नि:स्वार्थ मित्रता (अंग्रेज़ी कहानी) : ऑस्कर वाइल्ड
The Devoted Friend (English Story in Hindi) : Oscar Wilde
एक दिन सुबह तालाब के किनारे रहने वाली छछूँदर ने अपने बिल में से अपना सिर निकाला। उसकी मूँछें कड़ी और भूरी थीं और उसकी पूँछ काले वाल्ट्यूब की तरह थी। इस समय बत्तख के छोटे-छोटे बच्चे तालाब में तैर रहे थे और उनकी माँ बुड्ढी बत्तख उन्हें यह सिखा रही थी कि पानी में किस तरह सिर के बल खड़ा होना चाहिए।
“जब तक तुम सिर के बल खड़ा होना नहीं सीखोगे, तब तक तुम ऊँची सोसायटी के लायक नहीं बन सकोगे।” बत्तख उन्हें समझा रही थी और बार-बार उसे ख़ुद करके दिखला रही थी, किंतु बच्चे उसकी ओर कुछ भी ध्यान नहीं दे रहे थे, क्योंकि वे इतने छोटे थे कि अभी सोसायटी का महत्व नहीं समझते थे।
“कैसे नालायक बच्चे हैं” छछूँदर चिल्लाई, “इन्हें तो डुबो देना चाहिए!”
“नहीं जी! अभी तो ये बच्चे हैं और फिर माँ कभी डुबोने का विचार कर सकती है!”
आह! माँ की भावनाओं से तो अभी मैं अपरिचित हूँ! वास्तव में मैं अभी अविवाहित हूँ और रहूँगी भी! यों प्रेम अच्छी चीज़ होती है, किंतु मित्रता उससे भी बड़ी चीज़ होती है!”
“यह तो ठीक है, किंतु मित्रता का कर्तव्य तुम क्या समझती हो?” एक जलपक्षी ने पूछा जो पास के एक नरकुल की डाल पर बैठा हुआ यह वार्तालाप सुन रहा था।
“हाँ, यही मैं भी जानना चाहती हूँ!” बत्तख ने कहा और अपने बच्चों को दिखाने के लिए सिर के बल खड़ी हो गई।
“कैसा पागलपन का सवाल है!” छछूँदर ने कहा—“मैं यही चाहती हूँ कि मेरा अनन्य मित्र मेरे प्रति अनन्य रहे, और क्या!’
“और तुम उसके बदले में क्या करोगी?” छोटे जलपक्षी ने पूछा और उतर कर किनारे पर बैठ गया।
“तुम्हारा सवाल मेरी समझ में नहीं आया!” छछूँदर ने जवाब दिया।
अच्छा, तो मैं इस विषय पर तुम्हें एक कहानी सुनाऊँ।” जलपक्षी ने कहा—“बहुत दिन हुए एक ईमानदार आदमी था। उसका नाम था हैन्स!”
“ठहरो, क्या वह कोई बड़ा आदमी था?” छछूँदर ने पूछा।
“नहीं, वह बड़ा आदमी नहीं था, वह ईमानदार आदमी था। हाँ, वह हृदय का बहुत साफ़ था और स्वभाव का बड़ा मीठा। वह एक छोटी-सी कुटिया में रहता था और अपनी बग़िया में काम करता था। सारे देहात में कोई इतनी अच्छी बग़िया नहीं थी। गेंदा, गुलाब, चंपा, केतकी, हुस्नेहिना, इश्कपेची—सभी उसके बाग़ में मौसम-मौसम पर फूलते थे। कभी बेला, तो कभी रातरानी, कभी हरसिंगार तो कभी जूही—इस तरह हमेशा उसकी बग़िया में रूप और सौरभ की लहरें उड़ती रहती थीं।
हैन्स के कई मित्र थे, किंतु उसकी विशेष घनिष्ठता ह्य मिलर से थी। मिलर बहुत धनी था, किंतु फिर भी वह हैन्स का इतना घनिष्ठ मित्र था कि कभी वह बिना फल-फूल लिए वहाँ से वापस नहीं जाता था। कभी वह झुक कर फलों का एक गुच्छा तोड़ लेता था, तो कभी जेब में फल तोड़ कर भर ले जाता था।
‘सच्चे मित्रों में कभी स्वार्थ का लेश भी नहीं होना चाहिए’, मिलर कहा करता था और हैन्स को गर्व था कि उसके मित्र के विचार इतने ऊँचे हैं।
कभी-कभी पड़ोसियों को इस बात से आश्चर्य होता था कि धनी मिलर कभी अपने निर्धन मित्र को कुछ भी नहीं देता था, यद्यपि उसके गोदाम में सैकड़ों बोरे आटा भरा रहता था, उसकी कई मिलें थीं और उसके पास बहुत-सी गायें थीं। मगर हैन्स कभी इन सब बातों पर ध्यान नहीं देता था। जब मिलर उससे नि:स्वार्थ मित्रता के गुण बखानता था तो हैन्स तन्मय होकर सुना करता था।
हैन्स हमेशा अपनी बग़िया में काम करता था। बसंत, ग्रीष्म और पतझड़ में वह बहुत संतुष्ट रहता था, किंतु जब जाड़ा आता था और वृक्ष फल-फूल विहीन हो जाते थे तो वह बहुत ही निर्धनता से दिन बिताता था, क्योंकि कभी-कभी उसे बिना भोजन के भी सो जाना पड़ता था। इस समय उसे अकेलापन भी बहुत अनुभव होता था, क्योंकि जाड़े में कभी मिलर उससे मिलने नहीं आता था।
“जब तक जाड़ा है, तब तक हैन्स से मिलने जाना व्यर्थ है”, मिलर पत्नी से कहा करता था— जब लोग निर्धन हों, तब उन्हें अकेले ही छोड़ देना चाहिए, व्यर्थ जाकर उनसे मिलना उन्हें संकोच में डालना है। कम से कम मेरा तो मित्रता के विषय में यही विचार है! जब बसंत आएगा, तब मैं उससे मिलने जाऊँगा। तब वह मुझे फूल उपहार में देगा और उससे उसके हृदय को कितनी प्रसन्नता होगी! मित्र की प्रसन्नता का ध्यान रखना मेरा कर्तव्य है!”
“वास्तव में तुम अपने मित्र का कितना ध्यान रखते हो!” अँगीठी के पास आरामकुर्सी पर बैठी हुई उसकी पत्नी ने कहा— “मैत्री-धर्म के विषय में राजपुरोहित के विचार भी इतने ऊँचे नहीं होंगे, यद्यपि वह तिमंजिले मकान में रहता है और उसके पास एक हीरे की अँगूठी है!”
“क्या हम लोग हैन्स को यहाँ नहीं बुला सकते?” मिलर के सबसे छोटे लड़के ने पूछा—“यदि वह कष्ट में है तो मैं उसे अपने साथ खिलाऊँगा और अपने सफ़ेद ख़रगोश दिखाऊँगा!”
“तुम कितने बेवकूफ़ लड़के हो!” मिलर ने डाँटा—”तुम्हें स्कूल भेजने से कोई फ़ायदा नहीं हुआ। तुम्हें अभी ज़रा भी अक़्ल नहीं आई। अगर हैन्स यहाँ आएगा और हमारा वैभव देखेगा तो उसे ईर्ष्या होने लगेगी और तुम जानते हो ईर्ष्या कितनी निंदित भावना है! मैं नहीं चाहता कि मेरे एकमात्र मित्र का स्वभाव बिगड़ जाए। मैं उसका मित्र हूँ और उसका ध्यान रखना मेरा कर्तव्य हैं! अगर वह यहाँ आए और मुझसे कुछ आटा उधार माँगे तो भी मैं नहीं दे सकता। आटा दूसरी चीज़ है, मित्रता दूसरी चीज़। दोनों शब्द अलग हैं, दोनों के अर्थ अलग हैं, दोनों के हिज्जे अलग हैं! कोई बेवकूफ़ भी यह समझ सकता है!”
“तुम कैसी चतुरता से बातें करते हो” मिलर की पत्नी ने कहा—“तुम्हारी बातें पादरी के उपदेश से भी ज़्यादा प्रभावोत्पादक होती है, क्योंकि इन्हें सुनते-सुनते जल्दी झपकी आने लगती है!”
“क्या यही कहानी का अन्त है?” छछूँदर ने पूछा।
“नहीं जी, यह तो अभी आरंभ है!” जलपक्षी ने कहा। “बहुत-से लोग कार्य चतुरता से कर लेते हैं” मिलर ने उत्तर दिया—”किंतु चतुरता से सलाम बहुत कम लोग कर पाते हैं, जिससे स्पष्ट है कि बात करना अपेक्षाकृत कठिन कला है।” उसने मेज़ के पार बैठे हुए अपने छोटे बच्चे की ओर इतनी क्रोधभरी निगाह से देखा कि वह रोने लगा। “ओह, तो तुम अच्छे कथाकार नहीं हो—युग के बिल्कुल पीछे—साहित्य में तो हर कहानीकार पहले अन्त का वर्णन करता है, फिर आरंभ का विस्तार करता है और अंत में मध्य पर लाकर कहानी समाप्त कर देता है। यही यथार्थवादी कला है। कल मैंने स्वयं एक आलोचक से ऐसा सुना था, जो मोटा चश्मा लगाए हुए घूम रहा था और एक नौजवान लेखक को यही समझा रहा था। जब कभी वह लेखक कुछ प्रतिवाद करता था तो आलोचक कहता था—‘हूँ, अभी कुछ दिन पढ़ो!”
“ख़ैर, तुम अपनी कहानी कहो। मुझे मिलर का चरित्र बड़ा गंभीर लग रहा है। बड़ा स्वाभाविक भी है। बात यह है कि मैं भी मित्रता के प्रति इतने ही ऊँचे विचार रखती हूँ।” अच्छा, तो ज्योंही जाड़ा समाप्त हुआ और बसन्ती फूल अपनी पाँखुड़ियाँ फैलाकर धूप खाने लगे, मिलर ने अपनी पत्नी से हैन्स के पास जाने का इरादा प्रकट किया।
“ओह, तुम इतना ध्यान रखते हो हैन्स का!” उसकी पत्नी बोली—“और देखो, वह फूलों की डोलची ले जाना मत भूलना!”
और मिलर वहाँ गया।
“नमस्कार हैन्स!” मिलर ने कहा।
“नमस्कार!” अपना फावड़ा रोक कर हैन्स ने कहा और बहुत ख़ुश हुआ।
“कहो जाड़ा कैसे कटा!” मिलर ने पूछा।
“ओह? तुम सदा मेरी कुशलता का ध्यान रखते हो।” हैन्स ने गद्गद स्वरों में कहा—“कुछ कष्ट अवश्य था, किंतु अब तो वसन्त आ गया है और फूल बढ़ रहे हैं!”
“हम लोग कभी-कभी सोचते थे कि तुम कैसे दिन बिता रहे होंगे?” मिलर ने कहा।
“सचमुच तुम कितने भावुक हो? मैं तो सोच रहा था, तुम मुझे भूल गए हो!”
“हैन्स! मुझे कभी-कभी तुम्हारी बातों पर आश्चर्य होता है—मित्रता कभी भुलाई भी जा सकती है। यही तो जीवन का रहस्य है! वाह, तुम्हारे फूल कितने प्यारे हैं।”
“हाँ, बहुत अच्छे हैं!” हैन्स बोला—”और क़िस्मत से कितने अधिक फूल हैं! इस वर्ष मैं इन्हें सेठ की पुत्री के हाथ बेचूँगा और अपनी बैलगाड़ी वापस ख़रीद लूँगा!”
“वापस ख़रीद लोगे? क्या तुमने उसे बेच दिया? कितनी नादानी की तुमने!”
“बात यह है,” हैन्स ने कहा—“जाड़े में मेरे पास एक पाई भी नहीं थीं, इसलिए पहले मैंने अपने चाँदी के बटन बेचे, बाद में अपना कोट बेचा, फिर अपनी चाँदी की ज़ंजीर बेची और अंत में अपनी गाड़ी बेच दी! मगर अब मैं उन सबको वापस ख़रीद लूँगा!”
“हैन्स!” मिलर ने कहा—“मैं तुम्हें अपनी गाड़ी दूँगा। उसका दायाँ हिस्सा ग़ायब है और बाएँ पहिए के आरे टूटे हुए हैं, फिर भी मैं तुम्हें दे दूँगा। मैं जानता हूँ, यह बहुत बड़ा त्याग है और बहुत से लोग मुझे इस त्याग के लिए मूर्ख भी कहेंगे, मगर मैं सांसारिक लोगों की भाँति नहीं हूँ। मैं समझता हूँ, सच्चे मित्रों का कर्तव्य त्याग है और फिर अब तो मैंने नई गाड़ी भी ख़रीद ली है। अच्छा है, अब तुम चिंता मत करो, मैं अपनी गाड़ी तुम्हें दे दूँगा!”
“वास्तव में यह तुम्हारा कितना बड़ा त्याग है!” हैन्स ने आभार स्वीकार करते हुए कहा—” और मैं उसे आसानी से बना लूँगा। मेरे पास एक बड़ा-सा तख़्ता है।”
“तख़्ता!” मिलर बोला—“ओह, मुझे भी एक तख़्ते की ज़रूरत है। मेरे आटा गोदाम की छत में एक छेद हो गया है, अगर वह नहीं बना तो सब अनाज सील जाएगा। भाग्य से तुम्हारे ही पास एक तख़्ता निकल आया, आश्चर्य है। भले काम का परिणाम सदा भला ही होता है। मैंने अपनी गाड़ी तुम्हें दे दी और तुम अपना तख़्ता मुझे दे रहे हो। यह ठीक है कि गाड़ी तख़्ते से ज़्यादा मोल की है, मगर मित्रता में इन बातों का ध्यान नहीं किया जाता। अभी निकालो तख़्ता, तो आज ही मैं अपना गोदाम ठीक कर डालूँ।”
“अवश्य!’’—हैन्स ने कहा और वह कुटिया के अंदर से तख़्ता खींच लाया और उसने उसे बाहर डाल दिया।
“ओह! यह बहुत छोटा तख़्ता है!” मिलर बोला—“शायद तुम्हारे लिए इसमें से बिल्कुल न बचे—मगर इसके लिए मैं क्या करूँ। और देखो, मैंने तुम्हें गाड़ी दी है तो तुम मुझे कुछ फूल नहीं दोगे? यह लो! टोकरी ख़ाली न रहे!”
“बिल्कुल भर दूँ!” हैन्स ने चिंतित स्वरों में पूछा—क्योंकि डोलची बहुत बड़ी थी और वह जानता था कि उसे भर देने के बाद फिर बेचने के लिए एक भी फूल नहीं बचेगा, और उसे अपने चाँदी के बटन वापस लेने थे।
“हाँ, और क्या!” मिलर ने उत्तर दिया—“मैंने तुम्हें अपनी गाड़ी दी है, अगर मैं तुमसे कुछ फूल माँग रहा हूँ तो क्या ज़्यादती कर रहा हूँ! हो सकता है मेरा विचार ठीक न हो, मगर मेरी समझ में मित्रता बिल्कुल स्वार्थहीन होनी चाहिए।”
“नहीं प्यारे मित्र! तुम्हारी ख़ुशी मेरे लिए बड़ी चीज़ है, मैं तुम्हें नाख़ुश करके अपने चाँदी के बटन नहीं लेना चाहता।” और उसने फूल चुन-चुनकर वह डोलची भर दी।
अगले दिन जब वह क्यारियाँ ठीक कर रहा था, तब उसे सड़क से मिलर की पुकार सुनाई दी। वह काम छोड़कर भागा और चहारदीवारी पर झुक कर झाँकने लगा। मिलर अपनी पीठ पर अनाज का एक बड़ा-सा बोरा लादे खड़ा था।
‘‘प्यारे हैन्स!” मिलर ने कहा—”ज़रा इसे बाजार तक पहुँचा दोगे।”
‘‘भाई, आज तो माफ़ करो!” हैन्स ने सकुचाते हुए कहा—“आज तो मैं सचमुच बहुत व्यस्त हूँ! मुझे अपनी सब लतरें चढ़ानी हैं, सब फूल के पौधे सींचने हैं और दूब तराशनी है।”
‘‘अफ़सोस है!” मिलर ने कहा—‘‘यह देखते हुए कि मैंने तुम्हें अपनी गाड़ी दी है, तुम्हारा इस प्रकार इंकार करना शोभा नहीं देता!”
“नहीं भैया, ऐसा ख़याल क्यों करते हो!” हैन्स बोला। वह भाग कर टोपी पहनने गया और फिर कन्धों पर बोरा लाद कर चल दिया।
धूप बहुत कड़ी थी और सड़क पर बालू तप रही थी। छ: मील चलने पर हैन्स बेहद थक गया, लेकिन वह हिम्मत नहीं हारा, चलता ही गया और अंत में बाज़ार में पहुँच गया। कुछ देर तक इंतज़ार करने के बाद उसने खरे दामों पर बिक्री की और जल्दी से लौट आया।
जब वह सोने जा रहा था तो उसने मन में कहा—“आज बड़ा बुरा दिन बीता, मगर मुझे ख़ुशी है, मैंने मिलर का दिल नहीं दुखाया, वह मेरा मित्र है और फिर उसने मुझे अपनी गाड़ी दी है।”
दूसरे दिन तड़के मिलर हैन्स से रुपए लेने आया, मगर हैन्स इतना थका था कि वह अब भी पलंग पर पड़ा मिला।
“सच कहता हूँ” मिलर बोला—“तुम बड़े आलसी मालूम देते हो। मैंने सोचा था, गाड़ी मिल जाने पर तुम मेहनत से काम करोगे! आलस्य बहुत बड़ा दुर्गुण है! मैं नहीं चाहता कि मेरा कोई मित्र आलसो बने। माफ़ करना, मैं मुँहफट बातें करता हूँ सिर्फ़ यही सोचकर कि तुम्हारी चिंता रखना मेरा धर्म है। लल्लो-चप्पो तो कोई भी कर सकता है, मगर सच्चे मित्र का कार्य सदा अपने मित्र को दुर्गुणों से बचाना होता है।”
“मुझे बहुत दु:ख है!” हैन्स ने आँखें मलते हुए कहा—”मैं बहुत थका था!’ ‘‘अच्छा उठो!” मिलर ने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा—“चलो, ज़रा मुझे गोदाम की छत बनाने में मदद दो!”
मिलर अपने बाग़ में जाकर काम करने के लिए चिंतित था, क्योंकि उसके पौधों में दो दिन से पानी नहीं पड़ा था।
“अगर मैं कहूँ कि मैं व्यस्त हूँ तो इससे तुम्हें ठेस तो नहीं पहुँचेगी!” उसने दबी हुई आवाज़ में पूछा।
“ख़ैर, तुम्हें यह याद रखना चाहिए कि मित्रता के ही नाते मैंने तुम्हें अपनी गाड़ी दी है, लेकिन अगर तुम मेरा इतना काम भी नहीं कर सकते तो कोई हर्जा नहीं, मैं ख़ुद कर लूँगा।”
“नहीं-नहीं, भला यह कैसे हो सकता है!” हैन्स ने कहा। वह फ़ौरन तैयार होकर मिलर के साथ चल दिया।
वहाँ उसने दिन भर काम किया।
शाम के वक़्त मिलर आया।
“हैन्स, तुमने वह छेद बंद कर दिया?” मिलर ने पूछा।
“हाँ, बिल्कुल बंद हो गया”, हैन्स ने सीढ़ी से उतर कर जवाब दिया।
“आहा!” मिलर बोला—”दुनिया में दूसरों के लिए कष्ट उठाने से ज़्यादा आनंद और किसी काम में नहीं आता।”
“मुझे तो सचमुच तुम्हारे विचारों से बड़ा सुख मिलता है!” हैन्स ने कहा और माथे से पसीना पोंछ कर बोला—“मगर न जाने क्यों मेरे मन में कभी इतने ऊँचे विचार नहीं आते!”
“कोई बात नहीं, प्रयत्न करते चलो!” मिलर ने कहा—”अभी तुम्हें मित्रता क्रियात्मक रूप में आती है, धीरे-धीरे उसके सिद्धांत भी समझ लोगे! अच्छा, अब तुम जाकर आराम करो, क्योंकि कल तुम्हें मेरी भेड़ें चराने ले जानी हैं!”
इस तरह से वह कभी अपने फूलों की देख-भाल नहीं कर पाता था, क्योंकि उसका मित्र कभी न कभी आकर उसे कोई न कोई काम बता दिया करता था। हैन्स कभी-कभी बहुत परेशान हो जाता था, क्योंकि वह सोचता था कि फूल समझेंगे कि वह उन्हें भूल गया। मगर वह सदा सोचता था कि मिलर उसका घनिष्ठ मित्र है और फिर वह उसे अपनी गाड़ी देने जा रहा था, और यह कितना बड़ा त्याग था!
इस तरह से हैन्स दिन भर मिलर के लिए काम करता था और मिलर उसे रोज़ बहुत लच्छेदार शब्दों में मित्रता के सिद्धांत समझाता था, जिन्हें हैन्स एक डायरी में लिख लेता था और रात को उन पर ध्यान से मनन करता था।
एक दिन ऐसा हुआ कि रात को हैन्स अपनी अँगीठी के पास बैठा था। किसी ने ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाया। रात तूफानी थी और इतने ज़ोर का अंधड़ था कि उसने समझा, हवा से किवाड़ खड़का होगा। मगर दूसरी बार, तीसरी बार किवाड़ खड़के।
“शायद कोई ग़रीब मुसाफ़िर है!” वह दरवाज़ा खोलने चला।
द्वार पर एक हाथ में लालटेन और दूसरे में एक लाठी लिए मिलर खड़ा था।
“प्यारे हैन्स!” मिलर चिल्लाया—“मैं बहुत दु:ख में हूँ। मेरा लड़का सीढ़ी से गिर गया और मैं डॉक्टर के पास जा रहा हूँ। मगर वह इतनी दूर रहता है और रात इतनी अँधेरी है कि अगर तुम चले जाओ तो ज़्यादा अच्छा हो। तुम जानते हो, ऐसे ही अवसर पर तुम अपनी मित्रता दिखा सकते हो!”
“अवश्य मैं अभी जाता हूँ! मगर तुम अपनी लालटेन मुझे दे दो! रात इतनी अँधेरी है कि मैं किसी खड्ड में न गिर पड़ूँ।!”
“मुझे बहुत दु:ख है!” मिलर बोला—”मगर यह मेरी नयी लालटेन है और अगर इसे कुछ हो गया तो मेरा बड़ा नुकसान होगा!”
“अच्छा, मैं योंही चला जाऊँगा!”
बहुत भयानक तूफ़ान था। हैन्स राह मुश्किल से देख पाता था और उसके पाँव नहीं ठहरते थे। किसी तरह तीन धण्टे में वह डॉक्टर के घर पर पहुँचा और उसने आवाज़ लगाई।
“कौन है!” डॉक्टर ने बाहर झाँका।
“मैं हूँ हैन्स, डॉक्टर!”
“क्या बात है, हैन्स!”
“मिलर का लड़का सीढ़ी से गिर गया है! आप अभी चलिए।”
“अच्छा!” डॉक्टर ने कहा और अपने जूते पहने, लालटेन ली और घोड़े पर चढ़कर चल दिया। हैन्स उसके पीछे चल पड़ा।
मगर तूफ़ान बढ़ता ही गया, पानी मूसलाधार बरसने लगा और हैन्स अपना रास्ता भूल गया। धीरे-धीरे वह ऊसर की ओर चला गया, जो पथरीला था और वहाँ एक खड्ड में गिर गया। दूसरे दिन गड़रियों को उसकी लाश मिली और वे उसे उठा लाए।
हर एक आदमी हैन्स की लाश के साथ गया, मिलर भी आया। “मैं उसका सबसे घनिष्ठ मित्र था, इसलिए मुझे सबसे आगे जगह मिलनी चाहिए।” यह कह कर काला कोट पहन कर वह सबसे आगे हो रहा और उसने जेब से एक रूमाल निकाल कर आँखों पर लगा लिया।
बाद में लौट कर वे सराय में बैठ गए और इस समय केक खाते हुए लोहार ने कहा—“हैन्स की मृत्यु बड़ी ही दु:खद रही!”
“मुझे तो बेहद दु:ख हुआ!” मिलर ने कहा—“मैंने उसे अपनी गाड़ी दी थी। वह इस बुरी हालत में है कि मैं उसे चला नहीं सकता, दूसरे उसे ख़रीद नहीं सकते। अब मैं क्या करूँ? दुनिया भी कितनी स्वार्थी है!” मिलर ने शराब पीते हुए गहरी साँस लेकर कहा।
थोड़ी देर ख़ामोशी रही। छछूँदर ने पूछा—”तब फिर?”
“तब क्या? कहानी ख़त्म!” जलपक्षी बोला।
“अरे! तो मिलर बेचारे का क्या हुआ?” छछूँदर ने कहा।
“मैं क्या जानूँ? मिलर से मुझे क्या मतलब?”
“छिः, तुमको तुमको ज़रा हमदर्दी नहीं बेचारे से...
“मिलर से हमदर्दी—इसका मतलब, तुमने कहानी का आदर्श ही नहीं समझा!”
“क्या नहीं समझा?”
“आदर्श!”
“ओह!” छछूँदर झुँझलाकर बोली—“मुझे क्या मालूम कि यह आदर्शवादी कहानी है। मालूम होता तो कभी न सुनती। आलोचकों की तरह कहती-छि:, तुम पलायनवादी हो—धिक्कार!” और उसने गला फाड़कर कहा—“धिक्कार!” और पूँछ झटक कर बिल में घुस गई।
आवाज़ सुनकर बत्तख दौड़ी आई।
“क्या हुआ?” उसने पूछा।
“कुछ नहीं! मैंने एक आदर्शवादी कहानी सुनाई थी—छछूँदर झुँझला गई!”
“ओह, यह बात थी!” बत्तख बोली-”भाई, अपने को ख़तरे में डालते ही क्यों हो! आजकल, और आदर्शवादी कहानी?”
(अनुवाद : धर्मवीर भारती)