अजनबी (फ्रेंच उपन्यास) : अल्बैर कामू, अनुवाद : राजेंद्र यादव

The Stranger/Outsider (French Novel in Hindi) : Albert Camus, Tr. Rajendra Yadav

फ्रांस के अमर लेखक, नोबेल पुरस्कार-विजेता अल्बैर कामू मानव-अन्तर्मन के संवेगों और कुंठाओं को अनावृत करने में पटु हैं। नियति में उनका विश्वास है और कृत्य की स्वतंत्रता एक निर्दिष्ट परिधि में ही वह मानते हैं। आरम्भ से अन्त तक पाठक की रुचि को साधे रखनेवाले इस उपन्यास में नायक के समस्त क्रिया-कलाप और उसके साथ घटी घटनाओं में उनका यही जीवन-दर्शन व्यक्त हुआ है।

विश्व के विशिष्ट उपन्यास-साहित्य में स्थान पानेवाले उपन्यास ‘अजनबी’ की कथा-वस्तु न केवल हमारे मर्म को मथ देने में सफल होती है, वरन् हमें जीवन और कर्म, और इन दोनों के उद्देश्यों के सम्बन्ध में भी सोचने पर विवश करती है।

सन् 1942 में प्रकाशित इस उपन्यास को द्वितीय विश्वयुद्ध से उत्पन्न हताशा और विसंगतियों को अभिव्यक्त करनेवाली कृति माना जाता है। उपन्यास के नायक से कामू यहाँ जीवन की निरुद्देश्यता और मृत्यु की अनिवार्यता को रेखांकित करते हैं; नायक की समाज से विरक्ति और उदासीनता का जैसा मार्मिक चित्रण कामू ने इस उपन्यास में किया है, वह आज भी स्तब्ध कर देता है।

पहला भाग : एक

आज माँ की मृत्यु हो गई। हो सकता है, कल हुई हो—ठीक-ठीक नहीं बता सकता। ‘आश्रम’ से आए तार में बस इतना ही लिखा है, “तुम्हारी माँ का स्वर्गवास हो गया। अन्त्येष्टि कल है।

हार्दिक संवेदना।” इस मज़मून में तो काफी गुंजाइश है। हो सकता है, मृत्यु कल ही हुई हो।मारेंगो का वृद्धाश्रम अल्जीयर्स नगर से कोई पचासेक मील दूर है। दो बजे की बस लूँ तो दिन छिपे से काफी पहले पहुँच लूँगा। शव के सिरहाने ‘रतजगा’ की प्रथा निभाकर कल शाम तक आसानी से लौटा भी जा सकेगा। अपने साहब से दो दिन की छुट्टी माँग ली है। ऐसे मौके पर वे मना भी कैसे करते? फिर भी जाने क्यों, मुझे लगा जैसे वे कुछ झुँझला उठे। मैं बिना सोचे ही बोल पड़ा—“माफ कीजिए साहब, इसमें देखिए, मेरा तो कोई कसूर नहीं...”

बाद में खयाल आया कि यह सब मुझे नहीं कहना था। मुझे माफी माँगने की क्या ज़रूरत थी? यह तो खुद उन्हें ही चाहिए था कि हमदर्दी जताते या ऐसी ही कोई औपचारिक बात कहते। परसों गमी के कपड़ों में देखकर, शायद ऐसा कुछ कहें। फिलहाल तो लगता ही नहीं कि माँ नहीं रहीं। अन्त्येष्टि से पक्का हो जाएगा—कहिए, बाकायदा सरकारी मुहर लग जाएगी।मैंने दो बजे की बस ली। चिलचिलाती गर्म दोपहर का समय था। रोज की तरह आज भी मैंने सेलेस्ते के रेस्त्राँ में खाना खाया था। आज सब कोई बेहद मेहरबान थे। सेलेस्ते बोला, “माँ की बराबरी कोई नहीं कर सकता।” जब मैं बाहर आया तो सब के सब मुझे दरवाज़े तक छोड़ने आए। आते-आते तो एकदम हड़बड़ी-सी मच गई। ऐन मौके पर मुझे काली टाई और बाँह पर बाँधने का काला मुहर्रमी पट्टा लाने के लिए इमानुएल के यहाँ भागना पड़ा। उसके चाचा भी कुछ ही महीने पहले गुज़रे थे, सो उसके पास यह सब था।

बस दौड़ते-दौड़ते पकड़ी। सड़क और आसमान का दौड़ता चौंधा, पैट्रोल का बदबूदार धुआँ और रास्ते के झटके और फिर ऊपर से, वह भाग-दौड़—शायद इसीलिए मैं बैठते ही ऊँघने लगा। बहरहाल, ज़्यादातर रास्ता सोते-सोते कटा। आँखें खुलीं तो देखा, एक सिपाही पर लदा हूँ। उसने बत्तीसी चमकाकर पूछा, क्या मैं दूर से बस में बैठा आ रहा हूँ? बात करने को मेरा मन नहीं था। इसलिए सिर्फ सिर हिलाकर बात खत्म कर दी।

गाँव से आश्रम की दूरी कोई मीलभर से ज़्यादा होगी। पैदल ही रास्ता तय किया। सीधे माँ को देखना चाहा तो चौकीदार बोला कि पहले वार्डन से मिलना होगा। वार्डन व्यस्त थे इसलिए थोड़ी राह देखनी पड़ी। जितनी देर मैं बैठा राह देखता रहा, चौकीदार मुझसे गप्पें लड़ाता रहा। फिर मुझे दफ्तर ले गया। वार्डन सफेद बालोंवाला ठिगना-सा आदमी था। कोट के काज में ‘लीजन ऑफ ऑनर’ का प्रतीक, छोटा-सा गुलाब, लगाए हुए (यह पदक 1802 में नेपोलियन प्रथम ने फौजी या सामान्य जीवन में की गई महत्त्वपूर्ण सेवाओं के बदले चलाया था)। वार्डन अपनी नीली-नीली पनीली आँखों से मुझे देर तक देखता रहा। फिर हमने हाथ मिलाए। मेरे हाथ को वह इतनी देर हाथ में लिये रहा कि मुझे बेचैनी महसूस होने लगी। इसके बाद मेज पर रखे रजिस्टर को उलट-पलटकर बोला :

“मदाम म्योरसोल तीन साल पहले इस आश्रम में आई थीं। जीविका का उनका अपना कोई साधन नहीं था इसलिए उनका सारा भार आपके ही ऊपर था।”

मुझे ऐसा लगने लगा मानो वह मुझे किसी बात के लिए अपराधी ठहरा रहा हो, इसलिए मैंने सफाई देनी शुरू की तो उसने बीच में ही टोक दिया, “बेटा, तुम अपनी सफाई क्यों दे रहे हो? मैंने तो खुद उनका सारा पिछला रिकॉर्ड देखा है। तुम तो खुद इस स्थिति में नहीं थे कि ठीक से, माँ के भरण-पोषण का बोझ उठा सको। अपनी देख-भाल के लिए उन्हें हर वक्त एक आदमी की ज़रूरत थी। और मुझसे छिपा तो नहीं है कि तुम्हारी-जैसी नौकरी करनेवाले लड़के को तनखाह ही कितनी मिलती है? बहरहाल, आश्रम में वे काफी खुश ही थीं।”

मैंने कहा, “जी हाँ साहब, मेरा भी यही विश्वास है।”

इस पर वह बोला, “अपनी उम्र के कई लोगों से उनकी अच्छी पटती थी। लोग अपनी पीढ़ी वालों में ही ज़्यादा खुश रहते हैं। तुम तो खुद अभी काफी छोटे हो, उनके साथी की कमी थोड़े ही पूरी कर सकते थे।”

बात सही थी। जिन दिनों हम लोग साथ-साथ रहते थे, माँ मुझे बस देखती रहती थीं। बातचीत हम लोगों में शायद ही कभी हुई हो। आश्रम के पहले कुछ हफ्ते तो वे काफी रोईं-धोईं। लेकिन यह सब रोना-धोना मन न लगने के कारण था। दो-एक महीने बाद तो यह हालत हो गई कि उनसे आश्रम छोड़ने के लिए कहो तो रोने लगें। यह भी उनको भयानक सजा देना था। यही कारण था कि पिछले साल उनसे बहुत ही कम मैं मिलने गया। दूसरे, वहाँ जाने का अर्थ यह भी था कि अपना एक रविवार बिगाड़ो...। बस तक जाने की तबालत उठाओ, टिकट खरीदो, सफर में दोनों तरफ से दो-दो घंटे बैठे-बैठे धूल फाँको...आने और जाने में पक्के दो-दो घंटे—खैर, इस सारे सिरदर्द का तो जिक्र ही छोड़िए...

मैंने ध्यान ही नहीं दिया कि वार्डन क्या बोले चला जा रहा है। आखिर में वह बोला, “अच्छा तो अब, मेरा खयाल है तुम माँ के दर्शन करोगे?”

मैंने कुछ जवाब नहीं दिया और उठ खड़ा हुआ। आगे-आगे वह दरवाजे की तरफ बढ़ा। जीना उतरते हुए उसने समझाया, “तुम्हारी माँ का शव मुर्दाघर में रखवा दिया है—जिससे दूसरे बूढ़ों का मन खराब न हो। मेरी मंशा समझे न? यहाँ तो हर वक्त कोई न कोई मरता ही रहता है। हर बार दो-तीन दिन इन लोगों की हालत खराब हो जाती है। यानी लामुहाला, हमारे नौकर-चाकरों को फालतू काम और फिजूल परेशानी...”

हमने एक खाली जगह पार की। यहाँ छोटे-छोटे दलों में बैठे बूढ़े आपस में बातें कर रहे थे। हमें आता देखकर चुप हो गए। हम आगे निकले तो पीछे से फिर बातचीत शुरू हो गई। उनके स्वर से मुझे पिंजड़े में बन्द पहाड़ी तोतों की याद आ गई—इन लोगों का स्वर अलबत्ता उतना तीखा नहीं था। एक छोटे और कम ऊँचे-से मकान के दरवाज़े के सामने आकर वार्डन खड़ा हो गया :

“तो मोशिए म्योरसोल, मैं यहीं से विदा लूँगा। किसी काम के लिए ज़रूरत हो तो दफ्तर में हूँ ही। अन्त्येष्टि कल सुबह करने का विचार है। तब तक तुम अपनी माँ के ताबूत के पास रतजगा भी कर लोगे। तुम्हारा खुद का भी तो मन होगा ही। हाँ, एक बात और, तुम्हारी माँ के साथियों ने बताया है—उनकी कामना थी कि उन्हें चर्च के नियमों के अनुसार ही दफन किया जाए। यों मैंने इसकी सारी व्यवस्था कर दी है, लेकिन सोचा तुम्हें भी खबर दे दूँ...”

मैंने कहा, “शुक्रिया।” जहाँ तक मुझे अपनी माँ का पता है, वे खुल्‍लम-खुल्ला तो नास्तिक नहीं थीं, लेकिन इस धर्म-कर्म की तरफ उन्होंने अपने जीवन में कभी ध्यान नहीं दिया।

मैंने मुर्दाघर में कदम रखा। कमरा खूब रोशन और ऐसा साफ-स्वच्छ था कि कहीं एक दाग नजर नहीं आता था। दीवारें सफेदी से पुती थीं। एक काफी बड़ा रोशनदान था। फर्नीचर के नाम कुछ कुर्सियाँ और तिपाइयाँ पड़ी थीं। दो तिपाइयाँ कमरे के बीचोबीच खुली रखी थीं और उन पर ताबूत टिका था। ढक्कन ऊपर लगा था, लेकिन पेच बस जरा-जरा घुमाकर छोड़ दिए गए थे। निकल की पॉलिशवाले पेचों के सिरे, गहरे अखरोटी रंग के तख्ते के ऊपर निकले खड़े थे। एक अरब औरत—मुझे लगा नर्स—अर्थी के पास बैठी थी। वह नीला शमीज़ पहने थी। बालों पर शोख रंग का रूमाल बँधा था।

पीछे-पीछे ही चौकीदार भी आ पहुँचा। उसकी साँस फूली थी, जरूर दौड़ता-दौड़ता आया होगा। वह बोला, “अभी तो हमने ढक्कन यों ही रख दिया है। वार्डन साहब का हुकुम था कि आप आएँ तो माँ के दर्शन करने के लिए पेच खोल दूँ।”

वह ताबूत की ओर बढ़ा तो मैंने उसे रोक दिया—“नहीं, नहीं, तकलीफ करने की ज़रूरत नहीं।”

“ऐंऽऽ? क्या कहा?” अथाह आश्चर्य से उसके मुँह से निकला— “आप नहीं चाहते कि मैं...”

“नहीं...” मैंने जवाब दिया।

पेचकस तो उसने वापस जेब में रख लिया, लेकिन उसकी फटी-फटी आँखें मुझ पर टिकी रहीं। तब मुझे लगा कि यों मना नहीं करना चाहिए था। इस खयाल से मैं जरा-सा सकपकाया। कुछ पल मुझे देखते रहकर उसने पूछा, “क्यों?” स्वर में भर्त्सना नहीं, केवल जिज्ञासा थी।

“भई, इस क्यों का जवाब तो बड़ा मुश्किल है,” मैंने कहा।

वह अपनी पकी-पकी मूँछों में बल देता रहा। फिर बिना मुझसे आँखें मिलाए, मुलायम स्वर में बोला, “अच्छा, अब मैं समझा।”

आदमी देखने में अच्छा लगता था—नीली-नीली आँखें और फूले लाल गाल। मेरे लिए उसने ताबूत के पास ही एक कुर्सी खींच दी और खुद ठीक उसके पीछे बैठ गया। नर्स उठकर दरवाज़े की तरफ जाने लगी। चौकीदार के पास से गुजरी तो वह मेरे कान में बुदबुदाकर बोला, “इस बिचारी को फोड़ा हो गया है।”

अब मैंने जरा और गौर से उसे देखा। आँखों के ठीक नीचे, सिर के चारों ओर पट्टी लपेटी हुई थी। नाक की उठान के आसपास का हिस्सा दबकर चपटा हो गया था और चेहरे पर उस सफेद आड़ी पट्टी के सिवा कुछ नहीं दिखता था।उसके जाते ही चौकीदार भी उठ खड़ा हुआ, “अब आप यहाँ अकेले बैठें।

”पता नहीं, जवाब में मैंने जाने क्या इशारा किया कि बाहर जाने के बजाय वह मेरी कुर्सी के पीछे आकर खड़ा हो गया। इस कुलबुलाहट से मुझे बेचैनी होने लगी कि कोई मेरे पीठ पर जमा खड़ा है। दिन ढल रहा था और सारे कमरे में सुखद-सुकुमार धूप का ज्वार उमड़ पड़ा था। रोशनदान के शीशे पर दो ततैये भनन-भनन कर रहे थे। मैं ऐसा उनींदा हो रहा था कि आँखें ही नहीं खुल रही थीं। बिना पीछे मुड़े ही मैंने चौकीदार से पूछा, “इस आश्रम में तुम्हें कितने दिन हो गए?” “पाँच साल” खट् से ऐसा बँधा-बँधाया उत्तर आया कि लगा मानो वह मेरे सवाल की राह ही देख रहा हो।

अब तो बस, उसकी मशीन ही चालू हो गई। दस साल पहले अगर कोई उसे बताता कि तुम्हारी जिन्दगी मारेंगो के आश्रम में चौकीदारी करते बीतेगी तो वह हरगिज-हरगिज विश्वास न करता। बताया, उम्र चौसठ साल है और रहनेवाला पैरिस का है।

जैसे ही उसने यह बताया तो मैं बिना सोचे-समझे बोल उठा, “अच्छा, तो तुम यहाँ के रहनेवाले नहीं हो?”

तब याद आया, वार्डन के पास ले जाने से पहले भी उसने माँ के बारे में कुछ बताया था। वह बोला, “इस प्रदेश की, खासकर इन निचले मैदानों की गर्मी ऐसी है कि माँ को जल्दी से जल्दी कब्र देना अच्छा है। पैरिस की बात और है। वहाँ तो तीन दिन, कभी-कभी तो चार-चार दिन शव को रख लेते हैं और कुछ नहीं बिगड़ता।” फिर वह बताता रहा कि अपनी जिन्दगी के सबसे अच्छे दिन उसने पैरिस में बिताए हैं, अब तो वे दिन भुलाए भी नहीं भूलते। कहने लगा, “और यहाँ तो समझिए, सारे काम आँधी की तरह होते हैं। अभी किसी के मरने की खबर सुनकर भी नहीं चुके कि लीजिए साहब, दफनाने के लिए खदेड़ दिए गए।”

“बस, बस,” बीच में ही उसकी पत्नी बोल पड़ी, “इन बिचारों को ये सब बताने की तुम्हें क्या ज़रूरत?” झेंपकर बुड्ढा माफी माँगने लगा। मैंने कहा, “नहीं, नहीं। कोई बात नहीं।” मुझे सचमुच उसकी कही बातें बड़ी दिलचस्प लग रही थीं। मैंने इधर पहले ध्यान ही नहीं दिया था।

अब उसने फिर बताना शुरू कर दिया कि आश्रम में वह भी साधारण आश्रमवासी के रूप में ही आया था। चूंकि कद-काठी में अब भी भला-चंगा था, सो जब चौकीदारी की जगह खाली हुई तो अर्जी दे दी।

मैंने कहा, “तो क्या हुआ ? हो तो तुम अब भी दूसरे आश्रमवासियों की तरह ही।” मगर वह इस बात को मानने को तैयार नहीं था। अपने को वह कुछ ‘अफसरनुमा’ समझता था। खुद से कम उम्रवाले आश्रमवासियों की बात आती तो वह उनका जिक्र “वे लोग” या कमी-कभार “उन बूढ़ों के लिए” कहकर करता। उसकी इस आदत से पहले-पहल मैं चौंका भी था। खैर, अब उसका दृष्टिकोण मेरी समझ में आ गया। चौकीदार के रूप में ही सही, उसकी अपनी एक हैसियत और बाकी लोगों पर कुछ धाक तो थी ही।

तभी नर्स लौट आई। रात कुछ ऐसी तेजी से हुई कि लगा, रोशनदान के पार का आसमान अचानक काला पड़ गया। चौकीदार ने बत्तियाँ जला दीं। उनके चौंधे ने जरा देर के लिए मुझे एकदम अन्धा-सा बना दिया।

उसने सलाह दी कि मैं आश्रम के लंगर में चलकर भोजन कर लूँ। लेकिन मुझे भूख नहीं थी। इस पर उसने कहा, अगर मैं कहूँ तो वह मेरे लिए एक गिलास बिना दूध की कॉफी ले आए। काली कॉफी मेरा प्रिय पेय है सो कह दिया, “शुक्रिया।” कुछ मिनटों में वह एक ट्रे उठा लाया। कॉफी पीने के बाद मुझे सिगरेट की तलब लगी। लेकिन मन में धर्म-संकट था कि इस मौके पर, माँ की उपस्थिति में सिगरेट पियूँ या न पियूँ। जब एक बार फिर सोचा तो कोई खास हर्ज नहीं लगा। अत: एक सिगरेट मैंने चौकीदार को भी पेश की। हम दोनों सिगरेट पीते रहे।

थोड़ी देर बाद उसने फिर बातें करनी शुरू कर दीं।

“बात यह है कि शव के पास आपके साथ-साथ रतजगे के लिए आपकी माँ के और साथी-संगी भी आनेवाले है। जब किसी की मृत्यु हो जाती है तो हम लोग हमेशा यहाँ रतजगा करते हैं। अच्छा तो मैं जाकर, कुछ और कुर्सियाँ और बिना दूध की कॉफी का बर्तन ले आऊँ।”

सफेद-सफेद दीवारों पर पड़ती रोशनी की चमक मेरी आँखों में चुभ रही थी। मैंने पूछा, “इनमें से एक बत्ती बुझा दूँ ?” उसने बताया, “यह नहीं होगा। बत्तियाँ सब इस ढंग से लगाई गई हैं कि या तो सारी की सारी जलती हैं या सब बुझ जाती हैं।” इसके बाद मैंने इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया। वह बाहर जाकर कुर्सियाँ ले आया। उन्हें ताबूत के चारों ओर लगाकर उसने एक कुर्सी पर कॉफी का पॉट और दस-बारह प्याले रख दिए। इसके बाद, ठीक मेरे सामने माँ के पास वह बैठ गया। नर्स कमरे के दूसरे कोने में मेरी ओर पीठ किए बैठी थी। कर क्या रही है यह तो नहीं दिखाई देता था, लेकिन उसकी बाँहों के हिलने के ढंग से अन्दाज लगा कि सलाइयों से कुछ बुन रही है। मुझे बड़ा आराम मिल रहा था। कॉफी ने तन-मन में सुखद ऊष्मा भर दी थी। खुले दरवाज़े से फूलों की भीनी-भीनी गन्ध और रात की ठंडी-ठंडी हवा के झोंके आ रहे थे। शायद कुछ पल के लिए मेरी आँखें भी झपक गईं।

अजब-सी सरसराहट की आवाज कानों में पड़ी तो जागा। बन्द ही बन्द आँखों में मुझे लगा मानो रोशनी पहले से भी ज़्यादा तीखी हो गई है; किसी परछाईं का कहीं नामो-निशान नहीं है और हर चीज का एक-एक कोण और कटाव निर्ममता से आखों में नक्‍श हुआ जा रहा है। माँ के संगी-साथी बूढ़े-बूढ़ियाँ आने लगे थे। उस मनहूस चौंधा मारती सफेदी से तिरछे होकर गुजरते हुए उन्हें मैंने गिना—एक...दो...तीन...दस। उन लोगों के बैठने पर एक कुर्सी तक के चरमराने का स्वर नहीं सुनाई दिया। उस दिन, उन लोगों को मैंने जितना साफ-साफ देखा, शायद जिन्दगी में कभी किसी चीज को उतना साफ नहीं देखा—उनके चेहरे-मुहरे, कपड़े-लत्ते—एक तिनका भी मेरी आँखों से नहीं छूटा। और फिर भी मजा यह कि मुझे उनकी एक भी बात, एक भी आवाज नहीं सुनाई देती थी। मैं विश्वास ही नहीं कर पा रहा था कि वे सचमुच हैं भी या नहीं।

लगभग सभी महिलाओं ने सामने एप्रन बाँध रखे थे। सुतलियाँ ऐसे कसकर कमर में बँधी थीं कि उनके बड़े-बड़े पेट और भी बाहर निकल आए थे। कितने बड़े-बड़े होते हैं इन औरतों के पेट इस तरफ कभी मैंने गौर ही नहीं किया था। हाँ तो, अधिकांशत: पुरुष अफीमचियों और व्यभिचारियों जैसे सूखे-मरियल थे और हाथों में छ‍ड़ियाँ लिये थे। उनके चेहरे की सबसे खास बात मुझे यह लगी कि उनकी आँखें दिखाई ही नहीं देती थीं। झुर्रियों के झुरमुट में बस एक निस्तेज और निर्जीव रोशनी-भर नजर आती थी।

बैठ चुकने के बाद, उन लोगों ने मुझे देखना शुरू कर दिया। कुत्ते की दुम की तरह उनकी गरदनें भद्दी तरह थर-थर करती थीं और अपने दन्तहीन मसूड़ों से वे बैठे-बैठे होंठ निचोड़े जा रहे थे। मैं तय नहीं कर पा रहा था कि मुझे पहली बार देखकर ये लोग मेरे स्वागत में कुछ कहना चाहते हैं या उनकी यह हरकत सिर्फ बुढ़ापे की कमजोरी के कारण है। मैं तो यह भी मान लेने को तैयार था कि वे लोग अपने-अपने ढंग से मेरा स्वागत ही कर रहे हैं, मगर चौकीदार को घेरकर उनका यों बैठना, संजीदगी से मुझे घूरे जाना, और सिर मटकाना देखकर मन में बड़ा अजब-अजब लगता था। पल-भर को दिमाग में एक बेतुकी-सी बात आई—मानो ये सब के सब मेरा इन्साफ करने बैठे हैं।

कुछ मिनट बाद, औरतों में से एक ने रोना शुरू कर दिया। वह दूसरी लाइन में थी और उसके आगे एक और औरत पड़ती थी, इसलिए मुझे उसका चेहरा नहीं दिखाई दिया। ठीक समय पर उसके मुँह से रुक-रुककर घुटी-घुटी हल्की-सी सिसकी निकलती थी। लगता था जैसे ये सिसकियाँ कभी बन्द ही नहीं होंगी। दूसरों को जैसे इस बात की कोई फिक्र ही नहीं थी। सब के सब अपनी-अपनी कुर्सियों में दबे-सिमटे गुमसुम बैठे थे और ताबूत, या अपनी-अपनी छड़ियों या जो भी चीज सामने पड़ती थी बस, उसे ही एकटक देखे जा रहे थे। औरत का रोना जारी रहा। मुझे बड़ा आश्चर्य भी हुआ, इस औरत को तो मैं जानता तक नहीं। मन में आया कि चुप करा दूँ, लेकिन उससे बोलने की हिम्मत नहीं पड़ी। कुछ देर बाद चौकीदार ने उसके ऊपर झुककर कान में कुछ फुसफुस किया। जवाब में औरत ने केवल सिर झटका और मुँह ही मुँह मैं कुछ बोली—जो सुनाई नहीं दिया। लेकिन रोना अपनी उसी गति से चलता रहा।

चौकीदार उठकर अपनी कुर्सी को मेरे बराबर सरका लाया। पहले तो वह चुपचाप बैठा रहा फिर बिना मेरी ओर देखे बताने लगा, “इसका आपकी माँ से बड़ा प्रेम था। कहती है, दुनिया में अकेली आपकी माँ ही इसकी सगी थी। अब कोई भी नहीं रहा।”

मैं क्या कहता? इसके बाद काफी देर सन्नाटा छाया रहा। अब उस औरत का रोना-सुबकना काफी कम हो गया था। कुछ देर नाक छिनकने और सूँ-सूँ करने के बाद अब वह भी शान्त हो गई।

नींद तो नहीं, हाँ, थकान जबर्दस्त महसूस हो रही थी। टाँगें बुरी तरह दुख रही थीं। मुझे कुछ ऐसी अनुभूति हो रही थी मानो इन लोगों की चुप्‍पी मुझे पीसे डाल रही है। एकदम सन्नाटा था और अगर कुछ सुनाई देती थी तो काफी देर रुक-रुककर आती एक अजीब-सी आवाज। पहले तो मैं चकराया कि यह कैसी आवाज है, लेकिन ध्यान से सुना तो समझ में आ गया। बैठे-बैठे बुड्ढे अपने थुल-थुल गाल चूसते थे और इससे वे चुसुर-चुसुर की अजब-अजब आवाज़ें होती थीं जिनसे मैं पहले-पहल डर गया था। सब के सब अपने-आप में ही ऐसे डूबे थे कि शायद उन्हें इस बात का ध्यान तक नहीं था कि वे ऐसा कुछ कर भी रहे हैं। मुझे तो लगा कि बीचोबीच रखे शव का भी उनके लिए कोई अर्थ नहीं है, लेकिन अब सोचता हूँ, वह मेरा भम्र था।

चौकीदार ने एक-एक करके हम सबको कॉफी दी तो हमने कॉफी पी। इसके बाद क्या-क्या हुआ मुझे याद नहीं आता। जैसे-तैसे रात गुजर गई। बस, एक ही बात का खयाल है। बीच में आँखें खुलीं तो देखा एक को छोड़कर बाकी सारे के सारे बुड्ढे अपनी कुर्सियों में गुड़ी-मुड़ी होकर सो गए हैं। वह अकेला बुड्ढा अपनी छड़ी को दोनों हाथों में जकड़े, उन पर अपनी ठुड्डी टिकाए मुझे लगातार यों घूरे जा रहा था मानो मेरे जागने की ही राह देख रहा हो। पर फिर मुझे फौरन ही दुबारा झपकी आ गई। कुछ देर बाद एक बार फिर नींद टूटी। टांगों का दर्द बढ़कर अब पाँव-सोने जैसी चुनचुनाहट पैदा करने लगा था।

ऊपर रोशनदान के पार पौ-फटे का उजाला फैलने लगा। दो-एक मिनट बाद एक और बूढ़े की भी आँखें खुल गईं और उसने ‘खो-खो’ करके बार-बार खाँसना शुरू कर दिया। चारखाने के बड़े-से रूमाल में वह खँखार थूक लेता था। और उसके इस तरह हर बार थूकने के साथ ही लगता मानो इसने अब कै की। इस खाँसी-थूक से औरों की भी नींद खुल गई। चौकीदार ने आकर सूचना दी कि चलने का समय हो गया। रातभर के कष्टप्रद रतजगे के बाद सबके चेहरे भूरी राख-से बुझे-बुझे हो गए थे। यों तो हमने आपस में एक भी बात नहीं की थी, लेकिन जब एक-एक करके सबने मुझसे हाथ मिलाए तो एक बात से बड़ा आश्चर्य हुआ। लगा, मानो सारी रात साथ बैठकर काटने की इस क्रिया ने हम लोगों के बीच एक निकटता और आत्मीयता का भाव जगा दिया है।

मेरा तो बुरा हाल था। चौकीदार मुझे अपने कमरे में ले आया। यहाँ मैंने हाथ-मुँह धोकर जरा कपड़े-वपड़े ठीक-ठाक किए, उसकी दी हुई थोड़ी-सी सफेद कॉफी पीकर लगा, जान में जान आई। बाहर आया तो देखा कि सूरज चढ़ आया है और मारेंगो और समुद्र के बीच की पहाड़ियों के ऊपर आकाश में सिन्दूर बिखरा है। भोर की ठंडी-ठंडी खारी गन्धवाली सुहानी हवा से लगता था कि आज का दिन काफी अच्छा होगा। गाँव और खेतों की ओर आए तो मुझे युगों हो गए। सोचने लगा कि माँ का झमेला न होता तो इस समय यहाँ घूमने में कैसा मजा आता। इस विचार के साथ ही परिस्थिति का ज्ञान हो आया।

खैर, इस समय तो मैं खुले चौक में, एक सामान्य पेड़ के नीचे खड़ा-खड़ा प्रतीक्षा कर रहा था। ठंडी-ठंडी धरती से निकलती सोंधी-सोंधी गन्ध को लम्बी-लम्बी साँसों से पीते हुए लगा कि अब उनींदेपन का नामो-निशान नहीं है। अब, मैंने दफ्तर के लोगों के बारे में सोचना शुरू कर दिया। इस वक्त तो लोग सो-सोकर उठे होंगे और काम पर जाने की तैयारियाँ कर रहे होंगे। मेरे लिए यह क्षण दिन का सबसे बुरा समय होता है। दस-बारह मिनट मैं यों सोचता रहा कि बिल्डिंग के भीतर बजती घंटी से ध्यान टूटा। खिड़कियों से लोग चलते-फिरते दिखाई दिए। लेकिन इसके तुरन्त बाद ही फिर शान्ति छा गई। सूरज कुछ और चढ़ आया था और मेरे तलुए गरम होने लगे थे। चौकीदार खुला चौक पार करके पास आया और बोला, “वार्डन साहब आपसे मिलना चाहते हैं।” मैं दफ्तर में गया तो वार्डन ने कुछ और कागजों पर दस्तखत लिए। देखा, अब उसके कपड़े काले रंग के थे। पतलून का कपड़ा महीन धारियों का था। टेलीफोन का चोंगा हाथ में लिये हुए उसने मेरी तरफ देखा, “अभी-अभी अंडरटेकर (संस्कार-व्यवस्थापक) के लोग आ गए हैं। ताबूत बन्द करने के लिए मुर्दाघर जानेवाले हैं—तुम कहो तो उन्हें जरा देर रोक दूँ? माँ के अन्तिम दर्शन तो करोगे न?”

“जी नहीं।”

आवाज धीमी करके उसने चोंगे में कहा—“तब ठीक है फिगिये, तुम आदमियों को सीधे वहाँ भेज दो।”

फिर उसने बताया कि अन्त्येष्टि के समय वह भी उसमें रहेगा। मैंने धन्यवाद दिया। डेस्क के सामने बैठे-बैठे उसने अपनी टाँग पर टाँग रखी और पीठ पीछे टिका ली। कहा, ड्यूटीवाली नर्स के अलावा सोग मनानेवाले मैं और वह केवल दो ही जने होंगे। यह यहाँ का नियम है कि आश्रमवासी अन्त्येष्टि में शामिल न हों। हाँ, अगर उनमें से कुछ चाहें तो रतजगे के लिए पहली रात अर्थी के पास बैठ सकते हैं। इसमें कोई बात नहीं।

उसने समझाया, “यह इन्हीं लोगों की भलाई के लिए है—मानसिक कष्ट से बच जाते हैं। लेकिन इस बार मैंने तुम्हारी माँ के एक पुराने साथी को साथ चलने की अनुमति दे दी है। नाम है उनका तोमस पीरे”, वार्डन के चेहरे पर हल्की मुस्कराहट आ गई, “यह प्रसंग भी एक तरह से बड़ा करुणाजनक है। तुम्हारी माँ और ये साहब बड़े अभिन्न जैसे हो गए थे। अपनी इस नई ‘मंगेतर’ के लिए दूसरे बूढ़े लोग पीरे को चिढ़ाया भी करते थे। पूछते— ‘शादी कब कर रहे हो?’ पीरे हँसकर उड़ा देते। सो एक तरह से यह यहाँ का स्थायी मजाक था। सोच ही सकते हो, तुम्हारी माँ के न रहने से इनके दिल पर क्या गुजर रही होगी। मुझे खुद लगा, कि अन्त्येष्टि में शामिल होने की इनकी प्रार्थना को न मानना ज्यादती होगी। हाँ, डॉक्टर की सलाह मानकर मैंने पिछली रात इन्हें शव के पास रतजगा नहीं करने दिया था।”

कुछ देर बिना कुछ बोले-चाले हम लोग यों ही बैठे रहे। फिर वार्डन उठकर खिड़की के पास गया और बोला, “अरे, मारेंगो के पादरी साहब तो वो चले आ रहे। वक्त से कुछ पहले ही आ गए।” चर्च गाँव में है और वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते एक-पौन घंटा लग जाएगा—यह बताकर वार्डन नीचे चला गया।

पादरी मुर्दाघर के सामने ही खड़ा प्रतीक्षा कर रहा था। साथ में दो ‘सहायक’ थे। एक के हाथ में धूपदान था। उसके ऊपर झुका-झुका पादरी उसे लटकानेवाली चाँदी की जंजीर ठीक कर रहा था। हमें देखा तो तनकर सीधा खड़ा हो गया। मुझसे ‘बेटे-बेटे’ कहकर दो-चार बातें कीं। फिर आगे-आगे मुर्दाघर में चल दिया।

घुसते ही मैंने देखा कि ताबूत के पीछे चार व्यक्ति काले कपड़े पहने खड़े हैं। पेच कसे जा चुके थे। ठीक उसी समय वार्डन को कहते सुना कि ताबूत ले चलने की गाड़ी आ गई है। पादरी ने प्रार्थनाएँ शुरू कर दीं। इसके बाद सब लोग चल पड़े। काले रंग की एक पट‍्टी को पकड़े-पकड़े वे चारों व्यक्ति ताबूत के पास आ गए। उनके पीछे-पीछे लाइन में पादरी, प्रार्थनाएँ गानेवाले लड़के और फिर मैं। दरवाज़े से लगी एक महिला खड़ी थी। इसे मैंने पहले नहीं देखा था। वार्डन ने उसे बताया, “यही मोशिये म्योरसोल हैं।” उसका नाम मेरे पल्ले नहीं पड़ा, लेकिन यह समझ गया कि इसी आश्रम की परिचारिका सिस्टर है। मेरे परिचय के साथ उसके लम्बे सूखे-से चेहरे पर मुस्कराहट की एक रेखा तक नहीं झलकी। बस, वह जरा-सा सामने झुककर रह गई। ताबूत को गुजरने देने के लिए हम लोग दरवाज़े से हटकर खड़े हो गए; ताबूत निकल गया तो ले चलनेवालों के पीछे-पीछे हो लिये और लम्बा-सा गलियारा पार करके सामनेवाले फाटक पर आ गए। यहाँ ताबूत के लिए गाड़ी तैयार खड़ी थी। लम्बी चम-चम करती काली वार्निश-पुती इस गाड़ी को देखकर मुझे दफ्तर के कलमदान का धुँधला-सा ध्यान हो आया।

गाड़ी की बगल में ही अजीबोगरीब कपड़े पहने एक छोटा-सा व्यक्ति खड़ा था। बाद में जाना, ये साहब अन्त्येष्टि की देख-रेख करने के लिए हैं—एक तरह से पुरोहित ही समझो। उसके पास ही, बड़े लाचार और झेंपे-झेंपे-से दिखते मेरी माँ के खासुलखास मित्र महाशय पीरे खड़े थे। सिर पर फैल्ट हैट था, जिसकी टुपिया फिरनी के बर्तन-जैसी और किनारे बेहद चौड़े थे। जूतों पर हारमोनियम के पर्दे की ताल-लय दिखाती पतलून और चौड़े-चौड़े ऊँचे सफेद कॉलर पर निहायत पिद्दी-सी दीखती काली टाई। जैसे ही ताबूत दरवाज़े से बाहर निकला कि आपने झटके से टोप उतार लिया। पकौड़े-जैसी फूली फुंसियों-लदी नाक के नीचे होंठ फड़क रहे थे। लेकिन सबसे ज़्यादा ध्यान उनके कानों की ओर आकर्षित हुआ। कनपटियों कि जर्दी पर लाख के बुल्लों-जैसे दिखते बाहर को निकले लाल-लाल कान और उनके चारों ओर सिरों पर सफेद-सफेद रेशमी बालों के गुच्छों की गोट।

अंडरटेकर के सेवकों ने हाँककर हमें अपनी-अपनी जगह कर दिया अर्थात् गाड़ी के सामने पादरी और इधर-उधर काले कपड़े पहने चारों व्यक्ति और गाड़ी के पीछे-पीछे मैं और वार्डन। सबसे पीछे पीरे महाशय और नर्स।

धूप आसमान में लपट मारने लगी थी और झुलस तेजी से बढ़ रही थी। ताप की पहली लपटें तो अपनी पीठ पर मुझे ऐसी लगीं मानो गरम जीभ से कोई चाट रहा हो। काले सूट से तो हालत और भी खराब थी। न मालूम, रवाना होने में इतनी देर करने का क्या कारण था? पीरे महाशय ने अब फिर टोप उतारकर हाथ में ले लिया। वार्डन ने जब उनके बारे में और भी बताना शुरू किया तो मैं जरा उनकी ओर तिरछा मुड़-मुड़कर देखने लगा। याद है, वार्डन कहे जा रहा था कि साँझ के शीतल समय मेरी माँ और ये पीरे महाशय काफी दूर-दूर तक साथ टहलने जाया करते थे; कभी-कभी ये गाँव तक आ जाते। हाँ-हाँ, नर्स तो उनके साथ होती ही थी।

अब मैंने उस खुले वातावरण और ग्राम-प्रदेश की ओर निगाह डाली। देखा, मोरपंखी के पेड़ धरती की उठान के साथ नीचे से घने और दूर की ओर सँकरे होते क्षितिज-रेखा और पहाड़ियों की ओर चले गए हैं। तपी लाल धरती जगह-जगह घनी फैली हरियालियों से भरी है और यहाँ-वहाँ कोई मकान इक्का-दुक्का खड़ा है। तेज धूप में उसका एक-एक कोना और मोड़ का उभार साफ दीख रहा है। इस सारे दृश्य को देखकर माँ के मन की बात मेरी समझ में आने लगी। इन प्रदेशों में साँझ के समय जरूर ही निहायत मनहूस और नीरस किस्म की शान्ति छाई रहती होगी। इस समय सुबह की इस खुली साफ धूप में भी जब सब कुछ लू-लपट में दप्-दप् दमक रहा है तब भी तो इस खुले फैले प्रान्तर को देखकर ऐसा महसूस होता है मानो यहाँ कुछ अमानवीय है, कुछ है जो मन को बुझा देता है।

आखिरकार काफिला चला। तब पहली बार मैंने देखा कि पीरे थोड़ा पाँव लचकाकर चलते हैं। गाड़ी की चाल जरा तेज हुई तो बेचारे पीरे महाशय कदम-कदम पिछड़ने लगे। गाड़ी के साथ चलनेवाला एक आदमी भी पीछे छूटते-छूटते मेरे बराबर आ गया। देखकर ताज्जुब होता था कि आसमान में सूरज को पर लग गए हैं—अभी यहाँ तो अभी वहाँ। तभी मैंने ध्यान दिया कि काफी देर में हवा में झुलसती घास की सरसराहट और भुनगों की भनन‍्-भनन‍् गूँज रही है। पसीना मेरे चेहरे पर चुहचुहा रहा था। टोप नहीं था इसलिए मैं रूमाल से ही हवा करने लगा।

अंडरटेकर के आदमी ने मेरी ओर पलटकर कुछ कहा। मैं उसकी बात नहीं समझा। दाहिने हाथ से टोप को तिरछा उठाए हुए उसने बाएँ हाथ के रूमाल से अपनी खोपड़ी की चँदिया पोछी। मैंने पूछा, “आप कुछ कह रहे थे क्या ?” उसने आसमान की ओर इशारा करके कहा, “आज गजब की धूप है। क्यों है न?”

“जी हाँ,” मैंने कहा।

कुछ ठहरकर उसने पूछा, “हम लोग आपकी माँ को ही तो दफन करने ले जा रहे हैं न?”

“जी हाँ,” मैं फिर बोला।

“कितनी उम्र थी?”

“यही समझिए कि किसी तरह चल रही थीं। लेकिन सच तो यह है कि उनकी सही-सही उम्र खुद मुझे नहीं मालूम थी।”

इसके बाद वह चुप हो गया। घूमकर देखा, पीरे महाशय करीब पचा-सेक गज पीछे लँगड़ाते-लँगड़ाते घिसटते चले आ रहे थे। साथ आ जाने की कोशिश में हाथ-भर आगे अपना बड़ा-सा फैल्ट हैट झुलाते जाते थे। मैंने एक निगाह वार्डन पर भी डाली। वह बिना चेहरे पर कोई भाव लाए बड़े चुस्त और नपे-तुले कदमों से चल रहा था। माथे पर पसीने की बूँदें चुहचुहा आई थीं; उन्हें भी उसने नहीं पोंछा था।

मुझे लगा, हमारा यह छोटा-सा काफिला जरा ज़्यादा ही तेज चल रहा है। जहाँ-जहाँ तक निगाह जाती थी वहीं धूप-नहाए खेत-खलिहान दिखाई देते थे। आसमान में ऐसा चौंधा था कि आँख उठाते नहीं बनता था। अब हम लोग ताजा-ताजा तारकोल पड़ी सड़क के टुकड़े पर चल रहे थे। यहाँ धरती पर गरमी की लहर भभका मार रही थी। कदम पड़ते ही पाँव फच-से चिपक जाता और हटते ही दरार-जैसा काला चमकता निशान छूट जाता। गाड़ी के ऊपर निकला हुआ गाड़ीवाले का चम-चम करता काला टोप भी इसी चिपचिपे तारकोल के लौंदा-जैसा लगता था। ऊपर की आसमानी-सफेदी का चौंधा, और नीचे चारों तरफ का यह काला-कालापन, अर्थात् गाड़ी का चम-चम करता कालापन, सेवकों के कपड़ों का निस्तेज कालापन और सड़क पर छूटी छापों का यह रुपहला कालापन, इस सबको देखकर बड़ी अजब-सी अनुभूति होती थी, मानो यह सब सच नहीं, सपना हो। इस सबके साथ ऊपर से छाई थी तरह-तरह की गन्ध—गाड़ी के चमड़े और लीद की गन्ध के साथ मिली-जुली लोबान और अगरु की गन्ध के भभके! रात की उखड़ी-उखड़ी नींद की खुमारी और इस सारे वातावरण के कारण मुझे लगता था जैसे मेरी आँखें और विचार-शक्ति धुँधली हुई चली जा रही हैं।

मैंने दुबारा पीछे मुड़कर देखा। इस बार पीरे महाशय बहुत ही पीछे छूटे दिखाई दिए—गरमी की धुन्ध में कहीं नजर आएँ-आएँ कि अचानक एकदम गायब हो गए। आखिर गए कहाँ? कुछ देर की माथापच्ची के बाद मैंने अन्दाजा लगाया कि वे सड़क छोड़कर खेतों में मुड़ गए हैं। तभी देखा कि सड़क कुछ दूर आगे जाकर मोड़ लेती है। अच्छा, तो पीरे महाशय ने हमें पकड़ने के लिए यह पगडंडी पकड़ी है! वे यहाँ आस-पास की जगहों से खूब परिचित हैं। सड़क पर हम लोग जैसे ही घूमे कि वे हमारे साथ आ गए। लेकिन धीरे-धीरे फिर पिछड़ने लगे। आगे जाकर उन्होंने फिर इसी तरह एक पगडंडी पकड़ी। आध घंटे में यह कई बार हुआ तो शीघ्र ही उनकी इस हरकत में मेरी दिलचस्पी समाप्त हो गई। कनपटियों में भड़कन हो रही थी और मैं जैसे-तैसे अपने को घसीट रहा था।

इसके बाद का सारा काम बड़ी हबड़-तबड़ में और कुछ ऐसे मशीनी नपे-तुले ढंग से हुआ कि मुझे अब कोई भी बात याद नहीं। हाँ, याद है बस इतना कि जब हम गाँव के सिरे पर पहुँचे तो नर्स ने मुझसे कुछ कहा था। उसका स्वर सुनकर मैं चौंक पड़ा। चेहरे से इस स्वर का कोई मेल नहीं था। स्वर बड़ा मधुर और कम्पन-भरा था। वह कह रही थी, “अगर बहुत धीरे-धीरे चलिए तो लू लगने का खतरा और तेज-तेज चलिए तो शरीर पसीने से तर-बतर! तब चर्च की ठंडी हवा लगते ही जुकाम का हमला!” उसकी बात मैंने समझी। मतलब था कि आदमी को एक न एक चीज तो भुगतनी ही थी।

अन्त्येष्टि के समय की कुछ और बातें भी अभी तक याद रह गई हैं। जैसे, गाँव के ठीक बाहर जब आखिरी बार बुढ़ऊ ने हमें पकड़ा था उस क्षण का उनका चेहरा। शायद थकान या दुख से या शायद दोनों के कारण आँखों से धार-धार आँसू बह रहे थे। लेकिन खाल की झुर्रियों के कारण आँसू नीचे नहीं टपक पाते थे और वहीं झुर्रियों में आड़े-तिरछे फैल जाते थे। इससे वह थका-पस्त बूढ़ा चेहरा गीला-गीला चमकता दीखता था।

चर्च की शक्ल और आसपास का वातावरण; सड़क पर चलते-फिरते गाँववाले; कब्रों पर खिले हुए लाल-लाल जरेनियम के फूल; कपड़े की गुड़िया की तरह पीरे का बेहोशी के दौरे में लुढ़क पड़ना; माँ के ताबूत पर मुटि्ठयाँ भर-भरकर पड़ती मटमैली मिट्टी का गिरना; उस मिट्टी में मिले सफेद-सफेद जड़ों के तिनके; फिर और लोगों की भीड़; आवाजें; कैफे के बाहर खड़े होकर बस की प्रतीक्षा करना; इंजन की खड़ड़-खड़ड़; अल्जीयर्स की जगर-मगर करती सड़कों पर अपनी बस के प्रवेश के साथ ही खुशी की झुरझुरी महसूस करते हुए घर पहुँचकर सबसे पहले बिस्तरे पर जाकर पड़ने और बारह घंटे लम्बी तानकर सोने की कल्पना करना; यह सब मुझे अब भी याद है।

पहला भाग : दो

नींद टूटने पर समझ में आया कि क्यों मेरे दो दिनों की छुट्टी माँगने से साहब का मुँह उतर गया था। आज शनिवार था । उस समय तो यह बात ही मेरे दिमाग में नहीं थी। वह तो अब, बिस्तर छोड़ते समय मुझे खयाल आया। जरुर साहब ने सोचा होगा कि इस तरह तो मैं पूरे चार दिनों की छुट्टियाँ झाड़े ले रहा हूँ। यह बात उनके गले उतरती ही क्यों? खैर, पहली बात तो यह कि माँ को आज के बजाय कल दफन किया गया, इसमें मेरा क्या दोष? दूसरे, शनि और रवि की छुट्टी तो मुझे हर हालत में मिलनी ही थी । बहरहाल, इसमें मैंने अपने साहब का दृष्टिकोण न समझा हो, ऐसा नहीं है । पिछले दिन जो गुजरा था, उसने सचमुच मुझे ऐसा पस्त कर डाला था कि उठना मुसीबत लग रहा था। हजामत बनाते-बनाते सोचने लगा कि आज सारा दिन कैसे काटा जाए तय किया कि तैरने से तबीयत कुछ न कुछ: तो सुधरेगी ही, सो सीधी बन्दरगाह जानेवाली ट्राम पकड़ी।

वही पुरानी रफ्तार थी। सन्तरण कुंड में युवक-युवतियों का जमाव था। उन्हीं में हमारे दफ्तर की भूतपूर्व टाइपिस्ट मेरी कार्डोना भी दिखाई पड़ी। मेरा भी झुकाव उन दिनों उसकी तरफ खासा था और समझता हूँ, वह भी मुझे पसन्द करती थी। लेकिन हमारे यहाँ यह रही ही इतनी कम कि कुछ बात नहीं बनी।

तैरने वाले तख्ते पर चढ़ने में सहारा देते हुए मैंने जरा उसकी छातियों पर भी हाथ फेर दिए। वह तख्ते पर चित लेट गई और मैं खड़ा खड़ा पानी में तैरता चलने लगा। पलभर बाद वह करवट लेकर मुझे देखने लगी। मैं भी छाती के बल सरककर उसकी बगल में लेट गया। हवा बड़ी सुहानी-गरम थी । खेल-खेल में मैंने अपना सिर उसकी गोद में गड़ा दिया। लगा, उसने बुरा नहीं माना तो सिर वहीं रखे रहा। सारा नीला और सुनहला आकाश मेरी आँखों में उतर आया था और मेरी के पेट का मेरे सिर के नीचे हल्के-हल्के उठना-गिरना मेरे तन-मन को विभोर किए दे रहा था। हम दोनों ही उस तन्द्रिल अवस्था में कम से कम आध घंटा तो उस तख्ते पर तैरे ही होंगे! धूप जब बहुत तेज हो गई तो उसने उछलकर पानी में गोता लगाया। मैं भी उसके पीछे-पीछे कूदा और पकड़कर अपनी बाँहें उसकी कमर के इर्द-गिर्द डाल लीं। हम यों ही अगल-बगल लेटे तैरने लगे। वह लगातार हँसे जा रही थी ।

फिर सन्तरण-कुंड (स्विमिंग पूल) के किनारे खड़े-खड़े हम लोग अपने शरीर सुखा रहे थे तो वह बोली, “तुम्हारा रंग मुझसे साफ है।" मैंने पूछा, "शाम को मेरे साथ सिनेमा चलोगी?" वह फिर हँसने लगी। बोली, “हाँ-हाँ। " लेकिन उसने शर्त यह रखी कि उस मजाकिया खेल में चलेंगे जिसमें फर्नान्देल ने काम किया है। आजकल बच्चे-बच्चे की जबान पर उसकी चर्चा है।

हमने कपड़े पहन लिये तो वह आँखें फाड़-फाड़कर मेरी काली टाई को देखते हुए पूछने लगी, “क्या बात है? कोई गमी हो गई है क्या?" मैंने माँ के न रहने की बात बताई। पूछा, “कब?” “कल,” मैंने कहा । वह मुँह से तो नहीं बोली लेकिन लगा, जैसे सकुचाकर परे सरक गई। जीभ तक आई बात मैं दबा ली कि इसमें मेरा कोई कसूर नहीं है। याद आया, यही बात मैंने साहब से भी कही थी। उस वक्त कैसी मूर्खतापूर्ण लगी थी । यों मूर्खतापूर्ण लगे या न लगे, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि ऐसी बातों से मन में अपराध-भावना जरूर महसूस होने लगती है।

बहरहाल, साँझ तक मेरी सारी बातें भूल-भाल गईं। कहीं-कहीं फिल्म मजाकिया जरूर थी, लेकिन सब मिलाकर थी सोलहों आना बकवास ही वह मेरे पाँव से पाँव रगड़ती रही और मैं उसकी अपनी ओर वाली छाती से छेड़खानी करता रहा । तसवीर जब खत्म होनेवाली थी मैंने उसे चूम लिया। लेकिन यह चूमना बड़े बेहूदे ढंग से हुआ। फिर वह साथ-साथ घर आई ।

मेरी नींद टूटने से पहले ही वह चली गई थी। वह बताती थी कि मौसी घर में सबसे पहले उसे ही तलाश करती हैं। याद आया, आज तो रविवार है। मन खराब हो गया। इस कमबख्त रविवार का मुझे कभी खयाल ही नहीं रहता । घुमर मेरी के केशों से लगी खारी-खारी गन्ध को अलस भाव से साँस के साथ पीने लगा। दस तक टाँगें पसारकर सोया और इसके बाद भी सिगरेट-पर-सिगरेट फूँकता दोपहर तक बिस्तर पर ही करवटें बदलता रहा। तय किया कि आज और दिनों की तरह सेलेस्ते के रेस्त्राँ में खाना नहीं खाएँगे। वहाँ लोग दुनिया-भर के सवाल-जवाब करके नाक में दम कर देते हैं। मुझे यह जिरहबाजी पसन्द नहीं है। अतः कुछ अंडे उबाले और उसी बर्तन में रखकर खाए । डबलरोटी बची नहीं थी और नीचे से खरीदकर लाने की तबालत मंजूर नहीं थी; सोचा, बिना डबलरोटी ही सही ।

खाने के बाद समझ में ही नहीं आया कि अब करूँ तो क्या करूँ। बस, अपने उस छोटे से फ्लैट में ही इधर से उधर चक्कर लगाता रहा। माँ साथ थी तो यह फ्लैट हमारी रिहाइश के लिए काफी था। अब मुझ अकेले के लिए तो बहुत बड़ा पड़ता था सो मैं खाने की मेज को सोने के कमरे में ही खींच लाया था। मेरे उपयोग का बस यही कमरा रह गया था। सारा ज़रूरत का फर्नीचर इसमें था—पीतल का पलंग, एक शृंगार मेज, बेंत की कुछ कुर्सियाँ, जिनमें बैठने की जगह गड्ढे पड़ गए थे, दाग-दगीले शीशेवाली कपड़े टाँगने की आलमारी। बाकी के फ्लैट से चूंकि काम ही नहीं पड़ता था, इसलिए मैंने उसकी साज-सँवार का सिरदर्द भी छोड़ दिया।

जब देखा कि कुछ करने को ही नहीं है तो फर्श पर पड़ा जाने कब का पुराना अखबार ही उठाकर पढ़ने लगा। उसमें 'क्रुशेन साल्ट' का एक विज्ञापन था, मैंने उसे काटकर अपने अलबम में चिपका लिया। अखबार में जो चीजें मुझे मजेदार लगती थीं, उन्हें मैं इसी अलबम में चिपका लेता था। मल-मलकर हाथ धोए और लाचार बाहर बालकनी में निकल आया। जब कहीं मन न लगता तो मैं यहीं आ जाता।

सोनेवाला कमरा मुहल्ले की खास सड़क की तरफ पड़ता था। हालाँकि मौसम बड़ा खुला और सुहाना था, लेकिन सड़क के पत्थर अब भी काले-काले चमक रहे थे। सड़क पर भीड़ नहीं थी और जो भी दो-चार आदमी थे सब निरुद्देश्य निरर्थक भाग-दौड़ करते लगते थे। सबसे पहले छुट्टी की साँझ को सैर करने जाता हुआ एक परिवार आता दिखाई दिया। आगे-आगे मल्लाहों जैसे सूट पहने दो छोटे-छोटे छोकरे थे, उनकी पतलूनें मुश्किल से टखनों तक पहुँचती थीं और रविवार के अपने सबसे अच्छे कपड़ों में भी वे उजबक-से दिखते थे। फिर बड़ी-सी गुलाबी 'बो' लगाए काले पेटेंट चमड़े के जूते पहने छोटी-सी लड़की, पीछे-पीछे बादामी रंग के रेशमी कपड़ों में उनकी भारी-भरकम माँ और चुस्त-दुरुस्त कपड़ों में उनका बाप । इस व्यक्ति को मैं शक्ल से पहचानता था। सिर पर चटाई का टोप, हाथ में छड़ी और बटरफ्लाई-टाई। इसे पत्नी की बगल में चलते हुए देखा तो समझ में आ गया कि लोग क्यों इसके बारे में कहते हैं-खुद अच्छे ऊँचे कुल का है लेकिन शादी इसने अपने से नीचे कुल में कर ली है।

इनके बाद नौजवानों का दल गुजरा। ये मुहल्ले के 'शोहदे' थे- तेल चुआते बाल, लाल-लाल टाइयाँ, बहुत तंग कमरवाले कोट, बेल-बूटे कढ़ी जेबें और चौकोर पंजोंवाले जूते! अन्दाज लगाया जरूर ये लोग शहर के बीचवाले किसी सिनेमाघर की तरफ धावा बोल रहे हैं। तभी तो घर से इतनी जल्दी निकल पड़े हैं और गला फाड़-फाड़कर हँसते बतियाते ट्राम-स्टॉप पर धमा चौकड़ी मचाए हैं।

उनके जाने के बाद सड़क धीरे-धीरे सूनी हो गई। अब तक सारे मैटिनी- शो-शुरू हो चुके होंगे। इक्का-दुक्का दुकानदार और एकाध बिल्ली ही सड़क पर नजर आती थी। सड़क के किनारे लगे अंजीर के पेड़ों की कतार के ऊपर आसमान साफ था, लेकिन धूप तेज नहीं थी। सामने की पटरी का तम्बाकूवाला भीतर से एक कुर्सी निकाल लाया और अपने दरवाज़े के सामने फुटपाथ पर दोनों टाँगें इधर-उधर करके कुर्सी की पीठ पर बाँहें टेककर बैठ गया। कुछ क्षण पहले ट्रामें भरी जा रही थीं, अब एकदम खाली हो गईं। तम्बाकूवाले की बगल के छोटे-से खाली रेस्तरॉ 'शे-पीयरो' में, बैरा बुरादा झाड़कर बाहर निकाल रहा था। हू-ब-हू इतवार की साँझ थी...।

मैं भी अपनी कुर्सी घुमाई और सामने के तम्बाकूवाले की तरह टाँगें इधर-उधर करके बैठ गया । वह ज़्यादा आरामदेह था। दो सिगरेट फूँक चुक के बाद उठा और भीतर कमरे से जाकर चाकलेट की टिकिया उठा लाया। सोचा, खिड़की पर खड़े होकर खाऊँगा। देखते-देखते आसमान में बादल घिर आए तो लगने लगा अब अन्धड़ आनेवाला है। खैर, बादल तो धीरे-धीरे सरक गए, लेकिन जाते-जाते सड़क पर बारिश का सा खतरा जरूर पैदा कर गए, यानी गहरा अँधेरा और नमी छा गई। देर तक खड़ा खड़ा मैं आसमान को निहारता रहा।

पाँच बजे फिर ट्रामों की टन टन गूँजने लगी। हमारे शहर के बाहर की बस्ती में फुटबॉल मैच था। ट्रामें वहीं से भरी भराई लौट रही थीं। पीछे के पट्टों पर भी भीड़ थी और लोग सीढ़ियों पर लदे थे। फिर एक ट्राम खिलाड़ियों के दल को लेकर आई। जिन-जिनके हाथ में सूटकेस थे, उन्हें मैं देखते ही जान गया कि खिलाड़ी यही हैं। ये लोग गला फाड़-फाड़कर अपने दल का गाना गा रहे थे- “यारो, गेंद बढ़ाए जाओ..." एक मेरी ओर देख-कर चिल्लाया, "छक्के छुड़ा दिए सालों के।” मैंने भी जवाब में हाथ हिलाया और चिल्लाकर बोला : “शाबाश "। इसके बाद निजी कारों की अटूट लैन-डोरी शुरू हो गई।

आसमान के तेवर फिर बदले। छतों के पार सिन्दूरी रोशनी फैलने लगी। जैसे-जैसे गोधूलि हो रही थी, सड़क की भीड़ भी बढ़ती जा रही थी। लोग-बाग सैर-सपाटे कर-करके लौट रहे थे। आनेवालों में वही चुस्त-दुरुस्त छोटा-सा आदमी और उसकी मोटी-ताजा पत्नी दिखाई पड़े। थके-माँदे बच्चे माँ-बाप के पीछे ठुमकते-घिसटते चले आ रहे थे। कुछ देर बाद मुहल्ले के सिनेमाओं की भीड़ छूटी। मैंने देखा, सिनेमा देखकर आने वाले नौजवान बड़े जोश- खरोश से हाथ-पाँव हिलाते, लम्बे-लम्बे डग भरते चले आ रहे हैं। साधारणतया ये लोग ऐसे नहीं चलते। जिस सिनेमा से आ रहे हैं, वह जरूर पश्चिमी मारधाड़ किस्म का कोई खेल होगा। शहर के बीच के सिनेमाघरों से आनेवाले कुछ ठहरकर आए। ये ज़्यादा संजीदा थे। यों कुछ हंस भी रहे थे, लेकिन कुल मिलाकर बड़े लस्त पस्त और थके-माँदे दिखते थे। कुछ अब भी मेरी खिड़की के पीछे मटरगश्ती करते छूट गए थे। तभी बाँह में बाँह डाले लड़कियों का एक झुंड आया। खिड़की के नीचेवाले नौजवान एक तरफ झुककर इस अदा से चलने लगे कि उनसे शरीर रगड़ते हुए निकलें। उन्होंने कुछ बोलियाँ भी कसीं, जिन्हें सुनकर लड़कियाँ सिर घुमा घुमाकर खिल- खिल हँसने लगीं। इन लड़कियों को मैं पहचानता था, ये इधर के हिस्से की ही रहनेवाली थीं। जान-पहचान की दो-तीन ने ऊपर देखकर मेरी तरफ हाथ भी हिलाए ।

तभी सड़क की बत्तियाँ एक साथ 'भक्' से जल उठीं और अँधेरे आस-मान में जो तारे टिमटिमाने लगे थे वे सब के सब एकदम फीके पड़ गए। इतनी देर सड़क की हलचल और तरह-तरह की बदलती रोशनियों को देखते-देखते मेरी आँखें दर्द करने लगी थीं। बत्तियों के नीचे प्रकाश के झरने झर रहे थे। रह-रहकर कोई ट्राम गुजर जाती और उसकी रोशनी में किसी लड़की के बाल मुस्कराहट या चाँदी की चूड़ियाँ झलक उठतीं ...।

  • मुख्य पृष्ठ : अल्बैर कामू : फ्रेंच कहानियाँ और उपन्यास हिन्दी में
  • फ्रांस की कहानियां और लोक कथाएं
  • भारतीय भाषाओं तथा विदेशी भाषाओं की लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां