विष्णु का तिलक/प्रतीक (अंग्रेज़ी कहानी) : खुशवन्त सिंह

The Mark Of Vishnu (English Story in Hindi) : Khushwant Singh

‘‘यह काले नाग के लिए है,’’ तश्तरी में दूध उड़ेलते हुए गंगाराम बोला, ‘‘मैं हर रात इसे दीवार वाले उस बिल के पास छोड़ आता हूँ और सुबह उठते ही यह सफाचट मिलता है।’’

‘‘हो सकता है बिल्ली पी जाती हो,’’ हम बच्चों ने सुझाया।

‘‘बिल्ली,’’ गंगाराम ने विरक्ति में मुँह सिकोड़ा, ‘‘कोई बिल्ली उस बिल के करीब फटकती तक नहीं। वहां काला नाग रहता है। जब तक मैं उसे दूध देता रहूँगा, वह इस घर के किसी व्यक्ति को नहीं डसेगा। तुम सब जहाँ चाहो, नंगे पैर घूमते रहो और जहाँ मर्जी आए, खेलते रहो।’’

हमें गंगाराम के संरक्षण की कोई जरूरत नहीं थी।

‘‘तुम एक बेवकूफ बुढ़ऊ ब्राह्मण हो,‘‘ मैंने कहा, ‘‘तुम्हें इतना भी नहीं मालूम कि साँप दूध नहीं पीते ? कम-से-कम तश्तरी भर दूध तो हर दिन वह पी ही नहीं सकता। हमारे अध्यापक ने हमें बताया था कि साँप कई-कई दिनों में सिर्फ एक बार ही खाता है। हमने एक घास वाला साँप देखा था, जिसने एक मेढ़क को निगल लिया था। मेंढक कई दिनों तक उसके गले में गोली की तरह अटका रहा। तब जाकर वह किसी तरह घुल-घुलकर उसके पेट में पहुँचा। हमारी प्रयोगशाला में दर्जनों साँप मिथाइल वाली स्पिरिट में डूबे रखे हैं। क्यों, पिछले महीने ही तो अध्यापक जी ने सपेरे से एक साँप खरीदा था जो दोनों तरफ रेंग सकता था। इसका दूसरा सिर पूँछ की तरफ था। प्रयोगशाला में कोई खाली जार था ही नहीं, सो अध्यापक ने उसे एक धारीदार विषैले नाग वाले जार में ही डाल दिया। चिमटों के साथ उसके दोनों मुँहों को पकड़कर टीचर ने उसे जार में छोड़ा था और तुरंत ही ढक्कन बंद कर दिया था। जार में तो उसने मानो तूफान ही ला दिया था। चक्कर मार-मारकर पहले वाले साँप को नोच-फाड़कर टुकड़े-टुकड़े ही कर दिया।

पवित्र मन के गंगाराम ने जुगुप्सा और संत्रास से आँखें बंद कर लीं।

‘‘तुम्हें किसी दिन इसका बदला चुकाना पड़ेगा, हां, जरूर चुकाना पड़ेगा।’’

गंगाराम के साथ बहस करने का कोई फायदा नहीं था। अन्य हिंदुओं की भाँति वह भी ब्रह्मा, विष्णु और महेश की त्रिमूर्ति में विश्वास करता था। ब्रह्मा-संसार के जन्मदाता, विष्णु-उसके रक्षक और महेश-उसके संहारक। इन तीनों में विष्णु में उसकी सर्वाधिक आस्था थी। प्रतिदिन तड़के ही वह अपने अभीष्ट विष्णु की प्रतिष्ठा में माथे पर ‘V’ के आकार में चंदन का तिलक लगाया करता था। वह ब्राह्मण था, लेकिन था निरा अनपढ़ और अंधविश्वासी। उसके लिए तो हरेक प्राणी मात्र ही पवित्र था, भले वह साँप हो बिच्छू हो या फिर कान-खजूरा। जब कभी उसकी नजर इनमें से किसी पर भी पड़ती वह तपाक से उन्हें सरका देता कि कहीं हम उन्हें मार ही न डालें। हमारे बैडमिंटन रैकटों की चोट से प्रताड़ित ततैयों को भी उठाकर वह उनके भग्न परों को सहलाने लगता। कभी-कभी उसे डंक भी लग जाते। पर उसका विश्वास फिर भी न डिग पाता। जंतु जितना ज्यादा भयानक होता, गंगाराम की उसकी अस्तित्व में उतनी ही अधिक आस्था होती। इसीलिए उसे सर्पों के प्रति श्रद्धा थी और सबसे बढ़कर तो अजगर के लिए जो उसका काला नाग था।

‘‘अगर कहीं तुम्हारा काला नाग दिखाई दिया तो हम उसे जरूर मार देंगे।’’

‘‘मैं तुम्हें हरगिज ऐसा नहीं करने दूँगा। इसने सौ अंडे दिए हुए हैं। अगर तुमने इसे मारा तो सारे अंडों से अजगर बन जाएँगे। पूरा घर अजगरों से भर जाएगा। तब तुम क्या करोगे ?’’

‘‘हम उन्हें जिंदा पकड़ लेंगे और बंबई भेज देंगे। वहाँ इन साँपों को दुहकर जहर काटने वाला सीरम बनाया जाता है। जिंदा अजगर का वे दो रुपया देते हैं। दो सौ रुपए तो हमारे यों ही बन जाएँगे।’’

‘‘तुम्हारे डाक्टरों के जरूर थन होते होंगे। पर साँपों के तो मैंने कभी नहीं देखे। लेकिन, खबरदार जो तुमने इनको छुआ तक। यह फनियर नाग है, समझे, फन वाला। मैंने इसे देखा है। पूरे तीन हाथ लंबा है। और जहाँ तक इसके फन की बात है, ‘‘गंगाराम ने अपनी हथेलियों को खोला और सिर को डुलाते हुए बोला,‘ तुम खुद ही इसे कभी लॉन में बैठे धूप सेंकते हुए देखना, तभी जान पाओगे।’’

‘‘तुम कितने झूठे हो, तुमने खुद ही साबित कर दिया। फनियर तो नर होता है, मादा नहीं। फिर इसके सौ अंडे देने का सवाल ही नहीं उठता। अंडे फिर तुमने ही दिए होंगे।’’

बच्चों की टोली कहकहे लगाकर हँसने लगी, गंगाराम के ही अंडे होंगे। अब तो जल्दी ही हमें सौ गंगाराम देखने को मिलेंगे।

गंगाराम के पास कोई जवाब नहीं बचा था। नौकर की तो नियति में ही होता है, निरंतर मुँह बंद कर दिया जाना। लेकिन घर के बच्चों द्वारा दिन-रात मजाक का पात्र बनाया जाना गंगाराम के लिए भी अब असहनीय हो गया था। वे आए दिन उसे नीचा दिखाने की नई-नई विषैली युक्तियाँ ढूँढ़ा करते। वे कभी अपने धर्मग्रंथों को नहीं पढ़ा करते थे। महात्मा गाँधी जो अहिंसा के विषय में कहते, उसकी भी उन्हें परवाह नहीं थी। बंदूकें लेकर चिड़ियों को मारते फिरना या फिर मिथाइल-स्पिरिट के मर्तबानों में साँपों को डुबाना, बस यही आता था उन्हें तो। जीवन की पवित्रता में गंगाराम का विश्वास भी अडिग रहा। वह साँपों को खिलाता-पिलाता था और उनकी रक्षा करता था, क्योंकि उसकी नजर में ईश्वर के बनाए तमाम जीवों में ये ही सर्वाधिक जघन्य प्राणी थे। अगर हम इन्हें मारने के बदले इन्हें प्यार कर सकें, तभी ईश्वर में हमारी सच्ची आस्था होगी।

गंगाराम-कौन सी विचारधारा को सिद्ध करना चाहता था, यह तो उसके लिए भी अस्पष्ट था। अपनी आस्था सिद्ध करने को उसके लिए इतना ही काफी था कि रोज रात को दूध-भरी तश्तरी बिल के पास रख दे और सुबह होते ही इसे सफाचट हुआ देख ले।

एक दिन हमने काले नाग को देख लिया। बरसात अपने जोरों पर थी। रात-भर बारिश होती रही थी। ग्रीष्म ऋतु के झुलसाते सूरज की गर्मी में तपी सूखी झुलसी धरती में मानो एक नया ही जीवन उमड़ आया था। छोटे तालाबों में मेंढक टर्राने लगी थे। घास उगनी शुरू हो गई थी। केलों के चिकने पात हरे-भरे होकर चमकने लगे थे। काले नाग के बिल में पानी भर आया था। उसका चमकीला काला फन सूरज की धूप में और भी चमक रहा था। नाग काफी बड़ा था-कोई 6 फुट लंबा रहा होगा। गोलाकार और मंसाल-मेरी कलाई की तरह।

‘‘लगता है यह अजगर नागराज ही है। चलो इसे पकड़ें।

काले नाग को हमने ज्यादा मौका नहीं दिया। जमीन फिसलन भरी थी। सारे बिल और गटर पानी से भरे पड़े थे। मदद के लिए गंगाराम भी घर पर नहीं था।

उसे खतरे की भनक भी लग पाती, इससे पहले ही बाँस के डंडे हाथों में लिए हमने उसे घेर लिया। जब उसने हमें देखा, उसकी आँखों से मानो अंगारे फूट रहे थे। वह फुफकारते हुए चारों ओर थूक उगलने लगा। तभी मानो बिजली की सी फुर्ती से काला नाग केले के कुंजों की ओर लपका।

जमीन कीचड़ भरी थी। वह रुकते-पड़ते सरक रहा था। अभी वह पाँच गज भी आगे नहीं बढ़ पाया था कि एक लाठी उसके बीचो बीच आकर पड़ी और बेचारे की पीठ टूट गई। चारों ओर से इस कदर प्रहारों की बौछार हुई कि वह काले सफेद रंग की पिचपिची लुगदी में ही परिणत होकर रह गया। खून और मिट्टी से वह लथपथ हो गया था, लेकिन उसका सिर अभी भी सलामत था।

‘‘इसके सिर को मत कुचलना,’’ हम में से एक चिल्लाया, हम इस काले नाग को स्कूल ले जाएँगे।

सो हमने कोबरे के पेट के नीचे बाँस का डंडा डाला और उसे डंडा के सिरे पर टाँग लिया। बिस्कुट के एक बड़े से खाली कनस्तर में उसे डाला और कनस्तर को रस्सी से अच्छी तरह बाँध दिया। फिर टिन के उस डिब्बे को हमने एक चारपाई के नीचे छिपा दिया।

रात को मैं गंगाराम के आसपास मँडराता रहा कि कब वह दूध से भरी तश्तरी लेकर आए। आखिर मुझसे न रहा गया, मैंने उसे पूछ ही लिया, ‘‘आज तुम काले नाग के लिए दूध नहीं ले जाओगे क्या ?’’

‘‘हाँ, ले जाऊँगा,’’ गंगाराम ने चिड़चिड़ाते हुए जवाब दिया, ‘‘तुम जाओ न सोने !’’

वह इस विषय पर और अधिक तर्क-वितर्क करना नहीं चाहता था।

‘‘उसे अब और इस दूध की जरूरत नहीं पड़ेगी।’’

गंगाराम ठिठका, ‘‘क्यों ?’’

‘‘ओह ! नहीं कुछ नहीं। इतने मेंढक है चारों ओर। उसे तुम्हारे दूध से उनका स्वाद कहीं ज्यादा भाता होगा। तुम दूध में चीनी भी तो नहीं मिलाकर देते।’’

दूसरे दिन गंगाराम दूध की भरी-भराई तश्तरी लेकर वापस लौट आया। वह काफी खिन्न और उदास दिख रहा था। लगता था, उसे हम पर शक हो गया है।

‘‘मैंने तुम्हें पहले ही कहा था कि साँपों को दूध से ज्यादा मेंढक पसंद होते हैं।’’

हम लोग कपड़े बदलकर नाश्ता करने में जुटे थे। गंगाराम पूरे वक्त हमारे आसपास ही मँडराता रहा। स्कूल बस आई और कनस्तर को लेकर थोड़ी कठिनाई के साथ हम बस में चढ़ गए। जैसे ही बस चालू हुई, हमने गंगाराम को कनस्तर उठाकर दिखा दिया।

‘‘यहां है तुम्हारा काला नाग, इस बक्से में। बिलकुल सुरक्षित है। अब हम इसे स्पिरिट में डालने जा रहे हैं।’’

हमने देखा उसकी बोतली बंद हो गई है और छूटती बस को वह दीदे फाड़-फाड़कर देख रहा है।

स्कूल में काफी उत्तेजना फैली हुई थी। हम चार भाइयों की टोली अपनी उद्दंडता के लिए मशहूर है हमने एक बार फिर यह साबित कर दिखाया था।

‘‘कोबरा नागराज है !’’

‘‘छ: फुट लंबा !’’

‘‘फणियर !’’

कनस्तर हमने विज्ञान के अध्यापक के हवाले कर दिया। डिब्बा अध्यापक की मेज पर स्थापित था और हम इसी इंतजार में थे कि कब से इसे खोलें और हमारे शिकार की सराहना करें।

लेकिन टीचर ने ज़्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई और हमें नये सवाल हल करने के लिए दे दिये।

फिर वह अपनी चिमटी लाया और एक जार खोलकर उसमें कुंडली मारकर पड़े एक साँप को देखने लगा ।

फिर उसने धीरे-धीरे डिब्बे का ठक्कन खोलना शुरू किया।

उसके ऊपर बँधी सुतली जैसे ही ढीली पड़ी, ठक्कन एकदम खुलकर टीचर की नाक से टकराने को हुआ ।

उसके भीतर से काला नाग फन उठाकर बाहर निकला और फुंकारने लगा ।

उसकी आँखें लाल थीं और वह टीचर के मुँह की तरफ़ लपका । टीचर ने उसे पीछे धकेला और कुर्सी के पीछे लुढ़क गया । डर के मारे उसकी घिग्गी बँध गई और वह साँप को घूरने लगा। सब लड़के कुर्सियाँ छोड़कर उठे और चीखने-चिल्लाने लगे।

काले नाग ने सिर उठाकर चारों तरफ़ का मुआयना किया और जीभ बाहर निकालकर चलानी शुरू की।

फिर उसने ज़मीन पर थूका और आज़ाद होने के लिए भाग चला ।

डिब्बे में से वह ज़ोर से ज़मीन पर गिरा । उसकी पीठ पर जगह-जगह घाव थे, लगता था, उसे भी बड़ा कष्ट हो रहा है, लेकिन किसी तरह वह दरवाज़े तक जा पहुँचा ।

यहाँ आकर वह रुका और फिर से अपना फन फैलाया, जैसे अगले खतरे की तैयारी कर रहा हो।

कक्षा के बाहर गंगा राम हाथ में दूध का कटोरा और जग पकड़े खड़ा था। उसने काले नाग को अपनी तरफ़ आते देखा तो वह घुटनों के बल बैठ गया और कटोरे में दूध डालकर उसके सामने रखने लगा। फिर दोनों हाथ जोड़कर उसके सामने खड़े होकर जैसे क्षमा माँगने लगा। काला नाग क्रोध में था और उसने लपक-लपककर गंगा राम पर चारों तरफ़ से फन मारना शुरू कर दिया। इसके बाद वह धीरे-धीरे दरवाज़े से बाहर निकलकर नाली में घुस गया।

गंगा राम दोनों हाथों से मुँह पकड़े ज़मीन पर ढेर हो गया।

वह कष्ट से तड़प रहा था।

ज़हर ने उसे एकदम अंधा कर दिया।

कुछ ही मिनट में उसका शरीर नीला पड़ने लगा और मुँह से झाग निकलने लगे।

माथे पर खून की बूँदें झलक रही थीं।

टीचर ने रूमाल से उसे पोंछा, तो नीचे विष्णु का तिलक दिखाई दिया जिस पर काले नाग ने बार-बार फन मारे थे।

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