तीन महीने का इंतजाम (सिपाही और गान) : ओ. हेनरी

The Cop and the Anthem : O. Henry

(सुविख्यात अमेरिकी कथाकार ओ. हेनरी की एक लोकप्रिय कहानी का भावानुवाद)

उसका नाम था, सोपी। वह मैडिसन चौक की एक बेंच पर लेटा हुआ बेचैनी से करवटें बदल रहा था। जब जंगली बत्तखें रात में भी जोर से चीखने लगें, जब चमड़े के ओवरकोट के अभाव में महिलायें अपने पतियों से बिलकुल सटकर बैठने लगें और जब बाग़ में पड़ी हुई बेंच पर लेटा सोपी बेचैनी से करवटें बदलने लगे, तो समझ जाना चाहिए कि सर्दी का आगमन होने ही वाला है।

सोपी की गोद में एक सूखा हुआ पत्ता आकर गिरा। यह पाला पड़ने की पूर्वसूचना थी। इस जगह के निवासियों के प्रति पाला महाशय बहुत ही उदार हैं और अपने वार्षिक आगमन की पूर्वसूचना उन्हें भेज देते हैं। पाला महाशय, उत्तरी पवन के माध्यम से, सूखे पत्तों के रूप में अपना विजिटिंग कार्ड, फुटपाथ के निवासियों को पहुंचा देते हैं ताकि वे उनके स्वागत के लिए तैयार रहें।

सोपी के मस्तिष्क ने इस तथ्य को स्वीकार कर लिया था कि अब आने वाले सर्दी के मौसम की कठिनाइयों से जूझने के लिए उसे कमर कसनी पड़ेगी और इसी कारण वह बेंच पर बेचैनी से करवटें बदल रहा था।

वैसे ठण्ड से बचने के लिए सोपी के दिमाग में कोई ऊंची कल्पनाएँ नहीं थीं। वह इस मौसम में कोई भूमध्यसागर के किनारे या विसूवियस की खाड़ी के किनारे मनमोहक आसमान के नीचे निरुद्देश्य घूमने की महत्वाकांक्षा नहीं पाले हुए था। उसकी आत्मा तो बस इतना चाहती थी कि उसके आने वाले तीन महीने किसी भी तरह जेल में कट जाँय। तीन महीने तक रहने - खाने की सुनिश्चित व्यवस्था, उसके जैसे अन्य हमजोलियों का साथ और कडाके की ठण्ड तथा पुलिस के बिना मतलब तंग करने वाले सिपाहियों से रक्षण - बस यही उसकी अभिलाषाओं का सार था।

बरसों से ब्लैकवेल शहर का मेहमाननवाज जेलखाना ही उसका सर्दियों का निवासस्थान रहा है। जिस तरह न्यूयॉर्क के अन्य भाग्यवान लोग सर्दियां बिताने के लिए रिवीरा या पामबीच के टिकट कटाते थे, उसी तरह सोपी भी जाड़ों में जेल में प्रवेश करने की मामूली व्यवस्था कर लेता था।

और अब एक बार फिर, वही समय आ गया था। पिछली रात उसने उसी चौक पर फव्वारे के पास एक बेंच पर काटी थी परन्तु कोट के नीचे, घुटनों पर और कमर के नीचे लपेटे हुए तीन मोटे-मोटे अखबार भी उसकी सर्दी से रक्षा नहीं कर सके थे। इसीलिए उसे जेल की याद सताने लगी थी।

वैसे शहर के गरीबों के लिए सर्दियों में सोने के लिए नगरपालिका की ओर से धर्मार्थ व्यवस्था की जाती थी, परन्तु वह उसे पसंद नहीं थी। सोपी की राय में इस परोपकारी व्यवस्था की अपेक्षा क़ानून कहीं अधिक दयालु था। शहर में जगह जगह चलने वाले सदाव्रत और संस्थाओं में उसके खाने और सोने की सामान्य व्यवस्था बड़े आराम से हो सकती थी, परन्तु सोपी जैसी स्वाभिमानी आत्माओं को, दान की यह भिक्षा असहनीय बोझ लगती थी।

दानस्वरूप प्राप्त की गई किसी भी सहायता का मूल्य, आपको रुपयों से नहीं तो मानभंग से चुकाना ही पड़ता है। जिस प्रकार सीजर के साथ ब्रूटस जुड़ा था, उसी प्रकार इन धर्मार्थ संस्थाओं की हर चारपाई के साथ स्नान करने की सजा और सदाव्रत की रोटी के हर टुकड़े के साथ आपके व्यक्तिगत जीवन की छानबीन का दंड, आवश्यक रूप से जुड़ा रहता है। इसलिए सोपी को क़ानून का मेहमान बनना ही बेहतर लगता था क्योंकि क़ानून, नियमों से संचालित होने के बावजूद, किसी आदमी के व्यक्तिगत जीवन में दखल नहीं देता।

जेल जाने का निश्चय करते ही सोपी ने तुरंत तैयारियां आरम्भ कर दीं। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए उसके पास अनेक आसान तरीके थे। सबसे सुखद उपाय यह था कि किसी मँहगे होटल में शानदार भोजन किया जाय और बिल भुगतान के समय स्वयं को दिवालिया घोषित कर, बिना शोरगुल हुए, चुपचाप पुलिस के हाथों में पहुंचा जाय। इसके बाद की व्यवस्था कोई भी समझदार मैजिस्ट्रेट अपने आप कर देगा।

सोपी बेंच से उठकर चौक के बाहर निकला और ब्रॉडवे की ओर चल दिया। ब्रॉडवे पर वह एक चमचमाते होटल के सामने रुका, जहां हर रात रेशमी कपड़ों की तड़क-भड़क दिखाई देती है, अंगूर की बढ़िया शराब की नदियाँ बहती हैं और स्वादिष्ट व्यंजनों के ढेर लगे मिलते हैं।

सोपी को कमर से ऊपर पहिने हुए अपने कपड़ों पर तो पूर्ण विश्वास था। उसने दाढ़ी बना ली थी, कोट ठीकठाक था, जिस पर क्रिसमस के दिन किसी मिशनरी महिला द्वारा भेंट की गई टाई लगी हुई थी जो उसके संभ्रांत होने की घोषणा कर रही थी। बस गड़बड़ थी तो उसकी पतलून और जूतों में।

यदि वह किसी प्रकार बिना शंका उत्पन्न किये खाने की टेबल तक पहुँच जाता फिर तो सफलता उसके हाथ में थी। उसे पूरा यकीन था कि शरीर का वह भाग, जो टेबल के ऊपर दिखाई देता था, वेटर के मन में किसी भी प्रकार का संदेह जगा ही नहीं सकता था।

सोपी ने सोचा कि फ्रांसीसी शराब की एक बोतल, मुर्ग-मुसल्लम, पुडिंग, आधा पेग शैम्पेन और एक सिगार - बस इतना काफी होगा। सब मिलाकर कीमत इतनी ज्यादा भी नहीं होनी चाहिए कि होटल मालिक के मन में उसे पुलिस को सौंप देने की बजाय बदला लेने की भावना उत्पन्न हो जाय; फिर भी तृप्ति इतनी तो होनी चाहिए कि होटल से जाड़ों के निवास-स्थान तक की यात्रा आनंद से कटे।

परन्तु इससे पहले कि सोपी टेबल के आसपास तक भी पहुँच पाता, होटल के दरवाजे पर ही खड़े मुस्टंडे दरबान की नजर उसकी फटी पतलून और पुराने जूतों पर पड़ गई। तुरंत ही मजबूत और सधे हुए हाथों ने उसे उठाया और चुपचाप वापस सड़क पर ला पटका, और इस प्रकार होटल मालिक का मुर्ग-मुसल्लम, बर्बाद होने की नौबत तक आते आते, बच गया।

सोपी ब्रॉडवे से वापस लौट चला। उसे समझ में आ गया कि स्वादिष्ट भोजन वाला मार्ग इस बार वांछित ध्येय तक पहुँचने में उसका साथ नहीं देगा। उसे कोई दूसरा उपाय ही अपनाना होगा।

छठी सड़क के मोड़ पर रोशनी से जगमगाती हुई एक दुकान उसे दिखाई दी, जिसकी कांच की खिडकियों से करीने से सजाई हुई तरह तरह की बेशकीमती चीज़ें झाँक रहीं थीं। सोपी ने एक पत्थर उठाया और शीशे पर दे मारा। शीशा जोर की आवाज करके टुकड़ों में टूटा और जमीन पर बिखर गया। आवाज सुनकर चारों तरफ से लोग दौड़े और उन्हीं के साथ दौड़ा आया पुलिस का एक सिपाही। सिपाही को देखकर सोपी मुस्कुराया और जेबों में हाथ डाले चुपचाप खड़ा रहा।

सिपाही ने तमतमाकर पूछा - "शीशा फोड़ने वाला किधर गया ?"

मन ही मन सौभाग्य का स्वागत करते हुए सोपी ने व्यंगपूर्वक सिपाही से पूछा - "क्या आपको नहीं लगता कि ये मेरा काम भी हो सकता है ?"

सिपाही ने गौर से सोपी को घूरा, और फिर उसके दिमाग ने सोपी को दोषी मानने से इनकार कर दिया। भला क़ानून के अपराधी कहीं क़ानून के रक्षक से गपशप करने के लिए रुकते है ? वे तो पुलिस को देखते ही फ़ौरन नौ-दो-ग्यारह हो जाते हैं।

सिपाही ने इधर-उधर नजर दौड़ाई तो उसे एक आदमी दिखा जो बस पकड़ने के लिए भाग रहा था। उसने अपना डंडा घुमाया और उसके पीछे दौड़ लिया। इस तरह, दूसरे प्रयास में भी सोपी को निराशा हाथ लगी। अब वह बेचैन सा इधरउधर मटरगश्ती करता घूमने लगा।

सड़क के उस पार, थोड़ी सी दूरी पर, एक साधारण स्तर का होटल था। वहाँ छोटी जेब और बड़े पेट वाले ग्राहक जाया करते थे। घटिया बर्तन और गन्दा सा वातावरण; पतली दाल और मैले-कुचैले मेजपोश। यहाँ कोई दरबान का झंझट भी न था सो सोपी इस स्थान पर अपनी फटी पतलून और पुराने जूतों समेत बेरोकटोक जा पहुंचा। वह टेबल पर बैठा और पेट भरकर कवाब, कोफ्ते, केक और कचौरियां खा गया। अंत में जब बिल के भुगतान की बारी आई तब उसने रहस्योद्घाटन किया कि उसकी जेब में फूटी कौड़ी भी नहीं है।

बड़े रौब से, आवाज को कड़कदार बनाते हुए उसने वेटर से कहा - "अब मेरा मुँह क्या देख रहे हो, जल्दी से पुलिस को बुलाओ; व्यर्थ में एक शरीफ आदमी का वक़्त क्यों खराब कर रहे हो ?"

अंगारों जैसी लाल आँखें निकालते हुए वेटर ने कठोर आवाज में कहा - "तेरे लिए और पुलिस का सिपाही ?" उसने अपने साथी को आवाज दी और सोपी महाशय थोड़े से शरीरपूजन के बाद, बड़ी निर्दयता से, एक बार फिर सड़क पर ला पटके गए।

धीरे-धीरे सोपी उठा और कपड़ों की धूल झाड़ते हुए इधर-उधर देखने लगा। कुछ दूरी पर एक दुकान के सामने खड़े हुए सिपाही ने उसे देखा और हँसते हुए अपने रास्ते चला गया। आज गिरफ्तारी उसके लिए मृगमरीचिका हो चली थी और उसे वह सुखदायी जेल कोसों दूर दिखाई दे रही थी।

काफी देर इधर-उधर भटकने के बाद, सोपी के भीतर गिरफ्तारी का प्रयास करने की हिम्मत फिर जागृत हुई। इस बार जो अवसर उसे सामने दिखाई दे रहा था, वह उसे अचूक लगा।

मनोहर और सुशील मुखमुद्रा वाली एक नवयुवती, एक दुकान की खिड़की में सजी वस्तुओं को बड़ी तल्लीनता से देख रही थी, और उससे करीब दो गज की ही दूरी पर कठोर मुखाकृति वाला एक सिपाही, नल का सहारा लिए खड़ा था।

दरअसल सोपी के दिमाग ने इस बार, लड़कियों के साथ छेड़छाड़ करने वाले, घृणित और तुच्छ गुण्डे का किरदार अदा करने की योजना बनाई। अपने शिकार की सौम्य और भोली सूरत देखकर तथा क़ानून के सतर्क पहरेदार को पास में खड़ा जानकर, सोपी को पूरा विश्वास था कि कुछ ही देर में उसकी बाँह पर सिपाही की मजबूत पकड़ का अनुभव होगा जो उसे सर्दियों भर के लिए आरामदायक जेल में पहुंचा देगी।

सोपी ने मिशनरी महिला द्वारा भेंट दी गई टाई को ठीक किया, सिकुड़ती हुई आस्तीनों को कोट से बाहर निकाला और टोप को जरा सा तिरछा करते हुए उस युवती की ओर बढ़ा। उसने युवती का ध्यान आकृष्ट करने के लिए जोर से खांसा खंखारा, फिर आँख से इशारा किया और पूरी बदतमीजी का प्रदर्शन करते हुए, मुस्कुराते हुए, किसी शातिर छिछोरे की तरह झूमने लगा।

इस बीच अपनी आँख की कोर से तिरछी नजर डालकर उसने यह तसल्ली भी कर ली कि पुलिस का सिपाही उसे घूर रहा है।

युवती दो चार आगे पीछे होकर फिर एक बार तल्लीनता से दुकान में सामान देखने लगी। सोपी निर्भयता से आगे बढ़कर युवती के बगल में जा खड़ा हुआ और टोप उठाकर बोला - "क्यों बेबी, कहीं कुछ तफरी का इरादा है ?"

सिपाही की नजर अब भी उसी पर थी। युवती के इशारा करने भर की देर थी कि सोपी अपनी मंजिल तक पहुँच सकता था। बल्कि ख्यालों में तो वह हवालात की सुखद गर्मी में पहुँच भी चुका था। सहसा युवती मुस्कुराते हुए उसकी ओर मुड़ी और हौले से उसकी बाँह पकडती हुई बोली - "क्यों नहीं मेरे राजा, मैं तो खुद ही तुमसे कहना चाह रही थी मगर डर रही थी। देख नहीं रहे वह सिपाही लगातार हमें ही घूरे जा रहा है।"

किसी वृक्ष से लता के समान अपनी देह से लिपटी उस लड़की को लिए जब सोपी उस पुलिसवाले के सामने से गुजरा तो उसके मन पर उदासी के बादल छा गए। ऐसे लग रहा था जैसे उसके भाग्य में अब जेल का सुख बदा ही नहीं है।

अगले मोड़ पर पहुँचते ही किसी तरह वह उस लड़की से पिंड छुड़ाकर भागा। वहाँ से वह एक ऐसे मोहल्ले में जाकर रुका जहां रात भर शराब-संगीत के दौर चलते हैं और झूठे वादे करने वाले बेफिक्र प्रेमियों का आनाजाना लगा रहता है। वहाँ सुन्दर-सुन्दर परिधान पहने महिला पुरुष उस सुहानी हवा में टहल रहे थे किन्तु सोपी का मन शंकाग्रस्त हो रहा था। उसे ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने उसके ऊपर कोई भयानक टोटका कर दिया है तभी उसकी गिरफ्तारी नहीं हो पा रही है। इस विचार से उसे घबराहट सी होने लगी और वह तेज तेज चलने लगा।

चलते - चलते वह एक भव्य थिएटर के सामने पहुँच गया जिसके सामने एक सिपाही बड़ी शान से टहल रहा था। सिपाही को देखते ही गिरफ्तार होने की इच्छा ने एक बार फिर उसके भीतर जोर मारा और इस बार उसने शराबी का पार्ट अदा करने की योजना बनाई।

फुटपाथ पर खड़े होकर सोपी ने अपनी कर्कश आवाज में शराबियों की तरह बकना और चिल्लाना आरम्भ किया। नाच कर, चीख कर, चिल्ला कर और अनेक तरीकों से उसने आसमान सिर पर उठा लिया। एक दो राहगीर उसे देखकर ठिठक कर खड़े हो गए और पुलिसमैन की तरफ देखने लगे।

पुलिसमैन ने सोपी की तरफ से पीठ कर ली और एक राहगीर से कहने लगा - "अरे कोई ख़ास बात नहीं, सामने वाले कॉलेज का कोई लड़का है। दरअसल इन्होने आज फोर्ट कॉलेज को मैच में बुरी तरह हराया है इसलिए सेलिब्रेट कर रहा है। सिर्फ हल्ला मचाता है - डर की कोई बात नहीं। हमें हिदायत दी गई है कि आज के दिन इन लोगों से कुछ न कहा जाय।"

और इस तरह, सोपी का शराबी वाला नाटक भी व्यर्थ साबित हुआ। अब वह सचमुच दुखी महसूस कर रहा था। क्या पुलिस के सिपाही उसे कभी गिरफ्तार न करेंगे ? उसे अब जेल एक अप्राप्य स्वर्ग के समान लगने लगी। ठंडी हवा से बचने के लिए उसने अपने जीर्ण कोट के बटन बंद कर लिए।

वहाँ से कुछ दूर चला तो उसने सिगार की दूकान में एक आदमी को घुसते देखा। उस आदमी ने अपना नया छाता दुकान के बाहर ही दरवाजे के पास रख दिया और भीतर जाकर सिगार सुलगाने लगा।

सोपी दुकान के पास पहुंचा, छाता उठाया और धीरे धीरे चहलकदमी करता हुआ आगे बढ़ गया। छाते का मालिक यह देखकर जल्दी से दुकान से बाहर आया और सोपी के पीछे चलता हुआ बोला - "ओ भाई, मेरा छाता ?"

चोरी और उस पर सीनाजोरी करता हुआ सोपी उसका उपहास सा उड़ाता हुआ कहने लगा - "अच्छा ! तुम्हारा छाता ? क्या वाकई ये तुम्हारा छाता है ? तो फिर जाओ, बुलाओ पुलिस को ....बुलाओ ! वो सामने ही खड़ा है पुलिसवाला ! बुलाओ उसे !"

पुलिस का नाम सुनते ही छाते के मालिक की चाल सहसा धीमी हो गई। वह रुकता हुआ बोला - "ओह, माफ़ कीजिये .... कभी कभी गलती हो ही जाती है। अगर ये छतरी आपकी है ... मेरा मतलब आपने पहचान ली है तो आप रख लीजिये .... कोई बात नहीं! मैंने तो .... सच कहूँ तो ...इसे आज ही एक होटल से उठाया था... आपकी है तो आप रख लीजिये...!"

सोपी पूरी दुष्टता से बोला - "हाँ ... यह छतरी मेरी ही है !"

इतना सुनते ही छाता मालिक माफ़ी मांगते हुए उलटे पाँव मुड़ा और एक गली में गायब हो गया। सामने कुछ दूरी पर खड़ा पुलिसवाला मूर्खों की तरह दोनों को देखता रहा और फिर एक ओर को चल दिया।

सोपी ने कुछ आगे जाकर गुस्से से छतरी को एक गड्ढे में फेंक दिया। सिर पर टोपी और हाथ में डंडा लिए घूमने वाले पुलिस समुदाय के प्रति उसका मन विरक्ति से भर गया। वह तो उनके पंजों में फंसना चाहता था किन्तु सिपाही शायद उसे बुराई से ऊपर उठे हुए किसी संत के समान समझ रहे थे।

घर का मोह मनुष्य को अपनी ओर खींचता ही है, भले ही उसका घर किसी पार्क की बेंच ही क्यों न हो। सोपी वापस मैडिसन चौक की दिशा में चल दिया।

लेकिन रास्ते में एक अत्यंत नीरव स्थान पर उसके पाँव स्वतः रुक गए। वहाँ एक पुराना गिरजाघर था - टूटा फूटा किन्तु विलक्षण और महराबदार। बैगनी रंग के कांचवाली खिड़की से प्रकाश छनकर आ रहा था और निश्चय ही अगले इतवार की प्रार्थना की तैयारी में लीं पियानो बजाने वाला पियानो पर अपनी उंगलियाँ नचा रहा था।

उस स्वर्गीय संगीत की मधुर स्वर-लहरी बहती हुई सोपी के कानों तक आई और उसने उसे अभिभूत कर दिया। आकाश में निर्मल स्निग्ध चाँद चमक रहा था। सड़क राहगीरों से सूनी थी। पंछी तन्द्रिल स्वरों में चहचहा रहे थे। वातावरण किसी गाँव के गिरजे के समान प्रशांत था। प्रार्थना के स्वरों ने सोपी को गिरजे की चहारदीवारी से जकड सा दिया था।

वह उस प्रार्थना से परिचित था - क्योंकि उसने उसे उस जमाने में सुना था जब उसके जीवन में पवित्र विचारों, स्वच्छ कपड़ों, आकांक्षाओं, फूलों, माताओं, बहनों और मित्रों का भी स्थान था।

सोपी के मन की भावुकता और पुराने गिरजे के पवित्र वातावरण के अद्भुत सम्मिलन से सोपी ने अपनी अंतरात्मा में एक अनूठा परिवर्तन सा महसूस किया। लगभग सिहरते हुए उसने उस गर्त की गहराई का अनुभव किया जिसमें वह गिर चुका था। अधःपतन के दिन, घृणित इच्छाएं, कुचली हुई आशाएं, ध्वस्त मानस - जिन्होंने अब तक उसके अस्तित्व को बनाया था - सब उसके स्मृतिपटल पर उभर आये।

और दूसरे ही क्षण, सहसा, उसके ह्रदय में अपने दुर्भाग्य से लड़ने की एक बलवती प्रेरणा उत्पन्न हुई। उसने इस दलदल से अपने आपको बाहर निकालने का निश्चय किया। उसने दृढ़ विचार कर लिया कि वह फिर से अपने आपको मनुष्य बनाएगा। जिस बुराई ने उसे दबोच रखा है, उसे वह जीतेगा। अब भी समय है, उसकी उम्र अब भी कुछ ज्यादा नहीं है।

पियानो के मधुर स्वरों ने उसकी आत्मा में हलचल सी मचा दी थी। कल सुबह ही वह शहर के दक्षिणी भाग में जाकर काम ढूंढेगा। फर के एक व्यापारी ने उसे एक बार ड्राईवर की नौकरी देनी चाही थी। कल ही वह उसे ढूँढ़कर नौकरी ले लेगा। वह दुनिया में कुछ बनेगा। वह ......

अचानक सोपी ने अपनी बाँह पर किसी पकड़ का अनुभव किया। वह तेजी से घूमा और सामने एक सिपाही का कठोर चेहरा दिखाई दिया।

सिपाही ने पूछा - "यहाँ क्या कर रहे हो ?"

सोपी ने कहा - "जी, कुछ नहीं !"

सिपाही - "कुछ नहीं ? तो फिर मेरे साथ चलो..."

दूसरे दिन सबेरे पुलिस कोर्ट के मैजिस्ट्रेट साहब ने फरमाया - "तीन महीने की सख्त कैद।"

(अनुवाद : स. क. शर्मा)

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