आखिर उन्होंने मुझे बिना किसी कारण के गिरफ्तार किया था।
मेरी बात सुनकर सार्जेण्टों के चेहरे जैसे जलने लगे। फिर उनकी लपटों ने कहा, "तुझे इससे क्या?"
"पहले बताओ।"
"फिर बता देगा, उसके बारे में ?"
"हां, जरूर बता दूंगा।"
एक सार्जेण्ट आसपास देखकर जल्दी से बोला, "सरकार के पास रिपोर्ट पहुंची है कि...."
"ठहरो!" बड़े सार्जेण्ट ने ललकारते हए और दोनों हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा, "यह एक सरकारी भेद है जो इस कमीने आदमी को नहीं बताया जा सकता।"
"कमीना आदमी?" मुझे इस बात से बहुत तकलीफ हुई।
यह बड़ी विचित्र बात है कि नये राज के हाकिमों की नजर में कॉलेज अध्यापक कमीना बन गया था।
"हां, यह भेद तुझे नहीं बताया जा सकता।" बड़े सार्जेण्ट ने भी मेरे मुंह की ओर नफरत से देखते हुए बड़े रौब के साथ कहा, "तू एक कमीना आदमी है।" यह वही था, जिसका पहले मुंह उतर गया था।
"कैसे मालूम ?" मैंने जैसे तड़पकर पूछा। "हमारी सी० आई० की फाइल यही बताती है।"
"फिर ठीक हो सकता है।" मैंने होंठों में ही हंसकर कहा, "बिलकुल ठीक होगा।"
उस समय मुझे याद आया कि मैं पिछले साल जिस शहर में रहता था, वहां की पुलिस एक दिन अचानक ही मुझे पकड़कर ले गई थी। तीन दिन बाद पता चला था कि मैंने कोई कत्ल किया था। तीसरे दिन ही मुझे इस हकीकत का ज्ञान हुआ और तीसरे ही दिन उन्होंने मुझसे इस बात का भेद खोला कि उन्होंने गलत आदमी को पकड़ लिया था। मेरे ही नाम का एक और आदमी कातिल था, पर पुलिस वाले उसे बचाते हुए मुझे पकड़कर ले आए थे।
मैं बच तो गया, पर मेरी जिंदगी के जो तीन दिन यातनाओं में गुजरे थे, उसका जिम्मेदार कौन था?
और अब ये लोग कह रहे थे...
मुझे हंसी आ गयी। पर मैं हंस न सका।
"निरी बकवास।" फिर मैंने जोर से चीखकर कहा तो बड़ा सार्जेण्ट कुछ सोचकर बोला, "चलो कोई बात नहीं, इसे कसम खिलाकर बता दो।"
"पर?" किसी ने टोका।
"कोई नहीं।'जाएगा कहां? अभी गोली मार देंगे।" और उसने अपने रिवाल्वर की ओर हाथ बढ़ाया, पर वह हाथ जल्दी ही वापिस लौट आया।
एक और सार्जेण्ट मेरे समीप होकर बोला, “खा कसम कि तु इस भेद को किसी और को नहीं बताएगा।"
"कसम खाता हूं।" मैंने कहा तो एक सार्जेण्ट मेरे पास होकर बोला, "देश में हो रहे फसादों के कारणों की खोज करने वाले हमारे एक खुफिया विभाग ने अंग्रेजी सरकार के समय की खुफिया फाइलें टटोली हैं जिनमें लिखा हुआ है, 'टीपू सुल्नान ही फसाद की जड़ है।' टीपू सुल्तान को खत्म किए बिना हम हिंदुस्तान में अमन-चैन से नहीं रह सकते । यहां अमन-चैन कायम करने के लिए टीपू. सुल्तान का खात्मा करना जरूरी है।"
कुछ देर तक एक तल्खी-भरी खामोशी फैली रही। हर कोई मेरे चेहरे की ओर देख रहा था । मैंने जोर से कहा, "तुम्हारे खुफिया विभाग की यह रिपोर्ट पूरी तरह सही है।" मेरे मन में आया कि जोरों कहकहा लगाकर उन लोगों का मजाक उड़ाऊं, पर गोली?...मजाक और गोली?...
मुझे चुप हुआ देखकर बड़ा सार्जेण्ट आरामकुर्सी से उछल पड़ा, "देखा, मेरी थ्योरी ठीक निकली न, देश के फसादों के बारे में।"
फिर उसने एक पल रुककर सभी सार्जेण्टों की ओर देखा और मेरी ओर मुंह घुमाकर ललकारा, "तू कल कक्षा में कह रहा था, तू टीपू सुल्तान के बारे में बहुत कुछ जानता है । क्या यह ठीक है?"
मैंने भी चीखकर कहा, "हां, मैंने कहा था।"
"फिर बता, टीपू सुल्तान कहां है ?"
"तुम उसे नहीं ढूंढ सकते।"
"क्यों ?"
"क्योंकि वह हर हिंदुस्तानी के दिल में बसता है और हर हिंदुस्तानी आज टीपू सुल्तान है । जब तक टीपू सुल्तान जीता है, हिंदुस्तान की आत्मा नहीं मर सकती।"
"पर हम उसे जीने नहीं देंगे।" उनमें से एक ने गुस्से में कहा, "वह बचकर जाएगा कहां?"
"पर वह तो.." अभी मेरी बात पूरी नहीं हुई हुई थी कि कुछ और सिपाही एक दुर्बल-से आदमी को घसीटते हुए तहखाने में हांफते हुए चले आ रहे थे। वे लोग जोर-जोर से चीख भी रहे थे।
"हजूर, पकड़ा गया 'यही आदमी अपने-आपको टीपू सुल्तान समझता है... हमने इसकी पीठ सेंकी तो फौरन मान गया"देखो जरा इसकी ओर । बिलकुल उस जैसा ही.."
सभी साजेंटों ने फौरन उस नये पकड़े आदमी की ओर घूरकर देखा और वे कुछ-कुछ खुश हो गए। उस पकड़े हुए आदमी के चेहरे पर मुर्दनी छायी हुई थी। वह पीतल की कमानी वाली ऐनक में कभी आंखों को जोर-जोर से झपकाता था, और फिर बंद कर लेता था। उसे मैंने भी देखा । पता नहीं कैसे, मुझे प्रतीत हआ कि जैसे वह कमानी वाली ऐनक वाला आदमी फसादियों के बीच से ही हो।
उस वक्त मैं जोर से कहना चाहता था, 'टीपू सुल्तान के बारे में मैं आपको कुछ बता सकता हूं।'
पर मेरे बोलने से पहले ही बड़े सार्जेण्ट ने गरजकर मुझे कहा, "हमने टीपू सुल्तान पकड़ लिया है, जो कि फसाद की असल जड़ है। सरकार के पास इसके बारे में सारा ही पुराना रिकार्ड मौजूद है।"
"और अब दफा हो जा ।"
"बेचारे।" मेरे मुंह से धीमे से निकला, पर वे लोग अब नये आए आदमी के इर्द गिर्द हो गए थे।
उस समय मुझे फौरन ख्याल आया, “फसादी लोग कहीं यह न सोच रहे हों कि मैंने ही उनका नाम बताया है। "पर मैंने तो कुछ भी नहीं बताया । मुझे किसी बात का पता ही नहीं था। मैं तो बिलकूल तटस्थ किस्म का बंदा हूँ।"
मैंने सुख की सांस ली। पर मेरे वापिस लौटने से पहले बड़े सार्जेण्ट ने बड़े भेद-भरे अंदाज में मुझे हाकिमाना ढंग से कहा, "तूने कसम खायी है, बाहर जाकर किसी तरह की कोई बकवास नहीं करनी, नहीं तो तुझे भी तबाह कर देंगे।"
'यह सच है कि मैंने किसी को कुछ न बताने की कसम खायी थी, और मैं किसी को कुछ नहीं बताऊंगा।' यही बात सोचता हुआ मैं उस अंधकार-भरे तहखाने से बाहर निकला, पर पता नहीं किधर से एक गोली दनदनाती हुई आयी, और मेरे दिल को चीरती हुई निकल गई, जिससे मेरी जीभ ही नहीं, मेरा दिल भी सुन्न हो गया।