प्रेस की स्वतंत्रता (निबंध) : जॉर्ज ऑर्वेल
The Freedom of the Press (Essay in Hindi) : George Orwell
(ऑर्वेल ने यह निबंध अपने प्रसिद्ध उपन्यास 'ऐनिमल फ़ार्म' की प्रस्तावना के रूप में लिखा था, पर इसे छापा नहीं गया। उपन्यास के साथ इसे आज भी नहीं छापा जाता क्योंकि इसको मिला कर जो सच उजागर होता है वो बहुत से मठाधीशों और चेलों को रास नहीं आता और मठ-मालिकों को रास आने का तो सवाल ही नहीं उठता।)
जहाँ तक केन्द्रीय अवधारणा का सवाल है, इस पुस्तक का विचार तो 1937 में आया था, पर इसे असल में1943 के अंत तक नहीं लिखा गया था। जब तक इसे लिखा गया, यह साफ़ हो चुका था कि इसे छपवाने में काफ़ी दिक्कतें पेश आएंगी (इस बात के बावजूद कि अभी फिलहाल किताबों की इतनी किल्लत है कि कोई भी चीज़ जिसे किताब कहा जा सके 'बिकने' लायक है), और हुआ भी यही कि इसे चार प्रकाशकों द्वारा वापस कर दिया गया। इनमें से केवल एक के पास कोई विचारधारात्मक मंशा थी। दो तो सालों से रूस-विरोधी पुस्तकें छाप रहे थे, और जो बचा उसका कोई स्पष्ट राजनीतिक रंग नहीं था। एक प्रकाशक ने तो पुस्तक को छापने की कार्यवाही शुरू भी कर दी थी, पर आरंभिक इंतज़ाम करने के बाद उसने सूचना मंत्रालय से सलाह लेने का निर्णय लिया, जिसने शायद उसे चेता दिया, या कम-से-कम पुरज़ोर सलाह दी कि इस किताब को न छापे। उसके पत्र से एक उद्धरण पेश है:
मैंने यह तो बताया ही था कि मुझे सूचना मंत्रालय के एक महत्वपूर्ण अधिकारी से 'ऐनिमल फ़ार्म' के बारे में क्या प्रतिक्रिया मिली थी। मुझे यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इस राय की अभिव्यक्ति ने मुझे गंभीरता से सोचने पर मजबूर कर दिया है ... मैं यह देख पा रहा हूँ कि कैसे इसे हाल के समय में प्रकाशित करना अत्यंत अनुचित माना जा सकता है। अगर यह हर तरह के तानाशाहों और तानाशाहियों पर निशाना साधता तो सब ठीक हो सकता था, पर जिस तरह यह किस्सा चलता है, जैसा कि अब मैं देख सकता हूँ, यह इस तरह रूसी सोवियतों और उनके दो तानाशाहों के विकास पर आधारित है कि इसे केवल रूस पर लागू किया जा सकता है, और कहीं की तानाशाहियों पर नहीं। एक और बात: यह कम बुरा लगने वाला होता अगर किस्से में प्रमुख प्रजाति सुअरों की न होती। [यह स्पष्ट नहीं है कि बदलाव का यह सुझाव श्री ... का अपना विचार है, या यह सूचना मंत्रालय से आया है; पर इसमें आधिकारिक खनक तो सुनाई पड़ती है - ऑर्वेल की टिप्पणी] मेरे ख्याल से सत्ता पर काबिज प्रजाति के रूप में सुअरों का चयन निश्चय ही कई लोगों को बुरा लगेगा, और खास तौर पर ऐसे किसी भी व्यक्ति को जो कुछ तुनकमिजाज हो, जैसे कि अधिकतर रूसी बेशक होते ही हैं।
इस तरह की बात कोई अच्छा संकेत नहीं है। जाहिर तौर पर यह वांछित नहीं है कि एक सरकारी विभाग के पास ऐसी पुस्तकों को सेंसर करने का अधिकार हो जिन्हें सरकार ने प्रायोजित न किया हो, सिवाय सुरक्षा सेंसरशिप के जिस पर युद्ध के दौरान किसी को आपत्ति नहीं हो सकती। लेकिन सोचने तथा बोलने की आज़ादी को सबसे बड़ा खतरा इस समय सूचना मंत्रालय के सीधे हस्तक्षेप से नहीं है, और ना ही किसी सरकारी संस्था से। अगर प्रकाशक और संपादक खुद इस प्रयास में लग जाएंगे कि कुछ विषयों को छपने ना दिया जाए, तो ऐसा इसलिए नहीं है कि उन्हें मुकद्दमे का डर है, बल्कि इसलिए कि उन्हें जनमत का डर है। इस देश में बौद्धिक कायरता वो सबसे बड़ा दुश्मन है जिसका सामना किसी लेखक या पत्रकार को करना पड़ता है, और इस बात की उतनी चर्चा नहीं हुई है जितनी होनी चाहिए। पत्रकारिता का अनुभव रखने वाला कोई भी सच्चाईपसंद व्यक्ति मानेगा कि इस युद्ध के दौरान आधिकारिक सेंसरशिप कोई खास क्लेशप्रद नहीं रही है। हमें उस तरह के सर्वाधिकारवादी 'समन्वय' का सामना नहीं करना पड़ा हैं जैसा कि अपेक्षा की जा सकती थी। प्रेस की कुछ जायज़ शिकायतें हैं, पर कुल मिला कर सरकार ने ठीक ही व्यवहार किया है और वो अल्पमत के प्रति काफ़ी सहनशील रही है। साहित्यिक सेंसरशिप के मामले में इंग्लिस्तान में डरावना तथ्य यह है कि ऐसी सेंसरशिप अधिकांशतः स्वैच्छिक है। अलोकप्रिय विचारों का मुँह बंद कर दिया गया है, और असुविधाजनक तथ्यों को अंधेरे में रखा गया है, बिना किसी आधिकारिक प्रतिबंध की आवश्यकता के। जो भी लंबे समय तक विदेश में रहा है ऐसे सनसनीखेज़ समाचारों के बारे में जानता होगा - ऐसी बातें जो अपने ही महत्व के बल पर सुर्खियों में आ जाएँ - जिन्हें बरतानवी प्रेस के एकदम बाहर रखा गया, इसलिए नहीं कि सरकार ने दखल दिया बल्कि एक व्यापक अनकहे समझौते के तहत जिसके अनुसार इस तथ्य का ज़िक्र करना 'ठीक नहीं रहेगा'। जहाँ तक दैनिक समाचार पत्रों का सवाल है, यह आसानी से समझा जा सकता है। बरतानवी प्रेस अत्यंत केन्द्रीकृत है, और इसमें से अधिकतर पर तो धनवान लोगों की मिल्कियत है जिनके पास कुछ विशिष्ट विषयों के बारे में बेईमानी बरतने का पूरा-पूरा कारण है। लेकिन इसी तरह की ढकी-छुपी सेंसरशिप पुस्तकों तथा पत्रिकाओं में भी चलती है, और नाटकों में, फ़िल्मों तथा रेडियो में भी। हमेशा हर समय का अपना एक रूढ़िवाद होता है, विचारों का एक समन्वय, जिसके बारे में यह मान लिया जाता है कि हर सही सोच वाला व्यक्ति इससे सहमत होगा। ऐसा, वैसा या कुछ और कहने पर कोई प्रतिरोध तो नहीं होता, पर उसे कहना 'ठीक नहीं' समझा जाता, ठीक वैसे ही जैसे मध्य-विक्टोरियाई समय में किसी महिला की उपस्थिति में पतलून का ज़िक्र करना 'ठीक नहीं' समझा जाता था। जो भी अपने समय के प्रचलित रूढ़िवाद को चुनौती देता है खुद को आश्चर्यजनक प्रभावशीलता के साथ चुप करा दिया पाता है। किसी भी ऐसी राय को जो वास्तव में फ़ैशन के विपरीत ही शायद ही कभी न्यायसंगत सुनवाई मिलती हो, चाहे लोकप्रिय प्रेस में या उच्चवर्गीय पत्रों-पत्रिकाओं में।