एक नौकरानी की कहानी (कहानी) : गाय दी मोपासां
The Story of a Farm Girl (French Story) : Guy de Maupassant
एक
मौसम खुशगवार होने के कारण फार्म पर काम करनेवाले आम दिनों से पहले ही खाना खाकर खेतों पर लौट गए थे ।
नौकरानी रोज़ बड़ी-सी रसोई में अकेली रह गई। चूल्हे पर रखे पानी उबालने के भारी देग के नीचे आग ठण्डी पड़ रही थी । प्लेटें धोने के लिए वह बीच-बीच में उसमें से गर्म पानी निकालती। उसकी निगाह काम करते हुए कभी-कभार सामने पड़ी मेज पर पड़ रही धूप की किरणों की ओर चली जाती थी । खिड़की के काँच पर पड़े धब्बों की परछाइयाँ मेज पर पड़ रही थीं ।
तीन मुर्गियाँ कुर्सी के नीचे पड़े रोटी के टुकड़े बीन रही थीं । अधखुले दरवाजे से मुर्गीबाड़े की गन्ध और गोशाला के गर्म भभके आ रहे थे। थोड़ी दूरी से मुर्गे के बाँग देने की आवाज सुनाई दे रही थी ।
काम खत्म करने के बाद रोज़ ने मेज साफ की और अँगीठी से राख झाड़ दी । एक विशाल घड़ियाल के साथ लगती अलमारी में उसने प्लेटें सजा दीं और एक लम्बी साँस खींची जैसे उसे घुटन हो रही हो। वह समझ नहीं पा रही थी कि उसे ऐसा क्यों महसूस हो रहा है। रोज़ ने काली मिट्टी से पुती दीवारों और धुएँ से काली पड़ी छत की शहतीरों की ओर देखा जिन पर नमक लगाकर सुखाई मछलियों और प्याज की गाँठों के बीच मकड़ी के जाले भी लटक रहे थे। फिर वह फर्श से उठनेवाली बासी दुर्गन्ध से चकराकर वहीं बैठ गई। फर्श पर जाने क्या-क्या चीजें गिरती रहती थीं। इस सबके साथ ही बगल की डेरी से क्रीम निकालने की दुर्गन्ध भी योगदान कर रही थी ।
हमेशा की तरह वह सिलाई करना चाहती थी लेकिन उसे कमजोरी महसूस हो रही थी। उसने दरवाजे पर जाकर ताजा हवा में एक लम्बी साँस खींची जिससे उसे राहत महसूस हुई।
मुर्गियों का झुण्ड भाप छोड़ते गोबर के ढेर पर बैठा हुआ था। उनमें से कुछ एक पंजे से कीड़े तलाश रही थीं जबकि मुर्गा उनके बीच गर्व से सिर उठाकर खड़ा हुआ था। बीच-बीच में वह किसी एक को चुन लेता और प्रणय निमंत्रण देते हुए उसके चक्कर काटने लगता । मुर्गी बड़ी बेपरवाही से खड़ी हो जाती, मिट्टी झाड़ने के लिए अपने पंखों को फड़फड़ाती और फिर से गोबर के ढेर पर पसर जाती। मुर्गा जीत की खुशी में बाँग देता और उसकी आवाज सुनते ही पड़ोसी फार्मों के मुर्गे भी उसके सुर सुर मिलाते, मानो एक फार्म से दूसरे फार्म पर कामुक चुनौतियाँ भेजी जा रही हों ।
रोज़ बिना कुछ सोचे उन्हें देखे जा रही थी। तभी उसने नजर उठाई और फूलों से लदे पड़े सेब के पेड़ों के दृश्य ने उसे मानो चकाचौंध कर दिया। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था जैसे किसी के सिर पर पाउडर मल दिया गया हो। तभी फुर्ती और जीवन से भरपूर एक बछेड़ा उसके पास से उछलता कूदता निकला। उसने दो गड्ढों को कूदकर पार किया और फिर एकदम से रुक गया जैसे खुद को अकेला पाकर चकित हो ।
रोज़ की भी इच्छा हुई कि वह दौड़ पड़े। उसका मन करने लगा कि वह हाथ-पाँव सीधे करे और ठहरी हुई हवा में लेटकर सुस्ताए । उसने अनिर्णय की स्थिति में कुछ कदम बढ़ाए और एक सुखद अनुभूति से अपनी आँखें बन्द कर लीं। उसे अण्डों का ध्यान आया और उसने अपना रुख मुर्गी के दड़बे की ओर किया। वहाँ तेरह अण्डे पड़े हुए थे। उसने उन्हें उठाकर स्टोररूम में रख दिया। रसोई की गन्ध से उसका जी फिर मिचलाने लगा और वह बाहर आकर घास पर बैठ गई ।
पेड़ों से घिरा हुआ फार्म का पूरा अहाता सोया हुआ-सा लग रहा था । चटकीली हरी घास में से डेण्डेलियन के लम्बे फूल इस तरह निकले हुए थे जैसे पीली रोशनी की किरणें । सेब के पेड़ अपनी छाया चारों ओर बिखेर रहे थे। मकानों के छप्परों पर तलवार जैसी नुकीली पत्तियोंवाले नीले और पीले रंग के आइरिस के फूल उगे हुए थे और छप्परों से भाप इस तरह उठ रही थी जैसे अस्तबल और भुसौरे की सारी नमी उनसे होकर ऊपर आ रही हो ।
रोज़ घोड़ागाड़ी और जाल रखनेवाले शेड में चली गई। उसके पास ही एक गड्ढे में उगे वॉयलेट के फूलों की खुशबू चारों ओर फैल रही थी । वह वहाँ से भुट्टे की फसल, पेड़ों के झुरमुट और यहाँ वहाँ काम कर रहे मजदूरों को देख सकती थी जो दूर से गुड्डे-गुड़ियों की तरह नजर आ रहे थे और सफेद घोड़े खिलौनों की तरह जो एक खिलौना गाड़ी को खींचकर ले जा रहे थे, उस पर उँगली के बराबर एक आदमी बैठा था ।
रोज़ ने पुआल का एक गट्ठर उठाया और उसे गड्ढे में रखकर उस पर बैठ गई । उसे आराम नहीं मिला। उसने गट्ठर को खोलकर फैला लिया और उस पर पूरी तरह पसर गई। उसने अपने दोनों हाथ सिर के नीचे रख लिए।
धीरे-धीरे उसकी आँखें मुँद गईं। उस पर एक मस्तीभरी सुस्ती छा रही थी। वह लगभग सो ही गई थी कि उसे अपने वक्ष पर दो हाथ महसूस हुए और वह एकदम से उठ बैठी। यह जाक था, फार्म पर काम करनेवाला पिकार्डी का एक लम्बा-चौड़ा मजदूर। वह रोज़ से लम्बे समय से प्यार करता था। वह भेड़ें चरा रहा था और रोज़ को छाँव में अकेला लेटे देख चुपके से चला आया था। उसकी आँखें चमक रही थीं और उसके बालों में घास-फूस के तिनके फँसे हुए थे ।
उसने रोज़ को चूमने की कोशिश की लेकिन रोज़ ने उसके गाल पर कसकर तमाचा जड़ दिया। वह जाक जितनी ही मजबूत थी और जाक समझदार था, इसलिए उसने माफी माँगी और वे एक-दूसरे की बगल में बैठकर बातें करने लगे। वे मौसम, अपने मालिक जो एक अच्छा आदमी था, अपने चारों ओर रहनेवाले लोगों, अपने पुराने दिनों और रिश्तेदारों के बारे में बातें कर रहे थे जिनसे वे लम्बे समय से मिले नहीं थे और शायद फिर कभी नहीं मिल सकेंगे। इस सबके बारे में सोचकर रोज़ दुखी हो गई। जाक के दिमाग में बस एक ही बात थी और वह तीव्र कामना के वशीभूत खुद को रोज़ के बदन से रगड़े जा रहा था।
रोज़ ने कहा, “मैंने लम्बे समय से माँ को नहीं देखा है। इस तरह दूर रहना बहुत मुश्किल है।” उसने दूर उत्तर की ओर देखा, जिधर वह गाँव था, जिसे वह छोड़ आई थी ।
अचानक ही जाक ने राज को गर्दन से पकड़ा और चूम लिया। लेकिन रोज ने उसके चेहरे पर इतनी जोर से मुक्का मारा कि जाक की नाक से खून बहने लगा । वह उठा और अपना सिर पेड़ के तने से टिकाकर खड़ा हो गया। जाक को इस तरह देखकर उसे अपने किए पर पछतावा हुआ। वह उसके करीब आई और बोली, “तुम्हें कसकर लग गई ?”
वह हँस दिया, “नहीं, यह तो कुछ भी नहीं था ।” हालाँकि रोज़ ने ठीक उसकी नाक पर मुक्का जड़ा था। उसने कहा, “क्या हाथ है !” और सराहना के एक नये भाव के साथ उसकी ओर देखा जो उस लम्बी मजबूत छोकरी के प्रति वास्तविक प्यार की शुरुआत थी ।
खून रुकने के बाद जाक ने रोज़ को अपने साथ घूमने का प्रस्ताव पेश किया क्योंकि ज्यादा देर तक साथ बैठने में उसे अपनी साथी के भारी हाथ से डर लग रहा था। लेकिन पेड़ों के बीच से गुजरते रास्ते पर रोज़ ने अपनी मर्जी से उसकी बाँह था ली, जैसे वे शाम की सैर पर हों! उसने कहा, “जाक, तुम्हारा इस तरह मुझे जलील करना ठीक नहीं है।"
जाक ने इस बात का विरोध किया- नहीं, वह उसे जलील नहीं करना चाहता था। वह तो उससे प्यार करता है और कुछ नहीं ।
रोज़ ने पूछा, "तो क्या तुम वाकई मुझसे शादी करना चाहते हो?"
वह अचकचा गया और कनखियों से उसकी ओर देखने लगा जबकि वह सीधे आगे देख रही थी। उसके गाल भरे हुए थे और सूती पोशाक के नीचे कसी छातियाँ उभरी हुई थीं। उसके मोटे सुर्ख होंठों के ऊपर और गले पर पसीने की बूँदें चमक रही थीं । जाक की कामना फिर जाग उठी और उसने अपने होंठों को रोज़ के कान के पास ले जाकर कहा, “हाँ, बिल्कुल, मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ।”
रोज़ ने दोनों बाँहें उसके गले में डाल दीं और दोनों इतनी देर चूमते रहे कि हाँफने लगे। उसी क्षण से दोनों के बीच प्रेम की शाश्वत कहानी शुरू हो गई। दोनों अब एक-दूसरे से अँधेरे कोनों में मिलते। चाँदनी रात में पुआल के ढेर में वे इस तरह एक-दूसरे में खोते कि उन्हें अपनी शरीर पर लगनेवाली चोटों का भी कोई ध्यान नहीं रहता। लेकिन धीरे-धीरे जाक रोज़ से उकता गया। अब वह उसे टालने लगा, उससे बहुत कम बात करता और उससे अकेले में मिलने से बचता । जाक के इस व्यवहार से रोज़ परेशान रहने लगी। खासकर तब जब उसे यह पता चला कि वह गर्भवती है ।
पहले तो उसकी समझ में ही नहीं आया कि वह क्या करे । उसके बाद उसका गुस्सा दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही गया क्योंकि जाक उससे जान-बूझकर मिलने से बच रहा था। आखिरकार, एक रात जब फार्म हाउस पर सब सो रहे थे तो रोज़ चुपचाप उठी और पेटीकोट पहने नंगे पाँव चुपचाप अहाते को पार करती हुई जाक के अस्तबल में पहुँच गई जहाँ वह घोड़ों के पास सूखी घास के ढेर पर लेटा हुआ था। रोज़ के आने की आहट पा वह खर्राटे लेने का बहाना करने लगा लेकिन वह उसके पास बैठकर उसे तब तक हिलाती रही जब तक वह उठकर बैठ नहीं गया।
जाक ने उससे पूछा, “तुम चाहती क्या हो ?"
रोज़ ने गुस्से से दाँत पीसते हुए जवाब दिया, “मैं चाहती हूँ... मैं चाहती हूँ कि अपने वादे के मुताबिक तुम मुझसे शादी करो ।”
वह हँस दिया और बोला, “अगर आदमी उन सभी औरतों से शादी कर ले जिनके साथ वह सोया था तो वह कुछ कर ही नहीं पायेगा ।”
रोज़ ने उसे गर्दन से पकड़ा और धक्का देकर पीठ के बल गिरा दिया ताकि वह उसकी पकड़ से खुद को छुड़ा न सके। वह गुस्से से चिल्लाई, “मैं पेट से हूँ, सुन रहे हो तुम? पेट से हूँ मैं !”
रोज़ ने जाक का गला कसकर पकड़ रखा था । उसकी पकड़ के कारण जाक बुरी तरह हाँफ रहा था। दोनों अँधेरे में बिना कुछ बोले कुछ देर तक ऐसे ही रहे । सन्नाटे में सिर्फ एक घोड़े की आवाज सुनाई दे रही थी जिसने चारे के लिए मुँह नाँद में डाला और धीरे-धीरे चबाने लगा ।
जाक ने जब पाया कि रोज़ उससे मजबूत है तो वह हकलाते हुए बोला, “अच्छी बात है, अगर ऐसा है तो मैं तुमसे शादी करूँगा।”
लेकिन लड़की को जाक के वादों पर विश्वास नहीं था। वह बोली, “तुम्हें फौरन मुझसे शादी करनी होगी । तुम्हें तुरन्त विवाह की घोषणा करनी होगी । "
उसने जवाब दिया, “तुरन्त ।”
" तुम्हें कसम खानी होगी । "
वह पहले तो झिझका, फिर बोला, “मैं भगवान की कसम खाता हूँ।”
उसने जाक की गर्दन छोड़ दी और बिना कुछ कहे वहाँ से चली गई । उसे कई दिनों तक जाक से बात करने का मौका नहीं मिला और चूँकि अस्तबल भी रात के समय हमेशा बन्द रहता इसलिए वह दरवाजा खुलवाने के लिए शोर करने से बचती थी कि कहीं कोई बखेड़ा न हो जाए ।
एक दिन भोजन के समय एक नए आदमी को देखकर रोज़ ने उससे पूछा, “क्या जाक चला गया?"
उस आदमी ने जवाब दिया, “हाँ, मुझे उसी की जगह रखा गया है।”
यह सुनकर वह इस तरह काँपने लगी कि अँगीठी पर से सॉसपैन भी नहीं उतार पाई । जब सब काम पर चले गए तो वह अपने कमरे में चली गई और तकिए में छिपाकर रोने लगी। वह दिनभर अपने भावों को छिपाकर उसके बारे में जानकारी जुटाने में लगी रही। लेकिन अपने दुर्भाग्य का विचार उस पर इस तरह हावी था कि उसे लगता था कि वह जिससे भी पूछती है, वह व्यंग्य से हँसता है । उसे बस यही पता चल पाया कि जाक वह इलाका ही छोड़कर चला गया है।
दो
उसके दुख के बादल और घने होते जा रहे थे। बिना कुछ सोचे सारे दिन वह मशीन की तरह काम में जुटी रहती । उसके दिमाग में एक ही बात गूँजती रहती - 'जब लोग जान जाएँगे, तब क्या होगा।'
लगातार यही सोचने से उसकी तर्कशक्ति इतनी कमजोर हो गई कि वह उस अपमानजनक स्थिति से बचने का कोई उपाय नहीं सोच पा रही थी जो मौत की तरह अटल थी और हर दिन करीब आती जा रही थी । वह सुबह सबसे पहले उठ जाती और जिस टूटे हुए शीशे में देखकर वह बाल बनाती थी, उसी की मदद से यह जानने की कोशिश करती कि कहीं उसका शरीर भेद तो नहीं खोल रहा? दिन के समय जब वह काम कर रही होती तो भी काम को बीच में रोककर अपने को सिर से पाँव तक देखती कि कहीं उसका पेट बढ़ने से एप्रन छोटा तो नहीं पड़ रहा?
महीने गुजरते गए। अब वह बहुत कम बोलती थी और जब उससे कोई कुछ पूछता भी तो वह इस तरह उसकी ओर देखती जैसे उसे प्रश्न समझ ही नहीं आया हो । उसके डरे हुए चेहरे, धँसी हुई आँखों और काँपते हुए हाथों को देखकर उसका मालिक अकसर पूछ बैठता था, “बेचारी लड़की, तू आजकल ऐसी भोंदू क्यों हो गई है ?”
गिरजाघर में भी वह अपने को खम्भे के पीछे छिपाए रहती और पाप-स्वीकृति के लिए नहीं जाती थी । वह पादरी का सामना करने से डरती थी । उसे लगता था कि पादरी में एक ऐसी शक्ति होती है जिससे वह लोगों के मन की बात भी जान लेता है। भोजन के समय जब उसके साथी नौकर उसकी ओर देखते तो उसका रंग सफेद पड़ जाता। उसे हमेशा लगता रहता था कि चरवाहे को उसका भेद पता चल गया है । वह एक चालाक छोकरा था जिसकी चमकती आँखें जैसी उसी के पीछे लगी रहती थीं।
एक दिन सुबह डाकिया उसके लिए एक पत्र लेकर आया। इससे पहले जीवन में उसे कोई पत्र नहीं आया था। इसलिए वह इतनी परेशान हो गई कि उसके घुटने थरथरा गए और वह वहीं बैठ गई। शायद यह जाक ने भेजा हो? लेकिन वह पढ़ नहीं सकती थी और कागज के उस टुकड़े को लेकर बेचैनी से काँपते हुए देर तक बैठी रही। कुछ समय बाद उसने उसे अपनी जेब में रख लिया क्योंकि वह अपना राज़ किसी और को नहीं बता सकती थी । काम करते हुए वह अकसर रुक जाती और पत्र को देखने लगती जिस पर कुछ पंक्तियाँ लिखी थीं और नीचे किसी के दस्तखत थे । वह उसे इस तरह देख रही थी जैसे अचानक इसका अर्थ उसकी समझ मे आ जाएगा। आखिरकार उसके सब्र का बाँध टूट गया। वह दौड़ी हुई स्कूलमास्टर के पास गई जिसने उसे बैठाया और पत्र पढ़कर सुनाया। पत्र में लिखा था :
'मेरी प्यारी बेटी, मैं तुम्हें यह बताने के लिए पत्र लिख रही हूँ कि मैं बहुत बीमार हूँ। हमारे पड़ोसी मोस्यू देंत्यू तुमसे अनुरोध कर रहे हैं कि अगर हो सके तो तुम मिलने चली आओ।
तुम्हारी स्नेहभरी माँ की ओर से
सेजेर देंत्यू
'उप मेयर'
रोज़ बिना कुछ कहे वहाँ से चली गई। लेकिन जैसे ही वह एकान्त में पहुँची उसकी टाँगें जवाब दे गईं और वह सड़क के किनारे गिर पड़ी। रात तक वह वहीं पड़ी रही। वापस लौटने पर रोज़ ने किसान को अपनी समस्या बताई। किसान ने कहा कि वह जब तक चाहे अपनी माँ के पास रह सकती है। उसने कहा कि इतने दिनों तक उसका काम जमादारिन कर लेगी और वापस आने पर उसे दुबारा रख लेने का वादा किया।
घर पहुँचने के कुछ ही समय बाद उसकी माँ मर गई और अगले ही रोज़ ने एक सतमासे बच्चे को जन्म दिया। वह बेहद दुबला, हड्डियों के ढाँचे के समान था जिसे देखकर किसी के भी शरीर में सुरसुरी दौड़ जाती। रोज़ ने बताया कि वह शादीशुदा है लेकिन बच्चे को फार्म पर साथ नहीं रख सकती। उसने बच्चे को अपने पड़ोसी के पास छोड़ दिया जिसने उसकी पूरी देखभाल का वादा किया। रोज़ बच्चे को सौंप वापस फार्म पर लौट आई।
लेकिन उसके घायल हृदय में रोशनी की चमक की तरह उस कृशकाय प्राणी के लिए एक ऐसा प्यार हिलोर मारने लगा जिसे वह छोड़ आई थी । उसका मन करता कि वह उस छोटे-से जीव को अपनी बाँहों में भर गले से लगा ले, उसे चूमे और उसके शरीर की गर्मी को महसूस करे। रोज़ की रातों की नींद उड़ गई थी। वह हर दिन अपना काम खत्म होने के बाद आग के सामने बैठकर लपटों को देखती रहती और उसके विचार कहीं दूर होते ।
लोग उसे चिढ़ाने लगे। वे उससे पूछते कि उसका प्रेमी कैसा है? क्या वह लम्बा, खूबसूरत और अमीर है? शादी कब हो रही है? अकसर वह तीर की तरह चुभनेवाले इन सवालों से बचने के लिए वहाँ से भाग जाती। ऐसे मजाकों से बचने के लिए वह और भी मन लगाकर काम करने लगी। अपने बच्चे के बारे में सोचते हुए उसने तय किया कि उसके लिए पैसे बचाएगी और इतनी मेहनत से काम करेगी कि मालिक उसकी तनख्वाह बढ़ा देगा ।
धीरे-धीरे रोज सारे काम खुद ही करने लगी। जब से वह दो लोगों का काम करने लगी तब से दूसरी नौकरानी बेकार हो गई और उसने मालिक से कहकर उसे हटवा दिया। अब वह हर चीज पर नजर रखने लगी। वह रोटी, तेल, मोमबत्तियों और मुर्गियों को दिए जानेवाले भुट्टे के दानों की फिजूलखर्ची को भी रोकने की कोशिश करने लगी। साथ ही रोज़ ने घोड़ों और मवेशियों को मिलनेवाले चारे की भी बचत करनी शुरू कर दी। वह इस तरह सब चीजों पर नजर रखती और कटौती करती, जैसे उसका स्वयं का पैसा खर्च हो रहा हो ! वह फार्म की हर उपज के अच्छे भाव तय करती और जब किसान कुछ बेचने आते तो उनकी सारी चालें बेकार कर देती । धीरे-धीरे मालिक ने सब-कुछ खरीदने-बेचने, मजदूरों से काम लेने और गृहस्थी के सारे कामों की जिम्मेदारी उसे सौंप दी। थोड़े ही समय में रोज़ किसान के लिए अनिवार्य बन गई। वह हर चीज पर ऐसी कड़ी नजर रखती थी कि उसकी देख-रेख में फार्म फलने-फूलने लगा और पाँच मील के दायरे में मास्टर वालैं की नौकरानी के चर्चे होने लगे। किसान खुद ही हर जगह कहता फिरता था, “ वह लड़की तो सोने से तोलने लायक है ।"
समय गुजरा, रोज़ के काम की तारीफ तो हुई लेकिन उसकी कड़ी मेहनत को मान लिया गया कि एक ईमानदार नौकर से ऐसी ही उम्मीद की जाती है। रोज़ के अन्दर कड़वाहट भरने लगी। उसने सोचा कि किसान उसकी बदौलत हर महीने पचास से सौ क्राउन अतिरिक्त बैंक में जमा कर लेता है जबकि वह सिर्फ दो सौ फ्रेंक ही सालाना कमा पाती है-न कम, न ज्यादा । फिर उसने अपनी मजदूरी बढ़ाने के लिए कहने का मन बना लिया । इस सिलसिले में वह तीन बार स्कूलमास्टर के पास गई लेकिन वहाँ जाकर कुछ और बात करने लगी। उसे पैसे के बारे में बात करने में संकोच होता था, जैसे वह कोई गिरा हुआ काम करने जा रही हो ! आखिरकार एक दिन जब किसान अकेले ही रसोई में नाश्ता कर रहा था तो रोज़ ने कुछ झिझक और शर्म के साथ कहा कि वह उससे बात करना चाहती है। किसान ने आश्चर्य से अपना सिर उठाया। उसके दोनों हाथ मेज पर थे, एक में थमे चाकू की नोक हवा में उठी थी और दूसरे में रोटी का टुकड़ा था। किसान लड़की की ओर एकटक देखे जा रहा था जिससे वह असहज महसूस कर रही थी। रोज़ ने झिझकते हुए एक हफ्ते की छुट्टी माँग ली क्योंकि उसकी तबियत ठीक नहीं थी। किसान उसके आग्रह को एकदम से मान गया। कुछ झिझकते हुए बोला, “जब तुम वापस लौटोगी तो मुझे भी तुमसे कुछ बात करनी है।"
तीन
बच्चा आठ महीने का हो गया था और वह उसे पहचान ही नहीं सकी। वह अब गुलाबी और गोल-मटोल हो गया था। रोज़ उस पर इस तरह टूट पड़ी जैसे वह कोई शिकार हो और उसे बेतहाशा चूमने और बाँहों में लेकर प्यार करने लगी। बच्चे ने उसे पहचाना नहीं और डर के मारे रोने लगा। जैसे ही उसने परिचित चेहरे को देखा, उसकी ओर बाँहें फैला दीं। लेकिन अगले ही दिन से बच्चा रोज को पहचानने लगा । वह उसे देखकर हँसने लगता। रोज़ उसे खेतों में ले जाती और बड़े उत्साह के साथ उसके साथ घूमती और पेड़ की छाँव में उसे लेकर बैठ जाती। पहली बार उसने अपना हृदय किसी के लिए इस तरह खोला और उस नन्ही सी जान को अपनी तमाम मुश्किलों, अपनी कड़ी मेहनत, अपनी चिन्ताओं और आशाओं के बारे में बताया। वह बच्चे को इस कदर बेतहाशा दुलारती और प्यार करती कि वह बिल्कुल थक जाता ।
उसे बच्चे को सँभालने, उसे नहलाने-धुलाने में बड़ा मजा आता था । उसे यह सब करने में अपने मातृत्व की पुष्टि होते महसूस होता था। वह जब भी उसे देखती तो आश्चर्य से भर उठती और अपनी बाँहों में उसे झुलाते हुए बड़े प्यार से कहती, “यह मेरा बच्चा है, मेरा बच्चा ।"
फार्म को वापस लौटते हुए वह रास्तेभर रोती रही । वहाँ पहुँचते ही उसे किसान ने अपने कमरे में बुला लिया । वह कुछ घबराई हुई और अचरज के साथ वहाँ गई ।
वह बोला, “बैठ जाओ ।"
वह बैठ गई। कुछ क्षण के लिए वे चुपचाप एक-दूसरे के पास बैठे रहे। उनकी बाँहें ऐसे झूल रहीं थीं जैसे उन्हें पता ही न हो कि उनका क्या करें। वे एक-दूसरे के चेहरे की ओर टकटकी लगाए देख रहे थे ।
किसान पैंतालिस वर्ष का हट्टा-कट्टा और खुशमिजाज व्यक्ति था जिसकी दो पत्नियाँ स्वर्ग सिधार चुकी थीं। वह स्पष्टतः झेंपा हुआ लग रहा था जो उसके स्वभाव को देखते हुए अजीब था। आखिरकार उसने मन बनाया और कुछ झिझकते हुए खिड़की से बाहर झाँकते हुए बोला, “रोज, क्या तुमने कभी घर बसाने की नहीं सोची ?"
उसका रंग एकदम से सफेद पड़ गया। वह कोई जवाब नहीं दे सकी ।
वह कहता रहा, “तुम एक अच्छी, स्वस्थ, मेहनती और किफायती लड़की हो । तुम्हारी जैसी पत्नी पाकर कौन पुरुष धन्य नहीं हो जाएगा।”
वह बुत की तरह एक जगह बैठी रही। उसके चेहरे पर भय की लकीरें साफ दिखाई दे रही थीं । उसने किसान की बातों का अर्थ भी समझने की कोशिश नहीं की क्योंकि उसके दिमाग में भँवरें उठ रही थीं जैसे उसे किसी बड़े अनिष्ट की आशंका हो ।
कुछ पल इन्तजार के बाद वह बोला, “तुम जानती ही हो कि बिना मालकिन के कोई फार्म नहीं चल सकता, चाहे तुम्हारी जैसी नौकरानी भी क्यों न हो ।”
वह एकदम चुप हो गया क्योंकि वह समझ नहीं पा रही थी कि और क्या बोले । रोज़ उसकी तरफ ऐसे देख रही थी जैसे कोई किसी कातिल की तरफ देखता है और उसकी कोई हरकत होते ही भागने के लिए तैयार रहता है। पाँच मिनट इन्तजार करने के बाद किसान ने दोबारा पूछा, “क्या यह तुम्हें ठीक लगता है ?”
“क्या ठीक लगता है, मालिक ?”
वह एकदम से बोला, “यही, मुझसे शादी करना, और क्या !”
वह उछलकर खड़ी हुई लेकिन फिर धम्म से कुर्सी पर बैठ गई जैसे किसी ने धक्का दिया हो! वह जड़ हो गई, जैसे कोई बड़ी दुर्घटना घट गई हो ! आखिरकार किसान धैर्य खो बैठा और बोला, “बोलो, इससे ज्यादा तुम और क्या चाहती हो?" रोज़ भय से उसकी ओर देखने लगी और अचानक उसकी आँखों में आँसू भर आए। वह भर्राई हुई आवाज में दो बार बोली, “मैं नहीं कर सकती, मैं नहीं कर सकती !”
उसने कहा, “क्यों नहीं? बेवकूफी मत करो। मैं तुम्हें इस पर सोचने के लिए कल तक का समय देता हूँ।”
वह तेजी से बाहर चला गया। वह काफी समय से इस मामले को लेकर परेशान था और अब इसे निपटाकर बड़ा सन्तुष्ट था । किसान को कतई शक नहीं था कि रोज़ इस प्रस्ताव पर अगली सुबह हाँ नहीं कहेगी। किसान के लिए भी यह फायदे का सौदा था । वह एक ऐसी औरत को अपने साथ बाँधने की कोशिश कर रहा था जो अपने आप में बहुत बड़ा दहेज थी ।
इन दोनों के मेल पर कोई भी अचम्भा नहीं करता क्योंकि देहात में अधिक भेदभाव नहीं होता। किसान भी अपने मजदूरों की तरह ही काम करते थे और कई मजदूर मौका मिलने पर मालिक बन जाते थे। नौकरानियाँ अकसर ही गृहस्थी की मालकिन बन जाती थीं हालाँकि इससे उनके जीवन या आदतों में कोई खास अन्तर नहीं आता था ।
उस रात रोज़ सो नहीं सकी। यह बिना कपड़े बदले ही बिस्तर पर पड़ गई । उसमें रोने की भी ताकत नहीं बची थी। किसान की बातें सुनकर वह अचम्भित थी। वह जड़ हो गई थी, जैसे उसे यह पता ही न हो कि उसका एक शरीर भी है। वह अपने विचारों को संयोजित नहीं कर पा रही थी, हालाँकि बीच-बीच में उसे कुछ-कुछ याद आता था और फिर वह यह सोचकर डर जाती कि आगे क्या होगा? जब भी रसोई का बड़ा घड़ियाल घंटे की आवाज करता, वह घबराहट के मारे पसीने से भीग जाती। वह तन्द्रा में डूब गई और एक डरावना सपना देखा । मोमबत्ती भी बुझ गई। उसे ऐसा लगा, जैसे किसी ने उसके ऊपर वशीकरण कर दिया हो ! जैसा गाँव के लोग अकसर सोचते हैं । कहीं भाग जाने की एक पागल इच्छा उस पर हावी होने लगी ।
तभी उल्लू की चीख सुनाई दी और वह काँपकर उठ बैठी। उसने हाथों को चेहरे पर लगाया, और पूरे शरीर पर फिराया। उसके बाद वह सीढ़ियाँ उतरने लगी जैसे नींद में चल रही हो । अहाते में पहुँचकर वह झुक गई ताकि रात में भटकता कोई आवारा उसे देख न ले क्योंकि ढलता चाँद खेतों पर चमकती चाँदनी बिखेर रहा था। फाटक खोलने के बजाय उसने बाड़ कूदकर पार की और बाहर आते ही सीधे चलने लगी । वह तेजी से चल रही थी और बीच-बीच में अनजाने ही उसके गले से एक तेज चीख फूट पड़ती। उसकी लम्बी छाया उसके साथ चल रही थी और कभी-कभी कोई रात का पक्षी उसके सिर पर से निकल जाता और फार्मों के अहातों के कुत्ते उसे देखकर भौंके जा रहे थे। उनमें से एक तो रोज़ पर झपट भी पड़ा लेकिन रोज़ मुड़ी और इतनी जोर से चिल्लाई कि कुत्ता डर गया और दुम दबाकर भाग खड़ा हुआ ।
तारे मद्धिम पड़ गए और पक्षियों का कलरव शुरू हो गया था। दिन निकल रहा था। रोज़ बुरी तरह थक गई थी और हाँफ रही थी। जैसे ही बैंगनी आकाश पर सूर्य उदय हुआ, वह रुक गई। उसके सूजे हुए पाँवों ने अब चलने से जवाब दे दिया था। पर कुछ ही दूर उसे एक बड़ा तालाब दिखा जिसका ठहरा हुआ पानी इस नए दिन की रोशनी में खून जैसा दिखाई दे रहा था । वह लड़खड़ाते कदमों से अपने दिल पर हाथ रखकर उस ओर बढ़ी ताकि अपने पाँवों को पानी में डुबो सके ।
वह घास पर बैठ गई। उसने अपने धूल से भरे जूते उतारे, जुराबें निकालीं और अपनी टाँगें उस स्थिर पानी में डाल दीं जिसमें यहाँ-वहाँ बुलबुले उठ रहे थे।
पैर पानी में डालने से एक ठण्डी लहर उसके सिर से पाँव तक दौड़ गई। रोज़ एकटक तालाब को देखे जा रही थी कि अचानक उसका सिर घूम गया और उसे लगा कि वह तालाब में कूद पड़े। इससे हमेशा के लिए सारे दुखों का अन्त हो जाएगा। रोज़ के मन में अपने बच्चे का भी कोई खयाल नहीं आया। वह सिर्फ शान्ति चाहती थी और एक लम्बी नींद। उसने हाथ उठाए हुए दो कदम पानी में बढ़ाये । पानी उसकी जाँघों तक आ चुका था और वह अपने को पानी के हवाले करने जा रही थी कि टखनों में तीखे दर्द से वह उछलकर पीछे आ गई । वह घबराकर चीख पड़ी क्योंकि उसके घुटनों से लेकर पंजों तक लम्बी काली जोंकें लिपटी खून चूस रही थीं और मोटी होती जा रही थीं। उसकी उन्हें छूने की भी हिम्मत नहीं पड़ी। वह डर से तेज-तेज चिल्लाने लगी और उसकी चीखों ने कुछ दूरी से गुजर रहे एक किसान का ध्यान उसकी ओर खींचा। उसने एक-एक करके जोंकों को हटाया, उस स्थान पर जड़ी-बूटी का लेप लगाया और उसे अपने छकड़े में बैठाकर उसके मालिक के फार्म पर छोड़ आया ।
एक पखवारे तक वह बिस्तर पर पड़ी रही। ठीक होने के बाद जब वह पहली सुबह दरवाजे के बाहर बैठी थी तो किसान अचानक उसके सामने आकर खड़ा हो गया।
वह बोला, “हाँ, तो मेरे खयाल से मामला तय हो गया। क्यों?”
रोज़ ने तुरन्त कोई जवाब नहीं दिया। लेकिन किसान वहीं खड़ा तीखी नजरों से उसे देख रहा था, इसलिए उसने बड़ी मुश्किल से कहा, “नहीं, मालिक, मैं नहीं कर सकती।”
वह एकदम गुस्से से भड़क उठा, “तुम नहीं कर सकती, बेवकूफ लड़की, तुम नहीं कर सकती? मैं जान सकता हूँ आखिर क्यों ?”
वह रोने लगी और फिर कहा, “मैं नहीं कर सकती।”
किसान ने उसकी ओर देखा और गुस्से से चिल्लाया, “ तो मैं यह मानूँ कि तुम्हारा किसी से चक्कर है ?"
शर्म से काँपते हुए उसने जवाब दिया, “ शायद ऐसा ही है ।"
किसान पोस्त के फूल की तरह लाल हो गया और गुस्से से हकलाते हुए बोला, “आह! तो तुम यह स्वीकार करती हो कुलटा !... बताओ, वह कौन है। मेरे खयाल से कोई भुक्खड़, फटीचर, बेघर ही होगा। मैं पूछता हूँ, कौन है वो ?”
रोज़ ने जवाब नहीं दिया तो वह बोलता रहा, “आह! तो तुम नहीं बताओगी । तो मैं तुम्हें बताता हूँ, वह है ज्यां बोदा !”
वह चिल्लाई, “नहीं, वह नहीं !”
" तो वह पिएर मार्ते होगा।”
“ नहीं ! मालिक, वह नहीं ।"
किसान गुस्से में पास-पड़ोस के सभी युवकों के नाम लेता रहा और वह घड़ी-घड़ी अपने नीले एप्रन के कोने से आँसू पोंछती हुई इन्तजार करती रही। लेकिन किसान हठी था और उस आदमी का पता लगाने में जुटा हुआ था और रोज़ का भेद जानने के लिए उसके दिल को ऐसे खरोंचे जा रहा था, जैसे कोई शिकारी कुत्ता बिल में छिपे जानवर की गन्ध पाकर मिट्टी पर पंजे मारता है। अचानक वह चिल्लाया, “भगवान की कसम ! वह जाक है, जो पिछले साल यहाँ काम करता था। सभी कहते थे कि तुम्हारा आपस में काफी मेलजाल था। तुम्हारा उससे शादी का भी इरादा था ।”
रोज़ एकदम सकते में आ गई। उसका चेहरा लाल हो गया, आँखों से बह रहे आँसू रुक गए और गालों पर दुलके आँसू ऐसे सूख गए जैसे गर्म लोहे पर पड़ी पानी की बूँदें। वह चिल्लाई, “नहीं, वह नहीं है। नहीं है वह !”
सच पर पहुँच चुके चालाक किसान ने पूछा, “क्या यह सही नहीं है?"
रोज़ ने जल्दी से जवाब दिया, “मैं कसम खाती हूँ मैं कसम खाती हूँ।” वह सोचने लगी कि किस चीज की कसम खाए क्योंकि वह किसी पवित्र वस्तु की झूठी कसम नहीं खाना चाहती थी।
किसान ने रोज़ को बीच में रोककर कहा, “जाक हर समय तुम्हारे पीछे लगा रहता था, भोजन के समय भी वह तुम्हें ही देखता रहता था। क्या तुमने उससे कभी कोई वादा नहीं किया?"
रोज़ ने इस बार सीधा किसान की आँखों में देखा, "नहीं, कभी नहीं, कभी नहीं । मैं आपके सामने कसम खाती हूँ कि अगर आज आकर भी वह मुझसे शादी के लिए कहे, तो भी मेरा उससे कोई लेना-देना नहीं ।"
रोज़ ऐसी ईमानदारी से बातें कर रही थी कि किसान अकबका गया और फिर ऐसे बोलने लगा, जैसे अपने से बातें कर रहा हो, “फिर क्या ? तुम्हारे साथ कुछ गड़बड़ नहीं हुआ है वरना सबको पता चल जाता। फिर तुम अपने मालिक से क्यों इनकार कर रही हो? जरूर इसकी तह में कोई और बात है ।"
वह कुछ नहीं कह सकती थी, उसमें कुछ कहने की ताकत नहीं बची थी । किसान ने उससे फिर पूछा, “तो तुम शादी नहीं करोगी?”
वह एक ठण्डी आह भरकर बोली, “मैं नहीं कर सकती, मालिक ।"
किसान मुड़कर चला गया।
रोज़ को लगा कि उसने किसान से छुटकारा पा लिया है। वह दिन बड़ी शान्ति से बीता, लेकिन वह इस तरह थक गई थी जैसे बूढ़े सफेद घोड़े की जगह पर वही दँवई की मशीन में जुती रही हो । वह जितनी जल्दी हो सकता था, बिस्तर पर चली गई और फौरन ही सो गई। आधी रात को बिस्तर को दो हाथों ने छुआ तो वह एकदम जाग गई। वह भय से काँपने लगी लेकिन उसने तुरन्त ही किसान की आवाज पहचान ली । वह कह रहा था, “डरो मत रोज़, मैं तुमसे बात करने आया हूँ।”
पहले तो उसे ताज्जुब हुआ। लेकिन जब किसान छूट लेने लगा तो वह समझ गई कि उसके इरादे क्या हैं और बुरी तरह काँपने लगी। इस अँधेरे में वह अपने को बिल्कुल अकेली महसूस कर रही थी। नींद का भारीपन अब भी उस पर हावी था और वह किसान के सामने अपने को एकदम असुरक्षित महसूस कर रही थी । वह कतई राजी नहीं थी लेकिन किसान से खुद को लापरवाही से बचा रही थी। वह खुद अपनी पाशविक मूलवृत्ति से लड़ रही थी और थके हुए शरीर की अनिश्चित इच्छाशक्ति उसकी मदद नहीं कर पा रही थी। किसान से बचने के लिए वह सिर इधर-उधर कर रही थी और उसका बदन चादर के नीचे ऐंठ रहा था। वह संघर्ष थक रही थी और बढ़ती हवस के कारण किसान जानवर बन चुका था ।
वे पति-पत्नी की तरह रहने लगे और एक सुबह किसान ने रोज़ से कहा, “मैंने विवाह की घोषणा कर दी है और हम अगले महीने शादी करेंगे।”
रोज़ ने कोई जवाब नहीं दिया। वह कह भी क्या सकती थी ! उसने विरोध नहीं किया, वह कर भी क्या सकती थी !
चार
रोज़ की किसान से शादी हो गई। उसे लगने लगा कि वह ऐसी खाई में गिर गई है। जिससे निकलना असम्भव है। तमाम दुख और संकट उसके सिर पर ऐसी बड़ी-बड़ी चट्टानों की तरह लटक रहे थे जो कभी भी गिर सकती हैं। उसका पति उसे इस तरह देखता जैसे उसने उससे चोरी की है जिसका पता एक न एक दिन चल ही जाएगा। फिर वह अपने बच्चे के बारे में सोचती जो उसके तमाम दुर्भाग्य का कारण था और दुनिया में उसकी खुशी का भी एकमात्र कारण था । वह साल में दो बार उससे मिलने जाती और पहले से भी ज्यादा उदास होकर लौटती थी ।
धीरे-धीरे वह इस जीवन की आदी हो गई । उसका मन अब शान्त होने लगा था और अब वह मानसिक सन्तोष अनुभव करती। हालाँकि कुछ ऐसा था जो उसे हमेशा ही कचोटता रहता। साल पर साल बीतते गए और बच्चा छह साल का हो गया। वह अब लगभग खुश रहती थी। लेकिन अचानक किसान नाराज रहने लगा । दो-तीन साल से किसान किसी दुश्चिन्ता को अपने मन में पाले हुए था। उसे कोई बात मन-ही-मन खाये जा रही थी। भोजन के बाद वह काफी देर तक सिर पर हाथ रखकर बैठे रहता। वह हमेशा तेजी से बोलता और बहुत ही गुस्से से जवाब देता । ऐसा लगता था कि वह अपनी पत्नी से खुश नहीं है क्योंकि वह उसे बहुत रूखे ढंग से जवाब देता था ।
एक दिन पड़ोस का एक बच्चा रोज़ के पास अण्डे लेने आया, लेकिन काम में लगी होने के कारण रोज़ ने उसे झिड़क दिया। उसका पति अचानक भीतर आया और अपनी कर्कश आवाज में उससे बोला, “अगर यह तुम्हारा बच्चा होता तो तुम उससे इस तरह का व्यवहार नहीं करतीं ।"
वह आहत होकर घर के भीतर चली गई । उसके सीने में सोई टीस फिर जाग उठी थी । भोजन के समय किसान ने न तो रोज़ से बात की और न ही उसकी ओर देखा। ऐसा लगता था, जैसे वह उसके बारे में सबकुछ जान गया है और उससे नफरत करने लगा है । वह घबरा गई और खाना खत्म होने के बाद रसोई में किसान के साथ अकेले नहीं रहना चाहती थी। वह कमरे से निकली और तेजी से गिरजाघर चली गई।
शाम हो रही थी, चर्च के संकरे मध्य भाग में पूरा अन्धकार था। रोज़ को चर्च के पूर्वी हिस्से से पदचाप सुनाई दे रही थी जहाँ चर्च का सेवक दीपदानों को रौशन करने की तैयारी में जुटा हुआ था। मेहराबों की छाया में खोई टिमटिमाती रोशनी रोज़ को अपनी आखिरी उम्मीद जैसी जान पड़ी। उसको एकटक देखते हुए रोज़ घुटनों के बल बैठ गई। दीपदान ऊपर खींचने पर जंजीर की खनक सुनाई दी और फिर बाहर बढ़ते कुहासे को चीरती चर्च की घंटी गूँज उठी। जैसे ही वह सेवक जाने को हुआ, रोज़ उसके पास पहुँच गई।
उसने पूछा, “क्या मोस्यू ल क्योर (पादरी) घर पर ही हैं ?”
“हाँ, बिल्कुल। यह उनके भोजन का समय है।"
पादरी के कमरे की घंटी बजाते ही वह काँपने लगी । पादरी अभी भोजन के लिए बैठा ही था। उसने रोज़ को भी अपने पास बैठने को कहा, “हाँ, हाँ, मैं सबकुछ जानता हूँ । जिस सिलसिले में तुम यहाँ आई हो, उसके बारे में तुम्हारा पति मुझे पहले ही बता चुका है।"
बेचारी रोज़ बुरी तरह घबरा गई। पादरी कहता रहा, “मेरी बच्ची, तुम चाहती क्या हो ?” और उसने तेजी से सूप के कई चम्मच निगले । सूप की कई बूँदें उसके चिकनाई लगे चोगे पर गिर गईं। रोज कुछ भी कहकर कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहती थी। जैसे ही वह जाने लगी, पादरी ने कहा, “हिम्मत से काम लो।”
वह जाने बिना कि क्या कर रही है, वापस फार्म पर लौट आई। उसकी गैर-मौजूदगी में मजदूर जा चुके थे और किसान उसका इन्तजार कर रहा था । आँखों से अश्रुधारा बहाते हुए वह एकदम से किसान के पाँवों पर गिर गई और बोली, “आखिर आप मुझसे नाराज क्यों रहते हैं?”
वह गालियाँ देते हुए चिल्लाने लगा, “मैं तुमसे नाराज क्यों रहता हूँ? इसलिए कि मेरे कोई औलाद नहीं है । जब कोई आदमी शादी करता है तो वह जीवन के अन्तिम दिनों तक उसके साथ अकेला नहीं रहना चाहता । इसीलिए मैं तुमसे नाराज । अगर गाय के बछड़ा न हो तो उसकी कोई कीमत नहीं, वैसे ही बाँझ औरत का कोई वजूद नहीं।”
वह रोते हुए बोली, “इसमें मेरी कोई गलती नहीं है! मेरी कोई गलती नहीं है !” यह सुनकर किसान थोड़ा नरम पड़ गया और कहा, “मैं यह नहीं कह रहा हूँ, लेकिन फिर भी यह ठीक नहीं है ।"
पाँच
उस दिन से रोज़ के दिमाग में एक ही बात घूमती; उसे बच्चा चाहिए, एक और बच्चा । वह अपनी इच्छा के बारे में हर किसी को बताती और एक पड़ोसिन ने उसे एक अचूक नुस्खा बताया। उसे हर शाम एक गिलास पानी में एक चुटकी राख डालकर अपने पति को पिलाना था । किसान इसे आजमाने पर सहमत था । लेकिन उन्हें सफलता हाथ नहीं लगी। वे एक दूसरे से कहते, “कोई न कोई गुप्त उपाय तो जरूर होगा ?” वे ऐसे उपाय खोजते रहते। उन्हें तीस मील पर रहनेवाले एक चरवाहे के बारे में बताया गया और एक दिन वालैं उससे मिलने भी गया । चरवाहे ने उसे कुछ निशान लगाकर एक डबलरोटी दी जिसका आटा जड़ी-बूटियों के साथ गूँधा गया था। पति-पत्नी दोनों को सहवास से पहले और बाद में इसका एक टुकड़ा खाना था। वे पूरी रोटी खा गए, पर इसका भी कोई परिणाम नहीं निकला।
फिर स्कूलमास्टर ने किसान को प्यार के उस अचूक ज्ञान से अवगत कराया जिसे गाँव के लोग कम ही जानते हैं। लेकिन इसका भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा। तत्पश्चात् पादरी ने सलाह दी कि वे फेकां के मठ की तीर्थयात्रा कर आएँ। रोज़ भीड़ के साथ गई और मठ में साष्टांग लेटे हुए दोबारा माँ बनने की प्रार्थना की, लेकिन सब व्यर्थ गया। रोज़ को लगा कि उसे उसकी पहली गलती के लिए दण्डित किया जा रहा है। और वह बेहद दुखी हो गई । परेशानियों से वह सूखकर काँटा होती जा रही थी । उसका पति भी उम्र से पहले बूढ़ा होने लगा था और बेकार की उम्मीदों में अपने को तबाह किए जा रहा था ।
इससे शुरुआत हुई उन दोनों के बीच कलह की । वह उसे गालियाँ देता और पिटाई करता। सारे दिन उनके बीच तू-तू-मैं-मैं चलती रहती और रात को जब वे बिस्तर में होते तो वह गुस्से से हाँफते हुए उसे भद्दी गालियाँ बकता। एक रात जब वह उसे तकलीफ पहुँचाने का कोई तरीका नहीं सोच पाया तो किसान ने रोज़ को उठने का आदेश दिया और कहा कि सुबह होने तक बाहर बारिश में खड़ी रहे । उसने यह बात नहीं मानी तो किसान ने उसकी गर्दन पकड़ी और उसके चेहरे पर मुक्के मारने लगा। पर वह न कुछ बोली और न छुड़ाने की कोशिश की। बौखलाए किसान ने उसे घुटने से दबा दिया और दाँत भींचते हुए उसे पीटने लगा। आखिरकार हताशा में रोज़ विद्रोह कर उठी । उसने गुस्से से किसान को दीवार की ओर धकेला और फुफकारते हुए बोली, “मैं बाँझ नहीं! मेरे एक बच्चा है! मुझे जाक से एक बच्चा है। तुम जाक को अच्छी तरह से जानते हो। उसने मुझसे शादी का वादा किया था, लेकिन वह अपने वादे से फिर गया और मुझे धोखा देकर चला गया।”
किसान पर जैसे बिजली गिर गई, उसकी जबान को जैसे लकवा मार गया। कुछ पल बाद वह हकलाते हुए बोला, “तुम क्-क्-क्या कह रही हो? क्या कह रही हो तुम?"
वह सुबकने लगी और सिसकियों के बीच उसने कहा, “इसी वजह से मैं तुमसे शादी नहीं करना चाहती थी। मैं तुम्हें सच्चाई भी नहीं बता सकती थी क्योंकि सच्चाई जानने के बाद तुम मुझे काम से निकाल देते और मेरे लिए बच्चे का पेट भरना मुश्किल हो जाता । तुम्हारे कोई बच्चा नहीं है, इसलिए तुम नहीं समझ सकते, तुम नहीं समझ सकते !”
किसान ने और भी हैरानी के साथ यांत्रिक ढंग से फिर पूछा, “तुम्हारा एक बच्चा है ? तुम्हारा एक बच्चा है?"
रोज़ ने सुबकते हुए कहा, “तुमने मुझे बलपूर्वक हासिल किया। यह तो तुम जानते ही हो कि मैं तुमसे शादी करना नहीं चाहती थी । "
किसान उठा और मोमबत्ती जलाई। हाथ पीछे रखकर वह कमरे में चहलकदमी करने लगा। रोज़ डर से सिकुड़कर बिस्तर पर बैठी रो रही थी। अचानक वह उसके सामने आकर खड़ा हो गया, “ तो इसमें मेरी कमी है कि तुम्हारे कोई बच्चा नहीं है?"
रोज़ कुछ नहीं बोली। किसान फिर इधर-उधर टहलने लगा। फिर रुककर बोला, " तुम्हारे बच्चे की उम्र क्या है ?"
वह धीमे से बोली, “सिर्फ छह साल ।”
उसने पूछा, “तुमने इस बारे में मुझे कुछ बताया क्यों नहीं ?”
रोज़ ने आह भरते हुए कहा, “मैं कैसे बता सकती थी ?”
वह कुछ देर तक पत्थर की मूरत बना खड़ा रहा। “चलो उठो,” उसने कहा । वह कुछ मुश्किल से उठी। जैसे ही वह खड़ी हुई, किसान एकदम से अपने पुराने दिनों की तरह हँसने लगा। रोज़ यह देखकर आश्चर्यचकित थी। वह बोला, “अच्छी बात है, हमारे कोई बच्चा नहीं हो सकता, इसलिए हम जाएँगे और बच्चे को साथ लेकर आएँगे।”
वह बहुत डर गई थी। अगर उसमें थोड़ी भी ताकत होती तो वह यहाँ से भाग जाती । किसान ने हाथ मलते हुए कहा, “मैं किसी बच्चे को गोद लेना चाहता था और अब हमें वह मिल गया है। मैंने कुछ समय पहले पादरी से किसी अनाथ बच्चे के बारे में बताने के लिए कहा था।”
किसान हँसता रहा । उसने अपनी रोती और उत्तेजित पत्नी के गालों को चूम लिया और इस तरह चिल्लाया जैसे रोज़ को सुनाई ही न दे रहा हो, “चलो, माँ, देखते हैं कि कुछ शोरबा बचा है या नहीं। मुझे भूख लग रही है।”
रोज़ ने जल्दी से कपड़े पहने और वे नीचे चले गए। जिस समय वह चूल्हे के सामने झुकी हुई सॉसपैन के नीचे आग जला रही थी, किसान रसोई में लम्बे-लम्बे डग भरते हुए टहल रहा था । वह बोला, “वाकई, मैं बहुत खुश हूँ। यह मैं सिर्फ कहने के लिए नहीं कह रहा। मैं खुश हूँ, वाकई, मैं बहुत खुश हूँ ।"
(अनुवाद : नरेंद्र सैनी)