सूरत एक्सप्रेस (ओड़िआ कहानी) : दाशरथि भूयाँ
Surat Express (Odia Story) : Dasarathi Bhuiyan
यात्रीगण कृपया ध्यान दीजिए, गाड़ी नम्बर दो-दो-आठ-दो-सात पुरी-सूरत एक्सप्रेस चार नम्बर प्लैटफर्म पर कुछ ही देर में आने वाली है । पाठकगण भी कृपया ध्यान दीजिए ।
व्यथा और उत्सुकता को लिए दोपहर से ही ब्रह्मपुर रेल स्टेशन में इंतजार में बैठा था दीनबंधु । सुबह से ही गाँव से निकल पड़ा था । दोपहर तक स्टेशन में पहुंच गया था । ट्रेन के आने की घोषणा सुनकर दीनबंधु का मन प्रसन्न हो उठा । आखिरकार दीनबंधु के इंतजार को खत्म करते हुए ट्रेन आ गयी । रात के आठ बज कर पचपन मिनट पर सूरत एक्सप्रेस पहुँची थी ब्रह्मपुर स्टेशन में । अपने सामने ट्रेन को देख कर मन में खुशी की एक लहर फैल गयी ।
किसी यात्री को छोड़कर ट्रेन छूट न जाए, इसलिए ट्रेन के रुकने से पहले ही डिब्बे के अन्दर घुसने के लिए यात्रियों में धक्का-मुक्की आरम्भ हो गयी । ट्रेन के सभी डिब्बों में लोग खचाखच भरे हुए थे । दीनबंधु के सामने जो डिब्बा रुका उसमें वह चढ़ गया । ज्यादा भीड़ के कारण वह अन्दर घुस नहीं सका । दरवाजे के पास ही वह खडा रहा । सुबह से ही खाने-पीने का ठीक-ठिकाना नहीं था । अपने थके- मान्दे बदन को आराम पहुँचाने के लिए वह दोनों आँखों की पुतलियों को घूमाने लगा । सीट की संख्या से यात्रियों की संख्या ज्यादा थी । यात्रियों के शोर शराबे के बावजूद पाँच मिनट बाद ट्रेन छूटने लगी । धीरे-धीरे ट्रेन की गति तेज होती गयी । शरीर थका हुआ था और मन बोझिल । झरोखे के बाहर से आ रही हवा के झोंकों से आँखों में नींद उमडने लगी । उसने डिब्बे के फर्श पर निगाह डाली।मूँगफली के छिलके, केले के छिलके, संतरे के छिलके, फटे अखबारों के टुकडे, पान-मसाले के कटे हुए गुटके चारों ओर बिखरे हुए थे । ऊपर अंगोछा बिछाकर वह बैठ गया । जी.आर.पी. पुलिस ने आकर दरवाजे को बंद करते हुए पूछा- “यह आरक्षण का डिब्बा है । तेरा आरक्षण है क्या ?”
दीनबंधु ने हाँ-हाँ कह कर सिर हिलाते हुए सम्मति प्रकट की और परीक्षक को टिकट दिखाया । टिकट परीक्षक ने लाल आँखे दिखाते हुए कहा-“ टिकट होने से क्या होगा । यह संरक्षण डिब्बा है। समझे ।“
बाथ रूम से लौटते हुए एक यात्री ने एक और सहयात्री से टिकट परीक्षक और पुलिस की ओर इशारा करते हुए कहा- भई ! भारतीय रेल के ये संरक्षण डिब्बे धर्मशाला के समान हैं । सहयात्री के कहने का मतलब था कि यह बात टिकट परीक्षक और पुलिस बाबू तक पहुँचे। यात्री की शिकायत को सुन कर पुलिस ने दीनबंधु से पूछा- तुम कहाँ जाओगे ?
दीनबंधु ने उत्तर दिया-सूरत ।
पुलिस ने कहा- “आगे आंध्र की पुलिस छो़ड़ने वाली नहीं हैं । वे तुझ से जरूर जुरमाना वसूल करेंगी । अगले स्टेशन विजयनगरम् में गाड़ी आधा घण्टा रुकती है। वहीं उतर कर साधारण डिब्बे में पहुँच जाना ।“
दीनबंधु को ताकीद करते हुए पुलिस और टिकट परीक्षक भीड़ में आगे की ओर बढ़ चले । दीनबंधु को काफी थकावट महसूस हो रही थी । थैले को तकिया बना कर वह लेट गया। ट्रेन जितनी तेजी से आगे की ओर भाग रही थी, दीनबंधु का मन उतना पीछे की ओर लौट आ रहा था । जीवन की तमाम घटनाओं को वह याद करने लगा । एकान्त दु:ख और दर्द से उसकी आँखें छलछला उठीं । उसकी उम्र अब मेहनत करके धन कमाने की थी ही नहीँ। फिर भी वह परिस्थितियों से मजबूर होकर सूरत जा रहा था।
मन तीस साल अतीत की ओर लौटने लगा। वह पिछले तीस वर्षों से सूरत में एक मजदूर के रूप में काम करता आया है। उसके पैदा होते ही माँ उस पार चल बसी । घर में पिता और वह रह गये । खाने-पीने की परेशानी थी । बड़े होने के बाद सभी अपने लोगों ने उपदेश देते हुए कहा- दीनबंधु की शादी करवा दो, तो बाप बेटे दोनों को दो जून मुट्ठी भर खाने को मिल जाया करेगा ।
पच्चीस साल की उम्र में उसी गाँव की लडकी बनिता से उसकी की शादी हुई थी। गाँव में मजदूरी करके वह तंग हाल में अपना परिवार चला रहा था । पिताजी की म़ौत के बाद दीनबंधु अपने परिवार के साथ अपने ही राज्य के एक महानगार में मजदूरी करने आ गया था । शहर के छोर पर एक झोपड़ी में रह रहा था । बह रोज पक्का घर बनाने जाता था, लेकिन उसकी झोपड़ी का छप्पर घास-फूस का था । वह रोज दीवारों पर सीमेंट और मारबल चिपकाता था, लेकिन उसकी झोपड़ी की पुताई गोबर और मिट्टी से होती थी।
शहर के लेनिन चौक में रोज इंसानों का मोल-भाव हुआ करता है। इसलिए उस चौक में मजदूरों का जमावडा होता है। वह चौक तबदील होता है इंसानों की म़ंडी में। रोज वहाँ मजदूर सुबह-सुबह आकर डेरा डालते हैं अपना गुजारा करने के लिए। वह मंड़ी पेट भरने के लिए थी । मजदूरी के लिए उस मंडी में अभावों से जूझते हुए लोग खुद का मोल-भाव करते थे। मालिक और ठेकेदार के आने की राह देखते हुए मजदूर बैठा करते थे। कोई अपने घर के बाग-बगीचे की सफाई के लिये तो कोई गारा-सीमेंट ढुलवाने के लिए इन मजदूरों को ले जाते थे। काम पाने की आशा में हाथ में एक कुदाल लिए दीनबंधु रोज जाकर इंसानों की मण्डी में बैठ जाता था । कभी काम मिलता था, तो कभी काम मिलता नहीं था। जिस दिन काम मिलता नहीं था, उस दिन वह इंसानों की मण्डी से निराश होकर घर लौटता था।
पिछली रात बेटे की तबीयत बिगड़ जाने से वह तमाम रात सो नहीं पाया था। इसलिए उस दिन इंसानों की मण्डी में देर से पहुँचा था। मजदूरों को काम में लगाने का समय गुजर चुका था । वहाँ पहुँच कर काफी देर तक इंतजार करता रहा । फिर भी उसे किसीने बुलाया नहीं। काम मिलने की उम्मीद नहीं थी । एक पेड़ के तने से पीठ टेक कर दीनबंधु खड़ा रहा। सहसा एक ट्रैक्टर आकर वहाँ रुका। उसमें पहले से कुछ लोग बैठे हुए थे। ट्रैक्टर से एक आदमी उतर कर चौराहे के चारों ओर नजर दौड़ाने लगा ।
दीनबंधु ने उत्सुकता के साथ पूछा- किसे ढूंढ़ रहे हैं।
उस आदमी ने कहा – मजदूरों को ढूंढ़ रहा हूँ।
दीनबंधु के मन में खुशी की लहर उठने लगी । मन में असीम आनन्द फैल गया । वह खुश होकर कह उठा- मैं एक मजदूर हूँ ।
उस आदमी ने कहा- तो फिर ट्रेक्टर में जाकर बैठो। दीनबंधु बिना देर किये ट्रेक्टर के पीछे लगी ट्राली पर चढ़ गया। फिर टै्रक्टर चलने लगा। शहर के विभिन्न जगहों से मजदूरों को इकट्ठा करके उस ट्रेक्टर से लिया जा रहा था । मजदूर बातचीत कर रहे थे कि वे जिस काम के लिए जा रहे हैं, वह काम एक दिन का नहीं है। काफी दिनों तक चलने वाला है। दीनबंधु की आँखों में खुशी के आँसू छलक उठे। काफी दिनों तक काम मिलने वाला है। कल से उसे इंसानों की मण्डी में हाजिर होना नहीं पड़ेगा । ट्रेक्टर उसके घर से आने के रास्ते पर ही जा रहा था। इसलिए दीनबंधु ने सोचा कि शायद उसके रहने की बस्ती के आसपास के इलाके में काम चल रहा होगा । कुछ ही देर में ट्रेक्टर जाकर उसकी ही बस्ती में पहुँचा। दीनबंधु की खुशी पल भर में ही दु:ख में तबदील हो गयी । ट्रेक्टर से उतर कर उसने जो दृश्य देखा उससे उसका दिल दहल उठा । उसकी बस्ती को ढहाने में ढेर सारे डोजर लगे हुए थे। घरों के असबाब सब इधर-उधर बिखरे पड़े थे। ट्रेक्टर से आनेवाले मजदूरों से कहा गया कि उस जगह को सरकार ने एक बहुराष्ट्रीय कंपनी को लीज में दे दिया है। वहाँ एक सुपर मार्केट बनेगा । इसलिए सरकारी जमीन पर गैर कानूनी ढंग से मकान बनाने वालों को हटाया जा रहा है। तुम लोग यहाँ काफी दिनों तक काम करोगे। यदि कंपनी चाहेगी मार्केट बन जाने तक तुम लोग यहाँ काम कर सकते हो ।
दीनबंधु के इंसानों की मण्डी के लिए निकलने के बाद झुगी- झोपड़ियों को ढहाने का काम शुरू हो गया था। तहस-नहस हो चुकी झोपड़ियों की उस बस्ती के मलवों में दीनबंधु अपनी पत्नी बनिता और नन्हे बेटे टुकुना को ढ़ूँढने लगा। काफी ढ़ूँढने के बाद बनिता को एक बरगद के पेड़ के तले बैठा हुआ पाया। गोद में नन्हे बेटे को लिये वह सिसक-सिसक कर रो रही थी । कुछ और सोचे बिना वह परिवार के साथ सीधा गाँव चला आया था। बनिता को काफी समझाते हुए उसने कहा- तुम घर चला लोगी और बेटे की देख-भाल भी कर पाओगेी । मैं हर महीने रुपये भिजवा दिया करूँगा। उसके अगले दिन सुबह वह निकल पड़ा था सूरत के लिये । उस दिन वह पहली बार टै्रन में बैठा था। पहली बार अपने प्रदेश से बाहर जा रहा था। उस दीन से उसकी पीठ पर मजदूर की मुहर लग गयी थी।
विजयनगरम स्टेशन नजदीक आने लगा। “प्रायनकिलु डयाचेसि श्रद्धा वाहिनकाण्डि वाहान नम्बर रेंडु. रेंडु., एनमिडि, रेंडु, एडु, एडु पुरी-सूरत एक्सप्रेस टाकुभा समयांलु प्लैटफर्म नम्बर नालुगाभा स्थानानिकि बस्तयानि “- की घोषणा दीनबंधु के कान में बजने लगी । विजयनगरम स्टेशन में ट्रेन रुकी। हर एक ट्रेन के आरम्भ और अंत में साधारण डिब्बे लगे रहते हैं। दीनबंधु संरक्षण वाले डिब्बे से उतर कर पीछे वाले साधारण डिब्बे में घुसा। पैर रखने की जगह नहीं थी।सीट के ऊपर सामान रखने की जगह लोग सटे हुए बैठे थे। कोई किसी पर लदा हुआ सो रहा था। कोई-कोई बाईं तथा दाईं और लॉगेज रखने के श़ेड़ में औैरत की साडी को झूले की तरह बाँध कर उसमें सो रहे थे। दीनबंधु पाखाना के सामने खड़ा रहा। टिटिलागड़ स्टेशन में कुछ यात्रियों के उतर जाने के बाद फर्श पर बैठने के लिए थोड़ी-सी जगह मिली। बैठते ही उसका मन फिर एक बार गाँव की ओर लौटने लगा।
पिछले तीस बर्षो में उसने सूरत में कई घटनाएँ देखी हैं। १९९३ के सांप्रदायिक दंगे, १९९४ की प्लेग महामारी, २००६ की भयंकर बाढ़ और २०२०-२१ की कोरोना महामारी की पहली और दूसरी लहर से खुद को बचा लिया है। कपड़े के कारखाने के मजदूरों की एक भिन्न दिशा है. जो अनिश्चितता, मानसिक तनाव , व्यस्तता और चिंताओंसे भरी हुई है। यहाँ लागों की सुविधा के लिए कई चीजें हैं, लेकिन मानसिक शांति नहीं है। इसलिए कहा गया है कि भारत में दो देश हैं- पहला है भारत और दूसरा है इंडिया। दीनबंधु इंडियन नहीं है. वह भारतीय है। भारतीयों की जगह गाँवों में है। दूसरी और जो इंडियन हैं, वे शिक्षति और ऊंचे वर्ग के होते हैं। वे रहते है शहरों में। भारतीय जब इंडियन के शहर में आते हैं, तब वे आधुनिक शहरी जीवन के साथ कदम मिलाते हुए चल नहीं पाते हैँ और उन्हें कई प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। शहरी लोगों में रुपयों के पीछे भागने की प्रवृति ज्यादा है। धन बटोरने के बावजूद शांति शहरी वाशिंदाओंसे दूर रहती है। इंसान शहर में निसंग जीवन बिताता है। शहरी जीवन की व्यथाओंको पिछले तीस साल से वह अच्छी तरह झेलता आ रहा है।
दीनबंधु ने मन में ढेर सारे सपने संजोये थे। अब की बार गाँव आने के बाद वह फिर सूरत नहीं जायेगा। तमाम जीवन मजदूरी करके उसने पाँच एकड़ जमीन खरीदी है। अब उसमें वह सोने की फसल उगाएगा। नाती-पोतों के साथ हँसी ठिठोली करके अपना दु:ख भूाला जएगा। अधेड़ उम्र में गाँव में चैन से रहेगा। शहर उसे बिलकुल अच्छा नहीँ लग रहा है।
उसने बोरा-बिस्तर बाँध लिया था। तीस बषोँ से अपने पास रखा हुआ सामान गाँव ले जाना संभव नहीं है। जितना सामान लिया जा सकता है। उतना भी साधारण डिब्बे में लेना संभव नहीं है। अपनी कंपनी के सभी मजदूर साथियों को उसने बता दिया था कि अब वह सूरत लौट कर दोबारा नहीं आएगा । नाती-पोतों के लिए ड्रेस, पत्नी और बहुओंके लिए साड़ी, बेटों के लिए कपड़ा और कुछ मिठाइयाँ खरीद कर उसने अपना बोरा-बिस्तार तैयार कर दिया था।
कपड़े के कारखाने के मालिक को जाकर मन की बात बतायी। मालिक ने आशीर्वाद देते हुए कहा- “ग्राममाम् जब अने त्याप् सुखी जीवन जिबो। मारि आशीर्वाद तमारि साथे।’ अर्थात् गाँव में जाकर सुखमय जींवन जियो। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।
वह खुश होकर स्टेशन पहुँचा । आरक्षण का टिकट लेकर जाने की तारीख का इंतजार करने लगा। जब हम उत्साह के साथ किसी चीज का इंतजार करते है, तब समय कछुए से भी धीमी गति से चलने लगता हैं । घड़ी की सुइयाँ इतनी धीम़ी चलती हुइ लगती हैंै कि मानोदुनिया का सारा आलस्य उनमें समा गाया हो।
आसमान को छूने वाली इमारतों. चौड़ी सड़कों और पंचतारका होटलों से भरपूर, व्यापारियों का वस्त्र –शिल्प शहर सूरत देश के सभी इलाकों के मजदूरों को निमंत्रण देता है। लेकिन इस शहर का एक और अंधकार से भरा हुआ चेहरा है। वह है मजदूरों के दु:ख ओर पीड़ा का। सूरत के पांडेशर, उधाना इलाके में तापी नदी के किनारे की झोपड़-पट्टियों में उसने दु:ख और पीड़ा के साथ एक मजदूर की जिन्दगी गुजारी थी। हमेशा के लिेए सूरत शहर को अलविदा कहने का मुहूरत आ गया था दीनबंधु के लिये। वह दिन था दीनबंधु के जीवन का अंतिम मजदूरी का दिन । सुबह साढ़े आठ बजे का समय । दीनबंधु एक नम्बर प्लैटफार्म में पहले ही पहुँच गया था और ट्रेन के इंतजार में था।
घोषणा हुई- यात्रीगण कृपया ध्यान दें, गाड़ी नम्बर दो, दो, आठ, दो, आठ सूरत –पुरी एक्सप्रेस शीघ्र ही प्लैटफार्म नम्बर एक पर आ रही है। पाठक भी कृपया ध्यान दें...।
सिग्नल मिलने के बाद गाड़ी छूटने लगी थी। ट्रेन के झरोखे के बाहर अलविदा कहने के लिए कई हाथ लहराने लगे थे। विदा करने के लिए आये हुए साथियों के लहराते हाथों का फासला बढ़ता जा रहा था। थोड़ी देर बाद साथियों के जाने-पहचाने चेहरे अब दिखाई नहीं पड़े । भुसबल, अकोला, वर्धा , नागपुर, भिलाई, रायपुर , विजयनगरम इस तरह एक के बाद एक स्टेशन को पार करते हुए ट्रेन आ रही थी ओड़िशा की ओर । एक –एक स्टेशन को पार करते ही गाँव की दूरी कम होती जा रही थी । आने वाले दिनों में गाँव में गुजारा करने के सारे दृश्य दीनबंधु के मन में साफ उभरते जा रहे थे, जिस तरह चित्रित कला कृति से ड्रेसिंग पेपर को धीरे-धीरे हटाने के बाद चित्र साफ दिखाई पड़ने लगता है। वह कई बार सूरत से अपने गाँव और गाँव से सूरत आ जा चुका है। पर उस दिन के उन्माद को उसने पहले कभी महसूस नहीं किया था। घर, परिवार, पत्नी, बच्चे सबके होते हुए भी वह एकाकी जीवन जी रहा था। वह सोचता रहा कि उसके लिए शादी का मायने ही क्या था? क्या वह शारीरिक आवश्यकता ही थी, जिसे आदर्श का मुकुट पहना कर सम्मान प्रदान किया गया था। यदि पति-पत्नी के आत्मिक मिलन की समीक्षा की जाए, तब विवाह आठ साल के बाद या पचास साल के बाद भी किया जा सकता है। अपनी पत्नी की बात सोचते हुए उसने गहरी साँस ली। अगले ही पल खुद को ढाढ़स बँधाते हुए कहा कि ठीक है, अब तो समय आ गया है- अपनी पत्नी के साथ जीवन गुजारने का।
सही समय पर ट्रेन ब्रह्मपुर स्टेशन में पहुँची । घोषणा हुई- यात्रीगण कृपया ध्यान दें, गाड़ी नम्बर दो, दो, आठ, दो, सूरत-पुरी ऐक्सप्रेस एक नम्बर प्लैटफार्म में पहुँच चुकी है..? पाठक भी कृपया ध्यान दीजिए। कितनी आशाएँ लेकर दीनबंधु गाँव लौटा था, लेकिन हुआ क्या?
मन में अनेक आशा और आकांक्षाओंतथा बाकी जीवन के बेशुमार सपनों को लेकर दीनबंधु गाँव जानेवाली बस में बैठा । उसने तमाम जीवन खुद मजदूरी करके धन कमाया है। सारा जीवन खूब मेहनत की है। एक बेटी और दो बेटों को पढ़ाया लिखाया है। उनका विवाह करवाया है। गाँव में पक्का मकान बनवाया है । पाँच एकड़ की जमीन खरीदी है। अब वह, अपने बचे-खुचे जीवन को अपने प्रिय लोगों के साथ स्नेह और सम्मान के साथ बिताना चाहता है।
जिस दिन दीनबंधु घर पहुँचा उस दिन परिवार में सब खुश थे। वह जो सब सामान लेकर आया था, उसे दोनों बहुओंने आपस में बाँट लिया। कुछ दिनों बाद दीनबंधु को अहसास हुआ कि धीरे-धीरे उसके प्रति घर के लोगों की श्रद्धा घटती जा रही है। दोनों बहुओंके बीच रसोई बनाने, झा़ड़ू -बुहार करने, बर्तन माँजने और घर की साफ-सफाई करने को लेकर झगड़ा चल रहा है। नाती-पोतों के ट्युशन की फीस, ड्रेस और मोबाइल को लेकर खींचातानी, खेत के बँटबारे को लेकर दोनों भाईयों में अनबन आदि कई कारणों से उसे अपना ही घर न जाने क्यों अजीबसा लग रहा था। दोनों बेटे कम पढ़े लिखे हैं और बेकार हैं । दोनों बहुओं के ऐशोआराम के मनोभाव से व्यथित पत्नी बनिता सिर्फ घर के काम-काज में लगी रहती है। खटते-खटते शरीर कमजोर हो गया है। आँखें धँस गयी हैं और शरीर छीजने लगा है। वे बीमार लग रही हैं। काफी कमजोर हो जाने के बाद भी उन्हें घर के काम से फुरसत मिलती नहीं है। दीनबंधु की देख-भाल करने के लिए भी उन्हें फुरसत मिलती नहीं है। इसलिए उसे अपनी पत्नी से भी अपनेपन का अनुभव नहीं मिला। बेटे और बहुओंकी अवहेलना को लेकर कई बार उसने अपनी पत्नी को कहना चाहा है, पर कह नहीं पाया है। एक दिन दीनबंधु ने अभिमान में आकर पूछा कि तुम्हारे होते हुए भी मैं बहुओंका परोसा खाना क्यों खाऊँ? पत्नी ने कहा- “जब से तुम आये हो, उस दिन से मेरी सेहत के बारे में कभी पूछा? जिस दिन मैं नई दुलहन बन कर तुम्हारे घर आयी थी, उसके कुछ दिनों के बाद ही तुम मुझे सारा जीवन अकेला छोड़ कर विदेश में रहने लगे। तीन-तीन बच्चों को पैदा करके मैंने उन्हें सँभाला। दीनबंधु ने कहा- मैं क्या तुम्हारे पास आता नहीं था या कमाता नहीं था। साल में दो-चार बार आता था। गाँव में हमेशा के लिए रह जाता तो परिवार कैसे चलता? बच्चों की पढ़ाई-लिखाई कैसे होती? ठीक है, जाने दो पहले की बातों को। अब तुम्हें क्या हुआ है ?
बनिता ने कहा – मुझे लगता है कि मैं शीघ्र ही मर जाऊंगी।
इस तरह की अमंगल बातें करती क्यों हो-“दीनबंधु ने खीजते हुए कहा”। ”
बनिता ने कहा- “सच में न जाने क्यों मैं इतना कमजोर महसूस कर रही हूं, यह मैं भी समझ नहीं पा रही हूँ। सिर हमेशा चकराने लगता है। आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है। बहू बेटे कभी हस्पताल ले कर नहीं गये। उन्हंे कई बार कहा है। सिर्फ बगल वाली दवाई की दुकान से गोलियाँ ले आकर अपनी जिम्मेदारी निभा लेते हैं। सोचा था तुम आने के बाद मेरी देख-भाल करोगे। लेकिन...!
“कल हस्पताल जाएँगे ।” -दीनबंधु ने ढाढ़स बँधाते हुए कहा था। दोनों की बातचीत से एक दूसरे के प्रति मान-मनौअल साफ झलक उठी थी, और दोनों के मन से वह मिट गयी थी । उसके अगले दिन सुबह दीनबंधु अपनी पत्नी को लेकर सरकारी हस्पताल में पहुँचा था। डाक्टर की रिपोर्ट देखकर दीनबंधु का चेहरा पीला पड़ गया। डाक्टर की रिपोर्ट के हिसाब से बनिता को ब्रेन कैंसर हुआ है। वह अब ज्यादा दिन जी नहीं सकती। फिर भी उसने आशा नहीं छोड़ी। राजधानी भुवनेश्वर ले जाकर बड़े डाक्टर को दिखाया। सूरत से जो कुछ धन लेकर आया था, वह थोड़े दिनों में खत्तम हो गया। फिर यार- दोस्तों से उधार लेकर पत्नी का इलाज करवाया। काफी कोशिशों के बाद भी पत्नी की जिन्दगी बच नहीं सकी। पत्नी के इलाज के खर्चे के साथ-साथ शुद्धि-क्रिया का खर्च कोढ़ पर खाज की तरह हो गया। कर्जा कैसे चुकाया जाएगा उसके लिए बहू-बेटों को कोई परवाह नहीं थी। उनके हाव-भाव से पता चल रहा था कि उन्हं कर्ज के बारे में कुछ पता ही न हो। उनकी नजर में दीनबंधु अपने परिवार के लिए धन कमाने की एक मशीन मात्र हो । दीनबंधु की मानसिक पीड़ा को कोई समझ नहीं पा रहा था। दीनबंधु को महसूस हुआ कि परिवार के लिए वह एक बोझ के अलावा ओर कुछ नहीं है। बह समझ गया कि खून ओर मन का संपर्क बिलकुल अलग है। पिछले तीस बषों से परिवार से अलग रहने के कारण परिवार के सभी सदस्यों के लिए वह पराया हो गया है। फिर भी उसने परिवार का हिस्सा बनने की कोशिश की थी। आधुनिक पीढ़ी के लिए अपने पारिवारिक जीबन में चली आ रही सामाजिक मूल्यबोध के लिए कोई स्थान नहीं है। सूरत से लौटकर परिवार के सदस्यों से उसे जो उम्मीद थी, वैसा कुछ नहीं मिला था। वह तमाम जीवन परिवार के सुख ओर स्नेह से वंचित था। तीस साल तक अकेला एक मजदूूर का जीवन गुजारने के बाद वह अपने परिवार में लौटा था। आखिर उसे मिला क्या? अपने लोगों की आत्मीयता की तलाश में वह लौट आया था। लेकिन वह मृगमरीचिका और झूठे सपनों से कुछ अलग नहीं था। उसे ही अपनी पत्नी के इलाज के लिए तथा शुद्धि-क्रिया के लिए किये गये कर्जे को चुकाना होगा।
इसलिए दीनबंधु फिर से सूरत लौटने के लिए मजबूर था। जिस दिन वह सूरत जाने की तैयारी कर रहा था, उस दिन वह महसूस कर रहा था कि परिवार के सभी सदस्य काफी खुश हैं। सूरत के लिए वह दूसरी बार लौट रहा था।
“सूरत शहर आपनाके स्वागत जानाय। मुसाफरों मेहरजानी करिने नोंध लेशो के वाहन नम्बर बे,बे आठ, बे, सात पुरी-सूरत एक्सप्रेस पहेलाथि जा प्लैटफार्म नम्बर चार पर पहोंच गये छे। ”
सिर्फ गाँव और परिवार की बात सोचते हुए ट्रेन का उसका सफर खत्म हो गया था। रात के साढ़े दस बजे सूरत स्टेशन में उतर कर दीनबंधु अटोरिक्शा लिये अपनी उस पुरानी मजदूरों की बस्ती में पहुँचा । जिन्दगी जिस रास्ते से लेना चाहती है, इंसान को उसी रास्ते से ही गुजरना होता है। कभी-कभी जिन्दगी क्या है उस पर चिन्तन करने के लिए इंसान को मौका मिलता भी नहीं है। जिन्दगी में जिसे सुख नहीं मिलता उसे सिर्फ कई तजरुबे मिलते हैं। सुख की तलाश में बार- बार गुमराह होकर भटका है दीनबंधु अपने जीवन में। जीवन में गुमराह हो कर फिर एक बार दीनबंधु उसी जगह लौट आया है, जहाँ दोबारा कभी वह लौटना चाहता न था। बस्ती में मजदूर खंजडी बजाते हुए भजन-कीर्तन में मस्त थे। कोई एक बाबा गा रहे थे ओर बाकी सब दोहरा रहे थे।
उसकी अन्तरात्मा को समझने वाला कोई नहीं था ........ कोई नहीं था भाई, कोई नहीं था ;
उसके आँसुओं से भीगें अलिखित पत्र को पढ़ने वाला कोई नही था.. ........ कोई नही था भाई कोई नही था;
शब्द विहीन उसके मौन को कोई सुन नहीं पा रहा था.. ........ भाई सुन नहीं पा रहा था;
इस दुनिया में वह अकेला आया है, अकेला जाएगा.. ........ अकेला जाएगा भाई अकेला जाएगा;
जिन्दगी खुद के लिए जीना नहीं है.. ........ खुद के लिए नहीं भाई खुद के लिए
जिन्दगी एक वास्तविकता है .. ........ सपना नहीं है भाई सपना नहीं ।
दीनबंधु को देख कर पहले से परिचित मजदूर साथी भजन-कीर्तन के स्थान से उठ कर आये और उसे गले लगा लिया । दीनबंधु की आँखें छलछला उठीं ।