टिड्डी (कहानी) : ख़्वाजा अहमद अब्बास
Tiddi (Hindi Story) : Khwaja Ahmad Abbas
मुल्क के मुख़्तलिफ़ हिस्सों से ख़बरें आ रही हैं कि काश्तकार डटकर टिड्डी दल का मुक़ाबला कर रहे हैं। हवाई जहाज़ों से टिड्डी के दलों पर ज़हरीली गैस का हमला किया जा रहा है। अपनी-अपनी खेतियों को इस दुश्मन से बचाने के लिए काश्तकार हर मुम्किन तदबीर कर रहे हैं। ढोल बजाकर, टीन के कनस्तरों को पीट-पीटकर टिड्डी दल को भगाया जा रहा है। लाठियों और डण्डों और झाड़ुओं से टिड्डी फ़ौज का क़लक़ क़ुमअ किया जा रहा है। बहुत जल्द उम्मीद की जाती है कि करोड़ों टिड्डियों में से एक टिड्डी भी ज़िन्दा न बचेगी।
खेत में गेहूँ की फ़स्ल तैयार खड़ी थी और रामू के मन में आशा की फुलवारी लहलहा रही थी।
देखने में एक छोटा-सा खेत था। उसमें जो फ़स्ल खड़ी थी उसमें कटाई, छटाई के बाद मुश्किल से पचास मन गेहूँ के दाने निकलेंगे। रामू ने दिल ही दिल में हिसाब लगाया। मण्डी में गेहूँ का भाव था पन्द्रह रुपय फ़ी मन। कुल फ़स्ल के हुए साढे़ सात सौ रुपये। कोई ख़ज़ाना उसके घर में नहीं आने वाला था। मगर फिर भी पकी हुई गेहूँ की बालियों को देख-देखकर रामू फूला नहीं समा रहा था। शाम के सूरज की रौशनी में खेती जगमगा रही थी जैसे वो सोना मल सुनार की दुकान हो जहाँ सोने-चाँदी के ज़ेवर हमेशा शीशे की अलमारियों में सजे रहते हैं और जहाँ से इस बरस की फ़स्ल का सौदा करते ही रामू लाजो के लिए एक चाँदी की हँसली लाने वाला था। और ये सोचते ही रामू की नज़रों में गेहूँ की तमाम बालियाँ सिमटकर एक चमकती हुई हँसली बन गईं और उस हँसली में उसकी लाजो की लम्बी पतली गर्दन थी और उसका पके गेहूँ की तरह दमकता हुआ चेहरा था।
लाजो। उसकी बीवी। उसके दो बच्चों की माँ। छः बरस हुए जब वो उसे मुकलावा करके घर लाया था और पहली बार घूँघट उठाकर उसका मुँह देखा था तो उसे ऐसा महसूस हुआ था जैसे सच-मुच लक्ष्मी उसके घर आ गई हो। इतनी सुन्दर बहू तो उनके सारे गाँव में एक भी नहीं थी। कितने ही दिन तो वो खेत पर भी नहीं गया था। बस हर वक़्त बैठा लाजो को घूरता रहता था। यहाँ तक कि माँ को उसे धक्के मारकर बाहर निकलना पड़ा।
“अरे बे-शरम। गाँव वाले क्या कहेंगे? अभी से जोरू का गुलाम हो गया।”
छः बरस से रामू हर फ़स्ल पर लाजो के लिए हँसली बनवाने का प्रोग्राम बनाता था मगर हर बार उसका ये मन्सूबा मिट्टी में मिल जाता था या पानी में डूब जाता था। एक बरस बारिश इतनी हुई और ऐसे ग़ैर वक़्त हुई कि आधी पकी हुई फ़स्ल तबाह हो गई। अगले बरस सूखा पड़ा और खेतियाँ जल गईं। तीसरे बरस बाढ़ आ गई और फ़सलें पानी में डूब गईं। चौथे बरस गेहूँ को घुन खा गई। पाँचवें बरस ऐसा ज़बरदस्त पाला पड़ा कि फ़स्ल ठिठुरकर रह गई। छठे बरस ऐसी तेज़ आँधियाँ चलीं कि पकी-पकाई फ़स्ल को तबाह कर दिया। मगर इस बरस भगवान की कृपा से सब ठीक-ठाक था। नयी नहर से उनको पानी काफ़ी मिला था। सरकार के महकमा-ए-ज़राअत से खाद भी मिली थी और फ़स्ल को खाने वाले कीड़ों को मारने की दवा भी मिली थी। बारिश न कम हुई थी, न ज़्यादा। इस बरस रामू को ऐसा लगता था कि उसकी लाजो के नाज़ुक गले में वो चाँदी की हँसली ज़रूर जगमगाएगी जो कब से सोना मल की शीशे की अलमारी में उस घड़ी का इंतज़ार कर रही थी।
अपने खेत में खड़ा-खड़ा रामू सोच रहा था कि अब एक-आध दिन में कटाई शुरू ही कर देनी चाहिए। इतने में उसने धूप में जगमगाते हुए खेत पर एक साया पड़ता हुआ देखा और न जाने क्यों दफ़अतन उसका दिल ख़ौफ़ से भर गया। नज़र उठाकर देखा तो आकाश पर पच्छिम की तरफ़ से आता हुआ एक बादल दिखायी दिया। उसने सोचा ये बे-वक़्त की बरखा कैसी। इन दिनों तो कभी बादल नहीं देखे। उसके बराबर के खेत में उसका पड़ोसी गंगुआ भी यही सोच रहा था।
”अरे रामू। इस बरस बे बख़त की बरखा होने वाली है क्या?”
”यही मैं सोच रहा हूँ, भइया।” और अभी वो कुछ और न कह पाया था कि बादल जो बड़ी ग़ैर-मामूली रफ़्तार से उड़ रहा था अब उनके सर पर ही आ गया और बरखा की पहली बूँद रामू की नाक पर से फिसलती हुई गेहूँ की एक पकी हुई बाली पर गिरी। मगर ये ‘बूँद’ पानी की नहीं थी। वो बूँद ही नहीं थी। एक ज़हरीला भूखा कीड़ा था जो देखते ही देखते गेहूँ के कितने ही दाने चट कर गया।
रामू चिल्लाया, “टिड्डी!”
गंगुआ चिल्लाया, “टिड्डी!”
आस-पास के खेतों से आवाज़ें आयीं। “टिड्डी! टिड्डी!”
इससे पहले भी ये आसमानी मुसीबत उनके खेतों पर नाज़िल हुई थी। उन्होंने मन्दिरों में घण्टे बजाए थे और मस्जिदों में दुआएँ माँगी थीं और खेतों में खड़े होकर शोर मचाया था मगर वो टिड्डी की यलग़ार को न रोक सके थे और देखते ही देखते उनकी साल भर की मेहनत मिट्टी में मिल गई थी और वो ज़मींदार और साहूकार से गिड़गिड़ाकर मदद माँगने पर मजबूर हो गए थे।
मगर इस बार वो बदल चुके थे। उनका मुल्क और उनके खेत बदल चुके थे। ज़मींदारी ख़त्म हो चुकी थी। अब काश्तकारों के अपने खेत थे। उनकी अपनी सरकार थी जो ऐसे मौके़ पर उनकी सहायता के लिए तैयार थी। सो इस बार सिर्फ़ चन्द बड़े बूढ़ों ने ही मन्दिर में घण्टे बजाकर भगवान से फ़रयाद की। बाक़ी जितने काश्तकार थे सब अपनी मेहनत से उगायी हुई फ़स्ल को दुश्मन से बचाने के लिए तैयार हो गए। पहले सैंकड़ों ढोल और टीन के कनस्तर पीट-पीटकर टिड्डी को डराया और भगाया गया। फिर भी दुश्मन पसपा न हुआ तो किसानों की फ़ौज की फ़ौज लाठीयाँ और डण्डे ले-लेकर उन पर पिल पड़े। औरतें और बच्चे भी पीछे नहीं रहे। झाडुएँ ले-लेकर टिड्डी दल का सफ़ाया करने लगे। मगर दुश्मन इतनी आसानी से हार मानने वाला नहीं था। हज़ार टिड्डियाँ मारी जातीं तो दस हज़ार और आ जातीं। ऐसा लगता था कि आसमान में एक सूराख़ हो गया है और उसमें से टिड्डियों की मुसलसल बारिश हो रही है। लाखों टिड्डियाँ, करोड़ों टिड्डियाँ। फिर भी मुक़ाबला करने वालों ने हार नहीं मानी। रात के अन्धेरे में भी मशालें जला-जलाकर दुश्मन पर हमला करते रहे।
टिड्डी का मुक़ाबला करने वालों में सबसे आगे-आगे रामू था। दिन-भर, रात-भर उसने न खाया, न पिया, न पल-भर आराम किया। उसके पड़ोसियों में कोई भी हिम्मत हार जाता और कहने लगता कि “इस आसमानी बला का हम मुक़ाबला नहीं कर सकते। भगवान ही हमें इससे निजात दिला सकता है।” तो रामू ललकारकर कहता, “अरे मर्द होकर एक ज़रा से कीड़े से हार मान गए। पूरे छः महीने ख़ून पसीना एक करके तो ये फ़स्ल उगायी है अब इसे दुश्मन के हवाले कर दें? चलो उठो। हिम्मत न हारो।”
रामू को तो ऐसा लग रहा था कि ये टिड्डी उसकी ज़ाती दुश्मन है जो उससे उसकी खेती ही नहीं उसकी ज़िन्दगी की सारी ख़ुशियाँ और कामयाबियाँ छीनना चाहती हैं। उसको ऐसा लगता कि ये टिड्डी उसकी उगायी हुई फ़स्ल ही को नहीं चट करना चाहती बल्कि उस चाँदी की हँसली को भी दीमक की तरह खाए जा रही हैं जो वो लाजो के गले में देखना चाहता है और कभी-कभी तो उसको ऐसा महसूस होता कि एक बहुत बड़ी टिड्डी अपने मनहूस पंजे लाजो की नर्म-नर्म गर्दन में पैवस्त करके उसका ख़ून पी रही है। और ये सोचते ही वो लाठी लेकर टिड्डी दल पर टूट पड़ता और लोग हैरत से देखते कि रामू में ये बला की ताक़त और अनथक हिम्मत कहाँ से आ गई है।
और फिर रात-भर की मेहनत के बाद सुब्ह-सवेरे जब उन्होंने देखा कि पूरब से एक और टिड्डी दल उड़ता चला आ रहा है तो एक बूढ़े ने लाठी फेंकते हुए कहा, “अब तो भगवान ही हमारी सहायता करे तो हम बच सकते हैं।” और उसी लम्हे में उन्होंने आसमान से आती हुई एक घूँ-घूँ की आवाज़ सुनी जैसे कोई जिन्नाती जसामत की शहद की मक्खी क़रीब आ रही हो। मगर ये शहद की मक्खी नहीं थी एक हवाई जहाज़ था जो सरकार ने टिड्डी का मुक़ाबला करने के लिए भेजा था। देखते ही देखते हवाई जहाज़ ने हवा में एक डुबकी लगायी और उनके खेतों पर से नीचे-नीचे उड़ने लगा और उसकी दुम में से निकलकर एक भूरे रंग का बादल सारे खेतों पर छा गया। अब उन्होंने देखा कि गेहूँ पर बैठी हुई टिड्डियाँ टप-टप ज़मीन पर गिर रही हैं, दम तोड़ रही हैं।
सो रामू की खेती बच गई। उस जैसे और हज़ारों काश्तकारों की खेतियाँ बच गईं। रामू कटाई करता जा रहा था और सोच रहा था कि ये नयी ताक़त जो अब हमारे पास है, इसके मुक़ाबले में सौ टिड्डी दल भी आएँ तो हम उनको शिकस्त दे सकते हैं।
और फिर अनाज को गाड़ीयों में लादकर वो मण्डी ले गया।
सरकारी भाव पन्द्रह रुपये मन था। मगर लाला किरोड़ी मल आढ़ती ने अपनी तोंद सहलाते हुए कहा, फ़स्ल टिड्डी से बच गई इसलिए मण्डी में अनाज ज़रूरत से ज़्यादा हो गया है और क़ीमतें गिर गई हैं।”
”तो क्या आप चाहते थे टिड्डी हमारी फ़स्ल को खा जाती तो बेहतर होता?”
”ये तो मैं नहीं कहता। मगर क़ीमतें ज़रूर बढ़ जातीं। अब तो इतना अनाज मण्डी में आ गया है कि मैंने तो चन्द रोज़ के लिए ख़रीद ही बन्द कर दी है।” और फिर किसी क़दर धीमी आवाज़ में कहा, “वैसे बारह रुपये मन देना चाहो तो मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ…”
”मगर सरकारी रेट तो पन्द्रह रुपये मन है।”
”सो तो है। मगर मैंने कहा नहीं अनाज ज़्यादा पैदा हो गया है। हमें ज़रूरत ही नहीं रही।”
”तो मैं लाला बंसी धर के यहाँ ले जाता हूँ।” रामू ने कहा और उधर गाड़ी हाँक दी।
मगर लाला बंसी धर ने भी वही कहा जो किरोड़ी मल ने कहा था और जो बंसी धर ने कहा वही लाला शगुन चन्द ने कहा।
फिर वो लाला किरोड़ी मल के यहाँ वापस आया। वो बोले, “घण्टा भर में भाव और गिर गया है। आस्ट्रेलिया से कई जहाज़ आ गए हैं। अमरीका में भी फ़स्ल बहुत अच्छी हुई है। सारी दुनिया में गेहूँ की क़ीमत गिर गई है। अब तो मैं ग्यारह रुपये मन दे सकता हूँ।”
और सौ रामू को ग्यारह रुपये मन पर ही अनाज बेचना पड़ा। कभी कुछ हो, उसने सोचा, लाजो के लिए हँसली ज़रूर लूँगा। बस सेठ मक्खन लाल से बीज के लिए जो क़र्ज़ा लिया था वो चुका दूँ।
सेठ मक्खन लाल का नाम होना चाहिए था सेठ सोखन लाल। दुबले-पुतले, सूखे हुए, पिचके हुए गाल। मगर रुपये देखते ही उनकी मुरझायी हुई आँखों में चमक आ गई। दो सौ रुपये अस्ल और चौबीस रुपये सूद सरकारी और छब्बीस रुपये नज़राने के, ग़ैर सरकारी।
जेब हल्की करके आगे रामू चला ही था कि चौधरी मलखान सिंह मिल गया जो नहर का पटवारी था और काश्तकारों के जीवन में भगवान का दर्जा रखता था। जिसको चाहे पानी दे, जिसको चाहे न दे। चाहे कम पानी दे, चाहे ज़्यादा पानी दे।
मलखान सिंह की बड़ी-बड़ी मूँछें ख़िज़ाब से काली की हुईं थीं और तेल में डूबी रहती थीं और किसी काश्तकार जिससे रुपया मिलने की उम्मीद हो, उसे देखते ही ये मूँछें लालची कुत्ते की तरह दुम हिलाने लगती थीं। चौधरी मलखान सिंह का क़ौल था कि “जितना गुड़ डालोगे उतना ही मीठा होगा।” जिसका मतलब था कि जितना रुपया नहर पटवारी की जेब में डालोगे, उतना ही पानी तुम्हारे खेत में पहुँचेगा। सो रामू ने अगली फ़स्ल के लिए पानी का इन्तेज़ाम कर लिया। मगर उसकी जेब और भी हल्की हो गई। और जब वो सोना मल की दुकान के सामने से गुज़रा और शीशे की अलमारी में लटकी हुई हँसली नज़र आयी तो उसने दिल ही दिल में कहा, “अगली फ़स्ल पर ज़रूर लूँगा।” और नज़र झुकाकर गुज़र गया।
रात हुए घर वापस पहुँचा तो देखा लाजो उसका इंतज़ार करते-करते चूल्हे के पास बैठी-बैठी ही सो गई है। चंगीर में रोटी पकी रखी थी। चूल्हे पर साग की हण्डिया धरी थी। वो लाजो को आवाज़ देने वाला ही था कि उसने देखा कि एक परों वाला कीड़ा दीवार पर रेंगता हुआ लाजो की तरफ़ बढ़ रहा है। उसने हाथ बढ़ाकर उसे पकड़ लिया।
”टिड्डी!” उसने सोचा। “तो अभी सारे टिड्डी दल का ख़ातमा नहीं हुआ?”
उसकी उंगलियों में दबी हुई टिड्डी कुलबुला रही थी, फड़फड़ा रही थी, शायद दम तोड़ रही थी मगर अभी तक ज़िन्दा थी। चिराग़ की रौशनी में लाया तो उसने देखा कि टिड्डी का पेट न जाने किसका अनाज खाकर फूला हुआ है, उसकी छोटी-छोटी आँखें चमक रही हैं और उसकी लम्बी नुकीली मूँछें लालची कुत्ते की तरह दुम हिला रही हैं।