स्वराज्य और स्वभाषा (निबंध) : हजारीप्रसाद द्विवेदी

Swarajya Aur Swabhasha (Hindi Nibandh) : Hazari Prasad Dwivedi

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हमने अपने देश में लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था को स्वीकार किया । लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था का अर्थ यह होता है कि हमारे देश की जनता के चुने हुए लोग देश की कानून और व्यवस्था का संचालन करें। यह शासन व्यवस्था जनता के द्वारा स्थापित होती है और जनता के हित के लिए कार्य करती है। हमारे देशवासियों की प्रकृति के अनुसार और उसके ऐतिहासिक विकास को दृष्टि में रखते हुए ऐसे नियम बनाने पड़ते हैं, जो ठीक उसी प्रकार बने हुए अन्य देशों के नियमों से कुछ भिन्न होते हैं। हमारे देश का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। इसमें विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों, नस्लों और जातियों के लोग बसते हैं। उनकी अपनी परम्पराएँ भी कुछ अलग-अलग हैं। इस प्रकार हमारे राष्ट्र में विविधताएँ और वैचित्र्य है। अलग-अलग समुदाय के धार्मिक विश्वास, पूजा-पद्धति, भाषा आदि में भी अन्तर दिखाई देता है। ऐसी स्थिति में एक सामान्य राष्ट्रीय हित का मार्ग खोजना कठिन हो जाता है। हमारे लोकतन्त्र ने इसी कठिन मार्ग को अपनाया है। इसके लिए हमारी संविधान सभा ने धर्म-निरपेक्ष लोकतान्त्रिक व्यवस्था का मार्ग निकाला है। इसका अर्थ यह है कि हम यह संकल्प कर चुके हैं कि किसी समुदाय-विशेष के धार्मिक विश्वासों में राज्य की ओर से कोई हस्तक्षेप नहीं होगा । सबको अपने-अपने मार्ग पर चलने की स्वतन्त्रता होगी। राज्य किसी एक धर्म को मान्यता नहीं देगा और सभी धर्मों के उन महान् आदर्शों को अपनाया करेगा जो मानवता के पोषक और उन्नायक हैं। यह मार्ग कठिन है। इसमें सहनशीलता, उदारता और धैर्य के साथ सभी काम करना जरूरी है। पर कठिन होने पर भी यही मार्ग मनुष्यता का सही मार्ग है।

इसमें भाषा सम्बन्धी समस्या कुछ अधिक जटिल है। हमारे देश के संविधान में बहुत विचार के बाद चौदह मुख्य भाषाओं को मान्यता गयी दी है। इनमें एक संस्कृत भी है। संस्कृत हमारे देश की बड़ी शक्तिशाली और समृद्ध भाषा रही है। हमारे हजारों वर्षों के इतिहास में पीढ़ियों तक देश के सर्वोत्तम विचारकों ने इस भाषा में अपने विचार लिपिबद्ध कर रखे हैं। इसलिए संस्कृत को देश की मुख्य भाषाओं में स्थान देना उचित ही हुआ है। बाकी तेरह भाषाएँ देश के विभिन्न भागों में बोली जाती हैं। ये सभी भाषाएँ हमारे राष्ट्र की सम्पत्ति हैं इसलिए इन सबकी समृद्धि से ही समूचे राष्ट्र की समृद्धि सम्भव है।

भाषा की समृद्धि उत्तम साहित्य से होती है। भाषा की समृद्धि से उसके बोलने वालों का जीवन स्तर ऊँचा उठता है। उनमें कार्य-कारण-परम्परा को सही-सही समझने की शक्ति विकसित है और उनके चरित्र में नैतिक निष्ठा का विकास होता है। राष्ट्र के सामूहिक सांस्कृतिक स्तर को ऊँचा उठाने का यह सर्वोत्तम उपाय है।

जो सरकार जनता के द्वारा चुनी जाती है उसमें जनता की भाषा का प्राधान्य होना स्वाभाविक ही है । परन्तु पिछले डेढ़-दो सौ वर्षों में हम एक पराधीन राष्ट्र के रूप में जीते रहे हैं। अँग्रेजी ने इस देश की शासन व्यवस्था के लिए अँग्रेजी भाषा को सारे देश में प्रचलित किया था और हमारी अपनी भाषाओं का विकास रुद्ध हो गया था। अँग्रेजी भाषा द्वारा शासन व्यवस्था चलाने का परिणाम यह हुआ है कि हमारे देशवासियों को, जो भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलते हैं, एकसूत्र में बाँधने का काम अँग्रेजी ही करने लगी है, हालाँकि विदेशी भाषा होने के कारण वह देश की विशाल जनता में ठीक से रींज-पींज नहीं सकी है। यही कारण है कि देश को एक सूत्र में बाँधने में वह कमजोर सिद्ध हुई है ।

अँग्रेजी भाषा बहुत समृद्ध भाषा है और आजकल संसार के कई समृद्ध देशों में राजभाषा के रूप में स्वीकृत है। पर है यह विदेशी भाषा ही और देश की समूची जनता का एक नगण्य अंश ही उसमें कुशलता प्राप्त कर सका है। जनता का राज्य होने पर सारी जनता यदि अपनी भाषा में शासन- तन्त्र और न्याय व्यवस्था को चलाने का अधिकार नहीं प्राप्त करती तो लोकतान्त्रिक व्यवस्था निश्चित रूप से कमजोर हो जाती है। संविधान बनाने वाले नेताओं के मन में यह प्रश्न बहुत प्रमुख रूप में उपस्थित था। इसको हल करने के लिए उन्होंने अपने देश की एक भाषा को चुना है जो विभिन्न राज्यों के आपसी व्यवहार की भाषा बहुत कुछ पहले से ही बनी हुई है। यह भाषा हिन्दी है। देश की लगभग आधी जनता इस भाषा को बोल या समझ लेती है। इसलिए ऐसा निश्चय किया गया है कि विभिन्न राज्यों में तो अपनी-अपनी भाषाएँ शासन व्यवस्था के लिए काम में लायी जाएँ परन्तु सारे देश के लिए और राज्यों के पारस्परिक सम्बन्ध के लिए हिन्दी भाषा का प्रयोग किया जाए। ऐसा करने से ही देश में हर अर्थों में लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था कायम होगी।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश में भाषाओं की प्रगति में काफी तेजी आयी है। कई राज्यों ने अपने राज-काज के लिए अपने क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा को स्थान दिया है और विश्वविद्यालयों में भी तेजी से देशी भाषाएँ माध्यम के रूप में व्यवहृत होने लगी हैं। परन्तु अँग्रेजी अभी बनी हुई है। उसे एकदम हटा देने में भी कठिनाई है। धीरे-धीरे देशी भाषाएँ अपना उपयुक्त स्थान प्राप्त करती जा रही हैं और हिन्दी के प्रचार का भी थोड़ा-बहुत प्रयत्न हो रहा है। जब तक हमारी अपनी भाषाएँ समृद्ध नहीं हो जातीं तब तक लोकतान्त्रिक व्यवस्था कमजोर ही बनी रहेगी।

'भारतवर्ष की अपनी समृद्ध संस्कृति को उजागर करने के लिए देशी भाषाओं को प्रोत्साहन देना बहुत जरूरी है। विदेशी भाषा में शिक्षा पाने से हमारा स्वतन्त्र चिन्तन कुण्ठित हो गया है। समूचे राष्ट्र के सांस्कृतिक अभ्युत्थान के लिए भी हमें अपनी भाषाओं को समृद्ध करना आवश्यक है।

यह प्रसन्नता की बात है कि स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद बहुत-सी बाधाओं और कठिनाइयों के होते हुए भी प्रादेशिक भाषाएँ उन्नति कर रही हैं। हिन्दी भी सार्वदेशिक भाषा के रूप को अवश्य प्राप्त कर रही है। इसमें अनेक विश्वविद्यालयों में एम. ए. तक की पढ़ाई हिन्दी में होने लगी है लेकिन अभी बहुत प्रयत्न की आवश्यकता है। जब तक आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के हर क्षेत्र में उत्तम साहित्य का निर्माण नहीं होता, तब तक भाषा सम्बन्धी परमुखापेक्षिता बनी रहेगी। आशा की जाती है कि शीघ्र ही हमारी देशी भाषाएँ इस प्रकार के साहित्य से समृद्ध हो जाएँगी और हिन्दी तो विशेष रूप से समृद्ध हो जाएगी। स्वराज्य तभी सार्थक होगा जब स्वभाषा की उन्नति होगी। जिस भाषा को साधारण जनता तक ज्ञान-विज्ञान पहुँचा सकता है, उसकी उपेक्षा करना बहुत हानिप्रद होगा ।

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