तारिणी मल्लाह : ताराशंकर बंद्योपाध्याय
Tarini Mallah : Tarashankar Bandyopadhyay
तारिणी मल्लाह की सहज-स्वाभाविक मुद्रा ही बन गई है; सिर काफी नीचे तक झुका-झुकाकर चलने की, जैसे कि यह उसका स्वाभाविक रूप ही हो। जबकि उसके शरीर की ऊँचाई अस्वाभाविक ढंग से बहुत ही लंबी है। परिणामस्वरूप घर में प्रवेश करने के दरवाजे के ऊपरी हिस्से से, वृक्षों के नीचे से गुजरते समय उनकी डाली से, साधारण झोंपड़ियों की चालों से अनेक बार उसके माथे पर जोर-जोर की चोट लग चुकी है। ऐसी ही चोटें खा-खाकर, ठगे जा-जाकर उसने सिर झुकाकर चलना सीख लिया है। परंतु वही तारिणी जब नदी की खुली छाती पर अपनी नौका को खेता होता है, तब अपने स्वाभाविक शरीर को बिल्कुल सीधा तानकर ही रखता है। उसके शरीर का सहज-स्वाभाविक रूप वहाँ स्पष्ट दिखलाई पड़ता है, जिसमें कहीं भी तनिक सी कोई लचक नहीं होती है। ताड़ के पेड़ से बनी हुई अपनी बड़ी नैया के एक किनारे पर खड़े होकर अपनी लंबी और मोटी बाँस की लग्गी से नीचे की ओर धक्के मार-मारकर यात्रियों से खचाखच भरी अपनी नैया को वह इस पार से खेते-खेते सीधे उस पार ले जाकर भिड़ा देने के बाद ही थमता है।
आषाढ़ का महीना है। अंबुवाची-त्योहार के उपलक्ष्य में जो यात्री दर्शन-पूजन के लिए गए थे, लौटते समय उनका जो रेला यहाँ पहुँचा है, उसकी भीड़ से तो 'मयूराक्षी नदी' के इस 'गनुटिया' के घाट पर जैसे एक बाजार ही लग गया है। पैदल चलने के परिश्रम से हारे-थके यात्रियों के इस झुंड में सभी-केसभी औरों से पहले ही नदी को पार कर जाने के लिए उतावले हो रहे हैं।
हुक्के की अपनी गुड़गुड़ी पीते-पीते ही तारिणी ने जोर की हाँक-डाँट लगाई–“और नहीं पूजनीया ठकुराइनो! अब और नहीं। जरूरत से बहुत ज्यादा सवारी पहले ही चढ़ चुकी हैं। इससमय की हर सवारी गंगा-स्नान करने के पुण्य-प्रताप के भार से और भी भारी हो गई है, इन सभी के इस पुण्य से भारी हुई सवारियों के बोझ को मेरी यह नैया अब और नहीं सह पाएगी।"
नैया पर चढ़ने से सवारियों को वह रोके जा ही रहा था कि तभी एक वृद्धा महिला विनती करते हुए चिल्ला उठी-"बस, एक सवारी और भाई! बस, यही मेरा एक बेटा और चढ़ा लो।" उधर दूसरी ओर से एक और युवती पुकार उठी-"अरे, ओ साबी! अब उठ भी आ न; जल्दी चढ़ आ। दुश्मनों को हाड़ के दाँतों को फैलाकर अब और हँसने की जरूरत नहीं पड़ेगी।"
साबी, जिसका पूरा नाम है, 'सावित्री।' उम्र की अल्हड़ नवयुवती है। वह अपने लोगों के आसपास के गाँवों की कई दूसरी नवयुवतियों के साथ हँसी-मज़ाक भरे वार्तालापों में ऐसी मग्न थी कि बात करतेकरते हँसी की किलकारियाँ भरते जैसे लोट-पोट हुई जा रही थी। उसने वहीं से पलटकर उत्तर दिया, "तुम सब चली जाओ। अब इसके बाद जब नैया दूसरा खेप ले जाएगी, तब उसी में चढ़कर हम सबकी-सब एक साथ ही जाएंगी।"
तारिणी हड़बड़ाते हुए सिफारिश सी करता हुआ बोल पड़ा-"नहीं रे छोकरी! तू तो इसी खेप में नैया में चढ़ आ। तेरे अकेले का भार ही बहुत है। तुम्हारे जैसी इन तमाम कन्याओं के चरण अगर एक साथ ही मेरी इस नैया पर पड़ेंगे, तो तुम लोगों के बोझों से छुपकर मेरी यह डोंगी नैया तो निश्चय ही डूब जाएगी।"
बातचीत करने में अत्यंत प्रगल्भ, मुखर साबी प्रतिउत्तर में चहक पड़ी-"डूबने को होगी, तो तुम्हारी इन बुढ़ियों की खेप, जो इस बार नैया में जितनी भरी है, उसी से डूब जाएगी तेरी नैया। रे मल्लाह! क्योंकि इनमें से किसी ने दस बार, तो किसी ने बीसों बार गंगा स्नान कर-कर के पुण्य का बोझा बहुत बढ़ा लिया है। जबकि हम सबकी तो यह बस पहली-पहली बार की पुण्य की कमाई है।"
दोनों हाथों को जोड़कर तारिणी फिर बोला, "ठीक कहती हो, मातेश्वरी! परंतु तुम लोग तो अपने इस एक बार में ही गंगा की लहरों को माथे उठाए ले आई हो।"
उसकी यह बात सुनकर यात्रियों का दल जोर-जोर की आवाजें कर हँसने लगा। फिर उस मल्लाह ने अपनी लग्गी को हाथ में सँभाला और कूदकर डोंगी नैया के एक सिरे के माथे पर आ चढ़ा। उसका सहयोगी मल्लाह 'काला चाँद' अभी तक यात्रियों से खेवा का भाड़ा महसूल वसूलने में ही लगा हुआ था। वह जोर-जोर से हाँक लगाता हुआ बोला, "नदी पार करने के खेवा का पैसा देने से किसी ने फाँकी तो नहीं मारी है ? देख लो, अब भी ठीक से देख लो। खेवा दिए बिना कोई यों ही न चला जाए।" इतना कहने के साथ ही उसने डोंगी नैया को एक जोर का धक्का दिया, जिससे नैया नदी के पानी में बह चली। उसके साथ-साथ वह भी नैया पर चढ़ आया। लग्गी से एक भारी धक्का मारकर तारिणी ने फिर आवाज लगाई, "हरि, हरि बोलो सभी," बोलो, "हरि बोल!" सारे-के-सारे यात्री एक ही स्वर में चिल्ला उठे, “हरि बोल, हरि बोल।" इतने सारे यात्रियों के कंठ से एक साथ उठी हुई–'हरि बोल' की ध्वनि नदी के दोनों तटों पर खड़ी वनों से भरी हुई धरती के बीच प्रतिध्वनित होती हुई देर तक फिरती रही। नैया के नीचे अत्यंत प्रखर-स्रोत में बहती हुई मयूराक्षी नदी अपनी दबी-दबी क्रूर हँसी के कलरवों के साथ बहती चली जा रही है। यात्रियों की भीड़ के स्वर–'पार करो हे हरि, अब तो तारो हे हरि' गूंज रहे थे, तभी हँसते हुए तारिणी मल्लाह बोल उठा, "आप लोग चाहें तो मेरा नाम भी भज सकती हैं, आखिर मैं भी तो पार ही लगा रहा हूँ।"
एक वृद्ध महिला बोली, “सो तो ठीक ही बात है, बाबा। तारिणी अगर न तारेंगे, तो फिर तारेगा कौन, तुम्हीं बतलाओ?" एक झटका देकर लग्गी को खींचकर ऊपर उठा लेने के बाद तारिणी ने बड़े क्रोधपूर्ण स्वर में पुकारकर कहा, “अरे, वो साला केले! जरा मरोड़कर ठीक से पकड़, डाँड-पतवार को। हाँ भाइयो! यह हमारा संघाती खाना नहीं खाता है बेचारा। यों मरियल सा क्यों पड़ा है रे! नदी के बहाव के खिंचाव को देख नहीं रहा है क्या?"
बिल्कुल सच्ची बात है, इस मयूराक्षी नदी की प्रखर-धारा ही तो इसका विशेषत्व है। जाने कब, किस ओर को खींच लेती है ! वैसे वर्ष के बारह महीनों में से सात-आठ महीने तो यह मयूराक्षी मरुस्थल की तरह सूखी पड़ी रहती है। उस वेला में तो एक-डेढ़ मील तक बस बालू-ही-बालू की राशि धू-धू करती रहती है। परंतु वर्षा-ऋतु का आरंभ होते ही वही मयूराक्षी राक्षसिन की तरह भयंकरी हो जाती है। बीच धार से दोनों ओर के किनारों में चार-पाँच मील के फैलाव तक पीले रंग के मटमैले पानी की धारा में ऊभ-चूभ भरकर ऊँची-ऊँची विराट् लहरें दौड़ती-भागती चलती हैं। कभी-कभी तो इसमें 'हड़कापा बान' तोड़मरोड़ कर डुबा देने वाली बाढ़ आ जाता है। बाढ़ के कारण ऊँची लहरों का ऐसा तूफान, जो छह-सात हाथ ऊँचाई तक जल की धारा को बढ़ा देता है। जिस उमड़ती बाढ़ में सामने के मकानमडैया-झोंपड़े, खेत, खलिहान, गाँव-दर-गाँव सभी कुछ को डुबोते हुए इस तरह से धो-पोंछकर बहा ले जाती है, जैसे इस पूरे इलाके को ही अपनी बाढ़ में डुबोती-भिगोती चली जाएगी! वैसे इस तरह की 'हड़पा बान', यानी नष्ट-भ्रष्ट कर देनेवाली बाढ़ बराबर नहीं होती है। तारिणी के खयाल में ऐसी घटना आज से बीस वर्ष पहले एक बार हुई थी।
नैया चलाना शुरू होने से अब तक के समय के दौरान सूरज भगवान् ठीक सिर के ऊपर आ पहुँचे थे, जिनकी अत्यंत प्रखर किरणें देह को जलाने लगी थीं। एक पुरुष यात्री ने तो अपना छाता ही खोल लिया है।
तारिणी हड़बड़ाकर बोल उठा-“अरे, ओ ठाकुर महाराज ! पाल मत तानो, पाल मत डालो। हवा का झक-झोर इतना तेज है कि तुम्हीं उड़ जाओगे।"
उस यात्री ने तुरंत ही अपना छाता बंद कर लपेट लिया। यकायक नदी के ऊपर से एक आर्त चीत्कार 'बचाओ-बचाओ' ध्वनि में उमड़ पड़ी। इस डोंगी नैया पर सवार सारे यात्री भी अचरज में पड़ गए। तारिणी ने बड़े धीरज के साथ लग्गी चलाते हुए कहा, "इसी सबका खयाल करके मैं सावधान करता हूँ। तुम लोगों को कोई डर नहीं है। अरे लोगो! एक डोंगी नैया ओल कड़ो के घाट पर डूबी है। यहाँ कुछ नहीं हुआ है। अरे ओ बूढ़ी मैया! आप इस तरह क्यों काँप रही हैं ? अरे ओ ठाकुरजी! पकड़ो-पकड़ो उस बूढ़ी माँ को। अपनी बाँहों में पकड़कर सँभाल लो। अब तो डर ही किस बात का? हम लोग तो नदी पार करके अब आगेवाले घाट पर पहुँचने ही वाले हैं।"
नदी की जलधारा के फैलाव का हिस्सा भी बस समाप्त होने को था कि तभी तारिणी चिल्लाया, "अरे, ओ केले!"
"क्यों, क्या बात हुई भैया?" नदी के पानी की छाती पर तीक्ष्ण दृष्टि रखते हुए तारिणी शीघ्रता से बोला, "ले पकड़ ये लग्गी तू धर; मैं देखता हूँ।"
उसकी बात सुनकर केले', यानी कालाचाँद उठ खड़ा हुआ। उसके हाथ में लग्गी का छोर थमातेथमाते तारिणी ने इशारा करते हुए कहा, "वह देखो, वहाँ वह डूबे जा रही है।" कहते-कहते तुरंत ही वह प्रखर गति से बहती जा रही नदी की धारा के गर्भ में कूद पड़ा। नैया में सवार औरतों में से कई वृद्धाएँ तो जोर-जोर से रोने लगीं, “अरे ओ बाबा तारिणी! अब हम लोगों का क्या होगा रे?"
कालाचाँद डपटने लगा-"अरे, ओ बूढ़ी माताओ! जरा अपने पीछे की ओर भी देखो। कहाँ सरकती जा रही हो? मरोगी, मरोगी तुम सब, निश्चय ही मरोगी।"
पीली-पीली मिट्टी को बहाकर जलधारा में ले आने के कारण मयूराक्षी नदी के पीले पड़े पानी के उस बहाव के बीच में सफेद रंग की कोई एक चीज कभी ऊपर उभरती तो कभी नीचे डूबती जा रही थी- से धारा के बहाव की ओर ही हाथ-पैर मारे तैरता बढ़ रहा था। उसके इस प्रकार बढ़ने में जैसे एक बड़ी ही स्वच्छंद गति दिखाई पड़ रही थी। डूबती-उतराती बही जाती हुई उस चीज के पास वह अब आ ही पहुँचा था कि ठीक उसी क्षण में वह चीज फिर डूब गई। परंतु उसके ठीक संग-संग ही तारिणी ने भी गहरी डुबकी लगा दी। देखते-देखते वह कुछ दूर तक बहता चला गया, फिर ऊपर उठा। तब दिखाई पड़ा कि उसके एक हाथ में घने काले रंग की कोई चीज पड़ी हुई है। उसे पकड़े खींचते-खींचते धारा से थोड़ा टेढ़े होते हुए तिरछे-तिरछे तैरता हुआ वह भी आगे बहता चला। नदी के दोनों किनारों पर खड़ी जनता की नाना-प्रकार की आशंकाओं और उत्सुकताओं से भरी निगाहें तारिणी पर लगी हुई थीं। देखतेदेखते ही एक किनारे पर खड़ी जनता की भीड़ जोर-जोर से चीत्कार करने लगी-"हरि बोल, हरि बोल!"
तभी नदी के दूसरे किनारे की जनता ने ऊँची आवाज में प्रश्न करना शुरू किया-"ऊपर उठा आ रहा है क्या? ऊपर उठा आ रहा है क्या?"
काला चाँद उस वेला में उस डोंगी नैया को बड़ी होशियारी से खेता हुआ तेजी से बढ़ा जा रहा है।
तारिणी मल्लाह का भाग्य बड़ा प्रबल है। आज तो उसके भाग्य के दरवाजे ही खुल गए! नदी के पानी की धारा में जो डूबकर बही जा रही थी, दरअसल वह उस इलाके के बहुत ही नामी-गिरामी, अत्यंत संपन्न परिवार की बहू थी। वस्तुतः ओल-कूड़ा के घाट पर कोई डोंगी नैया नहीं डूबी थी, बल्कि बहुत लंबा पूँघट काढ़े रहनेवाली यह नववधू ही एक नैया के किनारे पर दबाव बनाकर थोड़ा सरककर सुरक्षापूर्वक बैठने की कोशिश करने की अपनी हड़बड़ाहट में ऐसी विपत्ति बुला बैठी थी। उसने डूबने से बचने के लिए हाथ फेंके-फाँके भी, परंतु दामी मोटी बनारसी साड़ी के लंबे चूंघट के कारण उसके हाथ ठीक ठिकाने की जगह पर पहुँचे ही नहीं और वह नदी की धारा के पानी में जा गिरी थी। डूबते-उतराते इस प्रकार बहते हुए उसने कुछ पानी भी पी लिया था; परंतु अभी उतनी देरी नहीं हुई थी और पानी भी उसने ज्यादा नहीं पिया था। अतः थोड़े-बहुत घरेलू कला-कौशल से ही उसके पेट का पानी बाहर निकल गया। तदनंतर उसकी चेतना फिर लौट आई।
वस्तुतः अत्यंत कच्ची उम्र की कन्या थी वह । अभी तेरह या चौदह वर्ष से अधिक आयु तो निश्चय ही नहीं हो सकती; देखने में बड़ी ही रूपवान, कांतिमती और शुभ-दर्शना है। उसके सुंदर शरीर पर सोने और मणि-मुक्ताओं के गहने ढेर सारे पड़े हैं-कानों में कुंडल और कर्णफूल, नाक में बड़ी नथ, जिसे खींचकर जूड़े तक ले जाया गया है। हाथों में बाला-चूड़ी-साँखा और कंगन तथा गले में जड़ाऊ बड़ा हार। होश आने के काफी देर बाद तक भी वह थर-थर काँप रही थी। थोड़ी देर बाद ही उस नवपरिणीता बालिका-वधू के पति महोदय तथा उसके ससुरजी भी इस घाट पर आ पहुँचे।
तारिणी ने उन्हें दंडवत् प्रणाम करते हुए ऊँची आवाज में पुकारा, "गोड़ लग रहा हूँ, घोष महाशयजी आपके।"
उसी क्षण हड़बड़ी में उस कन्या ने अपना घूघट फिर तान लिया।
तारिणी बोला, “अब और लोक-लज्जा में मत नहाओ माँ! अरे, थोड़ा दम लो, ठीक से सुस्ता लो। लोकोक्तियों में वह कहते हैं न कि 'लाज में पड़कर जो माँ हो उठती है कुकड़ी, वह सिद्ध होती है विपत्ति की धुकड़ी।' संकट के समय में लाज-शर्म की परवाह करने के चक्कर में अपना विनाश बुला लेना ठीक नहीं है।"
घोष महाशय ने आगे बढ़कर बड़े प्रसन्न मन से पूछा, “बोल तारिणी! तुझे बख्शीश में क्या चाहिए? जी खोलकर कह, क्या चाहता है तू?"
तारिणी मल्लाह रह-रहकर अपने सिर खुजलाते-खुजलाते हैरान हो गया। सोच-सोचकर परेशान हो गया कि उसे चाहिए क्या? अपने मन से वह किसी भी एक इच्छा पर अपने आपको स्थिर नहीं कर पाया। अंततः उसके मुँह से बोल फूटा-"पूरी एक हाँड़ी देशी शराब का दाम मालिक!" माने-आठ आना!
घाट पर जनता की इकट्ठी हो गई उस भीड़ में वह, जो साबी नाम की छोकरी थी, वह बोल पड़ी, "अरे ओ मुँहझौंसे! कैसा महाअभागा, बेवकूफ है तू रे! माँगना ही है तो कुछ मूल्यवान् वस्तु माँग ले न रे बापू!"
तारिणी को जैसे अब नए सिरे से खयाल आया। अपने सहज-स्वाभाविक रूप से गरदन झुकाकर माथा नीचा करने की आदत के अनुसार झुककर उसने शर्मीली हँसी हँसते हुए कहा, “नाक में पहनने की एक सुंदर-सी नथ दे दें, घोष महाशय।"
जनता की उस भीड़ में से वही छोकरी साबी फिर से चहक उठी-"क्यों रे मरदुआ तारिणी! जान पड़ता है, तेरी बहू तुझसे खूब नाक चढ़ाकर बातें करती है क्या?"
उपस्थित जनता में हँसी का ऐसा तूफान-सा आ गया कि सबके अट्टहास से नदी का वह खेया घाट गुंजायमान हो उठा।
नदी में डूबने से बची हुई वह बालिका वधू थोड़ी सी हिली-डुली, परंतु उसने अपना घूघट नहीं खोला। उसके लंबे चूँघट के नीचे से उसका गोरे रंग का कच्ची उम्र का नाजुक और सुडौल हाथ जैसे अपने आप ही बाहर हो आया, उसकी लाल-लाल हथेलियों के ऊपर सोने की एक बड़ी ही सुंदर नथ सूरज की किरणों के उस प्रकाश में चमकने लगी।
घोष महाशय ने उल्लासपूर्वक कहा, "वह नथ तू उठाकर रख ले। आनेवाले दशहरे के समय पर्वत्योहार पर दी जानेवाली दान-दक्षिणा, कपड़े और चद्दर वगैरह तो हमारे पास तुम्हें देने के लिए अब निर्धारित हो ही गईं-समझ गया तारिणी? और इधर आ, यह ले पाँच रुपया और रख ले।"
कृतज्ञता के बोझ से और भी अधिक झुककर तारिणी ने उन्हें फिर प्रणाम किया और विनती भरे स्वर में कहा, "परंतु मालिक ! आप मेरे लिए जो चादर देने को कह रहे हैं, उसके बदले अगर पत्नी को पहनने के लिए एक साड़ी!"
"वही होगा रे; वही होगा।" घोष महाशय ने प्रसन्न होकर कहा।
साबी नामक वह युवती इस बार जीभ चटकारती हुई बोली, "हाय-हाय रे! तेरी उस पत्नी को अगर एक बार मैं देख पाती रे तारिणी!"
तारिणी ने दबे हुए स्वर में कहा, "अरे, वह कोई देखने लायक थोड़े ही है। महा काली-कलूटी, कुत्सित और भद्दी है। उसे तू क्यों देखेगी भला?"
उस दिन की रात की वेला में तारिणी ने खूब जमकर शराब पी। पूरे गले तक शराब भरकर वह घर लौटा। नशे का नतीजा ऐसा कि पैर इधर रखता तो वह उधर पड़ जाता था। पाँव को धरती पर ठीक से टिका पाने में जब उसे कठिनाई होने लगी, तब अपने साथ चल रहे अपने चेले कालाचाँद से उसने झुंझलाकर पूछा, "लोगों की आने-जानेवाली इस राह में किसने ऊँची-नीची सीढ़ियों की तरह जगहजगह काट-कूटकर डाली है रे कलुआ? जहाँ देखो, वहीं गड्ढा ! जहाँ देखो, वहीं ढूह। इधर ऊँचा, तो उधर नीचा! जैसे नाला ही काट दिया हो! अब देखो, अब एक और आ पड़ा यह गड्ढा!"
कालाचाँद खुद भी शराब के नशे में चूर-चूर हो रहा था, अतः उसने उत्तर में केवल हुँकारी भरी-"हूँ।"
तारिणी फिर बोला, "अब ये देखो, हर जगह जल-ही-जल भरा है। पानी से जैसे धरती ही डूब गई है। कोई बात नहीं रे कलुआ! आ चल, तैरते हुए घर चलें। अब तो न कहीं नीचा है, न कहीं ऊँचा। सब एक समान पानी का पारावार।"-कहते हुए डगमगाते हुए कदम रख-रखकर वह वायुमंडल में अपने दोनों हाथों को आगे-पीछे, दाएं-बाएँ झटक-झटककर चलने लगा; जैसा कि नदी में तैरते समय करता है। लगता था, जैसे तैरने का अभ्यास करता हुआ अभिनय करता चल रहा है।
गाँव के अंतिम छोर पर एक किनारे की ओर ही है उसका अपना घर। उसकी बाट जोहती हुई उसकी धर्मपत्नी सुखिया दरवाजे पर एक दीपक जलाकर बैठी हुई है। घर के पास पहुँचते-पहुँचते तारिणी ने ताल-लय में ऊँचे सुर में एक लोकगीत गाना शुरू कर दिया-"देश में एक नए प्रकार का दंद-फंद चालू हुआ है भाइयो! जिससे तरह-तरह की आमदनी हो रही है, भाइयो!"
उसे इस तरह गाते हुए, इधर-उधर लुढ़कते हुए देखकर सुखिया दौड़ी हुई आगे बढ़ आई और उसका हाथ पकड़कर उसे सँभाल लिया उसने। आगे चलने में जब वह अकड़ने लगा, तब थोड़ा डाँटते हुए बोली, "बहुत हो गया। अब तो घर के अंदर चलो। जाने कब से भोजन की थाली सजाकर रखे हुए हूँ। जुड़ा जाने से भात से एकदम ठंडा और कड़कड़ हो गया है।"
घर के अंदर पहुँच जाने पर तारिणी ने एक झटका देकर अपना हाथ छुड़ा लिया, फिर अपनी कमर में बँधी धोती की मुर्हा को खोजते-खोजते हैरान होता हुआ बोल पड़ा-"नहीं, अभी भोजन-छाजन की कोई बात नहीं। अभी तो पहले तुम्हारी नाक में नथ पहनानी होगी। मगर नथ गई कहाँ? क्यों तुम्हीं बताओ न, कि ये साली नथ कहाँ जा छिपी?"
सुखिया ने जैसे अपने आप पर झींकते हुए कहा, "वही सब करने के चक्कर में पड़कर एक दिन तुम मेरा माथा खाओगे, मेरा कपाल ही फूंक दोगे तुम। अगर तुम्हारी यही हरकत बनी रही तो देखना, एक दिन मैं इस सबके पहले ही गले में फाँसी का फंदा लगाकर लटक जाऊँगी।"
फिर तो तारिणी उसके मुँह की ओर फटी-फटी आँखों से देखने लगा। एक लाचारी भरी चितवन से; इस भाव से उसे देखता हुआ कि जैसे उससे कोई भारी अपराध हो गया हो, वह पूछ बैठा-"क्यों, ऐसा मैंने क्या कर दिया?"
सुखिया ने आँखों से ही उसे डपटते हुए कहा, "किया क्या? अरे, यहाँ आनेवाली नदी की यह भीषण बाढ़, और इस बाढ़ में तुम"
तारिणी की बहुत ऊँची आवाज की खिलखिलाहट से वर्षा-ऋतु की उस रात का मूसलधार बारिश से भीगता हुआ अंधकार भी घबरा उठा। अपनी हँसी को रोककर तब उसने सुखिया की ओर प्यार भरी नजरों से देखकर कहा, "यह क्या बकती है तू? अरे, माँ की गोदी में क्या कोई डर-भय रहता है ? तू ही बता! बोल न, जो कुछ बोलती है। ये नदी की बाढ़ तो हमारी माँ है, उसमें हम बच्चे किलकारियाँ लेते हैं। तू उसी से डरती है ! अरे, पेट भरकर भोजन करने का सौभाग्य जो हम लोगों को मिला है, वह इस मयूराक्षी माँ की कृपा से ही तो! अब चुप क्यों हो गई? जवाब दे मेरी बातों का। तूने उस माँ की बाढ़ पर ऐसी बात कह डाली!"
उसके साथ अब और तर्क-वितर्क करना छोड़कर सुखिया ने उसे भोजन कराने के काम में मन लगाया। भोजन करने की ठहर पर थाली परसने के लिए वह अंदर चली गई। तारिणी जोर-जोर से बुलाने लगा -"सुखी! अरे ओ सुखिया! इधर आ न, जल्दी आ।" परंतु उस ओर से कोई उत्तर सुखिया ने नहीं दिया। तब उसी तरह डगमगाते-डगमगाते तारिणी घर के अंदर चल पड़ा। भोजन की थाली परसने में व्यस्त सुखिया को उसने जा पकड़ा और उसका कपड़ा खींचते हुए बोला, “आ चल। तुझे अभी इसी क्षण चलना पड़ेगा।"
"ठीक है, ठीक है। पहले साड़ी का आँचल तो छोड़ो। छोड़ो; मेरे कपड़े खुल जाएँगे।" सुखिया ने झल्लाते हुए कहा।
तारिणी और भी भड़ककर बोला, “चलेगी कैसे नहीं? जरूर-जरूर चलना होगा तुझे। हजार बार, तीन सौ बार।"
साड़ी के आँचल को अपनी ओर खींचते हुए सुखिया बोली, “अब मेरा कपड़ा तो छोड़ो! इतनी जिद है तो चलो, मैं चलने को तैयार हूँ। बोलो, कहाँ चलना है ? चलो, चलते हैं।"
अतिशय प्रसन्न होकर तारिणी ने उसकी साड़ी का आँचल छोड़ दिया। भोजन की परसी हुई थाली को दोनों हाथों में उठाए-उठाए ही सुखिया दरवाजे से बाहर निकल गई। तारिणी बड़बड़ाता जा रहा था, "चल, तुझे अभी दिखाता हूँ, अभी तुझे अपनी पीठ पर लादकर मैं मयूराक्षी नदी के इस गनूट-घाट पर धारा में कूदूंगा, फिर तुझे लिये-लिये तैरते-तैरते उस पार के पाँचधूपी घाट पर जाकर बाहर निकलूंगा।"
सुखिया ने जैसे समझाते हुए कहा, "जिस तरह तुम कहोगे, ठीक उसी तरह मैं तुम्हारे साथ चलूँगी ही। बस, अब भोजन तो कर लो जरा।" अपनी रौ में बहता हुआ तारिणी जब घर में से बाहर निकला आ रहा था, तभी दरवाजे की चौखट का ऊपरी काठ उसके कपाल पर बहुत जोर से टकराया। घाव से विकल होने पर तारिणी का उछलना-कूदना अब बहुत ढीला पड़ गया।
भोजन करते-करते उसने फिर आरंभ किया, "तुमने क्या मेरी तैराकी देखी नहीं है ? उस बार नदी की बाढ़ में जब एक जोड़ी बैल बह गए थे, तब क्या मैंने ही उन्हें धारा से लड़कर तैरते हुए बाहर नहीं निकाला था? पूरे पंद्रह रुपए-माने पाँच रुपए कम पूरे एक बीस रुपए उस साले मदन ग्वाले ने ठग लिये मुझसे! ये तेरे हाथों में जो साँखा, बाला, चूड़ी वगैरह सुशोभित हो रही हैं, ये सब फिर कैसे हुईं? बोल, अब तू ही साफ-साफ बोल! ये सब चीजें तुम्हारे किस नाना ने तुम्हें दी हैं?"
उसकी इसप्रकार की बातों की परवाह न कर सुखिया दूसरी कोठरी में बैठकर बासी भात के माँड़ और खटाई को मिलाकर काँजी बना रही थी। काँजी बहुत ही ठंडी चीज है। ज्यादा नशा हो जाने पर पिला देने पर बहुत ही लाभकारी सिद्ध होती है। अतः वह उसी में मग्न थी। जबकि तारिणी उधर बड़बड़ाए जा रहा था, "मदना साले! तूने मुझे ठग लिया न? ठीक है, ठग ले, ठग ले! जैसे भी हो, सुखिया की कलाई में साँखा और बाला के गहने तो हो गए न, बस। मुझे कुछ दो या मत दो; मुझे कोई परवाह है क्या? आने दे मेरा भी मौका। मयूराक्षी की बाढ़ में एक दिन साला तू गिरा तो जब तक तुझे कई झाँकनी देदेकर खूब पानी नहीं पिला दूंगा, तब तक क्या तुझे बाहर निकालूँगा? उसके बाद ही तुझे नदी में से बाहर ले आऊँगा।"
काँजी से भरा हुआ कटोरा लाकर सुखिया ने तारिणी के सामने रख दिया। एक तरफ जहाँ तारिणी काँजी पीने में जुटा, वहीं दूसरी ओर उसकी धोती के छूट की मुहीं को सुखिया ने खोलना शुरू किया। जैसे ही उसने खुंट की गाँठ खोली कि वैसे ही सोने की वह चमचमाती नथ तथा चाँदी के तीन रुपए बाहर आ गए। उन्हें देखते ही सुखिया पूछ पड़ी-“बाकी दो रुपए क्या हुए?"
तारिणी गिड़गिड़ाया-"उन्हें मैंने नहीं उड़ाया। वही जो केले है न! अरे, वही केले माने कलुआ माने कालाचाँद है न, उसी को मैंने दे दिया कि जा, इन्हें तू ही ले जा।"
उसकी इस बात का कोई विरोध सुखिया ने नहीं किया। बात का बतंगड़ बनाने, वाद-प्रतिवाद करने का उसे कोई अभ्यास नहीं है। ऐसी दशा में वह प्राय: चुप ही रहती है। उधर तारिणी ने फिर बक-बक करना आरंभ कर दिया-"याद करो, उस बार जब तुम भयंकर रूप से बीमार पड़ गई थीं, मैं यहाँ तुम्हारी देखभाल में उलझा था कि वहाँ हालत यह थी कि बढ़ आई मयूराक्षी नदी के डर के मारे इस पार की डाक उस पार, उस पार की डाक (डाकखाने की चिट्ठी-पत्री के थैले) इस पार नहीं हो पा रही थी। पुलिस के सिपाही, थानेदार तक नदी के घाट पर बैठकर हाँफते-पीटते हार माने बैठे रहते थे। तब सबने मुझसे गुहार की। मैंने ही फिर डाक पार करवाई। हाँ-हाँ, मैं मानता हूँ कि मैंने उसका मेहनताना भी लिया। उसकी बख्शीश से ही तो तेरे कानों में सोने का कर्णफूल का यह झुमका हो पाया है। जा, तू अभी बाहर चली जा। जाकर उस ऊँचे टीले पर खड़ी होकर जोर-जोर से हाँक लगा। ठीक नदी के उस ऊँचे किनारे से बुला कि अरी, ओ हरामजादी नदी! तू जरा यहाँ तक तो उठकर आ! वह दहाड़ती हुई ऊपर उठती चली आएगी। जा, जा; तू उसे बुला तो ला!"
सुखिया ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा, "अभी जरा ठहरो तो। मैं अंदर से आईना ले आऊँ। आईने में निहराते हुए तुम्हारी लाई इस नथ को तो पहले पहन लूँ।"
खुशी के मारे तारिणी फिर एकदम से शांत हो गया। आईने को अपने सामने रखकर उसके भीतर निहारती हुई सुखिया अपनी नाक में नथ पहनने के लिए बैठ गई। तारिणी आश्चर्यचकित निगाहों से उसकी ओर टकटकी लगाए निहारता हुआ बैठा रहा। भोजन का कौर उसके हाथ में ही पड़ा रह गया। उस वेला में भोजन करने की सारी क्रिया ही बंद हो गई थी। सुखिया ने नथ पहनने का काम जैसे ही पूरा किया, कि तभी अपने जूठे हाथों में ही तारिणी ने दीपक उठा लिया। फिर उसे सुखिया के मुखड़े के करीब लाते हुए बोला, “देखूँ, जरा आँख भरके देख तो लूँ, आज तुमको इस नथ में!"
हृदय में प्रसन्नता के उमड़ आने का वेग सुखिया के मुँह पर भी प्रकाशित हो उठा। कुछ इस तेजी से कि उसका साँवले रंग का मुखड़ा लाल-लाल हो गया। नदी के किनारे सावित्री उर्फ साबी नाम की उस नवयुवती से तारिणी ने बिल्कुल झूठी बात कही थी; क्योंकि वास्तविकता में सुखिया की यह सँवराई भी उज्ज्वल वर्ण की सँवराई है। बहुत ही सलोनी। इकहरे बदन की छरहरी सुखिया बहुत ही सुदर्शना युवती है। इसी से सुखिया के कारण ही तारिणी के सुख की कोई सीमा नहीं है।
देशी शराब, ठर्रे के नशे में विभोर होते हुए भी तारिणी ने जो बातें कहीं, वे झूठी नहीं थीं। उस मयूराक्षी नदी के कृपा-प्रसाद से ही तारिणी के गृहस्थ-जीवन में अन्न और वस्त्र का कभी अभाव नहीं हुआ। दशहरे के दिन वह मयूराक्षी नदी को देवता मानकर उसकी पूजा भी किया करता है। इस बार तेरह सौ बयालीस बंगाब्द (1935 ई.) के साल के दशहरे के त्योहार पर तारिणी पूरे विधि-विधान से पूजा-अर्चना कर रहा था। उसी के चलते उसने स्वयं कोरी नई धोती और कुरता तथा सुखिया ने भी घोष महाशय द्वारा पूजा-पार्वण पर दी गई नई साड़ी पहन रखी थी। बारिश न होने के कारण मयूराक्षी नदी में पानी नहीं रह गया था; जिससे इस पार से उस पार तक फैले हुए बालू के ऊपर गरमी की ऋतु के सूरज की प्रखर किरणें पड़कर पूरी नदी घाटी को चमका रही थीं। आज के समय तक प्रायः हर साल ही वर्षा हो जाया करती है, परंतु इस बार अभी तक बारिश का पहला लवंडर (झोंका) भी नहीं आया है। नदी के घाट पर उतरकर भोगपुर गाँव का निवासी कृष्णदास कमर सीधी कर खड़ा हो गया; फिर उसने वहाँ के चारों ओर के पूरे वातावरण को ध्यान से देख लेने के बाद एक बार आकाश की ओर भी बड़ी गंभीरता से निरखा-परखा। फिर बोल उठा, “इस बार की पूजा पूरी निष्ठा के साथ अच्छी तरह से करो, तारिणी! जिससे कि बरसात अच्छी हो। खूब पानी बढ़े, नदी में खूब बढ़ियाई बाढ़ आए; क्योंकि अगर नदी में बाढ़ नहीं आई तो फिर खेती-बाड़ी होगी किस तरह ?"
मयूराक्षी नदी अपनी बाढ़ से जो उपजाऊ पोली-मिट्टी अपने तटों के दोनों ओर फैला देती है, उसी से तो यहाँ की खेती में सोना फलता है।
प्रसन्न मन से हँसते हुए तारिणी ने कहा, “यही बात कहिए न, बाबाजी! परंतु इस असली बात को दबाकर और लोग क्या बात प्रचारित करते हैं, इसे क्या दास बाबू आप जानते हैं? वे सब तो कहते हैं कि साला तारिणी यह पूजा ही बस इसीलिए करता है कि मयूराक्षी नदी में बाढ़ आए, ताकि बढ़िआई नदी में अपनी नैया का खेवा चला-चलाकर वह अधिक आमदनी कर सके। जबकि जो बात आपने कही; वही असली सच है। इस मयूराक्षी माँ की दया से ही इस पूरे इलाके की संपन्नता रहती है।"
"पकड़-रे-पकड़, दौड़कर पकड़ ले उस पाठे को। पूजा के काम में लगाने के लिए लाया गया यह पाठा (कच्ची उम्र का बकरा) वह भागा जा रहा है। अरे ओ कलुआ! दौड़कर पकड़ उसे।"
बलि चढ़ाने के लिए वहाँ लाया गया वह पाठा, नदी की तपती हुई बालू पर अब और खड़ा रहना चाहता ही नहीं था।
जैसे-तैसे पूजा-अर्चना पूरे विधि-विधान से बड़ी कुशलतापूर्वक पूरी हो गई। फिर तो उसी खुशी में पूरी तृप्ति के साथ शराब पीकर तारिणी नदी के घाट के किनारे बैठकर कालाचाँद को समझाने लगा -"अरे, ओ कलुआ! अब तो हड़-हड़, कल-कल करती हुई बाढ़ इस नदी में बस दस दिन बाद ही तू पा जाएगा। इतनी उमड़ती हुई बाढ़ आएगी कि दिल खुश हो जाएगा।"
कालाचाँद ने भी उत्तर में बड़े उत्साह के साथ कहा, “सो तो ठीक है भैया ! परंतु इस बार नदी की धार में जो चीजें डूबती हुई बहेंगी, उन्हें नाव से कूदकर तुम नहीं पकड़ पाओगे। इस बार तो उन्हें मैं ही पकगा। यह बात मैं पहले से ही बोल दे रहा हूँ, हाँ।"
नशे में मदमस्त होकर तारिणी ने हँसते हुए कहा, “परिणाम क्या होगा? जानता है ? चक्रवाती भंवर में बस तीन बार बुल्ला उभरेगा, बुक्-बुक्-बुक्; बस ये जो कालाचाँद है न, माने करिअवाँ चंद्रमा ! माने की तू, बस बिल्कुल धब-धब सफेद हो जाएगा।"
उसकी बात से अपना भयंकर तिरस्कार हुआ समझकर अपमान से बौखलाकर, आग-बबूला होकर कालाचाँद गरज पड़ा-"अरे, ओ साला! तू क्या बोला, जरा फिर से तो कह !"
उसकी बात से तिलमिलाकर तारिणी बिल्कुल तनकर सीधा खड़ा हो गया, कि तभी आगामी संकट को भांपकर सुखिया उन दोनों के बीच आकर खड़ी हो गई; फिर उसने उन दोनों की उस तकरार और झगड़े को मिटाकर फिर उनमें मेल करवा दिया। उसने मध्यम-मार्ग सुझाते हुए कहा, “जब नदी में मामूली किस्म की छोटी बाढ़ आएगी तो नदी के किनारे उधर जो पाकड़ का पेड़ हैं, वहीं तक जो चीजें डूबती-उतराती बहेंगी, उन्हें मेरा देवर लगनेवाला यह कालाचाँद ही पकड़ेगा, और पाकड़ के पेड़ के इलाके से आगे जो चीजें बह जाएँगी, उन्हें ही तुम पकड़ा करोगे।"
सुखिया के पैरों की धूल को अपने माथे पर चढ़ाते हुए कलेजा फाड़कर रोते हुए कालाचाँद बोल पड़ा -"इतनी बड़ी अगर बात ये मेरी भाभी न होतीं तो भला और कौन कह सकता था?"
उस दिन के बाद आनेवाले ठीक दूसरे दिन से ही छोटी नौकाओं की, डोंगियों की मरम्मत का काम शुरू हो गया। हाथ में हथौड़ी, लकड़ी, टिन, लोहे की कीलें वगैरह लेकर वे दोनों सुबह से लेकर शाम तक घनघोर परिश्रम करते रहे। परिणामस्वरूप कुछ ही दिनों में उस पुरानी डोंगी को उन्होंने बिल्कुल नया ही रूप दे दिया। परंतु सूरज की तेज किरणों की गरमी के कारण उस डोंगी नैया में फिर जगहजगह छेद हो गए। आषाढ़ का पूरा महीना बीत गया, परंतु नदी में बाढ़ नहीं आई। बाढ़ आने की तो बात ही बहुत दूर, इस बार तो नदी की बालू को ढक देने भर को भी पानी नहीं हुआ। बस दो-चार बार ही बहुत मामूली-सी बारिश हुई। परिणामस्वरूप इस पूरे क्षेत्र में एक दबा-दबा-सा कातर-क्रंदन उभरने-घुमड़ने लगा; जैसे कि बहुत शीघ्र ही आ पड़नेवाली महाविपत्ति का अंदाजा कर-कर यह पूरा क्षेत्र ही अंदर उमड़ती वेदना से काँपने लगा हो, अथवा बहुत दूर से जो हाहाकार आ रहा है, हवा के झोंकों पर तैरती आ रही उसकी ही पहले-पहल की व्याकुल-वेदना की ध्वनि फैल गई हो! तारिणी के दिन तो अब काटे नहीं कटते। एक-एक दिन का खर्च चला पाना मुश्किल हो गया है। नदी में पानी की कमी होने के कारण नौका तो चल ही नहीं सकती थी, सो जो सरकारी कर्मचारी अपनी साइकिल लेकर उस पार जाने के लिए आते थे, उनकी साइकिल को अपने कंधों पर उठाकर नदी के उस पार पहुँचा देने के बदले जो दो-चार पैसे उसे मिल जाते हैं, उन्हीं से वह देशी शराब पीता है। सरकारी कर्मचारियों का आने-जाने का दौर इस समय कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। पता लगा है कि वे लोग यहाँ इस बात की जाँच-पड़ताल करने आते हैं कि इस इलाके में सचमुच ही सूखा या अकाल पड़ा है कि नहीं? उनके आने-जाने से, साइकिलें पार करा-कराकर जो कुछ पैसे मिलते हैं, उसके अलावा भी एक विशेष चीज भी मिल जाया करती है; और वह है, सिगरेट पीकर उसके अनपिए टुकड़ों को फेंक देने से बची हुई सिगरेटों की छोटी-बड़ी टुकड़ियाँ!
सावन का महीना शुरू होने की पहली वेला में ही नदी में बाढ़ आ गई। तारिणी तो जैसे भारी धक्का खाकर भी अंततः बच गया। बाढ़ आने के पहलेवाले दिन तो वह इतना आनंदोन्मत्त हो गया कि ताड़ के पेड़ की तरह ऊँचे उठे नदी के किनारे पर से नदी की छाती में कूदकर उसने बाढ़ के पानी को और भी छलछलाता हुआ चंचल बना दिया। परंतु उसके बाद के तीन दिन बीतते-बीतते ही नदी का सारा पानी इस कदर बह गया कि उसमें फिर वही घुटनों तक का पानी ही बचा रह सका। किनारे के पेड़ में रस्सी से बँधी हुई उसकी छोटी डोंगी नैया कम पानी की कमजोर तरंगों पर बस मामूली ढंग से हिल-डुल रही थी। तारिणी और कालाचाँद उसी पर बैठे हुए थे, किसी ऐसे नाजुक मिजाज, शौकीन और रईस किस्म के यात्री के आने की प्रतीक्षा में, जो कम पानीवाली इस नदी की धारा को भी अपने पैरों चलकर पार करना नहीं चाहेगा। जब ऐसी कोई परिस्थिति आ बनती है, तो ऐसे यात्री को उस डोंगी पर बैठाकर वे दोनों पैदल ही डोंगी को ठेलते हुए उस पार ले जाते हैं।
साँझ गहराती आ रही थी। तारिणी ने हताश स्वर में कहा, “ये क्या हो गया रे कलुआ! जरा तू ही तो बता न?" अत्यंत चिंता से भरकर कालाचाँद बोला, “वही बात तो मैं कह रहा हूँ।"
तारिणी ने फिर पूछा, “ऐसा तो मैंने कभी नहीं देखा था। बोल, तेरा क्या कहना है ?"
ठीक पहले की ही तरह कालाचाँद ने फिर उत्तर दिया-"वही बात तो मैं भी कहता हूँ।"
आकाश की ओर निहार-निहारकर तारिणी ने कहा, "जरा इस आकाश की ओर तो देख, कलुआ! बिल्कुल स्वच्छ नीला खुला आकाश है। इस वेला में उतरे चिरिया-चुरंग भी तो नहीं बोल रहे हैं।" कालाचाँद ने इस बार भी उत्तर दिया, "ठीक यही बात तो मैं भी कह रहा हूँ।"
इतना सुनना था कि तारिणी ने एक जोरदार थप्पड़ उसके गालों पर जड़ दिया और चिड़चिड़ाकर बोला, "ठीक वही तो, ठीक वही तो, बस यही कहने के लिए मैं तुमसे बतिया रहा हूँ। ठीक वही तो, ठीक वही तो की रट कब से लगाए जा रहा है !"
कालाचाँद ने अकस्मात् पड़ी मार से हैरान होकर चकपकाहट भरी नजर तारिणी पर एकटक लगा दी। उसकी ऐसी निगाह को तारिणी सह नहीं सका, अतः उसने अपना मुख दूसरी ओर घुमाते हुए कुछ दूर सरककर आसन जमाया। कुछ क्षणों के बाद जैसे यकायक उभर आई चेतना से अभिभूत होकर देह को तोड़ते-मरोड़ते हुए कह पड़ा- "क्यों रे कलुआ! हवा क्या चक्कर लगाने लगी है, पछुआ हवा बह रही है न?" कहते-कहते वह एक झटके में डोंगी नौका पर जा खड़ा हुआ। फिर एक मुट्ठी सूखी बालू को ऊपर उठाकर झुरझुर-झुरझुर नीचे गिराना शुरू किया। परंतु हवा का बहाव इतना दुर्बल था कि पछुआ हवा बह रही है कि नहीं, कुछ भी अनुमान नहीं किया जा सका। फिर भी वह कह उठा-"हूँहूँ, पश्चिम से ही थोड़ा धक्का दे रही है, बस तनिक-सा। चल, कलुआ, आ अब उधर चलें। उधर चलकर देशी शराब पिएँगे। आओ चलें। आज मेरे पास दो आने पैसे टेंट में हैं। बड़ी होशियारी से आज मैंने सुखिया के आँचल के खूट से खोलकर इन्हें निकाल लिया है।"
ऐसा स्नेहपूर्ण आमंत्रण पाकर कालाचाँद सारी चोट भूल गया और खुशी से उछल पड़ा। तारिणी के साथ-साथ चलते हुए उसने कहना शुरू किया, "बड़े भैया! कम-से-कम तुम्हारी बहू के पास कुछ रुपए तो हैं, अतः शाम को घर लौटने पर तुम्हें भोजन-पानी निश्चय ही मिलेगा। ऐसी विपदा भरी हालत में हम लोग तो मर ही रहे हैं।"
तारिणी बोला, "चाहे कुछ भी कहो, कलुआ! मेरी पत्नी सुखिया बहुत भली है। निश्चय ही बहुत अच्छे हृदयवाली है वह। अगर वह न होती तो मेरे ललाट की भाग्य-रेखा में डोम की दुर्गति भोगना ही अवश्यंभावी होता। उस बार उसके भाई के विवाह की वेला में..."
उसकी बात को बीच से ही काटते हुए कालाचाँद कह उठा-"जरा ठहरो भइया ! ताड़ का एक फल उधर गिरा पड़ा है, मैं उसे जरा उठा लाऊँ।" कहते-कहते वह पास के मैदान में नीचे की ओर उतर पड़ा।
* * *
गाँव के गोएँड़े के पास एक बड़े छायादार वृक्ष के नीचे आदमियों का एक भारी झुंड बैठा हुआ था। उनके पास जाकर तारिणी ने उत्सुकता से पूछा-“कहो भाई लोगो! तुम कहाँ जाओगे? तुम लोगों का अपना घर-द्वार, गाँव-पुर कहाँ है ?"
उनमें से एक व्यक्ति ने उत्तर दिया-"हम लोगों का घर-द्वार तो बीरचंद्रपुर गाँव में है। परंतु हम अपने गाँव नहीं जा रहे हैं, बल्कि मेहनत, मजदूरी-खटने के लिए हम सभी लोग वर्धमान शहर जा रहे हैं।" तब तक कालाचाँद भी आ पहुँचा था, उसने पूछा, "वर्धमान में बारिश हुई है क्या?"
"बारिश तो नहीं हुई; परंतु वहाँ पानी का उतना अभाव नहीं है। वहाँ नहर बन गई है न, इसी वजह से।"
* * *
देखते-देखते उस पूरे क्षेत्र में हाहाकार मच गया। ऐसा लगा, जैसे अकाल-सूखा कहीं बाहर से नहीं आया, बल्कि वह तो अपने देश की इस माटी के नीचे ही बहुत गहरे अपने को छिपाए हुए बैठा था। अब जो वर्षा के अभाव और सूरज की प्रखर किरणों से धरती की छाती जगह-जगह से दरक उठी है, चप्पे-चप्पे पर फाँक उभर आई हैं, तो उन्हीं फाँकों से बाहर निकलने का रास्ता पाकर इस सूखेअकाल ने अपनी भयानक मूर्ति को प्रकट कर अपना आतंक फैला दिया है। जिन गृहस्थों के पास अन्न-धन का पर्याप्त भंडार है, उन्होंने भी उन्हें छिपा दिया है। कड़ी सुरक्षा में बंद कर दिया है।
दूसरी ओर, जो रोज-रोज की मेहनत-मजदूरी करके कमाते-खाते थे, अब कहीं से कुछ न मिल पाने के कारण भूखा-दूखा रहकर उन्होंने उपवास करना शुरू कर दिया है। जीविका के साधनों के अभाव में झुंड-के-झुंड लोगों ने अपना घर-द्वार, गाँव-गिराँव छोड़कर भागना शुरू कर दिया है।
* * *
उस दिन सवेरे-सवेरे जगकर तारिणी जब नौका घाट पर आया तो पहली बार देखा कि कालाचाँद अभी वहाँ नहीं आया है। उसके इंतजार में बैठे-बैठे कई पहर बीत गए, फिर भी कालाचाँद अपना काम करने घाट पर नहीं आया। तब तारिणी वहाँ से उठकर दौड़ा-भागा कालाचाँद के घर जा पहुँचा और पुकार लगाई-"अरे ओ कालाचाँद, कलुआ रे!"
कई बार पुकार लगाने पर भी किसी ने भी कोई उत्तर नहीं दिया। उसके घर के अंदर जाकर देखा तो पूरा घर-द्वार सूना-सूना, खाँ-खाँ कर रहा है। कहीं पर कोई भी नहीं है। तब वह उसके बगलवाले घर के अंदर भी चला गया, परंतु वह दूसरा घर भी उसी प्रकार सूना-सूना है। फिर तो केवल वही घर नहीं, बल्कि उसने कालाचाँद का पूरा मोहल्ला ही खोज डाला, परंतु उसकी तो पूरी पट्टी ही मनुष्य-प्राणियों से सूनी हो गई है। उसके बाद वह आसपास की कई एक पट्टियों में गया। पास की एक पट्टी चासीपाड़ा, माने खेतिहर किसानों की पट्टी में जाने पर लोगों ने बतलाया कि कालाचाँद की पट्टी के सभी लोग तो कल रात को ही अपनी पुश्तैनी निवास-भूमि छोड़कर कहीं अन्यत्र चले गए। उस पट्टी के मुखिया हारू मोडल ने बतलाया-"अरे, भाई तारिणी! मैंने तो उन लोगों से बार-बार कहा, आरजूविनती की कि जाओ मत। सभी-के-सभी लोग अपनी भीटा-माटी छोड़कर मत भागो, परंतु मेरी बात पर किसी ने कान ही नहीं दिया। उलटे यहाँ तक कहा कि यहाँ रहने से तो अच्छा है कि हम लोग बड़े लोगों के गाँवों में जाकर भीख माँगकर गुजारा करेंगे।"
तारिणी के हृदय के भीतर जाने कैसी-कैसी कचोटें शुरू हो गई थीं। जन- मानव हीन उस सूनी पट्टी की ओर निहारते हुए उसने केवल एक लंबी साँस फेंकी।
हारू मोडल ने फिर आगे कहना शुरू किया-"अब इस प्रदेश में बड़े आदमी लोग क्या हैं भी? अरे, सभी के पेंदे में छेद हो चुका है, नीचे से सभी खाली हैं। उन बेचारों की तो हालत और भी खस्ता है, और भी दारुण विपत्ति उनके सिर चैंपी हुई है; क्योंकि पेट भरने के लिए अन्न का एक दाना भी खाने को न मिला हो, तो भी वे मुँह से अपनी इस सच्चाई को कबूल नहीं कर सकते। भूखे रहकर भी वे बराबर ऐसा ही दिखाएँगे और कहेंगे कि उन्होंने पेट भरकर भोजन किया है। उनकी हालत का अंदाजा इसी से कर लो, कि यही जो वह गाँव है न, जिसका नाम है पलाश डाँगा। उस पलाश डाँगा के एक बहुत ही इज्जतदार धनी-मानी मशहूर परिवार के एक मालिक ने अपने गले में फाँसी का फंदा लगाकर आत्महत्या कर ली है। कहने को कोई चाहे जो भी कारण बतलाए, परंतु सच्चाई यही है कि वह अपने अभावों के कारण ही फाँसी पर झूला है।
तारिणी तो एड़ी से चोटी तक गनगन काँप उठा।
* * *
दूसरे दिन नदी के घाट पर एक बड़ा ही हृदय विदारक बीभत्स कांड दिखाई पड़ा। चबूतरे के पास ही एक वृद्धा महिला की मरी हुई देह पड़ी थी। उसके शरीर में से नोच-नोचकर सियार और कुत्ते काफी मांस खा गए थे। फिर भी करीब जाने पर तारिणी ने उसे पहचान लिया। वह उस गाँव के एक मोची-परिवार की वृद्धा माता थी। ऐसी भाग्यहीना कि क्या कहें! चूँकि वह इतनी कमजोर हो चुकी थी कि चल-फिर भी नहीं सकती थी, बिस्तरे से उठ न सकने की उनकी विवशता के कारण उनके परिवार के सदस्य ही भगवान् से बार-बार मनौती कर रहे थे कि किसी तरह उनकी मृत्यु हो जाए। उन वृद्धा की खातिर ही उस परिवार के लोगों ने उन्हें लेकर पिछली रात को ही घाट के किनारे आकर आश्रय लिया था। रात में जब वह नींद में विभोर थीं, तब उन्हें उसी अवस्था में वहाँ छोड़कर परिवार के बाकी सारे सदस्य कहीं दूर भाग गए थे, अपनी जान बचा सकने की फिराक में।
अब तो उस स्थान पर तारिणी भी देर तक ठहरा नहीं रह सका। जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाता, सीधे अपने घर आया और सुखिया से आदेश के स्वर में कह उठा-“उठ, तैयार हो। खड़ी हो जा सुखिया ! चार-छह आवश्यक कपड़े और कुछ एक गहना-गीठों को पेट के नीचे आँचल में सावधानी से बाँध ले। फिर चल, यहाँ से निकल चलते हैं। अब और इस गाँव में नहीं रहेंगे। अब हम शहर की ओर जाएँगे। वहाँ कम-से-कम रोज मजदूरी तो मिलेगी।"
सुखिया जब उसके आदेश का पालन करती हुई सब साजो-सामान बाँधने लगी, तब तारिणी ने देखा कि गहने के नाम पर तो बस हाथ की कलाइयों में पड़े साँखा या बाला के अलावा और कुछ तो सुखिया के पास है ही नहीं। तारिणी ने आश्चर्यचकित होकर पूछा, "बस, यही एक साँखा? और बाकी गहनों का क्या हुआ?"
एक बड़ी ही मुरझाई हुई सी फीकी हँसी-हँसते हुए सुखिया ने उलटे ही पूछा, "तो फिर इतने दिनों तक घर का खर्चा-पानी सब चला किसके जोर पर?"
* * *
तारिणी ने अपने पूर्वजों का वह अपना ग्राम छोड़ दिया।
लगातार तीन दिनों तक चलते-चलते थककर चकनाचूर हो जाने पर उस दिन साँझ की वेला में एक गाँव के किनारे उन लोगों ने रातभर आराम कर लेने की गरज से पड़ाव डाल दिया था। थकावट मिटाने के लिए वे विश्राम कर रहे थे। ताड़ के दो पके हुए फलों को लेकर उन्हें ही चूस-चूसकर वे दोनों अपने रात के भोजन का प्रबंध पूरा कर रहे थे कि तभी एक छलाँग लगाकर उठते हुए तारिणी एक खुली जगह पर जाकर खड़ा हो गया। वहाँ से खड़े-खड़े ही वह बोला, "सुखिया! जरा मेरा अंगोछा तो लाना, मैं कुछ देखकर ठीक से समझ तो लूँ।" अंगोछे को लेकर अपने हाथों से झुला-झुलाकर उसकी एक-एक स्थिति को उसने बड़े ध्यान से देखना शुरू किया। रात के पिछले पहरों में, भोरहरी की वेला में सुखिया की नींद उचट गई–तब उसने देखा कि तारिणी तो सोया ही नहीं, वह तो उसी जगह पर तनकर अकड़ा हुआ बैठा है। सुखिया ने आश्चर्य से पूछा, "पूरी-की-पूरी रात तुम सोए ही नहीं?" तारिणी ने हँसकर उत्तर दिया, "नहीं, आँखों में पलभर को भी नींद नहीं आई।"
फिर तो सुखिया ने उसे तरह-तरह से डाँटना-फटकारना शुरू कर दिया, "तुम इस तरह से रहोगे तो अगर कहीं आफत-विपत्ति की इस वेला में कोई बीमारी-सिमारी हो गई तो मैं गँवार स्त्री भला क्या करूँगी? तुम्हीं बताओ न ! ऐसे लापरवाह आदमी के साथ बाहर निकलना कैसे होगा बापू? छिह-छिह-छिह !"
परंतु तारिणी ने उसका कुछ भी बुरा न मानकर बहुत ही हर्ष गद्गद कंठ से कहा, "देख रही है, सुखिया ! देख रही है तू?"
झुंझलाकर सुखिया ने कहा, "अब अपना यह जला-फूंका माथा-मुंड क्या देखुंगी, तुम्हीं बताओ?"
तारिणी हुलसकर बोला, "चींटियों की कतारें अपने-अपने मुँह पर सफेद-सफेद अपने अंडे लिये ऊँचाईवाली जमीनों की ओर बढ़ती जा रही हैं, मतलब साफ है कि अब इस बार निश्चय ही पानी बरसेगा।"
सुखिया ने देखा-सचमुच ही लाखों-लाखों चींटियाँ भिन्न-भिन्न कतारों में बँटकर अपने-अपने अंडों के साथ पास की एक ढही हुई बखरी की ऊँची दीवारों के ऊपर उठती चली जा रही हैं। उन सबके सिर के ऊपर सफेद-सफेद अंडे धरे हुए हैं। वह भी मजाक के लहजे में बोल उठी-"तुम्हारा भी जैसा विचित्र स्वभाव.."
तारिणी बतलाने लगा-"वे सब निश्चित रूप से सही-सही जान सकती हैं, नीचे की ओर रहने से उनके बिलों का निवासस्थान बढ़े हुए पानी में ढह-बह जाएगा। और इधर देखती हो कि हवा-बताश कैसी बह रही है ? सीधी और पुरजोर गति से पश्चिम की ओर से सभी कुछ को साफ करती बह रही है बतास।"
आकाश की ओर ध्यान लगाकर देख लेने के बाद सुखिया बोली, "परंतु आकाश तो बिल्कुल साफ है, प्रकाश से चकचक कर रहा है।"
तारिणी कहीं दूसरी ओर ही देख रहा था, वह तत्परता से कह उठा, “अरे, उससे क्या होता है? बादलों के घिर आने में भला कितने क्षण लगते हैं? वो देखो, कऊआ खर-खतवार का टुकड़ा उठाए लिये जा रहा है, वह अपने घोंसले के कटे-फटे भाग की मरम्मत कर उसे ठीक करेगा। अब आज तो सुखिया तू यहीं रह, अब हम और कहीं नहीं जाएँगे। आज यहीं ठहरकर जरा बरसाऊ बादलों की गतिविधि देखें-समझें।"
नदी में नित्य-प्रति नैया खेनेवाले मल्लाह के प्राकृतिक निरीक्षण-परीक्षण में कहीं कोई भूल-चूक नहीं होती; साँझ की वेला में पूरा आकाश बादलों से छा गया। पछुआ बयार क्रमशः तेज से और तेज हो उठी।
तारिणी यकायक फैसला सुनाते हुए बोला, “सुखिया, अब उठो, चलने की तैयारी करो। अब हम अपने गाँव-घाट लौटेंगे।"
सुखिया घबराकर बोली, “ऐसी कुवेला में?"
तारिणी ने धीरज बँधाते हुए कहा, "तुझे किस बात का डर है ? मैं तो तुम्हारे साथ ही हूँ न! ले माथे पर मोटरी-गठरी के साथ बूंदा-बाँदी से बचाने के लिए टोपी भी रख ले। शुरू-शुरू की बरसात की बूंदा बाँदी का पानी बहुत खराब होता है।"
सुखिया ने कहा, “और तुम, बारिश में भीगने से अपने को बचाने के लिए क्या अपने सिर पर कुछ नहीं रखोगे? तुम्हारा शरीर क्या पत्थर का बना है ?"
आनंद भरी हँसी हँसते हुए तारिणी ने कहा, "अरे! तू इसकी चिंता मत कर। मेरा यह शरीर तो पानी से ही बना हुआ है; सूरज के घाम और गरमी में अकड़कर सिकुड़ जाता है, पानी पाते ही पुष्ट होकर फूलता-फैलता है। चल, ले आ, मोटरी-गठरी मुझे दे दे।"
आकाश में बादल धीरे-धीरे बढ़ते जा रहे हैं। हड़बड़ाए हुए बेपरवाह गति से बहनेवाली बयार के साथ-साथ रिमझिम-रिमझिम करते हुए थोड़ी सी बारिश भी हो जाती है। उसके बाद थोड़ी देर के लिए थम भी जाती है। परंतु फिर कुछ पलों के बाद ही बयार का वेग फिर से प्रचंड हो उठता है और उसके साथ-ही-साथ बारिश फिर पूरे वेग से पड़ने लगती है।
इस ओर आते हुए जहाँ उनके तीन दिन लग गए थे, घर लौटने की इस वेला में उतना लंबा वह मार्ग उन्होंने केवल दो दिन में ही पार कर लिया। अपने गाँव के अपने घर में पहुँचते-पहुँचते साँझ ढल आई। साँझ की उस वेला में अपने घर पहुँचते ही तारिणी ने कहा, “अब तू यहीं ठहर, मैं जरा नदी का घाट देख आऊँ।" दौड़ा-भागा घाट देखकर लौटा तो आनंद से उतावला होता तारिणी बोल उठा, “सुखिया, नदी तो अपने एक-एक कोने-कोने तक भर गई है, उसका कोई भी हिस्सा भरने से खाली नहीं बचा है।"
प्रात:काल की वेला में उठते ही तारिणी घाट पर जाने के लिए तैयार हो गया। उधर आकाश में उस समय बड़ा ही प्रचंड दुर्योग छा गया था। हवा तूफान की तरह चल रही थी और अपने साथ-ही-साथ झमाझम मूसलधार वृष्टि भी करती जा रही थी।
मध्य दुपहरी में तारिणी घर लौटते ही चहककर बोल पड़ा, “मैं जरा लोहार की दुकान पर जा रहा हूँ। वहाँ से शीघ्र ही लौटूंगा।"
सुखिया उत्सुकता दिखाते हुए बोली, “ऐसे ही क्यों जा रहे हो, कुछ भोजन-पानी करके तो जाओ।" भारी चिंता से अस्त-व्यस्त हुआ तारिणी कहने लगा-"नहीं, मेरी नौका की एक बड़ी कील खुल गई है। अगर वैसा नहीं होता-नहीं-नहीं, अगर थोड़ी सी बाढ़ होने पर ऐसा नहीं होता, तो भी कोई बात नहीं थी, परंतु इस बार तो नदी पूरी तरह से पारावार हो उठी है; चल, तू भी देख आ।"
अपनी खुशी में वह इतना मग्न हो गया कि जब तक बढ़िआई नदी को सुखिया को दिखा नहीं लिया, तब तक उसे नहीं छोड़ा। गाँव के पास लोगों का जो पोखरा था, उसके ऊँचे किनारे के ऊपर खड़ी होकर सुखिया ने मयूराक्षी नदी का परिपूर्ण रूप देखा। वह इतनी विस्तृत हो गई थी कि उसका आर-पार कहीं दिखाई ही नहीं देता था। गेरुआ रंग के उसके पानी की धारा के ऊपर जगह-जगह भारी- भारी मात्रा में उठते हुए फेन के बुदबुदे इस तरह बड़े वेग से बहते जा रहे थे, जैसे नदी धार में चढ़ाए हुए फूल के गुच्छे भागते जा रहे हों। तभी उसका ध्यान खींचते हुए तारिणी ने पूछा, "नदी की बहती धारा से सोंसों के स्वर में जो पुकार उठ रही है, उसे सुन रही हो? इस आवाज का मतलब है कि नदी की बाढ़ अभी और भी बढ़ेगी, अत: तू अभी घर चली जा। मैं नौका मरम्मत करवा लेने के लिए जा रहा हूँ, नहीं तो नदी पार कराकर सरकारी डाक का जो थैला मैं उस पार पहुंचाता हूँ, उसे कल पहुँचा नहीं सकूँगा।"
उसकी इस बात से घबराकर सुखिया कह उठी-"इस भीषण आँधी-तूफान और बारिश में ही..."
तारिणी ने उसकी इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया। उस अत्यंत भीषण और उग्र तूफानी परिस्थिति में ही वह बाहर चला गया।
जब वह उधर से लौटा, तब तक साँझ गहरा आई थी। वह बड़ी तेजी से कदम बढ़ाता आ रहा था कि तभी 'डुगडुग-डुगडुग' का शब्द कहीं से उठता सुनाई पड़ा। पहले तो उसे शंका हुई कि यह डुग्गी पीटे जाने की आवाज ही है अथवा नहीं? परंतु जब और स्पष्ट सुनाई पड़ा, तब उसे विश्वास हो गया कि यह डुग्गी की ही आवाज है। इसतरह की आवाज का अर्थ वह अच्छी तरह समझता है। मतलब यह कि कोई घनघोर विपत्ति जल्दी ही आनेवाली है। नदी के किनारे-किनारे गाँव-गाँव में जब यह डुग्गी पीटी जाती है, तभी यह समझ लेना होता है कि नदी में बाढ़ का स्तर खतरे के निशान को जल्दी ही पार पर जाएगा। फलत: एक महाविपत्ति शीघ्र ही आ धमकने वाली है।
तारिणी के गाँव के उस किनारे पर मयूराक्षी नदी है तो इधर के दूसरे किनारे की ओर एक छोटी सी कांतर अर्थात् छोटी शाखा नदी है। इस छोटी शाखा नदी के ऊपर बाँसों से एक पुल बना दिया गया है। बाँसों के उस पुल से होकर ही गाँव में प्रवेश करना होता है। तारिणी सड़क के रास्ते चलते-चलते बाँसों के उस पुल के पास तक आ पहुँचा; परंतु काफी खोजने-ढूँढ़ने पर भी उस पुल का निशान भी कहीं नहीं पा सका। अब उसके मन में शंका जगी कि कहीं वह रास्ता ही तो नहीं भूल गया? उस घुप्प अँधेरे में खड़े होकर काफी देर तक वह अंदाजा लगाता रहा; उस पुल का मुहाना अभी भी कम-से-कम एक सैकड़ा बीघे जमीन पर फैला है। नदी की बाढ़ का पानी किनारे की जिस ऊँचाई तक आता है, ठीक उसके पास ही वह आ खड़ा हुआ था। जल की सीमा अब बस उँगली की पोर भर ही दूर है कि तभी देखते-देखते उसकी गुड़हरी तक का पाँव का हिस्सा बाढ़ के पानी में डूब गया। नदी की धारा और लहरों से उठते हुए शब्द और प्रचंड वेग से बहती हुई हवा की ओर उसने कान लगा दिया; परंतु पानी के प्रवाह से उभरते भीषण शब्द के आगे कोई और शब्द सुनाई ही नहीं पड़ा। बस, एक और शब्द जो 'गों-गों' के रूप में फैल रहा था, सुनाई पड़ रहा है। देखते-देखते ही कुछ देर में उसका पूरा शरीर चींटी-चीटों, कीट-पतंगों से भर गया। मिट्टी के नीचे रहनेवाले और ऊपर रेंगनेवाले कीड़े-मकोड़े अपनी जगहों से भाग-भागकर ऊपर की ओर उठते जा रहे हैं। ऐसे ही जीव उसके शरीर पर चढ़ आए हैं। हैरान-परेशान होकर तारिणी पानी में कूद पड़ा। फिर बड़ी तेजी से मैदान में भरे हुए पानी को तैरकर पार कर लेने के बाद वह अपने गाँव में जा पहुँचा। परंतु गाँव में पहुँचकर जो कुछ देखा, उससे उसके होश ही हवा हो गए। गाँव के अंदर भी नदी की बाढ़ का पानी घुस चुका है। गाँव की गलियों, चौराहों, घरोंद्वारों सब जगह कमर तक पानी चढ़ गया है। रास्ते के घरों के ऊपर खड़े होकर गाँव के स्त्री-पुरुष दुःख भरी चीत्कार कर-करके उसे पुकार रहे हैं। गायों-बैलों, बकरियों-भेड़ों और कुक्कुटों की डरी हुई चिंघाड़ों से आसमान फटा जा रहा है। परंतु इन सारी चीत्कारों के शोर को दबाकर, इन सबके ऊपर छा गई थी मयूराक्षी नदी की घनघोर गर्जना। प्रचंड वेग से बहती हवा के थपेड़ों का अट्टहास और तूफानी वर्षा का वज्र-निनाद। जिस तरह लुटते हुए गृहस्थ के करुण-क्रंदन को दबाकर लूट-खसोट करनेवाले डकैतों की रोबदार गर्जना और क्रूर-अट्टहास छा जाता है, ठीक उसी तरह मयूराक्षी नदी की तूफानी हवा और भीषण बारिश का शब्द सभी चीखों-चिल्लाहटों के ऊपर छा गया।
बरसाती तूफानी रात का अँधियारा इतना गहरा हो गया है कि रास्ता-घाट कुछ भी पहचाना नहीं जा रहा। पानी के बीच जैसे-तैसे कदम बढ़ाते चलते रहने पर जाने किस चीज के ऊपर तारिणी के पैर जा पड़े, उसकी छुवन से ऐसा लगा कि वह वस्तु कोई जीव ही है। कमर से झुककर हाथ नीचे ले जाकर तारिणी ने उस वस्तु को ऊपर उठाकर देखा, बकरी का एक छौना है, परंतु अब जीवित नहीं रहा; मर चुका है। उसे वहीं फेंककर जैसे-तैसे अपने घर के दरवाजे के पास तारिणी आ पहुँचा और वहीं से जोर-जोर से पुकारने लगा-"सुखिया, अरे ओ सुखिया रे!"
घर के अंदर से प्रत्युत्तर में एक शब्द आया-एक असीमित आश्वासन से भरे कंठ से सुखिया ने उत्तर दिया, “घबराओ नहीं; यह देखो, अपने घर में मैं यहाँ हूँ।" अपने घर की चौहद्दी में प्रवेश कर तारिणी ने देखा कि उसके आँगन में कमर भर पानी भर चुका है। सामने की बैठक के चबूतरे पर घुटनों तक पानी में खड़ी होकर मड़ई की छाजन के बाँसों को दोनों हाथों से मजबूती से पकड़कर सुखिया खड़ी हुई है। तारिणी ने अपने मजबूत हाथों से उसका हाथ पकड़कर, एक झटके से उसे अपनी ओर खींचते हुए कहा, "आ चल, बाहर निकल आ। झंझा-तूफान के ऐसे खतरनाक समय में क्या घर के अंदर रहा जाता है ? कभी भी चरमराकर यह घर ढह जाएगा, फिर उसी में दबकर मर जाएगी रे!"
"तुम्हारे लिए ही तो सारे खतरे उठाकर यहीं खड़ी हूँ। अगर यहाँ नहीं रहती तो तुम्हीं बतलाओ कि मुझे कहाँ ढूँढ़ते-भटकते?"
सुखिया को साथ लेकर चलते-चलते पक्की सड़क पर पहुँचकर तारिणी खड़ा हो गया; फिर बोला, "तुम्हीं बताओ सुखिया कि अब क्या किया जाए?"
सुखिया ने दबी-दबी जबान में कहा, "अभी तो इस जगह पर ही ठहरे रहो। सब लोगों की जो दशा होगी, हम लोगों की भी वही होगी।"
चिंता भरे स्वर में तारिणी ने अकुलाकर पूछा, “अगर नदी की बाढ़ और अधिक बढ़ गई, तब क्या होगा रे सुखिया? पानी की धारा से उठती हुई 'गों-गों' की चिंघाड़ क्या तू सुन नहीं रही?"
सुखिया ने उसे हिम्मत बँधाते हुए कहा, “अब इसके बाद भी बाढ़ क्या और भी बढ़ेगी जी? अगर बाढ़ सचमुच ही और बढ़ जाएगी तो देश क्या बचा रहेगा? क्या भगवान् पूरी सृष्टि को ही नष्ट कर डालेंगे?"
सुखिया द्वारा दिलाए गए भरोसे को मान लेने, मन से ग्रहण कर लेने की तारिणी ने भरसक कोशिश की, परंतु वह इसमें सफल नहीं हो पाया।
तभी एक जोरदार हड़बड़-हड़बड़ करता धड़ाम का शब्द हुआ, जिसके बाद बाढ़ का पानी बहुत दूर-दूर तक छिटक गया। तारिणी ने सोच-विचारकर कहा, "हम लोगोंवाला घर ही ढह गया है रे सुखिया! अब यहाँ और मत ठहर। चल, यहाँ से दूर चलें। बाढ़ का पानी अब तो मेरी कमर के ऊपर उठ आया है, तुम्हारी तो छाती के जितना ऊँचा हो गया होगा!" ।
उसी अँधियारे में जाने कहाँ से किसी की आकुल कराह उठी, उसका ठीक-ठीक अनुमान नहीं लग पाया; परंतु इतना स्पष्ट हुआ कि किसी स्त्री के गले की कातर ध्वनि चक्कर लगा रही है-"अरे, ओ लोगो! मेरा नन्हा बच्चा मेरी छाती से छिटककर पानी में जा गिरा है। हाय रे मेरा बच्चा!"
तारिणी जल्दीबाजी करते हुए बोला, "सुखिया, तू यहीं पर ठहरी रहना, मैं पुकारूँ तो यहीं से आवाज देना, मैं स्वयं यहाँ पहुँच आऊँगा।" इतना कहकर वह उसी अँधेरे में गुम हो गया। बस केवल थोड़ीथोड़ी देर पर उसके कंठ से निकले कुछ शब्द सुनाई पड़ते रहे, “कौन चिल्ला रही है? कहाँ-किस ओर से बोल रही है ? किसका बच्चा गिर गया है ? साफ-साफ बोलकर बतलाओ तो जी।" दूसरे ही क्षण पलटकर उधर से आवाज आई-"मैं यहाँ, इस ओर हूँ।"
तारिणी फिर जोर से चीखा-"अच्छा, उस ओर।"
इसी प्रकार भिन्न-भिन्न कंठों से निकली आवाजों के संकेतों का आदान-प्रदान कुछ देरी तक चलता रहा, परंतु अंत में फिर इस तरह की आवाजों का उठना भी बंद हो गया। उसके काफी देर बाद तारिणी ने जोर से पुकारा-"सुखिया, अरे ओ सुखिया!"
सुखिया ने भी जोर से चिल्लाकर उत्तर दिया, "हाँ, मैं उधर हूँ।"
उसके कंठ की ध्वनि को लक्ष्य करता हुआ तारिणी उसके करीब जा पहुँचा। फिर हड़बड़ाहट में बोला, "वहाँ से निकल आ सुखिया, ले, मेरी कमर को अपनी बाँहों में ठीक से जकड़ ले; बढ़ती ही जा रही नदी की बाढ़ के रंग-ढंग कुछ अच्छे नहीं दिखाई दे रहे।"
उसकी इस बात का सुखिया ने कोई विरोध नहीं किया। बिना एक शब्द मुँह से निकाले ही उसने तारिणी की कमर के फेंटे को मजबूती से पकड़ लिया। तब उसके बाद धीरे से पूछा, "किसका बेटा गिर गया था, जी? क्या उसे ढूँढ़कर निकाल पाने में तुम सफल हो पाए ?"
"हाँ। सफल तो हुआ; उसे मैं पा भी गया और पहचान भी गया। वह भूपति मल्लाह का बेटा है।" तारिणी ने बड़े गंभीर लहजे में कहा।
बड़ी सावधानी से पानी को चीरते हुए वे दोनों बढ़ते चले जा रहे थे, परंतु जहाँ वे इस आशा में बढ़ते थे कि क्रमशः कम होते पानी की ऊँची जमीन की ओर पहुँच जाएँगे, वहीं इसके ठीक उलटे पानी क्रमशः बढ़ता ही जा रहा था। एक समय ऐसा आया कि अब सुखिया को पैदल चलवा पाना संभव नहीं रहा, तब तारिणी ने कहा, “सुखिया, तू मेरे गरदन से पकड़कर पीठ पर चढ़ जा।" उसने वैसा ही किया। कुछ देर बाद तारिणी हैरान होकर बोल उठा-"हम लोग अब इधर किस दिशा में आ पड़े रे सुखिया! यह...यह...तो "
उसकी बात पूरी हो पाए, इसके पहले ही वे दोनों अथाह पानी में डूब गए। परंतु दूसरे ही क्षण वे फिर उछलकर पानी के ऊपर आ गए। डूबने-उतराने के इसी क्रम में तारिणी बोला, "ऊँची जमीन की ओर बढ़ने की जगह हम लोग तो नदी में ही आ पड़े हैं, रे सुखिया! अब तू मेरी पीठ पर से उतर जा और मेरे कमर के फेंटे को जोर से पकड़कर हाथ-पाँव चलाती हुई, तैरते हुए उतराते रहने की कोशिश कर।"
वे दोनों-के-दोनों तैरते हुए चल तो रहे थे, परंतु अब तैरने की दिशा उनकी मनमरजी के अनुसार नहीं थी, बल्कि नदी की धारा उन्हें जिस ओर खींचे लिये जा रही है, वे उसी ओर बहते जा रहे हैं। अंधकार और भी गाढ़ा, और भी गंभीर हो गया है। 'हू-हू' शब्द करता हुआ तूफानी बताश (हवा का जोरदार झोंका) कान के पास हुँकार भर रहा है, और उसी के साथ मयूराक्षी नदी की बाढ़ के पानी का हुड़मुड़-हुड़मुड़ शब्द भी मिल गया है। सारा शरीर पानी में तो है ही, मुख का जो हिस्सा ऊपर है, उस पर और आँखों पर पड़ती हुई बारिश की बौछारें धनुष से फेंके गए बाण की तरह चोट पहुँचा रही हैं। बाढ़ की इस प्रबल धारा में तिनके के समान वे बहते ही रहे, बहते ही रहे। कितने समय तक उन्हें इस तरह बहते रहना पड़ा है, अब तो इसका अनुमान लगा पाना भी कठिन हो गया है। अब तो ऐसा जान पड़ रहा है कि जाने कितने दिनों, जाने कितने महीनों से वे इसी तरह लगातार बहते रहे हैं, जिसका कि कोई हिसाब-किताब ही नहीं है। उनकी देह क्रमशः अकड़ती जा रही है, जैसे कि अब कुछ भी कर पाने की शक्ति ही नहीं बची। मयूराक्षी की ऊँची लहरें नाक में पड़-पड़कर बीच-बीच में साँस लेना भी दूभर किए दे रही हैं। ऐसी हाल-बेहाल हालत में अचानक ही तारिणी को चिंता हुई कि अरे सुखिया के हाथ की मुट्ठी अब यह कैसे रूप की होती जा रही है? कंधों पर लदी उसकी देह क्रमशः भारी और भारी होती जा रही है। तब तारिणी ने ऊँची आवाज में पुकारा-"सुखिया! अरे ओ सुखिया रे!"
होश-हवास गँवाए पागल की-सी आवाज में सुखिया ने उत्तर दिया, "हाँ 'आँय?"
"तू तो बहुत अधिक डर गई लगती है, परंतु तुझे डरने की क्या जरूरत है ? मैं तो हूँ न तेरे साथ।"
उसके दूसरे ही क्षण में तारिणी ने अनुभव किया कि वे दोनों बहुत गहरे पानी के अतल-तल में चक्कर लगाते हुए डूबते-डूबते ही चल रहे हैं। स्पष्ट लग रहा है कि अब वे नदी की धार की भँवर में आ पड़े हैं। फिर तो उसने अपने शरीर की सारी शक्ति इकट्ठी करके पानी को ठेल देने की जोरदार कोशिश की। उसके कुछ देर बाद जान पड़ा कि अब वे पानी की धारा के ऊपर उठ आए हैं, परंतु एक कुशल मल्लाह होने के कारण तारिणी अच्छी तरह जानता है कि बस, अब यहीं पर एक बार फिर गहरे में डूबना पड़ेगा। अत: उस भँवर से छुटकारा पाने के लिए वह उससे परे-परे हटकर आगे तैर जाने की कोशिश करने लगा। परंतु यह क्या? यह सुखिया ये क्या कर रही है? उसने तो नाग-पाश की तरह तारिणी को बहुत कस के जकड़ लिया है ! वह अकुलाकर चिल्लाया- “सुखिया! अरे, ओ सुखिया रे!"
भँवर में चक्कर काटते-काटते अब वे फिर गहरे पानी के नीचे बह रहे हैं। सुखिया ने अपनी भुजाओं का जो बहुत ही जोरदार बंधन तारिणी के गले पर डाल रखा है, उसके कारण तारिणी की देह भी निश्चेष्ट हुई जा रही है। छाती के नीचे फेफड़े और हृदय-यंत्र जैसे फट गए हैं। सुखिया की भुजाओं ने जो जोरदार जकड़न लगा रखी थी, उसे ढीला करने की तारिणी ने कोशिश की। परंतु उसकी जकड़न तो और जोरदार, और भी मजबूत हो गई है। उसने इस कदर फँसरी लगा दी है कि साँस लेना भी मुश्किल हो रहा है-'थोड़ी सी हवा मिले, थोड़ी सी हवा मिले।' बस जरा सी प्राण-वायु मिल जाए, इसी कोशिश में भारी पीड़ा से विकल होते हुए तारिणी झपट्टा मारकर पानी को पकड़ने की कोशिश करने लगा। परंतु उसके ठीक दूसरे क्षण में ही उसका हाथ सुखिया के गले पर जा पड़ा। अपने दोनों हाथों के अत्यंत कड़े दबाव से बड़े क्रोधावेश में उसने सुखिया के गले को दबाया। उसका दबाना पागलों के-से उन्मत्त और भयानक आक्रोश जैसा ही हुआ। ऐसा लगा, जैसे उसके अत्यंत बलवान शरीर की सारी शक्ति एक ही जगह इकट्ठी होकर बस उसके हाथों की मुट्ठी में ही आ समाई है। उसके इस प्रकार जोरदार ढंग से सुखिया के गले पर वार करने का परिणाम यह हुआ कि अब तक उसकी देह पर जो एक बहुत भारी पत्थर का-सा भार पड़ा हुआ था तथा जो अपने दबाव और खिंचाव के कारण उसे गहरे पानी के अतल-तल में डुबोए खींचे लिये जा रहा था, वह अचानक ही खिसककर अलग हो गया और उसके साथ-साथ ही तारिणी फिर नदी की जलधारा के बिल्कुल ऊपरी सतह पर ऊपर उठ आया और तैरने लगा। 'आह् आह्'' उसने पूरी छाती भर बताश, प्राण-वायु को अंदर खींच लिया। नाक के रास्ते खींची गई प्राण-वायु से छाती को भरकर फुलाते हुए आकुल-व्याकुल भाव से उसने प्रकाश और धरती को पाने की मनोकामना की।