ठहरी हुई तसवीर (कहानी) : आशापूर्णा देवी

Thehri Hui Tasveer (Bangla Story in Hindi) : Ashapurna Devi

तेरह नवम्बर उन्नीस सौ अठहत्तर को दमदम हवाई अड्डे से उड़ान भरते हुए जो हवाई जहाज श्रीलंका जा रहा था, वह आकाश में उड़ते-उड़ते अचानक पंखों में खराबी की वजह से जलते-जलते हिन्द महासागर में जा गिरा था। उसमें सवार जितने भी नामी-गिरामी व्यक्ति थे सबको एक साथ जल-समाधि लेनी पड़ी थी। उन्हीं में से एक थे डी. के. सेन यानी दिव्यकुमार सेन-एक युवा इंजीनियर...।

एक बहुत बड़े सार्वजनिक उपक्रम में कुछ समय पहले ही दिव्यकुमार सेन नियुक्त हुए थे। प्रतिष्ठान के नियमानुसार वह विदेश से उच्च डिग्री भी प्राप्त कर आये थे और कम्पनी के काम से ही वह उस मनहूस तेरह तारीख को श्रीलंका जा रहे थे।

उनकी यह यात्रा दूसरों के साथ ही महायात्रा में बदल गयी।

हालाँकि आजकल ऐसी घटनाएँ आये दिन होती रहती हैं, लेकिन इसी कारण इनकी भयावहता तो कम नहीं हो जाती। एक विमान के व्यस्त हो जाने का मतलब है कितने ही परिवारों का नष्ट हो जाना, कितने ही घरों-घरानों और सपनों की तबाही। किस व्यक्ति का जीवन मूल्यवान नहीं है?

अखबारों की दुनिया सिर्फ दुर्घटना में 'मृतकों' की संख्या ही याद रखती है लेकिन इन मृतकों के पीछे कितने ही मरने वाले और होते हैं, इसका हिसाब कौन रखता है? इसी तेरह नवम्बर की घटना की खबर पढ़ते ही शाश्वती सेन नामक स्त्री इस तरह एक खामोश बुत में तब्दील हो गयी, कि उसे किसी भी तरह अब जीवन-धारा में वापस नहीं लौटा पा रहे।

मालव्य सेन भी जैसे निरुपाय हैं। उन्हें अपने पैरों में चक्का बांधकर दौड़-धूप करनी पड़ रही है, मृत युवा इंजीनियर डी. के. सेन उन्हीं के पुत्र हैं, इसको प्रमाणित करना होगा...किसी भी तरह। प्रमाणित तो करने की जरूरत पड़ेगी ही लेकिन उसकी शिनाख्त करने का क्या उपाय है? सब कुछ तो समुद्र के गहरे तल में समा गया।
इसलिए उस पुरानी सन्दूक से, जिसमें जीवन-भर कुछ-न-कुछ जमा होता रहा है, दिव्यकुमार के पुराने प्रमाण-पत्र निकाले जा रहे हैं। जन्म-दिन वाली पहली तसवीर के साथ ही अब तक की अधूरी जिन्दगी की अलग-अलग उम्र की तसवीरें उनके सभी तरह के प्रमाण-पत्रों और सनदों को निकालना पड़ रहा है क्योंकि सिर्फ पढ़ने-लिखने में ही नहीं, खेल-कूद में भी उनका विशिष्ट स्थान था। उनकी विदेश-यात्रा, नौकरी-प्राप्ति आदि के जो भी प्रमाण-पत्र हो सकते हैं उन्हें जमा करने पर ही वह उपक्रम डी. के. सेन के परिवार को एक लाख रुपये देगा, क्षतिपूर्ति के रूप में। फिर कार्यकाल में मृत्यु होने की वजह से भी कम्पनी कोई अनुग्रह राशि दे दे।...अविवाहित तरुण दिव्यकुमार सेन के परिवार मैं सिर्फ श्रीमती शाश्वती सेन और श्री मालव्य सेन ही हैं।

उनकी माँ और पिता।

सारे प्रमाण-पत्र जुटाने में और कम्पनी की बहानेवाजी में काफी दिन निकल गये हैं। जान पड़ता है, इस बार मालव्य सेन की दौड़धूप खत्म हुई, लेकिन रास्ता जहाँ खत्म होता है वहीं एक बड़ा पत्थर रास्ता रोके खड़ा रहता है।

इस अकाल मृत्यु की क्षतिपूर्ति के लिए जो कुछ मिलेगा उसकी प्राप्ति पर दम्पती के हस्ताक्षर चाहिए लेकिन शाश्वती से हस्ताक्षर कराएगा कौन? वह तो यह मानने को ही तैयार नहीं है कि उसका बेटा अब इस दुनिया में नहीं रहा। लड़का मर चुका है। लेकिन उसका कहना है-''मेरा बेटा समन्दर तैरकर बच जाएगा। वह धरती के किसी-न-किसी कोने में कहीं-न-कहीं जरूर है...वह एक दिन लौट आएगा।''

शाश्वती जैसे एक अलग चेतना के साथ सबसे दूर खड़ी हो गयी है, कुछ भी उसके मन-मानस में प्रवेश नहीं करता। वह अगर खुद कुछ कहती भी है तो जैसे अवचेतन मन से लेकिन मालव्य सेन को तो सारी सच्चाई का सामना करना पड़ रहा है।

निरुपम इस दायित्व को उठाने के लिए तैयार हुआ। उसने कहा, ''ठीक है...मैं देखता हूँ।'' वह इसी घर में आ गया। प्रायः आता भी रहा है। उसका घर पास ही है लेकिन बहन की थाह अब भी उसे नहीं मिलती। ''भैया खबरदार, भाग मत जाना। तुम्हारे लिए कचौड़ी बना रही हूँ।'' कहकर भी वह अब उसके सामने नहीं आती। वह अब यह भी नहीं देखती कि किसी ने भैया को एक कप चाय बनाकर भी दी है या नहीं। निरुपम अपने जीजा से बात कर बाहर से ही लौट जाता है। आज भीतर आते ही उसने अपनी बात कही।
शाश्वती रुँधे स्वर से बोली, ''क्या बताऊँ भैया?...बस एक ही उद्देश्य है...कौन-सा लक्ष्य?.. .क्ष्य नहीं लाख...एक लाख रुपये...कम्पनी देगी?...मेरे बेटे की कम्पनी?''

कोई सवाल नहीं, हैरानी नहीं, जैसे ये सारे शब्द शाश्वती नामक स्त्री के दिमाग से नहीं निकल रहे बल्कि उसकी जबान से टप...टप...टपक रहे हैं।

...भावशून्य, और फीका उदास-सा चेहरा।

''एक लाख रुपये रो लड़के की कमी पूरी हो जाएगी, भैया?''

अचानक...एक अप्रत्याशित ढंग से उस भावशून्य चेहरे पर चिनगारियाँ-सी फूट पड़ती हैं, ''ओह, इसीलिए ये इतने दिनों से प्रमाण-पत्र जुटाने की दौड़धूप मंब लगे हैं।''

पथरीली प्रतिमा के मुँह से पहली वार इतनी बातें सुनने को मिलीं। इतने दिनों तक जो आंखें मरी मछली की आँखों की तरह बुझी-बुझी थीं, उनमें अचानक ही जैसे आग चमक उठी थी।

इस जोरदार दलील को सुनकर मालव्य सेन ने सिर झुका लिया। लेकिन निरुपम को लगा कि यह ठीक ही हुआ। पत्थर में प्राणों का संचार हुआ है। वह यह भी समझ गया कि इस प्रमाण-संग्रह के कार्य में भले ही उसने मालव्य की कोई मदद न की हो लेकिन शाश्वती की अनुभूतियों के घेरे में वह है।

जबकि शाश्वती झुकने को एकदम तैयार नहीं।

''दस्तखत? उस कागज पर दस्तखत करूँ मैं? भैया, तुम लोग क्या कुछ कर सकते हो और क्या नहीं? ओह, जिसने इतनी मेहनत करके यही साबित किया कि मेरा बेटा नहीं है?'' शाश्वती का चेहरा और कठोर हो गया, ''वही जाकर भिखारी की तरह माँग ले, खमियाजे की रकम।''

''इस तरह की बातें क्यों कह रही हो, शाश्वती?'' निरुपम का स्वर बुझा हुआ था। ''दिव्य के चले जाने का दुख क्या सिर्फ तुम्हें ही है? उन्हें नहीं?''

शाश्वती उदास स्वर में बोली, ''क्या पता?''
''पता कैसे नहीं! लेकिन मर्द को कलेजे पर पत्थर रखकर अपना कर्तव्य निबाहना पड़ता है।''

''अच्छा। कर्तव्य हां...होगा।''

मालव्य ने तब इशारे से कहा, ''कोई लाभ नहीं, बेकार ही कोशिश कर रहे हो।''

निरुपम भी बोला, ''तुझे तो कुछ भी नहीं करना, शाश्वती। सिर्फ एक जगह दस्तखत भर चाहिए। अकेले इनकी सही से जब काम नहीं हो रहा तो तू कर क्यों नहीं देती?''

''कभी नहीं।'' शाश्वती की आँखें फिर जल उठीं, ''किस हैसियत से दस्तखत करना होगा? स्वर्गीय दिव्यकुमार सेन की माँ बताकर? क्यों? छी-छी, भैया! रुपया क्या ड्तनी बड़ी चीज है?''

निरुपम ने गम्भीरता से कहा, ''भई, रुपया तो हमेशा ही बड़ी चीज रहा है। हां...उसे गलत रास्ते से नहीं आना चाहिए, बस। नहीं लूँगी, कह देने या इनकार कर देने से वह कम्पनी क्या तेरी भावना की कदर करेगी? बल्कि उन्हें तो बड़ी सहूलियत हो जाएगी। ये रुपये तू अपने लिए ही खर्च करना, यह तो मैं नहीं कह रहा। बेटे के नाम से चाहे तो किसी मिशन को या अस्पताल को दान में भी दे सकती हो।''

''दान में?''

''ही। रुपये कुछ कम तो नहीं हैं। किसी अस्पताल के लिए बेड दिया जा सकता है.. यूनिवर्सिटी के किसी तेज विद्यार्थी के लिए स्कॉलरशिप की व्यवस्था हो सकती है जो कि दिव्य के नाम से बराबर जुड़ा रहेगा।''
शाश्वती शान्त स्वर में बोली, ''ठीक है, लाओ कहाँ क्या लिखना है, बता दो। तुम लोगों के बार-बार कहने पर अब मैं यह सोचने की आदत डालूँगी कि मेरा कोई बेटा नहीं रहा, वह मर चुका है।''

...और वह शान्त नहीं रह पाती। आसुओ की धारा में बह जाती है।

जैसे पत्थर को छेदकर रुलाई फूट पड़ी हो।...

निरुपम को फिर यह सोचकर अच्छा लगा कि यह जीते-जागते आदमी की निशानी है।

दस्तखत का काम खत्म होते ही मालव्य ने आभार व्यक्त करते हुए निरुपम का हाथ थाम लिया। उम्र में वह उनसे छोटा है, फिर भी जैसे उनके साथ बराबर की आत्मीयता हो। अपनी भावुक वहन के इस असहाय पति के प्रति निरुपम की वराबर ही सहानुभूति रही है।

अभी हाल में एक मार्मिक घटना घट गयी है इसलिए शाश्वती को अबूझ मान लिया जाए, ऐसा नहीं है। वह शुरू से ही इस तरह की है। मालव्य के पास कभी भी बहुत ज्यादा सम्पत्ति नहीं रही। बड़ी तकलीफें उठाकर ही उन्होंने अपने बेटे को ऊँची शिक्षा दिलायी थी। लेकिन शाश्वती उसे मानने को तैयार नहीं थी। लड़के की पोशाक और खान-पान सब कुछ के प्रति वह बराबर एक तरह का असन्तोष व्यक्त करती रही है। दिव्यकुमार को अच्छी नौकर मिल जाने के बाद पैसे का अभाव कम हुआ था लेकिन वह भी कितने दिनों के लिए? विधाता के एक छोटे-से खेल ने ही सब तमाम कर दिया!
शाश्वती ने सोचा था, सिर्फ उसके दस्तखत की देर है वरना पैसा तो मालव्य के हाथ में ही है। उसे पता नहीं था कि इतना कुछ होने के बाद भी एड़ी-चोटी का पसीना एक करना अभी बाकी है। इसी बीच वह किसी यौजना की रूप-रेखा बनाकर बैठी हुई थी। रुपये मिलने में हो रही देर के कारण वह निर्मम हो उठी थी।

एक दिन आजिज आकर वह बोली, ''क्या हुआ? तुम लोगों के वे एक लाख रुपये क्या सिर्फ कागज-कलम तक ही रह गये?''

मालव्य को बड़ी हैरानी हुई।

स्कें उम्मीद नहा थी कि ऐसा कोई सवाल वह पूछेगी।

वह छूटते ही वाले, ''अगले ही सप्ताह मिल जाएगा।'' शाश्वती की दिमागी हालत सामान्य होती जा रही है, यह देखकर वह बोले, ''क्या सोचा तुमने? अस्पताल के लिए वेड या फिर यूनिवर्सिटी को स्काँलरशिप देने के बारे में...इसके लिए भी तो वहुत पापड़ बेलने पड़ेंगे।''

''नहीं, यह सब कुछ नहीं।'' शाश्वती ने दृढ़ता के साथ कहा, ''मैं अपने बेटे के नाम पर एक 'स्मृति मन्दिर' बनवा दूँगी।''

मालव्य चौंक पड़े, ''स्मृति मन्दिर?''

''चौंक क्यों पड़े? तुमने कभी स्मृति मन्दिर शब्द सुना नहीं है?''

''नहीं, ऐसा तो नहीं है...पर वह कैसे होगा?''

इसी बीच शाश्वती के चेहरे पर से भावशून्यता का अंश काफी कम हो गया है। अभी-अभी जो आवेग और उत्साह उसके अन्दर उमड़ा है उससे उसके पीले चेहरे का फीकापन भी कम हौ गया। वह बोली, ''देख लेना, किस तरह होगा।''
इसके बाद ही वह बच्चों की तरह तेजी से अन्दर भागी गयी और कागजों का एक बण्डल उठाकर लौट आयी। अपनी योजना का ढाँचा साथ लिये।

''यह देखो, किस तरह बनाया है मैंने, जानते हो, स्कूल में मैं ड्राइंग में हमेशा फर्स्ट आती थी।''

मालव्य ने मन-ही-मन सोचा, शाश्वती अचानक इतनी जल्दी-जल्दी बातें कर रही है। आखिर बात क्या है? कहीं नर्वस तो नहीं हो गयी? शाश्वती अपने हाथ का नक्शा फैलाये बैठी थी।

''देखो, इस चित्र की तरह ही एक खूबसूरत-सी दों-मंजिली इमारत होगी। दुतल्ले पर तीन कमरे होंगे। लेकिन एक माप के नहीं। वीच वाला सबसे बड़ा होगा-रास्ते की तरफ कुछ आगे तक निकला हुआ। इस घर का ऊपरी हिस्सा मन्दिर के शिखर की तरह गोल और गुम्बदनुमा होगा। बाकी दोनों तरफ के दोनों कमरे कुछ छोटे तथा कुछ पीछे की ओर होंगे। इसमें से एक कमरा हमारा सोने का कमरा होगा और दूसरा मन्दिर का गीत-घर।''

''गीत-घर?''

''हां, इसमें हैरानी की क्या बात है? स्मृति-मन्दिर में इसी तरह की जगह होती है-भजन-कीर्तन आदि के लिए। मन्दिर के बीचोंबीच एक दरवाजा रहेगा। लेकिन यहाँ 'भज गोविन्द'... 'भज गौरांग' नहीं होगा। मेरा बेटा यह सब सुनकर कितना हँसा करता था। उसे रवीन्द्र संगीत, अतुल प्रसादी और राजनीकान्त के गीत पसन्द थे।...घर में सभी दीवारों पर फूलों की मालाएँ सजी रहेंगी-बीच में अगरवत्ती जलायी जाएगी। लोग बड़े शान्त भाव से यहाँ आकर बैठेंगे। गीता के सुर हवा में उड़ते-उड़ते

आकाश तक पहुँच जाएँगे...''

शाश्वती का स्वर कॉपने लगा। दोनों आंखें आंसुओं से तर हो उठीं। तो भी, कुछ रुककर वह आगे बोलने लगी, ''दुतला को छोटी चारदीवारी से घेर देंगे। बार देखकर मालव्य सेन ने एक गहरी साँस ली। शाश्वती कहीं बनाएगी अपने डस स्वप्न-मन्दिर को?
लेकिन तभी उसके चेहरे पर उत्साह की आभा चमकी। थोड़ी-बहुत हेर-फेर के साथ उसने इसी तरह के पाँच-सात नक्शे तैयार कर रखे हैं।

''इधर देखो न, नीचे के तल पर रसोईघर, भण्डारघर और भोजन का कमरा होगा। ठीक रहेगा न? दरवाजा अन्दर से बन्द होगा। इससे चक्करबाजी भी कम होगी। रहने के लिए तो सारी सुविधा होनी चाहिए न! और मैं तो अब धीरे-धीरे बूढ़ी हो होऊँगी।''

''किसने कहा?'' मालव्य ने मुस्कराकर पूछा।

''भला कैसे नहीं होऊँगी? तुम तो नथन की माँ की तरह बातें वता रहे हो। छोड़ो...वह सब इधर देखो, रसोईघर में सारा इन्तजाम कर रखा है मैंने। कोई आदमी न भी रहे तो अपने से भी सारा काम कर लेने में असुविधा नहीं होगी।''

शाश्वती के चेहरे पर पहले जैसी चमक जैसे लौट आयी है, मानो वह अपने बेटे को पसन्दीदा कपड़े खरीदकर लायी है या कोई आकर्षक बेडकवर या खूबसूरत-सा तौलिया लायी है। और प्रसन्न होकर कह रही है, ''लड़के के लिए लायी हूँ। इस बार जब वह छुट्टी में आएगा...।'' वह इसी तरह तो बोलती थी। दिव्य को होस्टल में रहना पड़ता था। शाश्वती उसकी छुट्टी के दिन गिनती रहती। बीच-बचि में कहती, ''पहले के लोगों को आठ-दस-बारह-बीस बच्चे होते थे, वही अच्छा था। एक लडके की माँ के लिए बड़ी परेशानियाँ हैं। बेटा न हो, ईद का चाँद हो,'' यह सब कहती और हर छुट्टी से पहले एक-एक दूकान में जाकर देखती कि इस बार लड़के के लिए कौन-सी चीज खरीदी जाए। क्या उपहार दिया जाए उसे। लड़के कुछ वड़े हुए नहीं कि उनकी पसन्द की चजि खोजना भी एक समस्या हो जाती है। लड़कियों के मामले में यह सब झमेला नहीं होता। साड़ी हो या गहना या कि प्रसाधन का सामान-उनके लिए तो कोई उम्र नहीं होती।

मालव्य कभी-कभी हँसकर कहते, ''दूकान में आकर तुम्हारी जो हालत हो जाती है उसे देखकर तो यही लगता है कि दिव्य अगर लड़का न होकर लड़की होता तो तुम्हारे लिए यह कहीं अधिक प्रसन्नता की बात होती।''

शाश्वती तब कुछ गुस्से से वोलती, ''दुर...। अब वह सब नहीं भाता।''
''क्यों, अच्छी-अच्छी रंग-बिरंगी साड़ियां खरीदकर अपनी बेटी को नहीं सजाती।''

''बस भी करो।'' यह कहकर वह बड़ी खुशी से उसके लिए शर्ट-पैण्ट के कपड़े देखने लगती।

अभी-अभी शाश्वती के चेहरे पर वही पुरानी चमक अचानक फैल गयी।

''इस स्मृति-मन्दिर के एक कमरे में दीवार से जुड़ा बुकसेक होगा। बचपन से ही उस लड़के को इसका शौक था...''

थोड़ी देर के लिए रुकी फिर धीमे स्वर में बोली, ''उसे शौक था कि एक कमरा ऐसा होगा जिसमें दरवाजा और खिड़की के बाद जो जगह बचेगी वहीं सिर्फ किताबें होंगी। बीच में एक छोटी-सी चौकी बिछी होगी....उस पर एक खूबसूरत-सी चादर रहा करेगी। खिड़की के पास एक कुर्सी और एक मेज होगी।...स्कूल के दिनों से ही वह मुझसे इसी वरि में वात किया करता। इस पुराने सड़े-गले मकान में बैठकर वह...''

''अरे वह तो विलायत और अमरीका की कितनी बड़ी-बड़ी इमारतों में रहकर आया था। ' मालव्य का स्वर भीग आया था।

''रहा होगा, लेकिन वह तो परायी धरती थी न''...शाश्वती अचानक प्रबल आवेग में भरकर बोली, ''यहाँ, उसकी अपनी जन्मभूमि पर मैं उसके लिए बनाऊँगी...उसके सपनों जैसा एक भवन...जिसमें उसके सारे अरमान सजे होंगे और मेरे सपने भी।...पर ये रुपये कव मिलेंगे? मुझसे देरी और सही नहीं जाती...''

निरुपम यह सारी बातें सुनकर हँस पड़ा। उसने मालव्य के चेहरे की ओर देखकर कहा, ''अच्छा है, अगर इसी तरह वह खुश रहना चाहती है तो रहने दो। कोई आशा न हो...और काम न हो तो जिन्दगी बड़ी वीरान और डरावनी हो जाती है। खास करके शाश्वती जैसी भावुक औरतों के लिए। अस्पताल में बेड रखवाकर अगर हम अपना हाथ खाली कर लेते तो उस बेड पर सुलाने के लिए जल्दी-से-जल्दी हमें उसे ही भेजना पड़ता शायद।''
इसीलिए शाश्वती के जिम्मे सारा काम सौंप दिया गया।

आशा के रंगीन डोर उसे पकड़ा दिये गये। ताकि उनसे बुनकर तैयार करे वह रंगीन फूलों का बूटा। इन धागों से बुनती रहे अपने सपने।

लेकिन सवाल यह था कि वह स्मृति-मन्दिर किस जगह स्थापित होगा?

क्यों? इस पुराने और टूटे-फूटे मकान को तोड़कर सात पुरखों के पुराने मकान पर। जमीन कुछ कम नहीं है, आसपास नाते-रिश्तेदार बस गये हैं। पूरा मकान ढहाना नहीं है, उसका कुछ हिस्सा ही तोड़ना होगा। आजकल के फ्लैटों की तुलना में यह जगह कम नहीं है।

निरुपम उसे रंगीन फूल चुनने देता है। तब भी मालव्य के असहाय चेहरे की और देखकर वह कहता है, ''इस मकान को तोड़ने की बात कर रही है शाश्वती? यह भी तो एक स्मृति-मन्दिर ही है। सुना है, वह मालव्य के दादा-परदादा का पुश्तैनी मकान है।''

शाश्वती ने गर्दन टेढ़ी कर कहा, ''परदादा का है या लकड़दादा का-कौन जानता है? शादी के बाद से तो मैं इसे इसी तरह देखती आ रही हूँ-पलस्तर टूटा, ईंटें उखड़ी, फर्श सीली और...''

मालव्य के चेहरे पर एक उदास हँसी फैल गयी। वह बोले, ''मुझमें तो कभी इतनी क्षमता हुई ही नहीं कि टूटी दीवारों की मरम्मत ही करा सकूँ। बस पुरखों का गुणगान ही करता जा रहा हूँ।''

शाश्वती कुछ विरक्त होकर बोली, ''क्षमता नहीं हुई तो इसमें सिर्फ क्षमता की ही बात नहीं, इच्छा का भी अभाव है। घर से तुम्हारा लगाव तो सिर्फ खाने-सोने तक ही है। सारी कठिनाइयाँ तो मुझे ही झेलनी पड़ती हैं।''...
इन सारी बातों के बीच ही शाश्वती कभी-कभी पुराने दिनों की याद में खो जाती है। वह चाहती है कि ऐसा कोई दिन आए जबकि इस अभागे मकान को नींव से उखाड़कर फेंक दिया जाता और फिर नये सिरे से.. एक नये चित्र की तरह बना दिया जाता।...

वह शायद आदमी के बूते की ही बात है कि वह आत्मविस्मृत हो उठता है। अपने पहले की स्थितियों को याद करते हुए वह आज की स्थिति को भूल जाती है। इसलिए वह उसी मानसिकता में कहती है, ''बहुत दिनों से इस उम्मीद में हूँ कि कभी तो मेरे भी दिन लौटेंगे...''

लेकिन मालव्य तो इसी कारण आत्मविस्मृत होकर नहीं कह सकते कि ''समझ लो तुम्हारे दिन फिरे हैं।''

''नहीं, ऐसी बात भला कोई कह सकता है?''

इसीलिए जब शाश्वती मुग्धभाव से कह रही थी, ''मेरा नक्शा देख रहे हो, भैया? कोई पक्का इंजीनियर भी इसमें खोट नहीं निकाल सकता। इसे मैंने कोई आज ही नहीं बनाया, जीवन भर, हर दिन, तिल-तिल कर इसे बनाती रही हूँ...''

यह सब दो पुरुष शान्त रहकर सुन रहे हैं।

शाश्वती अपने हाथों से तैयार नक्शे को एकदम निर्दोष मानकर निश्चिन्त है। इसलिए अब वह उठते-बैठते अपने इस इतने दिनों के आश्रयस्थल में यदि कोई दोष हो तो...निकाला करती है।

आश्चर्य है, इतने बड़े मकान को पीढ़ियों से एक रसोईघर बनाकर रख छोड़ा गया है-सिर्फ पीढ़ा बिछाकर खाना खाने के लिए। यह बात किसी के दिमाग में नहीं आयी कि खाना खाने के लिए एक घर अलग से ही बना लिया जाए। और सहन में बेडरूम जितना बड़ा चहबच्चा। कोई तुक है इसका? दीवारों की चौड़ाई तीस इंच, भला इसका कोई मतलव है? इतना बड़ा सहन पार कर स्नानघर में जाओ, भला यह बेवकूफी नहीं तो क्या है?
अब इन सारी बेवकूफियों की नये सिरे से जाँच-पड़ताल हो रही है।

तीन-तीन पीढ़ियों का मकान। स्वभावतः एक-दूसरे से जुड़े हैं सब। सहन पर पन्द्रह इंच की दीवार डालकर बँटवारा हो गया है। दरवाजा डालने की जरूरत नहीं समझी किसी ने। किसी दुर्घटना की खबर सुनकर पड़ोसी बाहरी दरवाजे से होकर यहाँ अन्दर आते रहे हैं। और मुलाकात कर गये हैं। लेकिन वे दिलासा किसको देते, शाश्वती तो तब पत्थर की प्रतिमा बनी बैठी थी! मालव्य ने सौजन्य दिखाते हुए उन लोगों के प्रश्नों का उत्तर उदास स्वर में दिया था। सवाल...और सवाल जो कभी खत्म नहीं होते। ऐसे ही किसी की मौत कितने सारे सवाल पैदा कर देती है। अस्वस्थता से लेकर मृत्यु तक की स्थितियों का एक-एक खुलासा नाते-रिश्तेदार सुनना चाहते थे। और यह सब मरनेवाले के नजदीकी आदमी के सिवा भला और कौन बनाएगा? अन्त में क्या हुआ, इसका जवाब तो वही देगा, जो उस वक्त मृतक के पास मौजूद रहा होगा। फिर इस तरह की अभूतपूर्व मौत तो सवालों का पहाड़ खड़ा कर देती है। मालव्य ने भरसक सबको उत्तर दिया है...क्योंकि सवाल करनेवाले ज्यादातर लोग तो सेन परिवार के ही थे।

डर था तो अब एक ही। यह तीन परिवारों का सम्मिलित मकान है और उसकी दीवार जब तोड़ी जाएगी तो न जाने फिर कितने सवाल उठ खड़े होंगे। सवालों का सामना उन्हें ही करना होगा।

लेकिन हैरानी की बात है, उन लोगों को इसकी जरा भी चिन्ता नहीं। पता नहीं क्यों? हो सकता है इस घटना से वे लोग पत्थर हो गये हों। क्षतिपूर्ति की रकम की बात तो छिपी नहीं रही है।

हो सकता है शाश्वती यह सब समझती हो। फिर भी मन-ही-मन वह कहती है, 'बाद में तुम सब भी समझोगे। उस इमारत का बनना खत्म होते ही समझोगे तुम लोग कि किसके लिए इस टूटी जान और सारा जहान लेकर मैं कमर कसकर कारीगरों और मिस्त्रियों से काम करवा रही हूँ। उनके साथ दिन-दिन भर बक-झक करती रही हूँ...'

बीच-बीच में थकी-चुकी शाश्वती बैठ जाती है।
आँखें बन्द कर वह मन की आंखों से देखती है 'दिव्य-स्मृति-मन्दिर' के गीतघर मैं ब्रह्म संगीत का आयोजन चल रहा है। प्रकाश से चमचमाते कक्ष में धूप-बत्ती की गन्ध फैल रही है। उसके पास ही दिव्य का कमरा है जिसके द्वार पर पीतल के पटल पर लिखा है-दिव्य-स्मृति।

राजहंस की तरह सफेद जयपुरी संगमरमर पर काले अक्षरों में लिखा हुआ एक मुख्य फलक भवन के द्वार पर लगा होगा। इस भवन के बनने के पहले ही यह सब तैयार कर लिया जाएगा।...दिव्य-स्मृति....अपने स्वप्नमय साधना-मन्दिर के लिए यही नाम चुन रखा है शाश्वती ने।

साधना की सार्थकता है साध्य के प्रकाश में। और वह साध्य के अतीत में ही अपने को व्यक्त कर रही है।

दिन भर कारीगरों के साथ घूमती रहती है शाश्वती। जैसे पल भर के लिए आँखों से ओझल होते ही उसका सारा सपना धूल में मिल जाएगा।

मकान जब तोड़ी जा रहा था तब शाश्वती ने निरुपम से कहा था, ''कुछ दिनों के लिए अपने यहीं हमें आश्रय देना होगा, भैया! मैं तो अभी शरणार्थी हूँ!''....और यह कहकर वह पहले की तरह हँस पड़ी थी। और ऐसा तो कई बार हो ही जाता है। क्या हर समय यह याद रहता है कि हमारे लिए यह हँसने की घड़ी नहीं है, हँसना हमारे लिए शरम की बात है!

निरुपम ने खुश होकर कहा था, ''स्वागत है।''

अविवाहित भैया के घर में आकर ठहरने में जितनी असुविधाएँ हैं, उतनी ही सुविधाएँ भी। निरुपम के संसार में जूता गाँठने से लेकर चण्डी-पाठ करने तक का सारा काम करनेवाला एक ही आदमी था-सत्यचरण! उसके ऊपर दो-दो आदमी का भी पूरा बोझ डालकर शाश्वती जब चाहे बाहर जा सकती थी। सुबह-ही-सुबह सबसे पहले थोड़ा-बहुत जो भी मिले उसे गले से उतार रिक्शा पर बैठकर वह अकेली ही कारीगरों से काम कराने के लिए जा सकती है। भाभी जैसी अगर कोई औरत होती तो क्या यह मुमकिन होता?
तमाम असुविधाओं के बीच सत्यचरण जो भी खाना बनाता है वह चाहे और कुछ भी हो, खाने के योग्य नहीं होता।

पर इस समय इन सबसे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं।

अगर भैया बारह महीनों यही सब खाकर जिन्दा रह सकता है तो क्या मालव्य कुछ दिन नहीं रह सकते? शाश्वती के हाथ जैसा खाना भला और कितने लोग बना तकते हैं? भाई के घर शरणार्थी होकर आने से पहले ही वह नयन की माँ को उसके गाँव भेज चुकी थी।

नयन की माँ को उसने भविष्य के ढेर सारे सुनहरे सपने दिखा रहे हैं ताकि वह अपने गाँव में ही न रह जाए। ''इस सड़े-गले मकान में इतने वर्षों तक तुमने काम किया है नयन की माँ, लेकिन लौटोगी तो देखना रसोईघर में कितनी सारी सुविधाएँ होंगी।'' शाश्वती ने अपने-पराये लोगों के घरों की रसोई में जितनी सुविधाएँ देखी हैं उन सबको वह अपने रसोईघर में सहेजने के लिए चेष्टारत है।

बीच-बीच मैं निरुपम को भी हाथ बँटाना पड़ता है।

शाश्वती स्वभावतः गुस्सा दिखाती हुई कुछ जोर से कहती है, ''तुम्हारे जीजा जी

से अगर कुछ हो सकता। कहते रहे बाथरूम की दीवारों पर शीशे की टाइलें डलवाएँगे। अब भला यह कहीं मिलेगा? अच्छा, तुम्हीं बताओ भैया, यह सब सुनकर जी नहीं जलेगा? यह भार तुम्हीं को लेना होगा। तुम्हें याद है भैया, बचपन में छोटी बुआ के ससुर के मकान के बाथरूम में शीशे की टाइलें देखकर हम लोग कितने हैरान रह गये थे? उसके बाद कितनी ही चीजें देखीं हमने...लेकिन वह तो जैसे मेरे मन में ही बैठ गयी है। दुतल्ले पर जो सोने का कमरा बनेगा उससे लगे बाथरूम में यही टाइलें लगानी होंगी।

''ये पुराने ढंग के लकड़ी के स्विचबोर्ड, भला नयें मकान में आज यह सब कोई डलवाता भी है? आजकल तो सब कुछ पतला....स्तिक...शो...'' कहते-कहते वह रुक जाती है। फिर गम्भीर लेकिन भर्राये स्वर में बोली, ''विदेश से लौटने के बाद इन सब चीजों के बारे में लड़के ने कितनी-कितनी बातें की थीं। उसने कहा था- ''अब देखना....तुम लोगों के लिए कैसा मकान वनवाता हूँ।'' अचानक रो ही पड़ी वह,...''तो मैंने तो यही सोच रखा है कि मेरा बेटा ही यह मकान बनवा रहा है।''
कुछ देर बाद अपने को सँभाल लेने के बाद शाश्वती फिर टाइल का रंग समझाने लगी। ''हल्का नीला, आसमानी नीले से भी फीका.। छोटी बुआ के घर की तरह गाढ़ा नीला नहीं।''

इस तरह निरुपम के ऊपर ढेर सारे कामों का बोझ आ पड़ता है। दिव्य के कमरे में खाट के पास उसकी बड़ी-सी जो तसवीर लगायी जाएगी, उसके लिए देख-सुनकर एक अच्छा-सा फ्रेम भैया को ही लाना होगा। काफी चौड़ा-सा सफेद फ्रेम, और सफेदी के बीच उकेरी गयी नक्काशी।

मन्दिर-स्थापना के दिन उस तसवीर पर फूलों की बड़ी-सी माला लड़ी की तरह झूलेगी। कमरे की हर दीवार पर, बुकशेल्फ पर, मेज पर, जंगले के ऊपरी हिस्से पर....हर जगह दिव्य की अलग-अलग उम्र की तथा विभिन्न अवसरों की तसवीरें लगी होगी। उसके लिए एक ही तरह के अनेक फोटोफ्रेम चाहिए। और यह सब भैया के अलावा दूसरा कौन ला सकता है भला?

चूना, सीमेण्ट, रेत और धूल-मिट्टी के बीच घूमती शाश्वती को अचानक उस माला की सुगन्ध आ घेरती है। अगरबत्ती का धुआँ उसे स्पर्श करता है।

देखती है कि पूरे कक्ष में लोग चुप बैठे हुए हैं। गीत गाया जा रहा है-''तुम्हारे असीम में अपने मनःप्राण के साथ जितनी दूर मैं जाता हूँ कहीं भी दुख, कहीं भी मृत्यु कहीं विच्छेद नहीं पाता हूँ।''1
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1. ''तोमार असीमे प्राण मन लो जतो दूरे आमि जाय।
कोथाओ दुःख कोथाओ मृत्यु कोथाओ विच्छेद नाम।''
-रवीन्द्रनाथ का प्रसिद्ध गीत।
पड़ोस के मकान की एक लड़की यह गीत बहुत अच्छा गाती है। उसे ही बुलाना पड़ेगा। अपने सभी नाते-रिश्तेदारों के मकान से भी सबको बुलाना होगा।

जिन्होंने शोक और सन्ताप की इस घड़ी में शाश्वती के दरवाजे पर रेत सीमेण्ट, ईट की गाड़ियाँ आते देखकर पूणा से मुँह विचका लिया है और उससे कभी मिलने तक नहीं आये हैं।...व्यंग्य-भरी बातें की हैं और तीखी नजरों से देखा है। ऐसा नहीं है कि शाश्वती को इस बारे में कुछ पता नहीं है लेकिन तो भी वह जबड़ों को भींचकर अपने आँसुओं कौ पीती रही है। सिर्फ उस शुभघड़ी की प्रतीक्षा के लिए जब वह मनोरम दृश्य साकार होगा।

उस दिन वह देख-समझ पाएँगे कि शाश्वती ने इतने दिनों तक कौन-सी साधना की है। आखिर वह शुभ दिन भी आ ही गया।

अन्त में लम्बी तपस्या की सिद्धि का दिन भी आ पहुँचा।

आश्चर्य! क्या संयोग है! भवन के तैयार होते-न-होते दिव्य का जन्मदिन भी आ गया है। कार्तिक की पूर्णिमा। मन्दिर-स्थापना के लिए पंचांग के अनुसार भी एक शुभ दिन। यह संयोग शाश्वती के लिए अतिरिक्त लाभ है।

यह समझा जा सकता है कि इस स्मृति-मन्दिर स्थापना का मतलब है बेटे के जन्मदिन का उत्सव।

"हां, बेटे! एक टूटे-फूटे मकान के एक अँधेरे मुसे कमरे में तुम्हारा जन्म हुआ था। कल एक नये कक्ष-घर में तुम्हारा नया जन्म होगा।"

शाम के समय किसी भी दिन शाश्वती इस मकान में नहीं रही है।

दिन भर कारीगरों से काम करवाती रही है और शाम को उनकी छुट्टी करके वह भी लौट जाती रही है-अपने भाई के घर। एक रिक्शावाला तो जैसे माहवारी पर उसे ले जाने-ले आने के लिए लगा हुआ था।
मालव्य कुछ दिन पहले ही रिटायर हुए हैं। काफी समय है उनके पास। पर वह किसी तरह भी काम कराने के लिए नहीं आना चाहते। कह देते हैं, "यह सब तुम ही अच्छी तरह समझ सकती हो। मुझे कुछ पता नहीं।"

"आलसी लोगों के पास दिमाग होता ही नहीं कुछ जानने-समझने के लिए। पर एक बार के लिए तो जाओगे?'' शाश्वती टोकती।

"मुझे नहीं लगता त्हि वहाँ जाकर तुम्हारे काम में बाधा देने के सिवा मैं और कुछ कर पाऊँगा।"

लेकिन निरुपम जरूर आता है। सामान वगैरह लेने के लिए निरुपम ही साथ जाता है। कमरों में मोजाइक डलवाने के दिन, स्नानघर में टाइलें फिटिंग करवाने के दिन या छत पर लेण्टर डलवाने के दिन, निरुपम हमेशा हाजिर रहता है।

भवन का काम पूरी तरह समाप्त हुए बिना शाश्वती गृह-प्रवेश के लिए तैयार नहीं हुई थी। इसलिए भीड़ के घर में लम्बे समय तक रहना पड़ा है उसे। और मालव्य सेन अपने साले के छोटे-से फ्लैट के तीन तल्ले वाले बरामदे में मानो खूँटा गाड़कर बैठ गये हैं।

उत्सव से एक दिन पहले शाम को शाश्वती इस नये मकान में इसलिए चली आयी ताकि फर्श के ऊपर अल्पना वगैरह आज ही बनाकर रख छोड़ दे। आने के समय वह बोली थी, ''...तुम भी चलो न आज। शाम को क्या मैं अकेली जाऊँ?''

मालव्य ने अनमने ढंग से कहा, ''अकेली क्यों? तुम्हारा रिक्शावाला तो बॉडीगार्ड ही है तुम्हारा। लेकिन शाम के समय क्यों जा रही हो?''

''सोचती हूँ अभी ही अल्पना तैयार कर आऊँ। सुबह हड़बड़ी में ठीक बन नहीं पाएगी और मोजाइक पर जल्दी सूखेगी भी नहीं।''

''कोई ज्यादा देर लगेगी?''

''नहीं, देर किस बात की? मैं क्या इतनी आलसी हूँ।'' कहकर बॉडीगार्ड के साथ ही चली आयी थी शाश्वती। लेकिन पीतल की कटोरी हाथ में लिये रिक्शा से नीचे उतरते ही स्तब्ध रह गयी थी वह।

उसे जैसे काठ मार गया। सामने देखती रही।
यह क्या?

यह किसका मकान है?

पर सचमुच का यह मकान है न कोई अलौकिक दृश्य। नीलाकाश के नीचे दमकती चाँदनी में यह दृश्य जैसे अचानक ही फूट पड़ा है। यह कैसा चमत्कार है?

कई पुराने काई लगे, टूटे-फूटे एक-मंजिले मकानों के बीच सिर उठाये खड़ा यह दोमंजिला भवन, सचमुच ही बड़ा आश्चर्यजनक-सा लग रहा है।

निर्जन रास्ते पर अकेली खड़ी शाश्वती को जैसे विश्वास नहीं हो रहा कि इतने दिनों में धीरे-धीरे उसने एक ऐसा खूबसूरत तिलिस्म खुद ही खड़ा कर दिया है। इस भवन को श्रीमती शाश्वती सेन ने ही रूप प्रदान किया है।

नहीं। हर रोज, हर पल देखने के बाद भी शाश्वती यह नहीं समझ पायी थी कि उसके सपनों का भवन इतना सुन्दर बन जाएगा।

यह शाश्वती के जीवन भर के ध्यान, ज्ञान, स्वप्न का साकार रूप है। सामने के कक्ष की छत मन्दिर के शिखर की तरह है। शायद इसी से यह अलौकिकता आ गयी है। भगवान यह सब तुम्हारी ही अशेष कृपा है। शाश्वती भला कब सोच पायी थी कि यह सब कभी सम्भव भी होगा।

''अन्दर नहीं जाओगी, मौसी?''

लगता है बॉडीगार्ड को मौसी की इस खोयी हुई अवस्था का पता चल गया है। समझ लिया है कि खटते-खटते इनका शरीर बेदम हो गया है।

"हां, जाती हूँ।" शाश्वती जैसे अपने में वापस लौट आती है।

ताला खोलकर वह अन्दर आ गयी। द्वार के पास की उसने वत्ती जलायी। आज सारी रात इस बत्ती को जलने देगी। बहुत सारा सामान है मकान में।
इस मकान में भला वह कहीं अल्पना बनाएगी? चारों तरफ तो अल्पना ही अल्पना है। सबसे सुन्दर डिजाइन की मोजाइक पसन्द करके उसने सारे मकान में डलवाया है।

'क्षतिपूर्ति' की राशि से अगर यह सारा कुछ नहीं होता तो कोई बात नहीं। डी. के. सेन जिस कम्पनी में था, वहाँ से भी जो कुछ मिलना है उसके उत्तराधिकारी भी तो सेन दम्पती ही हैं।

अल्पना समाप्त कर मन्दिर-कक्ष में आ बैठी शाश्वती-दो तरफ की बत्ती जलाकर। नया बिस्तर नये तकिये उस पर सुन्दर-सा बेड-कवर। सिरहाने के सहारे रखी हुई है वही दिव्य सेन की खूबसूरत सफेद फ्रेम में मढ़ी हुई तसवीर।

विदेश से वापस आने के बाद ही उसने यह तसवीर खिचवायी थी।

रोबदार चमकीला चेहरा। कसा और भरा-पूरा कद्दावर शरीर।

पलँग के पास सिर रखकर पागलों की तरह रो पड़ी थी शाश्वती। "...यह सब तू ऊपर से देख बेटे...तेरी पगली नासमझ माँ ने तेरे लिए क्या-क्या किया है। बेटे, सब तेरा है। हम सब तो इस मन्दिर के चाकर हैं...बस।"

रिक्शे की घण्टी सुनाई दे रही है।

तेज...और फिर उससे भी तेज।

आँखें पोंछकर, सभी दरवाजों पर ताला लागकर शाश्वती नीचे उतर आती है। बाहरी दरवाजे पर ताला लगाने जा रही थी कि तभी रिश्तेदारी में जेठ का छोटा नाती किसी दरवाजे से बाहर निकल आया और बोला, "सौ साल जिओगी दादी माँ, तुम्हारी एक चिट्ठी है। डाकिया यहीं डाल गया था।" और फिर अँधेरे में गायब हो गया।

लिफाफे पर अँग्रेजी में टाइप किया हुआ पता लिखा है।
घर लौटकर पढ़ेगी, यह सोचकर शाश्वती चिट्ठी को बैग में रखने जा रही थी, तभी उसे सन्देह हुआ कि डन लोपों ने ईसे खोलकर पढ़ तो नहीं लिया? पत्र को निकालकर देख ही लिया।

नहीं। भलमनसाहत है कि खोला नहीं है।

लेकिन पता टाइप करके शाश्वती को कौन चिट्ठी भेजेगा? मोहर कहाँ की लगी है? कौन-सा देश है? कौन-सा शहर है?

एक अनजाने भय सै शाश्वती की छाती सिहर उठी। घर तक ले जाने का भी धैर्य उसमें नहीं रहा। दरवाजे के बल खड़ी होकर उसने लिफाफा फाड़ दिया।

लेकिन शाश्वती क्या इस तरह खड़ा रह सकी? सख्त लोहे के दरवाजे का

सहारा लेने के बाद भी? उसी दिन की तरह क्या वह रक्तहीन और भावशून्य होकर बैठ नहीं गयी? उस दिन, तेरह नवम्बर उन्नीस सौ अठहत्तर के दिन, जब आकाशवाणी से यह खबर प्रसारित हुई थी कि श्रीलंका जानेवाला विमान अचानक ध्वस्त होकर समुद्र में जा गिरा है?

पर किस तरह खड़ी रह सकती थी शाश्वती नाम की वह महिला,...अचानक यह देखकर कि समुद्र की अतल गहराई को दूर धकेलकर एक अपरिचित व्यक्ति इस पवित्र स्मृति-मन्दिर में आकर एक हलकी-सी चारपाई के सिरहाने रखे सफेद फ्रेम में मढ़ी तसवीर को हटाकर, उस जगह पर अपना कब्जा जमा लेना चाहता है।

वह कब्जा करके ही दम लेगा। क्योंकि वह लम्बा-चौड़ा कद्दावर-सा व्यक्ति जिसके कभी मजबूत चार हाथ-पैर थे, उनमें से तीन को खोकर, किसी तरह बायें हाथ से टेढ़े-तिरछे अक्षरों में लिखकर बता रहा है कि बहुत दिनों की नाकामयाब कोशिशों के बाद यह पत्र किसी तरह पोस्ट कर पा रहा है। दूसरी बार इस चेष्टा की भी कोई सम्भावना नहीं है शायद। इसलिए पत्र पाते ही उसका यहाँ से उद्धार करके ले जाने का तुरत इन्तजाम करो।

दरवाजे वाली बत्ती को आज सारी रात जलाकर रखना तय था। शाश्वती को इस बात की याद नहीं रही। उसने बत्ती बन्द कर दी। इसके साथ ही नीलाकाश के नीचे उभरा वह सुन्दर दृश्य भी समाप्त हो गया। शाश्वती के जीवन के केन्द्र-बिन्दु में एक लम्बे-चौड़े और चौकोर फ्रेम में जो एक ठहरी हुई तसवीर थी, वह एकाएक मिट गयी।

इसी अँधेरे में चिट्ठी को धीरे-से बैग में रखकर शाश्वती रिक्शे पर जा बैठी।


(अनुवाद : रणजीत कुमार साहा)

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