ताज की छाया में (कहानी) : अज्ञेय
Taj Ki Chhaya Mein (Hindi Story) : Agyeya
कैमरे का बटन दबाते हुए अनन्त ने अपनी साथिन से कहा, “खींचने में कोई दस मिनट लग जाएँगे-टाइम देना पड़ेगा।” और बटन दबाकर वह कैमरे से कुछ अलग हटकर पत्थर के छोटे-से बेंच पर अपनी साथिन के पास आ बैठा।
वह सारा दिन दोनों ने इस प्रतीक्षा में काटा था कि कब शाम हो और कब वे चाँदनी में ताजमहल को देखें। दिन में उन्हें कोई काम नहीं था; लेकिन दिन में आकर वे पाँच-सात मिनट में ही एक बार ताज की परिक्रमा करके चले गये थे, यह निश्चय करके कि शाम को ही पूर्णप्राय चन्द्रमा की शुभ्र देन से अभिभूत-व्याकुल, वे उसे देखेंगे और उसी समय फ़ोटो भी लेंगे।
अनन्त ने घड़ी देखी, और फिर धीरे-धीरे बोला, “देखो, ज्योति, आखिर वह क्षण भी आया कि हम ताज को देख सकें - तुम्हें याद है, तुम कहती थीं, कभी मैं तीर्थ करने निकलूँगी तो पहले यह तीर्थ करूँगी देखो...”
ज्योति ने उत्तर नहीं दिया। मानो उसके आदेश को मानते हुए, अपलक दृष्टि से सामने देखती रही।
साँझ के रंग बुझ चुके थे-सन्धि-बेला नहीं थी, निरी रात थी, अकेली और अतिश : रात... और अनन्त की आँखों के सामने, ज्योति की आँखों के सामने, सरो वृक्षों की सम्मिश्रणहीन श्यामता के ऊपर एकाएक ही प्रकट हो जाती थी रौज़े की दूषणहीन शुभ्रता।
बैठे-बैठे अनन्त का मन भागने लगा, उसे लगा कि संसार-भर का अँधेरा, पुंजीभूत होकर वहाँ एकत्र हो गया है, मानो ताज का गौरव बढ़ाने के लिए; और उसके ऊपर विश्व-भर की चाँदनी भी साकार होकर, अस्थूल पैरों से दबे-पाँव आकर, अनजाने में स्थापित हो गयी है और चाँदनी भी ऐसी, जो मानो अपने-आप में नहाकर निखर आती है, अतिश : चन्द्रिकामय हो गयी है। ...क्यों है इतना निष्कलंक सौन्दर्य पृथ्वी पर? क्यों किसी का इतना सामर्थ्य हुआ कि वह अकेला ही इतने साधन इकट्ठे कर सके, इस अनुपम विराट स्मारक की सृष्टि कर सके।
...सौन्दर्य का पूरा अनुभव करने के लिए क्या निर्वेद अवस्था ज़रूरी है?
क्या ज़रूरी नहीं है? सौन्दर्य वह है, जिसकी अनुभूति में हम ऐहिक सुख-दुख से परे निकल जावें, यानी भावानुभूति से परे चले जावें; पर सौन्दर्य की अनुभूति तो स्वयं एक भाव ही है।
उसे एक कहानी याद आयी। जाने कब उसने पढ़ी थी - ताजमहल को देखकर मन के किसी गहरे तल से उफन कर ऊपर आ गयी। ऐसे ही एक स्मारक की कहानी थी, जो किसी सम्राट् ने अपनी प्रेयसी के लिए बनवाया था।
जब सम्राज्ञी मर गयी, तब सम्राट् ने देश-भर कलाकार एकत्र करके हुक्म दिया, ‘मेरी प्रियतमा की स्मृति में एक ऐसी इमारत खड़ी करो, जैसी न कभी देखी गयी हो, न कभी देखी जाय। चन्द्रिका लजा जाय, तारे रो पड़ें, एसा हो उसका सौन्दर्य। और मेरी सारी प्रजा, मेरा कुल राजकोष इस विराट् उद्देश्य के लिए अर्पित है। नहीं, मैं स्वयं भी इसी यज्ञ में आहुति दूँगा - मैं आज के अपने महल के तहख़ाने में अन्धकार में पड़ा रहूँगा, और मेरी आँखें तब तक कुछ नहीं देखेंगी, जब तक वह स्मारक तैयार न हो जाय - जो वैसा ही अद्वितीय सुन्दर हो, जैसी कि मेरी प्रियतमा थी।”
सम्राट चले गये। और राष्ट्र-भर की शक्तियाँ उस तीन हाथ लम्बे और हाथ-भर चौड़े क्षार-पुँज के आस-पास केन्द्रित होने लगीं, और स्मारक धीरे-धीरे खड़ा होने लगा।
दिन बीते, महीने बीते, वर्ष बीते। दस वर्ष बीत गये। एक दिन कलाकारों ने जाकर सूचना दी,” सम्राट् बाहर पधारें, भवन तैयार हो गया है।”
सम्राट आये। अन्धकार में रहते उनके केश पीले पड़ गये थे, त्वचा मानो झुर गयी थी, और आँखों की ज्योति चली गयी थी।
सम्राट् ने भवन देखा। सचमुच उनकी साधना, उनेक प्रतिपालित समूचे राष्ट्र की साधना सफल हो गयी थी-दिवंगता सम्राज्ञी की तरह अद्वितीय सुन्दर था वह भवन। सम्राट् को रोमांच हो आया, हाथ-पैर भावातिरेक से काँपने लगे; पर एक उन्मत्त आवेश में वह आगे बढ़े, भवन के भीतर, जहाँ काले प्रस्तर के निर्मम, निःस्पन्द आलिंगन में सम्राज्ञी का निःस्पन्द शरीर बँधा हुआ था।
“आह, सुन्दरता...” कहते-कहते सम्राट् की दृष्टि उस काले पत्थर की समाधि पर पड़ी-और उनकी ज़बान रुक गयी, वह तल्लीनावस्थ टूट गयी, उन्होंने क्रुद्ध आज्ञा के स्वर में कहा, ‘इस कुरूप चीज़ को यहाँ से उठवा दो, भवन का सौन्दर्य बिगाड़ रही है!”
इतनी ही कहानी थी। बिलकुल छोटी; मामूली; लेकिन मानव-हृदय का कितना गहरा ज्ञान है इसमें - मानवीय प्यार की कितनी वज्र-कठोर परिभाषा! यह सच है। लेकिन क्या सचमुच यही मात्र सच है? इतना ही है प्रेम का अमरत्व? फूल जो झर जाएँगे, और जिनके बाद रह जाएँगे -काँटे, और उनमें सनसनाता हुआ अन्धड़-
फूल फूल हैं, खिलकर झर जावेंगे रातों-रात-
कल काँटों में सन्नाता रोवेगा झंझावात!
पर, काँटे क्यों? न सही प्रेम अमर; पर उसके शव पर जो स्मारक खड़े होने हैं, उनका सौन्दर्य तो अमर हो सकता है-मिस्र के पिरामिड की तरह अचल, परिवर्तनहीन अमर।
पिरामिड भी क्या ऐसे ही बने थे? और एक और कहानी याद आयी - पहले की-सी कठोर, और मानव-हृदय के विश्लेषण - नहीं, चीरफाड़ - में उतनी ही सच्ची और अपने मन में उसको कहते हुए अनन्त का शरीर काँप गया - ‘मिस्र के फ़राऊन की एक लड़की थी-’
अनन्त शरीर के कम्पन को ज्योति ने भाँप लिया। अपने हाथ से बेंच पर अनन्त का हाथ टटोलते हुए कोमल आग्रह से बोली, “क्यों, क्या सोच रहे हो?”
“एक कहानी याद आ रही थी-”
“क्या?”
अनन्त ने धीमे स्वर में सम्राज्ञी के स्मारक की कहानी कह दी। ज्योति सुनते-सुनते अपना मनोयोग दिखाने के लिए ‘हूँ’ करती रही थी; लेकिन कहानी का अन्त होते समय एकदम शान्त सी हो गयी और चुप रही। थोड़ी देर बाद बोली - “तुम काँपे क्यों थे?”
“वह? वह और बात थी।”
“क्या?”
“यों ही-”
“तो भी-”
“मैं सोच रहा था, सजीव आदमी के प्यार से, उसका निर्जीव स्मारक बनाना स्थायी होता है, तब तो प्यार करने की अपेक्षा प्यार का स्मारक बनाना ही अधिक लाभकर है।”
ज्योति ने अन्यमनस्क स्वर में कहा, “तो...”
“मुझे एक कहानी याद आयी थी। मिस्र देश के एक फ़राऊन ने अपनी लड़की को यही राय दी थी-”
“क्या?”
“लड़की की अपार रूप-राशि की कीर्ति देश-विदेश में फैली हुई थी। जब वह युवती हुई, तब उसने विवाह करने का निश्चय किया। वह कल्पना करने लगी, संसार में कहीं उस-सा ही सुन्दर कोई राजकुमार होगा, जिससे वह विवाह करेंगी; और उन दोनों-सा ही अनुपम और अपरिमति होगा उनका प्रेम, जिसके द्वारा वह अपने को अमर कर जाएगी। उसने पिता से जाकर कहा -‘पिता, मैं विवाह करूँगी।’
“पिता ने पूछा, ‘क्यों?’
“मैं प्रेम में अमर होना चाहती हूँ।’
“प्रेम में अमर? और ऐसे?’
“कन्या ने कुछ लजाते हुए कहा, ‘और मैं यह भी चाहती हूँ कि अपने पीछे कुछ छोड़ जाऊँ, जिससे लोग मेरा नाम लें और मेरी स्मृति बनी रहे।’
“अनुभवी पिता ने मुस्कराकर कहा, ‘तुम अमरत्व चाहती हो न, अमरत्व?
वह ऐसे नहीं मिलेगा, क्योंकि आदमी का प्यार क्या चीज़ है? बालू की लिखत-पानी का बुलबुला - अमरत्व मैं तुम्हें दूँगा; बोलो, मेरी बात मानोगी?’
“कन्या ने कहा, ‘हाँ, मैं अमरत्व चाहती हूँ। आप आज्ञा कीजिए।’
“सम्राट् ने देश-देशान्तर में हरकारे भेजकर घोषणा करवा दी कि फ़राऊन की लड़की स्वयंवर द्वारा शादी करना चाहती है, जितने प्रणयार्थी हों, वे राजधानी में आकर आवेदन करें। अपनी पात्रता प्रमाणित करने के लिए काली वज्रशिला का एक-एक खण्ड लेते आवें।
“विवाहेच्छु युवकों का ताँता बँध गया; लेकिन फ़राऊन के आज्ञानुसार राजकन्या के दर्शन किसी को प्राप्त नहीं हो सके। सब आ-आकर वज्रशिला खंड एक निर्दिष्ट स्थान पर जमा करते जाते और यह समाचार पाकर लौट जाते कि राजकुमारी ने उन्हें पसन्द नहीं किया।
“कई वर्ष हो गये और यही क्रम जारी रहा। शिलाखंडों का ढेर बढ़ता गया, निराश युवकों की संख्या बढ़ती गयी, और राजकन्या का यौवन भी पराकाष्ठा तक पहुँचकर ढलने लगा। एक दिन उसने खिन्नमन होकर पिता से कहा - ‘पिता, अब तो मेरा शरीर भी जर्जरित होने लगा, अब बताइए, मैं अमरत्व कब पाऊँगी?’
“फ़राऊन उसे महल की खिड़की के पास ले गये और उसे खोलते हुए बोले, ‘बेटी, तुम तो अमर हो गयीं - वह देखो, तुम्हारा अमरत्व!’
“बेटी ने बाहर झाँका। सामने सान्ध्य प्रकाश में लोहितवर्ण पिरामिड चमक रहा था। पिता ने कहा, ‘वह देखो, बेटी! अब तुम क्या करोगी मानव का प्यार...’ “
अनन्त एकाएक चुप हो गया। फिर बोला, “उफ़, कैसी कहानी है यह...”
ज्योति ने धीरे-धीरे अपना हाथ खींच लिया। दोनों फिर चुप हो गये।
मिनट-भर बाद ज्योति ने फिर पूछा, “अब क्या सोच रहे हो?”
वह अनन्त की ओर देखती नहीं थी, देख वह अपलक दृष्टि से ताज की ओर ही रही थी; फिर भी जाने कैसे अनन्त का नाड़ी-स्पन्दन निरन्तर उसमें प्रतिध्वनित हो जा रहा था।
कुछ चुप रहकर अनन्त बोला, “बताओ, क्या दिन के प्रकाश में प्यार भी उतना ही कठोर लगता है, कितना कि पत्थर?”
ज्योति ने कुछ विस्मय से कहा, “क्यों, क्या मतलब? मैं नहीं समझी।”
“आज दोपहर को देखा था, ताज कितना बेहूदा लग रहा था? क्यों? इसलिए कि पत्थर भी कठोर है; दोपहर की धूप भी कठोर है और दोनों एक साथ तो... तभी दोपहर को लग रहा था, जैसे किसी ने निर्दय हाथों से ताज की सुन्दरता का अवगुंठन उतार लिया हो, उसे नंगा कर दिया हो। लेकिन अब चाँदनी में-ऐसा लगता है कि ओस की तरह चाँदनी ही जमकर इकट्ठी हो गयी हो।”
“नहीं, तुम और कुछ सोच रहे थे - बताओ न?” कहकर ज्योति ने फिर अनन्त के हाथ पर अपना हाथ रख दिया।
अनन्त को नहीं लगा कि प्रतिवाद करने की ज़रूरत है, या उसे झूठ बोलने पर लज्जित होना चाहिए। उसका अपने मन की बात न कहकर और बात कहना और ज्योति का इस बात को फ़ौरन ताड़ जाना उसे बिलकुल ठीक और स्वाभाविक लगे। वह फ़ौरन ही कहने लगा, “हाँ, दोपहर को ताज की परिक्रमा करते समय मैंने किसी को कहते सुना था कि एक बार विलायत से एक मेम वहाँ आयी थी और ताज को देखकर कहती थी, अगर मुझे कोई लिखकर दे दे कि मुझे यहीं दफ़नाया जाएगा, तो मैं अभी यही मर जाऊँ - इतनी प्रभावित हुई थी वह इसके सम्मोहन सौन्दर्य से। मैं यही सोच रहा था, कैसी भावना है यह-क्या इसका मूल्य जीवन से अधिक है?”
ज्योति ने अनन्त का हाथ झटक दिया। वह चौंककर बोला, “क्यों, क्या हुआ?”
“दो-दो बार झूठ बोलोगे? बताओ, क्या सोच रहे थे?’
“सच तो बता रहा हूँ-”
“भला मैं नहीं जानती - झूठे कहीं के!”
“अच्छा, तुम कैसे जानती हो-”
ज्योति क्या बताये कि कैसे जानती है? जैसे वह जानती है वह बताने की बात नहीं, न उसे कहने आता है। एक बीज कहता है, जब अंकुर फूटता है, तब बीज के दो आधे हो जाते हैं, तो अंकुर किसका अधिक होता है - कौन उसका अधिक अपना अपना होता है? और अंकुर की अत्यन्त सुकुमार जड़ों में जब रस खिंचता है, तब वे बीजांश कैसे जान लेते हैं कि जीवन का प्रवाह जारी है? ज्योति जानती है कि अनन्त कुछ कहना चाहता है जो उससे कहते नहीं बन रहा, वह उसकी इतनी गहरी अनुभूति है कि सचमुच निकलती ही नहीं, झूठ की आड़ में ही आ सकती है जैसे मिट्टी के नीचे रसोद्भव-ज्योति जानती है, और बस जानती है, कैसे कहे कि कैसे...
ज्योति ने कहा, “नहीं, तुम बताओ, मुझे मेरे शिशु-स्नेह!”
जाने क्यों, इस सम्बोधन का आग्रह अनन्त नहीं टाल सकता। वह कुछ सरककर, ज्योति से कुछ विमुख होकर, ताज की ओर देखते हुए ही कहने लगा, “मैं सोच रहा था, यदि तुम इस समय न होतीं, तो मैं यहीं सिर पटककर समाप्त हो जाता - यहाँ दफ़नाए जाने के मोह के बिना भी। वैसी गारंटी, मुझे लगता है, अपने आत्मदान का अपमान करना है।”
“ मैं साथ न होती, तब-यह कैसी बात?” - ज्योति ने कुछ सम्भ्रान्त स्वर में कहा।
अनन्त चुप। फिर कुछ और भी विमुख होकर, कुछ लज्जित-से और बहुत धीमे स्वर में वह बोला, “इसलिए कि तुम साथ हो, तब मेरा अपना अलग व्यक्तित्व इतना नहीं है कि मैं लुटा सकूँ-इस ताज पर भी लुटा सकूँ-”
उस समय अधिक लोग वहाँ नहीं थे; लेकिन ज्योति को लगा, क्यों उनके अतिरिक्त एक भी व्यक्ति वहाँ है? कोई न होता तब... पर उस समय उसने केवल अनन्त का हाथ दबा दिया था।
अनन्त का मन फिर भटकने लगा। तीन शब्द उसके मन में घूम-घूमकर आने लगे - मृत्यु, प्रेम, अमरत्व। और धीरे-धीरे, मानो चारों से, एक शब्द और साथ आकर मिल गया - निर्धनता।
लेकिन, निर्धनता क्यों? क्या प्रेम को अमर बनाने के लिए धन की ही आवश्यकता है? यदि है, तो क्या है वह प्रेम!
कवि भी तो हुए हैं, जिन्होंने अमरता प्राप्त की है - क्या धन-सम्पत्ति के जोर से? प्रेम के उन अमर गायकों में ऐसे भी तो थे, जिनको पेट-भर भोजन नहीं मिलता था। पेट-भर भोजन, हृदय-भर प्यार - ये अलग-अलग चीज़ें हैं।
अनन्त धीरे-धीरे तर्कना के क्षेत्र से परे जाने लगा - भावों की नदी में बहने लगा। और वैसे ही धीरे-धीरे उसके प्रश्न, उसके सन्देह, उसकी आशंकाएँ मिटने लगीं, और उस पर छाने लगा, अतिशय आत्मदान का आनन्दमय उन्माद-वह कवि हो गया - कविता उसमें से फूट पड़ने लगी।
उसने जाना-जाना नहीं, अनुभव किया-कि उसका और ज्योति का प्यार इसी में अमर है कि उन दोनों ने इस विराट् सौन्दर्य को प्रेम के इस अमर स्मारक को साथ देखा है।
और बिना चाहते उसके मन में प्रेरणा उठी, वह इस भावना को कविता में कह डाले, किसी तरह प्रकट कर दे, इतना विवशकर था उसका दबाव; पर वह कविता जी रहा है, तो कविता वह कह भी सकेगा, ऐसा तो नहीं है।
वह कहना चाहता था; मैं अनन्त नाम का एक क्षुद्र साधनहीन व्यक्ति हूँ, कला मुझमें नहीं है, रस मुझमें नहीं है - आत्माभिव्यंजना का कोई साधन भी मेरे पास नहीं है, न मैं किसी साधन का उपयोग करना जानना हूँ - क्योंकि मैं अनन्त नाम का एक क्षुद्र व्यक्ति मात्र हूँ। पर-क्या यही मेरे लिए गौरव की बात नहीं है कि मैं कला में अपने को खो सकता हूँ, दूसरों के प्रेम में, दूसरों की साधना में निमग्न हो सकता हूँ - मेरे लिए, और हाँ, ज्योति, तुम्हारे लिए भी गौरव की बात...
क्योंकि, ज्योति, इस विराट् रचना के आगे, प्रेम के इस दिव्य स्मारक की छाया में, कन्धे से कन्धा मिलाये और अँगुलियाँ उलझाए बैठे हुए हमें भी अमरता प्राप्त हुई है - हमें, जो निर्धन हैं, साधन हीन हैं, किन्तु जो फिर भी दानी हैं, क्योंकि उनके पास साधन हैं। सामने हमारे सौन्दर्य है, जिसमें हम तन्मय हैं, तब हम भी सौन्दर्य के स्रष्टा हैं, अमर हैं।
यह सब वह कहना चाहता था-पर कह नहीं पाया। एक पंक्ति उसके मन में आयी-‘प्रिये, यही है अचिर अमरता का क्षण’, पर इसके बाद उसका मस्तिष्क जैसा सूना हो गया, और बार-बार ‘यही है, यही है’ कि निरर्थक आवृत्ति करने लगा। उसने जेब का काग़ज़-पेन्सिल निकाली, यह पंक्ति उस पर लिखी-शायद इस आशा में कि उससे मन कुछ आगे चले; नहीं... यही है, यही है, यही है...
ज्योति ने पूछा, “क्या लिख रहे हो?”
अनन्त ने काग़ज़ फाड़कर फेंक दिया और बोला, “कुछ नहीं, इतना यथार्थ था कि कविता में नहीं आता।”
“क्या?”
“कि ताज के इस सौन्दर्य को एक साथ अनुभव करने में ही हम अमर हो गये हैं।”
ज्योति ने अपन सिर कोमलता के आर्द्र स्पर्श से अनन्त के कन्धे पर रख दिया। उसके सूखे बालों की एक लट अनन्त के ओठों के कोनों को छू गयी। अनन्त ने जाना, उनमें एक सुरभि है, जो उनकी आत्यन्तिक है, और जिसकी तुलना के लिए उसे कुछ सूझता नहीं।
ज्योति ने पूछा, “वह मुमताज बेग़म का प्रसाद तुमने ठिकाने रखा है न - वह फूल, जो मैंने कब्र पर से उठाकर कर तुम्हें दिया था?”
अनन्त ने धीरे से कहा, “उससे भी बड़ा प्रसाद है मेरे पास इस समय - “ और सिर एक ओर झुकाकर, ठोड़ी से ज्योति का सिर दबा लिया।
तभी ज्योति ने कहा, “और तुम्हारी फ़ोटो?”
अनन्त चौंककर उछल पड़ा। कैमरे का शटर बन्द करते-करते उसे लगा, एक बड़ा महत्त्वपूर्ण क्षण बीत गया है - उसके जीवन का एकमात्र क्षण।
कैमरा उठाकर उसने कहा, “चलो, चलें।” उसके स्वर में गहरा विषाद था।
ज्योति ने कहा, “चलो।” और उठ खड़ी हुई।
कविता की वही पंक्ति ‘प्रिये यही है, अचिर अमरता का क्षण’ फिर अनन्त के मस्तिष्क में गूँज गयी; लेकिन अभी ही उसे लगा, जैसे उसका अर्थ नष्ट हो गया हो।
(लाहौर, फरवरी 1936)