सुरमतिया गाय : बिहार की लोक-कथा

Surmatiya Gaay : Lok-Katha (Bihar)

एक जंगल में एक गाय रहती थी। उसका नाम सुरमतिया था। उसका एक बछड़ा था। वह दिनभर जंगल में घूम-फिर कर चरता था और साँझ होते ही अपने ठिकाने पर चला आता था।

एक दिन की बात है। सुरमतिया जंगल में चारा चर रही थी। तभी वहाँ एक बाघ आ गया। उसने गाय को ऐसे घेर लिया कि वह कहीं भाग नहीं सकती थी। वह अब अपनी जान देने को तैयार थी।

फिर भी अपने अंदर हिम्मत बटोर कर उसने बाघ से कहा, “हे वनराज! हमारा एकटा बाछा अछि। हम ओकरा दूध पिआ का अबैत छी। तखन अहां हमरा मारि कS खा जायब। ओन हमर बच्चा हमर बाट तकैत-तकैत मरि जायत।”

बाघ ने कहा, “तुम्हें अपने बेटे की चिंता है और मुझे अपने पेट की। तुम्हें मैं छोड़ दूँ और तू फिर आ जाएगी इसका कौन भरोसा है?”

सुरमतिया बोली, “वनराज! अहां हमर बात मानू। मैं अपने उस बछड़े की शपथ लेकर कहती हूँ कि मैं लौटकर ज़रूर आऊँगी। मुझे उतनी ही देर लगेगी जितनी देर में मेरे बछड़े का दूध से पेट भर जाएगा।”

बाघ को सुरमतिया की बात पर दया आ गई। उसने उसकी बात पर विश्वास कर लिया। सुरमतिया को इस भरोसे से उसने छोड़ दिया कि वह अपने बछड़े को दूध पिलाकर लौट आएगी।

सुरमतिया गाय हँसी-ख़ुशी जल्दी से अपने बछड़े के पास पहुँची और उसे भरपेट दूध पिलाया। जब बच्चा दूध पीकर मस्त हो गया तब उसने अपने बछड़े से कहा, “बाउ रे! तो अब हमर बाट नहि तकिहें। हम तं बाघकें वचन देने छियै तें ओकरे ओहि ठाम जाई छी। ओ हमरा मारि कऽ खा जायत। तें हमर-तोहर भेंट आब अंतीमे छी।”

अपनी माँ के मुँह से यह बात सुनकर बछड़े ने कहा, “माई! तनि हमहूँ तं देखियै जे बाघ की होइ छै। जब तुम्हें वह मारकर खा ही जाएगा, मुझे दूध पिलाने वाली माँ रहेगी ही नहीं इस दुनिया में तो मैं भी जीकर क्या करूँगा? यही अच्छा होगा कि बाघ मुझे भी मारकर खा जाए। माई! हमहूँ तोरे संग चलबौ।”

सुरमतिया अपने बेटे की बात सुनकर उधेड़बुन में पड़ गई। उसने उसे समझाने की बहुत कोशिश की, पर वह नहीं माना। उसने कहा, “तुम अभी छोटे हो। दीन-दुनिया देखना बाक़ी है। मेरा क्या है, मैं तो बूढ़ी हो चली हूँ। मर भी गई तो क्या फ़र्क़ पड़ेगा? इसलिए तुम नहीं जाओ।” बछड़ा नहीं माना और साथ चलने को तैयार हो गया।

अंत में सुरमतिया अपने बछड़े के संग बाघ के पास पहुँच गई। बछड़े ने वहाँ पहुँचते ही, स्थिति को क़ाबू में करते हुए बाघ से कहा, “बाघ मामा, बाघ मामा, प्रणाम! मेरी माँ को खाने से पहले आपको मुझे खाना पड़ेगा। मेरे माँस का मुलायम स्वाद आपको ख़ूब भाएगा। यदि मुझसे पेट नहीं भरेगा, तो फिर माँ को भी मारकर खा जाना।”

बाघ सुरमतिया गाय की अपने वचन के प्रति प्रतिबद्धता देखकर काफ़ी प्रसन्न हुआ। उसे यह विश्वास नहीं था कि गाय अपनी जान देने के लिए जान-बूझकर वापस लौटकर आएगी। उसने गाय से कहा, “वह मेरा दुश्मन होगा जो कोई भी मेरी बहन का माँस खाएगा। तुम दोनों को जंगल में जहाँ भी जाना है—जाओ, दिनभर घूमो-फिरो, जो भी खाना हो खाओ, पीओ और मौज़ करो। इस जंगल का मालिक तुम्हारा मामा है।”

इतना सुनकर सुरमतिया अपने बछड़े के साथ ख़ुशी-ख़ुशी घने जंगल की ओर चल दी।

(साभार : बिहार की लोककथाएँ, संपादक : रणविजय राव)

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