ठाकुर तारने की कथा : संत/गुरु रविदास जी से संबंधित कहानी
Thakur Taarne Ki Katha (Hindi Story) : Sant/Guru Ravidas Ji
गुरु रविदास अपने पवित्र कार्यों एवं पावन चरित्र के प्रभाव से उस काल में अद्वितीय ख्याति प्राप्त कर
चुके थे। एक छोटी समझी जानेवाली जाति के महापुरुष का समाज में ऐसा प्रभाव देखकर कुछ लोग उनसे
ईर्ष्या करने लगे। वैसे लोगों को उनका यश अच्छा नहीं लग रहा था। उस युग के अनुरूप यह बात बिलकुल
असहनीय थी।
ब्रह्मज्ञानी के रूप में और सत्य उपदेश देनेवाले सच्चे महापुरुष के रूप में वे लोग छोटी समझी जानेवाली
जाति के आदमी को कैसे सहन कर सकते थे?
यह सब देखकर कुछ लोगों ने उनका विरोध करना शुरू कर दिया। इस विरोध के बारे में कई जनश्रुतियाँ
प्रचलित हैं, जिसका संकेत गुरु रविदास ने अपनी रचनाओं में दिया है।
गुरु रविदास प्रतिदिन अपनी कुटिया में सत्संग किया करते थे। धीरे-धीरे बहुत से लोग उनके जोवन व
सत्संग से प्रभावित होकर कुटिया में आने लगे, गुरु रविदास ने कहा--
जन्म जाति कू छाड़ि कर करनी जात प्रधान,
इहयो वेद को धर्म है करै रविदास बखान।
ब्राह्मण खतरी वैश सूद रविदास जन्म तें नाहिं,
जो चाहे सुबरन कऊ पावई करमन माहिं।
रविदास जन्म के कारन होत न कोऊ नीच।
नर कू नीच करि डारि है ओछे करम की कीच॥
गुरु रविदास ने समाज को सही दिशा प्रदान करने हेतु सत्य का रास्ता दिखाया । उनका कहना था कि कोई
प्राणी जन्म से शूद्र नहीं होता। किसी भी प्राणी की जाति को देखने से पहले उसके गुणों को देखना चाहिए।
रविदास ब्राह्मण मत पूजिए जऊ होवे गुन हीन।
पुजहिं चरन चंडाल के जऊ होवे गुन परवीन ॥
गुरु रविदास की तरह और संतों ने भी इस बात पर बल दिया कि जो ब्रह्म को जाननेवाला है, वही ब्राह्मण
कहलाने योग्य है।
गुरु रविदास के सच्चे विचारों से प्रभावित होकर उस काल के कई राजा-रानी उनके शिष्य बन गए थे। यही
कारण था कि उन्हें ईर्ष्या करनेवालों की साजिशों का भी सामना करना पड़ा था।
एक बार काशी नरेश वीर सिंह बघेला के पास कुछ लोगों ने शिकायत की कि आपके राज्य में एक शूद्र
रविदास धर्मगुरु बनकर लोगों को उपदेश देता है, यह बात ठीक नहीं है। उपदेश देना तो ब्राह्मणों का काम है।
यह शिकायत जब राजा ने सुनी तो राजा ने संदेश भेजकर गुरु रविदास को अपनी सभा में बुलाया और साथ
ही विरोधी दल को भी। दोनों पक्षों के बीच शास्त्रार्थ करवाया। इस दृश्य को देखने के लिए बहुत बड़ी संख्या
में लोग उपस्थित हुए। काफी लंबे समय तक चर्चा चलती रही। गुरु रविदास के तर्कों के सामने पंडितों का
पक्ष निर्बल साबित हुआ। विरोधियों ने जब देखा कि उनका पक्ष निर्बल हो रहा है तो उन्होंने प्रयास किया कि
कोई निर्णय न होने पाए। ऐसी स्थिति में जनता की इच्छा और राजा की आज्ञा के अनुसार फैसला हुआ कि
सभी अपने-अपने ठाकुर को सभा में लाएँ। उनको गंगा में बहाकर फिर वापस बुलाने का आदेश मिला।
निर्णय किया गया कि जिसके ठाकुर बुलाने पर ऊपर आ जाएँगे, उसको पूजा और उपदेश करने का अधिकार
होगा। विजेता को सोने की पालकी में बिठाकर पूरे नगर में घुमाया जाएगा।
निर्धारित समय पर गंगा के किनारे बहुत सारे लोग यह लीला देखने के लिए पहुँचे। पंडितगण लकड़ी के
ठाकुर लेकर आए और गुरु रविदास यत्थर की शिला उठा लाए, जिस पत्थर पर वे अपना दैनिक अनुष्ठान
किया करते थे। पंडितगण यह देखकर मन-हो-मन खुश हो रहे थे कि हम इस मुकाबले में जीत जाएँगे और
गुरु रविदास हार जाएँगे, क्योंकि पत्थर आसानी से पानी में डूब जाएगा।
काफी भीड़ इकट्ठी हो चुकी थी, सब लोग इंतजार में थे कि देखते हैं इस मुकाबले में कौन जीतता है।
लोगों में उत्सुकता थी कि कब काशी नरेश वीर सिंह बघेला का आदेश होगा। समय देखते हुए राजा ने पहले
पंडितों को आदेश दिया कि तुम अपने ठाकुर को गंगा में बहाओ और फिर वापस बुलाओ। राजा का आदेश
पाकर पंडितों ने अपने लकड़ी के ठाकुर को गंगा की धारा में बहा दिया। इसके पश्चात् पंडितगण मंत्रपाठ
करते हुए ठाकुर को वापस बुलाने लगे। दूर-दूर से आए हुए लोग यह दृश्य देख रहे थे। काफी देर तक बुलाने
पर भी जब लकड़ी के ठाकुर पानी के नीचे से ऊपर नहीं आए, तब काशी नरेश ने गुरु रविदास से कहा कि
रविदासजी! आप भी अपने ठाकुर को गंगा में बहा दें और फिर उनको वापस बुलाएँ।
गुरु रविदास ने राजा का आदेश सुनकर प्रभु को याद किया कि प्रभुजी, मुझे केवल आप ही का सहारा है।
इस कठिन घड़ी में मैंने आपको याद किया है। आप आकर दर्शन दीजिए और मेरी लाज रखिए। उन्होंने कहा-
जउ तुम गिरिवर तउ हम मोरा।
जउ तुम चाँद तउ हम भए है चकोरा।
माधवे तुम न तोरहु तउ हम नहीं तोरहि।
तुम सिउ तोरि कवन सिद्ध जोरहि।
जउ तुम दीवरा तउ हम बाती।
जउ तुम तीरथ तउ हम जाती।
साची प्रीति हम तुम सिउ जोरी।
तुम सिउ जोरि अबर संगि तोरी।
जह जह जाउ तहा मेरी सेवा।
तुम सो ठाकुर अइस न देवा।
तुमरे भजन कहहि जम फाँसा।
भगति हेत गावै रविदासा।
जैसे पर्वत और मोर, चंद्रमा और चकोर, तीर्थ और यात्री का प्रेम है, ऐसी ही मेरी प्रीत आपसे है। इसके
साथ ही वे प्रेम भाव से प्रभु दर्शन के लिए निवेदन करने लगे--
कूपु भरियो जैसे दादिरा कछु देसु बिदेसु न बूझ।
ऐसा मेरा मनु बिखिया विमोहिआ कछु आरा पार न सूझ।
सगल भवन के नाइका इकु छिनु दरसु दिखाइ जी।
मलिन भई मति माधवा तेरी गति लखी न जाइ।
करहु क्रिपा भ्रमु चूकई मै सुमति देहु समझाइ।
जोगीसर पावहि नही तुअ गुण कथनु अपार।
प्रेम भगति कै कारण कहु रविदास चमार।
उन्होंने विह्वल होकर यह पद भी कहा--
आयो आयो हौं देवाधिदेव तुम सरन आयो।
सकल सुख का मूल जा को नहीं समतूल।
सो चरन मूल पायो।
लिओ विविध जोनि वास जय को आगम त्रास
तुम्हरे भजन बिन भ्रमत फिर्यो।
माया मोह विषय संपर निकाम यह अति दुस्तर दूर तर्यो।
तुम्हारे नाम विसास छोडिए आन आस
संसारी धर्म मेरा मन न धीजै।
रविदास की सेवा मानहु देव पतित पावन नाम आजु प्रगट कीजै।
यह पद पूरा करने के बाद जब गुरु रविदास ने अपने नेत्र खोले तो देखा कि जल के ऊपर शिला रूपी
ठाकुरजी लौट रहे हैं। लोग यह दृश्य देखकर जय-जयकार करने लगे। सभी ने गुरु रविदास को प्रणाम किया।
उन्होंने सबको उपदेश दिया कि हर जीव को अपनी इच्छा के अनुसार प्रभु की पूजा करने का अधिकार है।
राजा ने भी उन्हें प्रणाम करते हुए विनती की कि आप मुझे अपना शिष्य बना लें।
(ममता झा)