काली बिल्ली/बिल्ला (कहानी) : एडगर एलन पो
The Black Cat (English Story in Hindi) : Edgar Allan Poe
मैं जो कहानी लिखने जा रहा हूँ वह भयानक होने के साथ ही भद्दी भी है। मैं उस पर विश्वास किए जाने की न उम्मीद करता हूँ, न विनती। मेरी अपनी आँखों ने जिसे देखकर अस्वीकार किया उस पर किसी और के विश्वास की उम्मीद करने का पागलपन मैं नहीं करूँगा। पर मैं पागल नहीं हूँ और न ही सपने देखता हूँ। कल मैं मरूँगा और आज अपनी आत्मा का बोझ उतारना चाहता हूँ। मैं सीधे-सादे, थोड़े से शब्दों में बिना अपनी तरफ से कुछ जोड़े सारी घटनाओं को दुनिया के सामने रखना चाहता हूँ। उन घटनाओं के फलस्वरूप मैं डरा-सताया गया और बरबाद हो गया। फिर भी मैं उनकी व्याख्या नहीं करूँगा मेरे लिए वे डरावनी हैं-पर और बहुत से लोगों को वे भयानक कम और अनोखी ज्यादा लगेंगी। अब शायद कुछ बुद्धिमान लोग इसे मेरा मामूली भ्रम कहें, कुछ दूसरे बौद्धिक जो अधिक शान्त और बुद्धिवादी हैं और मुझसे कम उत्तेजित होते हैं, उन परिस्थितियों को जिनका मैं वर्णन कर रहा हूँ, उन्हें कारण और परिणाम के सहज क्रम से ज्यादा कुछ नहीं मानेंगे।
बचपन से मुझे सीधा और संवेदनशील माना जाता था, यहाँ तक कि मेरी कोमलता के लिए मेरे साथी मेरा मज़ाक उड़ाते थे। मुझे जानवरों से ख़ास प्यार था और मेरे माता-पिता ने मेरी खशी के लिए बहुत तरह के पालतू जानवर ला दिए थे। मैं अपना ज्यादा से ज्यादा वक्त उन्हीं के साथ बिताया करता था। उन्हें खिलाने और पुचकारने में बहुत खुश होता था। मेरी उम्र के साथ-साथ मेरे चरित्र की यह विचित्रता बढ़ती गई और पूरी तरह वयस्क होने पर यही मेरी खुशी का मुख्य आधार बन गयी। जिन लोगों को ईमानदार और होशियार कुत्ते से बेहद प्यार है उन्हें मुझे यह नहीं बताना पड़ेगा कि इस प्यार से कितना तीव्र सन्तोष मिलता है। इस जानवर के निस्वार्थ और आत्मबलिदानपूर्ण प्रेम में कुछ ऐसा होता है जो सीधा हृदय को छूता है और बहुत बार इन्सान की तुच्छ दोस्ती और कमज़ोर वफादारी का इम्तहान लेता है।
मैंने जल्दी शादी कर ली थी और खुश था कि मुझे ऐसी पत्नी मिली थी, जिससे मेरा स्वभाव उल्टा नहीं था। मेरा घरेलू जानवरों के प्रति प्रेम जानने के कारण वह घर में रखने लायक जानवर लाने का कोई मौका नहीं छोड़ती थी। हमारे यहाँ चिड़ियाँ, एक अच्छा कुत्ता, लाल मछली, खरगोश, एक छोटा बन्दर और एक बिल्ला था।
बिल्ला बिल्कुल काला, काफी बड़ा और सुन्दर था। वह आश्चर्यजनक रूप से चतुर था। मेरी पत्नी में अन्धविश्वास ज़रा भी नहीं था पर उसकी बुद्धिमानी की बात करते समय वह बहुत बार पुरानी मान्यता की ओर इशारा करती थी जिसके अनुसार काली बिल्ली बदले वेश वाली चुडैल मानी जाती थी। वह इस बात को गम्भीरता से लेती हो ऐसा नहीं था और मैं अभी इसकी ओर इशारा किसी खास वजह से नहीं करके इसलिए कर रहा हूँ कि इसे याद रखना है।
मेरा प्रिय पालतू और खेल का साथी प्लूटो जहाँ मैं जाऊँ, मेरे पीछे-पीछे जाता था। मैं मुश्किल से उसे अपने पीछे सड़कों पर आने से रोकता था।
हमारी ऐसी दोस्ती बहुत साल तक चली। पर धीरे-धीरे उग्रता के कारण मेरा स्वभाव बहुत बदलता चला गया (मुझे मानने में भी शरम आ रही है) हर दिन मैं ज्यादा चिड़चिड़ा, गुस्सैल और दूसरों की भावनाओं की तरफ से लापरवाह होता गया। मैं पत्नी से अनियंत्रित भाषा में बोलने लगा था। बाद में तो उस पर हाथ भी छोड़ने लगा था। मेरे पालतू जानवरों को भी मेरे स्वभाव के इस बदलाव को झेलना पड़ता था। मैं केवल उनकी उपेक्षा ही नहीं उनके साथ बुरा व्यवहार भी करने लगा था। फिर भी प्लूटो के प्रति अब भी मेरे मन में इतना प्यार था कि मैं उसके साथ बुरा व्यवहार नहीं करता था, जबकि खरगोश, बन्दर या कुत्ते में से कोई गलती से या प्यार से मेरे रास्ते में आ जाए तो भी मैं उन्हें बहुत तंग करता था। मेरी बीमारी बढ़ती गई-क्योंकि शराब से बढ़कर क्या बीमारी हो सकती है? और अब प्लूटो को भी-जो अब बूढ़ा और चिड़चिड़ा होता जा रहा था-मेरी बददिमागी के असर को झेलना पड़ता था।
एक रात, शहर के एक अड्डे से नशे में चूर लौटने पर, मुझे लगा प्लूटो मेरे सामने नहीं आ रहा, मैंने उसे पकड़ा, मेरी हिंसा से डरकर उसने मेरे हाथ पर हल्का-सा दाँत गड़ा दिया। मुझ पर फौरन एक वहशी गुस्सा हावी हो गया। मैं अपने को पहचान नहीं पा रहा था। ऐसा लगा कि उस वक्त मेरी आत्मा शरीर छोड़कर उड़ गई थी; दुष्ट दुर्बुद्धि मेरे शरीर की एक-एक नस को अपने फंदे में बाँध रही थी। मैंने अपनी जैकेट की जेब से एक छोटा चाकू निकाला, बेचारे जानवर को गले से पकड़ा और जानबूझकर उसकी एक आँख बाहर निकाल ली! इस निष्ठुरता के बारे में लिखते हुए भी शर्मिन्दा हूँ, काँप उठता हूँ।
सुबह के साथ विवेक लौटा-रात की दुष्टता और गुस्से का आवेश सोकर हट चुका था-मुझे अपने किए पाप का डर और अफसोस था, लेकिन वह भावना कमज़ोर और सन्देहपूर्ण थी। मेरी आत्मा उससे अछूती रही। जल्दी ही मैं फिर वैसी ही हरकतें करने लगा। शराब ने उस कुकर्म की याद भी भुला दी।
इस बीच बिल्ला धीरे धीरे ठीक होता गया। यह सच है कि खोई हुई आँख का गड्डा एक डरावना दृश्य था, पर ऐसा नहीं लगता था कि अब उसे कोई दर्द महसूस होता होगा। वह पहले की तरह घर में घूमता था। पर जैसा कि स्वाभाविक था, वह मुझे देखते ही बहुत डरकर भागता था। मुझमें पुरानी भावनाएँ इतनी बची थीं कि पहले पहल अपने से प्यार करने वाले जानवर की साफ दिखती नापसन्दगी मुझे दुखी करती थी। पर धीरे-धीरे इसकी जगह चिढ़ ने ले ली। और फिर जैसे इस हार की वजह से मुझमें एक दुष्ट आत्मा आ गई। दर्शन इस बात को नहीं मानता पर मैं अपनी आत्मा के अस्तित्व की तरह इस बारे में भी विश्वास करता हूँ कि हर इन्सान के हृदय में दुष्टता की भावना होती है। वह एक ऐसी मूल भावना है जो मनुष्य के चरित्र को बनाती है। कितनी बार ऐसा नहीं होता कि एक व्यक्ति यह जानते हुए भी कि उसे वैसा नहीं करना चाहिए सैकड़ों बार एक घृण्य या बेवकूफी भरा काम करता है। क्या हम जानते हुए भी बार-बार कानून नहीं तोड़ते? मेरे विचार से मुझमें यह दुष्टता मेरी आखिरी हार के कारण आई। हरेक की आत्मा में बुरा काम करने की अथाह भावना होती है-वह गलत काम सिर्फ इसलिए करता है क्योंकि गलत काम करना है-वह अपने स्वभाव से उल्टा काम करता है-उसी भावना ने मुझे उकसाया और मैं उस निर्दोष को चोट पहुँचाता रहा। एक दिन मैंने नृशंसता के साथ उसके गले में फंदा डालकर पेड़ की डाल से लटका दिया-मेरी आँखों से आँसू बह रहे थे, मेरे दिल में बहुत अफसोस था-मैंने उसे टाँगा क्योंकि मैं जानता था कि वह मुझे प्यार करता था, क्योंकि मैं जानता था कि उसने मुझे ऐसा काम करने का कोई कारण नहीं दिया। उसे लटका दिया हालाँकि में जानता था कि ऐसा करके मैं पाप कर रहा हूँ-एक ऐसा भयानक पाप जो मेरी अमर आत्मा को परम दयालु ईश्वर और भयानक ईश्वर की अमर कृपा की पहुंच से दूर एक जोखिम में डाल देगा।
जिस रात मैंने यह क्रूर काम किया, उस रात ‘आग आग' की आवाज़ से नींद से जागा। मेरे बिस्तर के पर्दे लपटों में थे। पूरा घर जल रहा था। बड़ी मुश्किल से मैं अपनी पत्नी और नौकर के साथ उस अग्नि-दाह से बच पाया। सब कुछ नष्ट हो गया। मेरी सारी भौतिक सम्पत्ति ख़त्म हो गई थी। उसके बाद मैं निराशा में डूब गया। मैं उस क्रूरता ओर दुर्घटना के बीच कारण और परिणाम के क्रम को ढूँढ़ने की कमज़ोरी से ऊपर हूँ। पर मैं तथ्यों की श्रृंखला का विस्तार दे रहा हूँ। और एक भी कड़ी को अधूरा छोड़ने की इच्छा नहीं रखता। एक दीवार को छोड़कर सब दीवारें गिर गई थीं। ऐसा उस कमरे की दीवार के साथ हुआ जो बहुत मोटी भी नहीं थी और घर के बीच वाली थी। मेरे पलंग का सिरहाना उस दीवार की तरफ था। यहाँ का पलस्तर आग से काफी बच गया था-मेरा ख्याल. था कि ऐसा इसलिए हुआ होगा क्योंकि वह नई बनी थी। इस दीवार के पास बहुत भीड़ इकट्ठी हो गई थी। बहुत से लोग एक हिस्से को बड़ी बारीकी और बेचैनी से देख रहे थे। “ताज्जुब है!" "सिर्फ यह!" ऐसे शब्द मेरी उत्सुकता को तीव्र कर रहे थे। जब मैं वहाँ गया तो देखा। सफेद दीवार पर एक बिल्ली का सा आकार खुदा था, वह काफी हद तक सही लग रहा था। उसकी गरदन के चारों तरफ रस्सी थी।
जब मैंने वह आकार देखा-क्योंकि इससे कम वह कुछ नहीं था-मेरा अचरज और डर बहुत अधिक था। पर बाद में एक विचार ने मेरी मदद की। मुझे याद आया कि मैंने वह बिल्ला घर के पास वाले बगीचे में लटकाया था। आग दीखने पर इस बगीचे में भीड़ भर गई थी। शायद किसी ने मुझे नींद से जगाने के लिए उस बिल्ले को पेड़ से उतार कर खिड़की से मेरे कमरे में फेंक दिया होगा। मेरी क्रूरता का शिकार बिल्ला उस नए लगे पलस्तर से चिपक गया होगा; मुझे जो आकार दिखाई दे रहा था वह शायद पलस्तर के चूने और आग तथा बिल्ले के शव से निकले एमोनिया के कारण होगा।
विवेक से मैंने यह सोच लिया, पर मेरी अन्तरात्मा ने इसे स्वीकार नहीं किया। मैंने जिन चौंका देने वाले तथ्यों का अभी ब्यौरा दिया है उन्होंने मेरी कल्पना पर गहरा असर डाला। महीनों तक मैं बिल्ले की कल्पना से छूट नहीं पाया; और इन दिनों मेरे मन में एक भाव आया जो अफसोस का लगते हुए भी नहीं था। मुझे उस जानवर को खोने का दुःख भी हुआ था। और मैं अपने आस पास, जिन घटिया जगहों पर जाने लगा था वहाँ उसी जाति का दूसरा जानवर ढूँढ़ता था जो दिखने में वैसा ही हो ताकि उसकी जगह ले सके।
एक रात मैं अनमना सा एक बदनाम अड्डे पर बैठा था कि मेरा ध्यान एक काली चीज़ की ओर आकर्षित हुआ जो उस जगह के प्रमुख फर्नीचर रम या जिन के बड़े पीपे के ऊपर बैठा था। मैं कुछ पल टकटकी लगाकर देखता रहा और मुझे इस बात का अचरज हुआ कि उसे देखते ही मैं उसकी तरफ बढ़ा, मैंने उसे अपने हाथ से छुआ। वह एक काला बिल्ला था-बहुत बड़ा-उतना ही बड़ा जितना प्लूटो था। सिवाय एक चीज़ के वह हर तरह उससे मिलता था। प्लूटो के पूरे शरीर पर एक भी सफेद बाल नहीं था जबकि इसके बहुत बड़ा प्रायः पूरी छाती को ढकता एक सफेद धब्बा था।
मेरे छूते ही वह फौरन उठा, जोर से गुर्राने लगा। मेरे हाथ के साथ अपने को रगड़ने लगा, ऐसा लगा कि मेरे ध्यान देने से वह खुश था। यही वह जानवर था जिसकी मुझे तलाश थी। मैंने वहाँ के मालिक से उसे खरीदना चाहा; पर वह उसका नहीं था न ही वह उसके बारे में कुछ जानता था-उसने उसे पहले देखा भी नहीं था।
मैं उसे सहलाता रहा, और जब घर जाने को तैयार हुआ तो वह साथ चलने को तैयार था। मैंने उसे चलने दिया। बीच-बीच में मैं झुककर उसे थपथपा देता था। घर पहुँचते ही उसने घर को अपना लिया। पत्नी से भी फौरन दोस्ती हो गई।
जहाँ तक मेरा सवाल था, जल्दी ही मुझमें उसके प्रति नफरत जाग उठी। मैं जो उम्मीद कर रहा था, यह उससे बिल्कुल उल्टा था; पर-मैं नहीं जानता कि ऐसा कैसे और क्यों था-मेरे प्रति उसका प्यार मुझमें और ज्यादा खीझ और गुस्सा भर रहा था। धीरे-धीरे यह खीझ और गुस्सा नफरत की कड़वाहट में बदल गया। अपनी पहले की गई क्रूरता की याद और एक तरह की शर्म मुझे उसे शारीरिक कष्ट पहुँचाने से रोक रही थी, अतः मैं उसकी उपेक्षा करता था। कुछ हफ्तों तक न मैंने न उसे मारा, न उसके प्रति कोई हिंसा की, पर धीरे-धीरे-मुझे उससे इतनी नफरत हो गई कि मैं बता नहीं सकता, मैं उसकी घिनौनी उपस्थिति से ऐसे भागने लगा जैसे लोग प्लेग की हवा से भागते हैं।
उसे घर लाने के बाद वाली सुबह से मेरी उस जानवर के प्रति नफरत बढ़ गई। निस्सन्देह इसका कारण यह जानकारी थी कि उसकी भी प्लूटो की तरह एक आँख नहीं थी। इस कमी की वजह से मेरी पत्नी को उससे बहुत प्यार हो गया था क्योंकि उसमें जैसा कि मैं पहले भी बता चुका हूँ काफी मानवीयता थी जो कभी मेरी विशेषता हुआ करती थी और जिसके कारण मेरी खुशियाँ बहुत सारी और पवित्र हुआ करती थीं।
ऐसा लगता था कि इस बिल्ले के प्रति मेरी नफरत जितनी बढ़ रही थी, उतना ही बिल्ले का मेरे प्रति प्यार बढ़ रहा था। पाठकों को समझाना मुश्किल है कि वह किस ज़िद से मेरे कदमों का पीछा करता था। जब भी मैं बैठता था वह मेरी कुर्सी के नीचे बैठ जाता था या फिर मेरे घुटनों पर चढ़कर अपने घृण्य प्यार से मुझे भर देता। अगर मैं चलने के लिए खड़ा होता तो वह मेरे पैरों के बीच में आकर मुझे प्रायः गिरा देता था या मेरे कपड़ों में अपने तेज़ लम्बे पंजे नाखून गड़ाकर मेरी छाती तक चढ़ जाता था। ऐसे समय मेरा मन करता था कि एक हाथ मारकर उसे खत्म कर दूँ। पर पहले पाप की याद से और एक बार मान ही लूँ-उस जानवर से डर के कारण मैं अपने को ऐसा करने से रोकता था।
यह डर शारीरिक अनिष्ट का डर नहीं था-पर मैं किसी और तरह इसे बता भी नहीं सकता। मुझे मानने में शर्म आती है-हाँ इस अपराधियों की कोठरी में भी मुझे मानने में शर्म आती है कि उस जानवर ने मेरे अन्दर जो डर और खौफ पैदा किया था वह सिर्फ एक झूठी कल्पना से इतना बढ़ गया था। मेरी पत्नी ने कई बार मेरा ध्यान उस बिल्ले के सफेद बालों वाले हिस्से की ओर खींचा। मैं उसकी बात पहले कर चुका हूँ कि जिस जानवर को मैंने मारा था उसमें और इसमें सिर्फ इतना ही फर्क दिखता था। पाठक को याद होगा कि पहले यह निशान बड़ा होते हुए किसी निश्चित आकार का नहीं था; पर धीरे-धीरे अनजाने ही वह एक स्पष्ट आकार लेता जा रहा था। बहुत समय से मेरा विवेक उसे कल्पना मानकर ठुकरा रहा था। वह एक ऐसा आकार ले रहा था कि जिसका नाम लेने से भी मैं काँप उठता हूँ। शायद इसीलिए मैं उससे डरने के साथ-साथ इतनी नफरत करता था कि अगर हिम्मत होती तो उस राक्षस से छुटकारा पा लेता-अब मैं कह सकता हूँ कि वह भयानक आकार, एक भद्दी छाया-फाँसी के फन्दे की थी! डर और पाप-दुःख और मृत्यु का भयानक हथियार थी!
अब मैं इन्सान के साधारण दुःख से परे, दुर्भाग्य से भर उठा था। एक क्रूर जानवर, जिसके साथी को मैंने नफरत से भरकर मार दिया था-वह मेरे लिए, उस आदमी के लिए जिसे भगवान के समकक्ष माना जाता है-असह्य दुःख जुटा रहा था! अफसोस! अब मेरे पास आराम का वरदान नहीं था! दिन में वह जानवर पल भर को भी मुझे अकेला नहीं छोड़ता था; और रात में मैं हर घण्टे में अनजाने डर से चौंककर उठ जाता था, उसकी गरम साँसें अपने चेहरे पर महसूस करता था। और उसका भारी वजन हर समय मेरी दिल पर वज़न डालता था। मुझमें उस साक्षात् बुरे स्वप्न को हटाने की ताकत नहीं थी।
ऐसी मानसिक यंत्रणा के दबाव के कारण, मुझमें जो थोड़ी बहुत अच्छाई बची थी, वह भी खत्म हो गई। बुरे से बुरे भयानक विचार मेरे एकमात्र साथी हो गए। मेरे स्वभाव में जो गुस्सा था वह बढ़कर सब चीज़ों और इन्सानों के प्रति नफरत में बदल गया। बहुत बार मैं अचानक गुस्से से बेकाबू हो जाता था पर मेरी पत्नी बिना शिकायत किए बिल्कुल स्वाभाविक ढंग से धैर्यपूर्वक सब सहती थी।
गरीबी से मजबूर होकर हम एक पुराने मकान में रह रहे थे। एक दिन घर के किसी काम से मेरी पत्नी मेरे साथ तहखाने में गई। सीढ़ियाँ बहुत सीधी थीं। बिल्ला मेरे पीछे से आया उसकी वजह से मैं सिर के भार गिरने वाला हो गया। मैं गुस्से से पागल हो उठा, और उस डर को भूल गया जिसकी वजह से मैंने अब तक उसे मारा नहीं था। मैंने एक कुल्हाड़ी उठाकर उस जानवर को निशाना बनाकर फेंकनी चाही। अगर वह निशाने पर गिरती तो वह निश्चित रूप से मर जाता, पर मेरी पत्नी ने अपने हाथ से मुझे बीच में ही रोक लिया। इस बाधा से मुझमें राक्षसी गुस्सा भर गया, मैंने उसकी पकड़ से अपना हाथ छुड़ाया और कुल्हाड़ी पत्नी के सिर पर दे मारी। वह बिना आवाज़ किए वहीं ढेर हो गई।
यह भयानक कत्ल करने के बाद मैं योजना बनाकर उसकी देह छिपाने के काम में लग गया। मैं जानता था कि दिन हो या रात, पड़ोसियों की नज़र में पड़े बगैर शरीर को घर से ले जाना सम्भव नहीं था। मेरे दिमाग में बहुत ख्याल आये।
एक बार यह भी सोचा कि शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े करके आग में डाल दूँ, तो दूसरी बार तहखाने की ज़मीन खोद कर दफनाने का विचार आया। फिर सोचा, आंगन मे बने कुँए में फेंक दूं-या किसी बक्से में बन्द करके मजदूर से उठवा दूँ। अन्त में मुझे एक सबसे अच्छा तरीका सूझा। मैंने तय किया कि तहखाने की दीवार मे चिन दूँ-जैसे मध्यकाल में संन्यासी अपने शिकार को दीवार में चिन देते थे।
इस काम के लिए तहखाने की दीवार ठीक थी। इसकी दीवारों पर हाल ही में पलस्तर किया गया था। सीलन की वजह से वह अभी पूरी तरह जम नहीं पाया था। इसके अलावा एक दीवार पर नकली चिमनी के कारण आगे को उभार था जो तहखाने की बाकी दीवारों से मिलाने के लिए किया गया था। मुझे इस बारे में कोई शक नहीं था कि वहाँ की ईंटें हटाना मुश्किल नहीं होगा। तय था कि लाश रखकर फिर से पहले जैसी चिनाई करने पर किसी को शक नहीं हो सकता था।
इस दृष्टि से मैंने धोखा नहीं खाया। एक कुदाल की मदद से आसानी से ईंट हटाई, फिर अन्दर की दीवार के सहारे लाश रखी, उसे खड़ा किया और बिना किसी कठिनाई के फिर से पहले जैसी दीवार चिन दी। पूरी सावधानी के साथ मसाला तैयार किया और पुराने पलस्तर से मिलता जुलता पलस्तर नई चिनाई पर भी कर दिया। काम खत्म करने पर मैं सन्तुष्ट था कि सब ठीक से हो गया। दीवार में कोई फर्क नहीं था। मैंने बड़े ध्यान से ज़मीन पर से सारा कूड़ा उठाया, सब तरफ एक विजेता की सी नजर डाली और अपने आप से कहा, "मेरी मेहनत बेकार नहीं गई।"
मेरा अगला काम उस जानवर को ढूँढ़ना था जिसके कारण यह कुकर्म हुआ, क्योकि मैंने तय कर लिया था कि उसे जान से मार दूंगा। अगर वह तभी मुझे मिल जाता तो उसकी यही किस्मत होती, पर लगा कि वह धूर्त जानवर मेरे पिछले गुस्से में की गई हिंसा से डर गया था, वह मेरी वर्तमान मनःस्थिति में मेरे सामने आना नही चाहता था। उस घृण्य जानवर के न होने से मेरे दिल में जो तसल्ली और खुशी थी उसकी कल्पना या वर्णन असम्भव था। वह रात को भी नहीं लौटा। उसके इस घर में आने के बाद से यह पहली रात थी जब मैं शान्ति से गहरी नींद सोया, हाँ मन पर हत्या का बोझ अवश्य था।
दूसरा और तीसरा दिन भी बीत गया। मुझे सतानेवाला नहीं आया। मैं फिर एक बार आज़ाद इन्सान की तरह साँस लेने लगा। वह शैतान डरकर हमेशा के लिए | भाग गया था। पर मुझे अपने कुकर्म की ग्लानि तंग कर रही थी। मैंने उस बिल्ले के बारे में कुछ खोज की, पर कुछ पता नहीं चला। अब मुझे भविष्य की खुशी सुरक्षित लग रही थी।
हत्या के चौथे दिन, बिना किसी आशंका के एक पुलिस दल आ गया। उन्होने बड़ी गहराई से घर में खोजबीन की। मैं लाश को छिपाने वाली जगह के बारे में पूरी तरह निश्चिंत होने के कारण बिल्कुल परेशान नहीं था। अफसरों ने खोज के समय मुझे अपने साथ रहने को कहा। उन्होंने कोई कोना बिना देखे नहीं छोड़ा। आखिर वे तीसरी या चौथी बार तहखाने में गए। मैं बिल्कुल नहीं घबराया, मेरा दिल सहज रूप से धड़कता रहा, जैसे मैं बिल्कुल निर्दोष और भोला था। मैं तहखाने के एक सिरे से दूसरे तक गया। मैंने बाँहें छाती पर मोड़ रखी थीं, और सहज ढंग से टहल रहा था। पुलिस वाले पूरी तरह सन्तुष्ट होकर लौटने को तैयार हुए। मेरे दिल की खुशी समा नहीं रही थी। मैं जीत का एक शब्द कहने को बेचैन था और साथ ही उन्हें अपने निर्दोष होने की पूरी तसल्ली करवा देना चाहता था।
पुलिसदल सीढ़ी पर चढ़ने लगा। आखिर मैंने कह ही दिया, “आप लोगों का शक दूर होने से मैं बहुत खुश हूँ। मैं आप सबके स्वास्थ्य की कामना करता हूँ। देखिए, यह-यह घर कितना अच्छा बना है। (मैं सहज दिखने के चक्कर में क्या कहूँ समझ नही पा रहा था) ये दीवारें-आप जा रहे हैं? ये दीवारें बड़ी मज़बूत बनी हैं' और अपनी बहादुरी दिखाते हुए मैंने अपने हाथ की छड़ी दीवार के उस हिस्से पर जोर जोर से मारी जिसके पीछे मेरे दिल की रानी, मेरी पत्नी की लाश थी।
पर भगवान् मुझे अत्याचारी के जहरीले दाँत से बचाए-मेरे वार की आवाज अभी शान्त भी नहीं हुई थी कि उस कब्र से आवाज़ आई-एक चीख, पहले दबी ओर टूटी सी जैसे कोई बच्चा सिसक रहा हो, और फिर ऊँची लम्बी चीख होती गई, पूरी तरह असाधरण और अमानवीय-एक गुर्राहट-एक ऐसी चीख जिसमें डर और जीत का भाव था, जो नरक से आ रही थी, और किसी अभिशप्त, दर्द से भरे गले से निकल रही थी।
मेरे विचारों के बारे में बात करना बेवकूफी है। मैं लड़खड़ाता हुआ, बेहोशी की-सी हालत में दूसरी तरफ की दीवार से लगकर खड़ा हो गया। पूरा पुलिस दल पलभर के लिए डर और ताज्जुब से पत्थर जैसा हो गया। दूसरे ही पल दर्जन भर मजबूत हाथ दीवार पर काम में लग गए। दीवार गिरा दी गई। देखने वालों के सामने बुरी तरह सड़ी, खून जमी लाश सीधी खड़ी थी। लाल मुँह लिए, आग से भरी एक आँख वाला वह जानवर उसके सिर पर बैठा था। उसी ने चालाकी से मुझे हत्या करने को उकसाया और उसी की आवाज़ ने मुझे जल्लाद तक पहुंचाया। मैंने अनजाने मे उस राक्षस को दीवार में चिन दिया था।
(अनुवाद : उमा पाठक)