तमिल कहानियाँ : एक दृष्टि - डॉ. ए. भवानी
Tamil Kahaniyan : Ek Drishti - Dr. A. Bhawani
वैसे तो कहानी सुनने-सुनाने की प्रथा आदिकाल से चली आ रही है। दादा-दादी, नाना-नानी के मुख से कहानी उन दिनों बच्चे सुनते थे। इसमें आदर्श की बातें, नीतिपरक बातें और महान् व्यक्तियों की बातें, उनका इतिहास आदि प्रेरणाजनक कथाएँ निहित होती थीं, जिन्हें सुनकर बच्चे बहुत सारी अच्छी बातें सीखते थे। शैशवकाल में सुनी ऐसी आदर्श बातें बच्चों के मानसिक विकास एवं व्यक्तित्व निर्माण में सहयोग देती हैं। भारतीय संस्कृति और आचार-विचार की कई बातें पंचतंत्र कहानियों एवं आदर्शपरक कथाओं में निहित हैं। बच्चे इन से सीखते हैं और उनके मन पर स्थायी प्रभाव पड़ जाता है। विकसित मानव-समाज में किसी जाति या वर्ग की आशा-आकांक्षाओं, आदर्शों और जीवन-मूल्यों को समझने के लिए कहानियों का अध्ययन अत्यंत मूल्यवान हो जाता है। कहानियाँ मात्र मनोरंजन या कुतूहल की तृप्ति के लिए नहीं सुनी जातीं, अपितु किसी समाज के संगठन की अभिव्यक्ति, आशा-आकांक्षाओं और आदर्शों के माध्यम तथा संवेदन-संप्रेषण के संवाहक के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
साहित्य समाज का दर्पण है, तो कहानी मानव के दैनिक जीवन का प्रतिबिंब है। रा.कि. रंगराजन का कहना है-"कहानी चालीस पृष्ठों की हो या चालीस पंक्तियों की, उसका आरंभ, मध्य, अंत हो, कथानक गंभीर हो
और आकर्षण मोड़ हो।" उसे कहानी कहते हैं। अर्थात् कथानक, कथोपकथन, चरित्र-चित्रण, देश-काल -वातावरण, शैली प्रवाह आदि कहानी तत्त्वों के आधार पर लिखी जाए। पर आगे चलकर कहानियों की प्रवृत्ति में अद्भुत परिवर्तन आने लगे। वेद-पुराण, इतिहास, देवों, राजाओं से हटकर, सामाजिक कल्याण और सामान्य व्यक्तियों पर कहानियाँ लिखी जाने लगीं। व्यष्टि से समष्टि की ओर तमिल कहानियाँ धीरे-धीरे बढ़ने लगीं। स्वतंत्रता के बाद आज तक प्रकाशित कहानियों में ऐसी सैकड़ों कहानियाँ हैं, जो विश्वस्तरीय कहानियों की समानता करते हुए तमिल कहानी साहित्य के मुकुट में अलंकृत हुई हैं।
तमिल में आधुनिक कहानी की परंपरा सवा सौ वर्ष पुरानी मानी जाती है। कहानी कला की विधा यद्यपि तमिल साहित्य के लिए नई होते हुए भी कहानी बहुत पुरानी है। प्राचीन तमिल साहित्य में कहानी सुनाने की प्रथा कविता के माध्यम से थी। संघकाल की कविताओं में तथा प्राचीन युग की अन्य कविताओं में कथाकाव्य लिखने की परंपरा थी। आज की तरह उपन्यास और कहानियों की नई साहित्यिक विधा न होने पर भी कथा अवश्य होती थी। प्राचीन तमिल महाकाव्यों में प्रासंगिक कथाएँ बीच-बीच में होती थीं। संगमकाल की कविताओं में भी कथा-काव्य मिलते हैं, फिर भी छोटी कहानियाँ लिखने की परिपाटी यहाँ पाश्चात्य प्रभाव से ही ग्रहण की गई है। यह भी माना जाता है कि वीरमामुनिवर के नाम से इटली के प्रसिद्ध पादरी ने आकर यहाँ तमिल भाषा सीखी और कहानी लिखकर प्रकाशित भी की। उन्होंने पाश्चात्य कहानी—विधा को तमिल साहित्य में लाने का उत्तम प्रयास किया। परिणामस्वरूप अंग्रेजी साहित्य की नूतन विधाओं का परिचय तमिल पाठकों को मिला। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में तमिल गद्य साहित्य के विकास के समय तमिल के सुप्रसिद्ध राष्ट्रकवि सुब्रह्मण्यम भारती ने 1882-1921 के बीच अपने जीवनकाल में काव्य-रचना के व्यस्त क्षणों के बीच रवींद्रनाथ ठाकुर की ग्यारह प्रसिद्ध कहानियों का तमिल अनुवाद किया। इसे पढ़कर तमिल पाठकों को नई प्रेरणा मिली और इस नई विधा का परिचय मिला। इसी बीच व.वे. सु अय्यर ने भी पहली बार साहित्यिक स्तर की कहानियाँ लिखीं। उनके कहानी-संग्रह का नाम 'मंगैयरक्करसिन् कादल' है। इसके प्रकाशन के बाद तमिल साहित्यकारों को नई स्फूर्ति एवं प्रोत्साहन मिला। कहा जा सकता है कि अय्यर तमिल कहानी साहित्य के जनक हैं। प्रारंभिक दौर की इन कहानियों में घटना–वैविध्य पाया जाता है, पात्रों के चरित्र चित्रण एवं मानसिक भावों के चित्रण के प्रति कहानीकारों का ध्यान कम गया है। कहानियाँ सोद्दश्य होती थीं, उनमें समाज-सुधार का स्वर तीव्र रहा।
कहानी-साहित्य का अगला चरण स्वातंत्र्योत्तरकाल रहा। गांधीजी के असहयोग आंदोलन और स्वतंत्रता की लड़ाई में कई सेनानियों के साथ साहित्यकार भी जुड़ गए। भारतवर्ष की जनजागृति एवं नवजागरण का यह युग तमिल साहित्य का महत्त्वपूर्ण युग माना जा सकता है। तमिल कहानी के विकास एवं प्रगति के लिए समर्पित उच्चकोटि के तमिल साहित्यकार 'पुदुमैपित्तन' के साथ-साथ कु.प. राजगोपालन, ना. पिच्चमूर्ति, बी.एस. रामैया, सि.सु. चेल्लप्पा, मौनी, 'कल्की', ता.ना. कुमारस्वामी आदि प्रमुख कहानीकारों ने तमिल कहानी साहित्य की श्रीवृद्धि में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसी युग में तमिल पत्रिका 'मणिक्कोडि' का भी योगदान रहा, जिसमें तमिल कहानियाँ नियमित रूप से छपती थीं। सन् 1930 के आस-पास इस पत्रिका का आविर्भाव तमिल साहित्य के क्षेत्र में एक भोर का तारा माना जाने लगा।
बीसवीं शती के तीसरे-चौथे दशकों में तमिलनाडु के सामाजिक जीवन में 'विवेकवादी आंदोलन' का बोलबाला रहा। ई.वे. रामस्वामी पेरियार का चिंतन-प्रवाह, प्रचारात्मक भाषण, तीव्र रूप से लिखी उनकी रचनाओं का प्रभाव जनमानस पर पड़ने लगा। अनगिनत युवा इस आंदोलन में भाग लेने लगे। सी.एन अन्नादुरै उनमें प्रमुख युवा लेखक थे। इन कहानीकारों की रचनाओं में एक नया उद्वेग, नई दृष्टि, नई चेतना दर्शित है। 'विवेकवादी आंदोलन' से प्रेरित चिंतन-प्रवाह एवं सिद्धांतों को प्रचारित करने में तीव्रता दिखानेवाले द्रविड़ आंदोलन से जुड़े लेखकों ने अपनी कहानी में समाज की तीव्र आलोचना करते अपने विद्रोह को स्वर दिया।
सन् 1970 के बाद की तमिल कहानियों में तत्कालीन सामाजिक स्थितियों और विद्रूपताओं का चित्रण देखा गया, लेकिन अधिकांश वाणिज्यिक पत्रिकाओं का आविर्भाव हुआ, पर कुछ ही समय में पैसे के अभाव में बंद हो गई। फिर भी लघु पत्रिकाओं ने कहानी के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस युग के बारे में श्रीमती शिवशंकरी का कथन दृष्टव्य है-"साठ के समय परोक्ष रूप में चित्रित विषय, यथार्थपरक जीवन चित्रण से युक्त होने पर भी उसे जो समाज-स्वीकृति मिली थी, उससे लेखन में ध्वनि लेखन धुल गई और सत्रह में प्रकाशित कई कहानियाँ इसी कारण से विषैला साहित्य मानी जाने लगीं।" जब कोई साहित्य सामाजिक परिवेश तथा जीवन-मूल्य के साथ-साथ चलता है तो वह चिरकाल स्थायी स्थान प्राप्त करता है। इस काल की कहानियों में यथार्थ की अभिव्यक्ति को बल मिला। उल्लेखनीय कहानीकारों में अशोक मित्रण, पूमणि सुंदर रामस्वामी, मंजिल नादन, चूड़ामणि, अंबै आदि कहानीकार हैं। आंचलिक कहानियों में करिसल मिट्टी से जुड़ी कहानियाँ भी इस काल की देन हैं। इनमें तमिलसेल्वन, अ. मुत्तानंदन, वेलुसामी, कु. अलगिरिस्वामी आदि उल्लेखनीय हैं। अस्सी की कहानियों के बारे में डॉ. अरसू का कथन दृष्टव्य है-"तमिलनाडु के गाँवों को समझने के लिए एक अलग तरीका अपनाना आवश्यक है। करिसल, नांजिल, करुवक्काडु, कोंगु आदि रूपों में कहानियाँ उपलब्ध हैं।" कुछ लोगों का विचार है कि सत्तर-अस्सी की कहानियों में जो चिंतन, उच्च विचार, लगन, नैतिकता आदि बातें थीं, वे बाद की कहानियाँ में नहीं थीं। यह भी माना जाता है कि चालीसपचास वर्ष पहले की कहानियों में नागरी जीवन, पारिवारिक रिश्ते, सामाजिक समस्याएँ आदि विषयगत विशेषताएँ रहीं। मध्य वर्ग की समस्याएँ, मानव का अकेलापन, मानसिक घुटन, प्रेम, मित्रता आदि बातें ही प्रधान रहीं, क्योंकि मानव में निहित उनका शोक, तड़प, खोज, इच्छा आदि का अस्तित्व ही कहानियों में देखा गया। समय के साथ-साथ आज का समाज और राजनीतिक परिवेश सबका असर कहानियों पर पड़ा। वर्तमान उत्थान काल में तमिल कहानी साहित्य के विकास में लगे कई उल्लेखनीय कहानीकार उभरकर सामने आते हैं, जिनमें प्रमुख रूप से जयमोहन, भामा, पावण्णन, जयप्रकाशम्, इम्यम, चाणक्यन्, एस. रामकृष्णन्, श.कि. मुत्तू का नाम आदर के साथ लिया जा सकता है।
आज आंदोलित तमिल साहित्य विधाओं में स्त्री विमर्श, वैश्वीकरण, उत्तर–आधुनिकता की प्रवृत्तियाँ आदि सभी क्रांतिकारी स्वरों को हम तमिल कहानियों में देख सकते हैं। सुंदर रामास्वामी के कथनानुसार-"आम तौर पर यह कह सकते हैं कि इस सदी में, जो नवीन तमिल साहित्य निकला है, वह मध्य वर्ग की क्रांति का प्रयास करता है। आध्यात्मिक मूल्यांकन का झंडा उठानेवाला मध्य वर्ग, लोकायत सफलता पाने हेतु संघर्ष करता है।" स्पष्ट है कि इस युग में मध्यवर्गीय लोगों के जीवन की दशा और लेखकों की स्थिति का वास्तविक परिचय मिलता है। इसके अतिरिक्त तमिल कहानी साहित्य का अपरिमित विकास इस युग की देन है।
आज विदेशों में भी तमिल साहित्यकार हैं। मलेशिया, सिंगापुर, श्रीलंका, अमरीका आदि देशों में तमिल साहित्यकार निवास करते हैं। ये अपनी साहित्यिक विधाओं द्वारा कहानी, कविता, उपन्यास, निबंध, नाटक आदि की रचना से तमिल साहित्य में अद्भुत योगदान दे रहे हैं। ऐसे साहित्यकार लेखन को अपनी आजीविका का साधन नहीं मानते, न धन कमाने का उद्देश्य ही इन्हें है, अपितु निस्स्वार्थ भाव से तमिल साहित्य के विकास में अपना योगदान दे रहे हैं। इसके अतिरिक्त कुछ प्रगतिशील कहानीकार भी हैं, जो पिछड़े दलित वर्गों की समस्या एवं उनके जीवन संघर्षों को कथ्य का विषय बनाकर लिख रहे हैं।
किसी एक वर्ग की रुचि के अनुकूल चलकर कहानियों की रचना संभव नहीं है, क्योंकि कथा-साहित्य विविध रूपों और विविध शैलियों में निर्मित हो सकता है। तमिल में भी कहानी साहित्य और उपन्यास साहित्य विविध रूपों में विकसित हुआ। युग के अनुसार, समाज में होनेवाले परिवर्तन के अनुरूप साहित्य का रूप, स्वर बदलता गया, और तमिल कहानी साहित्य भी अपनी वैविध्य विशेषताओं से उभरकर सामने आई। जिस प्रकार लेखक की कई दृष्टियाँ होती हैं, इसी प्रकार पाठक की भी कई उम्मीदें और माँगें होती हैं। उसे पहचानकर लिखने में ही एक साहित्यकार की प्रतिभा निहित है। तमिल साहित्यकार उसके अपवाद नहीं। नए शिल्प-शैली, भाषागत प्रयोगों को अपनाते हुए आज तमिल कहानी साहित्य क्षितिज को छूने का प्रयास कर रहा है।