चंद्रमा पर प्रथम मानव (उपन्यास-संक्षिप्त) : ऍच. जी. वेल्स

The First Men in the Moon (Novel Summary) : H. G. Wells

(एच. जी. वेल्स के 'फर्स्ट मैन आन दि मून' (1901) के कथानक का स्वतंत्र रूपांतर।)

चंद्रगोलक चंद्रलोक की यात्रा करेगा यह तो दूर की बात, वह बन भी सकेगा-ऐसा विश्वास मुझे नहीं था। बीस फुट व्यास का कांच का गोला बैसे बनेगा—कौन उसे बनायेगा यही समझ में नहीं आता था।

उसके तैयार होने में कठिनाइयां पड़ीं भी बहुत परंतु बूटा सिंह की दूरदर्शिता तथा प्रत्युत्पन्नमतित्व के सामने सब अड़चनें आश्चर्यजनक रीति से दूर होती गयीं।

जर्मनी के 'जेना' नामक नगर में कांच बनाने तथा ढालने का एक प्रसिद्ध कारखाना है। भौतिक तथा रासायनिक कामों के लिए यहां प्यालियां, चश्मे और दूरवीक्षक तथा अणुवीक्षक यंत्रों के ताल बनते हैं। इनका कांच बहुत बढ़िया तो होता है जल्दी-जल्दी टूटता नहीं है।

संयोग से उसी कारखाने का मुख्य कारीगर उन दिनों भारत सरकार के आमंत्रण पर हिंदुस्तान आया हुआ था। बूटा सिंह से उसकी पुरानी मित्रता थी। वे बंबई जाकर कारीगर से मिले। कई दिनों तक परामर्श होता रहा। अंत में वह कारीगर जर्मनी वापस चला गया और बूटासिंह माहौर लौट पर कांच का गोला ढालने की भट्ठी और सांचा तथा आनंदबूटियां की पट्टियां बनाने में लगे।

'तुम्हारा गोला अपनी गोलाई के कारण कुछ कठिनाइयां न पैदा करेगा बूटा सिंह?' मैंने एक दिन पूछा।

'कैसी कठिनाइयां?' उसने कहा।

‘एक तो वह धरतीमाता की गोद छोड़ेगा ही नहीं' मैंने कहा 'यदि छोड़ा भी तो अंतरिक्ष में मारा-मारा घूमेगा? चंद्रमा, मंगल, बुध, शुक्र आदि ग्रह उपग्रह हमारी-तुम्हारी तरह निठल्ले थोड़े ही हैं? सब अपनी-अपनी कक्षा पर घूम रहे हैं। अंतरिक्ष में किसे कहां ढूंढ़ते फिरोगे? और कैसे यह जान पाओगे कि तुम चंद्रमा पर उतरे हो या मंगल पर। यदि किसी ग्रह-उपग्रह पर उतर भी गये तो गोल होने के कारण तुम्हारा यान इधर-उधर लुढ़कता फिरेगा। यदि तुम्हारी गर्दन-वर्दन टूट गयी तो?'

अब बूटा सिंह वह पुराना बुद्धू न रह गया था। अब उसमें आत्म-विश्वास तथा दृढ़ता आ गयी थी। अब वह मुझसे जरा भी दबता नहीं था। बोला 'आनंद जी यह चंद्रगोलक है, कोई एकांवी नाटक नहीं। यहां तो सब काम गणित के ऊपर निर्भर है, जिसके नियम भगवान् भी तोड़ नहीं सकते। चंद्रगोलक का धरती छोड़ना ढेला फेंकने से भी सहज होगा। इच्छित ग्रह-उपग्रह पर उतरना बिलकुल मेरी इच्छा पर निर्भर होगा। आपकी आपत्ति में केवल एक बात विचारणीय थी। उसका हल मैंने पहले से निकाल लिया है। गोलक के निचले भाग में तीन टांगें उसी प्रकार की लगी होंगी, जैसी साइकिल खड़ी करने के लिये एक होती है। ये तीनों मुड़ी रहेंगी। उतरते समय खोल दी जायंगी और उन्हीं पर गोला सीधा खड़ा रहेगा।'

मुझे स्मरण है कि आवश्यक संख्या में आनंदबूटिया की पट्टियां, तथा कांच गलाने और गोला ढालने की भट्ठियां बनाने में 6-7 मास लग गये। इस बीच जर्मन कारीगर भी माहौर आ पहुंचा। पर्याप्त मात्रा में कच्ची कांच वह अपने साथ में लाया था। गोले का स्टील-आवरण भी कई खंडों में वह जर्मनी के क्रप कारखाने से बनवा कर लेता आया था।

मेरे मकान के 'नाचघर' में गोले का सांचा तैयार ही था। मिले हुए कमरे में कांच गलायी गयी। सब सामान ठीक करते तथा गोला ढालते प्रायः दो सप्ताह लग गये। पूरा एक मास उसे ठंढा होते लगा। उसके बाद कांच के गोले पर स्टील का आवरण चढ़ाया गया।

एक बड़ी गलती होते-होते रह गयी। मुख्य-मुख्य कारीगर ठेके पर काम कर रहे थे। उन्हें काम समाप्त करने की जल्दी थी। बूटासिंह से पूछे बिना उन लोगों ने आनंदबूटियां की पट्टियां स्टील-आवरण पर जड़ देने का इरादा किया। कुशल हुई कि समय पर पता चल गया, नहीं तो चंद्रगोलक किसी ओर फुर्र से उड़ गया होता।

बूटा सिंह ने एहतियातन पहले कब्जों के सहारे बूटिया वाली पट्टियों के ठीक आकार की स्टील की पट्टियां बनवा कर जड़वाईं। गोलक के अंदर लगी हुई बैटरियों तथा स्विचों की सहायता से जब इन स्टील की पट्टियों को आवश्यकतानुसार पट अथवा खड़ी करने में सफलता मिल गयी तब स्टील की पट्टियां निकाल कर बूटियां की पट्टियां लगा दी गयीं। बहुत सावधानी बरती गयी कि कोई भी पट्टी पट न होने पावे।

चंद्रगोलक का ढक्कन बनाने में बड़ी चतुराई दिखायी गयी थी। ढक्कन असल में दो थे। अंदर वाला अंदर की ओर खुलता था, और बाहर वाला बाहर की ओर। दोनों के बीच में दो आदमियों के बैठने लायक जगह थी। यह प्रबंध इसलिए किया गया था, जिसमें अंतरिक्ष अथवा चंद्रलोक में बाहर निकलने अथवा अंदर जाते समय गोलक की हवा न निकल जाय।

इसके बाद चंद्रगोलक ताले में बंद कर दिया गया, और उस पर चौबीसों घंटे पहरा रहने लगा।

इतना काम हो रहा था और मैं भी उसमें सहयोग दे ही रहा था, पर मेरा इरादा चंद्रगोलक में सफर करके जान देने का बिलकुल न था। मुझे अब भी आशा थी कि समय पर गोलक अपनी जगह से हिलेगा भी नहीं और बूटासिंह की सारी योजना एक अच्छे प्रहसन का रूप ले लेगी।

उधर बूटा सिंह को इन दिनों दम मारने की फुरसत न थी। अमेरिका, जर्मनी तथा इंग्लैंड से तरह-तरह के छोटे-बड़े पार्सल नित्य ही आ रहे थे। उनमें से तरह-तरह के यंत्र निकाल कर गोलक के अंदर फिट करने में उसका सारा समय निकल जाता था।

गोलक का सबसे अधिक स्थान जिस यंत्र ने लिया वह था सांस द्वारा निकले हुए विषाक्त कार्बन-डाइ-ऑक्साइड को सोख कर अंदर की हवा शुद्ध करने का उपकरण। इसके अतिरिक्त आल्टीमीटर (ऊंचाई नापने का यंत्र), बैरोमीटर (वायुमंडल का दबाव नापने का यंत्र), थर्मामीटर (तापमापक) आदि अनेक यंत्र थे। कई सिलेंडरों में जमी हुई ऑक्सीजन तथा हवा, कई पात्रों में पीने के लिए जल, तथा कई प्रकार का सुखाया हुआ भोजन, अंतरिक्ष यात्रा से सम्बद्ध संभावित रोगों तथा चोटों के उपचार के लिए तरह-तरह की दवाइयां इत्यादि सामान ने गोलक का बहुत सा स्थान ले किया।

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सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थीं। मेरे हृदय में दुविधा का तूफान चल रहा था। उस रात नींद बिलकुल न आयी थी। एक बार झपकी सी लगी तो देखा कि चंद्रगोलक अंतरिक्ष में जाते-जाते फट गया है। मेरा दाहिना हाथ और बूटासिंह का सिर चंद्रमा पर गिरा है। मेरा हाथ बूटासिंह की खोपड़ी पर बार-बार तमाचे लगा रहा है। हम दोनों के शेष अंग आकाश में इधर-उधर चिड़ियों की तरह उड़ रहे हैं।

दोपहर का खाना खाकर कुतूहलवश चंद्रगोलक देखने गया। जिस नाचघर में वह रखा हुआ था, उसकी छत बहुत ऊंची थी। मैंने देखा कि 5-6 मजदूर छत को खोद कर अलग कर रहे हैं। मुझे बड़ा गुस्सा आया। यह ठीक है कि मेरा मालिक मकान बाहर रहता था। पर आज न सही कुछ दिनों बाद किराया लेने आवेगा ही। उस समय अपने मकान की बरबादी देख कर एकदम अग्नि शर्मा हो जायगा और जब किराये के साथ छत की क्षतिपूर्ति मांगेगा तब दूंगा कहां से?

बूटा सिंह को बिलकुल फुर्सत नहीं थी। कभी तो गोलक के अंदर चला जाता और कभी बाहर निकल कर गुनगुनाने लगता। बड़ी देर बाद उसने मेरी बात सुनी। कहने लगा 'छत न खोदी जायगी तो गोलक ऊपर कैसे जायगा?'

'क्यों उसे बाहर लुढ़का कर ले चलो' मैंने कहा ‘और सड़क पर से ऊपर उठाना।'

'जी नहीं' उसने कहा 'ऐसा संभव नहीं।'

मारे क्रोध के पैर पटकता मैं अपने कमरे में आकर लेटा रहा। थका हुआ तो था ही। पता नहीं कब सो गया। आधी रात के लगभग किसी ने मुझे झकझोर कर जगाया। वह बूटा सिंह था।

मैंने उठकर देखा तो पास की चौकी पर दो थालियां लगी थीं। 'चलो खाना खा लो आनंद जी' बूटा सिंह बोला।

भूख सचमुच लगी थी। हाथ-मुंह धोकर खाने बैठ गया। बूटा सिंह की बदतमीजी पर मेरा क्रोध अभी कम न हुआ था। खाते-खाते मैं हिसाब लगाने लगा कि छत के नुकसान तथा किराये की मद में बूटा सिंह से कितना रुपया तुरंत जमा करने को कहूं।

'अब मेरा सब प्रबंध एकदम फिट है' बूटा सिंह बोला 'केवल चलने भर की देरी है। घंटे भर में हम चल देंगे।'

'हम' से क्या मतलब?' मैंने लापरवाही से कहा 'तुम अपनी बात करो। तुम चल दोगे। मैं इन बेवकूफी के कामों में नहीं पड़ता।'

'कोई चिंता नहीं' वह बोला 'मैं अकेले ही जाऊंगा।' ।

'इस मकान का फर्श तुमने खोद कर खराब कर डाला है' मैंने कहा 'और आज छत भी अलग कर दी है। मेरा अनुमान है कि मालिक मकान इसके लिए एक हजार रुपया हर्जाना मांगेगा। जाने के पहले यह रुपया जमा किये जाओ।'

‘एक हजार रुपया?' उसने शांत होकर फिर कहा, 'एक ही हजार क्यों? मेरे पास अब भी बैंक में बहुत रुपया है। वह सब मैंने तुम्हारे नाम कर दिया है। लिखा-पढ़ी हो चुकी है। कागज अभी दे दूंगा। मैं तो चंद्रलोक की ओर प्रस्थान कर रहा हूं। यदि लौटा, तो हम दोनों की जिंदगी इतने में कट जायगी। यदि लौटा, तो हम दोनों की जिंदगी इतने में कट जायगी। यदि न लौटा तो वह सब तुम्हारा है।'

मैं मन ही मन बहुत लज्जित हुआ। कितना बड़ा कलेजा है बूटा सिंह का। अच्छा अब तो कोई चिंता है नहीं। बूटासिंह की संपत्ति पाकर तो कलकत्ते के सेठों को भी संतुष्ट किया जा सकता है और स्थानीय मालिक मकान को भी।

'तो चलो आनंद जी' वह बोला।

'चंद्रगोलक तक चले चलो। तुमको सब कागज-पत्र सौंप दूं, और फिर तुमसे विदा लूं। लौटूँगा तो मिलूंगा।'

मैं उठकर जीना उतरने लगा। ‘कपड़े पहन लो।' बूटा सिंह बोला 'आज बड़ी सर्दी है। ठंड लग जायगी।'

मैंने गरम कपड़े पहन लिये। बूटासिंह के कहने पर ओवर कोट भी डांट लिया। नीचे जाकर देखा चारों ओर फैले हुए चीड़ के बक्सों के बीच काले रंग का चंद्रगोलक एक विशालकाय फुटबाल की भांति तीन पायों पर खड़ा था। ऊपर छत का नाम निशान भी न था। आकाश में अनेक तारे टिमटिमा रहे थे।

टार्च के सहारे काठ-कबाड़ तथा छत के मलवे के बीच रास्ता ढूंढते हम दोनों गोलक के पास पहुंचे। चौड़ी आनंद बूटिया की खड़ी पट्टियां स्पष्ट दिखाई पड़ने लगीं। गोलक का ऊपरी ढक्कन खुला हुआ था, और उसके सिरे से रस्सी की एक सीढ़ी लटक रही थी।

'आओ' बूटा सिंह बोला 'अंदर आकर देखो तो।'

बूटा सिंह के पीछे-पीछे मैं भी चढ़ गया। बूटा सिंह ने अंदर जाकर स्विच दबाया। चांदना हो गया। कांच की दीवारें चमक रही थीं। भिन्न-भिन्न प्रकार के यंत्र उन दीवारों पर मजबूती से जड़े हुए थे। कढ़ाई के समान गोल फर्श के दोनों ओर दो पलंग जड़े थे।

'ये ढक्कन क्यों कर बंद होते हैं, जानते हो?' बूटा सिंह ने पूछा। 'नहीं' मैंने संक्षिप्त उत्तर दिया। 'यह पहिया घुमाने से' बूटा सिंह ने उत्तर दिया 'ऊपर वाला ढक्कन बंद हो जायगा।' ऐसे एक मुड़े सिरे की छड़ी से सीढ़ी अंदर करते हुए तथा दो में से एक पहिया घुमाते हुए बूटा सिंह बोला। और दूसरा ढक्कन यों बंद होगा।'

'ये दो पलंग क्यों?' मैंने पूछा। 'भाई, मूल योजना में तो तुम भी चलने वाले थे न' चारों ओर घूमकर कई स्विच दबाते हुए बूटासिंह ने कहा। ‘अच्छा बैठो अपना बिल तुम्हें दे दूं।'

बातें करते ही करते दीवार से लटके हुए एक बैग से एक कागज निकाल कर उसने मुझे दिया। 'बैठ जाओ और पढ़ कर देख लो कोई भूल तो नहीं रह गयी है' वह बोला।

मैं बिस्तर पर बैठ गया। उस समय मुझे ऐसा जान पड़ा कि तीन बार किसी ने बाहर से गोलक में ठोकर मारी। साथ ही गोलक जरा कांपा भी। पर मैं बूटासिंह का बिल पढ़ने में लगा था। उसके अनुसार कुल मिलाकर 2367321 = )। की सम्पत्ति वह मुझे दिये जा रहा था।

मेरे दिल की कमजोरी कहिये, या मानव स्वभाव कहिये, उस समय मुझे न तो विज्ञान के इस महान् अन्वेषण की खुशी थी, न बूटा सिंह जैसे महान् व्यक्ति का सहयोगी होने का अभिमान, न बूटा सिंह द्वारा संभावित चंद्रलोक की यात्रा के विषय में कुतूहल और न एक मित्र के विदा होने के समय का स्वाभाविक दुःख। मुझे जल्दी थी चंद्रगोलक से बाहर जाने की। मैं चाहता था कि गोलक तुरंत अपने आकाशी मार्ग पर चल पड़े। मैं सोच रहा था कि शहर जाकर किसी विश्वासपात्र वकील को विल दिखाने के लिये कौन सी पहली गाड़ी मिलेगी। हां यह ठीक नहीं कह सकता कि बूटा सिंह जीता-जागता लौट आवे, यह अभिलाषा मेरे हृदय में उस समय थी या नहीं।

'अच्छा तो अब चलना चाहिए' घड़ी देखते हुए बूटासिंह ने कहा।

'अच्छी बात है। जाओ। मैं भी चलता हूं' मैंने कहा।

'यह तो अब संभव नहीं।' बूटा सिंह मुस्कराकर बोला। 'आप ने ठीक एक मिनट की देरी कर दी। जब हलका सा धक्का लगा था तब चंद्रगोलक इस मकान से बाहर निकल चुका था, और जब तीन ठोकरें लगी थीं तब गोलक के तीनों पाये मुड़े थे। अब तो हम प्रायः एक हजार फुट ऊपर आकाश में हैं। देखिये न' कह कर उसने एक खटका दबाया। तारों के हलके प्रकाश में नीचे माहौर गांव की काली रूपरेखा दिखायी पड़ रही थी।

मुझे चक्कर सा आ गया। मैं संज्ञाहीन होकर गिर पड़ा।

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कितनी देर बेहोश रहा, यह तो पता नहीं, जब आंख खुली तो देखा कि मैं एक संकरे पलंग पर पड़ा हूं और बूटा सिंह धीरे-धीरे मेरे सिर पर हाथ फेर रहा है।

शरीर अजीब सा अनुभव कर रहा था। मुझे जान पड़ता था मानो मैं बहुत हलका हो गया हूं। मेरे मस्तक की धमनियां जोर-जोर से स्पंदन कर रही थीं। कानों के पर्दों पर दर्द सा हो रहा था।

बूटा सिंह के प्रति विरोध की भावना मेरे हृदय में अवश्य थी। मैं उसे विश्वासघाती कहना चाहता था। गालियां देना चाहता था। परन्तु मेरा शरीर जिस विचित्र परिस्थिति का अनुभव कर रहा था वह इतनी अभूतपूर्व तथा नयी थी, कि उसके सामने बूटासिंह के प्रति क्रोध भी भूला सा था।

'जी न जाने कैसा हो रहा है बूटा सिंह' मैंने क्षीण स्वर में कहा 'मुझे क्या हो गया है?'

'जितने लक्षण हैं, सब भारहीनता के कारण हैं' वह बोला 'मुझे भी हलकापन, मतली, कानों और सिर में तपकन जान पड़ती है।'

'तो फिर कैसे निर्वाह होगा?' मैंने बहुत हताश होकर कहा।

'अभी तो कुछ भी नहीं है' बूटा सिंह बोला 'हमारे शरीर को धरती की आकर्षण-शक्ति का अभ्यास है। हमारे हृदय, फेफड़े, गुर्दे, मस्तिष्क आदि पृथ्वी की परिस्थितियों पर काम करने के लिये बने हैं। हम पृथ्वी से जितना दूर जायंगे, आकर्षण-शक्ति उतनी ही कम होती जायगी और हमारा कष्ट बढ़ता जायगा। पर डरो नहीं आनंद, हम दोनों स्वस्थ हैं, युवक हैं। शीघ्र ही न्यून आकर्षण के अभ्यासी हो जायंगे। चन्द्रमा पृथ्वी से ढाई लाख मील दूर है और आकार में वह पृथ्वी का आठवां भाग है। पर उसकी आकर्षण शक्ति पृथ्वी की आकर्षण-शक्ति का छठवां भाग है। इसलिये दोनों की दूरी का 5/6 वां भाग निकल जाने पर चंद्रमा की आकर्षण-शक्ति काम , करने लगेगी। उसके क्षेत्र में पहुंचने पर हमारा कष्ट और भी कम हो जायगा।'

मैं चुपचाप पड़ा रहा। बूटा सिंह भी अपने बिस्तर पर जा लेटा। मैं नींद में नहीं, चिंता के सागर में डुबकियां लगाने लगा। मैंने सोचा, जो होना था वह तो हो चुका। हंस कर या रोकर अब तो बहुत लंबे समय तक बूटासिंह के साथ रहना ही है। शायद साथ ही मरना भी हो। तब फिर उसका विश्वासघात भूलकर मित्रता ही निभाने में कल्याण है। एक बात और है। यद्यपि बूटा सिंह ने विल द्वारा खासी संपत्ति मेरे नाम लिख दी है, पर कौन जाने उसमें सब सत्य कहां तक है। और सत्य होने पर भी न जाने कौन-कौन झगड़े वह संपत्ति मुझे मिलने में लगते। अदालती कार्रवाई में बरसों तो अवश्य ही लग जाते। उधर माहौर का मालिक मकान मेरी छाती पर सवार हो जाता। जैसे कलकत्ते से भागा था वैसे ही यहां से भी भागना पड़ता। और अब तो मेरी पूंजी भी समाप्त हो चुकी है। कहां जाता और कैसे काम चलाता? तो क्या जो हुआ वही श्रेष्ठ था?

पता नहीं इसी उधेड़ बुन में कब सो गया।

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आंख खुली तो देखा कि बूटा सिंह अपने बिस्तर पर बैठा हुआ हिसाब लगा रहा है। 'कहो भाई बूटासिंह' मैंने कहा 'क्या मैं बहुत देर सोया?'

'यही तो परेशानी है। उसने कहा। मेरी घड़ी बंद हो गयी है। हिलाने से चलती है, पर फिर रुक जाती है। समय का कुछ अंदाजा ही नहीं लगता। समय का ही क्यों रात है या दिन, इसका भी तो कोई पता नहीं है। जरा अपनी घड़ी तो देखो।'

'अपनी घड़ी तो मैं लाया ही नहीं' मैंने कहा 'मैं तो इस ख्याल से आया था कि थोड़ी देर में तुम्हें विदा कर के सोऊंगा। मुझे क्या पता था कि तुम इस प्रकार धोखा दोगे।'

बूटा सिंह की घड़ी क्यों बंद हो गयी थी यह आज तक समझ में नहीं आया। संभवतः अंतरिक्ष की परिस्थितियां पृथ्वी से भिन्न हों। आकर्षण शक्ति अथवा लोहे के पुों में चुंबकत्व में परिवर्तन होने से शायद ऐसा हुआ हो। जो भी हो, बूटासिंह की घड़ी बंद हो जाने का परिणाम यह हुआ कि मैं नहीं जानता चंद्रलोक की यात्रा में कितना समय लगा, अथवा चंद्रमा पर मैं कितने समय रहा।

'अच्छा, बूटा सिंह' मैंने कहा 'जो हुआ सो हुआ, अब यह बतलाओ कि हम चल कहां रहे हैं?'

'चंद्रमा को' बूटासिंह ने संक्षिप्त उत्तर दिया।

'चंद्रमा तो पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा है' मैंने कहा 'कौन जाने जब हमारा चंद्रगोलक ढाई लाख मील की यात्रा पूरी कर चुके तब वह पृथ्वी की दूसरी ओर अर्थात् हमसे पांच लाख मील दूर हो।'

‘ऐसा इसलिये असंभव है' उसने कहा कि गणना करके यात्रा प्रारंभ की थी। और गणना में कोई भूल भी हो, अथवा रास्ते में किसी कारण कुछ विलंब हो जाय तो भी कोई हर्ज नहीं। चंद्रमा पृथ्वी से करीब ढाई लाख मील दूर है। इस दूरी का 5 जब पार हो जायगा, यानी जब चंद्रमा इकतालीस या बयालीस हजार मील रह जायगा, तब आनंदबूटिया की पट्टियों की सहायता से हम चंद्रमा की आकर्षण-शक्ति पकड़ लेंगे, और चंद्रमा कहीं भी हो, वहां पहुंच जायंगे।'

'अच्छा, अब हम लोग पृथ्वी से कितने दूर आ गये?' मैंने पूछा।

'इक्यासी हजार छ: सौ सत्तावन मील' आल्टीमीटर की ओर ध्यान से देखता हुआ बूटा सिंह बोला।

नित्यकर्म से निवृत्त होकर हम दोनों ने जलपान किया। उसके बाद बूटा सिंह बड़ी देर तक गोलक की दीवारों में फिट भिन्न-भिन्न यंत्रों को देखकर कुछ हिसाब लगाता रहा। 'हमारा कार्बनडाइ-ऑक्साइड तथा नमी सोखने वाला यंत्र ठीक काम कर रहा है। यदि यह गड़बड़ करता तो हमारा दम घुटने लगता तथा हमारी सांस की भाप से गोलक के अंदर का वातावरण नम हो जाता। यह लो, थोड़ा सा ऑक्सीजन खोल देता हूं। अब हवा में उसका अनुपात ठीक हो जायगा।'

पृथ्वी से गोलक के चलने के समय भारहीनता के कारण जो परेशानी हुई थी वह तो अब बहुत कम हो गयी थी, पर अब एक नयी बात सामने आ गयी थी। बूटा सिंह के सुझाव पर बिस्तर तथा अन्य खुला सामान मैंने पुलिंदे के रूप में एक ओर रख दिया था। वहां से धीरे-धीरे खिसककर वह अब हवा में तैर रहा था। यही नहीं, थोड़ा और समय बीतते-बीतते हम दोनों का भी बैठना या लेटना कठिन हो गया। अपने बैठने के स्थान की पकड़ गलती से छूटते ही हम दोनों भी अधर में तैरने लगते।

कारण स्पष्ट था। पृथ्वी तथा चंद्रमा दोनों की आकर्षण-शक्ति से मुक्त गोलक का अन्तःभाग इस समय एक छोटा सा सौरमंडल जैसा था। उसके भीतर की प्रत्येक वस्तु एक दूसरे को आकर्षित कर रही थी। बूटासिंह की अपेक्षा मेरा शरीर भारी है, इसलिये दूर रहने का प्रयत्न करने पर भी वह बार-बार मेरी ओर खिंच आता था। और हम सब लोग न चाहते हुए भी गोलक के केंद्र की ओर खिंच रहे थे।

'चंद्रमा कहां है बूटा सिंह?' मैंने पूछा। 'देखोगे?' कहते हुए वह एक स्विच की ओर बढ़ा।

मैं सोचने लगा-चंद्रमा पूर्व में दिखायी पड़ेगा या पश्चिम में? पर यहां अन्तरिक्ष में न समय का अंदाजा था और न दिशा का। हलकी खटके की आवाज हुई और गोलक का सारा भीतरी भाग प्रकाशित हो उठा। मैंने झांक कर देखा, पालिशदार चांदी का एक विशाल हंसिया सामने चमक रहा था। पृथ्वी से जैसा दिखायी पड़ता है उससे बीस गुना होगा। मैंने अनुमान किया कि आज शुक्लपक्ष की चतुर्थी अथवा तृतीया होगी।

चंद्रमा के चारों ओर आकाश नीला नहीं एकदम काला था। तारे-तारे जैसे नहीं गोल-गोल प्रकाशबिंदु थे। टिमटिमा नहीं रहे थे, बिलकुल स्थिर चमक थी उनकी।

'और पृथ्वी कहां है?' मैंने पूछा। 'यह रही धरतीमाता' नीचे की छोर पर एक स्विच दबाते हुए बूटासिंह ने कहा।

कैसी सुंदर थी पृथ्वी। नीला सागर। भूरी तथा हरी भूमि। शुभ्र पर्वत श्रेणियां। एक छोर पर पूर्वी अफ्रीका दिखायी पड़ रहा था। दूसरी ओर बर्मा तथा सुमात्रा। बीच में भारत। और धुर नीचे दक्षिणी ध्रुव के चारों ओर का विस्तृत हिमाच्छादित क्षेत्र-एंटार्कटिका।

मेरी आंखों में आंसू आ गये। क्या फिर वापस लौटूंगा पृथ्वी पर?

बूटा सिंह ने मानों मेरी मनोभावना समझकर चट खिड़की बंद कर दी।

'बंद क्यों कर दी' मैंने अवरुद्ध कंठ से पूछा।

'खिड़कियां खोलने के लिये बूटिया की पट्टियां खड़ी करनी पड़ती हैं और पृथ्वी के आकर्षण के कारण गोलक की चाल धीमी हो जाती है।'

मैं चुप रह गया।

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उस दिन बूटा सिंह बहुत परेशान था। बार-बार इधर-उधर की खिड़कियां खोलता, आल्टीमीटर की ओर देखता और हिसाब लगाने लगता।

'चलो छुट्टी हुई। धरती माता के अंचल से अब हम मुक्त हुए। पृथ्वी अब हमसे दो लाख मील से भी अधिक दूर है। अब पृथ्वी की अपेक्षा चंद्रमा का आकर्षण अधिक सबल है। हमें उससे लाभ उठाना चाहिये' कहकर उसने एक ओर की सभी खिड़कियां खोल दीं।

आंखों पर जैसे आघात सा लगा। बड़ी तेज चमक थीं। सारे आकाश में चंद्रमा ही चंद्रमा दिखायी पड़ता था। थोड़ा अभ्यास हो जाने पर पहाड़, ज्वालामुखी पर्वत के गह्वर, बड़ी-बड़ी दरारें, खाइयां इत्यादि स्पष्ट दिखायी पड़ रही थीं।

उस समय मैं समझ न पाया कि परिस्थिति में कौन सी विचित्रता है। बड़ी देर बाद समझ में आया। चंद्रमा अब नीचे था और उसका प्रकाश नीचे से ऊपर की ओर आ रहा था। हम लोग ऊपर से आते हुए प्रकाश के अभ्यस्त हैं। छोटा-मोटा प्रकाश बराबर रखे हुए प्रकाश-स्रोत से भी आता है। पर उस समय नीचे से प्रकाश आ रहा था। कल्पना कीजिये कि आप दस मंजिल ऊंची इमारत के सबसे ऊंचे-ऊंचे खंड में हैं। धुर नीचे सड़क पर केवल एक तेज लैंप जल रहा है। शेष चारों ओर अंधकार है। उस समय नीचे से आते हुए प्रकाश जैसा अनुभव इस समय हो रहा था।

मुझे वह समय अच्छी तरह स्मरण है जब हम चंद्रमा के तल से केवल सौ मील ऊपर थे। बूटासिंह बहुत परेशान था। चंद्रमा की ऊंची पर्वतमालाओं के बीच वह ऐसा समतल स्थान ढूंढ रहा था जहां चंद्र गोलक उतारा जा सके। हम नीचे उतरते, यहां तक कि चंद्रमा की सतह पचास फुट से भी कम रह जाती। उपयुक्त जगह न मिली तो बूटासिंह खिड़कियां बंद कर देता और बूटिया की पट्टियां गिरा देता। चंद्रगोलक फिर उछल कर चंद्रमा से दूर हो जाता।

घड़ी के अभाव में यह बताना तो कठिन है कि कितने घंटे हम इस प्रकार की चढ़ा-ऊपरी करते रहे। बूटा सिंह बहुत ही परेशान हो गया था। थक भी गया था।

'तुम थोड़ा विश्राम कर लो बूटा सिंह' मैंने उसका उत्साह बढ़ाते हुए कहा। 'मुझे बतलाते जाओ तो थोड़ी देर तक गोलक का संचालन मैं करूं।'

'कर लोगे?'

'क्यों नहीं। इतने समय से तुम्हें करते देख रहा हूं' मैंने कहा 'इतना बुद्धू नहीं हूं, जितना तुम समझते हो।'

'अच्छा तो तलाश करो कोई उतरने लायक जगह' उसने कहा।

नीचे सफेदी ही सफेदी दिखायी पड़ रही थी। आश्चर्य यह कि चंद्रमा में उसकी चौथाई भी चमक न थी जितनी दूर से जान पड़ती थी। मुझे एक समतल स्थान दिखायी पड़ा। गोलक के निचले भाग में लगी बूटिया की पट्टियां गिरा कर मैं नीचे की ओर उतरा पर सतह बहुत ऊबड़खाबड़ पाकर फिर ऊपर चढ़ गया।

चंद्र गोलक का संचालन अपने हाथ में पाकर मैंने एक नया अनुभव किया। अब तक मेरा ख्याल था कि बूटिया की झिलमिली के चढ़ाव-उतार की सहायता से हम ऊपर चढ़ सकते हैं अथवा नीचे उतर सकते हैं। बूटासिंह का भी यही ख्याल था। पर उस समय मैंने देखा जिस ओर कोई ऊंची पहाड़ी हो, उस ओर की झिलमिली खोल देने से गोलक को उस दिशा में भी ले जाया जा सकता है।

वहां पर कोई समतल स्थान न पाकर मैंने चंद्रगोलक को क्षितिज पर दिखायी पड़ती एक पहाड़ी की ओर बढ़ाया। नीचे ध्यानपूर्वक समतल भूमि की तलाश भी करता जाता था।

अवश्य ही मुझसे असावधानी हो गई थी। उस खिड़की से झांका तो ऐसा जान पड़ा कि पहाड़ी से टक्कर होने वाली ही है। घबराकर पहाड़ी के विरुद्ध दिशा की छिलमिली खोल दी।

असल बात यह है कि हम उस समय एक उपत्यका में थे। ऊंची पहाड़ी से टक्कर बचाने के प्रयत्न में विपरीत दिशावाली नीची पहाड़ी का ध्यान ही न रहा। अकस्मात् ऐसा जान पड़ा मानों चंद्रगोलक बालू में धंस गया है। मेरा कलेजा धकधक करने लगा। बूटासिंह चिल्लाकर उठ पड़ा।

बूटा सिंह ने कई खिड़कियां खोलकर देखीं। बाहर दूध जैसी सफेदी के अतिरिक्त कुछ भी दिखायी नहीं पड़ रहा था। 'क्या गोलक बरफ में धंस गया है?' उसने बड़ी परेशानी भरे स्वर में कहा।

'बरफ?' मैंने आश्चर्य से कहा, 'बरफ चंद्रमा पर कहां से आयी?'

'देखो न' उसने खिड़की के बाहर की ओर संकेत करके कहा 'रूई के पहलू हैं या बरफ?'

'रुई की खेती चंद्रमा पर होती है, यह अद्भुत बात है' मैंने कहा और अब तक सुना यह था कि चंद्रमा पर पानी क्या हवा तक नहीं है। फिर बरफ कहां से आई?'

'समझ में नहीं आता।' वह बोला ‘पर ऐं! यह क्या !! क्या हम धंस रहे हैं?'

सचमुच ऐसा जान पड़ रहा था कि हम बरफ में धंसते जा रहे हैं। बूटा सिंह ने सब झिलमिलियां बंद कर दीं। 'अब तो चंद्रमा की आकर्षण शक्ति के विरुद्ध हमें ऊपर उठना चाहिये। कम-से-कम धंसना तो अवश्य रुक जाना चाहिये।' वह बोला।

कुछ देर बाद एक खिड़की खोलकर देखने से जान पड़ा कि गोलक अब स्थिर है।

'मान लो हम किसी प्रकार के बरफ में फंस गए हैं' बूटा सिंह चिंतित स्वर में बोला 'यह अंदाजा लगाना तो असंभव है कितने गहरे धंसे हैं। अर्थात् कितनी बर्फ गोलक के ऊपर है। यदि अधिक है तो इसी गोलक में हमारी समाधि हो सकती है।'

मैं अपनी असावधानी पर बहुत लज्जित था। बूटा सिंह से आंख मिलाने का साहस न पड़ रहा था। बातचीत का रुख बदलने के उद्देश्य से पूछा। 'हम लोग एकदम अंधकार में तो नहीं हैं, पर यह दिखाई पड़ने वाली वह चमक कहां है?'

'दो बातें संभव हैं' बूटासिंह ने कहा 'एक तो यह कि अभी पूर्णिमा नहीं है। हम लोग चंद्रमा के उस भाग में हों जो अभी प्रकाशित नहीं है-दो-एक दिन में वहां प्रकाश आ जायगा। दूसरी संभावना जरा खतरे की है। तुम जानते हो कि चंद्रमा साढ़े सत्ताईस दिनों में पृथ्वी की परिक्रमा करता है और इतने ही समय में अपनी धुरी पर भी घूमता है। फल यह होता है कि चंद्रमा का एक ही रुख सदा पृथ्वी से दिखाई देता है। हम लोग उसका चार बटा सातवां भाग देखते हैं। तीन बटा सातवां भाग मनुष्य के लिये अदृश्य है। ऐसा न हो कि हम लोग उस पृष्ठ भाग पर उतरे हों। जो भी हो हमें कुछ प्रतीक्षा करनी चाहिये।'

+++

पता नहीं कब घूमते फिरते हम लोग उस स्थान पर पहुंचे जहां लगभग पचास फुट व्यास के वृत्त में भूमि एकदम समतल थी, और जहां एक भी पौधा नहीं था।

'बड़े आश्चर्य की बात है' मैंने कहा 'यह दायरा तो मानों किसी ने जानबूझ कर बनाया है। क्या यहां मनुष्य भी रहते हैं?'

'जब वनस्पति है तो मनुष्य भी हो सकते हैं' उसने कहा 'यह आवश्यक नहीं कि मनुष्य ही हों। किसी और प्रकार के प्राणी हों-'

बातें करते-करते वह एकदम रुक गया। कहीं से आवाज आ रही थी-

बम्-बम्-खट-खट-बम्'....

"ऐं ! यह आवाज कहां से आ रही है?' उसने कहा।

पौधों के पास से होकर निकलते उनकी हलकी सरसराहट के अतिरिक्त यह पहली आवाज थी जो चंद्रलोक में हमने सुनी थी। इस आवाज में एक विचित्रता और थी। वह आगे पीछे, दायें-बायें से नहीं, धुर नीचे से आ रही थी! उसे हमारे कान कम पैर अधिक स्पष्ट सुन रहे थे।

'हम नशे में सपना तो नहीं देख रहे हैं आनंद जी!' बूटा सिंह ने पूछा।

'चुपचुप' मैंने होठों पर उंगली रखते हुए कहा। बड़े जोर की घरघराहट की आवाज के साथ एक ढक्कन मानों एक ओर हट सा गया। सामने एक कुएं का काला मुहाना दिखायी पड़ रहा था।

घुटनों के बल धीरे-धीरे सरकते हुए हम दोनों निकट की झाड़ियों में जा छिपे।

'धरती के नीचे रहते हैं यहां के प्राणी' बूटा सिंह बोला 'तभी तो अब तक कहीं दिखायी न पड़े थे।'

'पंद्रह दिन की बरफीली रात-ऐसी बरफीली, जिसमें शून्य से भी दो ढाई सौ डिग्री कम तापमान हो जाता होगा—ऐसी रात समाप्त होने पर ये लोग बाहर निकलते होंगे' मैंने कहा।

'भाई बात मत करो' बूटा सिंह बोला 'बस चलकर गोलक की तलाश करो। पता नहीं कितने खूँखार होंगे यहां के निवासी। अब पृथ्वी की ओर चल देने में ही कल्याण है।'

नशे का प्रभाव हो या भूख-प्यास के कारण, कभी साहस न खोने वाला बूटा सिंह मुझसे भी अधिक कायर हो गया था।

काश, कि हम दोनों उसी समय चल दिये होते, और गोलक मिल गया होता। तब तो यह कथा ही दूसरी होती, और जो-पछतावा मेरे जीवन को कड़वा बनाये हुए है, उसका अवसर ही न आता।

पेट के बल रेंगते हुए हम दोनों थोड़ा ही आगे बढ़े होंगे कि पीछे से किसी भारी चीज के घिसटने की आवाज आयी। साथ ही बीच-बीच एक और आवाज आती थी। उस आवाज को मैं कैसे व्यक्त करूं, यह समझ में नहीं आता। पाठकों ने बरसात के समय झींगुर की झनकार सुनी होगी। यह आवाज उस से कुछ मिलती जुलती थी—उससे कुछ ऊंची और रुक-रुक कर निकलने वाली।

हम दोनों घबरा कर नागफनी की झाड़ी में छिप गये। अपनी समझ में हम दोनों बहुत ही छिपी तथा सुरक्षित जगह बैठे थे। एक ओर भय हमें तत्काल भाग जाने को प्रेरित करता था। दूसरी ओर विवेक कहता था कि इस समय चंद्रमा के निवासी, संभवतः सर्वभक्षी राक्षस, निकले हुए हैं। भागने से झाड़ियों में हरकत होगी और तुम लोग पकड़े जाओगे। एक तीसरी शक्ति भी थीकुतूहल। वह हमें करीब-करीब मजबूर कर रही थी कि देखो तो यहां के निवासी कैसे हैं। पृथ्वी पर पहुंचकर क्या रिपोर्ट दोगे?

परंतु इन तीनों शक्तियों की चढ़ा-ऊपरी में अधिक समय तक चलने का अवसर ही नहीं मिला। एकाएक ऐसी आवाज आयी जैसे कोई बहुत बड़ा पशु डकरा रहा हो। यह आवाज किसी हिंस्र पशु के गुर्राने जैसी नहीं थी। गाय-बैल के बंवाने से मिलती जुलती थी। और जब तक हम लोग एक ओर खिसक चलने का निर्णय करें तब तक एक रोंगटे खड़े करने वाला दृश्य दिखायी पड़ा।

ठीक उस ओर से, जिधर हम जा रहे थे, एक दैत्याकार जानवर आता दिखायी पड़ा। पहले तो हमें झाड़ियों के बीच उसके शरीर का मध्यभाग मात्र दिखाई पड़ा। हाथी जैसी मोटी-खुरदरी झुर्रीदार खाल। पर रंग हलका भूरा-करीब सफेद था। हमें जो भाग दिखायी पड़ा वह परिधि में साठ फुट से कम क्या होगा। यद्यपि एक निगाह में समूचा जानवर मैंने कभी नहीं देखा, पर झाड़ियों के बीच-बीच जो अन्तर पड़ते थे उनसे दर्जनों पशुओं के भिन्न-भिन्न अंग देखकर जो राय कायम हुई वह यह है :

यों तो यह विशालकाय जानवर बनावट में पृथ्वी के गिरगिट जैसा था। मुख्य भेद यह था कि उसकी गर्दन गिरगिट की अपेक्षा बहुत अधिक लंबी थी, और सिर भी अपेक्षाकृत बहुत छोटा था। सिर से लेकर दुम के सिरे तक दो सौ फुट लंबा होगा। मध्य में सबसे अधिक परिधि साठ फुट। पैर दिखायी नहीं पड़े। उसका स्वरूप इतना मोटा और ढीला ढाला था कि पैर संभवतः नीचे छिपे होंगे। रंबाते समय उसका लाल मुख गह्वर तथा गाय-बैल जैसे दांत स्पष्ट दिखायी पड़ते थे।

एक के बाद एक कई दर्जन चांद्र गिरगिट हमारे सामने से निकल गये। पृथ्वी और चंद्रमा के बीच फुरसत के समय बूटा सिंह के साथ चंद्रलोक के निवासियों के संबंध में मेरा वाद-विवाद हुआ करता था। बूटा सिंह का कहना था कि प्राणियों का आकार ग्रह अथवा उपग्रह की आकर्षण शक्ति के अनुपात में होना चाहिये। उसे विश्वास था कि यदि चंद्रलोक में पृथ्वी जैसे प्राणी होंगे, तो उनका आकार अनुपाततः छः गुना होगा। बाद को जब मैंने बूटासिंह से कहा कि 'यदि ये जानवर गिरगिट जाति के हैं तो छः गुने क्या छः सौ गुने से भी अधिक आकार के हैं।'

"यह बात नहीं है' उसने उत्तर दिया। 'इन चांद्र गिरगिटों को उन तीस फुट लंबे पृथ्वी के प्राऐतिहासिक गिरगिटों के समकक्ष रखना होगा, जिनकी अब ठठरियां मात्र मिलती हैं।

हम दोनों फुस-फुसाकर बात कर रहे थे। चांद्र-गिरगिटों का एक दल दूर निकल गया था और दूसरा दल लगभग आधे फर्लांग की दूरी पर आता दिखायी पड़ रहा था।

'ये गिरगिट चंद्रमा की एक पक्ष वाली रात भर कहीं सर्दी से बचे पड़े रहते होंगे। दिन और धूप निकलते ही नागफनी चरने निकले हैं। यदि एक मात्र यही चंद्रमा के निवासी हैं तब तो बड़ी अच्छी बात है। चंद्रमा तो अच्छा खासा उपनिवेश बन सकता है' मैंने कहा।

'बात तो ठीक कहते हो आनंद जी लेकिन अभी हमने देखा ही क्या है?' बूटासिंह बोला 'अच्छा दूरबीन से देखो तो गिरगिटों के दूसरे झुंड के साथ-साथ यह काला-काला क्या है?'

'कुछ अजीब सा है' दूरबीन से एक बार देखकर उसे बूटासिंह को थमाते हुए मैंने कहा।

'अर-र-र-र-' बूटा सिंह अपनी निकलती चीख रोकते हुए बोला 'कोई काले या भूरे रंग का जानवर है-खड़े-खड़े चलता है—हाथ में धातु की बनी कोई चीज है—उसे चुभोकर गिरगिटों को आगे बढ़ने के लिये प्रेरित कर रहा है। लो अब बहुत निकट आ गया। देखो, पर एकदम चुप रहो। हिलो डुलो नहीं।'

उसके हाथ से दूरबीन लेकर मैं ध्यान से देखने लगा। उस प्राणी का वर्णन कैसे करूं यह समझ में नहीं आता। कल्पना कीजिये कि पृथ्वी निवासी एक चींटा अपने छः पैरों पर चलने के बजाय सबसे पीछे वाले पैरों पर खड़ा है। शेष चार पैरों (हाथों?) में से एक में वह किसी पीली धातु का अंकुश सा लिये हुए था। जब कोई चांद्र गिरगिट निकट की झाड़ी से नागफनी चरता हुआ रुक जाता तो अंकुश चुभोकर वह उसे आगे चलने को प्रेरित करता था। गिरगिट चरना छोड़ अथवा मुंह फैलाकर चिल्लाने और रंभाने के बीच की ध्वनि करता था।

उस प्राणी का सिर चींटे के सिर की ही भांति चिपटा सा था—पीछे मोटा सामने पतला। मुंह के दोनों ओर से दो दो फुट लंबी मूंछे। आंखे मनुष्य की भांति सामने नहीं, दायें बाएं।

वह प्राणी नंगा न था। टांगों में किसी कपड़े जैसी चीज की पट्टियां बांधे था। अवश्य ही प्रत्येक टांग में एक से अधिक जोड़ रहे होंगे। शरीर पर भी वह चमड़े जैसी किसी चीज का बना छोटा वास्कट जैसा पहने था। सिर पर शिरस्त्राण की भांति टोप था जिसके छेदों में कई अंकुश खोंसे हुए थे।

वह कुछ बोल रहा था, या नहीं यह मैं उस समय न जान पाया था। हां झींगुर की झनकार जैसी आवाज अवश्य सुनाई पड़ती थी।

'मेरा अनुमान तो यह है' चांद्र गिरगिटों तथा उनके साथ के चींटे के दूर चले जाने के बाद बूटासिंह बोला 'कि ये चांद्र गिरगिट पालतू है। चंद्रमा के शासक प्राणी इनका मांस खाते होंगे। यह चींटा जैसा प्राणी तो संभवतः पेशेवर चरवाहा होगा?'

'क्या नाम रखा जाय इस प्राणी का?' मैंने पूछा

'चंद्र-पिपीलक' ठीक रहेगा?'

'बिलकुल ठीक' वह बोला।

'अच्छा तो अब क्या होना चाहिये?' मैंने पूछा।

'भाई आनंद जी' उसने कहा 'मेरे पड़ोस में एक चोर रहता था। कई बार सजा काट चुका था। एक बार मैंने उससे पूछा-'इतने अनुभवी होकर भी तुम पकड़ कैसे जाते हो?' उसने कहा 'साहब चोरी का एक गुर है—जिस मकान में घुसो, उसमें से बाहर निकलने का रास्ता पहले से ठीक रखो। कभी-कभी ऐसा होता है कि बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिलता। तभी पकड़ जाता हूं।' सो अब आगे की गवेषणा रोक कर पहले चंद्रगोलक की तलाश करूंगा, जिसमें कोई खतरा आने पर भागने का अवसर तो मिल सके।'

बात पक्की थी। हम दोनों गोलक ढूंढने चल पड़े। पर एक तो यों ही दिग्भ्रम हो गया था, दूसरे एकाएक बढ़ी हुई नागफनी की झाड़ियों ने जाने-पहचाने स्थानों का भी रूप इतना बदल दिया था कि कुछ पता ही न चलता था।

कई घंटे बीत गये। गोलक न पाने की असफलता ने हमारा नैतिक बल बिलकुल छीन लिया। मैं तो थक कर बैठ गया। 'प्यास, भूख और थकावट से मेरे पैर तो अब उठते नहीं। जो भी हो मैं तो अब बैठूँगा' कहकर मैं झाड़ी के नीचे बैठ गया।

हालत बूटा सिंह की भी मुझसे कुछ अच्छी न थी। बहुत हताश होकर वह भी बैठ गया। थोड़ी देर बाद अनायास हम दोनों नागफनी के टुकड़े तोड़-तोड़ कर खाने लगे। अब वह पहले से अधिक पक गयी थी। जायका बहुत कुछ फीके संतरे जैसा हो गया था। हम लगातार खाते चले गये। उस समय का अधिक होश तो मुझे है नहीं, पर इतना स्मरण है कि हम दोनों नशे में थे।

'भौ-औ-औत ठीक स्थान है यह चं चं चंद्रमा ! मैं तो यहीं एक छो-छो-छोटा सा मकान बनाकर रहूंगा' बूटासिंह बोला।

'शो-शो-शो ओने दो मुझे मैंने उत्तर दिया।

उसी समय एक आवाज ऐसी आयी कि हमारा नशा कुछ क्षणों के लिये हिरन हो गया। अकस्मात् उसी प्रकार की 'बम्-बम्-खट-खट्' की आवाज आने लगी जैसे कोई बड़ी मशीन चल रही हो। शब्द के स्रोत के निकट जाकर हमने देखा कि पहले ही की तरह एक गोल समतल स्थान है। पर इसका व्यास डेढ़ सौ फुट होगा। सावधानी से हम लोग उस पर उतर गये। निश्चय ही हम धातु के एक ढक्कन पर थे। पैर की ठोकर मारने से जान पड़ता था कि नीचे पोला है। ढक्कन में कंपन हो रहे थे और उसके नीचे से किसी भारी मशीन के चलने की आवाज निरंतर आ रही थी।

'अब समझ में आया' बूटासिंह बोला 'चंद्रमा अंदर से खोखला है, और यहां के निवासी सतह पर नहीं भीतर रहते हैं।'

धातु की किसी मशीन के चलने की भड़भड़ाहट के साथ ढक्कन जोर से हिल पड़ा और उसी प्रकार खिसक चला जैसे ताले के छेद पर लगा हुआ आवरण एक ओर खिसक जाता है। बूटा सिंह तो उछल कर ढक्कन से दूर कूद गया, पर मुझे जरा विलंब हो गया। मेरे पैर के नीचे से ढक्कन खिसक गया और यदि मैं कुएं के किनारे से लटक न गया होता तो नीचे गिर पड़ता। चंद्रमा की अल्प आर्कषण शक्ति के कारण मुझे सतह पर आ जाने में कोई कठिनाई न होती, पर मैं थरथर कांप रहा था। बूटा सिंह ने हाथ पकड़ कर ऊपर घसीट लिया।

थोड़ी देर सुस्ता कर हम दोनों अपना पूरा साहस बटोर कर सावधानी से कुएं में झांक कर देखने लगे। बहुत गहरा था वह अंधकूप। लेकिन तीन-चार सौ फुट की गहराई से मशीन चलने की आवाज बराबर आ रही थी, और एक विचित्र नीली सी रोशनी की चमक चलती फिरती सी दिखायी पड़ती थी।

'अब विलंब न करो' बूटा सिंह बोला 'सब से पहले चंद्र गोलक की तलाश। उसके बाद और कोई काम।'

एक बार गोलक की तलाश फिर प्रारंभ हुई, पर वह ढूंढे न मिला-न मिला। हताश होकर हम फिर बैठ गये। भूख-प्यास ने जब फिर सताया तो इस बार पेट भर चांद्र नागफनी खाई। नशा ऐसा चढ़ा कि तनो-बदन का होश न रहा।

+++

जब आंख खुली तो हम प्रगाढ़ अंधकार में थे। जब चेतना धीरे-धीरे लौटी तो पहला अनुभव मुझे जो हुआ वह यह था कि मैं खुली हवा में नहीं हूं। वातावरण बंधी हवा का था और उसमें कई प्रकार के अपरिचित गंध सम्मिलित थे। दूसरा अनुभव मुझे यह हुआ कि मैं लेटा नहीं, बैठा हूं। याद आये मुझे बचपन के वे क्षण जब मेरी माता किसी अपराध के दंड-स्वरूप मुझे अलमारी में बंद कर देती थी। जैसे ही मेरी बुद्धि ने कहा कि तू बच्चा नहीं है, मेरी चेतना ने फिर एक छलांग भरी, और मुझे जान पड़ा कि मैं माहौर में बूटा सिंह के मकान के तहखाने में हूं। पर अकस्मात् आनंद बूटियां तथा चंद्रगोलक के संबंध में सब बातें मस्तिष्क में कौंध गयीं, और मुझे होश आया कि मैं चंद्रलोक में हूं।

कहां तो तेज चिलचिलाती धूप में चांद्र नागफनी की झाड़ी में था, और कहां इस अंधकार में? तो क्या रात हो गयी? रात कैसे? अभी चंद्रमा पर उतरे पंद्रह दिन कहां हुए? फिर यदि रात होती तो ठंडक कितनी होती।

'बूटा सिंह !' मैंने पुकारा। उत्तर तो कुछ मिला नहीं। बाईं ओर से केवल कराहने की आवाज आयी। मैंने हाथ बढ़ाकर जब उसे स्पर्श करने का विचार किया तो कलेजा धकधक करने लगा।

मेरे हाथ- केवल हाथ ही नहीं पैर भी–हथकड़ी बेड़ी से जकड़े हुए थे।

यह क्या? क्या बूटा सिंह ने धोखा दिया? क्या चांद्र पिपीलकों ने हमें गिरफ्तार कर लिया? अचानक स्मरण आयी मुझे अपनी वह नशे की हालत, जो नागफनी खाने से उत्पन्न हो गयी थी। तो बस यही हुआ है कि जब हम बेहोश थे, तब उन बदजात चीटों ने हमें बंदी बना लिया है।

'आनंद जी' बूटा सिंह ने क्षीण स्वर में आवाज दी। 'क्या तुम भी हथकड़ी बेड़ी से जकड़े हो बूटा सिंह?' मैंने पूछा।

'सब उन चींटों की बदमाशी है' वह बोला।

'तो अब क्या होगा? क्या चींटों की कैद में ही जीवन बीतेगा?'

बूटा सिंह ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह उसी प्रकार नकियाते हुए गुनगुनाने लगा जैसे माहौर में करता था। मुझे बड़ा क्रोध आया। ‘भाई यह नकियाना बंद करो बूटा सिंह' मैंने जोर से कहा। वह चुप हो गया।

(मूल कथानक का स्वतंत्र रूपांतर : डॉ. नवल बिहारी मिश्र)

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