थल (कहानी) : अहमद नदीम क़ासमी
Thal (Story in Hindi) : Ahmad Nadeem Qasmi
कहते हैं कि जब थल में रेल की पटरी बिछाई जा रही थी तो यूँ होता था कि हमेशा की तरह वहाँ रोज़ाना आँधी आती थी और बिछी हुई पटरी पर जगह जगह रेत के टीले चढ़ बैठते थे। उस ज़माने के एक बूढ़े मुंशी जी पटरी बिछाने की अजीब अजीब कहानियाँ सुनाते थे। वो कहते थे कि एक बार पटरी हज़रत पीर के मज़ार के रकबे में से गुज़ार दी गयी। मज़ार का मुतवल्ली अंग्रेज़ से डरता था, इसलिए उसे ख़ानबहादुर का खिताब भी मिला हुआ था। मगर हज़रत पीर अंग्रेज़ से क्यों डरते? सो उसी रात को यूँ हुआ कि जिन्नों-भूतों की एक फ़ौज आयी और फ़ौलाद की पटरियों को गन्ने की तरह चूसकर चली गयी। सुबह को जब अंग्रेज़ इंजीनियर काम पर आया, तो हर तरफ़ पटरियों के चूसे हुए छिलके उड़ रहे थे। तब उस जगह मीठे चावलों की सात देगें पकाकर ग़रीबों में बाँटी गयीं और रास्ता बदल दिया गया। इसीलिए तो रेल इतना बड़ा मोड़ काटकर अगले स्टेशन पर पहुँचती थी।
उसी अंग्रेज़ के बारे में मुंशी जी यह भी बताते थे कि वह थल की आँधियों से बहुत परेशान था और उसने उधर विलायत में अपनी सरकार को लिखा था कि पटरी बिछाने के लिए यह कैसा इलाक़ा मुझे दिया गया है कि आँधी के बाद सारा जुग़राफिया ;भूगोलद्ध ही बदल जाता है। यहाँ तो रेत के टीले बाक़ायदा सफ़र करते हैं। सो, मेरी कुछ मदद कीजिए। इस पर विलायत की सरकार ने दिल्ली की सरकार को लिखा और दिल्ली की सरकार ने किसी पहुँचे हुए पीर से एक तावीज़ हासिल किया जो पटरी के आस-पास की बबूल में लटका दिया जाता। उसके बाद आँधी आती, तो रेत के टीले पटरी को छूते तक न थे। मगर मालूम होता है हज़रत पीर उस पीर से भी बड़े पीर थे। इसीलिए कहते हैं, जब एक बार बहुत तेज़ आँधी आयी तो एक टीला बबूल में लटकते हुए तावीज की परवाह किये बग़ैर पटरी पर चढ़ गया। फिर दिल्ली से एक और तावीज मँगाया गया और जब पहले तावीज की जगह उसे बबूल में लटकाया गया तो अचानक सर्र र र र र.. की आवाज़ आयी। रेत के टीले को आग लग गयी और वह राख की चुटकी बनकर उड़ गया। यानी, थल में जब तक पटरी बिछती रही, उस इलाक़े के हज़रत पीर और दिल्ली के पीरों का आपस में सख़्त मुक़ाबला होता रहा और हज़रत पीर के जिन्न भूत तो आज भी सरगर्म हैं। पिछले दिनों अल्लाजिवाया अपनी भैंस समेत गाड़ी के नीचे आकर कट गया था, तो उसकी वजह सिर्फ़ यह थी कि वह बात बात पर रेल का टिकट कटा लेता था। बड़े बूढ़ों ने उसे बहुत समझाया कि रेलगाड़ी में इतना ज़्यादा सफ़र न किया करो, हज़रत पीर ख़फ़ा हो जायेंगे, मगर वह न माना और फिर एक पटरी पर चरती हुई भैंस को रेलगाड़ी से बचाने दौड़ा, तो भैंस के साथ ख़ुद भी इंजन के पहियों के साथ लिपटा चला गया। लोगां ने पहियों से लिपटी हुई उसकी चमड़ी बेलचों से उधेड़ी।
दरअसल जब पटरी खोशाब की तरफ़ से कन्दयाँ की जानिब बढ़ी थी, तो थल के बड़े-बूढ़ों ने साफ़-साफ़ कह दिया था कि अब पुराने रिवाज़ बदल जायेंगे और लोग हल चलाने के बजाय नौकरियाँ करने लगेंगे। गाँव उजड़ जायेंगे और किसी को किसी का लिहाज़ नहीं रहेगा। सो, यही हुआ। मगर साथ ही कुछ और भी हुआ। यह पटरी बिछाने के लिए उस गाँव से एक सौ के क़रीब मज़दूर लिए गये और उन्होंने थोड़े ही अरसे में इतना रुपया कमाया कि किसी ने अपनी ज़मीन में कुआँ ख़ुदवाया किसी ने कच्चा कोठा गिराकर पुख़्ता मकान बनवा लिया और किसी ने ज़मीन ख़रीद ली थी और वह जो फ़सलों के पकने के ज़माने में दूर-दूर के गाँवों में रोज़ाना मज़दूरी पर बड़े-बड़े ज़मीनदारों के खेत काटता और गहाई करता और अनाज ढोता था, उसी ज़माने में एक छोटा-सा किसान बन गया और बिरादरी में उसे पूछा जाने लगा।
मिसरी ख़ाँ कच्ची जवानी में था, जब उसके बाप ने वफात पायी इसलिए रेल की पटरी के सिलसिले में उसे बाप की बतायी हुई बहुत-सी बातें याद थीं। मसलन् यही कि बेटा! यह जो हमारे गाँव से एक कोस के फ़ासले पर रेलें धाँ धाँ... करती गुज़र जाती है तो यह कभी न गुज़रती अगर हम पटरी न बिछाते। अंग्रेज़ साहब ने तो ज़मीन को नाप-बापकर हमें पटरी बिछाने का हुक्म दे दिया था और फिर दिन भर बैठा चुरुट पीता रहता था या सीटी बजाता रहता था। यहाँ से वहाँ तक यह पटरी हमीं ने बिछायी है। इस पटरी के एक एक चप्पे पर हमारे पसीने के और कभी-कभी हमारे ख़ून के क़तरे टपके हैं। इसलिए एह बड़ी मनहूस पटरी है। ख़ुदा हज़रत पीर की बरकत से सबको लोहे की इस बला से बचाये।
मिसरी बचपन से रेलगाड़ी को देख रहा था। गाड़ी अभी दूर होती थी, तो कुछ ऐसी आवाज़ें आने लगती थीं जैसे गाँव से कोई एक कोस नीचे एक दैत्य बैठा सौ-सौ हाथ के पाटों वाली चक्की पीस रहा है। तब गाँव के लड़के लपककर छत पर चढ़ जाते थे। फिर रेलगाड़ी गाँव से एक कोस के फ़ासले पर से गुज़रती तो लड़के एक दूसरे को बताते कि यह गाड़ी वहाँ से चलती है जहाँ दुनिया ख़त्म होती है। गाँव की औरतों में यह भी मशहूर था कि जिसने एक बार रेलगाड़ी में सफ़र किया वह हमेशा के लिए मुसाफ़िर बन गया। उस पर उन जिन्नों और भूतों का साया है जो एक दफ़ा हज़रत पीर साहब का इशारा पाकर पटरी को गन्ने की तरह चूसकर चले गये थे। थल के वही लोग उस गाड़ी में सफ़र करने का हौसला रखते है जो हज़रत पीर के मज़ार वाले मुतवल्ली से तावीज लाते हैं। उसी गाँव के ख़ान बेग ने एक दफ़ा ख़ाली हाथ सफ़र किया, तो उम्र भर बेचारा कहीं टिक न सका। यहाँ से वहाँ रोज़ी रोज़गार के लिए भागा फिरा और आखि़र उधर चिनाब पार करके शहर चयोंट में किसी सेठ की हवेली मे मज़दूरी कर रहा था। जब सिर पर ईंटे लादे एक सीढ़ी पर चढ़ा और ऊपर पहुँचा तो पाँव फिसल गया। पहले ख़ुद गिरा, ऊपर ईंटें गिरी और टूट टाटकर मर गया। उसकी मौत की ख़बर फैली, तो हज़रत पीर के मज़ार के मुतवल्ली को जलाल आ गया था और उन्होंने कहा था, "मेरे तावीज के बग़ैर रेलगाड़ी में और बैठो बदबख़्तो (बुरी क़िस्मतवालो)! हज़रत पीर तो अपने मुनकिरों (न मानने वालो) के साथ ऐसा ही करते हैं।
मिसरी ने रेलगाड़ी को दूर से भी देखा था और नज़दीक से भी देखा था। उस पर ढेले भी फेंके थे, उसके आने से पहले पटरी पर कंकड़ भी रखे थे, जो गाड़ी गुज़र जाने के बाद चूना बन जाते थे। उसने रेलगाड़ी की खिड़कियों में अजीब-अजीब चेहरे भी देखे थे। बड़े बड़े तुर्रों और लम्बे-लम्बे पट्टों वाले लोग। औरतें, जिनके कानों में चुल्लू-चुल्लू भर सोने की बालियाँ होती थी। बच्चे, जिन्होंने उस पर गँडेरी और मूँगफली के छिलके फेंके थे। और जब एक बार किसी बच्चे ने ग़लती से एक पूरी गँडेरी फेंकी जो आधी गँडेरी चूसकर बाक़ी आधी माँ के लिए बचा लाया। रेलगाड़ी से वह इस हद तक वाक़िफ़ था। इससें आगे कुछ मालूम न था कि गाड़ी में कैसे चढ़ते हैं, कैसे बैठते हैं और वह अन्दर से कैसी होती हैं वह चलती है तो सवारियों को कैसा लगता है? वह रुकती कैसे है? और रुकती है तो चलती कैसे है? और इतना बहुत-सा धुआँ क्यों छोड़ती है? एक बार उसने अपने बाप से ज़िद भी की थी कि मुझे रेलगाड़ी की सैर कराओ, जबकि इतने बहुत से बच्चे उसमें सफ़र करते हैं और उन्हें कुछ नहीं होता तब उसके बाप ने उसे समझाया था कि ये बच्चे हज़रत पीर के इलाक़े के नहीं होते। और हज़रत पीर के इलाक़े के बच्चे दरबार शरीफ़ से तावीज लेकर सफ़र करते हैं। वरना खिड़कियों में से गिर पड़ते है और उन्हें गीदड़ खा जाते हैं।
बड़े होकर भी मिसरी को कहीं जाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। यह गाँव ही उसकी दुनिया थी। और इससे बाहर की दुनिया में जिन्न और भूत थे चुड़ैलें और पिछलपाइयाँ थी, देव और जादूगर थे। और मियाँवाली और खोंशाबे के से बड़े-बड़े शहरों में आदमख़ोर बसते थे जो भोले-भाले देहातियों को भूनकर खा जाते थे।
मिसरी सिर्फ़ एक बार अपने गाँव से बाहर गया। उसका बाप बीमार हुआ तो उधर उत्तर की तरफ़ सोनसकेसर इलाक़े के एक गाँव चिट्टा में एक सयाने से इलाज का इरादा किया। वह मिसरी को भी अपने साथ लेता गया। मगर उस तरफ़ रेल नहीं जाती थी। सुबह से शाम तक वह अपने बाप के साथ पैदल चलता रहा। और फिर वहाँ, चिट्टा में, उसके बाप के एक पुराने दोस्त के बेटे ख़ुदाबख़्श ने उसे बताया कि मौलवी जी कहते हैं, क़यामत आने से पहले खर-ए-दज्जाल ;दज्जाल का गधाद्ध ज़ाहिर होगा और तुम्हारे थलों में जो रेलगाड़ी चलती है उसे जो चीज़ खींचती है वही खर-ए-दज्जाल है।
मिसरी अपने थलों की रेत और आँधियों और चने के इक्का-दुक्का पौधों वाली फ़सलों और बेरंग सूरतों वाले मकानों और उनके सहनों में काले भुजंग तनों वाले और अंगुल-अंगुल भर लम्बे सफ़ेद काँटों वाले कीकरों की दुनिया में बहुत मुतमईन था। मगर वहाँ चिट्टा में उसने पहली बार महसूस किया कि दुनिया तो बड़ी ख़ूबसूरत है। चिट्टा के बिल्कुल सामने सोनसकेसर के क़दमों में कितने ही कोस तक लम्बी चौड़ी झील चमक रही थी। चिट्टा के उत्तर में लहलहाते हुए खेत थे। हवा में खुनकी और पहाड़ों पर उगी हुई ऊँची लचकती घास की ख़ुशबू थीं। सुबह की अजान के साथ ही घर-घर से दही बिलोने की आवाज़ें आती थीं और लोगों की आँखों में चमक और चेहरों पर लाली थी। उस वक़्त उसने सुना था कि उसका गाँव भी यही सोनसकेसर की किसी पहाड़ी पर आबाद होता, तो कितने मज़े आते। एक बार फ़सल बोने के बाद वह कभी-कभार वहाँ हो आया करता और बाक़ी वक़्त चौपाल में बैठकर गप्पें हाँकता और गाता। ख़ुदाबख़्श की तरह उसके पट्टों में भी हर वक़्त तेल लगा रहता और वह भी हर तीसरे चौथे रोज़ नाई से दाढ़ी मुँडवाता और कबड्डी के मुक़ाबले और बैलों के मेले और शादियों पर कंजरियों और नटों को देखने जाता। चिट्टे की मिट्टी से लिपी हुई दीवारों और सीढ़ी दर सीढ़ी मकानों ने उसे मोह लिया था। उसने सोचा था कि ख़ुदा करे कि उसका बाप ज़िन्दा रहे लेकिन अगर वह मर गया तो वह थल में अपनी ज़मीन बेचकर सोनसकेसर चला जायेगा और फिर उधर थलों का रुख़ नहीं करेगा, जहाँ धूप हर वक़्त तन्दूर तपाये रखती है और हवा मुँह पर रेत के चाँटे मारती है और कीकर के दरख़्तों और चने के पौधों के सिवा हरियाली का कहीं निशान तक नज़र नहीं आता।
मिसरी बाप के साथ अपने गाँव वापस आया तो चन्द रोज़ उसके दिल में यही गुदगुदी रही मगर फिर उसका बाप मर गया और उसे उस रेतभरी ज़मीन से इश्क़ हो गया जहाँ उसके बाप ने टीलों के रास्ते रोके थे और आँधियों से लड़ाई लड़ी थी। क्या हुआ, अगर थल में दिन को मृगमरीचिकायें चमकती थीं और रात को हवाएँ रोती थीं और आसमान पर से हर वक़्त मिट्टी बरसती रहती थी। क्या हुआ अगर गाँव के मकानों पर लिपी हुई मिट्टी धूप में जल-जलकर सुर्ख़ हो गयी थी और रेत के तेज़ छींटे मारती हुई हवाओं ने दीवारों में चेचक के से दाग पैदा कर दिये थे। आखि़र उसकी तीन पुश्तों की क़ब्रें उस गाँव के क़ब्रिस्तान में थीं और उसी के आसपास के टीलों पर खड़े होकर उसके परदादा ने भी उसके बाप की तरह आसमान पर बादल ढूँढ़े थे और बदले में आँधियाँ पायी थीं।
और फिर क्या सोनसकेसर के उन कीकरों का कोई जवाब था जो आँगनों में अपने स्याह तनों पर खड़े तेज़ हवाओं में गूँजते थे। ये दरख़्त जब पीले फूलों से लदकर महकते थे तो कैसे भले लगते थे। जब लोग सुबह को उठते थे तो उनके बिस्तर उन पीले फूलों से भरे होते थे और कोई पीने के लिए घड़े से पानी निकालता था तो उसमें भी एक आध पीला फूल आ जाता था। तब गाँव की एक न एक लड़की ज़रूर अगवा हो जाती थी। बड़े बूढ़े कहते थे कि कीकर की ख़ुशबू में जिन्न होता है और यह जिन्न सिर्फ़ कुँवारे कुँवारियों को नज़र आ सकता है और जिसे नज़र आता है उसे इश्क़ हो जाता है और एक भगा ले जाता है और दूसरी भाग जाती है।
यह कीकरों के फूलने का ही मौसम था जब मिसरी गाँव की एक लड़की को अगवा करके सोनसकेसर के पहाड़ों की तरफ़ भाग गया था। लड़की ने तो रेलगाड़ी में भागने की तजवीज़ की थी मगर मिसरी जानता था कि अगर वह गाड़ी में बैठा तो हज़रत पीर उसे पकड़ा देंगे। सो वह ख़ुदाबख़्श की ढोक में छह महीने तक छुपा रहा। वह उस वक़्त अपने गाँव वापस आया जब लड़की के बाप ने ख़ुदाबख़्श से वादा किया कि वह गाँव जाकर ऐलान करेगा कि उसने तो मिसरी से अपनी बेटी की शादी कर दी है। उसने ऐसा ही किया और यूँ अपनी कटी हुई नाक उठाकर फिर से अपने चेहरे पर चिपका ली। और उसने गाँववालों से ग़लत नहीं कहा था। मिसरी ने चिट्टे में क़दम रखते ही पहला काम यह किया था कि मौलवी साहब और ख़ुदाबख़्श के लाये हुए दो गवाहों की मदद से नश्शों के साथ निकाह पढ़वा लिया और जब वह वापस आया तो नश्शों के पेट में उसका बच्चा था। और ज़ाहिर है कि वह हलाली बच्चा था।
उन्होंने अपने बच्चे का नाम शकूर ख़ान रखा, मगर लोग उसे मिसरी ख़ान के बेटे के हिसाब से शक्कर ख़ान कहते थे और ख़ुद नश्शो और मिसरी उसे मीठा कहकर बुलाते थे।
मीठा जब ज़रा-सा बड़ा हुआ तो एक बार वह अपने हमजोलियों के साथ रेलगाड़ी को नज़दीक से देखने चला गया। उस रोज़ उसके पास एक पैसा भी था, जिसे उसने सब बच्चों को दिखाया। फिर एक बच्चे ने उसे बताया कि अगर रेल की पटरी पर पैसा रख दिया जाये और उसके ऊपर से पूरी गाड़ी गुज़र जाये तो यह पैसा चाकू का लम्बा-सा फल बन जाता है। मीठे के लिए यह बड़ी अजीब बात थी कि एक पैसे का सिक्का आनन-फानन चार आने का चाकू बन जाता है। सो, जब पटरियाँ धीमें स्वरों में गुनगुनाने लगी और बच्चों को पता चल गया कि रेलगाड़ी हज़रत पीर के मज़ारवाला बड़ा मोड़ काट रही है तो मीठे ने अपना पैसा पटरी पर रख दिया। मगर जब गाड़ी क़रीब आयी और पटरियाँ झनझनाने लगी तो पैसा आहिस्ता-आहिस्ता रेंगता हुआ नीचे गिर पड़ा। मीठे की नज़रें अपने पैसे पर गड़ी हुई थी सो जब पैसा गिरा तो वह बोला ‘ओह!’ और पैसे को फिर से पटरी पर रखने के लिए झपटा। वह तो भला हो बड़ी उम्र के एक लड़के का, कि उसने लपककर मीठे को अपने बाज़ू में समेट लिया। और फिर उनसे एक ही गज के फ़ासले से इंजन दनदनाता हुआ और धड़धड़ाता हुआ गुज़र गया और गाड़ी के पहिए भागने लगे-एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात...
बड़ा लड़का गर मीठे को रोक न लेता तो वह अब तक कीमा बन चुका होता। यह बात बच्चों के आसपास काम करने वाले किसानों से गलियों में जाती हुई औरतों तक पहुँची, तो कुछ से कुछ हो गयी और जब नश्शो तक पहुँची तो यूँ पहुँची कि तुम्हारा मीठा रेलगाड़ी के नीचे आकर कट गया है और उसका आधा धड़ गाड़ी अपने साथ ले गयी और आधा वहीं पड़ा है।
रोती पीटती और भागती हुई नश्शो को देखकर गलियों और खेतों से लोग दौड़े आये। फिर नश्शो समेत सबने दूर से देखा कि बच्चे वापस आ रहे हैं और उनमें मीठा भी है जिसने एक लकड़ी का घोड़ा बना रखा है और वह कूदता और दुलतियाँ झाड़ता और हिनहिनाता आ रहा है। नश्शो इसके बावजूद उसी तेज़ी से भागती रही। फिर वह मीठे से लिपट गयी और यूँ तेज़-तेज़ वापस जाने लगी जैसे मीठे को रेलगाड़ी से उसी ने बचाया है और जैसे उसकी पकड़ ढीली हुई, तो पटरी मीठे को अपनी तरफ़ खींच लेगी।
उसी रोज़ गाँव के चन्द नौजवानों ने तय किया कि मियाँवाली जाकर मवेशियों की मण्डी देखी जाये। मिसरी भी तैयार हो गया कि अब तक उसने मियाँवाली का शहर नहीं देखा था। वहाँ जाने की उसे कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी। फिर जब किसी ने कहा कि रेलगाड़ी से जायेंगे और रेलगाड़ी से आयेंगे तो मिसरी ने उनका साथ देने से इन्कार कर दिया। किसी ने कहा, हम ऐसे भी पागल नहीं हैं हम तो हज़रत पीर के दरबार से तावीज़ लेकर जायेंगे। इस पर किसी ने कह दिया कि जंग की वजह से महँगाई बढ़ गयी है और मुतावल्ली ने रेट बढ़ा दिये हैं। फिर मिसरी बोला, "मैं तो उस बला पर सवार नहीं हो सकता जो आज ही मेरे बेटे को निगलने चली थी। इस गाँव के एक सौ आदमियों ने रेल की पटरी बिछाने में हिस्सा लिया है इसलिए हज़रत पीर इस गाँव से सबसे ज़्यादा ख़फ़ा है। मैं तो रेल की गन्दी मौत नहीं मरना चाहता। मैं तो आराम से कलमा शरीफ़ पढ़कर मरूँगा।"
मीठा गाँव के मदरसे में पहली जमात में पढ़ता था। जब अफ़वाह उड़ी कि सिन्धु नदी से दरिया बराबर चौड़ी नहर निकाली जायेगी और यह थल सरगोधा और लायलपुर की तरह लहलहा उठेगा और यहाँ बाग़ लगेंगे और कारख़ाने खुलेंगे और बाइस्कोप चलेंगे और सड़कें बनेंगी, जिन पर मैं सैर करने आयेंगी और थल का जो आदमी सबसे ज़्यादा पढ़ा लिखा होगा, डिप्टी कमिश्नर बना दिया जायेगा।
दूसरे रोज़ मिसरी ख़ान और नश्शो अपने मीठे को साथ लेकर खेत देखने गये थे जहाँ इक्का-दुक्का पौधे यूँ ही खड़े थे जैसे रूठे हुए बच्चे हैं जिन्होंने मुँह पर मिट्टी मल रखी है और उन्हें ज़रा-सा छेड़ा गया तो बिलख-बिलखकर रोने लगेंगे। मिसरी और नश्शो ने तय किया कि नहर आने पर वे वहाँ माल्टे और सन्तरे का बाग़ लगायेंगे। वहीं उन्होंने यह भी तय किया कि वे मीठे को इतना पढ़ायेंगे, इतना बहुत-सा पढ़ायेंगे कि सरकार ख़ुद आयेगी और हाथ बाँधकर मिसरी और नश्शो से कहेगी कि हमें एक हज़ार माहवार के बदले में अपना बेटा दे दीजिये, इसे हम डिप्टी कमिश्नर बनाना चाहते हैं। फिर ऐसी प्यारी-प्यारी बातें सोचकर नश्शो को रोना आ गया और उसने मीठे को अपने से चिमटा लिया और देर तक चिमटाये रखा और जब मिसरी ने मीठे को उससे अलग किया तो उसने हैरान होकर कहा, "बाबा! माँ के सीने पर कान रखकर सुनो। ऐसा लगता है, रेलगाड़ी आ रही है।"
इस पर दोनों ख़ूब-ख़ूब हँसे थे। मगर फिर मिसरी एकदम संजीदा होकर बोला, "नश्शो! डिप्टी कमिश्नर लोग तो रेलों में बैठते होंगे।" और नश्शो ने दोनों मुट्ठियाँ बन्द करके और अँगूठों के नाख़ूनों को चूमकर अपनी आँखों पर रखते हुए कहा था, "हज़रत पीर के दरबार से तावीज ले आऊँगी, चाहे सौ रुपये में मिले।" यूँ सारा प्रोग्राम तय हो गया।
जिस तरह मिसरी के बाप ने थल में रेल की पटरी बिछाने के लिए मेहनत की थी उसी तरह मिसरी ने थल में नहरों का जाल बिछाने के लिए मेहनत की और मीठे के बाज़ू पर हज़रत पीर के मज़ार के मुतवल्ली का तावीज बाँधकर उसे गाँव के क़स्बे में और क़स्बे से शहर में भिजवा दिया। इस सिलसिले में भी वह रेल के सफ़र से महफ़ूज़ रहा। इलाक़े का कोई न कोई आदमी उधर जा रहा होता तो वह मीठे को उसके साथ कर देता। यूँ मीठे ने बारह जमातें पढ़ लीं।
उस दौरान थल से रेत के टीले ग़ायब हो गये। मृगमरीचिकाओं की जगह खेत लहलहाने लगे। जहाँ चने के इक्का-दुक्का डरे-डरे पौधे उगते थे वहाँ धान की चमकती हुई फ़सलें झूमने लगीं। जहाँ बच्चे आधी गँडेरी चूसकर आधी माँ के लिए बचा लाते थे वहाँ गन्ने के जंगल से उग आये। हर तरफ़ सड़कें दौड़ गयीं और आँधियों ने अपने रुख़ बदल दिये। मिसरी अपनी ज़मीन पर माल्टों, सन्तरों का बाग़ तो न लगा सका, मगर इतनी भरपूर फ़सलें उगाने लगा और इतना मस्त रहने लगा कि कभी-कभी नश्शो को छेड़ने के लिए कहता, नश्शो! मैं तो फिर से जवान हो गया हूँ। मेरा तो जी चाहता है कि एक बार फिर तुम्हें सोनसकेसर की तरफ़ भगा ले जाऊँ। और नश्शो कहती, मैं तो वहाँ एक दिन के लिए भी न जाऊँ। अभी कुछ दिन पहले ही तो चिट्टेवाला ख़ुदाबख़्श तुमसे अनाज और भूसा उधार माँग ले गया है। अब तो उसी जन्नत के लोग थल के इस दोजख में मज़दूरियाँ करते फिरते हैं।
गाँव का प्राइमरी स्कूल अब मिडिल स्कूल बन चुका था। उसी के एक मास्टर ने मिसरी को मशवरा दिया कि वह अपने बेटे को सिविल इंजीनियरिंग स्कूल भेज दे और जब उसे मालूम हुआ कि मिसरी तो बेटे के डिप्टी कमिश्नर बनने के ख़्वाब देख रहा है तो उसने मिसरी को समझाया कि हर अदमी अपनी जगह डिप्टी कमिश्नर होता है। मैं इस स्कूल का डिप्टी कमिश्नर हूँ। तुम्हारा बेटा ओवरसियर बन गया, तो वह सड़कों और नहरों का डिप्टी कमिश्नर होगा। बात मिसरी की समझ में आ गयी और उसने ऐसा ही किया और जब सिविल का इम्तेहान पास करने के बाद मीठा मलिक अब्दुल शकूर के नाम से कहीं भक्कर के आसपास नौकर हो गया, तो वह अपने माँ बाप को हर महीने पचास रुपये और कपड़ों के पार्सल और अंग्रेज़ी टानिक भेजने लगा। हर आते जाते के हाथ वह कुछ न कुछ भिजवा देता था। सन्दूक, मेज़, कुख्रसयाँ, एक बड़ा-सा आइना, जिसमें नश्शो और मिसरी एकसाथ अपने चेहरे देख लेते थे।
एक बार छुट्टी पर आया तो अपने बाप के लिए चतराल का एक कम्बल और माँ के लिए लेडी हैमिलटन का नया सूट लाया। उस रोज़ मिसरी ने अपने हाथ से नश्शों की कनपटियों पर मेंहदी लगायी और जब उसने सूट पहन लिया तो किसी बहाने से अन्दर ले गया और उससे लिपट गया और हँसने लगा। और जब नश्शो ने उसे अलग किया तो वह यह देखकर हँसने लगी कि वह तो रो भी रहा है। "बच्चे न बनो।" उसने मिसरी को समझाया, "अब तो हमारा नमाज़ पढ़ने का ज़माना आ गया है।"
मीठे की छुट्टी ख़त्म होने से एक रोज़ पहले शाम के खाने के बाद मिसरी और नश्शो ने उसे बताया कि उन्होंने मीठे के लिए बड़े ज़ोर का एक रिश्ता ढूँढ़ लिया है। "वह जो नम्बरदार की बेटी है न, जानते हो न हलीमा को?" मगर बेटे ने एक चुप्पी साध ली और जब मिसरी और नश्शो बोल चुके तो वह उठा और बोला, शादी मेरी अपनी ज़िन्दगी का मामला है, वह मैं अपनी पसन्द से करूँगा। आप मेरी शादी की फ़िक्र न किया कीजिए।
अजीब बेलिहाज़ छोकरा है। मिसरी ने उसे आँगन से बाहर जाते हुए ग़ुस्से से देखा और नश्शो से कहा, हम उसकी शादी की फ़िक्र नहीं करेंगे तो क्या उसका बाप करेगा।
नश्शो को बेटे के सिलसिले में अपनी ज़िन्दगी का पहला सदमा हुआ था। वह बोली, इन पटरियों और रेलों और सड़कों और मोटरों ने सारी दुनिया को बेलिहाज़ कर दिया है। देखते नहीं हो, अब जो इन गलियों में नंगे सिर फिरते हैं और अपने बड़ों के सामने कुत्तों की तरह मुँह फाड़फाड़कर हँसते हैं।
और मिसरी ने सोचा कि वाक़ई लोग कितने बेलिहाज़ हो गये है। जो क़र्जा लेता है लौटाता नहीं है, जो लौटाता है वह एहसान धरता है। माँ-बाप की इजाज़त के बग़ैर जौहराबाद में बाइस्कोप देखने चले जाते हैं। लोग हज़रत पीर के दरबार से ताबीज़ लिए बग़ैर ही रेलगाड़ी में उड़े फिरते हैं। थल आबाद तो हो गया है, लेकिन लोग उजड़ गये हैं। जैसे मैं उजड़ गया हूँ कि बेटा कहता है कि मैं ख़ुद शादी कर लूँगा।
दूसरे दिन मिसरी और नश्शो पंजे झाड़कर मीठे के पीछे पड़ गये। तल्ख़ी इतनी बढ़ी कि इशारों-इशारों में यह तक कहने की कोशिश की कि आपने भी तो माँ बाप की इजाज़त के बग़ैर शादी कर ली थी। इस पर नश्शो जारों कतार रोने लगी और मिसरी ने मीठे को चन्द गालियाँ थमा दी। मगर इतना ज़रूर हुआ कि जाने से पहले मीठे ने वादा किया वह इस बारे में सोचेगा और महीने के अन्दर-अन्दर उन्हें ख़बर कर देगा। मिसरी ने उसे रूख़्सत करते हुए उसका बाज़ू टटोला और पूछा - हज़रत पीर के दरबार का ताबीज़ कहाँ बाँधते हो? और मीठा हँसकर बोला, वह मैंने एक दोस्त को दे दिया जो रेलगाड़ी में सफ़र करने से डरता था। फिर मीठा चला गया और मिसरी रात भर डरावने-डरावने ख़्वाब देखता रहा, जिनमें गाड़ी गरजती हुई आती थी और मीठे को बीच में से दो करती हुई कहकहे मारती गुज़र जाती थी।
अजब बेलिहाज़ छोकरा निकला। मिसरी ने सुबह उठकर कहा, हम तो ख़ैर उसके माँ-बाप थे, बदबख्त ने हज़रत पीर का भी लिहाज़ न किया और इतना भी न सोचा कि इस गाड़ी को हज़रत पीर की बद्दुआ है।
फिर एक दिन मिसरी को मीठे का ख़त मिला कि सात तारीख़ को दो महीने की ट्रेनिंग के लिए वरसिक जा रहा है। इसलिए यूँ कीजिएगा कि सात तारीख़ की शाम को गाड़ी पर कन्दयाँ में मुझसे मिल लीजिये। एक तो आपने-अम्माँ ने मुझे जो हुक्म दिया था उसके बारे में कुछ अर्ज़ करूँगा, दूसरे मैंने आपके लिए एक रेडियो ख़रीदा है जिसके लिए न बिजली की ज़रूरत होती है न बैटरी की, बस वह मसाला जिसमें चोर बत्तियाँ जलती है, उसमें डाल दिया जाता है और मज़े की बात यह है कि जहाँ आप चाहें उठा ले जायें। चौपाल पर खेतों में सड़कों पर चौराहों में, जहाँ चाहें बजाते फिरें। आप ज़मीनों पर जायें, तो लेते जायें न ले जायें तो अम्माँ का दिल बहला रहेगा। आप कन्दियाँ में मुझसे मिलेगे तो यह रेडियो भी पेश करूँगा।
पहले तो दोनों ख़ुशहाली के नशे में मस्त एक दूसरे की तरफ़ अजीब-अजीब नज़रों से देखते रहे फिर मिसरी चौंककर बोला, अरे आज ही तो अंग्रेज़ी महीने की सातवीं है।
वह यह कहते हुए उठ खड़ा हुआ मगर फिर फ़ौरन ही बैठ गया - नश्शो मैं इस वक़्त यहाँ से चलूँ तो कन्दयाँ मैं वक़्त पर नहीं पहुँच सकूँगा। मुझे तो गाड़ी में जाना होगा।
तो क्या हुआ? नश्शो बोली - अभी हज़रत पीर के दरबार में जाती हूँ और ताबीज़ ले आती हूँ। पन्द्रह-बीस रुपये की रक़म भी कोई रक़म है।
पन्द्रह-बीस, मिसरी हैरान रह गया। रेल की पटरी बिछी थी तो ताबीज़ एक आने में मिलता था। फिर कुछ सोचकर बोला - अजीब बेलिहाज़ दुनिया है। नश्शो ने उसे डाँट दिया - पता है, तुमने बेलिहाज़ किसे कहा?
और मिसरी काँप गया। उसने फ़ौरन कानों पर हाथ लगाये और होंठों में कुछ बड़बड़ाने लगा। पैसे की फ़िक्र में उसने कुप्ऱफ बक दिया था। वह भी सारी दुनिया की तरह चुपके से कितना बदल गया था। नश्शो के जाने के बाद तो वह बाक़ायदा रो दिया और उसकी वापसी तक तौबा-तौबा करता रहा।
नश्शो दस रुपये में ताबीज़ ले आयी। मिसरी को धुले हुए कपड़े पहनाये उसके तलेवाली जूती ऊपर टोकरी में से उतारी। उसकी कलफ लगी मलमल की पगड़ी बकस में से निकली। मगर मिसरी के हवास उड़े हुए थे। वह बार-बार कुर्ते की नीचेबाज़ू से बँधे ताबीज़ को टटोलता कि कहीं उसकी गुस्ताख़ी से ख़फ़ा होकर हज़रत पीर के जिन्न भूत उतार तो नहीं ले गये। नश्शो ने उसे बहुत तसल्लियाँ दीं और आखि़र रेलवे स्टेशन तक उसके साथ जाने और उसे गाड़ी में बिठाने को तैयार हो गयी।
रेलवे स्टेशन गाँव से कोई तीन कोस दूर था। मियाँ बीवी वहीं पहुँचे तो गाड़ी आने में कुछ देर थी। दोनों एक दरख़्त के नीचे बैठे तय करते रहे कि अगर मीठे ने हाँ कह दिया तो कातिक में शादी हो जानी चाहिए। और अगर उसने नहीं कह दी कि ज़माना बड़ा बेलिहाज़ हो रहा है तो फिर क्या होगा? नहीं। नश्शो ने कहा उसे नहीं कहना होता तो तुम्हें कन्दयाँ में क्यों बुलाता और हमारे लिए रेडियो क्यों ख़रीदता। वह हमारा हलाली बेटा है। ‘नहीं’ बिल्कुल नहीं कहेगा। फिर दोनों इस मसले पर भी ग़ौर करते रहे कि जब रेडियो बजेगा और गाँव के बच्चे उनके यहाँ जमा होने लगेंगे तो उन्हें कैसे टाला जायेगा? और अगर कोई रेडियो माँगने आ निकला, तो उसे क्या जवाब देना मुनासिब होगा?
फिर दूर से गाड़ी की सीटी सुनायी दी और मिसरी हड़बड़ा के उठ खड़ा हुआ और अपने बाज़ू पर ताबीज़ टटोलने लगा। गाड़ी आकर रुकी और मिसरी के गाँव का एक मुसाफ़िर उतरा तो वह हैरान होकर मिसरी से पूछने लगा कि तुमने रेलगाड़ी का सफ़र करने का हौसला कैसे कर लिया? नश्शो ने जवाब दिया, हज़रत पीर की इजाज़त से जा रहा है, मीठे ने कन्दयाँ बुलाया है, रेडियो लाने।
मुसाफ़िर मीठे की तारीफ़ करने लगा और उस दौरान गाड़ी चल पड़ी। मिसरी घबराकर भागा। एक डिब्बे का डण्डा तो पकड़ लिया मगर पायदान पर पाँव न टिका सका। इसलिए झूल गया और तड़ से कुछ यूँ गिरा कि उसके एक पाँव का पंजा पटरी तक चला गया और उस पर से पहिए गुज़रने लगे। एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात...
गाड़ी रूक गयीं चीख़ती हुई नश्शो ने मिसरी के पास पहुँचकर उसे बच्चे की तरह गोद में घसीट लिया। बहुत से लोग जमा हो गये। मिसरी ख़ाँ अपने दोनों हाथों में पाँव का वह पंजा पकड़े बैठा था जिसकी पाँचों उँगलियों पर से पहिए गुज़र गये थे और ख़ून बह रहा था।
फिर रेलवे का कोई अहलकार आया और बोला, अन्धे थे? देखकर क्यों नहीं चढ़े।
इस पर नश्शो तड़प उठी और चीख़ी, अन्धे होगे तुम, और तुम्हारे होते सोते और तुम्हारी नस्लें और तुम्हारी पीढ़ियाँ।
रेलवे का अहलकार कुछ बड़बड़ाता चला गया। नश्शो मिसरी के पास बैठ गयी। उनके गाँव के मुसाफ़िर ने पगड़ी का पल्लू फाड़कर बाँधनी चाही, मगर फिर गाड़ी चलने लगी।
यह तो फिर चल पड़ी। मिसरी ने हैरान होकर नश्शो की तरफ़ देखा।
जाने दो हरामज़ादी को। नश्शो ने उसका बाज़ू पकड़ लिया।
मगर मिसरी एक झटके से बाज़ू छुड़ाकर पटरी के साथ अपने ख़ून की लकीर खींचता हुआ और लंगड़ाता हुआ भागने लगा और चीख़ने लगा - ओए, रोको इसे, अपनी माँ को रोको, मैं कन्दयाँ जा रहा हूँ। मेरे पास टिकट है।
फिर रेलगाड़ी का आखि़री पहिया भी सड़ाप से निकल गया और वह पिटे हुए आदमी की तरह मुँह खोले रह गया। नश्शो और दूसरे लोग भी उसके पास पहुँच गये और वह दूर जाती हुई गाड़ी की तरफ़ देखकर कहने लगा। कितनी बेलिहाज़ है यह उल्लू की पट्ठी। मेरे लिए ज़रा-सा रूकी रहती, तो इसका क्या बिगड़ जाता। इस सदी की हर चीज़ कितनी बेलिहाज़ है।
फिर जब वह दोनों हाथों से अपना ज़ख़्मी पंजा पकड़कर बैठ गया तो नश्शो ने उसके हाथ से पंजा अपने दोनों हाथों में ले लिया। वह रोने लगी और बोली हज़रत की शान में वह बकवास क्यों की थी तुमने?
उस वक़्त मिसरी के चेहरे पर कुछ ऐसी लवट छा रही थी जैसे अभी थल को आबाद होने में सदियाँ लगेंगी।